मैथिलीशरण गुप्त का काव्य (राष्ट्रीय जागरण नवजागरण और नारी चेतना के संदर्भ में)

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • मैथिलीशरण गुप्त के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ जान सकेंगे
  • “राष्ट्रीय नवजागरण” में गुप्त जी के योगदान को रेखांकित कर सकेंगे
  • गुप्तजी की नारी भावना को समझ सकेंगे

इससे पूर्व आपने भारतेंदु हरिश्चंद्र के काव्य का अध्ययन किया है। प्रस्तुत इकाई में आप द्विवेदी युग के प्रमुख कवि मैथिलीशरण गुप्त (1886-1964) के काव्य का अध्ययन करेंगे। द्विवेदी युग का नामकरण ‘सरस्वती’ पत्रिका (1901 ई0) के सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर हुआ है क्योंकि द्विवेदी जी अपने समय की प्रातिनिधिक साहित्यिक प्रवृत्तियों को पहचानने, परखने और उन्हें एक सही दिशा की ओर प्रवृत्त करवाने में ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से अग्रणीय भूमिका निभाते रहे हैं।  भारतेंदु हरिश्चंद्र और भारतेंदु मण्डल के कवि एक ओर तो साहित्य की रीतिवादी परम्परा से (भाव और अभिव्यंजना दोनों रूपों में) छुटकारा पाने की छटपटाहट से व्याकुल रहे हैं और दूसरी ओर बदलती राजनीतिक, सामाजिक स्थितियों को साहित्य का वृहत्तर विषय बनाने की ओर भी अग्रसर रहे हैं।

द्विवेदी युग तक आते-आते साहित्य और समाज का यह द्वंद्व तीव्रतर होता दिखाई पड़ता है। राष्ट्रीय नवजागरण और राष्ट्रीय आंदोलन के आलोक में साहित्य नख-शिख वर्णन वाली रीतिवादी परम्परा से स्वयं को काफी हद तक मुक्त कर लेता है! यथार्थ की बदली हुई परिस्थितियों मे भाषा, विषय और. कहने का ढंग, इन तीनों में नये रूप और नये विषय की तलाश द्विवेदी युग की एक मुख्य विशेषता रही है। गद्य की भाषा तो 19वीं सदी में ही खड़ी बोली के रूप में अपने पाँव जमा चुकी थी अब पद्य की भाषा खड़ी बोली/बोलचाल की भाषा हो, इस का प्रयास द्विवेदी युग में होता दिखाई पड़ता है। साहित्य को जाँचने-परखने और सराहने की दृष्टि भी समय और समाज की ज़रुरतों की कसौटी पर कसी जाने लगती है।

अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना सन् 1885 में हुई थी और गुप्तजी का जन्म 1886 में। घर के वैष्णवी संस्कारों और निजी जीवन के अनुभवों के अलावा उनके काव्य-व्यक्तित्व को बनाने में तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन, समाज सुधार आंदोलन का भी मुख्य हाथ रहा है। गुप्त जी 1901 से स्वाधीनता प्राप्ति के बाद तक लिखते रहे। हिंदी में उर्दू, संस्कृत, बंगला से अनुवाद कार्य भी उन्होंने किया। उन की रचनाओं की सूची बहुत लम्बी है। आज़ादी के बाद तक वे लेखन में लगे रहे। प्रबंध काव्य, खण्ड काव्य, गीति काव्य, पद्य नाटक, रूपक कविताएँ इत्यादि काव्य रूपों में उन्होंने 50 से अधिक रचनाओं का सृजन किया।

1909 में उनकी प्रथम महत्वपूर्ण रचना ‘‘रंग में भंग” प्रकाशित हुई। अपनी रचनाओं के द्वारा तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए गुप्त जी ने जन-जन में राष्ट्रीय चेतना भरने का वृहत्तर कार्य ही नहीं किया बल्कि समाज में व्याप्त बुराईयों को लक्ष्य बनाकर उन्हें दूर करने का स्वर भी बुलंद किया। भारतीय समाज की रीढ़ किसान जीवन भी उनकी चिंता का केंद्र बिंद्र बना है। गुप्तजी के काव्य में अभिव्यक्त राष्ट्रीय नवजागरण की इन्हीं मुख्य चिंताओं पर हम इस इकाई में विचार करेंगे।

गुप्तजी के काव्य के मूल स्वर

राष्ट्रीय नवजागरण

1903 या 1904 के आसपास मैथिलीशरण गुप्त आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आए थे। इसके बाद ही वे काव्य की पारंपरिक ब्रजभाषा और रीतिवादी काव्य परंपरा से मुक्त हुए और साहित्य और समाज के नये रिश्तों की पहचान की उनकी यात्रा आरंभ हुई। इसमें ‘सरस्वती’ पत्रिका ने अपने जनतांत्रिक विचारधाराओं वाले निबंधों, आलेखों के द्वारा न केवल गुप्त जी का अपितु द्विवेदी युग के अन्य तमाम कवि लेखकों का भी मार्गदर्शन किया।

द्विवेदी जी के साथ गुप्त जी का संबंध गुरू शिष्य का था। गुप्त जी को काव्य संस्कार द्विवेदी जी से जितने प्राप्त हुए उतने किसी और से नहीं। द्विवेदी जी के कारण और आसपास के, जन जीवन के माहौल के कारण भी गुप्त जी एक सजग कवि के रूप में अपनी कविता को देश और जन जीवन के साथ जोड़कर विकसित करने के स्वप्न को पूरा करने की कोशिश करते हैं। शुरू की उनकी कविताएँ जो अधिकांशतः सरस्वती में ही प्रकाशित हुई एक प्रकार से उनके काव्य संस्कारों को पुखा करने में सहायक की भूमिका के रूप में दिखाई पड़ती हैं। ब्रज छोड़कर खड़ी बोली में आना, कविता को तराशमाँज कर पूरा करना, विभिन्न विषयों का चयन आदि ये सब बातें उन्होंने द्विवेदी जी एवं सरस्वती के सानिध्य में ही सीखीं। इन्हीं दिनों द्विवेदी जी सरस्वती में चित्रों के नीचे छापने के लिए एकाध पंक्तियाँ लिखने का भी गुप्त जी को आदेश देते, जिसे वे तुरंत पूरा कर देते थे। कभी-कभी एक चित्र पर पूरी कविता ही लिख डालते थे।

सरस्वती में छपने वाले ये चित्र महाभारत के प्रसंगों पर ( उत्तरा से अभिमन्यु की विदा, द्रोपदी दुकूल, कीचक की नीचता, कुंती और कर्ण, शंकुन्तला को दुर्वासा का श्राप, रत्नावली आदि) अधिक होते थे। इनके साथ गुप्त जी द्वारा लिखित काव्यपंक्तियाँ छपी रहती थीं। इन्हीं प्रयासों में कहीं गुप्त जी को जयद्रथ वध, भारत भारती आदि लिखने की प्रेरणा मिली होगी। 1909 में उनका प्रथम काव्य रंग में भंग प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति मिलती है।

राष्ट्रीय चेतना की यह परम्परा गुप्त जी को भारतेन्दु युग से मिली। किंतु भारतेन्दु युग की राष्ट्रीय चेतना और गुप्त जी की राष्ट्रीय चेतना में अंतर है, परिस्थितियों में भी अंतर हैं। गुप्त जी के समय में अंग्रेज़ों का चरित्र पूरी तरह खुल कर सामने आ गया था। उनसे सामना करने के लिए राजनीतिक स्तर पर कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। राजभक्ति का भारतेन्दु युग वाला द्वंद्व यहाँ नहीं था। इसलिए गुप्त जी की कविताओं में राष्ट्रीय नवजागरण के स्वर ज्यादा विकसित, ज्यादा उग्र एवं आक्रामक रूप से दिखाई पड़ते हैं। महाभारत के प्रसंगों वाले चित्रों पर कविता पंक्तियाँ लिखते हुए अपने अतीत, अपनी संस्कृति, अपना इतिहास और अपने गौरव का महाभाव उनकी रचनाओं का आधार बन जाता है। राष्ट्रीय नवजागरण के लिए वे अतीत की इसी मिथकीय दुनिया को संस्कारों से, सामूहिक स्वप्नों से निकाल कर वर्तमान में प्रक्षेपित करते हैं। भारत भारती इस दृष्टि से उनकी बहुत लोकप्रिय एवं चर्चित रचना रही है।

खण्ड काव्य के रूप में इस रचना की प्रेरणा चाहे उन्हें हाली के मुसद्दस से मिली किंतु सन् 1912 में प्रकाशित इस रचना में राष्ट्र के प्रति उनकी संवेदना बहुत मुखर होकर सामने आती है। भारत भारती में अतीत, वर्तमान एवं भविष्य तीन खंड हैं, जिनमें अतीत खण्ड में गुप्त जी ने बहुत विस्तार से भारत के अतीत का वर्णन कर देशवासियों को अपने स्वर्णिम इतिहास, जातीय पहचान का परिचय देकर उन्हें इज्ज़त और सम्मान से खड़े होने की प्रेरणा देने का कार्य किया है।

मुसद्दस और भारत भारती दोनों अपने वर्णित विषय में और उद्देश्य में समान हैं किंतु भिन्न देश-काल के कारण उनमें निहित दृष्टिकोण और भावना में कुछ मौलिक अंतर भी आ गया है। ‘मुसहस’ भारत भारती से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व लिखी गयी थी। इसकी भूमिका में हाली लिखते हैं  जमाने का नया ठाठ देखकर पुरानी शायरी से दिल भर गया था और झूठे ढकोसले बाँधने से शर्म आने लगी थी। कौम के एक सच्चे खैरख्वाह ने आकर मलामत (झिड़कना) की और गैरत (शर्म) दिलाई कि हैवानेनातिक (मुँह से बोल लेने वाला जीव) होने का दावा करना और खुदा की दी हुई जुबान से कुछ काम न लेना बड़े शर्म की बात है। “कौम का यह सच्चा खैरख्वाह” सर सैयद अहमद खाँ था जो 1857 की क्रांति की विफलता के बाद मुसलमानों में छायी निराशा, पस्ती और अंग्रेज़ विरोधी माहौल में मुसलमानों में एक बहुत बड़े सांस्कृतिक आंदोलन की अगुवाई कर रहा था।

सर सैयद से प्रेरणा पाकर हाली ने अपनी कविता का पूरा स्वर बदला और जाति तथा देश के लिए मंगलकारी उद्देश्यपूर्ण रचनाएँ लिखनी शुरू कर दी। मुसद्दस इसी कड़ी की एक रचना है जिसमें “अपने देश और अपनी जाति से ही नहीं, संसार की समस्त जातियों और देशों से उनका स्वाभाविक प्रेम झलकता है। उनकी उन्नति से ईष्या का नहीं, स्पर्धा का भाव उनमें जोश मारता है। एक स्थान पर वे कहते हैं कि अगर कोई ऐसा ऊँचा टीला हो कि वहाँ से सारी दुनिया नज़र आती हो, और फिर उस पर एक ज्ञानी चढ़े तो वह देखेगा:

वह देखेगा हरसू (हर तरफ) हज़ारों चमन वाँ

बहुत ताज़ागर सूरते-बागे-रिज़वाँ (स्वर्ग के उद्यान के समान)

बहुत उनसे कमतर, प’ सरसब्जो-खन्दाँ (हरे-हरे हँसते हुए)

बहुत, खुश्क औं बेतरावत – मगर हाँ

नहीं लाए गो बर्गो-बार (पत्ते और फल) उनके पौदे

नज़र आते हैं होनहार उनके पौदे।

इस पूरे बंद के लहजे में संसार की विभिन्न जातियों से हाली का वही प्रेम टपकता है जो एक पुराने माली का अपने उद्यान से होता है।” 

बीसवीं सदी के प्रारंभ में मुसद्दस की कमी पूर्ति करते हुए भारत भारती की रचना हुई। जैसा कि इसकी भूमिका में गुप्त जी लिखते हैं : “यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में भारी अंतर है। अन्तर न कहकर इसे वैपरीत्य कंहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कलाकौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है।

परंतु बड़े खेद की बात है कि हम लोगों के लिए हिंदी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता नहीं लिखी गयी जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्यत के लिए प्रोत्साहन भी। इस अभाव की पूर्ति के लिए जहाँ तक मैं जानता हूँ, कोई यथोचित प्रयत्न नहीं किया गया। परंतु देशवत्सल सज्जनों को यह त्रुटि बहुत खटक रही है।

ऐसे ही महानुभावों में कुर्सी सुदौली के अधिपति माननीय श्रीमान्, राजा रामपाल सिंह जी के.सी.आई.ई. महोदय हैं। कोई दो वर्ष पूर्व मैंने ‘पूर्वदर्शन’ नाम की एक तुकबन्दी लिखी थी। उस समय चित्त में आया था कि हो सका तो कभी इसे पल्लवित करने की चेष्टा भी करूँगा। इसके कुछ ही दिनों बाद उक्त राजा साहब का एक कृपा पत्र मुझे मिला. जिसमें श्रीमान ने मौलाना हाली के मुसद्दस को लक्ष्य करके एक कविता पुस्तक हिन्दुओं के लिए लिखने का मुझसे अनुग्रहपूर्वक अनुरोध किया। और इस अनुरोध को पूरा करते हुए गुप्त जी भारत भारती में अपने वैष्णवी संस्कारों, प्रगतिशील भावना और वर्णव्यवस्था के सामाजिक आदर्श की परिकल्पना ले कर उतरते हैं। वे हिंदू समाज में व्याप्त निराशा को दूर करने के लिए प्राचीन आदर्श व्यवस्था की पुनःस्थापना का स्वप्न देखते हैं।

इस प्रकार मुसहस में हाली का सारा ध्यान जहाँ वर्तमान पर है, वर्तमान को किस प्रकार ठीक किया जाए, अपनी जाति को देश की अन्य प्रगतिशील जातियों के समकक्ष कैसे लाया जाए – इस पर है, वहीं भारत भारती का कवि मूलतः सुधारवादी भावनाओं में रोमांटिक रूप से अतीतानुरागी बन कर सामने आता दिखाई पड़ता है। इसलिए वह चतुर्वर्ण व्यवस्था का समर्थन करता हुआ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों से भी अपने धर्म का पालन करने का उपदेश देता है :

शूद्रों, उठो तुम भी भारतभूमि डूबी जा रही है

योगियों का भी अगम जो व्रत तुम्हारा है वही

जो मातृसेवक हो वही सुत श्रेष्ठ जाता है गिना

कोई बड़ा बनता नहीं लघु और नम्र हुए बिना।

एक तरह से गुप्त जी की भारत भारती की रचना के समय जो समझ बनी समाज की, देश की, समाज सुधार की, राष्ट्रीय चेतना की – वह समझ यही थी कि जातिमूलक सुधारों से देश का गौरव वापिस लाया जा सकता है, पहले से स्थापित समाज व्यवस्था के अनुरूप आदर्शों को अपनाकर सभी का भला हो सकता है।

इस प्रकार भारत भारती में गुप्त जी देश के अतीत का एक स्वर्णिम ढाँचा, एक. व्यवस्था की जो परिकल्पना करते हैं, जातीय एकता की एक पहचान का जो वास्ता देते हैं, आर्य सभ्यता, आर्य जाति का जो गौरवशाली इतिहास बुनते हैं, उसे फुटनोट में दिये उदाहरणों से और पुष्ट करके मानों उस पर तथ्यों की मुहर भी लगाते चलते हैं।

नवजांगरण के दौर में अतीत से निश्चय ही प्रेरणा ली जाती है, अपने वर्तमान के लिए गुप्त जी प्रेरणा तो लेते ही हैं किंतु अतीत को वर्तमान में प्रक्षेपित भी कर देते हैं। और मिलीजुली सांझी संस्कृति, परम्परा, विरासत जिसमें विभिन्न वर्गों, वर्गों, धर्मो के लोग रहते हैं, विभिन्न भाषा भाषी समुदाय रहते हैं – उनमें एकता स्थापित करना तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन की आवश्यकता को गुप्त जी सभी के प्रति समभाव प्रदर्शित करके पूरा करने की कोशिश करते हैं। इसलिए भारत के अतीत का वर्णन करते समय मुसलमानों को जहाँ वह आक्रमणकारी मानते हैं, गोवध का विरोध करते हैं, औरंगजेब के शासनकाल की निंदा करते हैं वही राष्ट्रीय आंदोलन की जरूरत के मुताबिक काबा और कर्बला भी लिखते हैं और सिक्ख गुरुओं की भी प्रशंसा करते हैं।

इन सबके पीछे गुप्त जी की यह समझ काम करती दिखाई पड़ती है कि अतीत में हिंदुओं की एक जातीय पहचान थी, आर्य जाति और एक धर्म था वैदिक धर्म जिसे शकादि, हूण, मुसलमानों ने आकर नष्ट करने की कोशिश की, फिर अंग्रेज़ों ने भी आक्रमणकारियों के रूप में आकर यही किया। हालाँकि इस समझ से अंग्रेज़ों को काफी लाभ हुआ। क्योंकि वे तो चाहते ही थे कि हिंदू, मुस्लिम दोनों कौमें, आपस में दुश्मन बन जाएँ। बावजूद इन सब बातों के यदि ‘भारत भारती’ इतनी लोकप्रिय हुई और आंदोलनकर्ता तक इसकी पंक्तियों को गुनगुनाते हुए आगे बढ़ते थे तो इसलिए कि इसमें अपने युग की कई ऐसी प्रवृत्तियों को प्रेरणा देने की शक्ति थी जिससे नवयुवकों में जोश और आत्मसम्मान की भावना भर जाती थी :

हे भाइयों, सोये बहुत, अब तो उठो, जागो, अहो।

देखो जहाँ अपनी दशा, आलस्य को त्यागों अहो।

कुछ पार है, क्या क्या समय के उलट फेर न हो चुके

अब भी सजग होगे न क्या ? सर्वस्व तो हो खो चुके।

 

आओ, मिलें सब देश-बान्धव हार बन कर देश के,

साधक बनें सब प्रेम से सुख-शांतिमय उद्देश्य के।।

क्या साम्प्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता अहो।

बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की कहो ?

ऐसी पंक्तियाँ पढ़कर किसके मन में देश प्रेम का ज्वार नहीं उठेगा !

गुप्त जी के बारे में हिंदी साहित्य का इतिहास में आचार्य शुक्ल लिखते हैं : “ गुप्त जी की प्रतिभा की सबसे बड़ी विशेषता है कालानुसरण की क्षमता अर्थात उत्तरोत्तर बदलती हुई भावनाओं और काव्यप्रणालियों को ग्रहण करते चलने की शक्ति। इस दृष्टि से हिंदी भाषी जनता के प्रतिनिधि कवि ये निःसंदेह कहे जा सकते हैं।”

कालानुसरण की क्षमता निश्चय ही गुप्त जी में थी। देश की वर्तमान स्थिति का बेबाक वर्णन उन्होंने भारत भारती के वर्तमान खंड में किया है। गरीबी और अमन, व्यापार, शिक्षा आदि समाज का कोई भी चित्र उनसे छिपा नहीं रहा। 1916 में जब गांधी जी भारतीय राजनीति में सक्रिय हुए तो वे गांधी जी से भी बहुत प्रभावित हुए। राष्ट्रीयता की नयी चेतना, सविनय अवज्ञा आंदोलन की भावना, गांधी के नैतिक राजनीतिक विचार सत्य और अहिंसा, चर्खा और गांधी – गांधीवाद के ये सभी आदर्श गुप्त जी ने अपनाए। यहाँ तक कि छायावादी कविता के अनुसार प्रगीत भी उन्होंने लिखे किंतु सारी राष्ट्रीयता, सारा स्वदेश प्रेम अतीत मुखोपेक्षी जातीय मूलक सुधारवादी राष्ट्रीयता में ही रंगा रहा। भारत भारती से काव्य भावना की जो आधारभूमि कवि की बनी, आने वाली सभी रचनाओं की दिशा यहीं से तय हो गयी। इस आधारभूमि पर साकेत, यशोधरा, द्वापर, सिद्धराज आदि बहुत सी कृतियाँ आयीं, सफलता, लोकप्रियता और चर्चा का विषय भी बनीं किंतु सारे नये. अनुभव, अन्ततोगत्वा काव्य संस्कार की उसी भावभूमि पर निर्मित हुए जिसकी अभी हमने चर्चा की।

किसान जीवन

किसान जीवन के यथार्थ को अपवाद स्वरूप गुप्तजी ने बिना, अतीत का सहारा लिए ठोस सामाजिक भूमिका पर रखकर निर्मित किया है। कहा जा सकता है कि ‘किसान’ (1915) खण्ड काव्य के द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन में किसान और किसान के जीवन को वे एक मुख्य प्रश्न बनाकर चिंताओं के केन्द्र में लाये। हालाँकि इसकी प्रेरणा भी उन्हें 19वीं सदी में ही देश में किसानों की बदतर जीवन स्थिति से ही मिली होगी। जमींदारी प्रथा के चलते किसानों के जीवन की स्थिति इतनी अधिक बिगड़ गई थी कि वे खेत मज़दूर बनकर भी रोजी-रोटी पूरी नहीं कर पाते थे। इसलिए रोजी-रोटी की तलाश में उन्हें घर छोड़कर बाहर निकलना पड़ा और अनेकों किसान शर्तबंद कुली बनाकर भारत से बाहर फीजी, मारिशस, ट्रिनीडाड आदि द्वीपों पर भेजे जाने लगे।

इस पर देश में राजनीतिक स्तर पर भी प्रतिक्रिया हुई। दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मजदूरों पर होने वाले अत्याचारों का गांधी जी ने विरोध किया। 1914 में तातेराम सनाद्य के फीजी संस्मरणों को श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने फीजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष शीर्षक से लिखा। यह पुस्तक बहुत चर्चित हुई और अंग्रेज़ी सरकार से यह माँग की जाने लगी कि वह भारतीय किसान मजदूरों को विदेश भेजना बंद करे और भेजे गये मज़दूरों को वापिस बुलाया जाए। इसी अवसर पर गुप्त जी ने किसान खण्डकाव्य लिखा। इसकी प्रेरणा गुप्त जी को द्विवेदी जी के किसानों की हालत का बयान करने वाले निबंधों से मिली होगी लेकिन देश की वस्तुस्थिति किसी से भी छिपी नहीं थी। भारतीय जीवन की आधारभूत आर्थिक नींव खेती ही रही है। अंग्रेज़ी सत्ता के शोषण के चक्र बले सबसे अधिक नुकसान सामान्य किसानों का ही हुआ।

अंग्रेज़, मनसबदार, बड़े बड़े जमींदार, नवाब, रैयतदार इन सब के शोषण का शिकार वह किसान ही बना जो अपनी मेहनत से जमीन जोत कर दो जून की रोटी का इंतज़ाम करता था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने “संपत्तिशास्त्र’ नामक एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी थी। इसी पुस्तक में किसानी जीवन का ज़िक्र करते हुए उन्होंने लिखा: “खेतिहरों का व्यवसाय या पेशा खेती करना है और खेती खेतों में होती है। (हिन्दी) प्रांतों में जितनी ज़मीन खेती करने लायक है, कुछ को छोड़कर बाकी सभी के मालिक जमींदार, ताल्लुकेदार, नंबरदार और राजा रईश बन बैठे हैं। वे काश्तकारों से खूब लगान लेते हैं, उसे समय-समय पर बढ़ाते भी हैं और कारण उपस्थित हो जाने पर उन्हें खेतों से बेदखल भी कर देते हैं।

इस संबंध में जो कानून बने हैं वे काश्तकारों के सुभीते के कम और जमींदारों के सुभीते के अधिक हैं जब पैदावार बहुत कम हो जाती है और लगान बेबाक नहीं होता तब कर्ज़ लेना पड़ता है। कम से कम कर्ज़ की मात्रा बढ़ती जाती है और एक दिन घर द्वार, बैल बछिया सब नीलाम हो जाते हैं। खेती ही प्रधान व्यवसाय ठहरा।’ इसी प्रकार उन्हीं दिनों “सरस्वती’ में किसान जीवन पर अन्य लेखकों के भी सारगर्भित लेख, निबंध छपते रहते थे। गुप्त जी की नज़रों से भी किसानी जीवन अछूता नहीं था। वे भी यह जानते थे कि किसानों की ऐसी हालत का कारण अंग्रेज़ी सरकार की यहाँ से अन्न विदेशों में ले जाने की नीति ही थी। “भारत-भारती’ में इसका वर्णन वे यूँ करते हैं :

“अब पूर्व की-सी अन्न की होती नहीं उत्पत्ति है

पर क्या इसी से अब हमारी घट रही संपत्ति है?

यदि अन्य देशों को यहाँ से अन्न जाना बंद हो,

तो देश फिर से सम्पन्न हो, क्रंदन रुके, आनंद हो।

अंग्रेज़ों के साथ-साथ गुप्त जी प्रकृति और मौसम को भी किसानों की ऐसी बदहाली के लिए जिम्मेवार ठहराते हैं :

हेमंत में बहधा घनों से पूर्ण रहता व्योम है,

पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है

हो जाय अच्छी भी फसल पर लाभ कृषकों को कहाँ?

खाते सवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे कहाँ?

आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में

अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमन्त में।

लेकिन भारतीय किसान विपरीत परिस्थितियों में भी कभी हार नहीं मानता और पूरी कर्मठता से श्रम में लीन रहता है। इसका चित्रण करना भी गुप्त जी नहीं भूलते :

बरसा रहा है रवि अनल भूतल तवा-सा जल रहा,

है चल रहा सन-सन पवन, तन से पसीना बह रहा,

देखो कृषक शोषित सुखाकर हल तथापि चला रहे,

किस लोभ से इस अर्चि में वे निजशरीर जला रहे।

मध्यातन है उनकी स्त्रियाँ ले रोटियाँ पहुँची वहीं, ,

हैं रोटियाँ रूखी, खबर है शाक की उनको नहीं।

संतोष से खाकर उन्हें वे, काम में फिर लग गयीं,

भरपेट भोजन पा गये तो भाग्य मानो जग गये।

“भारत-भारती” के अलावा किसानों के जीवन पर केंद्रित ‘किसान’ खण्डकाव्य गुप्त जी की ऐसी रचना है जो इतिहास, पुराण का सहारा नहीं लेती बल्कि सीधे-सीधे किसानों के सामाजिक यथार्थ को हूबहू हमारे सामने प्रस्तुत करती है। इसमें विस्तार से गुप्त जी ने किसान जीवन की दुर्दशा को संवेदनात्मक रूप से अभिव्यक्त किया है। इस खण्डकाव्य को कवि ने आठ सर्गों में बाँटा है, जिसमें आत्मचरितात्मक रूप में किसान जीवन की कथा “प्रार्थना’ से शुरु होकर “बाल्य और विवाह”, “गार्हस्थ’, “सर्वस्यान्त”, “देश त्याग”, “फिजी”, “प्रत्यावर्तन” और “अंत” शीर्षकों में पूरी होती है। “प्रार्थना” सर्ग में प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में भारतीय किसान की दुर्दशा का चित्रण है :

कृषि ही थी तो विभो। बैल ही हम को करते,

करके दिनभर काम शाम को चारा चरते।

कुत्ते भी हैं किसी भाँति दग्धोदर भरते,

करके अन्नोत्पन्न हमीं हैं भूखों मरते।

 

प्रभुवर हम क्या कहें कि कैसे दिन भरते हैं?

अपराधी की भाँति सदा सबसे डरते हैं।

याद यहाँ पर हमें नहीं यम भी करते हैं

फिजी आदि में अन्त समय जाकर मरते हैं।

(1850 के लगभग फिजी, ट्रिनीडाड और मारिशस आदि द्वीपों पर खेतों में काम करने के लिए अंग्रेज़ भारतीय मजदूर किसानों को ले जाने लगे थे। कुछ रास्ते में ही मर जाते थे। वहाँ पर भी उन्हें दयनीय जीवन बिताना पड़ता था। वापिस आना संभव नहीं था। इन्हीं मज़दूर किसानों की मेहनत के बल पर ये द्वीप आज फल फूल रहे हैं और इन्हीं की संतानें आज वहाँ रह भी रही हैं।)

इसी प्रकार “बाल्य और विवाह” में किसान के कैशोर्य जीवन का चित्रण है, “सर्वस्वान्त” में किसान के हृदय की चीत्कार सुनाई पड़ती है। फिजी में किसानों द्वारा देश छोड़ अनजाने द्वीपों पर पापी पेट की खातिर जाने की व्यथा का मार्मिक वर्णन है। कुल मिलाकर किसान कृति भारतीय किसान के वास्तविक जीवन की पीड़ा को एक महत्वपूर्ण प्रश्न बनाकर सामने रखती है।

संक्षेप में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि राष्ट्रीय आंदोलन में नवजागरण के जो भी प्रश्न उठते रहे, देशभक्ति का प्रश्न, सभी भाषा-भाषी, सम्प्रदाय, जाति, संस्कृतियों में एकता का प्रश्न, स्त्री शिक्षा, पुरुषों के साथ स्त्री समानता का प्रश्न आदि सभी प्रश्नों को गुप्त जी ने अपनी रचना का विषय बनाया और काफी उग्र एवं आक्रामक ढंग से सामाजिक बुराइयों को उजागर करते हुए उनमें सुधार की इच्छा व्यक्त की है। सरल, सहज, गद्यमयी एकअर्थीय भाषा में लिखने के कारण उनकी रचनाएँ लोकप्रिय भी खूब हुई। राष्ट्रीय महत्व के प्रश्नों को अपनी रचना में उठाने के कारण गाँधी जी ने उन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि भी दी।

नारी भावना

राष्ट्रीय नवजागरण के कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक प्रश्न समाज में नारी की स्थिति पर पुनर्विचार का भी सामने आया था। समाज सुधार के लिए 19वीं शती में जो आंदोलन चलाए गए उनमें ब्रह्म समाज, आर्य समाज प्रमुख थे। इन आंदोलनों और राजा राममोहन राय, विवेकानंद, दयानंद आदि समाज सुधारकों ने स्त्री की सामाजिक प्रस्थिति का डटकर विरोध किया। साहित्येतिहास में मध्यकाल के बाद रीतिकाल में तो नारी की स्थिति भोग्या मात्र ही बन कर रह गई थी, जिसका तीव्र विरोध राष्ट्रीय नवजागरण के दौरान दिखाई पड़ता है।

व्यक्ति स्वतंत्रता की भावना ने नारी स्वतंत्रता की भावना को भी बल दिया। राष्ट्रीय आंदोलन में नारी माथलीशरण गुप्त का काव्य भी पुरुष के समकक्ष बढ़-चढ़कर हिस्सा ले सकती है, इस भावना को बल मिला। नारी के बारे में बदले हुए इस विचार का मैथिलीशरण गुप्त पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। “साकेत”, “यशोधरा”, “जैयिनी” “हिडिम्बा” जैसे उनके काव्यग्रंथ उनकी नारी भावना को विस्तार से व्याख्यायित करते हैं।

मैथिलीशरण गुप्त नारी जीवन के प्रति अपार सहानुभूति रखने वाले कवि हैं। लेकिन उनके सभी नारी पात्र समाज के एक विशेष वर्ग (सवर्ण) से आए हैं। उनकी लगभग नारी पात्र ऐसी हैं, जिनके पति किसी कार्य के उद्देश्य से उन्हें छोड़कर चले गए हैं। इसलिए वे सभी “उपेक्षिता” हैं। नारी चित्रण के माध्यम से, इनके दुख-दर्द और पीड़ा की अभिव्यक्ति के माध्यम से गुप्त जी समाज में नारी की स्थिति बदलना चाहते हैं।

गुप्त जी के स्मरणीय नारी पात्र “साकेत”, “यशोधरा” आदि प्रबंध काव्यों में हैं। “साकेत’ की रचना की प्रेरणा गुप्त जी को कवीन्द्र रवीन्द्र के निबंध “काव्येर उपेक्षिता” तथा आचार्य द्विवेदी जी के लेख “कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ से मिली थी। प्रारंभ में “साकेत’ का नामकरण “उर्मिलाउत्ताप” था बाद में बदल कर इसका नाम गुप्त जी ने “साकेत” किया। “साकेत” पूरा करने में कवि को सोलह वर्ष लगे। रामकथा पर आधारित “साकेत” को गुप्तजी ने यथासंभव राष्ट्रीय आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। “साकेत” का केंद्रबिंदु “उर्मिला’ है जो मूल राम कथाओं में एक उपेक्षित पात्र की तरह ही चित्रित हुई हैं।

गुप्त जी को “उर्मिला” की व्यथा, विरह, वेदना, त्याग और व्यक्तित्व की दृढ़ता ने प्रभावित किया है। “उर्मिला” के इन अछूते व्यक्तित्व के पक्षों को उन्होंने आधुनिक संदर्भो में उद्घाटित किया है। गांधी युग में जब गुप्त जी रचनारत थे तब समाज में व्यक्ति का महत्व उतना स्थापित नहीं हो पाया था और परिवार समाज की एक प्रमुख इकाई था। इसलिए भी नारी के व्यक्तित्व के जिन पक्षों पर उनका अधिक ध्यान गया वे थे उसका मातृत्व, पत्नीत्व और इसी संदर्भ में उसकी स्वतंत्र सत्ता और महत्ता।

साकेत में “उर्मिला’ के चरित्र को गुप्त जी ने स्वाभिमानी, जागृता, शक्तिरूपा, वीरांगना के रूप में चित्रित करने का प्रयत्न किया है जो सैनिकों में मातृभूमि के प्रति मर मिटने का हौसला पैदा करने की प्रेरणा शक्ति देती है। सीताहरण और शक्ति के प्रहार से लक्ष्मण की मूर्ण के प्रसंग को जब हनुमान सुनाते हैं तब साकेत के सभी निवासी रावण से युद्ध करने के लिए निकल पड़ते हैं और सीता को कारागार से मुक्त करके शत्रुघ्न प्रजा को रावण की लंका लूटने का आदेश देते हैं, तब उर्मिला माथे पर सिंदूर लगा, हाथ में माला लेकर दुर्गा का वेश धारण करके गरजती हुई उनके सामने आ खड़ी होती है और तेजस्वी वाणी में घोषणा करती है :

नहीं, नहीं पापी का सोना

यहाँ न लाना, भले सिंधु में वहीं डुबोना

जाते हो तो मान हेतु तुम सब जाओ।

विंध्य-हिमाचल-भाल भला। झुक जाये धीरो,

चंद्र-सूर्य-कुल-कीर्ति-कला रुक जाय न वीरों

इसी प्रकार सीता के इन उद्गारों में नारी की स्वतंत्र सत्ता और महत्ता प्रकट होती है :

औरों के यहाँ नहीं पलती हूँ

अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ

श्रमवारि बिंदु फल स्वास्थ्य शक्ति फलती हूँ

अपने अंचल से व्यंजन आप झलती हूँ

तनु-लता-सफलता-स्वाद आज ही आया

मेरी कुटिया में राज भवन मन भाया।

उर्मिला के अतिरिक्त साकेत में सुमित्रा, मथरा, कैकेयी, सीता, कौशल्या आदि जितने भी नारी चरित्र हैं उनके व्यक्तित्व में गुप्त जी ने युगानुकूल नई उदभावनाएँ की हैं। मसलन रामचरितमानस की कैकेयी के लिए तुलसी ने “गई गिरा मति फेरि” वाक्य का प्रयोग किया है जबकि गुप्त जी ने कैकेयी के विरोध को मनोवैज्ञानिक कारणों के परिप्रेक्ष्य में ठाला है। कैकेयी के साथ उसके पुत्र पर भी संदेह किया गया, इसलिए वह प्रतिशोध करती है। मानस की मंथरा का कहना था।

“कोउ नृप होहु हमहिं का हानी

चेरि छाँड अब होब कि रानी

जबकिं साकेत की मंथरा कहती है :

दण्ड दें कुछ भी आप समर्थ

कहा क्या मैंने अपने अर्थ?

समझ में आया जो कुछ मर्म

उसे कहना था मेरा धर्म

गुप्त जी ने कैकेयी द्वारा पश्चाताप के बोल भी बुलवाकर मानो उसके पापों को धो डाला है :

थूके मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके

जो कोई कह सके, कहे, क्यों चूके

युग-युग तक चलती रही कठोर कहानी

रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी।

“साकेत’ में यदि केंद्रीय चरित्र उर्मिला और उसकी विरह-वेदना का चित्रण हुआ है तो “यशोधरा में गुप्त जी ने गौतम बुद्ध, राहुल तथा यशोधरा की कथा को आधार बनाकर यशोधरा को जीवंत किया है। यशोधरा पर तत्कालीन नारी जागरण का प्रभाव और भी ज्यादा और मुखर रुप से दिखाई पड़ता है। राष्ट्रीय आंदोलन में हजारों स्त्री पुरुष घरखार का मोह छोड़कर कूद पड़े थे। व्यक्तिगत सुख-दुख को उन्होंने भुला दिया था। इसी प्रकार सत्य की खोज में गौतम बुद्ध पत्नी-बच्चे को रात में सोते छोड़ कर अचानक एक दिन घर से निकल गये थे। ऐसी स्थिति में गुप्त जी की यशोधरा पर इसका जो असर हुआ उसे वह इस प्रकार व्यक्त करती है :

सिद्धि हेतु स्वामी गये, यह गौरव की बात

पर चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात

सखि, वे मुझसे कह कर जाते कह,

तो क्या मुझको वे अपनी पथ बाधा ही पाते

यह बात वह नारी ही कह सकती है जो जागरूक हो, जिसे अपने स्वतंत्र अस्तित्व का एहसास हो और जो “सिद्धि के महत्व को समझती हो। अर्थात् समाज से जिसका सीधा संबंध है, जो सोचती-समझती और जीवन में पुरुष के समकक्ष कंधे से कंधा मिलाकर सारे बोझ उठाने के लिए तैयार हो। इसके आगे भी जब गौतम के जाने के संदर्भ में बात-चीत होती है तो यशोधरा अपने परिपक्व व्यक्तित्व का परिचय देती है:

“तात, सोचो, क्या वे इसी अर्थ हैं

खोज हम लायें उन्हें, क्या वे असमर्थ हैं।

यशोधरा के विरहणी व्यक्तित्व में उसका मातृत्व भी जुड़ा हुआ है। इसलिए गुप्त जी ने उसके मातृत्व रूप को, पुत्र-वधु के रूप को उसके विरहणी व्यक्तित्व के साथ-साथ विकसित किया है। यशोधरा, उर्मिला, सीता आदि जितने भी गुप्त जी के नारी पात्र हैं, वे विरही हो कर भी मध्यकालीन विरहिणियों की तरह से दीन-दुनिया भूलकर ज़ार-ज़ार आँसू नहीं बहाते बल्कि विरह का दुख उन्हें द्रवित करके जगत के दुखों के प्रति संवेदनशील बनाता है और वे कर्मठ बन कर जनता के साथ तादात्म्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं। “साकेत’ में सीता का चरित्र भी इसी प्रकार विकसित हुआ है। हालाँकि गुप्त जी की सीता तुलसीदास की सीता से प्रेरित और प्रभावित है किंतु गाँधी-युग में रचित होने के कारण वे स्वदेशी आंदोलन के वातावरण में रंगी हुई है।

इसलिए तुलसी की सीता जहाँ सामंती माहौल की ऐसी नारी के घेरे में मानवी का अभिनय करती है, वहाँ गुप्त जी की सीता स्वतंत्रता आंदोलन में नारी की आदर्शमूर्ति बनने लगती है। स्वतंत्रता आंदोलन में नारी की आदर्शमूर्ति वह है जहाँ वह पत्नी, प्रेमिका, माँ, बहन के रूपों के साथ-साथ श्रमशील, आर्थिक रूप से स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वामिनी है। इसलिए गुप्त जी की सीता का कहना है :

औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ

अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ

श्रमवारि बिंदु फल स्वास्थ्य शुचि फलती हूँ

अपने अंचल से व्यंजन आप झलती हूँ

तनुजात-सफलता-स्वादु आज ही आया

मेरी कुटिया में राजभवन मन भाया

निश्चित रूप से गुप्तजी की नारी चेतना पारंपरिक नहीं है। नारी को वे शिक्षिता, आत्मसम्मानी, स्वाभिमानी देखना चाहते हैं, राष्ट्रीय आंदोलन में उसकी सक्रिय भूमिका के पक्षधर हैं, किंतु यह सब परिवर्तन गृहिणी के रूप में उसकी पारिवारिक भूमिका को हट कर वह नहीं चाहते। यहाँ पर भी गुप्तजी की अतीतमूलक सुधारवादी दृष्टि सक्रिय दिखाई पड़ती है।

हिन्दी काव्य-जगत में गप्तजी का योगदान

मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविताओं के माध्यम से भारतीय नवजागरण और राष्ट्रीयता की भावना के प्रचार-प्रसार में अपना महत्वपूर्ण योगदान किया है। भारतेन्दु बाबू ने हिन्दी कविता को भारतीय जनजीवन के साथ जोड़ने का भरपूर प्रयास किया, लेकिन मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’, हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ को भी अपनी लोकप्रियता में पीछे छोड़ गयी थी। इसका प्रमुख कारण है कि गुप्तजी ने भारतीय जनता को उसकी समग्रता में समझा-पहचाना था, उसका अत्यंत प्रभावशाली ढंग से नेतृत्व किया था। यह नेतृत्व क्षमता छायावादी कवियों के लिए तो दूर की बात है ही, दिनकर को छोड़कर राष्ट्रीय-सांस्कृतिक काव्यधारा और प्रगतिशील कवियों में भी नहीं मिलती।

नयी कविता और उसके बाद आने वाली हिन्दी कविता के लिए इस प्रकार की क्षमता का सर्वथा अभाव मिलता है। इस दृष्टि से मैथिलीशरण गुप्त को आधुनिक काल का तुलसीदास कहा जा सकता है। मध्य काल के कवि तुलसीदास का लोकनायकत्व आधुनिक काल के मैथिलीशरण गुप्त में ही उपलब्ध होता है।

जनभाषा को साहित्य की भाषा बनाने का जो अभियान भारतेन्दु ने छेड़ा था, उसे पूर्णता प्रदान करने में पूर्ण सफलता मैथिलीशरण गुप्त को ही मिली है। अतीत की विरासत को लेकर नवीन के निर्माण में जिस निपुणता के साथ मैथिलीशरण गुप्त अग्रसर हुए हैं, इसे हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में विरल ही माना जाएगा। गर्हित सामंतवादी प्रवृत्तियों के साथ ही साम्राज्यवाद की जनविरोधी प्रकृति के समुचित उद्घाटन का सूत्रपात भी गुप्त जी द्वारा ही हुआ है। इन सभी दृष्टियों से मैथिलीशरण गुप्त का एक ऐतिहासिक महत्व है।

सारांश

राष्ट्रीय नवजागरण को व्यापक रूप से साहित्य की अन्तर्वस्तु बना कर द्विवेदी युग में मैथिलीशरण गुप्त ने देश की जनता के साथ साहित्य का व्यापक संबंध स्थापित किया। सबसे पहले उन्होंने ‘भारतभारती’ के माध्यम से इस देश की पहचान का मूल सूत्र सामने रखा और सहअस्तित्व, सांझी विरासत के वचन को दुहराया। इसके साथ ही अपने वैष्णवी संस्कारों, वर्णाश्रम धर्म की मान्यताओं के बावजूद अपने स्वधर्म की स्वस्थ मान्यताओं को ही उन्होंने अपनी वैचारिक भूमि का आधार बनाकर साहित्य कर्म किया। हिंदू धर्म के साथ-साथ मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई अन्य सभी धर्मों, धर्मावलम्बियों, धर्म गुरुओं के प्रति एक समान आदर और सम्मान का भाव व्यक्त किया, उन पर रचनाएँ कीं।

दूसरी बड़ी उपलब्धि मैथिलीशरण गुप्त के काव्य की है उनकी स्त्रियों के प्रति भावना। उन्होंने इतिहास में से उपेक्षित स्त्री पात्रों को ले कर उनके प्रति संवेदना प्रकट करते हुए उन्हें ही साहित्य में पुनर्जीवित किया। उर्मिला, यशोधरा, जैनी, हिडिम्बा आदि के जीवन चित्रण के माध्यम से उन्होंने नारी विषयक दृष्टिकोण को बदलने पर बल दिया, राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी सक्रिय भूमिका पर बल दिया।

भारत की मूल रीढ़ इस देश का किसान और उसका जीवन है। किसान जीवन की महागाथा निश्चय ही प्रेमचंद के ‘गोदान” में 1936 में अभिव्यक्ति पाती है किंतु उससे बीस वर्ष पूर्व ही गुप्त जी ने यथार्थ शैली में ‘किसान’ खण्डकाव्य लिखकर अपनी सोच, समझ और जनप्रतिबद्धता जाहिर कर दी थी।

गुप्तजी की काव्य यात्रा की खूबी यह रही है कि वे समय के साथ राष्ट्रीय आंदोलन की तत्कालीन जरूरतों के मुताबिक स्वयं को और अपनी सर्जना को भी ढालते रहे।

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