मैला आंचल में सामाजिक व राजनीतिक संदर्भ

इससे पहले आपने आंचलिक उपन्यासों की परंपरा में मैला आंचल सर्वप्रथम आंचलिक उपन्यास होने के साथ-साथ आंचलिकता की विशिष्टता, कलात्मकता और विशेषता को अपने में किस प्रकार समेटे हुए हैं, का विस्तार से अध्ययन किया। 

पहले इसे पढ़ें

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • स्वतंत्रतापूर्व की राजनीतिक स्थितियों से अवगत हो सकेंगे,
  • स्वतंत्र भारत की शासन-व्यवस्था ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था के प्रभाव को किस प्रकार वहन करती रही, इसे समझ सकेंगे,
  • भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में विभिन्न राजनीतिक दलों की सक्रियता और कुछ अतीराष्ट्रीयवादी दलों की सांप्रदायिक नीतियों और प्रवृत्तियों से परिचित हो सकेंगे
  • कांग्रेस, जो कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में सबसे सक्रिय और महत्वपूर्ण दल के रूप में कार्यरत रही,
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कैसे संपत्तिशाली वर्ग की पार्टी के रूप में टिकी रही, इस तथ्य से अवगत हो सकेंगे,
  • जातिवादी राजनीति को प्रश्रय देने वाली सत्ताधारी पार्टी जातिवाद को बढ़ाकर किस प्रकार सत्ता में बने रहने की कोशिश करती है इसके लिए अपनाए जाने वाले हथकंडो से परिचित हो सकेंगे,
  • राजनीति को देश के नेताओं ने भ्रष्ट बनाया तो गाँवों में धार्मिक मठों मठाधीश और धर्म के ठेकेदारों द्वारा नारी शोषण, छुआछूत को बढ़ावा देने जैसी विघातक प्रवृत्तियों के पनपने के कारण बनी नारी की दयनीय स्थिति से अवगत हो सकेंगे।

पिछली इकाई में आपने ‘मैला आंचल ‘ उपन्यास के सृजन की पूर्व पीठिका देखी, लेखक के बारे में जाना और आंचलिकता की अवधारणा समझते हुए ‘मैला आंचल ‘ उपन्यास का आंचलिक संदर्भ में अध्ययन किया।

यद्यपि ‘मैला आंचल ‘ की अधिक चर्चा एक आंचलिक उपन्यास के रूप में हुई है, लेकिन आंचलिकता तो इसके रूप में अधिक है, अन्यथा विषयवस्तु के स्तर पर उपन्यास में राजनीतिक सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष व्यापक और राष्ट्रीय स्तर पर अधिक प्रबल रूप से चित्रित हुए हैं। यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि एक उपन्यास को राजनीतिकसामाजिक संदर्भो में देखा जा सकता है या क्या साहित्य राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्यों को चित्रित कर सकता है? क्या इससे उपन्यास या साहित्य की किसी भी विधा की कलात्मकता खंडित नहीं होती? या फिर साहित्य और समाज या साहित्य और राजनीति का परस्पर संबंध क्या है? साहित्य में रूपवादियों या कलावादियों द्वारा यह आग्रह अक्सर किया जाता है कि साहित्य स्वयं में स्वायत्त इकाई है और समाज या राजनीति का दबाव इसकी स्वायत्तता को खंडित करता है। दूसरे शब्दों में वे साहित्य में शाब्दिक संरचना या इसकी शैली को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं व इसमें प्रस्तुत विषयवस्तु को कम। लेकिन यह दृष्टिकोण सही नहीं है।

साहित्य व कलाओं की स्वायत्तता या साहित्य के समाज या राजनीति से संबंधों का यह प्रश्न आज से नहीं, वरन अनेक दशकों से उठता आ रहा है और इसका कोई ऐसा उत्तर अभी तक नहीं मिला है, जिसे इस प्रश्न का कोई समाधान मान लिया जाए। अलबत्ता साहित्य की अन्य विधाओं की चर्चा फिलहाल छोड़ भी दी जाए तो उपन्यास विशेष रूपसे ऐसी साहित्यिक विधा है, जिनका मुख्य आधार ही समाज है। क्योंकि उपन्यास ऐसी विधा है जिसके संबंध में यह माना जाता है कि इसमें जीवन का अधिकाधिक संपूर्ण चित्र प्रस्तुत किया जाता है, जैसा प्राचीन काल में महाकाव्य में किया जाता था। चूंकि आधुनिक जीवन अत्यंत जटिल है, इसलिए उसकी अभिव्यक्ति के लिए काव्य रूप सीमित बन रहा था। अंततः गद्य रूप में उपन्यास इसका उपयुक्त माध्यम बना। जब हम आधुनिक जीवन की बात करते हैं तब जीवन में सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक सभी पक्ष शामिल रहते हैं। बल्कि कहना चाहिए कि वही उपन्यास अधिक सशक्त बन पड़े हैं, जिनमें किसी देश का, समाज का जीवन अधिक विविधता और पूर्णता में व्यक्त हुआ हो। इसीलिए फ्रांस में बाल्ज़ाक, रूस में ताल्स्ताय, जर्मनी में हर्मन हेसे, स्पेन में सर्वांतीज़, इंग्लैंड में टामस हार्डी, चार्ल्स डिकेन्स और भारत में (बंगला में) रविन्द्र नाथ टैगोर, मलयालम में तकषी शिवशंकर पिल्लै, हिंदी में प्रेमचंद, मराठी में दलित लेखक दया पवार आदि का महत्व अधिक है, क्योंकि इनकी रचनाएं अपने समय के समाज का व्यापक और यथार्थ चित्र प्रस्तुत करते हैं।

इस अर्थ मे देखा जाए तो ‘मैला आंचल ‘ है ही एक सामाजिक व राजनीतिक उपन्यास। क्योंकि इस उपन्यास में भारतीय समाज और राजनीति के दो ऐसे ऐतिहासिक वर्षों का अंकन हुआ है, जो भारतीय समाज के इतिहास का अत्यंत महत्वपूर्ण काल है। उपनिवेशवाद से मुक्ति और नए राष्ट्र के निर्माण का संक्रमणकालीन दौर इस उपन्यास में अत्यंत विस्तार से और गहराई से चित्रित हुआ है।

अतः यह स्पष्ट है कि ‘मैला आंचल ‘ का अध्ययन और विश्लेषण राजनीतिक व सामाजिक आधारों पर किया जा सकता है। शायद यह कहना अधिक सटीक होगा कि ‘मैला आंचल · उपन्यास की आत्मा को इस उपन्यास में रेणु द्वारा चित्रित सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों की पड़ताल के माध्यम से ही पकड़ा जा सकता है। उपन्यासकार रेणु ने अपने जीवन के व्यावहारिक कर्म व अपने लेखन या सजन धर्मिता दोनों में ही गहन रूपसे सामाजिक व राजनीतिक सरोकारों से जुड़े हुए व्यक्तित्व की भूमिका निभाई है।

इस पाठ में “मैला आंचल · को हम पहले राजनीतिक स्थितियों के संदर्भ में और फिर सामाजिक स्थितियों के संदर्भ में विश्लेषित करेंगे, हालांकि दोनों में स्पष्ट विभाजन रेखा खींचना कठिन है।

मैला आंचल : राजनीतिक संदर्भ

‘मैला आंचल · उपन्यास का आरंभ ही राजनीतिक पृष्ठभूमि से होता है और उपन्यास का अंत भी राजनीतिक घटनाक्रम के एक दुखांत मोड़ से होता है। उपन्यास के राजनीतिक घटनाक्रम की अनेक परतें व अनेक स्तर चित्रित हुए हैं। इस अर्थ में “मैला आंचल · उपन्यास को गहरे ‘रूप में राजनीतिक उपन्यास भी कहा जा सकता है। मोटे तौर पर राजनीतिक संदर्भ में उपन्यास में जिन स्थितियों का चित्रण हुआ है उन्हें क्रमवार इस प्रकार स्ख सकते हैं :

 

  • ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन व्यवस्था।
  • भारतीय स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय विभिन्न राजनीतिक दल व प्रवृत्तियां।
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक राजनीतिक दल और एक शासक वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में चित्रण।
  • भारतीय ग्रामीण समाज के वर्ग और वर्ण के अंतर्विरोधों का चित्रण।
  • स्वतंत्रता पूर्व व स्वातंत्र्योत्तर शासन व्यवस्था का चित्रण।

उपन्यास का आरंभ 1946 ई. के किसी समय से होता है और अंत अप्रैल 1948 के आस पास। 1948 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत कांग्रेसी मंत्रिमंडल बन गए थे और 15 अगस्त 1948 के विभाजन और सत्ता परिवर्तन के उपरांत ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से प्रत्यक्षतः हट जाने, किंतु शासन व्यवस्था उसी ब्रिटिश व्यवस्था के रूप में बनी रहने की स्थिति में स्वातंत्र्योत्तर शासन व्यवस्था का आरंभ हुआ। दोनों ही स्थितियां एक संक्रमणकालीन दौर की उपज है और इस संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है कि ये हमारे देश की राजनीति के व्यवस्थागत रूप को स्पष्ट करने वाली हैं। ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने जो शासन व्यवस्था भारत में स्थापित की, 1948 में क्या हम उस व्यवस्था की गुलामी से भी मुक्त हुए या सिर्फ चमड़ी का रंग .. बदला? गोरे शासकों के स्थान पर भूरी या काली चमड़ी के लोगों ने शासन की बागडोर एक . ‘स्वतंत्र ‘ राष्ट्र के रूप में संभाली? वस्तुतः व्यवस्था वही बनी रही, जो उपिनवेशवाद ने अपनी ज़रूरतों के लिए निर्मित की थी।

क्या एक ही व्यवस्था उपनिवेशवाद और उपनिवेशवाद से मुक्ति प्राप्त राष्ट्र – दोनों की आकांक्षाओं या हितों की पूर्ति कर सकती है? यह ऐसा जरूरी सवाल है, जिसे राष्ट्रीय आजादी के शोर में दबा दिया जाता है। लेकिन रेणु ने ‘मैला आंचल में ऐसे सवालों से बचने की कोशिश न करके, उन्हें पूरी ईमानदारी व सजनशीलता से स्वतंत्रता प्राप्ति के सात वर्ष उपरांत ही उभार दिया था। लेकिन रेणु द्वारा सृजनात्मक रूप से उपस्थित किए गए यथार्थ सवालों को उस समय उपन्यास की आंचलिकता के घटाटोप में छिपा दिया गया। लेकिन अब जबकि देश की राजनीतिक स्थितियां एक बड़ा मुद्दा व क्रूर रूप गहण कर रही है और देश न सिर्फ आर्थिक स्तर पर एक नव-औपनिवेशक परतंत्रता की ओर बढ़ रहा है, बल्कि तथाकथित जनतांत्रिक व्यवस्था की पोल भी खुलती नज़र आ रही है तो “मैला आंचल’ का खुली दृष्टि से अध्ययन आवश्यक हो गया है। रेणु ने तो उसी समय ही औपनिवेशिक व्यवस्था को बिना परिवर्तन के अपनाने के खतरों से आगाह कर दिया था। .

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन व्यवस्था

उपन्यास का आरंभ ही ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था के जनमानस में अंकित बिंब से होता है, उपन्यास का आरंभिक वाक्य ही इस बिंब को शब्दों में बांधता है ‘मलेटरी ने वेथरू को गिरफ्तार कर लिया है। (पृष्ठ 9) गांव में यह खबर आग की तरह फैलती है। अगले पैरे में लेखक ने इसे स्पष्ट करने का यत्न भी किया है कि इस गांव में न तो फौजियों का कोई . उत्पात हुआ, न ही 1942 जैसे जन-आंदोलन ही इस गांव तक पहुंचे, लेकिन खबरें अस्पष्ट अफवाहों का रूप लेकर ज़रूर गांव में पहुंची और इन खबरों या अफवाहों में शामिल था – पूरे गांव को घेर कर आग लगाना, एक बच्चे का भी न बच पाना : ‘महीनों लोगों की लाशों का सड़ना ‘ ‘मलेटरी का पहरा ‘ आदि। ‘मलेटरी ‘ शब्द ही ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था की देन है

ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था का जो पहला लक्षण उपन्यास के आरंभ में ही चित्रित हुआ है, वह है – औपनिवेशिक शासन की भयंकर दमन नीति। इस दमन नीति का देश के सदर गांवों तक में इतना आतंक है कि मलेटरी आने की अफवाह मात्र से गांव वाले स्वतंत्रता सेनानी बालदेव को रस्सी से बांध लेते हैं अर्थात् दमन की नीति के आंतक से जनमानस की मानसिक गुलामी भी गहरे में जड़े पकड़ लेती हैं। यह बात अलग है कि जब शासकों की ओर से बालदेव को सम्मान दिया जाता है तो गांव वालों के लिए वह पूज्य हो जाता है। यह सिक्के का दूसरा पहलू भी मानसिक गुलामी का ही दूसरा रूप है। जनमानस व जन को शारीरिक व मानसिक रूप से गुलाम बनाना – यह ब्रिटिश औपनिवेशिक दमन नीति का मुख्य उद्देश्य था, कुछ दमन तो उसने कुछ अन्य दंगों से हासिल किया।

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन व्यवस्था का एक अन्य लक्षण था, उसकी सामाजिक या मानव मात्र के प्रति असंवदेनशीलता। औपनिवेशिक शासन का लक्ष्य था उपनिवेशों का आर्थिक शोषण, वह तभी संभव था, यदि उसे मानसिक स्तर पर गुलाम व पंगु बनाया जाए। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन व्यवस्था अपने इस लक्ष्य में काफी सफल रही। मानव मात्र के प्रति संवेदनहीनता के कारण ही मार्टिन की नव व्याहता पत्नी मेरी की मृत्यु हो जाती है और मार्टिन ब्रिटिश शासन व्यवस्था का अंग होकर भी कुछ नहीं कर पाता। अपनी पत्नी मेरी की याद में वह अस्पताल बनवाना चाहा है, वह भी नहीं हो पाता, उसकी सारी कोशिशों के बावजूद उसके भाग्य में निराशा में पागल होकर मरना ही लिखा है, और ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था को अपने ही अंग के मरने की कोई चिंता नहीं है। मार्टिन के मरने के 35 साल बाद ही मेरीगंज में मलेरिया सेंटर खुलने की बात होती है।

उपनिवेशवादी दमन व्यवस्था का एक रूप है -सेना या पुलिस द्वारा यातना देना, जेल भेजना या अन्य प्रकार से दंडित करना। इसका जनमानस पर प्रतिबिंब तो उपन्यास के आरंभ में ही मिल जाता है, लेकिन इसके अनेक ठोस उदाहरण उपन्यास में जहाँ-तहाँ मिलते हैं। जैसे स्वतंत्रता सेनानी बालदेव जब गांव वालों को अपनी पीठ उघाड़ कर दिखाते हैं तो न सिर्फ जन सामान्य वरन् देश के स्वतंत्रता सेनानियों पर कैसी-कैसी यातनाएं ब्रिटिश शासन के अंतर्गत पुलिस द्वारा दी जाती थीं, वे भी चित्रित होती हैं। कैसे भगत सिंह आदि देशभक्तों व क्रांतिकारियों को उपनिवेशवाद ने फांसी पर चढ़ा कर शहीद किया, इसका अंकन भी उपन्यास मे है। 1942 के मुक्ति आंदोलन को ही कितने अत्याचारों द्वारा दबाया गया, इसकी चर्चा भी यहाँ मिलती है।

जमींदारों और तहसीलदारों द्वारा किसानों पर अत्याचार करके लगान वसूल करने के लिए क्रूर दमन का चक्र चलाना, जैसे अनेक प्रसंगों को उपन्यास में अंकित किया है। तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद मल्लिक जो कायस्थ टोली के मुखिया हैं, के खानदान में तीन पुश्तों से तहसीलदारी चली आ रही है। इस तहसीलदारी से वे तो एक हजार बीघे के बड़े काश्तकार बन गए हैं, लेकिन उनकी यह इतनी बड़ी जोत बनी है, गरीब किसानों पर जुल्म के द्वारा । बाढ़ या सूखे से जब गरीब किसान की फसल. नष्ट हो जाती है तो वह लगान अदा नहीं कर सकता, लगान अदा नहीं कर सकता तो ज़मीन रेहन रखे और एक बार ज़मीन रेहन रखी तो वह गई बड़े ज़मीदारों के पास। किसान अपनी ज़मीन खोता चला जाता है और ज़मीदारों का वह गुलाम बनकर रह जाता है। बड़े ज़मींदार – अंग्रेज़ी शासन व्यवस्था गांवो में प्रतिष्ठित करने के मुख्य स्तम्भ रहे हैं। अनेक गांवों के लोगों ने शायद पूरे ब्रिटिश शासन काल में कभी अंग्रेज़ों का मुंह भी न देखा है। इन गांववासियों ने अपने ही गांव के बड़े ज़मींदारों, साहूकारों की ही गुलामी भोगी है, लेकिन यह ज़मींदार/साहूकार वर्ग पहले से ही अत्याचारी था, कुछ उपनिवेशवादी व्यवस्था ने अपने हित में इन्हें ताकत देकर शोषण व्यवस्था का पुर्जा बनाया।

मेरीगंज गांव में कुल दस्तखत करने लायक पढ़े-लिखों की संख्या दस बताकर औपनिवेशिक शिक्षा व सांस्कृतिक नीति भी लेखक ने उदघाटित कर दी है। उपनिवेशवाद को पढे लिखे नागरिकों की नहीं : अनपढ़ समूहों की ज़रूरत थी या फिर मैकाले व्यवस्था के अधीन ‘बाबू । लोगों की, क्योंकि जब भारतीय सचमुच शिक्षित हो जाते हैं तो डॉ. प्रशांत कुमार की तरह जन सेवा व जनचेतना जगाने में लग जाते हैं, जिससे व्यवस्था को हमेशा खतरा ही रहता है। फणीश्वरनाथ रेणु ने ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन व्यवस्था को अपनी कथा के सहज विकास में बड़े स्वाभाविक ढंग से चित्रित किया है।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और विभिन्न राजनीतिक दलों की सक्रियता

ब्रिटिश शासन व्यवस्था के चित्रण के साथ-साथ रेणु ने अधिक सकारात्मक रूप से व काफी विस्तार से ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरूद्ध व बाद में 1948 के सत्ता परिवर्तन के बाद देशी हाथों से परिचालित उसी व्यवस्था के विरूद्ध चल रहे जन-संघर्षों को भी चित्रित किया है।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरूद्ध संघर्ष के रूप में कांग्रेस पार्टी के अनेक नेताओं का परोक्ष रूप में, या उनके कार्यकलापों की चर्चा के रूप में चित्रण हुआ है। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू व बाबू राजेन्द्र प्रसाद के जनमानस पर उभरे बिंब और उनके कार्यकलापों की चर्चा अधिक हई है। बाबू राजेन्द्र प्रसाद चूंकि बिहार के सबसे प्रमुख राजनेता थे, अतः उनकी चर्चा महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के साथ स्वाभाविक ही है। कांग्रेस के निस्वार्थ व ईमानदार कार्यकर्ताओं के रूप में ‘डेढ़ हाथ ‘ के बावनदास व बालदेव प्रसाद का अधिक उल्लेख हुआ है। दूसरी ओर उन दिनों कांग्रेस पार्टी के अंग के रूप में, लेकिन अधिक जुझारू संघर्ष का बिगुल बजाने वाले दल के रूप में कांग्रेस सोशलिष्ट पार्टी का भी उपन्यास में चित्रण है जय प्रकाश नारायण इस दल के नेता थे और वे भी बिहार के ही थे, इसलिए उनका जिक्र भी ससम्मान हुआ है। स्वयं रेणु जयप्रकाश नारायण से प्रभावित थे व उनके आंदोलन के समर्थक भी। गांव में सोशलिस्ट पार्टी का नेतृत्व संभालता है – कालीचरण यादव

‘कॉमरेड कालीचरण और कॉमरेड बासुदेव! सुशलिंग पार्टी! रास्ते में कालीचरण बासुदेव को समझाता है, यही पार्टी असल पार्टी है। गरम पार्टी है। किरान्ती दल का नाम नहीं सुना था?… बम फोड़ दिया फटाक से मस्ताना भगत सिंह। यह गाना नहीं सुने हो? वही पार्टी है। इसमें कोई लीडर नहीं। सभी साथी हैं, सभी लीडर हैं।’

1946 में बिहार के सुदूर गांवों में भगत सिंह की एक क्रांतिकारी के रूप में धम थी. यह भी रेणु ने उपन्यास में कई स्थलों पर संवेदनशीलता से अंकित किया है। कम्युनिस्ट विचारों के प्रतिनिधि चरित्र चलित्तर कर्मकार भी उपन्यास में उपस्थित हैं तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी अपनी काली टोपियों के साथ केवल हिंदू राष्ट्र को बनए जाने की कोशिशों के साथ मौजूद हैं। लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन की अमूर्त बातें एक ओर, जब संथाल आदिवासियों व गांव के प्रभुत्ताशाली वर्ग ज़मींदारों के बीच संघर्ष होता है, 1948 से पहले तो सोशलिस्ट कालीचरण और कांग्रेसी बालदेव सभी गांव के प्रभुत्ताशाली वर्गों का साथ देते हैं। संघर्ष में चार संथाल खेत रहे तो तहसीलदार पार्टी के दस। लेकिन संथाल टोली लूट ली गई। नौ सन्थाल गिरफ्तार भी कर लिए गए गैर सन्थाल कोई गिरफ्तार नहीं किया गया, क्योंकि पुलिस भी प्रभुत्वशाली वर्गों के साथ थी। केवल डॉ. प्रशांत कुमार की सहानुभूति संथालों के साथ थी, लेकिन उसके बारे में मिथ्या प्रचार किया गया कि उसने सन्थालों के विरूद्ध रिपोर्ट दी।

आज़ादी क्या थी या स्वराज्य क्या था, इसके जशनों की क्या सार्थकता थी इसे रेण ने उपन्यास के दूसरे खंड के एक ही वाक्य में स्पष्ट कर दिया है। संथाल जमींदार संघर्ष हुआ, ब्रिटिश उपनिवेशवादी काल में और इसका अदालती फैसला हुआ देशी शासन में रेणु ने इसका चित्र खींचा है 

मुकदमा में भी सुराज मिल गया।

सभी संथालों को दामुल हौज (आजीवन कैद) हो गया।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय राजनीतिक दलों व शक्तियों की मानसिकता क्या थी, आदिवासी समुदाय के प्रति असंवेदनशीलता के क्या कारण थे, सन्थालों के साथ क्यों अन्याय हुआ, इसे रेणु ने बड़ी ही संवेदनशीलता से उपनिवेशवाद व स्वराज की सीमारेखा के इस ओर घटी एक घटना, व सीमारेखा के दूसरी ओर हुए अदालती निर्णय से अंकित कर दिया था। ऐसे सक्ष्म चित्रण के उदाहरण हिंदी उपन्यास में बहुत कम मिलते हैं। उपन्यास के अंत तक आतेआते ईमानदार कांग्रेसी कार्यकर्ता बावनदास का हश्र भी संथाली आदिवासियों जैसा ही होता है। रेणु ने ‘मैला आंचल — में राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय राजनीतिक शक्तियों का चरित्र अत्यंत सटीक और वस्तुगत ढंग से अंकित किया है।

राजनीतिक दल और शासक वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस

ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ भारतीय जनता के स्वाधीनता संग्राम के नेतृत्व का श्रेय प्रायः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को दिया जाता है। काफी हद तक यह बात सही भी है, लेकिन कांग्रेस के वर्ग चरित्र की अधिक चर्चा नहीं की जाती। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष केवल कांग्रेस पार्टी ने ही नहीं, वरन् अनेक शक्तियों ने किया। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1947 के सत्ता परिवर्तन तक स्वाधीनता संघर्ष में अनेक राजनीतिक धाराएं, विचार व शक्तियां सक्रिय थी। 1914 का ‘गदर’ आंदोलन, 1920-30 का क्रांतिकरी आंदोलन आदि अनेक ऐसे आंदोलन भी थे, जिनका कांग्रेस से कोई संबंध न था। ऐसा भी हुआ है कांग्रेस को एक व्यापक मंच समझ कर अनेक राजनीतिक विचार व शक्तियां इसके भीतर ही सक्रिय रहीं, जैसे सोशलिस्ट पार्टी, नेता जी सुभाष चंद्र बोस की गरम विचारधारा आदि। लेकिन कांग्रेस पार्टी की मुख्य धुरी संपत्तिशाली वर्ग की पार्टी के रूप में टिकी रही। थोड़े बहुत प्रगतिशील विचारों को यह पार्टी भीतर समाहित कर उन्हें मुख्य धुरी के इर्द गिर्द अनुकूलित करती रही। इसीलिए कांग्रेस पार्टी ने अपनी संकल्पना एक भावी शासक दल के रूप में ही की और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अंतर्गत ही इस पार्टी ने शासन करने की शिक्षा भी प्राप्त की। 1935 के भारत अधिनियम के अंतर्गत 1937 में बनी कांग्रेस सरकार, 1946 में बनी कांग्रेस सरकारों ने उपनिवेशवादी व्यवस्था के अंतर्गत ही शासन करना सीखा था।

यही कारण है कि 1947 का सत्ता परिवर्तन होते ही कांग्रेस पार्टी ने व्यवस्था परिवर्तन की बात छोड़ दी। समाजवाद का लुभावना नारा यह अवश्य लगाती रही, लेकिन शासन व्यवस्था उसे उपनिवेशवादी ही रास आई। इसलिए स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस पार्टी और 1947 के बाद शासन करने वाली शासक पार्टी के रूप में कांग्रेस दो अलग भूमिकाएं निभाती नज़र आती है, यद्यपि यह दोनों भूमिकाएं वस्तुतः अलग भूमिकाएं नहीं हैं। कांग्रेस पार्टी के स्वाधीनता से पहले की भूमिका में ही स्वाधीनता के बाद की भूमिका के बीज मौजूद थे। इसीलिए 1948 के तुरंत बाद आदिवासी संथालों को सज़ा भी होती है। ‘चलित्तर’ कर्मकार के वारंट भी वापिस नहीं होते, सबसे ऊपर यह कि गांव में बेहद लोकप्रिय जनसेवक डॉ. प्रशांत कुमार को शासक कांग्रेस द्वारा गिरफ्तार कर जेल भी भेजा जाता है।

कांग्रेस शासन में ताकत कालाबाजारी कांग्रेसी दुलार चंद कापरा जैसे लोगों के पास है। सत्ता के तंत्र वही हैं पुलिस, इंस्पेक्टर आदि। और यही कापरा अपने काला बाजार के धंधे के लिए गांधी की शहादत के दिनों में ही गांधी के प्रिय शिष्य भगवान बावनदास को भी गाड़ियों के नीचे जिंदा ही कुचलवा डालता है। रेणु ने अप्रैल 1948 के आसपास उपन्यास का अंत किया है और सत्ता परिवर्तन के 8-9 महीनों में ही कांग्रेस पार्टी के शोषक-शासक रूप को अच्छी तरह उद्घाटित कर दिया है।

भारतीय ग्रामीण समाज में वर्ग और वर्ण अंतर्विरोध

इस विषय पर विस्तृत चर्चा तो पाठ के अगले अंश में की जाएगी, लेकिन रेणु ने ‘मैला आंचल · में मेरीगंज गांव के समाज का बहुत ही सटीक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। गांव में उन्होंने बारह वर्ण होने की स्थिति बताई है व तीन प्रभुताशाली समुदाय चित्रित किए हैं :

  • कायस्थ या मालिक टोला बड़े काश्तकार,
  • राजपूत टोली बड़े मध्यम काश्तकार,
  • यादव टोली – छोटे/मध्यम काश्तकार।

आज जो बिहार की जातिवादी राजनीति है व इसे जातिवाद ने किस प्रकार जाति व वर्ग अंतर्विरोधों के भ्रम में डाल दिया है, लगभग ऐसी ही स्थिति रेणु ने चार दशक पहले ही चित्रित कर दी है। आदिवासी संथालों के विरूद्ध संघर्ष में गांव के ये तीनों प्रमुख टोले एक ही वर्ग अर्थात् शोषक वर्ग की भूमिका निभाते हैं, जबकि संथाल शोषित वर्ग की स्थिति में हैं। रेणु ने ‘मैला आंचल में 1946 से 1948 तक के अत्यंत निर्णायक दो वर्षों का चित्रण भारतीय समाज के चित्रण के संदर्भ में किया है। सबसे महत्वपूर्ण घटना इस बीच 1948 के सत्ता परिवर्तन के रूप में घटती है। रेणु ने स्वतंत्रतापूर्व स्थिति का चित्रण उपन्यास के पहले खंड में किया है और स्वातंत्र्योत्तर स्थितियां उपन्यास के दूसरे खंड में हैं। क्या इन दोनों स्थितियों में कोई अंतर नज़र आता है? यह एक महत्वपूर्ण और विचारणीय प्रश्न है।

इन दोनों स्थितियों के बीच की कड़ी है – गांव में आदिवासी संथाल बनाम जमींदार टोली में वर्ग संघर्ष, जिसमें दोनों पक्षों के कई लोग मारे जाते हैं और देशी पुलिस का दमन संथालों को झेलना पड़ता है। उनका गांव भी लूटा जाता है और उन्हीं के लोग गिरफ्तार भी किए जाते हैं। अगर सचमुच भारत स्वाधीन हो गया है तो इन संथालों को सबसे पहले न्याय मिलना चाहिए .था, लेकिन उनको सुराज मिलता है ‘दामुल हौज’ अर्थात आजीवन कारावास के रूप में। यहाँ सांकेतिक रूप में ही रेणु बहुत गहरी बात कह गए हैं। भारत के मेहनतकशों, शोषितों के लिए . तो भारतीय स्वाधीनता का अर्थ है दामुल हौज और भारतीय शोषकों के लिए स्वाधीनता का अर्थ है सत्ता का नशा और सुख । कई स्तरों पर तो ऐसा भी लगता है कि स्थितियां पहले से भी बदतर हुई और वह भी चार छ: महीनों की आज़ादी के भीतर ही। गांधी के शिष्य बावनदास को भारत पाकिस्तान सीमा पर कांग्रेसी कालाबाजारी कापरा द्वारा जीवित ही कुचलवा दिया जाना, डॉ. प्रशांत कुमार की गिरफ्तारी आदि की स्थितियां तो ब्रिटिश उपनिवेशवादी व्यवस्था से भी बदतर व्यवस्था बनने के संकेत देती हैं।

स्थितियों के गहरे विश्लेषण के बाद रेणु और मैला आंचल के संबंध में हम कह सकते हैं कि रेणु ने ‘मैला आंचल ‘ उपन्यास के माध्यम से भारतीय समाज के राजनीतिक रूपांतरण के दो , अत्यंत महत्वपूर्ण व निर्णायक वर्षों का बड़ी ही सूक्ष्मता और संवेदनशीलता से चित्रण किया है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम का. सारतत्व रेणु ने ‘मैला आंचल ‘ में प्रस्तुत कर दिया है। इस अर्थ में ‘मैला आंचल — का एक राजनीतिक उपन्यास के रूप में भी दीर्घकालिक महत्व स्थिर  रहेगा। “

मैला आंचल : सामाजिक संदर्भ ।

‘मैला आंचल · का सामाजिक संदर्भ भी उपन्यास के प्रथम अध्याय से ही उद्घाटित होने लगता है। मेरीगंज गांव बाहर की दुनिया से इतना अधिक कटा है कि 1942 के जन-आंदोलन की खबरें भी यहाँ अफवाहों के रूप में ही अधिक पहुंची हैं, वास्तविकता के रूप में कम।

दूसरी बात जो स्पष्ट रूप से शुरू मे ही उभर आती है वह है गांव का जातिगत विभाजन। तीन प्रमुख टोलों – मालिक यानि कायस्थ टोला, राजपूत टोला और यादव टोला। इसका समाजवैज्ञानिक विश्लेषण अगली इकाई में प्रस्तुत हुआ है जहाँ रेणु ने बताया है कि इस बड़े गांव में बारह वर्ण के लोग रहते हैं और प्रभुताशाली दो वर्णों या जातियों राजपूतों व कायस्थों में . पुश्तैनी मनमुटाव व झगड़े रहते हैं, संपत्ति व सत्ता को लेकर भी। ब्राह्मण कम संख्या में हैं। यादव खुद को यदुवंशी क्षत्रिय मानते हैं। लेकिन राजपूत उन्हें क्षत्रिय नहीं मानते। वास्तव में ‘मैला आंचल ‘ के मेरीगंज गांव के माध्यम से पूरे बिहार की जाति-व्यवस्था का एक चित्र आंखों के सामने उभर आता है। यदि इस चित्र को ठीक से समझ कर जातिगत अंतर्विरोधों को ठीक तरह सुलझाया जाता तो बिहार की आज जो जातिगत हिंसा की भयंकर स्थिति है वह न बनती। इन अंतर्विरोधों को सुलझाना तो दूर रहा, ठीक से समझने का प्रयास भी नहीं हुआ। 

राजपूत व कायस्थ आदि उच्च जातियां सिर्फ जाति-उच्चता के बोध के कारण ही नहीं है वरन् इनकी जातिगत उच्चता के बोध में आर्थिक व राजनीतिक सत्ता.. की शक्ति भी शामिल है। बिहार में ‘गुमट टोली — निम्न जातियों का बोधक शब्द है, लेकिन 1954 में ही यादवों ने इतनी सामाजिक सत्ता हासिल कर ली थी कि उन्हें अब ‘गुमट टोली कहने की हिम्मत कोई नहीं करता। लेकिन जो अन्य निम्न समझी. जाने वाली जातियाँ गाँव में हैं, उन्हें उच्च . जाति के लोग ‘गुमट टोली ‘ कहते हैं, जबकि वे जातियां स्वयं को क्षत्रिय मानती हैं, जो .उनकी जाति नामों से जाहिर है। ये जातियां हैं – पोलिया टोली, तन्जिमा (ततका) छत्री टोली. गहलोत छत्री टोली, कुर्म छत्री टोली, धनुकधारी छत्री टोली, कुशवाहा छत्री टोली और रैदासी टोली।

कथित उच्च जातियां तो कथित निम्न जातियों को ‘निम्न ‘ कहती ही हैं, स्वयं निम्न समझी या कही जाने वाली जातियों में भी अपनी जाति को अन्य जाति से उच्च समझने की भावना प्रबल रूप में विद्यमान है और ये जातियाँ समाज से उपेक्षित होकर भी आपस में एकता या सामाजिक व्यवहार नहीं रखती। उधर डेरे में महंत लोग स्त्री को दासिन बना कर रखते हैं, यह भी उसे निम्न जाति के स्तर तक खींचना है, स्त्री का डेरे में दैहिक शोषण कर उसे लगभग रखैल की स्थिति तक गिरा दिया जाता है। निम्न जातियों में कितनी गरीबी है यह महंत सेवादास द्वारा डेरे पर भंडारे की घोषणा के समय पता चलता है, जब यह बताया जाता है कि ‘तन्जिमा, गहलोत और पोलिया टोली के अधिकांश लोगों ने पूरी-जलेबी कभी चखी भी नहीं। ‘ ‘हरिजन ‘ शब्द भी निम्न जातियों के लिए इस समय प्रचलित था क्योंकि बालदेव जी सबको ‘जी ‘ लगाकर बुलाते हैं, और इनमें ‘हरिजन’ जी ‘ का भी उदाहरण शामिल हैं।

ग्रामीण समाज में स्त्री-पुरूष संबंधों पर उपन्यासकार ने खूब ध्यान केंद्रित किया है। ‘मैला । आंचल’ के स्त्री पुरूष संबंधों के चित्रण को देखकर तो लगता है मिथिला अंचल में इन संबंधों में काफी उन्मुकता है। डेरे के महंत खुले में लछमी या बाद में नए महंत रामपियारी से संबंध रखे हैं और इन संबंधों को सामाजिक स्वीकृति भी है। बालदेव लछमी प्रेम संबंधों या कालीचरण मंगला प्रेम संबंधों पर भी कोई ज्यादा टीका टिप्पणी नहीं होती। निम्न जातियों के अनेक स्त्री-पुरूष संबंधों में ब्याहता संबंधों के दायरे के बाहर भी काफी उन्मुक्तता के व्यवहार का चित्रण हुआ है। इन सबसे बढ़कर रेणु ने डॉ. प्रशांत कुमार व कमला के प्रेम संबंधों में इस हद तक उन्मुक्तता दिखाई है कि कमली के बिना ब्याह के मां बनने पर भी इस सदर पिछडे गांव में कोई तुफान नहीं आता। हालांकि दोनों का प्रेम सच्चा है और बच्चा होने से पहले ब्याह न हो पाने का कारण प्रशांत की गिरफ्तारी और कारावास है। इस अर्थ में ‘मैला आंचल ‘ को रोमांटिक उपन्यासों की परंपरा में भी रखा जा सका है।

गाँव की शैक्षिक स्थिति का भी चित्रण हुआ है। पूरे गाँव में कुल दस लोग ऐसे हैं जो दस्तखत कर सकते हैं, उन्हीं में तहसीलदारी की शिक्षा भी शामिल है। नये पढ़ने वाले कुल पन्द्रह हैं। जिसका अर्थ यह है कि 1946 तक आते आते शिक्षा के प्रति जागृति की भावना उठने लगी थी। 

गांव की मुख्य पैदावार धान, पाट और खेसारी बताई गई है और कभी-कभार रबी की फसल आधी होने की सूचना भी है।

लेकिन गांव का चित्र केवल जातिगत विभाजन या पिछड़ेपन की स्थिति के चित्रण में ही पूरा नहीं होता। गांव का चित्र पूरा होता है – गांव के वर्ग विभाजन के चित्रण से | मालिक टोली व राजपूत टोली व कुछ हद तक यादव टोली गांव का प्रभुत्वशाली वर्ग है – आर्थिक रूप में भी और राजनीतिक तथा सांस्कृतिक रूप मे भी, आर्थिक रूप में विश्वनाथ प्रसाद (कायस्थ) हजार बीघे के काश्तकार हैं, ठाकुर रामकिरपाल सिंह (राजपूत) लगभग साढ़े तीन सौ बीघे के ज़मींदार हैं और खेलावन सिंह यादव भी डेढ सौ बीघा जमीन के मालिक हैं। दूसरी ओर गांव के बाकी लोग गरीब हैं साधनहीन हैं, खेतों पर मजदूरी करते हैं या किसी अन्य स्थान पर मज़दूरी तलाश करते हैं। एक और संथाल आदिवासी हैं, जिनकी ज़मीनें प्रभुत्वशाली वर्ग के टोलों ने शोषण से छीन ली हैं और यह गांव के वर्ग विभाजन को वर्ग-संघर्ष के स्तर तक ले जाता है। इस वर्ग संघर्ष मे अत्याचार संथाल आदिवासियों पर ही होते हैं।

रेणु ने बिहार के जाति विभाजन के विकल्प रूप में जो चरित्र रखे हैं, उन्हें जाति विहीन चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया है, जिनकी जाति का कुछ पता नहीं है, लेकिन जो अपने कार्यव्यवहार से स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानव का उदाहरण बनाकर प्रस्तुत करते हैं और लेखक का संदेश सजनात्मक रूप से देते हैं कि जाति का कुछ मतलब नहीं है, मानव का श्रेष्ठ मानव होना सबसे बड़ी बात है। ये दो सर्वश्रेष्ठ मानव हैं – डॉ. प्रशांत कुमार, जो नदी में फेंके गए मिले हैं और कांग्रेस कार्यकर्ता बावनदास। ग्रामीण समाज के अन्य जो संदर्भ उपन्यास में चित्रित हुए हैं, उनमें गांव के..सांस्कृतिक पर्यावरण का चित्र भी शामिल है। त्योहारों के अवसर पर और अन्य अनेक अवसरों पर गांव के जीवन का रंगबिरंगा सांस्कृतिक रूप ‘मैला आंचल ‘ में अच्छी तरह उद्घाटित हुआ है। समाज में प्रचलित अनेक कुरीतियों व बुराइयों का उद्घाटन भी जहाँ-तहाँ होता चलता है। गांव का डेरा कबीरपंथियों का डेरा है, जो कबीर के विचारों का प्रतिरूप होना चाहिए लेकिन ये डेरे संपत्ति के खेल और महंतों की विकृतियों की पूर्ति का माध्यम बन जाते हैं। पहले डेरे का महंत सेवादास अबोध बालिका लछमी को डेरे पर पढ़ाने लिखाने व पालने पोसने.लाया था, लेकिन उसकी किशोरावस्था आते ही उसका दैहिक शोषण करने लगता है। सेवादास का चेला रामदास भी कम नहीं। यहाँ तक बसुमतिया मठ के महंत से लछमी को लेकर सेवादास के लड़ाई-झगड़े और मुकदमेबाजी तक होती है।और विडंबना यह कि कानून भी लछमी को सेवादास के हवाले कर देता है।

डेरे के भीतर की गंदगी और भी अधिक उभर कर सामने आती है, महंत सेवादास के मरने के बाद। तब इस मठ की गद्दी के लिए संघर्ष होता है। रामदास पन्द्रह साल पहले खंजड़ी बजाने के कारण भैंस चराने से छूट कर डेरे में आ गया था और अब वह डेरे की नौ सौ बीघे की छोटी ज़मींदारी का मालिक हो जाएगा। महंती सिर्फ धार्मिक काम नहीं है, इसलिए नौ सौ बीघे की “काश्तकारी पर मठ के आचरण गुरू ने जिस लरसिंहदास को खबर देने भेजा है, वही महंती का दावेदार हो जाता है। न सिर्फ महंती का दावेदार, वह लछमी पर भी लार टपकाने लगता है और लंछमी से ‘बिलस साधु ‘ की पदवी पाता है। 

लरसिंहदास महंती हासिल करने के लिए जो तिकडमें करता हैं, उन्हें देखकर तो किसी भी भक्त को इन मठों व मठाधीशों से घृणा हो जाए। शायद इसी उद्देश्य से रेणु ने इन मठों के भीतर की दुनिया का ‘मैला आंचल  में पर्दाफाश किया है। लरसिंहदास को तो कालीचरण मार कर भगा देता है लेकिन रामदास भी कम नहीं है। लछमी पर उसकी भी कुदृष्टि ही है, सिर्फ इतना फर्क है कि वह उससे डरता है, अंततः वह नई दासिन रखने मी मांग कर देता है हालांकि गद्दी मिलते समय हर महंत से इकरारनामा लिखवाया जाता है

“हमेशा ‘लंगोटबंद रहेंगे। मादक दव्य का सेवन नहीं करेंगे। दासी रखेलिन नहीं रखेंगे।” इत्यादि लेकिन मठों के महंतों की स्थिति भारतीय राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के वायदों व घोषणाओं जैसी ही है। इनसे सत्ता पाने के लिए कुछ भी कहलवा लो, लिखवा लो, लेकिन एक बार सत्ता हाथ में आई नहीं कि वास्तविक चरित्र उघड़ना शुरू हो गया। समाज के राजनेता जितने भ्रष्ट हैं, उतने ही भ्रष्ट समाज के धार्मिक नेता भी हैं, रेणु ने ‘मैला आंचल’ में इस तथ्य को कुशलतापूर्वक उद्घाटित किया है।

डॉ. प्रशांत कुमार समाज के प्रति अति संवेदनशील है, जो विदेश जाना न चाहकर मेरीगंज जैसे पिछड़े गांव में काला-आज़ार संबंधी रिसर्च करना चाहता है। लेकिन डॉक्टरी पेशे से जुड़े लोगों में प्रचलित सामाजिक मूल्यों के अनुसार ‘यह भावुकता का दौरा ‘ है। गांव में यदि एक ओर शिक्षा सुविधाएं न होने के कारण मानसिक पिछड़ापन व्याप्त है तो दूसरी ओर चिकित्सा .. सुविधाओं का अभाव है। मिथिला की सुंदर लड़की निर्मला जिसकी आंखे इसलिए अंधी हो । जाती हैं क्योंकि आंखे आने पर उसे सामान्य आंख की दवाई भी नहीं मिलती।

दूसरी ओर मानसिक पिछड़ेपन और अंधःविश्वास के कारण गणेश की नानी और पारवती की मां, जो डॉ. को बढ़ापे में भी संदर प्रतीत होती है, को गांववासी डाइन बना देते हैं, क्योंकि चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में उसके पति, देवर-देवरानी, बेटा-बेटी सबकी मृत्यु हो जाती है और इन सबकी मृत्यु के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया जाता है। क्योंकि वह डाइन है, इसलिए ‘तीन कुलों को खा गई। डॉ. इस स्नेहिल महिला को मौसी बनाता है और उसके नाती गणेश को बचाता है। 

बिहार के ग्रामीण समाज में भी गांधी और जवाहरलाल नेहरू का राष्ट्रीय नेताओ के रूप में सम्मान है और भगतसिंह का क्रांतिकारी के रूप में, लेकिन बिहार के अपने नेताओं के रूप में राजेन्द्र प्रसाद और जयप्रकाश नारायण गांव वासियों के जनमानस में बसे हैं, जिसकी झलक होली के गीतों में भी मिलती है।

भगत सिंह की प्रतिष्ठा जनमानस में मस्ताने की है, जिसने ‘फटाक से बम फोड़ दिया था। वह भारत का वीर लड़ाका भी था लेकिन वह सब कुछ होने पर भी यह सवाल ज़रूर उठता है ‘भगत सिंह कौन जात था?’ राष्ट्रीय आंदोलन और राष्ट्रवाद, समाजवादी आंदोलन और क्रांतिकारी विचारधारा भी बिहार के जनमानस से जाति की भावना नही निकाल पाई। लेखक को भी कभी-कभी लगता है कि जाति की भावना बिहार से जा ही नहीं सकती। अपने ही चरित्र प्रशांत कुमार संबंधी भी उनकी शंका है कि यदि उसे अपनी जाति पता होती, तब शायद वह इतना जाति भेद विरोधी न होता। यहाँ वास्तव में रेणु अपनी मानसिक कमज़ोरी का प्रदर्शन कर रहे हैं। जाति भावना कितनी भी बहुमूल्य क्यों न हो, सामाजिक परिवर्तन उसे अवश्य हिला सकता है और सच्ची मानवीय समानता स्थापित कर उसे जड़ से उखाड़ा जा सकता है।

उपन्यास का दूसरा खंड 1948 की आज़ादी की सूचना व जश्नों से शुरू होता है, लेकिन सुराज के साथ हिंदू मुसलमानों में कटने-बंटने की भी चर्चा है। बालदेव जैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं मे भी कितना राजनीतिक पिछड़ापन है, इसकी सूचना भी ‘कॉमरेड ‘ की उनकी व्याख्या से पता चलता है, जब वह ‘टीक मोंछ काटकर, मुर्गी का अण्डा खिलाकर कामरेड बनाने की बात कहते हैं। आज़ादी के साथ ही देश में फैले सांप्रदायिक दंगों की चर्चा भी . उपन्यास में है। ‘दिल्ली, कलकत्ता, नखलौ, पटना सब जगह हिंदू मुसलमान में लड़ाई हो रही है। ‘ 

बिहार में जाति विभाजन व संघर्ष तो पहले ही था, अब सांप्रदायिक भेदभाव व दंगे भी पहुंच ‘ गए। हालांकि लेखक ने सांप्रदायिकता या सांप्रदायिक दंगों पर बहुत विस्तार से चर्चा नहीं की ‘क्या देश की आज़ादी के बाद कुछ सामाजिक परिवर्तन होता है? कुछ अच्छाई की दिशा में तो यह परिवर्तन नहीं ही होता। डॉ. प्रशांत कुमार को ‘कम्युनिस्ट ‘ समर्थक मानकर गिरफ्तार कर लिया जाता है। गणेश की नानी की हत्या हीरू कर देता है। बालदेव और लछमी मठ से अलग होकर रहने लगते हैं। कमली गर्भवती हो जाती है। 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की। हत्या हो जाती है। बावनदास को स्वाधीनता के बाद के कांग्रेस शासन ने विचलित कर दिया है।. सीमा पर कांग्रेसी लोग ही कालाबाजारी का धंधा कर रहे हैं। महात्मा गांधी की हत्या के बाद उसे लगता है कि अब उसे ही देश के लिए बलिदान देना है, तो वह कलीमुद्दीपुर की ओर चल पड़ता है, जहाँ नदी के एक ओर हिंदुस्तान और दूसरी ओर पाकिस्तान है। यहीं सीमा पर कटहा थाना कांग्रेस का सेक्रेटरी दुलार चंद कापरा सीमा पर काला बाज़ारी व चोर बाज़ारी का धंधा करता है, स्मगलिंग करता है। यहीं पर बावनदास, जो महात्मा गांधी के प्रिय थे, कांपरा के आदेश पर जीवित ही कुचल दिए जाते हैं, क्योंकि वह उनकी स्मगलिंग के रास्ते में रोड़ा बनकर आया था, उसकी. लाश की भी दोनों देश दुर्गति करते हैं। बावनदास की खद्दर की झोली तीन महीने बाद अप्रैल में चेथरिया पीर बन कर लटक जाती है। आज़ादी के बाद स्वतंत्रता सेनानियों का यह हश्र होता है। इसे प्रकट कर रेणु ने आज़ादी के बाद बनने वाले समाज व राजव्यवस्था का स्पष्ट संकेत कर दिया है।

उपन्यास यदि यहीं पर समाप्त हो जाता तो इसमें यह अंत बहुत सशक्त होता, लेकिन रेणु उसके आगे कुछ आदर्शवाद में भटक गए। प्रशांत की रिहाई और कमली व अपने बच्चे से उसका मिलन तो यथार्थ कहा जा सकता है, लेकिन तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद द्वारा संथाल टोली व किसानों के पांच बीसी दर से ज़मीने लौटाना थोड़ा आदर्शवादी है, वैसे ही डाक्टार का कुछ कुछ गांधीवादी मानवतावादी बनना भी आदर्शवादी प्रतीत होता है। कुल मिलाकर ‘मैला आंचल ‘ में चित्रित राजनीतिक व सामाजिक संदर्भ काफी वस्तुगत व यथार्थवादी ढंग से अंकित हुए हैं और 1946-48 के बीच के भारतीय समाज के संक्रमणकाल का यह उपन्यास एक सृजनात्मक दस्तावेज बन गया है।

सारांश

इस इकाई का आपने ध्यानपूर्वक अध्ययन किया है। मैला आंचल में अभिव्यक्त राजनीतिक औरसामाजिक संदर्भो को विस्तार से जान लिया है। अब इस सारांश रूप में समझ लीजिए नीतियों को ‘मैला आंचल ‘ उपन्यास में फणीश्वरनाथ रेणु ने 1946-48 के काल के भारतीय .समाज को, राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक घटनाक्रम को, उसके राजनीतिक रूपांतरण ‘को, उसकी सामाजिक परिघटनाओं को अत्यंत सूक्ष्मता से अंकित किया है।

राजनीतिक संदर्भो में रेणु ने 1946 में उपनिवेशवादी शासन की छत्रछाया में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के कार्यकलापों और 1948 में अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद उसी शासन को बिना किसी परिवर्तन के चलाए जाने को बड़ी गहराई से चित्रित किया है। भारतीय राजनीति के सभी पहलू कांग्रेसी आंदोलन, समाजवादी आंदोलन, क्रांतिकारी आंदोलन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंदू राज्य की पताका लहराने की कोशिश देश का विभाजन, सांप्रदायिक दंगों आदि तो उपन्यास में चित्रित हुए ही हैं, शासन व्यवस्था के औपनिवेशिक स्वरूप को भी लेखक ने उद्घाटित किया है, जो स्वतंत्रता पूर्व व स्वातंत्र्योत्तर काल में बिना किसी परिवर्तन के चलता रहता है। शोषक वर्गों व शोषित वर्गों दोनों की ही स्थिति स्वतंत्रता से पहले व बाद एक ही तरह की बनी रहती है। भारतीय समाज के इस कटु राजनीतिक यथार्थ को रेणु ने ‘मैला आंचल ‘ में ईमानदारी से अंकित कर दिया है।

उसी प्रकार बिहार के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र के, विशेषतः मिथिला अंचल के सामाजिक मानचित्र . को भी रेणु ने ‘मैला आंचल ‘ में पूरी विविधता से उकेरा है। गांव का जाति-विभाजन, शिक्षाचिकित्सा सुविधाओं का अभाव, मानसिक पिछड़ापन, गांव में मनाए जाते पर्व-त्यौहार लोकगीत-संगीत, स्त्री-पुरूष संबंध, समाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को रेणु ने बड़ी … सजीवता से उपन्यास में अंकित किया है। गांव के जीवन में बालदेव, बावनदास, कालीचरण और डॉक्टर प्रशांत कुमार की मौजूदगी व प्रयत्नों से होने वाले सामाजिक परिवर्तनों का अंकन भी रेणु ने इस परिवर्तन के अंतर्विरोधों के साथ किया है। बिहार के मिथिला अंचल के राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृलिक जीवन का एक प्रामाणिक रूप जानने समझने के लिए ‘मैला आंचल · एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कृति का दर्जा रखती है।

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