भारतेंदु हरिश्चंद्र और मैथिलीशरण गुप्त की काव्य- भाषा और शिल्प (खड़ी बोली के विकास के संदर्भ में)

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • भारतेंदु हरिश्चंद्र की काव्य-भाषा और शिल्प की विशेषताएँ जान सकेंगे
  • हिंदी खड़ी बोली किस प्रकार भारतेंदु युग में काव्य भाषा पर दबाव डाल रही थी, इसे भी आप पहचान सकेंगे
  • खड़ी बोली हिंदी किस प्रकार मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में काव्य-भाषा का रूपाकार ग्रहण करती है, इससे परिचित हो सकेंगे
  • भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-भाषा और शिल्प की तुलना से काव्य-भाषा के रूप में हिंदी के विकास की विभिन्न स्थितियों से भी आप परिचित हो सकेंगे।

इस खंड की पिछली दो इकाइयों में आपने भारतेंदु हरिश्चंद्र और मैथिलीशरण गुप्त के काव्य का अध्ययन किया है। इस इकाई में हम इन दोनों कवियों की काव्य-भाषा और शिल्प पर विचार करेंगे। भारतेंदु के काव्य का अध्ययन करते हुए आपने देखा था कि किस प्रकार नवजागरण के परिवेश में साहित्य को समाज के यथार्थ से जोड़ने का उन्होंने प्रयास किया। उनके यहाँ नयी परिस्थितियाँ, नयी चुनौतियाँ साहित्य का विषय बनकर उपस्थित हुई। भारतेंदु ने जिस प्रकार नवजागरण साहित्य का उन्मेष किया, उसी प्रकार मैथिलीशरण गुप्त ने नवजागरण को राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जोड़कर अपनी अभिव्यक्ति और सर्जना का काव्य विषय बनाया। साहित्य और समाज के इन बदलते-बनते रिश्तों का अध्ययन कथ्य और विषयवस्तु के संदर्भ में करने के बाद यह जानना भी हमारे लिए ज़रूरी है कि काव्य विषयों के समानांतर काव्य संरचना, शैली और भाषा में कितना और कैसा परितर्वन हुआ। इतना तो आप जानते ही हैं कि रूप और वस्तु का संबंध द्वंद्वात्मक होता है। यदि वस्तु बदलती है तो रूप पर भी उसका प्रभाव पड़ता है, और रूप बदलता है, तो विषय वस्तु पर भी अपना प्रभाव डालता है। अतः । वस्तु और रूप का संबंध द्वंद्वात्मक होता है।

इन दोनों कवियों की काव्य-भाषा और शिल्प का अध्ययन प्रकारांतर से हिंदी काव्य-भाषा के रूप में खड़ी बोली के अपनाए जाने की प्रक्रिया का भी अध्ययन है। ब्रज-भाषा का स्थान खड़ी बोली काव्यभाषा के रूप में किस प्रकार ग्रहण करती है और कैसे धीरे-धीरे एक मानक काव्य-भाषा के रूप में स्वीकृत होती है इसे इन दोनों कवियों की काव्य-भाषा के अध्ययन के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है।

भारतेंदु की काव्य-भाषा और शिल्प

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जब लिखना शुरू किया था उस समय कविता की भाषा ब्रज-भाषा ही थी, जिसकी तीन-चार सौ वर्षों की एक समृद्ध परंपरा उन्हें विरासत में प्राप्त हुई थी। सूरदास, घनानंद, बिहारी जैसे ब्रज-भाषा प्रवीण विशिष्ट कवि उनके सामने थे। हिंदी खड़ी बोली गद्य की एक क्षीण परंपरा भी मध्यकाल से ही चली आ रही थी। इसे ईसाई मिशनरियों, लेखक चतुष्ठय (लल्लूलाल, सदल मिश्र, इंशा अल्ला खाँ और सदासुख लाल) तथा राजाद्वय (राजा शिव प्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह) के माध्यम से एक नयी शक्ति मिली थी। आरंभ में उर्दू भाषा हिंदी खड़ी बोली की ही अरबी-फारसी मिश्रित एक शैली थी। ‘रानी केतकी की कहानी (1803) में इंशा अल्ला खाँ ‘हिंदी छुट दूसरी भाषा पुट’ न देने की नीति पर चले थे। हिंदी उर्दू का विवाद उठाने वाले राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद और राजा लक्ष्मण सिंह थे, जिनमें एक ने अरबी-फ़ारसी मिश्रित उर्दू का पक्ष लिया और दूसरे ने संस्कृत तत्सम मिश्रित हिदीं का! उस समय तक हिंदी और उर्दू – हिंदू मुस्लिम दो भिन्न संप्रदायों से जुड़कर विकसित नहीं हो रही थीं। लेकिन हिदी-उर्दू का विवाद खड़ा कर बाद में अंग्रेज़ों ने अपनी कूटनीति के तहत इसे दो संप्रदायों के बीच खायी पैदा करने के लिए एक औज़ार के रूप में प्रयुक्त किया। इसके शिकार कट्टरपंथी हिंदू और मुसलमान दोनों बने।

आज तक दोनों भाषाओं का यह सवाल सम्प्रदाय के सवालों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। अपने रचनाकाल में भारतेंदु ने राजा शिव प्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह के उर्दू-हिंदी भाषा-विवाद से अपने को बचाने का पूरा प्रयास किया। इन्होंने अरबी-फारसी और संस्कृत के चक्कर को छोड़कर बोल-चाल की ‘आम फहमी ‘ भाषा को अपना आदर्श बनाया। यद्यपि ज़रूरत पड़ने पर इन्होंने उर्दू का प्रयोग अपनी कविता में, विशेष रूप से अपनी गज़लों में खुलकर किया है। इनकी रचना ‘उर्दू बीबी का स्यापा’ से यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वे उर्दू के विरूद्ध हिंदी के पक्षपाती थे। यह रचना एक विशेष संदर्भ में लिखी गयी है। वैसे भारतेंदु का अधिकांश काव्य ब्रज-भाषा में ही है, जिसमें इन्हें पूर्ण महारत हासिल है।

बहरहाल भारतेंदु ने काव्य रचना की अपनी शुरूआत ब्रज-भाषा से ही की, जिसमें शीघ्र ही वे इस रूप में निष्णात हो गये कि रीतिकालीन जड़ता में पली-बढ़ी ब्रज-भाषा की कमज़ोरियाँ उनके सामने तुरंत उजागर हो गई। इसमें उन्हें साहित्य और जीवन में बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी होने का भी निश्चय ही लाभ मिला होगा। देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ, वहाँ की भाषाओं, साहित्य से परिचय, नवजागरण आंदोलन का प्रभाव, साहित्य की तमाम नई विधाओं (नाटक, निबंध, लेख, पत्रकारिता, सम्पादन) में सक्रिय भागेदारी, – साहित्य संगठन की नयी क्रांतिकारी शुरूआतें, लोक साहित्य, लोक संगीत, लोक छंद, लोक राग की पूर्ण जानकारियाँ, राष्ट्रीय जागरण के तमाम सवालों को अपने कर्म चिंतन का हिस्सा बनाना और जनता से सीधे सक्रिय रूप से जुड़ना आदि उनके जीवनमर्म के महत्वपूर्ण पहलू रहे हैं। इसलिए जिस प्रकार उन्होंने गद्य की प्रांसगिकता को समझ कर हिंदी गद्य को स्थापित करने में आंदोलनात्मक कार्रवाई की, उसी प्रकार हिंदी पद्य के क्षेत्र में उन्होंने ब्रज-भाषा का भी कायाकल्प करने की कोशिश की।

भारतेंदु की ब्रज-भाषागत विशेषता को रेखांकित करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है : भारतेंदु ने जिस प्रकार हिंदी गद्य की भाषा का परिष्कार किया, उसी प्रकार काव्य की ब्रज-भाषा का भी। उन्होंने देखा कि बहुत से शब्द जिन्हें बोलचाल से उठे कई सौ वर्ष हो गये थे, कवित्तों और सवैयों में बराबर लाए जाते हैं। इसके कारण कविता जनसाधारण की भाषा से दूर पड़ती जाती है। बहुत से शब्द तो प्राकृत और अपभ्रंश काल की परंपरा के स्मारक के रूप में ही बने हुए थे। चक्कव भुवाल, ठायो, दीह, ऊनो, लोय आदि के कारण बहुत से लोग ब्रज-भाषा की कविता से किनारा खींचने लगे थे। दूसरा दोष जो बढ़ते-बढ़ते बहुत बुरी हद तक पहुँच गया था, यह शब्दों के तोड़-मरोड़ और गढ़त के शब्दों का प्रयोग था। उन्होंने ऐसे शब्दों को भरसक कविता से दूर रखा और अपने रसीले सवैये में जहाँ तक हो सका, बोलचाल की भाषा का व्यवहार किया। इसी से उनके जीवनकाल में अनेक सवैये चारों और सुनाई देने लगे।’ 

इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने राष्ट्रीय चेतना को ध्यान में रखकर सभी कवि-लेखकों से अपने निबंध ‘जातीय संगीत ‘ में ग्रामगीतों और लोकछंदों को अपनाने का आह्वान भी किया : ‘यह सब लोग जानते हैं कि जो बात साधारण लोगों में फैलेगी उस का प्रचार सार्वदैशिक होगा और यह भी विदित है कि जितना ग्रामगीत शीघ्र फैलते हैं और जितना काव्य को संगीत द्वारा सुन कर चित्त पर प्रभाव होता है उतना साधारण शिक्षा से नहीं होता – इस विषय में मैं, जिनको कुछ भी रचना शक्ति है, उनसे सहायता चाहता हूँ कि वे लोग भी इस विषय पर गीत वा छंद बनाकर स्वतंत्र प्रकाश करें या मेरे पास भेज दें, मैं उनको प्रकाश करूँगा और सब  लोग अपनी मंडली में गाने वालों को वह पुस्तक दें। कजली, ठुमरी, खेमटा, कँहरवा, अद्धा, चैती, होली, साँसी, लँबे, लावनी, जाँते के गीत, बिरहा, चनैनी, गज़ल इत्यादि ग्रामगीतों में इनका प्रचार हो और सब देश की भाषाओं में इसी अनुसार हो, अर्थात् पंजाब में पंजाबी, बुंदेलखंड में बुंदेली, बिहार में बिहारी, ऐसे जिन देशों में जिन भाषा का साधारण प्रचार हो उसी भाषा में ये गीत बनें।’ 

काव्य विषयों के जीवन संदर्भ चूंकि मध्यकालीन रीतिकालीन नहीं रहे थे, इसलिए जीवन की आम, , गुप्त की काय भाग और शिल्प व्यापक समस्याओं को समाज और राजनीति की समस्याओं को और सत्ता की चालबाजियों को जब। भारतेंदु काव्य का विषय बनाते हैं तो समसामायिक जीवन की शब्दावली उनकी काव्य-भाषा में स्वभावतः प्रवेश करती है। इस प्रकार वह पारंपरिक काव्य-भाषा जो श्रृंगार, सौंदर्य और लक्षण ग्रंथों के आधार पर अपना एक साँचा खड़ा किए हुए थी, जिस पर कोई किसी प्रकार का दबाव नहीं था. उसी काव्य-भाषा को अब प्राचीन, स्थिर विषयों के अलावा जीवन के नये संदर्भो, प्रसंगों, विचारों का बोझ उठाना पड़ा, जो उस काव्य-भाषा के लिए अपरिचित था, ऐसे में ब्रज की कोमल कांत पदावली बनी रहना संभव नहीं रहा। इसके साथ ही ब्रज-भाषा की असमर्थता भी उजागर हो गयी।

इस प्रकार ब्रज-भाषा को काव्य-भाषा के रूप में भारतेंदु ने नये-नये विषयों का, विचारों का, जन इच्छाओं का वाहक बनाते हुए उसमें से अप्रचलित, कठिन शब्दों को तिलांजलि दी और उसे सरल सुगम बनाने का प्रयास किया। किंतु भाषा की रागात्मक स्वच्छंदता, व्यावहारिकता में उसकी प्रभाव क्षमता, मुहावरों और लोकोक्तियों की प्रासंगिकता को दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया।

हालांकि पद्य भाषा के रूप में ब्रज भारतेंदु को बहुत सहज, सरल एवं प्रिय लगती रही तथापि – ब्रज के अलावा उर्दू में भी उन्होंने अपनी लेखनी चलाई। ‘फूलों का गुच्छा’ कविता में से एक उदाहरण देखिए:

‘नहीं का बाकी वक्त नहीं है जरा न जी में शरमाओ।

लब पर जाँ है, भला अब तो प्यारे मिलते जाओ।

कहाँ गई वह पिछली बातें कहाँ गया वह था जो प्यार।

किधर छिपाया चाँद-सा मुखडा दिखलाता जो यार।

बेहोशी में घबड़ा घबड़ा करके यही कहता हूँ पुकार।

मर्ज बढ़ गया बहुत इससे बचना अब है दुश्वार।

उर्दू में ग़ज़लें लिखने का भी भारतेंदु ने प्रयास कियाः

फिर आई फस्ले (ऋतु) गुल (फूल) फिर जख्म दह (घाव) रह रहके पकते हैं

मेरे दागे जिगर पर सूरते लाला (एक फूल) लहकते हैं

नसीहत है अबस (व्यर्थ) नासेह (उपदेशक) बयाँ नाहक ही बकते हैं

जो बहके दुख्नेरज (मदिरा) से है वह कब इन से बहकते हैं?

उर्दू एवं अन्य भाषाओं के प्रति ऐसे दृष्टिकोण का असर ब्रज-भाषा पर इस रूप में हुआ कि ब्रज के कवि अब अन्य प्रांतीय जनभाषाओं से शब्द ग्रहण करने में भी उदार होते गये फलतः ब्रज-भाषा काव्यभाषा के रूप में जनता के अधिक करीब होती गई। पद्य के लिए ब्रज-भाषा हो और गद्य के लिए खड़ी बोली हो – यह समस्या धीरे-धीरे भारतेंदु के समय ही सिर उठाने लगी थी। खड़ी बोली में काव्य लिखने की एक क्षीण परम्परा होने का जिक्र हम पहले कर ही चुके हैं। भारतेंदु ने भी इस खड़ी बोली में काव्य लिखने का प्रयास किया, जिसमें शुरू में, उन्हें बड़ा अटपटापन महसूस हुआ, ब्रज की सी ‘मिठास’ उन्हें खड़ी बोली की दीर्घ क्रियाओं में फीकी जान पड़ी, जिसका जिक्र 2 अक्तूबर 1872 को ‘कविवचन सुधा’ में ‘हिंदी भाषा’ नामक निबंध में उन्होंने यूँ किया। ‘जो हो मैंने आप कई बेरे परिश्रम किया कि खड़ी बोली में कुछ कविता बनाऊँ पर वह मेरे चित्तानुसार नहीं बनी इससे यह निश्चित होता है कि ब्रज-भाषा ही में कविता करना उत्तम होता है और इसी के कविता ब्रज-भाषा में ही उत्तम होती है।’  इसके बाद नई भाषा की कविता की अपनी ये पंक्तियाँ उद्धत करते हुए लिखा :

भजन करो श्री कृष्ण का, मिल करके सब लोग

सिद्ध होगा काम और छूटेगा सब सोग।”

अब देखिए यह कैसी भौंडी कविता है मैंने इसका कारण सोचा कि खड़ी बोली में कविता मीठी नहीं बनती तो मुझको सबसे बड़ा कारण यह जान पड़ा कि इसमें क्रिया इत्यादि में प्रायः दीर्घ मात्रा होती है इससे कविता अच्छी नहीं बनती।’

इस घटना के नौ वर्ष बाद भारतेंदु ने 1 सितंबर 1881 को ‘भारत मित्र’ के सम्पादक को पत्र लिखा और अपनी खड़ी बोली में लिखी कुछ कविताएँ प्रकाशनार्थ भेजी : ‘प्रचलित साधुभाषा में कुछ कविता भेजी है। देखिएगा कि इस में क्या कसर है। और किस उपाय के अवलम्बन करने से इस भाषा में काव्य सुंदर बन सकता है। इस विषय में सर्वसाधारण की अनुमति ज्ञात होने पर आगे से वैसा परिश्रम किया जाएगा। तीन भिन्न-भिन्न छंदों में यह अनुभव करने के लिए कि किस छंद में इस भाषा का काव्य अच्छा होगा, कविता लिखी है। मेरा चित्त इससे संतुष्ट न हुआ और न जाने क्यों ब्रज-भाषा से मुझे इसके लिखने में दूना परिश्रम हुआ। इस भाषा की क्रियाओं में दीर्घ भाग विशेष होने के कारण बहुत असुविधा होती है। मैंने कहीं-कहीं सौकर्य के हेतु दीर्घ मात्राओं को भी लघु करके पढ़ने की चाल रखी है। लोग विशेष इच्छा करेंगे और स्पष्ट अनुमति प्रकाश करेंगे तो मैं और भी लिखने का यत्न करूँगा।’

निश्चय ही भारतेंदु ने खड़ी बोली में कविता लिखने के इस यत्न को और आगे बढ़ाया और अपने नाटकों में जहाँ-तहाँ कहीं ब्रज और खड़ी बोली दोनों को साथ मिलाकर कहीं सिर्फ खड़ी बोली में, कहीं खड़ी बोली की उर्दू शैली में कविताएँ लिखी हैं। कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं :

यह है सुहाग का अचल हमारे बाना।

असुगन की मूरति खाक न कभी चढ़ाना।।

सिर सेंदुर देकर चोटी गूंथ बनाना।

कर चूरी मुख में रंग तमोल जमाना।।

पीना प्याला भर रखना वही खुमारी।

साँची जोगिन पिय बिना वियोगिन नारी।।

है पंथ हमारा नैनों के मत जाना।

कुल लोक वेद सब औ परलोक मितना।।

शिवजी से जोगी को भी जोग सिखाना।

हरिचंद एक प्यारे से नेह बढ़ाना।।

‘अंधेर नगरी’ नाटक में व्यंग्योक्ति के माध्यम से :

चूरन सभी महाजन खाते।

जिससे जमा हजम कर जाते।।

चूरन खावें एडिटर जात।

जिनके पेट पचे नहीं बात।।

चूरन साहेब लोग जो खाता।

सारा हिंद हज़म कर जाता।।

चूरन पूलिसवाले खाते।

सब कानून हजम कर जाते।।

उपर्युक्त दोनों उदाहरणों को ध्यान से देखा जाए तो एक विशिष्ट वास्तविकता हमारे सामने उद्घाटित होगी। पहले उदाहरण में अभिव्यक्ति पक्ष अत्यंत शिथिल है, लेकिन दूसरे उदाहरण में गृहीत तथ्य अत्यंत सहजता और तीखेपन से उद्घाटित हुआ है। इससे हमारे सामने कुछ विशेष निष्कर्ष आते हैं। भारतेंदु जब भक्ति या श्रृंगार जैसे परंपरागत विषयों पर खड़ी बोली हिदीं में काव्य रचना करते हैं तो . उनकी भाषा लड़खड़ा जाती है लेकिन नये विषयों पर लिखते समय अभिव्यक्ति में किसी प्रकार की शिथिलता नहीं दिखायी देती। यदि इन्होने चिंतन से सम्बद्ध नये विचार प्रधान विषयों पर खड़ी बोली हिंदी में रचना की होती तो शायद उनके सामने विशेष दिक्कत नहीं आती। यह एक ऐसी वास्तविकता है, जिसे भारतेंदु संभवतः पहले समझ नहीं पाए थे।

भारतेंद की खड़ी बोली की कविताएँ जितनी भी हैं उनमें वह ब्रज की केंचुल छोड़कर अपना नया रूप धारण करने का प्रयास करती दिखाई पड़ती हैं। विशेषकर उनके नाटकों में जहाँ कहीं खड़ी बोली की कविताएँ वे लिखते हैं वे सायास नहीं बल्कि ज़रूरत के अनुसार लिखी गई दिखाई पड़ती हैं। वैसे भी गद्य की भाषा खड़ी बोली हो और पद्य की ब्रज-भाषा – यह बात भारतेंदु को भी निश्चय ही खलने लगी होगी। यह तो उन्हें पता था ही कि खड़ी बोली में कविता लिखने की वह ही शुरूआत नहीं कर रहे हैं बल्कि खड़ी बोली की उर्दू शैली और दखनी शैली में कविताएँ उनसे पहले से लिखी जाती रही हैं। खड़ी बोली में प्राचीन कीर्तनों के मिलने की बात स्वयं भारतेंदु ने ‘हिंदी भाषा’ शीर्षक निबंध में कही है। इस कीर्तन परंपरा में स्वयं उनके पिता बाबू गिरधर दास की रचनाएँ भी मिलती हैं। भारतेंदु की खड़ी बोली की कविताओं का विस्तृत विश्लेषण विष्णुकांत शास्त्री ने ‘भारतेंदु की खड़ी बोली की कविताएँ’ निबंध में किया है। जिससे यह बात तो सिद्ध हो ही जाती है कि भारतेंदु स्वयं इस बात को समझने लगे थे कि अब पद्य की भाषा ब्रज अधिक दिन तक बने नहीं रह सकती। इसलिए ‘साधुभाषा’ (खड़ी बोली) में कविता रचने की जो शुरूआत उन्होंने 1872 ई0 में की, उसे आगे बढ़ाने का प्रयास करते रहे। इसके बाद 1885 में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई। लेकिन उनके गुप्त समकालीन अन्य कवियों ने खड़ी बोली में काव्य रचने के अपने प्रयास जारी रखे।

अभी तक प्रबंध काव्य, महाकाव्य, खण्डकाव्य, नाटक सरीखे काव्यरूप ही परंपरा से प्रचलित थे। जीवन की एक खास ढाँचे में विशेष गति थी, सारा समाज ईश्वर केंद्रित विश्वासों, आस्थाओं, मूल्यों के इर्द – गिर्द संचालित होता था। इसलिए इन मूल्यों के आधार पर जीवन का आरंभ, मध्य, अंत निश्चित था। हर घटना, दुर्घटना के कार्य-कारण संबंध में कारण ईश्वर केंद्रित था लेकिन नवजागरण के आंदोलन ने मनुष्य के कर्म को भी महत्ता प्रदान की। आलस, नकारापन, अशिक्षा, अंधविश्वास, रूढ़ियों पर तुषारापात होने लगे। ऐसे में जीवन भी खण्डकाव्य महाकाव्य के रूपों को तोड़ कर बाहर आ गया। ऐसे लक्षण ग्रंथों का सहारा किसी ने नहीं खोजा जो काव्य रूप/ काव्य-भाषा की कसौटी बनें। बल्कि एक ही कसौटी भारतेंदु ने देखी उसी के आधार पर काव्य विषय, भाषा, रूप निर्धारित किया – और वह कसौटी थी जनता और ठोस जनमानस। खण्डकाव्य पढ़ना, सुनना, सुनाना उस युग में संभव ही नहीं रहा। इसलिए समकालीन जीवन के दबावों ने नये काव्यरूपों को भी जन्म दिया। आचार्य शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में इसे यूँ रेखांकित किया : ‘विषयों की अनेकरूपता के साथ-साथ उनके विधान का ढंग भी बदल चला।

प्राचीन धारा में ‘मुक्तक’ और ‘प्रबंध’ की जो प्रणाली चली आती थी, उससे कुछ भिन्न प्रणाली का भी अनुसरण करना पड़ा। पुरानी कविता में ‘प्रबंध’ का रूप कथात्मक और वस्तु वर्णात्मक ही चला आता था। या तो पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक वृत्तों को लेकर छोटे-छोटे आख्यान काव्य रचे जाते थे – जैसे पद्मावत, रामचरितमानस, रामचंद्रिका, छत्रप्रकाश, सुदामाचरित, दानलीला, चीरहरन लीला इत्यादि – अथवा विवाह, मृगया, झूला, हिंडोला, ऋतुविहार आदि को लेकर वस्तुवर्णात्मक प्रबंध। अनेक प्रकार के सामान्य विषयों पर कुछ दूर तक चलती हुई विचारों और भावों की मिश्रित धारा के रूप में छोटे-छोटे प्रबंधों की चाल न थी।’ 

काव्यरूप की दृष्टि से भारतेंदु ने मुक्तक काव्य रचना की जिनमें लोकछंदों, लोकरागों, (ठुमरी, दादरा, मलार, इमन आदि) लोकसंगीत शैली (लावनी) दोहों, व्यंग्योक्तियों (उर्दू का स्यापा, बंदरसभा) समस्या पूर्ति, मुकरियों, आदि के द्वारा नये-नये प्रयोग भी किए।

मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-भाषा और काव्य-शिल्प

भारतेंदु हरिश्चंद्र की मृत्यु के उपरांत कुछ समय बाद ही यह भावना ज़ोर पकड़ने लगी कि गद्य और पद्य की दो भाषाएँ नहीं होनी चाहिए। खड़ी बोली की जो अभी तक क्षीण परंपरा थी, उसकी ओर भी लोगों का ध्यान जाने लगा। कबीर, नामदेव, अमीर खुसरो के बाद इंशा ने अपनी कहानी ‘रानी केतकी की कहानी’ में भी खड़ी बोली के पद्य उर्दू छंदों में रचे थे। नज़ीर अकबराबादी (1700-1820 ई०) ने भी कृष्ण-मीरा संबंधी पद्य खड़ी बोली में रचे थे। इस प्रकार भारतेंदु की मृत्यु के बाद भाषा का यह मसला जब ज़ोर पकड़ने लगा तब खड़ी बोली को पद्य के लिए अपनाने के लिए एक आंदोलन ही उठ खड़ा हुआ। तब तक खड़ी बोली की तीन छंद प्रणालियाँ लोगों के सामने थीं – हिंदी के कवित्त सवैया की प्रणाली, उर्दू छंदों की प्रणाली और लावनी का ढंग। मुजफ्फरपुर के बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री खड़ी बोली का झंडा लेकर उठे। संवत 1845 ई0 में उन्होंने ‘खड़ी बोली आंदोलन’ की एक पुस्तक भी छपवाई जिसमें उन्होंने ज़ो-शोर से यह राय व्यक्त की अब तक जो कविता हुई, वह तो ब्रज-भाषा की थी, हिंदी की नहीं। हिंदी में भी कविता हो सकती है। वे भाषातत्व के जानकार न थे। उनकी समझ में खड़ी बोली ही हिंदी थी।’

इन सबके बावजूद भारतेंदु के सहयोगी कवि नये विचार नये विषयों की ओर तो प्रवृत्त हुए, पर भाषा उन्होंने ब्रज ही रखी। खड़ी बोली में नये विचार नये विषयों और स्थानीय रंगों का पुट लेकर हिदीं के लावनी, ख्याल जैसे छंदों में सर्वप्रथम पूर्ण रचना लेकर सामने आने वाले कवि थे श्रीधर पाठक और उनकी रचना थी ‘एकांतवासी योगी’ जो वस्तुतः था तो ओलिवर गोल्ड स्मिथ की कृति The Hermit का अनुवाद लेकिन उसमें जो स्वच्छंदता, प्रकृति के स्वाभाविक रूप थे वे कविता को उसकी रूढिबद्ध पद्धति और प्रणाली से बिल्कुल अलग नई ज़मीन पर लाकर खड़ा करके दिखा रहे थे।

इसी पृष्ठभूमि में मैथिलीशरण गुप्त ब्रज-भाषा के संस्कारों के साथ साहित्य क्षेत्र में आए और शुरू की रचनाएँ ब्रज-भाषा में ही की। लेकिन शीघ्र ही महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आने पर वे खड़ी बोली में काव्य रचना करने लगे। दरअसल महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा ‘सरस्वती’ पत्रिका का सम्पादन करना खड़ी बोली काव्य-भाषा की स्थापना की दिशा में एक निर्णायक एवं निर्देशित कदम था। उन्होंने शीघ्र ही अपने प्रभाव से नये कवियों का एक ऐसा संगठन तैयार कर लिया जो उनके निर्देशानुसार खड़ी बोली में काव्य-रचना करने को उत्सुक भी था, और कविता में सुधार लाने को भी। द्विवेदी जी ने स्वयं ब्रजभाषा से काव्य-रचना की शुरूआत की थी किंतु शीघ्र ही वे स्वयं खडी बोली में लिखने लगे थे। काव्य-भाषा के परिष्कार काव्य-शैली के निर्धारण के बारे में उनके अपने मत थे। – आचार्य शुक्ल के शब्दों में ‘सरस्वती के संपादन काल में उनकी प्रेरणा से बहुत से नये लोग खड़ी बोली में कविता करने लगे। उनकी भेजी हुई कविताओं की भाषा आदि दुरूस्त करके वे सरस्वती में दे दिया करते थे। इस प्रकार के लगातार संशोधन से धीरे-धीरे बहुत से कवियों की भाषा साफ हो गई। उन्हीं नमूनों पर और लोगों ने भी अपना सुधार किया।’

मैथिलीशरण गुप्त ने 1903 से ‘सरस्वती’ में अपनी कविताएँ भेजनी शुरू की थी और इस पत्रिका में 1920 तक उनकी कविताएँ प्रकाशित होती रहीं।

दरअसल काव्य-भाषा के रूप में खड़ी बोली के स्थापन का यह प्रारंभिक दौर था जिसमें खड़ी बोली काव्य-भाषा के रूप में अपने पाँवों पर खड़ा होना सीख रही थी। इसी दौर की रचना है मैथिलीबाबू की ‘भारत भारती’। इसकी निम्नलिखित पंक्तियों का जायज़ा लें :

उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियम एक अखण्ड है

चढ़ता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्तण्ड है।

अतएव अवनति ही हमारी कह रही उन्नति कथा?

उत्थान ही जिसका नहीं, उसका पतन ही क्या भला?

इन पंक्तियों को पढ़ते समय क्या आपको ऐसा नहीं लग रहा कि यह तो निरी गद्य की पंक्तियाँ हैं। इनमें कविता कहाँ है? गद्य भाषा की तरह व्याकरण सम्मत पूरे-पूरे वाक्य, न अलंकार, न बिंब योजना, न व्यंजना, न लक्षणा एक स्तरीय अर्थ — ये सब बातें आज के काव्य, काव्य-भाषा की तुलना में चाहे आपको अटपटी लगें लेकिन उस दौर में खड़ी बोली काव्य-भाषा का और मैथिलीबाबू की काव्य-भाषा का भी यह प्रारंभिक चरण था, जब वे द्विवेदी जी के प्रभाव में ‘बोल चाल की’ और ‘गद्य की भाषा’ का काव्यानुसरण कर रहे थे। डॉ० नामवर इस पर विचार करते हुए कहते हैं कि ‘ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक हिंदी कविता के आरंभिक काल में मैथिलीशरण गुप्त सहित अधिकांश कवि लिखित गद्य को ही बोलचाल की भाषा समझते थे।

कविता के अंदर गद्य के समान पूरे वाक्य रखने का प्रयास इसी समझ का परिणाम है।’ (मैथिलीशरण गुप्त एक मूल्यांकन, पृष्ठ 92) दूसरी ओर आचार्य शुक्ल इसे मैथिलीशरण के काव्य विकास का प्रथम चरण मानते हुए कहते हैं ‘सरस्वती में प्रकाशित अधिकांश कविताएँ तथा ‘भारत भारती’ इस अवस्था की रचना के उदाहरण हैं। ये रचनाएँ काव्य प्रेमियों को कुछ गद्यवत, रूखी और इतिवृत्तात्मक लगती थीं। इसमें सरस और कोमल पदावली की कमी भी खटकती थी। बात यह है कि यह खड़ी बोली के परिमार्जन का काल था।’ 

आचार्य शुक्ल ने मैथिलीशरण गुप्त के काव्य-भाषा के विकास के अन्य दो चरण भी रेखांकित किए हैं : ‘इसके अनंतर गुप्त जी ने बंगभाषा की कविताओं का अनुशीलन तथा मधुसूदन दत्त रचित ब्रजांगना, मेघनादवध आदि का अनुवाद ऊबड़-खाबड़ और अव्यवहृत संस्कृत शब्दों की ठोकरें कहीं-कहीं, विशेषतः छोटे-छोटे छंदों के चरणांत में, अब भी लगती हैं। ‘भारत भारती’ और ‘वैतालिक’ के बीच की रचनाएँ इस दूसरी अवस्था के उदाहरण में ली जा सकती हैं।’

दूसरे चरण की गुप्तजी की काव्य-भाषा की बानगी देखें :

मोर नाचते थे उमंग से, मेघ मृदंग बजाते थे,

कोयल के सहयोगी होकर चंचल चातक गाते थे,

रस बरसाती हुई घटा भी. नीचे उतरी आती थी,

प्रकृति निज पट पल-पल में प्रकट पलटती जाती थी।

निश्चय ही यहाँ भी इतिवृत्तात्मकता है, पूरे वाक्य व्याकरणसम्मत हैं, गद्य का विधान भी वैसा ही है किंतु प्रकृति का रूप कुछ-कुछ स्वच्छंदता का एहसास लिए हुए भी है।

गुप्तजी के काव्य विकास का तीसरा चरण वह है, जब छायावादी काव्य अपने उत्कर्ष पर है। गुप्तजी भी प्रगीत और मुक्तक रचना की ओर प्रवृत्त होते हैं। ‘साकेत’ और ‘यशोधरा’ इस दौर की प्रतिनिधि रचनाएँ कहीं जा सकती हैं, जिनमें उनकी काव्य-भाषण में पहले की अपेक्षा काफी निखार आया है।

गुप्तजी की काव्य-भाषा. पर दो प्रकार के स्पष्ट विभिन्न विचार विद्वानों ने प्रकट किए हैं। एक ओर तो वे आलोचक विद्वान हैं जो यह मानते हैं कि उस युग में वक्त की सबसे बड़ी ज़रूरत आराम से बैठकर काव्यकला के नियमों को गढ़ना या कला को तलाश, माँज कर चमकाने की नहीं थी बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन और नवजागरण को दिशा देने की थी, जनता को जागृत करके देशहित की ओर प्रेरित करने की थी और ऐसी परिस्थितियों में मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-भाश एक जनभाषा के रूप में दिखाई पड़ती है। उसकी सरलता, सहजता सहज ही पाठकों को संप्रेषणीय हो सकने में सहायक का काम करती है। इसलिए ऐसे आलोचक उन्हें ऐसी इतिवृत्तात्मक काव्य-भाषा के कारण ‘जन साधारण’ का कवि’ (नंद दुलारे वाजपेयी : हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी) या ‘जन संबद्ध कला के अप्रतिम उदाहरण’ (रेवती रमण : मैथिलीशरण गुप्त) के रूप में देखते हैं।

किंतु दूसरी ओर वे विद्वान हैं जिनका मानना है कि श्रीधर पाठक ने ‘एकांतयोगी’ के द्वारा खड़ी बोली में जिस काव्य रचना की शुरूआत की थी और जिसमें काव्य-भाषा लोकछंदों के आधार पर बोलचाल की लय को साथ लेकर जनभाषा बनने की संभावनाओं को इंगित करती है, उसका विकास आगे नहीं हो पाया और गुप्तजी ने इस परंपरा को नहीं अपनाया बल्कि ‘काव्य रचना की दिशा में श्रीधर पाठक की जीवंत परंपरा को प्राकृत दिशा में आगे बढ़ाने के स्थान पर ऐसी दिशा में मोड़ दिया जहाँ खड़ी बोली अपनी लोच खोकर गद्य पथ पर बढ़ चली’ 

‘बोलचाल की भाषा’ और ‘गद्य की भाषा’ वस्तुतः एक नहीं होती। गद्य की भाषा बातचीत की भाषा का व्यवस्थित रूप होता है, जिसकी इकाई वाक्य होती है और जो व्यारकण सम्मत होती है। दूसरी ओर बोलचाल की भाषा निर्द्वन्द्व भाव से फक्कड़ मस्त हवा के झोंकों की तरह, तरह-तरह के रंगों से रंगी हुई, मुहावरों, लोकोक्तियों, लोकछंदों, लोकजीवन का संस्पर्श लिए हुए होती है। इस रूप में यदि देखें तो गुप्तजी की भाषा बोलचाल की नहीं बल्कि गद्य की भाषा ही प्रतीत होती है। गुप्तजी की काव्यभाषा की कमज़ोरियों की ओर इशारा करते हुए डॉ० नामवर सिंह लिखते हैं : ‘पर काव्य में इस भाषा की एक सीमा है। वह सीमा नीरसता नहीं है जैसा कि आमतौर से कहा जाता है। भाषा रागात्मक न सही, तथ्यात्मक तो है। तथ्यात्मक होना दोष नहीं। दोष यह है कि वह इकहरी है। इतनी संश्लिष्ट नहीं कि किसी वस्तु, दृश्य, घटना या जीवनानुभव को उसकी समग्र संकुलता में व्यक्त कर सके, इंद्रिय बोध से लेकर भावबोध और विचार-बोध के स्तरों तक जीवन व्यापार का अनुभव करा सके और उसका बिम्ब भी प्रस्तुत कर सके। गुप्तजी की इकहरी भाषा में यह क्षमता न थी। भाषा का यह इकहरापन वस्तुतः उनके भावबोध और चिंतन के इकहरेपन का सूचक है।’ 

जो भी हो, यह बात तो तय है कि गुप्तजी का काव्य-भाषा के रूप में खड़ी बोली को स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। किसी भी काव्य-भाषा के स्थापन की कसौटी उसका पाठकों द्वारा स्वीकार किया जाना भी होता है। इस दृष्टि से गुप्तजी काफी भाग्यशाली रहे हैं क्योंकि ‘भारत भारती’ उन दिनों नवयुवकों, युवतियों में देशप्रेम, राष्ट्रीय प्रेम की भावना को पुष्ट करने में काफी प्रभावी और प्रचलित रही है। हालांकि आगे चलकर गुप्त जी की काव्य-भाषा में छायावादी प्रभाव के कारण व्यंजना बढ़ी किंतु उनकी काव्य-भाषा का मूल, प्रभावी स्वर उनके अंतिम रचनाकाल तक वैसा ही बना रहा। इसके लिए यदि कोई मुख्य कारण है, तो उनके चिंतन का इकहरापन ही।

जहाँ तक काव्य रूप और छंद विधान का प्रश्न है, तो गुप्तजी की रुचि विशेषतः प्रबंधात्मक खंड-काव्य रूपों की ओर ही अधिक रही है। उनके खंङ-काव्य ‘रंग में भंग’, ‘जयद्रथ वध’, ‘शकुंतला’, ‘पंचवटी’, ‘शक्ति’, ‘सैरन्ध्री’, ‘वन वैभव’, ‘विकट भट’, ‘नहष’, ‘अर्जन और विसर्जन’, ‘काबा और कर्बला’, ‘अजित’, ‘हिडिम्बा’ आदि पौराणिक इतिहास से लिए गए कथानकों पर आधारित है। ‘साकेत’, ‘प्रियप्रवास’ के बाद खड़ी बोली का दूसरा महाकाव्य माना जाता है। प्रबंधात्मकता के कारण आयी वर्णनात्मकता का इनकी भाषा के इकहरेपन में अत्यधिक योगदान है।

हालांकि गुप्तजी ने गीतिकाव्यों की भी रचना की है किंतु उनका मन प्रबंधकाव्य जैसे काव्यरूपों में ही रमता दिखाई पड़ता है। काव्यवस्तु के चयन में भी उन्हें पौराणिक इतिहास में विचरण करना भला लगता है। काव्यरूप की दृष्टि से उनकी रचना ‘साकेत’ महाकाव्य कहलाने की एक अदम्य इच्छा का प्रतिफलन लेकर साहित्य संसार में आई, लेकिन महाकाव्य की गरिमा से ‘साकेत’ वंचित ही रही।

‘साकेत’ चूँकि रामकथा का आधार लेकर लिखी गई है, इसलिए आलोचकों ने इसे वाल्मीकि, भवभूति, तुलसीदास आदि की रामकाव्य परम्परा में रखकर विश्लेषित करने की कोशिश करते हए रामचरितमानस से इसकी तुलना भी की है। दूसरी बात है कि यदि इसे महाकाव्य कहा गया तो पारंपरिक महाकाव्य की निर्धारित विशेषताओं, लक्षणों के आधार पर ही इसे परखा जाँचा गया। ऐसा लगता है कि हिंदी के लेखक की सामूहिक मानसिकता में राम जीवन के ऐसे प्रतीक के रूप में विद्यमान हैं जो उसे जब तब चुनौती देते रहते हैं और वह इस मिथकीय पात्र से अपनी जातीय पहचान को जोड़ते रहने का प्रयत्न करता रहता है। आपको याद ही होगा कि आगे चलकर निराला ने ‘राम की शक्तिपूजा’ जैसी महाकाव्यात्मक कविता लिखी और अभी हाल ही में भगवान सिंह का ‘अपने-अपने राम’ उपन्यास भी चर्चा के केंद्र में रहा। स्वयं मैथिलीशरण गुप्त ने राम के विषय में लिखा है :

‘राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है

जो भी कवि बन जाए सहज संभाव्य है।

‘महाकाव्य’ की पारंपरिक परिभाषा के अनुसार मोटे तौर पर महाकाव्य जीवन का विराट चित्र प्रस्तुत करने का भगीरथ प्रयत्न करता है। इसमें कोई एक नायक केंद्र में होता है, उसके जीवन के विकास में सहायक अन्य सहायक पात्र होते हैं, कई उपकथाएँ होती हैं, प्रकृति वर्णन होता है, सुखद-दुखद स्थितियाँ होती हैं, प्रारंभ में मंगलाचारण, सरस्वती वंदना, सम्पूर्ण काव्य का विभिन्न निर्धारित सर्गों में बंटे होना, प्रत्येक सर्ग का भिन्न छंद में वर्णन किए जाने जैसी तमाम रूढ़ियाँ होती हैं। इस दृष्टि से भी ‘साकेत’ के महाकाव्यत्व पर आलोचक विद्वानों ने विचार किया है। किंतु सबसे अधिक ध्यान आकर्षित · किया. है ‘साकेत’ में नायकत्व की समस्या ने।

आमतौर पर महाकाव्य का नायक कोई ऐसा चरित्र होता है, जिसके इर्द-गिर्द और जिसके लिए कथा का समस्त ढांचा खड़ा किया जाता है। पारंपरिक ‘. महाकाव्यों में नायक का धीरोदात्त या कुलीन क्षत्रिय होना एक स्वीकार्य रूढ़ि है। नायक को महान गुणों से भी सम्पन्न होना चाहिए। ऐसा नायक एक सफल महाकाव्य में निश्चय ही अपनी जातीय भावनाओं और आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता है।

‘साकेत’ में नायकत्व की समस्या इसके रामकथा पर आधारित होने के कारण भी पैदा हुई है। चूंकि गुप्तजी ने इसमें लक्ष्मण और उर्मिला की कथा का विस्तार रामकथा की पृष्ठभूमि में किया है, इसलिए ये तीनों पात्र नायकत्व की उपाधि के अधिकारी बनते दिखाई पड़ते हैं। लेकिन इसका समाधान गुप्तजी के कथनों से और गाँधीजी द्वारा उन्हें लिखे पत्रों से ही हो जाता है कि महाकाव्य में नायकत्व की अधिकारिणी ‘उर्मिला’ है। क्योंकि इसकी रचना ही ‘उर्मिला’ को प्रकाश में लाने के लिए हुई है। ‘साकेत’ में भी सारी घटनाएँ उर्मिला के विरह की भूमिका बनती दिखाई पड़ती हैं। बारह में से दो पूरे सर्ग उर्मिला के विरह को समर्पित हैं। गुप्तजी का मानना है कि रामकथा में उर्मिला की उपेक्षा हुई है। उसी उपेक्षा की भरपाई करने के लिए उन्होंने उर्मिला को सजीव करने का प्रयत्न किया है।

संस्कृत महाकाव्यों के शास्त्रीय लक्षणों के आधार पर यदि देखें तो गुप्तजी ने इनका निर्वाह करने की कोशिश की है। आरंभ में मंगलाचरण और सरस्वती वंदना है। सर्ग भी सात से अधिक हैं (महाकाव्यों में सात से अधिक सर्ग होने का विधान है)। प्रत्येक सर्ग में छंद भी नया इस्तेमाल किया है (केवल नवे सर्ग के अलावा) ‘षडऋतु वर्णन, पुरूषार्थ-चतुष्ट्य वर्णन, गिरि प्रांत, सरिता वर्णन के अलावा वस्तु संगठन, चरित्र-चित्रण, भाववर्णन, युग-धर्म-वर्णन तथा रस की भी प्रतिष्ठा संस्कृत महाकाव्यों के अनुकरण पर की गई है।

फिर भी खड़ी बोली में महाकाव्य के रूप में ‘प्रियप्रवास ‘ के बाद यह दूसरा ऐसा प्रयास था जो रामकथा पर आधारित होते हुए भी अपने समकालीन स्वरों के कारण काफी महत्वपूर्ण बन गया। खड़ी बोली जब काव्य का माध्यम बनी, तभी छंद का प्रश्न भी सामने आया। चूँकि महावीर प्रसाद द्विवेदी, खड़ी बोली के नये कवियों का मार्ग दर्शन कर रहे थे तो उनके छंद के चुनाव का असर बाकी कवियों पर भी हुआ। द्विवेदी जी को संस्कृत के गणवृत्त पसंद थे। उनकी देखादेखी मैथिलीशरण गुप्त ने भी संस्कृत के गणवृत्त छंदों को अपनाने का प्रयास किया। अपने एक लेख में डॉ० नामवर सिह ने विस्तार से छंदों की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है और यह भी बताया है कि क्यों हिंदी में संस्कृत गणवृत्त के छंद उपयुक्त नहीं। बहरहाल, गुप्तजी शीघ्र ही संस्कृत के गणवृत्तों से निकलकर हिंदी के छंद हरिगीतिका की ओर मुड़ गए।

भारतेंदु और मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-भाषा और शिल्प की तुलना

किसी रचनाकार की भाषा और उसकी चेतना की प्रकृति का गहरा संबंध होता है। इसी तरह रचना के वस्तुतत्व (कांटेण्ट) और उसके रूपतत्व (फार्म) में भी गहरा संबंध होता है। एक तरफ़ भाषा और चेतना का द्वंद्व तो दूसरी तरफ वस्तु तत्व और रूप तत्व द्वंद्व – यह दुहरा द्वंद्व कवि कलाकार को झेलना पड़ता है। इन दोनों प्रकार के द्वंद्वों को जिस गंभीरता के साथ भारतेंदु ने झेला है, उस तरह से शायद मैथिलीशरण गुप्त ने नहीं। भारतेंदु को भाषा से लेकर काव्य रूप तक स्वयं मार्ग ढूँढना पड़ा है, जबकि मैथिलीशरण गुप्त या तो महावीर प्रसाद द्विवेदी या किसी अन्य व्यक्ति के निर्देश पर या फिर लोक निर्देश से प्रभावित होकर अपनी काव्य-यात्रा के मार्ग पर आगे बढ़े हैं। फलस्वरूप दोनों की काव्य-भाषा का अंतर केवल पुरानी भाषा या नई भाषा का अंतर न होकर दोनों के अपने व्यक्तित्व का अंतर भी है जो इन दोनो की काव्य-भाषा के अंतर को रेखांकित करता है।

ब्रज-भाषा का सहारा लेते हुए जब अपनी भावाभिव्यक्ति में भारतेंदु परंपरागत पदों और गीतों की रचना से संतुष्ट नहीं होते तो वे कजली, विरहा, लावनी, चैता, खेमटा, ठुमरी, होरी, मुकरी, विदेशियाँ आदि लोक गीतों का सहारा ले लेते हैं। इसी प्रकार भाषा में ब्रज, खड़ी बोली हिंदी से संतुष्ट नहीं होते तो अरबी, फारसी, अंग्रेज़ी, बंगाली, पंजाबी, गुजराती आदि का सहारा लेने लगते हैं। जबकि हिंदी खड़ी बोली की अपनी बनी बनाई भाषा परिपाटी की लीक पर सीधे चलने वाले मैथिलीशरण गुप्त एकरस भाषा और कुछ गिने चुने छंदों के सहारे अपना काम निकालते हैं। द्विवेदी युगीन वर्णनात्मकता और अपनी सपाट तथा इकहरी चेतना के कारण इनकी रुचि प्रबंध रचना की ओर ही अधिक रही है।

जबकि प्रबंधात्मकता को भारतेंदु ने प्रायः तिलांजलि दे रखी थी। इसके लिए उन्होंने नाटकों की रचना की, अन्य गद्य विधाओं का सूत्रपात किया। यह आवश्यकता गुप्तजी को कभी महसूस नहीं हुई। वेद पुराण और धर्म की शास्त्रीय मान्यताओं पर आक्षेप न करने के कारण गुप्त जी में तर्क-वितर्क का नितांत अभाव मिलता है, जिसका सीधा असर उनकी काव्य-भाषा पर पड़ा है। जबकि भारतेंदु ने प्राचीन भारतीय मान्यताओं को आलोचनात्मक दृष्टि से देखा है। उस पर टीका-टिप्पणी की है। यह आलोचनात्मक रूख इनकी भाषा में भी लक्षित किया जा सकता है।

सारांश

इस प्रकार खड़ी बोली काव्य की जिस परंपरा का सूत्रपात आधुनिक युग में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया, द्विवेदी युग में आकर एक समर्थ काव्य-भाषा बनने की उसकी यात्रा शुरू हो गई। सम्पूर्ण द्विवेदी युग में अन्य कवियों के बावजूद गुप्तजी अकेले एक ऐसे कवि के रूप में सामने आते हैं जिन्होंने खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्य किया। उनकी ‘भारत भारती’ या अन्य ऐसी ही रचनाएँ कलात्मक स्तर पर चाहे ऊँची न रही हों किंतु पाठकों के बीच उनका स्थान बना और ब्रज-भाषा जो भारतेंदु युग के बाद हाशिए पर थी, एकमुश्त रूप से काव्य की दुनिया से निकल गई।

काव्य-भाषा के निर्माण में भारतेंदु को जो श्रम और मौलिक प्रयास करना पड़ा, उससे गुप्त जी का पाला नहीं पड़ा। इसलिए दोनों की काव्य-भाषा की प्रकृति में हमें काफी अंतर मिलेगा। यह अंतर ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली या हिंदी बनाम उर्दू के मध्य सीमित न होकर काव्य-भाषा की प्रकृति पर आधारित है। ब्रज-भाषा के पारंपरिक स्वरूप को जिस प्रकार भारतेंदु ने बदला, हिंदी खड़ी बोली का जिस तरह उपयोग किया, उसके पीछे बहुत सारी चुनौतियाँ रही हैं। इन चुनौतियों का सामना गुप्त जी को नहीं करना पड़ा। इसलिए गुप्त जी जिस तरह अपनी चेतना के लिए निर्द्वद्ध हैं, उसी तरह भाषा के संबंध में भी। काव्य-भाषा और अभिव्यक्ति दोनों के लिए भारतेंदु को कठिन संघर्ष करना पड़ा था।

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