भोलाराम का जीव : हरिशंकर परसाई

Bholaram Ka Jeev: Story of Harishankar Parsai

नई कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण कहानीकार हरिशंकर परसाई की ‘भोला राम का जीव ‘ कहानी पर यह इकाई आधारित हैं। हरिशंकर परसाई कई दशकों तक अपनी व्यंग्यात्मक कहानियों और व्यंग्यलेखों के कारण चर्चा में रहे हैं। प्रस्तुत कहानी में सरकारी कार्यालयों में पनप रहे भ्रष्टाचार के कारण सामान्य व्यक्ति की बढ़ती हुई परेशानियों का मार्मिक चित्रण किया है। भ्रष्ट सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में मनुष्य की क्या हालत हो चुकी है। मानवीय संवेदनाएं नष्ट होकर मनुष्य अपने स्वार्थ में लिप्त हो चुका है तथा भ्रष्टाचार के क्रूर व्यवहार को चुपचाप देखने और सहने के अलावा आम इंसान के पास दूसरा कोई साधन नहीं है।

भोलाराम का जीव

इस इकाई के अध्ययन के बाद आप :

  • भ्रष्ट सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के चरित्र को समझ सकेंगे;
  • नौकरशाही में बढ़ते भ्रष्टाचार के शिकंजे में आम आदमी की अवस्था कितनी असहाय और दयनीय हो जाती है, को रेखांकित कर सकेंगे;
  • परसाई जी की रचनाओं का उद्देश्य और सामाजिक परिवर्तन में इनकी भूमिका का विवेचन कर सकेंगे;
  • भ्रष्ट नौकरशाही की विसंगतियाँ, उसकी विरूपता और अमानवीय प्रवृत्तियों पर प्रकाश डाल सकेंगे;
  • परसाई जी द्वारा प्रयुक्त व्यंग्यात्मक शैली की विशेषताओं और इसकी सामाजिक परिवर्तन में विशिष्ट भूमिका के मूल्याकंन कर सकेंगे;
  • व्यंग्य के सटिक प्रयोग द्वारा भ्रष्ट नौकरशाही की विरुपता को उजागर करने में कहानी की सफलता-असफलता पर आलोचनात्मक टिप्पणी कर सकेंगे।

नई कहानी आंदोलन में अपनी कहानियों के माध्यम से मानवीय जीवन के विभिन्न संदर्भो, सरोकारों और सच्चाई को विस्तार देने वाले कहानीकार के रूपमें हरिशंकर परसाई का महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी कहानियों में प्रमुख रूप से पतनशील समाज के बदलते हुए जीवन मूल्यों, तथा सामाजिक विसंगतियों पर करारी चोट की गई है।

राजनीतिक भ्रष्टाचार और सामाजिक विसंगतियो को जितने स्पष्ट और इमानदार रूपसे हरिशंकर परसाई ने अपनी कहानियों में अभारा है, शायद ही उस दौर के किसी दूसरे कहानीकार ने ऐसा प्रयास किया है। व्यंग्य का जिस सफलता से उन्होंने अपनी कहानियों में प्रयोग किया है, वह सबसे अलग ही है। व्यंग्य को गंभीर चर्चा का विषय बनाने में उनकी रचनाओं का विशेष योगदान रहा है।

‘एक लड़की पांच दीवाने’, ‘जैसे उनके दिन फिरे, “विकलांग श्रद्धा का दौर’, ‘सदाचार का तावीज’ ‘दो नाक वाले लोग’, ‘काग भगौड़ा’, कहानी संग्रह हरिशंकर परसाई के यथार्थवादी कहानी-लेखन का परिचय देते हैं।

वर्तमान सामाजिक जीवन की सडांध, विरुपता, विसंगति पर व्यंग्य और साथ ही जीवन के प्रति आस्था परसाई की कहानियों की विशेषता है। ‘सदाचार का तावीज’, ‘भोलाराम का जीव, गांधी जी का शाल’, ‘विकलांग राजनीति’, ‘चमचे, कहानियों में स्वातंत्र्योत्तर भारत के सामाजिक, राजनीतिक धार्मिक, आर्थिक परिवेश के विभिन्न पक्षों पर अपनी पैनी व्यंग्यात्मक दृष्टि से मार्मिक चोट की है। भ्रष्टाचार के हर क्षेत्र, जैसे – शिक्षा संस्थाएं, सरकारी अस्पताल, कार्यालय, पुलिस, धर्मसंस्थान,राजनीति, और नेता वर्ग का परसाई ने व्यंग्यात्मक चित्रण किया है। परसाई की कहानी विशेषता के बारे में मधुरेश ने कहा है परसाई की परवर्ती कहानियाँ जो अधिकांश ‘उनके दिन फिरे’ और ‘सदाचार का ताबीज’ में संकलित हैं – अपने समय की विडंबनाओं और कुरूपताओं को बड़ी सहजता के साथ अंकित करती हैं। हिंदी कहानी आस्मिता की तलाश (पृ. 286) हरिशंकर परसाई की कुछ महत्वपूर्ण कहानियों का यहां उल्लेख करना भी आवश्यक है। ‘मौलाना का लड़का’, ‘राग-विराग’, ‘सदाचार का ताबीज’, ‘मुंडन’, “एक तृप्त आदमी की कहानी’, ‘मैं हूँ तोता प्रेम का मारा’ और ‘सत्य साधक मंडल’ आदि कहानियाँ अपनी चिंताओं और अंतर्वस्तु के कारण परसाई की विशिष्टता की प्रतिनिधि रचनाएं मानी जा  सकती है।

हरिशंकर परसाई कई दशकों तक अपनी व्यंग्यात्मक कहानियों और व्यंग-लेखों के कारण चर्चा में रहे है। व्यंग्य को गंभीर चर्चा का विषय बनाने में उनकी रचनाओं का विशेष योगदान रहा है। हम कह सकते हैं कि प्रेमचन्द की परम्परा को बढ़ाने वाले जो साहित्यकार स्वतंत्र भारत में साहित्य रचना कर रहे थे। ‘ उनमें हरि शंकर परसाई सबसे आगे थे। साहित्य के माध्यम से सामान्य जनता को सामाजिक और राजनीतिक समझदारी देने और सड़ी-गली जीवन व्यवस्था को नष्ट कर एक नई समाज रचना का संकल्प कर, हिंदी में जिन लेखकों ने साहित्य का निर्माण किया है उनमें परसाई का नाम काफी आगे की कतार में हैं। परसाई ने सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की जितनी समझ और दृष्टि दी है उतनी उस युग में प्रेमचंद के आलावा कोई और लेखक नहीं दे सका है।

स्वतंत्रता के बाद भारतीय समाज में जीवन मूल्यों के विघटन के लिए जिम्मेदार स्थितियाँ, और भक्ति तथा संस्थाएँ परसाई के व्यंग्य लेखन का विषय बने है। उन्होंने अपने लिए व्यंग्य की विधा इसलिए चुनी, क्योंकि वे जानते हैं कि समसामयिक जीवन की व्याख्या, उसका विश्लेषण और उसकी भर्त्सना एवं विडम्बना के लिए व्यंग्य से बढ़कर दूसरा कोई कारगर हथियार नही हो सकता। ‘भोलाराम का जीव ‘ एक ऐसी ही व्यंग्यात्मक कहानी है जिसमें सामाजिक – राजनीतिक स्थितियो में निहित विसंगतियों का उद्घाटन हुआ है। उन्हें व्यंग्य का विषय ही नहीं बनाया गया है बल्कि उन स्थितियों और विसंगतियों को झेल रहे आदमी की नियति को भी उद्घाटित किया गया है।

लेखक की सामाजिक परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता

‘भोलाराम का जीव ‘ कहानी में पौराणिक कथा को आधार बनाकर कहानी में व्यंग्य की निर्मित की है। धर्मराज, चित्रगुप्त और यमराज तीनों ही बड़े चिंतित होकर सोच रहे है कि पांच दिन पहले जीव त्यागने वाले भोलाराम के जीव को लेकर यमदूत इस लोक में क्यों नहीं पहुंचा। उन्हें चिंतित देखकर वहां पहुंचे नारद ने उनकी समस्या का हल ढूंढने हेतु पृथ्वीतल पर जाने की योजना बनाई। नारद पृथ्वी पर पहुंच गए। भोलाराम के जीव की तलाश में नारद अनेक स्थानों पर भटकने के बाद एक दफ्तर पहुंचते है और वहां के कर्मचारियों की रिश्वत लेकर ही काम करने की पद्धति को देखकर हैरान ही नहीं, परेशान भी हो जाते है। अपनी पेंशन पाने के लिए भोलाराम ने रिश्वत नहीं दी थी। जब तक दरख्वास्तों पर वजन नहीं रखा जाता कोई काम नहीं होता। दफ्तर के बड़े बाबू नारद से साफ-साफ कहते हैं ‘आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड़ रही हैं; उस पर वजन रखिए। ‘ रिश्वत के रूप में नारद अपनी वीणा दे देते है। वीणा के रूप में वजन रखते ही पेंशन की फाइलों में से उन्हें भोलाराम के जीव की आवाज सुनाई देती है। नारद भोलाराम के जीव से कहते हैं, ‘मै तुम्हें लेने आया हूँ। चलो, स्वर्ग में तुम्हारा इन्तजार हो रहा है ‘ पर भोलाराम के जीव की विवशता है कि वह पेंशन की दरख्वास्ते छोड़कर नहीं जा सकता। इसी कथा – सूत्र के व्यंग्यात्मक उपयोग द्वारा लेखक ने भ्रष्टाचार के अमानवीय रूप पर मार्मिक चोट की है। एक आम इंसान को जिंदगी में शासन तंत्र में फैले भ्रष्टाचार के कारण कितनी ही कठिनाई से गुजरना पड़ता है तथा इन सबसे लड़ने के बावजूद वह सफलता हासिल नहीं कर सकता है।

‘भोलाराम का जीव’ कहानी में व्यंग्य का मुख्य लक्ष्य सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था है। पर लेखक का उद्देश्य केवल इतना ही नहीं है। उसका उद्देश्य व्यंग्य को मानवीय त्रासदी और करुणा तक ले जाना है और वह यह दिखाना चाहते है कि इस व्यवस्था में मनुष्य की क्या हालत हो चुकी है। इस सच्चाई को लेखक ने इस कहानी में चित्रगुप्त जो एक काल्पनिक चरित्र है, के द्वारा भ्रष्टाचार की स्थिति को बयान किया है ‘महाराज, आजकल पृथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को फल भेजते हैं और उसे रास्ते में ही रेलवेवाले उड़ा लेते हैं। होजरी के पार्सलों के मोजे रेलवे के अफसर पहनते हैं। मालगाड़ी के डिब्बे-के-डिब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही हैं। राजनीतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ाकर क़ही बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी किसी विरोधी ने, मरने के बाद भी खराबी करने के लिए नहीं उड़ा दिया। ‘भ्रष्टाचार के इस खुलेआम व्यवहार से आम जनता जानते हुए भी चुपचाप देखने के अलावा कुछ नहीं कर सकती।’ क्रूर आर्थिक तंत्र में पिसते हुए आदमी की यातनापूर्ण स्थिति की ओर भी लेखक ने संकेत किया है।

इसी तरह ठेकेदारों, इंजीनियरों, ओवरसीयरों के कारनामों को लेकर व्यंग्य किये गये हैं’बड़े-बड़े इंजीनियर भी आ गये हैं, जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मजदूरों की हाजिरी भर कर पैसा हड़पा जो कभी काम पर गये ही नहीं। ‘ इन सबके साथ लेखक ने क्रूर आर्थिक स्थिति से संघर्ष करते आदमी की यातनापूर्ण स्थिति की ओर भी संकेत किया है। भोलाराम को सेवानिवृत्ति के बाद पांच वर्ष तक पेंशन न मिलना और उसके लिए लगातार भेजी गई दरख्वास्तों पर कोई कारवाई न होना, सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार को उजागर करता है।

भोलाराम की पत्नी भ्रष्टाचार की इस नृशंस प्रवृत्ति की ओर संकेत करती है पचास-साठ रूपया महीना पेंशन मिलता है, तो कुछ और काम करके गुजारा हो जाता है। पर क्या करें? पांच साल नौकरी से बैठे हो गये और अभी तक एक कौड़ी भी नहीं मिली। ‘

भोलाराम का जीव स्वर्ग में न पहुंचने के कारण नारद उसकी खोज करने पृथ्वी पर आये है। भोलाराम की खोज करते-करते नारद उस दफ्तर में पहुंच गए जहां भोलाराम पेंशन की प्राप्ति के लिए दरख्वास्तों पर दरख्वास्तें भेजकर थक गया। उसके जिते जी उसे पेंशन नहीं मिल पाई। लेकिन मरने के बाद उन्हीं फाइलों में उसके प्राण अटके हुए है। उसका जीव उन फाइलों को छोड़कर स्वर्ग भी नहीं जाना चाहता। नारद द्वारा भोलाराम के जीव को ढूंढ लेने पर वे साथ चलने को कहते है परंतु भोलाराम – का जीवन पेंशन की फाइलो को छोड़कर नहीं जाना चाहता। ‘मुझे नहीं जाना। मैं तो पेंशन की दरख्वास्तों में अटका हूँ। यही मेरा मन लगा है। मै अपनी दरख्वास्ते छोड़कर नहीं जा सकता।’ इस तरह कहानी में व्यवस्था को व्यंग्य का लक्ष्य बनाया गया है और इसमें पड़े हुए आदमी की करुण स्थिति की ओर संकेत किया गया है।

दफ्तरों की भ्रष्टाचारी प्रवृत्तियों के कारण सामान्य जन की तकलीफें बहुत बढ़ गई हैं, और वह इस प्रकार की व्यवस्था के आगे मजबूर है। भोलाराम की नियति इतनी फाइलबद्ध हो चुकी है कि उसका जीव उन फाइलों को छोड़कर स्वर्ग भी नहीं जाना चाहता। इस तरह यह कहानी केवल व्यंग्य को साधनेवाली ही नहीं बल्कि इसमें ऐसा त्रासद – व्यंग्य छिपा है जो सामाजिक राजनीतिक स्थिति को अनावृत्त करता हुआ मनुष्य की स्थिति को उद्घाटित करता है।

परसाई जी के लेखन में समाज में फैले भ्रष्टाचार के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया क्यों व्यक्त हुई है यह समझने के लिए उनके आलोचकों की टिप्पणी और उनके स्वयं के वक्तव्य देखें। हरिशंकर परसाई के संबंध में आलोचकों की महत्वपूर्ण टिप्पणी है आलोचक उनके व्यक्तित्व को उनकी रचना से बड़ा मानते हैं। यह व्यक्ति ऐसा क्या रहस्य छिपाये हुए है, इसे हम मध्यप्रदेश के उनके जिगरी दोस्तों के संस्मरणों में देख सकते है। लेकिन व्यक्तित्व निर्माण की वे विशेष परिस्थितियाँ जिन पर हम ढाल देना चाहते हैं उनका सबसे विश्वसनीय स्रोत स्वयं लेखक का आत्म वक्तव्य है जो सूत्र रूप में हमारे लक्ष्य की पूर्ति करता है। हमारा तत्पर्य ‘गर्दिश के दिन ‘ से है। वे सीधे और बेलौस ढंग से बताते हैं कि वह एक ऐसे आदमी हैं, जो हँसता है, जिसमें मस्ती है, जो ऐसा तीखा है, कटु है- इसकी अपनी जिन्दगी कैसी रही है – एक निहायत कटु, निर्मम, और धोबी पछाड़ आदमी की। तीखी जिन्दगी तो होगी ही जब तीखी घटनाएँ पल्ला पकड़े रहेंगी। यानी प्लेग की वे रातें, 1936-37 की, जब सब लोग गाँव छोड़कर चले गये थे। काली रातें थीं। कुत्ते तक बस्ती छोड़ गये थे। जब खुद की आवाजें ही डरा देती थीं। जब मरणासन्न माँ के सामने सब लोग आरती गाते- ओम जय जगदीश हरे गाते-गाते पिता सिसकने लगते और माँ बिलखकर बच्चों को हृदय से चिपटा लेतीं। और सब दुःख में डूब जाते। माँ की मृत्यु के बाद पिता जिये तो लेकिन लगातार बीमार, हताश, निष्क्रिय और अपने से ही डरते हुए। पाँचों भाई बहनों में मृत्यु का अर्थ समझने की स्थिति सिर्फ परसाई की थी। धंधा सब ठप्प। जमा पूँजी खायी जाने लगी। ऐसे में ही बहिन के विवाह का मनहूस उत्सव करके एक बोझ कम किया गया।’

परसाई लिखते हैं कि ‘मुझे चूहों ने ही नहीं मनुष्य नुमा बिच्छुओं और साँपों ने भी बहुत काटा है और जब भी ऐसा होता है तब किसी भी व्यक्तित्व में एक धार आ जाती है। एक तीव्र प्रतिक्रिया प्रतिपल होती रहती है। यथार्थ की टक्करों से ऐसा बोध पैदा हो जाता है, जिसमें उस समाज को बदल डालने की विकट इच्छा का होना लाज़िमी होता है। बशर्ते सोच की दिशा सकारात्मक हो। ‘ परसाई के व्यक्तित्व में तभी यह परिवर्तन हुआ था कि वे कभी भी झूठ और पाखण्ड बर्दाश्त नहीं कर सके थे। परसाई बताते हैं कि उसी उम्र से दिखाऊ सहानुभूति से उन्हें बेहद नफ़रत हो गयी थी। ‘अभी भी दिखाऊ सहानुभूति वाले को चाँटा मार देने की इच्छा होती है। ज़ब्त कर जाता हूँ वरना कई शुभचिन्तक पिट जाते।’ बिना किसी लागलपेट के जिस मुँहफट भाषा में यह बात कही गयी है, उससे कोई भी सहज यह अंदाज़ा लगा सकता है कि झूठ और पाखण्ड के प्रति उनकी चिढ़ और नफरत कितनी प्रचंड थी।

उस दौर में परसाई ने ‘तीन विद्याएँ ‘ भी सीखीं जिनके बिना या तो वे मर जाते या पागल हो जाते! गरीबी पर बात करना और बहस करना एक बात है और गरीबी की जिन्दगी बिताना बिल्कुल दूसरी बात। पहली विद्यार्थी दशा में बिना टिकट गाड़ी में बैठ जाना बेखटके। दूसरी विद्या सीखी-उधार माँगने की। बिल्कुल निःसंकोच! और तीसरी विद्या-बेफीक्री। जो होना होगा, होगा और क्या होगा? ठीक ही होगा। और इस तरह गर्दिश के दिनों में उस चेतना की नींव पड़ी, व्यक्तित्व का वह हिस्सा बना जो तमाम उम्र लेखक की दृष्टि के रूप में प्रतिफलित होता रहा। परस्थितियाँ या गर्दिशें हमेशा रह सकती हैं लेकिन यहाँ हमारा संकेत केवल उस दौर की गर्दिश से है जिसे बचपन से युवावस्था का दौर कहा जाता है। क्योंकि इस दौर की परिस्थतियों से लेखक की मानसिकता और व्यक्तित्व निर्माण का गहरा संबंध है। जहाँ तक दूसरे पक्ष यानी लेखक की व्यक्तिगत प्रकृति की बात है- परसाई ठहरे बहुत भावुक, संवेदनशील और बेचैन तबियत के आदमी।

इससे क्या समझा जाये?

इससे यह मतलब कि सामान्य स्वभाव का आदमी ठंडे-ठंडे जिम्मेदारियाँ भी निभा लेता रोते-रोते तालमेल भी बिठा लेता और एक व्यक्तित्वहीन नौकरी पेशा आदमी की तरह जिन्दगी साधारण सन्तोष से भी गुज़ार लेता। जाहिर है कि फिर उसका नाम हरिशंकर परसाई न होता। हम अच्छी तरह जानते हैं, जब संकट आते हैं तभी जिम्मेदारियों के हमले बढ़ते हैं और आर्थिक आधार निर्बल होते जाते हैं तो सबसे पहले आदमी को अपनी चेतना की रक्षा करने के भयंकर काम में जुटना पड़ता है। परसाई भी इन हमलों के बीच अपने व्यक्तित्व और चेतना की रक्षा में लगे रहे थे। तब सोचा भी न था कि ‘लेखक बनूँगा। लेकिन अपने व्यक्तित्व की रक्षा वे तब भी करना चाहते थे।

परसाई की प्रकृति पलायनवादी नहीं रही कभी भी। सो हमलों के दौरान वे सोचते और स्वयं से कहते- ‘परसाई डरो मत किसी से। डरे कि मरे। लेकिन इसका मतलब उदण्ड और घमण्डी हो जाना नहीं था। उन्होंने अपने में सिमटे रहने की जगह जन में घुल-मिल जाने का फैसला किया। उनका प्रस्थान सूत्र बना – मुक्ति अकेले में नहीं मिलती। उनका यह जो मानता था कि अपने से बाहर निकलकर सबमें मिल जाने से व्यक्तित्व और विशिष्टता की हानि नहीं होती। लाभ ही होता है। अपने से बाहर निकलो- इस महत्वपूर्ण निर्णय से उनकी रचनाओं में ऐसी तेजस्विता आई कि वे प्रगति और परिवर्तन : के हथियार बन गयीं।

और जब परसाई अपने से बाहर निकले और दुःखों के सम्मोहन जाल को काटकर खड़े हुए तो उन्हें अपने व्यक्तित्व का विस्तार दिखाई दिया। जब तक यह नहीं देखा जायेगा . कि दुखी और भी हैं। अन्याय पीडित और भी हैं तब तक यह विस्तार होगा ही नहीं। यहीं-कहीं परसाई के लेखन का जन्म होता है। एक ज़बर्दस्त अचूक हथियार-व्यंग्य का प्रचण्ड प्रहार| फैसला जो था रोना नहीं लड़ना है।

लेकिन लड़ें तो कैसे? हथियार के रूप में व्यंग्य का इस्तेमाल करने से क्या मतलब? तब उन्हें उस ओर बढ़ना पड़ा जिसे विश्वदृष्टि कहा जाता है। यानी केवल यह तै कर लेने से काम नहीं चलता कि लड़ना है। उसकी बहुत तैयारी करनी पड़ती है। परसाई ने यह तैयारी की। इतिहास, समाज, राजनीति और संस्कृति का अध्ययन शुरू किया। यानि यह मानते हुए कि अकेले वे ही सुखी हैं, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी। न उनके मन में सवाल उठते हैं, न कोई शंका। परसाई कहते हैं कि जब मैं जीवम, उसका विश्लेषण, अर्थ आदि की बात करता हूँ तब सवाल उठता है कि मैं किस तरह जीवन की व्याख्या करता हूँ। यह व्याख्या वे किस आधार पर करते हैं या उनकी विचारधारा क्या है? परसाई स्पष्ट कहते हैं कि उनका विश्वास मर्क्सवाद में हैं। इस बौद्धिक विश्लेषण या बौद्धिक विश्वास के साथ ही उनकी संवेदना तय हो जाती है।

परसाई की रचना धर्मिता और व्यंग्य का स्वरूप

परसाई के बारे में सबसे सरल उत्तर यही दिया जाता है- भई वो तो एक माने हुए व्यंग्यकार थे। उनके बाद अभी तक उनकी टक्कर का कोई व्यंग्यकार नहीं हुआ। परसाई से स्वयं व्यंग्य विधा समृद्ध और विकसित हुई। या कहें कि व्यंग्य महान ऊँचाइयों को उन्हीं के द्वारा स्पर्श कर सका। या कहा जाता है कि व्यंग्य और परसाई एक ही सिक्के के दो पहल थे। ये सब कथन अलंकारिक हैं। इनसे परसाई को समझने में कोई मदद नहीं मिलती। क्योंकि महान प्रतिभाएँ जैसी कि धीरेन्द्र वर्मा ने बहुत ही अच्छे ढंग से दर्शाया है, हमेशा ही प्रतिमान-भंजक होती हैं। बने-बनाये शास्त्रों से उनका काम नहीं चलता। उनका मूल्यांकन नयी कसौटियों पर ही संभव है। परसाई से पहले व्यंग्य क्या था? जब व्यंग्य ही लोकप्रिय और स्वतंत्र विधा नहीं था तो उसका शास्त्र क्या बनता?

परसाई ने आलोचकों की यह मुसीबत भी आसान कर दी। उन्होंने स्वयं बार बार अपने संग्रहों की भूमिकाओं में व्यंग्य को खोला और उस पर अपने विचार दिये।

परसाई ने यह सही कहा कि हिन्दी में एक आम रिवाज़ है। हम शोर मचाते हैं- हमारे यहाँ इस चीज़ का अभाव है और उस चीज़ का। इस पार्श्वसंगीत के हर पुस्तक इस दावे से फेंकी जाती है कि लो अभागो, इससे अभाव की पूर्ति हो गयी। दूसरी बात वे समीक्षाशास्त्र के बारे में कहते हैं कि समीक्षा-शास्त्र में कई प्रकार की आलोचना-पद्धतियाँ लिखी हैं। लिखी होंगी। हिन्दी में सबसे प्रचलित और लोकप्रिय पद्धति है- अपनों की प्रशंसा और परायों की निन्दा। यह बड़ी स्पष्ट, सरल और उलझन विहीन पद्धति है। परसाई इन दोनों ही पद्धतियों के शिकार हुए। इन आलोचकों ने उन्हें बिल्कुल नहीं समझा।

यह सच है – ज्यादातर लोग ऐसे हैं जो व्यंग्य का महत्व ही नहीं समझते। न ही विधा के रूप में और न ही स्पिरिट के रूप में। वे व्यंग्य से हास्य को ही अलग नहीं कर पाते। जहाँ भी वे व्यंग्य देखेंगे तो हास्य ज़रूर चिपका देंगे। बिना हास्य के वे व्यंग्य की कल्पना ही नहीं कर सकते। जबकि वास्तविकता यह है कि व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है। जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का परदाफ़ाश करता है। मज़ाक एक बात है और उपहास बिल्कुल दूसरी। और उसमें भी दबे कुचले लोगों का उपहास! उसे भला व्यंग्य कैसे कहा जा सकता है!

मगर विसंगतियों के भी स्तर और प्रकार होते हैं। आदमी कुत्ते की बोली बोले-यह एक विसंगति है और वनमहोत्सव का आयोजन करने के लिए पेड़ काटकर साफ किये जायें जहाँ मंत्री महोदय गुलाब के ‘वृक्ष ‘ की कलम रोपें- यह भी एक विसंगति है। लेकिन दोनों में भेद है यों हँसी दोनों से आती है। यानी विसंगति की क्या हैसियत है या अहमियत है, वह जीवन में किस हद तक महत्वपूर्ण है, वह कितनी व्यापक है, उसका कितना प्रभाव है- ये सब बातें विचारणीय हैं। दांत निकाल देना इतना महत्वपूर्ण नहीं है। –

असल में लोग दो चीजें नहीं समझते

  1. जिन्दगी किस क़दर जटिल चीज़ है। उसमें खालिस हँसना या खालिस रोना जैसी चीज़ नहीं होती।
  2. अच्छा व्यंग्य सहानुभूति का सबसे उत्कृष्ट रूप होता है।

परसाई इन दोनों चीज़ों को समझते हैं। वे सधार के लिए नहीं लिखते अन्यथा वे आर्य समाजियों की तरह के हो जाते। वे मार्क्सवादी हैं, इसलिए वे सुधार के लिए नहीं बदलाव के लिए लिखते हैं। चेतना में हलचल मचाने के लिए। इसलिए वे डरते नहीं है। न समाज से। न राजनीति से। वे मानते हैं कि व्यंग्य लेखन एक गम्भीर कार्य है। वे इस विसंगति को गहरे पकड़ते हैं। देखना भी यही चाहिए कि कोई लेखक अपने युग की विसंगतियों को कितने गहरे पकड़ता है। उस विसंगति की व्यापकता क्या है और वह जीवन में कितनी अहमियत रखती है। मात्र व्यक्ति की ऊपरी विसंगति-शारीरिक व्यवहार की या लहज़े की एक चीज़ है और व्यक्ति तथा समाज के जीवन की भीतरी तहों में जाकर विसंगति खोजना, उन्हें अर्थ देना तथा उसे विरोधाभास से अलग करके जीवन से साक्षात्कार कराना दूसरी बात।

परसाई बुनियादी तौर पर शिक्षक थे वे मानते थे कि कोई भी सच्चा व्यंग्य लेखक मनुष्य को नीचा नहीं दिखाना चाहता। क्योंकि व्यंग्य तो मानव सहानुभूति से पैदा होता है।

जो मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना चाहता है। अर्थात् व्यंग्य उससे कहता है- तू अधिक सच्चा, न्यायी और मानवीय बन!  तो अच्छे व्यंग्य की पहचान क्या है? यदि हम यह सवाल करें, तो उत्तर होगा

अच्छे व्यंग्य की पहचान यह है कि उसमें करुणा की अन्तर्धारा होती है। चेखव की तरह। जैसे चेखव की एक कहानी है- एक क्लर्क की मृत्यु! इस कहानी को पढ़ते-पढ़ते हँसी आती है पर अंत में मन करुणा से भर उठता है। जिस बात पर कहानी का तानाबाना बुना गया वह यह थी कि थियेटर में एक बाबू नाटक देख रहा है। उसके ठीक सामने उसका बॉस बैठा है। बॉस के चाँद है। बाबू को छींक आती है। बाबू को लगता है कि उसकी छींक के छींटे साहब की चाँद पर पड़ गये हैं। वह घबड़ाता है। और . इण्टरवल में साहब से माफी माँगता है- साहब माफ कर दीजिए। मुझसे गल्ती हो गयी। मैंने जान-बूझ कर गुस्ताखी नहीं की। अब मज़ा यह है कि साहब की चाँद पर छींटे पड़े ही नहीं हैं। वह नहीं जानता कि बाबू माफी किस बात की माँग रहा है। वह उसे डाँटता है- क्या बक-बक लगा रखी है। भागो यहाँ से। इधर बाबू समझता है कि साहब ज्यादा नाराज है।

साहब अधिकाधिक खीझकर भागता है। बाबू उसे और भी नाराज़ समझता है। यहाँ तक तो व्यंग्य का वातावरण रहता है। पर जब साहब उसे चपरासी से बाहर निकलवा देता है तब वह सोचता है- अब नौकरी गयी। मेरी बीबी है। तीन बच्चे हैं, इनका पालन कैसे होगा? इसी घबराहट में वह घर आता है। कुर्सी पर बैठता है और उसके प्राण निकल जाते हैं।

कैसा करुण प्रसंग है। कहानी में चेखव ने इस कठोर नौकर शाही पर चोट की है, जिसमें साहब अंहकार के कारण बाबू से पूछता तक नहीं कि तू माफी क्यों माँग रहा है। सिर्फ इतना पूछ लेता तो बाबू की मौत नहीं होती।

भ्रष्ट राजनीति का चरित्र

किसी भी विश्लेषण के लिए जरुरी होता है कि हम सबसे पहले उस वस्तु को ऐतिहासिक विकास क्रम में रखकर देखे। तथा यह भी कि उसकी अपनी मौलिक ऊर्जा किन स्रोतों में निहित है?

प्रस्थान के लिए हम कुछ विद्वानों की मान्यताओं से सहमति जताना चाहेंगे और विश्लेषण में उनकी पुष्टि करेंगे। काफी पहले परसाई पर लिखते हुए कथा समीक्षक मधुरेश ने इस बात पर बल दिया था कि ‘नयी कहानी की अन्तर्वस्तु के विस्तार की दृष्टि से अपने समकालीन कहानीकारों के बीच हरिशंकर परसाई की स्थिति कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण दिखाई देती है। जबकि कहानी के कुछ धुरंधर मार्क्सवादी व्याख्याता उन्हें बड़ा कहानीकार नहीं मानते। उनका व्यक्तित्व बड़ा मानते हैं।

परसाई की यह स्थिति कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण क्यों है?

यह इस वजह से है क्योंकि इस दौर के बहुत से कहानीकारों की तरह न तो कहीं वह स्त्री-पुरुष संबंधों के अंकन में उलझते हैं और नही शिल्प की बारीकियों को लेकर परेशान मालूम होते हैं। इससे भिन्न उनकी कहानिया पतनशील पूँजीवादी समाज में मूल्यों की जो गिरावट आ रही है, उसमें एक नैतिक और राजनीतिक हस्तक्षेप की तरह लगती हैं।

परसाई यह मानते रहे हैं कि साहित्यकार का समाज से गहरा और दोहरा संबंध है। वह समाज से अनुभव लेता है। अनुभव में भागीदार होता है। बिना सामाजिक अनुभव के। कोई सच्चा साहित्य नहीं लिखा जा सकता। साहित्यकार सामाजिक अन्वेषण भी करता है। उन छिपे अँधेरे कोनों का अन्वेषण करता है जो सामान्य चेतना के दायरे में नहीं आते। वह इन सामाजिक अनुभवों का विश्लेषण करता है, कारण और अर्थ खोजता है, उन्हें संवेदना के स्तर तक ले जाता है और उन्हें रचनात्मक चेतना का अंग बनाकर रचना करता है। और फिर समाज से पायी इस वस्तु को रचनात्मक रूप देकर फिर समाज को लौटा देता है। इस प्रकार साहित्य एक सामाजिक कार्य बन जाता है।

सामाजिक कर्म के रूप में साहित्य को ग्रहण करना प्रेमचंद के ‘साहित्य का उद्देश्य ‘ का ही विकास है। इसलिए रवींद्रनाथ त्यागी जब यह कहते हैं कि ‘आज़ादी से पहले प्रेमचंद का और आज़ादी के बाद परसाई का साहित्य ही बदलते भारत की छबियों के सबसे महत्वपूर्ण आकलन हैं ‘ तो एक दम सही लगता है। धीरेन्द्र वर्मा उनके इस कथन को सहीसिद्ध करते हैं। देखें ‘भोलाराम का जीव ‘ में उनकी मान्यताएँ कैसे लागू होती हैं?

“ऐसा कभी नहीं हुआ था। इस वाक्य से कहानी शुरू होती है। कैसा नहीं हुआ था?. “धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों के कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग या नरक में निवास-स्थान ॲलाट करते आ रहे थे। तो इस बार क्या हुआ? इस बार हुआ यह कि ‘भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना भी हुआ, पर यहाँ अभी तक नहीं पहुँचा। सही है – ऐसा तो कभी नहीं हुआ था। धर्मराज ने पूछा- ‘और वह दूत कहाँ है?’ उत्तर मिला- ‘महाराज वह भी लापता है। फिर दूत अचानक बदहवास प्रकट हुआ। चित्रगुप्त चिल्ला उठे -‘अरे तू कहाँ रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहाँ है? ‘यमदूत हाथ जोड़कर बोला- ‘दया निधान, मैं कैसे बतलाऊँ कि क्या हो गया।… इन पाँच दिनों में मैंने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर उसका कहीं पता नहीं चला।”

इसी समय नारद जी वहाँ पहुँचे और उन्होंने समस्या पर विचार किया। उन्होंने पाया कि ‘मामला बड़ा दिलचस्प है। और कहा ‘अच्छा मुझे उसका नाम पता तो बताओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूँ।’ पृथ्वी पर जाकर उन्होंने पता लगाया कि उसको गरीबी की बीमारी थी। पाँच साल हो गये थे पेंशन पर बैठे। पेंशन अभी तक बंधी न थी। हर दस-पन्द्रह दिन में एक दरख्वास्त देते थे पर वहाँ से या तो जवाब आता ही नहीं था और आता तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पाँच सालों में सब गहने बेंचकर खा लिये गये थे। चिन्ता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड़ दिया। नारद को इस दुःख गाथा में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे तो भोलाराम का जीव ढूँढ़ रहे थे। लेकिन साधुका दिल पसीज गया सो वे पेंशन के दफ्तर जा पहुँचे। वहाँ उन्हें पता लगा कि भोलाराम ने दरख्वास्त तो दी थी लेकिन उस पर वज़न नहीं रखा था। नारद क्या रिश्वत देते? ‘वज़न ‘ के नाम पर उनके पास उनकी वीणा ही थी।

साहब ने कहा-‘यह सुन्दर वीणा है। इसका वज़न भी दरख्वास्त पर रग जा सकता है। मेरी लड़की गाना-बजाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूंगा।’ नारदजी की वीणा ले लेने के बाद साहब ने भोलाराम की फ़ाइल मँगवाई। नारद से उन्होंने नाम पूछा। नारद ने कहा भोलाराम!” अपना नाम सुनकर सौ-डेढ़ सौ दरख्वास्तों के बीच से आवाज़ आयी- ‘कौन पुकार रहा है मुझे? पोस्टमैन है? क्या पेंशन का ऑर्डर आ गया?” नारद ने कहा’चलो, स्वर्ग में तुम्हारा इन्तजार हो रहा है।’ भोलाराम ने जवाब दिया- ‘मुझे नहीं जाना। मैं तो पेंशन की दरख्वास्तों में भटका हूँ। यहीं मेरा मन लगा है। मैं अपनी दरख्वास्तें छोड़कर नहीं जा सकता।

क्या इतनी सी ही है बात?

मधुरेशजी का विचार है- ‘भोलाराम का जीव ‘ देश की समूची व्यवस्था पर एक रनिंग कमेंट्री जैसी है। भोलाराम ऐसे देश का वासी है, जहाँ दोस्तों को भेजी गयीं चीजें रेलवे वाले उड़ा लेते हैं और होज़री के पार्सलों के मोज़े रेलवे अफसर पहनते हैं। जहाँ राजनीतिक दलों के लोग विरोधी नेता को उड़ाकर बंद कर देते हैं ताकि विरोधी आवाज़ को दबाया जा सके। अपनी विशेष योग्यता और कार्यक्षमता के लिए जो लोग नरक में सहायता और नव निर्माण के लिए भेजे जाते हैं वे अधिकांश में इमारतों के ठेकेदार हैं * जो पूरे पैसे खाते हैं। या फिर ओवर सियर हैं जो उन मज़दूरों की मज़दूरी हड़पते हैं जो कभी काम पर, आते ही नहीं । लेकिन खासतौर से कहानी दफ्तरी तंत्र को उद्घाटित .करती है, जहाँ रिटायर होने के पांच वर्ष बाद भी भोलाराम की पेंशन नहीं खुलती है। क्योंकि उनकी अर्जियाँ उड़ती फिरती हैं। ‘ इसलिए कि उन पर दबाने के लिए वज़न नहीं रखा गया था। यानी हमारे देश की लालफ़ीता शाही का नंगा चित्रण यहाँ किया गया है। आप देखेंगे कि यथार्थ का यहा कई तरह से उद्घाटन होता है।

भाषा शैली – व्यंग्य का सटीक प्रयोग

सबसे पहले हम वर्णन की भाषा को ही लें तो देखते हैं कि उनमें कुछ अवधारणात्मक शब्दों का प्रयोग किया गया है। तथा सारी वीभत्सता को एक-एक ऐक्शन या कार्य-चित्र में उभारा गया रहै – जैसे कि यह कहना कि धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग या नरक में निवास स्थान ‘अलॉट ‘ करते आ रहे थे। यहाँ साफ है कि धर्मराज एक दफ्तर के बड़े बाबू या ज्यादा से ज्यादा अधिकारी प्रतीत होते हैं ‘सिफारिश ‘ और ‘अलॉटमेंट ‘ से उनकी स्थिति नौकरशाही के यथार्थ को पूरी तरह व्यंजित करती है। एक दफ्तर का सीन देखिए और धर्मराज का लोभ देखिए- दोनों बराबर। हू-बहू जो हालत क्लर्क की होती है वही चित्रगुप्त की। हम देखते हैं कि ‘चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर पर रजिस्टर देख रहे हैं। यहाँ दिव्यता का नामोनिशान नहीं है।

यथार्थ की दूसरी प्रस्तुति यह है कि यथार्थ को सीधे-सीधे सूचनापरक सूत्रों में ढाला गया है। ये कलात्मक निष्कर्ष के रूप में हैं। जैसे चित्रगुप्त धर्मराज को सूचित करते हुए कहते हैं- ‘महाराज, आजकल पृथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत चलता है। लोग दोस्तों को कुछ चीज़ भेजते हैं और उसे रास्ते में ही रेलवे वाले उड़ा लेते हैं। हौज़री के पार्सलों के मोज़े रेलवे अफ़सर पहनते हैं। मालगाड़ी के डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ाकर बन्द कर देते हैं। कहीं भोला राम के जीव को भी तो किसी विरोधी ने मरने के बाद दुर्गति करने के लिए नहीं उड़ा दिया।

क्या ये केवल तथ्यों का उल्लेख है? या निष्कर्षों का कलात्मक रूपान्तरण। पूरे-पूरे क्षेत्र की प्रकृति इन निष्कर्षों में समाहित है। जैसे क्लर्क का थूक से पन्ना पलटना या रेलवेवालों द्वारा माल उड़ाना।

यथार्थ की तीसरी प्रस्तुति यह है कि पृथ्वी तल की सूचनाएं ऊपर भेजने की जगह पर लोक में ही मृत्युलोक की छटा दिखलाई जायें जैसे कि नारद जी धर्मराज से पूछते हैं कि क्या नरक में निवास स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई। तो धर्मराज ने कहा वह समस्या तो कभी की हल हो गयी। नरक में पिछले सालों में बड़े गुणी कारीगर आये हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं, जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनायीं। बड़े-बड़े इंजीनियर भी आ गये हैं, जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवर सियर हैं, जिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़िरी भर कर पैसा हड़पा, जो कभी काम पर गये ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं।’

पारस्परिक संवाद की भाषा में भी यथार्थ का ही दबाव और प्रभाव यहाँ दिखाई देता है। अर्थात् धर्मराज या चित्रगुप्त या नारद कोई तत्सम शब्दावली का प्रयोग नहीं करते। व्यंग्य में भी नहीं। लिहाजा वातावरण “दैवी ‘ न बनकर लौकिक ही बना रहता है। यही कारण है कि यथार्थ की तीव्रता यहा विद्यमान है। उसकी आँच में पिघलकर जो सौंदर्य-प्रतिमा यहाँ ढल रही है, वह कैसे ढलती फिर? यमदूत को देखते ही जब चित्रगुप्त चिल्लाते हैं”अरे तू कहाँ रहा इतने दिन?’ तो यमदूत कहता है कि ‘आज तक मैंने धोखा नहीं खाया था, पर भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। तब धर्मराज क्रोध से बोले

‘मूर्ख! जीवों को लाते-लाते तू बूढ़ा हो गया, फिर भी मामूली बूढ़े आदमी के जीव ने तुझे चकमा दे दिया।”

यह वही भाषा है जो किसी भी दफ्तर में सुनी जा सकती है। इस तरह हमारे अपने युग का वातावरण यहाँ साक्षात विद्यमान हो जाता है। एकदम जीवंत। ऐतिहासिक-पौराणिक दृश्य में तत्सम भाषा के प्रयोग से यह न होता। धर्मराज ऑफिस सुपरिंटेंडेंट की तरह कहते हैं, चित्र गुप्त से – ‘तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गयी।’ इंजीनियर, ओवरसियर, ठेकेदार, इमारत, रद्दी, पैसा खाना वगैरह शब्द हमारे यथार्थ की ही सशक्त अभिव्यक्ति करते हैं। संवादों की अत्यंत संप्रेषणीय भाषा के साथ ही स्वयं लेखक द्वारा प्रयुक्त वर्णन की भाषा का तालमेल इतना बेहतरीन है कि व्यंग्य की शक्ति उभर कर सामने आ जाती है। जैसे

‘नारद भेजाराम का मकान पहचान गये।” या यह कहना कि’ वहाँ से चलकर नारद सरकारी दफ्तर पहँचे। या ‘नारद बड़े साहब के कमरे में पहँचे।” वगैरह वाक्यों को देखा जा सकता है। परसाई की विशेषता यह है कि केवल आर्थिक, राजनीतिक या सामाजिक कोई एक परिस्थिति या दृश्य चुनकर वे एक ही रचना में कितने ही क्षेत्रों में व्याप्त नीचताओं पर प्रहार करते हैं। उनकी व्यंग्य की तलवार कभी म्यान में नहीं रहती। हाथ हमेशा मूठ पर ही रहता है। उनके परिवार से भेंट करने पर नारद ने यह पता लगाने की कोशिश की कि भोलाराम का जीव कहाँ लगा हो सकता है। वे पूछने लगे “माँ, यह तो बताओ कि यहाँ किसी से उनका विशेष प्रेम था, जिसमें उनका जी लगा हो।’

पत्नी बोली ‘लगाव तो महाराज बाल-बच्चों से ही होता है ‘नारद जी ने कहाँ’ नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब है किसी स्त्री -‘ स्पष्ट है यह भाषा, यह संभावना, यह प्रश्न नारद के द्वारा पूछे जाने पर कितना व्यंजना परक हो उठता है। व्यंजना न हो तो व्यंग्य पैदा कहाँ से हो? साथ ही समाज की जो मर्मभेदिनी पकड़ परसाई दिखाते हैं, वह कितनी महत्वपूर्ण है। नारद के ऐसा कहने पर स्त्री ने गुर्राकर नारदकी ओर देखा। बोली, ‘हर कुछ मत बको महाराज तुम साधु हो उचक्के नहीं हो। जिन्दगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री को आंख उठाकर नहीं देखा। नारद इस पर हँसकर बोले- ‘हाँ, तुम्हारा यह सोचना ठीक है। यही हर अच्छी गृहस्थी का आधार है।’

यहाँ व्यंग्य कहाँ है? यह तो एक गम्भीर कथन भी हो सकता है। और अभिधापरक वक्तव्य भी हो सकता है अगर सिर्फ “हँसकर’ शब्द इसमें से निकाल दिया जाये। लेखक का कौशल यह कि वह सिर्फ इन तीन शब्दों से ही लक्ष्य प्राप्त कर लेता है कि ‘नारद हँसकर बोले । अन्यत्र भी सामाजिक यथार्थ की पकड़ का प्रमाण परसाई इसी रूप में देते हैं कि एक दो अवधारणात्मक शब्द से ही पूरे सत्य का उद्घाटन हो जाता है। जब स्त्री उनसे आग्रह करती है कि ‘महाराज, आप तो साधु हैं, सिद्ध पुरुष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रुकी हुई पेंशन मिल जाये। इन बच्चों का पेट मानता है ? मेरा यहाँ कोई मठ तो है नहीं।” यानी यहाँ मृत्युलोक. में काम तभी होता है जब कोई मठ हो। साधु का अर्थ यहाँ कितना बदल गया है। यहाँ आज के साधुओं में और पूराने सच्चे साधुओं में स्पष्ट विसंगति दिखाई देती है।

पूरी रचना इस कदर कसी हुई है कि व्यंग्य की मार साँस नहीं लेने देती। लेकिन कला का हाथ कहीं भी यथार्थ छोड़ता नहीं। यह महारत तभी हासिल हो सकती है जब जीवन अनुभव और अध्ययन में गहरी पैठ हो। भाषा की चुस्ती और सटीकता यहाँ देखते ही बनती है। नारद ने पूछा- “उस पर इन्कम टैक्स तो बकाया नहीं था? हो सकता है, उन लोगों ने रोक लिया हो।” तो चित्रगुप्त ने कहा, ‘इन्कम होती तो टैक्स होता। भूखमरा था।’ यहाँ भुखमरे से अधिक सटीक कोई अन्य शब्द हो ही नहीं सकता। लोक प्रचलित अत्यंत सशक्त व्यंजनापरक मुहावरा!

यह व्यंजना भी देशज होती है। जो शब्द आध्यात्मिक मामलों में व्यंग्य पैदा करते हैं वे सामाजिक, राजनीतिक मामलों में नहीं करते। लेकिन कुशल रचनाकार उनके अत्यंत दृष्टि संपन्न प्रयोग कर सकता है। उदाहरण के लिए मन्दिर शब्द को लें, जिसके भाव .. से सभी परिचित हैं। – नारद बड़े साहब के कमरे में पहुँचे। बाहर चपरासी ऊँध रहा था। इसलिए उन्हें किसी ने छेड़ा नहीं। बिना “विज़िटिंग कॉर्ड ‘ के आया देख साहब बड़े नाराज़ हुए। बोले, ‘इसे कोई मन्दिर-वन्दिर समझ लिया है क्या? धड़घड़ाते हुए चले आये। चिट क्यों नहीं भेजी?’

यहाँ मन्दिर और दफ्तर के अलग-अलग ‘नियमों ‘ से व्यंग्य उत्पन्न होता है। क्योंकि यहाँ तो बिना ‘वज़न ‘ रखे कोई दरख्वास्त आगे ही नहीं बढ़ती। यानी दुनियादारी का मामला है तथा भाव यह है कि मन्दिर वाली पूजा तो यहाँ चलती नहीं। यहाँ की अपनी पूजा है। 

अब इसी मन्दिर शब्द का परसाई दूसरे अर्थ में प्रयोग करते हैं।

साहब बोले- ‘आप हैं वैरागी। दफ्तरों के रीति-रिवाज नहीं जानते। भई, यह भी एक मन्दिर है। यहाँ भी दान-पुण्य करना पड़ता है। यहाँ बिना चढ़ावे के कोई प्रार्थना स्वीकार नहीं की जाती।’

भाषा चाहे संवाद की हो चाहे वर्णन की चपरासी की हो या साहब की, साधु की हो या दुनियादार की, कहीं कोई ‘गढ़न ‘ नहीं है। सहज प्रवाही। जीवंत जीवन की ऊर्जा और संप्रेषण की कला की एक रूपता यहाँ देखते ही बनती है। नकली भाषा तो नकली पात्रों को ही शोभा देती है। ज़िन्दगी से कटे हुए महज़ किताबी कीड़े उस सत्वहीन भाषा का प्रयोग करते हैं। जीवंत भाषा की साधना एकांत में नहीं की जा सकती। इसे तो जनता के बीच से ही अर्जित किया जाता है। अनुभवों से निचोड़ा जाता है और दृष्टि की सान पर चढ़ाकर पैना किया जाता है।

भाषा दृष्टि की ही अभिव्यक्ति है। एक यथार्थवादी दृष्टि ही यथार्थपरक भाषा का प्रयोग कर सकती है। जो दृष्टि जितनी ही समाज विरोधी होगी उसकी भाषा उतनी ही संकेतपरक और गुह्य होगी। क्योंकि यहाँ पतनशील समाज का पोस्टमार्टम लेखक का लक्ष्य है, लिहाज़ा सृजन शैली की दृष्टि से यथार्थवाद मात्र से काम नहीं चलता। उसकी प्रकृति को भी देखना होता है। जहां तक यथार्थ का प्रश्न है तो आलोचनात्मक यथार्थवाद ही सुसंगत सृजनशील विधि होगी। स्पष्ट है कि व्यंग्य के लिए यह विधि सर्वाधिक उपयुक्त है। क्योंकि व्यंग्य जीवन की आलोचना ही तो है। परसाई व्यंग्य के उपयोग द्वारा जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्त करते है।

भोलाराम का जीव : सारांश

इस प्रकार हम पाते हैं कि ‘भोलाराम का जीव ‘ प्रकारान्तर से नहीं, कलात्मक रूप से कहानी के माध्यम से समाज की तीव्र आलोचना है। स्वतंत्रता मिले हुए कोई अरसा भी नहीं गुज़रा था कि मूल्यों में गिरावट आ गयी। ढाँचा चरमराने लगा। व्यवस्था भंग हो गयी। और भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया। इस सबको मदद मिली पुरानी पिछड़ी हुई पुराणपंथी चेतना से, अवैज्ञानिकता से और झूठी संस्कृति से। जिस धर्म और संस्कृति में सुन्दर व्यवस्था को स्थापित करने की, उसका विकास करने की क्षमता नहीं होती वह शोषक-उत्पीड़क वर्ग के हाथों में हथियार बन जाती है। उससे वे जनता में तरह-तरह के भ्रम फैलाते हैं।

परसाई ने अपनी जनता को केंद्र में रखा, उसे नायक बनाया, उसकी । दुर्दशा का खुला चित्रण किया। धारदार भाषा में अपनी अन्तर्वस्तु को प्रस्तुत किया। भ्रष्ट नौकरशाही की निर्लज्ज पराकाष्ठा को दर्शाया इस कहानी के द्वारा अपने पाठकों को एक नये सौंदर्य बोध की पहचान करायी। उनका व्यक्तित्व, लेखक स्वरूप, व्यंग्य के बारे में उनकी मान्यताएँ और पाठकों के प्रति सीधा संबोधन का संश्लिष्ट रूप है यह कहानी।

प्रश्न

  1. व्यंग्य की सामाजिक भूमिका निर्धारित कीजिए। 
  2. विसंगति, क्या व्यंग्य की आधार सामग्री है?
  3. परसाई के व्यंग्य संबंधी दृष्टिकोण को स्पष्ट कीजिए।
  4. ‘भोलाराम का जीव ‘ भ्रष्ट नौकरशाही की चरम परम्परा का पर्दाफाश करती है इस कथा के माध्यम से कहानी की समीक्षा करें। 5. भाषा एवं शिल्प की दृष्टि से ‘भोलाराम का जीव’ की समीक्षा करें।

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