निबंध एवं अन्य गद्य विधाएँ

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप:

  • निबंध तथा अन्य गद्य विधाओं के विकास को समझ सकेंगे;
  • निबंध तथा अन्य गद्य विधाओं का सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन कर सकेंगे; और
  • निबंध तथा अन्य गद्य विधाओं के स्वरूप में आए हुए परिवर्तनों से परिचित हो सकेंगे।

साहित्य में आधुनिक विचार और बोध के परिणामस्वरूप गद्य का प्रचलन हुआ। पारंपरिक समाज के टूटने और नए समाज के गठन के कारण नई साहित्यिक विधाओं का प्रचलन अनिवार्य था। आधुनिक समाज ने अभिव्यक्ति के उन बंधनों को तोड़ने की प्रेरणा दी जो अनुभूति की वास्तविकता के संप्रेषण में बाधा दे रहे थे। आधुनिक युग में व्यक्ति अपनी निजी भावना और निजी अनुभवों की अभिव्यक्ति करने के लिए स्वतंत्र था। निजता की यह स्वतंत्रता हमारे बोध में आए परिवर्तन को सांकेतित करती है। निबंध तथा अन्य गद्य विधाओं की प्राथमिक शर्त है निजी अनुभवों की प्रामाणिक तथा विश्वसनीय अभिव्यक्ति। इसका अर्थ यह नहीं है कि आधुनिक युग गद्य विधाओं में लेखक अनुभवों तक ही सीमित है। निजी शब्द का अर्थ यहाँ अभिव्यंजना सामर्थ्य की विविधता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। चूँकि आधुनिक साहित्य ने संरचना बद्ध ढाँचे को स्वीकार नहीं किया। उसने अपनी विशिष्टता और मौलिकता को प्रस्तुत करने के लिए अनुभवों की प्रामाणिकता को आधार बनाया। अनुभवों की विविधता ने ही आधुनिक साहित्य में विध गाओं और विविध शैलियों को प्रस्तावित किया।

किसी भी कलाकार के सामाजिक जीवन के अनुभव के साथ उसके व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों का भी महत्त्व है। उसके जीवन की छोटी-छोटी घटनाएँ भी उसके संवेदन तंत्र को प्रभावित कर देती हैं। चाहे उसका ऐतिहासिक और नाटकीय महत्त्व नहीं हो परंतु वे भी हमारी साहित्यिक अनुभूतियों के हिस्से हैं। रेखाचित्र, संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, और डायरी आदि विध गाओं का संबंध कलाकार के व्यक्तिगत जीवन से है, परंतु संवेदना के स्पर्श के कारण वे व्यक्तिगत अनभूतियाँ भी साहित्य की सजनात्मक विधाओं के रूप में प्रस्तुत होने लगी हैं।

इस इकाई में हम रेखाचित्र, संस्मरण, आत्मकथा आदि विधाओं के अध्ययन के संदर्भ में इस बात पर भी चर्चा करेंगे कि किस प्रकार से अनुभूतियों ने साहित्यिक विधाओं के रूप गठन को प्रभावित किया। वैयक्तिक लेखन होने के कारण इन विधाओं का कोई प्रवृत्तिगत रुझान नहीं दिखाई पड़ता है। हर लेखक और रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र है। इसलिए इस विधा में प्रवृत्तिगत ऐतिहासिक अध्ययन की संभावनाएँ बहुत ही क्षीण हैं । निबंध के संदर्भ में रचनाकार की व्यक्तिगत विशेषताओं के साथ-साथ युग की सामान्य प्रवृत्तियों पर भी चर्चा करेंगे।

निबंध का विकास

नई सांस्कृतिक और राजनैतिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में हिंदी निबंध का आरंभ हुआ। नव जागरण की चेतना ने हमारी मानसिकता को परिवर्तित कर हमारे बोध और संवेदना को आधुनिक बनाया। नई तकनीक के विकास से मुद्रण यंत्रों का प्रचलन प्रारंभ हुआ। मुद्रण यंत्र के आविष्कार से पूर्व हमारे साहित्य में वाचिक परंपरा की प्रधानता थी। भारतेन्दु युग में वाचिक परंपरा का रूपांतरण साहित्य की लिखित । परंपरा में हुआ। वाचिक परंपरा में साहित्य में श्रोता और वक्ता का जीवित संपर्क होता था। यथार्थ संबंधी आग्रह नये प्रश्नों को उभार रहे थे। इसलिए पारंपरिक साहित्य की विधा में उन नये प्रश्नों का सामंजन नहीं हो रहा था। अनुभूतियों के बाह्य और अभ्यांतर यथार्थ के प्रस्तुतीकरण के लिए नई विधा का आविष्कार हुआ। निबंध का विकास भी इन्हीं वास्तविकताओं के कारण हुआ। मानवतावादी विचार ने मनुष्य में स्वतंत्रता के बोध को विकसित किया। वह अब अपनी इच्छानुसार अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र था। निबंध ने इस स्वाधीनता को प्रसारित करने का अवसर दिया।

भारतेन्दु युग (1873 – 1900)

भारतेन्दु युग के निबंधकारों में अत्यंत उदार और स्वाधीन चेतना की पहचान मिलती है। भारतेन्दु युग के निबंधकार सच्चे आधुनिक की तरह भारतीय परंपरा की रूढ़ियों और कुरीतियों पर ही प्रहार नहीं कर रहे थे, पश्चिमी फैशनपरस्त लोगों पर भी व्यंग्य की छींटे छोड़ रहे थे। मुल्ला, पंडित, वैदिक, कर्मकांड, तीर्थ व्रत, पूजा आदि सभी पर इन लेखकों ने व्यंग्य किया। भारतेन्दु युग के लेखकों का उद्देश्य यह दिखाना था कि मानवीय सहानुभूति के बिना धर्म ढोंग है। मानव प्रेम को अपने जीवन में चरितार्थ करने में ही मनुष्य की सार्थकता है। निबंध जनता में जागृति फैलाने का माध्यम बना। उस युग के रचनाकार के लिए निबंध ऐसा माध्यम था जिसके माध्यम से वे पाठक से आत्मीय संबंध स्थापित कर सकते थे। बिना किसी पूर्वाग्रह के, स्वच्छंद होकर इस युग का निबंधकार पाठक का आत्मीय बन जाता था। उनकी सहज आत्मीयता ने भाव और भाषा को भी स्वाभाविक बना दिया।

भारतेन्दु युग की पत्रिकाओं में साधारण विषयों, सामाजिक आदोलनों और कभी-कभी स्थानीय समाचारों की चर्चा रहती थी। इस युग के निबंधों में विषय का वैविध्य था। तुच्छ से तुच्छ और गंभीर से गंभीर विषयों पर लेखकों ने लेखन किया। उनके द्वारा प्रतिपादित विषय वस्तु में जागृति का स्वर था। निबंधकार राष्ट्रप्रेम से प्रेरित थे। भारतेन्दु युग के निबंधकारों में बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण मिश्र प्रतिनिधि निबंधकार माने जाते हैं। प्रताप नारायण मिश्र के निबंधों में मनोरंजन के साथ व्यंग्य और कटाक्ष भी मिलता है। लोकजीवन की अनगढ़ता और भदेसपन के संस्कार से उनकी निबंध शैली मुक्त नहीं है। उनके अधिकतर निबंध व्यक्तिनिष्ठ हैं। जो जी में आया विषय ले लिया और उसे रोचक ढंग से प्रस्तुत कर दिया। मिश्र जी हास्य से मन को गुदगुदाने का प्रयत्न करते थे। सामाजिक और राजनैतिक समस्या को भी वे लगातार निबंध में उठाते रहे थे। उनके निबंधों की भाषा प्रवाहमयी है। यह प्रवाह उनकी स्वच्छंद अनुभूति से उपजा है। श्लेष शब्दों और कहावत के प्रयोग से वे भाषा में अनूठा चमत्कार उत्पन्न करते हैं। समझदार की मौत’, ‘भौं’, ‘बात’ आदि उनके प्रमुख निबंध हैं।

बालकृष्ण भट्ट भारतेन्दु युग के दूसरे महत्वपूर्ण निबंधकार थे। भटट् जी के निबंधों में रूढ़ियों के प्रति असंतोष है। वे नये सामाजिक मूल्यों को स्थापित करने के पक्षधर थे। उनके निबंधों में एक प्रकार की नाटकीयता है। यह नाटकीयता वैचारिक टकराहट से उत्पन्न है। नए और पुराने जीवन मूल्यों की टकराहट में इस नाटकीयता की सृष्टि हुई। भट्ट जी के निबंध मनोवैज्ञानिक और विश्लेषणात्मक थे।

उनमें तर्क की प्रबल शक्ति थी। वे अपने निबंधों में हमें तर्क से प्रभावित करते हैं। विद्वत्ता के साथ गांभीर्य का सहज योग भट्ट जी के निबंधों में देखने को मिलता है। ‘माधुर्य’ और ‘आशा’ उनके मनोवैज्ञानिक निबंध हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने राजनैतिक और सामाजिक निबंध भी लिखे। मुहावरे का प्रयोग उनकी भाषा शैली की विशेषता है। ‘आँख’, ‘कान’ और ‘नाक’ आदि निबंधों में भट जी महावरे की झड़ी बाँध देते हैं। अपने निबंध में उन्होंने शैली के स्तर पर कई प्रयोग किए हैं। उनके निबंधों की शैली भावात्मक, व्यंग्यात्मक और विश्लेषणात्मक है। प्रतापनारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट के संबंध में आचार्य शुक्ल ने लिखा है ‘पंडित प्रतापनारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्य साहित्य में वही काम किया है, जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया था।’

भारतेन्दु युग के अन्य निबंध लेखकों में उल्लेखनीय नाम राधाचरण गोस्वामी, श्री तोताराम, ज्वालाप्रसाद, जगमोहन सिंह आदि का है। इन निबंधकारों ने भी उसी आदर्श को अपनाया जो प्रतिनिधि निबंधकारों ने अपनाया। सामाजिक सुधार और देश प्रेम उनके निबंधों का मुख्य मुद्दा था। निबंध को जनजीवन के समीप लाने में भारतेन्दु युग के रचनाकारों का महत्वपूर्ण योगदान है।

द्विवेदी युग (1900 – 1920)

सरस्वती पत्रिका के आरंभ के साथ ही हिंदी साहित्य में द्विवेदी युग का प्रारंभ होता है। भारतेन्दु युग के निबंधकारों में आत्मीयता और अनौपचारिकता का भाव था। द्विवेदी युग के निबंधों में अनौपचारिकता और आत्मीयता का वह भाव नहीं मिलता। भारतेन्दु युग के निबंधों में जितनी अधिक स्वच्छंदता और उन्मुक्तता मिलती है, द्विवेदी युग के निंबधों में उस उन्मुक्तता और स्वच्छंदता का आभाव पाया जाता है। द्विवेदी युग के निबंधों में एक विशिष्ट प्रकार की वैचारिकता का प्रसार मिलता है। भाषा के लिए द्विवेदी जी ने जिस अनुशासन को आधार बनाया, उससे रचनात्मक साहित्य भी प्रभावित हुआ। इस अनुशासन का छाया में निबंध का स्वच्छंद विकास संभव नहीं था। द्विवेदी युग के निबंध साहित्य में एक विशिष्ट प्रकार की मनोवृत्ति की सूचना मिलती है। इस मनोवृत्ति के गठन में देश की आर्थिक विषमता और व्यापक राष्ट्रीय समस्याओं का योगदान था। इसलिए द्विवेदी युग के निबंधों में बौद्धिकता का प्रसार मिलता है। यह बौद्धिकता संवेदना की अपेक्षा ज्ञान को झकझोरती हुई प्रतीत होती है। लेखकों का ध्यान ज्ञान के विविध क्षेत्रों से सामग्री ग्रहण करने की ओर अधिक था। द्विवेदी काल के निबंधों में लालित्य का अभाव था।

वास्तव में यह युग राष्ट्रीय जागृति, विश्वप्रेम, सामाजिक एकता, अतीत गौरव, सांस्कृतिक नवजागरण तथा भाषा के परिष्कार का युग है। यही कारण है कि इस युग के निबंधों में विषयों की विविधता, विचारों की गंभीरता, भाषा की शुद्धता तथा व्याकरण सम्मता अधिक मिलती है। उस युग में निबंधों की रचना विचारों और तर्कों के आधार पर की गई। द्विवेदी युग में इतिहास, पुरातत्व दर्शन, मनोविज्ञान, राजनीति और अर्थशास्त्र आदि को निबंधों का विषय बनाया गया। दूसरी भाषाओं के निबंधों के अनुवाद भी किए गए। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बकन विचार रत्नावली’ नाम से बेकन के निबंधों को हिंदी में प्रकाशित कराया था। गंगाप्रसाद अग्निहोत्री ने मराठी निबंधकार चिपलूणकर के निबंधों का हिंदी में अनुवाद प्रस्तुत किया।

द्विवेदी युग के निबंधकारों में सर्वप्रथम महावीर प्रसाद द्विवेदी के निबंधों पर चर्चा करना अपेक्षित होगा। द्विवेदी जी के निबंध में आत्माभिव्यंजना का तत्व गौण था। उनके निबंध विषय प्रधान हैं। उनके निबंधों में विचारों की प्रधानता है, परंतु विचारों की श्रृंखला निबंध में किसी बौद्धिक उत्तेजना को प्रतिपादित करती हई प्रतीत नहीं होती है। उसमें विचार पद्धति की अन्विति का अभाव मिलता है। उनके निबंधों में ‘कवि और कविता’ तथा प्रतिभा’ आदि विचारप्रधान निबंध हैं। द्विवेदी युग के दूसरे महत्वपूर्ण लेखक माधव प्रसाद मिश्र थे। मिश्र जी के निबंधों के विषय पर्व, त्योहार, उत्सव, यात्रा, राजनीति आदि अनेक क्षेत्रों से लिए गए थे। उनके निबंधों में रोचकता का स्पर्श मिलता है। इससे पाठक की जिज्ञासा वृत्ति निबंध में लगातार सक्रिय रहती है । ‘धृति’, ‘क्षमा’ और ‘सिद्धि’ उनके प्रतिनिधि निबंध हैं। भावात्मक निबंधों की प्रवाहमयी शैली मिश्र जी के निबंधों की शैली है। उसमें ओज और आवेग है। शैली के प्रवाह में भाषा का चंचल रूप उनके निबंधों में आँख मिचौली करती प्रतीत होती है।

बालमुकुन्द गुप्त, काल की दृष्टि से भारतेन्दु काल और द्विवेदी काल के संक्रांत बिंदु पर रचनाशीलता में प्रवेश करते हैं। परंतु उन्हें द्विवेदी काल में ही रखा जाता है। ‘शिवशंभु का चिट्ठा’ बाल मुकुन्द गुप्त की कीर्ति का मूलाधार है। इस निबंध में रचनाकार ने अनोखे ढंग से लार्ड कर्जन की भारतविरोधी नीतियों की कड़ी आलोचना की है। रचनाकार की राजनैतिक सजगता जनता को औपनिवेशिक रणनीतियों से अवगत कराती है। गंभीर बातों को विनोदपूर्ण या व्यंग्यात्मक ढंग से कहकर अपने हृदय का क्षोभ और दु:ख को व्यक्त कर देना उनकी विशेषता है। गुप्त जी उर्दू से हिंदी में आए थे, इससे उनकी हिंदी बहत चलती और फड़कती हुई थी। उनके निबंध वर्णनात्मक किस्म के हैं परंतु उनमें शुष्कता नहीं है। वे अत्यंत सरस और मनोरंजक हैं।

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी द्विवेदी युग के महत्वपूर्ण निबंधकार थे। ‘कछुआ धरम’ तथा ‘मारेसि मोहिं कुठांउ’ उनके बहुचर्चित निबंध हैं। उनके निबंध में विशिष्ट प्रकार की बौद्धिकता है। यह बौद्धिकता ज्ञान के विविध क्षेत्रों से अर्जित की गई है। बौद्धिकता ने कहीं भी निबंध की संवेदना को बोझिल होने नहीं दिया है। इसके विपरीत गूढ़ और शास्त्रीय विषयों के बीच भी वे मनोरंजक प्रसंग की योजना करते हैं। शास्त्रों के ज्ञान की शुष्कता को सरस ढंग से प्रस्तुत करना उनकी अपनी शैली है। सरदार पूर्ण सिंह भी द्विवेदी काल के महत्वपूर्ण निबंधकार थे। उनके निबंधों में शांति, समानता और मानवीय करुणा का संदेश है। पूर्ण सिंह के निबंधों में मशीनी सभ्यता की अशांति के विरुद्ध आध्यात्मिक शांति को खोजने की बेचैनी है। किसान और मजदूरों के प्रति उनमें हमदर्दी है। श्रम के प्रति उनमें निष्ठा का भाव है। उनके निबंधों में विचार और भावों का सम्मिश्रण है विचार और भाव मिलकर निबंध की विषयवस्तु का गठन करते हैं। शैली की दृष्टि से उनके निबंध भावात्मक कोटि के हैं। ‘सच्ची वीरता’, ‘आचरण की सभ्यता’ तथा मजदूरी और प्रेम’ उनके प्रतिनिधि निबंध हैं।

द्विवेदी युग के अन्य निबंधकारों में गोविन्द नारायण मिश्र, जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, पद्म सिंह शर्मा, गणेश शंकर विद्यार्थी, मन्नन द्विवेदी आदि का नाम उल्लेखनीय है। गोविन्द नारायण मिश्र पांडित्यपूर्ण संस्कृतनिष्ठ गद्य शैली के लिए प्रसिद्ध हैं। जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी हास्यपूर्ण शैली के लिए जाने जाते हैं। पद्म सिंह शर्मा के निबंध की शैली तार्किक है। द्विवेदी युग के निबंधों में विषय चयन की दृष्टि से पर्याप्त विस्तार मिलता है।। द्विवेदी युग के निबंधकारों ने मुख्यत: विचार प्रधान निबंध लिखे।

शुक्ल युग (1920 – 1940)

द्विवेदी युग के बाद हिंदी निबंध साहित्य के इतिहास का एक नया दौर प्रारंभ होता है। इस काल को निबंध साहित्य के इतिहास में शुक्ल युग के नाम से जाना जाता है। निबंध का शुक्ल युग और कविता का छायावाद युग दोनों युग समानान्तर रूप से चलते हैं। छायावादी आंदोलन में कविता को आत्माभिव्यंजक, अमूर्त और लाक्षणिक सौन्दर्य से विभूषित किया गया। निबंध को भी इस युग में नये प्रकारों से तराशा गया। लेखकों ने विचारों और भावों की सूक्ष्मता से निबंध को अधिक व्यंजक और आकर्षक रूप दिया। द्विवेदी युग के निबंधों में विचारों और भावों की स्थूलता थी। शुक्ल युग में निबंधों का आंतरिक गठन बदला हुआ प्रतीत होता है। आंतरिक गठन बदलने का कारण यह था कि कविता और साहित्य की दूसरी विधाओं में परिमार्जन हो रहा था। कविता में भावों की व्यंजना पर बल दिया जा रहा था। इस युग के निबंध में भाव के वस्तुगत यथार्थ की खोज की जा रही थी।

आचार्य शुक्ल के मनोविकार संबंधी निबंध में इसी बात को समझाने का प्रयास किया गया है कि मनोविकार का वस्तुगत कारण क्या होता है ? शुक्ल जी ने मनोविकार का सामाजिक आधार स्पष्ट करते हुए उसे मनुष्य के व्यवहार से जोड़ा। इस वैज्ञानिक दृष्टि ने निबंध के परे गठन को परिवर्तित करके रख दिया। इस दृष्टि का प्रभाव उस युग के दूसरे निबंधकारों पर भी पड़ा। दूसरे निबंधकारों ने भी विषयवस्तु को गहराई में समझने का प्रयास किया। इस प्रकार हम पाते हैं कि इस युग में निबंध का पूरा ढांचा ही परिवर्तित हो गया। शुक्ल युग के निबंधों में विचारों का पक्ष जितना सघन, सूक्ष्म और व्यंजक हुआ उतना लालित्य का पक्ष मनोरम नहीं बन सका। लालित्य के लिए जिस मुक्त। मानसिकता की जरूरत होती है, उस मुक्त मानसिकता की पहचान शुक्ल युग के निबंधों में बहुत ही अल्प मात्रा में मिलती है। लालित्य के अभाव में निबंधों का आवरण सैद्धान्तिक सा होने लगा।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को केन्द्र में रखकर निबंध के इस युग का नाम शुक्ल युग पड़ा। आचार्य शुक्ल ने समीक्षात्मक और आलोचनात्मक आदि कई प्रकार के निबंध लिखे, परंतु यहाँ हम मुख्यत: उनके मनोविकार संबंधी निबंधों की चर्चा करेंगे। मनोविकार संबंधी उनके निबंध द्विवेदी युग में पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके थे। परंतु उसका परिमार्जन छायावाद के युग में भी होता रहा था। शुक्ल जी के मनोभाव संबंधी निबंधों का संग्रह पहले ‘विचारबीथी’ के नाम से 1930 में प्रकाशित हुआ। बाद में ‘चिंतामणि’ नाम से 1939 ई० में परिवर्धित और संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ। निबंध के संबंध में आचार्य शुक्ल का अपना एक दृष्टिकोण है। वे निबंध के संबंध में लिखते हैं ‘ तत्त्वचिंतक या वैज्ञानिक से निबंध लेखक की भिन्नता इस बात से भी है कि निबंध लेखक जिधर चलता है उधर अपनी संपूर्ण मानसिक सत्ता के साथ अर्थात बुद्धि और भावात्मक हृदय दोनों लिए हुए।’ निबंध में विचार की सत्ता जितनी महत्वपूर्ण है, भाव की सत्ता का भी उतना ही महत्व है। उनके अनुसार भाव और विचार की सत्ता के संबंध सूत्रों को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने की चुनौती निबंधकार के सामने होती है। आचार्य शुक्ल निबंध की इस अवधारणा को सैद्धान्तिक रूप में ही स्वीकार नहीं करते हैं, सर्जनात्मक रूप में उसका उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं।

मनोविकार संबंधी निबंध उनके सैद्धान्तिक चिंतन के सर्जनात्मक प्रमाण हैं। उनके निबंध में सर्वप्रथम सूत्रात्मक रूप से विषय वस्तु को परिभाषित किया जाता है। पुन: उसकी व्याख्या की जाती है और विश्लेषित किया जाता है। उसके बाद वे भावों के अंतर को स्पष्ट करते हैं। अपने व्यक्तिगत अनुभव से अपनी बातों को पुष्ट करते हैं और फिर एक निष्कर्ष को पाठक के सामने रखते हैं। आचार्य शुक्ल निबंध में समास और व्यास दोनों शैलियों को ग्रहण करते हैं। किस बात का कितना विस्तार होना चाहिए और उसमें कितनी संक्षिप्तता होनी चाहिए, इसकी गहरी पहचान उनके निबंधों में मिलती है। भाषा में उन्होंने विचार को प्रवाहित किया है। इससे भाषा में कसावट आ गई है। परंतु प्रसंग को मनोरंजक बनाने के लिए वे प्रसंगानुसार भाषा को रचते हैं।

आइए, अब शुक्ल युग के कुछ अन्य महत्वपूर्ण निबंधकारों का परिचय प्राप्त करें। बाबू गुलाब राय इस युग के महत्वपूर्ण निबंधकार थे। वे व्यक्ति व्यंजक निबंधकार हैं। उन्होंने दार्शनिक, साहित्यिक, संस्मरणात्मक और विनोदात्मक निबंधों को रचना की है। इनके निबंधों में वैयक्तिकता, अनुभूति की गहनता और शैली की सुबोधता, सभी गुण समान रूप से मिलते हैं। उन्होंने स्वयं अपने व्यक्तित्व, कृतित्व और विचारों को भी हास्य का आलम्बन बनाया है। ‘प्रबंध प्रभाकर’, ‘फिर निराश क्यों’, ‘मेरी असफलताएँ’ आदि उनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं। उनके निबंधों में दर्शन शास्त्र की तार्किक शैली का संयोजन मिलता है। उनके कुछ निबंधों में उनके व्यक्तित्व की निजी प्रतिक्रिया और अभिव्यक्ति मिलती है। पदुम लाल पुन्नालाल बख्शी के निबंध संग्रह पंचरात्र’, ‘कुछ और कुछ’, ‘मकरंद बिंदु’ और ‘प्रबंध परिजात’ में निष्कपट भाव की निश्छल अभिव्यक्ति है। भाव और भाषा की सजीवता उनकी शैली की विशेषता है।

शांतिप्रिय द्विवेदी के निबंध संग्रह ‘कवि और काव्य’ तथा ‘साहित्यिकी ‘ का नाम उल्लेखनीय है। उनके निबंधों की शैली में छायावादी भावुकता का प्रभाव मिलता है। भावों की तरल अभिव्यक्ति उनके निबंध अभिव्यंजना के मूल तत्व हैं। भावों की तरलता को सुकुमार शब्दों में नियोजित करना उनकी भाषा की विशेषता है। शिवपूजन सहाय के निबंधों में अनौपचारिकता का भाव मिलता है। उनके निबंधों में मस्ती और जिंदादिली का संदेश संप्रेषित होता है। ‘कुछ’ शीर्षक से प्रकाशित उनका निबंध संग्रह अत्यंत रोचक शैली में लिखा गया है। रघुवीर सिंह की ‘शेष स्मृतियाँ’ निबंध संग्रह शुक्ल युग की उल्लेखनीय कृति है। इस निबंध संग्रह में लेखक ने मुगल काल की घटनाओं और इमारतों के संबंध में . काल्पनिक प्रसंग की योजना कर भावात्मक शैली में अच्छे निबंध रचे हैं।

जयशंकर प्रसाद ने कविता कहानी, उपन्यास और नाटक के अतिरिक्त निबंध भी लिखे हैं। ‘काव्यकला तथा अन्य निबंध इनका निबंध संग्रह है जिसमें महत्वपूर्ण विषयों से संबंधित आठ निबंध हैं’ । निराला जी ने सामाजिक, राजनैतिक अंतर्विरोधों और भाषागत, छंदगत समस्याओं को आधार बनाकर चिन्तन प्रधान निबंधों की रचना की है। पंत जी ने पल्लव की भूमिका के माध्यम से निबंध लेखन के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। इनके अतिरिक्त महादेवी वर्मा, आ० नन्ददुलारे वाजपेयी, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, सद्गुरू शरण अवस्थी, वियोगी हरि भी इस युग के महत्वपूर्ण निबंधकार हैं।

शुक्लोत्तर निबंध

कथ्य और शिल्प की दृष्टि से सन् 1940 के बाद हिन्दी निबंध का बहुत विकास हुआ, और आज निबंध गद्य की एक सशक्त विधा हो गई है। विभिन्न प्रकार की पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों तथा संग्रह ग्रंथों में सबसे अधिक संख्या निबंधों की ही मिलती है। आज निबंध के पाठकों की संख्या में भी काफी वृद्धि हुई है। जैसे-जैसे यथार्थवादी जीवन दृष्टि और मौलिकतावादी मनोवृत्ति बढ़ती गई वैसे-वैसे पाठक निबंध साहित्य के प्रति आकर्षित होता गया। आज सामान्य व्यक्ति भारी भरकम विषय पर भारी भरकम भावात्मक और वैचारिक अभिव्यक्तियों के पारायण में विश्वास नहीं रखता। उसे सीधे सादे मनोरंजक और सरल साहित्य की अपेक्षा है। यही कारण है कि आज वैयक्तिक और व्यक्तिव्यंजक निबंधों का प्रचलन बढ़ रहा है।

शुक्ल युग के समाप्त होते-होते हिंदी में व्यक्ति प्रधान निबंधों के लिए आधारभूमि तैयार हो चुकी थी। इसी समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी निबंध रचना में सक्रिय हो रहे थे। शुक्लोत्तर निबंधकारों में हजारी प्रसाद द्विवेदी का व्यक्तित्व केन्द्रीय है। उन्होंने अपनी मौलिकता से निबंध साहित्य को नई दिशा दी। इनके ललित निंबधों की कल्पनाशीलता, रोमांटिक भावबोध पैदा करती है। उनके निबंधों में नाटकीयता का गहरा अनुभव मिलता है। वे किसी बात की जितनी गहराई में जाते हैं उसे उतने ही सहज रूप में प्रस्तुत कर देते हैं। निबंध के विषय के साथ वे पाठक को लेकर सांस्कृतिक यात्रा पर निकल पड़ते हैं। इस सांस्कृतिक यात्रा में वे कहीं भी असहज नहीं होते हैं। अपने पांडित्य को लोक मानस की संवेदना के साथ घुला मिला देना उनकी खास विशिष्टता है। उनकी सांस्कृतिक दृष्टि हमें अतीत की ओर नहीं ले जाती। वह कहीं न कहीं हमारे समकालीन समाज की विषमताओं पर प्रहार करती है। उनके निबंध में विवेक और आत्मविश्वास का स्वर भरा है। यह आत्मविश्वास गहरी मानवीय जिजीविषा से उपजा है।

द्विवेदी जी के निबंधों में शोषितों के प्रति गहरी सहानुभूति है। समाज में हाशिए पर जीने वाले लोगों के प्रति आत्मीयता है। उनके निबंध की शैली में अनगढ़ता है, जो उनके निजी अनुभव और खोज का नतीजा है। निबंधों में उनके अनुभूति का स्पंदन है। उसमें कविता की सूक्ष्मता और गद्य की वैचारिकता का समावेश है। यद्यपि आचार्य द्विवेदी परम्परा को स्वीकार करते हैं परन्त उसके रूढ़ तत्व को महत्व नहीं देते अपितु उसके जीवन्त पक्ष को ही मान्यता देते हैं। मूलत: ये भारतीय संस्कृति के पोषक हैं। ‘अशोक के फूल’ (1948), ‘कल्पलता’ (1951) विचार प्रवाह’ (1957) और ‘कुटज’ उनके प्रतिनिधि निबंध संग्रह हैं।

शुक्लोत्तर युग के निबंधकारों में जैनेन्द्र का नाम उल्लेखनीय है। उनके निबंध मुख्यत: विचार प्रधान हैं। जैनेन्द्र जी विचार के वृहत् संदर्भ का स्पर्श करते हैं। उन्होंने धर्म, राजनीति, संस्कृति, साहित्य, सेक्स, काम, प्रेम आदि विषयों से अपने निबंध का टेक्सचर तैयार किया है। ‘जड़ की बात’, ‘साहित्य का श्रेय और प्रेय’, ‘सोच विचार’, ‘मन्थन’ आदि उनके प्रतिनिधि निबंध संग्रह हैं। दिनकर ने काव्य के साथ-साथ गद्य की रचना भी की। ‘अर्द्धनारीश्वर’, मिट्टी की ओर’, ‘रेती के फूल’, ‘हमारी सांस्कृतिक एकता’ आदि उनके निबंध संग्रह हैं। दिनकर के निबंधों में उनकी सांस्कृतिक आस्था और मानवतावादी दृष्टि उभरती है। राम वृक्ष बेनीपुरी ने बहुत कम निबंध लिखे हैं। परंतु उनकी शैली और विचार में नवीनता है। गेहँ और गुलाब’ तथा ‘वन्दे वाणी विनायकौ’ उनके प्रमुख निबंधों संग्रह है। उनके निबंध में कला और संस्कृति तथा भौतिकता के बीच की टकराहट को विषय बनाया गया है। बेनीपुरी की निबंध शैली में विचार और भाव का मिला-जुला रूप मिलता है।

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी निबंधकारों में विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय और प्रभाकर माचवे का नाम महत्वपूर्ण है। प्रभाकर माचवे का ‘खरगोश के सींग’, विद्यानिवास मिश्र के ‘छितवन की छाँह’, ‘तुम चंदन हम पानी’, ‘आंगन का पंछी बनजारा मन’, ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ तथा कुबेरनाथ राय के ‘प्रिया नीलकंठी’, ‘रस आखेटक’, ‘गंध मादन ‘ और ‘विषाद योग’ प्रमुख निबंध संग्रह हैं। प्रभाकर माचवे के निबंधों में व्यंग्य की कडुवाहट है। विद्यानिवास मिश्र ने जीवन के विविध सांस्कृतिक पक्षों को रागात्मकता के साथ अंकित किया है। उनके निबंध की संवेदना गीतात्मक हो जाती है। यह गीतात्मकता उन्होंने लोकजीवन की लयात्मक संवेदना से प्राप्त की है। उनके निबंध में विचार की अपेक्षा लालित्य की प्रधानता है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी की शैली का गहरा प्रभाव मिश्र जी के निबंधों पर है। कुबेरनाथ राय भी द्विवेदी जी की शैली से प्रभावित हैं। व्यंग्य शैली के निबंधकारों में हरिशंकर परसाई का नाम अग्रणी है। उनके निबंधों के विषय मुख्यत: सामाजिक और राजनैतिक होते हैं। समकालीन समाज की विसंगतियों के प्रति उनके निबंधों में विक्षोभ का भाव है। परसाई की अंतर्दृष्टि में मानवीय करुणा के प्रति समर्पण है। इसलिए उनके निबंध हास्य की फूहड़ता की जगह व्यंग्य का तीव्र आघात करते हैं । ‘भूत के पाँव’, ‘सदाचार की तावीज’ और निठल्ले की डायरी’ परसाई के प्रतिनिधि निबंध संग्रह हैं।

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी निबंध में अज्ञेय और निर्मल वर्मा का महत्वपूर्ण योगदान हैं। अज्ञेय और निर्मल के चिंतन की दिशा लगभग एक ही रही है। समाज, व्यक्ति, परंपरा, काल, औपनिवेशिकता आदि ऐसे बिंदु हैं जिसे दोनों रचनाकारों ने समान रूप से उठाया है। कला, साहित्य और संस्कृति के आंतरिक रिश्तों की पहचान के साथ आधुनिक युग के संकट के संदर्भ में उनका मूल्यांकन दोनों रचनाकारों के प्रिय विषय रहे हैं। दोनों रचनाकारों की शैली में अंतर है। अज्ञेय के निबंध के गद्य विचारात्मक उत्कृष्टता के प्रामाणिक दस्तावेज हैं। निर्मल के निबंध में लयात्मकता है। उनके विचार लयात्मक चिंतन में ढले हुए प्रतीत होते हैं । ‘त्रिशंकु’, ‘आत्मनेपद’, ‘सर्जना और संदर्भ’, ‘आलवाल’, ‘संवत्सर’, आदि अज्ञेय के प्रतिनिधि निबंध संग्रह हैं। ‘कला का जोखिम’, ‘हर वारिस में’, ‘शब्द और स्मृति’, ‘भारत और योरोप प्रतिश्रुति के क्षेत्र’ आदि निर्मल की मुख्य निबंध कृतियाँ हैं। नये रचनाकारों में अशोक वाजपेयी और रमेश चन्द्र शाह की कई कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। निबंध विधा को ये रचनाकर अपनी अंतर्दृष्टि से समृद्ध कर रहे हैं।

अन्य गद्य विधाएँ

अन्य गद्य विधाओं के अन्तर्गत हम रेखाचित्र, संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, यात्रावृतांत, रिपोर्ताज, साक्षात्कार, तथा डायरी का अध्ययन करेंगे । जीवन की ईमानदार और प्रामाणिक अनुभूति की यथार्थ अभिव्यक्ति के लिए इन विधाओं का विकास हुआ। इन विधाओं में व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन प्रकाशित होता है। उनके व्यक्तिगत जीवन के द्वंद्व, उल्लास और पीड़ा के वास्तविक चित्र इन गद्य विधाओं में मिलते हैं। कलाकार के व्यक्तिगत अनुभव में उसके युग की संवेदनशीलता छिपी होती है। इन विधाओं के अध्ययन के माध्यम से आपं कलाकार की व्यक्तिगत विशिष्टता के साथ-साथ उस युग के यथार्थ को पहचान सकेंगे।

रेखाचित्र

1940 के बाद हिंदी साहित्य में प्रयोग का दौर शुरू हुआ। प्रयोग मात्र कविता में ही नहीं किए गए। प्रयोग का असर साहित्य की विविध विधाओं पर भी हुआ। 1940 के बाद साहित्यिक विधाओं के नए-नए रूप सामने आए। उपन्यास जो अभी तक वर्णनात्मक विधा थी। उसे जीवनी की शक्ल में पेश किया गया। अज्ञेय का शेखर एक जीवनी’ इसका उदाहरण है। कविता और नाटक के संयोग से काव्य नाटक का जन्म हुआ। ‘अंधायुग’ काव्य नाटक का प्रत्यक्ष प्रमाण है। विधाओं के मिश्रण में हमारे जीवनानुभव के प्रतिबिम्ब मिलते हैं। वस्तुत: समाज की जटिलता के बीच हमारे अनुभव की गति सीधी नहीं रह सकी सामाजिक अनुभव से ऐसी संवेदनाएँ पैदा हुई जो मिली जुली थीं। इसलिए शिल्प के ढाँचे को भी नवीन रूप देना पड़ा। कहानी के कथानक की संवेदनशीलता, चित्रकला के रंग रेखाओं की सूक्ष्मता और सांकेतिकता तथा संस्मरण के स्मृति तत्व के मिश्रण से रेखाचित्र का स्वरूप निर्मित हुआ। रेखचित्र गद्य की एक नवीन विधा है। अपनी व्यापक संवेदन शीलता और सुन्दर कलात्मक शैली के कारण आज हिन्दी की समस्त आधुनिक विधाओं में रेखाचित्र ने अपना एक निश्चित और विशिष्ट सथान बना लिया है।

रेखाचित्र की स्मृति में पीड़ा का बोध होता है। इस पीड़ा में बिछुड़ने की संवेदना होती है। रेखाचित्रकार जिसका वर्णन कर रहा होता है। उससे अलग होने की पीड़ा और दर्द ही उसे रेखाचित्र निर्मित करने को प्रेरित करता है। श्रेष्ठ रेखाचित्रकार की कृतियों को पढ़ने पर यह अहसास और भी तीव्र हो जाता है। महादेवी ने अपने रेखाचित्र के संग्रह का नाम ही ‘अतीत के चलचित्र’ रखा है। इसमें अतीत के प्रति सम्मोहन है, उससे अलग होने की घनी पीड़ा भी है। वस्तुत: रेखाचित्र की साहित्यिक विधा के रूप में चर्चा ही महादेवी की रचनाओं से आरंभ होती है। समाज में निम्नस्तर पर रहने वाले लोगों के प्रति महादेवी में करुणा और सहानुभूति है। लेखिका ने जिन पात्रों को अपने रेखाचित्र में स्थान दिया है उन सभी के जीवन में कुछ न कुछ अभाव है। यह अभाव उन पात्रों के प्रति सहानुभूति को जन्म देते हैं। महादेवी के कुछ रेखाचित्र आक्रोश को जगाते हैं।

महादेवी के रेखाचित्रों में ‘अतीत के चलचित्र’ (1941) और ‘स्मृति की रेखाएँ (1947) उनकी प्रतिनिधि कृतियाँ हैं। महादेवी के पूर्व के रेखाचित्रकारों में श्रीराम शर्मा की कृति ‘बोलती प्रतिमा’ (1937), ‘जंगल के जीव’ (1947) आदि के नाम भी उल्लेखनीय हैं। महादेवी के बाद रेखाचित्र लेखकों में रामवृक्ष बेनीपरी का स्थान महत्वपूर्ण है। बेनीपुरी का लालतारा’ और ‘माटी की मूरतें’ प्रसिद्ध रेखाचित्र हैं । लेखक ने ग्रामीण परिवेश को पात्रों के माध्यम से रेखचित्र में साकार कर दिया है। अपनी धरती के लोगों के प्रति उनमें स्वाभाविक और सच्चा स्नेह झलकता है। सामान्य जन की जिंदगी के प्रति सम्मान और आत्मीयता का भाव लेखक में भरा हुआ है।

प्रकाशचन्द्र गुप्त का रेखाचित्र’ भी रेखाचित्रों में उल्लेखनीय है। राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह का ‘टूटा तारा’ रेखाचित्र का बेजोड़ उदाहरण है। उनकी शैली में चमत्कारिक शक्ति है। शिवपूजन सहाय के रेखाचित्र व दिन वे लोग’ व्यंग्य प्रधान रेखाचित्र के उदाहरण हैं । देवेन्द्र सत्यार्थी की ‘रेखाएँ बोल उठी’ रेखाचित्र विधा की उल्लेखनीय रचना है। विष्णु प्रभाकर के ‘कुछ शब्द कुछ रेखाएँ’ सामाजिक विसंगति को उभारने वाले रेखाचित्र हैं।

सस्मरण साहित्य

संस्मरण और रेखाचित्र में बहुत ही सूक्ष्म अंतर है। यदि लेखक व्यक्तित्व चित्रण तक ही स्मृति को सीमित रखता है तो वह रचना रेखाचित्र की श्रेणी में रखी जाएगी। यदि लेखक स्मृतियों से प्रसंग को उभारने का काम करता है तो वह रचना संस्मरण कहलाएगी। संस्मरण में पूरा संदर्भ और प्रसंग अर्थवान होता है। रेखाचित्र में व्यक्ति चित्रांकन का केन्द्र बिंदु होता है। स्मृति में एक विशिष्ट प्रकार की संवेदना होती है। यह संवेदना हमारे नोस्टलजिक बोध को झंकृत कर देती है। संस्मरण से हमारा अतीत बोध जुड़ा होता है।अतीत का कोई मूल्यवान क्षण संस्मरण रचने को प्रेरित करता है। संस्मरण में कथा का ताना-बाना सच्ची घटनाओं से बुना जाता है।

संस्मरण आधुनिक गद्य विधा है। हिंदी में संस्मरण साहित्य का प्रारंभ द्विवेदी युग से होता है। सरस्वती पत्रिका में कुछ संस्मरण यदा कदा प्रकाशित हो जाते थे। हिन्दी में संस्मरण लिखने का प्रांरभ पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही हुआ। ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’, ‘क्षुधा’, ‘विशाल भारत’ आदि में साहित्यिकों और समाज सुधारकों के संस्मरण छपते रहते थे, हिन्दी में पहला संस्मरण 1907 ई० में बालमुकुन्द गुप्त द्वारा प्रतापनारायण मिश्र पर लिखा गया था, इसके कुछ दिन बाद ही गुप्त जी द्वारा लिखित ‘हरिऔध जी के संस्मरण’ नामक एक अन्य संस्मरणात्मक पुस्तक का भी उल्लेख मिलता है। इसमें पन्द्रह संस्मरण संकलित हैं।

सन् 1928 में रामदास गौड़ ने श्रीधर पाठक और राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ जैसे साहित्यकारों का संस्मरण लिखा, ये संस्मरण दोनों साहित्यकारों की साहित्यिक अंतर्दृष्टि स्पष्ट करने में सहायक हैं । ‘क्षुधा’ पत्रिका में इलाचंद्र जोशी ने मेरे प्रारंभिक जीवन की स्मृतियाँ’ शीर्षक से अपने बचपन की स्मृतियों को लिखा। 1932 ई० में विशाल भारत’ पत्रिका में बनारसीदास चतुर्वेदी ने श्रीधर पाठक का संस्मरण रेखाचित्र लिखा। ये संस्मरण कभी तो संस्मरण लेखक के ही बारे में होते थे कभी इनमें किसी व्यक्ति के जीवन की विशेषताओं का चित्रण होता था। देखा जाए तो, बीसवीं शताब्दी के प्रथम, द्वितीय और तृतीय दशकों में संस्मरण विधा स्थापित होने लगी थी। इस संस्मरणों में उस समय की राजनीतिक और साहित्यिक जीवन की गतिविधियों का चित्र भी प्राप्त होता है। इस समय रूपनारायण पांडेय, गोपालराम गहमरी, महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि के संस्मरण भी प्रकाशित होने लगे थे।

संस्मरण लेखन में राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह का नाम विशेष उल्लेखनीय है । ‘सावनी समां’ (1938) तथा ‘सूरदास’ (1940) उनकी विशिष्ट संस्मरणात्मक कृतियाँ हैं । ‘सूरदास’ में उन्होंने नायक सूरदास की संवेदनशीलता के साथ-साथ उसके आत्मविश्वास को भी उभारने का प्रयत्न किया है। निम्न वर्ग के पात्रों में मानवता की खोज और उर्द-मिश्रित चभती हई भाषा-शैली राधिकारमण जी के संस्मरणों की विशेषता है। महादेवी वर्मा के संस्मरण हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उनकी कृति ‘पथ के साथी’ (सन् 1956) में लेखिका ने अपने समकालीन रचनाकारों का संस्मरण लिखा है। इस कृति में पंत, निराला, सुभद्राकुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त आदि के संस्मरण संकलित हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी के संस्मरण ‘जंजीरे और दीवारे’ में उनके जेल जीवन के संस्मरण है। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की कृति ‘भूले हुए चेहरे’ उल्लेखनीय संस्मरण रचना है।

संस्मरण लेखन में रामधारी सिंह दिनकर की कृति ‘लोकदेव नेहरू’ तथा ‘संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ’ महत्वपूर्ण हैं । ‘लोकदेव नेहरू’ में नेहरू के जीवन की अंतरंगता और अनौपचारिकता से परिचित कराया गया है। नेहरू के समकालीन रचनाकारों के संबंधों पर भी प्रकाश डाला गया है। संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ’ में लेखक ने अपने युग के प्रमुख राजनीतिज्ञों और साहित्यकारों का स्मरण किया है। डॉ नगेन्द्र के संस्मरण चेतना के बिंब’ में सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त आदि व्यक्तियों के जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं को संस्मरण में उभारने को प्रयत्न किया गया है। हरिवंश राय बच्चन की कृति ‘कवियों में सौम्य संत हैं’ में सुमित्रानंदन पंत के आत्मीय और साहित्यिक संस्मरण दिए गए हैं। डॉ० रामकुमार वर्मा का ‘संस्मरणों के सुमन’, विष्णु प्रभाकर की ‘मेरे अग्रज: मेरे मीत’ तथा फणीश्वरनाथ रेणु का वन तुलसी की गंध’ उल्लेखनीय संस्मरणात्मक कृतियाँ हैं।

संस्मरण साहित्य में अज्ञेय की कृति ‘स्मृतिलेखा’ का महत्वपूर्ण स्थान है। इस रचना में श्रद्धेय साहित्यकारों के साथ बिताए गए क्षणों का वर्णन है। इस संस्मरण में साहित्यकार के व्यक्तित्व को उनकी कलाकृति से जोड़ने का प्रयास किया गया है। ‘स्मतिलेखा’ तथ्यों का ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं है। वह स्मृति की विशिष्ट सर्जना है। एक रचनाकार जब दूसरे रचनाकार को देखता है, उसमें जो कुछ ग्रहण करता है उसकी मार्मिक अभिव्यक्ति ‘स्मृतिलेखा’ में मिलती है। स्मृति अज्ञेय के लिए मूल्यांकन की रचनात्मक कसौटी बन गई है।

जीवनी

जीवनी भी आधुनिक गद्य की विधा है। वस्तुत: जीवनी किसी रूप में हमारे पारंपरिक साहित्य में भी वर्तमान रही है। तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखा। उसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन की घटनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति है। परंतु रामचरितमानस जीवनी नहीं चरित काव्य है। उसमें लौकिक और अतिलौकिक कल्पना के द्वारा जीवन के उदात्त पक्षों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है। उसमें तथ्यों की वास्तविकता को जीवन सूत्र के रूप में उपस्थित नहीं किया गया है। जीवनी लेखक की कल्पना को मनमानी छुट नहीं होती है। पात्र के जीवन की वास्तविक जानकारी के आधार पर ही लेखक कल्पना द्वारा एक चित्र उकेर सकता है। जीवनी लेखक को इतिहास के घटनाक्रम और उपन्यास की रोचकता के मध्य अपना मार्ग ढूँढ़ना पड़ता है। घटनाक्रम की प्रामाणिक जानकारी के आधार पर ही उसे विवेचन करना होता है। जीवनी की रचना के लिए निष्पक्षता की जरूरत होती है। जीवनी में लेखक को उन मानवीय कमजोरियों को भी उभारना होता है जो पात्र के जीवन में हैं। जीवन के घटनाक्रम को व्यवस्थित रूप में भी प्रस्तुत करना होता है ताकि उसमें क्रम बना रहे।

वस्तुत: जीवनी लेखक का कार्य अत्यन्त कठिन है। जीवनी लेखन जहाँ कठिन है वहीं उसके लेखन में सतर्क दृष्टि भी परम आवश्यक है। जीवनी गद्य साहित्य का वह रूप है जिसकी अपनी पहचान होती है और उसके स्वरूप की यही निजता उसे गद्य की अन्य विधाओं से अलग करती है। जीवनी किसी व्यक्ति के जीवन का प्रभावपूर्ण और कमबद्ध किन्तु धारावाहिक रूप में किया गया वर्णन है। देश-काल और परिस्थितियों का अंकन भी चरित नायक के जीवन की घटनाओं को पुष्ट रूप में प्रस्तुत करने के लिए आवश्यक होता है। इसमें चरित नायक के चरित्र का खुला वर्णन, उसके शारीरिक और बौद्धिक गुणों का परिचय, उसकी सफलताओं और असफलताओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी अपेक्षित है। जीवनी लेखक प्राय: स्वयं मंच पर नहीं आता वरन वह अपने को सदैव नेपथ्य में रखकर ही लेखन करता है।

हिंदी में जीवनी साहित्य भारतेन्दु के समय से ही लिखे जाने लगे थे। भारतेन्दु काल में रचित जीवनियों में जीवनी साहित्य की अपेक्षित तटस्थता और कलात्मकता नहीं मिलती है। उन पर आख्यान का गहरा प्रभाव मिलता है। इसलिए उस युग की अधिकतर जीवनी ऐतिहासिक व्यक्तियों को केन्द्र में रखकर लिखी गई। स्वयं भारतेन्दु ने कालिदास, रामानुज, जयदेव, सूरदास, शंकराचार्य आदि की जीवनियाँ लिखीं। भारतेन्दु द्वारा लिखी गई जीवनियाँ ‘बादशाह दर्पण’ और ‘चरितावली’ में संकलित हैं। कार्तिक प्रसाद खत्री ने अहिल्याबाई, छत्रपति शिवाजी और मीरा बाई के जीवन चरित लिखे। राधकृष्णदास ने श्री नागरीदास जी के जीवन चरित की रचना की। परिमाण की दृष्टि से देखा जाए तो भारतेन्दु युग में अत्यधिक जीवनी साहित्य मिलता है, परंतु वास्तविक अर्थ में वे जीवनी न होकर आख्यान हैं।

द्विवेदी युग में शिवनंदन सहाय कृत हरिश्चंद्र का जीवन चरित, गोस्वामी तुलसीदास का जीवन चरित और चैतन्य महाप्रभु का जीवन चरित उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। परंतु इन कृतियों में तटस्थता और निष्पक्षता का अभाव मिलता है जीवनी के लिए तथ्यों के जितने प्रमाण की आवश्यकता होती है उसका भी अभाव झलकता है। द्विवेदी युग में आर्य समाज प्रवर्तक दयानंद तथा अन्य महापुरुषों से संबंधित जीवनी साहित्य लिखा गया। अखिलानंद शर्मा ने दयानंद सरस्वती के जीवन के विविध पहलुओं को उभारने का प्रयत्न किया। लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय आदि की जीवनी भी लिखी गई। विदेशी महापुरुषों में नेपोलियन बोनापार्ट की सर्वाधिक जीवनी लिखी गई। गौरीशंकर ओझा ने कर्नल टॉड की जीवनी लिखी। ऐतिहासिक नारियों में नूरजहाँ, रानी दुर्गावती आदि की जीवनियाँ लिखी गईं। द्विवेदी युग में ऐतिहासिक पात्रों की जीवनी की ओर लेखकों का रुझान अधिक था। ऐतिहासिक पात्र को अपने कल्पना के अनुसार रच देना द्विवेदी युग के जीवनी साहित्य की सीमा है।

द्विवेदी युग के बाद के जीवनी लेखन में उद्बोधन का स्वर प्रमुख हो चला था। इस युग में विशेषकर उन्हीं चरित्रों की जीवनी लिखी गई जो राष्ट्रीय आंदोलन में प्रेरणा देने वाले थे। इसलिए तिलक, गांधी और नेहरू की जीवनी कई लेखकों ने लिखी। ईश्वरी प्रसाद शर्मा ने बाल गंगाधर तिलक पर लिखा। राम नरेश त्रिपाठी ने गांधी की जीवनी लिखी। गणेश शंकर विद्यार्थी ने जवाहर लाल नेहरू की जीवनी लिखी। द्विवेदी युग में आदर्शवाद की स्थापना मुख्य चिंता का विषय था। इसलिए जीवनी लेखन में भी उसी बिन्दु को आधार बनाया गया।

स्वातंत्र्योत्तर युग का जीवनी साहित्य अधिकतर राजनीतिक व्यक्तियों से ही संबद्ध है। लगभग सभी नेताओं पर जीवनी लेखन किया गया। उनकी सूची बहुत लंबी है। उन सभी साहित्य की रचना की चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है। कुछ महत्वपूर्ण साहित्यिक व्यक्तियों की जीवनी लिखी गई जिनका हमारे साहित्य में विशिष्ट महत्व है। इस प्रकार की जीवनी में प्रेमचंद घर में’ शिवरानी देवी की उल्लेखनीय कृति है। इसमे प्रेमचंद के जीवन के संघर्षों को ईमानदारी से प्रस्तुत किया गया है। ‘कलम का सिपाही’ अमृतराय द्वारा रचित महत्वपूर्ण कृति है। इस कृति को उपन्यास की तरह रोचक बनाकर लिखा गया है। लेखक बहुत हद तक तटस्थ होकर अपने नायक का मूल्यांकन करने में सफल हुआ है। इस कृति में प्रेमचंद के वैचारिक और संवेदनात्मक विकास को तत्कालीन परिवेश के बीच से रचने का प्रयत्न किया गया है। प्रेमचंद की साहित्यिक समृद्धि और व्यक्तिगत अभाव को वस्तुनिष्ठता से दर्शाने की कोशिश में रचनाकार सफल रहा है।

प्रेमचंद : कलम का सिपाही’ अमृतराय की अन्यतम उपलब्धि है। जीवनी रचना की दूसरी महत्वपूर्ण कृति डॉ० रामविलास शर्मा की कृत ‘निराला की साहित्य साधना’ है। इस कृति में निराला के स्वभाव, अनुभूति, साहित्य रचना, प्रखर व्यक्तित्व को एक साथ समेटने का प्रयत्न किया गया है। निराला के जीवन के संघर्षों, अभावों और दु:खों को आत्मीयता से लेखक ने रचा है। निराला के निरालापन को विश्वसनीयता से अंकित करने में लेखक को पर्याप्त सफलता मिली है।

विष्णु प्रभाकर की कृति ‘आवारा मसीहा’ में शरत्चंद के जीवन का वर्णन किया गया है। शरत्चंद के जीवन के एक-एक सूत्र को जोड़कर लेखक ने उनकी भावयात्रा को अंकित करने का जोखिम उठाया है। इसके बावजूद कृति में कहीं भी पैबंद नहीं दिखाई पड़ता है। पूरी रचना में विश्वसनीयता के प्रमाण मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त शांति जोशी द्वारा लिखित ‘सुमित्रानंदन पंत – जीवनी और साहित्य’ तथा राजकमल की कृति ‘शिखर से सागर तक’ उल्लेखनीय कृतियाँ हैं । ‘शिखर से सागर तक’ में अज्ञेय की जीवनी को लिखा गया है। इस कृति में चरित नायक को युग संदर्भ और व्यक्तिगत पृष्ठभूमि के माध्यम से समझने की कोशिश की गई है।

आत्मकथा

जीवनी में रचनाकार और नायक अलग-अलग व्यक्ति होता है। आत्मकथा में रचनाकार और नायक की भूमिका एक ही व्यक्ति की होती है। आत्मकथा में स्वयं के अनुभव को वर्णित करना होता है। आत्मकथा में तटस्थ और निरपेक्ष रहने की बहुत बड़ी चुनौती होती है। आत्मकथा के लिए आवश्यक है कि लेखक एक ऐसी अलोचनात्मक दृष्टि का विकास करे जिससे वह आत्मप्रशंसा और आत्मवेदना के भाव से बच सके। आत्मकथा का उद्देश्य अपने जीवनानुभव से दूसरों को परिचय कराना होता है। जीवन के कुछ ऐसे अनसुलझे रहस्य होते हैं जो आत्मकथा में ही लिखे जा सकते हैं। आत्मकथा में रचनाकार को स्वयं का मूल्यांकन करना होता है। स्वयं अपना मूल्यांकन करना बहुत ही कठिन कार्य है।

बनारसीदास की रचना ‘अर्धकथा’ को हिन्दी की प्रथम आत्मकथा माना जाता है। यह रचना काल खंड की दृष्टि से मध्यकालीन साहित्य का अंग है, परन्तु रचना में आत्मकथात्मक तत्व होने के कारण उसे हिन्दी की प्रथम आत्मकथा स्वीकार किया गया है। इस आत्मकथा के बाद मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में किसी दूसरी आत्मकथा का प्रारूप उपलब्ध नहीं होता है। अन्य गद्य विधाओं की भांति आत्यकथा को भी आधुनिक जीवन और साहित्य की उपज माना जाता है। भारतेन्दु ने ‘कुछ आप बीती कुछ जग बीती’ नाम से अपनी आत्मकथा लिखी। इस आत्मकथा में उन्होंने अपने जीवन की रोचक घटनाओं को वर्णित किया है। इस युग के दूसरे महत्वपूर्ण आत्मकथा लेखक के रूप में राधाचरण गोस्वामी का नाम प्रमुख है। श्री राधाचरण गोस्वामी ने अपने निजी जीवन के प्रथम कुछ वर्षों की चर्चा अपनी पुस्तक मेरा संक्षिप्त जीवन चरित्र’ में की है, किन्तु पुस्तक के अत्यंत संक्षिप्त होने के कारण इन्हें आत्मकथा कहने की अपेक्षा आत्मकथात्मक प्रयास कहना अधिक उचित होगा। केवल ग्यारह पृष्ठों की इस पुस्तक से ही गोस्वामी जी के व्यक्तित्व की विशेषताओं का पता चलता है।

सरस्वती के कई अंकों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने आत्मकथा से संबंधित कई लेख प्रकाशित किए थे। इसके अतिरिक्त इस युग में हरिभाऊ उपाध्याय ने महात्मा गांधी की आत्मकथा का हिन्दी में अनुवाद किया था। ‘साधना के पथ पर’ नाम से हरिभाऊ उपाध्याय की मौलिक आत्मकथात्मक कृति भी मिलती है। स्वतंत्रता से पूर्व जिन आत्मकथाओं ने हिन्दी साहित्य में अपना उल्लेखनीय स्थान बनाया है, वे हैं – लज्जाराम मेहता शर्मा की -आपबीती’, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की ‘अपनी खबर’, बाबू गुलाबराय की ‘मेरी असफलताएँ’, श्री राहुल सांकृत्यायन की मेरी जीवन यात्रा’ आदि। ‘आप बीती’ में लेखक ने बहुत सजगता के साथ अपने जीवन की कुछ सीमित एवं महत्वपूर्ण घटनाओं को प्रस्तुत किया है। ये सभी घटनाएँ क्रमबद्ध हैं। इन वृत्तांतों के द्वारा लेखक का व्यक्तित्व और तत्कालीन परिवेश जीवंत हो उठा है। अपनी खबर’ में उग्र ने अपने आरंभिक इक्कीस वर्षों के जीवन को सच्चाई के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस कृति की भाषा अनूठी है। मेरी असफलताएँ’ की भूमिका में बाबू गुलाबराय ने अपनी इस रचना को आत्मचरित कहा है।

यद्यपि यह निबंध शैली में रची गई कृति है। इसमें लेखक ने ईमानदारी के साथ अपने आप पर भी तीखे कटाक्ष किए हैं जो आत्मकथा लेखन की विशेषता है। लेखक ने आत्मविश्लेषण करते हुए स्वीकृत किया है “लेखक भी मैं ठोंक पीटकर बना हूँ। प्रतिभा अवश्य है, परन्तु वह एक तिहाई से अधिक नहीं। मेरे लेखन में दो तिहाई परिश्रम और चोरी रहती है।” राहुल सांकृत्यायन की मेरी जीवन यात्रा’ तीन खंडों में रचित है। अपने जीवन के घुमावदार रास्तों को उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया है।

यशपाल की आत्मकथा ‘सिंहावलोकन’ नाम से खंडों में प्रकाशित हुई है। इस आत्मकथा में उन्होंने क्रांतिकारी जीवन की कहानी कही है। सत्यदेव परिव्राजक की आत्मकथा ‘स्वतंत्रता की खोज में’ में धनहीन और साधनहीन व्यक्ति की कहानी है। चतुरसेन शास्त्री की दो आत्मकथात्मक कृतियाँ ‘यादों की परछाइयाँ’ और ‘मेरी आत्मकहानी’ नाम से मिलती हैं। सेठ गोविन्ददास कृत ‘आत्मनिरीक्षण’ में राजनीतिक गतिविधियों और असहयोग आंदोलन का इतिहास दिया गया है। देवराज उपाध्याय की आत्मकथा ‘बचपन के दो दिन’ तथा ‘यौवन के द्वार पर’ प्रकाशित हुई है। इन कृतियों की रचना मनोवैज्ञानिक आधार पर की गई है।

पांडेय बेचन शर्मा उग्र की ‘अपनी खबर’ नामक आत्मकथा उत्कृष्ट रचना है। अपने आरंभिक इक्कीस वर्षों के जीवन को लेखक ने सच्चाई के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। कृति की संवेदनशीलता को अनूठी भाषा शैली में प्रस्तुत किया गया है। क्या भूलूँ क्या याद करूँ’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ तथा ‘दशद्वार से सोपान तक’ शीर्षक चार भागों में बच्चन की आत्मकथा प्रकाशित हो चुकी है। चार भाग उनके जीवन के चार पड़ाव को सांकेतित करते हैं। बच्चन अपनी आत्मकथा को किस्सागो की शैली में सनाते हैं। जीवन की सच्ची घटना का वर्णन करके वे आत्मकथा को और अधिक रोचक बना देते हैं। निजी जिंदगी की तस्वीर को इतनी स्पष्टता के साथ रखने का साहस बहुत कम लेखकों ने दिखाया है। व्यक्तिगत जीवन और रचनात्मक उपलब्धि के द्वन्द्व को लेखक सूझ-बूझ के साथ प्रस्तुत करता है। आत्मानुभव और जीवन की घटना को ईमानदारी के साथ प्रस्तुत करना बच्चन की आत्मकथा की विशेषता है।

वृन्दावन लाल वर्मा की आत्मकथा ‘अपनी कहानी’ उनके जीवन संघर्षों और शिकारी जीवन की कहानी है। राजनीतिक और सामजिक व्यक्तियों की भी आत्मकथा प्रकाशित हुई, जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’ का है। इसमें राजेन्द्र बाबू के त्यागमय जीवन की कहानी है। फिल्मी जीवन से संबंधित आत्मकथाओं में बलराज साहनी कृत मेरी फिल्मी आत्मकथा’ का विशेष महत्व है। इन आत्मकथाओं के अतिरिक्त हिंदी साहित्य में दूसरी भाषाओं के आत्मकथा का विशाल भंडार मिलता है। विभिन्न भाषाओं आत्मकथा साहित्य को हिंदी में अनूदित किया गया है।

यात्रा वृत्तांत

यात्रा वर्णन साहित्य की एक मान्य विधा है। साहित्य के अंतर्गत होने का मूल कारण यह है कि इसमें मानवीय संवेदना का शीतल स्पर्श है। यायावर में अनुभव की विविधता होती है यह अनुभव मानवीय विवेक को निर्मित करने में सहायक होते हैं। यात्रा वृत्तांत में सैलानी के अनुभवों की व्याख्या नहीं होती है। .. सैलानी एक निश्चित दृष्टिकोण के साथ निश्चित दर्शनीय स्थान को देखने जाता है। उसके अनुभव भी शास्त्रीय कोटि के होते हैं। एक यात्री यात्रा में अपने पड़ाव और ठिकानों के उन समस्त बिंदुओं का स्पर्श करने की कोशिश करता है जो वहाँ की प्रकृति, संस्कृति, इतिहास, स्थापत्य, रीति-रिवाज और कलात्मक विशिष्टता के कारण उसे अनुभूत हुए हैं। यात्रा में उल्लास और ऊर्जा का भाव है। यात्री की दृष्टि में सूक्ष्मता, संवेदनशीलता तथा भावुकता की पहचान होती है।

हिंदी में यात्रा वृत्तांत आधुनिक गद्य विधा के रूप में स्वीकृत है। भारतेन्दु ने अपने छोटे जीवन काल में देश के विविध क्षेत्रों की यात्रा की थी। उनकी जगन्नाथ यात्रा प्रसिद्ध है। यात्रा वृत्तांत के रूप में उन्होंने कुछ संस्मरण लिखे जिसमें सरयू पार की यात्रा’, ‘लखनऊ की यात्रा’ तथा हरिद्वार की यात्रा’ के नाम से लिखी गई टिप्पणियाँ महत्वपूर्ण हैं। भारतेन्दु युग में कुछ विदेश यात्रा के वृत्तांत मिलते हैं। परंतु यह सैलानी के वृत्तांत से कुछ अधिक नहीं हैं। द्विवेदी युग में यात्रावृत्तांत पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। श्रीधर पाठक की देहरादून शिमला यात्रा’ का उल्लेख यात्रा वृत्तांत के रूप में किया जा सकता है। स्वामी सत्यदेव परिव्राजक इस युग के सर्वाधिक महत्वपूर्ण यात्रा वृत्तांतकार हैं। ‘अमरीका दिग्दर्शन’, ‘मेरी कैलाश यात्रा’ । तथा अमरीका भ्रमण’ उनकी उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। मेरी कैलाश यात्रा’ में हिमालय के प्राकृतिक सौन्दर्य का मोहक वर्णन मिलता है। यात्रा मित्र’ में लेखक ने यात्रा की कठिनाइयों का वर्णन करते हुए अपने यात्रा वर्णन को रोमांचक शैली में प्रस्तुत किया है।

घुमक्कड़ शास्त्र के लेखक राहुल सांकृत्यायन श्रेष्ठ यात्री रहे हैं। उनके यात्रा वृत्तांत में यात्रा में आने वाली कठिनाइयों के साथ उस स्थान की प्राकृतिक संपदा, उसका आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन तथा ऐतिहासिक अन्वेषण का तत्व उपस्थित होता है। ‘किन्नर देश में’, ‘कुमाऊँ’, ‘दार्जिलिंग परिचय’ तथा ‘यात्रा के पन्ने’ उनके ऐसे ही यात्रा ग्रंथ हैं। राहुल सांकृत्यायन की यह विशेषता है कि उनके यात्रा वृत्तांत में एक-एक सूक्ष्म ब्यौरे को रोचक शैली में दर्ज किया जाता है। देवेन्द्र सत्यार्थी ने ‘चाँद सूरज के बीरन’ में लोक संस्कृति तथा लोक साहित्य को गीतात्मक रूप में प्रस्तुत किया है।

अज्ञेय के यात्रा वृत्तांत ‘अरे यायावर रहेगा याद’ और ‘एक बूंद सहसा उछली’ यात्रा साहित्य की महत्वपूर्ण रचना है। ‘अरे यायावर रहेगा याद’ में कवि की सूक्ष्मता, कहानीकार की रोचकता और यात्री के रोमांचक साहस को अज्ञेय ने बहुत ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। ‘एक बूंद सहसा उछली’ में यूरोप और अमरीका की यात्राओं का संस्मरण है। इसमें लेखक ने वहाँ की सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक तस्वीर को यात्रा के अनुभव की गहराई से रचने का प्रयास किया है। मोहन राकेश का यात्रा वृत्तांत ‘आखिरी चट्टान’ में दक्षिण भारत की यात्राओं का वर्णन है। प्रभाकर द्विवेदी की ‘पार उतरि कहँ जइहौं’ यात्रा वृत्तांत की एक सरस कृति है। इसमें स्थानीय बोली का पुट देते हुए बस्ती और गोंडा जिले के लोकजीवन को अंकित किया गया है। निर्मल वर्मा के ‘चीड़ों पर चाँदनी’ की चर्चा किए बिना यात्रा वृत्तांत को समाप्त करना अधूरा होगा। ‘चीड़ों पर चाँदनी’ में लेखक ने योरोप की यात्रा का वर्णन किया है। इसमें यात्रा के बहाने वहाँ के इतिहास, दर्शन और संस्कृति से लेखक का सीधा संवाद होता है। निर्मल वर्मा अपनी यात्रा में इतिहास परंपरा और संस्कृति आदि विषयों पर गहराई से अपने विचार व्यक्त करते हैं। उनके यात्रा वृत्तांत में संवेदनशीलता के साथ-साथ बौद्धिक साहस को आमंत्रित किया गया है।

रिपोर्ताज

रिपोर्ताज विधा पत्रकारिता क्षेत्र की विधा है। रिपोर्ट की कलात्मक अभिव्यंजना रिपोर्ताज को साहित्यिक बनाती है। रिपोर्ताज का संबंध वर्तमान से होता है। रिपोर्ताज में यथार्थ की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति होती है। रिपोर्ताज वर्णन में रचनाकार उत्सव, मेले, बाढ़, अकाल, युद्ध और महामारियों के दुख:सुख को जनता के . निकट से देखता है। रचनाकार इन तथ्यों का तटस्थ वर्णन नहीं करके उसे मानवीय संवेदना के अनुकूल प्रस्तुत करता है। जनता के सुख:दुख रिपोर्ताज में आकर हृदयस्पर्शी हो जाते हैं। किसी घटना की प्रामाणिकता को सुरक्षित रखते हुए उसे संवेदनशील रूप में प्रस्तुत करना रिपोर्ताज लेखक का उद्देश्य होता है।

वर्तमान युग विज्ञान का युग है। इस वैज्ञानिक युग में कोई भी कम से कम समय में देश काल की परिस्थितियों, वातावरण आदि से परिचित होना चाहता है। यों तो जनता को समस्त राजनीतिक सांस्कृतिक, सामाजिक, शैक्षिक तथा आर्थिक जगत की खबरें समाचार पत्र की रिपोर्ट के माध्यम से सूचित हो जाती हैं। परन्तु उसमें आकर्षण न होने के कारण कोई उन्हें रुचि से नहीं पढ़ता है। रिपोर्ताज’ इन सारी घटनाओं को कलात्मक उपकरणों से सुसज्जित करके इस रूप में प्रस्तुत करता है कि वे अत्यन्त प्रभावपूर्ण रुचिकर एवं यथार्थता से परिपूर्ण दिखाई पड़ती हैं । इसी कारण पाठक उसे रुचिपूर्वक पढ़ता है। यह अपने लघु आकार के बावजूद भी समुचित शब्द चयन और मार्मिक प्रस्तुतीकरण के कारण अत्याधिक प्रभावपूर्ण और महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ है।

हिंदी साहित्य में रिपोर्ताज लेखन की शुरुआत 1936 के आस-पास हुई थी 1938 में रूपाभ पत्रिका के लिए शिवदान सिंह चौहान का रिपोर्ताज ‘लक्ष्मीपुरा’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। ‘मौत के खिलाफ जिंदगी की लड़ाई’ नाम से चौहान जी का दूसरा रिपोर्ताज हंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। रिपोर्ताज विधा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान रांगेय राघव का है। ‘तूफानों के बीच’ (1946) उनका महत्वपूर्ण रिपोर्ताज संग्रह है। इस रिपोर्ताज में बंगाल के अकाल का मार्मिक चित्रण है। बंगाल का अकाल लेखक के लिए मात्र घटना नहीं है। लेखक उसमें भोक्ता और द्रष्टा भी है। अकाल का चेहरा और भी क्रूर हो जाता है जब अकाल प्राकृतिक विपदा न होकर साम्राज्यवादी शोषण का प्रतिफल बनकर उभरता है। उस अदम्य मानवीय साहस के प्रति लेखक अपनी आस्था को अभिव्यक्त करता है जो उसे विपत्ति से जूझने के लिए प्रेरित करते हैं।

रामनारायण उपाध्याय के रिपोर्ताज ‘गरीब और अमीर पुस्तकों में’ में लेख और जर्नल के तत्व मिले हए हैं। इसे व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया है । उपेन्द्रनाथ अश्क के रिपोर्ताज रेखाएँ और चित्र’ में संकलित है। ‘ऋण जल धन जल’ तथा ‘नेपाली क्रांति कथा’ फणीश्वरनाथ रेणु के प्रसिद्ध रिपोर्ताज हैं। ‘ऋण जल धन जल’ में बिहार के अकाल प्रभावित सूखाग्रस्त क्षेत्रों का विवरण है तथा ‘नेपाली क्रांति कथा’ में नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के लिए हुए आंदोलनों का वर्णन है। धर्मवीर भारती के ‘युद्धयात्रा’ में पाकिस्तान के युद्ध का वर्णन है। ‘प्लाट का मोर्चा’ शमशेर बहादुर सिंह की उल्लेखनीय रिपोर्ताज कृति है।

साक्षात्कार

इंटरव्य या साक्षात्कार गद्य विधा की नवीन उपलब्धि है। इंटरव्यू का प्रसार व्यावसायिक पत्रिकाओं में ही नहीं हुआ है, अपितु साहित्यिक विधाओं में भी साक्षात्कार का महत्व बढ़ रहा है। साक्षात्कार साहित्य की एक लोकप्रिय विधा के रूप में प्रस्तावित हुई है। समयाभाव में पाठक साक्षात्कार के माध्यम से ही व्यक्ति का विचार तर्क और अनुभव जानना चाहता है। संवाद शैली के कारण साक्षात्कार की संप्रेषणीय संभावना अधिक होती है साक्षात्कार की परंपरा भारतेन्दु से शुरू होती है। पं० राधाचरण गोस्वामी ने भारतेन्दु से प्रश्न पूछे थे और उनके प्रश्नोत्तर को प्रकाशित किया था। पं० बनारसी दास चतुर्वेदी के दो साक्षात्कार ‘रत्नाकर जी से बातचीत’ तथा प्रमचंद के साथ दो दिन’ विशाल भारत में सितंबर, 1931 तथा जनवरी, 1932 में प्रकाशित हुए थे। 1939 में प्रभाकर माचवे ने जैनेन्द्र कुमार तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल के साक्षात्कार लिये थे जो जैनेन्द्र के विचार’ नामक पुस्तक में संकलित हैं। पाँचवे दशक में बेनीमाधव शर्मा विरचित ‘कवि दर्शन’ साक्षात्कार साहित्य की प्रथम स्वतंत्र कृति मानी जाती है। इसमें तत्कालीन साहित्यकार मैथिलीशरण गुप्त, रामचंद्र शुक्ल आदि के साक्षात्कार हैं। पद्म सिंह शर्मा कमलेश का साक्षात्कार मैं इनसे मिला’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इसमें कृतिकारों को समकालीन जीवन दर्शन के संदर्भ में समझने का प्रयत्न किया गया है।

परवर्ती साक्षात्कार साहित्य में ‘अपरोक्ष’ नाम से प्रकाशित पुस्तक में अज्ञेय के आठ साक्षात्कार संकलित हैं। इसमें अज्ञेय के चिंतन और सृजन की मनोभूमि स्पष्ट होती है। श्रीकांत वर्मा का आक्तोवियो पॉज से लिया गया इंटरव्यू साक्षात्कार साहित्य का प्रतिमान है। इस साक्षात्कार में बीसवीं सदी की बौद्धिक स्थिति पर बहस की गई है। श्रीकांत और पॉज दोनों प्रखर बुद्धिजीवी हैं। दोनों के संवादों में समकालीन विश्व के परिदृश्य को विभिन्न कोणों से समझने का प्रयत्न मिलता है। इसी प्रकार निर्मल वर्मा से अशोक वाजपेयी और मदन सोनी द्वारा इंटरव्यू लिया गया था। पूर्वाग्रह पत्रिका के निर्मल वर्मा विशेषांक में वह साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है। निर्मल वर्मा समकालीन विश्व की वैचारिक स्थितियों को स्पष्ट करते हुए अपने सृजन परिवेश को अभिव्यजित किया है। नामवर सिंह और रामविलास शर्मा के साक्षात्कार भी प्रकाशित हो चुके

डायरी

डायरी वस्तुत: व्यक्ति की अपनी निजी सम्पत्ति है। किन्तु डायरी हस्तलिखित रूप में प्रकाशन के उपरान्त सामान्य पाठक के लिए सुलभ हो जाती है, इस प्रकार उसकी वैयक्तिकता समाप्त हो जाती है। वह साहित्य संसार की सम्पत्ति हो जाती है। डायरी कितनी लोकप्रिय है यह डायरी लेखक की महानता और लोकप्रियता पर निर्भर होता है। वस्तुत: डायरी के पृष्ठों पर डायरी लेखक की आत्मा का प्रकाश होता है। यदि आप किसी के निकटतम होना चाहते हैं, उसके अंतरंग होना चाहते हैं, उसे उसके अंतर्तम से पहचानना चाहते हैं, तो उसकी डायरी के पन्नों को पढ़ें। निश्चित ही आप उसके व्यक्तित्व से भली भाँति परिचित हो जाएँगे। आज डायरी एक नई साहित्यिक विधा बन गई है। डायरी इसलिए डायरी नहीं होती कि उसमें ऊपर रेखा के पास तिथि का उल्लेख रहता है, वरन् डायरी गद्य लेखन की एक विशिष्ट कला है जो लेखक की तीखी प्रतिक्रिया और असामान्य किन्तु विशिष्ट रुचि की प्रतीक होती है। उसमें लेखक के आंतरिक संसार का छायाचित्र मिलता है।

स्वतंत्र रूप से डायरी साहित्य की रचना हिन्दी में बहुत अधिक नहीं हुई है। फिर भी कई कृतियाँ उल्लेखनीय हैं। घनश्यामदास बिड़ला की डायरी का प्रकाशन ‘डायरी के पन्ने’ नाम से हुआ है। इस विधा की अन्य उत्लेखनीय कृतियों में सुन्दरलाल त्रिपाठी की दैनन्दिनी’ डॉ० धीरेन्द्र वर्मा की मेरी कालिज की डायरी सियारामशरण गुप्त की दैनिकी’ हैं । मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में विचारक के मंथन का तनाव प्रकट होता है। शमशेर की डायरी में उनके रोमांटिक मिजाज की अनुभूति मिलती है। मोहन राकेश की डायरी में उनके जीवन संघर्षों का वर्णन मिलता है। मोहन राकेश की डायरी उनके निजी जिंदगी की पर्तो को खोलती प्रतीत होती है। इससे उनकी निजी जिंदगी और सृजनात्मक रचना के बीच की अन्विति को क्रमिक रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।

सारांश

निबंध तथा अन्य गद्य विधाओं की इस इकाई को पढ़ने के बाद आप गद्य की विविध विधाओं के ऐतिहासिक संदर्भ को समझ गए होंगे। साहित्यिक कालखंड में विधाओं के अंतर्गत जो परिवर्तन हुए हैं, उससे भी आप परिचित हो गए होंगे। इस इकाई में हमने निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, रिपोर्ताज, साक्षात्कार और डायरी विधा की महत्वपूर्ण रचनाओं के संबंध में भी जानकारी दी है। इन विधाओं की विकास यात्रा को समझने के साथ-साथ आप विधाओं के उद्देश्य को भी समझ गए होंगे।

अभ्यास प्रश्न

  1. विविध युगों के संदर्भ में निबंध की विकास यात्रा को रेखांकित करें।
  2. निम्नलिखित में से किन्हीं दो पर टिप्पणी लिखें: क) रेखाचित्र ख) संस्मरण जीवनी घ) आत्मकथा

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