सुमित्रानंदन पंत की काव्य-यात्रा के विविध चरण

इससे पूर्व की इकाइयों में आपने छायावाद के प्रमुख तीन स्तम्भों – प्रसाद, निराला एवं महादेवी वर्मा के काव्य-जगत का विस्तृत अध्ययन कर लिया है। प्रस्तुत इकाई में आप छायावाद के चौथे स्तम्भ – सुमित्रानंदन पंत के काव्य का अध्ययन करने जा रहे हैं ।

इसे पढ़ने के बाद आप : 

  • पंत के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से परिचित हो सकेंगे,
  • पंत की काव्य-यात्रा में आए मोड़ों के कार्य-कारण संबंध की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे,
  • छायावादी काव्य-संवेदना की प्रकृति को समझ सकेंगे,
  • पंत के छायावादी-स्वच्छंदतावादी चरण के काव्य की विशेषताओं से परिचित हो सकेंगे,
  • पंत के प्रगतिशील भाव-बोध से परिचित होकर उसकी समुचित जाँच-परख कर सकेंगे,
  • अरविन्द दर्शन के प्रभाव में अंतश्चेतना पर आधारित पंत के नव मानवतावाद की मूलभूत विशेषताओं की आलोचनात्मक छानबीन कर सकेंगे, और
  • पंत की काव्य-यात्रा के विभिन्न सोपानों की पारस्परिक संगति-असंगति का समुचित निरीक्षण परीक्षण कर सकेंगे।

छायावादी काव्यधारा को एक नयी गति देने में सुमित्रानंदन पंत की भूमिका उल्लेखनीय रही है। भाव, भाषा एवं शिल्प – सभी दृष्टियों से पंत ने छायावाद को सम्पन्न बनाया है। अपने लम्बे जीवन काल (1900 से 1977 तक) के लगभग साठ वर्षों में वे निरंतर रचनाशील रहे हैं। इनकी इस समूची काव्ययात्रा को एक सीधी-सपाट रेखा द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सकता। अपनी इस लम्बी रचना-यात्रा में कई मंजिलों से गुज़रते हुए इन्होंने विभिन्न विचारधाराओं और भावधाराओं का अनुगमन किया है। अपने कृतित्व के लिए पंत जी को यथोचित सम्मान भी मिला है। सन् 1961 में भारत सरकार द्वारा इन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया गया! उसी वर्ष इनकी काव्य कृति ‘कला और बूढा चांद’ को साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया। 1964 ई0 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दस हज़ार रूपए के विशेष पुरस्कार से अंलकृत किया गया। अपने ‘चिदम्बरा ‘ का संग्रह पर इन्हें 1969 में भारतीय ज्ञानपीठ का सर्वोच्च पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया।

छायावादी कवियों में सर्वाधिक काव्य-रचना पंत ने ही की है। इनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं, उच्छवास, वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि, ज्योत्सना, उत्तरा, रजत शिखर, शिल्पी, सौवर्ण, अतिमा, वाणी, पल्लविनी, आधुनिक कवि, कला और बूढ़ा चांद, रश्मिबंध, चिदम्बरा, समाधिता, लोकायतन, किरण वीणा, गीत हंस, पतझर : एक भाव क्रांति, गंधवीथि, सत्यकाम आदि।

विषयवस्तु की भिन्नता के बावजूद पंत के समूचे काव्य में कल्पना की स्वच्छंद उड़ान, प्रकृति के प्रति लगाव और प्रकृति तथा मानव-जीवन के कोमल और सरस पक्ष के प्रति आग्रह समान रूप से मिलेगा। अपने काव्य में कल्पना के महत्व को रेखांकित करते हुए पंत ने लिखा है, ‘मैं कल्पना के सत्य को सबसे बड़ा सत्य मानता हूँ। मेरी कल्पना को जिन-जिन विचारधाराओं से प्रेरणा मिली है, उन सबका समीकरण करने की मैंने चेष्टा की है। मेरा विचार है कि वीणा से लेकर ग्राम्या तक अपनी सभी रचनाओं में मैंने अपनी कल्पना को ही वाणी दी है, और उसी का प्रभाव उन पर मुख्य रूप से रहा है। शेष सब विचार, भाव, शैली आदि उसकी पुष्टि के लिए गौण रूप से काम करते रहे हैं। (आधुनिक कवि, पृष्ठ 39) पंत की यह मान्यता विचारणीय है। उच्छवास, ग्रंथि, गुंजन के साथ ही लोकायतन तक की बहुत सी रचनाओं के संदर्भ में पंत का उक्त कथन सही प्रतीत होता है, लेकिन यह बात युगवाणी, ग्राम्या आदि जैसी वैचारिक रचनाओं के संदर्भ में सही प्रतीत नहीं होती। इस पर हम आगे यथा-स्थान इसी इकाई में विचार करेंगे।

पंत के काव्य का समुचित विवेचन-विश्लेषण करने के लिए एक दूसरा महत्वपूर्ण विचारणीय तथ्य यह है कि इन्होंने अपने कई काव्य-संग्रहों में अपने काव्य का औचित्य सिद्ध करने के लिए लम्बी भूमिकाएँ लिखी हैं। इसकी आवश्यकता उन्हें क्यों महसूस हुई? पंत जी पर कई समीक्षकों का आरोप है कि वे ‘पेंदी के लोटा या थाली के बैंगन’ की तरह हैं, जिन्हें समय का हर झटका अपनी दिशा में लुढ़का देता है। इस आरोप की चुनौती को स्वीकार करते हुए इन्होंने ‘उत्तरा’ संग्रह की प्रस्तावना में लिखा है, ‘लेखक की कृतियों में विचार-साम्य के बदले उसके मानसिक विकास की दिशा को अधिक महत्व देना चाहिए, क्योंकि लेखक एक सजीव अस्तित्व या चेतना है और वह भिन्न-भिन्न समय पर अपने युग के स्पर्शों तथा संवेदनाओं से आंदोलित होता रहता है।’ (पृष्ठ 2) पंत की परिवर्तनशीलता तथा उक्त मान्यता की सार्थकता पर आगे इसी इकाई में यथोचित स्थान पर विचार किया जाएगा।

पंत जी के समग्र कृतित्व को ध्यान में रखकर इनकी काव्य-यात्रा को विभिन्न मोड़ों या चरणों में विभाजित किया जा सकता है :

  • छायावादी या स्वच्छंदतावादी चरण 
  • समाजनिष्ठ प्रगतिशील-मार्क्सवादी चरण
  • अरविंद दर्शन पर आधारित समन्वयवादी चरण

इन पर अलग-अलग विचार कर पंत जी की काव्य-यात्रा के विभिन्न सोपानों की विशेषताओं को आप आसानी से समझ सकते हैं।

पंत की काव्य यात्रा के विविध चरण

प्रथम चरण : छायावाद-स्वच्छंदतावाद

जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा से सम्बद्ध इकाइयों में आप छायावाद की मूलभूत विशेषताओं से परिचित हो चुके हैं। छायावाद का प्रमुख गुण व्यक्तिवाद पर टिकी आत्मानुभूति या आत्माभिव्यक्ति है। अपनी आशा-निराशा, प्रेम, विरह, व्यथा, सौंदर्यानुभूति के अनेकशः मनोरम चित्र इस युग के कवियों में मिलते हैं। वैयक्तिक स्वतंत्रता की भावना और भारतीय मुक्ति अलन से छायावादी कवियों ने जो सबसे महत्वपूर्ण चीज़ प्राप्त की वह है, मानसिक स्वाधीनता।  समाज के विभिन्न क्षेत्रों में इस स्वाधीनता की अभिव्यक्ति संभव नहीं थी, अतः इस युग के यों ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्वच्छंद कल्पना और प्रकृति का सहारा लिया। इनके माध्यम से अनेक रूढ़ियों, विधि-निषेधों तथा जर्जर परंपराओं से मुक्ति का इन्हें अत्यंत सुगम मार्ग मिला। इस तथ्य को पंत के छायावादी काव्य में भी आप आसानी से देख सकेंगे।

पंत का प्रकृति चित्रण

प्रकति के प्रति अगाध प्रेम और कल्पना, की ऊँची उड़ान पंत के काव्य की प्रमुख विशेषता मानी जा सकती है। छायावाद के अन्य कवियों- प्रसाद, निराला और महादेवी से भिन्न पंत का प्रकृति प्रेम एक ठोस वस्तुगत सच्चाई पर आधारित है। यह सच्चाई है इनका निजी प्राकृतिक परिवेश। कूर्माचल प्रदेश, विशेष रूप से कौसानी गाँव का सुरम्य प्राकृतिक वातावरण, जहाँ पंत पैदा हुए, इनकी काव्य प्रेरणा का प्रमुख स्रोत रहा है। यह प्राकृतिक परिवेश किसी अन्य छायावादी कवि को नहीं मिला था। इसका उल्लेख करते हुए पंत ने लिखा हैं, ‘कविता की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति-निरीक्षण से मिली है, जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि कूर्मांचल प्रदेश को है। कवि-जीवन से पहले भी, मुझे याद है, मैं घंटों एकांत में बैठा, प्राकृतिक दृश्यों को एकटक देखा करता था। …. प्रकृति के साहचर्य ने जहाँ एक ओर मुझे सौंदर्य, स्वप्न और कल्पनाजीवी बनाया, वहाँ दूसरी ओर जनभीरू भी बना दिया।’ (आधुनिक कवि, पृष्ठ 2)

पंत का यह साहचर्यजन्य प्रकृति-प्रेम उनकी प्रथम रचना ‘वीणा’ से लेकर ‘लोकायतन ‘ नामक महाकाव्य तक में समान रूप से देखा जा सकता है। अपने कवि जीवन के आरंभिक दौर में पंत प्राकृतिक सौंदर्य से इतने अभिभूत थे कि नारी सौंदर्य के आकर्षण को भी उसके सम्मुख न्यून मान लिया था : ..

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया

तोड़ प्रकृति से भी माया,

बाले, तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूं लोचन ।

पंत के यहाँ प्रकृति निर्जीव जड़वस्तु होकर एक साकार और सजीव सत्ता के रूप में उपस्थित हुई है। उसका एक-एक अणु, प्रत्येक उपकरण कवि-मन में जिज्ञासा उत्पन्न करता है। संध्या, प्रातः, बादल, वर्षा, वसंत, नदी, निर्झर, भ्रमर, फूल, तितली, पक्षी आदि सभी उसके मन को आंदोलित करते हैं। यहाँ संध्या का एक जिज्ञासापूर्ण चित्र दर्शनीय है :

कौन, तुम रूपसि कौन?

व्योम से उतर रही चुपचाप

छिपी निज छाया में छवि आप,

सुनहला फैला केश कलाप

मधुर मंथर मृदु, मौन!

इस पूरी कविता में संध्या को एक आकर्षक युवती के रूप में मौन, मंथर गति से पृथ्वी पर पदार्पण करते हुए दिखा कर कवि ने संध्या का मानवीकरण किया है। प्रकृति का यह मानवीकरण छायावादी काव्य की एक प्रमुख विशेषता है। चाँदनी, बादल, छाया, ज्योत्सना, किरण आदि प्रकृति से संबंधित अनेक विषयों पर पंत ने स्वतंत्र रूप से कविताएँ लिखी हैं। इनमें प्रकृति के दुर्लभ मनोरम चित्र प्रस्तुत हुए हैं। पंत की बहुत सी प्रकृति संबंधी कविताओं में उनकी जिज्ञासा-भावना के साथ ही रहस्य भावना भी व्यक्त हुई है। ‘प्रथम रश्मि’, ‘मौन निमंत्रण’ आदि जैसी बहुत सी कविताएँ तो मात्र जिज्ञासा भाव को ही व्यक्त करती हैं। इसके लिए प्रथम रश्मि का एक उदाहरण पर्याप्त होगा :

प्रथम रश्मि का आना रंगिणी!

तूने कैसे पहिचाना?

कहाँ-कहाँ हे बाल विहंगिनि!

पाया तूने यह गाना।

इसी तरह मौन निमंत्रण में भी कवि की किशोरावस्था की जिज्ञासा ही प्रमुख है। लेकिन पंत की प्रकृति से सम्बद्ध ऐसी बहुत सी कविताएँ भी हैं, जिनमें इनके गहन एवं सूक्ष्म निरीक्षण के साथ ही इनकी आध्यात्मिक मान्यताएँ भी व्यक्त हुई हैं। इस दृष्टि से ‘नौका विहार’, ‘एक तारा’ आदि कविताएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। यहाँ उदाहरण के लिए संध्या का एक चित्र है :

गंगा के चल जल में निर्मल, कुम्हला किरणों का रक्तोत्पल,

है मूंद चुका अपने मृदु दल।

लहरों पर स्वर्ण रेख सुंदर पड़ गयी नील, ज्यों अधरों पर,

अरूणाई प्रखर शिशिर से डर।

यहाँ गंगा के चंचल जल में रक्तोत्पल (लाल कमल) के समान सूर्य के बिम्ब का डूबना और गंगा की लहरों पर संध्या की सुनहली आभा का धीरे-धीरे नीलिमा में परिवर्तित होना आदि कवि के सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण और उसकी गहन रंग-चेतना का परिचायक है। लेकिन कविता के अंत में कवि ने एक तारे के बाद बहुत से तारों के उदय को ‘वह आत्म और यह जग दर्शन ‘ कहकर ‘एकोडहं बहुस्यामि’ की दार्शनिक मान्यता को भी प्रतिपादित कर दिया है। इसी तरह ‘नौका विहार’ में भी कवि ने ग्रीष्मकालीन गंगा का एक तापस बाला के रूप में भावभीना चित्रण करते हुए अंत में जगत की शाश्वतता का स्पष्ट संकेत किया है।

पंत का लगाव प्रकृति के कोमल और मनोरम स्वरूप के प्रति ही अधिक रहा है। लेकिन कभी-कभार इनकी दृष्टि यथार्थ से प्रेरित होकर प्रकृति के कठोर रूप की ओर भी गयी है। वर्षाकालीन रात्रि का एक चित्र है :

पपीहों की यह पीन पुकार/

निर्झरों की भारी झरझर/

झींगुरों की झीनी झनकार/

घनों की गुरू गंभीर घहर बिंदुओं की छनती छनकर/

दादुरों के वे दुहरे स्वर।

इसी प्रकार वायु वेग से झकझोरे गए भीमाकार नीम के वृक्ष की स्थिति को कवि ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है :

झूम-झूम झुक झुक कर/ भीम नीम तरू निर्भर

सिहर-सिहर थर् थर् थर्/ करता सर् मर्/ चर् मर।

अपनी ‘कलख’ शीर्षक कविता में पंत जी ने संध्या का यथार्थ, किंतु अत्यंत भावप्रवण चित्र इस प्रकार प्रस्तुत किया है :

बांसों का झुरमुट -/ संध्या का झुटपुट -/

हैं चहक रहीं चिड़ियाँ/ टी वी टी – टुट् टुट्!

ये नाम रहे निज घर का मग

कुछ भ्रमजीवी धर डगमग डग,

माटी है जीवन! भारी पग!

यहाँ बांसों के झुरमुट में चहकती हुई चिड़ियों और भारी पग तथा उदास मन से अपने घरों को लौटने वाले मज़दूरों की विरोधपूर्ण स्थिति के माध्यम से कवि ने संध्या का अत्यंत व्यंजक स्वरूप प्रस्तुत किया  है

नारी सौंदर्य और प्रणय भाव

प्राकृतिक सौंदर्य की भाँति ही कविवर पंत की दृष्टि नारी-सौंदर्य की ओर भी आकृष्ट हुई है। ‘पल्लविनी’ में संग्रहीत ‘ग्रंथि’ ‘आँसू’ और ‘नारी रूप’ शीर्षक कविताएँ पंत के प्रेम और उनकी नारी विषयक मान्यताओं के ज्वलंत दस्तावेज हैं। अपनी ‘आंसू’ शीर्षक कविता में इन्होंने लिखा है :

वियोगी होगा पहिला कवि, आह से उपजा होगा गान,

उमड़कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान |

इस कविता में कति ने प्रकृति के अनन्त विस्तार में अपनी प्रेमजनित व्यथा को ही व्याप्त चित्रित किया है। वायु, बादल, आकाश, इन्द्रधनु आदि प्रकृति के तमाम उपकरण इनकी विरह वेदना को उद्दीप्त करते हैं। इस वरदान स्वरूप व्यथा में कल्पना की ऊँची उड़ान के कारण लौकिक प्रेम की यथार्थ भूमि का परित्याग कर पंत की दिव्यता का आदर्श ही अधिक प्रस्तुत हुआ है। छायावादी कवियों में प्रसाद और महादेवी का प्रेम-दर्शन भी ऐसा ही रहा है। इस कविता में पंत ने महादेवी के स्वर में स्वर मिलाकर लिखा है :

विरह है अथवा यह वरदान,

कल्पना में है कसकती वेदना,

अश्रु में जीता सिसकता गान है,

शून्य आहों में सुरीले छंद हैं,

मधुर लय का क्या कहीं अवसान है।

लेकिन यहाँ पंत की प्रमुख चिंता यह है कि :

हाय किसके, उर में उतारूँ अपने उर का भार!

किसे अब दूं उपहार गूंथ यह अश्रुकणों का हार!!

मूंद पलकों में प्रिया के ध्यान को,

थाम ले अब, हृदय! इस आह्वान को!

त्रिभुवन की भी तो श्री भर सकती नहीं,

प्रेयसी के शून्य, पावन स्थान को!!

पंत की छायावादी युग की इन कविताओं में प्रणय वेदना के अनेकशः ऐसे चित्र मिलेंगे, जिनमें शारीरिक सम्पर्क या मांसलता की अपेक्षा सूक्ष्मता और दिव्यता के दर्शन होते हैं। अपनी ‘नारी रूप शीर्षक कविता में पंत ने नारी सौंदर्य और उसके गुणों का गान करते हुए अंत में उसे – ‘देवि! माँ! सहचरि/प्राण! ‘ की संज्ञा से संबोधित किया है। ‘स्वर्ण किरण’ (1947) तक आते-आते इनका प्रेम पूर्णतः अशरीरी और अलौकिक रूप ग्रहण कर लेता है :

देह नहीं है परिधि प्रणय की,

प्रणय दिव्य है मुक्ति हृदय की।

लेकिन अपनी यौवनावस्था के प्रथम चरण में रचित पंत की बहुत सी कविताएँ इनकी निजी प्रेमानुभूति पर आधारित हैं। इस विषय में डॉ0 नगेन्द्र का यह कथन सही प्रतीत होता है कि ‘हाँ, इतना अवश्य प्रतीत होता है कि उनकी ‘उच्छवास’, ‘आँसू और ‘ग्रंथि’ शीर्षक कविताएँ किसी विशेष प्रेरणा-भार से दब कर लिखी हुई हैं और इनमें आत्मजीवन संबंधी कुछ स्पर्श अवश्य हैं।’ (सुमित्रानंदन पंत, पृष्ठ 80) वस्तुतः ये तीनों कविताएँ प्रसाद के ‘आँसू’ की भाँति प्रणय-काव्य हैं, जिनमें संयोग की काल्पनिक स्मृतियाँ विरह-व्यथा के रूप में अत्यंत विह्वल भाव से अभिव्यक्त हुई हैं। सब मिलाकर पंत की प्रणयभावना और नारी विषयक दृष्टि अन्य छायावादी कवियों की तरह सूक्ष्म और मानसिक अधिक है, जिसमें स्थूल शारीरिक आकर्षण का सर्वथा अभाव है।

कल्पना की ऊँची उड़ान

प्रकृति के प्रति गहन आकर्षण और प्रणयानुभूति की तीव्रता के साथ ही छायावादी काव्य में कल्पना की ऊँची उड़ान अपना विशेष महत्व रखती है। चाहे प्रकृति का क्षेत्र हो या प्रणय का – छायावादी कवियों ने अपनी स्वाधीनता या मुक्ति की भावना की पूर्ति स्वच्छंद कल्पना के माध्यम से ही की है। कल्पना के सहारे इन कवियों ने प्रकृति और प्रणय के संबंध में अनेक जिज्ञासाएँ प्रकट करते हुए नवीनतम उद्भावनाएँ की हैं। इस स्वच्छंद कल्पना ने जहाँ छायावादी काव्य को स्वप्नजीवी बनाया वहीं स्थूल वस्तुओं और घटनाओं से परे जाकर उनके अनेक संभावित रूपों का उद्घाटन भी किया और उन्हें चेतन तथा सजीव बनाया। पंत के काव्य में कल्पना की यह भूमिका विशेष रूप में रेखांकित हुई है। इसके लिए ‘बादल’ शीषर्क कविता का उदाहरण लिया जा सकता है :

सुरपति के हम ही हैं अनुचर/ जगत्प्राण के भी सहचर,

मेघदूत की सजल कल्पना/ चातक के चिर जीवनधर।

यहाँ बादल एक सजीव सत्ता के रूप में अपना परिचय देता है, लेकिन आगे चलकर कवि की कल्पना के घटाटोप में वह दिव्य रूप धारण कर लेता है :

धीरे-धीरे संशय-से उठ, बढ़ अपयश-से शीघ्र अछोर,

नभ के उर में उमड़ मोह से,फैल लालसा से निशि-भोर।

इन्द्रचाप-सी व्योम-भृकुटि पर,लटक मौन चिन्ता से घोर,

घोष भरे विप्लव-भय से हम,  छा जाते द्रुत चारों ओर।

बादल का संशय की तरह धीरे-धीरे उठना, अपयश की भांति शीघ्र चारों तरफ फैल जाना, आकाश के हृदयों में मोह की तरह उमड़ना, लालसा की तरह व्याप्त होना, इन्द्रधनुष के समान आकाश की भौहों पर मौन चिंता की तरह लटकना और विप्लव की घनघोर आवाज़ से उत्पन्न भय की तरह चारों ओर फैल जाना, उसे एक सजीव सत्ता के रूप में प्रस्तुत करता है। संशय, अपयश, मोह, लालसा, चिन्ता, भय आदि अमूर्त और सूक्ष्म भावों के माध्यम से यहाँ बादल के मूर्त रूप को अत्यंत भाव प्रवण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। छाया, संध्या, चांदनी, प्रातः आदि प्राकृतिक स्थितियों के चित्रण में भी पंत ने अपनी इस कल्पना प्रवणता का अनूठा परिचय दिया है।

प्रकृति के कल्पना प्रसूत सम्मूर्तन के साथ पंत ने मानुषी सौंदर्य का भी अत्यंत कल्पना प्रवण चित्रण किया है। ‘भावी पत्नी के प्रति’ शीर्षक कविता में प्रिया की स्मृति का एक चित्र है :

मृदुल मधुपों का मृदु मधुमास, स्वर्ण, सुख, श्री, सौरभ का सार,

मनोभावों का मधुर विलास, विश्व सुषमा का ही संसार,

दृगों में छा जाता सोल्लास, व्योम बाला का शरदाकाश,

तुम्हारा आता जब प्रिय ध्यान, प्रिये, प्राणों की प्राण।’

यहाँ कवि ने प्रिया की स्मृति को कल्पना के जिस लोक में संचरित कराया है, वह अपने आप में अदभूत है। अभिव्यक्ति की यह कल्पना प्रवण पद्धति छायावाद की लाक्षणिक-शैली के रूप में विख्यात है। प्रणय-भावना की अभिव्यक्ति में भी पंत जी ने कल्पना का प्रायः इसी तरह उपयोग किया है।’ग्रंथि’ शीर्षक कविता से प्रणय-वेदना का एक कल्पना चित्र यहाँ दर्शनीय है :

आज मैं सब भाँति सुख सम्पन्न हूँ, वेदना के इस मनोरम विपिन में,

विजय छाया में द्रुमों की, योग सी, विचरती है आज मेरी वेदना।

विपुल कुंजों की सघनता में छिपी, ऊँघती है नींद-सी मेरी स्पृहा,

ललित लतिका के विकंपित अधर में, कांपती है आज मेरो कल्पना।

छायावाद के अन्य कवियों की भाँति ही यहाँ वेदना से संबद्ध पंत की कल्पना कुछ मूर्त-अमूर्त अप्रस्तुतों की योजना तक सीमित कल्पना नहीं है। इसमें वस्तुगत यथार्थ के प्रति आग्रह कम और वेदना के भावावेग पर अधिक जोर है। छायावादी अन्य कवियों की भाँति ही पंत ने भी कल्पना के साथ स्मृति को कुशलता से संयुक्त किया है। स्मृति का संबंध पूर्व अनुभव से होता है, जिसे कल्पना एक नया रूप-रंग प्रदान करती है। पंत की छायावादी दौर की आरंभिक कविताओं में स्मृतिमूलक कल्पना-चित्रों की बहुलता है। इसे ‘ग्रंथि’ के साथ ही ‘उच्छवास’, ‘आँसू’ कविताओं में भी देखा जा सकता है।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि पंत के प्रथम चरण की कविताओं में छायावाद की स्वच्छंदतावादी अंतर्बाह्य विशेषताएँ अपनी समग्रता के साथ वर्तमान हैं। अतः इन्हें प्रसाद की भाँति ही छायावाद का प्रतिनिधि कवि स्वीकार किया गया है।

द्वितीय चरण : प्रगतिवादी जीवन-बोध

‘गुंजन’ (1932) में पंत ‘सुंदर है विहग, सुमन सुंदर/ मानव तुम सबसे सुंदर’ लिखकर छायावाद के कल्पना लोक से मुक्ति का आभास दे चुके थे। लेकिन ‘युगांत’ (1936) में इन्होंने बाकायदे अपने छायावादी चरण के अंत की घोषणा की है। इस घोषणा का विस्तृत दस्तावेज इनके द्वारा संपादित ‘रूपाभ’ पत्रिका का पहला अंक (1938) है। इसमें छायावाद के स्थान पर प्रगतिवाद की अनिवार्यता को रेखांकित करते हुए पंत ने लिखा है, ‘कविता के स्वप्न-भवन को छोड़कर हम इस खुरदुरे पथ पर क्यों उतर आए, इस संबंध में दो शब्द लिखना आवश्यक हो जाता है। इस युग में जीवन की वास्तविकता ने जैसा उग्र आकार धारण कर लिया है, उससे प्राचीन विश्वासों में प्रतिष्ठित हमारे भाव और कल्पना के मूल हिल गए हैं।

अतएव इस युग की कविता स्वप्नों में नहीं पल सकती। उसकी जड़ों को अपनी पोषण-सामग्री ग्रहण करने के लिए कठोर धरती का आश्रय लेना पड़ रहा है। … यदि हमें सत्य के प्रति वास्तविक उत्साह है तो हम अपने महान उत्तरदायित्व की अवहेलना नहीं कर सकते।हमारा निश्चित ध्येय प्रगति की शक्तियों को सक्रिय योग देना होगा।’ इस कथन से स्पष्ट है कि पंत एक कवि के रूप में अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वाह की भावना से प्रेरित होकर प्रगतिवादी साहित्यांदोलन से जुड़े।

अपनी युगानुकूलता और प्रगतिवादिता के संकेत पंत ने अपनी 1934-36 में रवित कविताओं के संग्रह ‘युगांत’ में ही दे दिए हैं। पुराने युग की समाप्ति और नये युग की अनिवार्यता को रेखांकित करते हुए कवि ने युगवाणी में लिखा है :

द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र, हे स्रस्त ध्वस्त, हे शुष्क शीर्ण,

हिम-ताप-पीत मधुवान-भीत, तुम वीतराग जड़ पुराचीन;

निष्प्राण विगत-युग मृत विहंग, जग-नीड़ शब्द औ श्वासहीन,

च्युत अस्त-व्यस्त पंखों से तुम, झर झर अनंत में हो विलीन।

कवि इस संग्रह में छायावादी पतझर के बाद नयी वासंती प्रकृति का आह्वान करने लगता है। पतझर के साथ ही विहग-समूह भी उसके लिए नवयुग के स्वागतकर्ता बन जाते हैं। रात के अंधकार के बाद उषा की लालिमा में वह कोकिल का आह्वान करते हुए कहता है :

गा कोकिल बरसा पावक कण, नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन,

ध्वंस-भ्रंश जग के जड़ बंधन, पावक पग धर आवे नूतन,

हो पल्लवित नवल मानवपन।

इस प्रकार की कविताओं में पंत अपनी छायावादी रचना-दृष्टि से विदा होने की सूचना मात्र न देकर दत्तचित नये के स्वागत के लिए तमाम सारे उपकरणों को एकत्र करने में भी दत्तचित्त हुए हैं। ‘युगांत’ में इनकी वैयक्तिकता सामाजिकता में परिवर्तित हो गयी है। ‘युगवाणी’ में इनका नवयुग साम्यवादी युग में रूपांतरिता होता दिखाई देता है। ‘युगवाणी’ की कविताओं में पंत ने मार्क्स के ऐतिहासिक और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सैद्धांतिक और व्यावहारिक महत्व का प्रतिपादन भी किया है। इनके अनुसार मार्क्स ने अपने वैज्ञानिक-सामाजिक विश्लेषण से पहली बार इस सच्चाई को उजागर किया है कि मानव-सभ्यता का इतिहास केवल कुछ शूरवीरों की कहानी; राजाओं की विजय लालसा या सुंदरियों का भृकुटि-विलास न होकर साधारण जनता के कठोर श्रम का फल है :

साक्षी है इतिहास, किया तुमने दंदुभि से घोषित

प्रकृति विजित कर, मानव ने की विश्व सभ्यता स्थापित।

धन्य मार्क्स! चिर तमच्छन्न पृथ्वी के उदय शिखर पर,

तुम त्रिनेत्र के ज्ञान चक्षु से प्रकट हुए प्रलयंकर!

– मार्क्स के प्रति

अपनी ‘भूतदर्शन कविता में पंत ने मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवादी-दर्शन के महत्व को स्वीकार कर राष्ट्र, जाति, आदर्श, धर्म को मानव-जीवन के लिए स्वर्ण-पाश (सुनहला बंधन) सिद्ध करते हुए साम्यवाद को सम्पूर्ण मानवता की मुक्ति का मार्ग माना है :

कहता भौतिकवाद, वस्तु जगत का कर तत्वान्वेषण

भौतिक भव ही एक मात्र मानव का अन्तर्दर्पण।

………….

साम्यवाद के साथ स्वर्ण युग करता मधुर पदार्पण,

मुक्त निखिल मानवता करती मानव का अभिनंदन।

लेकिन पंत ने साम्यवाद और भौतिकवाद को अपनी सांस्कृतिक चेतना और आध्यात्मवादी बोध की परिधि में ही स्वीकार किया।. उसे संपूर्ण मानव-सत्ता की प्रतिष्ठा या मानव के सम्पूर्ण उत्थान का एकमात्र दर्शन नहीं माना :

मनुष्यत्व का तत्व सिखाता निश्चय हमको गांधीवाद,

सामूहिक जीवन-विकास की साम्य-योजना है अविवाद।

– समाजवाद और गांधीवाद,

फलस्वरूप अपनी अंतिम परिणति में पंत भौतिकवाद के साथ गांधीवाद और आध्यात्मवाद के समन्वय में जुट जाते हैं। संकीर्ण भौतिकवादियों पर अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए इन्होंने लिखा है :

आत्मवाद पर हँसते हो भौतिकता का रट नाम?

मानवता की मूर्ति गढ़ोगे तुम संवार कर चाम?

‘ संकीर्ण भौतिकवादियों के प्रति,

‘युगवाणी’ में पंत ने वर्ग-विभाजित सामाजिक विषमता को ध्यान में रखकर भारतीय समाज का वर्गविश्लेषण भी किया है। इस क्रम में उन्होंने. अपनी ‘धनपति’ शीर्षक कविता में पूँजीवादी शोषण की प्रवृत्ति का विरोध करते हुए लिखा है :

वे नृशंस हैं : वे जन के श्रमबल से पोषित,

दुहरे धनी, जोंक जग के, भू जिनसे शोषित,

नहीं जिन्हें करनी भ्रम से जीविका उपार्जित

नैतिकता से भी रहते जो अतः अपरिचित।

मध्य-वर्ग पंत जी की दृष्टि से ‘गत संस्कृति का दास’ और ‘विचित्र विश्वास विधायक’ लगता है। बुर्जुआ बुद्धिजीवी को वे ‘भोगशील, धनपतियों का स्पर्धी, आत्मबद्ध, संकीर्ण हृदय, वाक्पटु, अपनी बुद्धि पर घमंड करने वाला अत्यंत निर्बल मानते हैं। अपनी ‘कृषक’ शीर्षक कविता में इन्होंने किसान को इस रूप में प्रस्तुत किया है :

युग युग का यह भारवाह, आकटि नत मस्तक,

वज्र मूढ़, जड़भूत, हठी, वृष-बांधव कर्षक

ध्रुव ममत्व की मूर्ति, रूढ़ियों का वह रक्षक!

कर जर्जर, ऋणग्रस्त, स्वल्प पैत्रिक स्मृति भू-धन,

निखिल दैन्य, दुर्भाग्य, दुरित, दुख का जो कारण।

ऐसे कृषक समाज के उद्धार को इन्होंने मात्र सद्भावनापूर्ण कल्पना मानते हुए सामूहिक कृषि द्वारा ही उसके कायाकल्प में विश्वास प्रकट किया है। अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठनबद्ध आंदोलन करने वाली किसान-शक्ति के वास्तविक महत्व को पंत जी ने नज़रअंदाज़ किया है। 1936-37 तक अवध के किसानों ने, विशेषकर पंत की नगरी इलाहाबाद के आस-पास के किसानों ने जो क्रांतिकारी माहौल पैदा किया था, उससे भी पंत जी अनभिज्ञ लगते हैं। रूस के सामाजिक रूपांतरण में किसानों की भूमिका और चीन की क्रांति में बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे किसानों का वर्गचरित्र भी इनके सामने नहीं था। अतः लगता है कि इनका वर्ग विश्लेषण केवल मार्क्सवादी दर्शन के सैद्धांतिक चिंतन पर ही आधारित था।

‘युगांत’ की श्रमजीवी शीर्षक कविता में पंत ने सर्वहारा के रूप में मजदूरों का अत्यंत भव्य एवं गौरवपूर्ण चरित्र अंकित किया है। इन्होंने मज़दूरों को ‘कर्दम (कीचड़) पोषित’ होने पर भी ‘पवित्र’, ‘शोषित होने पर भी निर्माता, ‘अशिक्षित’ होने पर भी शिक्षितों से अधिक शिक्षित, दृढ़ चरित्र, दुख सहिष्णु, अभयचित्त आदि बताते हुए अंत में लिखा है :

लोक क्रांति का अग्रदूत, वरवीर, जनादृत,

नव्य सभ्यता का उन्नायक, शासक, शोषित!

चिर पवित्र वह : भय, अन्याय,  घृणा से पालित,

जीवन का शिल्पी, – पावन श्रम से प्रक्षालित।

यह सही है कि सर्वहारा के रूप में श्रमिक-वर्ग समाज का सबसे क्रांतिकारी वर्ग होता है, लेकिन भारतीय परिस्थितियों में औद्योगिक मज़दूरों की संख्या इतनी कम थी कि उनसे किसी बड़ी क्रांति की आशा नहीं की जा सकती थी। उस समय ग्रामीण जनता का एक बहुत बड़ा हिस्सा कृषि मज़दूर के रूप में अपना जीवन बिता रहा था। बहुत से स्थानों पर कृषक आंदोलन ने उग्र रूप भी धारण किया था। लेकिन यह ठोस वास्तविकता पंत जी के सामने नहीं थी। इसलिए वे अपनी ‘घननाद’ (हथौड़े का गर्जन) कविता में भी हँसिए की भूमिका को नज़रअंदाज कर, हथौड़े की आवाज़ से निकलने वाली चिनगारी के आधार पर श्रमिकों का आह्वान करते हैं :

अग्नि स्फुलिंगों का कर चुंबन/ जाग्रत करता दिग विंगत घन/

जागों श्रमिकों, बनो सचेतन/ भू के अधिकारी हैं श्रमजन/

मांसपेशियाँ हृष्ट-पुष्ट घन/ बटी शिराएँ, श्रम बलिष्टतन/

चिर लावण्यपूर्ण श्रम के कण/ ठड्., ठड्.-ठन्।

वस्तुतः ‘युगवाणी’ में पंत ने अपने को छायावादी संस्कारों से सायास मुक्त करने का प्रयास करते हुए ‘ग्राम्या’ की रचना के लिए अपने को तैयार किया है। अपनी ‘ग्राम’ कविता में गाँव के सामाजिक ऐतिहासिक महत्व को इन्होंने इस प्रकार रेखांकित किया है :

वृहद् ग्रंथ मानव जीवन का, काल ध्वंस से कवलित,

ग्राम आज है पृष्ठ जनों की करूण-कथा का जीवित,

युग-युग का इतिहास सभ्यताओं का इसमें संचित,

संस्कृतियों की ह्रास-वृद्धि जन शोषण से रेखांकित।

मानव जीवन के वृहद् ग्रंथ का साधारण जनों की करूण कथा से परिपूर्ण एक उपेक्षित पृष्ठ के रूप में गाँव का स्मरण करते हुए पंत ने ग्राम्या में घोषणा की है :

देख रहा हूँ आज विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,

सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से।

मनुष्यत्व के मान वृथा, विज्ञान वृथा रे दर्शन,

वृथा, धर्म, गणतंत्र, – उन्हें यदि प्रिय न जीव जन जीवन!

– ग्राम दृष्टि

अपनी इस ग्राम दृष्टि को पंत जी ने ‘ग्राम कवि’, ‘कवि किसान’, ‘ग्राम चित्र’, ‘ग्राम’ आदि कविताओं के माध्यम से साकार किया है। ‘ग्राम युवती’, ‘ग्राम नारी’, ‘कठपुतले’, ‘भारत ग्राम’, ‘ग्राम देवता’, ‘भारत माता’ आदि कविताओं में कवि ने अपनी अशेष सहानुभूति और ममता से परिपूर्ण गाँव और ग्रामीण जनता के प्रति श्रद्धांजलि प्रस्तुत की है। लेकिन गाँवों की वास्तविक जीवंतता और ग्रामवासियों की यथार्थ धड़कन ‘धोबियों का नृत्य’, ‘कहारों का रूद्र नृत्य’, ‘चमारों का नाच’, ‘नहान’ आदि कविताओं में ही प्राप्त होती है। अपने जीवन के विषाद को गाँव के पद्दलित लोग किस तरह फूंक मार कर उड़ा देते हैं, इसका यथार्थ चित्र कवि ने ‘चमारों का नाच’ शीर्षक कविता में प्रस्तुत किया है। नाच-मण्डली का मसखरा (विदूषक) अपने मन और जातीय जीवन की सारी कसक को निकालते हुए लोगों का किस प्रकार मनोरंजन करता है, इसकी एक झलक यहाँ प्रस्तुत है :

जमींदार पर फब्ती कसता

बाम्हन, ठाकुर पर हैं हँसता

बातों में बक्रोक्ति काकु औं’

श्लेष बोल जाता वह सस्ता

कल-काँटा को कह कलकत्ता –

ये समाज के नीच अधम जन,

नाच कूद कर बहलाते मन

वर्णों के पद्दलित चरण ये

मिटा रहे निज कसक और कुढ़न

कर उच्छृखलता उद्धतपन।

पंत ने अपनी ‘ग्राम्या’ में रूढियों, अंधविश्वासों, वर्णव्यवस्था, जातीय ऊँच-नीच की भावना, कर्मफल और भाग्यवाद को कृषक जीवन का अभिशाप बताते हुए किसानों के सहज और छल-कपट-रहित जीवन के प्रति गहरी सहानुभूति जगाने का उल्लेखनीय प्रयास किया है।

वस्तुतः ‘ग्राम्या ‘ पंत के पूर्णतः परिवर्तित भाव बोध की वाहिका है। इसमें उनकी प्राकृतिक सौंदर्य विषयक मान्यता ही नहीं, नारी और प्रणय विषयक मान्यताओं में भी आमूल परिवर्तन दिखायी देता है। ‘संध्या के बाद’, ‘खिड़की से’, ‘स्वीट पी’, ‘पतझर’, ‘आंगन से’, ‘गुलदावदी’, ‘नक्षत्र’ आदि प्रकृति से संबंधित कविताओं के साथ ही ‘ग्राम नारी’, ‘ग्राम युवती’, ‘वे आंखें’, ‘स्त्री’, ‘आधुनिका’, ‘मज़दूरनी के प्रति’, ‘नारी’ आदि कविताओं में इस तथ्य को आसानी से देखा जा सकता है।

‘युगांत’, ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में व्यक्त प्रगतिशील चेतना के बाद ‘स्वर्ण किरण’ (1947) और ‘स्वर्णधूलि ‘ (1948) से लेकर ‘लोकायतन’ (1964) तक पंत की काव्य-यात्रा का जिस दिशा में विकास हुआ है, उसे लेकर उनके आलोचकों में पर्याप्त विवाद है। इस विवाद में इनकी प्रगतिशीलता पर भी प्रश्न-वाचक चिह्न लगाया गया है। इस दृष्टि से पंत की रचना-प्रक्रिया के संबंध में कुछ तथ्यों का संकेत करना आपके लिए उपयोगी होगा। इसके लिए ‘ग्राम्या’ के संक्षिप्त निवेदन को आधार बनाया जा सकता है। निवेदन में पंत ने लिखा है, ‘इसमें (ग्राम्या में) पाठकों को ग्रामीणों के प्रति केवल बौद्धिक सहानुभूति ही मिल सकती है। ग्राम जीवन में मिलकर, के भीतर से, ये (कविताएँ) अवश्य नहीं लिखी गयी हैं। ग्रामों की वर्तमान दशा में वैसा करना केवल प्रतिक्रियात्मक साहित्य को जन्म देना होता।’

पंत के उपर्युक्त कथन से दो तथ्य उभर कर हमारे सामने आते हैं। पहला तो यह कि इन्होंने ग्रामीण जीवन से घुल-मिल कर ‘ग्राम्या’ की रचना नहीं की है, अतः ग्रामीणों के प्रति व्यक्त सहानुभूति मात्र बौद्धिक सहानुभूति है। लेकिन कल्पनाश्रित प्रसरणशील सहानुभूति के माध्यम से पंत ने ग्राम और ग्रामीण जीवन के जो मार्मिक चित्र उपस्थित किए हैं, उनके उद्धार की जो शुभकामनाएँ व्यक्त की हैं.

उससे इनकी प्रगतिवादिता पर कोई प्रश्न-चिह्न नहीं लगाया जा सकता। इस संबंध में जो दूसरा विचारणीय तथ्य है, वह यह कि वर्तमान दुर्दशाग्रस्त ग्रामीण जीवन के साथ घुल मिलकर साहित्य की रचना करना प्रतिक्रियात्मक साहित्य को जन्म देना होता।’ यहाँ पंत की ‘प्रतिक्रियात्मक साहित्य’ संबंधी अवधारणा विचारणीय है। इस दृष्टि से देखें तो प्रेमचंद के साथ ही नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि बहुत सारे प्रगतिशील साहित्यकारों द्वारा लिखा गया साहित्य प्रतिक्रियात्मक कहा जाएगा। क्योंकि इन लेखकों-कवियों ने ग्रामीण जनजीवन के साथ एकमेक होकर अपनी रचनाएँ की हैं।

साहित्य के संबंध में पंत की यह दृष्टि संकुचित और दोषपूर्ण मानी जा सकती है। क्योंकि समाज और सामाजिक जीवन के प्रति कलाकार की स्वस्थ मानसिक प्रतिक्रियाएँ ही उसके सामाजिक दायित्व के महत्व को रेखांकित करती हैं। समाज और सामाजिक जीवन से कटकर केवल कल्पना के आधार पर साहित्य की रचना करना अंततः कलाकार की कमज़ोरी सिद्ध करता है। अपनी इस कमज़ोरी के कारण ही पंत ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ जैसी रचनाओं के बावजूद ‘स्वर्ण-किरण’, ‘स्वर्णधूलि’ से लेकर ‘लोकायतन’ तक की यात्रा करते हैं। इनकी इस प्रकृति पर आक्षेप करते हुए नागार्जुन ने लिखा है :

इतर साधारण जनों से अलहदा होकर रहो मत,

कलाधर या रचयिता होना नहीं पर्याप्त है,

विजयिनी जनवाहिनी का पक्षधर होना पड़ेगा

अगर तुम निर्माण करना चाहते हो,  

शीर्ण संस्कृति को अगर सप्राय करना चाहते हो,

अन्यथा शिमला कि नैनीताल में ललित ‘लोकायतन’ रचोगे।

देश की स्वाधीनता के बाद पंत की परिवर्तित रचनादृष्टि को दृष्टिहीन दार्शनिकता के नाम पर प्रगतिवादी खेमें से आलोचना का विषय बनाया गया। देश के अत्यंत विषम और कोलाहलमय वातावरण में पंत की समन्वयवादी दृष्टि को व्यवस्था का पोषक माना गया। इस पर आक्षेप करते हुए केदारनाथ अग्रवाल ने ‘कांग्रेस के राज में’ शीर्षक कविता में लिखा है :

कांग्रेस के राज में, आयो नहीं बसंत।

अपत कटीली डार के गावत हैं गुन पंत।।

भारतीय स्वाधीनता प्राप्ति से चार-छह वर्ष पूर्व से लेकर चार-छह वर्ष बाद तक पंत आलोचना प्रत्यालोचना के दायरे में हैं। इनके काव्य से संबंधित अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रकार की आलोचना पूरे वेग से प्रवाहित हुईं। लेकिन पंत इनसे प्रायः अछूते रहकर अपने रचनाकर्म में निरत रहे।

यहाँ पंत की रचना-प्रक्रिया पर एकबार विचार कर लेना पर्याप्त उपयोगी होगा। यह एक वास्तविकता है कि पंत जब भी किसी विषय पर रचनारत होते हैं तो अपने मनः लोक के इर्द-गिर्द ऐसा ताना-बाना बुन देते हैं कि कोई अन्य भाव या विषय उसमें प्रवेश ही नहीं कर पाता। उनकी छायावाद युगीन अधिकांश कविताओं के साथ ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ की रचना में इस तथ्य को समान रूप से देखा जा सकता है। आत्म-चेतना के आधार पर व्यापक समन्वय की भावना से प्रेरित पंत ‘स्वर्ण किरण’ से लेकर लोकायतन’ तक समाज की बाहरी उथल-पुथल से तटस्थ रहकर जिस मानवतावाद या लोक कल्याण की कल्पना को उजागर करते हैं, वह लोक जीवन के यथार्थ स्पर्शों से प्रायः अछूती रह कर वास्तविक जीवन के समानांतर एक अलग कला जगत की सृष्टि करती है। इस तथ्य को हम उनके तीसरे विकासचरण में आसानी से परिलक्षित कर सकते हैं।

तृतीय चरण : अरविंद दर्शन पर आधारित आध्यात्मिक नव-मानवतावाद

अरविंद दर्शन से प्रभावित होकर पंत की चेतना प्रत्यावर्तित होकर (पुनः वापस लौटकर) अपने प्रथम चरण की चेतना से जुड़ जाती है। इनके इस तीसरे चरण के विकास को आलोचकों ने ‘स्वर्ण काव्य’ की संज्ञा दी है। इसके अंतर्गत स्वर्ण-किरण, स्वर्ण-धूलि, उत्तरा, अतिमा, रजतशिखर, शिल्पी, सौवर्ण, वाणी और किरण-वीणा जैसी काव्य कृतियाँ आती हैं। 1937 से लेकर ‘स्वर्ण काव्य.’ के सभी संग्रहों की प्रतिनिधि रचनाएँ ‘चिदम्बरा’ शीर्षक से 1958 में प्रकाशित हुई। इस श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में, थोड़ा परिवर्तित रूप में, ‘कला और बूढ़ा चांद’ तथा ‘लोकायतन’ की भी गणना की जा सकती है। ‘स्वर्ण’ शब्द का प्रयोग पंत ने चेतना के प्रतीक के रूप में किया है, जिसका आधार इनकी आध्यात्मिक चेतना ही है। इस चेतना का केंद्र में रखकर, अरविन्द दर्शन के प्रकाश में पंत ने व्यापक समन्वय द्वारा नव मानवतावाद का प्रतिपादन अपने काव्य-विकास के तीसरे चरण में किया है।

महर्षि अरविन्द का आदर्श रहा है, भौतिकता और आध्यात्मिकता का समन्वय/ जीवात्मा और जगत की एकता के साथ ही उसे ब्रह्म की कला मान कर अरविन्द ने तीनों में व्याप्त एक अखंड और शाश्वत चेतना का प्रतिपादन किया। इसके साथ ही उन्होंने भौतिकता और आध्यात्मिकता को ब्रह्म का दो परिपार्श्व (अंग) स्वीकार कर दोनों के बीच समुचित समन्वय को मानव कल्याण के लिए आवश्यक सिद्ध किया। वैसे ‘युगात’ में भी पंत का समन्वयवादी रूप सामने आता है। इसके अंतर्गत वे कभी गांधीवाद में ‘मनुष्यत्व का तत्व’ और साम्यवाद में ‘सामूहिक विकास’ की योजना देखते हैं तो कभी संकीर्ण भौतिकवादियों पर अपना आक्रोश इस प्रकार व्यक्त करते हैं :

आत्मवाद पर हँसते हो भौतिकता का रट नाम?

मानवता की मूर्ति गढ़ोगे क्या संवार कर चाम?

लेकिन अरविंद दर्शन के प्रभाव में आने के बाद पंत को भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय का एक ठोस आधार प्राप्त हो गया। ‘स्वर्ण किरण’ और ‘स्वर्ण धूलि’ में अत्यंत तन्मयता के साथ पंत इस दिशा में सक्रिय हुए हैं। ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में भी इन्होंने अतिभौतिकवाद का निषेध करते हुए आत्म सत्य और वस्तु सत्य के समन्वय पर बल दिया है। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उस काल खंड की रचनाओं में भौतिक सत्य का ही प्राधान्य है।  अपने ‘स्वर्ण काव्य’ युग में वे वस्तु-सत्य से आत्म सत्य की ओर, बाह्य से अंतर्मन की ओर झुक गए हैं:

सामाजिक जीवन से कहीं महत अंतर्मन,

वृहत् विश्व इतिहास, चेतना गीता किंतु चिरंतन।

लेकिन अपने इस तीसरे चरण के आरंभिक दौर में भी कवि ने भूतवाद या संसार के भौतिक पक्ष की नितांत उपेक्षा नहीं की है :

वही सत्य कर सकता मानव जीवन का परिचालन,

भूतवाद हो जिसका रज-तन, प्राणिवाद जिसका मन,

औ’ अध्यात्मवाद हो जिसका हृदय गंभीर चिरंतन।

यहाँ तन, मन और हृदय के समन्वय की महत्ता पर बल अवश्य दिया गया है, लेकिन इस कार्य को चित् की निर्मलता पर छोड़कर उसके कारगर उपाय से पल्ला झाड़ लिया गया है। इसलिए कवि का यह मत भविष्य की किसी काल्पनिक संभावना पर आश्रित हो जाता है :

क्या नहीं कोई कहीं ऐसा अमृत घन,

जो धरा पर बरस भर दे भव्य जीवन ।

जाति वर्गों से निरख जन

अमर प्रीति प्रतीति में बँध

पुण्य जीवन करे यापन।

औ’ धरा हो ज्योति पावन।

इस तरह की शुभकामनाएँ तो प्राचीन काल से भारतीय ऋषि-मुनि प्रकट करते आए हैं। ‘वासुधैव कुटुंबकम्’ और ‘सर्वेभवन्तु सुखिन’, ‘सर्वेसंतु निराभय’, उनका आदर्श रहा है। लेकिन व्यवहार में अब तक ऐसा हुआ नहीं। अतः अंतश्चेतना के आधार पर समन्वय के जिस विराट आयोजन में पंत का ‘स्वर्ण काव्य’ सक्रिय हुआ है, वह केवल दिवा-स्वप्न बन कर रह जाता है। इस समन्वय-साधना में और आगे बढ़ कर कवि भौतिक जीवन से बहुत ऊँचे उठकर परमतत्व तक पहुँच जाता है :

अन्न, प्राण, मन, आत्मा केवल

ज्ञान-भेद सत्य के परम,

इन सबमें चिर व्याप्त ईश रे,

मुक्त सच्चिदानंद चिरंतन।

अनेकता में एकता का यह प्रयास आध्यात्मिक दृष्टि से तो संभव है लेकिन भौतिक दृष्टि से इसे युक्ति संगत नहीं कहा जा सकता। कम-से-कम इस औपनिषदिक एकता से व्यक्ति और समाज की एकता या व्यक्ति के अंतर्बाह्य की एकता न तो अब तक हो सकी है और न भविष्य में ही इसकी संभावना है।

अपने ‘स्वर्ण काव्य ‘ में पंत जी ने कुछ सामाजिक समस्याओं को भी लिया है, जिनमें ‘पतिता’, ‘परकीया’ शीर्षक नारी विषयक कविताएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ‘पतिता’ शीर्षक कविता है :

क्रूर लुटेरे हत्यारे कर गए, बहू को नीच कलंकित।

फूटा करम, धरम भी लूटा, शीश हिला रोते सब परिजन।

लेकिन बहू का पति केशव उसे सप्रेम ग्रहण करता हुआ कहता है :

मन से होते मनुज कलंकित, रज की देह सदा से कलुषित,

प्रेम पतित पावन है, तुमको रहने दूंगा मैं न कलंकित।

एक व्यक्ति के ऐसा करने मात्र से नारी युक्ति की समस्या का समाधान नहीं हो जाता। इसी प्रकार ‘परकीया’ के संदर्भ में दाम्पत्य जीवन की व्याख्या करते हुए कवि ने लिखा है :

पति-पत्नी का सदाचार भी, नहीं मात्र परिणय से पावन।

काम विरत यदि दम्पत्ति जीवन, भोग मात्र का परिणय साधन।

पंकिल जीवन में पंकज-सी,  शोभित आप देह से ऊपर।

इस से स्पष्ट है कि अंतश्चेतना से प्रेरित पंत का ‘स्वर्ण काव्य’ किस रूप में अपने लोकमंगल के दायित्व को पूरा करता है। प्रेम एक भावना मात्र का न होकर सामाजिक व्यवहार भी है, जिसे विवाह संस्था द्वारा नियंत्रित किया जाता है। ‘काम विरत दम्पत्ति जीवन’ को आदर्श और ‘परिणय (विवाह) को. ‘भोग मात्र का साधन’ मानना पंत की अन्तश्चेतना के ज्वार की अराजकता ही कहा जा सकता है। ‘कामायनी’ में प्रसाद ने भी प्रेम के लगभग इसी रूप को वरीयता देते हुए लिखा है :

तुम हो कौन, मैं हूँ क्या, इसमें है क्या धरा सुनो,

जीवन जलधि रहे चिर चुंबित मेरे क्षितिज उदार बनो।

यहाँ मनु श्रद्धा से कहते हैं कि ‘तुम कौन हो मैं क्या हूँ, इसका कोई मतलब नहीं है। तुम मुझे सुंदर लगती हो और मैं तुम्हें सुंदर लगता हूँ – इतना ही पर्याप्त है। इस प्रकार सौंदर्य को प्रेम का क्षितिज मान लेना, उसे सामाजिकता से परे, सामाजिक नैतिकता से परे सिद्ध करना है। प्रसाद की इसी मान्यता से प्रेरित मनु श्रद्धा और इड़ा में कोई अंतर नहीं करता। इड़ा, जो उसकी पुत्री के समान है, उसे भी अपने प्रेमपाश में आबद्ध करना चाहता है। इस स्थिति को देखकर ही कुछ आलोचकों ने पंत पर अभारतीयता का आरोप लगाया है।

अपने ऊपर अभारतीयता के आक्षेप का उत्तर देते हुए पंत ने ‘स्वर्ण धूलि’ की एक ‘ग्रामीण’ शीर्षक कविता में लिखा है :

भारतीय ही नहीं बल्कि मैं

हूँ ग्रामीण हृदय के भीतर।’

लेकिन वास्तविक विडम्बना यह है कि अपने ‘स्वर्ण-काव्य’ तथा ‘कला और बूढ़ा चाँद’ से लेकर ‘लोकायतन’ तक पंत दिनरात खटकर भी दो जून की रोटी न जुटा पाने वाली ग्रामीण जनता के उद्धार का कोई कारगर उपाय नहीं प्रस्तुत कर सके हैं।

‘कला ओर बूढ़ा चाँद’ पंत का 1959 में प्रकाशित काव्य-संग्रह है जो उनके ‘स्वर्ण-काव्य’ की अगली कड़ी है। रचना-विधान की नवीनता के बावजूद उनका पुराना सत्य (बूढ़ा चाँद) इसमें नयी आशा और उमंग के साथ व्यक्त हुआ है। छंदों के बंधन से मुक्त गद्यात्मक शैली में रचित इस संग्रह की कविताएँ अपनी प्रतीक और बिम्ब योजना की दृष्टि से पर्याप्त सराही गयी हैं। ‘मधुछत्र’, ‘खोज’, ‘अमृत क्षण’. ‘रिक्त मौन’, ‘अनुभूति ‘, ‘दृष्टि’, ‘यज्ञ’, ‘गीत खग’, ‘कोपलें’, ‘पाद पीठ’, ‘विकास’, ‘घर’, ‘दंतकथा’, ‘कीर्ति’, ‘सूर्यमन’, ‘नया प्रेम’, ‘करूणा’, ‘शील, ‘आत्मानुभूति’, ‘अखंड’,’समाधान’, ‘भू पथ’ आदि कविताएँ पंत के अंतश्चेतनावादी दर्शन को ही विभिन्न कोनों से व्याख्यायित विश्लेषित करती हैं।

इस संग्रह की अंतिम कविता ‘सिंधु मंथन’ द्वारा कवि ने जीवन को सुखमय बनाने के लिए स्वाधीन भारत की जनता को आत्ममंथन का संदेश दिया है। आत्ममंथन के द्वारा ही भारतीय जनता अपने प्रमाद, आलस्य, निरुद्यमता, भाग्यवाद, परम्पराप्रियता, भय, संदेह, घृणा, विद्वेष, आत्महीनता, पराजय, समाजविमुखता आदि की अंधेरी खोह (गुफा) से निकलकर ‘मुक्त नील-आकाश’ के नीचे स्वच्छ वायु में विचरण कर सकेगी। वस्तुतः इस उपदेश या इस तरह की मंत्रणा के पीछे पंत की ऋषि-दृष्टि बोल रही है, जो ‘स्वर्ण- काव्य’ की साधनावस्था से ‘कला और बूढ़ा चाँद’ में सिद्धावस्था तक पहुँच गयी है। इस दशा में पहुँच. कर उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया है कि वे जो कुछ कह रहे हैं, सत्य कह रहे हैं और सत्य के सिवा कुछ और नहीं कह रहे हैं।

इस तथ्य को आप ‘कला और बूढ़ा चाँद’ की कुछ कविताओं की संक्षिप्त व्याख्या से आसानी से समझ सकते हैं। इसके लिए ‘आत्मानुभूति’, ‘एकमेव’, ‘अखंड’, ‘समाधान’ और ‘रूपांध’ कविता को आधार बनाना अधिक संगत होगा। ‘आत्मानुभूति’ कविता में पंत आत्मानुभूति की सृजनशील भूमिका को रेखांकित करते हुए सर्जनकर्ता से कहते हैं कि तू अपने अछूते आंचल में रंगों के धब्बे, मधुपों के षट् पद चिह्न न पड़ने दे, अर्थात सांसारिक मोह-माया और लालसाओं से अपने को मुक्त रखे। इसका मतलब हुआ कि सांसारिकता-सामाजिकता से परे रहकर ही आत्मानुभूति सृजनशील बन सकती है। वे आत्मानुभूति पर आधारित सृजनशील प्रतिभा से निवेदन करते हैं कि नयी पीढ़ियाँ चाहे मधुरस की तीव्रता में आत्मविभोर हो जाएँ किंतु तुम अपनी अकुंठित शोभा को मत भूलना। जीवन विकासपथ है। जातियों, संस्कृतियों, सभ्यताओं का जन्म तेरे ही प्राणों का आवेश और रोमांच की सिहरन है। अतः तुझे जीवन-विकास के लिए साध्य-साधन में संगति लानी है। ‘एकमेव’ कविता में मात्र ‘वह’ ही है, उसी के साथ तादात्म्य की अनुभूति है। इसे पंत विराट सत्य, सार्वभौम सत्य या विश्व सत्य मानकर उसका वैयक्तिकरण करते हुए उसके माध्यम से अपनी लोक कल्याण की भावना का प्रतिपादन करते हैं। इनकी मान्यता है कि ‘मैं, जो विश्वात्मा हूँ, उसे केवल बोध से देखने वालों ने विश्व-सत्य, विश्व कल्याण तथा लोक कर्म का निराकरण कर दिया है। जगत में जो कुछ है वह मेरी ही अभिव्यक्ति है :

‘दिनरात/ मेरी भ्रू भंगिमाएँ नहीं, तो क्या है?

‘अखंड’ कविता इसी विश्वात्मा की अविभाज्यता और अखंडता को रेखांकित करती है। पंत की मान्यता है कि जीवन के विकास-क्रम में मूल्यों का जो थोड़ा बहुत ज्ञान प्राप्त होता है, वह अत्यंत अल्प है। उसके द्वारा इस अखंड सत्य या शाश्वत सत्य का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। तुम किस मूल्य से/फेन को फेन कहते हो?’ सत्य को ‘मुझमें’, ‘तुझमें’ विभक्त नहीं क्या जा सकता। ‘बहु’ में उसे विभक्त करना और ‘बहु’ द्वारा उसका मूल्यांकन करना वैसा ही है, जैसा :

‘मैं मुंह में पानी भर/ जल फुहार बरसाऊँगा

करो तुम मूल्यांकन/ गिनो फुहार की बूंदें।’

सत्य का स्वरूप शब्दों की उस सापेक्षता से मुक्त है, जो द्वंद्वात्मक और द्वैताम्त है। उसे शब्दों की इकाइयों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। उसका आभास संकेतों और प्रतीकों द्वारा ही दिया जा सकता है :

मैं शब्दों की/ इकाइयों को रौंद कर/ संकेतों में। प्रतीकों में बोलूंगा।

इस प्रकार पंत के अनुसार सत्य का एक अद्वितीय, असीम और शाश्वत रूप है, जो उसे अनिवर्चनीय बना देता है। इसे वैदिक शब्दावली में ‘नेति-नेति ‘की संज्ञा दी गयी है। उससे परे कुछ है ही नहीं, जिससे उसकी तुलना की जा सके। वह विशुद्ध अनुभूति का विषय है। वह अनुभूति शाश्वत और क्षणिक दोनों को अभिव्यक्ति देती है :

मैं शाश्वत निःसीम का

गायक और सृजक रहा

तो –

साद्यः क्षणिक का भी जनक हूँ।

‘समाधान’ कविता में पंत ने इस तथ्य का खुलासा करते हुए कहा है कि पहले मैं अपनी ‘अहंता’ (मैं) को उपेक्षा से देखता था। बाद में मैं समझ गया कि तुमने (सत्य ने) मुझे भेदी ‘अहंता’ का ही छोर पकड़ा दिया है, इसी के माध्यम से मैं तुम्हें प्राप्त कर सकता हूँ। तुम मेरी ‘अहंता’ का ही विस्तार हो। इसी के द्वारा मैं अपने-पराए, तुम्हें और विश्व एवं विश्व पार के सत्य को जान पाता हूँ। मैंने अपने इस ‘अहं’ को उलट-पलट कर भी देखा है और वहाँ भी तुम्हें (सत्य) ही पाया है।

अपनी ‘रूपांध ‘ कविता में पंत ने सत्य को रूप से परे माना है। सत्य को रूप पर आश्रित मानना ‘सत्य-कथा’ को सत्य से और ‘प्रेमकथा’ को प्रेम से अधिक महत्व देना है। रूप का सत्य अरूप की गहराइयों में होता है। ‘वाष्प घन’ कविता में कवि ‘अहं’ रूपी वाष्पधन से विमूढ़ होकर, ‘मानस’ से कहता है कि तुम्हारे भीतर के सत्य को मैं नहीं जान सकता। तुम्हारे उपकरणों में ही मेरा मन उलझ जाता है। रूप, रस, आकारहीन सत्य को मैं जीवन में कैसे प्रतिष्ठित करूँ कि ‘भानवता की फसल हँस सके’। अतः

अच्छा हो,

तुम स्वयं रिमझिम कर

मिट्टी में मिल जाओ,

धरती को सहलाओ,

नयी हरियाली बन जाओ।’

वस्तुतः प्रेम और सत्य को अखंड, अविभाज्य, अनंत और शाश्वत सत्ता के रूप में स्वीकार करना उन्हें वायवी बना देता है। प्रेम की भाँति ही सत्य का स्वरूप भी सामाजिक व्यवहार द्वारा निधार्रित होता है। सामाजिक यथार्थ चूंकि निरंतर परिवर्तनशील है, अतः सत्य की शाश्वत या अखंड सत्ता को स्वीकार करना अंतश्चेतनावादियों का एक भ्रम है। युगीन मूल्यभावना से जुड़कर ही ‘सत्य’ को यथार्थ स्वरूप प्राप्त होता है। एक विषमताग्रस्त वर्ग विभाजित समाज में चेतना, मूल्य भावना और सत्य की अखंडता और शाश्वता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसके अंतर्गत चेतना, मूल्यदृष्टि और सत्य के परस्पर विरोधी स्वरूप और स्वर स्पष्ट रूप से लक्षित होते हैं। इस प्रकार पंतजी शत्रुतापूर्ण स्थितियों, अंतर्दशाओं का समन्वय कर अपनी पुनरुत्थानवादी दृष्टि का ही परिचय देते हैं।

अंतश्चैतन्य के प्रकाश में एक उत्सवधर्मी विराट समन्वय के आयोजन का प्रयास पंत जी ने अपने ‘लोकायतन’ शीर्षक महाकाव्य में किया है। इसमें इन्होंने भारत ग्राम के रूप में सुंदरपुर की कल्पना कर वंशी, हरि जैसे ग्रामोद्धारक पात्रों के आयोजन से विकास पथ को प्रशस्त करने का प्रयास किया है। इस महाकाव्य के प्रथम खंड ‘बाह्य परिवेश ‘ के अंतर्गत कवि ने प्राचीन भारतीय संस्कृति की गौरवगाथा को पृष्ठभूमि बनाकर स्वाधीनता आंदोलन की उपलब्धियों को रेखांकित किया है। इसी क्रम में भारत-पाक विभाजन की त्रासदी तथा महात्मागांधी के साम्प्रदायिक सद्भाव-स्थापना के महत्व पर भी प्रकाश डाला गया है। संस्कृति द्वार के अंतर्गत ‘आत्मदान’ शीर्षक में कवि ने बापू के बलिदान को गौरवान्वित करते हुए गांधीवादी सिद्धांतों की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला है।

इस महाकाव्य के प्रथम खंड की एक महत्वपूर्ण विशेषता है राम राज्य की कृषि-सभ्यता के रूप में परिकल्पना, जिसमें रामकथा की पुनर्व्याख्या करते हुए कवि ने सीता, राम, लक्ष्मण, हनुमान आदि अनेक पात्रों के साथ ही रावण, इंद्र आदि से सम्बद्ध पौराणिक मान्यताओं को नयी प्रतीकात्मकता प्रदान की है। इसे कविवर पंत की एक बड़ी उपलब्धि के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। लेकिन प्रतीकों के प्रगतिशील स्वरूप का अंकन करने के बावजूद जब वे इनमें से अपना आदर्श चुनते हैं , तो प्रायः अंतर्विरोध के शिकार बन जाते हैं। एक तरफ वे वर्ग-वर्ण भेद पर आधारित ऊँच-नीच की भावना की समाप्ति की आवश्यकता रेखांकित करते हैं, तो दूसरी ओर मनुस्मृति को लेकर उनकी अंतर्दृष्टि आपत्तिजनक बन जाती है :

द्विजों के हित बन ज्ञान प्रकाश

शूद्रहित रच पद सेवाचार,

क्षात्र हित शौर्य, वैश्याहित वित्त,

हुई भगवत करूणा साकार!

न हिंदू संस्कृति का उपमान

कहीं जगती में मिलता अन्य

मनुस्मृति में कह अंतिम शब्द

कर गए मनु धरती को धन्य।’

वर्णाश्रम व्यवस्था की नीव को दृष्ट करने वाले मनुस्मृति जैसे अनेक आर्य ग्रंथों (ऋषि ग्रंथों) को आदर्श मानते हुए जब पंत भारत की आध्यात्मिकता और पश्चिम की वैज्ञानिक भौतिक उन्नति का समन्वय करने लगते हैं, तो चिंतनशील पाठक के लिए पर्याप्त दिक्कतें पेश आती हैं। यही नहीं जब वे पश्चिमी वैज्ञानिक देन का उद्घाटन करते हुए आल्पस, जिनेवा, फ्रांस, इटली, यूनान, रोम, नार्वे, स्वीडन, स्टॉकहोम, इंग्लैंड, रूस और रूस के मास्कों, लेनिन ग्राद, क्रेमलिन, वोल्गा के साथ ही अमेरिका, जापान का चरित्र विश्लेषण करते हुए उन्हें एक सूत्र में बाँधने की बात करते हैं तो उनकी अंतर्विरोधी दृष्टि और अधिक उजागर हो जाती है। इस संदर्भ में वे रूस की प्रकृति का चित्रण करते हुए लिखते

दलित भू-जन को जिसने भव्य, स्वप्न जीवन का दिया महान।’

इसके साथ ही वहाँ की सामूहिक कृषि, सामूहिक उत्पादन और तर्कसंगत वितरण प्रणाली की स्तुति करते हुए वे अमेरिका की महान् उपलब्धियों की भी भावविभोर होकर चर्चा करते हैं :

साहसी अमरीकी निर्भीक, सूज्ञ, युग स्थिति प्रबुद्ध स्वच्छंद।

वायु जल स्थल बल कम्पित विश्व, गरजते सिंधु व्यौम निर्द्वद्व!

दोनों के अंतर को रेखांकित करते हुए पंत ने लिखा है :

व्यक्ति में यहाँ (अमेरिका) प्रेरणा, स्रोत,

रूस में सामूहिक उन्मेष।’

‘लोकायतन’ के रचना काल तक और उसके काफी बाद तक भी रूस और अमेरिका दो राष्ट्र मात्र न रहकर विश्व व्यापी दो प्रवृत्तियाँ, दो भावधारा, दो विचारधारा रहे हैं। आज भी समाजवाद और पूंजीवाद के रूप में वह स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। इनका सामंजस्य जिस अखंड चेतना के आधार पर पंत करना चाहते हैं, वह संभव नहीं है। क्योंकि समाजवादी और पूँजीवादी उत्पादन पद्धतियाँ केवल परस्पर भिन्न उत्पादन पद्धतियाँ न होकर दो भिन्न जीवन पद्धतियाँ भी हैं। ये दोनों एकाकार होकर भू-स्वर्ग की पीठिका नहीं बन सकतीं, जैसा कि पंत जी की मान्यता है :

‘पूँजीवादी जनवादी श्रम भु स्वर्ग पीठ में संयोजित

सित आध्यात्मिकता की प्रेमी नव भू-मानवता हुई उदित!

आमूल बदल अध्यात्मवाद जन भू पर जयी हुआ निश्चित,

भौतिकता संस्कृति पाद-पीठ, – अब वर्ग-सभ्यता जीवन-मृत।’

इसे मानवता के प्रति एक शुभकामना मात्र माना जा सकता है। इस पूरे महाकाव्य का संचालक वंशी वाल्मीकि का अवतार मात्र न होकर कविवर पंत की अंतश्चेतना का प्रतिनिधि भी है। इसी के महद् प्रयास से : 

प्रथम बार अब जगत ब्रह्म में, ब्रह्म जगत में हुआ प्रतिष्ठित

मुक्त भेद-मन भू-जीवन सित चित् पट में हुआ समन्वित!

सब मिलाकर ‘लोकायतन’ कविवर पंत के लोक-कल्याण संबंधी नेक इरादे का भव्य एवं कलात्मक साक्षात्कार करता है। अपनी अन्यान्य रचनाओं के माध्यम से पंत ने अतीतोन्मुखता की अपेक्षा भविष्योन्मुखता का ही अधिक परिचय दिया है। वर्तमान के प्रति उनका प्रायः असंतोष ही व्यक्त हुआ है।

सारांश

प्रस्तुत इकाई में कविवर पंत की काव्य-यात्रा के विभिन्न सोपानों के परिचय से पूर्व प्रस्तावना में इनके व्यक्तित्व और कृतित्व की संक्षिप्त झलक प्रस्तुत कर छायावादी-स्वच्छंदतावादी काव्यधारा की कतिपय मूल विशेषताओं को रेखांकित किया गया है। इसे आप पंत के काव्य की संक्षिप्त पृष्ठभूमि मान सकते हैं। अपने छायावादी चरण में पंत ने छायावाद की अंतर्बाह्य विशेषताओं का अत्यंत कुशलता के साथ अपने काव्य में समावेश किया है। छायावाद की वैयक्तिक स्वाधीनता की चेतना की अभिव्यक्ति का प्रयास प्रकृति और कल्पना के माध्यम से पंत ने सफलतापूर्वक किया है। प्राकृतिक सौंदर्य के साथ ही इनकी नारी और प्रणय विषयक धारणा भी छायावादी काव्यधारा की पूर्ण संगति में है। इसे अनेक उदाहरणों से इस इकाई में पुष्ट करने का प्रयास किया गया है। इनकी प्रणय-वेदना कहीं प्रसाद के ‘आँसू’.की याद दिलाती है तो कहीं महादेवी के शाश्वत विरह के साथ एकाकार हो जाती है।

इस इकाई में आप पंत की विकास यात्रा के दूसरे चरण प्रगतिवादी जीवन बोध से भी पूरी तरह परिचित हो सकेंगे। प्रगतिशील आंदोलन और युगीन वास्तविकता ने कुछ समय के लिए पंत को छायावाद के स्वप्नजाल से मुक्त कर धरती का कवि बना दिया। इसका संकेत पंत ने अपने ‘युगांत’ शीर्षक काव्य-ग्रंथ द्वारा दिया। ‘युगवाणी’ में कवि ने मार्क्स के भौतिकवादी दर्शन से प्रभावित होकर साम्यवाद को मानव द्वारा मानव के शोषण से मुक्त स्वर्ण युग के रूप में रेखांकित किया है। इसे इकाई में विस्तार से स्पष्ट करने का प्रयास किया है। भारतीय विषमता ग्रस्त समाज में उसके विभिन्न वर्गों का चरित्र विश्लेषण करते हुए कवि ने अपनी पूर्ण प्रगतिशीलता का परिचय दिया है

पूँजीपति के रूप में धनिक वर्ग, मध्य वर्ग, मज़दूर वर्ग के चरित्र को विभिन्न उदाहरणों के द्वारा इस इकाई में अच्छी तरह स्पष्ट किया गया है। इससे पंत की वर्ग विषयक दृष्टि से आप अच्छी तरह परिचित हो सकेंगे। ‘युगवाणी’ में यद्यपि कवि ने श्रमिक वर्ग की क्रांतिकारिता के प्रति विश्वास व्यक्त करते हुए कृषक वर्ग को रूढ़िप्रिय, अंधविश्वासी, बैल-वंधू, मूर्ख, जड़ीभूत, अपनी थोड़ी-सी ज़मीन के प्रति मोहग्रस्त, दुर्भाग्य का पुतला मानकर परिवर्तन क्षमता से शून्य दिखाया है, फिर भी अपनी सर्वाधिक सहानुभूति का पात्र उन्हें ही माना है। उनके प्रति अपनी अनंत सहानुभूतिशील कल्पना ने इन्हें ‘ग्राम्या’ की रचना के लिए प्रेरित किया है।

अपनी सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रगतिशील रचना ‘ग्राम्या’ में पंत ने ‘विश्व को ग्रामीण नयन’ से देखने का उद्घोष कर प्रगतिवादी आंदोलन का प्रतिनिधित्व किया है। इस तथ्य को विस्तार से इस इकाई में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। प्रगतिवाद एक ऐसा साहित्य आंदोलन माना जा सकता है, जिसमें पहली बार कवियों ने मलिन ग्रामीण जनता के पैरों की धूलि अपने मस्तक पर लगाकर अपने आपको पवित्र किया है। इस कार्य में पंत किसी से पीछे नहीं रहे हैं। अपनी ‘ग्राम्या’ की रचना द्वारा कवि ने ‘ग्राम देवता के सम्मुख नतसिर होकर प्रणाम किया है :

राम राम, हे ग्राम देवता, यथानाम ।

शिक्षण्य हो तुम, मैं शिष्य, तुम्हें सविनय प्रणाम!

ग्रामीण जन जीवन, ग्राम नारी, गाँवों की हरी भरी धरती, ग्राम प्रकृति के साथ ही ग्राम संस्कृति का जो भव्य चित्र पंत ने ‘ग्राम्या’ में उपस्थित किया है, वह सम्पूर्ण प्रगतिशील काव्य की अविस्मरणीय सम्पदा है। प्रस्तुत इकाई में आप इस तथ्य से भली भाँति परिचित हो सकेंगे।

एक ओर छायावादी व्यक्तिनिष्ठ स्वप्न लोक और दूसरी ओर प्रगतिवादी समष्टि भावना पर आधारित यथार्थ लोक की विषमता से प्रेरित पंत अपनी काव्य-यात्रा के तीसरे चरण में दोनों के मध्य समन्वय का प्रयास लेकर उपस्थित होते हैं। अपने ‘स्वर्ण-काव्य’, ‘कला और बूढ़ा चांद’ तथा ‘लोकायतन’ शीर्षक महाकाव्य में वे इसी समन्वय की दिशा में सक्रिय हुए हैं। यह सही है कि अरविंद दर्शन की सीमाओं और अपनी अंतश्चेतना संबंधी मान्यता के कारण पंत को अपने समन्वयवादी प्रयास में समुचित सफलता नहीं मिली है, फिर भी इनका यह काव्यात्मक प्रयास हिंदी साहित्य-जगत में स्मरणीय रहेगा। सत्य, प्रेम, चेतना, अंतर्मन की जिस अखंडता और शाश्वतता की परिकल्पना को लेकर पंत ने भौतिकता और आध्यात्मिकता के सामंजस्य का प्रयास अपनी विकास-यात्रा के तीसरे चरण में किया है, वह व्यावहारिक स्तर पर अधिक तर्क-संगत नहीं दिखायी देती। इस तथ्य के साथ ही प्रस्तुत इकाई में पंत की समन्वय विषयक मान्यताओं की भी विस्तार से चर्चा की गयी है। इस प्रक्रिया में कवि की पद्धति ही नहीं, वरन् उसके एतदविषय निष्कर्षों का भी आलोचनात्मक निरीक्षण परीक्षण किया गया है। इसके अध्ययन के बाद आप स्वयं पंत के काव्य का वस्तुगत आलोचनात्मक मूल्यांकन कर सकेंगे।

यहाँ इस बात की ओर संकेत मात्र कर देना अपेक्षित है कि सामाजिक ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से आदर्शवाद और भौतिकवाद – दोनों परस्पर भिन्न और विरोधी दृष्टिकोण हैं। आदर्शवाद के अनुसार पहले आदर्श (आइडिया) फिर भौतिक जगत की स्थिति है। जबकि भौतिकवाद के अनुसार पहले भूत (पदार्थ) फिर विचार या चेतना का अस्तित्व होता है। इसके लिए सामान्य उदाहरण लिया जा सकता है जैसे, आदर्शवादी मानते हैं कि पहले हमारे मस्तिष्क में एक मकान का विचार या कल्पना अस्तित्व ग्रहण करती है, फिर उसे हम भौतिक आकार देते हैं। जबकि भौतिकवादियों के अनुसार जब तक बाह्य जगत में पेड़, पत्थर, मिट्टी आदि मकान के उपकरणों का अस्तित्व नहीं होगा तब तक मकान की कल्पना या विचार हमारे मस्तिष्क में आ ही नहीं सकता। इनके अनुसार मनुष्य, विचार या चेतना के अस्तित्व में

आने से पहले ही भौतिक जगत का अस्तित्व था। मनुष्य जीवन और उसकी चेतना का विकास इस भौतिक जगत के विकास पर आधारित है। पदार्थ (मैटर) का मनुष्य और उसकी चेतना से स्वतंत्र अस्तित्व पहले से था, अतः भौतिक जगत के आधार पर ही चेतना का विकास हुआ है। लेकिन आध्यात्मवादी आदर्शवादी चिंतकों का एक समुदाय चेतना को ईश्वर प्रदत्त, दैवी शक्ति मानकर, उसे प्राथमिक स्थान देता है। यदि आप विकास की इस दृष्टि को स्वीकार करते हैं, तो चेतना या परम चैतन्य के आधार पर पंत की समन्वय भावना आपके लिए स्वीकार्य हो सकती है। इस दृष्टि से बहुत सारे आलोचकों ने पंत के काव्य की प्रशंसा भी की है। लेकिन इसके विपरीत यदि आप ऐतिहासिक विकास की भौतिकवादी दृष्टि को स्वीकार करते हैं, तो पंत की आध्यात्मिकता और भौतिकता के समन्वय में कुछ असंगतियाँ दिखायी दे सकती हैं। इस तथ्य का उल्लेख इकाई में विस्तार-भय के कारण नहीं किया गया है। इसे ध्यान में रखें तो आप अपनी दृष्टि से पंत के काव्य-विकास के तीसरे चरण का अपने ढंग से आलोचनातमक मूल्यांकन आसानी से कर सकते हैं।

प्रश्न

  • छायावादी काव्यधारा में पंत के योगदान को स्पष्ट करें।
  • प्रकृति चित्रण के संदर्भ में पंत की कल्पना की ऊँची उड़ान की भूमिका पर विचार करें।
  • प्रगतिवादी काव्यांदोलन के विकास में पंत के योगदान को स्पष्ट करें।
  • पंत-काव्य में आध्यात्मिकता और भौतिकता के समन्वय की चेष्ठा का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें।
  • पंत काव्य में व्यक्त सत्य, चेतना और प्रणय संबंधी अवधारणाओं की समीक्षा करें।

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