आदिकाल की पृष्ठभूमि

इसमें आदिकाल की पृष्ठभूमि पर चर्चा की गई है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आपः 

  • आदिकाल के स्वरूप एवं महत्व की चर्चा कर सकेंगे;
  • अपभ्रंश के स्वरूप, विकास और आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य की चर्चा कर सकेंगे;
  • हिन्दी भाषा के विकास का परिचय देते हुए अपभ्रंश और हिन्दी के बीच के अंतर के आधारों को जान सकेंगे;
  • आदिकालीन साहित्य को प्रभावित करने वाली राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिस्थितियों की चर्चा कर सकेंगे और
  • आदिकालीन उपलब्ध साहित्य की संक्षिप्त जानकारी दे सकेंगे।

आदिकाल के साहित्य को समझने से पूर्व यह आवश्यक है कि हम आदिकालीन साहित्य की पृष्ठभूमि को समझें । वस्तुतः आदिकाल हिंदी साहित्य के इतिहास का एक कालखंड है। इस खण्ड की इकाई संख्या 1 में आपने पढ़ा कि हिंदी साहित्येतिहास के प्रथम काल को आदिकाल नाम से संबोधित किया गया है। इस काल के लिए कई नाम सुझाए गए यथा-चारण काल, प्रारंभिक काल, वीरगाथा काल, संधिकाल और चारणकाल, सिद्ध सामंतकाल तथा आदिकाल । नामकरण और कालविभाजन के संदर्भ में इस विषय पर इकाई संख्या-1 में विस्तृत चर्चा हो चुकी है। यहाँ इतना समझना आवश्यक होगा कि काल की दृष्टि से प्रथम काल को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल कहा और प्रवृत्ति के आधार पर इसे “वीरगाथा काल” की संज्ञा दी। परंतु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रवृत्ति के आधार पर भी इस काल के लिए ‘आदिकाल’ नाम ही प्रस्तावित करते हैं। यही नाम विद्वानों के बीच लोकप्रिय हुआ। यह नाम यदि प्रथमकाल के लिए लोकप्रिय हुआ तो उसका कारण यह था कि “आदिकाल” जैसे नाम में एक प्रकार का खुलापन है। उसमें तत्कालीन साहित्य की चेतना के विविध रूपों का संयोजन हो सकता है।

“आदि’ कहने से भाषा और संवेदना की आदिम अवस्था का बोध होता है। यों तो हिंदी भाषा का प्रारंभ सातवीं शती से ही माना जाता रहा है। परंतु मुख्य रूप से हिंदी भाषा का विकास दसवीं सदी से आरंभ होता है। 1000 ई.-1400 ई. के मध्य जो साहित्य हिंदी प्रदेशों में उपलब्ध होता है, वही हमारे आदिकालीन साहित्य के आधारग्रंथ हैं । आदिकालीन साहित्य की सर्जनात्मकता का संबंध दसवीं सदी के पूर्व के साहित्य से भी है और चौदहवीं सदी के बाद के साहित्य से भी है। साहित्य के इतिहास में ऐसा कभी नहीं होता है कि किसी खास बिंदु पर भाषा और रचनात्मक संवेदना ठहर जाती है और उसके बाद वह दूसरा रुख अख्तियार करती है। साहित्य की श्रृंखला में अटूट संबंध होता है। उनका आपसी संबंध बहत ही सघन होता है। भाषा और संवेदना के आरंभिक परिवर्तन का बड़ा ही क्षीण सूत्र आरंभ में मिलता है। इसलिए आदिकाल के हिन्दी साहित्य को अपभ्रंश से अलग करने के लिए हमें साहित्य के अटूट रिश्तों को भी समझना । होगा। उसके साथ-साथ इन परिवर्तनों को भी सूक्ष्मता से विवेचित करना होगा।

आदिकाल का स्वरूप एवं महत्व

आदिकाल, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है किसी भी साहित्य धारा का वह प्रारंभिक या पहला काल-खण्ड होता है जहाँ से उसकी शुरुआत होती है। यों आदिकाल के वास्तविक स्वरूप को जान लेना सहज नहीं है। किन्तु भारतीय चिंतन धारा के उस महत्वपूर्ण काल के रूप में इसे जाना जा सकता है जहाँ परस्पर विरोधी तत्वों को एक साथ साहित्य में देखा जाता है। राजनैतिक उथल-पुथल, विदेशी आक्रमण तथा दो-दो संस्कृतियों के मिलन का परिवेश वहाँ है। अशांति और बिखराव से छिन्न-भिन्न सामाजिक स्थिति, विविध धर्म, सम्प्रदाय एवं दर्शनों का फैलता प्रभुत्व भी वहाँ है। जन-सामान्य को आकर्षित-भ्रमित करते टोने-टोटके, तंत्र-मंत्र तथा जादू-चमत्कार और जैन, वैष्णव, शैव कापालिक, शाक्त, सिद्ध एवं नाथ आदि कई धार्मिक सम्प्रदायों की बहत सी प्रवृत्तियाँ भी इस युग के समग्र साहित्य में देखी जाती हैं, जिनमें अंतराल भी है और विरोध भी।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा भी है – “शायद ही भारतवर्ष के साहित्य में इतने विरोधों और स्वतोव्याघातों का युग कभी आया होगा। इस काल में एक तरफ तो संस्कृत के ऐसे बड़े-बड़े कवि उत्पन्न हुए, जिनकी रचनाएँ अलंकृत काव्य-परम्परा की चरम सीमा पर पहुँच गई थीं और दूसरी ओर अपभ्रंश के कवि हुए, जो अत्यंत सहज सरल भाषा में, अत्यंत संक्षिप्त शब्दों में, अपने मनोभाव प्रकट करते थे फिर धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी महान प्रतिभाशाली आचार्यों का उद्भव इसी काल में हुआ था और दूसरी ओर निरक्षर संतों के ज्ञान-प्रचार का बीज भी इसी काल में बोया गया।” (हिन्दी साहित्य का आदिकाल) यों तो हिन्दी साहित्य के विकास की शुरुआत भी यहीं से देखी जाती है किन्तु साथ ही परवर्ती हिन्दी साहित्य की अनेक प्रवृत्तियों, काव्य-शैलियों आदि का उद्गम-स्थल भी यही माना जाता है। इस युग के साहित्य में भाषा की दृष्टि से हिन्दी के आदि रूप की जानकारी मिलती है और भाव की दृष्टि से हम इनमें आधुनिक काल तक की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों के प्रारंभिक रूप को देख सकते हैं।

काव्यरूपों के प्रयोग की दृष्टि से भी इस युग के साहित्य का महत्व है। “भाषा की दृष्टि से इसमें भक्तिकाल से आधुनिक काल तक की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों के आदिम बीज खोजे जा सकते हैं | जहाँ तक रचना शैलियों का प्रश्न है, उनके भी वे सभी रूप, जो परवर्ती काल में प्रयुक्त हुए, यहाँ अपने आदि रूप में मिल जाते हैं। इस काल की आध्यात्मिक, श्रृंगारिक तथा वीरता की प्रवृत्तियों का ही विकसित रूप परवर्ती साहित्य में मिलता है।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास ; सं. – डॉ. नगेन्द्र)। इस युग के सिद्धों और नाथों का प्रभाव भक्तिकाल में कबीरादि संत कवियों पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। “यदि कबीर आदि निर्गुणमतवादी संतों की वाणियों की बाहरी रूपरेखा पर विचार किया जाए तो मालूम होगा कि यह संपूर्णतः भारतीय है और बौद्ध धर्म के अंतिम सिद्धों और नाथपंथी योगियों के पदादि से उसका सीधा संबंध है । वे ही पद, वे ही राग-रागिनियाँ, वे ही दोहे, वे ही चौपाइयाँ कबीर आदि ने व्यवहार की हैं, जो उक्त मत के मानने वाले उनके पूर्ववर्ती संतों ने की थीं। क्या भाव, क्या भाषा, तथा अलंकार, क्या छंद, क्या पारिभाषिक शब्द, सर्वत्र वे ही कबीरदास के मार्गदर्शक हैं।” (हिन्दी साहित्य की भूमिका – आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी)।

अपभ्रंश का स्वरूप और विकास

हिन्दी साहित्य और उसके इतिहास के क्रम में अपभ्रंश साहित्य की चर्चा अवश्य होती है। आइए देखें कि अपभ्रंश का स्वरूप क्या है और वह हिन्दी साहित्य से किस हद तक जुड़ा हुआ है। अपभ्रंश भाषा का समय 500 ई. पूर्व से 1000 ई. तक माना जाता है। अपभ्रंश का अर्थ है – भ्रष्ट, विकृत अथवा अशुद्ध । इस नाम का प्रयोग पहले पहल उस शब्द के लिए होता था, जो भाषा के सामान्य मानदंड से गिरा होता था। आरंभ में संस्कृत के विकृत शब्द रूप के लिए भर्तृहरि, पतंजलि आदि वैयाकरणों ने “अपभ्रंश” का प्रयोग किया । धीरे-धीरे इस नाम का अर्थ-विस्तार हुआ और यह भाषा विशेष के लिए प्रयुक्त होने लगा। भाषा विशेष के अर्थ में अपभ्रंश शब्द का प्रयोग छठी शताब्दी ईस्टी के आसपास मिलता है। भारतीय आर्यभाषा के विकास में अपभ्रंश प्राकृत के बाद की अवस्था है। इस भाषा में आठवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी के बीच के साहित्य का सृजन हुआ।

अपभ्रंश भाषा को समझने के लिए भारतीय आर्यभाषा के विकास को जानना जरूरी है। प्रत्येक युग में एक साहित्यिक भाषा होती है और इसके समानान्तर अनेक जन भाषाएँ बोली के रूप में जीवित रहती हैं। वेदों की भाषा छन्दस् ने तत्कालीन देशी भाषा से शक्ति अर्जित करके संस्कृत का रूप लिया। इसी प्रकार पालि, प्राकृत और अपभ्रंश अवस्था का जन्म हुआ। छन्दस् से संस्कृत तक का समय 1500 ई० पू० से 500 ई० पू० तक का माना जाता है और इन्हें प्राचीन आर्यभाषा कहा जाता है। पालि, प्राकृत अपभ्रंश मध्यकालीन आर्यभाषाएँ हैं जो 500 ई० पू० – 1000 ई० पू० तक मानी जाती हैं | आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ (सिंधी, गुजराती, अवधी, ब्रज, पंजाबी आदि) 1000 ई० से वर्तमान समय तक मानी गई हैं। 

अपभ्रंश मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा की अंतिम कड़ी और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की जननी है। हिन्दी भी उनमें से एक है। इसीलिए हिन्दी साहित्य को समझने के लिए अपभ्रंश साहित्य को समझना जरूरी है।

वस्तुतः “आदिकाल में हिन्दी-साहित्य के समानान्तर संस्कृत और अपभ्रंश-साहित्य की भी रचना हो रही थी। इनमें से संस्कृत-साहित्य का तो सामान्य जनता तथा हिन्दी कवियों पर उतना प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ रहा था, किन्तु अपभ्रंश-साहित्य भाषा की निकटता के कारण हिन्दी साहित्य के लिए निरन्तर साथ चलने वाली पृष्ठभूमि का काम कर रहा था।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, संपादक डा. नगेन्द्र) वस्तुतः अपभ्रंश का साहित्य विविध प्रकार का है। आज उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य का बहुत बड़ा भाग जैन कवियों द्वारा रचित धार्मिक साहित्य के रूप में मिलता है। जैन कवियों ने पौराणिक कथा-प्रबंध, रहस्य और नीतिपरक कृतियों की रचना की है। जैन अपभ्रंश साहित्य की भाँति ही बौद्धों की अपभ्रंश रचनाएँ भी धार्मिक दृष्टिकोण से लिखी गई हैं। इन जैन-बौद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त अपभ्रंश साहित्य की एक अन्य धारा-लौकिक साहित्य की धारा, भी उपलब्ध होती है जिसमें श्रृंगार प्रधान प्रबंध एवं मुक्तक – दोनों प्रकार की रचनाएँ शामिल हैं। केवल समझ के लिए अपभ्रंश साहित्य को निम्नलिखित प्रमुख धाराओं में विभाजित कर सकते हैं :

  • पुराण साहित्य : अपभ्रंश में प्रमुख रूप से जैनियों द्वारा पौराणिक कथानकों को लेकर साहित्य रचना की गई। इनमें पुष्पदंत का ‘महापुराण’ और शालिभद्र सूरि का ‘बाहुबलि रास’ प्रमुख है। इस धारा के प्राचीन और श्रेष्ठ कवि स्वयंभू हैं। उन्होंने राम को लेकर “पउम चरिउ” (पद्म चरित्र) तथा कृष्ण को लेकर रिट्ठणेमिचरिउ (आरिष्ट नेमिचरित) की रचना की।
  • चरित्र काव्य : चरित्र काव्य या चरित काव्य लोकप्रिय व्यक्तियों के जीवन चरित्र हैं। इस साहित्य धारा के अंतर्गत कवि पुष्पदंत के ‘णायकुमार चरिउ’ (नागकुमार चरित) तथा ‘जसहर चरिउ’ (जसहर चरित) आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
  • कथा काव्य : लोकप्रिय व्यक्तियों के चरित काव्यों के अतिरिक्त अपभ्रंश में कुछ ऐसे चरित काव्य भी लिखे गए जिसका मुख्य पात्र या तो कवि की कल्पना से उत्पन्न होता था या उसे लोक कथाओं से लिया गया होता था। कथा काव्य के अंतर्गत ‘धनपाल’ द्वारा रचित ‘भविसयत्त कहा’ या ‘भविष्यदन्त कथा’ का नाम उल्लेखनीय है।
  • जैन कवियों का नीतिपरक साहित्य : जैन कवियों ने दोहों के माध्यम से मुक्तक काव्य की भी रचना की। इनमें जीवन के आदर्शों का वर्णन है। इनमें रहस्यवादी साधना का स्वर भी सुनाई पड़ता है। ‘जोइन्दु’ का ‘परमात्म प्रकाश’ तथा ‘राम सिंह’ का ‘पाहड़ दोहा’ अपभ्रंश नीतिपरक साहित्य की प्रमुख कृतियाँ हैं।
  • बौद्ध सिद्ध काव्य : बौद्ध सिद्ध कवियों ने रहस्य साधना संबंधी अपनी काव्य रचना अपभ्रंश में ही की । ये सिद्ध कवि जैन कवियों के सामानान्तर पूर्वी प्रदेशों में साहित्यिक अपभ्रंश में काव्य रचना कर रहे थे। इस धारा के अन्तर्गत “सरहपा’ और ‘कण्हपा’ के ‘दोहा कोष’ उल्लेखनीय हैं। जैन कवियों के समान ही इन सिद्ध कवियों ने अन्तःसाधना पर बल दिया।
  • आदिकालीन रचनाएँ : हम जिसे हिन्दी साहित्य का आदिकाल कहते हैं, उसकी  कई रचनाएँ अपभ्रंश में हैं । ‘रासो साहित्य’ के अन्तर्गत अब्दुर्रहमान की कृति ‘संदेश रासक’ अपभ्रंश में ही रचित है। यह एक संदेश काव्य है जिसमें सर्वाधिक ‘रासक छंद’ का प्रयोग किया गया है।

संस्कृत के आचार्यों और अपभ्रंश कवियों ने अपभ्रंश को देशभाषा कहा है। महान अपभ्रंश कवि स्वयंभू और पुष्पदंत ने अपनी भाषा को “ग्रामीण भाषा” अथवा “देशी भाषा” कहा है। वस्तुतः प्रत्येक युग में एक साहित्यिक भाषा होती है और अनेक लोक भाषाएँ होती हैं। इन्हीं लोक भाषाओं से साहित्यिक भाषा जीवन का रस प्राप्त करती है और इस प्रकार यह जीवंत बनी रहती है। जब साहित्यिक भाषा जनता से दूर हटती है और केवल पंडितों की भाषा रह जाती है, तब यह भाषा मृत हो जाती है और उसका स्थान कोई लोकभाषा ले लेती है। कालान्तर में यही लोकभाषा साहित्यिक भाषा बन जाती है और भाषा के विकास का यह क्रम लगातार चलता रहता है।

वैदिक काल में छन्दस् साहित्यिक भाषा थी और संस्कृत लोकभाषा। बाद में छन्दस ने लोकभाषा से शक्ति अर्जित की और संस्कृत के रूप में नई साहित्यिक भाषा सामने आई। जब संस्कृत साहित्यिक भाषा के रूप प्रतिष्ठित थी, उस समय प्राकृत लोकभाषा के रूप में इसके समानान्तर चल रही थी। जब संस्कृत पंडितों की भाषा रह गई और जनता से उसका सम्पर्क टूट गया, तब प्राकृत ने धीरे-धीरे साहित्यिक भाषा का रूप ले लिया। इसी प्रकार, जब प्राकृत रूढ़ और बद्ध हो गई तब अपभ्रंश साहित्यिक भाषा के रूप में सामने आई। आगे चलकर अपभ्रंश का युग भी समाप्त हुआ और आधुनिक भारतीय भाषाओं में साहित्य की रचना की जाने लगी।

पर अपभ्रंश को देशभाषा कहा जाए या नहीं, इस पर विद्वानों के बीच काफी मतभेद है। कुछ विद्वान जैसे पिशेल, ग्रियर्सन, सुनीति कुमार चटर्जी आदि अपभ्रंश को “देशभाषा’ मानते हैं, जबकि याकोबी, कीथ, ज्यूल बलाख आदि विद्वान अपभ्रंश को देशभाषा नहीं मानते हैं। वे इतना अवश्य स्वीकार करते हैं कि अपभ्रंश में देशभाषा के अनिवार्य तत्व मौजूद थे।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि साहित्यिक प्राकृत का देश भाषाओं के साथ सम्पर्क हुआ और इस प्रकार भारतीय आर्यभाषा की अपभ्रंश अवस्था की शुरुआत हुई। इस सिलसिले में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत दृष्टव्य है : “जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह गई तभी से अपभ्रंश साहित्य का अविर्भाव समझना चाहिए। प्राकृत से बिगड़कर जो रूप बोलचाल की भाषा ने ग्रहण किया वह भी आगे चलकर कुछ पुराना पड़ गया और काव्य रचना के लिए रूढ़ हो गया  अपभ्रंश नाम उसी समय से चला। जब तक भाषा बोलचाल की थी तब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गयी तब उसके लिए अपभ्रंश शब्द का व्यवहार होने लगा।”

हिंदी भाषा का विकास

हिंदी भाषा के विकास को समझने से पूर्व यह समझना आवश्यक होगा कि किसी भी भाषा के विकास में जनमानस की क्या भूमिका होती है। भाषा में रचनात्मक क्षमता तभी तक होती है, जब तक वह लोकसामान्य के अनुभव से जुड़ी होती है । भाषा जब लोक जीवन से अलग होकर कुछ वर्ग तक सीमित होने लगती है, तब उसमें एक प्रकार की जड़ता आने लगती है। फिर रचनात्मक प्रतिभा उस जड़ता को त्याग कर नये मनोभाव के अनुकूल नई भाषा की रचना करती है। उदाहरण के लिए हम रीतिकालीन भाषा के विरूद्ध खड़ी बोली की प्रतिष्ठा का उदाहरण दे सकते हैं। रीतिकाल में जीवन के प्रति यथास्थितिवादी दृष्टिकोण ने भाषा को जड़ बना दिया । इसीलिए आधुनिक संवेदना के विकास के साथ भाषा परिवर्तन अनिवार्य हो गया। इसी प्रकार की घटना आदिकालीन भाषा में भी घटित हुई। प्राकृत जब से पुस्तकों की भाषा हो गई, उसी समय से बोलचाल की भाषा ने नया स्वरूप ग्रहण किया। इस भाषा को अपभ्रंश भाषा कहा गया। लेकिन एक बात जिस पर ध्यान देना चाहिए, वह यह कि जब तक वह बोलचाल की भाषा थी तब तक उसे देशभाषा कहा जाता था लेकिन जब वह साहित्य की भाषा हो गई तब उसका नाम अपभ्रंश चल पड़ा।

देशभाषा से अलग होकर अपभ्रंश, साहित्य की अभिव्यक्ति की भाषा हो गई। भाषा जब देशभाषा से अलग हुई तो उसमें शास्त्रीयता जैसी प्रवृत्ति पनपने लगी। अपभ्रंश के परिनिष्ठित भाषा के रूप से अलग देशभाषा और अपभ्रंश के मेलजोल से एक नई भाषा विकसित हो रही थी। यह भाषा परिनिष्ठित अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई भाषा थी। अपभ्रंश के आचार्य हेमचंद्र दो प्रकार की अपभ्रंश भाषाओं की चर्चा करते हैं। प्रथम प्रकार की वह अपभ्रंश भाषा जिसका व्याकरण उन्होंने स्वयं लिखा था। इस अपभ्रंश भाषा में जैन कवियों और आचार्यों ने रचना की थी। इस भाषा का रिश्ता अपभ्रंश के नागर रूप से था। इसके साथ ही एक दूसरे प्रकार की अपभ्रंश भाषा भी प्रचलित हो रही थी। इसे हेमचंद्र ने ग्राम्यभाषा कहा है। बौद्ध सिद्धों के दोहे और संदेश रासक जैसे काव्य इस ग्राम्य भाषा के उदाहरण हैं। ग्राम्यभाषा में रासक, डोम्बिका आदि लोक प्रचलित गेय और अभिनेय काव्य लिखे जाते थे। इसी भाषा का आगे चलकर हिंदी भाषा के रूप में विकास हुआ। वस्तुतः यह भाषा छंद, काव्यरूप, काव्यगत रूढ़ियों और विषय वस्तु की दृष्टि से अपभ्रंश के परिनिष्ठित रूप का ही विकास है, परंतु उस भाषा का मिजाज बदला हुआ है। भाषा के मिजाज बदलने का प्रमुख कारण जीवन और समाज के स्थापित कर्मकांड के प्रति विद्रोह था।

यह विरोध हमें सिद्धों और नाथों के साहित्य के देखने को मिलता है। इसीलिए हिंदी भाषा के प्रारंभिक रूप की जानकारी भी इन्हीं की रचनाओं से मिलती है। स्वयं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है “अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी के पदों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की सांप्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है।” इस बिंदु पर विस्तृत चर्चा यहाँ आवश्यक नहीं । यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि अनुभूति बदलने से साहित्य की भाषा में भी परिवर्तन होने लगा। नई अनुभूति ने नई भाषा की तलाश की।

जैसा कि आप इसी इकाई में पढ़ेंगे कि ग्यारहवीं सदी के पहले से ही भारत पर मुसलमानों के आक्रमण शुरू हो गए थे और लगभग दो सौ वर्षों में उन्होंने संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार जमा लिया था। वैसे तो उस समय उनकी अपनी भाषा या राजभाषा फारसी थी किन्तु भारतीयों के साथ व्यवहार एवं संपर्क करने के लिए उस समय प्रचलित प्राचीन हिन्दी . को ही साधन-माध्यम बनाया गया । धीरे-धीरे आदिकाल के आगामी वर्षों में इसी प्राचीन हिन्दी से विकसित अनेक रूप सामने आ गए। इन्हीं रूपों में से एक रूप ‘डिंगल’ था जिसका संबंध राजस्थानी साहित्य से है। डिंगल साहित्य की दो प्रमुख रचनाएँ मानी जाती हैं – श्रीधर कृत ‘रणमल छंद’ और कल्लौल कृत ‘ढोला मारू रा दूहा’ । हिन्दी भाषा का एक दूसरा रूप भी विकसित हुआ जिसे ‘पिंगल’ के नाम से अभिहित किया गया। पिंगल वस्तुतः मध्य देश की साहित्यिक ब्रजभाषा का ही नाम था। इसी युग में ‘डिंगल’, ‘पिंगल’ के अतिरिक्त हिन्दी का एक तीसरा रूप भी मिलता है जिसे कुछ विद्वानों ने ‘हिन्दवी’ के नाम से पुकारा । हिन्दी के इस रूप को हम तेरहवीं शती के आसपास अमीर खुसरो के साहित्य में देख सकते हैं।

यह हिन्दी भाषा के रूप से अलग है। वास्तव में यह भाषा का वह रूप है जो उस युग की सामान्य जनता प्रयोग में लाती होगी। हिन्दी भाषा के आरंभ से ही हिन्दी साहित्य के आरम्भ पर विचार किया जा सकता है। “इस भाषा का विकास एक जनभाषा के रूप में हुआ है। कोई भी जनभाषा अपने प्रवाह की अक्षुण्णता में सदा एकरूप नहीं रह सकती। स्थान और काल के भेद से उसमें रूप भेद भी उत्पन्न हो जाता है, किन्तु जब तक उन रूपों की तात्विक समानता सुरक्षित रहती है तब तक वे एक ही भाषा का बोध कराते हैं ।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. नगेन्द्र) 

आदिकालीन हिन्दी साहित्य के विकास में उस समय उपलब्ध धार्मिक साहित्य जैसे जैन, बौद्ध, नाथ, सिद्ध आदि का बहुत बड़ा योगदान परिलक्षित होता है। जैन साहित्य का अध्ययन करने पर हम देखेंगे कि उसकी भाषा हिन्दी के आदिकालीन स्वरूप का परिचय देती है। वास्तव में यह भाषा अपभ्रंश से प्रभावित है। प्राचीन हिन्दी के अर्न्तगत बौद्धों एवं सिद्धों के साहित्य में पश्चिमी एवं पूर्वी अपभ्रंश के शब्दों का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है। बौद्धों की एक शाखा थी वज्रयान, इसी शाखा से संबद्ध गोरखनाथ ने नाथ पंथ की स्थापना की। नाथ पंथियों का एकेश्वरवाद में विश्वास था और वे मूर्तिपूजा के विरोधी थे। उनकी भाषा प्राचीन पश्चिमी हिन्दी की बोलियों के मिश्रित रूप में थी। हिन्दी के प्राचीन रूप को विकास की ओर अग्रसर करने में आदिकालीन रासो साहित्य का भी महत्वपूर्ण योगदान है। इस क्षेत्र में बीसलदेव रासो और पृथ्वीराज रासो का विशेष महत्व है। बीसलदेव रासो की भाषा में डिंगल तथा पिंगल दोनों ही भाषाओं के रूप दृष्टिगत होते हैं परन्तु पृथ्वीराज रासो की भाषा में कहीं हिन्दी, कहीं राजस्थानी मिश्रित हिन्दी, कहीं ब्रजभाषा के रूप, कहीं विकृत अपभ्रंश के रूप उपलब्ध होते हैं। यद्यपि पृथ्वीराज रासो की भाषा को विद्वानों द्वारा पिंगल बताया गया है जो ब्रजभाषा का ही एक रूप है।

तेरहवीं शताब्दी के आसपास विकसित हिन्दी के एक अन्य रूप ‘हिन्दवी’ की झलक हमें अमीर खुसरो के साहित्य में दिखाई देती है। खुसरो की पहेलियाँ, ढकोसले, दो/सखुन आदि में हिन्दी के सरल स्वाभाविक एवं बोलचाल की भाषा के रूप के दर्शन होते हैं । उदाहरण के लिए देखिए:

दो/सखुन –

सितार क्यों न बजा?

औरत क्यों न नहाई-परदा न था!

चौदहवीं शताब्दी में मुसलमान शासकों द्वारा दक्षिण भारत पर भी आक्रमण होने से इन शासकों के साथ मौलवी एवं व्यापारियों आदि का भी दक्षिण भारत में आगमन हो गया। उस समय राजधानी के आसपास बोली जाने वाली भाषा को ये लोग अपने साथ ले गए। अब दक्षिण भारत के निवासियों के साथ व्यवहार एवं जनसंपर्क के लिए एक ऐसी भाषा का रूप विकसित हआ जिसमें दक्षिण भारत की भाषाओं के शब्द भी आ गए। धीरे-धीरे भाषा के इस रूप को स्थिरता मिली और यही भाषा आगे चलकर ‘दक्खिनी हिन्दी’ के नाम से जानी जाने लगी।

अपभ्रंश और हिन्दी के बीच के अंतर का प्रामाणिक आधार

अपभ्रंश साहित्य और आदिकालीन साहित्य के बीच अंतर बहुत ही क्षीण है। परन्तु उनके बीच के अंतर को हमें स्पष्ट रूप से जानना और समझना होगा। इसी अंतर के आधार पर अपभ्रंश और हिन्दी साहित्य के आदिकाल के बीच विभाजन स्पष्ट होगा। स्पष्ट विभाजन नहीं हो सकने का सबसे बड़ा कारण है भाषा का धीमा परिवर्तन | भाषा में परिवर्तन इतिहास की घटनाओं की तरह नहीं होता है। जिस प्रकार नदी के प्रवाह को विभाजित करने में कठिनाई होती है उसी प्रकार भाषा के प्रवाह को भी एक बिन्दु पर बाँटा नहीं जा सकता है। लेकिन भाषा और व्याकरण की कुछ ऐसी विशेषताएं होती हैं जो उसे दूसरों से विशिष्ट बनाती हैं। इन्हीं विशिष्टताओं से भाषा के पूर्ववती विकास और परवर्ती विकास के बीच स्थान निर्धारित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए प्राकृतभाषा अपभ्रंश और देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश के बीच अपभ्रंश भाषा की कुछ अपनी निजी पहचान बनी होगी, जिससे कि हम उसे दोनों प्रकार की भाषाओं से अलग स्थान दे सकें। देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश से हिंदी का आविर्भाव माना जाता है। लेकिन जब से भाषा में हिंदी के लक्षण दिखाई पड़ने लगे होंगे तब से हिंदी भाषा की कुछ अपनी निजी पहचान भी बननी शुरू हो गई होगी। इस निजी पहचान से ही हिंदी भाषा का विस्तार अपभ्रंश से अलग हो गया होगा।

अब इस बात पर विचार करना आवश्यक होगा कि हिंदी भाषा की वह अपनी कौन सी निजी विशिष्टता थी जिसके कारण हम उसे अपभ्रंश भाषा से अलग मानते हैं। सर्वप्रथम भाषा के स्तर पर उसे पहचानना होगा। विद्वानों ने हिंदी को विशिष्ट बनाने वाली तीन भाषा प्रवृत्तियों की चर्चा की है। प्रथम, क्षतिपूरक दीर्धीकरण, जैसे प्राकृत अपभ्रंश के कज्ज, कम्म, हथ्थ जैसे शब्द हिंदी में काज, काम, हाथ बन गए। द्वितीय, परसर्ग की प्रयोग बहुलता. जैसे अधिकरण परसर्ग मन्झहि, मज्झे, मज्झि, मंझ, मधि, महि, मह आदि विविध रूप हैं। तृतीय, तत्सम शब्दों के प्रचलन से देश भाषा का विकास माना जाता है। यह हिंदी भाषा की मूल प्रवृत्ति है जो उसे प्राकृत – अपभ्रंश से अलग करती है। इन्हीं आधारों को ध्यान में रखते हुए आदिकाल की साहित्य सामग्री पर निर्णय किया जा सकता है।

हमने जिन आधारों पर चर्चा की है उन्हीं आधारों के माध्यम से हमारे पास मूल्यांकन की एक कसौटी बन जाने से उसके द्वारा साहित्य को परखने का अवसर प्राप्त हो जाता है। ऊपर हमने जिस कसौटी की चर्चा की है, उनके आधार पर आदिकालीन हिंदी साहित्य में दो प्रकार की सामग्री उपलब्ध होती है। प्रथम वर्ग में वे रचनाएँ आती हैं, जिनकी भाषा तो हिंदी है परन्तु वह अपभ्रंश के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त नहीं है और द्वितीय प्रकार की रचनाएँ वे हैं, जिनको अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त हिंदी की रचना स्वीकार किया जा सकता है। अपभ्रंश से प्रभावित हिंदी की श्रेणी में :

  1. सिद्ध साहित्य 
  2. नाथ साहित्य 
  3. जैन साहित्य के कुछ ग्रंथ जैसे भरतेश्वर बाहुबलिरास, इत्यादि
  4. लौकिक साहित्य में राउलखेल, और वर्णरत्नाकर
  5. रासो साहित्य में हम्मीर रासो को रखा जा सकता है।

कुछ रचनाएँ अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त मानी जा सकती हैं। इस श्रेणी में :

  1. खुम्माणरासो
  2. परमाल रासो
  3. चंदनबाला रास
  4. स्थूलिभद्ररास
  5. रेवन्तगिरिरास
  6. नेमिनाथ रस
  7. वसन्त विलास
  8. खुसरो की पहेलियाँ को स्थान दिया जा सकता है।

इस साहित्य को भी पूर्णतः अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त नहीं माना जा सकता लेकिन हिंदी का प्रभाव इन रचनाओं में अधिक स्पष्टता से दिखाई पड़ता है। इस प्रकार हम शुद्ध अपभ्रंश की रचनाओं से अलग आदिकालीन हिंदी साहित्य का एक प्रतिमान तैयार कर सकते हैं |

इसके अंतर्गत शुद्ध अपभ्रंश की रचनाओं को जैसे पद्म चरिउ, स्वयंभू छंद, महापुराण, जसहर चरिउ, भविसयत्त कहा, संदेश रासक आदि को स्वीकार करना उचित नहीं होगा। इसके साथ ही सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य तथा जैन साहित्य की कुछ रचनाओं को हिंदी से बाहर रखना भी उचित नहीं है। इन रचनाओं के संबंध में आचार्य शुक्ल का मत है कि ये धार्मिक साहित्य हैं, इन्हें साहित्य के इतिहास में स्थान नहीं दिया जा सकता है। लेकिन धार्मिकता को आधार बनाकर । किसी साहित्य को खारिज नहीं किया जा सकता है। यदि ऐसा संभव हुआ तो भक्ति साहित्य को भी हिंदी साहित्य से बाहर कर दिया जायेगा। सिद्धों के साहित्य में अवश्य कुछ स्थलों पर वीभत्स वर्णन है। उन्हें साहित्य में स्थान देना उचित प्रतीत नहीं होता, परंतु भाषा के विकास की दृष्टि से ही सही, उन्हें हिंदी साहित्य से अलग रखना भी न्यायपूर्ण नहीं है। नाथों के साहित्य की प्रामाणिकता को लेकर संदेह अवश्य किया जा सकता है, परंतु उनके साहित्य को त्याग नहीं सकते हैं। जैन साहित्य में तो गृहस्थ जीवन की जटिलताओं और स्वाभाविक अनुभूतियों का वर्णन है।

काव्य की प्रामाणिकता की दृष्टि से भी जैन रचनाएँ असंदिग्ध हैं । अतः उन्हें भी त्यागा नहीं जा सकता है। रासो ग्रंथ तो हिंदी में ही लिखे गए हैं | रासो साहित्य पर विचार करते हुए एक ही प्रश्न प्रमुख रूप से उठता है – उनकी प्रामाणिकता के संदर्भ में | आदिकालीन साहित्य और मध्यकालीन साहित्य में रचनाओं की भाषा और विषय वस्तु के संदर्भ में विवाद उभरते रहे हैं। उनमें से क्षेपक अंशों पर भी चर्चा होती रही है। वाचिक और मौखिक परंपरा के कारण विषय वस्तु और भाषा में परिवर्तन होता रहा है। इस विवाद के बाद भी उन्हें साहित्य में स्थान दिया जाता रहा है। प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता के गहरे विवाद के बाद भी उन्हें साहित्य से अलग हटाना उचित नहीं है। यदि प्रामाणिकता को आधार बनाकर साहित्य की समीक्षा की गई तो ऐसा भी हो सकता है कि आदिकाल में साहित्य ही उपलब्ध नहीं होगा। क्योंकि इस काल की सभी कृतियों पर कुछ न कुछ विवाद है।

आदिकालीन साहित्य की पृष्ठभूमि

आदिकालीन साहित्य पर निर्णय लेने के उपरात यह आवश्यक है कि हम उन परिदृश्यों की चर्चा करें, जिनके बीच साहित्य निर्मित हो रहा था। साहित्य का वातावरण शून्य में निर्मित नहीं होता है। साहित्यिक रचनाओं के पीछे ऐतिहासिक शक्तियों और सामाजिक संस्थाओं का योगदान होता है | सामाजिक संगठन काव्यानुभूति की जटिलता के बीच सक्रिय होता है इसलिए हम काव्यानुभूति की जटिल संवेदना को उसी हद तक समझ सकते हैं, जिस हद तक समाज को समझने की क्षमता अर्जित करेंगे। समाज की भीतरी गति की पहचान से कलात्मक मूल्यों का प्रतिमान बनेगा। हम चाहे किसी भी युग के साहित्य की चर्चा करें, उसके साहित्यिक मूल्य उसके अपने समाज की वास्तविकता से ही प्रमाणित होते हैं, इसीलिए साहित्य के सामाजिक मूल्य और उसकी कलात्मक व्याख्या के लिए समाज की जानकारी अनिवार्य हो जाती है। संवेदना की बनावट के पीछे आर्थिक सामाजिक संबंधों की गहरी छाया मौजूद होती है।

आज यदि कलाकारों में भक्त कवियों जैसी गहरी संवेदना का अभाव मिलता है तो उसका कारण है उत्पादन के तरीके बदलने से हमारे सोचने, समझने और अनुभव करने का नजरिया बदल गया है। इसलिए साहित्य के सत्ता, समाज, आर्थिक गतिविधि, धार्मिक विचार और दर्शन के साथ अन्तः संबंधों की जाँच पड़ताल जरूरी है।

राजनीतिक पृष्ठभूमि

ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी का यह प्रारंभिक काल भारतीय राजनीतिक जीवन के विशृंखल होने का काल है। सातवीं-आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक के राजनीतिक घटना चक्र ने । हिन्दी साहित्य को भाषा और भाव दोनों ही दृष्टियों से प्रभावित किया। विशृंखलता तथा राजनीतिक असंतुलन के इस युग का प्रारंभ राजवर्धन की मृत्यु के पश्चात् उसके अनुज और सशक्त हिन्दू सम्राट हर्षवर्धन के सिंहासनारूढ़ होने से होता है। हर्षवर्धन ने सन् 606 ई. में सिंहासन संभाला और अपनी योग्यता तथा प्रतिभा से अपने विरोधियों को वश में कर लिया। उसने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया और उत्तर भारत के अधिकतम क्षेत्रों को एक सूत्र में बांधने में सफल हुआ। हर्षवर्धन के शासनकाल में ही चीनी यात्री ह्यूनसांग भारत आया था और उसने उस समय के भारत के धर्म और समाज के व्यवस्थित होने का उल्लेख किया था। 647 ई. में हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् उत्तर भारत का साम्राज्य एक सूत्र होकर न रह सका और छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट गया। इस समय का राजनीतिक परिदृश्य बहुत ही उलझा हुआ था। कुछ राज्य थोड़े समय के लिए काफी शक्तिशाली बने मगर उनमें से कोई भी अपनी प्रभुसत्ता कायम नहीं कर पाए। ये राज्य एक दूसरे के साथ लगातार चढ़ाइयों में उलझे रहे। परंतु उनमें से अजमेर के चौहान, कन्नौज के गाहड़वाल और मालवा के परमार अपनी सत्ता थोड़े समय तक प्रतिष्ठित करने में सफल हो गए थे।

इन राजवंशों के पारस्परिक युद्ध, दिन-रात का कलह तथा बढ़ते हुए विघटन से सामन्तवादी प्रथा को प्रोत्साहन मिला। निरंकुश एकतंत्र शासन प्रणाली के स्थापित होने से राजनीतिक चेतना और विदेशी आक्रमणकारियों से मुकाबला करने की शक्ति क्षीण होकर नष्ट होने लगी। इस युग में छोटे-छोटे शासकों के मध्य होने वाले ये युद्ध हमेशा ही किसी आवश्यकता के कारण नहीं होते थे। उनमें से अधिकांश का कारण केवल उन शासकों का शौर्य प्रदर्शन और पराक्रम दिखाना था। कहने का तात्पर्य यह कि केन्द्रीय सत्ता के अभाव में यह काल आपसी संघर्षों का काल था। भारत के उत्तर पश्चिमी सीमा पर लगातार मुसलमानों के आक्रमण हो रहे थे। हिन्दी साहित्य के आदिकाल का विकास भी इसी पृष्ठभूमि में हो रहा था । शासकों की आपसी लड़ाइयाँ, मुगलों के आक्रमणों का सामना, एकता का अभाव और राज्यों का बिखराव ही मान अपमान के प्रश्न बने । युद्धों ने देश को खोखला और जर्जर बना दिया। राजपूतों का उदय उस समय के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। उनके, शौर्य और पराक्रम का वर्णन उस युग के साहित्य में हुआ है। उत्तरी भारत में राजपूतों के छोटे-छोटे राज्य थे।

इनमें दिल्ली और अजमेर के चौहान, कन्नौज के राठौर बंगाल और बिहार के सेन, गुजरात के बघेल या सोलंकी तथा बुंदेलखंड के चंदेल विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 12वीं शताब्दी में चौहान वंश के नरेश विग्रहराज या बीसलदेव ने दिल्ली, झांसी तथा पंजाब के पूर्वी भाग पर तुर्कों से युद्ध किया तथा अपना राज्य स्थापित करने में सफल हुआ । इन राजपूत शासकों के शौर्य का वर्णन चारण कवियों ने किया है। मुहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान की ऐतिहासिक युद्ध का विवरण पृथ्वी राज रासो में मिलता है। राजपूत शासकों की भांति बंगाल के सन् 800 ई. से 1020 ई. तक के पाल शासकों में भीम, जयपाल, आनन्दपाल आदि ने भी तुर्कों का सामना किया।

उस युग की राजनीतिक व्यवस्था में दो मुख्य बातें मिलती हैं-केन्द्रीय सत्ता का हास और छोटे-छोटे राज्यों का उदय । राजनीतिक सत्ता का साहित्य के साथ क्या अंत : संबंध है तथा उसका प्रभाव किस रूप में साहित्य में फलित हुआ, इस बात पर ध्यान देना चाहिए। केन्द्रीय व्यवस्था के हास से संस्कृति के संदर्भ में भी केन्द्रीयता का ह्रास हुआ। कला में स्थानीय संस्कृति का प्रभाव बढ़ने लगा | स्थापत्य में स्थानीय विशेषता से युक्त महल और मंदिर बनने लगे। इसका उदाहरण हमें मध्यप्रदेश में खजुराहो, उड़ीसा में भुवनेश्वर के मंदिर तथा दक्षिण भारत के मंदिरों में देखने को मिलता है। कला और स्थापत्य के संबंध में जितनी यह बात सच है, उतनी ही भाषा के संबंध में सच है। गुप्त युग और हर्ष युग की केन्द्रीय सत्ता के हास के बाद संस्कृत भाषा की केन्द्रीयता भी समाप्त होती दिखाई पड़ती है।

बोलचाल की भाषा में साहित्य रचना होने लगी थी। प्राकृत और अपभ्रंश भाषा को महत्व दिया जा रहा था। जिसका बाद में देशभाषा के विकास में व्यापक योगदान रहा। कहने का अर्थ यह कि केन्द्रीयता का टूटना मात्र सत्ता तक सीमित न हो सका अपितु उसका प्रभाव जीवन के हर क्षेत्रों में दिखाई पड़ने लगा था। राजनीति के स्तर पर ही क्षेत्रीय अस्मिता का वर्चस्व नहीं बढ़ रहा था, भाषा के स्तर पर भी हिंदी, बंगला, उड़िया, असमिया आदि भाषा के निर्माण की प्रवृत्ति बढ़ रही थी।

राजनीतिक परिदृश्य के संबंध में दूसरी जो महत्वपूर्ण बात थी वह आपसी संघर्ष से संबंधित थी। छोटे-छोटे राज्य आपसी प्रभाव वृद्धि के लिए परस्पर लड़ा करते थे। उसका असर भी साहित्य पर बड़े गहरे रूप में पड़ा। अब साहित्य रचने की पद्धति बदल गई। राजदरबारों में पांडित्य प्रदर्शन संस्कृत साहित्य की मूलभूत विशेषता थी, इसका हास होने लगा था। साहित्य रचने के लिए अनुभव की जीवंतता अनिवार्य हो गई थी। चारण, युद्ध क्षेत्र में अनुभव प्राप्त करते थे इसलिए उनकी रचना में अनुभूति की वास्तविकता होती थी। वे भले ही उसका अतिरंजना पूर्वक वर्णन करते थे। इसीलिए हम देखते हैं कि राजनीतिक संगठन का प्रभाव केवल राजनीति तक सीमित नहीं होकर साहित्य को भी प्रभावित करता है। आदिकाल का रासो साहित्य इसका श्रेष्ठ उदाहरण है।

सामाजिक पृष्ठभूमि

विदेशियों के भारत आने पर भारतीय समाज में एक प्रकार की हलचल महसूस होने लगी। विदेशियों (मुसलमानों को छोड़कर) का हिंदू समाज में घुल मिल जाने से नई जातियों का उदय हुआ। राजपूतों का उदय कुछ इसी प्रकार से हुआ था। राजपूत के पास सत्ता होने से समाज में उनका दबदबा बढ़ा। ब्राह्मणों के वर्चस्व को थोड़ा खतरा महसूस हुआ। इसलिए उन्होंने वर्णवाद की कट्टरता को थोड़ा लचीला बनाकर राजपूत को क्षत्रिय की संज्ञा दी। ब्राह्मणों ने राजपूतों को नैतिक औचित्य प्रदान किया। इसका असर समाज पर भी बड़ा गहरा हुआ। दूसरे वर्गों और जातियों के लोग भी ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती देने की मुद्रा खड़े होने लगे। इसका जीवंत उदाहरण सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य में मिलता है। समाज में फैले कर्मकांड के प्रति तीखा विरोध इनके साहित्य में मिलता है।

इस युग में शिक्षा की व्यवस्था के अभाव में साम्प्रदायिक तनाव, सती-प्रथा, स्त्रियों की सुरक्षा के लिए पर्दा-प्रथा तथा विविध प्रकार के अन्ध विश्वासों का बोलबाला था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र – इन चारों वर्गों की प्रधानता थी तथा अनेक जातियों एवं उपजातियों में बँटकर भारत सामाजिक आदर्श खो चुका था। जाति-पाँति के बन्धन और अधिक कसते जा रहे थे। साधु-संन्यासियों के शाप और वरदानों के बीच सामान्य जनता आतंकित थी। निर्धनता, दुर्भिक्ष, निरंतर होने वाले युद्ध और महामारियों ने सामान्य जनता को संकट में डाल दिया था। आदिकाल के कवियों ने ऐसे ही परिवेश और वातावरण के अनुसार काव्य रचना की सामग्री का चयन किया। समाज की विषम परिस्थितियाँ जनता की रुचि के अनुकूल ही उस समय के साहित्य में प्रतिबिम्बित होने लगी।

सामंती समाज में स्त्रियों की दशा में और भी गिरावट आई। एक सामंत कई स्त्री अपने साथ . रखते थे। राजा के लिए स्त्री मात्र भोग का साधन थी। स्त्रियों का सामाजिक कर्तव्य पुरुष के भोग का साधन बनने तक सीमित था। नारियों को मानवीय गरिमा के अनुकूल अधिकार नहीं था। सामंतों ने नारी को उपभोग की वस्तु समझा। समाज की ऐसी मान्यताओं के प्रभाव से साहित्य भी अछता नहीं रहा। जिस तरह धन संपत्ति के लिए युद्ध किए जाते थे। इसी । प्रकार अब सुंदर नारी युद्ध का कारण हो गई। पृथ्वीराज रासो और बीसल देव रासो में कवि ने युद्ध का कारण ही सुंदर नारी का शत्रु के यहाँ से भागकर नायक के यहाँ आ जाने को। परिकल्पित किया है। सामंतों का नारी के प्रति जो दृष्टिकोण था, उसका प्रभाव धर्म पर भी पड़ा। मंदिरों में देवदासियों की प्रथा शुरू हो गई। यहाँ तक कि बौद्ध धर्म में तांत्रिक संप्रदाय का आरंभ हुआ। वज्रयानियों में ऊँच नीच कई वर्षों की स्त्रियों को लेकर मद्यपान के साथ । अनेक वीभत्स विधान का प्रारंभ हुआ। सिद्धों के साहित्य में तो ब्रह्मानंद को सहवास सुख के समान माना गया है।

आर्थिक क्रिया-कलाप

साहित्य और राजनीति, साहित्य और समाज के अंतः संबंधों पर चर्चा करने के उपरांत अब हम साहित्य और अर्थ व्यवस्था के बीच के संबंधों को समझने की कोशिश करेंगे। इस युग का का पोषण होता था। राज्य के उच्च पदाधिकारियों और सरदारों को नकद वेतन नहीं मिलता था अपितु इन्हें जागीर दी जाती थी। ये सारे मध्यस्थ समुदाय खेती नहीं करते थे। बड़े ऐशो आराम से जीवन गुजारते थे। किसानों की पैदावार में राज्य का हिस्सा कभीकभी 50 प्रतिशत तक होता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि समाज दो वर्गों में बँटा हुआ था – उत्पादक और उपभोक्ता । उत्पादक वर्ग को समाज में हीन दृष्टि से देखा जाता था। क्योंकि वे श्रम करते थे।

उपभोक्ता सुख से रहते थे इसलिए उच्च वर्ग से उनका संबंध था। कवि और चारण भी उच्च वर्गों के मनोनुकूल साहित्य की रचना करते थे। नखशिख वर्णन, षड़ऋतु वर्णन, विरह वर्णन और सौन्दर्य वर्णन इस काल के साहित्य में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। लेकिन कृषक को साहित्य में कोई स्थान नहीं मिला है। धार्मिक साहित्य में भी कृषक जीवन की पीड़ा और संकट को अभिव्यक्त नहीं किया गया है। जबकि भक्तिकालीन साहित्य ने निम्न वर्ग और किसानों की पीड़ा को साहित्यिक अभिव्यक्ति दी है। इसी अर्थ में वह प्रगतिशील साहित्य है। भक्ति साहित्य ने व्यवस्था की सीमाओं से परे जाकर समाज के लिए स्वप्न देखा है।

मध्यकालीन समाज में आर्थिक गतिविधि के तौर पर व्यापार का हास हो रहा था । व्यापार के पतन से नगर उजाड़ हो गए। भारत में उत्पादित वस्तुओं के लिए बाहर कहीं बाजार नहीं रह गया था। नगर में रहने वाले शिल्पी और वणिक लोग देहात चले गए। इससे कृषि पर और अधिक भार बढ़ गया। नगरों के हास से अखिल भारतीय संपर्क सूत्र कमजोर हो गया था। व्यापार के विकास से जिस सामान्य संपर्क भाषा का विकास होता है, उस भाषा का विकास स्वाभाविकता से नहीं हो पाया। भाषा के सामान्य संपर्क और संचार के अभाव में भाषा का स्वरूप भी स्थानीय हो गया। इसीलिए प्रादेशिक विविधता साहित्य का आधार हो गई।

धार्मिक स्थिति

सम्राट हर्षवर्धन के समय ब्राह्मण और बौद्ध धर्मों का समान आदर था । यद्यपि हर्ष बौद्ध मतावलम्बी था और उसके समय में बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रचार-प्रसार भी था, तो भी उसमें एक प्रकार की उदारता और धार्मिक सहिष्णुता थी। फलतः उसके समय में विभिन्न धर्मों में आपसी मेल-जोल था। इन धर्मों ने आपस में काफी आदान-प्रदान करते हुए समन्वय का उदाहरण भी प्रस्तुत किया। किन्तु राजनीति की तरह हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद धार्मिक स्थिति भी बदली। किसी केन्द्रीय सत्ता के अभाव में जब देश खंड राज्यों में विभक्त हो गया तो धीरे-धीरे धर्म के क्षेत्र में भी अराजकता फैल गयी। वेद-शास्त्रों के विधि-विधान और कर्म-काण्ड को लेकर चलने वाले ब्राह्मण धर्म तथा बौद्ध धर्म में भी संघर्ष होने लगे। विभिन्न धार्मिक संप्रदाय अपने पवित्र रूप को सुरक्षित न रख पाये तो विकृत होकर नये-नये रूपों में जनता के सामने आने लगे। परिणामतः आम आदमी धर्म के वास्तविक आदर्श को भूलकर जादू-टोने और तंत्र-मंत्र में विश्वास करने लगे थे।

आम जनता सिद्धियों की भूल-भुलैया द्वारा दिग्भ्रमित हो रही थी। बौद्ध धर्म का विकास हीनयान, वज्रयान, मन्त्रयान, सहजयान आदि और शाखाओं में होने लगा था। बौद्ध धर्म की इन शाखाओं में मंत्र, तंत्र, हठयोग आदि के साथ पंच मकारों (मांस, मैथुन, मत्स्य, मद्य तथा मुद्रा) को भी विशेष स्थान प्राप्त होता जा रहा था। इनके बिना साधना अधूरी मानी जाती थी। स्पष्ट है कि अपने इस रूप में यह मत विकारों को प्रश्रय देने लगा था तथा वाममार्गी हो गया । तंत्र-मंत्र, जादू-टोने तथा भोग-विलास को लेकर चलने वाले ये वाममार्गी ही बौद्ध-सिद्ध कहलाए तथा दूसरी तरफ धर्म-नियम, संयम और हठयोग के द्वारा साधना के कठिन मार्ग पर बढ़ने वाले नाथ सिद्ध के रूप में जाने गए। पर अपने मूल रूप में ये दोनों ही बौद्ध थे जो धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के विकृत या परिवर्तित रूप में ढलते चले गये।

आदिकालीन साहित्य की जब रचना हो रही थी उस काल में उत्तर भारत में तंत्रवाद का विकास . हो रहा था। दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन का सूत्रपात हो चुका था। उत्तर भारत में तंत्र संप्रदाय का फैलना धार्मिक दृष्टि से सबसे बड़ी घटना थी। पाँचवीं से सातवीं सदी में नेपाल, असम, बंगाल, उड़ीसा और बिहार में तांत्रिक साधनाओं का प्रचार हुआ। तंत्र मार्ग में स्त्री और शूद्रों दोनों के लिए द्वार खुला था। इसलिए जन सामान्य के बीच इसका प्रचार हो रहा था। तंत्र मार्ग मात्र बौद्ध धर्म तक ही सीमित नहीं था। जैन, बौद्ध, शैव और वैष्णव सभी संप्रदायों में तंत्रवाद का प्रभाव बढ़ रहा था। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि स्त्री और शूद्रों के प्रति सामान्य स्वीकृति बन रही थी। दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन विकसित हो रहा था। ये भक्त नयनार और आलवार थे। इन्होंने भक्ति और प्रेम का संदेश एक जगह से दूसरी जगह फैलाया। इन भक्तों में कुछ निम्न जाति के लोग, कुछ ब्राह्मण और कुछ स्त्रियाँ थीं। तंत्रमार्ग और भक्ति दोनों ने जातीय विषमता की जगह समानता के महत्व को प्रतिपादित किया ।

दक्षिण भारत में चन्नावासव लिंगायत शिव का पुजारी था। उसने जाति व्यवस्था का कड़ा विरोध किया। उसने जाति व्यवस्था, उपवास, प्रीतिभोज और बलिप्रथा को अस्वीकार किया। सामाजिक क्षेत्र में उसने बाल विवाह का विरोध किया और विधवा विवाह की अनुमति दी। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म आध्यात्मिक सरोकार से ज्यादा सामाजिक सरोकार था। हर जगह स्थापित जीवन मूल्यों और पंरपरावादी मतवादों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया गया था। इसका प्रभाव नाथों और सिद्धों के साहित्य में दिखाई पड़ता है।

समाज में हिंदू दर्शन को पुनः प्रतिपादित करने वाले शांकर ने बौद्धिक स्तर पर जैन धर्म और बौद्धधर्म को सबसे भयंकर चुनौती दी। शांकर ने भक्ति की अपेक्षा ज्ञान के महत्व को प्रतिपादित किया। लेकिन उनका ज्ञानवाद जनसामान्य में प्रसारित नहीं हो सका | पश्चिमी भारत में व्यापारियों के बीच जैनधर्म लोकप्रिय था । पश्चिमी भारत में जैन धर्म का प्रसार हो रहा था। लेकिन बौद्ध धर्म का विकास अवरुद्ध हो गया था। जब बख्तियार खिलजी ने नालंदा पर . आक्रमण किया तब बौद्ध धर्म मध्यभारत से लुप्त प्राय हो गया था।

मिश्रित सांस्कृतिक प्रक्रिया

सातवीं से बारहवीं शताब्दी का भारत एक मिश्रित संस्कृति के निर्माण की प्रक्रिया में था। मिश्रित कहने का अर्थ है कि अनेक धाराएँ उसमें आकर मिलीं और मिलकर लय हुईं। भारतीय संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति का संपर्क परस्पर बढ़ रहा था। प्रारंभ में ये दोनों संस्कृतियाँ एक-दूसरे के सामने प्रतिद्वन्द्वी में रूप में जमकर खड़ी होती हैं, पर जैसे-जैसे सत्ता में मुगलों का प्रभाव बढ़ता गया वैसे-वैसे इस्लाम संस्कृति का प्रभाव हिन्दू संस्कृति पर पड़ता गया । तत्कालीन कला और संस्कृति के क्षेत्र में परस्पर आदान-प्रदान को सहज ही देखा जा सकता है कला के गतिमान और सर्जनात्मक रूप में यह प्रवृत्ति दिखाई पड़ रही थी।

भाषा में अरबी और फारसी के शब्दों का मिश्रण हो रहा था। स्थापत्य में पहले से चली आ रही भारतीय विशेषताओं के साथ मुस्लिम स्थापत्य के मेहराब का सम्मिश्रण हो चुका था। स्थानीय स्थापत्य कला का भी मुस्लिम स्थापत्य से सहयोग बढ़ रहा था, उदाहरण के लिए राजपूताना शैली और गुजराती शैली का नाम गिनाया जा सकता है। संगीत के क्षेत्र के नये-नये वाद्य यंत्रों और नए रागों का प्रचलन बढ़ रहा था। सारांश यह कि भारतीय संस्कृति के समावेशी तत्व का विकास हो रहा था।

आदिकालीन साहित्य का वगीकरण

आदिकालीन साहित्य के निर्धारण के संबंध में आपने इस इकाई के बिन्दु 2.4 में जानकारी प्राप्त की। आदिकाल में जो साहित्य उपलब्ध होता है उसमें भाषा और प्रवृत्ति दोनों ही दृष्टियों से वैविध्य पाया जाता है। इस काल के साहित्य में धार्मिक, शृंगारिक, वीररस-प्रधान आदि अनेक प्रकार की प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए हम आदिकालीन साहित्य को निम्न वर्गों में विभाजित कर सकते हैं :

  • सिद्ध साहित्य
  • नाथ साहित्य
  • जैन साहित्य  (धर्म संबंधी साहित्य)
  • रासो काव्य
  • लौकिक साहित्य
  • गद्य रचनाएँ

हिन्दी कविता का प्रारंभिक प्रारूप भारत में सिद्धों की रचनाओं में मिलता है। सिद्धों का संबंध बौद्ध धर्म से था। बौद्ध धर्म कालांतर में तंत्रवाद में परिवर्तित हो गया । वज्रयान इसी प्रकार की साधना थी। सिद्ध व्रजयानी थे। वज्रयानी साधना, वाममर्गी साधना थी। इसमें पूजा पाठ के स्थान पर रहस्य और गुप्त साधना का प्रचलन था। सिद्धों ने अपने साहित्य में कायायोग, सहज शून्य तथा समाधि की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन सिद्धों ने स्थापित मान्यताओं का विरोध किया है। उनके विरोधी तेवर का नतीजा मात्र साधना के ही स्तर पर प्रकट न होकर सामाजिक मान्यताओं के स्तर पर भी प्रतिफलित हुआ है। सिद्ध साहित्य का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उनका विरोध मात्र सामाजिक संस्था के स्तर पर नहीं। दिखाई देता अपितु उसी विद्रोही प्रवृत्ति का प्रभाव साहित्यिक अनुभूति और भाषा की। अभिव्यंजना में भी सर्वत्र प्राप्त होता है। वे जो कुछ कहना चाहते थे उसे सीधे अर्थ में कहने से उस व्यवस्था से विरोध प्रकट होता था जिसे उस समय के समाज ने निर्मित किया था। व्यवस्था से सीधा टकराना उन योगियों के लिए आसान नहीं था। अतः उन्होंने अर्थ को कभी उलटकर कभी, छुपाकर प्रकट किया, जिससे उनका मंतव्य भी स्पष्ट हो जाए और व्यवस्था से सीधा टकराव भी हो।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सिद्धों की कविता को हिन्दी साहित्य में स्थान नहीं दिया था लेकिन हिन्दी के प्रारंभिक रूप का पता उन्हें सिद्धों की रचनाओं में मिलता है। इन दोनों बातों में एक प्रकार का विरोधाभास है। आचार्य शुक्ल यदि सिद्धों को साहित्य लोकमर्यादा विरोधी है, उनमें जीवन की। स्वाभाविक अनुभूतियाँ नहीं है। लेकिन ध्यान से देखा जाए तो यह सिद्धों के विद्रोही तेवर का ही नतीजा है कि वे लोकजीवन के यथास्थितिवाद का भी विरोध करते हैं और भाषा के स्तर पर उनका वही विद्रोह प्रतिफलित होता है। उन्होंने अपभ्रंश की साहित्यिक भाषा को छोड़कर जनता की भाषा को अपनाया। सिद्धों के साहित्य की विशेषताओं की विस्तृत चर्चा हम अगली इकाई में करेंगे।

नाथ संप्रदाय का प्रारंभ सिद्धों के थोड़े समय बाद हुआ। नाथ पंथ की दार्शनिकता का आधार शैव मत है और व्यवहार में उन्होंने पतंजलि के हठयोग को अपनाया है। इन्हीं कुछ आधारों पर उन्होंने अपने संप्रदाय को सैद्धान्तिक रूप दिया है। सिद्धों की वाममार्गी साधना के विपरीत उन्होंने मद्यमांस त्याग तथा मानसिक शुचिता पर बल दिया है। सिद्धों ने साधना को विकृत बना दिया था लेकिन नाथपंथियों ने उसे फिर से जनता के लिए संभव बनाने पर जोर दिया। इड़ा-पिंगला, नाद-बिंदु की साधना, षटचक्रभेदन, शून्य चक्र में कुंडलिनी का प्रवेश आदि नाथों की अंतर साधना के मुख्य अंग हैं | नाथ साहित्य में दो महत्वपूर्ण बातों की ओर ध्यान जाता है। पहली यह कि नाथ साहित्य में धर्म निरपेक्ष दृष्टि दिखाई देती है। इसमें ईश्वर से मिलाने वाला योग हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य साधना के रूप में प्रस्तुत हुआ है ।

नाथपंथ में धार्मिक कट्टरता नहीं मिलती है। दूसरी जो महत्वपूर्ण बात नाथ साहित्य के संदर्भ में कही जा सकती है, वह यह कि नाथों के साहित्य में यायावरी साहित्य का गुण मिलता है। नाथ जोगी अपने धर्म प्रचार के लिए विभिन्न प्रदेशों की यात्रा करते थे। देश के मध्य भाग तथा पश्चिमी भाग में वे घूमते रहते थे। यात्रा में विभिन्न प्रदेशों की संस्कृति, भाषा और व्यवहार से परिचय होता . है। यह प्रभाव उनकी भाषा पर भी पड़ा | नाथों ने धर्म के स्तर पर ही सहिष्णुता और आपसी सद्भाव की भावना विकसित नहीं की, भाषा के स्तर भी उन्होंने इस भाव को अर्जित किया। इसी भाषा की प्रस्तावना बाद के निर्गुण साहित्य में भी मिलती है।

कबीर आदि ने इसी प्रकार की भाषा को अपनाया । नाथों की भाषा का महत्व परवर्ती साहित्य की पृष्ठभूमि के रूप में समझा जा सकता है। सैद्धांतिक और रहस्यवादी आग्रहों को छोड़कर केवल उनके साहित्य की स्वाभाविकता को भी ध्यान में रखा जाय तो परवर्ती भक्तिकाल के संत साहित्य पर नाथों का बहुत बड़ा ऋण है। जो एक कमजोरी नाथों के साहित्य में प्राप्त होती है, वह है, गृहस्थ जीवन के प्रति उनमें उपेक्षा का भाव । इसलिए लोक जीवन की वास्तविक अनुभूतियों और स्वाभाविक दशाओं का वर्णन उनके साहित्य में नहीं मिलता है। नाथ साहित्य का व्यापक योगदान संतसाहित्य की परंपरा को अपना उत्तराधिकार सौंपने में है।

जैन साहित्य की अधिकांश रचनाएँ अपभ्रंश साहित्य के अंग हैं। जिनके बारे में आप अगली इकाई में पढ़ेंगे। लेकिन कुछ साहित्य अवश्य ऐसे हैं, जिन्हें हिंदी भाषा और साहित्य की रचना कहा जा सकता है। इन रचनाओं में कुछ का उल्लेख किया जा सकता है। शालिभद सूरि की रचना “भरतेश्वर बाहुबली रास (1884 ई.), असुग की कृति “चंदनवाला रास” (1200 ई.) जिनधर्म सूरि कृत “स्थूलिभद्र रास” (1209 ई.). विजय सेन सूरि की रचना “रेवन्तगिरिरास” (1231 ई.), सुमतिगण का “नेमिनाथ रास” जैसी कुछ साहित्यिक कृतियों को हिन्दी साहित्य में स्थान मिलना चाहिए। अब प्रश्न उठता है कि जैन रचनाओं के अध्ययन की क्या आवश्यकता है। प्रारंभिक हिंदी रचनाओं की सृजनात्मक अनुभूति को समझने के लिए जैन साहित्य का अध्ययन अनिवार्य है क्योंकि जैन साहित्य उस हिंदी का अभिन्न अंग है। आचार्य शुक्ल अवश्य धार्मिक साहित्य के आधार पर जैन ग्रंथों को हिंदी से बाहर रखना चाहते हैं । धार्मिकता साहित्यिक संवेदना का अवरोधक तत्त्व नहीं है नहीं तो भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग नहीं होता। प्रश्न केवल यह उठता है कि यह साहित्य अपने दृष्टिकोण में कितना प्रगतिशील है। धार्मिक मतवाद के बीच यह तलाश करने की आवश्यकता होती है कि उनमें मानवीय अनुभूतियों का कितना गहरा स्पर्श है। उसमें सामाजिक बोध और मानवीय गरिमा को पाने की क्षमता किस हद तक है । धार्मिक परत को हटाने के बाद उस साहित्य से जीवन का सौन्दर्य मिलता है या नहीं।

यही हमारे साहित्यिक संवेदना को परखने तक आधार हो सकता है। भारतीय साहित्य में “महाभारत” जैसे महाकाव्य में धार्मिक जटिलता है लेकिन इसके साथ उसमें हमें मानवीय सच का गहरा बोध भी मिलता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मानवीय अनुभूति ही साहित्य का आधार है। इसी से कलाकृति का सामाजिक मूल्य और जीवन मूल्य पहचाना जाता है। आदिकाल की परिधि में जो जैन साहित्य आता है उसमें धर्म मात्र प्रेरणा का विषय है। जैन साहित्य में भावों की जटिलता को मनोवैज्ञानिक रूप में चित्रित किया गया है। मानव के विविध भावों के बीच जो अंतर्द्वन्द्व चलता है, उसका सूक्ष्मता से विश्लेषण मिलता है।

आदिकालीन साहित्य की एक विशेष प्रवृत्ति ‘रासो साहित्य’ है। सामान्यतया रासो काव्य से वीरगाथात्मक काव्य का बोध होता है। रासो काव्य की एक विशिष्ट परंपरा इस युग में मिलती है। रासो साहित्य की रचना भट्ट और चारणों द्वारा की गई है। रासो काव्य और अपभ्रंश के रास काव्य, के बीच कोई संबंध रहा है या नहीं इस पर विद्वानों में विवाद है। रासो और रास काव्य के बीच थोड़ा भेद है। रासो काव्य धारा ने जहाँ जीवन के युद्ध और प्रेम के पक्षों तक अपनी संवेदना को सीमित रखा, वहीं रास काव्य में जीवन के विविध पक्षों का चित्रण मिलता है। पं. नरोत्तम स्वामी के अनुसार रास और रासों में अंतर अंत तक बना रहा है। वे रास को मूलतः प्रेम काव्य मानते हैं। तथा रासो काव्य को वीर काव्य मानते हैं। उनके अनुसार रास के उदाहरण “संदेश रासक” तथा रासो के “पृथ्वीराज रासो” या “कटहिया कौ रासो’ हैं । वस्तुतः विषय वस्तु की दृष्टि से और काव्य शैली की दृष्टि से दोनों काव्यों में समानता हो सकती है। अब रासो और रास के अर्थ एक विशेष प्रकार के काव्य के लिए रूढ़ हो गए हैं | रास काव्य में जैन कवियों। द्वारा लिखे हुए रासक ग्रंथ और “संदेश रासक” जैसे काव्य आते हैं । रासो काव्य में चारणों द्वारा लिखे गए वीरता की भावना से भरे हुए काव्य को स्थान दिया जाता है।

साहित्य किस प्रकार से संरक्षित हुआ होगा, बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए जैन साहित्य की । प्रामाणिकता असंदिग्ध है क्योंकि धार्मिक संरक्षण के कारण इसकी पांडुलिपि मठों में पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित रह सकी। रासो साहित्य की रचना चारणों द्वारा होती थी जो राजाश्रय में रहते थे। राजाओं के आपसी संघर्ष में स्वयं राजाओं का टिकना संभव नहीं हो पा रहा था, तब उनके द्वारा संरक्षित साहित्य कितनी सुरक्षा पा सकता था, यह सोचने की बात है। चारणों ने उसमें कई फेर बदल किए। लोककंठ में तो परिवर्तन अवश्यंभावी है ही। अतः केवल प्रामाणिकता के आधार पर रासो साहित्य को त्यागने की अपेक्षा उनके सारभूत तत्व को ग्रहण करना अधिक महत्वपूर्ण है। इसीलिए तो आचार्य शुक्ल ने लिखा था “जो कुछ पुराने काव्य-जैसे बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो-आजकल मिलते हैं वे संदिग्ध हैं। इसी संदिग्ध सामग्री को लेकर थोडा बहुत विचार हो सकता है, उसी पर हमें संतोष करना पड़ता है।”

रासो साहित्य की रचना जनमानस की सहज अभिव्यक्ति का परिणाम नहीं है। रासो साहित्य सामंती समाज की उपज है। इसलिए रासो साहित्य के कथानक की बनावट भी सामंतों के मनोनुकूल ही हुई है। केन्द्रीय सत्ता के अभाव में सामंतों की क्षेत्रीय ताकत के बीच अधिक संघर्ष हुए थे। रासो साहित्य उसी की कहानी कहता है। उसमें से कवि ने प्रेम प्रसंग की संभावना के लिए जगह खोज ली है।

रासो काव्य परंपरा में दूसरे प्रकार की रचना वीरगीत के रूप में मिलती है। बीसलदेव रासो और परमाल रासो वीरगीत हैं | गेय काव्य की यह विशेषता है कि उसका निवास लोक कंठ में होता है। वह लोककंठ में ही पीढ़ी दर पीढ़ी जीती रहती है। लोक काव्य लोक जीवन के कितना निकट होता है इसका प्रमाण परमाल रासो में मिलता है। यह काव्य जनमानस की स्मृति में अभी भी बना हुआ है। समय प्रवाह में भाषा बदल गई, अर्थ बदल गए लेकिन भाव ज्यों के त्यों बने हुए हैं। आज भी आल्हा गाने वाले आल्हा की धुनों पर झूमते हुए मिल जायेंगे।

आदिकाल में साहित्य धार्मिक साहित्य और चारणों की रचनाओं तक ही सीमित नहीं था। उस समय लोक साहित्य की क्षीण धारा भी सक्रिय थी। जो सही अर्थ में देशभाषा काव्य थी।

लौकिक साहित्य तीन क्षेत्रों में प्राप्त होते हैं – राजस्थान, दिल्ली और मिथिला । इन तीन क्षेत्रों के साहित्य में उस काल की लोक संवेदना की थोड़ी बहुत झाँकी मिल सकती है। इस साहित्य के अंतर्गत भक्ति तथा श्रृंगार को लेकर काव्य रचना की गई। जनता के मनोरंजन हेतु झाँकियों तथा पहेलियों का सृजन किया गया। उनके अतिरिक्त इस युग में सामान्य व्यक्ति को काव्य का नायक बनाकर धनपाल नामक जैन कवि ने नवीन प्रवृत्ति का प्रारंभ भी किया। 

आदिकाल में पद्य रचनाओं के साथ कुछ-कुछ गद्य रचनाएँ भी होती रही थीं। लेकिन गद्य में उस वास्तविकता का वर्णन नहीं है जिसमें जीवन की यथार्थता को रचने की शक्ति होती है। आदिकाल में जो गद्य मिलता है वह व्याकरण और शास्त्र की सीमाओं में खंडन-मंडन तक ही सीमित है। इस काल की तीन उल्लेखनीय गद्य रचनाएँ हैं – रोडा की कृति “राहुल खेल” दामोदर भट्ट की कृति “उक्ति व्यक्ति प्रकरण” और ज्योतिरीश्वर ठाकुर कृत ‘वर्णरत्नाकर’।

सारांश

इन इकाई में आपने आदिकाल की पृष्ठभूमि का अध्ययन किया। इस इकाई में हमने चर्चा की कि किन बिन्दुओं पर आदिकाल और अपभ्रंश साहित्य अलग होता है। यह रूपांतरण मात्र भाषा के धरातल पर ही नहीं होता अपितु संवेदना के धरातल पर भी होता है। अपभ्रंश भाषा और साहित्य ने हिन्दी साहित्य को कई तरह से प्रभावित किया। संस्कृत, अपभ्रंश तथा देशी भाषाओं के इस युग में ही हिन्दी साहित्य के इतिहास का प्रारंभ हो रहा था। इस युग के साहित्य को प्रभावित और नियंत्रित करने में आदिकालीन परिवेश का बहुत बड़ा योगदान था। युग की पृष्ठभूमि पर विचार करते हुए इस विषय पर हमने विस्तार से चर्चा की। इकाई में आपने आदिकाल के साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों की जानकारी भी प्राप्त की। मध्य भारत, पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत

और दक्षिणी क्षेत्रों में आदिकालीन हिन्दी साहित्य, रूप और संवेदना में अलग था। पूर्व में यदि .. सिद्धों की रहस्यात्मक वाणी का आभास मिलता है तो पश्चिमी भारत में चारण कवियों। द्वारा लिखा गया रासो साहित्य। मध्य भारत में नाथों की वाणी और अमीर खुसरो का लोकरंजन प्रधान साहित्य दिखाई देता है। वास्तव में आदिकालीन साहित्य भाषा की प्रवृत्तिगत विविधता से भरा हुआ है।

अभ्यास प्रश्न

  1. अपभ्रंश के स्वरूप और विकास की चर्चा कीजिए।
  2. हिन्दी भाषा के विकास का परिचय देते हुए अपभ्रंश और हिन्दी के बीच का अंतर स्पष्ट कीजिए।
  3. आदिकालीन साहित्य की पृष्ठभूमि पर चर्चा करते हुए बताइए कि उस युग की परिस्थितियों से उस समय का साहित्य कैसे प्रभावित हुआ।

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