सिंचाई जल के अवैज्ञानिक उपयोग के बारे में संक्षेप में चर्चा

प्रश्न: सिंचाई जल का अवैज्ञानिक उपयोग भारत में विभिन्न पारिस्थितिकीय समस्याओं को बढ़ा रहा है। स्पष्ट कीजिए।

दृष्टिकोण:

  • भारत में सिंचाई के वर्तमान परिदृश्य के संदर्भ में संक्षिप्त विवरण देते हुए उत्तर प्रारम्भ कीजिए।
  • सिंचाई जल के अवैज्ञानिक उपयोग के बारे में संक्षेप में चर्चा कीजिए।
  • इससे उत्पन्न पारिस्थितिकीय खतरों को सूचीबद्ध कीजिए।
  • आगे की राह सुझाते हुए उत्तर समाप्त कीजिए।

उत्तर:

भारत में कुल उपलब्ध जल के लगभग 84 प्रतिशत भाग का केवल सिंचाई में उपयोग किया जाता है, जबकि औद्योगिक एवं घरेलू क्षेत्र में इसका उपभोग क्रमशः 12 और 4 प्रतिशत है। भारत अपनी सिंचाई संभाव्यता के लगभग 80% का पहले से ही उपभोग कर रहा है। यद्यपि यह सिंचाई के व्यापक विस्तार को दर्शाता है, तथापि सिंचाई जल के अवैज्ञानिक उपयोग से अनेक समस्याएं उत्पन्न हुई हैं।

ऐसे अनेक कारक विद्यमान हैं जो सिंचाई जल के अवैज्ञानिक उपयोग को बढ़ावा देते हैं, जैसे निम्न सिचाईं दक्षता; निम्न जल प्रबंधन; अप्रभावी भूजल नीति; अत्यधिक विद्युत सब्सिडी आदि। सिंचाई जल स्रोतों (भूजल 62%, नहर 24%) और सिंचाई दक्षता में उच्च असमानता के साथ सिंचाई जल के अविवेकपूर्ण उपयोग से पारिस्थितिकीय, कृषि संबंधी, आर्थिक और मानवीय समस्याओं में वृद्धि होती है।

सिंचाई जल के अवैज्ञानिक उपयोग के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली पारिस्थितिकीय समस्याएं:

  • लवणता, क्षारीयता और जलभराव: दोषपूर्ण सिंचाई पद्धति तथा उचित एवं पर्याप्त जल निकासी संबंधी सुविधाओं की अनुपलब्धता के कारण न केवल अपव्यय, बल्कि लवणता और क्षारीयता में भी वृद्धि हुई है। इससे भूमि का निम्नीकरण होता है और ऐसी परिस्थितियों का सृजन होता है जो पौधों की जड़ों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती हैं।
  • महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्रों का ह्रास: नदी जल मार्ग में अवरोध उत्पन्न करने वाली या नदी जलमार्ग में परिवर्तन हेतु उत्तरदायी वृहद् सिंचाई परियोजनाओं से पर्यावरणीय असंतुलन में वृद्धि होती है। साथ ही नदी जल के प्रवाह में कमी के कारण पारिस्थितिकीय और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण आर्द्रभूमियों या तटीय वनों का ह्रास भी होता है।
  • तटीय भूमि अपरदन और लवणीय जल का प्रवेश: सिंचाई के लिए अवरोधन और परिणामस्वरूप नदी जल के प्रवाह में कमी के कारण स्थलीय क्षेत्रों से समुद्र की ओर होने वाले जल प्रवाह में कमी आती है। फलतः तटीय भूमि अपरदन में तथा नदी एवं निकटवर्ती भूजल संसाधनों की लवणता में वृद्धि हो सकती है।
  • निचले क्षेत्रों (डाउनस्ट्रीम) में जल की गुणवत्ता में कमी: ऊपरी क्षेत्रों (अपस्ट्रीम) में भू-उपयोग, सिंचाई क्षेत्र में प्रवेश करने वाले जल की गुणवत्ता को प्रभावित करता है और डाउनस्ट्रीम पारिस्थितिक तंत्रों हेतु जल आपूर्ति में भी कमी करता है।
  • जैव विविधता पर प्रभाव: चूंकि जल अपवाह मृदा परिच्छेदिका में प्रवेश करता है अतः इससे पोषक तत्वों का विघटन होता है और यह भूजल-जलभृत में इन पोषक तत्वों के एकत्रण को प्रेरित करता है। पेयजल में उच्च नाइट्रेट का स्तर मनुष्य और अन्य जीवों के लिए हानिकारक हो सकता है। इसके अतिरिक्त, पोषक तत्वों की प्रचुरता शैवाल प्रस्फुटन (algal blooms) का कारण बनती है तथा यह जलीय जीवन को प्रभावित कर सकती है।
  • भू-उपयोग में परिवर्तन: यह भू-उपयोग प्रतिरूपों को परिवर्तित कर सकता है, जिससे शेष भूमि पर पशुधन संबंधी दबाव उत्पन्न हो सकता है। इससे अत्यधिक चारण हो सकता है जो मृदा अपरदन का कारण बनता है।
  • जलवायु परिवर्तन संबंधी सुभेद्यता: भूजल स्तर में कमी और अत्यधिक जल निष्कर्षण के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन संबंधी अनिश्चितताओं में वृद्धि हो सकती है।
  • वर्षण प्रतिरूप में अस्थिरता: अवैज्ञानिक सिंचाई के कारण वाष्पीकरण में वृद्धि होती है जो वर्षा को प्रभावित कर वायुमंडलीय परिवर्तनों को उत्पन्न करती है।

नीतिगत बदलाव तथा प्रौद्योगिकी आधारित आधुनिक पद्धतियों (जैसे कि ड्रिप सिंचाई, परिशुद्ध कृषि (precision farming) आदि) के माध्यम से उचित जल प्रबंधन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। साथ ही अनुसंधान, वैज्ञानिक शोध और नीति निर्माण से पूर्व सभी हितधारकों से परामर्श किया जाना चाहिए। जल प्रबंधन में समुदायों की भूमिका को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) जैसी योजनाएं, वर्टीकल फार्मिंग और शुष्क-भूमि कृषि प्रथाएं समग्र सिंचाई दक्षता से संबंधित समस्याओं का समाधान करने में सहयोग कर सकती हैं। ऐसी पहले सतत विकास लक्ष्यों के तहत सम्मिलित स्थायी सिंचाई उद्देश्यों को प्राप्त करने में भी सहायता कर सकती हैं।

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