इंडो-इस्लामिक स्थापत्य कला का संक्षिप्त वर्णन
प्रश्न: मुस्लिम शासकों ने स्थानीय संस्कृतियों और परम्पराओं की कई विशेषताओं को आत्मसात किया तथा भारत में अपनी स्थापत्य कला की पद्धतियों से उन्हें संयोजित किया। इंडो-इस्लामिक स्थापत्य कला के संदर्भ में परीक्षण कीजिए।
दृष्टिकोण
- इंडो-इस्लामिक स्थापत्य कला का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
- भारत में मुस्लिम शासकों की स्थापत्य शैलियों की विभिन्न श्रेणियों का वर्णन कीजिए।
- उल्लेख कीजिए कि ये स्थापत्य शैलियां किस प्रकार स्थानीय परम्पराओं से प्रभावित हुई थीं।
उत्तर
भारत में मुस्लिम शासकों की विजय और उनके स्थायी रूप से बस जाने के परिणामस्वरूप भारतीय उपमहाद्वीप में इंडोइस्लामिक स्थापत्य कला का उद्भव हुआ। व्यापक रूप से, इस कला को निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया गया है:
- शाही शैली: दिल्ली सल्तनत
- प्रांतीय शैली: मांडू, गुजरात, बंगाल और जौनपुर
- मुगल शैली: दिल्ली, आगरा और लाहौर
- दक्कन शैली: बीजापुर और गोलकुंडा
मुस्लिम शासक, मध्य एशिया से अफगानिस्तान के रास्ते आए थे। उन्होंने प्रारंभ में, मौजूदा मंदिरों को मस्जिदों के रूप में परिवर्तित करवाया, उदाहरण के लिए कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद और अढ़ाई दिन का झोपड़ा तथा कालांतर में उनके द्वारा स्वयं की स्थापत्य कला के साथ स्थानीय विशेषताओं को समाहित करते हुए इमारतों का निर्माण आरंभ करवाया गया।
शाही शैली: दिल्ली सल्तनत
- प्रारंभ में, उन्होंने इमारतों के निर्माण के लिए स्थानीय स्थापत्य शैलियों में प्रशिक्षित स्वदेशी कारीगरों का उपयोग किया। बाद में, इन स्थानीय कारीगरों को मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए पश्चिम एशिया से कुछ दक्ष वास्तुकारों को बुलाया गया था।
- भारतीयों को पहले भी मेहराब और गुंबद पद्धति का ज्ञान था, परन्तु इसका न तो व्यापक पैमाने पर उपयोग किया गया था और न ही इसे वैज्ञानिक रूप से विकसित किया गया था। मुस्लिम शासकों के अंतर्गत, इसे परिष्कृत किया गया तथा शिला एवं शहतीर (Lintel and Beam) पद्धति के साथ संयुक्त किया गया। अलंकरण हेतु उनके द्वारा ज्यामितीय एवं पुष्पों से युक्त डिजाइन का उपयोग किया गया। इन्हें कुरान की आयतों से युक्त पट्टिकाओं के साथ संयोजित किया गया जिसे अरबस्क कहा जाता है। इनके द्वारा घंटी, स्वास्तिक, कमल आदि हिंदू रूपांकनों का भी उपयोग किया गया था। चौखानों की डिज़ाइन (मोज़ेक डिज़ाइन) और पित्रादुरा तकनीकों का उपयोग विशेष रूप से दीवारों के निचले भागों (dado panels of walls) की सतह की सजावट के लिए किया गया था। लाज़वर्द (Lapis Lazuli) का उपयोग आंतरिक दीवारों या छत्रों पर किया जाता था।
- मीनारों के निर्माण की परंपरा भारत और पश्चिम एशिया दोनों क्षेत्रों में पाई जाती है। किन्तु मुस्लिम शासकों द्वारा निर्मित मीनारों में मुख्य मीनार आगे निकले हुए छज्जों से संबद्ध होती थी। इनके निर्माण में लाल एवं सफेद बलुआ पत्थर और संगमरमर का उपयोग किया गया है।
प्रांतीय शैली: मांडू, गुजरात, बंगाल और जौनपुर
- 16वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के पतन के परिणामस्वरूप प्रांतीय शैली का उदय हुआ। इन केंद्रों को भी स्थापत्य कला की स्थानीय पद्धतियों ने अत्यधिक प्रभावित किया था। उदाहरण के लिए, 15वीं शताब्दी की सरखेज की शेख अहमद कटू की सफेद संगमरमर से निर्मित दरगाह। यह दरगाह स्पष्ट रूप से क्षेत्रीय शैली में निर्मित है क्योंकि इसके संरक्षकों द्वारा क्षेत्रीय मंदिर शैलियों के कुछ तत्वों, जैसे- तोरण, मेहराब में चौखट के प्रयोग और साथ ही नक्काशीदार घंटी एवं जंजीर के रूपांकन सहित मकबरे, मस्जिद और दरगाह के लिए वृक्षों के चित्रों वाले नक्काशीदार पैनल का उपयोग किया गया है।
दक्कन शैली: बीजापुर और गोलकुंडा:
- इस क्षेत्र के अधिक उंचाई वाले क्षत्रों का उपयोग कर इस शैली के अंतर्गत किलों का निर्माण किया गया। अपने निर्माण के समय गोल गुंबद, एक ही गुंबद के अंतर्गत सर्वाधिक क्षेत्र को कवर करने वाला मकबरा था। हैदराबाद के कुतुब शाही मकबरे और चारमीनार में दीवारों को अलंकृत करने के लिए कमल, जंजीरें और लटकन (pendant) जैसे हिंदू रूपांकनों सहित कुरान की आयतों का उपयोग किया गया है। बीजापुर की जामा मस्जिद और गोल गुम्बद में फारसी तथा भारतीय दोनों विशेषताएं निहित हैं।
मुगल शैली
- मुगल शासन के दौरान, राजपूत पत्नियों के महलों में गुजरात और बंगाल शैलियों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता था। फतेहपुर सीकरी के महल-सह-किला परिसर में ढलवा छज्जा , बालकनी और आकर्षक छत्रों जैसी स्थानीय विशेषताओं को भी देखा जा सकता है। इसी प्रकार पंचमहल में भी, विभिन्न मंदिरों में उपयोग किए जाने वाले सभी प्रकार के स्तंभों का समतल छतों को सहारा देने हेतु प्रयोग किया गया था। आगरा के किले में भी इसी प्रकार की इमारतों का निर्माण किया गया था।
बाद में, हिंदू और तुर्की-इरानी रूपों के संयोजन पर आधारित मुगल स्थापत्य पद्धतियाँ 18वीं और 19वीं शताब्दी के आरम्भ तक निर्बाध रूप से जारी रहीं। उदाहरण के लिए, अमृतसर में स्थित स्वर्ण मंदिर में मुगल परंपरा की कई विशेषताओं को समाविष्ट किया गया है। इस प्रकार इसका कई प्रांतीय साम्राज्यों के महलों और किलों पर भी प्रभाव रहा है। इस प्रकार, स्थानीय संस्कृति और परंपराओं तथा मुस्लिम शासकों की स्थापत्य पद्धतियों ने एक विशिष्ट रूप ग्रहण किया तथा दोनों के मिश्रण के परिणामस्वरूप इंडो-इस्लामिक स्थापत्य कला का उदय हुआ।
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