प्रगतिशील साहित्य

इस इकाई में आप आधुनिक हिंदी साहित्य की एक प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्ति प्रगतिशील साहित्य का अध्ययन करेंगे। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप प्रगतिशील साहित्य के सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य का विवेचन कर सकेंगे। आप प्रगतिशील आंदोलन के उभार के कारणों को जान सकेंगें और साहित्य पर उसके प्रभाव की समीक्षा कर सकेंगे।

हिंदी साहित्य के संदर्भ में आप प्रगतिशील साहित्य के उदय की जानकारी प्राप्त करेंगे। वैसे तो प्रगतिशील आंदोलन ने साहित्य की सभी विधाओं को प्रभावित किया है लेकिन इस इकाई में हम मुख्यतः प्रगतिशील कविता की परंपरा का ही उल्लेख करेंगे। यह भी आप इकाई पढ़कर समझ सकेंगे कि प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ कौन सी हैं और उनकी क्या विशेषताएँ हैं। इस तरह यह इकाई आपको प्रगतिशील साहित्य के विभिन्न पहलुओं की जानकारी देगी और उनको समझने और. जाँचने की दृष्टि से भी परिचित कराएगी।

इस खंड में आप आधुनिक साहित्य का परिचय प्राप्त कर रहे हैं। इस इकाई का संबंध प्रगतिशील साहित्य से है। जब हम आधुनिक साहित्य के संसार में प्रवेश करते हैं तो हमें इससे पूर्व के साहित्य से भिन्न तरह का साहित्य पढ़ने को मिलता है। हिंदी साहित्य में इससे पहले तक वीर, भक्ति और श्रृंगार से संबंधित कविताएँ लिखी जाती थीं। लेकिन आधुनिक युग में हमें इन विषयों से भिन्न विषयों पर कविताएँ पढ़ने को मिलती हैं। यह भिन्नता लगातार बढ़ती जाती है। अब मनुष्य के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैयक्तिक अनुभवों पर भी कविताएँ लिखी जाने लगीं। यही नहीं उसके अनुभव संसार में आने वाली हर वस्तु, भाव और विचार कविता के विषय होने लगे। यह साहित्य की दुनिया में एक बड़ा बदलाव था। इस बदलाव को आपने पहले की इकाइयों में समझा होगा। यह बदलाव की प्रक्रिया निरंतर चलती रही है। भारतेंदु युग में जिस तरह की कविताएँ लिखी जाती रही हैं ठीक वैसी ही कविताएँ द्विवेदी युग में नहीं लिखी गईं। भिन्नता को हम छायावाद और छायावादोत्तर कविता में भी देख सकते हैं। हम इन बदलावों के बारे में यहाँ चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि आप उनको पढ़ चुके हैं। हमारे कहने का तात्पर्य यही है कि प्रगतिशील साहित्य परिवर्तन की इस प्रक्रिया का स्वाभाविक परिणाम है। यह परिवर्तन क्यों हुआ इसके ऐतिहासिक कारण क्या थे और ये परिवर्तन किस तरह के हैं, इस पर भी हम इस इकाई में चर्चा करेंगे।

आधुनिक साहित्य में दूसरा बड़ा बदलाव भाषा और शिल्प के स्तर पर हुआ । भाषा के स्तर पर दो बातें हई। एक तो कविता के साथ-साथ गद्य में भी रचनाएँ होने लगी और लेखकों ने ब्रज को त्याग कर खड़ी बोली हिंदी को अपनाना शुरू किया। पहले गद्य की भाषा खड़ी बोली हुई और बाद में कविता भी खड़ी बोली हिंदी में लिखी जाने लगी। साहित्य में कई नई विधाओं में लेखन बढ़ा जिनमें निबंध, कहानी.. नाटक, उपन्यास और आलोचना के अलावा भी कई अन्य गद्य विधाएँ शामिल हैं। लेकिन एक बात इस संदर्भ में गौर करने लायक है। भारतेंदु और द्विवेदी युग तक के साहित्य की दुनिया में होने वाले परिवर्तनों को हम कविता और गद्य में एक-सा पाते हैं। लेकिन छायावाद और उत्तर छायावादी कविता में हम ऐसा नहीं पाते। जिस समय छायावाद के कवि जिस तरह की कविता कर रहे थे उस समय लिखा जाने वाला गद्य छायावादी गद्य साहित्य के रूप में नहीं पहचाना गया। इसी तरह उत्तर छायावादी कविता की तरह कोई उत्तर छायावादी गद्य साहित्य नहीं जन्मा। इसका कारण क्या है, यह साहित्य के इतिहासकारों के विचार का मुद्दा हो सकता है। हम यहाँ फिलहाल इस पर विचार नहीं करेंगे। हम सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि छायावाद के दौर में गद्य और पद्य में जो भेद उत्पन्न हो गया था वह प्रगतिशील आंदोलन के समय एक बार फिर मिट गया । साहित्य का प्रगतिशील आंदोलन सिर्फ कविता का आंदोलन नहीं था बल्कि उसकी अभिव्यक्ति साहित्य की सभी विधाओं में हो रही थी। यही नहीं, यह ऐसा आंदोलन भी था जो साहित्य से इतर कलाओं मसलन, थियेटर, चित्रकला, संगीत फिल्म आदि में भी अभिव्यक्त हो रहा था। इसके साथ ही यह सिर्फ हिंदी तक सीमित नहीं था बल्कि यह भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं के साहित्य में एक साथ प्रकाशित हो रहा था। प्रगतिशील साहित्य पर विचार करते हुए हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा।

प्रगतिशील साहित्य का संबंध हमारे राष्ट्रीय आंदोलन से बहुत गहरा है। आजादी का आंदोलन आधुनिक साहित्य की अब तक की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों को प्रेरित और प्रभावित करता रहा है लेकिन प्रगतिशील आंदोलन ऐसा आंदोलन भी है जिसे हम विश्वव्यापी कह सकते हैं। यूरोप में फासीवाद के उभार के विरुद्ध संघर्ष के दौरान इस आंदोलन का जन्म हुआ था, और भारत जैसे औपनिवेशिक देशों के लेखकों और कलाकारों ने इसे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन से जोड़ दिया। इस आंदोलन के पीछे मार्क्सवादी विचारधारा की शक्ति और सोवियत संघ के निर्माण की ताकत भी लगी हुई थी। इसने साहित्य के उद्देश्य से लेकर वस्तु और रूप तक के सवालों पर नये तरह की सोच को सामने रखा जो उस समय लेखकों और कलाकारों के बीच जीवंत बहस के मुद्दे बने। इस इकाई में हम इन सभी पहलुओं के बारे में विचार करेंगे। जाहिर है कि हमारा मकसद हिंदी साहित्य के संदर्भ में प्रगतिशील साहित्य, विशेष रूप से प्रगतिशील कविता का परिचय प्राप्त करना है इसलिए मुख्य रूप से हम अपनी बातचीत को इसी पर केंद्रित रखेंगे।

प्रगतिशीलता का सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य

प्रगतिशील साहित्य पर विचार करते हुए इस समस्या का सबसे पहले सामना करना पड़ता है कि क्या प्रगतिशील और प्रगतिवाद में अंतर है? अंग्रेजी में जिसे प्रोग्रेसिव लिटरेचर कहते हैं और उर्दू में तरक्की पसंद अदब उसे ही हिंदी में प्रगतिशील साहित्य नाम दिया गया है। हिंदी में प्रगतिशील के साथ-साथ प्रगतिवाद शब्द का भी प्रयोग होता रहा है। इस संदर्भ में भ्रम प्रगतिशील लेखकों और गैर प्रगतिशील लेखकों दोनों ने फैलाया है। गैर प्रगतिशील लेखकों ने उस साहित्य को जो मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के अनुसार लिखा गया है प्रगतिवाद नाम दिया। कुछ ने कम्युनिस्ट पार्टी के दिशा निर्देश के अनुसार लिखे गये साहित्य को प्रगतिवाद कहा, तो कुछ ने प्रगतिशील लेखक संघ के निर्देश के अनुसार लिखे गये। साहित्य को प्रगतिवाद नाम दिया। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्यकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है इसलिए यह भी कहा गया कि लेखक को किसी संकीर्ण विचारधारा में बँधने की बजाए एक व्यापक मानवतावादी नजरिया अपनाना चाहिए। प्रगतिशील साहित्य को प्रगतिवाद के विपरीत ऐसा साहित्य कहा गया जिसमें छायावाद के बाद की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों को आधार बनाया गया हो और जो मार्क्सवादी या प्रगतिशील लेखक संघ से बँधा न हो। इस संदर्भ में डॉ. नामवर सिंह की टिप्पणी गौरतलब है। उन्होंने ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ’, नामक अपनी पुस्तक के ‘प्रगतिवाद’ नामक अध्याय में लिखा था कि “…..जिस तरह छायावाद और छायावादी कविता भिन्न नहीं है, उसी तरह प्रगतिवाद और प्रगतिशील साहित्य भी भिन्न नहीं है। ‘वाद’ की अपेक्षा ‘शील’ को अधिक अच्छा समझकर इन दोनों में भेद करना कोरा बुद्धि-विलास है और कुछ लोगों की इस मान्यता के पीछे प्रगतिशील साहित्य का प्रच्छन्न विरोध-भाव छिपा है।”

प्रगतिवादी विचारधारा

प्रगतिवादी साहित्य कहा जाए या प्रगतिशील साहित्य बुनियादी तौर पर उनमें कोई भेद नहीं है। यह सही है कि प्रगतिशील लेखकों ने अपनी विचारधारात्मक प्रेरणा मार्क्सवाद से ग्रहण की लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रगतिशील साहित्य मार्क्सवाद का अनुवाद भर है। इसी तरह यह सही है कि सन् 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद हिंदी, उर्दू के ही नहीं बल्कि दूसरी भाषाओं के भी अधिकांश लेखक इसके साथ जुड़े लेकिन इसी कारण यह समझना कि वे सभी एक ही तरह का साहित्य लिख रहे थे और लेखन के लिए वे इस संगठन से निर्देश प्राप्त करते थे अनैतिहासिक तथ्य है। वस्तुतः लेखक प्रगतिशील लेखक संघ के झंडे तले इसलिए इकट्ठे हो रहे थे क्योंकि उन्हें यह महसूस हो रहा था कि देश को औपनिवेशिक दासता से मुक्त कराने के लिए और दुनिया को फासीवाद के खतरे से बचाने के लिए उन्हें भी उसी तरह संगठित होना चाहिए जिस तरह मजदूर, किसान और विद्यार्थी एकत्र हो रहे थे। साहित्य और संस्कृति की स्वायत्तता और स्वतंत्रता पर फासीवाद और उपनिवेशवाद दोनों प्रहार कर रहे थे। उस समय साहित्य में यह सवाल अहम् सवाल हो गया था कि ‘तय करो कि तुम किस ओर हो’। यह सवाल इस तरह भी पूछा जा रहा था कि ‘साहित्य किसलिए’।

यह नहीं भूलना चाहिए कि यह दौर ही ऐसा था कि कोई भी लेखक तटस्थ होकर अपना लेखन नहीं कर सकता था। अज्ञेय जैसे लेखक जो । कभी प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य नहीं रहे और जिन्होंने कभी मार्क्सवाद को विचारधारा के रूप में अंगीकार नहीं किया वे भी आजादी के संघर्ष में क्रांतिकारी के रूप में शामिल हुए थे और जेल की सजा भगती थी। यही नहीं उन्होंने फासीवाद के खिलाफ संघर्ष में कम्युनिस्टों के साथ मिलकर काम किया था। कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि जिस समय प्रगतिशील साहित्य आंदोलन का उदय हुआ था और जब वह अपने उत्कर्ष की तरफ बढ़ रहा था, तब देश और शेष विश्व की स्थितियाँ इसके अनुकूल थीं।

अब प्रश्न उठता है कि प्रगतिशील या प्रगतिवाद क्या है। प्रगतिवाद मार्क्सवाद का पर्याय नहीं है न ही यह समाजवाद और साम्यवाद का पर्याय है। मार्क्सवाद और समाजवाद की बजाए लेखकों ने प्रगतिवाद शब्द चुना तो केवल इसलिए कि वे साहित्य और कला के क्षेत्र में उन सभी लेखकों और कलाकारों को एक साथ लाना चाहते थे जो मानव प्रगति और भाईचारे में विश्वास करते थे और जो यह मानते थे। साहित्य का मकसद लोगों को हर तरह के शोषण और उत्पीड़न से मुक्त कराकर एक समतावादी समाज की स्थापना करने के लिए प्रेरित करना है। इस विचार की एक सीमा यदि नवजागरण दौर के ज्ञानोदय की अवधारणा थी तो दूसरी सीमा मार्क्सवाद । यूरोप में ज्ञानोदय ने जिस आधुनिक प्रगतिशील मानव-प्रेरित विचारों को सामने रखा था मार्क्सवाद ने उसे ही एक वैज्ञानिक और क्रांतिकारी रूप प्रदान किया। इसलिए यह स्वाभाविक है कि प्रगतिशील साहित्य पर विचार करते हुए उसके सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य के रूप में मार्क्सवाद पर विचार किया जाता।

कार्ल मार्क्स ने लिखा है कि अब तक दार्शनिकों ने दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है जब कि जरूरत उसे बदलने की है। यही कारण है कि मार्क्सवादी, सामाजिक परिवर्तनों की जानकारी देने के साथ ही सामाजिक रूपांतरण के लिए जरूरी तत्त्वों और प्रक्रियाओं की भी जानकारी देता है। मार्क्सवाद सिर्फ इतिहास और वर्तमान की व्याख्या ही नहीं करता बल्कि वह भविष्य के लिए सुस्पष्ट संकल्पना भी प्रस्तुत करता है जिसे मानव सामूहिक प्रयत्नों द्वारा संभव बना सकता है। 1917 में हुई बोल्शेविक क्रांति ने इसी सत्य को प्रमाणित किया था।

मार्क्सवादी दर्शन का आधार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद है। इसके अनुसार सामाजिक विकास का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। समाज जब से वर्गों में विभाजित हुआ है तब से यह संघर्ष चल रहा है। समाज के ये दो वर्ग शोषक और शोषित वर्ग हैं। शोषक वर्ग हमेशा संख्या में कम होता है लेकिन उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण होने के कारण वह राजसत्ता पर भी नियंत्रण रखता है। वह शोषित वर्ग के श्रम का शोषण करता है। इससे इन दोनों वर्गों के बीच संघर्ष की स्थितियाँ पैदा होती हैं। यही वर्ग संघर्ष है। मनुष्य का ज्ञात इतिहास, वर्ग संघर्षों का इतिहास है। मार्क्स का यह भी मानना है कि जिस वर्ग का समाज की राजसत्ता पर नियंत्रण होता है वह उस पर वैचारिक नियंत्रण भी रखता है।

वर्ग संघर्ष के कारण सामाजिक संरचनाओं में बदलाव आता है। इसी बदलाव के कारण मानव इतिहास दास युग से सामंतवाद और सामंतवाद से पूँजीवाद के दौर में पहुँचा है लेकिन इन सभी युगों में शोषक और शोषित वर्ग बने रहते हैं। यदि सामंतवाद में दास का स्थान किसान ले लेता है तो पूँजीवाद में मजदूर। इसी तरह दास-मालिकों से सामंतों और सामंतों से पूँजीपति वर्ग तक सत्ता का हस्तांतरण होता है। वर्ग समाज में शोषित समाज का शोषण समाप्त नहीं होता लेकिन उसे पहले से अधिक अधिकार मिलते हैं और उनकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति में सकारात्मक बदलाव आते हैं। मार्क्स और एंगेल्स का मानना था कि शोषित वर्ग को शोषण से मुक्ति तभी मिलेगी जब वह पूँजीपति वर्ग को हटाकर खुद सत्ता पर नियंत्रण करेगा। मार्क्स ने कहा था कि शोषक वर्ग को सत्ता पर दोबारा न आने देने के लिए सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित करना होता है। इसे वह समाजवाद की अवस्था कहते हैं और इसे वे संक्रमण की अवस्था ही मानते हैं। वे साम्यवाद की स्थिति उसे मानते हैं जब सभी तरह के वर्ग समाप्त हो जाएँगे और एक वर्गहीन और राज्यहीन समाज बनेगा जहाँ कोई किसी का शोषण और उत्पीड़न नहीं करेगा।

प्रगतिवादी साहित्य चिंतन

मार्क्सवाद सिर्फ सामाजिक रूपांतरण का दर्शन ही नहीं है उसने साहित्य और कला के चिंतन को भी गहरे रूप से प्रभावित किया है। मार्क्स और एंगेल्स को इतना अवसर नहीं मिला था कि वे साहित्य और कला पर लिखते लेकिन समय-समय पर उन्होंने जो टिप्पणियाँ या पत्र लिखे उससे मार्क्सवादी साहित्य ‘चिंतन की आधारशिला निर्मित करने में मदद मिली। बाद में इसी के आधार पर लेनिन, माओ, के साथ साथ जार्ज लुकाच, ग्राम्सी, प्लेखानोव, ब्रेख्त, गोर्की आदि ने साहित्य और कला संबंधी विचार भी प्रस्तुत किये। साहित्य संबंधी इस चिंतन परंपरा का विवरण यहाँ देना न तो संभव है और न आवश्यक । लेकिन हम यहाँ इस सबंध में हिंदी के उन लेखकों के साहित्य संबंधी विचारों का परिचय प्राप्त करेंगे जिन्होंने प्रगतिशील साहित्य को प्रभावित किया है।

प्रेमचंद ने 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन का उद्घाटन करते हुए कहाँ था कि “साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है” बल्कि उनके अनुसार “हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो-जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।” प्रेमचंद ने इसी व्याख्यान में यह कहा था कि साहित्यकार और कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। लेकिन ऊपर के उद्धरण से यह स्पष्ट है कि वे सभी तरह के साहित्य का समर्थन नहीं करते। वे सिर्फ उस साहित्य को श्रेयस्कर मानते हैं जो हमें सुलाए नहीं बल्कि जगाए। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए रामविलास शर्मा ने कहा है कि प्रगतिशील साहित्य वह है जो समाज को आगे बढ़ाता है मनुष्य के विकास में सहायक होता है इसका अर्थ यह भी नहीं है कि प्रगतिशील होने से ही साहित्य श्रेष्ठ हो जाता है।

वे साहित्य और कला के अंतःसंबंधों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि “हमें ऐसा साहित्य चाहिए जो एक तरफ तो कला की उपेक्षा न करे; रस-सिद्धांत के नियामक जिस आनंद की मांग करते हैं, वह साहित्य से मिलना चाहिए, भले ही उसका एकमात्र उद्गम रसराज न हो, भले ही उसकी परिणति आत्मा की चिन्मयता और अखंडता में न हो। कलात्मक सौष्ठव के साथ-साथ उस साहित्य में व्यक्ति और समाज के विकास और प्रगति में सहायक होने की क्षमता भी होनी चाहिए। तभी वह अभिनन्दनीय हो सकता है।” यह साहित्य में यथार्थवाद की स्थापना की अभिव्यक्ति थी।

मार्क्सवाद के अनुसार साहित्य और समाज के अंतःसंबंधों को समझने के लिए आधार और अधिरचना के संबंधों को समझना होगा। मार्क्स का प्रसिद्ध कथन है कि मनुष्य का सामाजिक अस्तित्व ही उसकी चेतना को निर्धारित करता है। इस बात को व्याख्यायित करते हुए मार्क्स ने ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान’ नामक पुस्तक की भूमिका में लिखा था, “अपने जीवन के सामाजिक उत्पादन में मनुष्य ऐसे निश्चित संबंधों में बँधते हैं, जो अपरिहार्य एवं उनकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। उत्पादन के ये संबंध उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं। इन उत्पादन संबंधों का पूर्ण योग ही समाज का आर्थिक ढाँचा है-वह असली बुनियाद है, जिस पर कानून और राजनीति का ऊपरी ढाँचा खड़ा होता है और जिसके अनुकूल ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप खड़े होते हैं।

भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्रक्रिया को निर्धारित करती है। मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती बल्कि उनका सामाजिक अस्तित्व उनकी चेतना को निर्धारित करता है।” साहित्य की रचना को भी इसी विचार संदर्भ में समझा जा सकता है। समाज में चलने वाली प्रक्रियाओं को साहित्य, दर्पण की तरह प्रतिबिंबित नहीं करता। साहित्य में समाज का यथार्थवादी चित्रण होना चाहिए, यह बात जब प्रगतिशील साहित्यकार कहता है तब इसका अर्थ यह नहीं है कि समाज जैसा है उसे वह उसी रूप में चित्रित कर दे। इसका मतलब यह है कि साहित्य में सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। चूंकि समाज का रूप अत्यंत जटिल होता है इसलिए साहित्य में भी समाज की जटिलता की अभिव्यक्ति होगी। साहित्यकार को इस जटिलता को  समझना होगा। इसी समझने की प्रक्रिया में मार्क्सवादी दृष्टिकोण सहायक बनता है। यह मान लिया जाता है कि साहित्य में मार्क्सवाद को लागू करने का मतलब है साहित्य को राजनीति का पिछलग्गू बनाना।

इस संदर्भ में मुक्तिबोध का मानना है कि आज किसी भी तरह के साहित्य के लिए यह संभव ही नहीं है कि वह राजनीति से निरपेक्ष हो । यहाँ तक कि जो कलावादी होने का दावा करते हैं वे भी राजनीति से निरपेक्ष नहीं होते। उन्हीं के शब्दों में, “यह ध्यान में रखने की बात है कि एक कला-सिद्धांत के पीछे एक विशेष जीवन-दृष्टि होती है, उस जीवन-दृष्टि के पीछे एक जीवन-दर्शन होता है और उस जीवनदर्शन के पीछे, आजकल के जमाने में एक राजनीतिक दृष्टि भी लगी रहती है।” मार्क्स के ऊपर उद्धृत कथन से जाहिर है कि साहित्य व्यक्ति की अंतःप्रेरणा का परिणाम ही नहीं होता वह परस्पर विरोधी सामाजिक और सांस्कृतिक शक्तियों के संघर्ष का भी परिणाम होता है। वह राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रेरणाओं से स्वतंत्र और निरपेक्ष नहीं रह सकता। यहाँ फिर से मुक्तिबोध का कथन उद्धृत करना प्रासंगिक होगा। उनके अनुसार, “यह कहना बिल्कुल गलत है कि राजनीतिक प्रेरणा कलात्मक प्रेरणा अथवा विशुद्ध दार्शनिक अनुभूति कलात्मक अनुभूति नहीं है; बशर्ते कि वह सच्ची वास्तविक अनुभूति हो, छद्म जात न हो!” साहित्यकार राजनीति और विचारधारा के पास इसलिए नहीं जाता कि वह राजनीति और विचारधारा के क्षेत्र में किसी तरह का परिवर्तन करना चाहता है। मुक्तिबोध के अनुसार उसका मकसद तो मानव जीवन को बेहतर और उसे शोषण-उत्पीड़न से मुक्त करना है।

साहित्य सिद्धांत के संदर्भ में वस्तु और रूप के अंतःसंबंधों का सवाल भी अहम सवाल है। आमतौर पर यह समझ लिया जाता है कि प्रगतिशील साहित्यकार रूप और शिल्प को महत्त्व नहीं देता वह सिर्फ साहित्य की विषय वस्तु को ही महत्त्व देता है। उसका यह मानना होता है कि यदि विषय वस्तु प्रगतिशील है, यदि उसमें किसानों और मजदूरों के जीवन का यथार्थवादी चित्रण है तो वह साहित्य महान है भले ही वह कला और शिल्प की दृष्टि से कमजोर ही क्यों न हो। लेकिन यह धारणा सही नहीं है। वस्तु और रूप में संबंधों पर प्रकाश डालते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है, “रूप और विषय-वस्तु का संबंध अभिन्न और अन्योन्याश्रित है। प्रगतिशील साहित्य रूप-सौष्ठव का तिरस्कार करके दो कदम आगे नहीं चल सकता। यह सौष्ठव कला को प्रभावशाली बनाने में एक बड़ा कारण है। काव्य कौशल की ओर ध्यान न देकर रचनाकार अपनी कृति को असमर्थ ही बनाएगा। परंतु कला का रूप हवा में नहीं निखरता। फूल के रूप-रंग के लिए जिस तरह धरती की आवश्यकता होती है, उसी तरह किसी भी कृति के कलात्मक सौंदर्य का निखार उसकी विषय-वस्तु की सामाजिकता से जुड़ा हुआ है।”

प्रगतिशील साहित्य नारेबाजी का साहित्य नहीं होता। प्रगतिशील साहित्य जनता का साहित्य होता है। वह जन आकांक्षाओं को वाणी देता है। वह उनके जीवन यथार्थ को ही अभिव्यक्त नहीं करता बल्कि उसके रूपांतरण की इच्छा से भी प्रेरित होता है। वह जनता की धर्मनिरपेक्ष और जनवादी भावनाओं के अनुरूप लिखा होता है। वह उन विचारों और संगठनों का विरोध करता है जो जनता को शोषित और उत्पीडित जीवन जीने को मजबूर करते हैं। वह जनता की भावनाओं को उदार और मानवीय, उनके सौंदर्यबोध को व्यापक और उन्नत बनाता है। वह कला के प्रति लोगों की अभिरुचियों को स्वस्थ और समाजोन्मुखी बनाता है। प्रगतिशील साहित्य को इसी व्यापक मानवीय और कला संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए।

प्रगतिवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि

प्रगतिशील साहित्य के उदय और विकास के कारणों को समझने के लिए हमें उन ऐतिहासिक परिस्थितियों को समझना होगा जिसने प्रगतिवादी सांस्कृतिक आंदोलन को जन्म दिया । जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि प्रगतिवादी आंदोलन सिर्फ राष्ट्रीय आंदोलन नहीं था बल्कि अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन भी था। यह सन् 1930 के बाद की परिस्थितियों का परिणाम था। इन परिस्थितियों को समझे बिना हम प्रगतिवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि को नहीं समझ सकते। सबसे पहले हमें उस समय की अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को समझना होगा।

अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ

सन् 1917 में रूस में कामयाब बोल्शेविक क्रांति ने विश्व में एक नये युग का सूत्रपात किया। यह क्रांति जहाँ एक ओर दुनिया के समाजवादी चरण में प्रवेश की घोषणा थी, वहीं दूसरी ओर इसने पूँजीवाद के पतन की घोषणा भी की। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से पूँजीवादी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ भयंकर संकट के दौर से गुजर रही थीं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री ए.आर. देसाई के अनुसार, इस संकट ने साम्राज्यवादियों के बीच, साम्राज्यवादी राज्यों और पराधीन देशों के बीच, किसानों और जमींदारों के बीच, संक्षेप में पूँजीवाद में निहित सारे अंतर्विरोधों को बढ़ा दिया। इन बढ़ते अंतर्विरोधों के परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर विभिन्न पूँजीवादी-साम्राज्यवादी देशों में विश्व पूँजीवादी अर्थनीतिक व्यवस्था पर अपना एकाधिकार कायम करने या बढ़ाने के लिए संघर्ष तीव्र हुआ। वहीं दूसरी ओर, औपनिवेशिक राष्ट्रों में राष्ट्रीय स्वाधीनता तथा जनता का जनवादी संघर्ष भी बढ़ने लगा। पहले वाले संघर्ष ने साम्राज्यवादी देशों को दो शिविरों में बाँट दिया। एक ओर इटली, जर्मनी, जापान की फासिस्ट ताकतें थी तो दूसरी ओर ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका की साम्राज्यवादी ताकतें । इन दोनों के संघर्ष ने ही दूसरे महायुद्ध का सूत्रपात किया।

फासीवाद का उदय विश्व महानता के लिए खतरा था। पहले इटली में मुसोलिनी और बाद में जर्मनी में हिटलर द्वारा सत्ता पर कब्जा होने के कारण दुनिया में युद्ध का भयंकर खतरा मंडराने लगा था। पहले इटली और बाद में जर्मनी ने अपने पड़ोसी देशों पर हमले किए और उन पर अधिकार कर लिया। हिटलर ने अपने ही देश के अल्पसंख्यक यहूदियों पर बेतहाशा जुल्म ढाए और उनके सारे मानवाधिकार छीन लिये। यूरोप में फासीवाद के बढ़ते खतरे के कारण फासीवाद विरोधी जन आंदोलनों में बढ़ोतरी हुई। दुनिया भर के लेखकों ने फासीवाद के खिलाफ संगठित होने और उसका विरोध करने का आह्वान किया। 1939 में ब्रिटेन ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। फिर एक-एक कर पूरा यूरोप युद्ध की चपेट में आ गया। ब्रिटेन ने युद्ध की घोषणा के साथ बिना भारतीय नेताओं से सलाह-मशविरा किए हुए भारत के भी उसमें शामिल होने की घोषणा कर डाली। 1941 में हिटलर ने सोवियत संघ पर भी हमला बोल दिया। इससे पहले तक युद्ध साम्राज्यवाद और फासीवाद के बीच था। लेकिन सोवियत संघ पर हमले के बाद यह फासीवाद और जनवाद के बीच युद्ध में बदल गया था।

जापान द्वारा अमरीकी बंदरगाह पर्ल हार्बर पर हमले के बाद यह युद्ध दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक फैल गया था। लगभग छह साल तक जबर्दस्त संघर्ष के बाद फासीवादी शक्तियों की पराजय हुई। सोवियत संघ की सेना ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए जर्मनी को न सिर्फ अपने देश से बाहर खदेड़ दिया बल्कि उसे जर्मनी सहित पूर्वी यूरोप के देशों से भी बाहर कर दिया। 1945 में एक-एक कर फासीवाद देश पराजित होते गए। अमरीका ने जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम का प्रयोग किया जिससे लाखों निर्दोष लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। लाखों लोग जीवन भर के लिए लाइलाज बीमारियों से ग्रस्त हो गये। पूर्वी यूरोप के देशों में वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में समाजवादी शासन की स्थापना हुई।

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान और बाद की स्थितियों की समीक्षा करते हुए ए.आर. देसाई ने लिखा है, “युद्ध के तथा युद्धोत्तर काल के वर्ष गतिशील घटनाओं से भरे हैं। इस काल के वर्षों के इतिहास में इतिहास के दशक समाहित हैं। अनेक देशों के समाजों के आर्थिक आधार, उनकी सामाजिक अधिरचना में जोरदार बदलाव आए और कुछ देशों में तो समाज का रूप ही बदल गया। मानव का सामाजिक संसार अनेक बढ़े हुए अंतर्विरोधों, तीव्रीकृत वर्ग विरोधों और परिणामतः राष्ट्रों, वर्गों और सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच घनीभूत संघर्ष का रंगमंच बन गया है। आणविक बरबादी, यहाँ तक कि संपूर्ण विनाश कर देने वाले विश्व युद्ध का खतरा मानवता के सामने है। किंतु इसके साथ ही साथ ऐतिहासिक दृष्टि से प्रगतिशील सामाजिक शक्तियाँ भी विजयी ढंग से जीतते हुए और मानवता को एक आत्मघाती विपदा से सुरक्षा की गारंटी देते हुए आगे बढ़ रही हैं।”

दूसरे विश्व युद्ध के बाद समाजवाद और साम्राज्यवाद के बीच संघर्ष बढ़ता गया। साम्राज्यवादी ताकतें अमरीकी नेतृत्व में सोवियत संघ के खिलाफ युद्धोन्मादी प्रचार में जुट गई। इसने शीतयुद्ध का माहौल बना दिया। इसका असर भारत पर भी पड़ा जो 1947 में आजादी हासिल कर चुका था। इसने लेखकों और बुद्धिजीवियों की उस एकता पर भी असर डाला जो फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष के दौरान निर्मित हुई थीं।

राष्ट्रीय परिस्थितियाँ

1857 के संघर्ष में पराजय के बाद अंग्रेजों के विरूद्ध भारतीय जनता का संघर्ष दूसरे दौर में प्रवेश कर गया | अब इस संघर्ष का अगुआ वह मध्यवर्ग था जो तेजी से हो रहे परिवर्तनों के कारण उभर रहा था। 1885 में कांग्रेस की स्थापना ने उसे इस संघर्ष के लिए एक मंच प्रदान किया। हालांकि कांग्रेस ने अपने संघर्ष की शुरुआत भारतीयों के लिए अधिक अधिकारों की माँग से की थी, लेकिन यह संघर्ष बीसवीं सदी में तेज होने लगा और भारतीयों के लिए स्वायत्त अधिकार और फिर पूर्ण आजादी में बदल गया। गांधी  और नेहरू के नेतृत्व में जो आंदोलन तेज हो रहा था उसमें धीरे-धीरे किसान और मजदूर भी शामिल हो रहे थे।

1930 के दशक में कांग्रेस के सुधारवादी नेतृत्व के दुलमुलपने ने कांग्रेस के वामपंथियों को कांग्रेस सोशलिस्ट मंच की स्थापना को प्रेरित किया। इससे पहले 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हो चुकी थी। बीसवीं सदी के आरंभ में ही मजदूर संगठन बन चुका था जिस पर चौथे दशक में वामपंथियों का असर बढ़ गया था। इस दशक में किसानों और विद्यार्थियों के संगठन बने और उनके अखिल भारतीय आंदोलन उभर कर सामने आए। कांग्रेस के नेतृत्व पर भी नेहरू और सुभाष जैसे वामपंथी विचार वाले नेताओं का वर्चस्व बढ़ने लगा था। इस तरह आजादी का आंदोलन एक नये तरह के दौर में प्रवेश कर गया था। इसका असर लेखकों और बुद्धिजीवियों पर भी पड़ना स्वाभाविक था। 1935 में कुछ भारतीय लेखकों और बुद्धिजीवियों ने लंदन में भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की जिसका पहला अधिवेशन लखनऊ में 1936 में हुआ। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बारे में हम आगे के भाग में पढ़ेंगे।

यह वह दौर था जब भारत का स्वतंत्रता संग्राम जन संग्राम में बदल गया था और जिसमें मध्यवर्ग के साथ-साथ किसानों और मजदूरों की भागीदारी भी बढ़ रही थी। इसका परिणाम यह हुआ कि स्वतंत्रता संग्राम के साथ किसानों और मजदूरों की माँगें भी शामिल होने लगीं। कांग्रेस को इस बात पर विचार करना पड़ा कि आजादी के बाद का भारत किस तरह का होगा। सत्ता जमींदारों और पूँजीपतियों के हाथ में होगी या किसानों और मजदूरों के हाथ में। क्या जमींदारी प्रथा इसी तरह कायम रहेगी या जमीन उनकी होगी जो उसे जोतता है। आजादी के इस दौर में महिलाओं और दलितों के अधिकारों का प्रश्न भी उपस्थित हुआ। आजादी के संघर्ष में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ रही थी। बाबा साहब अंबेडकर के नेतृत्व में दलित अपने अधिकारों की माँग भी सामने रख रहे थे इस तरह तीस का दशक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अंत्यत महत्वपूर्ण दौर था।

इसी दौर में कुछ नकारात्मक रुझान भी प्रकट हो रहे थे। मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए अधिक अधिकारों की माँग करते हुए पृथक देश की माँग की ओर बढ़ रही थी। हिंदू महासभा के बाद अब । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी हिंदुओं को सांप्रदायिक आधार पर संगठित कर रहा था। नतीजतन देश में सांप्रदायिक दंगों की घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही थी। इस सांप्रदायिक विभाजन के खिलाफ जनता को एकजुट रखने का भार भी वामपंथी दलों और गुटों पर था। लेकिन साम्राज्यवाद की साजिश और सांप्रदायिक संगठनों की हरकतों ने आखिरकार देश को विभाजन के कगार पर ला खड़ा किया। देश 1947 में आजाद तो हो गया लेकिन धर्म के आधार पर वह हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बँट भी गया। लाखों लोग बेघरबार हो गये। हजारों लोग सांप्रदायिक दावानल में स्वाहा हो गये।

आजादी के बाद नये हिन्दुस्तान बनाने के सवाल पर वामपंथी और कांग्रेस संगठन एक दूसरे के विरोध में खड़े हो गये। कांग्रेस ने जिस सत्ता की स्थापना की वह धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक थी लेकिन वह पूँजीपतियों और भूस्वामियों के हित में काम करने वाली सत्ता भी थी। सवाल यह उपस्थित हो गया था कि देश का निर्माण किस रास्ते पर चलकर हो, पूँजीवाद के रास्ते पर या समाजवाद के रास्ते पर। इस विभाजन ने बुद्धिजीवियों और लेखकों को भी विभाजित कर दिया।

प्रगतिवादी आंदोलन का इतिहास

अप्रैल 1936 में लखनऊ में कांग्रेस अधिवेशन के मौके पर प्रगतिशील लेखक संघ का स्थापना सम्मेलन आयोजित हुआ। इसी अवसर पर अखिल भारतीय किसान सभा का अधिवेशन भी आयोजित किया गया था। यह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि किन राजनीतिक स्थितियों ने वामपंथी राजनीति के उभार को संभव बनाया और किसान, मजदूर और विद्यार्थियों के संगठन अस्तित्व में आए। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से पहले से साहित्य में परिवर्तन के संकेत मिलने लगे थे। इन परिवर्तनों का संबंध किस तरह प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से है, इसे समझने की जरूरत है।

लेखक संघ बनाने के आरंभिक प्रयास

प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की पृष्ठभूमि पर टिप्पणी करते हुए रेखा अवस्थी ने लिखा है, “प्रगतिशील लेखक संघ” की स्थापना के पहले के सृजनात्मक साहित्य को यदि ध्यान से देखें तो पता चलता है कि सन् 30 के आसपास किसान समस्या और स्वाधीनता का प्रश्न लगभग यथार्थ के संपूर्ण द्वंद्व के साथ अंकित करने की प्रवृत्ति बलवती हो जाती है। हिंदी के मध्यमवर्गीय लेखक सहसा किसानों के प्रति गहरा लगाव क्यों अनुभव करने लगे? किसानों के प्रति ‘बौद्धिक सहानुभूति’ अथवा ‘क्रांतिकारी एकात्मकता’ का यह भाव अचानक सुसंगत रूप में क्यों व्यक्त होने लगा? जैसे इन प्रवृत्तियों के मूल कारण तत्कालीन परिस्थितियों में निहित हैं, उसी तरह ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के गठन की भावना भी उन्हीं परिस्थितियों में पैदा हुई थी।” सन् तीस के आसपास हिंदी के साहित्य पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि उस समय के प्रमुख लेखक और कवियों के साहित्य में महत्त्वपूर्ण बदलाव आ रहे थे।

निराला और पंत की कविता छायावादी रूमानियत को छोड़कर यथार्थवाद की ओर उन्मुख हो रही थी। स्वयं प्रसाद भी अपने कथा साहित्य में ‘तितली’ और ‘कंकाल’ जैसे उपन्यास लिख रहे थे। कहानियों में भी वे । ‘आकाश-दीप’ और ‘पुरस्कार’ की बजाए ‘गुंडा’ और ‘मधुआ’ जैसे कहानियाँ लिख रहे थे। प्रेमचंद जो “प्रेमाश्रम’ की रचना से किसानों के जीवन को रचनात्मक अभिव्यक्ति दे रहे थे, अब अपने फलक को और व्यापक करते हुए ‘निर्मला’ और ‘गबन’ जैसे उपन्यास लिख रहे थे। बाद में वे किसान जीवन के महाकाव्य कहे जाने वाले उपन्यास ‘गोदान’ की रचना कर सके। इसलिए यह समझना भूल होगी कि 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ अचानक हिंदी में किसान, मजदूर और स्त्रियों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करने वाला यथार्थवादी साहित्य लिखा जाने लगा था। वस्तुतः इससे पहले ही उसके लिए आधारभूमि तैयार होने लगी थी।

यह समझने की भी भूल की जाती है कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और प्रगतिवाद की शुरुआत विदेशी प्रभाव से मुमकिन हुई है। यह सही है कि उस समय की परिस्थितियाँ इस तरह की थीं कि दुनिया भर के लेखक फासीवाद के खिलाफ एकजुट हो रहे थे। लेकिन यह सही नहीं है कि सिर्फ इसी वजह से भारत के लेखक भी एकजुट हुए। 1935 में पेरिस में लेखक फासीवाद के खिलाफ एकजुट हुए थे लेकिन भारत के लेखक भी लंबे समय से एकजुट होने और संगठन बनाने की जरूरत महसूस करने लगे थे। हिंदी में लेखकों का एक मंच लंबे समय से चला आ रहा था जिसे हिंदी साहित्य सम्मेलन के नाम से जाना जाता है। इस सम्मेलन पर ऐसे लोगों का वर्चस्व कायम था जो साहित्य में पुनरुत्थानवाद और सांप्रदायिक नजरिए के समर्थक थे और जो साहित्य को साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष का हथियार बनाने और जनवाद, धर्मनिरपेक्षता और रचनात्मक नवोन्मेष को अभिव्यक्त करने का माध्यम बनाने की मुखालफत करते थे।

जवाहरलाल नेहरू तक हिंदी के इस दरबारी और दकियानूसी माहौल को दमघोंटू मानते थे और उसकी आलोचना कर चुके थे (प्रगतिवाद और समानांतर साहित्य, पृ. 3-4)। 1934 में प्रेमचंद और रामचंद्र टंडन के बीच लेखक संघ बनाने को लेकर जो बहस चली वह इस बात का प्रमाण है कि उस समय के लेखक इस बात पर तो सहमत थे कि लेखक संघ बनना चाहिए लेकिन उसका स्वरूप और कार्यक्षेत्र क्या हो इस पर विवाद बना हुआ था। इस लेखक संघ को बनाने के लिए रामनरेश त्रिपाठी, किशोरीदास वाजपेयी और प्रेमचंद तीन संयोजक नियुक्त हुए थे। लेकिन रामचंद्र टंडन लेखक संघ के प्रकाशकों के विरुद्ध लेखकों के स्वत्व अधिकारों की रक्षा के लिए गठित करने पर बल दे रहे थे जबकि प्रेमचंद लेखक संघ को लेखकों की ट्रेड यूनियन से ज्यादा व्यापक अर्थ में देख रहे थे (रेखा अवस्थी,)।

इस विवाद के कारण लेखक संघ की योजना बीच में ही रह गई। बाद में प्रेमचंद ‘भारतीय साहित्य परिषद्’ की स्थापना के काम से जुड़ गये। इसके लिए उन्होंने अपनी पत्रिका ‘हंस’ को भी सौंप दिया। अक्टूबर 1935 से ‘हंस’ ‘भारतीय साहित्य परिषद्’ के मुखपत्र के रूप में निकलने लगा। भारतीय साहित्य परिषद सिर्फ हिंदी की परिषद नहीं थी। बल्कि सभी भारतीय भाषाओं की परिषद थी और इसे गांधीजी का आशीर्वाद प्राप्त था। इन सब तथ्यों से यह भी पता लगता है कि तीस के दशक में । भारतीय लेखक न सिर्फ संगठित होने के बारे में सक्रिय थे बल्कि वे भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों को एक मंच पर लाने के लिए भी प्रयासरत थे। जाहिर है कि इस काम में प्रेमचंद सबसे आगे थे क्योंकि वे ही प्रगतिवाद के आंदोलन का रूप लेने के बहुत पहले से उसी तरह की सोच का साहित्य लिख रहे थे जो बाद में प्रगतिवाद की पहचान बना।

प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना

1933 में जर्मनी में हिटलर के सत्तासीन होने के बाद से दुनिया भर के लेखक और बुद्धिजीवी फासीवाद के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत महसूस करने लगे थे। उस दौर में मैक्सिम गोर्की जैसे लेखकों ने यह सवाल उठाया था कि ‘किस ओर हो तुम’ 1 1934 में सोवियत संघ में लेखक संघ की स्थापना हो चुकी थी। उसके बाद लेखकों को संगठित करने का ऐसा ही एक व्यापक प्रयत्न जुलाई 1935 में हेनरी बारबूज के नेतृत्व में पेरिस में हुआ। इस अवसर पर ‘संस्कृति की रक्षा के लिए विश्व लेखक सम्मेलन’  बुलाया गया। इस अधिवेशन ने फासिज्म के खिलाफ तथा उत्पीड़ित राष्ट्र के शोषित जनगण के समर्थन में एवं विचार स्वातंत्र्य की रक्षा के लिए लेखकों की आवाज बुलंद की’ (रखा अवस्थी.)। इसी अधिवेशन के अवसर पर ही प्रगतिशील लेखकों की एक स्थायी समिति बनाई गई जिसके अध्यक्ष अंग्रेजी के उपन्यासकार ई.एम.फोस्टर को बनाया गया। इस घटना से प्रेरित होकर 1935 में ही लंदन में पढ़ने और रहने वाले कुछ भारतीय लेखकों और बुद्धिजीवियों ने ‘भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ’ बनाने का फैसला किया।

मुल्कराज आनंद उसके अध्यक्ष चुने गये और सज्जाद जहीर इसके सचिव बनाए गये। इस बैठक में उन्होंने एक घोषणापत्र भी तैयार किया जिसे उन्होंने सभी प्रमुख भारतीय लेखकों को भेजा। प्रेमचंद जो पहले से ही लेखक संघ बनाने के लिए प्रयत्नरत थे, उन्होंने इसका स्वागत किया और जनवरी 1936 के ‘हंस’ में उन्होंने इस घोषणापत्र का सारांश प्रकाशित किया।

प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के प्रयासों से हिंदी और उर्दू के प्रगतिशील लेखक ही नहीं जुड़े थे बल्कि उन्हें रवींद्रनाथ टैगोर,जवाहरलाल नेहरू, आचार्य नरेंद्रदेव और जयप्रकाश नारायण आदि के सहयोग का आश्वासन प्राप्त हो गया था (कर्णसिंह चौहान,)। अप्रैल में जब लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था तभी वहीं प्रगतिशील लेखक संघ का स्थापना सम्मेलन नौ और दस अप्रैल को हुआ। कांग्रेस अधिवेशन का सभापति जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया और प्रगतिशील लेखक संघ का सभापति प्रेमचंद को। प्रेमचंद ने इस सम्मेलन में दिए अपने भाषण में “रूढ़िवाद, व्यक्तिवाद, संकीर्ण सौंदर्य-दृष्टि और अलंकारवाद पर प्रहार करते हुए साहित्यकारों का आह्वान किया कि वे सक्रिय और जीवित साहित्य की रचना करें, भाषा को सहज बनाएँ और एक नये सामाजिक यथार्थवाद को अपनाएँ (कर्णसिंह चौहान)।” इस अवसर पर जारी किए गए घोषणापत्र में प्रगतिशील लेखकों का आह्वान किया गया था कि वे प्रगतिशील लेखकों की संस्थाएँ संगठित करे और साहित्य छापकर अपने उद्देश्यों का प्रचार करें।

प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करके देशवासियों के स्वाधीनता संग्राम को आगे बढ़ाएँ। प्रगतिशील लेखकों की सहायता करें और स्वतंत्रता और स्वतंत्र विचार की रक्षा करें (रेखा अवस्थी.)। प्रलेसं की स्थापना के बाद यदि बहुत से लेखकों ने इसका समर्थन किया तो दूसरे कई इसके विरोध में सक्रिय हुए। प्रगतिवाद का विरोध दो तरह के लोगों के द्वारा हुआ। एक वे जो रूढ़िवादी और सांप्रदायिक सोच के समर्थक थे, यद्यपि साहित्य की दुनिया पर उनका अधिक असर नहीं था लेकिन राजनीति और सांस्कृतिक जगत में वे काफी सक्रिय थे। दूसरा विरोध उन समाजवादियों ने किया जो प्रगतिवाद को विदेशी प्रभाव की उपज मानते थे और यह भी मानते थे कि यह कम्युनिज्म की ही एक शाखा है। इन सब के बावजूद प्रगतिवाद को उस समय के अधिकांश प्रतिष्ठित और नये दोनों तरह के लेखकों का सहयोग और समर्थन मिला और उसकी गतिविधियों का विस्तार होने लगा। प्रेमचंद तो स्थापना सम्मेलन के बाद अल्प समय तक ही जीवित रह सके। लेकिन हिंदी के ही नहीं दूसरी भाषाओं के बड़े साहित्यकार इससे जुड़े रहे। इस तरह प्रगतिशील आंदोलन का विस्तार होने लगा।

प्रगतिवादी आंदोलन का विस्तार और अवसान

प्रगतिशील लेखक संघ का दूसरा सम्मेलन 1938 में कलकत्ता में हुआ। इसका सभापति रवींद्रनाथ ठाकुर को बनाया गया। हालांकि बीमारी के कारण वे सम्मेलन में उपस्थित न हो सके लेकिन उन्होंने अपना लिखित संदेश भेजा था जिसमें उन्होंने लिखा था कि “जनता से अलग रहकर हम बिल्कुल अजनबी बन जाएँगे। साहित्यकारों को मिलजुल कर उन्हें पहचानना है। अगर साहित्य मानवता से तादात्म्य स्थापित न कर सका तो वह अपने लक्ष्य और आकांक्षाओं को पाने में विफल रहेगा।”

प्रगतिशील लेखक संघ के विस्तार के साथ लेखकों के व्यापक संयुक्त मोर्चे का सवाल भी उपस्थित हुआ। प्रगतिशील लेखकों के मोर्चे में किस तरह के लेखकों को शामिल किया जाना चाहिए, इसको लेकर बहस चल पड़ी। मार्क्सवादी और गैरमार्क्सवादी लेखकों में ही नहीं स्वयं मार्क्सवादी लेखकों में भी इस बारे में तीखे मतभेद थे। इस बात पर भी बहसें चल रही थीं कि कौन लेखक प्रगतिशील है और कौन प्रतिक्रियावादी। कौन सी साहित्यिक प्रवृत्ति प्रगतिशील है और कौन सी प्रगतिविरोधी । लेकिन इसके बावजूद प्र.ले.सं. के साथ सभी तरह के प्रगतिशील और उदार नजरिए के लेखकों का जुडना जारी रहा। प्रगतिशील लेखक संघ ने आजादी के संघर्ष के उस दौर में लेखकों में जनता से जुड़े सवालों के प्रति गहरी वचनबद्धता का माहौल बनाने में जर्बदस्त पहल की थी और जिसका प्रभाव उस समय के लेखन पर साफ तौर पर देखा जा सकता था। इस दौर में बहुत सा ऐसा साहित्य भी लिखा गया जो अंग्रेज सरकार का कोपभाजन बना, जिन पर प्रतिबंध लगाया गया या जिन पर अश्लीलता के आरोप लगाकर मुकदमे दायर किए गये। इसके बावजूद कई नई पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। लेखकों को ऐसे मंच मिले जिनके द्वारा वे नये तरह के साहित्य को जनता तक पहुँचा सकें।

प्रगतिवाद का यह आंदोलन सिर्फ साहित्य तक सीमित नहीं रहा। प्रगतिशील लेखक संघ की पहल से 1943 में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की स्थापना बंबई में की गई। थोड़े समय में ही इप्टा की टोलियाँ देश के कोने-कोने में स्थापित हो गईं और उनके द्वारा फासीवाद, अकाल और भुखमरी और साम्राज्यवादी दमन के विरुद्ध नाटक खेले गये। आजादी के बाद नाटक और सिनेमा की अधिकांश महत्वपूर्ण हस्तियाँ इप्टा से ही जुड़ी थीं। सोवियत संघ पर फासीवाद हमले के बाद फासीवाद के विरुद्ध जगह-जगह सम्मेलन आयोजित हुए जिसमें प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया।

15 अगस्त 1947 को बंटवारे के साथ देश आजाद हो गया। इसने प्रगतिशील आंदोलन के विकास पर निर्णायक प्रभाव डाला। सितंबर 1947 में इलाहाबाद में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का विशाल अधिवेशन हुआ। महापंडित राहुल सांकृत्यायन इसके प्रधान सभापति बनाए गए। इसमें पारित घोषणापत्र में कहा गया था कि देश के आजाद होने के बावजूद अब भी ऐसी प्रतिक्रियावादी ताकतें मौजूद हैं जो जनता की खुशहाली को छीनना चाहती है। उस समय बनी नेहरू सरकार को राष्ट्रीय सरकार कहकर स्वागत किया गया। लेकिन इसके बावजूद प्रलेस, इप्टा तथा इनसे जुड़े लेखकों, कलाकारों और पत्र-पत्रिकाओं को सरकारी दमन का सामना करना पड़ा।

सन् 1949 में प्रगतिशील लेखक संघ का अखिल भारतीय सम्मेलन बंबई के पास भिवंडी में आयोजित किया गया। पहले यह सम्मेलन बंबई में होने वाला था, लेकिन ऐन वक्त पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिए जाने के कारण इसे भिवंडी में किया गया। इस सम्मेलन में हिंदी कवि और आलोचक रामविलास शर्मा को महासचिव बनाया गया। इसमें स्वीकृत घोषणापत्र में कहा गया था कि अगस्त 1947 के बाद भारतीय जनता की स्वाधीनता की लड़ाई एक नये दौर में दाखिल हुई है।

भारतीय पूँजीपति वर्ग जो राष्ट्रीय आंदोलन के काल में साम्राज्यवाद से समझौता किया करता था, अब खुले आम उसका गठबंधन साम्राज्यवाद से हो गया है। इस घोषणापत्र में यह घोषित किया गया कि आज लेखक भी दो खेमों में बँटा हुआ है, एक जो शांति और जनवाद की शक्तियों के साथ है, दूसरा जो हिंदुस्तान को साम्राज्य का पिछलग्गु बनाए रखना चाहता है। इन दोनों खेमों के बीच समझौता संभव नहीं है। दूसरा खेमा जनता का ध्यान सही सवालों से हटाने के लिए कला कला के लिए’ का नारा देता है तथा राजनीतिक दृष्टि से हीन साहित्य की रचना करता है (हंस, जून 1949.)। 1949 की इस समझ को लेकर प्रलेंस के बीच विवाद छिड़ गया। लेखकों के एक समूह ने इस समझ को संकीर्णतावादी कहा। दूसरी ओर साहित्य के मूल्यांकन को लेकर भी विवाद बढ़ता गया।

इस स्थिति का लाभ उठाकर ‘परिमल’ जैसी संस्थाएँ जो प्रगतिवाद का विरोध करती आ रही थीं, सक्रिय हो गई। इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सोवियत प्रभाव का मुकाबला करने के लिए अमरीका के नेतृत्त्व में शीतयुद्ध की तैयारियाँ होने लगीं। सांस्कृतिक स्तर पर इससे निपटने के लिए ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ की स्थापना हुई। भारत में भी यह संगठन सक्रिय हुआ। 1951 में इसका एशियाई सम्मेलन बंबई में आयोजित हुआ। कई भारतीय लेखके जो पहले प्रलेंस से जुड़े थे, इसके साथ जुड़ गए। हिंदी में भी कई ऐसी पत्रिकाएँ निकलने लगी जिन्होंने सुनियोजित रूप से प्रगतिवाद पर हमला करना शुरू किया।

इस तरह अंदरूनी और बाहरी हमले के कारण प्रगतिशील लेखक संघ बिखरने लगा। 1953 में दिल्ली में प्रगतिशील लेखक संघ का पाँचवाँ सम्मेलन हुआ। डॉ. रामविलास शर्मा को संकीर्णतावाद का आरोप लगाकर महासचिव पद से हटा दिया गया और उर्दू लेखक कृश्न चंदर इसके महासचिव बनाए गए। यह सम्मेलन, असल में प्रलेंस का अंतिम सम्मेलन साबित हुआ। हालांकि संगठन इसके बाद भी बना रहा लेकिन जहाँ तक लेखकों को संगठित करने तथा उन्हें रचनात्मक दिशा देने का सवाल है, इसकी सार्थकता समाप्त हो चुकी थी, फिर भी अब भी प्रगतिशील लेखकों की बड़ी संख्या जनवादी और प्रगतिशील साहित्य रचना में जुटी हुई थी।

प्रगतिशील साहित्य का उदय

हिंदी में प्रगतिशील साहित्य का उदय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ शुरू हुआ यह समझना सही नहीं है। प्रगतिशील साहित्य की रचना उससे पहले ही होनी शुरू हो गई थी। यदि देखें तो इसकी परंपरा भारतेंदु युग से दिखाई देती है जब उस दौर के लेखकों ने भक्ति और शृंगारपरक साहित्य रचने के साथ साथ अपने समय और समाज के ज्यादा बृहत्तर सवालों पर साहित्य लिखना आरंभ किया। कविता में तो इस नये रुझान की अभिव्यक्ति धीरे-धीरे हुई लेकिन गद्य की विधाओं में तो नये सवाल ही प्रमुखता से उभर कर सामने आए। यह प्रवृत्ति लगातार दृढ़ होती गई। प्रेमचंद, प्रसाद, सुदर्शन, विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक आदि लेखकों की कहानियों, उपन्यासों और नाटकों में राष्ट्रीय मुक्ति और जागरण की भावना से ओतप्रोत साहित्य रचा जाने लगा था। यह प्रगतिशील साहित्य ही था । यदि यह साहित्य नहीं रचा जाता तो हिंदी में प्रगतिशील साहित्य की बुनियाद खड़ी नहीं होती। प्रगतिशील साहित्य को विदेशी प्रभाव बताने वाले लेखकों के कुतर्क का जवाब यही जनोन्मुखी परंपरा है। इसी ने प्रगतिशील लेखन के लिए अनुकूल माहौल बनाया।

इस इकाई में हम प्रगतिशील साहित्य की सभी विधाओं का परिचय नहीं देंगे और अपने को सिर्फ कविता तक ही सीमित रखेंगे क्योंकि कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना और अन्य गद्य विधाओं के विकास का अध्ययन आप आगे की इकाइयों में करेंगे। कविता से इतर विधाओं में प्रगतिवाद का उदय कोई नई बात इसलिए नहीं थी कि प्रगतिवाद जिसका मुख्य बल यथार्थवाद पर था, वह कथा साहित्य में पहले ही स्वीकृति पा चुका था। इस संदर्भ में डॉ. नामवर सिंह का कथन विशेष रूप से विचारणीय है। उन्होंने लिखा है, “प्रगतिवाद के सामाजिक यथार्थवादी दृष्टिकोण के कारण कविता में जितना परिवर्तन हुआ, उतना कहानी-उपन्यास के क्षेत्र में नह हुआ।

इसका कारण यह था कि प्रेमचंद के युग से ही उपन्यास में यथार्थवादी प्रवृत्ति का उदय हो गया था। अपनी कहानियों और उपन्यासों में प्रेमचंद ने शुरू से ही किसानों और मध्यवर्गीय भद्र पुरुषों के यथार्थ जीवन का चित्रण किया था। प्रेमचंद के ही समय किस तरह परिस्थितिवश किसान मज़दूर बनने के लिए विवश हो गया था, इसे भी उन्होंने ‘गोदान’ में अच्छी तरह दिखला दिया था। इसलिए प्रगतिवाद के उदय से अधिक से अधिक यही उम्मीद थी कि प्रेमचंद की परंपरा को और अच्छी तरह आगे बढ़ाने की दृष्टि मिलेगी। प्रेमचंद ने आरंभिक युग के सुधारवादी और आदर्शवादी विचारों से किस तरह क्रमशः छुटकारा पाया और अंत तक आते-आते उनका दृष्टिकोण कितना स्पष्ट हो गया था इसे ‘प्रेमाश्रम’ और ‘गोदान’ की तुलना से अच्छी तरह समझा जा सकता था।”

प्रेमचंद की इस परंपरा को बाद में नागार्जुन, भैरवप्रसाद गुप्त, फणीश्वरनाथ रेणु, आदि लेखकों की कहानियों और उपन्यासों में देखा जा सकता है। मजदूरों के जीवन पर उस तरह नहीं लिखा जा सका क्योंकि जैसा कि नामवर सिंह का मानना था “अब भी भारत कृषि-प्रधान देश है। प्रगतिवाद के दौर में लेखकों ने कथा साहित्य में मध्यवर्ग के जीवन को ही ज्यादा अभिव्यक्ति दी। अधिकांश प्रगतिशील लेखक इसी वर्ग से आए थे। यशपाल, उपेंद्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर, अमृत राय, रांगेय राघव, आदि ने मध्यवर्ग के जीवन को ही अपने साहित्य का विषय चुना। मध्यवर्ग के जीवन के इस चित्रण पर टिप्पणी करते हुए नामवर सिंह ने लिखा है, “सन् पैंतीस के बाद मध्यवर्ग के जीवन में काफी परिवर्तन हुआ और इन लेखकों ने इसका यथार्थ चित्रण करने का प्रयत्न किया। सब समय इन्हें सफलता मिल ही गयी हो, यह कहना कठिन है। अक्सर ऐसा हुआ है कि इनके नायक निःस्वत्व हो गये हैं और ओछे ढंग के रोमांस में डूब चले हैं।

कभी-कभी नायक को वस्तुस्थिति से अधिक आगे और विद्रोही दिखाने की चेष्टा की गई है। इन सबके बावजूद यह कहा जा सकता है कि कुछ व्यक्तिवादी और सेक्सवादी लेखकों को छोड़कर इस युग के अधिकांश उपन्यासकारों और कहानीकारों ने भरसक मध्यवर्ग की यथार्थ कमजोरियों को चित्रित करने की कोशिश की है।” प्रगतिवाद के दौर में जिस एक और रुझान की तरह नामवर सिंह ने ध्यान खींचा है वह है, ऐतिहासिक कथानक । उन्हीं के शब्दों में “अतीत की विकासोन्मुखी शक्तियों को पहचान कर और उन्हें उपन्यास के सजीव पात्रों के रूप में मूर्तिमान करके इन ऐतिहासिक उपन्यासकारों ने वर्तमान युग के मुक्तिकामी जनसमुदाय को शक्ति और स्फूर्ति प्रदान की।” ऐतिहासिक उपन्यासों और कहानियों की रचना के क्षेत्र में वृंदावन लाल वर्मा, यशपाल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

प्रगतिशील रचनाकारों ने अपने उपन्यासों और कहानियों में सिर्फ किसान और मजदूरों के जीवन को ही नहीं प्रस्तुत किया बल्कि त्रियों के जीवन की वेदना को भी चित्रित किया। उन्होंने स्त्री-पुरूष संबंधों को नये दृष्टिकोण से पेश किया। उनके चित्रण में कई बार मध्यवर्गीय कुंठाओं की अभिव्यक्ति हो जाती थी लेकिन वे कई तरह की वर्जनाओं को तोड़ने में कामयाब रहे।

प्रातिशील साहित्य धारा ने जिस एक और क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान किया वह है, आलोचना का क्षेत्र । साहित्य के क्षेत्र में सामाहित यथार्थवाद को रचना का आधार बनाने के लिए जबर्दस्त मुहिम छेड़ने का काम प्रगतिशील आलोचकों ने किया था। उन्होंने आलोचना को गुण-दोष विवेचन से बाहर निकालकर, साहित्य और सौंदर्यशास्त्र की स्वायत्तता से मुक्त कर सामाजिक सरोकारों से जोड़ा । उन्होंने यह भी बताया कि सभी तरह का साहित्य श्रेयस्कर नहीं होता है। वही साहित्य श्रेयस्कर है जिसमें जनता की भावनाओं और इच्छाओं की अभिव्यक्ति हो, जिसमें उनके जीवन के संघर्ष और भविष्य के सपने चित्रित हों। प्रगतिवादी आलोचना ने वस्तु और रूप के बीच विवाद में यह मत प्रकट किया कि साहित्य समाज की उपेक्षा करके नहीं रचा जा सकता। हाँ, इसके लिए उत्कर्ष कला क्षमता का होना भी जरूरी है। उन्होंने वस्तु और रूप के बीच द्वंद्वात्मक संबंधों को व्याख्यायित किया। हिंदी आलोचना के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्षों को विकसित करने में शिवदान सिंह चौहान, डॉ. रामविलास शर्मा, प्रकाशचंद्र गुप्त, नामवर सिंह, मुक्तिबोध और अमृत राय का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

हिंदी में प्रगतिशील काव्य की परंपरा

प्रगतिशील कविता का संबंध समाज के अंतर्विरोधों और विकास से है। इसलिए जैसे-जैसे समाज में परिवर्तन होता है, प्रगतिशील कविता में भी परिवर्तन होता है। यही कारण है कि प्रगतिशील कविता हमेशा एक-सी नहीं रहती। वह समय के अनुसार बदलती रहती है। तीस के दशक में हिंदी कविता में जो परिवर्तन दिखाई दिए थे, उसने उस सुदृढ़ काव्यांदोलन को जन्म दिया जिसे बाद में प्रगतिशील कविता के नाम से जाना गया। लेकिन इससे पहले भी हिंदी की कविता परंपरा में प्रगतिशीलता के तत्व दिखाई देते हैं। यदि हम आधुनिक युग के संदर्भ में ही विचार करें तो प्रगतिशील काव्यधारा की कई विशेषताओं के मूल उत्स हमें भारतेंदु युगीन काव्य से दिखाई देने लगते हैं। मसलन, राष्ट्रीयता की भावना की अभिव्यक्ति इसी युग में प्रकट होने लगी थी। इसी प्रकार द्विवेदी युग में न सिर्फ इस भावना का विकास हुआ बल्कि नवजागरण के प्रभाव के विस्तार के साथ यह प्रश्न अधिक तीव्र स्वर में उभरने लगा था कि ‘हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी’। इस भावना ने कई ऐसे सामाजिक सवालों को कविता का विषय बनाने के लिए प्रेरित किया जो इससे पहले कभी नहीं उठाए गए थे।

प्रगतिवाद से पूर्व की सबसे शक्तिशाली काव्यधारा, छायावाद, की प्रगतिशील भूमिका पर प्रगतिशील आलोचकों ने विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्होंने छायावाद के विकास को स्वाधीनता संघर्ष के साथ जोड़कर देखा और कहा कि जो अंतर्विरोध उस दौर के स्वाधीनता आंदोलन में थे वे ही छायावाद में भी प्रकट हो रहे थे। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार, ‘हिंदी साहित्य का वह रूप जिसे हम छायावाद कहते हैं, स्वाधीनता आंदोलन की इस मंजिल को इसकी तमाम असंगतियों और अंतर्विरोधों के साथ प्रकट करता है। छायावादी साहित्य में जहाँ एक तरफ नया उल्लास, नये विकास और नये प्रसार की कामना, देश भक्ति की नयी प्रेरणा, समानता-विश्व बंधुत्व आदि के भाव है, वहाँ दूसरी तरफ उसमें पलायन, रहस्यवाद, प्राचीनता, प्रेम, निराशा, व्यक्तिवाद, काल्पनिक स्वर्ग रचना आदि-आदि की प्रवृत्तियाँ भी मौजूद हैं।” इसके कारण पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि “किसी भी देश के राष्ट्रीय आंदोलन में, जिसमें आम जनता के क्रांतिकारी वर्ग संगठनों का अभाव होगा, पलायन, निराशा, प्राचीनतावाद के भाव लाजमी तौर से उठेंगे।”

डॉ. नामवर सिंह ने भी छायावाद को उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति कहा जो एक ओर पुरानी रूढ़ियों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से । उनका मानना था कि बुद्धिजीवी वर्ग के नेतृत्व में भारतीय जनता ने अपनी राजनीतिक और सामाजिक स्वाधीनता के लिए जो संघर्ष किया उसके कई पहलुओं को छायावाद ने सच्चाई के साथ प्रतिबिंबित किया और यथाशक्ति आगे बढ़ाने में योग दिया।

1930 के दशक तक आते-आते जब स्वाधीनता आंदोलन में किसान-मजदूर जनता की भागीदारी बढ़ने लगी थी, तब छायावाद की प्रासंगिकता भी समाप्त होने लगी थी। दूसरे शब्दों में छायावाद का पतन अवश्यंभावी हो गया था। छायावाद के पतन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का हवाला देते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा था, “सन् 34 के आंदोलन की विफलता ने पूँजीवादी नेताशाही की तरफ से जनता के भ्रमों को काफी दूर किया। स्वाधीनता आंदोलन ने दूसरी मंजिल में कदम रखा। देश में किसानों और मजदूरों के नये वर्ग-संगठन कायम होने लगे और उन्होंने यह कोशिश शुरू की कि राष्ट्रीय आंदोलन को समझौतावाद के रास्ते से मोड़ा जाये। यह परिवर्तन साहित्य में भी दिखाई देता है। राष्ट्रीय नेताशाही के पक्के भक्त प्रेमचंद उससे मुँह मोड़ने लगे। उन्होंने वर्ग समझौते का रास्ता छोड़कर वर्ग-संघर्ष का रास्ता अपनाया। छायावादी कवि अपने कल्पना विलास की स्वयं आलोचना करने लगे। हिंदी में तभी प्रगतिशील साहित्य की चर्चा भी शुरू हुई।”

छायावाद के उत्तरकाल में राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत कविताएँ लिखने की प्रेरणा लेकर जो कवि सामने आए उनमें माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, रामधारी सिंह दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, सोहन लाल द्विवेदी आदि प्रमुख थे। उन्होंने ऐसी कविताएँ लिखीं जिनमें क्रांतिकारी भावनाओं का प्रभाव था और जो समाजवादी विचारों के प्रभाव में भी थे। पंत और निराला की कविताओं में परिवर्तन के संकेत । मिलने लगे थे। पंत अब ‘युगांत’ ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या के माध्यम से साम्यवादी प्रभाव में एक नये तरह का समाज बनाने का स्वप्न व्यक्त कर रहे थे। हालांकि उनकी कविताओं में सामान्य जन के प्रति सहानुभूति बौद्धिक ही अधिक थी लेकिन उस समय इसका भी महत्व था। बच्चन, भगवती चरण वर्मा, दिनकर आदि की कविताओं में छायावाद की आध्यात्मिकता और रहस्यात्मकता की बजाए लौकिक जीवन के प्रति गहरा लगाव व्यक्त हो रहा था। इस पार प्रिये मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा?’ यह भाव इस दौर की कविता में जीवन के प्रति गहरे विश्वास को व्यक्त कर रहा था। कविता में लौकिकता। की यह अभिव्यक्ति धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक समाज बनाने के प्रयत्न का ही हिस्सा थी और इसी कारण यह प्रगतिशील सोच का ही विस्तार था।

लेकिन इसी दौर में कवियों की एक नयी पीढ़ी भी सामने आ रही थी जो मार्क्सवाद और साम्यवाद के प्रभाव में थी और जिन्होंने छायावाद के रूमानी प्रभाव से मुक्त होकर यथार्थवाद को वामपंथी नजरिए से कविता में पेश किया। इन कवियों में रांगेय राघव, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, रामविलास शर्मा, शिवमंगल सिंह सुमन, नागार्जुन, शील, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, त्रिलोचन शास्त्री, शंकर शैलेंद्र आदि प्रमुख थे। इन कवियों ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान फासीवाद के विरुद्ध सोवियत संघ का खुलकर समर्थन किया यहाँ तक कि सोहन लाल द्विवेदी जैसे कवियों ने रूस की लाल सेना का गुणगान करते हुए कहा था कि ‘तुम हारे तो जग हार गया, तुम जीते तो है विश्व शेष’ । इस तरह की कविताओं के कारण ही उस समय प्रगतिशील काव्यांदोलन पर अभारतीयता, रूस के अंध-गुणगान, साम्यवाद के प्रचार आदि का आरोप लगाया गया (डॉ. लल्लन राय, पृ. 57)।

प्रगतिशील कवियों ने अपनी कविता को शोषित और उत्पीड़ित जनता विशेषतः किसान और मजदूर जनता की तरफ मोड़ा और उनके जीवन को कविता का विषय बनाया। पंत ने ग्रामीण जीवन के जो चित्र प्रस्तुत किए उसकी प्रेरणा उन्हें इस नयी दृष्टि से ही प्राप्त हुई थी। पंत ने लिखा था, ‘देख रहा हूँ आज विश्व को मैं ग्रामीण नयन से’ और ‘यहाँ अकेला मानव ही रे चिर विषण्ण जीवन-मृत’ । निराला ने ‘कुकुरमुत्ता’, ‘बेला’ और ‘नये पत्ते’ में किसानों और मेहनतकशों की मुक्ति के स्वप्न को कविता के माध्यम से सच करने की कोशिश की। प्रगतिशील कविता वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टियों से बहुमुखी और वैविध्यपूर्ण थी। यदि एक ओर इसमें किसान और मजदूर सहित मेहनतकश जनता के यथार्थ का सहानुभूतिपूर्ण चित्रण था, तो, दूसरी ओर, इसमें उच्च और मध्य वर्ग के प्रति आलोचनात्मक रुख अपनाया गया था।

यदि इसमें फासीवाद का विरोध और सोवियत संघ के प्रति समर्थन की अभिव्यक्ति हो रही थी, तो, देशभक्ति की भावना की अभिव्यक्ति भी हो रही थी और इस संदर्भ में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध जन संघर्षों को कविता के माध्यम से व्यक्त किया जा रहा था। प्रगतिशील कविता में समाज में व्याप्त रूढ़िवाद की तीखी आलोचना थी, तो, सांप्रदायिकता और जातिवाद के जहर के खिलाफ भी उसमें तीखी भर्त्सना का भाव था। प्रगतिवाद ने स्त्री की मुक्ति को भी अपनी रचना का विषय बनाया और दलितों को भी। उनकी कविताओं में जीवन और जगत् के प्रति गहरा लगाव व्यक्त होता है। प्रकृति जीवन और जगत् से अलग नहीं है इसलिए प्रकृति और सौंदर्य का जैसा चित्रण हमें प्रगतिशील कवियों में मिलता है वह अन्यत्र मुश्किल है।

प्रगतिशील कवियों ने कविता में विषय वस्तु के महत्व को समझते हुए यह जान लिया था कि कविता सिर्फ जनता के प्रति गहरी प्रतिबद्धता और प्रगतिशील विषयों पर लिखी जाकर ही महान नहीं बनती यदि कवि की प्रतिबद्धता सच्ची और गहरी है तो वह अपनी बात को साहित्य के माध्यम से प्रभावशाली रूप में कहने के लिए कविता के उपकरणों का प्रयोग भी वैसी ही गहरी प्रतिबद्धता के साथ करेगा। वह अपनी बात कहने के लिए अब तक आजमाए गए काव्य उपकरणों का अनुकरण ही नहीं करेगा बल्कि नए उपकरणों की खोज भी करेगा। यही कारण है कि प्रगतिशील कविता के प्रमुख स्तंभ नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन आदि में से किसी की भी कविता दूसरों की कविता का अनुकरण नहीं है। विषय-वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टियों से प्रगतिशील कविता की विविधता हिंदी काव्य परंपरा की समृद्धि का प्रतीक कही जा सकती है।

एक आंदोलन के रूप में प्रगतिवाद का अवसान भले ही पचास के आसपास हो गया हो, लेकिन प्रगतिशील कविता का अवसान कभी नहीं हुआ। प्रयोगवाद, नयी कविता के दौर में प्रगतिशील कविता विचार और शिल्प दोनों स्तरों पर अपनी अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष करती रही और अंततः सत्तर के दशक में एकबार फिर प्रगतिशील और जनवादी कविता व्यक्तिवादी काव्यधारा को पीछे धकेलती हुए अपने को स्थापित करने में कामयाब रही। हिंदी में प्रगतिशील कविता की परंपरा के संक्षिप्त परिचय के बाद आइए, हम प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों का परिचय प्राप्त करें।

प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों पर विचार करते हुए अभी तक हमने जो बातचीत की है, उसको ध्यान में रखना होगा। जैसा कि डॉ. लल्लन राय का कहना है, “प्रगति संबंधी मान्यताएँ किसी स्थिर अवधारणा पर आधारित नहीं रही हैं। समयानुकूल उनमें परिवर्तन हुआ है। स्वाधीनतापूर्व उसका जो रुख-रुझान था, स्वाधीनता के बाद उसमें स्पष्ट रूप से अंतर दिखाई देगा। इस अंतर के बावजूद प्रगतिशील कविता के सामने हमेशा एक केंद्रीय मुद्दा रहा है, वह है देश की बहुसंख्यक शोषित-उत्पीड़ित जनता की वास्तविक मुक्ति । अतः हिन्दी प्रगतिशील कविता की अन्यान्य प्रवृत्तियों में उसका केंद्रीय मुद्दा अनुस्यूत रहा है। चाहे राष्ट्रीय स्वाधीनता का प्रश्न हो, चाहे शोषित-उत्पीड़ित जन-जीवन के प्रति प्रेम हो या शोषक-उत्पीड़क वर्ग के प्रति आक्रोश, चाहे रूढ़िवाद और जातीय भेदभाव का विरोध हो या सांप्रदायिक सद्भाव सर्वत्र हो, यह केंद्रीय मुद्दा उसके सामने रहा है। केवल कविता की अंतर्वस्तु ही नहीं, वरन् उसके शिल्प और कलात्मक सौंदर्य के प्रतिमानों के ग्रहण और परित्याग में भी यही केंद्रीय मुद्दा उसके सामने दिखाई देगा।” इस कथन के संदर्भ में ही हम यहाँ प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों पर विचार करेंगे।

राष्ट्रीयता की भावना की अभिव्यक्ति

प्रगतिवाद में राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति एक प्रमुख विशेषता रही है। यह वह दौर था जब देश अंग्रेजी राजसत्ता के अधीन था और उससे मुक्ति का संघर्ष दिन-ब-दिन तेज होता जा रहा था। इस संघर्ष में जनता के व्यापक हिस्से शामिल होते जा रहे थे। उत्तर छायावादी कविता में तो देशभक्ति एक अहम् मसला हो गया था। उस समय के कई लेखक स्वयं भी राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा ले रहे थे। कविता करना और आजादी के संघर्ष में भाग लेना उनके लिए अलग-अलग बातें नहीं थी। छायावाद के दौर से यह एक महत्त्वपूर्ण बदलाव था। सुभद्रा कुमारी चौहान, नवीन, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर ही नहीं बाद में प्रगतिवाद से जुड़े राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, शील, यशपाल, शिव वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त, हंसराज रहबर आदि कई साहित्यकार राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए।

प्रगतिशील कविता में व्यक्त राष्ट्रीय भावना छायावादी राष्ट्रीय भावना से कई मायनों में अलग थी। इन कवियों ने जहाँ एक ओर देशभक्ति की भावना को क्रांतिकारी धार दी, तो दूसरी ओर, उन्होंने उसे सामाजिक मुक्ति के सवाल से भी जोड़ा। उन्होंने इतना ही कहना पर्याप्त नहीं समझा कि देश को विदेशी दासता से मुक्त होना चाहिए बल्कि यह भी कि आजाद भारत किस तरह का होगा और राजसत्ता पर । किसका शासन होगा। क्या वास्तव में जनता का राज होगा? उन्होंने गांधी युग के हिंसा और अहिंसा के सवाल को भी अप्रासांगिक ठहराकर अस्वीकार कर दिया। केदारनाथ अग्रवाल ने लिखा था, “हिंसा और अहिंसा क्या है/जीवन से बढ़कर हिंसा क्या है?” प्रगतिशील कविता ने साहित्य और कला को राजनीति से निरपेक्ष रखने की धारणा को भी अस्वीकार किया। उन्होंने 1947 में प्राप्त हुई आजादी के चरित्र को लेकर सवाल उठाए। कवियों ने यह सवाल उठाया कि क्या आजादी के बाद कुछ भी बदला है। नागार्जुन ने लिखा था :

पुलिस और पलटन के हाथी कितना चारा खाते हैं,

वही रंग है, वही ढंग है, फरक नहीं कुछ पाते हैं।

देश-भक्ति की सनद मिल रही आये दिन शैतानों को,

डांट-डपट उपदेश मिल रहे, दुखी मजूर-किसानों को।

आजादी के बाद की निराशाजनक तस्वीर ने प्रगतिशील रचनाकारों को उस समय की राष्ट्रीय सरकार की आलोचना करने को प्रेरित किया। लेकिन मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी वर्ग का एक हिस्सा इससे भिन्न ढंग से सोच रहा था। वे किसान-मजदूरों के हितों से ज्यादा अपने हितों को तरजीह दे रहे थे और उन्हें उम्मीद थी कि ऐसे बदलाव होंगे जो उनके हित में जाएँगे। यही कारण है कि जल्दी ही कवियों का एक हिस्सा देशभक्ति और जनता के प्रति लगाव का भाव भूल गया और अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति पर ज्यादा बल देने लगा।

वामपंथी विचारधारा और राजनीति का प्रभाव

प्रगतिशील कविता पर मार्क्सवाद के प्रभाव का कारण सन् ‘30 के बाद की परिस्थितियाँ हैं। 1917 में रूस की बोल्शेविक क्रांति और सोवियत संघ के अस्तित्व में आने ने दुनिया भर के कलाकारों और बुद्धिजीवियों को प्रभावित और प्रेरित किया था। सोवियत संघ ने उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष को अपना समर्थन दिया और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान फासीवाद पर सोवियत संघ की लाल सेना की निर्णायक जीत ने दुनिया भर की वामपंथी और प्रगतिशील ताकतों के हौसले बुलंद किये। इसका असर भारत के लेखकों और बुद्धिजीवियों पर भी पड़ना स्वाभाविक था। मैथिलीशरण गुप्त से लेकर सुमित्रनंदन पंत ने मार्क्स और मार्क्सवाद के प्रति कविताओं के माध्यम से अपने श्रद्धाभाव का इजहार किया। जब हिटलर की सेना सोवियत संघ में मास्को तक पहुँच गई और बाद में उसे बर्लिन तक खदेड़ा गया तो इस ऐतिहासिक संघर्ष को लेकर हिंदी कवियों ने ढेरों कविताएँ लिखीं। मास्को-मुक्ति पर मुक्तिबोध ने ‘लाल सलाम’ कविता लिखी, शमशेर ने ‘वाम वाम वाम दिशा’ कविता द्वारा वामपंथ की अपरिहार्यता को रेखांकित किया :

भारत का

भूत-वर्तमान औ’ भविष्य का वितान लिये

काल-मान-विज्ञ मार्क्स-मान में तुला हुआ

वाम वाम वाम दिशा;

समय साम्यवादी।

सोवियत रूस में जो नया देश और नया मानव निर्मित हो रहा था, उसी ने यह विश्वास उत्पन्न किया था कि आज का समय साम्यवादी है। लेकिन बाद में जब सोवियत सेना ने चेकोस्लोवाकिया और हंगरी में । वहाँ की समाजवादी सरकारों को बचाने के लिए प्रवेश किया, जब स्टालिन के शासन के कई नकारात्मक पहलू सामने आए और जब अमरीका के नेतृत्व में शीतयुद्ध का प्रभाव तीसरी दुनिया के देशों के बुद्धिजीवियों में बढ़ने लगा तो सोवियत संघ ही नहीं मार्क्सवाद के प्रति लेखकों और बुद्धिजीवियों का आकर्षण कम होने लगा। कई ऐसे कवि जो आरंभ में प्रगतिवाद के साथ थे, बाद में उससे अलग ही नहीं उसके विरोधी भी हो गये।

शोषित-उत्पीडित जनता से जुड़ाव

प्रगतिशील कविता में पहली बार किसान-मजदूरों के प्रति गहरी सहानुभूति और लगाव की अभिव्यक्ति हुई और शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति के सामूहिक प्रयासों की जरूरत को रेखांकित ही नहीं किया बल्कि यह भी बताया कि जन क्रांति इसका एकमात्र रास्ता है। मुक्तिबोध ने इस संदर्भ में यह भी प्रश्न उठाया कि मध्यवर्ग को यह तय करना होगा कि वे इस संघर्ष में किस ओर हैं:

बशर्ते तय करो,

किस ओर हो तुम, अब

सुनहले ऊर्ध्व आसन के

दबाते पक्ष में, अथवा

कहीं उससे लुटी-टूटी

अँधेरी निम्न कक्षा में तुम्हारा

मन कहाँ हो तुम?

(चकमक की चिनगारियाँ)

प्रगतिशील कविता के दौर में ऐसी बहुत सी कविताएँ लिखी गईं जिनमें जनता के वेदना की ही अभिव्यक्ति ही नहीं थी बल्कि उनकी संघर्ष क्षमता को भी वाणी दी गई थी। कवियों ने इस बात को खास तौर पर रेखांकित किया था कि एक रचनाकार के लिए मुक्ति का रास्ता जनता के साथ जुड़ने में ही है। नागार्जुन, केदार, शील आदि ने अपनी कविताओं के माध्यम से जनता की अदम्य मुक्ति आकांक्षा को व्यक्त किया। इस संदर्भ में यह भी ध्यान देने वाली बात है कि उन्होंने उन ताकतों पर जमकर प्रहार किया जो जनता की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं।

नागार्जुन की कविता के संदर्भ में टिप्पणी करते हुए डॉ. लल्लन राय ने जो कहा है, वह बात संपूर्ण प्रगतिशील कविता के बारे में भी कही जा सकती है। वे लिखते हैं, “वर्तमान शोषणमूलक व्यवस्था, राजनीतिक नेतृत्व का छल-छद्म, साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, सामंतवाद शासन-तंत्र, अर्थनीति, धर्मनीति, किसी भी प्रकार का अन्याय, अत्याचार, पाखंड आदि जो शोषित-उत्पीड़ित जनता के हितों के विरूद्ध पड़ता है, नागार्जुन ने उस पर करारा प्रहार किया है।”

प्रगतिशील कविता की यह विशेषता रही है कि उन्होंने किसान और धरती के प्रति अपने अनुराग की बार बार अभिव्यक्ति की है। मेहनतकश जनता के प्रति इसी अनुराग के कारण त्रिलोचन जैसे कवि यह कह सके कि ‘जिस समाज का तू सपना है/जिस समाज का तू अपना है/मैं भी उस समाज का जन हूँ। इसी भावना ने कवियों को ग्रामीण जीवन के चित्रण की ओर खास तौर पर आकर्षित किया।

ग्राम्य जीवन के प्रति लगाव

हिंदी के अधिकांश प्रगतिशील कवियों का संबंध गाँवों से था इसलिए यह स्वाभाविक था कि उनकी कविता में ग्राम्य जीवन के चित्रण पर अधिक बल होता। नरेंद्र शर्मा, केदार, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, त्रिलोचन, शील आदि की कविताओं में ग्राम्य जीवन की प्रमुखता का यही कारण था। प्रगतिवाद से पूर्व के काव्य में ग्राम्य जीवन की अभिव्यक्ति आमतौर पर रूमानी किस्म की थी, जिसका मूल भाव कुछ इस तरह का होता ‘अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है?’ । यद्यपि पंतजी ने अपनी प्रगतिशील कविता की शुरुआत ग्राम्य जीवन की अभिव्यक्ति से ही की थी और निराला की कविताओं में भी ग्राम्य जीवन के प्रभावशाली चित्र मौजूद हैं लेकिन ग्राम्य जीवन में व्याप्त विषमताओं, विडंबनाओं और संघर्षों का जैसा चित्रण प्रगतिशील कविता में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ग्राम्य जीवन के चित्रण में विविधता का अभाव है। प्रगतिशील कवियों ने ग्राम प्रकृति और ग्राम परिवेश के भी बहुरंगी चित्र अपनी कविताओं में अंकित किए हैं।

इस दृष्टि से नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन की कविताएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। नागार्जुन की कविता में मिथिलांचल, केदार के यहाँ बुंदेलखंड और त्रिलोचन की कविता में अवध जनपद का सौंदर्य जैसे मूर्तिमान हो उठा है। ये कवि प्रकृति का चित्रण करते हुए भी कभी भी वहाँ के लोगों और वहाँ के सामाजिक जीवन को नहीं भूलते। केदार की कविता का यह अंश इसका ज्वलंत प्रमाण है:

“धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने

मैके में आयी बेटी की तरह मगन है

फूली सरसों की छाती से लिपट गयी है

जैसे दो हमजोली सखियाँ गले मिली हैं

भैया की बाहों से छूटी भौजायी-सी

लहंगे की लहराती लचती हवा चली है।”

प्रगतिशील कविता में व्यक्त ग्राम्य जीवन की विशेषताओं को हम डॉ. लल्लन राय के शब्दों में इस तरह से रख सकते हैं: “वस्तुतः प्रगतिशील कवि गाँव के जन-जीवन में शरीक होकर, उनके सुख-दुख में सुखी दुखी होते हुए, उनकी कमियों को सहानुभूतिपूर्वक रेखांकित करते हुए, उनकी अपार क्षमता से उन्हें परिचित कराते हुए, उनके आस-पास छिपे अपार सौंदर्य और वैभव को उद्घाटित करते हुए और उनमें स्वयं रस लेते हुए, उन्हीं में से एक बनकर सामने आते हैं। उनके साथ होकर, उनके साथ रहकर ही, उन्हीं के भाव-कल्प से, उन्हीं की दृष्टि से, उनके खेत-खलिहान, उनके बाग-बगीचों, उनके संध्या-प्रातः, उनके सूरज-चांद और मेघ को इन कवियों ने अपनी सौंदर्यानुभूति का माध्यम बनाया है। इसलिए उनकी एतद्विषयक कविताओं में उनका अपना जीवन भी उच्छल भाव से अभिव्यक्त हुआ है।”

शोषक सत्ता का विरोध

प्रगतिशील कविता की एक प्रमुख प्रवृत्ति यह है कि इसमें पूँजीवादी, सामंतवादी और साम्राज्यवादी शोषक सत्ता का विरोध लगातार दिखाई देता है। जब प्रगतिशील कवि मेहनतकश जनता के समर्थन में खड़े होते हैं और उनका शोषण-उत्पीड़न करने वाले वर्गों का विरोध करते हैं तो जाहिर है कि वे पूँजीवाद, सामंतवाद और साम्राज्यवाद का विरोध करेंगे। आजादी के पहले प्रगतिशील कविता की मुख्य धारा पूँजीवादी-साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध थी लेकिन आजादी के बाद उनकी धारा सामंतवादी-पूंजीवादी भारतीय राजसत्ता के खिलाफ हो गई। इसका अर्थ यह नहीं था कि आजादी से पहले प्रगतिवाद ने सामंतवाद का विरोध नहीं किया और न ही इसका मतलब यह है कि आजादी के बाद साम्राज्यवाद का विरोध समाप्त हो गया। फिर भी, प्रगतिशील साहित्य में तत्कालीन राजसत्ता का विरोध एक मुख्य मुद्दा था।

सामंतवाद का विरोध नवजागरण के दौर से ही हिंदी साहित्य का एक ज्वलंत विषय रहा है। हम पाते हैं कि हिंदी कविता छायावाद तक सामंतवाद का विरोध करते हुए लोकतंत्र धर्मनिरपेक्षता और समानता के आधुनिक जीवन मूल्यों की तरफ बढ़ रही थी, लेकिन प्रगतिवाद से पूर्व की कविताओं में सामंतवादी जीवन मूल्यों से पूरी तरह मुक्ति भी नहीं मिल पाई थी। पुनरुत्थानवादी प्रभाव की बात इसी परिप्रेक्ष्य में कही जाती रही है। लेकिन प्रगतिशील आंदोलन ने सामंतवाद और पूँजीवाद के प्रति संघर्ष को मुख्य मुद्दा बनाया जिसकी अभिव्यक्ति निराला जैसे कवियों के यहाँ भी हम देख सकते हैं। निराला की ‘बादल राग’ कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है जो प्रगतिशील आंदोलन से पूर्व ही लिखी जा चुकी थी। निराला के यहाँ प्रगतिशील काव्यांदोलन के दौर में तो इस तरह की कविताएँ मुख्य स्वर बन गई। बाद में, नागार्जुन, केदार, शील आदि की कविताओं में सामंतवादी शोषण के विभिन्न रूपों पर तीखा प्रहार किया गया है।

प्रगतिशील कवियों ने सामंतवाद के साथ-साथ पूँजीवादी शोषण के प्रति भी अपना गहरा आक्रोश व्यक्त किया है। पूँजीवाद के शोषक-मारक रूप की विकरालता का चित्रण करते हुए कवियों ने इस बात का आह्वान किया था कि इसका नाश ही इससे मुक्ति का मार्ग है।

“तेरे हास में भी रोग-कृमि हैं उग्र

तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र

मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक

अपनी उष्णता से धो चले अविवेक

तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ

तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ ।”

पूँजीवादी सत्ता के विरोध ने ही कवियों को क्रांति की आवश्यकता का एहसास कराया जिसने मुक्तिबोध को ‘अंधेरे में’ जैसी अमर कविता लिखने के लिए प्रेरित किया। सामंतवाद-साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरोध ने प्रगतिशील कविता को विश्व मानवता से प्रतिबद्ध किया। वे दुनिया में कहीं भी साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के कारण जनता पर होने वाले अत्याचारों का विरोध करने में सक्षम हो सके। दुनिया के लोगों के प्रति बंधुत्व का भाव भी इसी कारण पैदा हो सका। वे यह भी पहचान सके कि साम्राज्यवाद और पूँजीवाद अपने लाभ-लोभ के लिए दुनिया को लगातार युद्ध में झोंक सकते हैं। दूसरे विश्व युद्ध के अंत में अमरीका द्वारा जापान के दो शहरों पर एटम बम गिराया जाना इस बात का प्रमाण है। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में साम्राज्यवादी देशों ने मानवता का नाश करने वाले हथियारों का जखीरा खड़ा किया। उसने दुनिया को भयावह स्थिति में ला खड़ा किया है। यही कारण है कि प्रगतिशील कवि युद्धोन्माद का विरोध करने और शांति का प्रसार करने के लिए भी आगे आये। इस दृष्टि से शमशेर की कविता ‘अमर का राग’ खास तौर पर उल्लेखनीय है।

सामाजिक परिवर्तन पर बल

प्रगतिशील कविता की एक अन्य प्रवृत्ति रही है सामाजिक यथार्थ के चित्रण पर बल। इस संदर्भ में नामवर सिंह की यह बात खास तौर पर उल्लेखनीय है। उनका कहना है, “जिस तरह कल्पनाप्रवण अंतर्दृष्टि छायावाद की विशेषता है और अंतर्मुखी बौद्धिक दृष्टि प्रयोगवाद की; उसी तरह सामाजिक यथार्थ दृष्टि प्रगतिवाद की विशेषता है।” इसी सामाजिक यथार्थ दृष्टि के कारण ही वे समाज में व्याप्त कई ऐसी विकृतियों का विरोध करने में सक्षम हो सके जिसके कारण समाज का एक बड़ा हिस्सा नारकीय और पराधीन जीवन जीने के लिए अभिशप्त था। नारी की पराधीनता, दलितों का उत्पीड़न तथा शोषण और सांप्रदायिक विद्वेष के खिलाफ प्रगतिशील कवियों ने लगातार आवाज उठाई। वे यह जानते थे कि ये चीजें सिर्फ पूँजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ जहर उगलने से ही समाप्त नहीं होंगी और न ही राजनीतिक परिवर्तनों से ही जातिवाद, सांप्रदायिकता और नारी मुक्ति के प्रश्न एक बारगी हल हो सकते हैं। इसके लिए जनता की चेतना को बदलने की भी जरूरत है।

यही कारण है कि प्रगतिशील कविता में इन विषयों पर अत्यंत मार्मिक कविताएँ लिखी गईं जिनका मकसद यही था कि जनता में जाति, धर्म, लिंग और भाषा की भिन्नताओं के बावजूद व्यापक एकता कायम हो सकी। प्रगतिशील कवियों ने ऐसी सामाजिक विषमताओं, रूढ़ियों और बंधनों का भी विरोध किया जिनके कारण लोगों में नरक से निकलने की इच्छा शक्ति भी समाप्त हो जाती है। वे अपने जीवन में आने वाली सारी मुश्किलों को ईश्वर और भाग्य का खेल समझकर चुपचाप झेलते रहते हैं। प्रगतिशील कविता ने सामाजिक यथार्थ के कुछ अनछुए और स्वस्थ चित्र भी प्रस्तुत किए हैं, खासतौर पर पति-पत्नी के संबंध, पिता-पुत्र के संबंध और इसी तरह के आत्मीय संबंधों के चित्र उनकी कविता को आत्मीय भावबोध से भर देते हैं।

प्रगतिशील कविता के बारे में आमतौर पर यह धारणा फैली हुई है कि वह राजनीतिक कविता है और जिसका काम प्रचार करना है। लेकिन यह सच नहीं है। सच्चाई यह है कि प्रगतिवाद जीवन के व्यापक और विराट सत्य को अभिव्यक्त करता है। जीवन और जगत् में ऐसा कुछ भी नहीं है जो प्रगतिशील कविता के बाहर है। हाँ, हर कविता में उनकी मुख्य प्रतिज्ञा जनता के प्रति गहरी आस्था और उसकी मुक्ति की कामना है।

प्रगतिशील कविता की शिल्पगत प्रवृतियाँ

प्रगतिशील कविता के बारे में उनके आलोचकों का आरोप है कि वे कविता में शिल्प पक्ष की उपेक्षा करते हैं और वस्तु को ही प्रमुखता देते हैं इसके कारण उनकी कविताएँ प्रचारात्मक ज्यादा हो जाती हैं और उनका कलात्मक मूल्य कम हो जाता है। यह बात प्रगतिवाद के आरंभिक दौर के लिए हो सकता है कुछ हद तक सत्य हो, लेकिन इसे आज नकारने के लिए विशेष प्रमाण देने की जरूरत नहीं है। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, मुक्तिबोध और त्रिलोचन ही नहीं दूसरे भी कई प्रगतिशील कवियों की कविताएँ इस बात का प्रमाण है कि प्रगतिशील कविता में रूप और शिल्प की कभी उपेक्षा नहीं हुई। हाँ, यह जरूर है कि किसी भी काव्य प्रवृत्ति में सभी कवि एक सी प्रतिभा के नहीं होते और न ही सभी कवियों की कविताएँ एक समान उकृष्ट होती हैं।

इस संदर्भ में डॉ. नामवर सिंह का उक्त कथन उल्लेखनीय है: “प्रगतिशील कविता के बारे में अक्सर कहा जाता है कि उसमें कलापक्ष की अवहेलना की जाती है; यदि इसका अर्थ यह है कि प्रगतिशील कवि प्रयोगवादियों की तरह कलापक्ष पर बहुत जोर नहीं देते तो यह ठीक है। बहुत सजाव-सिंगार और पेचीदगी प्रगतिशील कविता में नहीं मिलती। अपनी बात को कितना सुलझाकर उसे कितने सहज ढंग से कह दिया जाए-यही प्रगतिशील कवि का प्रयत्न रहता है। उसके भावों की तरह भाषा भी गाँठ रहित होती है। प्रगतिशील कवि अपना हर शब्द और हर वाक्य चमत्कारपूर्ण बनाने की चेष्टा नहीं करता।” लेकिन अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए प्रगतिशील कवि कविता के सभी तरह के उपकरणों का प्रयोग करने से संकोच नहीं करता।

छंदबद्ध और छंदमुक्त, देशी और विदेशी, लोक और अभिजात सभी तरह के शिल्प प्रयोग हमें प्रगतिशील कविता में देखने को मिल जाएँगे। भाषा के प्रयोग के प्रति प्रगतिशील कवि बहुत सावधान रहते हैं। वे भाषा के प्रयोग में किसी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करते। तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी किसी भी ऐसे शब्दों का प्रयोग वे कर सकते हैं जिनसे कि उनकी बात प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त हो सके। कविता में जितने तरह के बिंबों और प्रतीकों का प्रयोग प्रगतिशील कवियों ने किया है, वह अनुपम है।

यदि नागार्जुन की कविता में व्यंग्य का उत्कर्ष नजर आता है, तो मुक्तिबोध ने फैंटेसी जैसे बिल्कुल नये शिल्पविधान का प्रयोग कर हिंदी कविता को ऐसी ऊँचाई दी है, जिसकी बराबरी करना आसान नहीं है। त्रिलोचन ने हिंदी में सानेट जैसे विदेशी छंद को लोक छंद का रूप दे दिया है तो शमशेर की कविता के बिंबों के आगे प्रयोगवादियों के बिंब फीके नजर आने लगते हैं। प्रगतिशील कविता ने हिंदी कविता की भाषा को तत्सम शब्दावली के अभिजात कुहासे से निकालकर आम बोलचाल के नजदीक ला दिया। नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन आदि ने तो उसे जनपदीय भाषा से समृद्ध कर नयी प्राणशक्ति प्रदान की।

सारांश

इस इकाई में आपने प्रगतिशील साहित्य का परिचय प्राप्त किया है। सबसे पहले हमने प्रगतिशीलता के सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य को समझाने का प्रयास किया है। प्रगतिवाद क्या है, मार्क्सवाद से उसका क्या संबंध है और प्रगतिवादी साहित्य सिद्धांत की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं, इस संदर्भ में हमने बताया कि मार्क्स समाज के विकास की एक वैज्ञानिक विचारधारा है जो सामाजिक परिवर्तनों की व्याख्या ही नहीं करती बल्कि उसके रूपांतरण के उपायों को भी प्रस्तुत करती है। प्रगतिवादी साहित्य सिद्धांत बताता है कि साहित्य का उद्देश्य क्या होना चाहिए। वह जनता की भावनाओं, आकांक्षाओं और सपनों को व्यक्त करने पर बल देता है। वह वस्तु पर बल देकर भी रूप की उपेक्षा नहीं करता।

प्रगतिवाद ने आंदोलन का रूप बीसवीं सदी के तीसरे दशक में लिया था, जब दुनिया में फासीवाद के उदय के कारण विश्वयुद्ध का आसन्न संकट उपस्थित हो गया था। हमारे यहाँ आजादी का आंदोलन भी मध्यवर्ग की सीमाओं से पार जाकर जनता का आंदोलन बन गया था। किसानों और मजदूरों की भागीदारी ने आंदोलन के चरित्र को बदल डाला था और देश में वामपंथ की ताकतें उभरने लगी थीं।

प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना 1936 में लखनऊ में हुई थी जिसका सभापतित्व प्रेमचंद ने किया था। लेकिन लेखक संघ बनाने के प्रयास इससे पहले से शुरू हो गये थे। दुनिया के दूसरे देशों में फासीवाद के विरुद्ध संस्कृतिकर्मी संगठित हो रहे थे। भारत में भी उपनिवेशवाद के विरुद्ध लेखक प्रगतिशाली लेखक संघ के झंडे तले एकत्र हुए। प्रगतिशील लेखक संघ अखिल भारतीय आंदोलन था। इसमें सभी भारतीय भाषाओं के लेखक शामिल थे। प्र.ले.सं. ने भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की स्थापना की भी प्रेरणा दी। आजादी के कुछ सालों बाद इस आंदोलन में राजसत्ता के चरित्र को लेकर और साहित्यकारों को संगठित करने के सवाल पर बढ़ते मतभेदों के कारण संगठन बिखरने लगा।

प्रगतिशील साहित्य का उदय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से पहले ही होने लगा था। इसने साहित्य को गहरे तक प्रभावित किया। प्रगतिशील साहित्य सभी विधाओं में अपने को अभिव्यक्त कर रहा था लेकिन इस इकाई में हमने कविता का ही विस्तार से परिचय दिया है।

प्रगतिशील साहित्य की कुछ प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं: राष्ट्रीयता की भावना की अभिव्यक्ति, वामपंथी विचारधारा और राजनीति का प्रभाव, शोषित-उत्पीड़ित जनता से जुड़ाव, ग्राम्य जीवन के प्रति लगाव, शोषक सत्ता का विरोध और सामाजिक परिवर्तन पर बल जिसमें नारी, दलित के शोषण और उत्पीड़न का विरोध शामिल है। साथ ही, सांप्रदायिकता और धार्मिक रूढ़िवाद के विरुद्ध संघर्ष को भी हिंदी की प्रगतिशील कविता ने मुख्य विषय बनाया।

प्रगतिशील कविता भाषा और शिल्प की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। इसे हिंदी में भक्ति काव्य और छायावाद के बाद की सबसे शक्तिशाली और समृद्ध काव्यधारा माना जाता है। प्रगतिशील कविता ने काव्य के विविध कला रूपों को प्रस्तुत किया और भाषा को जनता के नजदीक लाकर उसकी संप्रेषणीयता को भी सपन्न बनाया।

इस प्रकार प्रगतिशील कविता का यह अध्ययन आपको ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसे समझने की अंतर्दृष्टि प्रदान करेगा, ऐसी आशा है।

अभ्यास प्रश्न

  1. प्रगतिवाद के उदय के वैचारक और ऐतिहासिक कारणों का विवेचन कीजिए और बताइए कि भारतीय संदर्भ में इनका क्या महत्व है?
  2. प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और अवसान के कारणों का उल्लेख करते हुए इसकी भूमिका का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रगतिशील साहित्य परंपरा की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों का सोदाहरण विवेचन कीजिए।
  5. आधुनिक हिंदी काव्य परंपरा में प्रगतिवाद के योगदान का प्रकाश डालिए।

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