सूखा बरगद : अल्पसंख्यक समाज में असुरक्षा की भावना

मंजूर एहतेशाम का “सूखा बरंगद” उपन्यास मुस्लिम समाज में व्याप्त असुरक्षा की भावना को बढ़ाने के लए जिम्मेदार सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजीनीतिक कारणों को उजागर करता है। “सूखा बरगद” की यह दूसरी इकाई इसी केंद्रीय समस्या पर आधारित है। मुस्लिम समाज में व्याप्त असुरक्षा की भावना को मंजूर एहतेशाम ने सामाजिक-मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में देखा है। देश में बढ़ रहे सांस्कृतिक, राजनैतिक और धार्मिक उग्रवाद का यह परिणाम है। परिणामतः हिंदू-मुसलमानों के बीच एकता की भावना खत्म हो और उनमें एक दूसरे के प्रति द्वेष की भावना और आतंक बढ़ता जाए; जिससे सत्ता में बैठे सत्ताधारी और सत्ता में आने के लिए कोशिश करते अन्य अपना-अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे। इन्हीं प्रश्नों को आधार बनाकर इस इकाई के द्वारा समाज में फैल रहे इस विषाक्त वातावरण पर प्रकाश डाला गया है। 

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • अल्पसंख्यक समाज में असुरक्षा की भावना को बढ़ाने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक तथा धार्मिक कारणों को जान सकेंगे,
  • ऐतिहासिक तथ्यों की गलत प्रस्तुति और भ्रामक समझ को जान बूझकर बढ़ाने के कारण पैदा हुए तनाव के कारणों पर आप प्रकाश डाल सकेंगे,
  • भारतीय मुसलमान अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति अत्यधिक संवेदनशील और सजग है। क्या उन्हें डर है कि सरकार और बहुसंख्यक हिंदु संप्रदाय उनकी पहचान मिटाने की कोशिश में जुटे हुए हैं?
  • आप इस अंर्तद्वंद्व को गहराई से समझ सकेंगे। धार्मिक उत्तेजना फैलाकर कोई एक संप्रदाय अपने वर्चस्व को स्थापित करने की कोशिश में कैसे सांप्रदायिक हो जाता है, इसे आप समझ सकेंगे,
  • अशिक्षा, पिछड़ापन और अतीत में जीने की मनोवृत्ति के कारण मुस्लिम समाज का युवा वर्ग हीनता ग्रंथि से आक्रांत है। कैसे यह इस भारतीय समाज व्यवस्था और सांस्कृतिक अलगाव की देन है, इसे आप स्पष्ट कर सकेंगे,
  • मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन का कारण अशिक्षा, अंधविश्वास-रूढ़िवाद, अलगाव की वृत्ति है, इसे आप स्पष्ट कर सकेंगे,
  • अब्बू जैसे प्रगतिशील व्यक्ति मुस्लिम समाज में व्याप्त असुरक्षा की भावना को मानसिक बदलाव से दूर होने की संभावना को देखते हैं। इस पर आप अपना मत व्यक्त कर सकेंगे।

मंजूर एहतेशाम के उपन्यास “सूखा बरगद’ की केंद्रीय संवेदना को अगर किसी एक मनःस्थिति से व्यक्त करना हो तो कहा जा सकता है कि “डर’ इसका मुख्य भाव है। वह “डर’ जिसमें बेचैनी और तकलीफ पूरी तरह घुलीमिली हैं। उपन्यास में इस “डर’ का भोक्ता सुहैल है, जिसे कोई एक “विचार”, “एक भावना’ या कोई संस्कृति सुरक्षा नहीं दे पाती है। सुहैल एक व्यक्ति नहीं, “वर्गचरित्र” है, एक समुदाय का प्रतिनिधि है, जो अपनी संवेदनाशीलता के फलस्वरूप बार-बार आहत हुआ है, और जिसका गुस्सा उपन्यास के अंत में आकर एक न खत्म होने वाले “डर’ में परिवर्तित हो गया है।

मनोवैज्ञानिकों ने असुरक्षा के मनोविज्ञान के मूल में “डर’ – अपने अस्तित्व के नष्ट होने के डर को सक्रिय माना है। इस डर के कई नकारात्मक पहलू हैं। यह एक ओर हीनता-ग्रंथि को जनम देता है और प्रतिक्रिया में कछुए की तरह अपनी खोल में सिमटने की मनःस्थिति बनाता है। रूढ़िवाद, उग्रवाद आदि विसंगतियाँ इसी मनःस्थिति की देन होती हैं। दसरी ओर इसका एक सकारात्मक आत्मालोचन भी करता है और अपने स्वयं के अन्तर्विरोधों से जाता है। असुरक्षा का भाव जहाँ अनेक कुतर्कों को जन्म देता है, वहीं एकजुट और संगठित भी बनाता है। “सूखा बरगद’ में जहाँ विभाजन के बाद इस देश में रह गए मुसलमानों के मध्यवर्ग का जीवन प्रामाणिकता के साथ चित्रित हुआ है, वहीं विभाजन के साथ जुड़ी मुसलमानों की भावना विशेषतः स्वातंत्र्योत्तर परिवेश में असुरक्षा का अहसास बहुत व्यापक रूप में व्यक्त है। यह अभिव्यक्ति मात्र मनोवैज्ञानिक नहीं है, अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ और सरोकार भी इसमें पूरी तरह घुले-मिले हैं। उपन्यासकार ने असुरक्षा की भावना को व्यक्ति के स्तर पर मनोवैज्ञानिक गहराई में जाकर उभारा है और समुदाय-अल्पसंख्यक समाज के असुरक्षा-भाव के कारणों की जाँच विस्तारपूर्वक की है।

“सूखा बरगद’ में सारी घटनाओं का केंद्रीय स्थान भोपाल हे। इस शहर का बयान करते हुए उपन्यासकार ने लिखा है – “एक मुस्लिम रियासत होने के बावजूद बँटवारे के समय भी यहाँ कभी हिंदू-मुस्लिम तनातनी या झगड़ा फसाद नहीं हुआ था। बुजुर्गों की जबान में कहा जाए तो यहाँ हिंदू-मुसलमान भाई-भाई की तरह रहते थे। ज्यादा तादाद गरीबों की थी हिंदू भी और मुसलमान भी इसलिए वैसे भी लड़ने के लिए दोनों का एक ही दुश्मन था। बँटवारे के बाद यहाँ पाकिस्तान से आकर बसे सिंधी और पंजाबी शरणार्थी भी थे और आज ऐसे मुसलमान भी जो देश छोड़कर पाकिस्तान जाना नहीं चाहते थे।’

देश विभाजन की प्रतिध्वनि

सांप्रदायिकता के कारण होने वाले दंगों में सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि जहाँ अनेक धर्मों को मानने वाले लोग रहते हों, वहाँ धार्मिक तत्वों और मान्यताओं को लेकर आपस में टकराव होता रहता है। यह तो सभी जानते हैं कि पाकिस्तान खुद इस्लामी देश है तब भी वहाँ इस्लाम को मानने वाले सुन्नी और शिया इन दो संप्रदायों में किसी-न-किसी कारण को लेकर सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं। इसाइयों के कैथलिक और प्रोटेस्टंटो के बीच भी आपसी टकराहट चलती रही है। और इस सांप्रदायिक दंगों के पीछे जो मानसिकता होती है वह सर्वविदित ही है।

अपना धर्म या संप्रदाय और धर्मों या संप्रदायों से श्रेष्ठ है और दूसरा धर्म कनिष्ठ ही नहीं बल्कि उसके प्रति द्वेष की भावना भी रहती है। जब किसी भी धर्म को मानने वाला व्यक्ति या समुदाय विवेकहीन हो धर्म के माननीय मूल्यों को भूलकर अंधविश्वासी हो जाता है, तब मामूली सा कारण भी दंगों को भड़का सकता है।

दूसरा महत्वपूर्ण कारण है जब धर्म का उपयोग सत्ता हासिल करने या सत्ता में बने रहने के लिए किया जाता है। यह भी देखा गया है कि एक विशिष्ट धर्म के अनुयायियों के मन में दूसरे धर्म व उसके अनुयायियों के लिए इतना द्वेष और घृणा निर्माण करने वाली स्थितियाँ पैदा कर देते है कि विशिष्ट धर्म के लोग अपनी श्रेष्ठता व वर्चस्व के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार हो जाते हैं। तब स्वाभाविक रूप से दूसरे धर्म के अनुयायी अपनी सुरक्षा और वर्चस्व को सिद्ध करने हेतु उग्रवाद, कट्टरवाद का सहारा लेना शुरू करते हैं।

“सूखा बरगद’ की पृष्ठभूमि में शुरु में आपसी सद्भाव का माहौल है। लेकिन सन् साठ के बाद शहर की शांति भंग हो जाती है और दंगा हो जाता है। इस दंगे के अनुभवों से प्राप्त डर और खतरे को रशीदा कभी भूल नहीं पाती। अलविदा की नमाज और रंग-पंचमी एक ही दिन पड़ गए थे और किसी ने किसी पर रंग डाल दिया और सारा शहर नफरत की आग में जलने लगा। यह एक शहर भोपाल की कहानी नहीं है, अलीगढ़, भिवंडी, जमशेदपुर, बम्बई सब जगह इसी तरह शुरूआत होती है। विभाजन के बाद यहाँ रह गए मुसलमानों में यह डर प्रारंभ से था कि उन्हें बहुसंख्यक समाज द्वारा पाकिस्तान के निर्माण के लिए जिम्मेदार माना जाएगा और अपमानित किया जाएगा। राजनेताओं के तमाम आश्वासनों के बावजूद उन्हें अपने अस्तित्व की असुरक्षा का भय बराबर सताता रहा। दंगों ने निश्चय ही उनके डर को पुख्ता और प्रामाणिक बनाया होगा। रशीदा के अब्बू जैसे प्रगतिशील मुसलमान इस हादसे से डरते तो नहीं हैं, लेकिन स्तब्ध जरूर रह जाते हैं।

“वह बेचैनी और गुस्से का भाव उनके चेहरे पर, जैसे उनका कोई मुवक्किल जो बेकसूर है, कल फांसी पर टाँग दिया जाएगा। वह नपुंसक गुस्सा जिसे इंसान सिर्फ आप पर ही उतार सकता है।” (सूखा बरगद, पृ.42)

लेकिन अब्बू अल्पसंख्यकों में भी अल्पसंख्यक हैं। उनके विपरीत आम मुसलमान साम्प्रदायिक दंगे के दौरान लामबंद और सशस्त्र होने लगता है, ताकि अपने को सुरक्षित रख सके। इस उपन्यास में मुसलामन के असुरक्षा-भाव का पहला कारण दंगे की देन व्यापक खूनखराबा है। रही सही कसर कट्टरवादी तत्व पूरी कर देते हैं। भोपाल को राजधानी बनाए जाने पर असगर साहब जैसों का कहना है ” शहर को राजधानी बनाया ही इसलिए गया कि धीरे-धीरे यहाँ मुसलमानों का पत्ता साफ हो जाए  हिंदू उनके सिर पर जूते बजाएँ इधर राजधानी बनी, उधर शहर का पहला हिंदू-मुस्लिम फसाद हुआ ‘पंडित नेहरू मुस्लिम भाई अंदर ही अंदर । महासभाई और हमसे कहा जाता है, हम सुअर खाएं! क्यों खाए!” संपूर्ण उद्धरण कुतर्क और गलत ब्यानी का अद्भुत नमूना है। असगर साहब जेसे लोग अपनी संकुचित सोच को इतना अधिक सिकुड़ते है कि अंर्तबाहय केवल सांप्रदायिक माहौल ही इन्हें नजर आने लगता है। वे यह भी भूल जाते हैं कि “उन दिनों, जब विभाजित देश के दोनों भाग साम्प्रदायिक आग में जल रहे थे; आबादी के बहुत बड़े भाग पर ही नहीं, कानून-व्यवस्था की रखवाली करने वाली पुलिस और नौकरशाही पर भी सांप्रदायिकता का रंग चढ़ गया था। सौभाग्य की बात थी कि हमारे देश के बड़े नेता (नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, राजेन्द्र प्रसाद आदि) धर्मनिरपेक्षता के संस्कारों में रचे-बसे थे, जिनकी वजह से स्थिति पर जल्दी ही काबू पा लिया गया, हालांकि उसके दाग अब भी बाकी हैं।

 इस रूप में इंसान धर्म के लिए नहीं जीता बल्कि धर्म इंसान को बेहतर बनाने के लिए होता है। यह उस समय भला दिया जाता है। सत्ताधारियों के इस क्रूर खेल में भिन्न धर्म के जनसामान्य भी शामिल हो जाता है और विवेकहीन होकर अपना संतुलन खो बैठता है। और सबसे अधिक हानि उसी को सहनी पड़ती है। एक साँस में ही विकास कार्यों का विरोध, नेहरू जैसे धर्म-निरपेक्ष व्यक्ति को साम्प्रदायिक करार देना और जबर्दस्ती सुअर खिलाने का आरोप दिमागी दिवालिएपन का द्योतक है। लेकिन इस तरह के बयान आम मुसलमान को प्रभावित करते हैं। इसका कारण उसका पारिवारिक माहौल, आसपास फैली कट्टरता तो है ही, समय-समय पर होने वाले कटु अनुभव भी इसमें सहायक हैं। इन्हीं स्थितियों को मंजूर एहतेशाम रशीदा के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं “क्यों ऐसा होता है कि एक तरह की कठमुल्लाइयत से लड़ने के लिए हम एक दूसरी कठमुल्लाइयत अपना लेते हैं? जीवन तो एक सिलसिला है, एक मुसलसल बहाव, लेकिन अपने आप में झरने, सैलाब, भँवर या बिलकुल सूखे की संभावनाएं पूरी तरह समाए। जीवन मानकर चलने लगते हैं? आगे जाने वाला सब कुछ, किसी एक चीज को ही पूरा सच मानकर, तसल्ली दे लेते हैं? क्या होता है ऐसा?”

उपन्यास में इस बात पर जोर दिया गया है कि दो कौमों के सिद्धांत पर बना पाकिस्तान आज भी भारतीय मुसलमानों के लिए अच्छी-खासी मुसीबत है। जब कभी पाकिस्तान से युद्ध छिड़ा, भारतीय मुसलमान की देशभक्ति संदेह के घेरे में आ गई। रशीदा ने स्वीकार किया है कि उसकी और उस जैसे कइयों की हमदर्दी पाकिस्तान के साथ रही है, लेकिन उसका विवेक इस भावुकता से अक्सर टकराता है। उसने अपनी उलझन का बयान इन शब्दों में किया है “उस मुल्क से हमदर्दी कैसी, जिसे तुमने आज तक देखा ही नहीं? और इस गुनाह के अहसास से भी कैसे इन्कार किया जाए कि हमदर्दी थी। तो क्या मैं चाहती है पाकिस्तान जंग जीत जाए ? इसलिए कि वहाँ से जो आता है, वह ‘सलाम-अलैकुम’ कहता है और हम लोगों से मिलते-जुलते कपड़े पहनता है।” (सूखा बरगद, पृ.81) यह असली कारण नही है। वस्तुतः युद्ध के दिनों में आम मुसलमान को यह साबित करना होता था कि उसका मुल्क हिंदुस्तान है और वह स्वयं हिंदुस्तानी है। पाकिस्तान से हमदर्दी इसी अहसास की प्रतिक्रिया है “क्या यह हमदर्दी उन लोगों से बदला लेने को तो नहीं थी जो हमें कनखियों से देखते हैं और हमारे आते ही बात का टापिक बदल देते हैं – जैसे कोई उनकी अपनी राज की बात हो और हमारे जान लेने से बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा। हम जासूस हैं ना पाकिस्तान के।” 

छिप-छिप कर पाकिस्तान रेडियो सुनने का मसला भी संवेदनशील है। अब्बू जैसे लोग तो . रेडियो पाकिस्तान को जबरन झूठी खबरें देने के आधार पर खारिज कर देते हैं, लेकिन सुहैल इस मसले को आज हिंदुस्तान में मुसलमानों की हैसियत से जोड़ देता है

“और खुल्लमखुल्ला वह सुनता है जिसे यकीन हो कि उसे शक की नजर से नहीं देखा जाएगा। मुसलमान को इतनी इज्जत दी ही कहाँ गयी कि उसमें इतना ‘सेल्फ-कांफिडेंस’ आ सके उसे तो ज्यादा से ज्यादा यह समझ लिया गया है कि पड़ा रहने दो। जाना तो इसे पाकिस्तान ही है। जब तक हो सके बर्दाश्त कर लो।” (सूखा बरगद, पृ.81)

मुसलमानों की आत्मकेंद्रित मानसिकता

यह तरस खाने और घृणा करने का भाव सुहैल जैसे संवेदनशील युवा को बार-बार चुभता है। असगर, रजब अली जैसे लोग इसी चुभन का अपने स्वार्थों के लिए दुरुपयोग करते हैं। इस स्थिति में पहुँचने के लिए कुछ तो व्यवस्था की खामियाँ जिम्मेदार हैं और ज्यादातर भारतीय मुसलमानों की अपने तक सिमटी हुई मानसिकता जिम्मेदार है। उनके कुछ आरोप वास्तविक हैं और कुछ सरासर कल्पित और बेबुनियाद हैं। रहीम मियाँ अफीम की स्मगलिंग में पकड़े जाते हैं। उनके मित्रों और खानदानियों की स्पष्ट प्रतिक्रिया है कि उन्हें फँसाया गया है। एक सज्जन इस घटना को मुसलमानों की नियति से जोड़ते हैं – “सब जड़े काटने की, ठंडे दिमाग से सोची समझी साजिशें हैं।” अपराधी अगर मुसलमान है तो जानबूझ कर उसके प्रति कार्यवाही की गई है, यह सोच बहुत संकीर्ण है। धीरे-धीरे सुहैल का संकीर्ण होना साबित । करता है कि इस तरह के ख्यालात आग की तरह फैलते हैं। जब इंजीनियरिंग कालिज के प्रो. रजा कालिज से निकाले जाते हैं तो इसका कारण वह उनका मुसलमान होना मानता है। सुहैल की शादी एक हिंदू लड़की से नहीं हो पाती है तो वह इसके सामाजिक-धार्मिक कारणों को समझने के बजाए सीधी सपाट राय बना लेता है कि ऐसा उसके मुसलमान अर्थात् ऐकंड क्लास सिटीजन होने के कारण हुआ है।

”मैं चाहे जो भी सोचूँ, जो भी करूँ मुसलमान होने के नाते एक हिंदू की बराबरी नहीं कर सकता। यहाँ मेरी नहीं, जिनका मुल्क है, उनकी चलेगी।”

इस कथन में क्षोभ, अपमान, गुस्से की इंतिहां यहाँ तक पहुंची है कि यह मुल्क उसे अपना नहीं लगता। जिस सुहैल को मुसलमानों की तंगनजरी और भारतीयकरण जैसी कट्टर हिंदू मुल्लाइयत नापसंद थी, उसका साम्प्रदायिक हो जाना एक कटु सत्य है। मंजूर एहतेशाम ने . इस हादसे को चिंता के साथ देखा है और यथा संभव इस मसले को संतुलन के साथ प्रस्तुत किया है। उनके उपन्यास का सौंदर्य और महत्व बहुत कुछ मुसलमान मध्य वर्ग के डर, असुरक्षा-भाव और अपनी अलग “आइडेंटिटी’ बनाए रखने की कोशिश पर निर्भर है। यह । उपन्यास की खूबी है कि इस मुद्दे पर सारी बहस कहीं भी सूचना के तौर पर नहीं है, बल्कि इसका निर्वाह और संप्रेषण संवेदना के धरातल पर हुआ है।

आपने “सूखा बरगद’ उपन्यास जरूर पढ़ा है यह मानकर हम आपके सामने उन तथ्यों को स्पष्ट रूप से रख रहे हैं। आप खुद महसूस कर रहे होंगे कि भारत में रह रहे मध्यवर्गीय मुसलमानों के मनोविज्ञान – विशेषतः असुरक्षा और डर की मनःस्थिति को “सूखा बरगद ” में अहम मुद्दा बना कर पेश किया है। इसके अलावा पाकिस्तान के साथ भारत का तनाव और संघर्ष भी असुरक्षा के कारणों में एक है। बहुत से मुसलमानों की पाकिस्तान के प्रति इसलिए निष्ठा-भावना रहती है कि वह इस्लामी देश है। लेकिन पूरी कौम को पाकिस्तान-परस्त समझ लिया जाना खेद जनक है। इससे दो सम्प्रदायों के बीच दूरी और बढ़ती है। सुहैल जेसे संवेदनशील मुसलमान सिर्फ प्रतिक्रिया वश कट्टरता की ओर बढ़ जाते हैं।

इतिहास की गलत प्रस्तुति और भ्रामक समझ

भारतीय मुसलमानों के मन में असुरक्षा का डर उगने के पीछे और भी कई कारण हैं, जिन्हें “सूखा बरगद ” में कभी इशारे से तो कभी सीधे कहा गया है। हिंदुओं और मुसलमानों को जिस इतिहास से परिचित कराया जाता है, वह साम्प्रदायिकता की खाई को और चौड़ा करता है। मुसलमानों के लिए औरंगजेब “आलमगीर ” था, और शिवाजी “पहाड़ी चूहा”। हिंदुओं के लिए शिवाजी बहादुरी के प्रतीक हैं और उनके लिए कक्षा में पढ़ाया जाता है कि देश प्रेम का पाठ शिवाजी से सीखना चाहिए। वस्तुतः अकबर-राणा प्रताप, शिवाजी-औरंगजेब के युद्ध को. सामंती टकराहट न समझ कर हिंदू-मुसलमानों की लड़ाई मानना इतिहास की गलत व्याख्या है। इसने तनाव को बढ़ाने में मदद की है। इतिहास की भ्रामक समझ और गलत व्याख्या ने भी मुसलमानों को डराया है। इसके लिए जरूरी है कि शिक्षा-पद्धति और पाठ्यक्रम में वांछित परिवर्तन किए जाएँ, ताकि विभिन्न सम्प्रदाय एक दूसरे से घृणा करने के बजाय निकटता का अनुभव करें। लेकिन देखा यह जा रहा है कि सत्ता में आते ही एक धर्म विशेष की कोशिश इतिहास को तोड़ मरोड़ कर नए पाठ्यपुस्तकों में पेश करना और दो धर्मों में फिर तनाव पैदा करना। यह इंसान को इंसान से तोड़ने की कोशिश है। जो अंततः “डर’ में परिवर्तित होती है।

दंगे प्रायः मंदिर-मस्जिद, गाय-सूअर आदि को लेकर शुरू होते हैं और इनसे भय का वातावरण बनता है। मुसलमानों को जरा-जरा सी बात में लगता है कि इस्लाम खतरे में है। अब्बू जैसे . कुछ ही मुसलमान जानते हैं कि ये मंदिर-मस्जिद सामंती तत्वों के शोषण-तंत्र के अंग मात्र हैं। इनके लिए लड़ना-मरना बेवकूफी है। अब्बू के शब्दों में “एक सोची समझी साजिश कि बेगिनती मस्जिद ओर मंदिर बनवा दो, जहाँ यह आदमी हुकूमत करने वाले के भी हाकिम की इबादत करता रहे। सारे दुख मुकद्दर समझकर सहता रहे और उससे दुआ करे कि मरने के बाद जन्नत मिल जाए। और समझदार लोग इसी दुनिया में जन्नत के मजे लेते रहें, अवाम के साथ मनमानी करते रहें।

सांस्कृतिक अस्मिता खोने का डर

भारतीय मुसलमानों के एक और भय की ओर उपन्यासकार ने इंगित किया है। शिक्षित मुसलमानों को डर है कि उनकी सांस्कृतिक पहचना, उनकी भाषा उर्द, वेशभूषा-शेरवानीपाजामे के खो जाने का खतरा बना हुआ है। मुसलमानों का बहुमत सुहैल की तरह मानता है कि मजहब और संस्कृति एक है। सुहेल और परवेज की बातचीत में मुसलमानों की मानसिकता के दो विरोधी स्वर गूंजते और टकराते हैं। उपन्यासकार सुहैल की भावनाओं को सहानुभूतिपूर्वक और सर्जनात्मक ढंग से उभार सका है, लेकिन वैचारिकता के स्तर पर उसका झुकाव परवेज की ओर लगता है। सुहैल इस देश में मुसलमानों की नियति देख कर पूरी तरह निराश है। उसे लगता है, समूचा प्रशासन और सारे हिंदू उसकी हस्ती मिटाने को तुले हुए हैं। वह करिश्मों की उम्मीद छोड़ बैठा है। धार्मिक कट्टरता का विरोधी सुहैल का रजब अली के संसर्ग में उतनी ही तेजी से सांप्रदायिक बनना और अंत में रजब अली की राजनीति से उसका मोहभंग होना। एक तरह से आज के यथार्थ की प्रामाणिक अभिव्यक्ति है, रजब अली जैसे भ्रष्ट नेता मुस्लिम नौजवानों की सोच को जानबूझकर सांप्रदायिकता की ओर मोड़ना चाहते हैं। झूठ को आधार बनाकर और धर्म में उसकी सुरक्षा की खोज करना दोनों प्रकार की कट्टरतावादिता की प्रमुख सोच हो चुका है।

आपने इसे महसूस किया होगा, हर रोज़ धर्म की मिथ्याचेतना के आधार पर एक धर्मावलंबियों द्वारा दूसरे धर्मावलंबियों पर जानलेवा हमले, हत्या, उनके प्रार्थना स्थानों को जलाना, नष्ट करना जैसी घटनाओं से बहुसंख्यकों द्वारा, अल्पसंख्यकों के मन में दहशत व डर पैदा किया जा रहा है। हिंदू-मुसलमानों में असुरक्षा का भाव पैदा कर संकीर्ण धार्मिक आधार पर एकजुट करने की कोशिश इसी राजनीति का एक हिस्सा है। उपन्यास के अंत में दी गई एक खबर उसकी नाउम्मीदी को पुष्ट करती है।

“जमशेदपुर करबला बना हुआ है – मुसलमानों का मार-मार कर नास कर डाला है। वह जो . एक राइटर था – हिंदू-मुसलमान भाई-भाई की थीम पर उर्दू में जिंदगी भर कहानियाँ लिखता रहा, उसे भी निपटा दिया।’

इस सबके बावजूद उपन्यासकार का अपना सोच, अपना विश्वास परवेज के इन शब्दों में व्यक्त हुआ है।

“मुसलमानों के लिए हिंदुस्तान, खासतौर पर पाकिस्तान या दूसरे इस्लामी देशों के मुकाबले कहीं बेहतर घर है, क्योंकि यहाँ मजहबी कठमुल्लाईयत नहीं है और भविष्य में मार्क्सवादी विचारधारा यहाँ की जिंदगी का रुख बदल कर रहेगी।”

इस उपन्यास में वैचारिक स्तर पर एक गंभीर सवाल उठा है – “फिर इस्लाम और कम्यूनिज्म साथ-साथ कैसे चल सकते हैं?” उपन्यासकार यहाँ दिखा सकता था कि विभाजन से पहले ये दोनों साथ-साथ चल चुके हैं। मुस्लिम साम्प्रदायिकता मुसलमानों के लिए अलग देश की माँग कर रही थी और कम्यूनिस्ट बुद्धिजीवी उस मांग के जबर्दस्त समर्थक थे।

हालांकि उपन्यासकार ने परवेज की कई बातों को सकारात्मक माना है, लेकिन उसका सपरिवार अमेरिका में जा बसने का इरादा उसके तर्को की रीढ़ तोड़ देता है। उसका सारा कहा हुआ निरर्थक लगने लगता है। विश्वास “कम्यूनिज्म” में और बसने का फैसला अमेरिका में, यह आज भी बहुत से हिंदुस्तानियों का अन्तर्विरोध है। समझदार रशीदा भी अपने अनुभवों के आधार पर कभी-कभी इसी नतीजे पर पहुँचती है कि इस मुल्क में रहना फिजूल है “क्या है जिसकी खातिर मैं यहाँ रुकूँ? बुजुर्गो की कब्रों से पटे कब्रिस्तान। और अब तो शहर में वे भी कहाँ बाकी रहे। लोगों ने कब्जा करके मकान-दुकान जो बना सकते थे, बना डाले और इसका भी मातम कब और कहाँ तक.”

यहाँ यह गौरतलब है कि राही मासूम रजा जैसे उपन्यासकारों ने पूर्वजों की कब्र के प्रति भारतीय मुसलमान की श्रद्धा भावना को देशानुराग का एक हिस्सा माना है और इसके आधार पर दो कौमों के अलगाववादी सिद्धांत को खारिज किया है। आधा गाँव के फुन्नन मिया का कहना है : “एक भाई बाप-दादा की कबर हियां है, चौक इमामबाड़ा हियाँ है, खेती-बाड़ी हियाँ है।” शिव प्रसाद सिंह के उपन्यास “अलग-अलग वैतरणी” के खलील मियाँ तमाम मुश्किलों । के बाद भी हिंदुस्तान नहीं छोड़ते। वे साफ कहते हैं कि तोहमत लगा कर मेहरारू छोड़ी जा सकती है, महतारी नहीं। “आधा गाँव ” और “अलग-अलग वैतरणी” सातवें दशक की कृतियाँ हैं। तब से स्थितियाँ और खराब हुई हैं, कम से कम “सूखा बरगद ” से यही साबित होता है। एक पढ़ा-लिखा मध्यवर्गीय मुसलमान अब हिंदुस्तान से भावानात्मक रूप में उस प्रकार नहीं जुड़ा है, जैसे उसके पूर्वज जुड़े हुए थे। सुहैल और रशीदा जैसे युवक-युवती धीरेधीरे हर तरह के लगाव और आस्था से रहित होते जा रहे हैं। अबू की आशा की कौंध जरूर थोड़ी बहुत बची हुई है और उपन्यास की परिणति को निराशाजनक और दुखांत बनने से बचाती है।

“यह आपसी नफरत का खेल ज्यादा दिनों चलने वाला नहीं है। वे अपनी अगली पीढ़ी की बेहतरी के प्रति भी आश्वस्त है – ‘तुम लोग बेहतर जमाने देखोगे ।’ यह आशावाद अभी तक हकीकत में नही बदल पाया है।

उपन्यास का शीर्षक प्रतीकात्मक है। “सूखा बरगद ” का प्रतीक भी निराशाजनक ही है। उपन्यास के समापन में सुहैल के अवलोकन बिंदु से उसकी डायरी के पन्नों में कहीं कुछ सार्थक, मूल्यवान और आश्वस्तकारी न बच पाने की हताशा वर्णित है। हालांकि उपन्यासकार ने साफ-साफ नहीं कहा है कि “बरगद ” किस विचार या मूल्य या किस संज्ञा-विशेष का प्रतीक है, फिर भी यह निश्चित है कि इसका संबंध भावनात्मक सुरक्षा से है। अपने कटु अनुभवों और तीक्ष्ण उलझनों में फंसे हुए सुहैल को वह अतीत याद आता है, जब वह आश्वस्त और निश्चिंत हुआ करता था। स्कूल की बस, स्कूल के साथी और रेस्ट हाउस के बरगद की याद में वह अपने वर्तमान हादसे भूल जाना चाहता है, लेकिन कोई इतिहास, कोई अतीत वर्तमान की धूप में जलते इंसान को शायद शीतल छाया देने में समर्थ नहीं है। स्वयं सुहैल महसूस करता है।

“धूप से बचने के लिए मैं बरगद की छाया में जाता हूँ लेकिन वहाँ जाकर महसूस करता हूँ कि वीरानी जहाँ धूप की वीरानी से ज्यादा है। सूरज की तपिश छाया में कम होने के बजाय और बढ़ी हुई है। और तब अजीब तरह से धड़क कर मेरा दिल जैसे हलक में आकर अटक जाता है। सारे अंदेश और बुरे ख्याल दिमाग से निकाल फेंकने की कोशिश करते हुए मैं बरगद की एक शाख को डरते-डरते छूता हूँ, और फिर बिल्कुल बेजान सा होकर वहीं बैठा रह जाता हूँ। ‘यह सूखा है’ सचमुच सारे बरगद का फैलाव – उसकी शाख-शाख, कोंपल-कोंपल जड़ों पर खड़े-खड़े ही सूख चुका है ।”

भारतीय परम्परा में “बरगद” संस्कृति का प्रतीक रहा है। उपन्यास में यह “सांस्कृतिक आस्था का प्रतीक भी हो सकता है। लगता यही है कि इतिहास, आस्था, सकारात्मक मूल्यों से बनी हिंदुस्तानी संस्कृति को लेकर ही मोहभंग और निराशा का भाव सहैल के मन में है और आश्चर्य का भाव भी है “अपनी जड़ों पर खड़ा बरगद सूख कैसे सकता है?” सपने में देखा गया “सूखा बरगद’ सुहैल के असुरक्षा-भाव को ही उजागर करता है। एक शिक्षित भारतीय मुसलमान जिस भारतीय संस्कृति में अपनी समस्याओं के समाधान समझ रहा था, वह उसे निराश करती है। “बरगद” को “जनतंत्र का प्रतीक मान लें तब भी यही नतीजा सामने आता है और एक सम्प्रदाय-विशेष की असुरक्षाजन्य हताशा को जाहिर करता है।

कुटिल राजनीति का दबाव

मुसलमानों के डर को बढ़ाने में सियासत को अपना कैरियर बनाने वाले मुस्लिम नेताओं का योगदान कम नहीं है। उपन्यासकार ने रजब अली के माध्यम से इन स्वार्थी नेताओं की वास्तविकता का बयान किया है। रजब अली एक दल बनाता है “हिंदुस्तान ट्रेडिंग” के नाम . से, जो “मुल्क के वफादार मुसलमानों के हित के लिए लड़ने का संकल्प लेता है। यही रजब अली एक दिन जनसंघ में शामिल हो जाता है। उसके सुहैल जैसे प्रशंसक स्तब्ध रह जाते हैं। लेकिन यह घटना उन्हें और कट्टर तथा साम्प्रदायिक बना देती है। वे इस मुल्क के प्रति बहुत कटु, शासन-व्यवस्था के आलोचक और केवल मुसलमानों तक सीमित “सोच” को ढोने वाले अतिवादी व्यक्ति के रूप में दिखायी देते हैं। सत्ता और धार्मिक वर्चस्व की ललक दोनों मिलकर इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेने की कोशिश में है। वर्ना यह क्यों होता है कि राष्ट्रीय आयोजनों, सार्वजनिक स्थलों और सरकारी संस्थानों में किसी धर्म विशेष की धार्मिक विधिविधानों को ही महत्व दिए जाने से उस धर्म के “माननेवालों के अंह को संतुष्टि मिल जाती है। इसका विचार ही नहीं किया जाता कि धर्मनिरपेक्ष देश में किसी एक धर्म को विशिष्टता नहीं दी जाए बल्कि सर्वधर्मसमभाव की निर्मिति हेतू एक ऐसी पद्धति का निर्माण किया जाए, जिससे कोई उपेक्षित न महसूस कर सकें। सुहैल रशीदा से पूछता है।

“तुम्हें नहीं लगता, यह मुल्क साला किसी दलदल की तरह है? ऊँची आवाज में कोई तकाजा नहीं, लेकिन है यही कि यहाँ रहना है तो दलदल का हिस्सा बन जाओ! दम भरते हैं साले डेमोक्रेसी का। हर जगह भूमि पूजन है, हर तकरीब में संस्कृत का गाना और देवी-देवताओं का नाच-कूद! कोई पूछे, हिंदुओं के अलावा और किसी को इससे क्या मतलब?”

उपन्यासकार ने संकेतों में व्यंजित किया है कि गंगा-जमुनी संस्कृति की चर्चा के बावजूद यह हकीकत है कि हिंदू-मुसलमान एक दूसरे की संस्कृति और मिथकों के बारे में बहुत कम जानते हैं। यह शायद पहले हुकूमत करने के दंभ की वजह से हुआ या आज बहुसंख्यकों के सामने असुरक्षा के अहसास ने प्रेरित किया कि औसत भारतीय मुसलमान कानून, वेश भूषा, उपासना, भाषा आदि अनेक स्तरों पर अपनी अलग अस्मिता बनाये रखता है। “डेमोक्रेसी” को इसलिए धिक्कारता है कि भारतीय संविधान के अनुसार धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में सभी धर्मों को समानता, सद्भाव की नजर से देखा जाना चाहिए। लेकिन वास्तविकता को देखकर ऐसा नहीं लगता। सार्वजनिक व सरकारी आयोजनों में विशिष्ट धर्म के विधि-विधानों के प्राबल्य से अन्य धर्मावलंबियों को चोट पहुंचती है। यह हमारे जनतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लगाता है।

संप्रदायों के बीच अलगाव और दूरी

इस उपन्यास में सुहैल ने एक जगह मुसलमानों पर हिंदी और संस्कृत लादने की बात कही है। पिछले कुछ वर्षों में हिंदी केवल हिंदुओं की और उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा मान ली गई है। आजादी के पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। उर्दू इसी देश में जन्मी भाषा है, लेकिन उसे शुरु से ही फारसी से जोड़ने का इस्लाम से संबद्ध करने का, सिर्फ मुसलमानों तक सीमित करने का संकीर्णतावादी प्रयास चलता रहा है। देश की हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं में संस्कृत के शब्द खासी संख्या में हैं। संस्कृत यहाँ की संस्कृति का भाष्य करने वाली भाषा रही है। उससे घृणा करने और उससे बचने का कोई ठोस कारण नहीं है। लेकिन उर्दू देश की अकेली भाषा है, जिसमें संस्कृत शब्दावली का लगभग बहिष्कार सा है। भाषा के नाम पर यह अलगाव मुसलमानों का अपना चुनाव नहीं है। इसका ऐतिहासिक कारण यह है कि संस्कृत में लिखित ग्रंथ जनसामान्य की पहुँच से दूर है। क्योंकि स्वतंत्रता से पूर्व और बाद में भी काफी समय तक संस्कृत को श्रेष्ठ हिंदू संस्कृति का हिस्सा मान लेने और उसके अध्ययन या अध्यापन के अधिकार को ब्राह्मण जाति तक सीमित किए जाने के कारण अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी और स्त्रियों को इसके अध्ययन से वंचित रखा गया। संस्कृत को देवभाषा बताकर उसके साथ पवित्रता की झूठी आस्था जोड़ दी गई। अतः अल्पसंख्यकों के मन में संस्कृत के प्रति आकर्षण अपने आप ही खत्म हो गया। अंग्रेजी साम्राज्यवाद इसे बराबर हवा देता रहा है। “सूखा बरगद’ सूखा बरगद : अल्पसंख्यक में उपन्यासकार ने इस मसले को एक और रूप में उठाया है। सुहैल का कहना है – “प्रेमचंद समाज में असुरक्षा की भावना : १५० उर्दू के, कृष्णचंद्र उर्दू के, दत्त भारती उर्दू के, उपेन्द्रनाथ अश्क उर्दू के – बताओ हिंदी ने पैदा  कौन सा लेखक किया है?” जवाब में विजय चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, अज्ञेय, भारती के नाम लेता है। लेकिन रशीदा और सुहैल इन नामों से, इनके लेखन से परिचित नहीं है। रशीदा … ने इस विडंबना को दर्शाया है कि हिंदी साहित्य क्षेत्र में उर्दू रचनाकार ससम्मान पढ़े जा रहे थे, लेकिन उर्दूभाषियों को हिंदी साहित्य से कोई खास लेना-देना नहीं था। रशीदा की इस बारे . में स्वीकृति यह दर्शाती है क जितना दोष माहौल बनाने वालों का है उतना ही व्यक्ति के तौर पर संस्कारों से बंधे रहकर आदत डालने का भी है।

“यह लोग, या इनके अलावा हिंदी में लिखने वाले कितना और क्या मतलब रखते थे, कितनी अजीब बात है, सहैल और मैं दोनों ही नहीं जानते थे। उर्द का तो सब कछ देवनागरी में आ चुका था या आता जा रहा था। प्रेमचंद और कृष्णचंद्र देखते ही देखते हिंदी का हिस्सा बन गए. थे, मगर हमारी पढ़ने की आदत नहीं पड़ पाई थी। उर्दू फिर भी रवानी से पढ़ ली जाती थी और इंगलिश तो थी ही शिक्षा का माध्यम। मगर क्योंकि देवनागरी पढ़ने में थोड़ा ज्यादा समय और मेहनत लगती थी, इसलिए ज्यादा कुछ बिना पढ़ा ही रह गया था।” 

इस स्थिति और मनःस्थिति के संदर्भ में कुछ भारतीय मुसलमानों की उर्दू के हित की चिंता और हिंदी-विरोध की असलियत को समझने में सुविधा होती है। ऐसे उदाहरणों से यह भी ज्ञात होता है कि असुरक्षा और डर के कुछ जाले स्वयं मुसलमानों ने भी बुने हैं और उनमें उलझ कर रह गए हैं। कभी-कभी किसी सहज-स्वाभाविक घटना पर इस्लाम के खतरे में पड़ने का ….. अहसास इसी किस्म का भय है। रशीदा ने इस विडम्बना को हिंदू-मुसलमान के विवाह-संबंध …… के संदर्भ में उद्घाटित किया है।

“यह एक जीत का अहसास मुझे याद आता रहा, जो जब कोई मुसलमान लड़का एक हिंदू …. लड़की से शादी करके उसका धर्म बदल देता है तो सिर्फ कठमुल्ले ही नहीं, अच्छे-खासे समझदार मुसलमान भी महसूस करते हैं। खुद मुझे लाख न चाहने की कोशिश के बाद भी महसूस हुआ है। और वह सदमा और निराशा, जब कोई मुसलमान लड़की किसी हिंदू लड़के । का हाथ थाम लेती है। कहीं ‘इस्लाम खतरे में है’ का मनोभाव और दांत पीस कर रह जाने की स्थिति।”

इस तरह के उदाहरणों से जहाँ यह प्रमाणित होता है कि उपन्यास में परिवेश की प्रामाणिकता भरपूर है, उपन्यासकार ने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों की प्रखर अभिव्यक्ति की है, वहीं वह असुरक्षा और उससे उत्पन्न “डर ‘ को मनोवैज्ञानिक गहराई के साथ गंभीर किंत सहज ढंग से उभार सका है। सामान्य लगने वाले ‘संदर्भ ‘ भी अनेक व्यंजनाओं और अर्थछवियों से सम्पन्न लगते हैं।

मिथ्या आरोपो का निराकरण

जहाँ तक “सूखा बरगद” में मंजूर एहतेशाम के अपने सोच और विचारधारा का प्रश्न हैं, वह संतुलित और यथार्थ के साथ तादात्म्य बिठाने वाली है। ऐसा लगता है, उपन्यासकार के अपने तर्क और विचार सूत्र ज्यादातर अब्बू के माध्यम से उभरे हैं। सुहैल और परवेज के बीच की बहस शायद उपन्यासकार की अपनी जद्दोजहद भी है। अब्बू की मौजूदगी संकेत है कि भारतीय मुसलमानों का एक वर्ग असुरक्षा और खौफ के माहौल में भी चीजों को सकारात्मक ढंग से … देखता है। इस सकारात्मकता ने इस उपन्यास को साधारण और एकांगी होने से बचा लिया है। यह दृष्टि साबित करती है कि मुसलमानों के डर का एक हिस्सा बेवजह और जबर्दस्ती पैदा किया हुआ है।

सुहैल का आरोप है कि हिंदुस्तान में मुसलमानों को सुअर खाने के लिए कहा जाता है। अब्बू इस आरोप का प्रतिवाद करते हैं – “कोई मजबूरी या जब्रो ज्यादती थोड़ी है। तुम्हे खिलाया आज तक किसी ने कुछ भी ऐसा जो तुम्हारी मर्जी के खिलाफ हो ? जिसकी जैसी मर्जी हो, वैसा करे। अरे सुहैल मियाँ, यहाँ तो कई करोड़ ऐसे भी हैं, जिन्हें न गाय से कुछ लेना न सुवर से! दाल-सब्जी खाते हैं, आराम से रहते हैं। इसी तरह हिंदुओं द्वारा मुसलमानों पर जुल्म के आरोप असगर साहब ने लगाए हैं। मुसलमानों के प्रति असगर की हमदर्दी अर्थात् कौम परस्ती की वास्तविकता अब्बू को मालूम है।

“हिंदू उनके भाइयों पर जुल्म ज्यादती करें, अपनी और से नहीं देख सकते। यही नहीं, हिंदू उनकी आँखों में हर तरह से मुसलमान से कमतर है और असगर साहब के भाइयों ने उस पर सदियों हुकूमत की है। फिर यह एकदम से बराबरी कहाँ से आ गई ? और बराबरी भी कहाँ हिंदू तादाद में ज्यादा हैं, इसलिए हुकूमत में भी उनका बड़ा हिस्सा है  जब दो हिंदू एक-दूसरे से लड़ते हैं या एक मुसलमान दूसरे मुसलमान के छुरा मार देता है तो असगर साहब को उनकी जिहालत पर कोई दुख नहीं होता, लेकिन अगर एक हिंदू और मुसलमान में तू-तू मैं-मैं भी हो जाए तो उन्हें उसके पीछे सियासत ही सियासत नजर आती है।”

यह लंबा उद्धरण यह स्पष्ट करता है कि क्यों साम्प्रदायिक मुसलमान ‘डेमोक्रेसी ‘ का विरोध करता है। ये वो लोग हैं, जिसके पैर बीसवीं सदी में हैं, लेकिन दिल-दिमाग सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में मग्न हैं। भोपाल की रियासत के भारतीय जनतंत्र में विलीन होने, भोपाल को राजधानी बनाए जाने पर कुछ लोगों को लगता है कि ये मुसलमान-विरोधी कार्यवाहियाँ हैं। अब्बू का सोच इस सिलसिले में कुछ इस तरह का है।

“अगर यह शहर राजधानी न बना होता तो तुम सोच सकते हो यहाँ का नक्शा क्या होता ? अब कम से कम, शहर के बढ़ने के साथ ऐसे मौके तो निकलेंगे जहाँ यह जाहिल रखी गयी आबादी दिमाग से नहीं तो हाथ-पाँव से ही कुछ कर तो पाएगी। कितने गरीबों की नौकरी लग गई, अच्छी-खासी तनख्वाह मिलने लगी, आवारगी और गुंडागर्दी के बजाय कुछ करने को मिला तो।’

अब्बू के प्रगतिशील और संतुलित सोच के कुछ नुक्ते सुहैल और रशीदा के माध्यम से भी उपन्यास में व्यक्त हुए हैं। मुसलमानों की एक आम और बहुत हद तक जायज शिकायत है कि उन्हें आजाद हिंदुस्तान में रोजगार के अवसर कम मिले। गर्मागर्म बहस के दौरान सुहैल इस आरोप को सही नहीं मानता

” कितने लायक लोग ऐसे हैं, जो मुसलमान होने के नाते अच्छी नौकरी न पा सके? या तरक्की न कर सके? वह जिस लायक हैं, उससे ज्यादा पाने की लालच में, और सब तो छोड़िए, क्या आज भी आप अपनी औलादें पाकिस्तान में ब्याहने के ख्वाब नहीं देखते?”

रशीदा के माध्यम से उपन्यासकार ने एक सवाल पूछा है कि इस मुल्क में ऐसा क्या है जिससे आगामी बेहतर जमाने का अब्बू का यकीन पुख्ता हो सकता है? बांग्लादेश का जन्म एक और तरीके से उनके यकीन को पक्का करता है। वे शुरू से इस बात को मानते थे कि देश का बँटवारा गलत आधार पर हुआ था। बांग्लादेश ने उनकी इस मान्यता को प्रमाणित किया कि सिर्फ मजहब के आधार पर एकता नहीं हो सकती। उनका यह भी कहना है – “तुम देखना बंग्लादेश का बनना हिंदुस्तानी मुसलमानों के लिए भी बहुत फायदेमंद होगा। अब यहाँ का मुसलमान मुल्क के नाम पर सिर्फ यहीं के बारे में सोचेगा तो खुद उसके लिए बहुत बेहतर होगा।”

कथ्यगत नवीनता

साम्प्रदायिक विद्वेष को केंद्र में रख कर लिखने वाले अन्य उपन्यासकारों से मंजूर एहतेशाम के इस उपन्यास का कथ्य कुछ अलहदा दिखायी देता है। एक तो वे उस पुरानी धारणा की पुनरावृत्ति से बचे हैं, जिसके तहत कहा जाता है कि हिंदुस्तान में साम्प्रदायिक तनाव अंग्रेजों के “बाँटो और राज्य करो’ के संकल्प की देन है। बल्कि उन्होंने बँटवारे के लिए भी हिंदूमुस्लिम नेतृत्व को ही दोषी ठहराया है। अब्बू के अनुसार – “अंग्रेज बहादुर की अदालत में एक मुकदमा – हिंदू और मुसलमान के बीच – अपनी आखिरी स्टेज में पहुँचा हुआ था। दोनों ही कौमें मुकद्दमा जीतने के लिए बड़ा से बड़ा गुनाह करने पर आमादा थी।’ इस विश्लेषण का आखिरी निष्कर्ष यह है कि इस मुल्क में अल्पसंख्यक और असुरक्षित वे मुस्लिम लोग हैं, जिन्हें न तो पाकिस्तान से कुछ लेना-देना था और वे हिंदू हैं जो फटी आँखों और खड़े कानों से सारी विभीशिका को देखने के लिए विवश थे। “सूखा बरगद’ शायद हिंदी में पहला ऐसा उपन्यास है, जिसमें इतने विस्तार से अल्प-संख्यकों की असुरक्षा के मनोविज्ञान को “कथ्य’ बनाया गया है। असुरक्षा से उत्पन्न “डर” के कारणों को स्पष्टतौर पर कहा गया है। कोई आशावाद इस कृति के “कथ्य’ पर आरोपित नहीं है, फिर भी वैचारिकता के स्तर पर पाठक को यह निराशा या अनास्था की बंद गली में नहीं ले जाता।

सारांश

“सूखा बरगद’ कथ्य की दृष्टि से मुस्लिम जीवन और साम्प्रदायिकता की विभीषिका पर आधारित “तमस” (भीष्म साहनी), “आधा गाँव” (राही मासूम रजा) आदि कृतियों से कुछ अलग है। इसमें कथाकार ने स्वयं को देश-विभाजन के बाद भारत में रह गए मुसलमानों के सोच, संत्रास, संदेह और संघर्ष तक सीमित रखा है। इसमें हिंदू-मुसलमानों के आपसी तनाव और मुठभेड़ के संदर्भ सिर्फ सूचनाओं के तौर पर आए हैं। मुख्यतः मुसलमानों – विशेषतः शिक्षित मध्यवर्गीय मुसलमानों के मन में व्याप्त असुरक्षा-भाव को मंजूर एहतेशाम ने अत्यंत सूक्ष्मतापूर्वक पर्त-दर-पर्त उद्घाटित किया है। भारतीय मुसलमानों को यह भय था कि देशविभाजन की प्रतिक्रिया में बहुसंख्यक समाज का सुलूक उनके साथ सही और सद्भावनापूर्ण नहीं होगा। बाद में दंगों ने उनके डर को पुष्ट और प्रमाणित किया। मुसलमानों में सक्रिय कट्टरपंथी और उग्र मानसिकता के लोग इस “डर’ को हमेशा हवा देते रहे हैं। असगर साहब, रजब अली जैसे लोग मुसलमानों की भावनाओं को गलत दिशा में उभारते हैं। अब्बू और परवेज जैसे मुसलमान हकीकत से परिचित हैं और वे नफरत की जगह आपसी मेल और मुहब्बत की बात करते हैं। लेकिन अब्बू जैसे लोग अल्पसंख्यकों में भी अल्पसंख्यक हैं। उनकी बातें नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर गुम हो जाती है।

भारतीय मुसलमानों की असुरक्षा से जुड़े भय के कुछ कारण सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की देन हैं। गलत इतिहास की चर्चा दोनों सम्प्रदायों में सांस्कृतिक अपरिचय, हिंदी-उर्द विवाद आदि को इस संदर्भ में देख सकते हैं। मुसलमानों में शिक्षा का अपेक्षाकृत कम प्रचार-प्रसार, मजहब का अतिरिक्त आतंक भी उन्हें निर्भय नहीं होने देता। कुछ बेहद निजी कारण भी किसी संवेदनशील मुसलमान युवा के सोच को हीनतर दिशा में मोड़ सकता है, सुहैल इसका जीवन्त प्रमाण है। एक हिंदू लड़की से विवाह न हो पाने की स्थिति में यह प्रतिभाशाली युवा टूट कर बिखर जाता है। पाकिस्तान से युद्धों के माहौल में भारतीय मुसलमान की बेचारगी और गुस्से को इस उपन्यास में मनोवैज्ञानिक गहराई और समाजशास्त्रीय प्रामाणिकता के साथ कथ्य में संश्लिष्ट किया गया है। हालांकि अब्बू को यकीन है कि भविष्य में स्थितियाँ बेहतर होंगी लेकिन उपन्यास का समापन जमशेदपुर के साम्प्रदायिक दंगे की सूचना से हुआ है, जिससे लगता है कि उपन्यासकार अब्बू के आशावाद को अभी निकट भविष्य में ठोस रूप लेते नहीं देख पा रहा है। उपन्यासकार की यह वैचारिकता उसके युगबोध की उपलबधि है और उपन्यास में सर्जनात्मक रूप में संश्लिष्ट और ध्वनित है।

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