बाणभट्ट की आत्मकथा की प्रासंगिकता

इस इकाई से पूर्व आपने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ का अध्ययन किया है। इन इकाइयों में उपन्यास के कथ्य और शिल्प के अनेक पहलुओं पर विस्तार से विचार किया गया है। इस प्रक्रिया में उपन्यास के साथ ही उसमें व्यक्त उपन्यासकार की जीवन-दृष्टि इतिहास बोध समसामयिकता बोध का परिचय भी आपको मिल चुका है। इस इकाई में बाणभट्ट की आत्मकथा की समकालीन प्रासंगिकता पर वर्तमान युग की विभिन्न समस्याओं के संदर्भ में विचार किया जाएगा। जिस समय यह रचना लिखी जा रही थी, वह भारत की परतंत्रता का काल था। देश का स्वाधीनता के लिए घनघोर संघर्ष चल रहा था। इस संघर्ष से किनारा कर देश के साथ विश्वासघात करने वाले अनेक समुदाय ब्रिटिश शासनतंत्र से मिल गए थें देश की बहुसंख्यक दलित-उत्पीड़ित जनता आजादी के प्रति उदासीन थी। जातिभेद, वर्गभेद, संप्रदायभेद देश की जनता की एकता में बाधक हो रहा था। इन सारी स्थितियों को सांकेतिक रूप से समेटते हुए उपन्यासकार ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ को समसामयिक महत्वपूर्ण आंदोलनों से जोड़ा है। आइए अब हम कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों से आपका परिचय कराएँ।

पहले इसे पढ़ें:

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • समसामयिक सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ को जान सकेंगे,
  • नारी-चेतना के स्वर को पहचान सकेंगे,
  • मानवता की प्रतिष्ठा के महत्व को समझ सकेंगे,
  • राज्याश्रय और कवि-कलाकार की स्थिति पर प्रकाश डाल सकेंगे, और
  • धार्मिक वर्चस्व के कारण बिखरते मानवीय मूल्य और सामाजिक संबंधों के टूटने की प्रक्रिया समझ सकेंगे।

हजारी प्रसाद द्विवेदी एक ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में जाने जाते हैं। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘पुनर्नवा’, ‘चारूचन्द्रलेख’ और ‘अनामदास का पोथा’ जैसे उपन्यास हजारी प्रसाद मैला आंचलःफणीश्वरनाथ रेणु, द्विवेदी की कलात्मक क्षमता का प्रमाण हैं। उनके इन उपन्यासों की कथा ऐतिहासिक व बाणभट्ट की आत्मकथा : पौराणिक है। लेकिन वे सिर्फ ऐतिहासिक-पौराणिक आख्यान बनकर नहीं रह गए हैं। इनमें हजारीप्रसाद द्विवेदी अपने समय और समाज का सच बोलता दिखाई देता है। यही सामाजिक यथार्थ हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों को समकालीन बनाता है।

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ सन् 1946 में प्रकाशित हुई। इसमें मध्यकालीन इतिहास के एक छोटे-से कालखण्ड को आधार बनाया गया है। सातवीं शताब्दी का इतिहास और समाज इस उपन्यास में जीवंत हो उठा है। उपन्यास के केंद्र में है बाणभट्ट का जीवन, जो राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक देवपुत्र तुवरमिलिन्द की कन्या भट्टिनी की मुक्ति का महत् उद्देश्य लेकर आगे बढ़ता है। वह एक ओर भट्टिनी की मुक्ति की संभावना को सुनिश्चित करता है तो दूसरी ओर अपनी विद्वत्ता से राजसभा में सभासद का पद भी प्राप्त करता है। भट्टिनी की मुक्ति के प्रयास में संलग्न करने वाली निपुणिका को उसका सभासद बनना स्वीकार्य नहीं है क्योंकि उसे इस बात का डर है कि राजसभा का अंग बन जाने के बाद बाणभट्ट भट्टिनी की मुक्ति के महान् उद्देश्य से भटक जाएगा याकि जनता की आशा आकांक्षाओं को पुरजोर ढंग से अभिव्यक्त करने वाला बाणभट्ट राजसत्ता के चक्कर में चाटुकारिता के चंगुल में फँस जाएगा। लेकिन बाणभट्ट अपने उद्देश्य और कर्तव्य के प्रति जागरूक है। इसलिए वह अंत तक स्त्री-मुक्ति के अभियान के प्रति प्रतिबद्ध दिखाई पड़ता है। किंतु इसके साथ ही एक बात उभरकर सामने आती है और वह है राजसत्ता से बौद्धिक वर्ग की जुड़ने की लालसा। हालांकि इस उपन्यास में एक कवि के रूप में बाण को सत्ता सुख के पीछे भागते हुए नहीं दिखाया गया है फिर भी राजसभा में उसको सभासद चुन लिए जाने के बाद बौद्धिक वर्ग का चरित्र अपने-आप उजागर हो जाता है। यहाँ वह आज के मध्यवर्गीय शिक्षित समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है जो अपनी सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखते हुए भी खुद को क्रांतिकारी और जनवादी सिद्ध करता है।

इसलिए बाण को जीवित व्यक्ति पर काव्य न लिखने की चेतावनी अकारण नहीं है। प्रकारांतर से यह चेतावनी दरबारी संस्कृति से विरत रहकर अपने रचनात्मक अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है। लेकिन बाणभट्ट सभासद पद स्वीकार करके आज के बुद्धिजीवी समदाय की चारित्रिक विशेषता को उजागर कर देता है और यहीं पर यह उपन्यास समकालीनता से जुड़ जाता है। स्त्री-मुक्ति चेतना, राष्ट्रीय स्वातंत्र्य आंदोलन साम्प्रदायिकं चेतना, राजनीतिक अस्थिरता, जाति-पांत एवं ऊँच-नीच के भेद पर आधारित सामाजिक वैषम्य जैसे अनेक मुद्दे इस उपन्यास को समकालीन यथार्थ से जोड़ते हैं। समता की भावना और मनुष्य को सर्वोपरि सिद्ध करने की दृढ़ आकांक्षा इस उपन्यास की मूल अवधारणा है। जो इस अवधारणा को व्यापक राष्ट्रीय और सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में रूपायित करती है। इसलिए यह ऐतिहासिक के साथ ही समकालीन संदर्भो से भी जुड़कर आज के लिए भी प्रासंगिक बन जाती है।

प्रासंगिकता

किसी रचनात्मक कृति की प्रासंगिकता को समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि वह रचना अपने समय और समाज के साथ कैसा बर्ताव करती है। कहने का तात्पर्य यह है कि वही रचना सार्थक व प्रासंगिक कही जा सकती है जो अपने रचनाकाल में हो रही सामाजिक, राजनीतिक-सांस्कृतिक उथल-पुथल को प्रतिबिम्बित करने में समर्थ हो, जिसमें जनता की इच्छा-आकांक्षाओं को स्वर देने की शक्ति हो, इसके साथ ही साथ मानवीय मूल्यों के प्रति उसका सरोकार स्पष्ट हों ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ इस दृष्टि से एक सार्थक औपन्यासिक रचना है। हर्षकालीन इतिहास से सामग्री लेकर उपन्यास की रचना की गई है। उपन्यास में सामंती समाज का चित्रण है जो ऐतिहासिक दृष्टि से उपयुक्त और प्रामाणिक लगता है। इसमें हर्षवर्द्धन की राजसभा के विख्यात कवि बाणभट्ट के चरित्र को केंद्र में रखा गया है। भट्टिनी, निपुणिका, महामाया, सुचरिता, चारूस्मिता, विरतिवज्र, अघोर भैरव, कुमार कृष्णवर्धन जैसे अनेक पात्रों के माध्यम से कथा को विकसित किया गया है। इस उपन्यास में स्त्री-चरित्रों की भूमिका विशेष उल्लेखनीय है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि रचनाकार नारी जाति का सम्मान करता है, उसकी रचनात्मक भूमिका के प्रति गंभीर है। इस उपन्यास में तत्कालीन सामंती समाज की जड़ता के विरूद्ध नारी जाति के विद्रोह को संवेदनशीलता के साथ उभारा गया है। नारी के प्रति आदर व सम्मान की भावना, उसकी अस्मिता की रक्षा के प्रति प्रतिबद्धता और मानवीय मूल्यों की रक्षा का आह्वान इस उपन्यास के उद्देश्य को महानता प्रदान करता है। दैवी शक्ति पर मानवीय प्रेम की विजय अथवा मानवीय प्रेम को श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास निस्संदेह इस कृति को श्रेष्ठ बनाता है।

मनुष्य की जिजीविषा और उसकी इच्छा-आकांक्षाओं को इस उपन्यास में केंद्रीय महत्व मिला है। भ्रष्ट व आततायी सत्ता, मूल्य हीन समाज, राजनीतिक उथल-पुथल, धार्मिक-साम्प्रदायिक महत्वाकांक्षाओं का पारस्परिक संघर्ष, चाटुकारिता एक ओर तो, दूसरी तरफ भ्रष्ट सत्ता के खिलाफ बगावत, साम्प्रदायिक राजनीति, राष्ट्रीय सुरक्षा, परंपरागत मूल्यों का अस्वीकार जैसे अनेक महत्वपूर्ण सवाल इस उपन्यास को समकालीन संदर्भो से जोड़ते हैं। इसलिए यह रचना ऐतिहासिक आख्यान होते हुए भी वर्तमान संदर्भो में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखती है।

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के लेखक ने उन सारी गलित वर्जनाओं, रूढ़ियों एवं भ्रांत धारणाओं के प्रति जनता को सचेत व सावधान किया है जिनके नीचे वह हजारों वर्षों से पिसती चली आ रही है। वेद, शास्त्र, जात-बिरादरी, गुरू, स्वर्ग, नरक, राजा, सिपाही, पटवारी से लेकर, कैलास से आंगन की तुलसी में हास करने वाले तैंतीस करोड़ देवताओं के आतंक से त्रस्त भारतीय जनमानस को ललकारते हुए वह कहता है : ‘पाषंडी! तेरे सब शास्त्र पाषण्ड सिखाते हैं, तुझे धोखा देते हैं, जो तेरे भीतर सत्य है उसे दबाने को कहते हैं : जो तेरे भीतर मोहन है उसे भूलने को कहते हैं तू जिसे पूजता है उसे छोड़ने को कहते हैं।’ इसलिए इस उपन्यास में डर का तिरस्कार करते हुए मनुष्य के अस्तित्व की प्रतिष्ठा की गई है। यहाँ इस मानव-विरोधी चिंतन का जबर्दस्त खण्डन दिखाई देता है कि मनुष्य देह पाप का मूल है। इसके विपरीत इस मानव शरीर को लोक-कल्याण का माध्यम बताते हुए इसकी सार्थकता को स्थापित किया गया है।

‘मानव देह केवल दण्ड भोगने के लिए नहीं बनी है आर्य! यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है। गुरू ने अब यह रहस्य मुझे समझा दिया है। मैं जिसे अपने जीवन का सबसे बड़ा कलुष समझती थी, वही मेरा सबसे बड़ा सत्य है!’ प्रवृत्तियों को छिपाना, उनसे डरना या लज्जित होना उचित नहीं हैं। बल्कि मनुष्य-धर्म का पालन ही बृहत्तर मानव-समाज के हित में है। शायद इसीलिए इस उपन्यास में गृहस्थ जीवन की उपयोगिता पर ज्यादा बल दिया गया है। क्योंकि इसमें मानव कल्याण की असीम संभावनाएँ छिपी होती हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि यह जीवन मनुष्य को उसके अस्तित्व और उपयोगिता का बोध कराता है। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ कबीर के अनभय साँचा’ को जीवन-दृष्टि के रूप में स्वीकार करती है।

‘किसी से भी न डरना, गुरू से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी . नहीं।’ बाबा बाणभट्ट को जीवन का यह मूलमंत्र देते हुए कहना चाहते हैं कि इस चराचर जगत में कोई अंतिम सत्य नहीं है। वेद-शास्त्र समय की गति से नहीं बदलते इसलिए वे अप्रासंगिक हो जाते हैं। किसी व्यक्ति के प्रति अंध आस्था भी उचित नहीं होती चाहे वह गुरू ही क्यों न हो। जहाँ तक आस्था और विश्वास की बात है, वह मनुष्यता के प्रति होनी चाहिए। सबसे बड़ा खतरा इस मनुष्यता के ऊपर ही दिखाई देता है। इसीलिए आचार्य वसुभूति का यह कथन बहुत प्रासंगिक लगता है–

 ‘क्या ब्राह्मण और क्या श्रमण, मनुष्यता दोनों ही जगह विरल है कुमार ।’

इसमें तनिक संदेह नहीं है कि साम्प्रदायिक मतवादों और विधि-विधानों ने मनुष्य को उसके लक्ष्य और प्रकृति से बहुत हद तक परे धकेल दिया है। ‘सत्य वह होता है जिससे लोक का आत्यंतिक कल्याण होता है।’ लेकिन मनुष्य स्वार्थ के वशीभूत लोककल्याण के व्यापक लक्ष्य से भटक जाता है। इस उपन्यास में स्वार्थपरता के विरूद्ध लोक कल्याण की भावना को महत्व दिया गया है। राज्यगठन, सैन्य संचालन, मठस्थापन और निर्जनवास पुरुष की समताहीन, मर्यादाहीन, श्रृंखलाहीन महत्वाकांक्षा के ही परिणाम हैं।’ कहने का तात्पर्य यह है . कि जब तक पुरुष स्त्री की इच्छा-आकांक्षा का सम्मान करना नहीं सीखेगा तब तक दुनिया में दुर्द्धर्ष संघर्ष होते रहेंगे। स्त्री का सहयोग और उसके साथ समानता की भावना से इन अमानवीयताओं पर अंकुश लगता है क्योंकि स्त्री शक्ति और प्रकृति का प्रतीक है। वह पुरुष को मानव कल्याण के उच्चतर मूल्यों की ओर ले जाने में समर्थ होती है।

प्रेम संबंधी दृष्टिकोण

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में प्रेम को उच्च भाव भूमि पर प्रतिष्ठा मिली है। बाणभट्ट कहता है कि, ‘मैं स्त्रीारीर को देवमंदिर के समान पवित्र मानता हूँ।’ वह नारी को विलास की नहीं, करूणा की मूर्ति मानता है। यहाँ प्रेम देह कामना से बहुत हद तक निरपेक्ष है। भट्टिनी और बाण दोनों ही प्रेम को शारीरिक तृप्ति का माध्यम नहीं बनने देते। इसीलिए प्रेमास्पद पर एकाधिकार की वह कामना यहाँ दिखाई नहीं देती जो विकारों को पल्लवित करती है। भट्टिनी एवं भट्ट का प्रेम अक्षुण्ण बना रहता है। दरअसल, प्रेम का यह लोकोत्तर चरित्र है जिसमें विश्व की कल्याण भावना निहित है। ‘मैं ऐसा काव्य लिखता कि युगयुग तक इस पवित्र आर्यभूमि में नारीसौंदर्य की पूजा होती रहती और इस पवित्र देव प्रतिमा को अपमानित करने का साहस किसी को न होता।’ अघोर भैरव ने कहा था कि भट्ट पशु नहीं है अर्थात् उसकी वृतियाँ पशुवत् नहीं हैं। वैसे भी, प्रेम शरीरी होकर भी मानवजगत् में ही स्थायित्व पाता है। दैहिक तृप्ति प्रेम की गहराई नहीं है। वह प्रेम को स्थायित्व नहीं दे सकती। भट्ट और भट्टिनी का प्रेम रोमानीपन को छूता हुआ दिखाई देता है। भट्ट लावण्य और माधुर्य को देखता है। उसका प्रेम व्यापक सामाजिक सरोकार से जुड़ जाता है। प्रेम और सौंदर्य की सार्थकता उसके रचनात्मक होने में है। भट्टिनी का प्रेम और सौंदर्य पूरी तरह रचनात्मक हैं। यही कारण है कि भट्टिनी के प्रति भट्ट का प्रेम आर्यावर्त के उद्धार का महान् लक्ष्य लेकर अग्रसर होता है जिसमें स्त्री जाति की शुचिता और सुरक्षा का भाव निहित है। यह रचनाकार की उदात्त दृष्टि का प्रमाण है कि उसने बाणभट्ट के प्रेम की वैयक्तिक सार्थकता को लोक की सार्थकता के साथ जोड़ दिया है और उसे एक उच्च आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया है। इसलिए प्रेम का यह स्वरूप एकनिष्ठ होते हुए भी सामाजिक है।

बाणभट्ट और भट्टिनी के प्रेम को देवोपम बनाने का एक उद्देश्य यह भी रहा है कि लेखक नारी के प्रति सामंती दृष्टि को बदलना चाहता है। सम्राटों और सामंतों के अंत:पुर में बंधक की तरह रखी जाने वाली अपहृता स्त्रियों की पीड़ा भट्टिनी के माध्यम से व्यक्त हुई है। इस पीड़ा का एक कारण यह भी है कि ये अपहृता स्त्रियाँ पराधीन होती हैं और अंत:पुर का समूचा कार्यव्यापार वासनाजन्य दंभ, पौरुष और प्रमाद का कारण स्वरूप होता है। व्यक्ति स्वातंत्र्य का निषेध एवं सौंदर्य का नितांत शरीरी रूप प्रधान होता है। मानवीय प्रवृत्तियों का दमन सामंती दमन का ही एक रूप है। अमानवीकरण की यह प्रक्रिया शासक वर्गों के दमन का प्रमुख अस्त्र रही है। सामंती युग में इस दमन कार्य के लिए शासक वर्ग धर्म का सहारा लेता था और आधुनिक पूँजीवादी युग में धर्म के अतिरिक्त वैज्ञानकिन्तार्किकव्यावहारिक नीतिशास्त्र का भी। हजारी प्रसाद द्विवेदी स्त्री के इस सामंती पूँजीवादी रूप को अस्वीकार करते हुए उसे उच्च आदर्श भूमि पर स्थापित करते हैं। वह नारी के उस रूप को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं जो कम से कम इतना देवोपम हो कि उसकी मर्यादा भंग करने का कोई नैतिक साहस न कर सके। संभवत: इसलिए भी भट्टिनी के प्रेम को इतना महनीय एवं गौरवशाली रूप प्रदान किया गया है। भट्टिनी अपने हृदय का प्रेमोद्गार व्यक्त करते हुए कहती हैं – ‘तुम नहीं जानते कि तुमने मेरे इस पापपंकिल शरीर में कैसा प्रफुल्ल शतदल खिला रखा है। तुम मेरे देवता हो, मैं तुम्हारा नाम जपने वाली अधम नारी।’ हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रतिभा का अकुंठ विलास इसी रागात्मके हृदय का साक्षात्कार है। उन्होंने स्त्री के प्रति सामंती दृष्टि के स्थान पर मानवीय दृष्टि का संधान किया है। भट्टिनी के प्रति भट्ट के प्रेम की प्रासंगिकता को इसी रूप में देखा जा सकता है।

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में भट्ट, भट्टिनी और निपुणिका का जो प्रेमत्रिकोण लक्षित हुआ है वह निपुणिका के चरित्र को गहराई से समझने की माँग करता है। जहाँ भट्ट और भट्टिनी के प्रेम में एक प्रकार का रोमानी आदर्शवाद झलकता है, वहीं निपुणिका का भट्ट के प्रति प्रेम नितांत मानवीय रूप में प्रकट हुआ है। हालाँकि शारीरिक तृप्ति की माँग यहाँ भी कोई रूप नहीं ग्रहण करती फिर भी भट्टिनी की अपेक्षा निपुणिका के प्रेम में मुखरता अधिक है। छ: वर्ष की निरंतर भटकन और कुटिल जगत् की खट्टी-मीठी यादों को सँजोए निपुणिका का प्रेम भक्ति में रूपांतरित हो जाता है। समाज में नीच समझी जाने वाली जाति से सम्बद्ध निपुणिका का अनुभव संसार भट्टिनी की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक है। अवहेलना, प्रताड़ना और कुत्सित रुचि के अनेक अनुभवों से गुजर कर वह इस निष्कर्ष पर पहुँची कि स्त्री होना ही सारे अनर्थों की जड़ है। यह, समाज में स्त्री के प्रति सोच का प्रमाण है। निरर्थकता बोध और आत्महीनता की मनोभूमि पर स्थित नारी के मन में नारी-शरीर को देवमंदिर समझने वाले उच्च कुलोत्पन्न बाणभट्ट के प्रति विश्वास का भाव प्रकट हो जाना स्वाभाविक है।

वह बाण के सहज एवं समतामूलक व्यवहार से कृतज्ञता का अनुभव करती है। निपुणिका साधारण नारी है, भट्टिनी असाधारण। विषम परिस्थितियों से गुजरने के बाद भी भट्टिनी का आभिजात्य जीवित रहता है। निउनिया अभिशप्त वर्ग की नारी है। इसलिए बाणभट्ट के सहज मानवीय व्यवहार से उसमें साहस और विश्वास का संचार होता है। वह अपने विकारो को दबा नहीं पाती। वह उन्हीं के सहारे बाण के प्रेम को प्राप्त करना चाहती है। ‘मैं तुम्हारा करावलम्ब चाहती हूँ। नारी का जन्म पाकर केवल लांछन पाना ही सार नहीं है। तुमने ही मुझे आनंद की ज्योतिष्कणिका दी थी। तुम्हीं मुझे तेज की चिनगारी दो आर्य।’ इस तेज की चिनगारी का एक निहितार्थ है। उसके मन में सामंती शोषण और दमन के विरूद्ध घोर प्रतिशोध का भाव है। बाणभट्ट का सान्निध्य उसे सामंती अत्याचार के विरूद्ध लड़ने की शक्ति देगा, ऐसी संभावना निपुणिका के उपर्युक्त कथन में झलकती है।

जहाँ तक निपुणिका के प्रेम का संबंध है वह बांण के प्रति तमाम श्रद्धा और भक्ति के बावजूद सामाजिक समता के धरातल पर ही उपस्थित हुआ है। निपुणिका नापित (नाई) जाति की । कन्या है और बाणभट्ट ब्राहमण जाति का है। इन दोनों में प्रेम और समानता का भाव दिखाकर उपन्यासकार ने अपने युग की अपेक्षाओं को चरितार्थ किया है। भट्टिनी के प्रेम की अपेक्षा यह ज्यादा वास्तविक, पार्थिव व मानवीय है। उसमें वासना तो नहीं है किंतु देह कामना का नितांत अभाव भी नहीं दिखाई देता। निपुणिका का यह कथन द्रष्टव्य है

‘निर्दय, तुमने बहुत बार बताया था कि तुम नारी:देह को देव मंदिर के समान पवित्र मानते हो, पर एक बार भी तुमने समझा होता कि यह मंदिर हाड़-मांस का है, ईंट चूने का नहीं।

जिस क्षण मैं अपना सर्वस्व लेकर इस आशा से तुम्हारी ओर बढ़ी थी कि तुम उसे स्वीकार कर लोगे, उसी समय तुमने मेरी आत्मा को धूलिसात् कर दिया। उस दिन मेरा निश्चित विश्वास हो गया कि तुम जड़-पाषाण पिंड हो, तुम्हारे भीतर न देवता है, न पशु है, है एक अडिग जड़ता।’

दरअसल, निपुणिका का प्रेम पूरी तरह से मानवीय संवेदना से युक्त है। ऐसे में वह अपने प्रेमास्पद से नितांत मानवीय स्तर का प्रेम चाहती है लेकिन इस मामले में बाण की दृष्टि बिल्कुल साफ है और वह निपुणिका के बढ़े हुए कदम को यकायक रोक देता है। भट्टिनी और बाण का प्रेम मौन और निगूढ़ है। सुरुचि, संयम और मर्यादा का उल्लंघन तो निपुणिका भी नहीं करती किंतु ऐसा गोपन भाव उसके यहाँ नहीं है।

निपुणिका और बाणभट्ट के प्रेम का महत्व इस बात में है कि यह दलित और ब्राह्मण के प्रेम का समर्थन करता है। बाणभट्ट दलितों में लक्षित होने वाली मानवीयता का समर्थन करता है इसीलिए वह निपुणिका को प्रेम का पात्र समझता है। तात्पर्य यह है कि बाणभट्ट परंपरागत रुढ़िवादी मूल्यों को अस्वीकार करते हुए दलितों की मनुष्यता को जिस ऊँचाई तक ले जाता है वह एक ओर तो तत्कालीन सामंती समाज व्यवस्था का अतिक्रमण है तो दूसरी तरफ वर्तमान के लिए उच्च मानवीय मूल्यों की स्थापना का प्रयास । इस प्रेमसंबंध की सार्थकता आज भी उतनी ही है जैसी बाणभट्ट के जीवन काल में थी। कहना न होगा कि प्रेम का यह स्वरूप हृदय के सत्य को सर्वोपरि मानते हुए ही प्राप्त किया जा सकता है! जहाँ समता, न्याय और आदर की भावना हो, वहीं इस प्रेम की संभावना की तलाश की जा सकती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बाणभट्ट के चरित्र को इस लिहाज से गढ़ा है कि उसके हृदय में राजा और रंक, ब्राह्मण और शूद्र सभी के प्रेम को समाहित किया जा सके। यह आज की सामाजिक समता का ज्वलंत मुद्दा बन गया है। यह अकारण नहीं है कि समाज के उपेक्षित वर्ग से आयी हुई निपुणिका बाण के अप्रत्याशित प्रेमव्यवहार से कृत कृत्य हो जाती है और उसे अपना हृदय दे बैठती है। बाण और निपुणिका का प्रेम लोक के विरूद्ध हृदय की रागात्मक वृत्ति की विजय का प्रतीक है।

सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक स्थितियों का चित्रण बहुत ही सांकेतिक और बारीक ढंग से हुआ है। राजकुलों के अंत:पुर के यथार्थ को बाणभट्ट के शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया गया है।

‘मुझे स्थाणीश्वर के लम्पट राजकुल के अंत:पुर के विषय में श्रद्धा नहीं है। जहाँ चौर्यलब्ध अत्याचारिता वधुएँ वास करती हैं, उस अंत:पुर की कोई मर्यादा नहीं होनी चाहिए।’ यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि उपन्यास जिस कालखण्ड को आधार मानकर चलता है, उस समय और समाज में स्त्री को भोग्या और दासी ही माना जाता था। उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं थी। एक मनुष्य के प्रेम में कोई पहचान नहीं थी बल्कि वह एक वस्तु के रूप में उपयोग में लायी जाती थी। कहना न होगा कि स्त्री के प्रति यह दृष्टि सामंती समाज की कोख से उत्पन्न हुई थी। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ मे भी यह सामंती समाज अपने पूरे वजूद के साथ मौजूद है। यह अकारण नही है कि सामंती राजसत्ता के विरूद्ध संघर्ष करने वालों में स्त्रियों की भूमिका सर्वाधिक महत्व रखती है। निपुणिका, महामाया, सुचरिता भ्रष्ट राजसत्ता के विरूद्ध सबसे आगे बढ़कर हैं और यह कहना गलत नहीं होगा कि ये स्त्री चरित्र ही सामंती सत्ता के विरूद्ध संघर्ष का नेतृत्व करते हैं। इन नारी पात्रों की संघर्ष चेतना के पीछे इतिहास और वर्तमान की भयानक भूलें छिपी हुई हैं। पुरुष ने अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन स्त्री सत्ता का मूल्य चुकाबैर ही किया है। लम्पट राजकुलों के अंत:पुर में बंधक बनाकर रखी जाने वाली स्त्रियाँ ही तो हैं। पुरुष को जब भी अपने पौरुष का प्रदर्शन करने की जरूरत महसूस हुई, उसने स्त्री की मर्यादा का ही हनन किया। इस संदर्भ में महामाया का यह कहना सर्वथा उचित जान पड़ता है कि, ‘आर्य विरतिवज्र और आयुष्मती सुचरिता को बंदी बनाना, लाख-लाख निरीह ब्राह्मणों और श्रमणों की रक्षा के लिए नहीं हुआ है, वह महाराजाधिराज और उनके किसी आश्रित सामंत की नाक बचाने के लिए हुआ है।

यह पहला अन्याय नहीं है, अंतिम भी नहीं होगा। यह दुर्वह सम्पत्ति मद का चिराचरित रूप है। इसके लिए न्याय की प्रार्थना व्यर्थ है।’ न्याय का संबंध संवेदना से है और संवेदनशीलता मनुष्यता की पहचान है। किंतु जब सत्ता प्रतिष्ठानों की प्रकृति पर दृष्टिपात करते हैं तो देखते हैं कि वहाँ मानवीय मूल्यों का कोई महत्व नहीं रह गय है। नैतिक पतन आदर्शहीनता और भ्रष्टाचार सर्वत्र व्याप्त हैं। ऐसे में स्त्री चेतना का महत्व बहुत बढ़ जाता है। स्त्री ही समाज की बर्बरता का पहला शिकार होती है। इसलिए इस उपन्यास में सत्ता प्रतिष्ठान के विरूद्ध स्त्रीसंघर्ष का जो प्रश्न उठाया गया है वह आवश्यक और स्वाभाविक लगता है। महामाया जनमानस में अन्याय : के विरूद्ध चेतना जगाते हुए कहती हैं

‘धर्म की रक्षा अनुनय विनय से नहीं होती, शास्त्र वाक्यों की संगति लगाने से नहीं होती, वह होती है अपने को मिटा देने से। न्याय के लिए प्राण देना सीखों, सत्य के लिए प्राण देना सीखो, धर्म के लिए प्राण देना सीखो।’ महामाया की वाणी में सामंतवाद का विरोध और जनतांत्रिक मूल्यों की स्थापना का आह्वान है। इसके साथ ही यहाँ यह संभावना भी व्यक्त हुई है कि जनतांत्रिक व्यवस्था में ही स्त्री और दलितों का सम्मान एवं हित सुरक्षित रह सकता है। महामाया की वाणी में राष्ट्रीय संकट की ओर संकेत किया गया है। देवमंदिरों, विहारों और स्त्री की मर्यादा को बचाए रखने के लिए मर-मिटने का आह्वान इसलिए किया गया है कि राष्ट्र की सुरक्षा और स्त्रीमर्यादा के रक्षक राजकुल विलास के पंक में डूबे हुए हैं, वासना की तृप्ति ही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन गई है, ऐसे में जनता ही एकमात्र विकल्प है जो प्रत्यंत दस्युओं से राष्ट्र की रक्षा कर सके। यह एक महत्वपूर्ण सवाल है जिसकी ओर लेखक ने संकेत किया है, जो उपन्यास के रचनाकाल में भी ज्वलंत मुद्दा बना हुआ था।

नारी चेतना के स्वर

‘मैं तुम्हारे देश की लाख लाख अवमानित, लांछित और अकारण दण्डित बेटियों में से एक हूं। कौन नहीं जानता कि इस घृणित व्यवसाय के प्रधान आश्रय सामंतों और राजाओ के अंत:पुर ‘मत्यु का भय माया है, राजा से भय दुर्बल चित्र का विकल्प है। प्रजा ने राजा की सृष्टि की है। संघटित होकर म्लेच्छ वाहिनी का सामना करो। देवपुत्रों और महाधिराजों की आशा छोड़ो।’

महामाया के उपर्युक्त कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सामंती शासनव्यवस्था में नारी मात्र भोग्या बनकर रह गई थी। जीवन भर अपमान, लांछन और यातना सहने के लिए वह बाध्य थी। राजाओं और सामंतों के अंत:पुर की शोभा बढ़ाने एवं वासनापूर्ति के लिए असहायगरीब जनता की बहू-बेटियों को बलपूर्वक अपहृत किया जाता था। यह समस्त कार्य-व्यापार अबाध गति से इसलिए चलता था क्योंकि जनता में यह धारणा गहराई तक पैठी हुई थी कि राजा देवता का रूप होता है, उसकी शक्ति ईश्वरीय होती है। अबोध जनता इस

कारण राजाओं के कुत्सित कार्यव्यापार का विरोध नहीं कर पाती थी। समूचा समाज जड़ था। महामाया की वाणी इस जड़ता को तोड़कर जनता में चेतना का प्रसार करने के लिए आतुर दिखाई देती है। वह इस सत्य से उसे परिचित कराती हैं कि राजा देवोपम नहीं है और न ही उसकी शक्तियाँ असीम व अनंत हैं। राजा प्रजा की सृष्टि है। वह चाहे तो उसके अस्तित्व को बनाबिगाड़ सकती है। जनता को संगठित होकर न सिर्फ राजााओं के आततायी शासन का विरोध करना चाहिए बल्कि बाहरी शक्तियों के आक्रमण से देश की रक्षा का गुरुतर दायित्व भी स्वीकार करना चाहिए। महामाया की यह वाणी सीधे-सीधे सामंतवाद के विरूद्ध विद्रोह का आह्वान इस उपन्यास की अन्तश्चेतना को समकालीनता से जोड़ देता है। राजा को मनुष्य-मात्र के रूप में देखने का आग्रह उपन्यास को आधुनिक जीवन दर्शन से जोड़ता है और इसलिए यह विचार आज भी उतना ही प्रासंगिक लगता है।

कान्यकुब्ज के राजा श्री हर्ष स्वयं व्यभिचारी तो नहीं हैं किंतु लम्पट शरण्य तो हैं। उनके अधीनस्थ सामंतों के अंत:पुर व्यभिचार और वासना के पंक में डूबे हुए हैं। यही कारण है कि निपुणिका कान्यकुब्जेश्वर द्वारा बाण को सभासद नियुक्त करने का विरोध करती है। धिक्कार है भट्ट, तुम कैसे भट्टिनी का अपमान करने पर राजी हो गए। कान्यकुब्ज का लम्पट शरण्य राजा क्या भटिनी के सेवक को अपना सभासद बनाने की स्पर्धा रखता है? किस बुद्धि ने तुम्हें मौखरियों की रानी का निमंत्रण ढोने को उत्साहित किया? धिक्कार है भट्ट, तुम अत्यंत सहज बात भी नहीं समझ सके। क्या इस पत्र को चिथड़े कर फेंक देने के लायक शक्ति भी तुम्हें नहीं थी।’ निपुणिका को यह अप्रत्याशित लगता है कि जो बाणभट्ट सामंती जकड़न से स्त्री को मुक्त कराने का उच्चतर आदर्श लेकर चल रहा हो, जिसने सत्ता की इच्छा के विरूद्ध भट्टिनी को अंत:पुर से मुक्ति दिलाने में सहायक की भूमिका निभाई हो, जिस भट्ट ने दलित पीड़ित निपुणिका को मनुष्य रूप में प्रतिष्ठा देकर प्रेम का पात्र समझा हो और जो स्त्री के शरीर को देव मंदिर समझता हो, वह कैसे उसी शासन व्यवस्था का अंग बनने के लिए तैयार हो गया? निपुणिका बाणभट्ट के इस निर्णय से अत्यंत खिन्न है इसी लिए वह उसे धिक्कारने से भी नहीं चूकती। बाणभट्ट यह अच्छी तरह जानता है कि छोटा सत्य बड़े सत्य का विरोधी नहीं होता इसलिए निपुणिका का आकोश उसे सही मालूम पड़ता है। ‘समाज की कुत्सित रुचि पर तिलतिल करके उसने अपने को होमा है, उसकी यह वाणी हृदयाग्नि के अतल गह्वर से निकल रही है।’ भट्ट स्त्री के जीवन सत्य को समझता है इसलिए निपुणिका का आक्रोश उसे स्वीकार्य है।

विश्वास मनुष्य को बड़े से बड़ा खतरा उठाने की शक्ति देता है। महावराह विश्वास के प्रतीक हैं। भट्टिनी को विश्वास है कि जो अतल में सम्पूर्ण डूबी पृथ्वी को उबारने में समर्थ है, वह निश्चय ही उसके कष्ट को दूर करेगा। सम्पूर्ण उत्तरापथ अवरोध और जड़ता से आबद्ध था। बाणभट्ट को लगा था कि ‘न जाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा था कि नीचे से ऊपर तक सारी प्रकृति में एक अवश अवसाद की जड़िमा छायी हुई है।’ इस उपन्यास में इस जड़िमा को तोड़ने का रचनात्मक प्रयास है। इस जकड़न को तोड़ने मे स्त्रियाँ मुख्य भूमिका निभाती हैं। हेनरी मिलर का विश्वास है कि पुरुष के मुरदा हो जाने पर स्त्रियाँ ही उसे जिलाने का कार्य करेंगी। क्योंकि वे शक्ति हैं, त्रिपुर सुंदरी हैं, प्रकति हैं। निपुणिका, भट्टिनी, सुचरिता और महामाया अपनेअपने ढंग से पुरुष की सुप्त चेतना को स्पंदित करती हैं। भट्ट को भट्टिनी की मुक्ति का साधन बनने में निपुणिका ने ही प्रवृत्त किया था। निपुणिका भट्ट से पूछती है, ‘तुम असुर गृह में आबद्ध लक्ष्मी का उद्धार करने का साहस रखते हो? मदिरा में डूबी हुई कामधेनु को उबारना चाहते हो?’ वह आगे कहती है, ‘भट्ट यह अशोक वन की सीता है, तुम इसका उद्धार करके अपना जीवन सार्थक करो।’ यहाँ भट्टिनी का उद्धार तो निमित्त मात्र है। वास्तव में यह सामंती अवरोध से स्त्री जाति की मुक्ति का महत् प्रयास है। इसी से देशोद्धार की कामना भी संलग्न है। इस तरह से भट्टिनी बहुत व्यापक और दुरूह उद्देश्य की प्रतीक के रूप में चित्रित हुई हैं। भट्टिनी सम्पूर्ण जगत् में रागात्मक हृदय की व्याप्ति को स्वीकार करती हैं, जबकि महामाया बर्बरता, दुराचार और अन्याय के विरूद्ध संघर्ष के लिए जनता का आह्वान करती हैं।

भट्टिनी महामाया के सत्य को सम्पूर्णता में स्वीकार नहीं करतीं। वे म्लेच्छ कही जाने वाली जाति के उस पहलू को. जागृत करना चाहती हैं, जो उसे कोमल और संवेदनशील बना दे, जो उसे नारी का सम्मान करना सिखा दे, अर्थात् भट्टिनी हृदय परिवर्तन में विश्वास रखती हैं। उन्हें भट्ट की वाणी में इतना विश्वास है कि उनके द्वारा निर्दय लोगों में भी करूणा का संचार किया जा सकता है। लेकिन स्वयं भट्ट को इस पर विश्वास नहीं है। वह सोचता है कि जब कालिदास के काव्य से हृदय परिवर्तन संभव नहीं हुआ तो दूसरों में यह क्षमता कहाँ होगी? दरअसल, भट्ट की दृष्टि अधिक यथार्थवादी है! साहित्य हृदय परिवर्तन का माध्यम नहीं बन सकता। उसका प्रभाव अत्यंत सीमित होता है। दोस्तोवस्की ने लिखा है कि मनुष्य मूलत: बर्बर है। इसलिए महामाया का यह कहना सच लगता है कि, ‘नारी-हीन तपस्या संसार की भद्दी भूल है। जहाँ कहीं अपने आपको उत्सर्ग करने की, अपने आपको खपा देने की भावना प्रधान है, वहीं नारी है।’ महामाया नारी के स्थूल रूप को नहीं, बल्कि उसकी अंत: प्रकृति-संवेदना और प्रेम को उजागर करती हैं, जो पुरुष से एकात्म होकर पूर्ण मानवीय रूप ग्रहण करती है। पुरुष का यही रूप मानव समाज के लिए हितकर है। बाणभट्ट में पुरुष और नारी का ऐसा ही सामंजस्य है, जिससे वह स्त्री-शरीर को देवमंदिर समझने की दृष्टि प्राप्त करता है। वराह मिहिर कहते हैं कि, ‘स्त्रियाँ ही रत्नों को भूषित करती हैं, रत्न स्त्रियों को क्या भूषित करेंगे?’ तो प्रकारांतर से ये भी मनुष्य सत्ता का बोध कराना चाहते हैं। स्त्री के दुर्गम-अथाह दुख को समझना बहुत कठिन है। बाणभट्ट कहता है कि, ‘स्त्री के दुख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं बता सकते।

सहानुभूति के द्वारा ही उस मर्म वेदना का किंचित् आभास पाया जा सकता है।’ निस्संदेह, मनुष्य के सामाजिक संबंधों के मूल में ही इसका कारण छिपा हुआ है। शोषण, अत्याचार और अनाचार की जड़ भी यही सामाजिक विसंगति है। पुरुष की वर्चस्व भावना और श्रेष्ठता की अवधारणा ने स्त्री की चेतना को दबाकर उससे उसकी स्वायत्तता या कहें कि मनुष्यत्व का पद छीन लिया है। बाणभट्ट इसीलिए स्त्री के दुख को सम्पूर्णता में जान लेने का दावा नहीं करता। वह नारी के दुख की समस्त प्राणियो में व्याप्ति चाहता है, जिसे संवेदना के आधार पर ही संभव बनाया जा सकता है । ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में नारी के प्रति स्वस्थ एवं रचनात्मक दृष्टि को विकसित होने का अवसर प्राप्त हुआ है। कहना न होगा कि नारी के प्रति बाणभट्ट की आदर व सम्मान की भावना ने ही भट्टिनी और उसके प्रेम को एक तरह के रोमानीपन से भर दिया है लेकिन इस रोमांटिक प्रेम की शक्ति भी यही है कि यहाँ नारी जाति के प्रति सम्मान की भावना को समस्त चराचर जगत् में व्याप्त कर देने का महनीय प्रयास दिखाई देता है।

मानवता की प्रतिष्ठा

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की प्रासंगिकता इस बात में है कि यहाँ लोक, वेद, गुरू, राजा, सामंत, श्रमण और ब्राह्मण की अपेक्षा मनुष्य मात्र की प्रतिष्ठा पर बल दिया गया है। मनुष्यता की अवधारणा के पीछे तर्क यह है कि इसमें समता और न्याय की भावना निहित होती है। किसी . धर्म, सम्प्रदाय, देश, जाति में उत्पन्न होने के बावजूद यह मनुष्यता ही ऐसा तत्व है जो सभी को बराबरी के स्तर पर खींच लाता है। इस उपन्यास में इसी मानवीय प्रेम की अवधारणा को स्थापित करने का प्रयत्न दीखता है। निपुणिका दलित है और नारी भी है लेकिन लेखक उसके चारित्रिक विकास को इतने संयम और उदारता के साथ चित्रित करता है कि वह सहज ही पाठकीय संवेदना और आदर की अधिकारिणी बन जाती है। नारी शक्ति का अनादर और उपेक्षा करने वाले भूल जाते हैं कि स्त्री जाति में धैर्य, संयम, सहनशीलता के बावजूद विद्रोह करने की क्षमता भी होती है। यही क्षमता बड़े से बड़े साम्राज्य को धूल चटा देती है।

‘महिमामयी शक्ति की उपेक्षा करने वाले साम्राज्य नष्ट हो गए हैं, मठ ध्वस्त हो गए हैं, ज्ञान और वैराग्य के जंजाल फेनबुबुद की भाँति क्षणभर में विलुप्त हो गए हैं।’ क्योंकि राजाओं के अंत:पुर भोग विलास के केंद्र बन गए हैं। देश और जनता की चिंता राजाओं का विषय नहीं रह गए हैं। नारी को बलपूर्वक शारीरिक तुष्टि और श्रेष्ठता और प्रदर्शन का माध्यम बनाया जा रहा है। धर्म के ठेकेदार मठाधीश आध्यात्मिक चिंतन से विरत होकर सुख और आनंद की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हो गए हैं। स्त्रीसंसर्ग उनके लिए वर्जित नहीं रह गया है। मनुष्य के कल्याण की भावना उनके मन से जाती रही है। ऐसी स्थिति में विद्रोह-चेतना का प्रादुर्भाव अवश्यंभावी है। जब समाज में व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रह जाती है तब एक नयी समतामूलक कल्याणकारी व्यवस्था के लिए संकल्प व्यक्त किया जाता है, जिसमें नारी की प्रमुख भूमिका होती है। इस उपन्यास में महामाया, निपुणिका और सुचरिता का विद्रोह एक ओर तत्कालीन समाज व्यवस्था की जड़ता, अमानवीयता एवं शोषण के विरूद्ध है तो दूसरी ओर नवीन समाजव्यवस्था के निर्माण में स्त्री की भूमिका का संकेतक भी। स्त्री प्रकृति मनुष्यता के केंद्र में है इसलिए इसकी अस्मिता की उपेक्षा करना खतरे से खाली नहीं है। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में नारी के प्रति आदर का जो भाव प्रकट हुआ है उसके मूल में मानव कल्याण की कामना निहित है।

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ उपन्यास समकालीन पूँजीवादी व्यवस्था की विकृतियों के चित्रण में भी पीछे नहीं रहता। जहाँ सामंती समाज में नारी का भोग्या रूप स्वीकृत था वहाँ पूँजीवादी आधुनिक समाज में नारी के प्रति पुरुषवादी मानसिकता में कोई सकारात्मक अंतर नहीं आया है। यह कहना असंगत नहीं होगा कि पूँजीवाद भोगवाद का ही एक परिवर्तित रूप है, इसलिए यहाँ भी नारी के प्रति दृष्टिकोण लगभग वैसा ही है, जैसा सामंती समाज में था। हाँ, यह जरूर है कि वह सामाजिक अवगुंठन से कुछ हद तक मुक्त हुई है लेकिन इस मुक्ति की सार्थकता तब तक सिद्ध नहीं हो सकती जब उसके प्रति, और स्पष्ट शब्दों में कहना चाहें तो, उसकी देह के प्रति पुरुष समाज की दृष्टि में सकारात्मक बदलाव नहीं आ जाता। भेद भाव पर आधारित इस समाजव्यवस्था के सत्य को महामाया बहुत स्पष्ट शब्दों में कह देती हैं ‘पुरुष का सत्य और है, नारी का सत्य और है।’ सत्य की यह जुदाजुदा परिभाषाएँ अथवा मानदण्ड सामाजिक विषमता, शोषण और भ्रष्टाचार को वैचारिक आधार प्रदान करते हैं। यह उपन्यास इस कुत्सित वैचारिकता को अस्वीकार करता है और समतावादी मूल्यों की प्रतिष्ठा करता है। नारी जाति के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए, उसे मानवीय रूप प्रदान करते हुए और उसकी निजता की रक्षा का प्रबल समर्थन करते हुए यह उपन्यास मानवीय बोध के जिस बिंदु का स्पर्श करता है वह निश्चय ही एक प्रगतिशील चिंतन का परिणाम है।

इसे राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन और भारतीय अस्मिता की सुरक्षा संबंधी प्रयत्न के रूप में भी देखा जा सकता है। प्रत्यंत दस्युओं का आसन्न आक्रमण एक राष्ट्रीय संकट है। देवपुत्र तुवरमिलिन्द राष्ट्रीय आकांक्षा के प्रतीक हैं। लेकिन इस आकांक्षा की प्राप्ति तब तक संभव नहीं है जब तक सामान्य जनों की हिस्सेदारी इस आंदोलन में सुनिश्चित नहीं हो जाती। जनता यही शक्ति है, जिसे संगठित करना न सिर्फ एक चुनौती है बल्कि महत् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक भी। इस उपन्यास में इसीलिए महामाया जनता को अमृत पुत्र के रूप में संबोधित करते हुए उसे दानवी शक्ति के विरूद्ध खड़ा होने का आह्वान करती हैं। एक तरह से यह उपन्यास सामंतवाद बनाम जनसामान्य के संघर्ष का कलात्मक इतिहास कहा जा सकता

राज्याश्रय और कवि-कलाकार की स्थिति

बाणभट्ट द्वारा कान्यकुब्जेश्वर श्री हर्ष का सभासद बनकर राज्याश्रय प्राप्त करने का निपुणिका द्वारा जोरदार विरोध आज के युगीन संदर्भ में भी अत्यंत प्रासंगिक है। देश की स्वाधीनता से पूर्व और उसके बाद भी बुद्धिजीवी कवि कलाकारों की व्यापक पैमाने पर खरीदफरोख्त शासन सत्ता द्वारा होती आ रही है। परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से साहित्यकारों का एक बड़ा समुदाय कला की स्वायत्तता और कलाकार की स्वतंत्रता के छद्म प्रश्न को उछाल कर व्यवस्था द्वारा जीवन की सुख सुविधाओं के प्रलोभन में व्यापक जनजीवन से कट गया। कला की शुद्धता के नाम पर उसने व्यापक जनजीवन के शोषण और कटु तिक्त जीवन अनुभवो के खुरदुरे प्रभाव से बचाते हुए सुंदर सुंदर कोमल भावों की कलात्मक अभिव्यक्ति को ही वास्तविक साहित्य-धर्म निर्धारित किया। शोषित उत्पीडित नारी और अपनी दो जून की रोटी के लिए संघर्षरत बहुसंख्यक जनता की ज्वलंत समस्याओं से मुँह मोड़कर इन कवि कलाकारों ने कला का एक नया लोक निर्मित किया सौंदर्य लोक। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ बाण द्वारा राज्याश्रय प्राप्ति का संदर्भ इस तथ्य को रेखांकित करने के कारण आज और अधिक प्रासंगिक हो गया है।

चाटुकारिता सामंती समाज की प्रमुख विशेषता मानी जाती है। मध्यकालीन साहित्य राजाओं और सामंतों की प्रशस्तियों एवं बिरूदावलियों से भरा पड़ा है। भक्तिकाल में संत परंपरा ने साहित्य को जहाँ जनसामान्य से जोड़ने का काम किया था, मध्यकाल के उत्तरार्द्ध में कवियों का एकमात्र लक्ष्य राज्याश्रय प्राप्त करना और अपने आश्रयदाताओं की मिथ्या प्रशंसा करना भर रह गया था। इस काल का साहित्य जनता की इच्छा आकांक्षाओं को व्यक्त करने में बिल्कुल असफल सिद्ध हुआ। जनसामान्य से कटा हुआ साहित्य अपनी कला के बल पर कब तक जीवित रह सकता है? उपन्यास का निम्नलिखित कथन इसी मायने में प्रासंगिक लगता है कि इसमें आश्रयदाताओं की मिथ्या प्रशंसा गाने से बाणभट्ट को आगाह किया गया है। विदित है कि बाण एक प्रतिष्ठित कवि था अत: उसकी चेतना को सामंती मूल्यों से खतरा अधिक था। यह चेतावनी इसलिए ज्यादा महत्व रखती है

उससे कह देना कि किसी जीवित व्यक्ति के नाम पर काव्य न लिखे!’ इसके कई खतरे थे, जिनका संकेत इस उपन्यास में मौजूदद है। बाणभट्ट जिस महान् उद्देश्य को लेकर चलता है, वह उद्देश्य ही खतरे में पड़ जाता अगर वह कान्यकुब्जेश्वर या अन्य किसी राजा की बिरूदावली गाना शुरू कर देता। क्योंकि बाण के लक्ष्य और राजकुल की परंपरा के बीच विसंगति एवं विरोध स्पष्ट है। निपुणिका द्वारा उसके (बाणभट्ट) सभासद पद का विरोध अकारण नहीं है। वह अच्छी तरह जानती है कि राजकवि और जनकवि-दोनों अलग-अलग चीजें हैं, दोनों की अभिरुचियाँ व प्राथमिकताएँ भिन्न हैं ऐसे में यह बहुत संभव होता कि बाणभट्ट राजाश्रय के प्रमाद में भट्टिनी की मुक्ति के महत् उद्देश्य से भटक जाता, मानव-मूल्यों के गान से विमुख हो जाता और सबसे बढ़कर नारी जाति के प्रति उसकी दृष्टि कुंठित हो जाती। संभवत- इसीलिए जीवित व्यक्ति पर काव्य-सृजन से बाण को आगाह किया गया है। जनचेतना से असंपृक्व कवि मृतक के समान ही माना जाएगा। महामाया प्रश्न करती है

‘क्या निरीह प्रजा की बेटियाँ उनकी नयनतारा नहीं हुआ करती क्या राजा और सेनापतियों की बेटियों का खो जाना ही संसार की दुर्घटनाएँ हैं’ भट्टिनी देवपुत्र तुवरमिलिन्द की कन्या है। बाणभट्ट उनकी मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध होता है परंतु साथ ही मुक्ति का यह प्रयत्न निपुणिका जैसी निम्नवर्गीय नारियों के संदर्भ में भी उतना ही महत्व रखता है। निपुणिका और भट्ट का यह सामूहिक प्रयत्न स्त्री-मुक्ति के व्यापक उद्देश्य से जुड़कर जनतांत्रिक रूप ले लेता है और इस तरह वह महामया की चिंता को लेकर आगे बढ़ता है।

वस्तुत: यह उपन्यास सामंती आचार-विचार की कुरूपता – वीभत्सता पर प्रहार है। इसमें भैरवियों और महामाया की वाणी सामंतविरोधी, जनतांत्रिक, मानवतावादी विचारधारा के रूप में प्रस्फुटित हुई है। प्रत्यंत दस्युओं के अमानवीय कृत्यों के विरुद्ध जन आकोश, संकुचित राष्ट्रीयता के सीन पर विश्व बंधुत्व की भावना, नारी के प्रति आदर व सम्मान, युद्ध के स्थान पर शांति का संदेश, सहज मानवीयप्रेम, दलितों की मनुष्यता का महत्व आदि ऐसे प्रश्न हैं जो इस औपन्यासिक कृति को जीवंत एवं समकालीन भी बना देते हैं।

भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य सभ्यता के आदान-प्रदान पर आधारित मानवीय समाज के निर्माण की परिकल्पना हजारी प्रसाद द्विवेदी की उदार दृष्टि का परिचायक है।राजनीति धर्म और समाज के दूसरे क्षेत्रों में मनुष्य की सर्वतोमुखी उन्नति के समर्थन और उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों में बाधा पहुंचाने वाली शक्तियों के प्रति विरोध की अभिव्यक्ति एवं इन दुष्प्रवृत्तियों से निर्भय रहने का संदेश जैसे अनेक विचारबिंदु हैं, जो इस कृति को शाश्वत मानवीय अर्थवत्ता की तलाश की रचना सिद्ध करते हैं। इस उपन्यास का लक्ष्य है मनुष्यता की खोज, जो मध्यकाल में ही नहीं आज भी विरल होती जा रही है। मानववाद से इसे जोड़ने में यदि कोई बाधा है तो यही कि इसमें जीवन को कुछ हद तक दैवी विधान से संबद्ध मान लिया गया है, जिससे नियतिवाद के विरुद्ध मनुष्य की संघर्ष चेतना को धक्का लगता है। लेकिन समूचे उपन्यास को सामने रखकर विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि इसके पात्र कर्मशील और नियति के . विरुद्ध लगातार संघर्ष करते हैं। यह संघर्ष उपन्यास को जीवंत बनाता है। जीवित व्यक्ति पर काव्य लिखना चाटुकारिता का प्रतीक है और यह चाटुकारिता प्रतीक है रचनाकार की मृत्यु का।

धार्मिक वर्चस्व

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में बौद्ध धर्म और वैदिक धर्म के आपसी संघर्ष को भी चित्रित किया गया है। इससे धर्म की असलियत सामने आ जाती है और मनुष्य के लिए इसकी उपयोगिता-अनुपयोगिता भी स्पष्ट हो जाती है। सुचरिता स्थिति का सटीक व तथ्यपूर्ण विश्लेषण इस प्रकार प्रस्तुत करती है

‘धनदत्त के गुरू भदंत वसुभूति बौद्ध धर्म को जिताकर ही छोड़ेंगे और भवभूति के प्रतिभट परमस्मार्त आचार्य मेघातिथि – जो आज की सभा के गुप्त सूत्रधार थे – सनातन धर्म को पुन: प्रतिष्ठित करके ही दम लेंगे। मनुष्य चाहे चूल्हें भाड़ में जाए, इन्हें अपने धर्म मत का डिडिम पीटना है। एक की पीठ पर राजय शक्ति है और दूसरे की हथेली में प्रजा का विद्रोह है। इस जय-पराजय की प्रतिद्वन्द्विता में मनुष्य का चाहे सत्यानाश ही क्यों न हो जाए।’

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है कि राजनीति हो अथवा धर्म, वर्चस्व की लड़ाई हर जगह चल रही है। मनुष्य की अस्मिता की चिंता न धर्म को है और न ही राजनीति को। इतिहास पर नज़र डाले तो हम देखेंगे कि सातवीं सदी में धार्मिक स्थिति अत्यंत जटिल हो चुकी थी। बौद्ध धर्म ही नहीं, वैष्णव और शाक्त सम्प्रदाय भी कई खंडों में विभाजित हो चुके थे। इसके साथ ही इनमें वर्चस्व की लड़ाई भी सतह पर आ गई थी। आत्मकथा में अंकित वैष्णव-बौद्ध संषर्घ सर्वथा इतिहास सम्मत है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि धर्म की वास्तविक चिंता मनुष्य का कल्याण और उसका सर्वतोमुखी उत्थान न होकर कहीं न कहीं राजनीति और सत्ता प्रतिष्ठान का संरक्षण पाने की थी। आज के संदर्भ में भी यह सवाल उतना ही प्रासंगिक हो गया है। धर्म जब पतनशीलता की ओर अग्रसर होता है तब उसकी यही गति होती है। वह जनता की श्रद्धा और विश्वास खो देता है। जब धर्म व्यक्ति के स्वार्थ पूर्ति का साधन बन जाए तब धर्म अपने आदर्शों से न केवल भटक जाता है बल्कि व्यक्ति के इशारे पर काम करता है।

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ अपने भाषा-विन्यास और कथन भंगिमा से हमें उस लोक में पहुँचा देती है अथवा उस लोक को हमारे बीच उपस्थित कर देती है मानो सचमुच इस मोहक लोक .. में बिधे हुए हम हर्षवर्द्धन के राजकवि की डायरी की पंक्तियाँ पढ़ रहे हों और उसके अंतर्जगत् तथा परिवेश में उतर रहे हों। सवाल उठता है कि इस उपन्यास का भट्ट क्या सचमुच हर्षकालीन बाणभट्ट है अथवा राज्याश्रय और रचनाकार की अपनी अस्मिता को सुरक्षित रखने के समकालीन संघर्ष से जूझता आजादी के पहले या बाद का प्रलोभनों के जाल में भटकता पीड़ित, पराजित और समझौते करता हुआ आज का साहित्यकार या कलाकार है? यह प्रश्न आज की तारीख में और ज्यादा पैना एवं महत्वपूर्ण हो गया है। मध्यकालीन राजसभा का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने के लिए बुद्धिजीवी की अवतारणा आवश्यक थी। राजसभाओं की उच्छृखलता, चाटुकारिता और खोखलेपन के बीच बुद्धिजीवी की स्थिति बहुत विचित्र थी। हर्षवर्द्धन द्वारा लम्पट कहा जाने पर बाणभट्ट कोधित हो जाता है लेकिन वही बाणभट्ट ‘जब राजसभा का सदस्य चुन लिया जाता है तो वह गौरवान्वित अनुभव करता है। बाणभट्ट का यह चरित्र आज के बुद्धिजीवी, रचनाकारों व कालाकारों के जीवन सत्य को उभारता है। आज न जाने कितने ही रचनाकार और ललाकार सत्ता प्रतिष्ठानों की चापलूसी और उसका आश्रय पाने में ही अपने कर्म की सार्थकता समझते हैं। इस तरह यह उपन्यास हर्षकालीन सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों का समकालीन यथार्थ के संदर्भ में अन्वेषण का एक प्रयास है।

सारांश

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में मनुष्यता का संधान और प्रेम की सामाजिक अर्थवत्ता को प्रतिपादित किया गया है। निपणिका प्रेम का उत्कर्ष है। उसका अभिनय इसी उत्कर्ष का प्रमाण है। वासवदत्ता की भूमिका में निपणिका ने तो उन्माद ही बरसा दिया। उसके हर्ष, शोक और प्रेम के अभिनय में वास्तविकता थी। उसने प्रेम की दो दिशाओं को एकत्र कर दिया। भट्टिनी और निपुणिका दोनो के प्रति बाण का प्रेमानुराग ही प्रेम की दो दिशाएँ हैं भट्टिनी की सुरक्षा और मुक्ति के प्रति आश्वस्त हो जाने के पश्चात् निपुणिका प्रेम का वह उत्कृष्ट रूप प्रस्तुत करती है, जो सामान्यतया असंभव दिखाई देता है। वह अपने प्रेम को भट्ट मे विलीन कर देती है और इस तरह दो दिशाओं में बहने वाला प्रेम एकोन्मुखी हो जाता है। दूसरी तरफ भट्ट के प्रति भट्टिनी का प्रेम इस तरह व्यक्त हुआ है

‘भट्टिनी ने सुना तो उनका मुख विवर्ण हो गया। झुकी हुई आँखों को और झुकाकर बोली – जल्दी ही लौटना।’ लेकिन बाणभट्ट की अंतरात्मा से कोई चिल्ला उठता है – ‘फिर क्या मिलना होगा’

यह कहना गलत न होगा कि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस उपन्यास में प्रेम का जो उच्चादर्श सामने रखा है उसका अंतिम क्षणों तक निर्वाह करने के लिए ही निपुणिका की मृत्यु और तदनंतर भट्टिनी से भट्ट के विछोह की योजना बनायी है। प्रेम कहीं दैहिक न हो जाए, इसके प्रति वे लगातार सतर्कता बरतते हैं।

अंत में हम इस औपन्यासिक कृति में गूंजने वाले उस मूल मंत्र की ओर लौटना चाहेंगे जिसमें अनुभव सत्य अथवा अनभयता का संदेश दिया गया है।

‘किसी से न डरना, गुरू से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’

हजारी प्रसाद द्विवेदी की इस रचनात्मक कृति की सार्थकता का सबसे बड़ा प्रमाण है उपर्युक्त संदेश, जो लोक, वेद, गुरू मंत्र की वर्जनाओं से मनुष्य को मुक्त रखने का आह्वान करता है। कोई अंतिम सत्य नहीं है। लोक और वेद भी एक सीमा के बाद अनुपयोगी और बाधक बन जाते हैं। इसीलिए जब बाण महावराह की मूर्ति को डूबने से बचाने की बात करता है तब बाबा उसे धिक्कारते हुए कहते हैं तू पाषण्डी है। यदि महावराह समुद्र में डूबी हुई पृथ्वी को उबारने की सामर्थ्य रखते हैं तो उनकी मूर्ति के जलमग्न होने पर मोह कैसा? जरूरत है मनुष्यता को डूबने से बचाने की इसीलिए बाण सचेत होकर कहता है कि, ‘मैं प्राण देकर भट्टिनी को बचाऊँगा।’ भट्टिनी की मानवता की रक्षा का महत् उद्देश्य है। भट्टिनी मानवीय मूल्यों का प्रतीक है, प्रेम और करूणा की भी। यही वे मूल्य है जो समाज को स्वस्थ दिशा में अग्रसर कर सकते हैं।

मनुष्य के जीवन मूल्य और आदर्शों की रक्षा और प्रतिष्ठा को बचाने में ही ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की सार्थकता और समसामयिक प्रासंगिकता है।

प्रश्न

  • नारी जागरण और नारी मुक्ति की दृष्टि से ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की समीक्षा करें।
  • ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में चित्रित प्रेम की विशेषतओं के संदर्भ में उपन्यासकार की प्रेम विषयक दृष्टि को स्पष्ट करें।
  • अपने रचनाकालीन सामाजिक-राष्ट्रीय संदर्भ में ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की प्रासंगिकता पर प्रकाश डालें।
  • ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में संकेतित कवि-साहित्य की स्थिति पर प्रकाश डालें।
  • एक बुद्धिजीवी के रूप में बाणभट्ट के चरित्र को समकालीन संदर्भो से जोड़कर विश्लेषित करने का प्रयास करें। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में उपन्यासकार के इतिहास बोध और उसकी समसामयिकता की समझ को रेखांकित करें।
  • ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में चित्रित नारी पात्रों की क्रांतिकारी भूमिका पर विचार करें।

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