मैला आंचल और आंचलिक उपन्यास की अवधारणा

‘फणीश्वरनाथ रेणु ‘ द्वारा लिखित ‘मैला आंचल ‘ (1954) हिंदी-कथा-साहित्य का प्रथम और श्रेष्ठ आंचलिक उपन्यास है। रेणु ने बिहार के मिथिला अंचल को आधार बनाकर इस अंचल के जन-सामान्य के सुख-दुख, रहन-सहन, संस्कृति, संघर्ष और लोकजीवन को अत्यंत कुशलता व कलात्मकता से इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है।

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • आंचलिकता और आंचलिक उपन्यास के संबंध से परिचित हो सकेंगे, हिंदी में आंचलिक उपन्यासों की परंपरा के संबंध में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे,
  • ‘मैला आंचल’ में अभिव्यक्त आंचलिक संदर्भ को जान सकेंगे,
  • ‘मैला आंचल’ में अभिव्यक्त विशिष्ट अंचल ‘मिथिला ‘ में जनसामान्य की वास्तविक स्थिति,
  • स्त्री-पुरुष संबंधों के प्रति दृष्टिकोण,
  • सामाजिक व्यवस्था और लोकगीतों में अभिव्यक्त लोक संस्कृति की विविधता,
  • जटिलता और विशिष्टता से परिचित हो सकेंगे।

‘धरती धन न अपना ‘ और ‘सूखा बरगद ‘ के पश्चात आपको अब फणीश्वरनाथ रेणु के अत्यंत चर्चित उपन्यास ‘मैला आंचल ‘ का अध्ययन करना है। ‘मैला आंचल ‘ फणीश्वरनाथ रेणु का प्रथम उपन्यास है, जो 1954 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास का प्रकाशन उस समय हिंदी साहित्य में एक घटना माना गया था। अपने प्रथम उपन्यास के प्रकाशन से ही इसके लेखक ने प्रसिद्धि के शिखर को सहज ही छू लिया। लेकिन बाद के किसी भी उपन्यास में लेखक अपने ही शिखर को फिर कभी नहीं छू पाया। ‘मैला आंचल · ही भारतीय साहित्य में रेणु के स्थायी महत्व का आधार बन गया है।

‘मैला आंचल ‘ के लेखक फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म 4 मई 1921 को बिहार के पूर्णिया जिला के औराही हिंगना गांव में हुआ था। उनके व्यक्तित्व का विकास केवल सृजनात्मक लेखक के रूप में ही नहीं एक सजग, सक्रिय नागिरक व देशभक्त के रूप में भी हुआ। 1942 के ‘भारत छोड़ो ‘ संग्राम में सक्रिय भागीदारी कर उन्होंने एक स्वाधीनता सेनानी के रूप में पहचान अपने यौवन में ही बनाई। स्वाधीनता की इस चेतना के साथ रेणु दमन व शोषण के आजीवन विरोधी रहे।

अपने पड़ोसी नेपाल की जनता को राजशाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए भी रेणु ने वहाँ की जनता द्वारा शुरू की गई सशस्त्र क्रांति व राजनीति में सक्रिय हिस्सा . लिया। इसी कड़ी में 1985-88 की आपात स्थिति का उन्होंने कड़ा विरोध किया। आपात स्थिति के विरोध में उन्होंने पदमश्री की मानद राष्ट्रीय उपाधि लौटा दी। उन्हें पुलिस यातना भी झेलनी पड़ी और जेल यात्रा भी करनी पड़ी। रेणु के संघर्ष को 23 मार्च 1988 को आपात् स्थिति के हटने में सफलता तो मिली लेकिन वे स्वयं बहुत देर जीवित नहीं रह पाए। रोग ने उनका शरीर जर्जर कर दिया था और 11 अप्रैल 1977 को उनका देहावसान हो गया।

रेणु 1952-53 में भी दीर्घकाल तक रोगग्रस्त रहे थे। इसी कारण वे सक्रिय राजनीति से हटकर साहित्य सजन की ओर अधिक झके और साहित्य सजन में भी 1954 में ‘मैला आंचल ‘ के प्रकाशन ने उन्हें शीर्षस्थ हिंदी लेखकों में स्थान दिला दिया। ‘मैला आंचल ‘ के बाद उनके कुछ और उपन्यास प्रकाशित हुए – ‘परती परिकथा ‘, ‘दीर्घतपा ‘, ‘कलंक मुक्ति ‘, ‘जुलूस ‘ और ‘पल्टूबाबू रोड ‘ उनके बाद के उपन्यास हैं। इनमें ‘पल्लटूबाबू रोड · उनके देहांत के बाद छपा।

रेणु जितने प्रसिद्ध उपन्यासकार हुए, लगभग उतने ही प्रसिद्ध वे कहानीकार भी हैं। ‘ठुमरी , ‘अगिनखोर ‘, ‘आदिम रात्रि की महक ‘, ‘एक श्रावणी दोपहरी की धूप ‘, ‘अच्छे आदमी ‘ आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं। उनकी कहानी पर आधारित फिल्म ‘तीसरी कसम ‘ ने भी उन्हें बहुत प्रसिद्धि दिलाई।

फणीश्वरनाथ रेणु के कुछ संस्मरण भी प्रसिद्ध हुए हैं : ‘ऋणकुल धनजल ‘, ‘वन-तुलसी की गंधी ‘, ‘श्रुत अश्रुत पूर्व ‘ उनके संस्मरण हैं। रेणु दिनमान में रिपोर्ताज भी लिखते थे। ‘नेपाली क्रांति कथा ‘ उनके रिपोर्ताज का उत्तम उदाहरण है।

‘मैला आंचल ‘ के प्रकाशन से हिंदी में आंचलिक उपन्यास की धारा का प्रारंभ भी माना जाता है, यद्यपि इससे पूर्व भी अंचल विशेष के आधार बनाकर हिंदी में उपन्यास रचना होती रही है, लेकिन आंचलिक उपन्यास प्रारंभ करने का श्रेय हिंदी में ‘मैला आंचल ‘ को ही जाता है। अपने प्रकाशन के चार दशक से ज्यादा समय बीत जाने पर भी ‘मैला आंचल ‘ आज भी हिंदी में आंचलिक उपन्यास के अप्रतिम उदाहरण के रूप में स्थिर है।

‘मैला आंचल ‘ का महत्व केवल एक आंचलिक उपन्यास होने तक ही सीमित नहीं है, यह हिंदी का व भारतीय उपन्यास साहित्य का एक अत्यंत श्रेष्ठ उपन्यास भी माना जाता है। इस अर्थ में ‘मैला आंचल ‘ का दर्जा क्लासिक रचना का है। ‘गोदान ‘ के बाद हिंदी के जो कुछ सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माने जाते हैं, ‘मैला आंचल ‘ उनमें से एक है।

‘मैला आंचल ‘ व अपने अन्य उपन्यासों में रेणु ने बिहार के मिथिला अंचल को आधार बनाकर अपने अंचल के दुःख-सुख, वहाँ के सहन-सहन, संस्कृति, लोकजीवन को अत्यंत कुशलता व कलात्मकता से औपन्यासिक स्वरूप प्रदान किया है। अपने अंचल को अपनी रचनाओं के केंद्र में रख कर प्रस्तुत करने के कारण फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी में आंचलिक उपन्यास की परम्परा के प्रवर्तक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। हिंदी उपन्यास का कोई भी अध्ययन रेणु के उपन्यासों विशेषतः ‘मैला आंचल ‘ के अध्ययन के बगैर अधूरा है।

इस इकाई में आंचलिकता के संदर्भ में ‘मैला आंचल ‘ का अध्ययन व विश्लेषण किया जाएगा।

आंचलिकता और आंचलिक उपन्यास

‘मैला आंचल ‘ को आंचलिक उपन्यास के संदर्भ में जानने समझने से पूर्व आंचलिकता और आंचलिक उपन्यास की अवधारणा को समझना ज़रूरी है।

आंचलिकता शब्द अंग्रेज़ी के रिजन (Rigion) शब्द के पर्याय रूप में हिंदी में प्रयुक्त हआ है। अंग्रेज़ी में ‘रिजनल नावेल ‘ की सुस्थिर परंपरा रही है। अंग्रेजी में टामस हार्डी जैसे महान उपन्यासकार आंचलिक उपन्यासकार के रूप में ही प्रसिद्ध हुए हैं। जे.ए. कुडन के अनुसार ‘एक आंचलिक लेखक एक विशेष क्षेत्र पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है और इस क्षेत्र और वहाँ के निवासियों को अपनी कथा का आधार बनाता है।’

अंग्रेज़ी भाषा में सबसे पहले आंचलिक उपन्यासकारों में एक आमिस्थ अंग्रेज़ लेखिका मारिया एडवर्थ (1868-1849) का नाम लिया जाता है। उनके प्रसिद्ध उपन्यासों में ‘कासल रैक्टं ‘ (1800), ‘बेलिंदा ‘ (1810) शामिल है।

अंग्रेज़ी में तीन लेखक आंचलिक उपन्यासकार के रूप में विशेष प्रसिद्ध हुए हैं : टामस हार्डी, ऑनल्ड बैनेट और विलियम फॉकनर। उसके इलावा यूरोप की अन्य भाषाओं : फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश आदि में भी अनेक लेखक आंचलिक चित्रण के लिए प्रसिद्ध हुए हैं।

भारतीय साहित्य में भी आंचलिकता का चित्रण लगभग सभी भाषाओं में मिलता है, किसी विशेष स्तर पर जाकर आंचलिकता एक प्रवृत्ति का रूप धारण कर लेती है। बंगला भाषा में विभूति भूषण बंधोपाध्याय, सतीनाथ भादुडी, मराठी में गो.नी.दांडेकर, पंजाबी में गुरदयाल सिंह आंचलिकता के चित्रण के कारण ही जाने जाते हैं।

यूरोप की इस पृष्ठभूमि के बाद भारत व हिंदी क्षेत्र में अंचल की अवधारणा पर विचार हो सकता है। स्पष्ट है कि ‘अंचल ‘ शब्द का अर्थ किसी ऐसे भूखंड, प्रांत या क्षेत्र विशेष से है, जिसकी अपनी एक विशेष भौगोलिक स्थिति, संस्कृति, लोकजीवन, भाषा व समस्याएँ हों। अपनी तमाम विशिष्टताओं से उस अंचल विशेष का अपना एक जीवित व्यक्तित्व नज़र आए, जो दुसरे अंचलों से अलग पहचान बनाए।

ऐसे किसी अंचल विशेष को आधार बनाकर रची जाने वाली औपन्यासिक कृति सहज ही .. आंचलिक उपन्यास मान ली जाएगी। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने ‘हिंदी साहित्य कोश ‘ में कहा है कि ‘लेखक द्वारा अपनी रचना में ‘आंचलिकता की सिद्धि के लिए स्थानीय दृश्यों, प्रकृति, जलवायु, त्यौहार, लोकगीत, बातचीत का विशिष्ट ढंग, मुहावरे, लोकोक्तियां, भाषा के उच्चारण की विकृतियां, लोगों की स्वभावगत व व्यवहारगत विशेषताएं, उनका अपना रोमांस, नैतिक मान्यताओं आदि का समावेश बड़ी सतर्कता और सावधानी से किया जाता है।’ आंचलिकता की इस परिभाषा के बाद हिंदी में आंचलिक उपन्यासों की परंपरा का विहंगावलोकन भी आपके लिए उपयोगी हो सकता है।

हिंदी में आंचलिक उपन्यासों की परंपरा

यद्यपि 1954 में रेणु के ‘मैला अधिल ‘ के प्रकाशन के बाद ही हिंदी में एक स्वतंत्र प्रवृत्ति के रूप में आंचलिक उपन्यास की चर्चा आरंभ हुई, तथापि उपन्यास में अंचल विशेष का चित्रण रेणु से पहले भी मिलता है। नागार्जुन ने रेणु से पहले लिखना शुरू किया। उनके अधिकांश उपन्यासों को सामाजिक या प्रगतिवादी धारा में रखने के साथ-साथ आंचलिक उपन्यास भी माना जाता है। नागार्जुन के ‘बलचनमा (1952) में आंचलिकता का पहली बार कलात्मक समावेश हुआ है। इस उपन्यास में बिहार की मिथिला भूमि को ही आधार बनाया गया है। एक नौजवान बलचनमा के जीवनवृत द्वारा अंचल विशेष के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक स्तरों को इस उपन्यास में उघाड़ा गया है। नागार्जुन के प्रथम उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची ‘ (1949) में भी आंचलिकता की छाप है, लेकिन ‘बलचनमा ‘ के स्तर की नहीं। इन उपन्यासों के साथ ही नागार्जुन के अन्य उपन्यासों ‘नई पौध ‘ (1953), ‘बाबा बटेसरनाथ (1954), ‘वरूण के बेटे ‘ (1958), ‘दुःख मोचन ‘ (1958) आदि में भी बिहार के आंचलिक परिवेश का चित्रण हुआ है। इनमें ‘वरूण के बेटे ‘ में आंचलिक परिवेश का चित्रण अधिक परिपक्व माना जाता है।

रेणु के अतिरिक्त हिंदी में अन्य आंचलिक उपन्यासकारों में उदयशंकर भट्ट का नाम भी सम्मान से लिया जाता है। उनके उपन्यास ‘सागर, लहरें और मनुष्य (1955) में मुम्बई के मछुआरों के एक क्षेत्र वरसोवा का बड़ा जीवंत चित्रण हुआ है। इस उपन्यास की सफलता का आधार इसका सजीव परिवेश चित्रण है, जिसके कारण ‘सागर लहरें और मनुष्य ‘ को हिंदी का महत्वपूर्ण आंचलिक उपन्यास स्वीकार किया गया है।

उदयशंकर भट्ट के अन्य उपन्यास ‘लोक परलोक ‘ (1955) में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तीर्थ ग्राम का मर्मस्पर्शी चित्रण हुआ है।

रांगेय राघव के उपन्यास ‘कब तक पुकारूं (1958) में राजस्थान और ब्रज की सीमा पर बसे . गाँव के कर नटों का चित्रण किया गया है। इस उपन्यास में आंचलिकता के चित्रण के लिए क्षेत्र की सजीव भाषा का भी सहारा लिया गया है जिसमें खड़ी बोली हिंदी में ब्रजभाषा के बहुतायत है। रांगेय राघव के अन्य उपन्यासों ‘मुर्दो का टीला’ आदि में भी आंचलिकता का चित्रण हुआ है।

देवेन्द्र सत्यार्थी पंजाबी के साथ-साथ हिंदी के भी प्रतिष्ठित लेखक हैं। उनके उपन्यास ‘ब्रह्मपुत्र ‘ (1956) में असम प्रदेश के लोकजीवन का मोहक चित्रण हुआ है। उनके कुछ अन्य उपन्यासों ‘दूध झाछ ‘ आदि में भी आंचलिकता का समुचित समावेश है।

राजेन्द्र अवस्थी के ‘जंगल के फूल ‘, में बस्तर क्षेत्र के जनजीवन का चित्रण हुआ है। शैलेश मटियानी के ‘हौलदार (1960) में कुमाऊं के पर्वतीय अंचल का गाढ़ा स्पर्श है। रामदरश मिश्र के ‘पानी के प्राचीर ‘ में गोरखपुर क्षेत्र का जनजीवन अपनी आंचलिकता के साथ विविधता में अंकित हुआ है।

शिवप्रसाद सिंह के अलग अलग वैतरणी ‘ (1968) में करैता गांव का जीवन है तो श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी ‘ (1965) में शिवपाल गंज की कथा है।

इन सभी उपन्यासों से पहले 1925 ही में शिवपूजन सहाय के ‘देहाती दुनिया में भोजपुरी जनपद के एक अंचल का मनोहारी चित्रण हुआ है। इस अर्थ में “देहाती दुनिया को भी हिंदी का प्रथम आंचलिक उपन्यास कहा जा सकता है। इसी परंपरा में शिवप्रसाद रूद्र का 1952 में प्रकाशित उपन्यास ‘बहती गंगा ‘ को भी आंचलिकता के चित्रण के कारण आंचलिक उपन्यासों में गिना जा सकता है।

अमृतलाल नागर के उपन्यासों ‘बूंद और समुद्र ‘ (1956) व ‘सेठ बांकेमल ‘, ‘बलभद्र ठाकुर के ‘मुक्तावली ‘, ‘आदिलनाथ ‘ आदि, हिमांशु श्रीवास्तव के ‘लोहे के पंख ‘ व ‘नदी । फिर बह चली ‘. राही मासूम रज़ा का ‘आधा गांव ‘, मनहर चौहान ‘हिरना सांवरी ‘, केशव प्रसाद मिर ‘कोहवर की शर्त , भैरव प्रसाद गुप्त कृत ‘गंगा मैया ‘ व सती मैया का चौरा ‘. विवेकी राय कृत ‘लोक ऋण ‘, हिमांशु जोशी कृत ‘कमार की आग ‘. धूमकेतु कृत ‘माटी की महक ‘ आदि में भी अंचल विशेष के सजीव चित्र प्रस्तुत हुए हैं।

पंजाब के जनजीवन का जीवंत चित्रण कृष्णा सोबती कृत “जिंदगीनामा ‘ व मित्रो मरजानी व जगदीश चंद्र कृत ‘कभी न छोड़े खेत ‘, ‘धरती धन न अपना ‘ व ‘नरक कुंड में बास ‘ में हुआ है। बलवंत सिंह के उपन्यासों ‘शत चोर और चांद, ‘कलि कोष ‘, ‘राबी पार’, ‘चक्क पीरां का जस्सा ‘ व ‘दो अकालगढ ‘ में भी विभाजन पूर्व पंजाब का रोमांटिक चित्रण प्रस्तुत हुआ  है।

वास्तव में अंचल विशेष के चित्र हिंदी के अनेक उपन्यासों में हुए हैं, लेकिन उन सभी उपन्यासों को उनकी अन्य विशेषताओं – सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, ऐतहासिक आदि के कारण उन्हें आंचलिक उपन्यासों की श्रेणी मे नहीं रखते। फणीश्वर नाथ रेणु ने ‘मैला आंचल के बाद ‘परती परिकथा ‘ (1958) में भी ‘मैला आंचल के ही अंचल विशेष को पुनः नयीं कथा के माध्यम से चित्रित किया है। यहाँ परानपुर गांव केंद्र में है, जो स्वातंत्र्योत्तर संक्रमणकालीन भारतीय गांवों का प्रतीक है। रेणु के एक अन्य उपन्यास ‘जुलूस ‘ में गोडियार गांव की कथा है, जहाँ पूर्वी बंगाल से …. उखड़कर आए शरणार्थी बसे हैं। रेणु के ‘दीर्घतपा’, ‘कलंक मुक्ति ‘ व ‘पलटूबाबू रोड’ उपन्यासों में भी बिहार के अंचल की ही कथा का विस्तार मिलता है। आंचलिकता और आंचलिक उपन्यास, विशेषतः हिंदी उपन्यास के संदर्भ में अब “मैला आंचल में आंचलिकता की स्थिति पर विस्तार से विचार करना आपके लिए अधिक उपयोगी होगा।

मैला आंचल : आंचलिक संदर्भ

“मैला आंचल ‘ उपन्यास को, इससे पहले कि आलोचक इसकी आंचलिक उपन्यास के रूप में व्याख्या या विश्लेषण करते, स्वयं लेखक ने ही ‘आंचलिक उपन्यास ‘ कहकर प्रस्तुत किया । है। उपन्यास के प्रथम संस्करण की संक्षिप्त भूमिका में रेणु ने पहला ही वाक्य लिखा है – ‘यह है मैला आंचल एक आंचलिक उपन्यास। ‘ वास्तव में लेखक के ये शब्द हिंदी उपन्यास के । विकास में निर्णायक दिशा देने वाले सिद्ध हुए, क्योंकि 1954 से पहले भी हिंदी में आंचलिक उपन्यासों की रचना हो रही थी, लेकिन किसी आलोचक या उन उपन्यासों के लेखकों ने अपनी औपन्यासिक रचना को ‘आंचलिक ‘ नहीं कहा। यह रेणु का सजनात्मक प्रतिमान का सचेत प्रयास ही है कि उन्होंने स्वयं इसे आंचलिक उपन्यास कहा। इस अर्थ में रेणु ने एक . सर्जक के साथ-साथ एक आलोचक व विश्लेषक की भूमिका भी स्वयं ही निभाई।

‘मैला आंचल ‘ के आंचलिक संदर्भ को समझने के लिए रेणु द्वारा लिखी इस उपन्यास की संक्षिप्त भूमिका का पर्याप्त महत्व है।

रेणु ने अपनी भूमिका में ही उपन्यास की आंचलिकता की अनेक परतों को खोला है। उन्होंने पूर्णिया को उपन्यास का कथानक कहा है। अर्थात् एक अंचल विशेष ही उपन्यास की कथा का आधार बिंदु है, ना कि चरित्र विशेष या घटना विशेष। इतने स्पष्ट रूप से शायद इससे पहले किसी भी उपन्यासकार ने क्षेत्र या अंचल विशेष को सजनात्मकता के संदर्भ में इतना महत्व नहीं दिया। इस उपन्यास में पूर्णिया का एक जीवन्त व्यक्तित्व हमारे सामने अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ उद्घाटित हुआ है।

पूर्णिया को कथानक कह कर रेणु ने पूर्णिया की स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत की है। पूर्णिया बिहार राज्य का एक ज़िला है, जिसकी सीमा एक ओर नेपाल तो दूसरी ओर पाकिस्तान (अब बांगला देश) व पश्चिम बंगाल से लगती है। पूर्णिया के भौगोलिक नक्शे को और अधिक मूर्त रूप देते हुए रेणु ने भूमिका में ही बताया है कि पूर्णिया की सीमा रेखा संथाल परगना के . आदिवासी क्षेत्र व मिथिला के क्षेत्र से भी मिली हुई है। पूर्णिया के विशाल क्षेत्र को उन्होंने अपने कथानक का आधार न बनाकर इस क्षेत्र के केवल एक ही गांव (मेरीगंज) को केंद्र में रखा है और यह गांव भी पिछड़े गांवों के प्रतीक ‘ रूप में प्रस्तुत किया गया है। अपनी बात को रेणु ने काव्यात्मक रूप में इस प्रकार कहा है –

‘इसमें फूल भी हैं शूल भी, धूल भी है, गुलाल भी, कीचड भी है चंदन भी, सुंदरता भी है कुरूपता भी ‘ मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया।

रेणु की ‘मैला आंचल की भूमिका रूप में आई यह काव्यात्मक अभिव्यक्ति ‘मैला आंचल के विश्लेषण में प्रायः उद्धृत की जाती है। वास्तव में रेणु ने ‘मैला आंचल के शरीर (पूर्णिया – भौगोलिक क्षेत्र) व आत्मा (फूल-शूल, धूल-गुलाल, कीचङ-चंदन, सुंदर-कुरूप) आदि के स्पष्ट संकेत उपन्यास की संक्षिप्त भूमिका में दे दिए हैं। अब देखना यह है कि उपन्यास मे इस शरीर और आत्मा ने कैसा रूप ग्रहण किया है।

रेणु ने ‘मैला आंचल की कथा को दो खंडों में करीब ढाई सौ पृष्ठों की पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया है। 1946 से 1948 के बीच के ऐतिहासिक रूप से संक्रमण काल के अत्यंत . महत्वपूर्ण युग-खंड को लेखक ने सजनात्मक रूप में बांधने का प्रयास किया है। करीब सौ वर्ष के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के बाद 1948 में भारतीय नेताओं के हाथों सत्ता सौंपने का यह ऐतिहासिक काल-खंड है। रेणु के उपन्यास की प्रेरणास्रोत कोई व्यक्ति-चरित्र नहीं, ग्रामवासिनी भारत मां है। उपन्यास के प्रमुख चरित्र डॉ. प्रशांत कुमार की भावनाओं में भी यही ग्रामवासिनी मां रची-बसी है।

मैला आंचल! लेकिन धरती माता अभी स्वर्णांला है। डॉ. प्रशांत के दिल का दर्द रेणु के अपने दिल का दर्द है। रेणु का भाव जगत 1942 के ‘भारत छोड़ो ‘ आंदोलन से लेकर 1948 के सत्ता परिवर्तन व स्वातंत्र्योत्तर भारत की बनती-बिगड़ती तस्वीर से निर्मित है। देश की जनता और विशेषतः ‘ग्रामवासिनी ‘ किसान जनता के दुःख-सुख से उनका गहरा सरोकार है और इस गहरे सरोकार से ही ‘मैला आंचल की रचना हुई है। इस गहरे सरोकार से ही आंचलिक उपन्यास की रेणु की कल्पना व अवधारणा विकसित हुई है। देश रेणु के लिए कोई अमूर्त इकाई नहीं है। उनका देश पचहत्तर प्रतिशत ग्रामीण अंचलों में बसे जन-जन से बना है। बिहार के अंचलों का अपना रंग है तो पंजाब के अंचलों का अपना, दक्षिण का अपना रंग है और पश्चिम का अपना। सो देश को किसी एक रंग में यांत्रिक रूप से आबद्ध नहीं किया जा सकता । यदि देश की संकल्पना को मूर्त रूप देना हो और इससे भी बढ़कर सृजनात्मक रूप देना हो तो इसका रंग-बिरंगा रूप अनेक क्षेत्रों के रंग-बिरंगे अंकनों से ही उभरेगा। इसका एक रूप रेणु के ‘मैला आंचल के रूप में उभरेगा तो दूसरा कृष्णा सोबती के ‘ज़िदंगीनामा ‘ के रूप में।

‘मैला आंचल ‘ की आंचलिकता का संदर्भ समझने के लिए सबसे पहली व मुख्य जरूरत है आंचलिक चित्रण के पीछे उनकी मनोभावना को समझना। ‘मैला आंचल ‘ के अंचल-चित्रण के पीछे निहित मनोभावना है – अत्यंत गहरा देशप्रेम और यह देश प्रेम पत्थर की इमारतों से न होकर देश की मूर्त मेहनतकश जनता से है और ‘मैला आंचल ‘ के विशेष संदर्भ में यह प्रेम बिहार के पूर्णिया क्षेत्र के मेरीगंज गांव की संघर्षशील जनता से है। मेरीगंज वास्तव में केवल बिहार के एक अंचल विशेष के पिछड़े गांवों का प्रतीक भर नहीं है, मेरीगंज ‘ग्रामवासिनी भारत माता ‘ के धूल भरे ‘मैले से आंचल ‘ का संपूर्ण चित्र बन जाता है।

मैला, आंचल की आंचलिकता का यही व्यापक संदर्भ है,जिससे इसमें शूल-फूल, धूल-गुलाल आदि को अधिक संवेदना से समझा जा सकता है। इस व्यापक संदर्भ का महत्व और भी बढ़ जाता है, जब इसे 1942-48 के कालखंड की पृष्ठभूमि में समझा जाता है। रेणु को यदि अंचल विशेष का चित्रण ही अपेक्षित होता तो उन्हें कालखंड के उल्लेख की आवश्यकता न होती। लेकिन रेणु का कालखंड के उल्लेख और उस कालखंड की व्यापक परिस्थतियों के चित्रण पर विशेष बल है। इस ऐतिहासिक कालखंड के संक्रमणकालीन दौर के सम्पूर्ण चित्रण के कारण ही ‘मैला आंचल ‘ हिंदी के इतने महत्वपूर्ण उपन्यास का स्थान हासिल कर सका, अन्यथा केवल आंचलिकता का चित्रण तो हिंदी में अनेक उपन्यासों में हआ है। लेकिन उनका वैसा महत्व नहीं है, जैसा ‘मैला आंचल ‘ का है। स्वयं रेणु के ही अन्य उपन्यास आंचलिकता के अधिक सघन चित्रण के बावजूद ‘मैला आंचल के शिखर को नहीं छू पाए।

अतः ‘मैला आंचल संबंधी दो बातें स्पष्ट हैं कि यह उपन्यास आंचलिक उपन्यास की प्रवृत्ति आरंभ करने वाला उपन्यास तो है, लेकिन इसकी शक्ति केवल इसकी आंचलिकता के कारण नहीं, वरन् एक ऐतिहासिक दौर के संक्रमण को आंचलिकता के परिवेश में चित्रित करने के कारण है।

मैला आंचल : आंचलिकता के विविध रंग

1946 में बिहार के सुदूर पिछड़े गांव में पुलिस या सेना के जवानों के पहुंचने का क्या प्रभाव होता है, इसका चित्रण उपन्यास के प्रारंभ में मिलता है। बिना किसी पड़ताल के गांव में बिजली की तरह खबर फैलती है कि ‘मलेटरी ने बहरा चेथरू को गरवक कर लिया है।’ खबर फैलने के पीछे पृष्ठभूमि यह है कि 1942 के जन-आंदोलन के समय इस गांव में तो न कोई घटना घटी, न ही सेना-पुलिस आई, लेकिन ज़िले भर की घटनाएँ बढ़-चढ़ कर अफवाहों के रूप में यहाँ खूब फैली और इन बढ़ी-चढ़ी खबरों या अफवाहों से भारत में ब्रिटश औपनिवेशिक शासन का त्रासजनक चित्र गांव वासियों में फैलता है। इसीलिए वर्दीधारी चाहे जिस कारण से गांव में आए हैं, उनका प्रथम प्रभाव एक दमनकारी सत्ता के तंत्र रूप में ही पड़ता है। रेण ने इस प्रभाव को एक नाटकीय रूप देकर ‘मैला आंचल ‘ के प्रारंभ में ही चित्रित किया है।

डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के बंगाली अधिकारी ‘मलेरिया सेंटर ‘ खोलने के लिए गांव में सुरक्षा कर्मियों के साथ आ गए हैं। गांव में खबर फैलती है गिरफ्तारियाँ की और गांव के लोग गांव के स्वतंत्रता सेनानी बालदेव गोप को खुद ही बांध ले आते हैं, क्योंकि बालदेव दो साल जेल में रहा है, खद्दर पहनता है और ‘जै हिंद ‘ बोलता है। इस घटना का नाटकीय अंत होता है,बालदेव के अतिरिक्त सम्मान से, क्योंकि बंगाली अफसर का किरानी जीत्तन बाबू पहले कांग्रेस दफ्तर का किरानी था और वह बालदेव की प्रशंसा के पुल बांध देता है।

आंचलिकता का पहला रंग उघड़ता है ‘गाँववासियों के पिछड़ेपन के चित्रण के रूप में, जहाँ अभी शिक्षा और जागृति के चिन्ह नहीं हैं और ‘सरकार बहादुर’ की मानसिक गुलामी से लोग बंधे हैं। पिछड़ेपन के चित्रण के साथ गांव की पृष्ठभूमि का अंकन भी रेणु ने किया है। यह गांव है मेरीगंज, जो दौतहट स्टेशन से सात कोस पूरब, बूढ़ी कोशी नदी के पार है।’

इस गांव का पहले कुछ और नाम था। उन्नीसवीं सदी के आखिर और बीसवीं सदी के शुरू में इस क्षेत्र में नील की खेती के लिए अंग्रेज़ों ने यहाँ गांव-कस्बों-जंगलों-मैदानों में कोठियां बनाई। बीसवीं सदी के शुरू में आए डब्लू.जी. मार्टिन ने इस गांव में कोठी बनवाई और गांव का नाम बदलकर अपनी नयीनवेली दुल्हन मेरी के नाम पर रखा – मेरीगंज। गांव का नाम तो हो गया मेरीगंज, लेकिन मेरी यहाँ कुल एक सप्ताह ही रह पाई और “जडैया ‘ बुखार से चल बसी। मार्टिन को तब पता चला कि गांव में पोस्ट आफिस से पहले डिस्पेंसरी खुलवाना ज़रूरी है। मेरी की याद में मार्टिन ने डिस्पेंसरी के लिए ज़मीन दी, ज़मीन आसमान एक किया, लेकिन डिस्पेंसरी न खुलवा सका और पागल होकर मर गया। ब्रिटिश उपनिवेश ने जिस प्रकार की शासन व्यवस्था स्थापित की, इसका प्रभाव आज भी देखा जा सकता है। और पैंतीस बरस बाद अब गांव में मलेरिया सेंटर। डिस्पेंसरी खुलने जा रही थी।

रेण की सजनात्मकता का कमाल इस बात में है कि उन्होंने अपना कथानक इस प्रकार बुना है कि आंचलिकता के चित्रण के रूप में मेरीगंज का भोगौलिक चित्र ही नहीं, वहाँ का सामाजिक-सांस्कृतिक चित्र भी उद्घाटित होता है, लेकिन इससे भी बढ़ कर औपनिवेशक शासन-व्यवस्था का, नग्न चित्र भी साथ-साथ उद्घाटित होता है।

मेरीगंज के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का चित्रण करते हुए रेणु गांव में बारह वर्ण होने की बात करते हैं। इस गांव में तीन जातियां प्रमुख हैं – राजपूत, कायस्थ व यादव। इन के अंतर्विरोधों को रेणु ने बड़ी सूक्ष्मता से चित्रित किया है जिस पर आगे चर्चा की जाएगी।

सामाजिक भेदभाव

गांव में कबीरपंथी डेरा है, जिसके महंत सेवादास इलाके के ज्ञानी साधु समझे जाते हैं। लेकिन लछमी नाम की लड़की को लेकर महंत की बदनामी भी है। महंत अंधा हो जाता है और गांव वालों को विश्वास है कि लछमी जैसी अबोध बालिका को अपनी दासी बनाने के कारण यह अंधा हुआ है। इस महंत के चेले रामदास को भी जनविश्वास में लछमी पर आंख रखने वाला लंपट ही समझा जाता है। लेकिन यही महंत जब रात के सपने की बात कहकर जनता को गांव में खुल रहे अस्पताल के पक्ष में कर लेता है व साथ ही गांववासियों के लिए भण्डारे की घोषणा कर देता है तो गांव वालों का नज़रिया उसके प्रति बदल जाता है। पूडी-जलेबी और दही-चीनी के भण्डारे से जनमत बदल जाता है। गांव के अनेक ऐसे गरीब टोले हैं, जिन्होंने जीवन में कभी पूडी-जलेबी चखी भी नहीं। इस भंडारे से गांव का जातीय भेदभाव भी उद्घाटित होता है। ब्राह्मण टोली वालों का अलग, राजपूतों का अलग और नीची जातियों का खान-पान अलग।

‘मैला आंचल — में लेखक का सर्वाधिक ध्यान अंचल की जन-चेतना को चित्रित करने पर केंद्रित है। गांव में अस्पताल बनने की प्रक्रिया, राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि, राष्ट्रीय आंदोलन के संदर्भ में औपनिवेशिक दमन और दमन के सामने सामान्य जन का कुछ झुकना व कुछ प्रतिरोध करना इन सभी स्थितियों को रेणु ने पूर्णिया जिला के जनसामान्य के प्रति हार्दिक संवेदना महसूस करते हुए चित्रित किया है। साथ ही साथ मिथिला अंचल की लोक संस्कृति भी सहज रूप से अंकित होती चलती है।

कथा का आरंभ डॉ. प्रशांत कुमार के गांव आने से होता है, लेकिन डॉ. के गांव पहंचने से पहले लेखक गांव की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों का एक रेखाचित्र पृष्ठभूमि के रूप में उकेर देता है। मिथिला क्षेत्र में सभागाछी अर्थात् विवाहार्थी मैथिलों के मेले का ज़िक्र भी लेखक ने ‘जोतखी जी ‘ के नकली दांत लगवाने के हंसी खेल भरे प्रसंग में कर दिया है। गांव की जाति भेद की चेतना ब्राह्मण टोली द्वारा डॉ. की जाति के प्रति जिज्ञासा दिखाने खाना खाने के प्रति विरोध दिखाने से प्रकट होती है।

डॉ. प्रशांत कुमार के गांव पहुंचने के पहले ही महंत सेवादास की मृत्यु हो जाती है और यहाँ पहली बार मिथिला की लोक संस्कृति अपने धार्मिक पाठ वाले लोकगीतों में प्रकट होती है। सबसे पहले बीजक का पाठ शुरू होता है, महंत को मिट्टी दी जाती है, उनकी देह पर सफेद चादर ओढाई जाती है, तब महंत का चेला रामदास ‘निरगुन ‘ गाता है।

कांचहि बांस के पिंजडा

जामें दियरो न बाती हो

अरे हंसा उडल आकाश

कोई संगी न साथी हो!

महंत की मृत्यु के बाद दासी व कोठारिन लछमी और स्वतंत्रता सेनानी बालदेव जी में निकटता और बढ़ जाती है। लछमी अपने बीजक की प्रति बालदेव को रोज़ पाठ करने के लिए देती है। मेरीगंज के डेरे के चित्रण से मिथिला क्षेत्र में संत कबीर व कबीर पंथ के प्रभाव का भी पता चलता है। हालांकि कबीर जैसे विद्रोही संत ने जीवन में तमाम धार्मिक व सामाजिक विकृतियों और निरूपताओं के प्रति विद्रोह किया, लेकिन चार सौ बरस बाद उनके नाम पर चलाए गए पंथ में वही सब विकृतियां प्रवेश करती दिखाई देती हैं, जिनके विरूद्ध कबीर की वाणी अपनी प्रखरता में गूंजी थी। यही स्थिति स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में भी उद्घाटित होती है। महात्मा गांधी के नेतृत्व में बालदेव व बावनहाथ जैसे लाखों ईमानदार कार्यकर्ताओं ने जो आंदोलन  चलाया, वह गांधी जी के जीवन काल में और बाद में किन विकृतियों का शिकार हुआ है यह भी ‘मैला आंचल ‘ में अच्छी तरह उद्घाटित हुआ है।

डॉ. प्रशांत कुमार के उपन्यास में प्रवेश से आंचलिकता, जातीयता और राष्ट्रीयता के उलझे सवाल और गति प्राप्त करते हैं। मेरीगंज में नाम पूछने के बाद लोग जात पूछते हैं और प्रशांत के शब्दों में उसकी जाति है – डॉ.। डॉ. बंगाली है या बिहारी? नहीं, वह ‘हिंदुस्तानी : है।

डॉ. वास्तव में अनाथ बालक है, जिसे डॉ. अनिल कुमार बनर्जी की पत्नी स्नेहमयी ने पाल-पोस कर बड़ा किया है। कोशी नदी से वह उपाध्याय परिवार को मिला था, जिसने उसे परित्यक्ता स्नेहमयी को सौंप दिया था। 1942 के जन-आंदोलन में डाक्टार ने हिस्सा लिया था और 1946 में कांग्रेसी मंत्रिमंडल में रिहाई के उपरांत विदेश जाने की बजाय उसने मेरीगंज में मलेरिया सेंटर में रिसर्च करने का फैसला किया था। वही प्रशांत अब मार्टिन के सपने और अपने आदर्श को पूरा करने मेरीगंज आया है। यहाँ मेरीगंज आकर ही उसे यथार्थ की, लोकजीवन की वास्तविकताओं का भी बोध होता है। प्रशांत को बिदा करने आई उसकी मित्र ममता उसे बाबा विश्वनाथ का प्रसाद देकर भारतीय वैज्ञानिक व्यवहार के अंतर्विरोध को भी प्रकट कर देती है। ममता स्वयं भी डॉ. है, लेकिन मंगल कामना उसे बाबा के प्रासाद में ही दिखाई देती है। मेरीगंज अंचल की कई विशेषताओं को रेणु ने अपने प्रमुख पात्र डॉ. प्रशांत के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

‘गांव के लोग बड़े सीधे दीखते हैं, सीधे का अर्थ यदि अनपढ़, अज्ञानी और अंधविश्वासी हो तो. वास्तव में सीधे हैं वे। जहाँ तक सांसारिक बुद्धि का सवाल है, वे हमारे और तुम्हारे जैसे लोगों को दिन में पाँच बार ठग लेंगे। और तारीफ यह है कि तुम ठगी जाकर भी उनकी सरलता पर मुग्ध होने के लिए मजबूर हो जाएगी। यह मेरा सिर्फ सात दिन का अनुभव है। संभव है, पीछे चलकर मेरी धारणा गलत साबित हो। मिथिला और बंगाल के बीच का यह हिस्सा वास्तव में मनोहर है। औरतें साधारणतः सुंदर होती है, उनके स्वास्थ्य भी बुरे नहीं।

पिछड़े क्षेत्रों के ग्रामीणों संबंधी यह धारणा केवल मेरीगंज ही नहीं, देश के किसी भी क्षेत्र पर लागू हो सकती है। लेकिन यहाँ अंचल की विशिष्टता भी प्रकट होती है। इसके मनोहारी रूप में यानि प्राकृतिक पर्यावरण की दृष्टि से और औरतों की सुंदरता यानि सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण की दृष्टि से। लेखक ने अपने पात्र डॉ. प्रशांत के जरिये अपनी भावनाओं व विचारों को व्यक्त करने का प्रयास भी किया है।

डॉ. का गाँव में पहला चुनौतीपूर्ण रोगी है – तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद की बेटी कमला जो एक स्तर पर मानसिक रोगी है, लेकिन इस रोग की अभिव्यक्ति कई बार शारीरिक स्तर पर भी होती है। कमला युवा लड़की है, जिसका अनेक कारणों से अभी विवाह नहीं हो पाया है। दो तीन जगह बात पक्की होकर टूट गई और अब कोई लड़का तैयार न होने से कमला को अपने अस्तीकृत किए जाने का मानसिक आघात है, जो तहसीलदार की अकेली लाडली बेटी होने से. तिरिक्त संवदेनशील होने से अधिक तीव्रता प्राप्त करता है। डॉ. द्वारा इसका इलाज रेडियो के गीत से शुरू होता है और कमला खिल-खिलाने लगती है।

स्त्री-पुरूष संबंध के प्रति दृष्टिकोण

‘मैला आंचल · में चित्रित अंचल में लगता है कि स्त्री-पुरूष संबंधों को लेकर जन-चर्चाएं जैसी भी हों, कुंठाएं उतनी नहीं हैं। इन संबंधों में महंत सेवादास लछमी संबंध, महंत रामदास – रामप्यारी संबंध, फुलिया-सहदेव मिश्र संबंध, रामप्यारी की मां के संबंध इत्यादि शामिल हैं। कुछ हद तक इन संबंधों में उन्मुक्तता का प्रभाव नज़र आता है। लेकिन यह मिथिला की लोक संस्कृति का विशिष्ट लक्षण नहीं हो सकता, कोई लोक संस्कृति स्त्री के शोषण की परंपरा या रीति को मान्यता नहीं देती। स्त्री के प्रति विकृत व दमनकारी रवैए का विरोध भी होता है हर शोषण के विरोध में उठी आवाज को रेणु ने अभिव्यक्ति दी है। महंत सेवादास के बाद रामदास म का महंत बन गया था। महंत बनते ही मठ की दासिन लक्षमी को अपने वश में करके उसके शरीर को भोगना चाहता है, कोई न कोई बहाना बनाकर वह लक्षमी को पास बुलाना चाहता है। लेकिन सेवादास द्वारा लक्षमी की किशोरावस्था में ही किए शारीरिक शोषण को वह कैसे भुला पाती? तब वह अनाथ और असहाय बच्ची थी, यौवन से पहले ही उसके शरीर पर उसके दादा जितने बड़े सेवादास ने अत्याचार किए थे। वह रोज रात उसके शरीर को नोचता खसोटता और एक निरीह बालिका सिवाय रोने के कुछ नहीं कर पाती थी। यादवटोली का किसन महंत के इस कुकर्म के बारे में कहता है, “अंधा महंत अपने पापों का प्राच्छित कर रहा है। बाबाजी होकर जो रखेलिन रखता है, वह बाबाजी नहीं। उपर बाबाजी भीतर दगाबाजी। क्या कहते हो? रखेलिन नहीं, दासिन है? किसी और को सिखाना। पांच वर्ष तक मठ में नौकरी किया है, हमसे बढ़कर और कौन जानेगा मठ की बात? और कोई देखें या नहीं देखें, ऊपर परमेश्वर तो है।

मंहत जब लछमी दासिन को मठ पर लाया था तो वह एकदम अबोध थी, एकदम नादान। एक ही कपडा पहनती थी। कहां वह बच्ची और कहां पचास बरस का बूढ़ा गिद्ध । रोज रात में लछमी रोती थी-ऐसा रोना कि जिसे सुनकर पत्थर भी पिघल जाते थे। रोज सुबह लछमी दूध लेने बथान पर आती थी, उसकी आंखे कदम के फूल की तरह फूली रहती थीं। रात में रोने का कारण पूछने पर चुपचाप टुकुर-टुकुर मुंह देखने लगती थी…… ठीक गाय की बाछी की तरह, जिसकी मां मर गई हो…./ मंहत द्वारा लछमी के यौन शोषण के प्रति गांव के लोगों के मन मे गुस्सा था। विरोध का स्वर बहुत तीव्र नहीं था लेकिन मंहत की इस । घिनौनी हरकत पर लोग उसकी आलोचना करते हुए दिखते है, “मंहत सेवादास इस इलाके के ज्ञानी साधु समझे जाते थे, सभी सास्तर-पुरान के पंडित! मठ पर आकर लोग भूख-प्यास भूल जाते थे। बडी पवित्र जगह समझी जाती थी। लेकिन जब मंहत दासिन को लाया, लोगों की राय बदल गई।” जिस लछमी को मंहत सेवादास ने लडाई-झगडे और मुकदमे करके कानूनी तौर पर हासिल किया था। जब सेवादास के वकील ने मंहत को समझाकर कहा था तब मंहत साहब ने वकील को विश्वास दिलाते हुए कहा था – “वकील साहब, लक्ष्मी बेटी की तरह रहेगी…”

लेकिन मंहत ने अपनी लालसा को ज्यादा महत्व दिया बजाए इसके कि लक्ष्मी को एक बाप की तरह सुरक्षा प्रदान करता। एक पुरुष सत्तात्मक समाज स्त्री के बारे में कितना नृशंस और अत्याचारी हो सकता है, इसकी यह मिसाल है।

रेणु ने मिथिला अंचल की नारी की स्थिति की वास्तविकता को चित्रित किया है। नारी को सम्मान-जनक स्थान देने के पक्ष में वहां का पुरूष समाज आज भी तैयार नहीं है। चाहे वह सामाजिक अधिकार हो अथवा आर्थिक या सांस्कृतिक, हर बात में पुरूष की मर्जी को अहमियत दी जाती है।

फुलिया एक विधवा बेटी है, उसके दूसरे विवाह की चिंता करने के स्थान पर उसके द्वारा शरीर बेचकर आई कमाई पर उसके माता-पिता अपने घर का खर्च चला रहे हैं। उसके लिए दिवाने खलासी को टालते जा रहे हैं। फुलिया स्वयं भी खलासी से शादी करना चाहती है लेकिन मांबाप के आगे वह कुछ नहीं बोल पाती। अपनी मामी के सामने वह दिल की बात खोल देती है, ‘मामी, काली किरिया, किसी से कहना मत। खलासी जी इतने दिनों से दौड रहे हैं। बाबा कोई बात साफ-साफ नहीं कहते हैं। आखिर वह बेचारा कब तक दौडेगा।

यहां नहीं तो कहीं और ढूंढेगा। दुनिया मे कहीं और तंत्रिमा की बेटी नहीं है क्या?” फुलिया की असहायता यहां पर व्यक्त हुई हैं। फुलिया की इस स्थिति को अन्य लोग भी समझते हैं, गांव की उसकी बुढी काकी चिंता करते हुए दिखती है, वह चाहती है कि फुलिया की खलासी से शादी हो जाए तो उसका भी घर बस जाएगा। इसी लिए फुलिया की मां से वह कहती है “अरे फुलिया की माये! तुम लोगो को न तो लाज है और न धरम। कब तक बेटी की कमाई पर लाल किनारी वाली साडी चमकाओगी? आखिर एक हद होती है किसी बात की! मानती हूं कि जवान बेवा बेटी दुधार गाय के बराबर है। मगर इतना मत दूहो कि देह का खून भी सूख जाए।’

असहाय स्त्री की दयनीय स्थिति व पूरी त्रासदी को बयान करता है यह वक्तव्य।

बालदेव और लछमी व कमला और डॉ. प्रशांत कुमार के संबंध भी प्रेम संबंधों के दायरे में आते हैं। यहाँ तक कि कंवारी कमला तो मां तक बनती है, लेकिन गांव के जन-जीवन में वैसा तूफान नहीं आता है। कालीचरण और मास्टरनी मंगलादेवी में भी प्रेम संबंध हैं। कुछ तो मिथिला के जन-जीवन में कृष्ण कथा व विद्यापति आदि के प्रेम गीतों के प्रभाव से व कुछ स्वयं लेखकीय दृष्टि में स्त्री-पुरुष संबंध चाहे उनका कोई भी स्वरूप हो, वे उन्मुक्त यौन संबंध ही क्यों न हों, उतने अगृहणीय, अनैतिक या असंदर प्रतीत नहीं होते, जितने सामान्य उत्तर भारतीय नैतिक जीवन के लगते हैं। जहाँ पर स्त्री का दैहिक शोषण प्रेम रहित है, उन संबंधों को कुछ हद तक लेखक ने घृणित संबंधों के रूप में चित्रित कर प्रेम संबंधों के प्रति अधिक उन्मुक्त व तार्किक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।

लोकगीतों में अभिव्यक्त लोक संस्कृति

मिथिला क्षेत्र की लोक संस्कृति में होली के समय जोगिया व भउजिया गान बहु प्रचलित हैं। इन लोकगीतों व अन्य लोक परंपराओं का चित्रण उपन्यास में अनेक स्थलों पर हुआ है। गाड़ीवान भउजिया गाते चलते हैं

चढ़ली जवानी मोश संग कड़के से

कब होइहैं गवना हमार रे भउजिया!

कमला की चूंकि कोई भौजी नहीं है, सो दिल का हाल किससे कहे? डॉ. के प्रति उसके मन । में गहरा आकर्षण पैदा हो गया है। डॉ. को इस अंचल की लोक संस्कृति के प्रति भारी जिज्ञासा है। गाँव के समय-समय पर होने वाले मेलों-त्यौहारों में वह खूब रूचि लेता है। खम्हार . . खुलने के दिन गाँव में विदापत नाच है, डॉ. की “विदापत नाच ‘ के प्रति जिज्ञासा से बालदेव हैरान है कि डॉ. इतना ‘खराब ‘ नाच क्यों देखेंगे। मृदंग बज रहा है

धिनक धिनक धा तिरकिट धिन्ना

धिनक धिनक धा तिरकिट धिन्ना

नाच में विकटा यानि विदूषक की भी भूमिका है। विदापत नाच में काम देवता मदन की भी अराधना है। डॉ. इस लोकगान से दंग है, तहसीलदार से वह रचयिता के संबंध में पूछता है और तहसीलदार का जवाब है

‘आप भी डॉ. बाबू क्या पूछते हैं, तहसीलदार साहब हंसते हैं इनकी रचना के लिए भी क्या कोई तुलसीदास और बाल्मीकि की जरूरत है? खेतों में काम करते हुए तुक पर तुक मिला कर गढ़ लेता है।

विदापत नाच देखने पर डॉ. को कोमल गीतों की पंक्तियां याद आती हैं ‘पिया भइले डुमरी के फूल रे पियवा भइले। डॉ. को गांव का लोकगान देखकर बहुत देर से उलझे प्रश्न का उत्तर भी मिल जाता है। डॉ. की उलझन थी विद्यापति के गीतो की रचना के संबंध में और उसे समाधान मिलता है जिंदगी भर बेगारी खटने वाले, अनपढ़ गंवार और अर्धनग्नों के कवित्त में कवि! तुम्हारे विद्यापति के गान हमारी टूटी झोपड़ियों में जिंदगी के मधुरस बरसा रहे हैं। ओ कवि! तुम्हारी कविता ने मचलकर एक दिन कहा था

‘चलो कवि बनफूलों की ओर

बनफूलों की कलियां तुम्हारी राह देखती हैं।’

रेणु के मिथिला अंचल की लोक संस्कृति के इस संवदेनशील चित्रण के कारण ही शायद नेमिचंद्र जैन ने कहा था – ‘भारतीय देहात के मर्म का इतना सरस और भावप्रवण प्रस्तुतिकरण हिंदी में संभवतः पहले कभी नहीं हुआ था। ‘ (‘अधूरे साक्षात्कार) बिहार और उत्तर प्रदेश में होली का त्यौहार सर्वाधिक जोश-खरोश से मनाया जाता है और इन प्रांतों का सांस्कृतिक चित्र इस त्यौहार के चित्र के बगैर अधूरा है। सो रेणु ने भी ‘मैला आंचल ‘ में मेरीगंज में मनाई जाने वाली होली का खूब रंगीन चित्रण किया है। फुलिया नैहर में होली मनाना चाहती है, वह गाती है

नयना मिलानी करी ले रे सैंया, नयना मिलानी करी ले!

अब की बेर हम नैहर रहबौ, जे दिल चाहय से करी ले!

होली ऐसा त्यौहार है, जिसमें स्त्री-पुरूष में रोमांस खुलकर प्रकट होता है, यहाँ तक कि थोड़ी बहुत छेड़-छाड़ भी सामाजिक रूप से स्वीकृत है

अरे बहियाँ पकडि झकझोरे श्याम रे

फूटल रेसम जोडी चूड़ी

मासकि गयी चोली, भींगावल साड़ी

आंचल उड़ि जाये हो ऐसो होरी मचायो श्याम रे!

भारतीय देहात में सब कुछ सरस व मर्मस्पर्शी ही नहीं है, अशिक्षा और मानसिक पिछड़ेपन के कारण बहुत कुछ यंत्रणादायी भी है। डॉ. ने मेरीगंज समेत पन्द्रह गांवों का स्वास्थ्य की दृष्टि से जो अध्ययन किया है, उसके परिणाम बड़े कष्टकारी है। बला की खूबसूरत निरमला मात्र एक बूंद आई ड्राप के अभाव में अंधी हो गई है। एक भद्र महिला, अधेड़ स्त्री, गनेश की नानी व परवती की मां को गांववासी अपने अंधविश्वास में डाइन का दर्जा दे देते हैं।

डॉ. के हाथों गणेश व उसकी नानी दोनों का उद्धार होता है। गणेश को वह रग लेता है और उसकी नानी को मौसी बनाकर उसके घावों पर मरहम लगाता है। लेकिन गणेश की नानी की गांववालों द्वारा हुई हत्या को वह नहीं रोक पाता।

उपन्यास में कुछ स्थलों पर लेखक ने समाज में हो रहे परिवर्तनों को तथ्यात्मक रूप में अंकित किया है। जैसे ‘कपडा राशन पर मिलता है। सारे गांव के लोग अर्धनग्न हैं। मदों के पैन्ट पहनने का रिवाज़ शुरू होने की सूचना है और बारह वर्ष तक के बच्चे नंगे ही रहत हैं।’

होली में गाए जाने वाले ‘जोगिड़ा ‘ लोकगीत में थोड़ी अश्लीलता भी रहती है, मगर इसका सामाजिक व्यंग्य अधिक गहरा होता है। ‘गोदान ‘ का होली प्रसंग भी गोबर द्वारा गांव के शोषकों का चेहरा उघाड़ कर निर्मित हुआ था। ‘मैला आंचल के जोगीड़ा का भी यही स्वर है

जोगीड़ा सर S S S

जोगी जी ताक धिन-धिन

चर्खा कातो खद्दड पहनो, रहे हाथ में झोली

दिन दहाडे करो डकैती बोल सुराजी बोली

1947 से पहले ही कांग्रेस का यह हाल रेणु ने चित्रित किया है। लेकिन कांग्रेस के इस पतन से सच्चे सुराजी बावनदादू जैसे लोग दुःखी हैं । डेढ़ हाथ का अज्ञात कुलशील, जन्मजात साधू! रेणु के “मैला आंचल ‘ के सभी जन-सेवक चरित्र अज्ञात कुलशील ही हैं – डॉ. प्रशांत और बावनदास दोनों अज्ञात कुलशील हैं। दोनों ही अंचल को राष्ट्र से जोड़ते हैं। डॉ. ग्रामवासिनी भारत माता से अनुप्रणित है।

आंचलिक संस्कृति के जो अन्य सच रेणु ने चित्रित किए हैं, उनमें मछली मारने का. ‘सिख ‘ वैशाख-जेठं में ‘तड़बन्ना ‘ में तीन आने लबनी का चित्र, माने ताड़ी पीकर नशे में गानाबजाना और इस गाने-बजाने में क्रांतिकारी भाव भी शामिल हो जाता है

अरे जिंदगी है किरांती से, किरांती में बिताये जा

दुनिया के पूंजीवाद को दुनिया से मिटाये जा।

गाँव में ‘जाट-जटिन ‘ का खेल भी खेला जाता है। वर्षा के भी अनेक गीत मेरीगंज में प्रचलित . हैं और रेणु ने साल भर का कोई ऐसा विशिष्ट अवसर नहीं छोड़ा है, जिसका लोकगीतों से रंगा चित्रण उन्होंने ‘मैला आंचल ‘ में न किया हो। केवल पारंपरिक त्यौहार या लोकगीत ही नहीं, राजनीतिक या सामाजिक घटनाओं के सांस्कृतिक रूपों को भी उन्होंने अनोखे रूप से । चित्रित किया है। भगत सिंह ने असेंबली में बम फेंका और मिथिला अंचल का गांव झूम उठा ‘बम फोड़ दिया फटाक से मस्ताना भगत सिंह

और जवाहर लाल का वर्णन : ‘

भारत का डंका लंका में

बजवाया वीर जमाहिर ने।

भगत सिंह पर तो स्वाधीनता दिवस पर नौटंकी भी बनाई जाती है। लेकिन सुराज के बाद हिंदूमुस्लिम दंगे भी हो रहे हैं और बालदेव को पन्द्रह बीस बरस पुराना स्वतंत्रता संग्राम का इस अंचल में प्रचलित साम्प्रदायिक सद्भाव का गीत याद आता है

अरे, चमके मन्दिरवा में चांद

मसजिदवा में बंसी बजे

मिली रहू हिंदू-मुसलमान

मान – अपमान तजो

उपन्यास के अंत में जेल से रिहा होकर डॉ. प्रशांत फिर गांव आता है और प्रण करता है ‘मैं फिर काम शुरू करूंगा। यहीं इसी गांव में। आंसू से भीगी धरती पर प्यार के पौधे लहलहाएंगे। मैं साधना करूंगा ग्रामवासिनी भारत माता के मैले आंचल तले!’ (पृष्ठ 250)

इस प्रकार रेणु ने भारत माता के एक अंग के रूप में मेरीगंज को आधार बना कर ‘मैला . आंचल ‘ का सृजन किया है। यह सृजन इसलिए अपूर्व रूप से सुंदर व मोहक है, क्योंकि रेणु का अपने अंचल से, उसके जन से, उसके मन से गहरा आत्मीय लगाव रहा है। ‘मैला आंचल’ का सृजन संदर्भ आंचलिक है, लेकिन इस सृजन की विश्व दृष्टि देश प्रेम से परिपूर्ण राष्ट्रीय दृष्टि है। इसलिए अंचल और राष्ट्र एक स्तर पर एक दूसरे में घुल मिल जाते हैं। रेणु अपनी भूमिका में कही गयी बातों को उपन्यास में सही सिद्ध कर देते हैं।

सारांश

इस इकाई में पहले तो अंचल और आंचलिकता की परिभाषा पर विचार किया गया है। फिर हिंदी के आंचलिक उपन्यासो की परंपरा का संक्षिप्त उल्लेख किया गया है। प्रमुख रूप से ‘मैला आंचल-‘ में आंचलिक पहलू किन-किन रूपों में प्रस्तुत हुए हैं, इस पर इकाई में चर्चा की है। ‘मैला आंचल’ में रेणु ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण तकनीक का प्रयोग किया है, जिसके द्वारा आंचलिक पिरवेश के सौंदर्य, उसकी सजीवता और मानवीय संवेदनाओं को उजागर किया है। दृश्यों को चित्रित करने के लिए लेखक ने गीत, लय-ताल, वाद्य (नगाड़ा), ढोल, मनार, खंजडी नृत्य, लोकनाटक जैसे उपकरणों का बखुबी इस्तेमाल किया है। ध्वनि का जैसा, जितना सर्जनात्मक उपयोग ‘मैला आंचल’ में हुआ है, उतना शायद ही हिंदी के किसी अन्य उपन्यास में हुआ हो। ‘ढाक ढिन्ना, ताक ढिन्ना’, ‘डा डिग्गा’! ‘रि-रित्ता धिन-ता’ आदि की अनुगूंज सारे उपन्यास में सुनाई देती है। ध्वनियों के द्वारा लेखक ने पूरे परिवेश को वाणी दी है। लोकगीतों की कड़ियां स्थान-स्थान पर लेखक की मनोभावना व विचार को ही अभिव्यक्त करती है।

मठ के वातावरण को चित्रित करने के लिए प्रातःकाल का कीर्तन, ‘बीजक पाठक साहेब बन्दगी’, का अभिवादन और ‘सतगुरू हो! सतगुरू ! को बार-बार दोहराने, का उपयोग सफलता से किया गया है।

राजनीतिक पार्टियों की गतिविधियों की सरगर्मी को दिखाने के लिए तरह-तरह के नारों से सहायता ली गई है। कहीं ‘किसान राज कायम हो । ‘मजदूर राज कायम हो’। ‘गरीबों की पार्टी सोशलिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी जिंदाबाद’ की ध्वनि है तो कहीं ‘जै हो गन्ही महतमा की जैहो’ की गूंज सुनाई पड़ती है। जलसे-जुलूस और ‘मीटिंगों’ में भी ध्वनि और भाषणों का योगदान है। नारों को कहीं-कहीं गीतों में ढालने का उपक्रम भी है।

‘मैला आंचल · में आंचलिक पहलू उभारने के लिए लेखक ने अंचल के भौगोलिक परिस्थितियों के चित्रण से लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण के चित्रण तक बड़ी गहराई व लगाव से प्रस्तुत किया है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि आंचलिकता और स्थानीय रंगत में अंतर होता है। स्थानीय रंग वाले उपन्यासों में उसका वातावरण कथा और चरित्र तत्वों से अविछिन्न नहीं होता। आंचलिक उपन्यास में उसका वातावरण उपन्यास के कथ्य और चरित्रों से अनिवार्यतः जुड़ा होता है। ‘मैला आंचल’ में मौजूद मेरीगंज गांव भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अन्य किसी गांव से भिन्न है। इसकी भिन्नता को आपने इस इकाई में रेखांकित अंचल की विशेषताओं के द्वारा समझा ही है। बोली-बानी की भिन्नता तथा गीतों, रीतिरिवाजों आदि के सूक्ष्म ब्योरों द्वारा मिथिला अंचल की लोक संस्कृति की सांस्कृतिक व्याख्या के साथ-साथ बदलते हुए यथार्थ के परिप्रेक्ष्य का भी आपने इस इकाई में अध्ययन किया। मेरीगंज में मनाए जाने वाले तीज-त्यौहारों, गांव में मनाए जाने वाले ऋतुपर्यो, लोकव्यवहार के विविध रूपों व मानवीय संबंधों के विशिष्ट रूपों के वर्णन के माध्यम से रेणु ने ‘मैला आंचल : मे अपने प्रिय अंचल का इतना गहरा व व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास हिंदी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति बन गया है।

प्रश्न

  1. “मैला आंचल ‘ की रचना किस वर्ष आंचलिक उपन्यास के रूप में हुई? इस उपन्यास की रचना के बाद हिंदी में उपन्यासों की परंपरा का आरंभ क्यों माना जाता है?
  2. अंचल और आंचलिकता की अवधारणा स्पष्ट करें।
  3. फणीश्वर नाथ रेणु के कथा साहित्य का परिचय देते हुए उनकी रचना की प्रमुख विशेषताएं बताइए।
  4. आंचलिकता के प्रमुख तत्वों के आधार पर ‘मैला आंचल ‘ की समीक्षा करें।
  5. आंचलिक औपन्यासिक परंपरा में ‘मैला आंचल  का स्थान निर्धारित करें।

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