निर्गुण ज्ञानमार्गी संत काव्य धारा

इस इकाई के अन्तर्गत आप निर्गुण काव्य धारा की ज्ञानमार्गी (संत) शाखा का अध्ययन करेंगे। इस इकाई को पढ़ने को बाद आप :

  • संत काव्य की पृष्ठभूमि की चर्चा कर सकेंगे;
  • संतमत के सिद्धान्त का परिचय प्राप्त कर उसके स्वरूप को समझा सकेंगे;
  • संत काव्य की विशेषताओं का परिचय दे सकेंगे;
  • संत काव्य की प्रवृत्तियों को बता सकेंगे;
  • संत काव्य के वस्तु एवं शिल्प पक्ष की जानकारी दे सकेंगे; और
  • संत काव्य धारा के महत्व का प्रतिपादन कर सकेंगे।

यह इकाई निर्गुण ज्ञानमार्गी संत काव्यधारा से संबंधित है। हिन्दी साहित्य के सन्त कवियों की ज्ञानाधारित निष्पक्षता, न्यायप्रियता, भक्तिभावना और काव्यधारा को दृष्टिगत कर इसे ज्ञानमार्गी काव्यधारा की संज्ञा दी जाती है। इस काव्यधारा के लिए ‘संत काव्यधारा’ और ‘निर्गुण काव्यधारा’ नाम भी दिए गए हैं। भक्तिकाल की विषम राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में आशा की ज्योति बिखेरने का कार्य संत काव्यधारा के कवियों ने किया। उन्होंने तत्कालीन धार्मिक मान्यताओं को अपने जीवन के व्यापक अनुभव के आधार पर जनसामान्य के लिए बोधगम्य बनाया। देखा जाए तो ज्ञानाश्रयी काव्यधारा के उद्भव में युगीन परिवेश की सबल भूमिका रही है।

इन कवियों ने हिन्दू और मुसलमान दोनों को समाज के अभिन्न अंग के रूप में मान्यता प्रदान करते हुए उनमें भावात्मक एकता लाने का प्रयास किया। इन्होंने विभिन्न विवादों को छोड़कर निर्गुण के आधार पर राम और रहीम को एकाकार करने का अनूठा कार्य किया। धार्मिक सहिष्णुता को संत कवियों ने सामाजिक विकास के लिए आवश्यक माना। उनके साहित्य में आध्यात्मिक चेतना के साथ-साथ सामाजिक चेतना भी सक्रिय थी। संत काव्य का अध्ययन करते हुए आप पाएंगे कि उनके काव्य में सामाजिक मूल्यों के प्रति गहरी चिन्ता मिलती है। सामंती समाज के वर्णवादी मूल्यों के प्रति उनमें आक्रोश है। वर्णवाद सामाजिक विषमता को पैदा करता है। इस सामाजिक विषमता के विरुद्ध संत कवि खड़े होते हैं। संत कवि वर्णवादी समाज को तोड़कर मानवतावादी समाज की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे।

निर्गुण काव्य में मानवीय अनुभव और विवेक को प्रामाणिक माना गया है। इसलिए संत कवि पांडित्य परंपरा और पुस्तकीय ज्ञान के वाद-विवाद को व्यर्थ मानते हैं। उनके काव्य में अनुभूति की निश्छलता और शिल्प की अनगढ़ता मिलती है। उन्होंने साहित्य में लौकिक अनुभूतियों को स्थान दिया।

संत शब्द का अर्थ

संत शब्द का प्रयोग प्राय: बुद्धिमान पवित्रात्मा, परोपकारी व सज्जन व्यक्ति के लिए किया जाता है। संत शब्द उस ‘शुद्ध अस्तित्व’ का बोधक है जो सदा एकरस तथा अविकृत भाव रूप में विद्यमान रहता है। इस शब्द के सत् रूप का, ब्रह्म या परमात्मा के लिए किया गया प्रयोग बहुधा वैदिक साहित्य में भी पाया जाता है। अतएव संत शब्द, उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है जिसने सत् रूपी परमतत्व का अनुभव कर लिया हो। जो अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठकर उसके साथ तद्रूप हो गया हो। इस प्रकार जो सत्य का साक्षात्कार कर चुका हो, वही संत है। कबीरदास ने भी अपनी एक साखी में कहा है –

‘निरबैरी निहकामता, साँई सेंती नेह।

विषया सून्दरा रहै, संतनि को अंग एह ।।’

यहाँ भी संतों का लक्षण उनका निरी, निष्काम, प्रभु का प्रेमी और विषयों से विरक्त होना है।  संत शब्द में व्यक्ति विशेष की रहनी’ तथा ‘करनी’ का सुंदर सामंजस्य भी लक्षित होता है। इस प्रकार संत शब्द का प्रयोग अपनी व्यापकता के साथ, किसी समय, विशेष रूप से उन भक्तों के लिए होने लगा था जो वारकरी सम्प्रदाय के प्रधान प्रचारक थे और उनकी साधना निर्गुण भक्ति के आधार पर चलती थी। इनमें नामदेव, ज्ञानदेव, एकनाथ आदि भक्तों के नाम आते हैं जो सभी महाराष्ट्र प्रान्त से संबद्ध थे और कदाचित् अनके बातों में उन्हीं के समान होने के कारण, उत्तरी भारत में कबीर आदि भक्त कवियों के लिए भी यह शब्द चल पड़ा। अत: हिंदी में संत कवि से अभिप्राय-कबीर आदि निर्गुणोपासक ज्ञान मार्गी कवियों से लिया जाता है।

संत मत

संत मत पहले से निश्चित किसी सिद्धान्त या मत का संग्रह मात्र नहीं है। इसका प्रसार भिन्न संतों द्वारा समय-समय पर दिए उपदेशों से भी नहीं हुआ है। यह परम्परा, अनुभव से ज्ञान का संधान कर प्रसार को प्राप्त करती है।

कबीरदास कहते हैं :

‘सतगुरु तत कह्यौ बिचार,

मूल गयौ अनभै विस्तार ।’

तत्व का ग्रहण कर, अनुभव और विवेक के समन्वय से ही यह मत अस्तित्व में आया ।

बुद्धदेव ने कहा था – ‘कोई बात इसलिए न मानो, कि वह किताबों में लिखी है, कि वह तुम्हारे मत के अनुरूप है, कहने वाला सुवेश है, अधिक पढ़ा-लिखा है, वयोवृद्ध है, तुम्हारा श्रद्धेय है। जब तुम मर्म विवेचन से यह जान लो कि वह जो कुछ कह रहा है, उसमें तुम्हारा ही नहीं दूसरों का भी कल्याण है, तभी मानो” या “अपना दीपक स्वयं बनो’। कबीर आदि संतों ने भी अनुभव और विवेक को तरजीह दी है। राम नाम के महत्व का स्वीकार तो अन्य मत भी करते हैं, किन्तु कबीरदासादि संत. इसका मर्म जान लेने को महत्व देते हैं। इसके रहस्य का परिचय प्राप्त कर लेने की बात कहते हैं।

संत कवि ईश्वर से तादात्म्य करने के लिए नामोपासना की पद्धति को स्वीकार करते हैं। परमतत्व के विषय में किसी प्रकार का दार्शनिक विवेचन इन्होंने महीं किया। इसे ये कवि राम, खुदा, रहीम, ब्रह्म आदि अनेक नामों से पुकारते हैं, किन्तु सबका लक्ष्य परमतत्त्व का साक्षात्कार करना ही है। नामस्मरण की विशेषता है कि इसमें साधक का ध्यान बराबर अपने इष्ट देव में लगा रहता है, उसे एक क्षण के लिए भी अपनी साधना को छोड़ना नहीं होता है। इसके लिए किसी प्रकार के बाह्य कर्मकाण्डगत उपकरणों की आवश्यकता नहीं पड़ती। उन्हें सदैव ईश्वर की सुरति रहती है। संतों की यह साधना पद्धति अजपाजाप के नाम से प्रसिद्ध है। संतों की बानियों में योगसाधना के प्रतीकों की चर्चा भी मिलती है।

कुंडलिनी, इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नाड़ियाँ और छ: चक्र – मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूरक चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र एवं सहस्रार चक्र का उल्लेख भी इनके काव्य में मिलता है। संतों ने अष्टांग योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि में से भी प्राय: सभी का उल्लेख किसी न किसी प्रकार किया है। संतों की निर्गुण निराकार की उपासना पद्धति को ‘अभेद’ शक्ति का नाम दिया जाता है। किन्तु यह नहीं मानना चाहिए कि उनकी भक्ति पूर्णत: भावात्मक है। भक्ति के आलम्बन राम निर्गुण निराकार हो सकते हैं पर उपासना के क्षेत्र में आते ही वे अनुपम व्यक्तित्व से मंडित हो जाते हैं।

इस प्रकार राम की उपासना की विधि बताकर संत कवि मनुष्य के मन में ‘सत्’ का विकास करना चाहते हैं। उनका लक्ष्य है कि दया, ममता, स्नेह, परोपकार जैसे कोमल भाव मनुष्य के हृदय की सम्पत्ति होने चाहिए, इनके लिए हमें किसी अवतारी राम या कृष्ण की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। अवतारवाद, परावलम्बन की माँग करता है, जबकि मनुष्य का विकास, विश्व कल्याण स्वावलंबन एवं परदुःखकातरता की भावना से ही हो सकता है।

संत परम्परा

कबीरदास जैसे संतों की परम्परा का सूत्रपात विक्रमी की 15वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध काल में हुआ था। स्वामी रामानन्द (सं०1355-1467) कबीरदास के दीक्षा गुरु थे। संत रविदास, सेना नाई, पीपा धन्ना आदि उनके गुरु भाई थे। जनश्रुति है कि स्वामी जी के उपदेशों से प्रभावित होकर ही इन्होंने संत परम्परा का पत्रपात किया।

वस्तुत: संत परम्परा की विचारधारा के लिए अनुकूल भावभूमि बहुत पहले ही तैयार हो रही थी। पूर्व में बौद्ध धर्म, वज्रयान एवं सहजयान में परिणत हो गया था। वैष्णव सम्प्रदाय और उसमें कई बातों का आदान-प्रदान हुआ और इस तरह दोनों निकट आने लगे। इसी प्रकार का वैचारिक सामंजस्य नाथपंथ एवं स्थानीय वैष्णव सम्प्रदाय के मध्य महाराष्ट्र तथा राजस्थान में देखने में आया। इस प्रभाव के फलस्वरूप पूर्व की ओर से संत जयदेव, दक्षिण की ओर से संत ज्ञानदेव एवं नामदेव, पश्चिम की ओर से संत बेनी एवं सधना तथा कश्मीर की ओर से संत ललद्देव का आविर्भाव स्वामी रामानन्द से पहले ही हो चुका था।

आगे चलकर कबीर आदि संतों की दीर्घ परम्परा हिंदी में चली। अनेक पंथों एवं गद्दियों की स्थापना हुई। इनमें नानक देव के पंथ के अतिरिक्त दादू दयाल के दादू पंथ, हरिदास के निरंजनी सम्प्रदाय, मलूकदास के मलूक पंथ तथा कबीर साहब के नाम पर कबीर पंथ बनकर तैयार हो गए। विस्तृत संत परम्परा में बाबरी साहिब, कमाल, दादूदयाल, सुंदरदास, गरीबदास, जगजीवन साहब, जम्भदास, सिंगाजी, हरिदास, निरंजनी, मलूकदास, अक्षरअनन्य, गुरुनानक, चरणदास, गुलाब साहब आदि अनेक कवि हुए हैं। इस परम्परा का प्रथम युग, संत जयदेव से आरम्भ होता है और उसके पीछे दो सौ वर्षों तक संत अधिकतर पथ-प्रदर्शकों के रूप में आते हुए दीख पड़ते हैं। 15वीं शताब्दी में कबीरदास ने संतमत के निश्चित सिद्धान्तों का प्रचार विस्तार के साथ एवं स्पष्ट शब्दों में किया। आचार्य शुक्ल इन्हें ही निर्गुण भक्ति का प्रवर्तक मानते हैं।

ज्ञानमार्ग : अर्थ एवं दृष्टिकोण

ज्ञानमार्ग की प्रतिष्ठा आचार्य शंकर ने की थी। उन्होंने ज्ञान और भक्ति तथा निर्गुण और सगुण भक्ति के विरोध की स्थापना करते हुए निर्गुण को ज्ञान से संबद्ध किया है। उन्होंने निर्गुण ब्रह्म तथा ज्ञान साधना को ही परम सत्य के रूप में स्वीकार किया। इसी ऐतिहासिक कारण से निर्गुण काव्यधारा में ज्ञान की अनुभूति को ही भक्ति माना जाता है अर्थात् निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त करने का साधन ‘ज्ञान’ को बताया गया है। यह ज्ञान वस्तुत: अंतर्ज्ञान है, जो सहज ही बिना किसी भक्तिमार्गीय पद्धति के साधनों के उत्पन्न होता है। इसे ही सहजज्ञान कहा गया तथा संत कवि कबीर ने इसे ही ब्रह्मगियान’ कहा है। वस्तुत: निर्गुण भक्त कवियों के लिए ज्ञान अनुभव की परिपक्वता का प्रतीक है। अनुभव को उन्होंने लोकव्यवहार से प्राप्त किया।

शंकराचार्य के ज्ञान में सैद्धान्तिक और बौद्धिक चिंतन का द्वन्द्व है। कबीर आदि संत कवियों के ज्ञान में अनुभव की ऊर्जा है। संत कवियों ने सैद्धान्तिक रूप में निर्गुण मार्ग और ज्ञान मार्ग को अपनाते हुए भी उसके व्यावहारिक पक्षों पर बल दिया।

निर्गुण : अर्थ एवं स्वरूप

जैसाकि आप जानते हैं कि निर्गुण शब्द का शाब्दिक अर्थ गुण रहित होता है। किन्तु संतों के काव्य में निर्गुण साहित्य का द्योतक न होकर, गुणातीत की ओर संकेत करता है। इनके यहाँ यह किसी निषेधात्मक सत्ता का वाचक न होकर उस परब्रह्म के लिए प्रयुक्त हुआ है : जो सत्व, रजस और तमस तीनों गुणों से अतीत है, वाणी जिसके स्वरूप का वर्णन करने में असमर्थ है अर्थात जो गूंगे के गुड़ के समान अनुभूति का विषय है; जो रंग, रूप, रेखा से परे है। परम्परा में भारतीय चिन्तक भी जिसके स्वरूप का वर्णन करने में असमर्थ रहकर नेति-नेति का आश्रय ले बैठे। यह निर्गुण ब्रह्म घट-घट वासी है, फिर भी इन्द्रियों से परे है। वह अवर्ण होकर भी सभी वर्गों में है। अरूप होकर भी सभी रूपों में विद्यमान है। वह देश-काल से परे है, आदि अन्त से रहित है, फिर भी पिंड और ब्रह्मांड सभी में व्याप्त है। निर्गुण के स्वरूप के बारे में कबीरदास की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य है-

संतों, धोखा कातूं कहिये।

गुन में निरगुन, निरगुन में गुन, बाट छाँड़ि क्यूँ बहिये।

अजर-अमर कथै सब कोई अलख न कथणां जाइ।

नाति-स्वरूप-वरण नहिं जाके घटि-घटि रह्यौ समाइ।

प्यंड-ब्रह्मांड कथै सब कोई वाकै आदि अरु अंत न होइ।

प्पंड-ब्रह्मांड छाँड़ि जे कहियै कहै कबीर हरि सोइ।।

(कबीर ग्रन्थावली, पद 180)

स्पष्टतया, कबीरदास कहते हैं – हे संतों, मैं धोखे की बात किससे कहूँ गुण में ही निर्गुण हैं और निर्गुण में ही गुण, उसका ध्यान छोड़कर कहाँ बहता फिरा जाय? लोग उसे अजर कहते हैं, अमर कहते हैं, पर वास्तविकता तो यह है कि वह अलक्ष्य है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उसका कोई स्वरूप नहीं है कोई वर्ण नहीं है वह घट-घट में समाया रहता है (कहने का अर्थ है कि वह सभी रूपों और सभी वर्गों । में है)। लोग पिंड और ब्रह्मांड की बातें करते हैं (पर विचार करने पर ज्ञान होता है कि पिंड और ब्रह्मांड की सीमा है। किंतु उसका न तो आदि है और न अंत। अत: जो पिंड और ब्रह्मांड से भी परे है. वही हरि है। ऐसा हरि जिसका रूप नहीं, रेखा नहीं, जो सूर्य, चन्द्र, पवन, पानी भी नहीं वही संत कवियों का ‘निर्गुण’ है। इसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ‘ब्रह्म’ का पर्याय मानते हैं दृश्यमान जगत से विलक्षण, सबसे न्यारा यह निर्गुण प्रेम से प्राप्य है, अनुभूति का विषय है और भावना की कोमल नाल से भावित है।

संक्षेप में निर्गुण :

  • चराचर जगत में व्याप्त वह ब्रह्म है जो सामाजिकों के दु:ख को जानता है और भावना से भावित है।
  • यह ब्रह्म निराकार, अलक्ष्य, द्वैताद्वैतविलक्षण, सत्व, रजस और तमस तीनों गुणों से परे है, फिर भी घट-घट में समाया हुआ है।
  • यह निर्गुण ब्रह्म अनुभूति का विषय है और प्रेम से प्राप्य है।
  • यह निर्गुण ब्रह्म तयुगीन सामाजिक विषमताग्रस्त समाज को ऐक्य की अनुभूति कराने का सशक्त माध्यम बन सका।

निर्गुण भक्ति ने समानता का संदेश दिया। निर्गुण भक्त कवियों का स्वप्न एक ऐसे समाज का निर्माण करना था, जहाँ किसी प्रकार का भेद नहीं हो।

भक्ति आंदोलन और निर्गुण संत

भक्ति आन्दोलन सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रिया का परिणाम था। मध्यकाल में भारतीय संस्कृति के समक्ष इस्लामी आक्रमणकारियों के रूप में एक ऐसी विद्रोही शक्ति थी जिसकी अपनी सांस्कृतिक जड़ें काफी गहरी थीं। जिसका उद्देश्य भारत में आकर लूटमार करना मात्र नहीं था। आबिद हुसैन ने ठीक ही लिखा है कि अगर यूनानियों की तरह, जो दूसरी शती ईस्वी में बख्तर से आए थे, अपने और अपनी संस्कृति के उद्गम स्थान से बहुत अरसे तक उनका नाता टूटा रहता अथवा अगर उनकी संस्कृति सीरियन और हूणों की तरह आदिम होती, तो वे हिंदू समाज में घुल-मिल कर एकात्म हो जाते। लेकिन पहले तो वे एक समुन्नत अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति के प्रतिनिधि थे, दूसरे वे भारत के बाहर उस संस्कृति के केन्द्रों से, इनमें इस्लामी जगत का राजनीतिक केन्द्र बगदाद भी शामिल था, जिसका महत्व आज नाम मात्र को रह गया है, बराबर सम्पर्क बनाए रहे। इन कारणों से उन्हें पूरी तरह भारतीय होने में समय लगा (आबिद हुसैन, राष्ट्रीय संस्कृति, पृष्ठ 44)। अभी तक जिस समाज के लोगों के लिए  कोई विशेष नाम नहीं था, अब उन्हें हिंदू कहा जाने लगा।

हिंदू अर्थात गैर इस्लामी। इस्लाम धर्म पूरी उदारता के साथ हिंदू वर्णाश्रमधर्म आधारित व्यवस्था में आचरण भ्रष्ट समझी जाने वाली जातियों एवं अन्त्यजों को अपनाकर समानता का अधिकार देने को लालायित था। फिर भी परिस्थितियों में किसी प्रकार सुधार न हो सका। हिंदू जाति वर्णाश्रम धर्म की जटिलताओं से युक्त थी, तो इस्लाम भी धार्मिक कट्टरता की भावना से ग्रस्त था। उधर उत्तर भारत में सिद्धों, नाथों के कर्मकाण्ड के कारण सच्ची धर्म भावना का हास हो रहा था। व्यवस्था के इस दुष्चक्र की चक्की में सामान्य जन लगातार पिस रहा था। दक्षिण से आनेवाली भक्ति की लहर ने हिंदू-मुसलमान दोनों को प्रभावित किया। भक्ति आंदोलन का सूत्रपात दक्षिण से हुआ। हिन्दी की अनुश्रुति इस ओर संकेत करती है:

“भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाए रामानन्द ।

प्रगट किया कबीर ने सप्तद्वीप नवखंड।”

स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में भक्ति के प्रणेता रामानन्द थे और इसे उत्तर में कबीर ने प्रसारित किया। इनके पहले आलवारों और नयनारों ने दक्षिण भारत में ही भक्ति का प्रयोग बौद्धों के प्रभाव को कम करने के लिए किया था। इन्हीं आलवारों से होती हुई भक्ति की यह धारा नाथमुनि, यमुनाचार्य, रामानुजाचार्य, रामानन्द, बल्लभाचार्य, मध्वाचार्य और विष्णुस्वामी आदि तक में प्रवाहित हुई। शैवों में वर्तमान भक्ति की धारा नयनारों के बीच विकसित हुई तथा महाराष्ट्र की ओर बह चली। इस धारा का रूप कर्नाटक के पुण्डलीक में मिलता है, जहाँ इसका विकास वैष्णवों और शैवों के भेदों को दूर करने के लिए समन्वयात्मक रूप में हुआ। इसका संकेत ज्ञानदेव के भाई निवृत्तिनाथ ने किया है। जैसा कि आपने ‘भक्तिकाल की पृष्ठभूमि’ में पढ़ा कि एक आचार्य भक्ति की प्रवृत्ति के प्रवर्तन के लिए मुसलमानों के आक्रमण को महत्व देते हैं, तो दूसरे आचार्य इसे लोकधर्म के बीच से स्वरूप ग्रहण करता हुआ बताते हैं।

वस्तुत: दोनों ही भक्ति के उत्कर्ष के लिए इस्लाम की मौजूदगी को किसी न किसी रूप में स्वीकारते हैं। इस्लाम की यह मौजूदगी भक्त कवियों के काव्य में दर्ज है। किसी सीमा तक यह आन्दोलन सामाजिक कुरीतियों, अमानवीय व्यवस्था . तथा शोषण चक्र के विरुद्ध सामान्य जन के सात्विक रोष की अभिव्यक्ति था। इस आन्दोलन के अखिल भारतीय रूप को समझने के लिए हमें कबीर, सूर, तुलसी, जायसी और मीरा के काव्य को एक साथ देखना होगा, क्योंकि प्रत्येक कवि ने सामाजिक विषमता के किसी एक पक्ष का ही बहुलता से चित्रण किया है। यहाँ हम संत काव्यधारा के महत्व को विशेष रूप से रेखांकित कर रहे हैं। अन्य कवियों के विषय में आप इस खंड की अन्य इकाइयों से महत्वपूर्ण जानकारी ले सकते हैं।

भक्ति आंदोलन में संतों की भूमिका को स्पष्ट करते हुए गजानन माधव मुक्तिबोध कहते हैं : “पहली बार शूद्रों ने अपने संत पैदा किए। अपना साहित्य और गीत सृजित किये। कबीर, रैदास, नाभा, सिंगा, सेना नाई आदि महापुरुषों ने ईश्वर के नाम पर जातिवाद के विरुद्ध आवाज बुलन्द की। समाज के न्यस्त स्वार्थवादी वर्ग के विरुद्ध नया विचारवाद अवश्यंभावी था, वह हुआ। संक्षेप में भक्ति आंदोलन का जनसाधारण पर अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा, सामान्य जनता कुलकानि, लोकरूढ़ि, अन्धविश्वास, धार्मिक, आडम्बर, कट्टरता के विरुद्ध कमर कस कर खड़ी हो गई।”

प्रमुख संत कवि

हम यहाँ संत साहित्य में योगदान देने वाले कुछ प्रमुख संत कवियों का परिचय दे रहे हैं साथ ही उनके साहित्य के विषय एवं विशेषताओं का भी उल्लेख कर रहे हैं :-

नामदेव

इनका जन्म 1329 को सतारा के नरसी वमनी (बहमनी) गाँव में हुआ था। अपने पैतृक व्यवसाय की ओर इनकी रुचि नहीं थी, अत: बचपन से ही साधुसेवा एवं सतसंग में अपना जीवन बिताते रहे। संत विसोवा खेचर इनके गुरु थे तथा प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर के प्रति भी इनकी गहरी निष्ठा थी। मराठी में रचित अभंगों के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में भी इनकी रचनाएँ उपलब्ध हैं। सधुक्कड़ी भाषा में रचित इनकी रचनाओं में निर्गुणोपासना, कर्मकाण्ड का खण्डन तथा ब्रह्म का स्वरूप निरूपण किया गया है :

“जल तरंग अरु फेन बुदबुदा, जलते भिन न होई।

इहु परपंचु पारब्रह्म की लीला, विचरत आन न होई।।

मिथिआ भरमु अरु सुपन मनोरथ, सति पदारथु जानिआ।

सक्रित मनसा गुर उपदेसी, जागत ही मनु मानिआ।।

कहत नामदेउ हरि की रचना, देषहु रिदै बीचारी।

घट-घट जंतरि सरब निरन्तरि, केवल एक मुरारी।।” ।

संत नामदेव छीपा दर्जी थे। वे गज, कैंची और सुई धागे के माध्यम से ही भक्ति-रहस्य उद्घाटित करते थे। सामान्य जन उनकी आजीविका के कार्य से परिचित थे अत: उनकी रूपक-योजना को सही ढंग से समझने में वे सक्षम थे।

कबीरदास (1456-1575)

इनके जन्म-काल, जीवन-मरण तथा जीवन की प्रसिद्ध घटनाओं के विषय में किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के घर में हुआ था। किन्तु लोकभय से वह इन्हें लहरतारा ताल के निकट छोड़ आई। इनका पालन-पोषण नीरू-नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने किया। रामानन्द इनके दीक्षा गुरु थे, उनसे नाम का मंत्र लेने के लिए ये पंचगंगा घाट की उन सीढ़ियों पर जा पड़े जहाँ से प्रात:काल रामानन्द स्नान करने जाते थे। अंधेरे में रामानन्द के चरण कबीर साहब पर पड़ गए और रामानन्द जी बोल उठे ‘राम राम कह’ । आगे चलकर यही मंत्र मानुष सत्य के महान् लक्ष्य की प्राप्ति में तथा वैषम्य के दुराग्रहों को छोड़कर सामाजिक न्याय और समानता की स्थापना में सहायक हुआ। कबीर ने ‘मसि कागद’ नहीं छुआ, इन्होंने आत्म-चिंतन एवं लोक निरीक्षण से जो ज्ञान प्राप्त किया, उसी को। निर्भयतापूर्वक अपनी साखियों और पदों में अभिव्यक्त किया। इन्होंने वर्णाश्रम धर्म में प्रचलित कुरीतियों को ही नहीं, लोक में प्रचलित अपधर्म (जादू-टोना, मंत्र-तंत्र, टोटका आदि) को भी पहचाना : ‘ताथै कहिये लोकाचार वेद कतेब कथै व्यवहार’ ।

कबीर साहसी और तेजस्वी व्यक्तित्व के धनी थे। उनकी कथनी और करनी में जबरदस्त एकरूपता थी। जनता को सम्बोधित करके परीक्षा के क्षणों में पीछे हट जाने वाले उपदेशक वे न थे। वे ऐसे कर्मयोगी थे जो अंधविश्वासों की खाई पाटने के लिए अपना घर जलाने को (आत्मोत्सर्ग) तैयार थे। काशी को देवभूमि मानकर यह विश्वास किया जाता है कि जिस व्यक्ति की मृत्यु तपोभूमि में होगी यह मरणोपरान्त अवश्य ही श्रेष्ठ स्थान का अधिकारी होगा और जो व्यक्ति मगहर में कालकवलित होगा वह अगले जन्म में निकृष्ट योनि में जन्म लेगा। लोक में फैले इस अंधविश्वास को तोड़ने के लिए जीवन के अन्तिम समय में कबीर मगहर में जाकर रहने लगे। उन्होंने सिद्ध किया कि ‘एक जीव ते सब जग उपज्या कौन भला कौन मंदा’ और इसी प्रकार यह अंधविश्वास भी तोड़ा :

‘जो काशी तन तजै कबीरा तो रामहि कहा निहोरा रे’।

कवि के रूप में कबीर जीवन की सहजता के अधिक निकट हैं। उनकी कविता में छंद, अलंकार, शब्द-शक्ति आदि गौण हैं और लोकमंगल की चिंता प्रधान है। इनकी वाणी का संग्रह इनके अनुयायियों ने ‘बीजक’ के नाम से किया है। इसके तीन भाग हैं : ‘रमैनी’, ‘सबद’ और ‘साखी’ । ‘रमैनी’ और ‘सबद’ में गाने के पद हैं तथा साखी दोहा छंद में लिखी गई है। सिखों के गुरु ग्रंथ साहब में भी कबीर के नाम से ‘पद’ तथा ‘सलोकु’ संग्रहीत हैं। इन रचनाओं में कबीर साहब ने जाति-पाँति, छुआ-छूत अंधविश्वास, रूढ़िवादी दृष्टिकोण, पूजा-अर्चना तथा धार्मिक कर्मकाण्ड का विरोध किया है। वे ऐसे साधक थे, जिसने वेदान्त के सत्य और पारमार्थिक सत्य को पृथक-पृथक नहीं माना, अपितु सत्य को भक्ति से सहज की प्राप्य बताया।

कबीरदास की अभिव्यंजना शैली बहुत सशक्त थी। इनकी भाषा मूलत: तो पूरब की है, किन्तु, उसमें अन्य बोलियों का भी मिश्रण होने के कारण उसे सधुक्कड़ी कहा जाता है। इनके काव्य में प्रतीक योजना का सुन्दर निर्वाह हुआ है। ये प्रतीक दाम्पत्य एवं वात्सल्य जीवन की विविधता का संकेत करते हैं। साथ ही इनकी कविता में सांकेतिक प्रतीक, पारिभाषिक प्रतीक, संख्यामूलक प्रतीक, रूपात्मक प्रतीक तथा प्रतीकात्मक उलटबाँसियों के भी उदाहरण मिलते हैं। रहस्यवाद के व्यंजक पदों में भी इन्होंने प्रतीक योजना का सहारा लिया है। छन्द, अलंकारादि (प्रयत्नसाध्य) शैलीगत उपकरणों के प्रति इनके मन में कोई निष्ठा नहीं है।

रैदास

मध्ययुगीन साधकों में संत रैदास अथवा रविदास के जीवनकाल की तिथि के विषय में कुछ निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता। इनके समकालीन धन्ना और मीरा ने अपनी रचनाओं में बहुत श्रद्धा के साथ इनका नामोल्लेख किया है। ऐसा माना जाता है कि ये कबीर के समकालीन थे। रैदास की परिचई’ में उनके जन्मकाल का उल्लेख नहीं है। अत: समकालीन व्यक्तियों को प्रमाण मानकर कहा जा सकता है कि इनका जन्म संभवत: पन्द्रहवीं शताब्दी में हुआ होगा। रैदास की कविता में सामाजिक विषमता के प्रति विरोध है। उन्होंने वर्णवादी व्यवस्था की असमानता के प्रति आक्रोश प्रकट किया है। वह कविता में बार-बार अपने को चमार कहकर संबोधित करते हैं। यह एक प्रकार से कवि का प्रतिरोध ही है। जाति-प्रथा और कर्मकाण्ड को उन्होंने तोड़ने का उपदेश दिया। उनकी कविता में मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा आदि बाह्य विधान का विरोध किया गया है। रैदास ने जन सामान्य को निश्छल भाव से भक्ति की ओर उन्मुख करने का प्रयत्न किया।

अब कैसे छूटै राम, नाम रट लागी।

प्रभु जी तुम चंदन इम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी।

प्रभु जी तुम धन बन हम मोरा, जैसे चितवत चन्द चकोरा ।

प्रभु जी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा, जैसे सोने मिलत सुहागा।

प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा।

इनकी रचनाओं का कोई व्यवस्थित संकलन नहीं है, वह मात्र फुटकल रूप में ही उपलब्ध होता है। ‘आदिग्रंथ’ में इनके कतिपय पद मिलते हैं। अनन्यता, भगवत्-प्रेम, दैन्य, आत्मनिवेदन और सरल हृदयता इनकी रचनाओं की विशेषता है। संत रविदास’ रामानन्द के बारह शिष्यों में से एक थे।

गुरुनानक देव

नानक पंथ के प्रवर्तक गुरुनानक देव जी का जन्म सं. 1526 के वैशाख मास की तृतीया को तिलवंडी ग्राम में हुआ था। गुरुनानक देव की बचपन से ही अध्यात्म में रुचि थी। अत: वे ऐसे मत की ओर सहज रूप से आकर्षित हो गए जिसकी उपासना पद्धति साम्प्रदायिक न हो। कबीर दास प्रवर्तित निर्गुण संतमत’ इन्हें अपने विचारों के अनुकूल जान पड़ा। इनकी बानियों का संग्रह ‘आदिग्रंथ’ के ‘महला’ नामक खंड में हुआ है। इनमें ‘शब्द’ और ‘सलोकु’ के साथ, ‘जपुजी’, ‘आसादीवार’, ‘रहिरास’ एवं ‘सोहिला’ का भी संग्रह है। इनकी रचनाओं में धार्मिक विश्वास, नाम स्मरण, एकेश्वरवाद, परमात्मा की सर्वव्यापकता, विश्व प्रेम, नाम की महत्ता आदि का परिचय मिलता है। नानकदेव की वाणी का प्रत्येक उद्गार अनुभूति की गहराई से निकला प्रतीत होता है। सरलता और अहंभावशून्यता इनकी प्रकृतिगत विशेषताएँ हैं। निरीहता एवं दैन्य की अभिव्यक्ति में ये रैदास के समतुल्य हैं। इनका अधिकांश साहित्य पंजाबी में है, किन्तु कहीं-कहीं ब्रजभाषा-खड़ी बोली का प्रयोग भी मिलता है।

संत दादू दयाल

दादू पंथ के प्रर्वतक दादू दयाल का जन्म गुजरात प्रदेश के अहमदाबाद नगर में सं. 1601 में माना जाता है। इनकी मृत्यु सं. 1660 को राजस्थान प्रान्त के नराणा गाँव में हुई, जहाँ पर इनके अनुयायियों का प्रधान मठ ‘दादू द्वारा’ वर्तमान है। ये जाति के धुनिया थे। दादू को ‘परम ब्रह्म सम्प्रदाय’ का प्रवर्तक माना जाता है। बाद में इस परमब्रह्म संप्रदाय को ‘दादूपंथ’ के नाम से संबोधित किया गया। इनके गुरु कौन थे, इस विषय में कुछ अधिक ज्ञात नहीं है। इनकी आध्यात्मिक अनुभूति बड़ी तीव्र थी। इनकी बानियों का संग्रह ‘हरडेवाणी’ के नाम से जगन्नाथ दास ने प्रस्तुत किया। इनके प्रमुख शिष्य रज्जब जी ने इसमें पायी जाने वाली त्रुटियों को सुधार कर इसे ‘अंगबधु’ नाम से प्रस्तुत किया। दादू जी की एक अन्य रचना कायाबेलि’ है। इन रचनाओं में दादू के संत हृदय की स्पष्ट छाप मिलती है। इनकी बानी में ईश्वर की सर्वव्यापकता, सद्गुरु महिमा, आत्मबोध, संसार की अनित्यता का निरूपण हुआ है। संत दादू की विचारधारा कबीर से प्रभावित है। परन्तु दादू की कविता में टकराहट का भाव नहीं मिलता है। उन्होंने सगुण और निर्गण की बौद्धिक टकराहट से कविता को दूर रखा। उनकी कविता में प्रेमभाव की अभिव्यक्ति है। यह प्रेम निर्गुण निराकार ईश्वर के प्रति है:

भाई रे! ऐसा पंथ हमारा।

द्वै पख रहित पंथ गह पूरा अबरन एक अधारा।

बाद विवाद काहू सौं नाहीं मैं हूं ना जग थे न्यारा।।

समदृष्टि सँ भाई सहज में आपहिं आप बिचारा।

मैं तैं मेरी यह मति नाहीं निरबैरी निरविकारा।।

काम कल्पना कदे न कीजै पूरन ब्रह्म पियारा।

एहि पथि पहुंचि पार गहि दादू सो तब सहज संभारा।।

निर्गुण भक्त कवि होने पर भी इन्होंने ईश्वर के सगुण स्वरूप को मान्यता दी है। इनकी रचनाओं की भाषा राजस्थानी है, जिसमें गुजराती, सिंधी, पंजाबी, फारसी आदि के प्रयोग भी मिलते हैं।

संत सुन्दरदास

संत दादूदयाल के योग्यतम शिष्य सुन्दरदास का जन्म सं. 1653 में जयपुर राज्य की प्राचीन राजधानी धौसा नगर में हुआ था। इनका महाप्रस्थान सांगनेर में सं. 1746 में हुआ। देशाटन इन्हें बहुत प्रिय था, पूर्व में बंगाल, पश्चिम में द्वारिका, उत्तर में बदरिकाश्रम और दक्षिण में मध्यदेश तक इन्होंने यात्रा की। भ्रमण के समय ये दादू के सिद्धान्तों का प्रचार करते थे और साथ ही साथ काव्य ग्रंथों की रचना भी करते थे। इनके बयालीस ग्रंथ कहे जाते हैं, जिनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना ‘सुन्दर विलाप’ है। समाज की रीति, नीति तथा भक्ति पर इन्होंने विनोदपूर्ण उक्तियाँ कही हैं। निर्गुण संत काव्यधारा में एक प्रकार की अनगढ़ता मिलती है। इस काव्यधारा की कविता पर किसी प्रकार के शास्त्रीय अनुशासन का अंकुश नहीं होता था लेकिन सुंदरदास की कविता में शास्त्रीय अनुशासन है। उन्होंने कविता के लिए अलंकार और छंद का कुशल प्रयोग किया है। इसी प्रकार कविता में निर्गुण सगुण विवाद को तार्किक रूप में रखा है। लोकजीवन की रूढ़ियों के विरोध और विद्रोह का स्वर उनमें नहीं है। सुंदरदास की कविता को पढ़ने पर यह पता चलता है कि धीरे-धीरे निर्गुण भक्ति का आक्रोश भी मंद पड़ गया था। निर्गुण भक्ति काव्य शास्त्रीय बंधन में बँधने को तैयार होने लगा था।

“गेह तज्यो अरु नेह तज्यो पुनि खेह लगाइ कै देह संवारी।

मेह सहे सिर सीत सहे तन धूप सभै जो पंचागिनि बारी।

भूख सही रहि रुख तरे पर सुंदरदास सबै दुख भारी।

डासन छाँड़ि के कासन ऊपर आसन मारयो तै आस न मारी।।”

निर्गुण भक्त कवि होने पर भी उन्होंने ईश्वर के सगुण स्वरूप को मान्यता दी है। इनकी रचनाओं की भाषा राजस्थानी है, जिसमें गुजराती सिंधी, पंजाबी, फारसी, आदि प्रयोग भी मिलते हैं।

संत मलूकदास

संत मलूकदास का जन्म इलाहाबाद के कड़ा नामक गाँव में सं. 1631 में हुआ। 106 वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु सं. 1739 में औरंगजेब के समय में हुई। इनके दीक्षा गुरु कौन थे, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद बना हुआ है। एक मत के अनुसार ये कील के शिष्य थे, तथा दूसरा मत इन्हें द्राविड़ विट्ठल का शिष्य बताता है। मलूकदास के प्रामाणिक ग्रंथ हैं : ‘ज्ञानबोध’, ‘ज्ञानपरोछि, ‘रामअवतारलीला’, ‘रत्नखान’, भक्तवच्छावली’ ‘भक्ति विवेक’ ‘विभवविभूति’, ‘सुखसागर’, ‘ब्रजलीला’, ‘ध्रुवचरित’ आदि। जिनमें रत्नखान’ और ‘ज्ञानबोध’ दो प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। मलूकदास की कविता में आख्यानशैली का प्रयोग मिलता है। इन्होंने विविध कथाओं का दृष्टांत देकर लोगों को इन्द्रियनिग्रह, ब्रह्मोपासना आदि का उपदेश दिया है। अवतारों और चरित्रों से संबंधित इनकी रचनाएँ भी मिलती हैं। आत्मबोध और वैराग्य मलूकदास की कविता के मुख्य सरोकार हैं।

 “कहत मलूक जो बिन सिर खेपै सो यह रूप बखाने ।

या नैया के अजब कथा, कोइ बिरला केवट जाने।

कहत मलूक निरगुन के गुन कोइ बड़भागी गावै।

क्या गिरही औ क्या बैरागी जेहि हरि देये सो पावै ।।”

इन्होंने अवधी और ब्रजभाषा में काव्य रचना की, तथा इनकी भाषा में अरबी, फारसी के शब्दों का प्रयोग मिलता है। कुल मिलाकर इनकी भाषा व्यवस्थित और सुन्दर है। इन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों को समान भाव से उपदेश दिया।

प्रमुख प्रवृत्तियाँ

संत साहित्य का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि सभी संत कवि निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल देते हैं। सामान्य जन को निर्गुण राम की उपासना का व्रत देकर, निर्गुण पंथ के इन कवियों ने भक्ति को, लोक में सामरस्य स्थापित करने का माध्यम बनाया। निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति सद्गुरु द्वारा दिए गए ज्ञान से ही हो सकती है। उनके अनुसार लोक में फैले माया जाल के आवरण को भेद कर ज्ञान के चक्षुओं को खोल कर साक्षात् सत्य रूपी परब्रह्म का साक्षात्कार सद्गुरु द्वारा दिए गए ज्ञान से ही संभव है। इस ज्ञान के महात्म्य ने समाज की वैषम्यतामूलक स्थिति की ओर संत कवियों का ध्यान आकृष्ट किया। लोक प्रवर्तित यही दृष्टि आगे चलकर समन्वित रूप में लोकधर्म के रूप में प्रचलित हुई।

आइए, अब हम संत काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों की चर्चा करें :

भक्ति निरूपण

संत कवियों के लिए भक्ति शान्ति की खोज में आए साधक की शरणभूमि न थी। यह उनकी कर्मभूमि थी। इसी से वे लोक हृदय को आस्था का संबल दे सके तथा सामाजिक ऐक्य की स्थापना के लक्ष्य की ओर प्रयत्नशील हो सके। प्रचलित सामान्य अर्थ में ईश्वर के प्रति सहज आसक्ति ही भक्ति है। इसमें श्रद्धा और प्रेम के तत्वों का योग आवश्यक है। प्रेम की दृष्टि से संत काव्य में नारदी भक्ति के प्रेमतत्व के साथ-साथ सूफ़ियों की इश्क भावना का प्रभाव भी लक्षित होता है। संत कवियों ने भक्ति के अनुभूति-पक्ष को ही प्रधान रूप से चित्रित किया है। निर्गुण ब्रह्म की प्रतीति ज्ञान के द्वारा ही की जा सकती है। इसी हेतु इन कवियों को ज्ञानमार्गी कहा जाता है। इन्होंने सगुणवाद, अवतारवाद और मूर्तिपूजा आदि को सर्वथा त्याज्य बताया और केवल निर्गुण ब्रह्म की सत्ता को ही स्वीकार किया। संतों की भक्ति के उपास्य परब्रह्म परमेश्वर हैं। इन्होंने एकमात्र उन्हीं की भक्ति को भवसागर से मुक्ति का एकमात्र साधन बताया है। ईश्वर के प्रति अनुराग प्रकट करने के लिए इनकी साधना पद्धति स्वानुभूतिपरक आत्मनिवेदन तथा नामस्मरण की साधना को स्वीकार करती है। अपने निरंजन के प्रति वे दास्य, दैन्य, सख्य, रति, वात्सल्य आदि सभी भावों से अपना हृदय जुड़ाते हैं। संत कवियों के भक्ति भाव में सबसे पहले अहम् का त्याग आवश्यक है। अहम् का नाश होते ही भक्त और भगवान का अन्तर समाप्त हो जाता है।

इस प्रकार की भक्ति साधना निश्चित ही बहुत दुष्कर है क्योंकि इसमें साधक को अपने शरीर के भीतर के शत्रुओं को जीतना पड़ता है। जोगी, यती, संन्यासी द्वारा। मन को जीतकर ही अहम् का त्याग किया जा सकता है। भक्ति हृदय की प्रवृत्ति है। इसकी दिशा और लक्ष्य आध्यात्मिक हैं, भगवान का सामीप्य प्राप्त कर उसके साथ एकात्म हो जाना ही भक्त का लक्ष्य है। इस स्थिति में जीवात्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं रहता। प्रेम की सुखानुभूति जिस आध्यात्मिक जगत की चीज़ है उसका सिर्फ भावन ही किया जा सकता है :

“अकथ कहानी प्रेम की कछू कही न जाय।

गूंगे केरी सरकरा, खाए और मुसकाय ।।”

प्रपत्तिपरकता भक्ति भावना का प्राण है। प्रपत्ति का अर्थ है – आत्मनिवेदन। प्रपत्ति, भाव के विविध सोपानों में प्रथम है – ‘आनुकूल्यस्य संकल्प:’ अर्थात् भगवान के अनुकूल रहने का संकल्प । इसका दूसरा अंग है – ‘प्रतिकूल्यस्य वर्जनम्’ अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि माया जन्य भावों की निन्दा या प्रतिकूलता। तृतीय अंग – ‘रक्षित्यतीति विश्वास’ पर बल देता है, अर्थात् भक्त ईश्वर की रक्षणशीलता पर पूर्ण विश्वास करे। ‘मोहि राम भरोसो तेरो, और कौन का करूँ निहोरो’, आदि उक्तियाँ ईश्वर पर अडिग आस्था का संकेत करती हैं। प्रपत्ति भाव की भक्ति की अन्य विशेषता एकमात्र भगवान के गुणों का वर्णन करना है। संत कवियों की वाणी बार-बार यही कहती है – ‘निर्गुण राम जपहु रे भाई’। इसका अन्य अंग ‘आत्मनिक्षेप’ है। अर्थात् अपने को पूर्णतया भगवान के अधीन कर देना – तन मन जीवन सौंपि सरीरा। ताहि सुहागिनी । कहै कबीरा।।’ निर्गुण भक्ति की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता निष्कामना भक्ति है। इस प्रकार भक्ति करने से जीवनकाल में जीवनमुक्ति और देह त्यागने पर मुक्ति मिलती है।

संत कवियों का लक्ष्य सामान्य भक्ति पद्धति का प्रचार करना था, जिसमें भेद-भाव की भावना का परिहार हो सके। नामस्मरण को इन्होंने साधना का आधार माना है। हरि नाम सुमिरन ही मोक्ष प्राप्ति में सहायक है। यह भक्ति प्रेम के माध्यम से कर्मकाण्ड की अनपेक्षित दुरूहताओं को दूर कर देती है। इस प्रकार की साधना भक्ति, आनन्द और शान्ति से संयुक्त शुद्ध अंत:करण की स्वाभाविक जन्मदात्री है। साधना का यह मार्ग भक्तिपरक ही न था, अपितु, भक्ति के माध्यम से मानवीय न्याय की साधना का युगान्तरकारी प्रयास था।

सामाजिक चेतना

मध्यकालीन भक्ति काव्य मूलत: सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के रूप में सामने आता है। भक्ति आन्दोलन ने समाज से अन्त्यजों को सम्मानपूर्वक जीवन यापन करने की आशा का संचार किया। यह मध्यकालीन जागरण, लोक जागरण, भारतीय जागरण अर्थात् जन आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। विभिन्न वर्ग एवं वर्गों के वितण्डतावादी स्वरूप, वर्ग संघर्ष, धार्मिक भेदभाव, विधि निषेधों से जर्जरित भारतीय जीवन में भक्ति आन्दोलन मनुष्य सत्य के स्वप्न को संजोता है। यह आन्दोलन रूढ़िग्रस्त समाज और उसकी अमानवीय व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश तथा जिजीविषा की तीव्रतम अभिव्यक्ति था। भक्ति आंदोलन के विषय में ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबन्ध’ पुस्तक में गजानन माधव मुक्तिबोध लिखते हैं – ‘भक्ति आंदोलन का जनसाधारण पर जितना व्यापक प्रभाव हुआ उतना अन्य किसी आन्दोलन का नहीं। पहली बार शूद्रों ने अपने संत पैदा किए। कबीर, रैदास, सेना, पीपा आदि महापुरुषों ने ईश्वर के नाम पर जातिवाद के विरुद्ध आवाज़ बुलन्द की। समाज के न्यस्त स्वार्थवादी वर्ग के विरुद्ध नया विचारवाद अवश्यंभावी था, वह हुआ।’ समाज की निम्न समझी जाने वाली जातियों में जन्मे इन कवियों ने समझौते का रास्ता छोड़कर विद्रोह का क्रांतिकारी मार्ग अपनाया। भक्ति ने इन कवियों में वह बल भर दिया कि ये डंके की चोट पर घोषित करते हैं कि इनकी जाति निम्न है –

“जाके कुटुम्ब ढोर ढोवंत फिरहिं अजहुँ बानारसी आसपास ।

आचार सहित विप्र करहिं डंड उति तिन तनै रविदास दासानुदासा।।”

समाज को सुख की नींद में सोया हुआ देखकर संतों का विरोध उग्र रूप धारण कर लेता है। अपने ज्ञान चक्षुओं से ये संत युग की पीड़ा का साक्षात्कार कर रहे थे। उनके अन्तर्मन से उद्भाषित वाणी उनकी वास्तविक पीड़ा की परिचायक है –

‘सुखिया सब संसार है, खावे और सोवे ।

दुखिया दास कबीर है, जागै और रोवे ।।”

संतों का समय राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक दृष्टि से उथल-पुथल का समय था। एक ओर हिन्दू समाज की शास्त्रीय धर्म पर आधारित वर्णाश्रमवादी व्यवस्था थी जिसका विरोध बौद्ध सिद्ध-नाथ आदि ने भी किया, तो दूसरी ओर इस्लाम की धार्मिक, कट्टरता, उग्रता और सामाजिक विषमता थी। इन दोनों ही स्थितियों में व्यवस्था के दुष्चक्र में आम आदमी पिस रहा था। उस कठिन समय में खतरा मनुष्यता को था। ऐसे समय भारतीय संस्कृति को आस्था का सम्बल प्रदान करने का श्रेयस्कारी कार्य संत कवियों द्वारा हुआ। इन कवियों की मनुष्यता में अटूट आस्था थी और निर्भीकता इनकी सम्पत्ति थी। ‘मानुष सत्य’ सन्त कवियों का ही नहीं, समग्र भक्तिकाल के कवियों का मानव मूल्य था। संत कवि ईर्ष्या, क्रूरता, कामुकता, कपट, लोभ, मोह, अहंकार की आलोचना करते थे और प्रेम, स्नेह, करुणा, दया, ममता, उदारता, अहिंसा और समता का विकास चाहते थे। इनकी रचनाएँ सामाजिक अव्यवस्था, अनैतिकता तथा अनावश्यक विडम्बनाओं के विरोध में रची जाती थीं। शास्त्रीय धर्म ने सत्य को विभाजित करके देखा – पारमार्थिक सत्य और लौकिक सत्य ।

अर्थात् भक्ति के क्षेत्र में तो सब समान हैं, किन्तु सांसारिक विधि-विधानों का पालन करना भी आवश्यक है अत: जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था का महत्व भी है। निर्गणवादी संत कवियों ने उस दोहरे आचरण की व्यवस्था पर तिलमिला देने वाले प्रश्नों की बौछार की। उन्होंने स्पष्ट किया कि सत्य विभाजित नहीं हो सकता। उस समय समाज को खतरा शास्त्रीय आडम्बरों और कर्मकाण्डों से ही नहीं, लोकाचार संबंधी कुरीतियों से भी था। कबीर आदि संतों ने इसे भली भाँति पहचाना। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है – उस समय लोक में यह मान्यता प्रचलित थी कि जो व्यक्ति काशी में देह त्याग करेगा, वह स्वर्गवासी होगा और जिस व्यक्ति की मृत्यु मगहर में होगी, उसका अगला जन्म निकृष्ट योनि में होगा। इस लोकरूढ़ि को तोड़ने के लिए कबीर सामने आए, जिन्होंने अपना सारा जीवन काशी में बिताया, किन्तु अन्तिम समय में मगहर चले गए। ऐसे थे कबीर आदि संत।

सद्गुरू की महत्ता

संत कवियों ने सांसारिक माया के आवरण से अतीत परब्रह्म निरुपाधि ईश्वर के साक्षात्कार के लिए सद्गुरु के महत्व को स्वीकारा है। यह सद्गुरु लोक वेद की असारता द्योतित करते हुए ज्ञान रूपी प्रकाश के दीप को प्रज्ज्वलित करता है। आत्मा ईश्वर (पिया) से मिलने के लिए व्याकुल है। सात्विक भाव से सारा अंग शिथिल और रोमांचित हो जाता है। पैर आगे नहीं बढ़ते, प्रीति की आशंका से मन अस्थिर हो जाता है, मिलन हो तो कैसे हो ? सद्गुरु का उपदेश ही इस विपत्ति में सहारा है –

पिया मिलन की आस, रहों कबलौं खरी।

ऊँचे नहिं चढ़ि जाय, मने लज्जा भरी।।

छोरा कुमति-बिकार, सुमति गहि लीजिए।

सतगुरु शब्द संहारि, चरन चित्त दीजिए।।

जिस दिन से संत कबीर ने गुरू रामानन्द से राम नाम की दीक्षा ली, उस दिन से उन्होंने श्रेष्ठ सहज समाधि में भी दीक्षा ली। उनका चलना ही परिक्रमा रूप हो गया और काम-काज ही सेवा हो गए, सोना ही प्रणाम बन गया और बोलना ही नाम सुमिरन हो गया। यह सब गुरू की कृपा से ही हुआ। अत: भक्ति के मार्ग पर सद्गुरु ही ऐसा है जो चंचल मन को पंगु बना देता है और तत्व में तत्वातीत को दिखा देता है। वह प्रेम का ऐसा प्रसंग दिखाता है कि प्रेम के मेघों की वर्षा से सारा शरीर भीग जाता है और रससिक्त आत्मा कह उठती है –

कबिरा बादल प्रेम का, हम परि बरस्या आइ।

अंतरि भीगी आत्मा, हरी भई बनराइ।।

पूरे सँ परचा भया, सब दुख मेल्या दूरि।

निर्मल कीन्हीं आत्मा, ताक् सदा हरि।।

गुरु कृपा से ही शिष्य संसार के समस्त बन्धनों से मुक्त हो सकता है। सन्त कवियों ने गुरु को मुक्ति के पर्याय रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने ज्ञान, भक्ति और योग आदि समस्त संदर्भो में गुरु के महत्व को मान्यता दी है।

संत काव्य में राम

संत कवियों के राम सोपाधि ब्रह्म न होकर निरुपाधि ब्रह्म हैं। वे अवतार लेकर धरती पर नहीं आते, न ही ये दशरथ के सुत हैं। सगुण और निर्गुण दोनों ही कवि संसार को माया जन्य मानकर इससे मुक्ति के लिए नामोपासना पर बल देते हैं। तुलसी (सगुणकवि) और कबीर (निर्गुण कवि) इस हेतु राम नाम के महात्म्य को स्वीकार करते हैं किन्तु इनकी उपासना की पद्धतियों में अन्तर है। ‘राम’ नाम की समानता होने पर स्वरूपगत अन्तर का मुख्य कारण ‘लीला’ और ‘अवतार’ का अन्तर है। रामानन्द आकाश धर्मा गुरु थे। उन्होंने सगुण और निर्गुण दोनों कवियों को राम नाम का मंत्र दिया । तुलसी के राम अवतारी है। अवतार, लेकर शक्ति, शील आदि से भक्तों की इच्छापूर्ति करते हैं। निर्गुण कवियों के ‘राम’ ब्रह्मस्वरूप हैं । वे अगम, अगोचर, अतीन्द्रिय, अविनाशी, अनिवर्चनीय हैं। वे जन्म मरण से परे हैं।

“जाके मुँह माया नहीं, नाहीं रूप कुरूप।

पुहुप बास ले पातरा, ऐसा तत्व अनूप।।”

इस परं ज्योतिर्मय प्रकाश पंज के दिव्य एवं घट-घट वासी स्वरूप का अनुभव सद्गुरु का प्रसाद पाकर ही किया जा सकता है। अत: निर्गुण राम ज्ञानधारित है। कबीर ने राम को भावगम्य बनाने का प्रयत्न किया है। साधक जब सहज होकर ‘राम’ का अनुध्यान करता है, तन्मयता के क्षण में राम की अनुभूति होती है।

रहस्यवाद 

रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौकिक आत्मा से अपना शान्त और निश्छल सम्बंध जोड़ना चाहती है। यह संबंध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कोई अन्तर नहीं रहता आत्मा में परमात्मा के गुणों का प्रदर्शन होने लगता है और परमात्मा में आत्मा के गुणों का प्रदर्शन ।’ (रामकुमार वर्मा) दर्शन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है। आत्मा द्वारा परमात्मा के तदाकार के तीन चरण हैं। प्रथम चरण में आत्मा परमात्मा की ओर आकर्षित होती है। द्वितीय चरण में आत्मा परमात्मा से प्रेम करने लगती है। यह प्रेम इतना तीव्र होता है कि सांसारिक वस्तुएँ मायाजन्य एवं नश्वर प्रतीत होने लगती हैं। तृतीय चरण में आत्मा और परमात्मा में अभिन्न संबंध स्थापित हो जाता है।

संतकाव्य में रहस्यवाद, शंकर के अद्वैतवाद, नाथों की योग साधना और सूफियों की प्रेम साधना द्वारा आया। अद्वैतवाद रहस्यवाद का प्राण है, जो मानता है कि आत्मा और परमात्मा वस्तुत: एक ही हैं, जिनके मध्य माया का आवरण पड़ा हुआ है। इस माया जन्य ठगिनी का नाश होते ही आत्मा और परमात्मा का मिलन हो जाता है :

“जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहिर भीतर पानी।

फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना, यहु तत कथ्यौ गियानी।।”

ज्ञानोदय होते ही अद्वैतवादी स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। रहस्य की चरम परिणति उस समय सामने आती है जब आत्मा और परमात्मा दोनों एकाकार हो जाते हैं :

“हरि मरिहैं तो हमहूँ मरिहैं,

हरि न मरै हम काहे को मरिहैं।”

सूफी मत के अनुसार शरीयत, तरीकत, हकीकत, मारीफत के मार्ग पर चलकर आत्मा और परमात्मा का एकीकरण संभव है। सूफी साधना में प्रेम तत्व की प्रधानता है। संत कवि का भी कहना है :

“गुरु प्रेम का अंक पढ़ाय दिया

अब पढ़ने को कछु नहिं बाकी”

रहस्यवादी का शरीर हर समय अलौकिक आनन्द में मग्न रहता है। सूफी मत ईश्वर को स्त्री रूप में देखता है। संत कवियों ने दाम्पत्य संबंध के भाव को इन्हीं से ग्रहण किया है किन्तु वे ईश्वर की कल्पना पुरुष रूप में करते हैं। नाथों की योगसाधना का प्रभाव कबीरादि संतों की उलटबाँसी रचनाओं में देखा जा सकता है।

प्रेम लक्षणा भक्ति

सूफी मत में प्रेम का बहुत महत्व है। सूफ़ी परमात्मा को प्रेम स्वरूप मानते हैं। नि:स्वार्थ प्रेम सूफीकाव्य की आत्मा है। उनके काव्य में प्रेम का संबंध तीव्र होने पर ही परमात्मा की अनुभूति हो पाती है। संतकाव्य में प्रेमदर्शन सूफी काव्य के प्रभावस्वरूप ही आया। इसी से संत काव्य में प्रेमलक्षणा भक्ति का जन्म हुआ। प्रेम की तीव्र अनुभूति में उस अनादि तत्व के प्रति ऐसी लगन लग जाती है कि संसार की कोई स्मृति नहीं रहती। काया के स्वरूप की चिंता नहीं रहती –

“हरि रस पीया जानिये, कबहूँ न जाय खुमार।

मैं मन्ता घूमत फिरै, नाही तन की सार।।”

संतों की प्रेम पद्धति मूलत: भारतीय ही रही है। सूफी मत में ईश्वर को स्त्री रूप में स्वीकार किया गया है किन्तु संत कवि परमात्मा को प्रियतम और स्वयं को प्रियतमा रूप में चित्रित करते हैं ‘हरि मोर पिउ मैं हरि की बहुरिया’ कहकर कबीर इस प्रेम संबंध को उद्घाटित करते हैं। इसके अतिरिक्त संत कवियों ने ईश्वर, के साथ पिता, माता, सखी आदि संबंधों को भी रूपायित किया है।

अद्वैतवाद

संत कवियों की बानी पर शंकर के अद्वैतवाद का प्रभाव भी लक्षित होता है। शंकर के अद्वैतवाद में आत्मा और परमात्मा में कोई मूलभूत अंतर नहीं माना गया। आत्मा और परमात्मा, उनके मध्य की दूरी माया के आवरण के कारण ही है। कबीर आदि संत भी माया के आवरण को इसी रूप में चित्रित करते हुए कहते हैं कि जिस दिन माया का यह आवरण हट जाएगा उसी दिन आत्मा और परमात्मा का एकीकरण संभव है। ‘माया महाठगिनी हम जानी’ कहते हुए संत कवि माया का आवरण हटाने के लिए उपासना पद्धति परं बल देते हैं। अद्वैतवाद की झलक कबीर की इन पंक्तियों में लक्षित होती है –

“पावक रूपी सांइयां, सब घटा रहा समाय।

चित चकमक लागे नहीं, ताते बुझ बुझ जाय ।।”

अभिव्यजंना पक्ष

संत कवियों की बानी में हृदय के सहज, सरल अनुभूतिगम्य भावों के निर्द्वन्द्व उद्गार व्यक्त हुए हैं। ये कवि अधिकांशत: निम्न जाति से संबद्ध थे तथा तदयुगीन विषमता के चलते, इनके लिए शिक्षा-दीक्षा के पर्याप्त अवसर भी न थे। अनुभूति प्रेरित इनकी कविता प्रकृति के समान सहज और हर तरह के कलावादी संस्कारों से अछूती थी। मनीषियों द्वारा विवेचित अभिव्यंजना की विविध युक्तियाँ संतों के लिए साधन थे, साध्य नहीं। जन भाषा में काव्य रचना करने वाले कबीरादि संत भाषा के सामने लाचार नहीं थे, बल्कि भाषा पर इन्होंने ऐसा अधिकार कर लिया था, कि इस सहजता में भी तीखापन था, सादगी में भी प्रखरता थी। ‘इन्होंने जब जैसा चाहा भाषा का वैसा प्रयोग किया, बन गया तो सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर।’ (हजारी प्रसाद द्विवेदी) आइए, अब हम संत काव्य के अभिव्यंजना पक्ष की विशेषताओं पर विचार करें।

काव्य भाषा

संत कवियों की भाषा पर विचार करते समय प्राय: उसे अव्याकरणिक, अशुद्ध, अव्यवस्थित और अकाव्यात्मक कहा जाता है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि सन्त कवियों की भाषा अपने समय के समाज की भाषा है, वह लोक व्यवहार की सादगी और उत्साह को समेटे हुए है। इन कवियों ने अभिव्यक्ति के लिए ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अरबी-फारसी, उर्दू, सिंधी, निमाड़ी की शब्दावली का प्रयोग निस्संकोच भाव से किया है। भाषा के इस विस्तार से ज्ञात होता है कि संत कवि इस देश की भाषिक विविधता से परिचित थे तथा वे व्यापक समाज से जुड़ने को इच्छुक थे। उन्होंने भारतीय समाज के सुख-दु:ख, आशा-आकांक्षा, विरह-वेदना, नैतिकता, शील आदि को व्यक्त करने के लिए देव भाषा संस्कृत का प्रयोग नहीं किया, अपितु जन व्यवहार की भाषा को ही अपनाया। आलोचकों ने इस भाषा की शक्ति एवं तेवर को लक्षित न करके इस पर आक्षेप किया है।

‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं : ‘नाथ पंथ के इन जोगियों ने परम्परागत साहित्य की भाषा या काव्यभाषा से, जिसका ढाँचा नागर अपभ्रंश या ब्रज का था, अलग एक ‘सधुक्कड़ी’ भाषा का सहारा लिया, जिसका ढाँचा कुछ खड़ी बोली लिए राजस्थानी का था।” आ० श्यामसुन्दर दास इनकी भाषा को ‘गँवारू’ कहते हैं। कबीर की भाषा का निर्णय करना टेढ़ी खीर है, क्योंकि वह खिचड़ी है। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। इसी से वे बाहरी प्रभावों के बहुत अधिक शिकार हुए। भाषा और व्यवहार की स्थिरता उनमें नहीं मिलती, उनकी भाषा में अक्खड़पन है और साहित्यिक कोमलता या प्रसाद गुण का सर्वथा अभाव है। कहीं-कहीं उनकी भाषा बिल्कुल गँवारू लगती है।’ (कबीर ग्रंथावली की भूमिका : आ० श्याम सुन्दर दास)

वस्तुत: जनभाषा की शक्ति को पहचान कर भक्तिकाल के कवियों ने भाषा संबंधी जो विचार व्यक्त किए हैं, उसी में इन आक्षेपों का उत्तर भी पाया जा सकता है :

‘का भाषा, का संस्कृत, प्रेम चाहिए सांच।।

काम जो आवै कामरी, का लै करै कमांच।।”

संतकाव्य में पूर्णरूप से भावानुकूल भाषा का प्रयोग है, इसलिए सन्तों की अनुभूति की सफल और सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है। जहाँ पर ज्ञान और योग का संदर्भ है, वहाँ पारिभाषिक शब्दावली का सहज प्रयोग किया गया है –

“इंग्ला प्यंगुला भाठी कीन्हीं, ब्रह्म अगिनि परजारी।

ससिहर सूर द्वार दस मूंदे, लागी जोग जुगवारी।”

जहाँ पर हृदय से निकलने वाले भावों का सहज प्रवाह है, वहाँ पर सुगम और जनसामान्य की भाषा का प्रयोग मिलता है। ऐसी सहज भाषा में विभिन्न संदर्भो का स्पष्ट चित्रांकन संभव हो पाया है।

उलटबाँसी शैली

कबीर तथा अन्य निर्गुण कवियों की उलटबासियाँ प्रसिद्ध हैं। पूर्व में इसे ‘संध्या भाषा’ के नाम से जाना जाता था। ‘संध्या भाषा’ से तात्पर्य ऐसी भाषा से है जिसका कुछ अर्थ समझ में आए तथा कुछ अस्पष्ट हो, किन्तु इसके प्रतीक खुलने पर ज्ञान के दीपक से सब स्पष्ट हो जाए। योगियों के पारिभाषिक शब्दों में उलटी बानी को प्रभावोत्पादक बनाने की क्षमता है। कबीर दास उलटबाँसी शैली का प्रयोग उस योगी को फटकारने के लिए करते हैं जो स्वयं को तीन लोक से न्यारा कहता है। कबीर के अनेक विचार उलटबाँसियों में अभिव्यक्त हुए हैं। विषय की दृष्टि से उलटबाँसियों के निम्न प्रकार हो सकते हैं – संसार से संबंधित, प्रेम साधना से संबंधित, योग से संबंधित तथा आत्मा-परमात्मा से संबंधित। उलटबाँसी में प्रतीकों का प्रयोग होता है तथा प्रतीक खुलने पर ही इनका अर्थ स्पष्ट होता है जैसे

मारिअ सासु ननद घरे शाली।

माअ मारिअ कान्ह भइल कपाली ।।

इसमें सासु-स्वास, ननद-इन्द्रिय, मा-काया, कपाली-साधक आदि प्रतीकों के अर्थ स्पष्ट होने पर उलटबाँसी का अर्थ भी खुलने लगता है।

प्रतीकात्मकता

संत कवियों ने योगी, सहजयानी तांत्रिकों से प्रश्न करने के लिए उनकी ही प्रतीकात्मक भाषा को काव्य का माध्यम बनाया। इसमें उन्होंने आत्मा, परमात्मा या संसार आदि के लिए कमलिनी, सरोवर, जल, नागिन आदि प्रतीकों की व्यवस्था की है। संत काव्य में प्रयुक्त कतिपय प्रतीक उदाहरण स्वरूप दिये जा रहे हैं :

मन – मच्छ, मीन, जुलाहा, निरंजन, हस्ती आदि।

माया – माता, नारी, बिलैया, गैया आदि ।

इन्द्रिय सखी आदि।

जीवात्मा – पुत्र, पारथ, योगी, भौंरा, मूसा, सिंह आदि ।

सेवक भावना को व्यक्त करने के लिए कबीर ने स्वामिभक्त पालतू पशु कुत्ते को प्रतीक रूप में अपनाया है

“कबिरा कूता राम का, मुतिया मेरा नांउ।

गले राम की जेवड़ी, जित खींचै तित जाउं।।’

‘ संत साहित्य में योग साधना में विभिन्न अर्थों की अभिव्यक्ति के लिए भी प्रतीकों की योजना की गई है।

कल्पना सौन्दर्य

संत कवियों की काव्य-कल्पना में भावों की तीव्रता प्राञ्जलता एवं सजीवता विद्यमान है। कल्पना के अभाव में काव्य में कमनीयता, चारुता और रमणीयता नहीं आ पाती। संतों की विषयगत विविधता के समान ही उनकी कल्पना का क्षेत्र भी विस्तृत है। ब्रह्म, जीव, जगत और काल विषयक कल्पनाएँ उनके काव्य में सहज सुलभ हैं। उनकी कल्पनाजन्य काव्य सृष्टि में अनुभूति और भावना का आधार बराबर बना रहा है :

माली आवत देखकर कलियन करी पुकार ।

फूल-फूल चुन लिए, काल्हि हमारी बार ।। (कबीर)

साहब तुमहि दयाल हौ, तुम लगि मेरी दौर ।

जैसे काम जहाज को, सूझे और न ठौर।। (कबीर)

गर्व भुलाने देह के, रचि-रचि बाँधे पाग।

सो देहि नित देखि के, चोंच संवारे काग।। 

(मलूकदास)

महल मुडेरी नीम सब, चलै कौन के साथ।

कागा रोला हो रहा, ना कछु लागा हाथ ।।

(गरीबदास)

छंद

संत कवियों ने विविध छंदों में रचना करके भी कविता में वैविध्य का परिचय दिया है। उन्होंने प्राय: रमैनी। में दोहा, चौपाई और सोरठा का प्रयोग किया है। साखी अधिकतर दोहों में मिलती है। सबद में राग-रागनियों । और पदों का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त सोरठा, सार, हरिपद, चौतीसी, बेली, कवित्त, कुंडलियाँ आदि छंद भी संतों की बानी में मिलते हैं। संतों के लिए छन्द साध्य नहीं थे, साधन मात्र थे। सन्त कवियों में सुन्दरदास को काव्य सिद्धान्तों का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने सवैया में भी रचनाएँ की हैं।

काव्य रूप

अनुभूत सत्य को सहज सरल रूप में कहने के लिए संत कवियों को प्रबंधकार कवि के समान भावविधायिनी कल्पना की आवश्यकता न थी। समाज के मार्मिक बिन्दुओं की पूरी पहचान रखते हुए संत कवियों ने  अभिव्यक्ति का माध्यम ‘मुक्तक काव्य’ को बनाया। दो टूक शब्दों में समाज के यथार्थ को उद्घाटित करने का इससे बेहतर साधन न था। मुक्तक काव्य के अन्तर्गत सबसे अधिक सबद, साखी और रमैनी की रचना की गई। आत्मनिवेदन के लिए गेय पद (सबद) का आश्रय संत कवियों ने लिया है। साखी का अर्थ होता है – चश्मदीद गवाह या साक्षी। अत: संत काव्य में सामाजिक आध्यात्मिक अनुभव को साखी के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है।

आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है कि साखी का अर्थ ही यह है कि पूर्वतर साधकों की बात पर कबीर साहब अपनी साक्षी या गवाही दे रहे हैं।

कबीरदास ने भी कहा है – “साखी आखिन ज्ञान की, समुझि देखि मन माहि।” इसी प्रकार विवरणात्मक रचनाएँ संत कवियों ने दोहा-चौपाई छन्द (रमैनी) को आधार बनाकर लिखी हैं। संत कवियों की कविता में रमैनी और सबद इन कवियों की गीतात्मक अनुभूति को अभिव्यंजित करते हैं। रमैनी और सबद में भाव और लय का अद्भुत संयोग मिलता है। लय इस बात को सांकेतित करते हैं कि संतों की कविता में लोकजीवन के प्रति गहरा अनुराग है।

“नाचु रे मन मेरो नट होइ।

ग्यांन के ढोल बजाइ रैनि दिन सबद सुनै सब कोई।

राहु केतु अरु नवग्रह नाचें जमपुर आनंद होई।।

छापा तिलक लगाई बांसचढ़ि होइ रहु जग तैं न्यारा।

प्रेम मगन होइ नाचु सभा मैं रीझे सिरजनहारा।।”

इसके अतिरिक्त लोक में प्रचलित काव्य रूपों का प्रयोग भी संत कवियों की बानी में मिलता है।

सारांश

मध्यकालीन संत काव्य धारा ने भक्ति को व्यापक धार्मिक सांस्कृतिक आन्दोलन का स्वरूप प्रदान किया। फलस्वरूप सामाजिक अस्थिरता के उस युग में हिन्दू और मुसलमान के लिए सामान्य भक्ति मार्ग की उद्भावना संभव हो सकी। यह धर्म का ऐसा स्वरूप था जो साधना, प्रेम, अहिंसा, प्रपत्ति का, समन्वय का, लोक हृदयों में सामाजिक समरसता की स्थापना की आशा की किरण सुलगा गया। अपनी उपासना पद्धति में सहज, सरल और निर्विकार आत्मा के महत्व का प्रतिपादन करके भक्ति युग की संत काव्य धारा ने मानवता और मानुष सत्य को अपना लक्ष्य बना लिया। इनकी वाणी में तीक्ष्णता अवश्य दृष्टिगत हुई, किन्तु आत्मा कालुष्य हीन ही रही। इनका लक्ष्य समाज के सभी वर्ग एवं वर्ण के मनुष्यों को ऊर्ध्वान्मुखी विकास के लिए समान धरातल प्रदान करना था।

संतों की वाणी काव्यत्व की दृष्टि से भी उतनी ही सशक्त है। यहाँ बल भावों पर है, भाषा सहज ही काव्यत्व के उत्कर्ष का हेतु बन गई है। इसका प्रमुख कारण भाषागत सहजता और लोकभाषा की ओर झुकाव था। इन कवियों के अनुभूति पक्ष ने इन्हें क्रांतिदर्शी कवि बना दिया। देशाटन की प्रवृत्ति और भाव एवं अनुभवों पर आधारित होने के कारण संत कवियों की भाषा सांस्कृतिक विविधता से युक्त होकर विशाल जनसमूह के भावों से जुड़ने में समर्थ हो सकी है।

अभ्यास प्रश्न

  1. संत काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का विवेचन कीजिए।
  2. ‘संत’ शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए संत परम्परा का परिचय दीजिए।

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