मैला आंचल भाषा और शिल्प

इससे पहले इकाई आठ और इकाई नौ में आपने क्रमशः ‘मैला आंचल · का आंचलिक उपन्यास के रूप में और उपन्यास में उपस्थित सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक सरोकारों का अध्ययन किया। रेणु ने बिहार कां पुर्णिया जिला जो बहुत पिछड़े क्षेत्र में आता है यहाँ के बहजनों की आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को बहुत गहराई से समझकर, उसके विविध पक्षों को इस उपन्यास के माध्यम से उजागर किया है। स्वतंत्रता से पूर्व की स्थिति में स्वतंत्रता के बाद । नाममात्र भी बदलाव न आने की स्थिति में जनसामान्य औपनिवेशिक शासन तंत्र से मिलतीजुलती शासन व्यवस्था से ही संघर्ष करता रहा है। मेरीगंज के जमीनों के मालिकों का राजनीतिक व्यवस्था में सीधी दखल देना शासन-तंत्र और राजनीति द्वारा इसी पूंजीवादी वर्ग की बेहतरी और सुरक्षा के लिए कार्यरत रहना। स्वाधीनता के बाद भी दलित-आदिवासियों को गुलामी की जंजीरों से मुक्तता नहीं मिली और आज भी बंधुआ मजदूरों के रूप में उन्हें जमींदारों द्वारा उत्पीड़ित किया जाता है, इन सभी प्रश्नों को और सामाजिक, आर्थिक वास्तविकताओं को रेणु “मैला आंचल ‘ में आभिव्यक्त किया है। 

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इसे पढ़ने के बाद आप –

  •  “मैला आंचल संरचना शिल्प की विशेषताओं से परिचित हो सकेंगे,
  • ‘मैला आंचल ‘ में रेणु ने चरित्रांकन के लिए किन प्रविधियों का प्रयोग किया है, इसे समझ सकेंगगे,
  • ‘मैला आंचल ‘ के प्रमुख नारी पात्रों की स्वभाव विशेषताओं को आप जान सकेंगे,
  • रेणु ने आंचल विशेष की भाषा, लोकगीत, लोकसंगीत, मुहावरे-कहावतों को जिस ‘प्रामाणिकता के साथ ‘मैला आंचल · में सहजता से लाकर अंचल विशेष को हमारे सामने साकार किया है, इसे आप स्वयं ही महसूस कर सकेंगे।

इकाई सात और आठ में आपने फणीश्वरनाथ रेण के उपन्यास ‘मैला आंचल ‘ को. आंचलिकता, राजनीतिक व सामाजिक संदर्भो में जाना समझा अर्थात् ‘मैला आंचल ‘ की विषयवस्तु के विभिन्न कोण आपने देखे। इस इकई में आपको देखना है कि रेणु ने विषयवस्तु को रचना का रूप किस प्रकार दिया है। रचना की संरचना का उसके,रूप को सरंचना शिल्प और भाषा शिल्प के माध्यम से पहचानने का प्रयास किया जाएगा। वैसे भाषा शिल्प को व्यापक रूप में सरंचना शिल्प के अंतर्गत रखा जा सकता है, लेकिन चूंकि ‘मैला आंचल ‘ एक आंचलिक उपन्यास भी है और उपन्यास में आंचलिकता उघाड़ने में उपन्यास में चित्रित अंचल का भाषागत योगदान अत्यंत महतवपूर्ण है, अतः ‘मैला आंचल ‘ के भाषा शिल्प का अलग से अध्ययन विश्लेषण आपके लिए अत्यंत उपयोगी है।

संरचना शिल्प के अंतर्गत रचना का अध्ययन कई स्तरों पर किया जा सकता है। पारंपरिक रूप . से कथावस्तु, पात्र रचना, परिवेश चित्रण, भाषा शैली और विश्व दृष्टि के स्तर पर भी यह विश्लेषण संभव है। ई.एम. फाटर के उपन्यास के पक्ष-अध्ययन के अंतर्गत कथावस्तु, चरित्रांकन व देशकाल वातावरण अथवा परिवेश का अध्ययन भी किया जा सकता है। परिवेश या देशकाल वातावरण का अध्ययन आंचलिकता, राजनीतिक व सामाजिक संदर्भो के अंतर्गत काफी विस्तार से हो चुका है। अतः यहाँ संरचना के अंतर्गत कथावस्तु व चरित्रांकन का विश्लेषण उचित होगा।

मैला आंचल : संरचना शिल्प 

रेणु ने ‘मैला आंचल ‘ की संरचना में जिन तत्वों को माध्यम बनाया है, उनमें एक है कथा शिल्प या कथावस्तु। कथावस्तु के कुछ सामान्य गुण हैं – जिज्ञासा या कुतूहल, सरसता व रंजकता आदि। इनके साथ कथावस्तु का सुगठित होना भी उसका गुण है। ‘मैला आंचल” में कथावस्तु के सामान्य गुण तो प्रचुर मात्रा में मिलते ही हैं, उसकी अपनी अलग विशेषताएं भी हैं। वास्तव में किसी रचना की विषयवस्तु ही उसके शिल्प या रूप का निर्धारण करती है, इसलिए ‘मैला आंचल ‘ की विशिष्ट वस्तु ने इसका विशिष्ट रूप भी निर्मित किया है। सामान्य तौर पर ‘मैला आंचल · की कथावस्तु एक रेखीय ढंग से विकसित होती है। लेकिन बीच बीच में लेखक ने चरित्रों व घटनाओं की पृष्ठभूमि व उनके अतीत पर दृष्टि डालने के लिए फ्लेश बैक टेकनीक का प्रयोग भी किया है।

‘मैला आंचल ‘ का प्रारंभ होता है – 1946 में बिहार के पूर्णिया ज़िला के मेरीगंज गांव में मलेटरी आने की अफवाह के साथ। वास्तव में उपन्यास का आरंभ अत्यंत ‘नाटकीय ढंग से होता है इस खबर के बिजली की तरह फैलने की सूचना के साथ कि ‘मलेटरी ने बहरा चेथरू को गिरफ्तार कर लिया है । यह खबर न होकर अफवाह है या गांव में वर्दीधारी अजनबियों के प्रवेश से पैदा हुई भय की स्थिति जल्दी ही वास्तविकता का बोध होने से निराधार साबित होती है। गांव में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अधिकारी मलेरिया सेंटर खोलने के प्रस्ताव को प्रत्यक्ष रूप में लाने के लिए आए हैं। लेकिन रेणु ने कथावस्तु के सजन में अपनी प्रतिभा का आभास उपन्यास के आरंभ में ही नाटकीयता के प्रभाव से जिज्ञासा या कृतहल जगा देते हैं।

1946 में उपन्यास के घटनाक्रम को आरंभ करते समय रेणु 1942 के जन-आंदोलन के प्रभाव व पृष्ठभूमि को भी साथ ही चित्रित कर देते हैं। गांव की सामान्य रूपरेखा, उसका इतिहास और विकास तो वे आगे चलकर बताते हैं, लेकिन गांव की सामाजिक पृष्ठभूमि, उसका जातिगत विभाजन, उसका मानसिक पिछड़ापन वे पहले अध्याय मे ही प्रस्तुत कर देते हैं। गांव संबंधी इतनी जिज्ञासा जगाने के बाद रेणु गांव की भौगोलिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक व सामाजिक स्थितियां विशुद्ध विवरण के ढंग में बयान करते हैं। ‘मैला आंचल ‘ के कुछ प्रमुख चरित्र तो रेणु उपन्यास में आरंभ में ही प्रस्तुत कर देते हैं, बाकी चरित्रों को कथा के विकास के साथ-साथ उद्घाटित करते चलते हैं। उपन्यास की कथावस्तु में केवल कथा का अंश बहुत लंबा चौड़ा नहीं है, लेकिन रेणु की सृजनात्मकता इस बात में है कि बहुत बड़ी कथा न लेकर भी ऐसी कथावस्तु उन्होंने निर्मित की है कि हिंदी उपन्यास साहित्य में यह उपन्यास मील का पत्थर बनकर स्थित हो गया।

उपन्यास की कथा मेरीगंज गांव में मलेरिया सेंटर खुलने की प्रक्रिया से आरंभ होती है। डॉ. प्रशांत कुमार के मलेरिया सेंटर का इंचार्ज बनकर आने से कथा को गति मिलती है। डॉक्टर प्रशांत कुमार गांव को चिकित्सा सुविधा भी प्रदान करते हैं और गांव के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन से भी गहरे रूप में जुड़ते हैं। तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद की बेटी कमली के रोग का उपचार करते दोनों प्रेम बंधन में बंधते हैं। उधर गांव में राजनीतिक गतिविधियां भी गति पकड़ती हैं। बालदेव कांग्रेस कार्यकर्ता व स्वतंत्रता सेनानी हैं, लेकिन गांव  में वह कोई सक्रिय राजनीतिक गतिविधि नहीं करता, जबकि कालीचरण आदि सोशलिस्ट बाणभट्ट की आत्मकथा: पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता बनकर गांव में क्रांति का प्रचार करते हैं। साथ में ज़मींदारों का हजारीप्रसाद द्विवेदी शोषण भी करते हैं तो गांव के सभी समुदायो का वर्ग चरित्र खुलकर सामने आ जाता है। कालीचरण जैसे सोशलिस्ट भी तब ज़मींदारों के पक्ष में जाते हैं। डॉक्टर प्रशांत कुमार को संथालों से सहानुभूति है, तभी वह 1947 के बादं के आजाद भारत में कम्युनिस्ट होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिए जाते हैं। प्रशांत के कारावास के दौरान कमली उसके बच्चे की बिन ब्याही मां बनती है और प्रशांत जेल से रिहा होने पर उसे अपनाता है। प्रशांत कमली प्रेमकथा उपन्यास में एक स्तर पर चलती है तो दूसरे पर कई अन्य कथाएं भी सामानांतर ही उपन्यास में चलती रहती हैं। गांव का मठ अपने आप में कई कथाएं समेटे हैं और इन कथाओं को मुख्य कथा के साथ बालदेव का मठ में लछमी के साथ रहना जोड़ता है। बाद में बालदेव व लछमी डेरा छोड़ भी देते हैं। प्रेम प्रसंगों में कालीचरण मंगला, महंत रामदास-रामपियारी व अन्य कई प्रसंग भी कथा में गुंथे चलते हैं। लेकिन क्योंकि उपन्यासकार का मुख्य लक्ष्य पूरे अंचल के जनजीवन को उसकी पूरी विविधता व सजीवता में चित्रित करता है, इसलिए उसने गांव के जीवन के प्रायः सभी पक्षों को किसी न किसी प्रसंग द्वारा अपनी कथा में बुना है, चाहे वह होली का त्यौहार हो या कोई अन्य पर्व। उपन्यास में 1946-48 के मध्य की स्थिति को देश के संक्रमणकालीन दौर के रूप में चित्रित किया गया है, इसलिए इस संक्रमणकाल में कांग्रेस, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदि की गतिविधियाँ औपन्यासिक सरंचना में ढलकर चित्रित की गई हैं। 

उपन्यास की कथावस्तु को रेणु ने आरंभ, विकास, मध्य, चरमसीमा व अंत के औपचारिक पडावों में तो नहीं बांटा, लेकिन उपन्यास का आरंभ अत्यंत नाटकीय व प्रभावशाली है इसी प्रकार उपन्यास का विकास भी सहज गति से होता है। उपन्यास की चरमसीमा है – महात्मा गांधी के प्रिय शिष्य बावनदास का गांधी की शहादत के दिनों बिना किसी के जाने, बिना किसी प्रचार के देश के लिए शहीद हो जाना, यह घटना उपन्यास के दूसरे खंड में उस समय घटती है, जब भारत-पाक समी पर स्मगलिंग का धंधा रोकने के लिए बावनदास निष्क्रिय प्रतिरोध का निर्णय लेता है। देश के स्वातंत्र्योत्तर परिस्थितियों से यह सच्चा गांधीवादी अत्यंत विचलित है और उसे स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान निरर्थक लगने लगता है। इसलिए वह कलीमुद्दीपुर सीमा की ओर जाता है। उसे देखकर पुलिस के सिपाही या कांग्रेस स्मगलर दुलार चंद कापरा आदि परेशान तो होते हैं, लेकिन उसके बीच रास्ते पर खड़ा होने पर उनके मन में इस ‘डेढ हाथ के अत्यंत सन्माननीय देशभक्त को जीवित ही कुचल देने में कोई दुविधा नहीं होती। रेणु ने इस घटना को इतने यथार्थ रूप से चित्रित किया है कि आजादी के बाद का भारत का सामाजिक परिदृश्य अपनी पूरी क्रूरता व भयावहता में उघड़ जाता है। महात्मा गांधी के नेतृत्व में प्राप्त आज़ादी का यह हश्र होता है, जिसे न खुद गांधी ही झेल पाए और न ही बावनदास जैसे उनके सच्चे शिष्य। उपन्यास का अंत यदि चरम सीमा पर हो जाता तो यह कथावस्तु की अत्यंत प्रभावी सफलता होती, लेकिन उपन्यास जिंस आदर्शवादी ध्वनि पर समाप्त हुआ है, उससे उपन्यास की. चरमसीमा का प्रभाव कुछ खंडित हुआ है।

‘मैला आंचल ‘ को आंचलिक उपन्यास ही माना जाता है, लेकिन कथावस्तु के आधार पर इसे सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक आदि किसी भी प्रकार की रचना कहा जा सकता है। वैसे उपर्युक्त सभी प्रश्नों के सारतत्व इस उपन्यास की कथावस्तु में समाहित है। कथावस्तु को यदि कथा, चरित्र व परिवेश प्रधानता की दृष्टि से देखना हो तो निश्चय ही उपन्यास की कथावस्तु परिवेश प्रधान है। इसकी कथा व चरित्र दोनों ही परिवेश के जीवंत चित्रण के साधन मात्र हैं। अपने परिवेश चित्रण की प्रधानता के कारण ही ‘मैला आंचल ‘ उपन्यास को आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में रखा गया है। कुल मिलाकर रेणु ने ‘मैला आंचल ‘ में अपने प्रिय अंचल को जीवंत रूप से उघाड़ने के लिए प्रभावी कथावस्तु का निर्माण किया है, जिसमें इतनी सरसता व रंजकता है कि पाठक उपन्यास में डूबा रहता है। उपन्यास की कथावस्तु गठन की दृष्टि से कुछ विश्रृंखल जान पड़ती है, किंतु वास्वत में यह विश्रृंखल है नहीं। इसके गठन का ढीला ढाला ढांचा ही इसकी कथावस्तु का प्राण है।

अब देखना यह है कि इस कथावस्तु के निर्माण में रेणु की चरित्रांकन की क्या भूमिका है। ..

चरित्रांकन

रेणु ने ‘मैला आंचल — में जिस प्रकार निरायास ढंग से कथावस्तु को निर्मित किया है, वैसे ही आयासहीन ढंग से उनके चरित्र भी अपना रूप ग्रहण करते गए हैं।

चरित्रों के दो प्रकार फार्टर ने बताए हैं – गोल और चपटे। गोल यानि उपन्यास की कथा के विकास के साथ-साथ विकसित होने वाले चरित्र। चपटे यानि कि कथा के आरंभ में प्रस्तुत . ‘विशेषताओं को कथा के अंत तक बिना परिवर्तन के बनाए रखने वाले चरित्र, इस दृष्टि से ‘मैला आंचल ‘ के अधिकांश चरित्र गोल हैं, लेकिन कुछ चरित्र चपटे भी हैं।

चारित्रों को एक अन्य स्तर पर भी परिभाषित किया जाता है – प्रतिनिधिक (टाईप) चरित्र या व्यक्तिपरक चरित्र। इस दृष्टि से भी ‘मैला आंचल  के अधिकांश चरित्र प्रतिनिधिक या टाईप चरित्र हैं, जबकि कुछ चरित्र व्यक्तिपरक हैं, यहाँ यह स्पष्ट करना होगा कि प्रतिनिधिक या टाईप चरित्र किसी सामाजिक समूह, समुदाय या वर्ग के प्रतिनिधि चरित्र हैं, जबकि व्यक्तिपरक चरित्र अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं के कारण जाने जाते हैं। यद्यपि प्रतिनिधिक चरित्रों में भी व्यक्तिपरक विशेषताएं रहती हैं, लेकिन उनके व्यक्तित्व की मुख्य पहचान उनके टाईप चरित्र के रूप में रहती है।

‘मैला आंचल  में कई समीक्षकों को चरित्रों की इतनी भरमार लगती है कि उनमें चरित्रों का विशिष्ट व्यक्तित्व उघड़ता नज़र नहीं आता। या कई ऐसे चरित्र हैं, जिन्हें लेखक ने महत्व तो बहुत दिया है, लेकिन जिनका उपन्यास में घटनागत या चरित्रगत उद्घाटन विस्तार से नहीं. . हुआ है, ऐसे एक चरित्र हैं बावनदास।

कई आलोचकों के विचार में ‘मैला आंचल’ में बावनदास न सिर्फ केंद्रीय चरित्र हैं, वसन् उपन्यास की पूरी आत्मा इस चरित्र के साथ जुड़ी हुई है। यद्यपि उपन्यास में बावनदास बहुत कम समय के लिए अवतरित होता है और कथा के विकास में बहुत कम योगदान करती है। . बावनदास के चरित्रांकन में यह अंतर्विरोध ज़रूर है, लेकिन यह भी सच है कि इस चरित्र में उपन्यास की आत्मा भी बसी हुई है। वास्तव में उपन्यास की धुरी भारतीय जन की स्वतंत्रता व उसके जीवन स्तर पर स्वतंत्रता के वास्तविक प्रभाव से जुड़ी है। इस अर्थ में बावनदास अत्यंत .. महत्वपूर्ण चरित्र है, यह गांधीवादी जीवन मूल्यों का जीवन्त प्रतीक है। और भारतीय समाज में आज़ादी मिलने के 6-8 महीने के भीतर ही गांधी की भी हत्या होती है और गांधीवादी जीवनदर्शन व जीवन मूल्यों की भी। गांधीवादी जीवन दर्शन सामान्य भारतीय जन की कलयाण कामना करता था, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस सामान्य भारतीय जन की कहीं सुनवाई नहीं हुई, वरन इसकी ‘अपने ‘ शासकों के हाथों और भी दुर्गति हुई। बावनदास की जघन्य हत्या, सामान्य तन की दुर्दशा को प्रतीक रूप से उद्घाटित करती है।

उपन्यास के प्रभुताशाली वर्गों के प्रतिनिधि चरित्र हैं – तहसीलदासर विश्वनाथ प्रसाद मल्लिक, ठाकर रामकिरपाल सिंह और हरगौरी सिंह, खेलावन सिंह यादव, दुलार चंद कापरा इत्यादि। लेखक ने इन चरित्रों में स्वार्थ प्रियता, पाखंड व शोषित वर्गों पर बिना संकोच अत्याचार करने, अंतरात्माहीन होने की स्थितियां उद्घाटित की हैं। यद्यपि व्यक्तिगत स्तर पर इन चरित्रों में कुछ अंतर भी दृष्टिगोचर होते हैं। जैसे तहसीलदार विश्वनाथ प्रसादं की एकमात्र संतान है कमली। हजार बीया ज़मीन से मालिक होकर भी वे उसकी शादी नहीं कर पाते, जिससे कमली मानसिक रूप से रोगी हो जाती है और डॉ. प्रशांत कुमार का प्रेम ही उसका वास्तविक उपचार कर पाता है। यहाँ लेखसक ने तहसीलदार के चरित्र के दो अंतर्विरोधी रूप अंकित किए हैं। एक पिता के रूप में वह अत्यंत स्नेहितल, कोमल हृदय, चिंतातुर है, जबकि एक ज़मींदार के रूप में वह क्रूर, स्वार्थी व अत्याचारी है। डॉ. प्रशांत उसके दोनों रूपों को देखता व विश्लेषित करता है। डॉ. स्वयं कमली से प्चार करता है अतः शोषित वर्गों से सहानुभूति रखकर भी वह विश्वनाथ प्रसाद को कई बातों में नापसंद तो करता है, लेकिन उससे नफरत नहीं कर पाता। यही विश्वनाथ प्रसाद सिंह अपनी बेटी कमली और डॉ. प्रशांत कुमार के विवाह की खुशी में अपने असामियों को पांच-पांच बीघा जमीन लौटाने की घोषणा भी करता है। 

रेणु ने दुलारचंद कापरा आदि एकाध शोषक को छोड़ कर, जिसका चरित्रांकन वैसे भी सांकेतिक मात्र हुआ है, अपने अन्य शोषक चरित्रों को भी अपनी संवेदना और सहानुभूति दी है। संथालों के हाथों ठाकुर हरगौरी के मारे जाने पर, हालांकि वह बहुत उदंड व अत्याचारी था, लेखक ने उसके परिवार के दुःख के अंकन में संवेदना से काम लिया है, जबकि आदिवासी संथालों के प्रति अपनी घोषित सहानुभूति के बावजूद उन परिवारों की भीतरी व्यथा कथा से रेणु अपने पाठकों को परिचित नहीं करवाते।

‘मैला आंचल ‘ के स्त्री चरित्रों में सर्वप्रमुख हैं – कमली और लछमी। कमली तहसीलदार की बेटी है, जो युवावस्था में प्रेम की प्यासी है, डॉ. प्रशांत कुमार से प्रेम-बंधन में बंधकर उसका उपचार होता है, लेकिन इसी प्रेमबंधन में उसके चरित्र के कुछ पहलू भी उघड़ते हैं। कमली अत्यंत संवेदनशील है, साथ ही वह प्रबुद्ध भी है। डॉ. की प्रतीक्षा में वह इतना साहित्य पढ़ती है, शरत चंद्र, बंकिम चंद्र, तमाम बंगाली लेखक उसे अच्छे लगते हैं, जिनकी रचनाएं पढ़-पढ़ कर वह रोती भी है व उन चरित्रों से अपनी अस्मिता भी जुड़ी देखती है। कमली उन भारतीय स्त्रियों की प्रतिनिधि चरित्र है जो प्रेम के अपना सर्वस्व होम कर सकती है। वह डाक्टार को जी-जान से प्यार करती है और उसके प्रेम में कुंआरी मां बनने में भी उसे लाज, संकोच या भय नहीं है। कमली को रेणु ने जितनी संवेदना दी है, उतनी ही संवेदना दुःखों की मारी लछमी को भी दी है। अबोध बालिका, जो मठ पर पालने पोसने, पढ़ाने लिखाने के लिए महंत सेवादास द्वारा लाई गई, लेकिन जिसने उसके किशोरावस्था में पहुंचते ही उसका दैहिक शोषण आरंभ कर दिया और बेचारी लछमी, वह इस शोषक महंत से घृणा भी नहीं कर सकती, क्योंकि वह उसका अन्य भक्षकों से रक्षक है और उसके जीवन का आधार व सहारा भी।

लेकिन स्त्री का दैहिक शोषण कितना भी क्यों न हो, वह सच्चा प्रेम उसी से करती है, जिससे उसके मन का मेल हो। और लछमी के मन का मेल है – स्वतंत्रता सेनानी बालदेव जी से, बालदेव जी को भी लछमी आकर्षित करती है और वे भी सामाजिक रूढ़ियों या मूल्यों की परवाह न कर उसके प्रेम-बंधन में बंध कर उसके साथ रहने लगती है।

लछमी के शोषण द्वारा रेणु ने भारतीय समाज में स्त्री की वास्तविक स्थिति को अंकित किया है, विशेषतः निर्धन स्त्री की। कमली संपत्तिशाली वर्ग की स्त्री है, इसलिए उसे कुछ सामाजिक दर्जा व सुविधा प्राप्त हैं, लेकिन लछमी दासी है, जिसे कोई भी महंत अपनी रखेलिन बना सकता है।

लछमी के व्यक्तित्व में भी संवदेनशीलता, समझदारी व दंबगता के गुण हैं। लरसिंघदास जैसे लार टपकाते साधुओं से निपटने की क्षमता भी उसमें विकसित हो गई है।

कमली व लछमी के अतिरिक्त गणेश की नानी, मंगला आदि स्त्री चरित्रों को भी रेणु ने . संवदेनशीलता से चित्रित किया है। स्त्री चरित्रों के प्रति रेणु के सृजन में विशेष सौंदर्य बोध है, स्त्री-पुरुष संबंधों में वे उन्मुक्तता को भी कोई नकारात्मक मूल्य के रूप में नहीं देखते। ‘मैला आंचल ‘ के राजनीतिक व सामाजिक रूप से सक्रिय व महत्वपूर्ण चरित्र हैं – बालदेव, कालीचरण, डॉक्टर प्रशांत कुमार, चलित्तर कर्मकार आदि। बावनदास की चर्चा हो चुकी है। ये सभी चरित्र अपने अपने ढंग से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इनमें प्रतिनिधिक समानता मिलती है। ये सभी चरित्र, चाहो किसी भी राजनीतिक विचारधारा के क्यों न हों, मध्यम वर्ग के समान आधार वाले चरित्र हैं, चलित्तर कर्मकार को छोड़ कर जो ज़ाहिरा रूप में कभी सामने नहीं आता, जिसकी सिर्फ चर्चा ही होती है।

इनमें बालदेव कांग्रेस कार्यकर्ता व स्वतंत्रता सेनानी हैं, देशभक्ति में उन्होंने यातनाएं भी सही हैं और कारावास भी भोगा है। स्वभाव में वे कुछ सीधे, भोले भाले जीव हैं, कुछ पिछड़ापन भी उनमें हैं, क्योंकि उन्हें लगता है ‘कॉमरेड · मुर्गी का अण्डा खिलाकर बनाया जाता है। .. लेकिन वे ईमानदार व मानवता से प्रेम करने वाले हैं। गांव का हित चाहते हैं। गांव में राशन डिपो मिलता है तो भ्रष्टाचार बंद करते हैं। हस्पताल बनाने में आगे बढ़करर योगदान करते हैं। लछमी के प्रति आकर्षित होते हैं तो उसके साथ जीवन साझा करने को भी प्रस्तुत होते हैं, जाति-बंधनों से मुक्त हैं।

कालीचरण युवा शक्ति के प्रतीक हैं उन्हें कांग्रेस पार्टी से ज्यादा क्रांतिकारी पार्टी सोशलिस्ट पार्टी आकर्षित करती है, जो ‘ज़मीन हलवाहकों को ‘ का नारा देती है व संघर्ष की मार्ग दिखाती है। कालीचरण ‘बम फोड़ने वाले मस्ताने भगत सिंह ‘ से भी प्रभावित है। वह भी संवदेनशील प्रेमी है। मंगला उसे अच्छी लगती है, लेकिन उससे चार हाथ की दूरी वह बनाए रखता है।

चलित्तर कर्मकार भूमिगत क्रांतिकरी है, जो वर्ग संघर्ष में यकीन रखता है, उसके साथ कोई भी अपने को नहीं जोड़ना चाहता। केवल कम्युनिस्ट पार्टी ने उसके वारंट वापिस लेने की मांग कर रखी है।

डॉ. प्रशांत कुमार वास्तव मे उपन्यास का केंद्रीय चरित्र है, जो स्वयं लेखक के विचारों का प्रतिनिधि है। डॉ. प्रशांत के चरित्र के विकसित होने का अवाकश भी उपन्यास में मिला है व लेखक की संवदेना भी उसे पर्याप्त मात्रा में मिली है। डॉ. प्रशांत सही मायनों में जनहित से जुड़ा ‘कॉमरेड ‘ बुद्धिजीवी है, जिसने विदेश का वज़ीफा छोड़ कर भारतीय देहात का दुःख दर्द महसूस करना, उसे दूर करना, पीड़ित जन से जुड़ना अधिक श्रेयस्कर माना और डॉ. प्रशांत हर स्तर पर मेरीगंज की पीड़ित मानवता से जुड़ता है। वह मलेरिया पर शोध भी करता है, गांव वासियों को चिकित्सा प्रदान कर जीवनदान भी करता है व उनके दुःख सुख और सामाजिकसांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग भी बनता है। कमली को अपनी सहचरी बनाकर वह शहर का रहा सहा आकर्षण भी मन में नहीं रहने देता और जेल से रिहा होकर गांव को ही अपनी कर्मभूमि बनाने का निर्णय लेता है। हालांकि शहर में उसे ऊंचे पद, मान-सम्मान, सुख-सुविधा सब कुछ मिलता था।

आदिवासी संथालों के विद्रोह को यदि किसी चरित्र की सहपनुभूति मिली तो वह प्रशांत कुमार ही था। प्रशांत कम्युनिस्ट समर्थक समझा जाता था।

लेकिन बालदेव, कालीचरण व प्रशांत में वर्ग चरित्र एक समान है। तीनों ही अपनी मध्यवर्गीय चारित्रिक सीमाओं को पार कर संघर्षशील वर्ग से नहीं जुड़ते। उनकी सहानुभूति वहीं तक हैं, . जहाँ तक उनका जीवन व जीवन शैली सुरक्षित है। आदिवासी संथालों के विरूद्ध बालदेव और काचरण दोनों गवाही देते हैं और उन्हें आजीवन कारावास दिलवाने में शामिल होते हैं। डॉ. प्रशांत को संथालों से सहानुभूति है, लेकिन इस सहानुभूति को वह सक्रिय रूप नहीं देते। कुल मिलाकर ‘मैला आंचल ‘ में लेखक की अपनी वर्ग सीमाएं भी मध्यवर्ग तक ही सीमित हैं, इसलिए उनके सर्वश्रेष्ठ चरित्र भी मध्यवर्गों से ही आते हैं, ताकि मेहनतकश या संघर्षशील वर्गों से। रेणु स्वयं सोशलिस्ट विचारों से प्रभावित रहे हैं व जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के समर्थक भी, लेकिन बिहार में जन क्रांति वर्ग संघर्ष के ज़रिए ही किसी निष्कर्ष तक पहुंचेगी, इस निष्कर्ष तक रेणु नहीं पहुंच पाते।

रेणु ने ‘मैला आंचल ‘ की संरचना में रोचक कथावस्तु व जीवंत चरित्रांकन से काम लिया है। उपन्यास को सशक्त बनाने वाला एक और पक्ष है, इसकी भाषा, जिस पर आगे विचार किया जाएगा।

मैला आंचल : भाषा शिल्प 

आंचलिक उपन्यास को अन्य उपन्यासों से अलगाने वाले पक्षों में एक पक्षा है भाषा। कई बार तो केवल भाषा के आधार पर ही कई उपन्यासों को आंचलिक उपन्यास मान लिया जाता है। यद्यपि भाषा आंचलिकता की अभिव्यक्ति का एक ही पक्ष है, लेकिन यह एक पक्ष ही काफी .सबल पक्ष है। किसी भी भव के केंद्रीय या स्तरीय स्वरूप से अंचल विशेष की भाषा इस हद तक अलग व विशिष्ट होती है कि कई बार भाषा के इस विशिष्ट स्वरूप के कारण संप्रेषण बाधा भी होने लगती है। जैसे ‘मैला आंचल को ग्रहण करन में पंजाबी या दक्षिण, भारतीय हिंदी पाठकों को समस्या आती है, वैसे ही कृष्णा सोबती के ‘जिंदगीनामा  जैसे उपन्यास को ग्रहण करने में बिहार पूर्वी उत्तर प्रदेश या दक्षिण भारतीय हिंदी पाठकों को दिक्कत आती है।

‘मैला आंचल’ का भाषा शिल्प उपन्यास की बहुत बड़ी शक्ति है, हालांकि ‘मैला आंचल ‘ ही आंचलिकता का स्वरूप केवल इसकी भाषा के कारण नहीं है। “मैला आंचल ‘ में आंचलिकता अपने बहुविध रूप में प्रस्तुत हुई है, उपन्यास मं सृजित भाषा ने इस बहुरंगी आंचलिकता को . अत्यंत संरस व सजीव बनाने में अवश्य ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

उपन्यास में भाषा भी सजनशील रूप में अभिव्यक्त हई है। कई भाषा प्रेमी या भाषा वैज्ञानिक . को इस उपन्यास की भाषा पर ही मुग्ध.व इससे सराबोर भी हो सकते हैं या फिर समाज भाषा विज्ञन की दृष्टि से या विखंडन पद्धति से उपन्यास का विश्लेषण भी कर सकते हैं।

उपन्यास में भषा ने जिन स्तरों पर अपनी सृजनशीलता अभिव्यक्ति की है, उनमें लोकगीत व लोक संगीत के पुनः सृजन का एक स्तर है। इस स्तर में त्यौहारों, पर्यों का अपना रंग भी भषा के माध्यम से आकार ग्रहण करता है। एक अन्य स्तर है, जन-व्यवहार का। मिथिला अंचल के मेरीगंज गांव व आसपास के क्षेत्र में जन व्यवहार में जो भाषा आती है, लेखक ने उसे भी उपन्यास में यथार्थ रूप से अभिव्यक्ति दी है। भाषा का तीसरा स्तर है, जिसके द्वारा विवरण के लिए अपनाई गई भाषा शैली। भाषा:अपना सृजनशील रूप एक अन्य स्तर पर अभिव्यक्त : . करती है, अंचल के विशेष मुहावरों, लोकोक्तियों आदि के सृजन रूप में।

इस प्रकार रेणु ने ‘मैला आंचल ‘ में भाषा की सृजनशीलता की क्षमता का भरपूर उपयोग किया है और अभिधा, लक्षणा व व्यंजना सभी रूपों में उसका प्रयोग किया है।

लोकगीत-लोकसंगीत व मैला आंचल की भाषा

लोकगीत व लोकसंगीत का सृजन ‘मैला आंचल ‘ में उपन्यास के आरंभ से लेकर अंत तक जारी रहता है और पाठक इसके रस में सराबोर रहता है। उपन्यास के तीसरे अध्याय के अंत में लेखक ने अखाड़े में बजते ढोल का चित्र द्वारा संगीतमय शब्द बिंब से खींचा है – ढाक-ढिन्ना, . ढाक-ढिन्ना! ) चौथे अध्याय के शुरू में ही ब्रह्म बेला में भजन गायन से गीत संगीत दोनों के ही बिंब उघाड़े हैं।

जागहु सतगुरू साहेब

डिम-डिमिक-डिमिक, डिम-डिमक-डिमिक

भोर भयो अब भरम भयानक भानु देखकर भागाजी,

भजन गायन में गीत और संगीत दोनों का योग है। रामदास खंजडी बजाता है जो स्वर  निकालती है – “डिम-डिमिक। रून झुनुक-झुनुक ‘ और महंत व लछमी के कंठ स्वर से भजन के शब्द आकार लेते हैं।

कबीर पंथ में यह भजन व संगीत का सृजन उपन्यास में अनेक स्थलों पर सृजित होता है, जिसे रेणु ने भाषा का ऐसा जामा पहनाया है कि यह संगीतमय बिंब चाक्षुब बिंब बनकर आंखों के सामने आ जाते हैं। महंत सेवादास के देहांत पर शोकमय वातावरण को भी लोकशैली के गायन व संगीत सृष्टि द्वारा रेणु ने भाषा के सृजनात्मक रूप में बांधा है

कांचहि बाँस के पिंजड़ा

जामे दियरो न बाती हो,

अरे हंसा उड़ल आकाश

कोई संगीन साथी हो!

मिथिला अंचल के मधुर लोकगीत प्रस्तुत हुए हैं – कमली प्रसंग में या होली आदि पर्वो-त्यौहारों के अवसर पर। रेणु ने ‘मैला आंचल ‘ में अपने स्त्री पात्रों के मन के भावों को प्रकट करने के लिए भी अंचल के मधुर लोकगीतों का सजनात्मक उपयोग किया है। कमली की जांच के समय जब डॉ. प्रशांत कुमार अपना ट्रांसिस्टर उसके पास छोड़ आता है तो सवितादेवी के गाए मैथिल लोकगीत को उपन्यास में रेणु ने इस ढंग से प्रयुक्त किया है कि उपन्यास की सरसता बढ़ जाती है

माइगे, हम न वियोहब अपन गौरा के

जो बुढ़वा होइत जमाम गे माई!

तंजिमा टोली में सुरंगा-सदाब्रिज की लोककथा के गायन का प्रसंग रेणु ने पन्यास में घूणित कर मिथिला अंचल में प्रचलित लोक कथाओं, लोकगीतों को फिर साकार किया हैसासू मोरा मरे हो, मरे मोरा बहिनी से

मरे ननद जेठ मोर जी! 

मरे हमार सब कुछ पलिक्खा से,

फसी मछली परेश से डोर जी!

इन प्रचलित लोककथाओं के प्रसंग द्वारा लेखक ने अपने पात्रों के प्रेम प्रसंगों की व्याख्या भी  की है। भडजिआ लोकगान मिथिला का लोकप्रिय गीत है, सो रेणु ने गाडीवानों के दल के माध्यम से उपन्यास में इस गान को प्रस्तुत कर दिया

चढली जवानी मोरा अंग-अंग कडके से

कब हो इहैं गवना हमार रे भडजिया!

लेखक ने प्रसंग जोड़ दिया प्रेम दीवानी नायिका कमली सें, उसकी तो कोई मौजाई ही नहीं, वह बेचारी ‘किससे दिल की बात कहे?’

किसान जीवन के कुछ अपने विशेष पर्व होते हैं। मिथिला अंचल में एक पर्व है – खम्हार यानि खलिहान। जब धान की फसल का लेखा-जोखा है और ज़मींदार का, किसान का चाव है।  साधारण किसान तो घाटे में ही रहेगा, लेकिन ज़मींदार की मौज, सो उसके घर जश्न का दिन। उसके घर होता है मिथिला अंचल का प्रसिद्ध लोकनृत्य-विदापत। विदापत नाच का माहौल पैदा करता है – मृदंग। विदापत नाच का माहौल पैदा करता है – मृदंग। मृदंग पर बजते संगीत को । शब्दों में बांध देते हैं, रेणु

तिरकिट धिन्ना, तिरकिट धिन्ना!

धिन तक धिन्ना, धिन तक धिन्ना!

धिनक धिनक धा

धिक धिक् तिन्ना!

ढोलक, मृदंग आदि साजों की संगीतमय धुनों को शब्दबद्ध करना, यह रेणु के भाषा शिल्प का कमाल है।

डॉ. प्रशांत कुमार के सोचने के क्रम में भी रेणु ने लोकगीतों का सृजनात्मक रूप उकेर दिया है – अपभंश की कोमल गीत पंक्तियां – ‘पिया मइले डुमरी के फूल रे पियवा मइले। ‘ डॉ. को समझ आ जाता है कि मिथिला अंचल ने कैसे विद्यापति जैसा कवि पैदा कर दिया, उसे लगता है कि विद्यापति के मान ‘हमारी टी झोंपड़ियों में जिंदगी के मधुरस बरसा रहे हैं। ‘ होली उत्तर प्रदेश और बिहार का ऐसा त्यौहार है कि गरीब से गरीब आदमी भी अपना दुःख अभाव भूल कर एक दिन तो फागुन मीहने की बावरी हवा में खो जाता है। होली पर नाचना, गाना, रंग, अजीर, गुलाल में खो जाना और होली पर जोगिड़ा गाना तो बिहार का विशेष आकर्षण है। रेणु का ‘मैला आंचल का आंचलिक चित्र होली व जोगिड़ा के चित्रण के बगैर कैसे रूप ग्रहण कर सकता था?

जोगड़ा सर

जोगिड़ा सर

जोगी जी ताल न टूटे

तीन ताल पर ढोलक बाजे

ताक धिन्ना-धिन धिन्नक

धिन्नक

जोगी जी!

होली है! कोई बुरा न माने होली है!

रेणु ने अपनी भाषा से जोगिड़ा गान के संगीत प्रक्रिया का पूरा चित्र उघाड़ दिया है। ‘जोगिड़ा’ द्वारा कुछ भी कहा-अनकहा कहा जा सकता है। एक दिन के लिए सब कुछ माफ है

चर्खा कातो, खदधड पहनो, रहे हाथ में झोली

दिन दहाडे करो डकैती बोल पुरानी बोली – जोनी जी सर

भाषा के इस गीत-संगीतात्मक प्रयोग के ज़रिए राजनीतिक स्थिति भी चित्रित कर दी है। ‘मैला आंचल ‘ का होली चित्रण ‘गोदान’ के होली चित्रण की याद भी दिला देता है। फर्क इतना है कि ‘गोदान में प्रेमचंद ने गीत-संगीत का प्रयोग कम, नौकर द्वारा नौटंकी के माध्यम से सामंती व्यवस्था का शोषण उघाड़ा है। यहाँ रेणु ने होली चित्रण को और अधिक सरस बना कर प्रस्तुत कर दिया है।

रेणु ने संथालिन आदिवासी स्त्रियों के गीत भी उपन्यास में समाहित कर लिए हैं। संथाल टोली का मादल भी जारे शोर से बचता है

डा डिग्गा, डा डिग्गा सर ता-धिन ता

रेणु की भाषा का संगीत के संदर्भ में भी अध्ययन संभव है, क्योंकि उन्होंने साज़ों के स्वरों को  इतने सटीक शब्दों में बाधा है कि पाठक दंग रह जाता है। वर्षा ऋतु तो उत्तर भारतीय लोकगान परंपरा में वैसा ही स्थान रखती है, जैसा होली पर्व। सो ऐसा कैसे हो सकता था कि रेणु वर्षा ऋतु के लोकगीत ‘मैला आंचल  में प्रस्तुत न करते –

अडरे मास आसाढ है। गरजे धन

बिजूरी-ई चमके सखि हे ए ए!

मोहे तजी कन्ता जाये पर देसा आ-आ

कि उमडू कमला माई हे!

हँडरे! हँडरे – – –

रेणु ने सिर्फ लोकगान ही नहीं, उन्हें संगीत के स्वरों में बांधकर, कण्ठ के आरोह-अवरोह के साथ शब्दों में बांधा है, जिससे सुविज्ञ पाठक इन्हें गा भी सकता है और गान लायक संगीत भी बांध सकता है।

उपन्यास में यदि परंपरा से प्रचलित लोककथाएं, लोकगीत व लोकसंगीत शब्दों में बांधे गए हैं तो भाषा का सृजनात्मक स्वरूप तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं को गीत-संगीत में बांधने में भी सफल रहा है

उठ मेहनतकश अब होश में आ

हाथ में झण्डा लाल उठा

या

जो जोतेगा सो बोयेगा

जो बायेगा सो काटेगा

जो काटेगा वह बांटेगा

मिथिला अंचल की अपनी शैली में भी राजनीतिक गीत रचे गए

भरे देसवा के सब धन-धान विदेसवा में जाम रहे

मंहमी पड़त हर साल कृसक अकुलाम रहे

जन व्यवहार की भाषा

लोकगीत लोकसंगीत, लोककथाओं के माध्यम से तो रेणु ने ‘मैला आंचल ‘ में भाषा की सृजनशीलता प्रकट की ही, उनके पात्रों को जन-व्यवहार की भाषा में भी बड़ी सरसता है और शब्दिक प्रयोग में बड़ी जीवन्तता, उपन्यास का आरंभिक वाक्य ही देखिए – ‘मलेटरी ने बहरा चेथरू को गिरफ्तार कर लिया है। यहाँ मलेटरी शब्द मिलिट्री का जनभाषा में रूपांतरण है। गिरफ्तार को गिरफ्क का रूप देकर रेणु ने शिष्ट भाषा के जन रूपांतरण की जो प्रक्रिया शुरू की है, वह उपन्यास के अंत तक चलती है। अधिकांशतः यह प्रक्रिया सहज व स्वाभाविक है, यानि जैसे मिथिला अंचल के सामान्य जन, गांव के किसान, मेहनतकश भाषा प्रयोग करते हैं, रेणु ने उसका वैसा ही चित्रणा उपन्यास में उघाड़ दिया है, लेकिन कहीं कहीं लेखक ने सचेत प्रयास द्वारा भी भाषा का जन-रूपांतरण किया है।

उपन्यास से हज़ारों ऐसे शब्दों को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है, जहाँ शिष्ट भाषा का जन-प्रयुक्त रूप कहीं अधिक आकर्षक जान पड़ता है – मोगलाही रोशन (स्टेशन) फिरारी (फरार) सुराजी (स्वराजी) डिस्टीबांट (डिस्ट्रिक्ट बोड) जमाहिरलाल (जवाहरलाल) भेलटिपटी (बालंटियरी) उपास (उपवास) जोतखी जी (ज्योतिषी जी) मासन (भाषण) पुलोगराम (प्रोग्राम) इनकिलाब ज़िदाबाद (इन्क्लाब जिंदाबाद) डागटर (डॉक्टर) सुशलिंग पाटी (सोशलिस्ट पार्टी) किरान्ती (क्रांति) टरेनि (ट्रेनिंग) सिकचिल्ली (शेखचिल्ली) इत्यादि।

जन व्यवहार में भाषा का रूप ग्रहण भाषा – वैज्ञानिक नियमों के अनुसार भी स्वभाविक है। प्रायः भषा जिह्वा सुविधा की प्रक्रिया में चलती है, जो शब्द जीभ को बोलने में असविधा होगी वह उस शब्द को अपनी सुविधानुसार ढाल लेगी। यही व्यक्तिगत सुविधा का रूप जब सामाजिक रूप ले लेता है तो ये शब्द अपने विशेष संदर्भो में प्रचलित हो जाते हैं।

जहाँ जहाँ रेणु ने ऐसे लोक शब्दों का प्रयोग किया है, जो बिल्कुल ही अंचल विशेष के ही शब्द हैं, वहाँ वहाँ उन्होंने उसका शिष्ट हिंदी रूप या अर्थ दे दिया है, जैसे खेकसियारी अर्थात् लोमड़ी। क्योंकि शब्दों की अर्थ प्रत्येक पृष्ठ के नीचे ही दे रखा है, इसलिए रसभंग का अधिक नहीं होता।

जन व्यवहार का भाषा प्रयोग रेणु ने ‘मैला आंचल में इस ढंग से प्रस्तुत किया है कि इससे रचना की सृजनात्मकता में बाधा न पड़ कर रचना की जीवंतता ही बढ़ती है।

भाषा जन प्रयोग में मिथिला अंचल में प्रचलित अनेक मुहावरों, लोकोक्तियों का समावेश स्वाभाविक रूप में ही हो गया है। झगड़ा का धरम संकट, कुबेर का भण्डार, दिल में घर करना, गोलमाल करना, पेट में जलेबी का चक्कर आदि।

रेणु ने अपनी कथा की विवरण शैली में मिश्रित भाषा शिल्प का प्रयोग किया है। अधिकांशत वह खड़ी बोली हिंदी के सर्वमान्य रूप को अपने विवरण का आधार बनाते हैं, जहाँ संवाद की आवश्यकता है, वहाँ उनके चरित्र अपनी पृष्ठभूमि के अनुसार जनभाषा या प्रचलित भष का प्रयोग करते हैं। लेकिन कहीं-कहीं रेणु अपने द्वारा औपन्यासिक विवरण शैली में भी देशी भाषा या जनभाषा का प्रयोग करने लगते हैं। दो उदाहरण

‘मंगलादेवी, चरखा सेंटर की मास्टरनी जी बीमार है।’

 ‘डिस्टीबोट के मिल्तिरी लोग आए हैं।

बालदेव के उत्साह का ठिकाना नहीं है।

दूसरे उदाहरण के पहले वाक्य में जन भाषा प्रचलित रूप प्रयुक्त हुआ है, जबकि दूसरे वाक्य ‘बालदेव के उत्साह का ठिकाना नहीं है । सामान्य खड़ी बोली का प्रयोग है। लगता है अपनी विवरण शैली में रेणु भाषा प्रयोग के प्रति सजग तो रहे हैं, लेकिन किसी एक प्रयोग पर वे स्थिर नहीं रह पाए हैं।

कुल मिलाकर रेणु ने ‘मैला आंचल ‘ में भाषा शिल्प में अत्यंत सृजनात्मकता का परिचय दिया है। उनके भाषा प्रयोग में विविधता व जीवंतता है। भाषा शिल्प की सृजनात्मकता के बारण उपन्यास में सरसता भी आई है।

सारांश

इस इकाई में आपने ‘मैला आंचल ‘ के सरंचना शिल्प के अंतर्गत ‘मैला आंचल ‘ के कथा शिल्प की प्रविधियों व चरित्रांकन में रेणु की विशेषताओं को लक्षित किया। भाषा शिल्प पर विचार करते हुए आपने ‘मैला आंचल में भाषा प्रयोग के विविध स्तरों, लोकगीत, लोकसंगीत पर्यावरण सृजन में भाषा प्रयोग, जन-व्यवहार में भाषा प्रयोग मुहावरे लोकोक्तियां व विवरण शैली का भाषा प्रयोग देखा।

कुल मिलाकर इस इकाई में आपने उपन्यास के रूपगत या शिल्पगत पक्ष पर विचार किया । और यह कहा जा सकता है कि ‘मैला आंचल ‘ की सफलता उपन्यास की विषयवस्तु के  स्तर पर तो है ही, शिल्पगत स्तर पर भी रेणु यहाँ एक सफल उपन्यासकार के रूप में प्रस्तुत होते हैं।

प्रश्न

  1. ‘मैला आंचल ‘ के संरचना शिल्प की मुख्य विशेषताओं की चर्चा कीजिए। 
  2. ‘मैला आंचल ‘ में निर्मित कथा की शिल्पगत विशेषताएं बताइए। 
  3. ‘मैला आंचल ‘ में रेणु ने चरित्रांकन के लिए किन प्रविधियों का प्रयोग किया है।
  4. ‘मैला आंचल ‘ में प्रमुख नारी पात्रों पर चर्चा कीजिए।
  5. ‘मैला आंचल ‘ का नायक किसे कहा जा सकता है?
  6. ‘मैला आंचल ‘ की भाषा की सृजनात्मकता पर प्रकाश डालिए।
  7. भाषा शिल्प की दृष्टि से ‘मैला आंचल ‘ की प्रमुख विशेषताएं रेखांकित कीजिए।

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