साहित्य और समाज पर निबंध

साहित्य और समाज दोनों ही एक-दूसरे के पूरक माने जाते हैं। साहित्य समाज के मानसिक तथा सांस्कृतिक उन्नति और सभ्यता के विकास का साक्षी है। ज्ञान राशि के संचित कोष को साहित्य कहा जाता है। साहित्य एक ओर जहां समाज को प्रभावित करता है वहीं दूसरी ओर वह समाज से प्रभावित भी होता है। साहित्य शब्द की उत्पत्ति दो शब्दों से मिलकर हुई है पहला शब्द है ‘स’ जिसका मतलब होता है साथ-साथ जबकि दूसरा शब्द है ‘हित’ अर्थात कल्याण। इस तरह से साहित्य का अभिप्राय ऐसी लिखित सामग्री से है जिसके प्रत्येक शब्द और प्रत्येक अर्थ में लोक हित की भावना समाई रहती है। प्रत्येक युग का साहित्य अपने युग के प्रगतिशील विचारों द्वारा किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित होता है। साहित्य हमारी कौतूहल और जिज्ञासा वृत्तियों और ज्ञान की पिपासा को तृप्त करता है और क्षुधापूर्ति करता है।

साहित्य से ही किसी राष्ट्र का इतिहास, गरिमा, संस्कृति और सभ्यता, वहां के पूर्वजों के विचारों एवं अनुसंधानों, प्राचीन रीति रिवाजों, रहन-सहन तथा परंपराओं आदि की जानकारी प्राप्त होती है। साहित्य ही समाज का आईना होता है। किस देश में कौन सी भाषा बोली जाती है, उस देश में किस प्रकार की वेशभूषा प्रचलित है, वहां के लोगों कैसा रहन सहन है तथा लोगों के सामाजिक और धार्मिक विचार कैसे हैं आदि बातों का पता साहित्य के अध्ययन से चल जाता है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में ‘साहित्य सामाजिक मंगल का विद्यालय है यह सत्य है कि व्यक्ति विशेष की प्रतिभा से ही साहित्य रचित होता है किंतु और भी अधिक सत्य यह है कि प्रतिभा सामाजिक प्रगति की ही उपज है।’

साहित्यकार को समाज का छायाकार या चित्रकार भी कहा जाता है क्योंकि साहित्यकार अपनी कृति को समाज में चल रही मान्यताओं और परंपराओं के वर्णन द्वारा ही सजाता है इसलिए साहित्य और समाज में अन्यायोश्रित संबंध प्रत्येक देश के साहित्य में देखने को मिल जाता है। कबीर ने अपने समय के आडंबरों, सामाजिक कुरीतियों और मान्यताओं के विरोध में अपनी आवाज उठाई। ठीक इसी तरह प्रेमचंद ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में किसी न किसी समस्या के प्रति संवेदना जताई है। कोई भी साहित्यकार चाहे कितना भी अपने को समाज से अलग रखना चाहे लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाता है।

कवि वाल्मीकि की पवित्र वाणी आज भी हमारे ह्रदय मरूस्थल में मंजु मंदाकिनी प्रवाहित कर देती है। गोस्वामी तुलसीदास जी का अमर काव्य आज अज्ञानान्धकार में भटकते हुए असंख्य भारतीयों का आकाशदीप की भाँति पथ-प्रदर्शन कर रहा है। कालिदास का अमर काव्य भी आज के शासकों के समक्ष रघुवंशियों के लोकप्रिय शासन का आदर्श उपस्थित करता है। आज भारतवर्ष युगों युगों से अचल हिमालय की भांति अडिग खड़ा है, जबकि प्रभंजन और झँझावात आए और चले गए। यदि आज हमारे पास चिर-समृद्ध साहित्य ना होता तो ना जाने हम कहां होते और होते भी या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता था।

साहित्यकार समाज का प्राण होता है। समाज में रहकर समाज की रीति-नीति, धर्म-कर्म और व्यवहार वातावरण से ही अपनी रचना के लिए प्रेरणा ग्रहण करता है और लोक भावना का प्रतिनिधित्व करता है। अतः समाज की जैसी भावनाएं और विचार होंगे वैसा ही तत्कालीन साहित्य भी होगा। इस प्रकार सामाजिक गतिविधियों तथा समाज में चल रही परंपराओं से समाज का साहित्य अवश्य ही प्रभावित होता है। साहित्यकार समाज का एक जागरूक प्राणी होता है। वह समाज के सभी पहेलूओं को बड़ी गंभीरता के साथ देता है और उन पर विचार करता है फिर उन्हें अपने साहित्य में उतारता है।

साहित्य समाज से भाव सामग्री और प्रेरणा ग्रहण करता है तो वह समाज को दिशाबोध देकर अपने दायित्व का भी पूर्णतः अनुभव करता है। परमुखापेक्षीता से बचाकर उनमें आत्मबल का संचार करता है। साहित्य का पांचजन्य उदासीनता का राग नहीं सुनता, वह तो कायरों और पराभव प्रेमियों को ललकारता हुआ एक बार उन्हें भी समर भूमि में उतरने के लिए बुलावा देता है। इसलिए श्री महावीर प्रसाद जी ने साहित्य की शक्ति को तोप, तलवार, तीर और बम के गोलों से भी बढ़कर स्वीकार किया है। बिहारी के एक दोहे से-

नहिं पराग नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल।

अली कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल।।

राजा जयसिंह को अपने कर्तव्य का ज्ञान हो गया और उसके जीवन में बदलाव आ गया। भूषण की वीर भावों से ओतप्रोत ओजस्वी कविता से मराठों को नव शक्ति प्राप्त हुई। इतना ही नहीं स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान जैसे कई कवियों ने अपनी ओजपूर्ण कविताओं से न जाने कितने युवा प्राणों में देशभक्ति की भावना भर दी।

तात्पर्य यह है कि समाज के विचारों, भावनाओं और परिस्थितियों का प्रभाव साहित्यकार और उसके साहित्य पर निश्चित रूप से पड़ता है। अतः साहित्य समाज का दर्पण होना स्वाभाविक ही है। साहित्य अपने समाज का प्रतिबिंब है, वह समाज के विकास का मुखर सहोदर है।

(Words: 782)

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