‘कुत्ते की पूंछ’ : यशपाल

प्रस्तुत इकाई यशपाल की ‘कुत्ते की पूंछ’ कहानी पर आधारित है। 

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • मध्यवर्ग में छिपे स्वार्थ और झूठे मूल्यों के आग्रह को समझ सकेंगे;
  • पूंजी के भेदभाव पर आधारित मध्यवर्गीय नैतिकता के आडंबर को रेखांकित कर सकेंगे;
  • शोषण और मुनाफाखोरी पर आधारित संस्कृति के अधःपतन पर प्रकाश डाल सकेंगे;
  • बाल मजदूर बनाए जाने की अमानवीय प्रक्रिया को समझ सकेंगे;
  • अस्तित्व बोध की चेतना के विस्तार और उसके एहसास की तीव्रता को जान सकेंगे।

यशपाल के जीवन को प्रथम तो आर्यसमाजी विचारधारा ने स्वतंत्र एवं स्वच्छन्द बना दिया था, लेकिन जेल में रहकर इन्होंने साम्यवादी विचारधारा का गहन अध्ययन किया और साम्यवादी विचारों ने इन्हें एक ऐसी वैज्ञानिक एवं समाजवादी दृष्टि प्रदान की। जिससे ये फिर विषमता एवं असमानता के विरुद्ध आवाज बुलंद करने लगे। साम्यवादी चिंतन ने इन्हें प्रभावित तो अधिक किया था, परंतु ये उस विचारधारा के दास नहीं बने। इसी कारण कुछ दिनों पश्चात ही इन्होंने साम्यवादी दल से अपना संबंध विच्छेद कर लिया। परंतु इनके मन एवं मस्तिष्क पर क्रांतिकारी तथा साम्यवादी विचारों ने जो छाप छोड़ दी थी, वह बराबर बनी रही।

यशपाल जी सक्रिय राजनीति से साहित्य और पत्रकारिता की ओर आए थे। मार्च, 1938 में जेल से रिहाई के समय यशपाल के लिए दुनिया काफी बदल चुकी थी। उनके अनेक महत्वपूर्ण क्रांतिकारी साथी मारे जा चुके थे या फिर फाँसी पर चढ़ाए जा चुके थे। क्रांतिकारी संगठन पूरी तरह बिखर गया था। जो कुछ साथी बच रहे थे,

वे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे थे और गहरी अफरा-तफरी के उस माहौल में सुविधा और वर्तमान सोच के अनुसार जहाँ अवसर मिल रहा था अपने को जमाने और बचाने की कोशिश में लगे थे। सर सिकंदर हयात की सरकार ने पंजाब में । यशपाल के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी। कुछ समय नैनीताल के निकट भवाली में रहकर अपनी चिकित्सा के बाद, वे लखनऊ आ गए थे और यहीं से उन्होंने अपनी रिहाई के ठीक आठ महीने बाद अपना पत्र ‘विप्लव’ निकाला। इससे पहले कुछ समय उन्होंने लखनऊ के ही ‘कर्मयोगी’ में नौकरी भी की थी, लेकिन कुल मिलाकर वह केवल पौने दो महीने निभ सकी।

‘विप्लव’ का प्रवेशांक नवम्बर 38 में प्रकाशित हआ। प्रवेशांक के सम्पादकीय में ‘हे विप्लव’ शीर्षक से लिखित टिप्पणी में यशपाल लिखते हैं, “विप्लव मनुष्य और उसके समाज की जीवन-शक्ति का स्रोत है। मनुष्य समाज का विकास के मार्ग पर एक पड़ाव का मार्ग तमकर क्लांत, भ्रांत और जर्जर हो आगे अपने मार्ग को बंद पा रहे हैं। किंतु जीवन की राह पर चले बिना गुजारा नहीं। न चलने का अर्थ है मृत्य!” अपनी जिस हताश मनःस्थिति का संकेत यशपाल ने इस टिप्पणी में दिया है, उसका संबंध उस बदले हुए राजनीतिक माहौल से ही है, जिसमें एक मूलभूत अंतर उनके बंदी बनाए जाने – 23 जनवरी सन् 1932 और उनकी रिहाई – 2 मार्च, 1938 के बीच घटित हो चुका था।

जगह-जगह बने कांग्रेसी मंत्रीमंडल सुविधा, अर्थ और अवसरवाद की नीति का बहुत स्पष्ट संकेत दे रहे थे। साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष कमजोर पड़ रहा था और जनता की प्रतिरोध चेतना गहरे अवरोध का शिकार थी। दूसरे विश्वयुद्ध की आशंकाएँ बढ़ रही थी। इसी राजनीतिक परिदृश्य में यशपाल के ‘विप्लव’ की वास्तविक भूमिका को समझा जा सकता है। यशपाल ने प्रवेशांक के मुखपृष्ठ पर लिखा था :

“तुम करो शांति समता प्रसार;

विप्लव! गा अपना अमर गान!”

अपनी इसी सम्पादकीय टिप्पणी के अंत में यशपाल ने लिखा, “हे विप्लव की अग्नि। हे दलित और पीड़ित जनता के शक्ति उद्गार उठ, भारत के निशक्त और ठंडे पड़े खन को गरम कर दे। भारत तेरी ओर आँखें लगाए प्रतीक्षा कर रहा है। उसे उत्पीड़न के रक्त के कीचड़ से निकाल कर समता और शांति की समतल भूमि पर खड़ाकर उसके सामने मनुष्य के विकास का मार्ग खोल दे

“प्रवेशांक की इस टिप्पणी से ‘विप्लव’ निकाले जाने का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है। वस्तुतः यही वह छूटा और अधूरा पड़ा काम था जिसे हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र सेना का क्रांतिकारी संगठन कर रहा था और जिसके लिए उसके सदस्यों की कोई कुर्बानी बड़ी नहीं थी। बदली हुई परिस्थितियों में दल के पुनर्गठन की संभावनाएँ अत्यन्त क्षीण थी। अतः दल के इस अधूरे काम को बम की जगह बुलेटिन द्वारा पूरा करने के लक्ष्य के साथ ही यशपाल पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में आए थे।

अपने क्रांतिकारी जीवन के संस्मरण ‘सिंहावलोकन’ में यशपाल ने दल की परिवर्तित भूमिका की ओर संकेत किया है। भगतसिंह के अनेक जीवनीकार आज इस तथ्य पर विशेष बल देते हैं कि वे द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन से बहुत गहरे रूप में प्रभावित थे और रूसी क्रांति के संदर्भ में लेनिन की कार्यनीतियों का उन पर जबर्दस्त प्रभाव था। वस्तुतः इस तथ्य को सबसे पहले यशपाल ने ही उजागर किया। अतः कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि ‘विप्लव’ का उद्देश्य और प्रकारांतर से यशपाल के अपने लेखन को भी, मार्क्सवाद की दीक्षा के रूप में प्रस्तुत किया गया। कांग्रेस का सत्ता लोलुप, . सविधा जीवी अवसरवाद कांग्रेस के अंदर ही समाजवादी युवकों का एक ऐसा गुट पैदा कर रहा था जो पार्टी की नीतियाँ और भूमिका से असंतुष्ट था। यशपाल ने उन सबके लिए ‘विप्लव’ के रूप में एक खुला मंच दिया। बहुत खुले मन से यशपाल ने मार्क्सवाद पर धारावाहिक बहस आयोजित की, उसके विरोधियों को भी उन्होंने उसमें हिस्सेदारी के लिए आमंत्रित किया। उनकी वैचारिक दृढ़ता उस कट्टरपन और कठमुल्लावाद से अलग और भिन्न थी, जो अपने को ही सही मानकर और सबको गलत मानती है – या जो हम सोचते हैं उसके विरुद्ध और कुछ बरदाश्त करने में तकलीफ होती है।

कहानी: कुत्ते की पूँछ

श्रीमती जी कई दिन से कह रही थीं- “उलटी बयार” फ़िल्म का बहुत चर्चा है, देख लेते तो अच्छा था।

देख आने में ऐतराज़ न था परन्तु सिनेमा शुरू होने के समय अर्थात साढ़े छः बजे तक तो दफ़्तर के काम से ही छुट्टी नहीं मिल पाती। दूसरे शो में जाने का मतलब है- बहुत देर में सोना, कम सोना और अगले दिन काम ठीक से न कर सकना लेकिन जब ‘उलटी बयार’ को सातवां हफ़्ता लग गया तो यह मान लेना पड़ा कि फ़िल्म अवश्य ही देखने लायक होगी।

रात साढ़े बारह बजे सिनेमा हॉल से निकलने पर ताँगे का दर कुछ बढ़ जाता है। आने-दो आने में कुछ बन-बिगड़ नहीं जाता लेकिन ताँगेवाले के सामने अपनी बात रखने के लिए कहा- “नहीं, पैदल ही चलेंगे। चाँदनी रात है। ग़नीमत से चार कदम चलने का मौक़ा मिला है।”

उजली चाँदनी में सूनी सड़क पर सामने चलती जाती अपनी बौनी परछाई पर क़दम रखते हुए चले जा रहे थे। ज़िक्र था, फ़िल्म में कहाँ तक स्वाभाविकता है और कितनी कला है? कला के विषय में स्त्रियों से भी बात की जा सकती है, खासकर जब परिचय नया हो! परन्तु स्वयं अपनी स्त्री से, जिसे आदमी रग-रोयें से पहचानता हो, बहस या विचार ‘अदल-बदल, लेन-देन’ विनिमय का क्या मूल्य?

श्रीमती को शिकायत है, दुनिया भर के सैकड़ों लोगों से बहस करके भी मैं उनसे कभी बहस नहीं करता। मैं उन्हें किसी योग्य नहीं समझता। इस अभियोग का बहुत माकूल जवाब मैंने सोच डाला-

“जिस आदमी से विचारों की पूर्ण एकता हो, उससे बहस कैसी?”

इस उत्तर से श्रीमती को बहुत दिन तक संतोष रहा कि चतुर समझे जाने वाले पति के समान विचार के कारण वे भी चतुर हैं। परन्तु दूसरों पर बहस की संगीन चला सकने के लिए पति नाम के रेत के बोरे पर कुछ अभ्यास करना भी तो ज़रूरी होता है इसीलिए एक दिन खीझ कर बोलीं- “बहस न सही, आदमी बात तो करता है। हम से कभी कोई बात ही नहीं करता।”

सो पति होने का टैक्स चुकाने के लिए, अपनी स्त्री के साथ कला का ज़िक्र कर चाँदनी रात का खून हो रहा था। मैं कह रहा था और वे हूं-हूं कर-कर हामी भर रही थीं। अचानक वे पुकार उठीं… “यह देखा!”

स्त्री के सामने कला की बात करने की अपनी समझदारी पर दांत पीस कर रह गया। सोचा वह बात हुई- ‘राजा कहानी कहे, रानी जूं टटोले।’ देखा:-

हलवाई की दुकान थी। सौदा उठ चूका था। बिजली का एक बल्ब अभी जल रहा था। लाला दुकान के तख्त पर चिलम उलट कर दीवार से लगे औंघा रहे थे। नीचे सड़क पर कढ़ाई ईट के सहारे टिका कर रक्खी गई थी। उसे माँजने के प्रयत्न में एक छोटी उम्र का लड़का उसी में सो गया था। कालिख से भरा जूना उसके हाथ में थमा था और उसकी बाँह फैली हुई थी। दूसरा हाथ कड़े को थामे था। कढ़ाई को घिसते-घिसते लड़का औंघा गया और फैली हुई बाँह पर सिर रख सो गया।

एक कुत्ता कढ़ाई के किनारे बच रही मलाई को चाट रहा था। मैं देख कर परिस्थिति समझने का यत्न कर रहा था कि श्रीमती जी ने पिघले हुए स्वर में क्रोध का पुट दे कर कहा- “देखते हो ज़ुल्म!… क्या तो बच्चे की उम्र है और रात के एक बजे तक यह कढ़ाई, जिसे वह हिला नहीं सकता; उस से मँजाई जा रही है।”

मेरी बाँह में डाले हुए हाथ पर बोझ दे वे कढ़ाई पर झुक गईं और लड़के की बाँह को हिला उसे पुचकार कर उठाने लगीं।

लड़का नींद से चौंक कर झपाटे से कढ़ाई में जून के रगड़े लगाने लगा परन्तु श्रीमती जी के पुचकारने से उसने नींद भरी आँख उठा कर उनकी ओर देखा।

मेरी इस बात को अपने समझने योग्य भाषा में प्रकट करने के लिए वे बोलीं- “हाय, कैसे पत्थर दिल होते हैं जो इस उम्र के बच्चों को इस तरह बेच डालते हैं। और इस राक्षस को देखो, बच्चे को मेहनत पर लगा खुद सो रहा है।” फिर बच्चे को पुचकार कर साथ चलने के लिए पुकारने लगीं।

इस गुल-गपाड़े से लाला की आँख खुल गई। नींद से भरी लाल आँखों को झपकाते हुए लाला देखने लगे पर इससे पहले कि वे कुछ समझें या बोल पायें, श्रीमती जी लड़के का हाथ थाम ले चलीं। फिल्म और कला की चर्चा श्रीमती जी की करुणा और क्रोध के प्रवाह में डूब गई।

कानूनी पेशा होने के कारण कानून की ज़द का ख़्याल आया। समझाया- “कम उम्र बच्चों को उसके माँ-बाप की अनुमति के बिना इस प्रकार खींच ले जाने से पुलिस के झंझट में पड़ना होगा।”

राजा और समाज के कानून से जबरदस्त कानून है स्त्रियों का। पति को बिना किसी हीलो-हुज्जत के स्त्री के सब हुकुम मानने ही पड़ते हैं। श्रीमती जी ने अपना कानून अड़ाकर कहा- “इसके माँ-बाप आकर ले जायेंगे। हम कोई लड़के को भगाये थोड़े ही लिए जा रहे हैं। लड़के पर इस तरह ज़ुल्म करने का किसी को क्या हक है? यह भी कोई कानून है?”

लाला आँख झपकाते रहे और हम उस लड़के को लिए चले आये। लाला बोले क्यों नहीं? कह नहीं सकता। शायद कोई बड़ा सरकारी अफसर समझ कर चुप रह गए हों।

लड़के से पूछने पर मालूम हुआ कि दरअसल उसके माँ-बाप थे नहीं। मर गए थे। कोई उसका दूर का रिश्तेदार उसे लाला के यहाँ छोड़ गया था।

दूसरे रोज़ लाला बँगले के अहाते में हाज़िर हुए और बोले कि यों तो आप माई-बाप हैं लेकिन यह मेम साहब की ज़्यादती है। लड़के के बाप की तरफ लाला के साठ रुपये आते थे और वह मर गया। लाला उल्टे और अपनी गाँठ से लड़के को खिला-पहना कर पाल-पोस रहे थे। लड़के की उम्र ही क्या है कि कुछ काम करेगा? ऐसे ही दुकान पर चीज़ धर-उठा देता था सो मेम साहब उसे भी उठा लाईं। लाला बेचारे पर ज़ुल्म ही ज़ुल्म है। उन्हें उनके साठ रुपये दिला दिए जायें, सूद वे छोड़ देने को तैयार हैं। या फिर लड़का ही उनके पास रहे।

बरामदे के फ़र्श पर जूते की ऊँची एड़ी पटक, भौं चढ़ा कर श्रीमती जी ने कहा- “ऑल राइट।” इसके बाद शायद वे कहना चाहती थीं साठ रुपये ले जाओ!

परिस्थिति नाज़ुक देख बीच में बोलना पड़ा- “लाला, जो हुआ, अब चले जाओ वरना लड़का भगाने और ‘क्रुएल्टी टू चिल्ड्रन’ (बच्चों के प्रति निर्दयता) के जुर्म में गिरफ़्तार हो जाओगे।” अहाते के बाहर जाते हुए लाला की पीठ से नज़र उठाकर श्रीमती जी ने विजय गर्व से मेरी ओर देखा। उनका अभिप्राय था- देखो तुम खामुखाह डर रहे थे। हम ने कैसे सब मामला ठीक कर दिया। तुम कुछ भी समझ नहीं सकते!

लड़के का नाम था हरुआ। श्रीमती ने कहा- यह नाम ठीक नहीं। नाम होना चाहिए, हरीश। लड़के की कमर पर केवल एक अंगोछा-मात्र था, शेष शरीर ढका हुआ था मैल के आवरण से। सिर के बाल गर्दन और कानों पर लटक रहे थे।

लाइफ ब्यॉय साबुन की झाग में घुल-घुल कर वह मैल बह गया और हरीश साँवला-सलोना बालक निकल आया। दरबान के साथ सैलून में भेज कर उसके बाल भी छंटवा दिए गए। बिशू के लिए नई कंघी मंगाकर पुरानी हरीश के बालों में लगा दी गई। बिशू के कपड़े भी हरीश के काम आ सकते थे परन्तु लड़कों में चार बरस का अंतर काफी रहता है। खैर, जो भी हो, हफ्ते भर में हरीश के लिए भी नेवीकट कॉलर के तीन कमीज और नेकर सिल गए। उसके असुविधा अनुभव करने पर भी उसे जुराब और जूता पहनना पड़ा। श्रीमती जी ने गम्भीरता से कहा- “उसके शरीर में भी वैसा ही रक्त-मांस है जैसा कि किसी और के शरीर में!” उनका अभिप्राय था, अपने पेट के लड़के बिशू से परन्तु इस का कारण था कि बिशू आखिर पुत्र तो मेरा भी है।

उन्होंने कहा- “उस के भी दिमाग है। वह भी मनुष्य प्राणी है और उसे मनुष्य बनाना भी हमारा कर्तव्य है।” हरीश के कोई काम स्वयं कर देने पर प्रसन्नता के समय वे मेरा ध्यान आकर्षित कर कहतीं- “लड़के में स्वाभाविक प्रतिभा है। यदि उसे अवसर मिले तो वह क्या नहीं कर सकेगा। हाँ, उस मज़दूर का क्या नाम था जो अमेरिका का प्रेजिडेंट बन गया था? मौका मिले तो आदमी उन्नति कर क्यों नहीं सकता?”

चार वर्ष की आयु ऐसी नहीं जिसमें अधिकार का गर्व न हो सके या श्रेणी विशिष्टता का भाव न हो। अपनी जगह पर अपने से नीची स्थिति के बालक को अधिकार जमाते देख, अपनी माँ को दूसरे के सिर पर हाथ फेरते देख और हरीश को अपनी सम्पत्ति का प्रयोग करते देख, बिशू को ईर्ष्या होने लगती। रोनी सूरत बनाकर वह होंठ लटका लेता या हाथ में थमी किसी चीज़ से हरीश को मारने का यत्न करने लगता। श्रीमती जी को सब बातों में गरीबी और मनुष्यता का अपमान दिखाई देता। गम्भीरता से वे बिशू को ऐसा अन्याय करने से रोकतीं और हरीश का साहस बढ़ा कर उसे अपने आप को किसी से कम न समझने का उपदेश देतीं।

हरीश बात-बात में सहमता, सकपकाता। पास बैठने के बजाय दूर चला जाता और बिशू के खिलौनों के लोभ की झलक दिखाई देती रहती। श्रीमती जी उसे संतुष्ट कर, उसका भय मिटाकर उसे बिशू के साथ समानता के दर्जे पर लाने का प्रयत्न करतीं। कई दफे उन्होंने शिकायत की कि मेरे स्वर में हरीश के लिए वह अपनापन क्यों नहीं आ पाता जो आना चाहिए, जैसा बिशू के लिए है? इस मामले में कानून का हवाला या वकालत की जिरह मेरी मदद नहीं कर सकती थी इसलिए चुप रहने के सिवा चारा न था।

हरीश के प्रति सहानुभूति, उसे मनुष्य बनाने की इच्छा रखते हुए भी मैं श्रीमती जी को इस बात का विश्वास न दिला सका। हरीश के प्रति उनकी वत्सलता और प्रेम मेरी पहुँच से एक बालिस्त ऊँचा ही रहता।

श्रीमती जी को शिकायत थी कि हरीश आकर, अधिकार से उनके पास क्यों नहीं ज़रूरत की चीज़ के लिए ज़िद्द करता? उन्हें ख़्याल था कि इन सब का कारण मेरा भय ही था।

एक दिन बुद्धिमानी और गहरी सूझ की बात करने के लिए उन्होंने सुना कर कहा- “पुरुष सिद्धान्त और तर्क की लम्बी-लम्बी बातें कर सकते हैं परन्तु हृदय को खोल कर फैला देना उनके लिए कठिन है।” सोचा- श्रीमती जी को समानता की भावना के लिए उत्साहित कर उन्हें अपना बड़प्पन अनुभव कराने के लिए मैं अवसर पेश नहीं कर पाता हूँ, यही मेरा कुसूर है।

एक रियासत के मुकदमे में सोहराबजी का जूनियर बनकर केदारपुर जाना पड़ा। उम्र बढ़ जाने पर प्रणय का अंकुश तो उतना तीव्र नहीं रहता पर घर की याद जवानी से भी अधिक सताती है। कारण है, शरीर का अभ्यास। समय और स्थान पर आवश्यकता की वस्तु का सहज मिल जाना विदेश में नहीं हो सकता और न शैथिल्य का संतोष ही मिल सकता है।

केदारपुर में लग गए चार मास। औसत आमदनी से अढ़ाई गुना आमदनी के लोभ ने सब असुविधाओं को परास्त कर दिया। घर से सम्बन्ध था केवल श्रीमती जी के पत्र द्वारा। कभी सप्ताह में एक पत्र और कभी सप्ताह में तीन आते। बिशू को जुकाम हो जाने पर एक सप्ताह में चार पत्र भी आए। आरम्भ के पत्रों में हरीश का ज़िक्र भी एक पैराग्राफ रहता था और दूसरे पैराग्राफ में उसके सम्बन्ध में थोड़ी-बहुत चर्चा। सोचा- मेरी गैरहाज़िरी में मेरी अनुदारता से मुक्ति पाकर लड़का तीव्र गति से मनुष्य बन जाएगा।

कुछ पत्रों के बाद हरीश की ख़बरों की सरगर्मी कम हो गई। फिर शिकायत हुई कि वह पढ़ने-लिखने की ओर मन न लगा कर गली में मैले-कुचैले लड़कों के साथ खेलता रहता है। बाद में खबर आई कि वह कहना नहीं मानता, स्वाभाव का बहुत जिद्दी है। बहुत डल (सुस्त दिमाग) है। हर समय कुछ खाता रहना चाहता है। इसी से उसका हाजमा ठीक नहीं रहता।

लौटकर आने पर बैठा ही था कि श्रीमती जी ने शिकायत की- “सचमुच तुम बड़े अजीब आदमी हो! हम यहाँ फ़िक्र में मरते रहे और तुम से खत तक नहीं लिखा जा सकता था! ऐसी भी क्या बेपरवाही! यहाँ यह मुसीबत कि लड़के को खांसी हो गई। तीन-तीन दफे डॉक्टर को बुलवाना था। घर में सिर्फ दो तो नौकर हैं। वे घर का काम करें या डॉक्टर को बुलाने जायें! इस लड़के को देखो” हरीश की ओर संकेत करके, “ज़रा डॉक्टर बुलाने भेजा तो सुबह से दुपहर तक गलियों में खेलता फिरा और डॉक्टर का घर इसे नहीं मिला। डॉक्टर जमील को शहर में कौन नहीं जानता?”

हरीश बिशू को गोद में लिए श्रीमती जी की ओर सहमता हुआ मेरे समीप आना चाहता था। इस उम्र में भी आदमी इतना चालाक हो सकता है? हरीश को बिशू से इतना अधिक स्नेह हो गया था या वह उसे इसलिए उठाये था कि उसे सम्भाले रहने पर उसे खाली खेलते रहने के कारण डाँट न पड़ेगी।

उसकी ओर देख श्रीमती जी ने कहा- “अरे उसे खेलने क्यों नहीं देता? तुझे कई दफे तो कहा, गुसलख़ाने में गीले कपड़े पड़े हैं उन्हें ऊपर सूखने डाल आ!”

हरीश महफिल से यों निकाले जाने के कारण अपनी कातर आँखों से पीछे की ओर देखता चला गया। कुछ ही देर में वह फिर आ हाज़िर हुआ। उसकी ओर देख श्रीमती जी ने कहा- “हरीश जाओ देखो, पानी लेकर खस की टट्टियों को भिगो दो! सुनो, यों ही पानी मत फेंक देना। स्टूल पर खड़े होकर अच्छी तरह भिगो देना।”

मेरी ओर देखकर वे बोलीं- “जिस काम के लिए कहूँ, कतरा जाता है।”

“इसे पढ़ाने के लिए जो स्कूल के एक लड़के को चार रुपये देने के लिए तय किया था, वह क्या नहीं आता?” … मैंने पूछा।

बिशू के गले का बटन लगाते हुए श्रीमती जी बोलीं- “खामुखाह पढ़े भी कोई, यह पढ़ता ही नहीं; पढ़ चुका यह! बस खाने की हाय-हाय लगी रहती है। कोई चीज़ संभालकर रखना मुश्किल हो गया है।”

हरीश कमरे में तो दाखिल न हुआ लेकिन दरवाजे से झांककर चक्कर ज़रूर काट गया। वह संदेह भरी नज़रों से कुछ ढूंढ रहा था। फल की टोकरी से कुछ लीचियाँ निकालकर श्रीमती जी ने बिशू के हाथ में दीं। उसी समय हरीश की ललचाई हुई आँखें बिशू के हाथों की ओर ताकती हुई दिखाई दीं!

श्रीमती जी खीझ गईं- “हरदम बच्चे के खाने की ओर आँखें उठाए रहता है। जाने कैसा भुक्कड़ है! इन लोगों को कितना ही खिलाओ, समझाओ, इनकी भूख बढ़ती ही जाती है… ले इधर आ!” दो लीचियाँ उसके हाथ में देकर बोलीं, “जा बाहर खेल, क्या मुसीबत है।”

उसी शाम को एक और मुसीबत आ गई। जो कपड़े हरीश ने सुबह सूखने डाले थे, वे हवा में उड़ गए। श्रीमती जी ने भन्ना कर कहा- “तुम्हीं बताओ, मैं इसका क्या करूँ? वही बात हुई न कि ‘कुत्ते का गू न लीपने का न थापने का।’ अच्छी बला गले पड़ गई। समझाने से समझता भी तो नहीं।… इसकी सोहबत में बिशू ही क्या सीखेगा? कोई भला आदमी आये, सिर पर आकर सवार होता है। स्कूल भिजवाया तो वहाँ पढ़ता नहीं। लड़कों से लड़ता है। अपने आगे किसी को कुछ समझता थोड़े ही है। तुमने उसे लाट साहब बना दिया है, कम-जात कहीं अपनी आदत से थोड़े ही जाता है?”

क्या उत्तर देता? बात टाल गया। फिर दूसरे समय श्रीमती जी ने बिशू को उठाकर गोद में दे दिया। वे देखना चाहती थीं कि बिशू मेरी गोद में बैठने से कैसा जान पड़ता है? उस समय हरीश भी दौड़कर आया और बिलकुल सटकर खड़ा हो गया। पोज़ का यों बिगड़ जाना, श्रीमती जी को न भाया। सुनाकर बोलीं- “बन्दर को मुंह लगाने से वह नोचेगा ही तो! इन लोगों के साथ जितनी भलाई करो, उतना ही सिर पर आते हैं। यह कोई आदमी थोड़े ही हैं।”

कह नहीं सकता हरीश कितना समझा और कितना नहीं, पर इतना वह ज़रूर समझा कि बात उसी के बारे में थी और उसके प्रति आदर की नहीं थी। इतना तो पालतू कुत्ता भी समझ जाता है। गले का स्वर ही यह प्रकट कर देता है। हरीश कतराकर चला गया और मुंडेर पर ठोढ़ी रख गली में झाँकने लगा।

कोई ऐसा ढंग सोचने लगा कि अपनी बात भी कह सकूं और श्रीमती को भी विरोध न जान पड़े। कहा- “जानवर को आदमी बनाना बहुत कठिन है। उसे पुचकार कर बुलाने में बुरा नहीं मालूम होता क्योंकि उसमें दया करने का संतोष होता है परन्तु जब जानवर स्वयं ही पंजे गोद में रख मुंह चाटने का यत्न करने लगता है, तो अपना अपमान जान पड़ने लगता है।”

आवाज़ गरम कर श्रीमती जी बोलीं- “तो मैं कब कहती हूँ…”

उन्हें बात पूरी न करने देता तो जाने कितना लम्बा बयान और जिरह सुननी पड़ती, इसलिए झट से बात काटकर बोला- “ओहो, तुम्हारी बात नहीं, मैं बात कर रहा हूँ यह सरकार और मजदूरों के झगड़े की !”

मन में भर गए क्रोध को एक लम्बी फुफकार में छोड़ उन्होंने जानना चाहा, मैं बहाना तो नहीं कर गया। इसलिए पूछा- “सो कैसे?”

उत्तर दिया- “यही सरकार मज़दूरों की भलाई के लिए कानून पास करती है और जब मज़दूरों का हौंसला बढ़ जाता है, वे खुद ही अधिकार मांगने लगते हैं, तब सरकार को उनका आंदोलन दबाने की ज़रूरत महसूस होने लगती है।”

श्रीमती जी को विश्वास हो गया कि किसी प्रकार का विरोध मैं उनके व्यवहार के प्रति नहीं कर रहा। बोलीं- “तभी तो कहते हैं, ‘कुत्ते की पूँछ बारह बरस नली में रक्खी, पर सीधी नहीं हुई।’ हाँ, उस रोज़ वो लाला साठ रुपये की धमकी दे रहा था। बनिया ही ठहरा! कहीं सूद भी गिनने लगे तो जाने रकम कहाँ तक पहुँचे? इस झगड़े में पड़ने से लाभ?”

श्रीमती जी का मतलब तो समझ गया परन्तु समझ कर आगे उत्तर देना ही कठिन था इसलिए उनकी तरफ विस्मय से देखकर पूछा- “क्या मतलब तुम्हारा?”

“कुछ नहीं” … श्रीमती जी झुंझला उठीं। उन्हें झल्लाहट थी मेरी कम समझी पर और कुछ झेंप थी जानवर को मनुष्य बना देने के असफल अभिमान पर।

मैं जानता हूँ- बात दब गई, टली नहीं। कल फिर यह प्रश्न उठेगा परन्तु किया क्या जाए? कुत्ते की पूँछ एक दफे काट लेने पर उसे फिर से उसकी जगह लगा देना कैसे सम्भव हो सकता है? और मनुष्यता का चस्का एक दफे लग जाने पर किसी को जानवर बनाये रखना भी तो सम्भव नहीं।

यशपाल की कहानियों में मध्यवर्गीय संदर्भ

यशपाल मूलतः मध्य वर्ग के लेखक हैं। अपनी कहानियों में वे उस प्रगतिशील परिवर्तन कामी मध्यवर्ग की भूमिका को विशेष रूप से रेखांकित करते हैं जो सामाजिकराजनीतिक क्रांति का समर्थक और वाहक है। सामाजिक विसंगतियों के उद्घाटन के लिए यशपाल ने व्यंग्य का उपयोग बड़ी खूबी के साथ किया है। उनकी आरंभिक कहानियों में यह देखा जा सकता है। इसी दौर में लिखित अज्ञेय की भावूक और गद्य गीतनुमा कहानियों से ‘पिंजरे की उड़ान’ की कहानियों की तुलना करके इस अंतर को भली-भांति समझा जा सकता है। प्रेमचंद की कहानियों की अपेक्षा यशपाल की ये आरंभिक कहानियाँ निजी जीवन-प्रसंगों के रचनात्मक उपयोग से अधिक समृद्ध हैं। लेकिन अपनी इन कहानियों में भी, एक लेखक की हैसियत से यशपाल कहानी और जीवन के पारस्परिक संबंधों को लेकर कहीं भी अस्पष्ट नहीं हैं। वे लिखते हैं, “हमारी कल्पना का आधार जीवन की ठोस वास्तविकताएँ ही होती हैं ” यशपाल की कल्पना अतीत सुख-दुख को अनुभूति के चित्र बनाकर उससे ही संतोष करने को तैयार नहीं है। अपनी कल्पना की प्रकृति की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं, “(वह) आदर्श की ओर संकेत कर समाज के लिए नया नक्शा तैयार करने का यत्न करती है.”

अपनी कहानियों द्वारा यशपाल एक ओर यदि मध्यवर्ग की रूढियों और परंपरागत संस्कारों पर चोट करते हैं, वहीं वे अवैज्ञानिक निषेधों और वर्जनाओं की भर्त्सना करके स्वस्थ, वैज्ञानिक और सकारात्मक दृष्टिकोण के निर्माण पर बल देते हैं। अकारण भावुकता से बचते हुए, तर्क-सम्मत और यथार्थ दृष्टि अपनाकर ही जीवन सार्थक ढंग से जिया जा सकता है। इसी आधार पर यशपाल कला की शुद्धता के सिद्धांत की तीखी आलोचना करते हुए उसे जीवन के संदर्भ में ही प्रयोजनीय और सार्थक मानते हैं। यशपाल की कहानियाँ बदलते सामाजिक संदर्भो में बदली हुई नैतिकता की हिमायत करती हैं इसीलिए जब-तब वे अनेक प्रकार के विवादों का केंद्र भी रही हैं। वे इस बात पर जोर देते हैं कि अपने विकास के क्रम में समाज ने अपने को तेजी से बदला है। इसीलिए प्राचीन और परंपरागत मान्यताओं एवं धारणाओं पर गहराई से पुनर्विचार की आवश्यकता है। इसी स्थिति पर टिप्पणी करते हए वे लिखते हैं, “अनेक पुरानी मान्यताएँ और परंपराएँ आज की परिस्थितियों में बहुत उखड़ी-उखड़ी लगती हैं। इनसे समाज में अव्यवस्था ही उत्पन्न होती दिखाई देती है। समाज का अंग होने के. नाते इन अव्यक्त कारणों को सुलझा सकने में बल्कि ज्यादा संतोष अनुभव होता है। इसी ओर मेरी अधिक प्रवृत्ति होती है, यानी असुंदर को प्रकट कर देने की ओर; अपने समाज को अंधविश्वास के धोखे से बचाने की ओर…….”

यशपाल की इस टिप्पणी के संदर्भ में उनकी कहानियों की भूमिका को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। अपनी पीढ़ी के अनेक किशोरों की तरह उन्होंने भी अपना जीवन आर्यसमाज की छाया में शुरू किया था। तब आर्य समाज की एक क्रांतिकारी भूमिका थी। सरकारी अनुदान और दूसरे प्रलोभनों में फंसकर यशपाल ने गहरी हताशा के साथ उसकी धार को कुंठित होते देखा था। अपनी इस क्रांतिकारी भूमिका को छोड़कर रूढ़, प्रतिक्रियावादी और निषेधपूर्ण धारणाओं से जीवन को नियंत्रित करने की उसकी लालसा को वे सामाजिक विकास की दृष्टि से घातक मानते थे। ब्रह्मचर्य का आदर्श, बदली हुई स्थितियों में, उन्हें एक बहुत बड़ा ढोंग लगता था। अपनी प्रसिद्ध और विवादास्पद कहानी ‘धर्मरक्षा’ में इसी दृष्टि से वे आर्यसमाज की विचार-दृष्टि पर आक्रमण करते हैं। दूसरे प्रकार के शोषण के समान वे स्त्री के मौन-शोषण के भी प्रबल विरोधी थे। ‘तुमने क्यों कहा था। मैं सुंदर हूँ!’ में वे स्त्री को कुंठित करने वाली स्थितियों का विस्तारपूर्वक अंकन करते हुए उसके प्रकृत कामावेग का अंकन करते हैं। उनकी अनेक कहानियाँ परिवर्तित सामाजिक संदर्भो में स्त्री-पुरुष संबंधों की संभावनाओं को तलाशती दिखाई देती हैं।

यशपाल की कहानियों में मध्यवर्ग के विभिन्न स्तरों से आए पात्रों की एक भरी पूरी और रंगारंग दुनिया हिलोरे लेती दिखाई देती है। इन कहानियों में पुलिस के अत्याचारों से त्रस्त और आतंकित लोग हैं। रूढ़ियों और अंधविश्वासों में पले-बढे, शहरी सभ्यता के विलास से काफी कुछ अछूते पहाड़ी गाँवों में बसे लोग हैं जो धर्म, मनौती और देवी-देवताओं के नाम पर आज भी शोषण का शिकार हैं। पहाड़ों पर तफरीह को जाने वाले सुविधाभोगी लोग हैं जो परीक्षा की तैयारी की आड़ में सड़कों . पर सैर करती लड़कियों के नंबर तय करते हैं। पढ़ी-लिखी उपेक्षित महिलाएँ हैं, रूढ़ियों और सामाजिक विसंगतियों की शिकार भी हैं और वेश्याएँ भी। एक ओर अपनी सफेदपोशी और अभिजात दर्प में बंद लोग हैं, जो इंसान का इंसान की तरह जीना पसंद नहीं करते, और दूसरी ओर शोषित, उपेक्षित, दुखी और सताए हुए लोग हैं जो अपने हक की लड़ाई के लिए अपने को मानसिक रूप से तैयार कर रहे हैं। दूसरों की दया और कैसी भी करुणा के बदले वे आत्मनिर्णय के अपने अधिकार को वरीयता देते दिखाई देते हैं।

यशपाल की कहानियों के संदर्भ में यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद के बाद कदाचित किसी दूसरे लेखक ने इतनी बड़ी संख्या में न तो अपने आस-पास के विभिन्न वर्गों, श्रेणियों और संस्कारों के पात्रों के एक जीवंत एवं विश्वसनीय संसार की रचना की है और न ही इतने ज्यादा मुस्लिम पात्रों को आधार बनाकर कहानियाँ लिखी हैं जितनी यशपाल ने। आर्य समाज की निषेधारित जीवन-दृष्टि की तरह ही वे ‘पाप की कीचड़’ में ईसाई समाज की पृष्ठभूमि में भी इस अप्राकृतिक और अवैज्ञानिक सोच की भर्त्सना करते हैं। यशपाल की कुछ महत्वपूर्ण कहानियों के उल्लेख द्वारा मध्यवर्गीय भारतीय समाज के बदलाव में उनकी भूमिका को कदाचित बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। ‘नीरसरसिक’, ‘हृदय’ और ‘भस्मावृत्त चिंगारी’ यशपाल संस्कारगत जड़ता, अतिरिक्त रूप से रोमानी भावुकता के बीच से राह बनाते हुए कला की सामाजिक उपयोगिता पर टिप्पणी करते हैं। ‘दुसरी नाक’ में.मस्लिम समाज में स्त्री को हीन और वस्त।

समझने की सोच तो है ही, वे रूढ़ संस्कार भी हैं जो अपनी ही सुंदर पत्नी को इस कारण असुंदर बना देते हैं ताकि वह दूसरों की निगाह से बचाकर रखी जा सके। ‘कुत्ते की पूंछ’ में वर्ग-भेद का दर्प भी है और छोटे समझे जाने वाले लोगों के प्रति घणा भी जो इंसान के इंसान की तरह जी सकने के प्रयत्नों का प्रतिवाद करती है। ‘तर्क का तूफान’, ‘परदा’, ‘गंडेरी’, ‘अस्सी बटा सौ’, ‘या साई सच्चे’ और ‘आदमी कुछ कहानियों में वे इतिहास को वर्ग-संघर्ष की दृष्टि से देखने की कोशिश करते हैं तो कभी वर्गीय रूपांतर के परिणाम स्वरूप साझे स्वार्थों के कारण राजा और पुरोहितवर्ग के जोड़-तोड़ की कोशिशों को उद्घाटित करते हैं। ‘राजा’, ‘दास धर्म’, ‘ज्ञानदान’ और ‘शंबूक’ जैसी कहानियों में भी, पौराणिक पृष्ठभूमि का प्रयोग कर रहे होते हैं – एक वर्ग युक्त और समतावादी समाज की संभावनाओं को तलाशते हुए। ज्ञानदान की भूमिका में यशपाल ने लिखा है कि “कला और साहित्य का उद्देश्य सभी अवस्थाओं में मनुष्य में नैतिकता और कर्तव्य की प्रवृत्तियों की चिनगारियों की फूंक मारकर सुलगाता ही रहता है।”

‘कत्ते की पंछ कहानी की पृष्ठभूमि

यशपाल की ‘कुत्ते की. पूंछ उनकी आरंभिक कहानियों में से है। यह सन 1941 में प्रकाशित उनके कहानी संग्रह ‘वो दुनिया’ में संकलित है। यशपाल के कहानी-लेखन का सबसे महत्वपूर्ण दौर सन् 1939 से सन् 1955 तक माना जा सकता है। इसी काल में उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण, विवादों की दृष्टि से उत्तेजक और कलात्मक दृष्टिकोण से सफल कहानियाँ लिखी गईं। उनके पहले संग्रह ‘पिंजरे की उड़ान’ (1939) के बाद यह उनका दूसरा संग्रह था। यह अनुमान सहज ही कि इन दोनों संग्रहों में संकलित काफी कहानियाँ वे थीं जो उन्होंने अपने लंबे कारावास के दौरान लिखी थीं। यशपाल उन लेखकों में से हैं जो अपनी पुस्तकों के ‘समर्पण’ जैसी निजी और व्यक्तिगत चीज को भी अपने रचनात्मक लक्ष्यों और आदर्शो से जोड़े बिना नहीं रहते। इस शीर्षक की कोई कहानी संग्रह में नहीं है।

वस्तुतः ये ही दो संग्रह यशपाल के ऐसे हैं जिनके शीर्षकों का नामकरण उस नाम की किसी कहानी के आधार पर नहीं किया है – इस प्रकार की प्रवृत्ति यशपाल के परवर्ती कहानी-संग्रहों के लिए चुने गए शीर्षकों के संदर्भ में दिखाई देती है। जैसे ‘पिंजरे की उड़ान’ का निहितार्थ जेल में रहकर एक कल्पना के संसार के निर्माण से है उसी प्रकार ‘वो दुनिया’ की कहानियाँ एक ऐसी दुनिया का नक्शा प्रस्तुत करने का समवेत प्रयास करती है जो किसी भी प्रकार के शोषण से मुक्त एक वर्गहीन और समतावादी समाज होगा। अपने ‘समर्पण’ में यशपाल ने इस ओर निर्देश करते हुए लिखा है,

“इस दुनिया की परिस्थितियाँ जीवन की राह बंद किए हैं..” इस विषमताओं भरी दुनिया में जीवन का उच्छल कराह उठता है। एक लेखक के रूप में अनेक सरोकारों को स्पष्ट करते हुए वे आगे लिखते हैं,

“इसी कराह को कला में लपेटकर दर्द भरे संगीत का रूप देना चाहते हैं…” “वर्तमान परिस्थितियों से ‘भैरव विद्रोह’ में ही उनकी परिकल्पित दुनिया की संभावनाएँ निहित हैं जिसे लेखक एक ‘स्वर्णिम आशा’ के रूप में देखता है जहाँ हम मिलकर जी सकेंगे, जहाँ हम मिलकर गा सकेंगे। उस दुनिया की यह ‘सुखद चाह’ जिन्हें समर्पित है वे वे ही लोग हैं जो इस दुनिया के लिए देखे गए सपनों और उसे सच में बदलने के संघर्ष में शामिल हैं।”

अपने ‘समर्पण’ के इसी सूत्र को यशपाल अपनी भूमिका में भी विस्तार देते हैं। वे इसे स्वीकार करते हैं कि उस आदर्श दुनिया की प्रकृति और स्वरूप के संबंध में मतभेद संभव है। लेकिन यह एक सर्व स्वीकृत तथ्य है कि यह वर्तमान दुनिया विषमताओं से भरी हुई है, जब कि वह दुनिया इन विषमताओं से मुक्त होगी। इसी ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं, ‘इन कहानियों में उस दुनिया का कोई स्पष्ट चित्र नहीं दिया जा । सका। यह प्रयत्न किया गया है इस दुनिया के वैषम्य की ओर संकेत करने का। इस दुनिया की कटुता से ही उस दुनिया की चाह उठती है इसीलिए दिल पुकार उठता है – वो दुनिया’।

इस पृष्ठभूमि में ‘कुत्ते की पूंछ’ कहानी का पाठ-विश्लेषण अपनी विश्वसनीयता के कारण प्रामाणिक हो सकता है। यशपाल कहानी के लिए एक उच्च मध्य वर्गीय परिवार के दम्पत्ति का चुनाव करते हैं और व्यंग्य एवं ‘विट’ के सहारे छोटे-छोटे ब्यौरों द्वारा कहानी को विकसित करते हैं। कहानी का नैरेटर पति ही है जो पेशे से वकील है। तत्कालीन भारतीय मध्यवर्गीय समाज में सिनेमा के प्रति गहरा आकर्षण तो था ही, अच्छी, चर्चित और नई फिल्मों का देखा जाना सामाजिक प्रतिष्ठा का हिस्सा भी था। पत्नी की जिद पर, सारी धंधई व्यस्थता के बावजूद, पिक्चर देखे जाने को जब टाल पाना असंभव हो जाता है तो एक दिन उसे देखने का कार्यक्रम बनता है। कुछ व्यवहारिक असुविधाओं और दैनिक कार्यों में व्यवधान आने की आशंका के बावजूद दूसरा शो ही देखा जाता है। रात में साढ़े बारह बजे जब शो छूटता है तो, तांगे के . प्रसंग में, एक बार फिर से मध्यवर्गीय मानसिकता के दर्शन होते हैं जो तांगेवाले पर यह प्रभाव नहीं डालना चाहती कि तांगे की मजबूरी है और ज्यादा पैसे देकर भी लेना ही है।

इसीलिए चांदनी रात में कभी-कभी पैदल घूमने के लिए वे लोग घूमते हुए ही घर लौटते हैं। पति और पत्नी के संबंधों के बीच बहस और तर्क के प्रसंग में यशपाल व्यंग्यपूर्ण उक्तियों के सहारे कहानी में उस स्थल पर आते हैं जहाँ से कहानी सचमुच शरू होती मानी जा सकती है। बहस की अप्रिय स्थिति से बचते हए, जब पति अपने को सुरक्षित अनुभव करता हुआ, पत्नी को साथ लिए चल रहा होता है तभी जो सामने दिखाई देता है वह उनके चलने में बाधा डालता है। ‘हलवाई की दुकान थी। सौदा उठ चुका था। बिजली का एक बल्ब अभी जल रहा था। लाला दुकान के तख्त पर चिलम उलटकर दीवार से लगे आँधा रहे थे। नीचे सड़क पर बड़ी कढ़ाई इंट के सहारे टिकाकर रखी गई थी। उसे मांजने के प्रयत्न में एक छोटी उम्र का लड़का उसी में सो गया था। कालिख से भरा जूना उसके हाथ में थमा था और उसकी गाँह फैली हुई थी। दूसरा हाथ कड़े को थामे था। कढ़ाई को घिसते-घिसते लड़का आधा गया और फैली हुई बाँह पर सिर रख सो गया.’ पत्नी इस दृश्य को देखकर रुक जाती है और पिघले हुए स्वर में क्रोध का पुट देकर पति को भी इसे वैसे ही देखने को ललकारती है। उसे सचमुच यह ‘जुल्म’ लगता है – “क्या तो बच्चे की उम्र है और रात के एक बजे तक यह कढ़ाई, जिसे वह हिला नहीं सकता, उससे मंजाई जा रही है.” बच्चे के प्रति पत्नी की उच्छल करुणा देखकर जिसे उसके प्रति उनके व्यवहार ने और स्पष्ट कर दिया था, पति एक पढ़े लिखे बुद्धिजीवी की भाषा में, जिसे वह स्वयं ‘मार्क्सवादी विचाराधारा’ के अनुरूप समझता और मानता है, टिप्पणी करते हुए कहता है “मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की कोई सीमा नहीं……..” इस प्रकार कहानी बालश्रम पर केंद्रित हो जाती है और उसके संदर्भ में मध्यवर्गीय ‘करुणा’ की अनेक परतें, एक के बाद एक, खुलती चलती है।

शोर सुनकर हलवाई भी जाग जाता है। लेकिन उसके कुछ समझ और कर पाने से पहले ही पत्नी लड़के का हाथ थाम अपने साथ चलने को तैयार कर लेती है। इस घटना के बाद फिर फिल्म और कला की चर्चा भी उसकी करुणा और क्रोध में डूब जाती है। पति चूंकि वकील है, वह इस घटना के कानूनी पहलुओं पर भी गौर किए बिना नहीं रहता। लेकिन पत्नी ने किसी भी प्रकार के कानून को मानने से इन्कार कर दिया और बच्चे को अपने साथ लिए जाने के लिए उनके पास सीधा-सादा तर्क है – “लड़के को कहीं भगाएँ थोड़े ही लिए जाते हैं। लड़के पर इस तरह के जुल्म का हक आखिर कौन-सा कानून देता है? लड़के के माँ-बाप आएंगे तो लड़का दे दिया जाएगा ……. उस जुल्मी राक्षस के पास उसे क्यों छोड़ा जाए?” इस पर भी अनुमान लगाया जाता है कि वह हलवाई चुपचाप यह सब होते क्यों देखता रहा और किसी सक्रिय रूप में उसने उन्हें रोका क्यों नहीं? पति यही सोचकर पत्नी को समझाने की कोशिश करता है कि ‘शायद कोई बड़ा सरकारी अफसर समझकर चुप रह गए हो…’ इस तरह मध्यवर्गीय समाज में अफसर समझे जाने वाले व्यक्ति की हैसियत पर टिप्पणी यहाँ मौजूद है। लड़के के घर आ जाने के बाद उसके बारे में पता चलता है कि उसके माँ-बाप नहीं है।

कोई दूर का रिश्तेदार उसे उस हलवाई के यहाँ छोड़ गया था। अगले दिन हलवाई भी पहुँचता है। वकील दम्पत्ति के अभिजात्य और हैसियत के प्रति सारे स्वाभाविक संकोच के बावजूद वह अपना पक्ष रखता है। लड़के के बाप की तरफ लाला के साठ रुपये आते थे। लालाजी उल्टा अपने पास से लड़के को खिला-पिलाकर पाल-पोस रहा है। लड़के की कोई उम्र भी है कि उससे काम लिया जा सके। बस दुकान की चीजवस्तु उठाकर इधर-उधर रख देता है। अपने साठ रुपये मिल जाने पर वह सदं भी छोड देने को तैयार है।

पत्नी लाला की बात सुनकर कर शायद साठ रुपये देने को अपने को मन ही मन तैयार कर चुकी थी कि अचानक सामने आकर पति ने मोर्चा संभाल लिया : “लाला जो हुआ अब चले जाओ धर्ना लड़का मांगने और क्रुएल्टी द चिल्डन के जुर्म में गिरफ्तार हो जाओगे….” पत्नी गहरे आत्मविश्वास के साथ पति की ओर देखती है जैसे उसे विश्वास हो कि पति की सारी आशंकाओं के बावजूद इससे भिन्न और कोई होना नहीं था।

फिर लड़के को संस्कारित और दीक्षित करने का कार्यक्रम बड़े पैमाने पर शुरू होता है। उसका नाम ‘हरुआ’ से बदलकर हरीश किया जाता है। उसके शरीर पर जमी मैल की परतों को साबुन से धोकर साफ किया जाता है। उसके बाल कटवाए जाते हैं। अपने चार वर्ष के बेटे विशु की कंघी उसे देकर उसके बालों का पुख्ता इंतजाम किया जाता है। चूंकि चार और आठ वर्ष के बच्चों में शारीरिक दृष्टि से काफी अंतर होता है, इसलिए विशु के कपड़ों का ख्याल छोड़कर उसके लिए नेवीकट कालर के तीन कमीज़ और नेकर सिलवा दिए जाते हैं।

मध्यवर्ग पर व्यंग्य

प्रथमदर्शनी दिखने वाली संवेदनशीलता, मानवीयता को देखकर पाठक श्रीमती जी व श्रीमान की दयादृष्टि, सहानुभूति से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। कोई विरला इंसान ही इस प्रकार का कदम उठाता है। लेकिन इस के पीछे के सत्य का जल्द ही पता हमें चल जाता है। शुरू-शुरू में हरीश के प्रति पत्नी का मध्यवर्गीय उत्साह देखते ही बनता है। छोटे-मोटे घरेलू कामों में हरीश की दक्षता जैसे उनकी अपनी सफलता हो। वह उसकी स्वाभाविक प्रतिभा से इस कदर अभिभूत हैं कि पति से उस अमेरिकी प्रेजीडेंद का नाम भी पूछती है जो मजदूर से उस हैसियत तक पहुंचा था। आदमी को अगर मौका मिले तो आदमी क्या नहीं कर सकता। वह खुश है कि उसने दूकान पर हलवाई की कढ़ाई मांजने वाले लड़के के लिए अपार संभावनाओं की राह खोल दी है। विशू और हरीश के बीच आते रहने वाले टकराव को वह धैर्य से दूर करने का प्रयास करती। हरीश के प्रति माँ के इस लगाव को देखकर विशू को ईर्ष्या भी होती है।

वह इसकी प्रतिक्रिया में कभी सूरत बनाकर बैठ जाता, कभी बिसरने लगता और कभी हाथ में आई चीज से उसे मारने की कोशिश भी करता। लेकिन बेटे की इस बातों में उसकी माँ को मनुष्यता और निर्धनता का अपमान दिखाई देता है। ‘गंभीरता से विशू को ऐसा अन्याय करने से रोकती और हरीश का साहस बढ़ाकर उसे अपने आपको किसी से कम न समझने का उपदेश देती’ पत्नी इस बात से सचमुच दुखी है कि आखिर हरीश इस घर में इतना बेगानापन क्यों अनुभव करता है और विशू की तरह अपना अधिकार क्यों नहीं जमाता है? जरूरत पड़ने पर भी वह किसी चीज के लिए विश की तरह ही जिद क्यों नहीं करता है? पत्नी को यह भी लगे बिना नहीं रहता कि पति का भय ही शायद उसके इस संकोच का कारण है।

इसी बीच किसी रियासत के एक मुकद्दमे के सिलसिले में पति किसी बड़े वकील का जूनियर बनकर कुछ दिनों को बाहर चला जाता है। उसे यह भी लगता है कि अब उसके पीछे, उन्मुक्त वातावरण में उसके भय और संकोच से मुक्त होकर लड़का शायद तेजी से मनुष्य बन सकेगा। ढाई गुना आमदनी के लालच में चार महीने का यह प्रवास भी वह भुगतता है। शुरू-शुरू में पत्नी के पत्रों से हरीश के बारे में जो सूचनाएँ उसे मिलती रही थीं, अचानक उनमें एक आधारभूत परिवर्तन घटित होता है। ‘पहले उसके प्रति पत्नी के उत्साह में कमी आती है और फिर वह हताशा और शिकायतों में बदल जाता है। हरीश की ओर से हुए मोह भंग की स्थिति में अब वह आम गंदे-लड़कों की तरह गली के मैले-कुचले लड़कों में खेलता है। उन्होंने उसकी पढ़ाई-लिखाई की जो व्यवस्था की थी, उस ओर उसका बिलकुल ध्यान नहीं है। फिर यह भी सूचना मिलती है कि वह अब कहना नहीं मानता और बहुत जिद्दी है। बहुत डल है। हर समय कुछ न कुछ खाता रहता है जिससे उसका हाजमा भी ठीक नहीं रहता है।’

पति के लौटने पर और बहुत सी शिकायतों के बाद जिनमें परिवार के प्रति पति की उदासीनता एवं लापरवाही की शिकायत प्रमुख है “सचमुच तुम बड़े अजीब आदमी हो। हम फिक्र में मरते रहे और तुमसे खत तक नहीं लिखा जा सकता था। ऐसी भी क्या बेपरवाही। यहाँ मुसीबत कि लड़के को खांसी हो गई। तीन-तीन बार डाक्टर को बुलवाना पड़ता था। घर में सिर्फ दो नौकर हैं। वे घर का काम करें या डाक्टर को बुलाने जाएं। इस लड़के को देखो, जरा डाक्टर बुलाने भेजा तो सुबह से दोपहर तक गलियों में खेलता फिरा और डाक्टर का घर इसे नहीं मिला। डाक्टर जमील को शहर में कौन नहीं जानता?” बात ‘लड़के’ की मूर्खता और खिलंदरेपन पर आकर टिक जाती है। विशू के बीमार पड़ने पर उसे डाक्टर को बुलाने भेजा- घर में और जो सिर्फ दो नौकर हैं वे घर का काम करें या डाक्टर को बुलाने जाए! – तो वह दोपहर तक। गलियों में घूमता रहा और फिर घर लौटकर बहाना बना दिया कि डाक्टर का घर उसे मिला ही नहीं। अब भला डॉ. जमील को शहर में कौन नहीं जानता?

फिर पति की उपस्थिति में ही उसे एक साथ कई काम बता दिए जाते हैं- विशू को गोद से उतारकर गुसलखाने में पड़े गीले कपड़ों को धोले जिसके लिए उससे कई बार कहा गया है। पानी लेकर खस की टटियों को स्टूल पर खड़े होकर ढंग से, ठीक से भिगों दे। उसे हिदायत दी जाती है कि बेकार ही पानी बहा न दे। फिर पति की ओर देखकर वह हर काम के लिए सुनकर उसके कतरा जाने की शिकायत करती है। धीरे-धीरे पत्नी से उसके बारे में उन्हें और कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। उसे पढ़ाने के लिए स्कूल के एक लड़के को चार रूपयों में रखा था, उसे छुड़ा दिया गया है क्योंकि उसका पढ़ने में मन ही नहीं लगता है। और फिर उसकी टिप्पणी है, ‘बस खाने की हाय-हाय लगी रहती है। कोई चीज संभालकर रखना मुश्किल हो गया है। जल्दी ही पति को इसका प्रमाण भी मिल जाता है।

फल की टोकरी से विशू को लीचियाँ देते समय हरीश की ललचाई आँखें उन्हें विशू के हाथ की ओर ताकती दिखाई देती हैं। फिर पत्नी उसके पेटूपन पर खीझती हुई दो लीचियाँ उसके हाथ पर रखकर उसे बाहर जाने का हुक्म देती है – जैसे जीती जागती मुसीबत को ही सिर पड़ने पर कमरे से बाहर ठेल रही हैं।

शाम को पता चलता है कि हरीश सूखने को डाले हए कपड़े हवा में उड़ा कर. मालकिन की खीझ और बढ़ा देता है। वह पति पर झल्लाती है “मैं इसका क्या करूँ? ‘वही बात हुई न कि कुत्ते का गूं न लीपने का न पोतने का” अब वह लड़का एक ‘बला’ में बदलने लगता है। उनकी मुख्य चिंता यह है कि इसकी संगत में विशू क्या सीखेगा? और फिर उनकी निष्कर्षात्मक टिप्पणी है “कमजात कहीं अपनी आदत से थोड़े ही जाता है?……” और फिर वे जैसे अपने इस सूत्र को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं, “बंदर को मुँह लगाने से वह नोचेगा ही तो! इन लोगों के साथ जितनी भलाई करो, उतना ही सिर पर आते हैं। यह कोई आदमी थोड़े ही हैं” पति ऐसी राह निकालता है कि अपनी बात कह पाने पर भी पत्नी को अपना विरोध न जान पड़े। वह कहते हैं, “जानवर को आदमी बनाना बहुत कठिन है। उसे पुचकार कर पास बुलाने में बुरा नहीं मालूम होता क्योंकि उसमें दया करने का संतोष होता है।

परंतु जब जानवर स्वयं ही पंजे गोद में रख मुँह चाटने का यत्न करने लगता है, तो अपना अपमान जान पड़ने लगता है” विरोध से बचने की इच्छा करने पर भी जब पत्नी के तेवर से उसका बचना कठिन दिखाई देता है तो वह उसे सरकार और मजदूरों के झगड़े वाले कार्यक्रमों के बावजूद अपने अधिकारों की माँग अनुचित लगती है। इस उदाहरण से पत्नी का हौसला बढ़ता है, “तभी तो कहते हैं – कुत्ते की पूंछ बारह बरस नली में रखी, पर सीधी नहीं हुई।” फिर उन्हें उस लाला की याद आती है। उसे उस दिन तो धमकाकर भगा दिया था लेकिन वह साठ रुपये की बात कर रहा था। कहीं उस मूल रकम पर वह सूद भी जोड़ने लगा तो रकम कहाँ से कहाँ पहुँचेगी? बेकार ही झगड़े में पड़ने से क्या फायदा? पति जब उन्हीं के मुँह से इसका खुलासा जानना चाहते हैं तो पत्नी का उनकी ना समझी पर खीझना स्वाभाविक है। इस खीझ में जैसे जानवर को आदमी बना सकने की अपनी असफलता की झेंप भी शामिल है। पति को लगे बिना नहीं रहता कि बात दब भले ही गई हो, पूरी तरह से टली नहीं है। कुत्ते की पूंछ एक दफे काट लेने के बाद उसे फिर उसकी जगह लगाना कैसे संभव है? इसी तरह एक बार मनुष्यता का चसका लग जाने पर किसी को जानवर बनाए रखना भी तो संभव नहीं है।

मध्यवर्ग में छिपे स्वार्थ की अभिव्यक्ति

कहानी के इस पाठ-विश्लेषण के बाद उन मुद्दों पर बात की जा सकती है जिनका संकेत इस पाठ के शुरू में ही किया गया है। यशपाल एक मध्यवर्गीय लेखक हैं। लेकिन वे मध्यवर्ग के मनोविज्ञान को व्यंग्य द्वारा उद्घाटित करते हुए उसकी निःसारता को स्पष्ट करते हैं। हरीश – हरुआ – के प्रति पत्नी का आकर्षण और उसमें निहित करुणा धीरे-धीरे रंग खोती जाती है और बहुत जल्दी ही वह अपनी वास्तविक धातु दिखाने लगती है। मध्यवर्गीय परिवेश और बोली में उनके द्वारा बोले गए मुहावरे, हरुआ के प्रसंग में, उनकी मानसिकता के वास्तविक तल को स्पष्ट कर देते हैं। आखिर उसे लेकर उनके सारे सद्प्रयासों का क्या होता है? वह नाली की गलाजत पर पला-पुसा लड़का नाली के कीड़े की नियति लेकर ही पैदा हुआ है। वह कुत्ते का गू ही है, जिसका कोई उपयोग लीपने-पोतने में नहीं हो सकता है। आखिर उनके द्वारा किए जाने वाले सारे अहसानों को भुलाकर वह कुत्ते की पूंछ ही साबित होता है जो बारह साल नली में रखी जाने के बाद भी सीधी नहीं होती। अंत तक आते-आते उसके प्रति उनका सारा मध्यवर्गीय उत्साह पतझड के पत्ते की तरह चू पड़ता है और फिर वे अपने वर्गीय खोल में लौटकर सुरक्षित और आश्वस्त अनुभव करती है – लाला को उसे लौटा देने पर उस लफड़े से बचने का अपना निर्णय पति को सुनाकर। पत्नी मध्यवर्ग की उस स्त्री का प्रतीक है जो स्वयं कुछ न होकर भी पति की योग्यता और पेशे का प्रतिनिधित्व करती है। मध्यवर्गीय जीवन में सिनेमा और ऊपरी प्रदर्शन की भूमिका उसके प्रसंग में भी स्पष्ट है।

उसी वर्ग का प्रतिनिधि होने पर भी पति अपेक्षाकृत चीजों और समय की सच्चाई को बेहतर समझता है। लेकिन अपने धंधे की व्यस्तता और पारिवारिक समरसता के नाम पर, व्यर्थ के झमेले में पड़ने से बचते हए. वह पत्नी से समझौता करके चलता है। चूंकि कहानी का भाव पक्ष वही है कहानी उसी के द्वारा कही गई है, मजदूरों और सरकार के संघर्ष में वह मजदूरों के विरोध में जाकर सरकार के पक्ष में ही टिप्पणी करता है। बुनियादी रूप में वह स्त्री को पुरुष की अपेक्षा हीन और कमतर समझता है इसीलिए कला, राजनीति और इसी प्रकार के गंभीर मद्दों पर पत्नी से बहस में उलझने से बचता है, क्योंकि उसे वह इसका पात्र ही नहीं। समझता है। लेकिन अपने वक्तव्य को वह जिस व्यंग्य-मुद्रा में प्रस्तुत करता है, उसी में उस के वर्गगत संस्कारों और सोच की सीमाएं स्पष्ट हैं। अपने बौद्धिक स्तर के कारण वह इसे स्पष्ट कर देने में सफल होता है कि जिस प्रकार कुत्ते की पूंछ एक बार काट लेने के बाद फिर उसे उसी जगह लगाना संभव नहीं है, इसी प्रकार आदमी को मनुष्यता का चस्का लग जाने के बाद, जैसे यहाँ हरुआ को लग चुका है, उसे फिर से जानवर बनाए रखना संभव नहीं है।

यशपाल मध्यवर्गीय लेखक होने के बावजूद मध्यवर्गीय संस्कारों और सोच की तीखी आलोचना करते हैं। इस वर्गीय सोच के अतिक्रमण में ही वस्तुतः उनकी रचनात्मक सार्थकता की तलाश की जानी चाहिए। ‘कुत्ते की पूंछ’ बाल-श्रम के विरोध में लिखी गई उनकी एक उल्लेखनीय कहानी है। मध्य वर्ग की सोच की सबसे बड़ी सीमा यही है कि इस निम्न वर्ग के प्रति, जिसका प्रतीक वह लड़का हरुआ है, उसकी सारी कथित करुणा और मानवता एक दिखावा है और दूसरी बहुत सी चीजों की तरह ही वह भी उनके लिए सजावट और प्रदर्शन की चीज है। उनका वास्तविक लक्ष्य उसकी भलाई नहीं है। अपने लिए हासिल की गई वह सामाजिक प्रतिष्ठा है जो उन्हें दूसरों का हमदर्द और उस निम्न वर्ग के प्रति संवेदनशील बताकर सहज ही प्राप्त की जा सकती है। लेकिन कहानी के अंत में पति की टिप्पणी से यह स्पष्ट हो जाता है कि हरुआ की सहायता कोई नहीं कर सकता। अपनी सहायता वह स्वयं ही करेगा। चूंकि एक बार उसे आदमी बनने का चस्का लग गया है, इसलिए वह अपने ही प्रयत्नों और संघर्ष से देर-सबेर आदमी के रूप में ही अपनी पहचान बनाएगा।

यह प्रक्रिया बहुत सरल और सीधी भले ही न हो, लेकिन जब वह ऐसा कर सकेगा तो अपने बारे में परिवार की मालकिन द्वारा प्रयुक्त सारे मध्यवर्गीय मुहावरे निरर्थक सिद्ध कर देगा और जब ऐसा होगा तब वह हरुआ के रूप में अपना परिचय न देकर ‘हरीश’ के रूप में ही अपना परिचय देगा| मध्य वर्ग की सारी सोच और संस्कारगत सीमाओं के उदघाटन के बाद भी, उसके विकास के संदर्भ में उसकी उल्लेखनीय भूमिका यही है कि अपने बारे में इस सच का पता उसे उसी के संपर्क में चला है। लेकिन उसकी वास्तविक यात्रा यहाँ से शुरू होकर और अगली मंजिलों की ओर होनी है।

‘कुत्ते की पूछ की भाषा शैली

पति द्वारा पत्नी के बौद्धिक स्तर पर की गई टिप्पणी से मध्यवर्गीय बद्धीजीवी पुरुष की मानसिकता को समझाने के लिए यशपाल विशेष रूप से मुहावरों और व्यंग्य का उपयोग करते हैं। ‘स्त्रियों से भी कला के विषय में बात की जा सकती है, खासकर जब परिचय नया हो परंतु स्वयं अपनी स्त्री से, जिसे आदमी रग-रोये से पहचानता हो बहस का विचार-विनिमय में क्या रस?’ पत्नी की शिकायत पर कि पति कभी उनके साथ विचार-विनिमय या बहस नहीं करते तो सीधा सा जवाब मिलता है “जिस व्यक्ति से विचारों की पूर्ण एकता हो, उससे बहस कैसी?” यशपाल छोटे-छोटे व्यंग्यात्मक वाक्यों द्वारा पति का पत्नी के बारे में जो रवैया है उसे स्पष्ट करते जाते हैं।

यशपाल की कहानियों में विचार की भूमिका आधारभूत होती है। उसी विचार के अनुरूप वे पात्रों की अवतारणा करते हैं। “कुत्ते की पूंछ” कहानी रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से एक प्रतिनिधि कहानी है। इस कहानी में विचार ही मुख्य और महत्वपूर्ण हैं। यशपाल विचार के अनुरूप पात्र, स्थितियाँ और भाषा का चुनाव करते हैं। कला पर बातें करते-करते जब पत्नी का ध्यान कडाही में सोये बच्चे पर जाते ही, कला की चर्चा बीच में ही रोककर वह उस ओर बढ़ जाती है। पति इस असमय बात काटने और बीच में ही वार्तालाप बंद होने से चिढ़ जाता है और पत्नी के बारे में उसके मन में उठ रहे विचारों की अभिव्यक्ति यशपाल इस मुहावरे द्वारा करते हैं “राजा कहानी कहे, रानी जूं टटोले।” इस मुहावरे में पति की खीझ पूरी तरह उभर आई है। कहानी में .. पति-पत्नी के बीच होने वाली बहस की व्यर्थता के लिए वे ‘रेत के बारे में चलाई जाने वाली संगीन’ की उपमा द्वारा स्पष्ट करते हैं। हरुआ को संस्कारित करने वाली समूची प्रक्रिया को वे छोटे-छोटे ब्यौरों और व्यंग्य भरी उक्तियों से स्पष्ट करते हैं। जैसे ‘हरीश के शरीर का मैल साबुन की झाग में घुल-घुल कर बह गया। वह सांवला सलोना बालक निकल आया।’ उसके शरीर में भी वैसा ही रक्त-माँस है जैसा कि और किसी के शरीर में।’

हरुआ को हरीश बनाने की प्रक्रिया में अपने ही बेटे से हो रहे विरोध को रोकते हुए श्रीमती जी अपनी समानतावादी सोच का परिचय देना चाहती है यह कहकर कि ‘इस लड़के के भी दिमाग है। यह भी मनुष्य का बच्चा है और इसे मनुष्य बनाना भी हमारा कर्तव्य है। हालांकि यह उनकी मध्यवर्गीय सोच में शामिल है कि अपने स्वार्थ को छिपाने के लिए गरीबों पर दया दिखाने का नाटक वे करें। यशपाल ने श्रीमती जी की सोच और स्वार्थी प्रवृत्तियों को दर्शाने के लिए बहुत सटीक शब्दावली और व्यंग्य भरी उक्तियों का प्रयोग किया है।

स्थितियों के विकास के लिए वे पर्याप्त मौलिक और वर्गीय चेतना के अनुरूप उपमाओं और व्यारों का उपयोग करते हैं। जिस काम के लिए कहूँ कतरा जाता है।’ ‘पढ़ चुका यह। बस खाने की हाय-हाय लगी रहती है।’ ‘जाने कैसा भुक्कड़ है। इन लोगों को कितना ही खिलाओ, समझाओ, इनकी भूख बढ़ती जाती है।’

हरीश द्वारा सूखने डाले गए कपड़े हवा में उड़ने पर सारा दोष उसी पर मढ़ दिया गया और श्रीमती हरीश के लिए जिन लोकोक्तियों का प्रयोग करती है, वह हरीश के निम्न वर्ग के होने को न केवल उजागर करती है बल्कि जाति के साथ जोड़कर, उसकी योग्यता को आंकने लग जाती है। वही बात हुई न कि कुत्ते का गून लीपने का न पाथने का। अच्छी बला गले पड़ गई। ‘कम-जात कहीं अपनी आदत से थोड़े ही जाता है।’ श्रीमती की मध्यवर्गीय सोच हरीश की शारीरिक क्षमता का समुचित दोहन न कर पाने के कारण झुंझलाहट में तब्दील हो जाती है। हरीश के भीतर एक शोषित-पीड़ित मनुष्य की चेतना का विस्तार होता देख कर श्रीमती को गुस्सा आ जाता है।

एक गरीब बालक उसके प्रति किए गए अच्छे व्यवहार के कारण जैसे-जैसे व्यावहारिक जीवन से परिचित होता जाता है, वैसे-वैसे उसमें इंसान होने तथा अपने अस्तित्व के प्रति चेतना जाग उठी थी। उसमें जाग उठे इस अहसास का पता श्रीमती और उनके पति को लग चुका था। बिशू को गोद में लेकर बैठे हुए श्रीमान के साथ सट कर खड़े होने की हरीश की ढिठाई, उन दोनों को ही खल जाती है। जिसे यशपाल उनके वर्गीय चेतना के अनुरूप उपमाओं द्वारा अभिव्यक्त करते हैं। ‘बंदर को मुँह लगाने से नोचेगा ही तो। इन लोगों के साथ जितनी भलाई करो, उतना ही सिर पर चढ़ आते हैं।’ इस व्यंग्यात्मक उक्ति द्वारा यशपाल ने समानता के व्यवहार को खारीज़ करने की मध्यवर्ग की सोच को श्रीमती के बहुत ही पैने शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया है। यशपाल की कहानी की सफलता यही है कि ‘विचार’ को केंद्र में रखकर बनी जाने के बावजूद स्थितियों के स्वाभाविक विकास और ब्यौरों के कारण वे पूरी तरह विश्वसनीय लगती है।

एक रचनाकार के नाते यशपाल सामाजिक परिवर्तन में व्यंग्य की भूमिका को बहुत अच्छी तरह समझते हैं। यह पूरी कहानी व्यंग्य की एक अंतर्धारा को संजोकर विकसित होती है। इस व्यंग्य के कारण ही वे मध्यवर्ग की मानसिकता उसके सोच और संस्कारों की सीमाओं को बहुत प्रभावी ढंग से उद्घाटित कर सके हैं। हिंदी में भारतेंदु से लेकर प्रेमचंद तक सामाजिक परिवर्तन में व्यंग्य की भूमिका का रचनात्मक उपयोग देखा जा सकता है। देश की स्वाधीनता के बाद सामाजिक विद्रूपताओं और अंतर्विरोधों के उद्घाटन की दृष्टि से उसका महत्व और बढ़ा है। समाज को आईना दिखाने की दृष्टि से उसकी सार्थकता को जिन लेखकों ने समझा उनमें हरिशंकर परसाई विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। परसाई वस्तुतः यशपाल की इसी परंपरा के लेखक हैं। कहानी में मध्यवर्गीय पात्रों को अपना माध्यम बनाकर भी इसी व्यंग्य-मुद्रा द्वारा, यशपाल मध्यवर्गीय मानसिकता और सोच की सार्थक आलोचना की शुरूआत करते हैं।

यशपाल की कहानियाँ आकार की दृष्टि से छोटी होती हैं। बहुत धैर्यपूर्वक और सुनियोजित ढंग से वे कहानी को विकसित करते हैं। उनकी कहानियों में पात्रों की अपेक्षाः ‘आइडिया’ विचार की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है। उनका मानना था कि पात्रों को आधार बनाकर लिखी गई कहानियाँ अपनी प्रकृति में रेखाचित्र के निकट आ जाती हैं। इसी कारण उनकी कहानियों में विचार की भूमिका आधारभूत होती हैं। उसी विचारं के अनुरूप वे पात्रों की अवतरणा करते हैं। उनकी रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से ‘कत्ते की पंछ’ को उनकी एक प्रतिनिधि कहानी माना जा सकता है। कहानी का ‘विचार’ ही मुख्य और महत्वपूर्ण है। उसी के अनुरूप पात्र, स्थितियाँ और भाषा का चुनाव वे करते हैं। स्थितियों के विकास के लिए वे पर्याप्त मौलिक और वर्गीय चेतना के अनुरूप उपमानों और ब्यौरों का उपयोग करते हैं। कभी वे पति-पत्नी के बीच होने वाली बहस की व्यर्थता के ‘रेत के बोरे में चलाई जाने वाली संगीन’ की उपमा द्वारा स्पष्ट करते हैं। हरुआ को संस्कारित करने वाली समूची प्रक्रिया को वे छोटे-छोटे जीवंत ब्यौरों और व्यंग्य भरी उक्तियों से स्पष्ट करते हैं।

यशपाल की कहानियों की उल्लेखनीय सफलता यही है कि ‘विचार’ को केंद्र में रखकर बुनी जाने के बावजूद स्थितियों के स्वाभाविक विकास और ब्यौरों के कारण वे पूरी तरह विश्वसनीय लगती हैं। इस दृष्टि से उनकी ‘कुत्ते की पूंछ’ को उनकी एक प्रतिनिधि कहानी माना जा सकता है।

सारांश

यशपाल द्वारा लिखित ‘कुत्ते की पूंछ’ कहानी के इस पाठ का आपने ध्यानपूर्वक अध्ययन किया है। आपने अध्ययन के दौरान यह जरूर महसूस किया होगा कि यशपाल इस कहानी के माध्यम से भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था से उपजी शोषण की विभिन्न प्रवृत्तियों को बड़ी . कलात्मकता के साथ हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। यशपाल चूंकि सक्रीय राजनीति से लेखन के क्षेत्र में आए थे और माक्सर्वादी विचारधारा से प्रभावित होने के कारण वे शोषण की सबसे बदसूरत शक्ल को वास्तविकता के साथ प्रस्तुत करते हैं। कहानी मध्यवर्गीय संकुचित दायरे और मध्यवर्गीय नैतिकता की सच्चाई को रेखांकित तो करती ही है, सामंतवादी और पूंजीवादी सोच के अमानवीय शोषण के तरीकों को भी उजागर करती है। साथ ही यशपाल मानव में अस्तित्वबोध की चेतना के विस्तार को भी हरीश के माध्यम से स्पष्ट करते हैं।

लाला की दुकान पर एक आठ वर्ष के बालक हरुआ को दूर का रिश्तेदार छोड़ जाता है। लाला को अचानक यह बात भी याद आती है कि हरुआ के पिता ने उससे साठ रुपये कर्जा लिया था, कर्जा लौटाने से पहले ही वह मर जाता है। कर्जे के ऐवज में वह हरुआ से एक . बड़े आदमी के बराबर काम करवाता है। यह पूंजीवादी व्यवस्था और उससे निर्मित नैतिक मूल्यों के अधःपतन को स्पष्ट करता है। लाला की दुकान पर बड़े-बड़े कड़ाहों को मांजते हुए उसी में वह सो जाता है। इससे हमें यह समझ लेना चाहिए कि कड़ाही कितनी बड़ी है और उसे मांजने वाला जीव कितना नन्हा सा। रात के साढ़े बारह बजे तक काम करवाने वाले लाला का मानवीय संवेदनाओं से दूर-दूर का नाता नहीं है, यह स्पष्ट हो जाता है। बालक के अतिरिक्त श्रम द्वारा लाला अपनी संपत्ति बढ़ा रहा है और बालक एक बंधुआ मजदूर बनकर रह जाता है।

शोषण और मुनाफाखोरी की इस अमानवीय व्यवस्था को यहाँ का छोटा और बड़ा पूंजीपति सशक्त करने और इसे चलाए रखने में दिन-रात जुटा हुआ है। मानव की । स्वतंत्रता उसके अस्तित्व और अधिकार को नकारने वाली यह जघन्य परंपरा आज लाखोंकरोड़ों मजदूर, बाल मजदूरों के शोषण द्वारा जिंदा है। यशपाल शोषण से मुक्त एक वर्गहीन समाज रचना की आकांक्षा करने वाले मार्क्सवादी रचनाकार थे अतः उन्होंने शोषण और मुनाफाखोरी पर तीव्र प्रहार किया है। आर्थिक अभाव में बच्चों को बाल मजदूरी के लिए विवश करने वाले रिश्तेदार और माता-पिता की मजबूरी को भी हमें समझने में यह कहानी मदद करती है। मध्यवर्ग अपने स्वार्थ और झूठे मूल्यों की बदौलत दिन-ब-दिन किस तरह अमानवीय और खोखला होता जा रहा है इसे भी इस कहानी में बड़ी ही खुबसूरती के साथ प्रस्तुत किया गया है।

प्रश्न

  1. यशपाल प्रस्तुत कहानी के माध्यम से ‘बाल मजदूरी’ की अमानवीय प्रथा को उजागर करने में सफल हुए हैं? इस कथन का विस्तार कीजिए।
  2. क्या आप मानते हैं कि श्रीमती जी का उद्देश्य हरुआ को बाल मजदूरी के कष्टप्रद जीवन से मुक्त कराना ही था? अपना मत कम से कम 250 शब्दों में बताइए।
  3. ‘मध्यवर्गीय नैतिकता के आडंबर को रेखांकित करने में यशपाल सफल हुए हैं।’ इस कथन को विस्तार से बताइए।
  4. हरीश में जगे ‘अस्तित्व बोध के अहसास’ का सविस्तार वर्णन कीजिए।
  5. ‘यशपाल मध्यवर्गीय नैतिकता के अधःपतन को रेखांकित करने में सफल हुए है।’ इस कथन का विस्तार कीजिए।
  6. ‘कुत्ते की पूंछ’ कहानी के आधार पर ‘शोषण और मुनाफाखोरी’ पर एक निबंध लिखिए।

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