“राम की शक्तिपूजा” : एक पाठावलोकन

निराला पर अभी तक आप दो इकाइयों का अध्ययन कर चुके हैं : निराला के काव्य का वैचारिक आधार तथा निराला के काव्य में प्रयोगशीलता की दिशाएँ। निराला पर यह तीसरी इकाई उनकी प्रसिद्ध कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ पर आधारित है। इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप :

  • इस कविता के ऐतिहासिक संदर्भ से परिचित हो सकेंगे,
  • इस कविता के संवेदनात्मके उद्देश्य को समझ सकेंगे,
  • कविता के पाठावलोकन की प्रक्रिया से गुज़रते हुए कविता के बहुलार्थी,
  • बहुआयामी रूप की जाँच पड़ताल कर सकेंगे,
  • इस कविता के संरचनात्मक सौंदर्य का विश्लेषण कर सकेंगे
  • और यह जान सकेंगे कि यह कविता किस प्रकार अपने युग के सत्यों से जुड़कर एक वैश्विक  प्रक्रिया को हमारे सम्मुख प्रस्तुत करती है, जिसे सत्य और असत्य की लड़ाई में अपनाना पड़ता

“राम की शक्तिपूजा” पर जो आलोचनात्मक विमर्श अब तक हुआ है उसमें अधिकतर इस कविता के रूप-पक्ष पर पारंपरिक दृष्टि से विचार किया गया है। रस, अलंकार, काव्यभाषा, काव्य-रूप आदि की चर्चा की गयी है या फिर कृत्तिवास, वाल्मीकि या भास और तुलसीदास आदि की रामकथा पर आधारित कृतियों से “ राम की शक्तिपूजा” की तुलना की गई है। डॉ0 दूधनाथ सिंह ने इस तरह की अकादमिक आलोचना पद्धति से अलग हट कर “ राम की शक्तिपूजा” को विश्लेषित करने का संकल्प लिया तो एक दूसरी गलती का शिकार हो गये और उसे कवि की अपनी निजी दुनिया से जोड़ दिया। “ राम की शक्तिपूजा” जैसी नाटकीय कविता को कवि के अपने ही जीवन से जोड़ना और इस तरह उसे एक तरह से “ लिरिकल” कविता ( जिसे आलोचना की दुनिया में दोयम दर्जे की कविता माना जाता है) बना देना निराला के साथ अन्याय करना होगा। दूधनाथ सिंह लिखते हैं : “दरअसल मुझे बराबर लगता है कि निराला ने राम के संशय, उनकी खिन्नता, उनके संघर्ष और अंततः उनके द्वारा शक्ति की मौलिक कल्पना और साधना तथा अंतिम विजय में अपने ही रचनात्मक जीवन और व्यक्तिगतता के संशय, अपनी रचनाओं के निरंतर विरोध से उत्पन्न आंतरिक खिन्नता, फिर अपने संघर्ष, अपनी प्रतिभा के अभ्यास, अध्ययन और कल्पना-ऊर्जा द्वारा एक नयी शक्ति के रूप में उपलब्ध और प्रदर्शित करके अंततः रचनात्मकता की विजय का घोष ही इस कविता में व्यक्त किया है। वही स्वयं “पुरुषोत्तम नवीन” हैं।” 

निराला ही नहीं, किसी भी कवि की संश्लिष्ट और महान रचना उसके जीवन की प्रतीक कथा या उल्था नहीं होती, यह सत्य मनोविश्लेषणशास्त्र के तमाम शोधों से प्रमाणित हो चुका है। मगर हिंदी के आलोचक अभी तक इस गलत आलोचनात्मक पद्धति से अपना पीछा नहीं छुड़ा पा रहे हैं। फ्रांसीसी चिंतक रोलां बार्थ ने 1964 में छपी अपनी पुस्तक “आलोचनात्मक निबंध” में ठीक ही कहा था कि “यह आलोचनात्मक पद्धति फ्रांस की प्राध्यापकीय आलोचना में ही नहीं, विश्व के दूसरे देशों में भी अभी तक मौजूद है।” हमारी हिंदी आलोचना में तो यह पद्धति बुरी तरह घर किये हुए है। हिंदी आलोचना के विकास के लिए यह ज़रुरी है कि कवि के जीवन से उसकी कविता को जोड़ देने की अवैज्ञानिक पद्धति से छुटकारा पाया जाये।

किसी भी कविता को एक वस्तुगत कृति के रूप में उसके देश, काल, समाज और उस विधा के अपने स्वायत्त विकास तथा सौंदर्यशास्त्रीय योगदान के संदर्भो में ही व्याख्यायित किया जाये, उसमें कवि की निजी जिंदगी ढूंढ़ निकालने और उसके हर मोड़ और रचनात्मक कोण को उसके “निजत्व” में सीमित कर देने की कोशिश से बचने की शुरुआत की जाये।

इस इकाई में हमने उपर्युक्त सीमाओं से अलग हटकर “राम की शक्तिपूजा” के एक वस्तुगत विश्लेषण का प्रयास किया है। किसी भी कृति को उसके युग से, युग के वैचारिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक दबावों से हट के नहीं समझा जा सकता। इसलिए “राम की शक्तिपूजा” को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में रखकर हमने सर्वप्रथम कविता के संवेदनात्मक उद्देश्य की पड़ताल की है। तदुपरांत हमने कविता के पाठावलोकन की प्रक्रिया से गुज़रते हुए “राम की शक्तिपूजा” की बहुस्तरीय अर्थपरतों को खोलने का प्रयास किया है। इसके बाद इस कविता के काव्यरूप के प्रश्न पर भी हमने विचार किया है।

अक्सर इस कविता को “महाकाव्य”, “खण्डकाव्य”, “लम्बी कविता” कह दिया जाता है। ऐसा कहने का आधार क्या है ? और वास्तव में काव्यरूप की दृष्टि से यह कविता क्या है ? मिथकीय ढाँचे में बंधी इस कविता के काव्यरूप की दृष्टि से प्रयोगात्मक पहलू पर भी इस इकाई में हमने विचार किया है। अंत में कविता के संरचनात्मक सौंदर्य पर भी विचार किया गया है। तो आइये “राम की शक्तिपूजा” के ऐतिहासिक संदर्भ को समझने से शुरुआत करें।

राम की शक्तिपूजा का ऐतिहासिक संदर्भ

निराला के युग में भारतीय समाज की संरचना का सारतत्व क्या है ? उन्नीसवीं सदी के अंत में भारत में दो नये वर्गों का उदय हुआ था, ये नये वर्ग थे : औद्योगिक पूँजीपति और उनके तहत काम करने वाला मजदूरवर्ग। देश पर राज्य करने वाले ब्रिटिश पूंजीपति पूरे भारतीय समाज का शोषण कर रहे थे, इसलिए भारतीय समाज का टकराव ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग और उनकी राजसत्ता से होना ही था। निराला के समय में भारतीय समाज और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बीच का युद्ध और अधिक तीव्र होता जा रहा था। इस दौर में इस युद्ध में भारतीय समाज का नेतृत्व यहाँ का उदीयमान पूंजीपति वर्ग कर रहा था क्योंकि यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी कई कारणों से इसी वर्ग के कंधों पर आ गई थी, इसे अपने विकास के लिए यहाँ का बाज़ार मुक्त कराना था जो कि उस समय तक ब्रिटिश पूंजीपतियों के हाथों में था।

कांग्रेस पार्टी भारतीय पूंजीपतिवर्ग की ही हितसाधक पार्टी थी, किंतु स्वाधीनता की लड़ाई में विजय हासिल करने के लिए पूरे भारतीय समाज की एकता ज़रूरी थी, इसलिए पूंजीपति नेतृत्व के लिए यह ज़रूरी था, वह पूरे राष्ट्र की मुक्ति की बात करे और सभी के हितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करे| “राम की शक्तिपूजा” जिस दौर में लिखी गयी थी, उस दौर में पूंजीपतिवर्ग के साथ ही यहाँ का मजदूरवर्ग भी राजनीति में कूद चुका था, उस वर्ग ने भी अपनी राजनीतिक पार्टी जो कि हर देश में कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में वजूद में आती ही है, भारत में बना ली थी और वह भी भारत के तमाम शोषित जनों को साम्राज्यवाद से मुक्त कराने के लिए संघर्षरत था।

हिंदी साहित्य ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य भी इन दो उदीयमान नये वर्गों यानी भारतीय पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग की विचारधाराओं से और उनके संघर्षों से प्रेरित हो रहा था। हमारे यहाँ भी गौर से देखें तो भारतेंदु हरिश्चन्द्र से लेकर मैथिलीशरण गुप्त और निराला, पंत, प्रसाद, महादेवी वर्मा आदि और फिर प्रगतिवादी साहित्य को इन्हीं वर्गों के विचारों की अनुगूंज से भरा हुआ पायेंगे। “राम की शक्तिपूजा” को इस ऐतिहासिक संदर्भ से काटकर विश्लेषित करना कतई सही नहीं होगा।

निराला ने तमाम मिथकीय प्रतीकों को चाहे वह “सरस्वती” का हो या “दुर्गा” का हो या ” राम” का हो मातृभूमि की गुलामी से मुक्ति के संवेदनात्मक उद्देश्य से ही अपनी कविताओं में प्रयुक्त किया है। यदि वे मिथकीय प्रयोग सिर्फ मिथकों को ही व्याख्यायित करने के लिए करते या सिर्फ अपनी मनोगत चिंताओं और निजी दुखों या भावनाओं को व्यक्त करने के लिए करते तो ये कविताएं स्थायी महत्व की हो भी नहीं सकती थीं।

संवेदनात्मक उद्देश्य

“राम की शक्तिपूजा” का संवेदनात्मक उद्देश्य जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, रचना के देश और काल तथा समाज के संदर्भ में ही खोजा जा सकता है और इस प्रक्रिया में ही उसका एक नया आलोचनात्मक विमर्श भी तैयार होता है। रचना का अभिधात्मक पाठ यह बताता है कि राम और रावण के बीच एक समर चल रहा है, इस समर में राम को लगता है “मित्रवर, विजय होगी न समर” । इसकी वजह क्या है? इसकी वजह यह है कि शक्ति-संतुलन रावण के पक्ष में है, “अन्याय जिधर, है उधर शक्ति।” कविता यह भी संकेत देती है कि यह समर किसके लिए लड़ा जा रहा है, “जानकी ! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका !” यह लड़ाई प्रिया की मुक्ति की लड़ाई है। इस लड़ाई में “विजय” तब तक संभव नहीं जब तक शक्ति-संतुलन रावण के पक्ष में है। “अन्याय” को तब तक परास्त नहीं किया जा सकता जब तक शक्ति-संतुलन न्याय के पक्ष में न हो जाये। यह सामरिक रणनीति का सार्वभौमिक सत्य है। यह कविता अपने देश और काल के संदर्भ में भारत की मुक्ति की लड़ाई से जुड़ जाती है क्योंकि इसमें जिस शक्ति की प्रतीकात्मक पूजा है, वह अपने स्वरूप में भारतमाता की छवि है, असल में वह प्रतीकात्मक रूप में भारत की जनशक्ति है जिसे न्याय के पक्ष में होना है। संपूर्ण भारत की जनशक्ति यदि ब्रिटिश साम्राज्यवाद रूपी रावण के विरुद्ध खड़ी हो जाती है, तो उसी क्षण “विजय” की आशा बलवती हो जाती। इस तरह “राम की शक्तिपूजा” भारतभूमि की मुक्ति की लड़ाई की एक फैंटेसी है, जिसमें जनशक्ति की प्रमुख भूमिका को रेखांकित किया गया है।

सार्वभौमिकता का तत्व

राम की शक्तिपूजा’ में देश, काल और अपने समाज का संदर्भ तो है ही, उसमें एक सार्वभौमिक सत्य भी छिपा है। हर बड़ी रचना के पीछे एक सार्वभौमिक सत्य भी होता है जो उसे अपने देश और काल से अतिक्रमित करा के बार-बार प्रासंगिक बनाता है। यह कविता इस मिथ्या चेतना को तोड़ती है कि कोई अवतारी देवता हमें मुक्ति दिलाता है, ‘संभवामि युगे युगे’ का उद्घोष एक झूठ है, सच्चाई यह है कि शोषित जनशक्ति ही संगठित हो कर अन्याय पर आधारित समाज व्यवस्था से मुक्ति दिलाती है और उसकी एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है।

समाज के विकास में यह प्रक्रिया घटित होती है। जब शक्ति संतुलन अन्यायपूर्ण व्यवस्था के पक्ष में होता है तो अन्याय की विजय होती रहती है और जब यह शक्तिसंतुलन न्याय की शक्तियों के पक्ष में होता है तो अन्याय से मुक्ति मिल जाती है। योरप में फ्रांस की क्रांति (1789) के वक्त यह सार्वभौमिक सत्य सामने आ गया था। उस समय योरप में सामंतवाद एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था बनाये रखने वाला शासकवर्ग था, उभरते हुए पूंजीवाद समेत बाकी सभी वर्ग उसके अधीन रह कर समाज को आगे विकसित नहीं कर सकते थे, इसलिए उस अन्यायपूर्ण सामंती व्यवस्था के खिलाफ पूंजीवाद के नेतृत्व में समाज के अन्य सभी शोषित एकजुट हो गये और ‘समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व’ के नये मानवीय मूल्यों के उद्घोष के साथ अन्यायपूर्ण व्यवस्था को खत्म कर दिया, मगर पूंजीवाद ने शासक बन कर इन मानवीय मूल्यों का फिर ध्वंस करना शुरू कर दिया, इसलिए इससे भी मुक्ति के प्रयास शुरू हुए।

पेरिस कम्यून के ऐतिहासिक संघर्ष को इस प्रयास का ही एक रूप माना जाता है। पूंजीवाद से मुक्ति की ऐतिहासिक जिम्मेदारी मज़दूरवर्ग पर है क्योंकि सीधेसीधे पूंजीवादी शोषण का एहसास उसी को है। इसीलिए उसने अपने मुक्ति के प्रयासों के दौरान सबसे अधिक क्रांतिकारी विचारधारा और वैज्ञानिक दर्शन- मार्क्सवाद को जन्म दिया। यह दर्शन ही यह बताता है कि मात्रात्मक परिवर्तन एक स्तर पर पहुँचकर गुणात्मक परिवर्तन बन जाता है। समाज व्यवस्थाएं भी इसी प्रक्रिया से परिवर्तित होती हैं।

हमारी आज़ादी की लड़ाई में भी यही प्रक्रिया घटित हो रही थी। ब्रिटिश शासक रूपी रावण के पक्ष में बहुत समय तक भारत की जनशक्ति रही, किंतु धीरेधीरे भारतीय पूंजीपति के उदय के साथ यह जनशक्ति ‘राष्ट्रवाद’ की नयी विचारधारा के प्रभाव में आकर ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ की चेतना तक पहुँची। जैसे-जैसे जनशक्ति के बड़े हिस्से इस संघर्ष के साथ जुड़ते गये मुक्तिसंग्राम में विजय की आशा भी बलवती होती गयी।

‘राम की शक्तिपूजा’ इसी सार्वभौमिक सत्य को एक मिथकीय आख्यान के माध्यम से अभिव्यक्त करती है। इस सार्वभौमिक सत्य को रूस की क्रांति, चीनी क्रांति, वियतनाम की क्रांति आदि में भी देखा जा सकता है कि जब जनशक्ति नेतृत्व के साथ हो कर नया संतुलन बना देती है तो समर में विजय अवश्य होती है। जब तक यह जनशक्ति अन्याय की ताकतों का साथ भ्रमवश देती रहती है, मुक्तिकामी वर्गों का साथ नहीं देती, तब तक मुक्ति की ताकतों को शिकस्त मिलती है, तब तक ‘रह रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय।

कविता का पाठावलोकन

“राम की शक्तिपूजा” का पाठालोकन कई तरह के भाष्यों की गुंजाइश देता है। इसकी वजह यह है कि यह कविता अपनी संरचना में काफी संश्लिष्ट है, उसमें कविता के अनेक स्तरीय उपादानों का कलात्मक प्रयोग किया गया है। उसे मिथ, प्रतीक, बिंब, छंद, अलंकार और ध्वन्यात्मकता आदि उपकरणों से सजाया गया है और मुक्तिकामी विचारधारा की आँच से प्राणवान बनाया गया है। इस कविता के सार्थक आलोचनात्मक विमर्श के लिए इसके दो केंद्रीय बिंबों पर ध्यान देना ज़रूरी है। ये बिंब हैं, “ज्योति” और “नयन” | कविता की शुरुआत “रवि हुआ अस्त/ज्योति के पत्र” से होती है और फिर इस “ज्योति के पत्र” पर लिखे “आज” के समर का वर्णन होता है जिसके केंद्र में “विच्छरित – वहिन – राजीवनयन” एक ओर हैं, तो दूसरी ओर “लोहित लोचन रावण” है। राम की आँखों में अग्नि है, रावण की आंखों में लहू। एक दिन के इस युद्ध-वर्णन के बाद शाम गहराती है, “उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशांधकार/चमकती दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार’

यह नैशांधकार भी ज्योति के अभाव का ही दूसरा रूप है। इस अंधकार में दूर कहीं ताराएं चमक रही हैं। ज्योति पूरी तरह नदारद नहीं है, आशा की किरण समाप्त नहीं है। इसी तरह इस मुक्तिसंग्राम में तात्कालिक सफलता न मिलने की मनोदशा का चित्रण भी बिंबों के माध्यम से किया गया है। चारों ओर अंधेरा है, मगर कहीं न कहीं आशा की ज्योति भी जल रही है :

है अमा निशा, उगलता गगन घन अंधकार।

खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन चार।

अप्रतिहत गरज रहा पीछे अंबुधि विशाल,

भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल

विश्व साहित्य में प्रकाश को ज्ञान के लिए प्रयुक्त किया गया है। “तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की प्रार्थना के समय से हमारे यहाँ भी प्रकाश को इसी अर्थ में लिया जाता रहा है। इस कविता में प्रकाश के बिंब में मात्रात्मक परिवर्तन भी एक अर्थ ध्वनित करता चलता है। “नैशांधकार” में “चमकती दूर ताराएं” प्रकाश की झीनी किरण हैं, ये शायद मुक्ति की आशा लगाये सीता की आंखें हैं, लेकिन मात्रात्मक रूप में अंधकार ज्यादा है, इसी तरह “ गगन घन अंधकार” में “केवल जलती मशाल” भी मात्रात्मक रूप में बहुत बड़ी ज्योति नहीं है। अंधकार और प्रकाश के इस युद्ध में प्रकाश कमज़ोर ज़रूर है। अपनी प्रिया की मुक्ति का विचार ही वह प्रेरक प्रकाश है जो मन को दीप्त करता है :

ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत

जागी पृथ्वी-तनया-कुमारिका-छवि, अच्युत

प्रकाश के इस बिंब के साथ ही “नयन” का यानी दृष्टि का बिंब भी आ जाता है। प्रकाश हो भी और यदि “नयन” न हों तो प्रकाश का अस्तित्व सार्थक नहीं हो सकता। यह सत्य है कि मुक्ति के संघर्ष में ज्ञान होते हुए भी यदि दृष्टि नहीं तो सारा संघर्ष निष्फल हो जाता है। इतिहास में इसके उदाहरण मौजूद हैं। इसलिए मुक्ति के समर में जीत हासिल करने के लिए वैज्ञानिक और तर्कसंगत देश और काल सापेक्ष दृष्टि की अहम भूमिका होती है। मुक्ति समर की इस कविता में इसीलिए इन दोनों बिंबों यानी “प्रकाश” और “नयन” का विशेष महत्व है।

दृष्टि अर्जित करने के लिए अतीत का विश्लेषण अक्सर किया जाता है। इस कविता में भी वर्तमान से अतीत की ओर और अतीत से वर्तमान की ओर बार-बार लौटा जाता है, तब अंत में भविष्य की रूपरेखा तय होती है। प्रारंभ निकट अतीत “आज” का समर के विश्लेषण से ही होता है, उसके बाद वर्तमान क्षण के अंधकार और उसमें झीने प्रकाश का चित्रण होता है, और फिर अतीत की ओर लौटने की प्रक्रिया शुरू होती है: “याद आया उपवन/विदेह का” इस अतीत में “नयनों का नयनों से गोपन” भी याद आता है और इस अतीत में ही “ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय/जानकी नयन कमनीय” की स्मृति भी आती है। इस सुदूर अतीत में दिखायी दे रहे “जानकी नयन” राम को वर्तमान तक ले आते हैं, आज का रण सामने आ जाता है, जिसमें वे देखते हैं कि भीमाकार शक्ति रावण के पक्ष में युद्ध भूमि को आच्छादित किये हुए है और उसको सुरक्षा प्रदान कर रही है :

फिर देखी भीमा मूर्ति, आज रण देखी जो

आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को

ज्योतिर्मय अस्त्रसकल बुझ बुझकर हुए क्षीण

पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन

इस परिस्थिति में रावण पर विजय पाना आसान नहीं, शक्ति संतुलन उसके पक्ष में है। इस शंकाकुल स्थिति में “खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन।” और फिर “भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्ता दल!” हनुमान ने उन नयनों को देखा, “देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारा दल” | “बैठे वे वही कमल लोचन, पर सजल नयन/व्याकुल व्याकुल कुछ चिर प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।” राम की ऐसी व्याकुल स्थिति देख कर हनुमान पंचतत्वों को समन्वित करके उस महाशक्ति से टक्कर लेने के लिए महाकाश में पहुँचते हैं जो रावण को सुरक्षा प्रदान किये हुए है :

तोड़ता बंध – प्रतिसंध धरा…

शत वायु वेग बल, डुबा अतल में देश भाव ।

जल राशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव

वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश

पहुँचा, एकादश रुद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।

यहाँ “धरा”, “वायु”, “जल”, “तेज” और “आकाश” पंचतत्व हैं, इन्हें समन्वित करके बलशाली बना कपि उस समस्त आकाश को ही निगलने के लिए आगे बढ़ा, जिसमें रावण की पक्षधर शक्ति छायी हुई है, “करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल।”

रावण की पक्षधर शक्ति को “श्यामा विभावरी, अंधकार” कहा गया है, जाहिर है कि अज्ञान के अंधकार में डूबी जनशक्ति ही अन्याय का जाने अनजाने पक्ष लेती है। जर्मनी में हिटलर हो या पूँजीवादी देशों में लोकतंत्र की आड़ में शोषकों का वर्चस्व हो इसी जनशक्ति के पक्ष लेने के कारण सत्ता में रहते हैं। न्याय के पक्ष को जिसका प्रतिनिधित्व इस कविता में राम करते हैं हारते हुए देखकर जो कपि विचलित हो रहा है उसे “रुद्र राम पूजन प्रताप तेजःप्रसार” कहा गया है जो कि ज्योति का ही एक रूप है। पंचतत्वों पर विजय विज्ञान कर रहा है और यह विज्ञान भी समर में काम आ रहा है। आज तो विज्ञान का दुरुपयोग संपूर्ण पृथ्वी का संहार कर सकता है, निराला के समय में भी इस विज्ञान की युद्ध सामग्री का जनविनाशकारी रूप कुछ हद तक सामने आ चुका था। भारत की मुक्ति की लड़ाई में इस जनविनाशकारी रास्ते को वरेण्य नहीं माना गया था। इसीलिए शिव अपनी दुर्गा को अंजनीरूप धारण करने को कहते हैं और बताते हैं कि “विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध।” अंजनीरूपा शक्ति हनुमान को डांटती है और पूछती है कि “क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रघुनंदन ने ?” नेतृत्व से अलग हट कर मनमाने तरीके से किया जाने वाला दुस्साहस किसी भी रण में नुकसानदेह होता है। संघर्ष सामूहिक समझ से लड़कर ही जीता जा सकता है, एक-एक व्यक्ति के अपने-अपने निर्णय से नहीं। हनुमान के पुनः सामान्य होने पर सामूहिक समझ बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है। राम के उदास मुंह को देखकर विभीषण अपनी बात कहते हैं और राम को उकसाते हैं। राम पर उनके शब्दों का कोई असर नहीं होता। “सब सभा रही निस्तब्ध, राम के स्तिमित नयन” | फिर राम बताते हैं कि :

यह नहीं रहा नर वानर का राक्षस से रण

उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमंत्रण।

अन्याय जिधर है उधर शक्ति।

कहते छल-छल हो गये नयन,

कुछ बूंद पुनः ढलके दृग जल।

निराला बा-बार “नयन” का बिंब लाते हैं। राम के नयन में दृगजल झलक रहा है। वे बताते हैं कि सत्य और न्याय का पक्ष लेने पर भी वे शक्ति के लिए पराये हो गये और अधर्मरत रावण को वह शक्ति अपने अंक में लिये हुए है :

देखा, है महाशक्ति रावण को लिये अंक

लांक्षन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक

विचलित लख कपिदल क्रुद्ध युद्ध को मैं ज्यों ज्यों

झक झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों त्यों

वामा के नयनों में आग जलती दिखायी दे रही हो, तो राम का “ त्रस्त” होना स्वाभाविक ही है। राम शक्ति के इस खेल का रहस्योद्घाटन अपनी सेना के सामने कर देते हैं। जाम्बवान राम को इसका उपाय सुझाते हैं :

विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण

हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण

शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन

छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनंदन।

“शक्ति की. मौलिक कल्पना” में ही इस कविता का प्रतीकार्थ खुलता है। यह परंपरागत दुर्गा या पार्वती या काली की पूजा का आख्यान नहीं है। यह कविता अपने प्रतीकार्थ में भारत के स्वाधीनता संग्राम की रणनीति की कविता है। यह पूजा उस जनशक्ति को अपने पक्ष में करने का उद्यम है जिसको साथ लिये बगैर कोई भी मुक्तिकामी नेतृत्व लड़ाई जीत नहीं सकता। फ्रांस की पूंजीवादी क्रांति हो, या रूस की अक्टूबर क्रांति या चीन और वियतनाम के मुक्तिसंग्राम या भारत की आज़ादी की लड़ाई हो इनमें विजय उसी बिंदु पर संभव हुई जब वर्गों का संतुलन मुक्ति की ताकतों के पक्ष में हो गया। कोई एक व्यक्ति चाहे वह अवतारी पुरुष ही क्यों न हो अकेले या जनशक्ति को अपने पक्ष में किये बगैर सत्ता हासिल नहीं कर सकता है। इसीलिए शोषक वर्गों के नेता और उनके दल भी अविद्या फैलाकर या झूठे वायदे करके इसी जनशक्ति को भरमाये रहते हैं और अपने पक्ष में किये रहते हैं और इस तरह सत्ता पर कब्जा किये रहते हैं।

भारत और विश्व के अन्य तमाम पूंजीवादी देशों में पूंजीपतियों की पार्टियां अन्य तमाम वर्गों को इसी तरह अविद्या और अज्ञान के मायाजाल में फंसा कर और झूठे वायदे करके सत्ता में बनी रहती हैं और जब जनता एक पार्टी के झूठ को जान जाती है तो पूंजीपतियों की ही दूसरी पार्टी उसी जनशक्ति के समर्थन से सत्ता में आ जाती है और इस तरह शोषण का क्रम इन देशों में चलता रहता है। इस शोषण से मुक्ति सिर्फ सर्वहारावर्ग ही दिला सकता है किंतु समाज की पूरी शोषित जनशक्ति जब तक उसका साथ नहीं देती, तब तक शोषण पर आधारित समाज की मुक्ति भी शोषण व्यवस्था से नहीं हो पाती। “शक्ति की मौलिक कल्पना” का यही अर्थ है कि मुक्तिकामी नेतृत्व को भारत की जनशक्ति की आराधना करके उसे अपने पक्ष में करना होगा। प्रतीकात्मक स्तर पर “ राम की शक्तिपूजा” में यही प्रक्रिया घटित की जाती है। राम इस रणनीतिक समझ को वृद्ध जाम्बवान से हासिल करते हैं तो निराशा दूर होती है और उनके नेत्र खुल जाते हैं :

कुछ समय अनंतर इंदीवर निंदित लोचन

खुल गये, रहा निष्पलक भाव मे मज्जित मन

बोले आवेग रहित स्वर से विश्वास स्थित .

मातः, दशभुजा, विश्वज्योतिः, मैं हूँ आश्रित…

इस वैज्ञानिक सोच पर आधारित रणनीति के प्रकाश में आ जाने पर वाचक राम से जनशक्ति को “विश्वज्योति” के रूप में संबोधित करवाता है। राम के “लोचन” खुल गये।

यह नयी दृष्टि मध्ययुगीन दृष्टि से बिल्कुल भिन्न है। आज भी अज्ञानवश बहुत से लोग यह समझते हैं कि कोई अवतारी पुरुष नेतृत्व में आ जाये तो सभी दुखों और क्लेशों से उनकी मुक्ति हो सकती है। यह व्यक्तिकेंद्रित दृष्टिकोण अवैज्ञानिक और मिथ्याचेतना पर आधारित है। एक शोषणपरक व्यवस्था से मुक्ति तभी संभव है जब ऐतिहासिक रूप से नयी व्यवस्था को जन्म देने वाली शक्तियाँ सामाजिक वर्गों के बहुसंख्यक हिस्सों को अपने पक्ष में कर लें। मसलन, दास व्यवस्था से मुक्ति के लिए सामंतवाद ऐतिहासिक भूमिका अदा करता है लेकिन पूरे समाज को अपने पक्ष में करके ही यह संभव हो सकता है, इसी तरह सामंतवाद से मुक्ति का ऐतिहासिक दायित्व पूंजीपति वर्ग पर है,, लेकिन उसे भी शक्तिसंतुलन अपने पक्ष में करना होता है।

विश्वपूंजीवाद जब साम्राज्यवाद की अवस्था में पहुंच कर दूसरे देशों को पराधीन बना लेता है तो राष्ट्रीय मुक्ति का दायित्व उस देश में उपजे राष्ट्रीय पूंजीपतिवर्ग पर या उस वर्ग के कमज़ोर होने पर वहाँ के नवोदित मजदूर सर्वहारा वर्ग पर आ जाता है लेकिन उसे भी विजय तभी मिल सकती है जब पूरे राष्ट्र की जनशक्ति उसके साथ एकजुट खड़ी हो, जैसा कि राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों का इतिहास सिद्ध करता है। निराला ने यह कविता 1936 में लिखी थी, लेकिन इसमें दी गयी रणनीति से ही हमें आज़ादी मिली, किसी एक व्यक्ति की चमत्कारी शक्ति से नहीं। इस अर्थ में यह कविता एक “प्रोफेटिक” रचना है।

इस कविता में “नयन” और “ज्योति” के बिंबों का जो पैटर्न है वह भी इसी प्रतीकार्थ को खोलता चलता है। कविता के पूर्वार्द्ध में “रावण जय भय” की आशंका और सीता की मुक्ति के अभियान में सफलता न मिलने से पैदा होने वाली निराशा के लिए कवि ने “अंधकार” के बिंब का प्रयोग किया और झीनी आशा के लिए “ज्योति” के बिंब साथ-साथ रचे। “नयन” के साथ भी यही हुआ, राम के “नयन” निराशा के क्षणों में बार-बार “सजल” हुए। मगर जब जाम्बवान द्वारा सही वैज्ञानिक रणनीति सामने लायी गयी तो “खिल गयी सभा”, राम के “इंदीवर निंदित लोचन खुल गये।” शक्ति की मौलिक कल्पना का इंगित पा कर मुक्त होने पर वे शक्ति का प्रतीक खोलते हैं। यह तस्वीर भारत की तस्वीर है जिसे राम अपने “बंधुवर” यानी सेनापतियों आदि को समझाते हैं। यहाँ राम “चंद्रमुखनिंदित रामचंद्र” हैं, “अमा निशा में बैठे “विषण्णानन” राम नहीं। इसी अवस्था में “अमा निशा” और “धन अंधकार’ का अंत हो जाता है :

निशि हुई विगत, नभ के ललाट पर प्रथम किरण

फूटी रघुनंदन के दृग महिमा-ज्योति-हिरण

राम शक्ति की मौलिक आराधना करते हैं, इस आराधना के लिए राम ने शक्ति का जो रूप कल्पना में निर्मित किया है, वह स्पष्टतः भारतमाता का रूप है। वे अपने साथियों को बताते हैं :

देखो, बंधुवर, सामने स्थित जो वह भूधर

शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुंदर

पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरंद-बिंदु

गरजता चरण-प्रांत पर सिंह वह नहीं सिंधु

दशदिक-समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर

अंबर में हुए दिगंबर अर्चित शशि शेखर

यह वर्णन “भारति, जय विजय करें” में वर्णित मातृभूमि के चित्र से काफी मिलता जुलता है। इस भारत भमि की जनशक्ति को समर्पित हो कर ही कोई मुक्तिकामी नेतृत्व विजय हासिल कर सकता है। गांधीजी ने भी सबसे पहले इस पूरी भारत भूमि का दौरा किया था और इस शक्ति को पहचानने का पहला काम किया था, और फिर उसी शक्ति का मौलिक आराधन किया था। अमरीका में लिंकन ने, रूस में लेनिन ने, चीन में माओ ने, वियतनाम में हो ची मिन्ह ने, क्यूबा में फिदेल कास्त्रो ने इसी जनशक्ति की मौलिक आराधना की थी, इस जनशक्ति के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने को ये क्रांतिकारी तैयार थे, अपने-अपने देशों के मुक्ति समर में विजयी भी तभी हुए जब इस जनशक्ति ने उन्हें अपना बना लिया।

“राम की शक्तिपूजा” में यही वैज्ञानिक रणनीतिक सार्वभौमिक सत्य मिथकीय रूप धारण करके आया है। कविता में राम हनुमान से 108 या उससे भी ज्यादा कमल लाने को कहते हैं, जिन्हें चढ़ाकर राम शक्ति की पूजा करेंगे। 

राम ने शक्ति की पूजा शुरू की, “कर जप पूरा कर एक चढ़ाते इंदीवर” जब पूजा की प्रक्रिया पूरी होने जा रही थी, कि तभी दुर्गा अंतिम कमल उठा लें गयीं, हर एक साधना में परीक्षा होती है, राम की साधना की भी परीक्षा होनी ही थी। देवी पर कमल चढ़ाने का उपाय राम को सूझ गया :

“यह है उपाय” कह उठे राम ज्यों मंद्रित घन

“कहती थीं माता मुझे सदा राजीव-नयन

दो नील-कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण

पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।”

जैसा कि कहा जा चुका है, इस कविता का केंद्रीय बिंब “नयन” है और भावनानुकूल “ज्योति” का भी बिंब प्रयुक्त हुआ है, ये दोनों बिंब अन्योन्याश्रित भी हैं। इसीलिए राम का मन जैसे ही समाधान खोजने के लिए कृतसंकल्प होता है वहाँ ज्योति के बिंब का इस्तेमाल होता है। राम का मन “बुद्धि के दुर्ग पहुंचा विद्युत-गति हतचेतन/राम में जगी स्मृति, हुए सजग पा भाव प्रमन।” यहाँ “विद्युत गति” के द्वारा ज्योति के बिंब की उपस्थिति भी दर्ज करायी गयी है, जैसा कि कविता के अन्य अंशों में भी हुआ है।

राम अपने एक “नयन” को बाण से निकालने को उद्यत होते हैं, शक्ति की आराधना के लिए यह बलिदान “सरफरोशी की तमन्ना” की ही तरह है :

ले अस्त्र वाम कर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन

ले अर्पित करने को, उद्यत हो गये सुमन

बलिदान की इस भावना से शक्ति राम पर प्रसन्न हो गयीं, उन्होंने प्रकट होकर राम का हाथ थाम लिया। राम ने इस शक्ति को देखा। इस शक्ति को कविता में “ज्योतिर्मय रूप” कहा गया है। इस शक्ति ने राम से कहा, “होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन।” और यह कहकर “महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।”

जनशक्ति जिस नेतृत्व के पक्ष में हो जाएगी, उसकी विजय होने में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं। यह कविता इसी जनशक्ति की पूजा की कविता है। इस सार्वभौमिक सत्य को सड़ी-गली समाज व्यवस्था से मुक्ति की छटपटाहट महसूस करने वाले हर युग के संवेदनशील रचनाकार ने खोजा था। शेक्सपीयर ने “जूलियस सीज़र” नामक अपने नाटक में इसी सत्य की खोज की थी। उसमें साधारण जन की केंद्रीय भूमिका है, रोम की जनशक्ति को अपने पक्ष में करने की कोशिश से ही नाटक की शुरुआत होती है। फ्रांस की 1789 की क्रांति भी इसी सत्य का जीता जागता उदाहरण थी। हमारी आज़ादी की लड़ाई भी इसी सत्य की साक्षी है और भविष्य में शोषकवर्गों से मुक्ति के लिए लड़े जाने वाले निर्णायक समर में भी यही सत्य काम आएगा। इसी सत्य को मुक्तिबोध की कविता, “अंधेरे में” फैंटेसी के माध्यम से बयान करती है, जब उसमें वाचक गांधी जी को देखता है। उसमें गांधीजी वाचक को बताते हैं :

“दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर

दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट

कोई भी मुर्गा

यदि बांग दे उठे ज़ोरदार

बन जाये मसीहा”

वे कह रहे हैं :

“मिटटी के लोंदे में किरगीले कण कण

गुण हैं

जनता के गुणों से ही संभव

भावी का उद्भव”

“अंधेरे में” का मध्यवर्गीय वाचक अकेलेपन का और “निस्संगता” का विचार पाले हुए यह सोच रहा था कि उसकी मुक्ति अकेलेपन में ही है जैसा कि आधुनिकतावादी और अस्तित्ववादी चिंतकों और रचनाकारों ने प्रचारित किया हुआ था। नीत्शे की महामानव की अवधारणा भी हमारे यहाँ के अवतारवाद की धारणा जैसी एक मिथ्या धारणा ही थी कि कोई अवतारी पुरुष या कोई डिक्टेटर मुक्ति दिलवा सकता है। मुक्तिबोध ने “अंधेरे में” के वाचक को जीवन-जगत के अनुभवों से गुजारते हुए और आज़ादी के संघर्ष के वैज्ञानिक सत्यों से परिचित कराते हुए इस यथार्थवादी मंजिल तक पहुंचाया कि मुक्ति अकेले में नहीं मिलती और मुक्ति का मसीहा भी हर कोई नहीं बन सकता, “जनता के गुणों से ही संभव/भावी का उद्भव।” यह जनशक्ति जब मुक्तिकामी नेतृत्व के साथ होगी, और जब यह नेतृत्व भी ऐतिहासिक रूप से उत्पन्न नये वर्ग यानी आज की स्थिति में सर्वहारावर्ग का होगा तभी समाज व्यवस्था बदलने में मुक्तिकामी नेतृत्व सक्षम होगा।

“राम की शक्तिपूजा” में राम को इसी जनशक्ति का आराधन करना पड़ता है, “अंधेरे में” कविता में मध्यवर्गीय वाचक को भी मुक्ति के लिए अपना “व्यक्तित्वांतरण” करना पड़ता है, उसे सर्वहारावर्ग के साथ अपना तादात्म्य करना पड़ता है, “साथी” खोजने पड़ते हैं :

मुझे अब खोजने होंगे साथी

काले गुलाब व स्याह सिवंती

श्याम चमेली

संवलाये कमल जो खोहों के जल में

भूमि के भीतर पाताल तल में

खिले हुए कब से भेजते हैं संकेत

ये श्याम वर्ण के सारे फूल सर्वहारा साथी ही हैं जो हर जगह श्रम के कार्यों में लगे हैं और मौजूदा समाज को बदल कर एक शोषणविहीन समाज रचने की क्षमता रखते हैं क्योंकि ऐतिहासिक रूप से यह जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है। “राम की शक्तिपूजा” में जनशक्ति नेतृत्व के साथ मिलकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद से भारतीय समाज को मुक्त कराती है, “अंधेरे में” की फैंटेसी में जनशक्ति सर्वहारावर्ग के नेतृत्व में होने वाली जनवादी क्रांति में अपना साथ देकर शोषणविहीन समाज बनाने का भविष्य का नक्शा बनाती है।

काव्य-रूप का सवाल

निराला की कविता “राम की शक्तिपूजा” के सिलसिले में रूपवादी समीक्षकों और अकादमिक हलकों में यह सवाल भी चर्चा का विषय बनता है कि इस कविता का काव्यरूप क्या है, यानी यह कविता क्या एक महाकाव्य है, खंडकाव्य है या कोई नया काव्यरूप है। दर असल, ये सवाल ऐसे आलोचक उठाते हैं जो हर रचना को कहीं न कहीं बंधी बंधायी काव्यशास्त्रीय परंपराओं के चौखटे में फिट करना चाहते हों। वे यह नहीं जानते हैं कि अन्य क्षेत्रों की ही तरह रचना के क्षेत्र में भी विकास होता है, पुराने चौखटे टूटते हैं, नयी संरचनाएँ अस्तित्व में आती हैं और नये काव्यरूप भी बनते हैं। निराला तो हिंदी कविता को पुरानी रूढ़ियों से मुक्त करके “नये” के विधान के लिए कृतसंकल्प थे। वे समाज की मुक्ति से प्रेरित होकर कविता की मुक्ति की भी बात करते थे। उनकी इस मुक्तिकामी विचारधारा को ध्यान में रखें तो इस सवाल का एक ही जवाब होगा कि यह कविता का एक “नया” काव्यरूप है जिसे “लंबी कविता” कहा जा सकता है। रामकथा पर आधारित होने के कारण इस कविता में महाकाव्य के गुण नजर आ जायेंगे, खंडकाव्य की विशेषताएं भी दिखायी दे जायेंगी, मगर इन काव्यरूपों को ध्यान में रखकर इस कविता की रचना की गयी नहीं जान पड़ती।

नये काव्य-रूप हर समाज में पूंजीवाद के उदय के साथ वजूद में आये। “उपन्यास” नामक विधा भी पूंजीवाद के उदयकाल में ही अस्तित्व में आयी। जब पुराने काव्यरूप नये कथ्य को अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं होते तो रचनाकार पुरानी रूढ़ियों को तोड़कर नये समाज के अनुकूल भावाभिव्यक्ति के नये माध्यम तैयार कर लेते हैं। इसी सामाजिक प्रक्रिया से हर देश में नये काव्यरूप और नयी साहित्यिक विधाओं का आविष्कार हुआ। पूंजीवाद के विकास के साथ वैज्ञानिक प्रगति का सिलसिला भी जुड़ा हुआ है। हमारे देश में ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के दौर में हर संवेदनशील बुद्धिजीवी के लिए वैज्ञानिक सोच आगे बढ़ाना और नये-नये विचार समाज को देना तथा उन विचारों से समाज और कला का भंडार भरना राष्ट्रीय कर्तव्य बन गया था। हिंदी के रचनाकार भी इसी प्रयास में जुटे थे कि उनकी कल्पनाशक्ति इसी सांस्कृतिक और वैज्ञानिक समृद्धि द्वारा अपने समाज को उन्नत और आधुनिक समाज बना दे।

यही वजह है कि “राम की शक्तिपूजा” एक मिथकीय ढांचे में बंधी होने पर भी एक नया प्रयोग है क्योंकि उसकी मूल संवेदना वैज्ञानिक सामरिक रणनीति को पेश करती है, सामाजिक बदलाव की मूल प्रकृति की खोज करती है और उसी कथ्य के मुताबिक एक नया काव्यरूप ईजाद करती है। पश्चिमी देशों में भी पूंजीवाद के उभार के दौर में इसी तरह का नया काव्यरूप अस्तित्व में आया जैसा कि हम वाल्ट व्हिटमैन, वर्डस्वर्थ, कीट्स, शैले आदि की लंबी कविताओं में देखते हैं और इसी दौर मे हमारे अपने देश की अन्य भाषाओं के काव्य में भी उसके उदाहरण मिलते हैं।

संरचनात्मक सौंदर्य

“राम की शक्तिपूजा” में जहाँ विधागत नवीनता है वहीं इसका संरचनात्मक सौंदर्य भी अनूठा है। एक नाटकीय रचना होने के कारण इसमें वर्णन कौशल, नाद सौंदर्य, भावानुकूल भाषा-प्रयोग और पात्रों का जीवंत कर्म कौशल (एक्शन) या गतिमान चाक्षुस बिंबों का समावेश देखने को मिलता है। इस कविता के रचनात्मक सौंदर्य में भी निराला ने परंपरागत उपादानों के साथ-साथ बहुत सारे नये उपादान प्रयुक्त किये हैं। उदाहरण के तौर पर फ्लैशबैक तकनीक के इस्तेमाल को देखा जा सकता है। इस रचना की कथावस्तु सीधी सपाट नहीं है, उसमें वर्तमान से विगत की ओर और फिर विगत से वर्तमान की ओर आवाज़ाही रहती है और अंत में आगत की ध्वनि या घोष का प्रयोग है। जिस तरह काल के इन तीनों आयामों से यह रचना क्रीड़ा करती है, उसी तरह “स्थान” के आयाम भी बदलती है। राम अपने वर्तमान में रणभूमि में हैं, मगर स्मृति में वे जनक वाटिका में लौटते हैं : “याद आया उपवन/विदेह का ” | हनुमान भी कई बार स्थान परिवर्तन करते हैं। वे आकाश से लेकर “देवी दह” तक विचरण करते हैं। इस तरह यह रचना आधुनिक चित्रपट शैली की तरह देशकाल के विविध आयामों का इस्तेमाल करती

इस कविता के संरचनात्मक सौंदर्य में नादयुक्त भाषिक प्रयोगों का विशेष योगदान है। कविता के प्रारंभिक अंश में जहाँ “राम रावण का अपराजेय समर/आज का” वर्णित है, यह भाषिक नाद सौंदर्य देखने लायक है। इस अंश को गौर से देखें तो “ण” वर्ण से युक्त शब्दों की भरमार मिलेगी, जैसे “तीक्ष्ण”, “सम्वरण”, “बाण”, “रावण”, “कारण”, “कोदण्ड”, “भीषण”, “अगणित” आदि। इसी तरह .”भ” वर्ण के शब्द भी चुन-चुन कर प्रयुक्त हुए हैं। इन वर्गों से युद्ध के होने का नाद चमत्कार पैदा हुआ है। इसके ठीक विपरीत जानकी स्मृति के प्रकरण में या शिव के कहने से अंजनीरूप में पार्वती का हनुमान को प्रबोधन प्रकरण में इस तरह की ध्वनियों का अभाव है। देखिए :

बोली माता- “तुमने रवि को जब लिया निगल

तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल

यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह,

यह लज्जा की है बात कि मां रहती सह सह,

यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल

पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल,

क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ ? — सोचो मन में,

क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रघुनंदन ने ?

तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य

क्या असंभाव्य हो यह राघव के लिए धार्य ?”

उक्त पूरे प्रबोधन में कहीं भी “ण” वर्ण का प्रयोग नहीं है।

इस तरह का वैविध्य जो कि भावानुकूल है शैली के स्तर पर भी देखने को मिलता है। राम-रावण का अपराजेय समर जहाँ वर्णित है वहाँ समासयुक्त पदावली या समस्त पदावली का प्रयोग है। शुद्ध संस्कृतनिष्ठ पदावली और समासों से बोझिल, युद्ध का नाद सजीव करती हुई पदावली उस अंश में प्रयुक्त हुई है जबकि उस अंश के समाप्त होते ही शैली बदल जाती है। सरल शब्दावली जिसे ध्वनि बिंबों के स्थान पर चाक्षुष बिंबों से सजाया गया है प्रयोग में लायी गयी है :

है अमा निशा, उगलता गगन घन अंधकार

खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन चार

अप्रतिहत गरज रहा पीछे अंबुधि विशाल

भूधर त्यों ध्यान मग्न, केवल जलती मशाल।

सारांश

इस तरह हम देखते हैं कि “राम की शक्तिपूजा” अपने पूरे कलात्मक सौंदर्य के साथ अपने युग के सामाजिक सत्य से जुड़ती हुई एक सार्वभौमिक प्रक्रिया का बयान करती है जिसे असत्य के ऊपर सत्य की विजय के लिए हर बार अपनाना पड़ेगा। स्वाधीनता का पक्ष सत्य का पक्ष था, ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पक्ष असत्य का पक्ष था, उस असत्य के खिलाफ विजय तभी हासिल हुई जब भारत की जनशक्ति नेतृत्व के साथ हो गयी। भविष्य में भी जब शोषण पर आधारित व्यवस्था को बदलकर शोषण विहीन समाज बनाने का समर तेज होगा, उसकी विजय भी तभी सुनिश्चित होगी जब भारत की या किसी ऐसे समाज की जनशक्ति उदीयमान सर्वहारावर्ग के वैचारिक-राजनीतिक नेतृत्व के साथ होगी और वर्गीय संतुलन क्रांतिकारी सर्वहारावर्ग के पक्ष में हो जाएगा। जब तक शोषित जनता बड़े पूंजीपतियों भूस्वामियों के राजनीतिक-वैचारिक नेतृत्व के चंगुल में फंसी रहेगी यानी असत्य की गोद में रहेगी, तब तक शोषण विहीन समाज बनाने वाली शक्तियों की विजय संभव नहीं। इसलिए सर्वहारा वर्ग को भी शक्तिपूजा की मौलिक कल्पना करनी पड़ती है। सारी क्रांतियों का इतिहास इस बात का साक्षी है। “राम की शक्तिपूजा” इसी ऐतिहासिक अनुभव को काव्यात्मक स्तर पर प्रस्तुत करती है। संवेदनात्मक स्तर पर समाहित यह सार्वभौमिक सत्य ही इस रचना को महान बनाता है, इसी तत्व की वजह से यह कविता एक इलहामी या प्रोफेटिक कविता भी बन जाती है। निराला की यह कविता हिंदी साहित्य की श्रेष्ठतम रचनाओं में से एक है।

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