भारत में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों की स्थिति के संदर्भ में एक संक्षिप्त परिचय
प्रश्न: भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 में हालिया संशोधन प्रवर्तन के प्रति अति उत्साह और भ्रष्ट लोक सेवकों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की आवश्यकता के बीच एक संतुलन कायम करता है। चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण
- भारत में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों की स्थिति के संदर्भ में एक संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में हालिया संशोधन के कुछ प्रावधानों का उल्लेख कीजिए।
- समझाइये कि किस प्रकार यह प्रवर्तन के प्रति अति उत्साह और कठोर कार्यवाही की आवश्यकता के बीच संतुलन कायम करता
उत्तर
दशकों से भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के प्रवर्तन में होने के बावजूद, भ्रष्टाचार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति, नौकरशाही और कॉर्पोरेट, तीनों ही क्षेत्रों में मौजूद है। ग्लोबल करप्सन परसेप्शन इंडेक्स 2017 में, भारत को 81वें स्थान पर रखा गया है, जिससे सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार चिंता के एक प्रमुख विषय के रूप में स्थापित होता है।
इसके साथ-साथ, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के कुछ प्रावधानों के कारण सरकारी कर्मचारियों में जांच एजेंसियों का भय व्याप्त है, जिससे प्रशासनिक गतिहीनता को बढ़ावा मिला है। पूर्व के अधिनियम के अस्पष्ट एवं व्यापक क्षेत्र ने प्रवर्तन एजेंसियों को अत्यधिक मात्रा में एवं मनमाने अधिकार दिए हैं, जिससे इन अधिकारों के दुरूपयोग के मामले देखे गए हैं।
भ्रष्टाचार अधिनियम, 1988 में हालिया संशोधन निम्नलिखित रूप में, इन कमियों को दूर करते हुए प्रवर्तन के प्रति अति उत्साह और कठोर कार्यवाही की आवश्यकता तथा भ्रष्ट लोक सेवकों के विरुद्ध कार्यवाही के मध्य संतुलन स्थापित करेगा:
- जांच के लिए पूर्व अनुमोदन : यह किसी लोक सेवक द्वारा किए गए कथित अपराध के संबंध में किसी भी प्रकार की जांच हेतु सक्षम प्राधिकारी के पूर्व अनुमोदन को अनिवार्य बनाता है। हालांकि, जब आरोपी को रंगे हाथ पकड़ा जाता है तब यह प्रावधान लागू नहीं होता है।
- आपराधिक कदाचार को पुनःपरिभाषित करना: इस अधिनियम में किए गए संशोधन के तहत, आपराधिक कदाचार की श्रेणी में अब केवल दो ही अपराध शामिल होंगे
- लोक सेवकों को सौंपी गई परिसंपत्तियों का दुरुपयोग
- ज्ञात स्रोतों से होने वाली आय से अधिक संपत्ति धारण करना
अब इसमें यह प्रावधान जोड़ा गया है कि आय से अधिक संपत्ति होने की स्थिति में ऐसी संपत्ति के अधिग्रहण के प्रयोजन को भी सिद्ध करना आवश्यक होगा।
वास्तव में जहाँ यह कानून ईमानदार लोक सेवकों को संरक्षण प्रदान करता है, वहीं निम्नलिखित प्रावधानों के माध्यम से भ्रष्ट लोक सेवकों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करेगा :
- रिश्वत: रिश्वत देने को प्रत्यक्ष अपराध बना दिया गया है, इसके साथ ही जबरन दी जाने वाली रिश्वत के मामले में एक सुरक्षोपाय अपनाया गया है- यदि कोई व्यक्ति रिश्वत के ऐसे मामले की सूचना 7 दिनों के अन्दर प्रवर्तन प्राधिकारी को देता है तो उस व्यक्ति पर इस अपराध का आरोप नहीं लगाया जाएगा। इससे पहले, रिश्वत देने वाले को किसी भी प्रकार के दंड से उन्मुक्ति प्राप्त थी, और इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला।
- समयबद्ध सुनवाई: मामले को विशेष न्यायाधीश को सौंपे जाने की स्थिति में समयबद्ध सुनवाई के लिए दो वर्ष की अवधि का प्रावधान किया गया है। किसी भी तरह के विलंब की स्थिति में, 6 महीने तक के प्रत्येक विस्तार के लिए पर्याप्त कारण अवश्य दर्ज किया जाना चाहिए। हालांकि, किसी भी स्थिति में सुनवाई की अवधि को 4 वर्ष से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता है।
- अपराधों के लिए दंड/जुर्माना : यह रिश्वत लेने के मामले में दिए जाने वाले दंडात्मक प्रावधानों में संशोधन करता है तथा साथ ही भ्रष्टाचार में संलिप्त लोक सेवकों की सम्पति को जब्त करने संबंधी शक्तियों और प्रक्रियाओं को भी प्रस्तुत करता है।
सरकारी प्रयासों की सफलता और सकारात्मक परिणाम सुनिश्चित करने के लिए, नौकरशाहों को इस संबंध में आश्वस्त करने की आवश्यकता है कि उनके द्वारा लिए गए किसी भी प्रामाणिक आर्थिक निर्णय हेतु उन्हें भविष्य में जांच एवं अभियोजन प्रक्रियाओं का लक्ष्य नहीं बनाया जाएगा। इसलिए, यह अपेक्षा की जा रही है कि अधिनियम में किए गए संशोधन नौकरशाही में निर्णयन प्रक्रिया को त्वरित करने, उनके मनोबल को पुनः बहाल करने तथा नौकरशाही की कार्यपद्धति को सक्रिय बनाने में सहायक होंगे।
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