अज्ञेय : काव्यभाषा और काव्यशिल्प

इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप :

  • प्रयोगवादी कवियों के सामने आई भाषा की समस्या की प्रकृति को पहचान सकेंगे।
  • अज्ञेय के काव्य में बिंबों के वैशिष्ट्य को जान सकेंगे। 
  • लंबी कविता के रूप में ‘असाध्य वीणा’ का विश्लेषण और मूल्यांकन कर सकेंगे।
  • अज्ञेय की काव्यभाषा और काव्य शिल्प की विशेषताएँ बता सकेंगे।

इकाई 20 के अंतर्गत अज्ञेय के काव्य में आधुनिक भावबोध की एक पहचान बना. लेने के बाद आपके लिए अज्ञेय को पढ़ना, उनके काव्य में रुचि लेना, उनकी कविता की भाषा और शिल्प की विशेषताएँ समझना अधिक सहज जान पड़ेगा। अज्ञेय जैसे आधुनिक कवि के पाठ की एक समस्या यह होती है कि कई बार पाठक पुरानी कविता की अपनी पसंद के आधार पर या आधुनिक छायावादी कवियों पंत-प्रसाद-निराला-महादेवी की अपनी पसंद के आधार पर अज्ञेय को पढ़ना और जाँचना चाहता है। अज्ञेय की कविता की माँग यह है कि उन्हें उनके अपने बदले हुए भावबोध और शिल्प के आदर्श के अनुसार पढ़ा जाए इसीलिए हमने अज्ञेय के अंतर्विरोधों को भी उनकी विशेषताएँ मानकर पढ़ने का रास्ता सुझाया है। जैसे अज्ञेय व्यक्तित्व की खोज के कवि हैं, पर व्यक्ति या व्यक्तित्व से दूरी बनाकर। वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक के बीच का उनका द्वन्द्व अब आप पहचान रहे होंगे जिसके कारण प्रेम की कविता केवल प्रेम की कविता नहीं रह जाती, प्रकृति की कविता केवल प्रकृति की कविता नहीं रह जाती। अज्ञेय भावुकता से बचते हैं और बौद्धिक अनुभूति के निकट अपनी काव्यसंवेदना निर्मित करते हैं। पिछली इकाई के पाठ को याद करते हुए हम अब अज्ञेय की काव्यभाषा और काव्यशिल्प पर विचार कर सकेंगे।

इस अध्ययन में हम एक तो काव्यभाषा की विशिष्टता और शिल्प की विशिष्टता को समझने का प्रयास करेंगे। दूसरे काव्यभाषा के जो संघटक तत्व हैं (जिनसे काव्यभाषा सामान्यभाषा से भिन्न काव्यभाषा बनती है) – अलंकार, बिम्ब, प्रतीक, मिथक – इन्हें अज्ञेय की कविताओं में देख सकेंगे। शिल्प के अंतर्गत रूपगत समस्याएँ हमारे विश्लेषण का विषय बनेंगी। जैसे प्रतीकात्मकता और छोटी कविताएँ, नाटकीयता और लम्बी कविता। अब आप यह भी देखेंगे कि अज्ञेय वाचिक कविता (बोलकर पढ़ी जाने वाली कविता) और मुद्रित कविता (पृष्ठ पर छपी हुई कविता) में भेद करते हैं और शिल्प में छूट लेते हैं। कहीं मौन ही भाषा हो जाती है, कहीं मुद्रण चिह्न भी भाषा का काम करते हैं।

इस अध्ययन की सार्थकता यह होगी कि आप स्वयं कविता में भाषा और शिल्प की विशेषताएँ पहचानने लगें। यह समझा सकें, कि क्यों अज्ञेय भाषा पर और भाषा में शब्द पर अधिक बल देते हैं।

यहाँ भी छायावादोत्तर कविता के परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखना ज़रूरी होगा। हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि छायावाद ने आने वाले नये काव्य के लिए स्वयं आधार तैयार किया। निराला ने तो कविता की मुक्ति की व्यापक संभावना देखी। पंत कविता में चित्रभाषा और भाषा में निहित संगीत आदि पर बल देते रहे। छायावादी कवि अपनी अनुभति को महत्व देते रहे और यथार्थ के भीतर भी एक विशेष भावलोक का ही निर्माण करते रहे। प्रगतिशील कवियों ने सामाजिक संघर्ष आदि को कविता के माध्यम से व्यक्त किया और कला या रूप की अधिक चिन्ता नहीं की। अज्ञेय प्रयोगवाद के प्रवर्तक की तरह दृश्य पर आये और काव्यभाषा और शिल्प की समस्या को प्रयोगशीलता की समस्या के रूप में देखते रहे।

अज्ञेय की काव्यभाषा और काव्यशिल्प पर विचार करने के लिए हमारा ध्यान सबसे पहले सप्तकों की भूमिकाओं की ओर जाना चाहिए। हम यहाँ कवि की कुछ स्थापनाओं को ध्यान में रखें – ‘कवि अनुभव करता है कि भाषा का पुराना व्यापकत्व उसमें नहीं है – शब्दों के साधारण अर्थ से बड़ा अर्थ हम उसमें भरना चाहते हैं, पर उस बड़े अर्थ को पाठक के मन में उतार देने के साधन अपर्याप्त हैं। वह या तो अर्थ कम पाता है या कुछ भिन्न पाता है।’ (आत्मनेपद, पृ० 37) ‘कवि क्रमशः अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं, उनसे आगे बढ़कर अब इन क्षेत्रों का अन्वेषण करना चाहिए जिन्हें अभी नहीं छुआ गया…….। भाषा को अपर्याप्त पाकर विराम-संकेतों से, अंकों और सीधी तिरछी लकीरों से छोटे-बड़े टाइप से, सीधे या उल्टे अक्षरों से, लोगों और स्थानों के नामों से, अधूरे वाक्यों से – सभी प्रकार के इतर साधनों से कवि उद्योग करने लगा कि अपनी उलझी हुई संवेदना की सृष्टि को पाठकों तक अक्षुण्ण पहुँचा सके।’

इस अध्ययन में हमारी दृष्टि और पद्धति इन्हीं स्थापनाओं के आधार पर बननी चाहिए। अज्ञेय का सारा बल नये प्रयोगों पर है। नयी काव्यभाषा प्रयोगशीलता में सहायक है। पहले से प्राप्त साधन भाषा में नया और बड़ा अर्थ भरने में सहायक हैं। यही चुनौती है अज्ञेय जैसे आधुनिक कवि के सामने। फिर यह कविता ‘वाचिक’ से अधिक ‘मुद्रित’ कविता है। इसलिए मुद्रण चिह्न तक भाषा का काम देने या करने लगते हैं। पहले हम व्यापक आधार पर प्रयोगवाद-नयी कविता के संदर्भ में काव्यभाषा और शिल्प की इन विशेषताओं को समझेंगे। फिर अज्ञेय की काव्यभाषा और काव्यशिल्प पर कुछ ठोस महत्वपूर्ण कविता के उदाहरणों के आधार पर विचार करेंगे। ‘तीसरा सप्तक’ की भूमिका में अज्ञेय ने नयी शिल्प-दृष्टि का महत्व स्पष्ट किया है और कहा है – ‘नया कवि नयी वस्तु को ग्रहण और प्रेषित करता हुआ शिल्प के प्रति कभी उदासीन नहीं रहा है।”

इस अध्ययन की पद्धति ऐसी होनी चाहिए कि हम अज्ञेय की काव्यभाषा की दुरूहता को भी जाँच सकें। यह दुरूहता कहाँ गुण है, कहाँ दोष : यह देख सकें। कहाँ यह अनिवार्य है, कहाँ अलग से आरोहण । इस प्रकार हम अज्ञेय की काव्यभाषा तथा काव्यशिल्प की विशिष्टता से भी परिचित हो सकेंगे, सीमाओं से भी।

प्रयोगवाद और नयी कविता : काव्यभाषा और काव्यशिल्प

प्रयोगवाद से पहले के आधुनिक काव्य-परिदृश्य पर विचार करते हुए हम प्रयोगवाद और नयी कविता वाले दौर की भाषा-शिल्प की विशिष्टता की ओर आयें तो अधिक सुविधा होगी। किसी समय की काव्यभाषा अचानक नयी नहीं हो जाती। पहले से नवीनता के संकेत मिलने लगते हैं। छायावाद से प्रसाद-पंत-निराला-महादेवी ने काव्यभाषा की विशिष्टता की पहचान करायी, जहाँ काव्यभाषा में लाक्षणिकता, सांकेतिकता, प्रतीक विधान पर बल था। फिर प्रगतिवादी काव्यभाषा में जनपदीय बोलचाल की भाषा काव्यभाषा बनी जो यथार्थ को सीधे सम्प्रेषित करने के लिए प्रयत्नशील. थी। प्रयोगवाद में भाषा की नयी खोज, वस्तु और भाषा में नये संबंध पर बल देने का आग्रह दिखाई पड़ा।

यहाँ अज्ञेय-काव्य के एक प्रमुख आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी के इस कथन पर ध्यान दें – ‘प्रयोगवाद में अज्ञेय के माध्यम से काव्यभाषा का पुनर्सजन आरंभ होता है। भाषा का अधिक से अधिक सतर्क और सर्जनात्मक प्रयोग करके ही अज्ञेय ने अपनी रचना को इतना निखारा है। भाषा जितनी सर्जनात्मक होगी कलाकृति उतनी ही विशुद्ध और प्रामाणिक होगी।” (भाषा और संवेदना, रामस्वरूप चतुर्वेदी/तीसरा संस्करण/पृष्ठ 16) यहाँ आपके मन में कुछ प्रश्न उठ सकते हैं। प्रयोगवाद के सभी कवि क्या अज्ञेय की काव्यभाषा के संस्कारित मार्ग पर ही चल रहे थे या उनमें विविधताएँ भी थीं। ‘तारसप्तक’ में मुक्तिबोध की काव्यभाषा अज्ञेय जैसी. थी या भिन्न थी? ‘दूसरा सप्तक’ में शमशेर की काव्यभाषा अज्ञेय जैसी थी या भिन्न थी ? रघुवीर सहाय की काव्यभाषा अज्ञेय जैसी थी या भिन्न थी? आप इसके परीक्षण में लगेंगे. तो भिन्नता स्पष्ट दिखाई देगी। प्रयोगवाद से नयी कविता की भाषा-प्रकृति भी भिन्न है – रघुवीर सहाय इसी को प्रमाणित करते हैं। यह बात उदाहरणों से भी आप समझ सकेंगे।

आपकी इकाई 20 में पढ़ी हुई कविता है ‘दूर्वाचल’ – अज्ञेय की एक तरह की प्रेम कविता : शुरू की पंक्तियाँ हैं : (ज़रूरी है कि आप भाषा पर ध्यान दें)

पार्श्वगिरि का नम्र, चीड़ों में

डगर चढ़ती उमंगों-सी।

बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।

विहग-शिशु मौन नीड़ों में ।

मैंने आँख भर देखा।

दिया मन को दिलासा – पुनः आऊँगा।

(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद)

‘दूसरा सप्तक’ में रघुवीर सहाय की कविता है : ‘भला’। उसका आरंभिक अंश देखें :

मैं कभी-कभी कमरे के कोने में जाकर

एकांत जहाँ पर होता है,

चुपके से एक पुराना कागज़ पढ़ता हूँ,

मेरे जीवन का विवरण उसमें लिखा हुआ,

वह एक पुराना प्रेम-पत्र है जो लिखकर

भेजा ही नहीं गया, जिसका पाने वाला

काफी दिन बीते गुज़र चुका

यहाँ रूप और भाषा की भिन्नता देखें। अज्ञेय के उदाहरण में प्रतीकात्मकता का-सा कसाव या संगठन है। रघुवीर सहाय में बोलचाल की भाषा की सादगी और बेपरवाह शिथिलता या ढीलापन। शब्द अज्ञेय के यहाँ भी ‘दर्द’ और ‘दिलासा’ जैसे हैं पर समूची भाषायी प्रकृति भिन्न है। कविता अलग-अलग तरह का प्रभाव बनाती है। रामस्वरूप चतुर्वेदी जिस शुद्धता पर बल देते हैं उसकी चिन्ता रघुवीर सहाय को नहीं है। यह संकेत है कि प्रयोगवाद से नयी कविता तक काव्यभाषा और शिल्प के प्रति दृष्टिकोण काफी बदल जाता है।

प्रयोगवाद और नयी कविता के संदर्भ में संप्रेषण की समस्या और काव्यभाषा

संप्रेषण की दृष्टि से प्रयोगवाद – नयी कविता वाले दौर में काव्यभाषा के क्षेत्र में जो समस्याएँ उपस्थित होती हैं उन्हें इस प्रकार देख सकते हैं – बोलचाल की भाषा, सृजनात्मक गद्य की भाषा, कविता की भाषा| लम्बे समय से माना जाता रहा है कि एक होती है कविता की भाषा और दूसरी गद्य की भाषा| प्रयोगवाद – नयी कविता ने यह भेद मिटा दिया। अज्ञेय भी बोलचाल की भाषा का पक्ष लेते हैं और कविता में ऐसा प्रयोग भी करते हैं :

मेरा भावयंत्र?

एक मचिया है सूखी घास-फूस की

उसमें छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान –

(आज तुम शब्द न दो)

बंधी लीक पर रेलें लादे माल

चिहुँकती और रंभाती अफराये डाँगर-सी

ठिलती चलती जाती हैं।

(औद्योगिक बस्ती)

पर ऐसे उदाहरण अज्ञेय के यहाँ अधिक नहीं हैं। संभव है प्रगतिवाद के दबाव से ही इस तरह का भाषा आग्रह अज्ञेय में कभी स्थान पा सका हो। मूलतः उनका उद्देश्य काव्यभाषा की सर्जनात्मकता को अर्जित और समृद्ध करना ही रहा है। जहाँ प्रयोगवाद – नयी कविता के कवि छायावादी काव्यभाषा को तोड़ रहे थे, वहीं बोलचाल की भाषा को काव्यभाषा का आदर्श मानकर संतुष्ट न थे। वे काव्यभाषा में नयी भंगिमायें विकसित करना चाहते थे।

आपका ध्यान यहाँ इस बात की ओर जाना चाहिए कि प्रयोगवाद का विद्रोह जड़ हो चुके उपमान प्रतीकों के प्रति था जिनमें नयी अभिव्यक्ति असंभव थी। आपकी पढ़ी हुई कविता है ‘कलगी बाजरे की’ – जो प्रयोगवाद की बदली हुई काव्यदृष्टि का घोषणापत्र है। इसमें कवि पुरानी काव्य-भाषा की रूढ़ियों को चुनौती देता है और नये अप्रस्तुतों, नये प्रतीकों का औचित्य सिद्ध करता है – कवि अपनी प्रेमिका को ‘बाजरे की कलगी’ कहता है और ‘सांध्य नभ की तारिका’ नहीं कहता। ‘शरद के भोर की नीहार न्हाई कुंई’ नहीं कहता। ‘टटकी कली चम्पे की’ नहीं कहता। ‘वगैरह-वगैरह’ कहकर वह ऐसे तथाकथित कविजनोचित उपमानों को खारिज करता है और इस नतीजे पर आता है :

ये उपमान मैले हो गये हैं।

देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।

कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।

नये सम्प्रेषण के लिए नयी काव्यभाषा के औचित्य की इस व्याख्या को ध्यान में रखें।

प्रयोगवाद : रूपगत प्रयोग की समस्या

रूप या फार्म की समस्या पर विचार करते हुए पहले तो यह जान लें कि काव्यभाषा की समस्या भी एक अर्थ में काव्यशिल्प की समस्या है, रूप की समस्या है। अज्ञेय छंद को काव्यभाषा की आँख कहते हैं। रामविलास शर्मा मानते हैं कि काव्यभाषा की जो भी समस्याएँ हैं शिल्प की भी समस्याएँ हैं। प्रगीतात्मक कविता की भाषा और लम्बी कविता की नाटकीय भाषा में अन्तर होगा ही। दूसरी ओर ‘असाध्यवीणा’ जैसी लम्बी नाटकीय कविता में प्रगीतात्मकता का स्पर्श बना रह सकता है| सानेट अपना विन्यास भाषा के भीतर ही संभव करता है। इसे उदाहरणों से समझें। अज्ञेय की ही कविता है ‘कतकी पूनो’ : शुरू की पंक्तियाँ हैं :

छिटक रही है चाँदनी

मदमाती, उन्मादिनी,

कलगी-मौर सजाव ले

कास हुए हैं बावले,

पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गयी फलाँगती –

सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती।

इस गीत के छंद, गीत, प्रवाह पर ध्यान दें। जैसे एक झूमता हुआ-सा गतिमय प्रकृति-दृश्य। और हरी घास पर क्षण भर कविता का यह ठहरा-ठहरा-सा गद्यविन्यास। इसी आधार पर कहा जाता है कि गद्य ने कविता को कहीं मुक्त किया है। अनेक रूपात्मक काव्य संभावनाओं के लिए जगह बनायी है। यहाँ आप मुद्रण चिह्नों का भाषा होना भी देख सकते हैं और गद्य में कविता के शिल्प का रचाव भी देख सकते हैं :

चलो, उठें अब;

अब तक हम थे बंधु

सैर को आये –

(देखे हैं क्या कभी घास पर लोट-पोट होते सतभैये शोर मचाते?)

और रहे बैठे तो

लोग कहेंगे

धुंधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं

वह हम हों भी

तो यह हरी घास ही जाने!

(हरी घास पर क्षण भर)

अब अज्ञेय की दृष्टि से रूप को देखें। उनके अनुसार ‘छन्द के द्वारा हम साधारण बोलचाल के गद्य की लय को नियमित करते हैं।’ – यहाँ ‘छन्द स्वरों को स्पष्टतर करता है, भाषा की गति को धीमा करता है।’ (भवन्ती, पृ.27) आप इस दृष्टि से नये ढंग के काव्यप्रयोगों की रूपगत विशिष्टता को देखें। प्रयोगवादी कवियों ने रूपगत प्रयोगों के क्षेत्र में अंग्रेज़ी की आधुनिक कविता से कम नहीं सीखा है। शमशेर ने फ्री असोसियेशन टेक्नीक (मुक्त साहचर्य शिल्प) के अपने प्रयोगों के संदर्भ में यह स्वीकार किया है, दूसरी ललित कलाओं से भी सीखा है। गिरिजाकुमार माथुर ने टेकनीक पर बल देना सहज ही स्वीकार किया है।

नयी कविता : यथार्थ दृष्टि : काव्यभाषा और काव्यशिल्प

प्रयोगवाद से आगे नयी कविता वाले दौर में रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, केदारनाथ सिंह भी लिखते रहे, अज्ञेय भी। इस दौर में मूल्यगत संक्रमण सबसे बड़ी समस्या रही है। युग के यथार्थबोध ने काव्यात्मक, अकाव्यात्मक का भेद मिटा दिया। अज्ञेय विराट’सागर’ का यथार्थ थे। भाषाशिल्प की चुनौती सुलझाने के लिए काव्यगत प्रयोगशीलता का क्षेत्र विस्तृत करना पड़ा। हम केवल दो उदाहरण आमने-सामने रखकर नयी कविता वाले दौर के अज्ञेय की दो काव्यभंगिमाएँ देख सकते हैं। एक ओर क्षुब्ध जीवन-चित्र ऐसा सपाट साधारण :

चाबुक खाये

भागा जाता

सागर तीरे

मुँह लटकाये

मानो धरे लकीर

जमे खारे झागों की

रिरियाता कुत्ता यह

पूछ लड़खड़ाती टागों के बीच दबाये।

(‘जीवन’, कितनी नावों में कततनी बार )

दूसरा चित्र यह : एक काव्यात्मक ‘उलाहना’ – (यहाँ प्रतीकात्मकता केवल छंद नहीं, भाषागत विन्यास को प्रभावित करती है) :

नहीं, नहीं, नहीं।

मैंने तुम्हें आखों की ओट किया ।

पर क्या भुलाने को?

मैंने अपने दर्द को सहलाया

पर क्या उसे सुलाने को?

मेरा हर मर्माहित उलाहना

साक्षी हुआ कि मैंने अंत तक तुम्हें पुकारा

ओ मेरे प्यार। मैंने तुम्हें बास्बार, बार-बार असीसा

तो यों नहीं कि मैंने विछोह को कभी भी स्वीकारा।

नहीं, नहीं, नहीं।

(‘उलाहना’, कितनी नावों में कितनी बार)

यह भेद हमें करना चाहिए कि कहाँ अज्ञेय सफल हैं, कहाँ असफल। कहाँ उनकी प्रयोगशीलता कविता की ताकत बनती है, कहाँ कमज़ोरी। यह नहीं कहा जा सकता कि स्वयं कवि अपनी भाषा प्रयोग विधि से पूरी तरह संतुष्ट रहा हो। असंतोष इसी अर्थ में महत्वपूर्ण है कि कविता में किसी नयी उपलब्धि के लिए कवि को व्यग्र बनाता है।

अज्ञेय की काव्यभाषा

अज्ञेय के संबंध में यह याद रखना ज़रूरी है कि उन्होंने अपनी काव्यभाषा विकसित करने के लिए बहुत लम्बा संघर्ष किया है। ‘भग्नदूत’ और ‘चिन्ता’ की कविताएँ काव्यभाषा की दृष्टि से अत्यंत साधारण हैं। छायावादी भावुकता का बहुत सतही रूप उनकी सीमा है पर आगे का कृतित्व क्रमशः अज्ञेय की सर्जनात्मक क्षमता को भाषा और संवेदना दोनों दृष्टियों से समृद्ध करता है। ‘तारसप्तक’ के दूसरे संस्करण में अज्ञेय की इस स्थापना पर ध्यान दें : ‘काव्य सबसे पहले शब्द है। और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है।……. ध्वनि, लय, छंद आदि के सभी प्रश्न इसी में से निकलते हैं और इसी में विलय होते हैं। इससे आप समझ सकते हैं कि अज्ञेय के लिए काव्यभाषा कविकर्म का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। काव्यभाषा की सर्जनात्मक विशिष्टता ‘असाध्यवीणा’ में सबसे अधिक प्रकट है। पिछली इकाई में इस कविता पर हुई चर्चा को ध्यान में रखें। याद करें, प्रियंवद के साधे जाने पर वीणा जब झंकृत होती है तो उससे जो संगीत रचा जाता है, उसका प्रभाव कैसा है :

डूब गए सब एक साथ

सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे

काव्यभाषा यहाँ गहन सर्जनात्मक अनुभव बनती है। शब्द तो शब्द है, यहाँ तो अज्ञेय से ही शब्द लेकर कहें – ‘मौन भी अभिव्यंजना’ है।

काव्य बिंब

काव्यभाषा को संगठित करने वाले उपादान के रूप में बिम्ब महत्वपूर्ण है। एक बार यह समझ लें कि बिंब इमेज शब्द के अर्थ में क्रमश: विकास हुआ है। छायावादी काव्यबिंबों से अज्ञेय के काव्यबिंबों का अन्तर समझना चाहेंगे तो हिन्दी कविता में बिम्बविधान के एक अध्येता कवि केदारनाथ सिंह का यह कथन सहायक होगा। वे कहते हैं – “सामान्यत: बिंब शब्द का प्रयोग मूर्तिमत्ता अथवा चित्रात्मकता के अर्थ में किया जाता है। परन्तु आज की समीक्षा में उसका चित्रात्मकता वाला अर्थ गौण हो गया है और वह उन समस्त काव्यगत विशेषताओं का बोधक बन गया है जो पाठक को ऐन्द्रिय चेतना के किसी भी स्तर पर प्रभावित करती हैं। (आधुनिक हिन्दी कविता में बिंबविधान/पहला संस्करण/पृ.2)

अब हम अज्ञेय के संवेदनात्मक बिंब, यथार्थ बिंब, स्मृति-बिंब, संश्लिष्ट तथा विखंडित बिंब का सौन्दर्य ठीक-ठीक समझ सकते हैं। अज्ञेय के बिंबविधान में वर्ण्यस्थिति और उसके बिंब को घुले-मिले सम्पृक्त रूप में देखते हैं – जैसे पहाड़ी यात्रा का यह बिंब :

मेरे घोड़े की टाप

चौखटा जड़ती जाती है

आगे के नदी-व्योम, घाटी-पर्वत के आसपास:

मैं एक चित्र में

लिखा गया-सा आगे बढ़ता जाता हूँ

संक्षिप्तता में यह समग्र बिंब भी सहज ही ध्यान में आ सकता है :

मेरे छोटे घर-कुटीर का दिया

तुम्हारे मन्दिर के विस्तृत आँगन में

सहमा-सा रख दिया गया।

(दूज का चाँद’ । ‘आँगन के पार द्वार’ से)

इससे भिन्न मुक्त साहचर्य पद्धति के खंडित स्मृति-बिंब की दृष्टि से उल्लेखनीय उदाहरण है अज्ञेय की कविता : ‘हरी घास पर क्षण भर’ :

क्षण भर अनायास

हम याद करें

चीड़ों का वन, साथ-साथ दुलकी चलते दो घोड़े,

गीली हवा नदी की, फूले नथुने,

भर्रायी सीटी स्टीमर की,

खण्डहर,

ग्रथित अंगुलियाँ,

डाकिये के पैरों की चाप….

आप यहाँ स्मृतिबिंब के बिखरे मुक्त संयोजन को देखें। जैसे स्मृति के अवचेतन में कोई एक रील चल रही हो।

काव्य प्रतीक

बिंब प्रतीक के संबंध को शुरू में ही समझ लें। प्रत्येक प्रतीक मूल रूप में बिंब ही होता है। तब उसमें अनेकार्थता संभव होती है। क्रमशः विकसित होते-होते वही प्रतीक के रूप में जाना जाता है और प्रायः एकार्थक लगने लगता है। बिम्ब अधिकतर उपचेतन मन की सृष्टि होता है, प्रतीक चेतन मन की। प्रतीक परम्परा के निकट जाकर समाज का जाना पहचाना विचार बन जाता है। काव्यगत प्रतीक मूर्त अमूर्त दोनों प्रकार का हो सकता है।

अज्ञेय की कविता ‘नदी के द्वीप” में “द्वीप” वैयक्तिकता का प्रतीक है, “धारा’ सामाजिकता का, सामाजिक प्रवाह का। “बावरा अहेरी’ कविता में आप सहज जान लेंगे कि “अहेरी” सूर्य का प्रतीक है :

भोर का बावरा अहेरी

पहले बिछाता है आलोक की

लाल लाल कनियाँ

पर जब खींचता है जाल को

बांध लेता है सभी को सांथ:

छोटी-छोटी चिड़ियाँ

मंझोले परेवे बड़े-बड़े पंखी….

कवि प्रतीकार्थ को यहाँ तक ले जाता है : कि वही ‘मन विवर’ में दुबकी “कलौंस” को दूर करने वाला है, भेदने वाला है। अहेरी या शिकारी है आखिर :

एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस

को दुबकी ही छोड़कर क्या तू चला जाएगा?

मिथकीयता और काव्यभाषा

मिथक को हम पुराणकथा या पौराणिक कल्पना से सम्बद्ध करते हैं। मिथक को भाषा का पूरक कहा गया है। अज्ञेय नमनीयता को उसका खास गुण मानते हैं। मिथकीयता वह भाषा-प्रक्रिया है जिसमें ‘काल’ का अनुभव “दिक्” और “दिक” का अनुभव “काल” में बदलता है। मिथकीय बिंब, मिथकीय प्रतीक इस प्रकार की कोटियाँ (categories) भी बनी हुई हैं। “चक्रव्यूह’ एक मिथकीय प्रतीक कहा जा सकता है। “असाध्यवीणा” कविता में “केशकम्बली’, “वज्रकीर्ति”, ”किरिटी तरू’, ‘वासुकि नाग” आदि के संदर्भ मिथकीय काव्यभाषा के लिए उपयुक्त संरचना निर्मित करते हैं :

केशकम्बली गुफागेह ने खोला कम्बल।

धरती पर चुपचाप बिछाया

वीणा उस पर रख, पलक मूंदकर, प्राण खींच,

करके प्रणाम

अस्पर्श छुअन से छुए तार ।

X   X    X       X

जड़ उसकी जा पहुंची थी पाताल लोक

उसकी गंध प्रवण शीतलता से फण टिका नागवासुकि सोता था

नया सादृश्यविधान और अन्य विशेषताएँ

अज्ञेय की कविता में नया सादृश्यविधान काव्यभाषा को सर्जनात्मक वैशिष्ट्य देता है। आपने देखा है कि अज्ञेय “कलगी बाजरे की’ कविता में घिसे-पिटे परम्परागत उपमानों की हँसी उड़ाते हैं और उन्होंने इसी तर्क में नये अनगढ़ अकाव्यात्मक उपमानों की काव्यगत सार्थकता भी स्पष्ट की है। अज्ञेय की “नखशिख” कविता में पैटर्न रीतिकालीन नखशिखः जैसा ही है, पर प्रयुक्त उपमा नयी है और प्रभाव भी नया है :

तुम्हारी देह

मुझको कनक-चम्पे की कली है

दूर से ही

स्मरण में भी गंध देती है,

सादृश्यविधान की नवीनता की दृष्टि से याद कर सकते हैं अपनी पढ़ी हुई कविता “दूर्वाचल” :

पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में

डगर चढ़ती उमंगों सी।

बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।

कह सकते हैं कि अज्ञेय की काव्यभाषा की सृजनात्मकता का रहस्य किसी एक युक्ति (device) में नहीं, बल्कि भाषा की समूची विधि में निहित है जिसमें सादृश्यविधान या अलंकार विधान, बिंब प्रतीक मिथक के संयोजन की संश्लिष्टता है।

काव्यशिल्प

अज्ञेय काव्यशिल्प की सिद्धि के कवि हैं। सतर्क, सजग, दक्ष। बल प्राय: शब्द के मितव्यय और परिष्कार पर। इससे कवि की शक्ति और सीमा का एक-साथ पता चल जाता है। उनके वाक्यविन्यास पर अंग्रेज़ी का प्रभाव भी है। तत्सम तद्भव शब्द-प्रयोग से भाषा में कुछ ऐसा भी कर दिखाना है कि परिष्कार ही परिष्कार न दिखे। कहा गया है कि अज्ञेय में ध्वनि, शब्द, अर्थछाया, वाक्यखण्ड सबमें अंग्रेज़ी का संवेदनात्मक सूक्ष्म उपयोग देखा जा सकता है। अज्ञेय छोटी कविता लम्बी कविता में भेद नहीं करते। नहीं मानते, कि इस भेद से शिल्प की समस्या प्रभावित होती है। कई बार चुस्त सुगठित शिल्प की तुलना में उनके हल्के-फुल्केपन का अच्छा असर पड़ता है। शिल्प में कौतुकविनोद की छूट वे लेते हैं। वक्तव्य की शैली को लेकर अज्ञेय ने “चौथा सप्तक’ की भूमिका में आपत्ति व्यक्त की है। उनका यह कथन ध्यान में रखें – “आज की कविता बहुत बोलती है, जबकि कविता का काम बोलना है ही नहीं।” अज्ञेय की । कविता में शैली का एक-सा प्रयोग नहीं है पर यह भी नहीं कि हर शैलीगत प्रयोग पाठकों को रुचे ही। ..

रूप और शिल्प के प्रति दृष्टिकोण

अज्ञेय का काव्य-शिल्प के प्रति क्या दृष्टिकोण है – यह अलग से बहुत प्रकट नहीं है। जहाँ काव्यभाषा या काव्यशब्द के महत्व को लेकर अज्ञेय ने बहुत लिखा है, शिल्प को लेकर उतना नहीं कहा है। वे मानते हैं कि आधुनिक कविता सीधी चेतना को छूना चाहती है, इसलिए निरे शब्दों के निरे अर्थों से आगे जाकर वह ध्वनियों, अंतर्ध्वनियों, स्वरों और अन्तःस्वरों से उलझती है। उनके अनुसार वह एक साथ दो विरोधी दिशाओं में चलती है – एक तरफ छंद के बन्धन को तोड़ती है दूसरी तरफ वह संगीत यानी गेयतत्व को अधिक अपनाना चाहती है।

प्रगीतात्मकता

जैसे हम पहले देख चुके हैं कि अज्ञेय के यहाँ गीत भी हैं, गीत के ढाँचे के बिना भी लय या संगीत का रचाव है और “असाध्यवीणा’ जैसी लम्बी कविताओं में भी प्रगीततत्व का उपयोग है। यहाँ कुछ उदाहरण भर देखें।

अज्ञेय के यहाँ सीधा सरल गीत भी कोई विशिष्टता लिये हुए है। क्या है वही इसे आप स्वयं पहचानें। औसत गीत से क्या भिन्नता है यहाँ?

पूर्णिमा की चाँदनी

सोने नहीं देती।

निशा के उर में बसे आलोक-सी है व्यथा व्यापी –

प्यार में अभिमान की पर कसक ही

रोने नहीं देती।

गीत-टेक जैसी पंक्ति की लघुता और फिर लम्बा वाक्यविधान। इस पर ध्यान दीजिए। दूसरी ओर “असाध्य वीणा’ में निहित प्रगीतात्मकता : अलग-अलग स्थलों में और सम्पूर्ण रचाव में : .

तू उतर बीन के तारों में

अपने से गा

अपने को गा

तू गा तू गा

‘तू सन्निधि पा – तू खो।

लम्बी कविताएँ

“असाध्य वीणा” की चर्चा हम कई दृष्टियों से करते रहे हैं। एक अन्य लम्बी कविता है “ओ नि:संग ममेतर”। ग्यारह खण्डों की यह लम्बी कविता आंतरिक लय, वही अन्तःसंबंध संभाले हुए है, जो “असाध्य वीणा” की विशेषता है। तनाव नहीं। संतुलन। वही प्रगीतात्मकता का-सा रचावः

वर्षा जिसे धोती है, शरद सँजोता है,

अगहन पकाता और फागुन लहराता

और चैत काट, बाँध, रौंद, भरकर ले जाता है –

नैतिक चंक्रमण सारा –

पर दूर क्यों,

मैं ही जो साँस लेता हूँ

जो हवा पीता हूँ –

उसमें हर बार हर बार

अविराम अक्लान्त, अनाप्यायित

तुम्हें जीता हूँ।

अब अज्ञेय की इस सीमा पर ध्यान दें। उनकी लम्बी कविताएँ भी प्रगीतात्मक हैं। एक अमरीकी . . आलोचक आइवर विंटर्स का कहना है – छोटी कविताएँ प्रगीतात्मक होती हैं, लम्बी कविताएँ नाटकीय। अज्ञेय की लम्बी कविताएँ प्रगीतात्मक हैं। यह बहुतों की दृष्टि में अज्ञेय की सीमा है। नामवर सिंह इसे वस्तुत: अज्ञेय के भावबोध की सीमा मानते हैं। उनकी दृष्टि में जहाँ नाटकीयता और तनाव संरचना में है वही लम्बी कविताएँ अधिक सफल कही जा सकती हैं। इस तरह देखें तो प्रसाद की लम्बी कविता “प्रलय की छाया” में तनाव है, “राम की शक्तिपूजा” और “अंधेरे में’ कविताओं में भी नाटकीय तनाव है। इस संबंध में अज्ञेय अपनी कवि-प्रकृति की सीमा बताते हुए सहज स्पष्टीकरण देते हैं – “लम्बी कविताएँ भी होती हैं, हो .. सकती हैं। पर उनको कलात्मक एकता और गठन देने वाली चीज़ फिर दूसरी हो जाती है – भाव की संहति और तीव्रता नहीं। वह ढंग दूसरा है, और कहूँ कि मेरा वह नहीं है।’

नाटकीयता तथा अन्य रूपगत विशेषताएँ

अज्ञेय की कविता में नाटकीयता है तो बहुत सीमित रूप में। वह अधिक से अधिक कथन की भंगिमा है। ‘असाध्यवीणा’ में नाटकीय तनाव की तीव्रता न हो, नाटकीयता तो. है ही। आप दृश्य पर प्रियवंद का आना, उनका संकोच, वीणा को साधना-सँभालना देखते हैं। फिर वीणा की झंकृति। सभा का मौन। वह विलक्षण सन्नाटा। सबका तिरना एक साथ| पार जाना अलग-अलग| कथा की मंद मंथरगति के बावजूद नाटकीयता पूरे संयोजन में है। इसके अतिरिक्त अज्ञेय की अपेक्षाकृत छोटे आकार की कविताओं में आत्मकथन या सम्बोधन की भंगिमाएँ नाटकीयता लिये हुए हैं। “बना दे चितेरे’, “उधार’, “चिड़िया ने ही कहा” में ये भंगिमाएँ एक साथ भाषा की, रूप की विशिष्टता सूचित करती हैं। आप इनके कुछ उदाहरण देखें :

बना दे चितेरे,

मेरे लिए एक चित्र बना दे।

पहले सागर आँक :

हाँ पहले आँक :

सागर आँक कर फिर आँक उछली हुई मछली :

उपर अधर में

जहाँ ऊपर भी अगाध नीलिमा है

उछली हुई मछली

जिसकी मरोड़ी हुई देहवल्ली में

उसकी जिजीविषा की उत्कट आतुरता मुखर है।

(‘बना दे चितेरे’ से)

सबेरे उठा तो धूप खिलकर छा गयी थी

और एक चिड़िया अभी-अभी गा गयी थी।

मैंने धूप से कहा : मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार?

चिड़िया से कहा : थोड़ी मिठास उधार दोगी?

मैंने घास की पत्ती से पूछा . तनिक हरियाली दोगी –

तिनके की नोक-भर?

(”उधार’ से) मैंने कहा

कि “चिड़िया” :

मैं देखता रहा –

चिड़िया चिड़िया ही रही।

फिर जाने कब –

मैंने देखा नहीं :

भूल गया था मैं क्षण भर को तकना।

(‘चिड़िया ने ही कहा’)

उदाहरण क में गति और स्थिरता के द्वन्द्व में चित्रात्मकता, ख में कोमल आत्मीय संवाद, ग में विस्मय ये सब प्रयोग अज्ञेय के शिल्पकौशल का आभास देते हैं।

अज्ञेय की हाइकू शैली (जापानी शैली) की कविताएँ अनुवाद-संस्कार से संभव हुई हैं पर वे कवि की सहज प्रकृति का भी परिचय देती हैं – “धूप” इस शैली की एक रचना है :

सूप-सूप भर

धूप – कनक

यह सुने नभ में गयी बिखर :

चौंधाया

बीन रहा है

उसे अकेला एक कुरर

इन उदाहरणों से आप अज्ञेय के काव्यशिल्प की विशेषताओं के बारे में एक स्पष्ट धारणा बना सकेंगे।

प्रमुख कविताएँ : काव्यभाषा और काव्यशिल्प की दृष्टि से मूल्यांकन

यहाँ हम कुछ अन्य काओं को समझने का प्रयत्न अल्पचर्चित कवि

यहाँ हम कुछ अन्य कविताओं के आधार पर एक बार फिर अज्ञेय की काव्यभाषा और . काव्यशिल्प की विशेषताओं को समझने का प्रयत्न कर सकते हैं। अज्ञेय की लम्बी यात्रा से कुछ कविताओं को चुन पाना कठिन है। कभी-कभी अल्पचर्चित कविताएँ अज्ञेय की काव्यभाषा और शिल्प की विशेषता से अधिक परिचित कराती हैं।

अज्ञेय की काव्यभाषा में जो निखार आया है वह स्वीकृत परिपाटी से हटने के कारण। कभी तत्सम शब्दों के बीच ठेठ देशज शब्दों को रखकर अज्ञेय एक नयी विशेषता पैदा करते हैं।

अज्ञेय के आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी मानते हैं कि अज्ञेय के लिए भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, अपने से एक नया साक्षात्कार है। नयी काव्यभाषा के कारण हम यथार्थ को अधिक नये रूप में जानने लगते हैं।

अज्ञेय की कुछ छोटी कविताएँ : संक्षिप्तता और संगठन

हमने पहले भी “दूर्वाचल” जैसी छोटी कविता के संगठन पर विचार किया है। हम आपके अपने आस्वाद विश्लेषण के अभ्यास के लिए दो छोटी कविताएँ यहाँ पुनः दे रहे हैं :

ओ एक ही कली की

मेरे साथ प्रारब्ध-सी लिपटी हुई

दूसरी, चम्पई पंखुड़ी।

हमारे खिलते-न-खिलते सुगंध तो

हमारे बीच में से होती

उड़ जाएगी।

चुप-चाप चुप-चाप

झरने का स्वर

हममें भर जाय, चुप-चाप

चुप-चाप शरद की चाँदनी

– झील की लहरों पर तिर आय,

चुप-चाप चुप-चाप

जीवन का रहस्य

जो कहा न जाय, हमारी

ठहरी आँखों में गहराय,

चुप-चाप चुप-चाप

हम पुलकित विराट में डूबें

पर विराट हम में मिल जाय –

चुप-चाप चुप-चाप।

पहली कविता क प्रणय की अनुभूति की कविता है। राग संबंध की प्रगाढ़ता का बिंब है। “प्रारब्ध” संकेत है कि संबंध क्षण भर का नहीं, जीवनपर्यन्त बना रहने वाला है। “दूसरी, चंपई पंखड़ी’ कली से अभिन्न है। सौन्दर्य कोमलता में अद्वितीय। पर भूलना कठिन है कि खिलते-नखिलते गंध तो शेष नहीं रह जाएगी। होने में, संयुक्त होने में क्षति का अहसास। दूसरी कविता ख में प्रकृति से और प्रकृति में व्याप्त विराट सत्ता में घुल-मिल जाने का चित्र है। भाषा भंगिमा की दृष्टि से इन प्रयोगों पर ध्यान दें – ‘भर जाय’/तिर जाय/गहराय/- और अंत में “चुप-चाप चुप-चाप”। पाठ की विशिष्टता। वाचिक का काव्यगुण | मुद्रणचिह्न से ही इस गुण को पहचान पा रहे हैं – पर ध्वनि ऐसी, कि बोलकर ही इसका वैशिष्ट्य जानेंगे।

हल्की-फुल्की, व्यंग्य-कविताएँ : रूप तथा भाषायी संगठन

अज्ञेय में अभिजात्य की गरिमा सब स्वीकार करते हैं। इस ओर कम ही ध्यान जाता है कि अज्ञेय ने व्यंग्यविनोद की हल्की-फुल्की कविताएँ भी लिखी हैं। इनमें कवि की यथार्थ के प्रति तीखी प्रतिक्रिया भी देख सकते हैं। एक कवि के समग्र अध्ययन में भाषा की इस क्रीड़ावृत्ति पर भी ध्यान जाना चाहिए :

जाट रे जाट

तेरे सिर पर खाट

परजातंतर की

देस रे देस

तेरे सिर पर कोल्हू

इसका भार तू कैसे ढोयेगा

जिसे पेरेंगे जाट बाहम्न बनिया तेली खत्री

आप ही देखें कि यह भाषा यह ढंग अज्ञेय केवल स्वाद बदलने के लिए अपनाते हैं या उनके भीतर ऐसा विक्षोभ भी व्याप्त था जिसे कहना उनकी सहज प्रकृति या शैली के अनुरूप न था।

अंत में एक बार और याद कर लें – “दूसरासप्तक” के सम्पादकीय में अज्ञेय ने लिखा था : ‘लेकिन जैसे-जैसे बाह्य वास्तविकता बदलती है – वैसे-वैसे हमारे उससे रागात्मक संबंध जोड़ने की प्रणालियाँ भी बदलती हैं – और अगर नहीं बदलतीं तो उस बाह्य वास्तविकता से हमारा संबंध टूट जाता है।’ अज्ञेय आत्मबोध के ही कवि नहीं हैं, यथार्थ के नये अनुभवों को जब-तब भाषा में प्रत्यक्ष करने वाले कवि भी हैं।

सारांश

अज्ञेय आधुनिक भावबोध के ऐसे कवि हैं जिन्होंने काव्यभाषा और गव्यशिल्प की दृष्टि से खड़ी बोली की हिन्दी कविता को नयी समृद्धि दी है। उन्होंने छायावादी संस्कारों के प्रभाव से मुक्त होने में वह नयी काव्यभाषा अर्जित की जिससे प्रयोगवाद और आगे नयी कविता की पहचान बनी। रोमांटिक-आधुनिक के बीच, वैयक्तिक-निर्वैयक्तिक के बीच, शब्द और सत्य के बीच अज्ञेय जो द्वन्द्व अनुभव करते हैं उसी से उनकी महत्वपूर्ण कविताएँ दूर्वाचल, नदी के द्वीप, यह द्वीप अकेला, बावरा अहेरी, बना दे चितेरे, असाध्यवीणा संभव हुई हैं। अज्ञेय की आत्मचेतना बिंब, प्रतीक, मिथक, नये सादृश्यविधान के साथ एक विशेष संबंध बनाती है जिससे आदर्श काव्यभाषा और शिल्प का संगठन संभव होता है। काव्यभाषा की नयी खोज कवि के लिए एक नया साक्षात्कार या आत्मसाक्षात्कार है और परम्परागत काव्यभाषा के लिए चुनौती है।

उसके प्रति सार्थक प्रतिरोध है। अज्ञेय की नयी काव्यभाषा आकस्मिक घटना नहीं है। उसके पीछे लंबा संघर्ष है। अज्ञेय अपने परिचित अभ्यस्त मार्ग पर चलकर ही अपना काव्यशिल्प विकसित करते हैं। उनकी छोटी कविताएँ कभी अवधारणात्मक है कभी प्रगीतात्मक। उनकी लम्बी कविताएँ नाटकीय भी हैं और प्रगीतात्मक भी। उनमें नाटकीय तनाव वैसा नहीं है जैसा “राम की शक्तिपूजा’ (निराला) और “अंधेरे में” (मुक्तिबोध) की संरचना में दिखाई देता है। पर “असाध्यवीणा” में नाटकीय तत्व मौजूद हैं। कुछ अन्य लम्बी कविताओं में भी। अज्ञेय की काव्यभाषा और काव्यशिल्प के पीछे एक लम्बा संघर्ष है।

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