आधुनिक काल के साहित्य की पृष्ठभूमि

आधुनिक हिन्दी साहित्य का आरंभ उन्नीसवीं सदी के मध्य से माना जाता है। यह काल भारतीय इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण है। 1857 की असफल क्रांति के बाद भारत में अंग्रेज़ी सत्ता पूरी तरह स्थापित हो चुकी थी। अंग्रेज़ी सत्ता की स्थापना और विस्तार के साथ एक नये तरह का भारत भी बन रहा था। सामंती भारत समाप्त हो रहा था तो औपनिवेशिक दासता के साथ पूंजीवादी समाज का भी निर्माण हो रहा था। अंग्रेज़ों ने जिस आधुनिक शिक्षा की शुरुआत की उसने भारत के नये बुद्धिजीवी वर्ग को अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य के बारे में सोचने को प्रेरित किया। आधुनिक हिन्दी साहित्य का संबंध इन्हीं नये परिवर्तनों से है। आप इस इकाई में इस बारे में अध्ययन करेंगे। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • हिन्दी साहित्य के संदर्भ में आधुनिक काल की पृष्ठभूमि जान सकेंगे;
  • हिन्दी भाषा और गद्य के उदय से परिचित हो सकेंगे;
    आधुनिक काल के विविध समाज सुधार आंदोलनों की चर्चा कर सकेंगे;
  • स्त्री स्वातंत्र्य के अंतर्गत चल रहे अभियानों को समझ सकेंगे;
  • देशभक्ति और राष्ट्रवाद के विकास की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे; और
  • नवजागरण और आधुनिकता का स्वरूप जान सकेंगे।

इससे पहले के तीन वंडों में आपने क्रमश: आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल के साहित्येतिहास के बारे में अध्ययन किया । इस चौथे खंड से आप आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास का अध्ययन आरंभ कर रहे हैं। आधुनिक साहित्य से संबंधित यह पहली इकाई है। इसी खंड में आगे आप तीन इकाइयाँ और पढ़ेंगे जिनमें क्रमश: . भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग और छायावाद का अध्ययन करेंगे। इकाइयों के इस विभाजन को ध्यान में रखें तो कह सकते हैं कि इस इकाई में हमें आधुनिक साहित्य की उस पृष्ठभूमि को समझना है जिसने इस काल के सहित्य के निर्माण की परिस्थितियाँ पैदा की। दूसरे शब्दों में, आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास के बारे में अध्ययन आरंभ करने से पहले यह जानना और समझना जरूरी है कि यह साहित्य किन परिस्थितियों में पैदा हुआ और इसकी सृजना के पीछे की प्रेरक शक्तियाँ कौन सी हैं।

आधुनिक हिन्दी साहित्य का आरंभ उन्नीसवीं सदी के मध्य माना जाता है। उन्नीसवीं सदी भारतीय इतिहास में कई दृष्टियों से निर्णायक कही जा सकती है। आधुनिक से क्या तात्पर्य है? क्या यह सिर्फ काल का सूचक है या इसके साथ एक विशेष युग की अवधारणा जुड़ी हुई है जो प्राचीन और मध्य युग की अवधारणाओं से अलग है? जब भारतीय इतिहास के आधुनिक युग की शुरुआत होती है क्या तभी से हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग की भी शुरुआत होती है या उससे अलग समय में? यहाँ यह भी सवाल विचारणीय है कि जब पश्चिम में आधुनिक युग का आरंभ हुआ क्या वही समय भारत में भी आधुनिकता का है? आधुनिकता पश्चिम की अवधारणा मानी जाती है, तो, क्या आधुनिकता की कोई भारतीय अवधारणा भी है? हिन्दी के खास संदर्भ में जब हम बात करते हैं तो यह प्रश्न भी पैदा होता है कि आधुनिक साहित्य किन अर्थों में अपने पूर्ववर्ती साहित्य से भिन्न है? यह भिन्नता मुख्यत: साहित्यिक है या साहित्येतर?

आधुनिक युगीन हिन्दी साहित्य में हम कुछ स्पष्ट परिवर्तनों को देख सकते हैं। पहली बार साहित्य में गद्य में रचना होने लगती है और उसे केन्द्रीय महत्व प्राप्त होने लगता है। यही वजह है कि आचार्य रामचंद्र शुक्त इसे गद्यकाल नाम देते हैं। ब्रज का स्थान खड़ी बोली ले लेती है और इस खड़ी बोली के दो रूपों को हम दो भिन्न भाषाओं – हिन्दी और उर्दू और उनकी अलग-अलग साहित्य परंपराओं के रूप में उभरता और विकसित होता हुआ देखते हैं। साहित्य में पहली बार वीर, भक्ति और भंगार से इतर विषयों पर रचनाएँ होती हैं। कविता के साथ-साथ गद्य की कई नई विधाएँ हमारे सामने प्रकट होने लगती हैं। निबंध, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि से पहली बार हिन्दी पाठकों का साक्षात्कार होता है। लोकनाट्य रूपों से अलग समकालीन सवालों से जुड़े नाटक खेले जाते हैं और उसके लिए रंगमंच और रंग गतिविधियाँ आयोजित होने लगती हैं। इन नाटकों और इनके रंगमंच पर पाश्चात्य परंपरा का प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है।

यही नहीं, स्वयं कविता की अंतर्वस्त, छंद और भाषा में बदलाव आने लगता है और यह सवाल बहस का विषय बनने लगता है कि जब गद्य की भाषा खड़ी बोली है तो पद्य की भाषा का ब्रज में बना रहना कहाँ सक उचित है? लेकिन इन परिवर्तनों का संबंध किन बातों से था? क्या ये सिर्फ साहित्यिक परिवर्तन थे? क्या इनका संबंध साहित्यिक गतिविधियों और रूपों से ही था या ये परिवर्तन किसी अन्य महापरिवर्तन के हिस्से थे?

इस बात को समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि उस समय भारत में और खास तौर पर उत्तर भारत में किस तरह के परिवर्तन घटित हो रहे थे? आधुनिक काल, जिसकी शुरुआत रामचंद्र शुक्ल ने संवत् 1900 यानी सन् 1843 से मानी थी, उसका साहित्य के इतिहास में ही नहीं भारतीय इतिहास में भी क्या कुछ विशेष महत्व है? देशभक्ति और राजभक्ति, हिन्दू और मुसलमान, धर्म और राजनीति, वर्ण व्यवस्था और जातीय एकता, आर्य गौरव और गौ रक्षा, समाज सुधार और अतीत के प्रति गौरव की भावना, स्त्री की दशा और उसकी उन्नति, हिन्दी और उर्दू, आधुनिक शिक्षा और नयी टेक्नोलोजी जैसे कई नये प्रश्न तत्कालीन लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच बहस के मुद्दे बने हुए थे।

यही नहीं उस समय के प्रमुख बुद्धिजीवियों, समाज सुधारकों, लेखकों ने कई ऐसे प्रयत्न भी किए जिसके कारण उस दौर को रिनेसां के दौर के रूप में जाना जाने लगा। इस रिनेसां को आधुनिक भारत की बुनियाद के रूप में ही नहीं राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की बुनियाद के रूप में भी देखा गया। उन्नीसवीं सदी के हिन्दी साहित्य में ये राष्ट्रीय प्रश्न किस सीमा तक और किन रूपों में व्यक्त हुए हैं यह जानने से हम आधुनिक हिन्दी साहित्य की बुनियाद को समझ सकते हैं जिसने कि उसे दूसरी भारतीय भाषाओं से अलग और विशिष्ट बनाया। भले ही, यह विशिष्टता सदैव सकारात्मक और रचनात्मक नहीं रही।

प्रत्येक युग के साहित्य का संबंध उस युग की परिस्थितियों से बहुत गहरा होता है वह उस यग की परिस्थितियों को बनाने वाले प्रमुख कारकों में से एक होता है, साहित्य परिस्थितियों को प्रभावित भी करता है। जब तक हम इस संश्लिष्टता को ध्यान में नहीं रखते तब तक हम आधुनिक हिन्दी साहित्य को समझने का सही परिप्रेक्ष्य नहीं विकसित कर सकते। इस इकाई के आगे के भागों में हमारी चर्चा इसी बात . को ध्यान में रखकर होगी।

हिन्दी साहित्य के संदर्भ में आधुनिक काल

आधुनिक काल में साहित्य में जो परिवर्तन हुए उसके कारण उस समय के समाज में निहित हैं, यह हम कह चुके हैं। ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य का विकास’ नामक अपनी पुस्तक में डॉ. श्रीकृष्ण लाल ने इस परिवर्तन के तीन मुख्य कारण माने हैं। ये हैं : 

  1. भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना,
  2. पश्चिमीय विचारों तथा भावों का आयात, और 
  3. अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव (तृतीय संस्करण, 1952)।

सन् 1757 ई. में प्लासी की लड़ाई में अग्रेजों की जीत ने भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना की नींव डाली। दिल्ली की मुगल सत्ता कमजोर पड़ चुकी थी। देश के विभिन्न भागों में स्वतंत्र सत्ताएँ स्थापित हो गई थीं। ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए इनको पराजित करना मुश्किल नहीं था। उनकी रणनीति यह रही कि वे एक प्रांत के शासक के विरुद्ध दूसरे प्रांत की मदद करते थे और बाद में उसे भी अपने अधीन कर लेते थे।

इस प्रकार 1857 ई. तक उन्होंने भारत के काफी बड़े हिस्से पर अपना अधिकार कर लिया। 1857 ई. में हुए प्रसिद्ध विद्रोह में सामंती शासकों के अंतिम विरोध को भी कुचल दिया गया। लेकिन इसके साथ ही ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से निकल कर भारत का शासन सीधे इंग्लैंड की राजसत्ता के हाथ में आ गया।

प्रेस की स्थापना

लेकिन यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि अंग्रेज़ी शासन का प्रभाव इससे पहले पड़ना शुरू हो चुका था। वे क्षेत्र जो पहले से ही अंग्रेजों के अधीन आ गये थे, वहाँ ऐसे परिवर्तन होने लगे थे जो एक नये और आधुनिक भारत के निर्माण के सूचक बने । विद्वानों ने इस संदर्भ में दो बातों की तरफ खास तौर पर ध्यान दिया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस परिवर्तन को रेखांकित करते हुए लिखा है, “वस्तुत: साहित्य में आधनिकता का वाहन प्रेस है और उसके प्रचार के सहायक हैं, यातायात के समुन्नत साधन । पुराने साहित्य से नये साहित्य का प्रधान अंतर यह है कि पुराने साहित्यकार की पुस्तकें प्रचारित होने के अवसर कम पाती थीं। राजाओं की कृपा, विद्वानों की गुणग्राहिता, विद्यार्थियों के अध्ययन में उपयोगिता, इत्यादि अनेक बातें उनके प्रचार की सफलता का निर्धारण करती थीं।

प्रेस हो जाने के बाद पुस्तकों के प्रचारित होने का कार्य सहज हो गया और फिर प्रेस के पहले गद्य की बहत उपयोगिता नहीं थी। प्रेस होने से । उसकी उपयोगिता बढ़ गई और विविध विषयों की जानकारी देने वाली पुस्तकें प्रकाशित होने लगीं। वस्तुतः प्रेस ने साहित्य को प्रजातांत्रिक रूप दिया । समाचार पत्र, उपन्यास, आधुनिक ढंग के निबंध और कहानियाँ, सब प्रेस के प्रचार के बाद ही लिखी जाने लगीं। अब साहित्य के केंद्र में कोई राजा या रईस नहीं रहा बल्कि अपने घरों में बैठी हुई असंख्य अज्ञात जनता आ गई। इस प्रकार प्रेस ने साहित्य के प्रचार में, उसकी अभिवृद्धि में, और उसकी नई-नई शाखाओं के उत्पन्न करने में ही सहायता नहीं दी बल्कि उसकी दृष्टि के समूल परिवर्तन में भी योग दिया” (हिन्दी साहित्य-उसका उद्भव और विकास, पृ. 220)।

द्विवेदी जी ने अपने इस ग्रंथ में इस बात को रेखांकित किया है कि पहले के राजा, नवाब और रईस लोगों की तरह अंग्रेजों ने साहित्य और कला के प्रोत्साहन के लिए कुछ नहीं किया। लेकिन दूसरे ढंग से उन्होंने “हिन्दू सभ्यता और संस्कृति के उद्धार और उन्नयन का कार्य बड़ी ईमानदारी और मुस्तैदी के साथ किया”। स्वयं उनके शब्दों में, “इतिहास और पुरातत्व के शोध में, प्राचीन भारतीय साहित्य और धर्म के वैज्ञानिक अध्ययन में, और नई-पुरानी भारतीय भाषाओं के वैज्ञानिक विवेचन में यूरोपियन पंडितों ने बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया” (वही, पृ. 222)। उनका मानना है कि आगे के हिन्दी साहित्य के लेखन पर भी इसका बड़ा गहरा असर हुआ।

नये उद्योगों की स्थापना

अंग्रेज और दूसरी कई यूरोपीय जातियाँ भारत से व्यापार करने के इरादे से यहाँ आई थीं। औद्योगिक क्रांति से पहले तक भारत कई मामलों में यूरोप के देशों से उन्नत था और अठारहवीं सदी के मध्य तक भारत में बने हुए मालों का निर्यात ज़्यादा होता था। लेकिन उन्नीसवीं सदी में स्थिति में बदलाव आया। यूरोप में जो परिवर्तन हुए उसके कारण भारत अब उनके लिए कच्चा माल खरीदने और इंग्लैंड में बना माल बेचने का बड़ा बाज़ार हो गया। इसके लिए उन्होंने योजनाबद्ध ढंग से भारत के परंपरागत उद्योगों को नष्ट किया। उसे कच्चा माल पैदा करने वाले एक पिछड़े देश में बदल दिया। ऐसा करने में उन्हें कामयाबी इसलिए मिल सकी कि वे देश के बड़े हिस्से पर अपना शासन स्थापित करने में सफल रहे थे। इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति की कामयाबी के पीछे भारत पर उनके शासन का गहरा योगदान था।

1857 के असफल विद्रोह से पहले ही भारत में आधुनिक उद्योगों की स्थापना होने लगी थी। ब्रिटेन के लिए रूई जैसे कच्चे मालों की अबाध आपूर्ति को पूरा करने के निमित्त भारत में उन्नीसवीं सदी के मध्य में रेलवे की स्थापना की गई जिसके बारे में कार्ल मार्क्स का विचार था कि रेलवे का प्रादुर्भाव भारत में आधुनिक उद्योगों के आगमन का पूर्वसूचक है” (ए.आर. देसाई की पुस्तक ‘भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि’, संस्करण 1988, प्र. 27 से उद्धत)। उन्नीसवीं सदी के मध्य में नील, चाय, काफी के क्षेत्र में कई उद्योग स्थापित हुए। सन् 1850 और 1855 के दौरान सूती कपड़ों के कारखाने, जूट की मिलें और कोयला खानों की स्थापना हुई। सन् 1879 में भारत में 56 सूती कपड़ा मिलें स्थापित हो चुकी थीं। सन् 1882 में जूट की बीस मिलें लग चुकी थीं और 1880 में 56 कोयला खदानें काम कर रही थीं। सन् 1880 से 1895 ई. के बीच हालांकि नये उद्योग कम लगे लेकिन इन उद्योगों का तीव्र गति से विकास हुआ (वही पृ. 83-84)।

इस पूरी प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए ए. आर. देसाई लिखते हैं, “भारत और अंग्रेजों के निरंतर वर्धनशील प्रभुत्व का इतिहास प्राक् ब्रिटिश भारत की सामंती अर्थव्यवस्था के पूँजीवादी रूपांतरण का भी इतिहास है, चाहे यह रूपांतरण अधूरा और विकृत ही क्यों न रहा हो। पुराने भूमि संबंधों एवं हस्तशिल्प उद्योग के हास और उनकी जगह नये भूमि संबंधों और आधुनिक उद्योगों के उद्भव से ही इसका बड़ा घनिष्ठ संबंध है। अंग्रेजों के राजनीतिक प्रभुत्व के विकास के साथ-साथ पुराने उद्योगों और भूमि व्यवस्था पर आधारित पुराने वर्गों का विनाश हुआ और नये भूमि संबंधों और नये उद्योगों पर आधारित नये वर्गों का उदय हुआ है। गांवों के समुदाय तंत्र (कम्यून) की जगह आधुनिक भूमिधर या जमींदार आविर्भूत हुए और ज़मीन पर उनकी निजी मिल्कियत कायम हुई।

ब्रिटिश शासनकाल में स्थापित आधुनिक उद्योगों और आवागमन के साधनों के कारण नए वर्गों का जन्म हुआ, जैसे पूँजीवादी वर्ग, उद्योग धंधों और यातायात में लगे हुए मजदूरों का वर्ग, खेतिहर मज़दूर वर्ग, काश्तकार वर्ग या वणिक वर्ग जो आधुनिक देशी-विदेशी उद्योगों द्वारा उत्पादित पण्य वस्तुओं के क्रय-विक्रय में लगा था। भारत पर ब्रिटिश प्रभाव के कारण न केवल भारत की आर्थिक वरन् सामाजिक संरचना का भी रूपांतरण हुआ” (वही, पृ. 27)। आधुनिक काल को हम भारत में अंग्रेजों के शासन से उत्पन्न स्थितियों के संदर्भ में ही देख और समझ सकते हैं। इसी ने उस संघर्ष को जन्म दिया जिसे हम राष्ट्रीय आंदोलन के नाम से जानते हैं और उस साहित्य को भी जो राष्ट्रीय भावनाओं को व्यक्त करने वाला साहित्य कहा जा सकता है।

आधुनिक शिक्षा और बौद्धिक वर्ग

इसी दौर में उस आधुनिक शिक्षा का प्रसार हुआ जिसने राष्ट्रव्यापी और सुधारवादी आंदोलनों पर गहरा असर डाला। भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रसार विदेशी ईसाई मिशनरियों, ब्रिटिश सरकार और प्रगतिशील भारतीयों के प्रयत्न से हुआ (वही, पृ. 112)। ब्रिटिश सरकार ने अपनी राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक ज़रूरतों के चलते आधुनिक शिक्षा का प्रसार किया। मैकाले जैसे अंग्रेज़ शासकों का विचार था कि अंग्रेज़ी शिक्षा के द्वारा भारतीयों को पूर्णत: पश्चिमी सभ्यता में रंगा जा सकेगा और उन्हें सदा के लिए राजभक्त बनाया जा सकेगा। लेकिन अंग्रेज़ शासकों की यह इच्छा एक हद तक ही पूरी हुई।

इस शिक्षा ने एक सीमा तक ही भारतीयों को पश्चिमी सभ्यता के विकृत रूपों में रंगा, उन्हें अंग्रेजों जैसा बनने की प्रेरणा भी दी। लेकिन यह शिक्षा धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी और ब्रिटिश शासन से पहले की शिक्षा पद्धति के विपरीत जाति और धर्म का ख्याल किए बिना सर्वसुलभ थी (वही, पृ.126)। इस शिक्षा के प्रभाव को रेखांकित करते हुए ए.आर. देसाई लिखते हैं, “भारतीय राष्ट्रवाद ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप लिया। उस वक्त तक देश में एक शिक्षित वर्ग तैयार हो गया था और भारतीय उद्योगों के उदय के साथ ही भारतीय आद्यौगिक बुर्जुआजी का भी जन्म हो चुका था।

इन्हीं वर्गों ने राष्ट्रीय आंदोलन का संगठन किया और अपनी विरोधी पताका में निम्नांकित नारे लिखे, सरकार नौकरियों का । भारतीयकरण, भारतीय उद्योगों के लिए सुरक्षा, वित्तीय स्वायत्तता आदि। आर्थिक एवं अन्य क्षेत्रों में ब्रिटिश और भारतीय हितों के संघर्ष के कारण यह आंदोलन शुरू हुआ” (वही, पृ. 127)।

इस आधुनिक शिक्षा ने उस बुद्धिजीवी वर्ग को पैदा किया जिसने राष्ट्रीय और समाज सुधार आंदोलन में न . आधुनिक काल के साहित्य की सिर्फ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई बल्कि उसका नेतृत्व भी किया। उन्होंने “राष्ट्रीयता और जनतंत्र की पृष्ठभूमि भावनाओं से ओतप्रोत संपन्न प्रादेशिक साहित्य और संस्कृति की सृष्टि की। इसके बीच से महान वैज्ञानिक, कवि, इतिहासज्ञ, समाजशास्त्री, साहित्यिक, दार्शनिक और अर्थशास्त्री उत्पन्न हुए। प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग ने आधुनिक पाश्चात्य जनतांत्रिक संस्कृति का स्वांगीकरण किया और नवजात भारतीय राष्ट्र की जटिल समस्याओं को समझा” (वही, पृ. 157)। उन्नीसवीं सदी मध्य में सामने आने वाले हिन्दी लेखकों का संबंध इसी बुद्धिजीवी वर्ग से था।

इस बुद्धिजीवी वर्ग ने अपने विचारों को लोगों तक पहुँचाने के लिए कई तरीकों का इस्तेमाल किया। उन्होंने . कई राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठन बनाए, समाचार पत्र और पत्रिकाओं का प्रकाशन किया और उनके जरिए लोगों में नई चेतना और नये विचारों का प्रचार-प्रसार किया। ए.आर. देसाई के शब्दों में. “भारतीय राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी आंदोलन के विकास में समाचार पत्र कारगर हथियार का काम कर रहे थे। ब्रिटिश सरकार भारतीय राष्ट्रीयता की माँग पूरा नहीं करना चाहती थी, इसलिए समाचार पत्रों पर अंकुश लगाए रखना चाहती थी। अंग्रेज़ सरकार को कई प्रेस ऐक्ट बनाने पड़े। इसी से यह सिद्ध होता है कि समाचार पत्र राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में बहुत बड़ी भूमिका अदा कर रहे थे’ (वही, पृ. 183)। उन्नीसवीं सदी के हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका को हम इसी रोशनी में समझ सकते हैं।

उन्नीसवीं सदी में जो नया समाज बन रहा था, उसकी ज़रूरतें वही नहीं थीं, जो उससे पहले के समाज की थीं। इन नयी आवश्यकताओं की पहचान उस नये बौद्धिक वर्ग ने की जो उस दौर में उभर रहा था। उसने समाज में से पुरानी रूढ़ियों, मान्यताओं और आचरणों को समाप्त करने के लिए अनथक प्रयास । किया। क्योंकि उनका विश्वास था कि इसके बिना राष्ट्र की उन्नति असंभव है। समाज सुधार के बारे में प्रबुद्ध वर्ग का दृष्टिकोण उदार, विवेकशील और लोकतांत्रिक भावनाओं पर आधारित था। जैसे, उन्होंने वर्ण व्यवस्था और जातिवाद का विरोध किया। स्त्री की हीन-दशा से जुड़ी प्रथाओं को समाप्त कराने का संघर्ष किया जिनमें सती प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह, बालिका वध आदि शामिल हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह आदि का समर्थन ही नहीं किया वरन् इसके लिए संस्थाएँ भी स्थापित की।

ब्रिटिश राजसत्ता से असंतोष

1857 के विद्रोह की असफलता ने सामंती शासन की पुनः स्थापना का विकल्प हमेशा के लिए खत्म कर दिया था। लेकिन इसी दौर में परिस्थितियाँ नये ढंग से सामने आ रही थीं। जिसने 1870 के बाद नये राजनीतिक उभार को जन्म दिया और जिसकी परिणति 1885 में कांग्रेस की स्थापना में हुई। इस दौर की उस विशेष स्थिति पर रोशनी डालते हुए श्री देसाई लिखते हैं, “1857 के विद्रोह के परवर्ती काल में किसानों का असंतोष लगातार बढ़ता गया क्योंकि ब्रिटिश शासन में वे अधिकाधिक विपन्न होते गये थे। भूराजस्व और लगान के बढ़ते हुए बोझ का उन पर बड़ा बुरा असर पड़ा था। 1870 तक हस्तशिल्प और कारीगर उद्योग पूरी तरह खत्म हो गए थे जिसके चलते कृषि संकुलता बढ़ी। 1870 के कृषि संकट के फलस्वरूप किसानों की स्थिति और भी बुरी हुई और उनमें ऋणग्रस्तता बढ़ी।

1867 और 1880 के बीच कई अनर्थकारी दुर्भिक्ष पड़े। दूसरे अफगान युद्ध के वित्तीय बोझ और 1877 के असंयत. अतिव्यापी. भव्य और चमत्कारिक दिल्ली दरबार जिसमें विक्टोरिया को भारत साम्राज्ञी घोषित किया गया, के कारण लोगों का असंतोष और रोष बढ़ा ही, खासकर इसलिए कि यह दुर्भिक्ष और भुखमरी का जमाना था। फिर 1878 के वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट, जो भारतीय प्रेस की स्वतंत्रता पर रोक लगाने के निमित्त पारित किया गया था और 1879 के इंडियन प्रेस और आर्स ऐक्ट के कारण लोगों के असंतोष की ज्वाला प्रज्ज्वलित हुई” (वही, पृ. 253)। राष्ट्रीय असंतोष की जिस भावना को इस दौर में डब्ल्यू.सी.बनर्जी, आर.सी.दत्त, दादा भाई नौरोजी, जस्टिस रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले आदि व्यक्त कर रहे थे, उसी असंतोष को अपने ढंग से भारतेंदु युग के लेखक भी हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से व्यक्त कर रहे थे।

राष्ट्रीय असंतोष को व्यक्त करने वाले इस प्रबुद्ध वर्ग के सामने यह साफ नहीं था कि वे देश को ब्रिटिश दासता से मुक्त कराना चाहते हैं, बल्कि इसके विपरीत वे ब्रिटिश शासन को दैवीय वरदान मानते थे। वे देशोपकार और देशोन्नति की बात करते हुए कई अंतर्विरोधी भावनाओं से ग्रस्त थे। वे देशोन्नति की बात भी करते थे और महारानी विक्टोरिया के “सुशासन” का जयनाद भी करते थे। वे समाज सुधार का पक्ष लेते थे, लेकिन उनमें से कई प्राचीन भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता की अवधारणा से अभिभूत भी थे। वर्ण व्यवस्था उन्हें अनुचित लगती थी और मानव समानता के आदर्श को वे स्वीकारने लगे थे, लेकिन उनमें से कई ब्राह्मण श्रेष्ठता, गौ रक्षा और मुस्लिम द्वेष के विचारों से भी पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए थे। इस द्वंद्व के बीच ही इस आधुनिक दौर के हिन्दी लेखन की शुरुआत होती है।

आधुनिक दौर के हिन्दी साहित्य को समझने के लिए हमें इन परिस्थितियों को समझना तो ज़रूरी है ही इसके साथ ही हमें हिन्दी प्रदेशों की सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक स्थितियों को समझना भी ज़रूरी है। ये परिस्थितियाँ हिन्दी साहित्य में कुछ ऐसे सवालों को पैदा करती हैं जिनका सामना दूसरे भाषाई लोगों को नहीं करना पड़ा था। इसमें सबसे बड़ा सवाल इस क्षेत्र की भाषा के स्वरूप का ही था। अब तक इस क्षेत्र में साहित्य या तो ब्रज और अवधी में लिखा जा रहा था या फिर फारसी और हिन्दवी में जिसे बाद में उर्दू के रूप में जाना गया। आधुनिक हिन्दी का संबंध किस परंपरा से था और खड़ी बोली से ही पैदा होकर हिन्दी और उर्दू दो अलग भाषाएँ कैसे बनीं, इस मसले पर आगे हम किंचित विस्तार से विचार करेंगे।

हिन्दी भाषा और गद्य का उदय

हिन्दी साहित्य का इतिहास नामक अपनी पुस्तक में रामचंद्र शुक्त आधुनिक काल की शुरुआत गद्य के विकास का परिचय देने से करते हैं। वे ‘प्रकरण 1’ का शीर्षक ही देते हैं : ‘सामान्य परिचय : गद्य का विकास’ । आधुनिक काल से पूर्व गद्य की अवस्था का उल्लेख करने के बाद वे ‘खड़ी बोली का गद्य’ का परिचय देते हैं (नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण सं. 2048; पृ. 222)। खड़ी बोली का गद्य उस समय उर्दू के रूप में भी मौजूद था और हिन्दी के रूप में भी। उर्दू के रूप में खड़ी बोली फारसी लिपि के संशोधित रूप में लिखी जाकर और फारसी-अरबी के शब्दों के बाहुल्य के साथ मौजूद थी और उसमें काव्य और गद्य दोनों लिखे जा रहे थे। जबकि यही खड़ी बोली नागरी लिपि में लिखी जाकर और संस्कृत के तत्सम रूपों के बाहुल्य के साथ हिन्दी के रूप में प्रचलित होने लगी।

इस तरह एक ही भाषा दो अलग लिपियों में लिखी जाकर दो भिन्न साहित्य परंपराओं की वाहक बनी। सवाल यह था कि इस खड़ी बोली गद्य को आधुनिक हिन्दी के रूप में स्वीकार्य कैसे बनाया जाए जबकि इसी का एक अन्य रूप उर्दू भी मौजूद हो? यह ऐसी समस्या थी जिसका किसी भी अन्य भारतीय भाषा को सामना नहीं करना पड़ रहा था। हिन्दी को खड़ी बोली का स्वाभाविक विकास मानकर ही हिन्दी के विद्वान हिन्दी को उर्द की जगह स्थापित कर सकते थे। ऐसा करने के लिए यह जरूरी था कि वे साबित करते कि उर्दू खड़ी बोली पर आधारित होते हुए भी उससे अलग है।

इसके लिए उन्होंने उर्दू के शब्द स्रोतों को विदेशी करार दिया, उसे मौलवियों और मुंशियों की भाषा कहा और उसे विदेशी हमलावरों से जोड़कर अभारतीय भी साबित किया। जाहिर है ऐसा करते हुए वे उर्दू-हिन्दी के सवाल को भाषा के दायरे से बाहर राजनीतिक दायरे में ले जाते हैं। यहाँ हमारे लिए स्वयं रामचंद्र शुक्ल के विचारों को जान लेना उचित होगा। वे कहते हैं, “खड़ी बोली का रूप रंग जब मुसलमानों ने बहुत कुछ बदल दिया और वे उसमें विदेशी भावों का भंडार भरने लगे तब हिंदी के कवियों की दृष्टि में वह मुसलमानों की खास भाषा सी जॅचने लगी। इससे भूषण, सूदन आदि कवियों ने मुसलमान दरबारों के प्रसंग में या मुसलमान पात्रों के भाषण में ही इस बोली का व्यवहार किया है। पर जैसा कि अभी दिखाया जा चुका है, मुसलमानों के दिए हुए कृत्रिम रूप से स्वतंत्र खड़ी बोली का स्वभाविक देशी रूप भी देश के भिन्न-भिन्न भागों में पछाँह के व्यापारियों आदि के साथ फैल रहा था। उसके प्रकार और उर्दू साहित्य के प्रचार से कोई संबंध नहीं।

धीरे-धीरे यही खड़ी बोली व्यवहार की सामान्य शिष्ट भाषा हो गई। जिस समय अंग्रेजी राज्य भारत में प्रतिष्ठित हुआ उस समय सारे उत्तरी भारत में खड़ी बोली व्यवहार की शिष्ट भाषा हो चुकी थी। जिस प्रकार उसके उर्दू कहलाने वाले कृत्रिम रूप का व्यवहार मौलवी मुंशी आदि फारसी तालीम पाए हुए कुछ लोग करते थे उसी प्रकार उसके असली स्वाभाविक रूप का व्यवहार हिन्दू साधु, पंडित, महाजन आदि अपने शिष्ट भाषण में करते थे। जो संस्कृत पढ़े लिखे विद्वान होते थे उनकी बोली में संस्कृत के शब्द भी मिले रहते थे’ (वही, पृ. 227)।

रामचंद्र शुक्ल का यह कथन आधुनिक हिन्दी साहित्य की उस मुख्य समस्या पर प्रकाश डालता है जिससे यह मालूम पड़ता है कि आधुनिक हिन्दी साहित्य के निर्माताओं के सामने हिन्दी का सवाल किस रूप में मौजूद था। यह संयोग नहीं है कि उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मानने का यह आग्रह सिर्फ भाषा तक ही सीमित नहीं था। यह उस दौर के दूसरे सवालों में भी प्रतिबिंबित हो रहा था। यह विचारणीय मुद्दा हो सकता है कि.भाषा के संदर्भ में जो नजरिया व्यक्त हो रहा था वह उस दौर के प्रति उनके नज़रिए का ही प्रकटीकरण था या नहीं। इस सवाल पर हम इकाई में आगे विचार करेंगे। यहाँ यह देखें कि शुक्ल जी ने जो विचार पेश किये हैं क्या आधुनिक हिन्दी के आरंभिक निर्माता इस सवाल को इसी रूप में देखते थे?

आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र ने शिक्षा आयोग के सम्मुख जो लिखित वक्तव्य दिया था उसमें उन्होंने इस बात का आग्रह किया था कि शिक्षा और राजकाज की भाषा हिन्दी होनी चाहिए। अपने मत के समर्थन में विभिन्न तर्क देते हुए वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है और हिन्दी हिन्दुओं की। हालांकि वे मानते हैं कि “उर्दू-हिन्दी में कोई वास्तविक भेद नहीं है।’ (स्वतंत्रता पूर्व हिन्दी के संघर्ष का इतिहास – रामगोपाल) लेकिन वे यह भी कहते हैं कि “हिन्दुओं के परिवारों में हिन्दी बोली जाती है, उनकी स्त्रियाँ हिन्दी लिपि का प्रयोग करती हैं।” जबकि “उर्दू अदालती भाषा न रहे तो मुसलमान लोग पेशकारी, सरिश्तेदारी मोहर्रिरी आदि की अनेक सरकारी जगहों को जिन पर इस समय उनका लगभग एकाधिकार है, सुगमता से न पा सकेंगे” (वही, पृ. 98)।

भारतेंदु इस बात पर खेद व्यक्त करते हैं कि सर सैयद अहमद खाँ हिन्दी को असभ्य ग्रामीणों की भाषा मानते हैं। लेकिन स्वयं उनकी नज़र में “उर्दू नर्तकियों तथा वेश्याओं की भाषा है” (वही, पृ.100)। उनके शब्दों में, “मुसलमानों की ज़बान तीक्ष्ण और रसीली तो होती ही है, वे अति उग्र और हठी भी होते हैं, यही कारण है कि वे अन्य लोगों को दबा लेते हैं” (वही, पृ. 98)। उर्दू के बारे में यहाँ जो नज़रिया भारतेंदु ने पेश किया है वह उस दौर के अधिकांश हिन्दी लेखकों का रहा है। उत्तर भारत के हिन्दू और मुसलिम बुद्धिजीवी भाषा के मामले में बँटे हुए थे और वे सारे मामले को सांप्रदायिक नज़रिए से देख रहे थे। इसका असर दूसरे मसलों पर भी पड़ना स्वाभाविक था।

हिन्दी उर्दू का यह मसला काफी गंभीर था। इस मसले पर आगे बातचीत करने से पहले ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसको समझ लेना उचित होगा। इस मसले पर भारतेंदु से थोड़े पूर्ववर्ती राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने अपने लेख ‘भाषा का इतिहास’ पर विचार किया है। उनका मानना था कि आरंभिक मुस्लिम शासकों ने फारसी से भिन्न “प्राकृत” (सितारेहिंद का तात्पर्य उस देशी भाषा से था जो दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती थी) को “हिंदवी” नाम दिया। ठीक यही मत भाषाविद् भोलानाथ तिवारी ने भी पेश किया है। उनके अनुसार मुसलमान फारसी से भिन्नता दिखाने के लिए अपनी भाषा को हिन्दवी (हिन्दुवी या हिन्द्वी) अर्थात् फारसी से भिन्न “भारतीय भाषा” कहते थे।

यह हिन्दी कैसे अस्तित्व में आई इसके बारे में अपना मत रखते हुए सितारेहिन्द लिखते हैं कि “अब इस जबान को अर्थात् उस प्राकृत को जिसमें फारसी और अरबी मिली, हिन्दी कहो, चाहे हिन्दुस्तानी, भाषा कहो चाहे ब्रज भाषा, रेखता कहो चाहे खरी बोली, उर्दू कहो चाहे उर्दूएमुअल्ला इसके बीज तभी से बोये गए कि जब महमूद गज़नवी ने चढ़ाई की और मुसलमानों की इस मुल्क पर तवज्जुह हुई, आठ सौ बरस से ज़्यादा गुज़रते है।’ शुक्लजी भी कमोबेश यही बात दोहराते हैं लेकिन वे एक ऐतिहासिक तथ्य को सांप्रदायिक नज़रिया देते नज़र आते हैं।

शुक्लजी खड़ी बोली के व्यापक व्यवहार की प्रक्रिया को उस मध्ययुग की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रक्रिया के संश्लिष्ट रूप में देखने के बजाए हिन्दू और मुसलमान के बीच अलग-अलग प्रक्रियाओं के रूप में देखते हैं। इस मसले पर रूसी विद्वान बोरीस क्लूयेव के विचार को जानना भी उपयुक्त होगा। समग्र ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में खड़ी बोली के विकास को रखते हुए वे अपनी पुस्तक ‘स्वतंत्र भारत: जातीय तथा भाषाई समस्या’ में लिखते हैं, “यह मान लिया गया है कि साहित्यिक हिन्दी की बुनियाद खड़ी बोली है, जिसे अकसर दिल्ली-मेरठ क्षेत्र की बोली के रूप में परिभाषित किया जाता है। बोलचाल का यह रूप ग्यारहवीं-बारहवीं सदियों में निर्मित होना शुरू हुआ, जब हिन्दुस्तान के भूभाग पर से विजेताओं के कितने ही रेले गुजरे। दिल्ली विजेताओं द्वारा, जो ईरानी और तुर्की भाषाएँ बोलते थे और इस्लाम के अनुयायी थे, स्थापित राज्यों का प्रशासनिक, राजनीतिक और सैनिक केंद्र बन गयी। यहाँ नाना भाषाएँ बोलने वाले सैनिक समूहों और इसी प्रकार दस्तकारों, राजगीरों, व्यापारियों, महाजनों, सर्राफों, शायरों-कवियों और धर्म प्रचारकों – एक शब्द में, मध्ययुगीन नगरों के लाक्षणिक सभी सामाजिक समूहों का भी एक साथ जमाव होने लगा। यहाँ परदेशियों का, हिंदुस्तान के विभिन्न भागों से आयी स्थानीय आबादी के साथ गहन अंत:मिश्रण हुआ।

दिल्ली की सिर्फ भौगोलिक ही नहीं भाषाई लिहाज से भी बड़ी सुविधाजनक अवस्थिति है, जहाँ पंजाबी, राजस्थानी, बांगडू और ब्रजभाषा क्षेत्रों का संगम होता है। फलत: दिल्ली की जबान ने विभिन्न भाषाओं और बोलियों के प्रभाव को आगे चलकर आत्मसात् कर लिया। इस आत्मसात्करण ने ही आगे चलकर दिल्ली की स्थानिक भाषा, वहाँ की बोलचाल की जबान के बोलियोपरि स्वरूप को निर्धारित किया। इसके अलावा दिल्ली की बोली ने अपने विजेताओं की भाषाओं का प्रभाव अन्य बोलियों की अपेक्षा अधिक अनुभव किया है। अनुमान किया जा सकता है कि आरंभिक मंजिलों में अधिकतम सरलीकृत रूप में दिल्ली की जबान ने विजेताओं के लिए स्थानीय आबादी के साथ संसर्ग के साधन का काम किया” (प्रगति प्रकाशन, मास्को; पृ. 88)।

अगर हम इस कथन पर विचार करें तो पाएँगे कि खड़ी बोली के बोलचाल की भाषा के रूप में विकसित होने की प्रक्रिया का संबंध उन नये शासकों के साथ साफ तौर पर जुड़ा हुआ है, जिनके शासन के दौरान नगर में रहने वाले सामाजिक समूहों के बीच संपर्क भाषा की ज़रूरत थी और इसमें न केवल उन विजेताओं की भाषाओं का योगदान था, जो बाहर से आए थे बल्कि उन क्षेत्रों के लोगों की अपनी बोलियों का योग भी था, जिन्होंने खड़ी बोली का अपनाया। यही नहीं इस विकास प्रक्रिया में ऐसा कोई विभाजन नहीं था कि हिन्दू व्यापारी इसे एक ढंग से विकसित कर रहे थे और मुस्लिम मुल्ला और मुंशी दूसरे ढंग से, जैसा कि शुक्लजी सिद्ध करना चाहते हैं। कम-से-कम अपने आरंभिक काल में तो खड़ी बोली का विकास सांप्रदायिक आधार पर नहीं हुआ था और अरबी-फारसी के घुलने-मिलने को “विदेशी” होना नहीं माना गया था।

अब हम उस दौर में हिन्दी-उर्दू भाषी क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली विभिन्न भाषाओं की स्थिति पर भी विचार करें। बोरीस क्यूलेव ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, “खड़ी बोली कोई तीन सदी तक बोलचाल की भाषा बनी रही। प्रशासन और न्यायपालिका में फारसी का प्रयोग होता था। रूढ़िवादी हिन्दुओं के साहित्य, विज्ञान और सांस्कृतिक जीवन पर संस्कृत का प्रभुत्व था। दिल्ली के पश्चिम में राजपूत राजवाड़ों में वीरकाव्य की भाषा मारवाड़ी का एक मध्ययुगीन रूप डिंगल थी।

नये सामाजिक विचारों के प्रचारक भक्तिमार्गी और सूफी ब्रज का व्यापक प्रयोग करते थे और खड़ी बोली की ओर वे बाद में जाकर ही मुड़े। अवध में राम के उपासक वैष्णव मुख्यत: अवधी का ही सहारा लेते थे’ (वही, पृ. 88)। क्लूयेव का यह कथन साफ बताता है कि अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में जब धीरे-धीरे खड़ी बोली इन सब भाषाओं को अपने-अपने क्षेत्रों से हटाकर स्थापित हो रही थी, उससे पूर्व प्रशासन, साहित्य और आम बोलचाल के स्तर पर विभिन्न भाषाओं का इस्तेमाल हो रहा था। खड़ी बोली जो आम बोलचाल की भाषा थी वह मुगल फौजों, व्यापारियों और दस्तकारों के साथ-साथ पूरब में बंगाल तक पश्चिम में गुजरात, महाराष्ट्र तक और दक्षिण में गोलकुंडा और बीजापुर तक पहुँची (वही, पृ. 89)। अगर हम खड़ी बोली के फैलाव की बात कर रहे हैं तो हमें इन सब कारकों को ध्यान में रखना होगा। इनमें से किसी एक को चुनना और शेष को छोड़ना अनैतिहासिक है।

बोलचाल की भाषा के रूप में खड़ी बोली के इस प्रसार का ऐतिहासिक महत्व यह है कि इसी ने वे स्थितियाँ पैदा. की जिनके कारण मुगल दरबारों से जुड़े उन कवियों को खड़ी बोली में शायरी करने के लिए प्रेरित किया जो तब तक फारसी में ही रचना कर रहे थे। मुस्लिम शासकों की वजह से फारसी जो राजकाज की भाषा थी, आम जनता के बीच भले ही संपर्क भाषा के रूप में इस्तेमाल न हुई हो, लेकिन फारसी, अरबी, तुर्की जबानों के शब्द ज़रूर जनता के बीच प्रचलित होने लगे थे। भक्तिकाल में ही ब्रज और अवधी में लिखने वाले कवियों की कविताओं में ऐसे शब्द मिल जायेंगे जो मूल रूप में इन्हीं विदेशी भाषाओं के हैं। यह प्रक्रिया इतनी स्वाभाविक थी कि कबीर और जायसी ही नहीं सूरदास और तुलसीदास के काव्य में भी इसे देख सकते हैं। पारस्परिक प्रभाव का दूसरा रूप हमें उन मुस्लिम कवियों में दिखाई देता है, जो फारसी में कविता करते थे और जिन्होंने फारसी के साथ खड़ी बोली या ब्रज में कविता करना भी शुरू किया।

अमीर खुसरो (मृत्यु: सन् 1324) इस तरह के कवियों की पहली महत्वपूर्ण मिसाल हैं। इस तरह खड़ी बोली में कविता लिखने की शुरुआत उन कवियों ने की जो फारसी में कविता लिख रहे थे, न कि उन कवियों ने जो ब्रज और अवधी में कविता लिख रहे थे। यह तथ्य इस बात से भी प्रकट होता है कि उन्नीसवीं सदी में जब गद्य के लिए खड़ी बोली को हिन्दी लेखकों ने स्वीकार कर लिया था तब भी काव्य की भाषा ब्रज ही बनी रही और पूरे भारतेंदुयुग में ब्रज का ही काव्य भाषा के रूप में वर्चस्व बना रहा। गद्य और पद्य की भाषा का यह अंतर बीसवीं सदी के आरंभ में ही मिट सका जब हिन्दी साहित्य के इतिहास में द्विवेदी युग की शुरुआत होती है।

खड़ी बोली के संदर्भ में उर्दू-हिन्दी के इस विवाद पर बात को आगे बढ़ाने से पूर्व एक अन्य मुद्दे पर विचार करें। जब अंग्रेजों ने कचहरियों से फारसी को हटा दिया और उसकी जगह देशी भाषा का प्रचलन आरंभ किया तो उसके लिए खड़ी बोली को ही स्वीकार किया गया। दुर्घटना यह हुई कि इस नई जबान के लिए फारसी लिपि ही इस्तेमाल की गई। दूसरे शब्दों में, हिन्दुओं के लिए इसका मतलब था कि मुसलमानों की एक भाषा (फारसी) को हटाकर उनकी दूसरी भाषा (उर्दू) का वर्चस्व कायम करना। अदालतों की भाषा से फारसी का हटना स्वागत योग्य था क्योंकि फारसी जनता के किसी भी हिस्से की भाषा नहीं थी। यह सिर्फ मुट्ठी भर शासक वर्ग की भाषा थी और जब वह शासक वर्ग ही सत्ता में नहीं रहा तो उनकी भाषा कैसे रहती। लेकिन फारसी लिपि में लिखी जाने वाली खड़ी बोली का आना क्या उतना गलत था?

जब अंग्रजों का शासन हिन्दुस्तान के विभिन्न इलाकों में फैल गया और सन् 1836 ई. में एक आदेश द्वारा सरकार ने यह निर्णय लिया कि कोई भी व्यक्ति अपनी भाषा में सदर व बोर्ड में अर्जी दाखिल कर सकता है। यह अर्जी हिन्दी में हो सकती है और अच्छर (लिपि) नागरी के स्थान पर फारसी भी हो सकते हैं। स्पष्ट ही सरकार का फैसला यह था कि भाषा हिन्दी हो और लिपि फारसी या नागरी में से कोई भी हो सकती है। यानी जिसे हिन्दी कहा गया था, वह दरअसल वह हिन्दी नहीं थी जो उर्दू के विरोध में बाद में हिंदी कही गई बल्कि यह वह हिंदी थी जो फारसी से अलग देशी भाषा थी और जिसे हिंदवी, हिंद्वी या हिन्दी नाम दिया गया था। नागरी और फारसी दोनों लिपियों में लिखी जाकर भी दरअसल वह एक ही भाषा थी। लेकिन ठीक इसी मुकाम पर वह विवाद शुरू हुआ जिसने एक भाषा जो दो लिपियों में लिखी जा रही थी और आम बोलचाल में जिसमें किसी तरह का फर्क नहीं था, उसे उर्दू और हिन्दी में बाँट दिया गया। यह बँटवारा सांप्रदायिक आधार पर हुआ था और इसके लिए जितना हिन्दू मध्यवर्ग जिम्मेदार था, उतना ही मुस्लिम मध्यवर्ग और इन दोनों से ज्यादा इस बँटवारे में अंग्रेजों ने भूमिका निभाई थी।

1836 ई. में जब अदालतों की भाषा खड़ी बोली को बनाया गया था और उसके लिए फारसी लिपि भी स्वीकार की गई थी, उससे लगभग तैंतीस साल पहले सन् 1803 ई. में फोर्ट विलियम कालेज कलकत्ता के अंग्रेज अध्यापक गिल क्राइस्ट ने खड़ी बोली में पुस्तकें लिखने को प्रोत्साहित किया। लेकिन उन्होंने ये . पुस्तकें फारसी और नागरी दोनों लिपियों में लिखवाई। नागरी लिपि में लिखने वालों ने अपनी भाषा में अरबी-फारसी के शब्दों के इस्तेमाल से बचने की कोशिश की तो दूसरी ओर फारसी लिपि में लिखने वालों ने अरबी-फारसी के शब्दों से अपनी भाषा को लादना शुरू कर दिया। इस तरह फोर्ट विलियम कालेज ने एक ही खड़ी बोली को लिपि और शब्द-भंडार के आधार पर उर्दू और हिन्दी में बाँट दिया। अंग्रेजों की इस कोशिश का मकसद शिक्षित और उच्चवर्गीय मुसलमानों और हिन्दुओं में खाई पैदा करना था। यह काम उस दौर में लगातार चलता रहा। गार्सा द तासी जैसे फ्रांसीसी विद्वान भी जो आरंभ में हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा मानते थे और अपने इतिहास ग्रंथ ‘हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास’ में उर्दू और हिन्दी दोनों कवियों का उल्लेख किया था, बाद में यह कहने लगे कि हिन्दी में हिन्दू धर्म का आभास है और उर्दू में इसलामी संस्कृति का (रामचंद्र शुक्ल द्वारा उद्धत, पृ. 237-38)।

अफसोसजनक यह था कि अंग्रेजों की इस चाल को न हिन्दू समझ पाए और न ही मुसलमान । खड़ी बोली को फारसी और नागरी लिपि में लिखा जाना गलत नहीं था क्योंकि ये दोनों लिपियाँ जनता के बीच चलन में थी। लेकिन इसी कारण उन्हें एक दूसरे के विरोध में खड़ा करना ज़रूरी नहीं था। यह एक खतरनाक बँटवारा था जिसने अपना प्रभाव सिर्फ भाषा तक सीमित नहीं रखा। वसुधा डालमिया का यह कथन बिल्कुल उचित प्रतीत होता है कि अरबी-फारसी से मुक्त होती हुई हिन्दी का हिन्दुओं की भाषा के रूप में उभरने से न सिर्फ मुसलमानों के लिए इसके द्वार बंद कर दिए, बल्कि इसके बढ़ते संस्कृतिकरण ने अनजाने ही, इसके और दक्षिण की द्राविड़ भाषाओं के बीच ध्रुवीकरण का मार्ग भी प्रशस्त किया (दि नेशनलाइजेशन ऑफ हिन्दू ट्रेडिशन्स, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1996, पृ. 221)। हिन्दी से उर्दू को अलगाने की यह प्रक्रिया छायावाद के दौर में अपने चरम पर पहुँची जब हिन्दी पूरी तरह से संस्कृत की तत्सम शब्दावली से आक्रांत हो चुकी थी। इस प्रक्रिया को प्रेमचंद ही काफी हद तक रोके रहे।

उर्दू और हिन्दी के इस बँटवारे के प्रति आरंभ से ही कुछ लेखक और बुद्धिजीवी सहमत नहीं थे। शिवप्रसाद सितारेहिंद ने ‘भाषा का इतिहास’ नामक अपने लेख में इस तरफ संकेत किया। गांधी नेहरू और प्रेमचंद ने हिंदी और उर्दू के बीच खाई को पाटने की भी कोशिश की। हिन्दी-उर्दू से अलग हिन्दुस्तानी की संकल्पना इसी कोशिश का परिणाम थी। गांधी ने 1909 में ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा था, “भारत की सर्वग्राह्य भाषा हिन्दी होनी चाहिए, और वह इच्छानुसार नागरी या फारसी अक्षरों में लिखी जाए। हिन्दुओं तथा मुसलमानों में निकटतर संबंध स्थापित करने के लिए दोनों लिपियों का ज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है’ (‘स्वतंत्रता-पूर्व हिन्दी के संघर्ष का इतिहास)। प्रेमचंद ने भी अपने निबंध ‘हिन्दी-उर्दू की एकता’ में यही सुझाव दिया है (साहित्य का उद्देश्य)।

समाज सुधार और स्त्री-स्वातंत्र्य

उन्नीसवीं सदी में समाजोन्नति के सवाल को हम स्त्री और दलित के संदर्भ में लेखकों और समाज सुधारकों की भूमिका से समझ सकते हैं। यहाँ भारतेन्दु युग के एक महत्वपूर्ण लेखक राधाचरण गोस्वामी के कथन को उद्धृत करना उपयुक्त होगा। राधाचरण गोस्वामी ने ‘यमलोक की यात्रा’ नाम का व्यंग्य लेख लिखा। अपनी ही आकस्मिक मौत पर शोक व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं, “हा। न सारे हिन्दुस्तान में नागरी का दफ्तर और हिन्दी भाषा का प्रसार देखा। न विधवा विवाह प्रचलित हुआ। न विलायत जाने की रोक उठी। न जाति-पांति का झगड़ा मिटा। न सिविल सर्विस में भर्ती होकर हिन्दुस्तानियों को उच्च पद मिले। न हमारे जीते प्रेस ऐक्ट उठा। न लाइसेंस टेक्स का काला मूं हुआ। न लिबरलों की दया दृष्टि देखी। और हाय । न काबुल की लड़ाई का शुभाशुभ परिणाम मालूम हुआ” (राधाचरण गोस्वामी की चुनी रचनाएँ, पृ. 27)। 1880 में लिखे गये इस निबंध में गोस्वामीजी ने अपनी उन सारी आकांक्षाओं को सूत्रबद्ध कर दिया है जो वे पूरी देखना चाहते थे। ये आकांक्षाएँ तीन तरह की हैं। पहली समाज सुधार संबंधी, दूसरी राजनीतिक और तीसरी हिन्दी संबंधी।

समाज सुधार के संबंध में उनकी तीन इच्छाएँ व्यक्त हुई हैं: 

  1. विधवा विवाह का प्रचलन हो,
  2. विदेश यात्रा पर रोक हटे, और
  3. जाति-पाँति का झगड़ा मिटे।

इन तीनों का संबंध सिर्फ समाज सुधार से ही नहीं था, देश की उन्नति से भी था।

ध्यान देने की बात यह है कि न सिर्फ गोस्वामी जी बल्कि उस दौर के प्राय: सभी लेखक सामाजिक बुराइयों को मिटाने की बात कर रहे थे उसका कारण यह था कि वे इसी में देश की उन्नति देख रहे थे। वे स्त्री की दशा को देश की दशा के साथ जोड़कर देखते हैं। यहीं देश की उन्नति का सवाल तब सामने आता है जब वे चाहते हैं कि जाति-पाँति का झगड़ा मिटे । इसका कारण क्या था इसे हम तब अच्छी तरह समझ पाते हैं जब वे विलायत जाने पर रोक को हटाने के लिए तर्क देते हैं।

इन लेखकों ने विलायत जाने का समर्थन इसलिए किया क्योंकि उन्हें यकीन था कि इससे भारतीयों को ज्यादा रोजगार मिलेगा, व्यापार में वृद्धि होगी, यूरोप के मशीनी ज्ञान को सीखकर उनको भारत में बनाना और भारत को भी इंगलैंड की तरह का औद्योगिक देश बनाना संभव होगा, अंग्रेजों की तरह उच्च शिक्षा प्राप्त कर उच्च पदों को प्राप्त करने की योग्यता हासिल कर वे भी उच्च पद हासिल कर सकेंगे। जैसा कि हम पहले ए.आर. देसाई के हवाले से बता चुके हैं कि यह उन बुद्धिजीवी मध्यवर्ग की महत्वाकांक्षा थी जो सीमित ही सही नये तरह के उद्योगों के स्थापित होने और नयी तरह की शिक्षा आरंभ होने से सामने आ रही थी।

वे इस बात को समझ रहे थे कि यह भावना तभी लाई जा सकती है जब वे इस बात को समझें कि उनकी सामाजिक संरचना में बहुत कुछ ऐसा है जो दोषपूर्ण है और जिसे मिटाने की ज़रूरत है। इसी तरह वे अपने संकीर्ण जातिवादी दायरे में कैद रहकर देश के हित के लिए प्रयत्नशील नहीं हो सकते थे। इसके लिए शिक्षा के प्रसार की तो ज़रूरत थी ही, स्त्रियों के शिक्षित होने की भी ज़रूरत थी।

स्त्री शिक्षा का अभियान

राजा राममोहन राय से लेकर सर सैयद अहमद खां और भारतेन्दु तक उस दौर के तमाम भारतीय बद्धिजीवियों ने शिक्षा के प्रसार पर अत्यधिक बल दिया। भारतेन्दु ने शिक्षा आयोग को दिए वक्तव्य में विस्तार से बताया है कि भारत को किस तरह की शिक्षा की ज़रूरत है और उसके लिए किस तरह के कदम उठाए जाने चाहिए। भारतेन्दु अपने वक्तव्य का आरंभ ही इस बात से करते है कि अपने देश-वासियों के शैक्षिक स्तर को ऊँचा उठाना, इस प्रांत की भाषा में सुधार करना, तथा इस भाषा में साहित्य-वृद्धि करना सदैव से मेरा ध्येय रहा है” (स्वतंत्रता-पूर्व हिन्दी के संघर्ष का इतिहास से उद्धृत, पृ. 83)। भारतेन्दु विस्तार से बताते हैं कि क्यों शिक्षा के परंपरागत संस्थान वर्तमान में अप्रासंगिक हो गए हैं। शिक्षा के जिस मकसद को वे सर्वोपरि बताते हैं वह स्वाधीनता के भाव जगाना है।

वे इस बात पर बल देते हैं कि इंगलैंड और यूरोप के लोग “सभ्यता से संबंधित सभी बातों में हमसे बहुत आगे हैं” (वही, पृ. 92) क्योंकि वहाँ प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य है और शिक्षा के मामले सरकार के अपने हाथों में है। वे अगले पचास सालों तक शिक्षा को सरकारी मदद के साथ चलाने का सुझाव देते हैं। भारतेन्दु स्त्री शिक्षा के समर्थक थे और चाहते थे कि उनके लिए अलग से स्कूल खोले जाएँ। वे गाँव और शहर के लिए अलग-अलग किस्म की शिक्षा का सुझाव देते हैं।

शिक्षा के प्रसार के लिए उन्नीसवीं सदी के समाज सुधारकों का बल कितना ज्यादा था इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस दौर के आरंभिक गद्य साहित्य का मुख्य मुद्दा यही था। हिन्दी के पहले पत्र ‘उदंत मार्तड’ (1826) के चार साल पहले बंगला में स्त्री शिक्षा के समर्थन और प्रचार हेतु श्री गौरमोहन विद्यालंकार ने एक पुस्तक ‘स्त्री शिक्षा विधायक’ (1822) के नाम से लिखी थी। बंगला में प्रकाशन के अगले साल सन् 1823 में इसका हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हो गया। यह इस बात का प्रमाण है कि हिन्दी भाषी बुद्धिजीवी कितनी तीव्रता से स्त्री शिक्षा के प्रसार की जरूरत महसूस कर रहे थे। पं. गौरीशंकर की रचना दवरानी जेठानी की कहानी’ में ऐसी दो बहुओं की कहानी कही गई है जिसमें से एक शिक्षित है और दूसरी अनपढ़। यह हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है और इसकी रचना सन् 1870 में हुई थी। पं. श्रद्धाराम फिल्लौरी की रचना ‘भाग्यवती’ जिसका प्रकाशन सन् 1877 में हुआ और जिसे शुक्लजी ने “सामाजिक उपन्यास” की संज्ञा दी है, हिन्दी का एक महत्वपूर्ण उपन्यास माना जा सकता है। उसकी नायिका भाग्यवती भी एक शिक्षित स्त्री है और जो शिक्षित होने के कारण ही बिना किसी सहारे के जीवनयापन में सक्षम होती है और अपने पति के परिवार का संकट के समय नेतत्व भी करती है।

इस उपन्यास की रचना का मकसद ही यह है कि इससे लोगों तक यह संदेश पहुँचाया जा सके कि स्त्री के शिक्षित होने से घर-परिवार को कितना लाभ पहुँचता है? 1912 के पंचम संस्करण में यह सूचना भी प्रकाशित हुई है कि यह एक पाठ्य पुस्तक भी है जिसके लिखे जाने का मकसद स्त्री शिक्षा के प्रचार के साथ-साथ बाल विवाह का विरोध करना, विवाह में फिजूलखर्ची पर रोक लगाना आदि है। इसी दौर में उर्दू के महान लेखक नज़ीर अहमद की रचना मिरातुल उरुस’ में भी ऐसी दो बहनों की कहानी कही गई है जिसमें से एक शिक्षित है और दूसरी अशिक्षित।

यहाँ भी शिक्षा स्त्री के लिए क्यों जरूरी है, इस पर बल दिया गया है। नजीर अहमद मुस्लिम समाज को आधुनिक समाज बनाने के पक्षधर थे। यह तथ्य कम महत्वपूर्ण नहीं है कि उन्नीसवीं सदी के शुरुआत के दो दशक बाद ही स्त्री शिक्षा के प्रति मध्यवर्ग में । जागरूकता व्याप्त होने लगी थी। भारतेन्दु युग के लेखकों के योगदान के बारे में आप आगे की इकाई में पढ़ेंगे ही, यहाँ उसे लिखने की जरूरत नहीं है। खास बात जो यहाँ कहने की है वह यह है कि उस दौर के लेखकों ने लेखों और निबंधों के द्वारा ही नहीं बल्कि कहानियों और उपन्यासों के द्वारा यह बताने का प्रयास किया है कि स्त्री शिक्षा देश और समाज की उन्नति के लिए क्यों ज़रूरी है।

लेकिन सन् 1882 में प्रकाशित पुस्तक ‘सीमंतनी उपदेश’ स्त्री शिक्षा के ठोस परिणामों को हमारे सामने लाती है। यह पुस्तक पंजाब की एक शिक्षित महिला ने लिखी थी जिसने अपना नाम उजागर नहीं किया। हिन्दी जगत के सामने इस किताब को दोबारा लाने का श्रेय डॉ. धर्मवीर को जाता है जिन्होंने सन् 1988 में इसको पुन: प्रकाशित किया। यह पुस्तक इस बात का ठोस प्रमाण है कि शिक्षा ने स्त्री चेतना को किस सीमा तक बदला था। यह उन्नीसवीं सदी की भारतीय नारी की आजादी का घोषणापत्र कहा जा सकता है। यह स्त्री जाति की क्रांतिकारी चेतना का दस्तावेज है।

उस समय की स्त्री जाति किस तरह के आर्थिक, सामाजिक और मानसिक बंधनों में जकड़ी हुई थी उसकी गहरी समझ ही इस अज्ञात महिला को नहीं है बल्कि वह इस बात को पूरे बल के साथ उजागर करती है कि पुरुष प्रधान समाज में किस तरह के दोहरे मापदंड प्रचलित है। वह एक ऐसे समाज की पक्षधर है जिसमें स्त्री और पुरुष के लिए एक से अधिकार और एक से कर्तव्य हों। वह उन महान पुरुषों का आदर के साथ उल्लेख करती है जिन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए प्रयत्न किया और जो स्त्री को सदियों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील रहे। इनमें राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद और भारतेन्दु भी शामिल है। इसके बावजूद किताब पढ़ने से यह जाहिर हो जाता है कि इसमें व्यक्त विचार एक स्त्री ही पेश कर सकती है। एक अर्थ में इसे हिन्दी की पहली नारीवादी रचना भी कहा जा सकता है। यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि यह रचना लंबे समय तक अज्ञात रही और सौ साल बाद में इसे एक दलित लेखक द्वारा प्रकाश में लाया गया।

स्वधर्म चेतना का भाव

आधुनिक शिक्षा के प्रचार में उन ईसाई मिशनरियों का बड़ा हाथ था जो अंग्रेजी शासन की स्थापना के साथ ही भारत के विभिन्न प्रांतों में धर्म प्रचार के लिए काम करने लगी थीं। उन्होंने हिन्दी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में ईसाई धर्म से संबंधित पुस्तकों का प्रकाशन किया। इसके लिए आधुनिक भारतीय भाषाओं में प्रेस की स्थापना की। इन मिशनरियों ने स्कूल और कॉलेज खोले। उनके इन प्रयासों पर टिप्पणी करते हुए अपनी इतिहास पुस्तक में रामचंद्र शुक्ल ने लिखा कि “कहने की आवश्यकता नहीं कि ईसाइयों के प्रचार कार्य का प्रभाव हिन्दुओं की जनसंख्या पर भी पड़ रहा था। अत: हिन्दुओं के शिक्षित वर्ग के बीच स्वधर्म रक्षा की आकुलता दिखाई पड़ने लगी।

ईसाई उपदेशक हिन्दू धर्म की स्थूल और बाहरी बातों को लेकर ही अपना खंडन मंडन चलाते आ रहे थे। यह देखकर बंगाल में राजा राममोहन राय उपनिषद् और वेदांत का ब्रह्मज्ञान लेकर उसका प्रचार करने खड़े हुए। नूतन शिक्षा के प्रभाव से पढ़े लिखे लोगों में से बहुतों के मन में मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, जातिपांति, छूआछूत आदि के प्रति अश्रद्धा हो रही थी।

अत: इन बातों को अलग करके शुद्ध ब्रह्मोपासना का प्रवर्तन करने के लिए ‘ब्रह्मसमाज’ की नींव डाली’ (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 233)। ईसाई धर्म के प्रचारकों के प्रभाव को हजारी प्रसाद द्विवेदी कुछ भिन्न ढंग से रखते हैं। वे लिखते हैं, “ईसाई धर्म के प्रचारक हिन्दू धर्म की तीव्र और कटु आलोचना कर रहे थे। इससे जहाँ एक ओर लोगों के चित्त में क्षोभ हो रहा था, वहाँ दूसरी ओर अपनी कमजोरियों का ज्ञान भी हो रहा था। ईसाई धर्म प्रचारकों ने सती-दाह, कन्या वध आदि अनेक कुप्रथाओं का विरोध किया, और कानून बनाकर उनका उच्छेदन करा दिया था। इस तरह वे हिन्दू समाज का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से हित कर रहे थे। उनके खंडनों और कटाक्षों से शिक्षित हिन्दू अपने समाज और धर्म के विषय में सोचने को बाध्य हुए” (हिन्दी साहित्य – उसका उद्भव और विकास, पृ. 234)।

यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि रामचंद्र शुक्ल ईसाई धर्म की प्रतिक्रिया को दो रूपों में देखते हैं। एक तो इस अर्थ में कि इससे हिन्दुओं में भी “स्वधर्म रक्षा की आकुलता” बढ़ी। दूसरे, उनमें नयी शिक्षा के प्रभाव में छुआछूत, मूर्तिपूजा, जातिपाँति और तीर्थाटन पर “अश्रद्धा” पैदा हो गई और इसके परिणाम स्वरूप वे इनसे भिन्न और ब्रह्म की उपासना पर ही बल देने वाले धर्म पर जोर देने लगे। इसके विपरीत द्विवेदी जी का बल इस बात पर है कि इससे हिन्दू अपने समाज में व्याप्त बहुत सी कुप्रथाओं के प्रति सजग हुआ और वह इस पर सोचने के लिए बाध्य हुआ। जाहिर है कि शुक्ल जी का बल सिर्फ हिन्दू धर्म की रक्षा और ईसाई धर्म के प्रहार के सामने उसकी रक्षा करने पर ही था।

वे उन कुप्रथाओं पर मौन रहते हैं जिसकी ओर ध्यान दिलाने के कारण ही द्विवेदी जी ईसाई मिशनरियों द्वारा किया गया हित मानते हैं। शुक्लजी और द्विवेदी जी के नज़रिए में जो भिन्नता है वह हमें उस आरंभिक दौर के हिन्दी लेखकों में भी दिखाई देती है। यदि वे एक ओर इन कुप्रथाओं से मुक्ति के लिए प्रयत्नशील दिखाई देते हैं तो दूसरी ओर हिन्दू धर्म पर होने वाले इन कथित प्रहारों से हिन्दुओं को सचेत भी करना चाहते हैं। इन दोनों तरह के सोच की सीमा यह है कि वे सिर्फ हिन्द को नजर में रखती हैं और उन धर्मावलंबियों को भूल जाती हैं जिनका धर्म हिन्दू नहीं है। यही नही समाज सुधार और स्वधर्म रक्षा का यह पूरा अभियान भी सिर्फ । सवर्ण हिन्दू की नजर से ही सामने आता है और जब जातिपाँति को मिटाने की बात होती है तो भी दलित उनकी नजर में नहीं रहता बल्कि द्विज वर्ण ही रहते हैं।

समाज सुधार आंदोलन

हिन्दी-उर्दू क्षेत्र में समाज सुधार के प्रयत्न को कुछ ऐसे तथ्यों की रोशनी में देखना होगा जो उसे दूसरे प्रदेशों से अलग करता है। बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, केरल आदि भारत के विभिन्न प्रांतों में जो समाज सुधार आंदोलन चले उसको चलाने का श्रेय ऐसे महापुरुषों को था, जिन्होंने जनता के बीच जाकर यह काम किया और लोगों को इस कार्य के लिए एकजुट किया। लेकिन हिन्दी-उर्दू प्रदेशों में सैयद अहमद खां के सिवा ऐसा कोई महापुरुष उन्नीसवीं सदी में नहीं हुआ। सैयद अहमद खां का आंदोलन मुस्लिम समाज तक सीमित था और हिन्दी-उर्दू विवाद के संबंध में उनके रवैये के कारण प्राय: उनकी भूमिका को हिन्दी समाज में कभी भी अनुकरणीय नहीं समझा गया। हिन्दी समाज में सुधार का यह कार्य प्राय: लेखकों ने ही किया जिनमें भारतेन्दु सर्वोपरि थे। कुछ सीमा तक उन्होंने स्त्री शिक्षा आदि के लिए संस्थाएँ भी स्थापित की। लेकिन लेखकों की जो सीमाएँ होती हैं वे इनकी भी थीं।

हिन्दी के लेखकों पर बंगाल के ब्रह्मसमाज और गुजरात के आर्य समाज का असर पड़ा। इसमें भी बंगाल का असर सिर्फ शिक्षा के प्रसार तक ही सीमित था। इसके प्रभाव में आकर हिन्दी के लेखकों ने एक ओर पाठ्य पुस्तकों को तैयार करने की ज़रूरत महसूस की तो दूसरी ओर, उन्होंने देशी-विदेशी साहित्य को भी हिन्दी में अनूदित कर लोगों को नये विचारों से अवगत कराने का महत्वपूर्ण दायित्व निभाया। समाज सुध पार संबंधी प्रेरणा उत्तर भारत में आर्य समाज से ही ग्रहण की। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती यद्यपि स्त्री शिक्षा के समर्थक थे, बाल विवाह के विरोधी थे और जातिपाँति का भी समर्थन नहीं करते थे। लेकिन वे दूसरे धर्मों के प्रति बहुत सहिष्णु नहीं थे। हिन्दी लेखकों पर आर्य समाज का प्रभाव इतना ही रहा कि उन्होंने आर्य समाज के नज़रिए से ही समाज सुधार का समर्थन किया लेकिन उस दौर में जो पुररुत्थानवादी उभार दिखाई दे रहा था, उसका गहरा असर हिन्दी लेखकों पर नज़र आता है। यह असर मुस्लिम द्वेष से मिलकर कुछ हद तक सांप्रदायिक रूप भी ग्रहण करता रहा है।

हिन्दी-उर्दू प्रदेशों में समाज सुधार आंदोलन की तीसरी सीमा यह थी कि इसमें समाज के दलित वर्ग की कोई भूमिका नहीं थी जैसी हम महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में देखते हैं। हिन्दी के लेखक समाज के जिस वर्ग से आ रहे थे, उस वर्ग की सीमा यही थी कि उसने अपने ही समाज के दलित वर्ग के बारे में कभी विचार करना ज़रूरी नहीं समझा। यही कारण है कि समाज सुधार के समर्थन में उन्होंने प्राय: धर्मग्रंथों को ही प्रामाणिक माना और उसी की नये ढंग से व्याख्या प्रस्तुत की। यदि वे अपने ही समाज के कथित पिछड़े वर्ग और मुस्लिम समाज के जीवन को देखते तो सती प्रथा, बालिका वध आदि के विरोध और विधवा विवाह के समर्थन के प्रमाण मिल जाते। जिस देशोन्नति के मार्ग में उन्हें जातिपांति बड़ी बाधा नज़र आती थी, उसके लिए ज्यादा व्यापक एकता तभी संभव हो सकती थी जब वे दलित और मुस्लिम समाज को साथ लेने की बात सोचते।

इसका अर्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि हिन्दी-उर्दू क्षेत्र में समाज सुधार का आंदोलन अपनी इन वैचारिक सीमाओं से उबर नहीं पाया। सच्चाई यह है कि एक गहरे द्वंद्व की स्थिति हमें उस दौर के । लेखकों में साफ तौर पर नज़र आती है। इसे हम पं. श्रद्धाराम फिल्लौरी तक में देख सकते हैं जिन्होंने अपने जीवन का आरंभ हिन्दु धर्म प्रचारक के रूप में किया लेकिन जीवन के अंतिम चरण में वे नास्तिक हो गए थे और धर्म की व्यर्थता समझने लगे थे। ‘भाग्यवती’ में वे स्त्री की शिक्षा का ही समर्थन नहीं करते बल्कि संकट पड़ने पर अपने पति से अलग अकेले स्वावलंबी बनकर जीवनयापन करने का सुझाव भी स्त्री को देते हैं। इसी तरह हिन्दुओं को आर्य और मुसलमानों और ईसाइयों को विदेशी समझने वाले राधाचरण गोस्वामी राजनीति में धर्म की दखलंदाजी का विरोध भी करते हैं। उन्ही के शब्दों में, “अब केवल धर्म के लिए प्राण देकर कुछ न होगा” (राधाचरण गोस्वामी की चुनी रचनाएँ, पृ. 75) बल्कि उनके विचार में “दशोन्नति के साधन, बिना किसी धर्म के विचार के होने चाहिए” (वही, पं.75)।

इसी तरह भारतेन्दु जो स्त्री शिक्षा के समर्थक होते हुए भी विधवा विवाह का समर्थन करने का साहस नहीं जुटा सके जिनके मुस्लिम द्वेष के प्रकोप से अकबर जैसा शासक नहीं बच सका (अपने बलिया वाले व्याख्यान में वे अकबर की प्रशंसा भी करते हैं), देश की उन्नति की भावना से प्रेरित होकर हिन्दू और मुसलमान की एकता का समर्थन करते हैं। प्रतापनारायण मिश्र भी जो हिन्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तान का जाप करने का आह्वान करते हैं हिन्दू और मुसलमान को देश की दो भुजाओं के रूप में देखते हैं। बालकृष्ण भट्ट ब्रह्मसमाज और आर्य समाज के प्रभाव के दौर में वेदों को ईश्वर निर्मित मानने से इन्कार करते हैं और उसे मनुष्य रचित ही मानते हैं।

देशभक्ति और राष्ट्रवाद का विकास

भारतेन्दु की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं :

अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी।

पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।।

उन्नीसवीं सदी की देशभक्ति को इस द्वंद्व के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। इन पंक्तियों की दो तरह से व्याख्या की जा सकती है। एक इस अर्थ में कि पहली पंक्ति और दूसरी पंक्ति दोनों में व्यक्त विचार से लेखक पूरी तरह सहमत है। वह सचमुच यह मानता है कि अंग्रेज राज के कारण वस्तुत: भारत देश का बड़ा भारी हित हुआ है लेकिन इस राज की सबसे बड़ी खराबी यह है कि देश का धन विदेश चला जाता है। अंग्रेजी राज पहले के मुस्लिम शासकों से कितना भिन्न और अलग था यह भारतेन्दु और दूसरे लेखकों ने बराबर लिखा है। लेकिन दूसरी ओर वे इस बात को भी रेखांकित करते हैं कि मुस्लिम शासक चाहे जितने बुरे क्यों न रहे हों, कम से कम देश का धन देश में ही रहता था।

इस की दूसरी व्याख्या यह हो सकती है कि पहली पंक्ति तो सिर्फ एक रणनीतिक वक्तव्य है, खास बात जो भारतेन्दु कहना चाहते हैं वह यह है कि अंग्रेजी राज में देश का धन विदेश चला जाता है यानि कि अंग्रेज भारत को लूट रहे हैं और इस तरह भारत को बरबाद कर रहे हैं। कुछ अन्य पंक्तियों में वे अंग्रेजी शासन की ज्यादा तीखी. आलोचना करते हैं और कहते हैं कि अंग्रेजी राज बाहर से चाहे जैसा भी क्यों न दिखता हो लेकिन वह देश का पूरा रस चूसने वाला है उसको भौतिक और आर्थिक रूप से नष्ट करने वाला है :

भीतर-भीतर सब रस चूसै, हँसि हँसि के तन मन धन मूसे।

जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन? नहिं अंग्रेज।।

भारत में अंग्रेजी राज के प्रति उस समय के बुद्धिजीवी वर्ग के रवैये को समझने के लिए यह समझना होगा कि उनका सन् 1857 के संग्राम के प्रति क्या रवैया था। इस संग्राम को इंग्लैंड में बैठे हुए कार्ल मार्क्स ने भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा था। लेकिन उस दौर के भारतीय बुद्धिजीवी और लेखकों ने अपवाद रूप में भी इसका समर्थन नहीं किया। हिन्दी लेखक प्राय: इस पर मौन दिखाई देते हैं और यदि वे इस पर कुछ कहते भी हैं तो उसको अनर्थकारी ही बताते हैं। वे भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना को दैवीय वरदान मानते हैं और यह उम्मीद जताते हैं कि महारानी विक्टोरिया के शासन के अधीन रहकर वे भी वैसी ही तरक्की कर सकेंगे जैसी इंग्लैंड कर रहा है।

यही नहीं वे यह भी उम्मीद करते हैं कि जो अधिकार इंग्लैंड की जनता को मिले हुए हैं वही अधिकार भारत की प्रजा को भी मिलेंगे। यही आशा उन्हें अंग्रेजी राज का समर्थक बनाती है और वे अपने को राजभक्त घोषित करते हैं। यही नहीं, वे इस पर गर्व भी करते हैं। इस राजभक्ति को व्यक्त करने के लिए वे इससे पूर्व के मुस्लिम राज्य से उनकी तुलना भी करते हैं और साबित करते हैं कि अंग्रेजी राज क्यों पहले से श्रेष्ठ है। लेकिन यह आशा, आशा ही बनी। रहती है। धीरे-धीरे उनका विश्वास हिलने लगता है, जब वे यह देखते हैं कि न तो सरकारी नौकरियों में भारतीयों को जगह मिल पा रही है, न ही उनकी उन्नति और प्रगति के लिए ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। इसके विपरीत हर साल विभिन्न तरह के करों द्वारा भारतीय धन इंग्लैंड भेजा जा रहा है। हर साल अकाल पड़ रहे हैं।  परंपरागत उद्योग धंधे चौपट हो रहे हैं, किसान बरबाद हो रहे हैं। हम इन सब बातों की चर्चा पहले कर आए हैं। यहाँ सिर्फ इतना कहना पर्याप्त है कि उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों में इस बुद्धिजीवी वर्ग का मोहभंग होने लगा था और राजभक्ति की भावना धीरे-धीरे कम होने लगी थी। यह एहसास होने लगा था कि अगर भारत को भी उन्नत होना है तो खुद भारतीयों को आगे आना होगा।

जीवन के हर क्षेत्र में वे उन सब बातों को विस्थापित होता हुआ देख रहे थे जिनका संबंध भारत की . परंपरा और जमीन से था। भारत में बना माल बाज़ारों से निष्कासित हो रहा था और उसका स्थान विदेशी माल ले रहा था। इसके कारण भारतीय उद्योग नष्ट हो रहे थे। भारतीय कारीगर बेकार हो रहे थे। इस बात ने उनको प्रेरित किया कि वे स्वदेशी की भावना को जगाएँ । भारतेन्दु युग के लेखकों द्वारा इस बात पर बल देने का कारण यही था। वे यह तो चाहते थे कि भारतीय आधुनिक मशीनी ज्ञान हासिल करे, लेकिन वे यह भी चाहते थे कि यह ज्ञान हासिल करके वे भारत में ही उद्योग स्थापित करें। जाहिर है कि इसके लिए भी लोगों को जाग्रत करने की जरूरत थी।

इन्हीं बातों से प्रेरित होकर भारतीयों ने कई तरह के संगठन स्थापित किए और उन संगठनों के माध्यम से उन्होंने एक ओर अंग्रेजी शासन के सामने अपनी माँग रखी तो दूसरी ओर उन्होंने भारतीयों में जागति लाने का प्रयत्न भी किया। ज्यादातर ये संगठन क्षेत्रीय थे और उनका प्रभाव भी काफी सीमित था। इससे इस बात का एहसास बढ़ा कि एक अखिल भारतीय संगठन की आवश्यकता है। सन् 1885 में कांग्रेस की स्थापना इसी मकसद से की गई। यद्यपि इसकी स्थापना के पीछे एक अंग्रेज अधिकारी ए.ओ.यूम का हाथ था लेकिन जल्दी ही उसने उन भारतीय राष्ट्रवादियों को मंच प्रदान कर दिया जो अंग्रेजी सत्ता से भारतीयों के लिए अधिक अधिकारों की माँग कर रहे थे और जो यह मानते थे कि भारत में अंग्रेजी राज इंग्लैंड के अंग्रेजी राज से भिन्न है।

सुरेंद्रनाथ बनर्जी, दादा भाई नौरोजी,. बदरुद्दीन तैयबजी, डब्ल्यू.सी.बनर्जी, रमेशचंद्र दत्त आदि आरंभिक राष्ट्रवादियों में से थे। यह आकस्मिक नहीं है कि कांग्रेस की स्थापना के साथ ही उस समय के हिन्दी लेखक इस संगठन की तरफ आकर्षित हुए और उनमें से कई कांग्रेस में शामिल भी हो गये। राधाचरण गोस्वामी, प्रतापनारायण मिश्र इनमें प्रमुख हैं जो लेखन के साथ-साथ कांग्रेस की गतिविधियों में भी सक्रिय रहे और अपने-अपने क्षेत्र में वे कांग्रेस के अग्रणी नेता रहे।

कांग्रेस की स्थापना के समय उसका नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथों में था जिन्हें नरमपंथी कहा जाता था और जो मानते थे कि अंग्रेजों से अपील करने पर वे हमारी बात मान लेंगे। लेकिन सदी के अंतिम दशकों तक ऐसे नेता उभरने लगे थे जो प्रार्थना की बजाए संघर्ष के मार्ग को ज्यादा उचित मानते थे। बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, लाला लाजपत राय आदि नेता इस समझ के अनुसार कांग्रेस को संगठित करना चाहते थे। लेकिन इन नेताओं पर पुनरुत्थानवाद का प्रभाव था। वे समाज सुधार से ज्यादा भारत की आजादी को महत्व देते थे। यही नहीं कई मामलों में उनकी राष्ट्रवाद की परिभाषा धार्मिक संकीर्णतावाद से ग्रस्त होती थी। यह आकस्मिक नहीं है कि उन्नीसवीं सदी के हिन्दी राष्ट्रवादी लेखक विचारधारात्मक रूप में तिलक की समझ के ज्यादा नजदीक थे।

इसलिए उनमें उग्र राष्ट्रवाद तो दिखाई देता है लेकिन समाज को आधुनिक बनाने के मामले में वे बहुत दूर तक नहीं जाते। इसकी अभिव्यक्ति हम उस दौर के लेखन पर भी साफ तौर देख सकते हैं। भारतेन्दु के समकालीन पं. प्रतापनारायण मिश्र ने ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ नाम से एक पद्य रचना की थी जिसका आरंभ कुछ इस तरह होता है:

चाहौ जु सांचौ निज कल्यान

तौ सब मिलि भारत संतान

जपौ निरंतर एक जबान

हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान।

हिन्दी के संबंध की चर्चा हम विस्तार से कर आए हैं। हिन्दू की बात करते हुए इस दौर के लेखकों के सामने एक ओर स्वधर्म रक्षा का भाव रहता था तो दूसरी ओर वे गौ रक्षा और आर्य या हिन्दू परंपरा के प्रति गौरव का भाव जगाने की बात करते थे। लेकिन जब वे हिन्दुस्तान के कल्याण पर विचार करते थे तो उनके सामने कई तरह के अंतर्विरोध आ खड़े होते थे और तब वे हिन्दूवादी संकीर्णता से ऊपर उठने का प्रयास करते थे। आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य पर विचार करते हुए उस समय के हिन्दी लेखकों के इस सच्चे द्वंद्व को समझना जरूरी है (इस दृष्टि से अध्ययन के लिए देखें: सुधीर चंद्र की पुस्तक: दि आप्रेसिव प्रजेंट, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली, संस्करण 1999)।

पुनरुत्थानवाद, नवजागरण और आधुनिकता

आधुनिक काल की पृष्ठभूमि को समझने के संदर्भ में इन तीन शब्दों का खास महत्व है। उन्नीसवीं सदी में जिन आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिर्वतनों की शुरुआत हुई और जिनकी चर्चा हमने अब तक ही है, उनको विद्वान कई तरह से व्याख्यायित करते हैं। अंग्रेजी शासन की स्थापना ने भारत को ब्रिटिश सत्ता का उपनिवेश बना दिया। यह सत्ता स्थापित करने के क्रम में उनका संघर्ष यहाँ की उन सामंती शक्तियों से हुआ जो पहले से शासित थे। इस संघर्ष की अंतिम परिणति सन् 1857 के संग्राम में हुई और अंग्रेजी सत्ता को सामंती चुनौती हमेशा के लिए समाप्त हो गई। लेकिन क्या इसने भारत से सामंतवाद को पूरी तरह से समाप्त कर दिया?

इतिहास हमें बताता है कि अंग्रेजों ने उम रियासतों को बने रहने दिया जो इस संग्राम के दौरान या तो उनके साथ थे या जो तटस्थ रहे। इस तरह देश के आजाद होने के समय भारत में पाँच सौ से ज्यादा देशी रियासतें मौजूद थीं। दूसरी ओर, अपना शासन मजबूत करने के क्रम में उन्होंने यहाँ एक नयी तरह की जमींदारी प्रथा का चलन किया जिसने गांवों की व्यवस्था को पहले से अधिक भूस्वामित्व के वर्चस्व में ला दिया। इस तरह भारत सामंतवाद से औपनिवेशिक काल में पूरी तरह मुक्त नहीं हुआ।

लेकिन इसके साथ ही भारत में नये तरह के उद्योग भी स्थापित हुए। नयी तरह की शिक्षा प्रणाली आरंभ . हुई। सरकारी कामकाज का योरोपीय ढाँचा आया। इस तरह भारत में अंग्रेजी राजसत्ता यदि एक ओर परंपरागत सामंतवाद और उद्योगों को नष्ट करने का कारण बनी तो उसने एक नये तरह के सामंतवाद को आरोपित भी किया। वह ऐसा पूँजीवाद लाने का जरिया बना जो पूरी तरह ब्रिटिश सत्ता की दया पर कायम था। लेकिन इस पूँजीवाद ने नये वर्गों को जन्म दिया। मध्यवर्ग और उसके एक हिस्से बुद्धिजीवी वर्ग के उदम की चर्चा हम कर चुके हैं। लेकिन इसके साथ ही यह भी याद रखने की जरूरत है कि इस विकास ने भारत का अपना पूँजीवाद वर्ग भी पैदा हुआ और आधुनिक उद्योगों में काम करने वाला मजदूर वर्ग भी। ये दोनों वर्ग भी अपने-अपने हितों के लिए राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन को प्रभावित कर रहे थे। भारत में पूँजीवादी राष्ट्रवाद के उदय को ही नहीं पुनरुत्थानवाद, नवजागरण और आधुनिकता के सवाल को भी इसी परिप्रेक्ष्य में समझना होगा।

आधुनिक शिक्षा के प्रसार ने भारतीय बुद्धिजीवियों में दो तरह की प्रतिक्रियाएँ पैदा की। एक ओर यदि वे ज्ञानोदय के आधुनिक मानवतावादी विचारों के संपर्क में आए तो दूसरी ओर वे यह सोचने के लिए भी मजबूर हुए कि क्या भारत सदैव से ही ऐसा ही पिछड़ा और गुलाम देश रहा है। बहुत से अंग्रेज विद्वानों ने जिन प्राचीन भारतीय ग्रंथों की खोज की और उन पर प्रशंसात्मक लेखन किया उससे भारतीय भी । प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके और उन्होने एक ऐसे प्राचीन भारत की कल्पना की जब भारत यूरोप से ज्यादा आगे बढ़ा हुआ और खुशहाल देश था। अतीत की ऐसी गौरवशाली कल्पना भारतीय मानस के लिए एक बड़ा बौद्धिक सहारा बनी।

इस अतीत में उन्होंने उन सब बुराइयों से मुक्ति पा ली जो वर्तमान भारत में दिखाई देती है। इसने उनके आत्मबल को बढ़ाया। लेकिन इस सोच के लिए यह भी जरूरी था कि वे यह भी बताते कि आखिर भारत का पतन क्यों हआ और क्यों वह पराधीन बना हुआ है? इस पतन के लिए उन्होंने उन मुस्लिम शासकों को जिम्मेदार ठहराया जिन्होंने उनके मंदिर तोड़े, उनकी स्त्रियों का अपमान किया और तलवार के बल पर उन्हें इस्लाम स्वीकार करने को मजबूर किया। इस तरह इस पुनरुत्थानवाद ने यदि एक गौरवशाली अतीत की संकल्पना प्रस्तुत की तो एक ऐसा शत्रु भी दिया जिसको वे अपने पतन के लिए जिम्मेदार ठहरा सकते थे।

इस पुनरुत्थानवाद ने तीसरा काम यह किया कि इसने एक ऐसा समूह पैदा किया जो यह मानता था कि यदि हम उस अतीत को वापस ले आते हैं तो हम अपने गौरव को पुन: पा सकते हैं। इस सोच का नेतृत्व आर्य समाज जैसे संगठन कर रहे थे और जो बाद में और अधिक उग्र तथा सांप्रदायिक रूप में उन हिन्दू संगठनों द्वारा सामने आया जो भारत को हिन्दु राष्ट्र के रूप में उभरता हुआ देखना चाहते थे। ठीक ऐसे ही अतीतवादी इस्लामी गौरव को हम मुस्लिम पुनरुत्थानवाद के रूप में देख सकते हैं।

हिन्दू पुनरुत्थानवाद की इस अवधारणा में यदि मुसलमानों और ईसाइयों के लिए कोई जगह नहीं थी तो पिछड़े समाजों के लिए भी कोई जगह नहीं थी। इसलिए यह सोच भारतीय राष्ट्रवाद की केंद्रीय विचारधारा नहीं बन सकता था। यही कारण है कि इस पुनरुत्थानवाद का विरोध दो तरह से हुआ। एक के अनुसार भारत के अतीत गौरव को ऐसे रूप में देखना जो विभिन्न संस्कृतियों के मेलजोल का प्रतीक है और इसी परंपरा को आगे ले जाने की जरूरत है। जहाँ सभी धर्म और सभी जाति के लोग मिलजुल कर रह सकें। दूसरे के अनुसार इस मिलीजुली सांस्कृतिक परंपरा में यकीन करते हुए भी एक ऐसे आधुनिक समाज को बनाने की जरूरत है जिसमें सभी मनुष्य बराबर हों और जाति, धर्म, लिंग, भाषा और क्षेत्र के अनुसार जिनमें किसी तरह का भेदभाव न किया जाए। यह विचारधारा उस ज्ञानोदय के प्रभाव से उपजी थी जो आधुनिकता का सही प्रतिनिधित्व करता है। पुनरुत्थानवाद के विपरीत गांधी और नेहरू इन्हीं दो परंपराओं का प्रतिनिधत्व करते थे।

हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल पुनरुत्थानवाद, नवजागरण और आधुनिकता के इसी द्वंद्व से उपजा है। पं. श्रद्धाराम फिल्लौरी और भारतेन्दु से लेकर प्रसाद, निराला और प्रेमचंद और बाद में प्रगतिशील आंदोलन को इन्ही विचारधारात्मक संघर्ष के प्रकाश में देखा और समझा जा सकता है।

सारांश

आधुनिक काल के साहित्य की पृष्ठभूमि के इस अध्ययन से आपके सामने यह साफ हो गया होगा कि वे कौन सी परिस्थितियाँ थी जिन्होंने आधुनिक हिन्दी साहित्य के उदय को संभव बनाया। आधुनिक हिन्दी साहित्य का आरंभ उन्नीसवीं सदी के मध्य से माना गया है, जब सन् 1857 की असफल क्रांति के बाद पूरे देश पर ब्रिटिश सत्ता की स्थापना हो गई थी। अंग्रेजी सत्ता ने सामंतवादी सत्ता को समाप्त किया, भारत के परंपरागत उद्योगों को समाप्त किया और उसे अपने देश के उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति करने वाले और बने हुए माल के बाजार में बदल दिया। अंग्रेजों के शासन काल में रेल की स्थापना हुई और इसने पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन संभव बनाया। इन नये परिवर्तनों ने नये तरह के वर्ग पैदा किए। पंजीपति वर्ग, मजदूर वर्ग और नया मध्यवर्ग जिसमें वह बुद्धिजीवी वर्ग भी शामिल था जिसने बदलते भारत में अपनी भूमिका के लिए संघर्ष की शुरुआत की।

अंग्रेजों ने देश में नये तरह की शिक्षा भी आरंभ की। यह नयी तरह की शिक्षा परंपरागत शिक्षा से काफी भिन्न थी। यह धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी तो थी ही, साथ ही यह बिना किसी भेदभाव के सबके लिए सुलभ भी थी। इस शिक्षा ने भारतीयों को नये ढंग से सोचने के लिए प्रेरित किया। उन्हें अपनी स्थिति का ज्ञान हुआ। और वे यह भी समझ पाए कि ब्रिटिश राजसत्ता भारतीयों के हित में नहीं बल्कि ब्रिटेन के सत्ताधारियों के हित के लिए है।

यह असंतोष कई तरह से व्यक्त हुआ और इसी ने उस राष्ट्रवाद को जन्म दिया। जिससे प्रेरित होकर आधुनिक काल का साहित्य लिखा गया।

आधुनिक काल की पृष्ठभूमि को समझने के लिए इस बात को समझना भी जरूरी है कि हिन्दी भाषा का उदय कैसे हुआ। जैसा कि आप पढ़ चुके हैं कि इस दौर में गद्य लेखन साहित्य लेखन के केंद्र में आ गया। यह गद्य लेखन खड़ी बोली में हुआ। यह खड़ी बोली दो लिपियों में लिखी जाकर हिन्दी और उर्दू के रूप में प्रचलित हई। हिन्दी और उर्द का विवाद आधुनिक काल के साहित्य का ऐसा प्रसंग है जिसने हिन्दी भाषा और साहित्य को दूर तक प्रभावित किया। इसने उस सांप्रदायिक नजरिए के लिए जगह बनाई जिसका प्रभाव हम उस दौर के सोच और साहित्य दोनों पर देख सकते हैं। हिन्दी और उर्दू में एकता स्थापित करने का प्रयत्न उन लोगों ने किया जो हिन्दू मुस्लिम एकता को राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के लिए जरूरी मानते थे।

आधुनिक काल के साहित्य को उन समाज सुधार आंदोलनों के संदर्भ में भी समझा जाना चाहिए जिसका असर उस समय के हिन्दी बुद्धिजीवियों पर दिखाई देता है। इनमें आर्य समाज और बंगाल के नवजागरण का प्रभाव साफतौर से देखा जा सकता है। समाज सुधार के प्रभाव के कारण हिन्दी लेखकों ने स्त्री शिक्षा का समर्थन किया। बाल विवाह, सतीप्रथा, कन्या वध का विरोध किया। कुछ लेखकों ने विधवा विवाह का भी समर्थन किया। देशोन्नति के लिए वे जातिपाँति को भी बड़ा बाधा के रूप में देखते थे। लेकिन इसके साथ ही इस आंदोलन की सीमा यह थी कि इस पर हिन्दू पुनरुत्थानवाद का भी असर था। ईसाई धर्मप्रचारकों की प्रतिक्रिया में वे अतीत के गौरवगान, गौ रक्षा, प्राचीन ग्रंथों के महिमा मंडन आदि की ओर उन्मुख हुए। स्त्री शिक्षा का असर इस रूप में भी दिखाई देता है कि सदी के अंत तक हिन्दी में स्त्री लेखिकाएँ भी सामने आने लगी थीं।

औपनिवेशिक शासन के साथ अपने संबंधों और संघर्षों के दौरान ही भारत में राष्ट्रवाद का विकास हुआ। आरंभ में यह देश की उन्नति से प्रेरित था और यह मानता था कि अंग्रेजों का शासन भारत के लिए दैवीय वरदान है। लेकिन अंग्रेजों द्वारा भारत की लूट, भारतीय उद्योगों के विकास में उत्पन्न अवरोध, बार-बार पड़ने वाले दुर्भिक्ष ने भारतीयों को यह सोचने के लिए विवश किया कि यह शासन उनके हित के लिए नहीं है। पहले वे अपने लिए अधिक अधिकारों की माँग करते रहे। बाद में उसके लिए संगठित होकर संघर्ष करने की ओर बढ़े। इसी ने कांग्रेस की स्थापना के लिए जमीन तैयार की। कांग्रेस के साथ हिन्दी के लेखकों ने जुड़ाव महसूस किया और उनमें से कई लेखक कांग्रेस में सक्रिय रूप से कार्य करने लगे।

भारत के राष्ट्रवाद से प्रेरित हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल पर उस दौर की तीन प्रमुख विचार धाराओं का असर देखा जा सकता है। पुनरुत्थानवाद, नवजागरण और आधुनिकता के द्वंद्वात्मक प्रभाव से ही हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल आकार ग्रहण करता है। इसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष में हम आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि को समझ सकते हैं।

प्रश्न/अभ्यास

  1. आधुनिक काल में स्त्री-स्वातंत्र्य को लेकर उठाए गए कदमों की चर्चा कीजिए।
  2. आधुनिक काल के विभिन्न समाज सुधार आंदोलनों पर प्रकाश डालिए।
  3. पुनरुत्थानवाद की अवधारणा की विवेचना कीजिए।

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.