सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य

यह इकाई आदिकालीन साहित्य से संबंधित है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य के संबंध में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे;
  • सिद्ध, नाथ और जैन रचनाकारों की धार्मिक अनुभूतियों से अलग आप उनकी साहित्यिक अनुभूतियों से परिचित हो सकेंगे;
  • हिंदी साहित्य के इतिहास के उन विवादों से भी आपका साक्षात्कार होगा जिनके आधार पर सिद्ध नाथ और जैन साहित्य को धार्मिक घोषित किया गया था; और
  • साहित्य के इतिहास के संदर्भ में सिद्ध नाथ और जैन साहित्य की प्रासंगिकता की चर्चा कर सकेंगे:

इस इकाई में हम सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य को विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे।

सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य पर चर्चा करने से पूर्व यह समझने की आवश्यकता है कि किन सामाजिक परिस्थितियों के बीच भारतीय समाज में सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य का विकास । हुआ था। वस्तुतः भारतीय समाज में रूढ़िवादी विचार परंपरा के विरुद्ध समय-समय पर व्यापक लोकजीवन विद्रोह करता रहा है और नये विचारों को प्रस्तावित करता रहा है। जनशक्तियाँ समाज में संगठित होती रही हैं और रूढ़िवादी परंपरा के वर्चस्व को चुनौती देती रही हैं। वास्तव में सिद्ध, नाथ और जैनियों का धार्मिक विद्रोह इसी बात को प्रमाणित करता है। यहाँ एक बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यदि सिद्ध, नाथ और जैन का विद्रोह मात्र धार्मिक होकर रह जाता तब तो साहित्य के इतिहास में उसकी चर्चा की आवश्यकता ही नहीं होती, परंतु इस विद्रोह का प्रसार जीवन और समाज के दूसरे क्षेत्रों में भी दिखाई पड़ता है। सिद्ध, नाथ और जैन साधकों द्वारा लड़े गए वैचारिक संग्राम से साहित्य भी अछूता नहीं रहा है।

साहित्य में जनभाषा की प्रतिष्ठा के लिए सिद्ध, नाथ और जैन रचनाकारों ने व्यापक संघर्ष किया। नाथ-सिद्ध और जैन साधक घोषित रूप में रचनाकार नहीं थे। कवि कर्म उनका पेशा नहीं था। वे तो सामाजिक विषमता के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। इसी प्रक्रिया में वे अपने अनुभव को अभिव्यक्त कर रहे थे। उनके साहित्य में जीवनगत अनुभवों का सजीव चित्रण होने के साथ-साथ धार्मिक विश्वासों का वर्णन भी मिलता है। सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य के संदर्भ में इन महत्वपूर्ण मुद्दों का हम इस इकाई में विश्लेषण करेंगे।

सिद्धों का परिचय

सिद्ध वज्रयानी थे। वज्रयान बौद्ध धर्म की एक शाखा थी। ईसा की आरंभिक सदी में बौद्धधर्म का दो भागों में विभाजन हो गया। ये दो पंथ हीनयान और महायान नाम से प्रसिद्ध हुए। हीनयान ने पारंपरिक रूप में बौद्ध सिद्धांत को अपनाया और महायान ने उसमें कुछ मौलिक परिवर्तन कर अपने पंथ का आधार तैयार किया। महायान में बोधिसत्व के गुणों का मानवीकरण हआ। बोधिसत्व की परिकल्पना देवता और देवियों के समानांतर की गई। महायान संप्रदाय में जटिल कर्मकांड का विकास हुआ जो नवीन ऐन्द्रजालिक रहस्यवाद से संबद्ध था। इस प्रकार महायान में भी एक नवीन संप्रदाय का उदय हुआ। इस नवीन संप्रदाय ने ऐन्द्रजालिक शक्तियों को प्राप्त करना अपना उद्देश्य बनाया। इस शक्ति को वे वज कहते थे, अतएव बौद्ध धर्म के इस नवीन संप्रदाय का नाम वजयान पड़ा। इस संप्रदाय का प्रसार देश के पूर्वी भागों में अधिक था। असम, बिहार, बंगाल और नेपाल, सिद्धों के कार्य क्षेत्र थे। इस संप्रदाय के चौरासी सिद्धों की सूची उपलब्ध है। उसमें आदि सिद्ध सरहपा को स्वीकार किया गया है । यद्यपि विद्वानों में इस पर विवाद है। सिद्धों में सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा और कुकरीपा का नाम प्रमुख है।

वास्तव में, धर्म साधना का विकास बहुत कुछ सामाजिक व्यवस्था पर निर्भर करता है। वज्रयानकालीन समाज विषमताओं से भरा हुआ था। उस समाज में सामंतों का वर्चस्व था । उच्च वर्ग के वेदाध्ययन को ही शिक्षा के रूप में स्वीकार किया जाता था। स्त्री और शूद्र इससे वंचित थे। तांत्रिक साधना में स्त्री और शूद्रों के लिए भी उपासना सुलभ थी, इसलिए तांत्रिक साधना का प्रसार मात्र बौद्ध धर्म तक सीमित नहीं रह गया। उसका प्रसार जैन धर्म और हिंदू धर्म में भी हुआ। तांत्रिक साधना ने समाज में व्यापक जनसमूह के ज्ञान को एक दूसरी परंपरा से जोड़ दिया। यह परंपरा वस्तुतः अनुभव की परंपरा थी, जिसमें पोथी के ज्ञान को अधूरा माना गया था । बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के बीच तांत्रिक साधना के आदान-प्रदान का अनिवार्य परिणाम बौद्ध धर्म के हास के रूप में दिखाई पड़ता है। यह हास की प्रक्रिया वज्रयान के उदय के साथ ही शुरू होती है। तांत्रिक पद्धति ने हिंदू और बौद्ध धर्म के भेद को कम कर दिया । शक्तिपीठ हिंदू और बौद्ध के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण धार्मिक स्थान हो गए। इस प्रकार बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के बीच का अंतर समाप्त होता गया ।

सिद्ध साहित्य

सिद्ध साहित्य से हमारा तात्पर्य वज्रयान परंपरा के उन सिद्धाचार्यों के साहित्य से है, जो अपभ्रंश के दोहे तथा चर्या पद के रूप में उपलब्ध है । वस्तुतः सिद्धों ने अपनी साधना का लक्ष्य ज्ञान को न मानकर अनुभूति को माना है। तंत्र से प्रभावित होकर उन्होंने अपने समस्त ज्ञान, साधना पद्धति, हठयोग को अनुभूति के रंग से रंग दिया। उसके पीछे सिद्धों का उद्देश्य था – बौद्ध धर्म के निवृत्तिमूलक दुःखवादी रूप का निराकरण करके आनंद की भावना की प्रतिष्ठा। आनंद को सिद्धों ने आध्यात्मिक गहनता माना है। इसके लिए जिस शब्दावली का उन्होंने प्रयोग किया है, वह लौकिक अर्थ में प्रणय के घनिष्ठ चित्र हैं।

साहित्य में प्रणय के प्रसंग

सिद्धों ने बौद्ध परंपरा में चली आती हुई निर्वाण भावना का तिरस्कार कर महासुख की अनुभूति को प्रमुखता प्रदान की। बौद्ध धर्म में निर्वाण के तीन अवयव ठहराए गए हैं – शून्य, विज्ञान और महासुख । वज्रयान में महासुख का प्रवर्तन हुआ। वज्रयान में निर्वाण के सुख का स्वरूप ही सहवास सुख के समान बताया गया है, इसलिए सिद्धों के साहित्य में प्रणय के प्रसंग अधिक हैं | हो सकता है, सिद्धों के इस प्रणय का गहन आध्यात्मिक अर्थ हो, लेकिन उन्होंने जिस लौकिक शब्दावली में व्यक्त किया है, वह भी साहित्य के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है। कण्हपा के डोम्बी गीत में डोम्बी के प्रति कपाली का प्रेम निवेदन बहुत ही संवेदनशील है। कण्हपा जब डोम्बी नारी का चित्रण करते हैं तो उसमें लोकजीवन की डोम्बी नारी का यथार्थ चित्र उपस्थित हो जाता है। यह डोम्बी अन्य डोम्बी नारियों की भांति नगर के बाहर कुटिया में रहती है। वह नृत्य में कुशल है। वह नौका पर चढ़कर नदी पार कर नगर के हाट में अपना समान बेचने जाती है। वह तंत्री मालाएँ तथा हाथ की बुनी हुई टोकरियाँ बेचती है।

नगर बाहिरे डोंबी तोहरि कुड़िया छइ ।

छोइ जाइ सो बाह्य नाड़िया।

आलो डोंबि? तोए सम करिब म साँग । निधिण कण्ह कपाली जोई लाग।।

एक्क सो पदमा चौषट्टि पाखुड़ी। तढि चढि नाचअ डोंबी वापुड़ी।।

हालो डोंबी? तो पुछिम सदभावे । अइससि जासि डोंबी कहरि नावे ।।

इसमें ‘कमल चौसठ पाखुड़ी’ के ऊपर डोम्बी के नाचने का आध्यात्मिक अर्थ हो सकता है लेकिन लौकिक अर्थ का सौंदर्य भी इसमें व्याप्त है। कण्हपा बार-बार अपने दोहे में गृहिणी का वर्णन करते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि जैसे नमक पानी में घुल जाता है, उसी प्रकार गृहिणी को अपने चित्त में धारण करो। इस प्रकार कण्हपा गृहस्थ और गृहिणी की अद्वैत अनुभूति का संकेत करते हैं | इसका रहस्यात्मक अर्थ अलग हो सकता है। रहस्यात्मक अर्थ में गृहिणी की प्रज्ञा महामुद्रा है जिसे साधक (गृहस्थ) अपने चित्त में धारण करना चाहता है। इन काव्यों के रहस्यात्मक अर्थ चाहे सिद्धों का अभिप्राय रहे हों लेकिन आज उनकी प्रासंगिकता लौकिक अर्थ के कारण ही होगी।

सिद्ध साहित्य के प्रणय प्रसंगों में लोकजीवन के चित्र जो आए वे बड़े ही मौलिक हैं। उनमें जिस बिंब का प्रयोग हुआ है, वे भी सर्वथा नए हैं । शबरपा एक शबरी बालिका वर्णन करते हैं। इसमें शबरी बालिका का भोला-भाला चित्र है। वह प्रकृति की अबोध बालिका की तरह संसार से दूर ऊँचे पर्वत पर रहती है। वह मोर पंख से शृंगार करती है। वह गुंजमाला से अपने अंगों को सजाती है। घने तरुओं के बीच वज्रकुंडल पहनकर घूमती है। इसमें जिस प्रकार की अबोध बालिका वर्णन है वह शास्त्रीय शब्दावली में मुग्धा नायिका है। इसमें प्रकृति के वर्णन तथा नायिका के वर्णन में एक मासूमियत है। यह मासूमियत शास्त्रीय साहित्य की नायिका के रूप-वर्णन से अलग है। उसमें सामंती साहित्य के नायक-नायिका की तरह उपभोग का वर्णन नहीं है। नायिका को मात्र विलास की वस्तु नहीं समझा गया है। इस वर्णन को पढ़कर ऐसा अनुभव होता है कि सिद्ध रचनाकारों ने उस दलित और पीड़ित वर्ग को अपने साहित्य में स्थान दिया जो समाज में हाशिए पर थे। जिनका वर्णन अभिजात साहित्य में आवश्यक नहीं समझा जाता था। डोम्बी और शबरी का वर्णन कुछ उसी प्रकार का है। समाज के निम्न स्तर पर जी रहे लोगों को सिद्धों ने अपना काव्य-नायक बनाया। यह साहित्य के इतिहास में सिद्धों का क्रांतिकारी योगदान है।

रूढ़िवादी मानसिकता का खंडन

सिद्धों के साहित्य में दूसरी प्रमुख प्रवृत्ति खंडन की प्रवृत्ति है। सरहपा, मिट्टी, पानी और कुश लेकर संकल्प करने वाले, घर में बैठकर अग्नि होम करने वाले, होम के कडुए धुएँ से आँख को कष्ट देने वाले की हँसी उड़ाते हैं । कण्हपा ने भी यही चर्चा अपनी रचना में की है। उनका कथन है :

आगम वेअ पुराणेहिं पंडिअ मान वहन्ति

पक्क सिरीफले अलिअ जिम बाहेरी अभ्यन्ति

अर्थात् पंडित लोग आगम वेद और पुराण पढ़कर मान करते हैं। पर तत्व की बात समझने का प्रयत्न नहीं करते । यह उसी प्रकार का प्रयत्न है जैसे पके बेल के चारों ओर भौंरा चक्कर लगाता रहता है।

सिद्धों की रचनाओं में परंपरागत सामाजिक अनुशासन के प्रति उपेक्षा का भाव है। सिद्धों ने वर्णाश्रम धर्म का विरोध किया और पंडितों के कर्मकांड की जमकर आलोचना की। उस समय का समाज जातिवाद के दुष्चक्र से पीड़ित था। समाज में निम्न श्रेणी के लोगों को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार नहीं था। ऐसी विषम परिस्थिति में सिद्धों ने नये प्रकार के सामाजिक विकल्प को पाने का प्रयत्न किया। उन्होंने सामंती प्रणाली के अभ्यस्त समाज की जगह नये शोषणमुक्त समाज की परिकल्पना की।

सिद्धों का विद्रोह और हिंदी भाषा का विकास

आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि ‘इस प्रकार अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी में रचना होने का पता हमें विक्रम की सातवीं शताब्दी में मिलता है। उस काल की रचना के नमूने बौद्धों की वज्रयान शाखा के सिद्धों की कृतियों के बीच मिलते हैं | आचार्य शुक्ल बौद्धों, सिद्धों की रचनाओं से हिंदी भाषा का प्रारंभ मानते हैं परंतु वे बौद्ध-सिद्धों की रचनाओं को स्वाभाविक साहित्य में स्थान देने के पक्षधर नहीं हैं। उन्होंने साहित्य के इतिहास में दूसरी जगह यह लिखा है कि । “उनकी रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं से कोई संबंध नहीं । वे सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं। उन रचनाओं की परंपरा को हम काव्य या साहित्य की कोई धारा नहीं कह सकते।’ आचार्य शुक्ल के इन दोनों वक्तव्यों में अंतर्विरोध है। वे साहित्य को भाषा और अनुभूति की दो अलग-अलग श्रेणियों में बाँटकर देखना चाहते हैं। उन्हें हिंदी भाषा का विकास तो सिद्धों की रचनाओं से मिलता दिखाई देता है, लेकिन अनुभूति के धरातल पर सिद्धों से उनका विरोध हो जाता है।

वस्तुतः सिद्धों का विद्रोही तेवर ही समाज में जहाँ पांडित्य परंपरा पर चोट करता है वहीं भाषा में भी पांडित्य परंपरा पर प्रहार करता है। सिद्धों की विद्रोही अनुभूति को अपभ्रंश की रूढ़ होती हुई भाषा में नहीं रचा जा सकता था, इसलिए सिद्धों के लिए एक नई भाषा की तलाश अनिवार्य हो गई थी। सिद्धों का प्रोटेस्ट भाषा और समाज दोनों धरातल पर एक विकल्प की रचना करता है। सिद्धों के प्रतिरोध को पहचानने के बाद उनकी अनुभूति और भाषा का स्तर अलग-अलग दिखाई नहीं पड़ता अपितु उनकी अखंड चेतना का ही एक प्रतिरूप जान पड़ता है। कुछ उसी प्रकार जैसे सिद्धों के काव्य में कई स्थल ऐसे आते हैं जहाँ सिद्ध भाव साधना में गाते-गाते नीति का उपदेश करने लगते हैं और नीति का उपदेश देते-देते भाव विभोर हो जाते हैं।

सिद्धों के साहित्य में अभिव्यंजना

सिद्धों की काव्यानुभूति को समझने के बाद उनकी भाषा को भी समझना अनिवार्य होगा। सिद्धों ने अपनी दार्शनिक अनुभूति को अभिव्यंजित करने के लिए प्रतीक भाषा का प्रयोग किया है। उस प्रतीक विशेष को समझे बिना हम उनकी दार्शनिक अनुभूति को समझ ही नहीं सकते । इस भाषा को पं. महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने संधा भाषा कहा है। इस भाषा की शैली धूप-छांव की शैली है। इस भाषा में शब्द के बाहरी अर्थ और आंतरिक अर्थ अलग-अलग हैं। शब्दों की इसी द्वयार्थक प्रकृति का परिचय संधा भाषा में मिलता है । वस्तुतः संधा भाषा संश्लिष्ट अनुभूति की भाषा थी। जिसमें शब्दों का एक अर्थ लोकानुभव से संबद्ध है तो दूसरा अर्थ दार्शनिक अनुभूतियों की व्यंजना करता है। इसमें लौकिक अर्थ कभी-कभी लोकविरुद्ध भी होते थे। इसे सामान्यतया उलटबाँसी के रूप में समझा जाता है। एक उदाहरण लेते हैं : तंतिपा कहते हैं

बेंग संसार बाड़हिल जाअ। दुहिल दूध के बेटे समाअ ।

बलद बिआएल गविआ बाँझे। पिटा दुहए एतिना सोंझे ।

जो सो बुज्झी सो धनि बुधी । जो सो चोर सोइ साधी ।

निते निते पिआला षिहे षप जूझअ । ढंढपाएर गीत बिरले बुझअ ।

इस पद में शब्द से जो सामान्य अर्थ निकलते हैं, वे प्राकृतिक रूप में लोकजीवन में संभव नहीं हैं। इसमें एक प्रकार का चमत्कार है। सीधा अर्थ यह है कि मेंढक साँप से नहीं डरता है, दुहा हुआ दूध गाय के स्तन में समा जाता है। बैल बछड़े का प्रसव करता है, वह गाय बाँझ हो जाती है जिसे तीनों साँझ दुहा जाता है। जो चोर है वही कोतवाल भी। ये सभी बातें प्राकृतिक रूप से लोक जीवन में घटित नहीं होतीं। इस पद में एक प्रकार का विस्मय है। इसमें से कुछ प्रतीकों का दार्शनिक अर्थ इस प्रकार से किया जा सकता है – दुहा हुआ दुग्ध अर्थात मूलाधार में स्थित बोधित्व पुनः स्तनों में अर्थात् महासुख चक्र में समा जाता है। बलद अर्थात् समवृत चित्त संसार का प्रसव करता है और नैरात्यमय हो जाने पर गाय बाँझ हो जाती है।

इस दार्शनिक उक्ति से अलग इस पद में एक व्यंग्योक्ति भी है जिसका घनिष्ठ अर्थ अंततः लोकजीवन से ही जुड़ता है। इस पद में तीन-चार प्रतीक दिए गए हैं जैसे मेंढक साँप से नहीं डरता है, और शृगाल सिंह को चुनौती देता है। इस पद का मूल अर्थ कहीं न कहीं सामाजिक जीवन में वर्चस्व के खिलाफ़ ही है। सामाजिक जीवन में जो पीड़ित और शोषित मनुष्य हैं, वे तथाकथित मुख्यधारा के विरोध में खड़े होते हैं। इस उलटबाँसी में व्यवस्था के प्रतिरोध को पहचाना जा सकता है।

यह सत्य है कि सिद्धों के साहित्य में दार्शनिक अनुभूति और साधनापरक रहस्यवाद की उक्तियाँ भरी पड़ी हैं। योग क्रिया के जटिल विधान का कर्मकांड भी उसमें प्रचुरता से मिलता है, लेकिन उसमें मानवीय अनुभूतियों की स्वाभाविक दशाओं का वर्णन भी मिलता है। सिद्ध साहित्य के बिंब निम्न और दलित जातियों के जीवन व्यापार से जुड़े हुए हैं। सिद्धों ने प्रबंध काव्य और खंडकाव्य के स्थान पर गीति और मुक्तक काव्य में रचना की है। चर्यापद और वजगीत गीतिकाव्य के उदाहरण हैं तथा दोहे और अर्द्धालियाँ मुक्तक के उदाहरण हैं दोहे में सिद्धों ने नीति के वचन तथा दार्शनिक खंडन मंडन को प्रस्तुत किया है। सिद्धों ने भाषा में अपभ्रंश के साहित्यिक वर्चस्व के स्थान पर देशभाषा को अपनी रचना का आधार बनाया। साहित्य के हर क्षेत्र में चाहे वह भाषा हो, बिंब हो, अनुभूति हो, सिद्धों का योगदान एकदम मौलिक है। साहित्य में उन्होंने नये सौंदर्यबोध को प्रस्तावित किया है।

नाथ परंपरा

नाथ पंथ के साधकों ने अपने को योगी कहकर संबोधित किया है। योगी के विषय में एक कहावत है ‘रमता जोगी बहता पानी। मतलब यह कि इनकी दिशा क्या होगी इसका कुछ भी ठिकाना नहीं है। नाथ पंथ के साहित्य के संबंध में इसी उक्ति को प्रस्तावित किया जा सकता। है। नाथ पंथी साहित्य प्रामाणिकता की दृष्टि से संदिग्ध है। नाथ पंथ का उद्भव किस प्रकार से हुआ इस पर विद्वानों में मतभेद है। नाथ पंथ के संबंध में यहाँ इतना ही समझना चाहिए कि नाथों का सिद्धों से गहरा संबंध था। सिद्धों की जो सूची मिलती है उसमें से कई का सबंध नाथ परंपरा से भी था। नाथ परंपरा में मत्स्येंद्र नाथ के गुरु जलंधर नाथ माने जाते हैं। तिब्बत के ग्रंथों में भी सिद्ध जलंधर आदि नाथ कहे गए हैं | आचार्य शुक्ल का विचार है कि जलंधर ने ही सिद्धों से अपनी परंपरा अलग की और पंजाब की ओर चले गए। जलंधर के शिष्य मछंदर या मत्स्येन्द्रनाथ थे और मछंदर के शिष्य गोरखनाथ या गोरक्षनाथ थे। गोरखनाथ संप्रदाय के विशेष प्रवर्तक थे।

गोरखनाथ अपने युग के महान धर्मनेता थे। इनकी संगठन की शक्ति अपूर्व थी। गोरखनाथ के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। राहुल सांकृत्यायन इनका समय दसवीं शताब्दी बताते हैं, आचार्य शुक्ल इन्हें 12वीं शताब्दी का मानते हैं और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इन्हें दसवीं शताब्दी का मानने के पक्षधर हैं। जिस प्रकार सिद्धों की संख्या चौरासी प्रसिद्ध है, उसी प्रकार नाथों की संख्या नौ बतायी जाती है। इन नौ नाथों में नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरखनाथ, चर्पट, जलंधर, मलयार्जुन का नाम गिनाया जाता है।

सिद्ध और नाथ में अंतर

सिद्ध और नाथ के बीच कई तात्विक समता और विषमता देखने को मिलती है। तांत्रिक साधना की व्यापक स्वीकृति नाथों के साहित्य में भी प्राप्त होती है, परंतु नाथों ने साधना में योग क्रिया को ही अपना आधार बनाया | नाथों का सिद्धों से विरोध वाममार्गी साधना को लेकर हुआ था। वाममार्गी साधना में लोकाचार से अलग हटकर सिद्धों ने मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन को साधना में प्रमुखता दी। सिद्धों की साधना के ये अनिवार्य अंग थे नाथों ने लोक जीवन में शुचिता, अहिंसा और आचरण की पवित्रता जैसे श्रेष्ठ मानवीय मनोभाव को प्रधानता देना अपने पंथ का लक्ष्य रखा। इसके साथ-साथ नाथ पंथ ने शैवदर्शन और पतंजलि के हठयोग को मिलाकर अपने पंथ का वैचारिक आधार तैयार किया।

सिद्धों के समान नाथ पथ ने भी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना, नाद बिंदु की साधना, षटचक्र शून्य भेदन, शून्यचक्र में कुंडलिनी का प्रवेश आदि अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों को योग के लिए आवश्यक माना नाथपंथ में शून्यवाद के महत्व को भी प्रतिपादित किया गया, जो संभवतः उन्होंने वज्रयान से ग्रहण किया था। सामाजिक विषमता, उदाहरण के लिए जातिप्रथा, छुआछूत, धार्मिक मतभेद, मूर्तिपूजा आदि बाह्याचारों का विरोध नाथों ने भी किया था। कुछ सामाजिक मर्यादा के मुद्दों को छोड़कर सिद्धों से नाथों की व्यापक सहमति थी।

नाथ पंथ की सांस्कृतिक विशेषता

सिद्धों का प्रभाव क्षेत्र उत्तरपूर्वी था नाथों का प्रभाव समस्त देश में व्याप्त था। पश्चिमी भारत से नाथों का विशेष संबंध था। नाथ पंथ की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि, उसका स्थानीय संस्कृति के साथ संवाद होता था । नाथपंथ ने मिश्र होती सांस्कृतिक प्रक्रिया को और अधिक तीव्रता प्रदान की । अपने दृष्टिकोण में नाथपंथ सेक्यूलर था। इस पंथ की ओर मुसलमानों का भी आकर्षण था। ईश्वर से मिलाने वाला योग हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य साधना के रूप में प्रचलित हुआ था । मुसलमान जोगी भी कलिकाल के अमर राजा भरथरी का गीत गाते फिरते थे। नाथपंथ ने हर धर्म और हर संस्कृति से संवाद स्थापित किया । यही कारण था कि धार्मिक सहिष्णुता का विकास नाथों के साहित्य में अधिक देखने को मिलता है। नाथों में बौद्धधर्म के प्रति आत्मीयता है, वह जैनधर्म से भी प्रभावित है, उसमें सनातन धर्म के प्रति भी आस्था है और उसमें मुस्लिम धर्म के प्रति भी विश्वास है। नाथपंथ खुले मन से वैचारिक बहस के लिए आमंत्रित करता है, लेकिन उसमें विवाद नहीं, संवाद है।

गोरखनाथ जोगी को संबोधित करते हुए कहते हैं :

कोई वादी कोई विवादी जोगी कौं वाद न करना।

अड़साठे तीरथ समंद समानें यूं जोगी को गुरु मसि जरनो ।।

नाथ साहित्य

नाथ पंथ के मुख्य रचनाकारों में गोरखनाथ, चौरंगीनाथ, गोपीचंद चुणकरनाथ भरथरी आदि का नाम प्रसिद्ध है। उनमें से किसी के साहित्य की प्रामाणिकता असंदिग्ध नहीं है। गोरखनाथ की देशभाषा में लिखी हुई रचनाओं में ‘गोरख बोध’, ‘गोरखनाथ की सत्रह कला’, ‘दत्त गोरख संवाद’, ‘योगेश्वरी साखी’, ‘नरवइ बोध’, ‘विराट पुराण’, ‘गोरख सार’ तथा ‘गोरखनाथ बानी’ उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त गोरखनाथ की कुछ पुस्तकें संस्कृत में भी मिलती हैं। अन्य नाथ कवियों की छुटपुट रचनाएँ मौखिक रूप में उपलब्ध होती हैं। जैसा कि कहा जा चुका है, नाथ साहित्य की प्रामाणिकता संदिग्ध है। उसकी प्रामाणिकता के संदेह का आधार रचनाओं की भाषा है। जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग गोरखनाथ के साहित्य में मिलता है, उससे अनुमान लगाया जाता है कि उस भाषा का प्रचलन गोरखनाथ के काल में नहीं था। गोरख के समय में जो भाषा लिखने-पढ़ने के लिए प्रयुक्त होती थी, उस भाषा में प्राकृत या अपभ्रंश का थोड़ा बहुत मेल रहता था। गोरखनाथ की रचनाओं की भाषा में उस प्रवृत्ति की सूचना नहीं मिलती। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि गोरखनाथ के नाम पर जो रचनाएँ मिलती हैं उन्हें नाथ पंथ के अनुयायियों ने एकत्रित किया होगा।

नाथ साहित्य की अप्रामाणिकता का अन्य कारण यह भी है कि नाथपंथी, साहित्य रचने के उद्देश्य से लेखन नहीं कर रहे थे। वे अपनी संवेदना और अनुभव को लोगों से साझा करना चाहते थे। उसके लिए उन्होंने पुस्तक लिखने की आवश्यकता को महसूस नहीं किया और उसका परिणाम यह हुआ कि उनकी वाणी साहित्य बनकर लोगों के मुख के माध्यम से ही बहुत दिनों तक जीती रही। इस प्रक्रिया में नाथों की वाणी की भाषा बदल गई और भाव भी परिवर्तित हो गए। नाथ साहित्य का लोक-साहित्य में रूपांतरण हो गया और लोक-साहित्य हमेशा लोगों की स्मृति में ही सुरक्षित रहता है। लोक साहित्य को किसी पुस्तक में बाँधने की आवश्यकता नहीं होती। नाथों का जोगीड़ा आज भी पूर्वी भारत में प्रचलित है। वस्तुतः जोगीड़ा अनुभव सिद्ध ज्ञान की परिपक्वता को हमारे सामने उपस्थित करता है। जोगीड़ा में बाह्याचार का खंडन, जाति प्रथा पर व्यंग्य तथा धार्मिक आडम्बर की निंदा की गई है

गंगा के नहाये कहो को नर तरिगे मछरी न तरी जाको पानी में घर ।

नाथ मनुष्य के विवेक को प्रामाणिक मानते हैं। विवेक को वे जीवन की कसौटी स्वीकार करते हैं, उसी आधार पर वे पाखंड का विरोध करते हैं।

नाथ साहित्य यायावरों द्वारा रचा गया था। यायावरी प्रवृत्ति नाथ कवियों की अद्भुत विशिष्टता है। नाथों ने देश के विविध भागों की यात्रा की थी और उस प्रदेश का अनुभव प्राप्त किया था। नाथ साहित्य में सैलानी का अनुभव नहीं है अपितु उसमें एक सांस्कृतिक यात्री का अनुभव है जो प्रदेश की भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज, वेशभूषा आदि का निरीक्षण करता है। नाथों ने जिस प्रदेश की यात्रा की वहाँ की संस्कृति की विशिष्टता और भाषा की विशिष्टता को आत्मीयता से स्वीकार किया । नाथ साहित्य में उत्तर भारत की सांस्कृतिक विविधता का चित्र मिलता है। उत्तर । भारत के विविध प्रदेशों की यात्रा के क्रम में नाथों ने एक संपर्क भाषा को विकसित किया, जिसमें पूर्वी प्रदेश की भाषा, ब्रजभाषा, खड़ी बोली, राजस्थानी और पंजाबी के शब्द हैं। आचार्य शुक्ल ने इस भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा है, जो वस्तुतः संपर्क भाषा थी। व्यापक जनसंपर्क के कारण नाथ इस भाषा को निर्मित कर पाए।

आचार्य शुक्ल ने लिखा है – ‘उन्हें मुसलमानों को भी अपनी बानी सुनानी रहती थी जिनकी बोली अधिकतर दिल्ली के आसपास की खड़ी बोली थी। इससे उसका मेल भी उनकी बानियों में अधिकतर रहता था। इस प्रकार नाथ पंथ के उन जोगियों ने परंपरागत साहित्य की भाषा या काव्य-भाषा से, जिसका ढाँचा नागर अपभ्रंश या ब्रज का था, अलग एक सधुक्कड़ी भाषा का सहारा लिया जिसका ढाँचा कुछ खड़ी बोली लिए राजस्थानी था। :

नाथ साहित्य में अंतःसाधना का भी विस्तार से वर्णन मिलता है। नाथों का मानना था ‘जोइं-जोइं पिण्डे, सोइं ब्रह्मांडे’ अर्थात् जो शरीर में है वही ब्रह्मांड में है। इस अनुभूति को प्रकट करने के लिए उन्होंने उलटबाँसी का प्रयोग किया है। उलटबाँसी के पीछे नाथों का यह तर्क था कि सिद्धि की अवस्था को पहुँचते ही साधक का कायाकल्प हो जाता है और वह लोक-व्यवहार को विपरीत दृष्टि से देखने लगता है।

चलि दे अबकि कोयल मोरी । धरती उलटि गगन कू दोरी।

गइयाँ वपड़ी सिंघ ने घेरे । मृतक पसू सूद्र के उचरै ।

यहाँ कोयल साधक की आत्मा का प्रतीक है। धरती स्थिर है वह उलट नहीं सकती परंतु साधना में धरती जीव का प्रतीक है जो गगन की ओर दौड़ लगाती है अर्थात् परम्-ब्रह्म से मिलना चाहती है। नाथ साहित्य में साधनात्मक शब्दावली का प्रयोग ही बहुलता से मिलता है। नाथ आचरण की शुचिता पर अधिक बल देते हैं, परंतु यह आचरण सामान्य जन के लिए नहीं था, यह जोगी के लिए था –

जोगी होइ पर निंदा झखै । मद मांस अरु भांगि जो भखै।

इकोतर सैं पुरिषा नरकहिं जाई। सति सति भाषत श्री गोरख राई।

नाथपंथ का महत्वपूर्ण योगदान भक्तिकालीन निर्गुण साहित्य को अपना अनुभव सौंपने में है। नाथपंथ ने निर्गुण पंथ के लिए एक मार्ग तैयार कर दिया था। कबीर साधना और भावना, दोनों स्तर पर नाथ पंथ के सिद्धांत को अपनाते हैं । जिस प्रकार विविध धर्मों की मिश्र अनुभूति को नाथ पंथ ने ग्रहण किया था, ज्ञानमार्गी कवियों ने उसी सिद्धांत को अपना वैचारिक आधार बनाया। आचार्य शुक्ल ने लिखा है – ‘कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार साखी और बानी शब्द मिले, उसी प्रकार साखी और बानी के लिए बहुत कुछ सामग्री और साधुक्कड़ी भाषा भी। ‘

जैन साहित्य

जैन साहित्य की अधिकांश रचनाएँ अपभ्रंश में लिखी गई हैं, लेकिन वह हिंदी साहित्य से अलग नहीं हैं। जैन अपभ्रंश साहित्य का व्यापक प्रभाव परवर्ती हिंदी साहित्य में देखने को मिलता है। जैन साहित्य के महत्व की दूसरी बात उसकी प्रामाणिकता को लेकर है। आदिकाल में जितने भी प्रकार के साहित्य मिलते हैं उनमें लगभग सभी प्रकार के साहित्य की प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। जैन साहित्य इसका अपवाद है। जैन साहित्य का परिरक्षण धर्म संप्रदाय के आश्रय में हुआ था, इसलिए उस साहित्य का लिखित रूप अपरिवर्तित रूप में जैन मठों और पुस्तकालयों में सुरक्षित रहा। जैन साहित्य में आदिकाल की भाषा और सामाजिक गति का महत्वपूर्ण तथ्य छिपा हुआ है, इसलिए जैन साहित्य का अध्ययन अनिवार्य है। उसे मात्र धार्मिक साहित्य कहकर हिंदी साहित्य से खारिज नहीं किया जा सकता।

वास्तव में, धर्म किसी साहित्य को खारिज करने का आधार नहीं हो सकता। यदि ऐसा संभव होता तो भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग नहीं कहा जाता। मिथक में मानवीय अनुभूति का संश्लिष्ट रूप छिपा होता है। हर युग के संदर्भ में मिथक के अर्थ बदलते हैं। जैन साहित्य में भी कुछ मिथकों का प्रयोग मिलता है। साहित्य में मिथक का प्रयोग कोई नई बात नहीं है। संस्कृत साहित्य में भी मिथक का प्रचुर प्रयोग मिलता है। साहित्य के संदर्भ में यह देखना होता है कि उन धार्मिक रचनाओं में मानवीय अनुभूति को विस्तार मिला है या नहीं। रचना की सृजनात्मक अनुभूति में मानवीयता है या नहीं। वस्तुतः धार्मिकता साहित्यिक संवेदना का अवरोधक नहीं है। धर्म का उपयोग यदि संकीर्ण दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए हो रहा है तो वह साहित्य निःसंदेह साहित्य नहीं है।

जैन साहित्य के धार्मिक ग्रंथों में यह तलाश करने की आवश्यकता है कि उसमें मानवीय अनुभूतियों का कितना गहरा स्पर्श है। उसमें सामाजिक बोध और मानवीय गरिमा का महत्व किस तरह से प्रस्तावित हुआ है। साहित्य के ऊपर की धार्मिक परत हटाने के बाद यदि जैन साहित्य का अवलोकन किया जाए तो उसमें जीवन का अद्भुत सौंदर्य देखने को मिलता है। उसमें हमारे सामाजिक जीवन की मूल्यवान मर्यादा की पहचान की जा सकती है। मानवीय मनोभाव की जटिलता को जैन रचनाकारों ने गहराई से स्पर्श किया है। जैन साहित्य में मानवीय मनोभाव को द्वंद्वात्मक रूप में परखने की चेष्टा की गई है। उदाहरण के लिए हम ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ के कुछ प्रसंगों को ले सकते हैं | इस कृति में रचनाकार ने मानवीय महत्वाकांक्षा के गलत परिणामों को दिखाया है। किसी व्यक्ति की महत्वाकांक्षा का असीमित विकास समाज के किन मानवीय मूल्यों की हत्या के द्वारा अपना मार्ग तैयार करता है, इसका बड़ा मार्मिक वर्णन ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ में मिलता है।

जैन साहित्य के प्रकार

जिस प्रकार बौद्ध धर्म ने देश के पूरबी क्षेत्र में अपने मत को स्थापित करने के लिए जनभाषा को आधार बनाया उसी प्रकार जैन साधुओं ने भी देश के पश्चिम क्षेत्र में अपने मत को स्थापित करने के लिए जनभाषा को अपनाया। यह जनभाषा अपभ्रंश भाषा थी। जैन साधुओं ने इसी अपभ्रंश भाषा में अपना साहित्य रचा। जैन साहित्य में तीन प्रकार की रचनाएँ मिलती हैं। प्रथम प्रकार की रचनाएँ, जिन्हें पौराणिक काव्य कह सकते हैं, इस प्रकार के रचनाकारों में स्वयंभू, पुष्पदंत आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं। द्वितीय प्रकार की रचनाओं में, मुक्तक रचनाओं को रखा जा सकता है जिसमें रास, फाग, चर्चरी आदि काव्यों का विवेचन किया जा सकता है तथा तृतीय प्रकार की रचनाओं में, हेमचन्द्र और मेरुतुंग की रचनाओं को लिया जा सकता है।

पौराणिक तथा चरित काव्य

पौराणिक विषयों को लेकर जैन कवियों ने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में विपुल साहित्य की रचना की। इस साहित्य में जीवन के मर्म के साथ उपदेश और धर्म का अद्भुत संयोग देखने को मिलता है। जैन अपभ्रंश काव्य की समस्त प्रबंधात्मक कृतियाँ पद्यबद्ध हैं, जिसके चरित नायक या तो पौराणिक हैं या जैन धर्म के निष्ठापूर्ण अनुयायी। मध्यकाल में धर्म प्रसार के लिए ब्राह्मणों और जैनों द्वारा पुराण साहित्य की रचना हुई थी। पुराण साहित्य की सबसे बड़ी खामी यह थी कि उसमें मानवीय दशाओं का स्वाभाविक विकास नहीं हो पाता है। काव्य में जीवन की मार्मिक अनुभूतियों और दशाओं का वर्णन भी कई स्थल पर होता है, परंतु काव्य में काव्यत्व दर्शनिक उद्देश्य के साधन रूप में ही प्रस्तुत होता है। मनुष्य के सुख-दुख, राग-विराग, सफलता-असफलता को उद्देश्य विशेष के अधीन होना पड़ता है। इस प्रक्रिया में काव्य की आंतरिक प्रखरता गायब हो जाती है, उसके स्थान पर दार्शनिक मतवाद का आग्रह प्रबल हो जाता है। इस प्रकार के आग्रह के बावजूद कुछ पौराणिक काव्यों को श्रेष्ठ साहित्यिक रचना स्वीकार कर सकते हैं। स्वयंभू और पुष्पदंत पौराणिक काव्य के विशिष्ट कवि हैं।

स्वयंभू रचित पउमचरिउ उच्च कोटि का काव्य है। इस काव्य की 83 संधियों को स्वयंभू ने लिखा था, बाद में उसमें सात संधियों को उनके पुत्र त्रिभुवन ने जोड़कर काव्य को पूरा किया। अन्य जैन काव्यों की तरह इस काव्य के प्रारंभ में ब्राह्मण मत की आलोचना की गई है। ब्राह्मण मत की आलोचना किसी धार्मिक आग्रह का परिणाम न होकर सामाजिक आग्रह का परिणाम मालूम होती है। जैन भी उसी सामाजिक वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे जिसके खिलाफ सिद्ध और नाथ लड़ रहे थे। ‘पउम चरिउ’ में राम और सीता के जीवन की कहानी है।

इस काव्य में कवि ने राम को साधारण मनुष्य के समान ही वर्णित किया है जिसमें उल्लास और अवसाद के भाव हैं। सीता के चरित्र में करुणा है परंतु वह अंत में वैराग्य मार्ग को ग्रहण करती है ताकि दूसरे जन्म में स्त्री होकर जन्म नहीं लेना पड़े। स्त्री-करुणा को रचकर कवि ने सामंती समाज के यथार्थ चित्र को उद्घाटित कर दिया है। मेघनाद और हनुमान के युद्ध का वर्णन करता हुआ कवि यह बताना नहीं भूला है कि ये दोनों ‘जिन’ के भक्त थे। काव्य में धार्मिक रंग भी चढ़ा दिया गया है, परंतु उसके बीच जीवन की स्वाभाविकता का प्रसार भी कम नहीं है।

‘महापुराण’ पुष्पदंत द्वारा रचित एक महाकाव्य है। ‘महापुराण’ का मतलब प्राचीनकाल की महत्ती कथा से है। महापुराण में जैन धर्म के 63 महापुरुषों (श्लाका पुरूषों) का वर्णन है। महापुराण की कथावस्तु का फलक अत्यधिक विराट है। ‘महापुराण’ की विशिष्टता उसके धार्मिक होने में नहीं है। उसकी महत्ता मानव जीवन की अभिव्यंजना में है। पर्यावरण के प्रति कवि में आत्मीयता है। ‘नागकुमार चरित’ या ‘णायकुमार चरिउ’ पुष्पदंत की दूसरी रचना है। इस काव्य कृति में नागकुमार के अनेक विवाहों के वर्णन, व्रत करने के प्रसंग और अंत में तपस्या द्वारा मोक्ष प्राप्त करने की कथा है। नख-शिख वर्णन, संयोग-शृंगारादि के अनेक प्रसंग कृति में मिलते हैं, परंतु अंत में वैराग्यपूर्ण वातावरण इन लौकिक प्रसंगों को ढक लेता है। ‘नागकुमार चरित’ में कवित्व के प्राचुर्य की अपेक्षा घटना का प्राचुर्य है। ‘जसहर चरिउ’ में पुष्पदंत हिंसा की निंदा करते हैं। जसहर की माँ ने पुत्र की मंगलकामना के लिए आटे के कुक्कट की बलि दी, इस हिंसा की प्रवृत्ति के कारण उन्हें अनेक जन्मों में भटकना पड़ा।

जैन काव्य में कहीं-कहीं धर्म ने लौकिक अनुभूति को आच्छादित कर लिया है। लौकिक अनुभूति और धार्मिक अनुभूति के बीच द्वंद्वात्मक भाव पैदा हो गया है। विचारधारा की प्रबलता के कारण अंत में मोक्ष, वैराग्य आदि का पक्ष रखा गया है, परंतु जीवन की जटिलता से पैदा होने वाली कठिनाइयों से कवि ने मुँह नहीं मोड़ा है। कवि धनपाल की कृति ‘भविसयत्त कहा’ जैन चरित काव्य की एक महत्वपूर्ण रचना है। इस काव्य में लौकिक अनुभूति और धार्मिक अनुभूति के बीच तीव्र द्वंद्व देखने को मिलता है। सामंती समाज में बहुपत्नी की प्रथा थी। बहुपत्नी की प्रथा के कारण गार्हस्थ्य जीवन में विषमता पैदा होती थी। भविसयत्त कहा’ में कहानी कुछ इसी से संबंधित है। धनपाल की दो स्त्रियाँ थीं – कमलश्री और सरूपा। कमलश्री का पुत्र भविसयत्त था और सरूपा का पुत्र बंधुदत्त था। दोनों सौतेले भाइयों की आपसी प्रतिद्वंद्विता और प्रतिशोध को कवि ने मानवीय तरीके से रचा है और अंत में कमलश्री और उसके पुत्र भविसयत्त की विजय को दिखाया है। भविसयत्त की विजय इसलिए होती है क्योंकि वह धर्मपरायण था।

मुक्तक काव्य

जैन साहित्य में चरित काव्य के अतिरिक्त मुक्तक काव्य की रचनाएँ भी हुई हैं। मुक्तक साहित्य में प्रधान रूप से दो प्रकार की भावधारा मिलती है। प्रथम प्रकार की वे रचनाएँ हैं, जो साधकों को लक्ष्य में रखकर लिखी गई हैं। यह काव्य परमसमाधि तथा रहस्यात्मक अनुभूतियों को ध्यान में रखकर लिखा गया है। दूसरे प्रकार की काव्य रचना का संबंध जैन काव्य के आचरण शास्त्र से है। इस प्रकार की काव्य रचना का उद्देश्य श्रावकों को तीर्थ, व्रत, उपवास आदि का उपदेश देना है। इस प्रकार की रचनाओं में रास, फाग, चर्चरी आदि को रख सकते हैं। ‘

रहस्यात्मक साहित्य

रहस्यानुभूति का प्रभाव जैन साहित्य में भी देखने को मिलता है। जैन धर्म में रहस्यवादी काव्य की संख्या अल्पमात्रा में ही उपलब्ध होती है। जोइन्दु का ‘परमात्मप्रकाश’ और ‘योगसार’ तथा मुनिरामसिंह का ‘पाहुड़ दोहा’ जैन साहित्य की उल्लेखनीय रहस्यवादी काव्यकृतियाँ है। ‘परमात्मप्रकाश’ में परमात्मा को नित्य निरंजन स्वरूप माना गया है। जोइन्दु के अनुसार वह परमात्मा योग, वेद और शास्त्रों से नहीं जाना जा सकता है। निर्मल ध्यान द्वारा उसकी अनुभूति की जा सकती है। ब्रह्म, मन इन्द्रयादि के व्यापारों से भिन्न होते हुए भी शरीर में निवास करता है और पूरे विश्व में व्याप्त है। जैन धर्म के दार्शनिक सिद्धांतों को जोइन्दु ने काव्यात्मक साँचे में ढालने का प्रयास किया है। जैन दर्शन में कहा गया है कि आत्मज्ञान से मिथ्या दृष्टि दूर हो । जाती है और परम पद की प्राप्ति होती है। समान विकल्पों का विलय होना परम समाधि है और परम समाधि की प्राप्ति से समस्त संसार के अशुभ कर्मो का क्षय हो जाता है। ‘पाहुड़ दोहा’ में मुनिरामसिंह ने मूर्ति पूजा का खंडन किया है। ‘पाहुड़ दोहा’ में योगपरक शब्दावली का प्रयोग मिलता है। योग के साधनापरक विधान की ओर भी कवि ने संकेत किया है। स्त्रीपरक रूपकों के सहारे मोक्षादि का वर्णन ‘पाहुड़ दोहा’ की उल्लेखनीय विशेषता है। जैन रहस्यवादी काव्य में रचनाकारों ने आत्मानुभव को प्रमुख माना । आत्मानुभव ही शरीर का परम प्राप्तव्य है।

जैन रास साहित्य

परवर्ती जैन साहित्य में रास ग्रंथों की प्रचुरता दिखाई पड़ती है। वस्तुतः रास नृत्य गीत और अभिनय के सम्पृक्त मनोभाव को सूचित करता है। ताल देकर काव्य का गायन किया जाता था, . इसलिए इसमें नृत्य, संगीत और अभिनय का स्वाभाविक रूप से जुड़ाव हो गया। रूप गठन की . दृष्टि से प्रबंध और मुक्तक दोनों में रास काव्य लिखे गए हैं। प्रमुख रास ग्रंथों में ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ (1184 ई.). ‘चंदनबाला रास’ तथा ‘उपदेश रसायन रास’ नाम गिनाया जा सकता है। ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ शालिभद्र सूरि की रचना है। इसे हम कथा काव्य कह सकते हैं जिसमें कथा और गायन का विशिष्ट सम्मिश्रण है। ‘भरतेश्वर बाहुबली रास में रचनाकार ने हिंसा का विरोध किया है। कवि ने यह संकेत करने का प्रयास किया है कि सामंती समाज में युद्ध की विभीषिका कितनी भयानक होती थी। ‘चंदनबाला रास’ में कवि असुग ने नारी जीवन की. करुणा को बड़ी सहृदयता से रचा है। इस काव्य से पता चलता है कि सामंती सामज में नारी की स्थिति कितनी दयनीय होती थी। उस समाज में नारी का सम्पत्ति की तरह अपहरण होता था। इस कृति में चंदनबाला का अपहरण होता है और उसे एक सेठ के यहाँ बेच दिया जाता है। तमाम कष्टों और दुखों के बाद भी चंदनबाला अपने नारीत्व की रक्षा करती है।

रास काव्य में दूसरे प्रकार की रचना उपदेश साहित्य का अंग है। इस प्रकार के रास साहित्य में सामाजिक व्यवस्था को सामने रखकर गृहस्थ को अपने धर्म का पालन करने का उपदेश दिया। जाता था। जिन पूजा, अहिंसा व्रत पालन, कीर्तन में मन लगाने तथा काम-क्रोधादि मनोविकार से बचने की सलाह देना इन उपदेश ग्रंथों का प्रमुख उद्देश्य है। जिनदत्तसरि का ‘उपदेश रसायन रास’ इसी प्रकार की कृति है। ‘उपदेश रसायन रास’ का काव्य-रूप चर्चरी कहा गया है। चर्चरी की भी वही विशेषता होती है जो रास ग्रंथ की विशेषता है। चर्चरी की रचना भी मंदिर में गाने के लिए होती थी। जैन साहित्य के मुक्तक काव्य में फागु की रचना भी मिलती है। फागु का संबंध फाल्गुन से है। वसंत के आगमन पर प्रकृति में नवजीवन का संचार होने लगता है। मानव हृदय में प्रेम और शृंगार की भावनाएँ प्रस्फुटित होने लगती हैं । वास्तव में फागु लोकगीत है। जैनाचार्यों ने प्रेम और मस्ती भरे काव्य में भी धार्मिकता का रंग भर दिया है।

राजशेखर कृत ‘नेमिनाथफागु’ फागु काव्य का श्रेष्ठ उदाहरण है। ‘नेमिनाथफागु’ की कथा इस प्रकार है कि नेमिनाथ का विवाह राजमती से निश्चित हुआ। बारात के भोजन के लिए पशुवध हो रहा था। नेमिनाथ । पशुओं के प्रति दयार्द्र होकर वधु गृह के तोरण द्वार से लौट गए और गिरनार पर्वत पर जाकर तपस्या करने लगे। इस कृति में राजमती के नख-शिख का भी अपूर्व वर्णन मिलता है। जैन रचनाकारों ने अपनी संगीतात्मक अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए रास, चर्चरी और फागु जैसे काव्य-रूपों को अपनाया । कवियों ने अपनी लयात्मक संवेदना के अनुसार छंदों का नियोजन किया । छंद के शब्दों की ध्वनि में तुकांत का प्रयोग किया गया और संगीतात्मक अनुभूति को उत्पन्न करने की चेष्टा की गई। इन काव्यों की रचना दोहा-चौपाई छंद में की गयी है जिसमें कथा के साथ. गायन की विशिष्ट क्षमता होती है।

जैन रचनाकारों के व्याकरणिक ग्रंथ और साहित्य

जैन रचनाकारों ने अपभ्रंश में व्याकरण ग्रंथ का भी निर्माण किया था। आचार्य हेमचन्द्र का ‘सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन’ अपभ्रंश व्याकरण का ग्रंथ है। इस ग्रंथ की रचना 1143 ई. के आसपास हुई थी। इस ग्रंथ में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश – तीनों भाषाओं का समावेश मिलता है। इस व्याकरण ग्रंथ में हेमचन्द्र ने संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के एकाध उदाहरण ही प्रस्तुत किए हैं परंतु अपभ्रंश के उदाहरण में उन्होंने संपूर्ण गाथा एवं छंद दे दिए हैं । अपभ्रंश के एक उदाहरण को यहाँ उद्धृत कर सकते हैं

भल्ल हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु।

लज्जेजं तु लयंसिअहु जई भग्गा घरु एतु ।।

अर्थात् भला हुआ जो मारा गया हे बहिन! हमारा कंत । यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्काओं से लज्जित होती।

हेमचन्द्र के व्याकरण से इस बात का पता चलता है कि तब तक अपभ्रंश भाषा, साहित्य की भाषा हो चुकी थी परंतु अपभ्रंश के परिनिष्ठित रूप से अलग, देशभाषा और अपभ्रंश के योग से एक नई भाषा विकसित हो रही थी। इसी भाषा का विकास आगे चलकर हिंदी के रूप में हुआ। हेमचन्द्र दो प्रकार की अपभ्रंश भाषा की सूचना देते हैं – प्रथम प्रकार नागर अपभ्रंश है और । दूसरे प्रकार की भाषा ग्राम्य अपभ्रंश है। ग्राम्य अपभ्रंश और देशभाषा के स्वाभाविक मिश्रण से एक नये प्रकार की भाषा का प्रारंभ होता है, नो अपभ्रंश की साहित्यिकता और शास्त्रीयता से अलग हटी हुई थी, उसका पता हमें हेमचन्द्र के शब्दानुशासन से ही चलता है।

आचार्य मेरुतुंग की ‘रचना प्रबंधचिंतामणि’ (1305 ई.) संस्कृत ग्रंथ ‘भोज प्रबंध’ के ढंग पर लिखी गई थी। इसमें बहुत से प्राचीन राजाओं के आख्यान संगृहीत किए गए थे। इसमें से कुछ रचनाएँ धाराधिपति मुंज की कही जाती हैं । इस ग्रंथ में अपभ्रंश के जो नमूने प्रस्तुत किए गए हैं वे अधिकतर उद्धत किए गए हैं, मौलिक रूप से लिखे हुए नहीं हैं। यह ग्रंथ अपभ्रंश भाषा के । विषय में प्रकाश डालने में सहायक हो सकता है। इस ग्रंथ की प्रासंगिकता भी यहीं तक समझी जानी चाहिए।

सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य का परवर्ती हिंदी के विकास में योगदान

हिंदी की प्रारंभिक संवेदना का विकास सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य की विद्रोही चेतना से ही माना जा सकता है। इस धारा से सम्बद्ध रचनाकार एक खास वर्ग के सामाजिक वर्चस्व के खिलाफ खड़े हुए थे। उनकी इसी चेतना के कारण उनके साहित्य की संवेदना और अभिव्यंजना का तेवर बदला हुआ मालूम पड़ता है। भक्तिकाल के दो बड़े कवियों के माध्यम से परवर्ती हिंदी में सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य का प्रभाव तुलनात्मक रूप में देखा जा सकता है। कबीर की परंपरा विद्रोह की परंपरा थी। उन्होंने सिद्धों और नाथों से केवल दर्शन ही ग्रहण नहीं किया था, बीजक, साखी, शब्द और रमैनी के लिए भी वे उनके ऋणी हैं । तुलसीदास ने जिस कड़बक शैली में रामचरितमानस को रचा वह जैन अपभ्रंश साहित्य का अपना आविष्कार था। सूरदास, राग के आधार पर छंद को रचते हैं, इसकी शुरुआत सिद्धों की रचनाओं में देखी जा सकती है। जिस छंद और लय को सिद्धों-नाथों और जैनों ने संघर्ष से प्राप्त किया था, वह हिंदी भाषा में सहज ही उपलब्ध हो सकी। हर युग का अपना छंद और अपना लय-विधान होता है। उसे समकालीन जीवन और समाज रचता है। सिद्ध, नाथ और जैन रचनाकारों ने अपने अनुभव को हिंदी के लिए संभव बनाया – इसमें शक नहीं। दोहा छंद की खोज हो अथवा चरित काव्य की परंपरा का विकास, सिद्ध-नाथ और जैन की साहित्यिक परंपरा से अलग हटकर हम हिंदी के विकास की कल्पना नहीं कर सकते हैं।

सारांश

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप हिंदी साहित्य के आरंभिक काल से परिचित हो गए होंगे। इस बात को भी आप समझ गए होंगे कि हिंदी भाषा का आरंभ सामाजिक विद्रोह की परंपरा से हुआ था। सिद्धों की नवीन अनुभूति ने नवीन काव्य-भाषा की रचना की। अनुभूति बदलने से किस प्रकार भाषा के तेवर बदल जाते हैं, इसे भी आप अच्छी तरह से समझ गए होंगे। नाथों की मिश्रित अनुभूति ने मिश्र भाषा और मिश्र संस्कृति को प्रस्तावित किया । नाथ और सिद्ध के बीच के सूक्ष्म दार्शनिक अंतर को भी आप जान चुके हैं। नाथ साहित्य की विविधता और उसकी यायावरी संवेदना से भी आपका साक्षात्कार हुआ होगा। जैन साहित्य की धार्मिक और मानवीय पक्षों का भी आपने अध्ययन किया। जैन साहित्य के विविध प्रकारों से भी आप परिचित हो गए होंगे। सिद्ध-नाथ और जैन साहित्य के प्रासांगिक तत्वों के विकास ने किस प्रकार से परवर्ती हिंदी साहित्य को प्रभावित किया, इस बात का संकेत भी हमने इकाई में किया है।

अभ्यास प्रश्न

  1. सिद्ध साहित्य की चर्चा करते हुए उसके अभिव्यंजना पक्ष पर प्रकाश डालिए।
  2. सिद्ध और नाथ में अंतर स्पष्ट करते हुए नाथ साहित्य की चर्चा कीजिए।
  3. जैन साहित्य के विविध प्रकारों का विवेचन कीजिए।

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