समकालीन कविता

इस इकाई में आप समकालीन कविता का अध्ययन करेंगे। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • समकालीन कविता के स्वरूप से परिचित हो सकेंगे;
  • राजनीति और समकालीन कविता का संबंध बता सकेंगे;
  • समकालीनता, तात्कालिकता और परम्परा के अर्थ और संदर्भ की चर्चा कर सकेंगे;
  • समकालीन कविता की मूल प्रवृत्तियों का विवेचन कर सकेंगे; और
  • समकालीन कविता के शिल्प की जानकारी दे सकेंगे।

“प्रयोगवाद और नयी कविता” इकाई में आप पढ़ चुके हैं कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जीवन के हर क्षेत्र में नयी अशाओं-आकांक्षाओं ने जन्म लिया । इन आशाओं-अकांक्षाओं को आर्थिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्वाधीनता के अभाव में सही दिशाओं में फूलने-फलने का अवसर नहीं मिल सका। नेहरू-युग की दिशाहीन राजनीति ने मूल्यों के विघटन की प्रक्रिया को तीव्र किया। धीरे-धीरे जनता की उमंगों पर अवसाद और खिन्नता का अँधेरा गहराने लगा। इस अवसादपूर्ण स्थिति का सीधा प्रभाव ।

सर्जनात्मकता में अभिव्यक्त होता हुआ दिखाई दिया। आस्थावादी जीवन मूल्यों के स्थान पर अनास्थावादी मूल्य चेतना का कुहराम उठ खड़ा हुआ। फलतः नयी कविता आन्दोलन मोहभंग, आत्मनिर्वासन, अकेलापन, विसंगति-विद्रूपता आदि के भाव-बोध को लेकर रचना-कर्म में आया। नयी कविता का यह काव्य-मुहावरा सन् 1960 के आसपास घिसकर अपना आकर्षण खोने लगा। स्वयं नयी कविताओं के सभी जागरूक कवि अपने काव्य-मुहावरे की लीकों से उत्पन्न अपर्याप्तता का अनुभव करते हुए नवीन जीवन जगत के यथार्थ को व्यक्त करने की बेचैनी के अहसास से तिलमिलाने लगे।

इसी बेचैनी से उत्पन्न नई प्रश्नाकुलताओं, चिन्ताओं, तनावों, संघर्षों, चुनौतियों के कारण सर्जनात्मकता में आक्रोश, विद्रोह, विक्षोभ, असन्तोष के तीखे स्वर उभर पड़े। युवा-पीढ़ी के मानस में उमड़ते-घुमड़ते आक्रोश ने सपाट बयानी का पल्ला पकड़ा और देखते-देखते इतिहास की नयी शक्तियों से प्रेरित और आन्दोलित मानसिकता ने सृजन में नए काव्य-मुहावरे की तलाश का जोरदार अभियान चलाया। नतीजा यह हुआ कि इस रचनाशीलता की नयी कविता से अलग पहचान बनने लगी।

नई चिन्ताओं-संघर्षों की मनोभूमिका से युक्त इस साठोत्तरी कविता को नया नाम दिया गया-‘समकालीन कविता कहना न होगा कि यह नाम बिना भारी विरोध या वाद-विवाद के प्रचलित हो गया। अपने आस-पास के पूरे परिवेश को चौकन्नेपन के साथ रचने-पकड़ने के कारण इस कविता को “समकालीन कविता” का नाम देना उचित समझा गया।

समकालीन कविताः स्वरूप और दृष्टि

समकालीन काव्य-सृजन को “समकालीन कविता” नाम तो दे दिया गया और यह पर्याप्त या अपर्याप्त नाम प्रचलन में आ गया है। लेकिन आज यह बात उठ रही है कि समकालीन कविता की अन्तिम सीमा कब तक? इस तरह के महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठने का बुनियादी कारण यह है कि इस काव्य सृजन के भीतर हिन्दी कविता की कई काव्य पीढ़ियाँ सृजन-कर्म में एक साथ सक्रिय दिखाई देती हैं। इस काव्य सृजन में अनेक धाराएँ हैं, अनेक काव्य शैलियाँ हैं – अनेक तरह के छोटे बड़े काव्य आन्दोलन हैं – उनकी अलग-अलग तरह की काव्य-ध्वनियाँ और काव्य प्रवृत्तियाँ हैं। इन सभी को कब तक “समकालीन कविता” जैसे नाम के अतिव्यापकत्व में समेटा जाता रहेगा? इधर “समकालीन कविता” को “नयी कविता” के बाद की “विद्रोही कविता” भी कहा गया है। काल-चेतना के प्रति सजग अलोचक “समकालीन कविता” को “साठोत्तरी कविता” कहना अधिक संगत मानते हैं। ऐसे भी आलोचक हैं जो संवेदना और शिल्प की दृष्टि से समकालीन कविता को “सम्पूर्ण परिवेश के यथार्थ” की कविता कहना उचित समझते हैं। इस काव्य सृजन के प्रवाह और परिवर्तन को दशकों में बाँटकर स्पष्ट करने का प्रयत्न करते हैं-साठोत्तरी कविता, सत्तरोत्तरी कविता, अस्सी के बाद की कविता। यह बात भी मान ली गई है कि सजन युग तो परम्परा और आधुनिकता, निरन्तरता और परिवर्तन की प्रक्रिया के परिणाम होते हैं।

जीवन-जगत का यथार्थ भी स्थिर नहीं गतिशील होता है और सृजन-चेतना बासी या जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचियों पर प्रहार करती हुई विकसित होती रहती है। फिर सृजन-व्यापार तो ऐतिहासिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया का एक संश्लिष्ट व्यापार है जिसमें प्राचीन और नवीन निरन्तर टकराते हुए चलते हैं। सृजन की प्रकृति ही ऐसी है कि वह परिचित को नया और अपरिचित को परिचित बनाते हुए नया सृजन सौन्दर्य उत्पन्न करता है। समकालीन कविता का दावा है कि वह न तो भावोवेग है न कल्पना का अतार्किक विस्तार । वह तो जीवन जगत के व्यापार, अनुभवों के सच्चे और ठोस आधारों को अपनाती है।

इसलिए वह यथार्थ के भीतरी-बाहरी, जिए-भोगे गहरे आत्म-संघर्षो-तनावों-दबावों से विवश होकर रची जाती है। जीवन जगत की कठोर स्थितियों -परिस्थितियों का प्रभाव-दबाव समकालीन कविता में इतना अधिक बढ़ गया है कि कवि स्वयं ही जूझकर लहू-लुहान है। उसकी कविता खुद से, अपने परिवेश से मुठभेड़ करती कविता है। व्यापक-अर्थों में कहा जा सकता है कि परिवेश ही इस काव्य सृजन की मूल प्रेरणा है। यहाँ महामानव और लघुमानव की बहस को समाप्त करता हुआ मामूली आदमी या सामान्य मानव कविता के केंद्र में आ गया है। इसलिए इस सृजनकर्म में परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से बदलती राजनीतिक-सांस्कृतिक, आर्थिक-नैतिक संवेदना पर ध्यान को केंद्रित करना पड़ता है। इस सृजन का कोई काव्यशास्त्र अभी निर्मित नहीं हुआ है और पुराने प्रतिमानों से इसे समझा नहीं जा सकता।

दरअसल, समकालीन कविता को जीवन-जगत के यथार्थ की खुली अभिव्यक्ति के कारण सूत्ररुप में परिभाषित नहीं किया जा सकता। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि समकालीन कविता अपने परिवेशगत यथार्थ की व्यापक अभिव्यक्ति है। नेहरू-युग के बाद की राजनीतिक विकृतियों, विद्रूपताओं, जीवन के हर क्षेत्र में विघटित टूटते मूल्यों, पीड़ाओं-कुंठाओं, मरते स्वप्नों और विक्षोभों ने इस काव्य-सृजन की अनुभूतियों-संवेदनाओं-अनुभव-पुंजों में अभिव्यक्ति पाई है। यह काव्य-सृजन युग की पीड़ाओं-चिन्ताओं से साक्षात्कार कराता हुआ हमें विकल-बेचैन कर देता है। सोचने-विचारने को विवश करता है। विद्रोह-विक्षोभ-असन्तोष से जन्मी यह कविता मामूली आदमी की व्यथा-कथा का इतिहास है। किंतु यह समझना भूल होगी कि समकालीन कविता परिचय के अस्तित्ववादी काव्य-मुहावरे की अभिव्यक्ति है। निराशा, अवसाद, क्रोध-झुंझलाहट, मूल्य-विहीनता की कविता होने पर भी यह अनास्थावाद की कविता नहीं है। अपनी दिशा और दृष्टि में यह नयी पीढ़ी या आजादी के बाद पैदा हुई पीढ़ी की संघर्ष गाथाओं से भरी जीवट की कविता है।

समकालीन कविता में नयी -पुरानी पीढ़ी के सभी कवि एक साथ, एक स्वर से सत्ता-विरोध की कविताएँ रचते हैं जिनमें राजनीतिक विकृतियों से उत्पन्न नरक का गहराई से अहसास कराने वाली चेतना प्रबल है। राजनीतिक-सांस्कृतिक चिन्ताओं-पीड़ाओं की चीख-पुकार का स्वर इतना तगड़ा है कि काव्य-सृजन, चीख-चिल्लाहट, गुर्राहट-विद्रोह की अर्थ ध्वनियों से कोलाहलमय सुनाई देता है। यहाँ नयी कविता का व्यक्ति-स्वातंत्र्यवाला, शीत-युद्ध की वेदनावाला संसार गायब हो जाता है और पूरी कविता राजनीतिक, सांस्कृतिक संकटों के समूचे बोध से भर जाती है। नेहरू-युग की राजनीति ने जीवन के सभी मूल्यों को इतना मलिन-खोखला और धूमिल कर दिया था कि समकालीन कविता के प्रवर्तक कवि सुदामा पाण्डे ने अपना नाम ही “धूमिल” रख लिया।

इस कवि ने बहुत गहरे में यह अनुभव किया कि समकालीन भारतीय प्रजातंत्र के नरक को कवि अपना नाम धूमिल रखकर ही उजागर कर सकता है -हर स्तर पर जन-जन की आकांक्षाओं-आस्थाओं को धूमिल करता प्रजातंत्र। जिसमें “प्रजा” और “तन्त्र” दोनों की शक्ति का खुला दुरुपयोग किया गया है। कवि धूमिल ने “संसद से सड़क तक” काव्य संग्रह की लम्बी-कविता “मोचीराम” में कहा – “मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है। जो मरम्मत के लिए खड़ा है।” इस जूते की तरह बेहाल आदमी को ठीक कैसे किया जा सके यही कवि धूमिल की बुनियादी काव्य-चिन्ता है। हमारे समय के राजनीतिक नरक में मामूली आदमी के डूबते-मरते वर्तमान को ये सभी कविताएँ नयी भाषा देती हैं।

वास्तव में, समकालीन कविता का भाव-बोध, आक्रोश, विक्षोभ और विद्रोही मनः स्थितियों से निर्मित हुआ है। मानवीय पीड़ाओं यातनाओं की निर्भय अभिव्यक्ति के लिए इस भाव बोध ने अनेक तीखे संघर्षों और विरोधी आघातों को पाटकर अपनी विद्रोहमूलक काव्य सत्ता को स्थापित किया है। कवि अब संकेतों- व्यंजनाओं की शिष्टताओं को अंगूठा दिखाकर सीधी धारदार कटखनी भाषा में अन्तर्वस्तु को रूप देता है। धूमिल से लेकर अरुणकमल तक युवाकवियों का काव्य-स्वभाव और काव्य-संवेदना का स्वरूप इतना बदल गया है कि काव्य-स्थिति का अहसास काव्य-पाठक के मानस में दर्द के धमाके करता है – ज्वालामुखी स्फोट सी भीषण स्थिति यहाँ विद्यमान मिलती है। कवि भावुकतापूर्ण मध्ययुगीन मूल्य दृष्टि, आदर्शमूलक सांस्कृतिक मूल्य चेतना, पवित्रतामूलक मिथक-प्रतीक-बिंब, झूठे उदारतावाद, छलिया करुणावाद, सहानुभूति के दाँत दिखाते मानववाद-मानवतावाद से पूरी तरह अपना सम्बन्ध तोड़ लेता है। उसकी आस्था न वाद में है, न दर्शन में, न धर्म में, न राजनीति में, न धर्मनिरपेक्षतावादी नाटक में। केवल उसकी आस्था उस मानव में है जो जीने के लिए चौतरफा लड़ाई लड़ रहा है श्रमरत कर्मरत मानव।

नयी कविता की रूढ़ियों से नए काव्य-सृजन में मुक्ति का प्रयास

नयी कविता की रूढ़िवादिता से मुक्ति पाने के लिए नयी पीढ़ी के कवियों विशेषकर धूमिल, लीलाधर जगूड़ी, राजकमल चौधरी, विनोदकुमार शुक्ल, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी ने काव्य की परिपाटी बद्धता से विद्रोह करते हुए नवीन काव्य-दिशाओं की खोज आरम्भ की। समकालीन कविता में नयी-काव्य दिशाओं की खोज विभिन्न लघु पत्रिकाओं और काव्य-आंदोलनों के माध्यम से आरम्भ हुई। नयी कविता की स्वीकृत परिपाटी से हटकर ही अस्वीकृत कविता, निषेधवादी कविता, अकविता पर बहस केंद्रित लघुपत्रिकाओं की बाढ़ सी आ गई। इन्हीं लघुपत्रिकाओं ने विभिन्न काव्य आन्दोलनों के प्रस्ताव प्रस्तुत किए। आश्चर्यजनक बात यह है कि हिन्दी कविता में इतने अधिक काव्य आंदोलनों के प्रस्ताव पहली बार आए।

सातवें दशक के इन काव्य-आंदोलनों की एक संक्षिप्त सूची इस अभूतपूर्व काव्य-स्थिति का संकेत देती है- अकविता, अन्यथावादी कविता, विद्रोही कविता, सनातन सूर्योदयी कविता, सीमान्तक कविता, अभिनव कविता, अधुनातन कविता, निर्दिशायामी कविता, एब्सर्ड या ऊलजलूल कविता, नवप्रगतिवादी कविता, साम्प्रतिक कविता, ठोस या क्रांकीट कविता, कोलाज-पोस्टर कविता, ताजी कविता, श्मशानी कविता, विचार कविता, प्रहार कविता; अगीत कविता, आदि काव्य आन्दोलन । सातवें दशक में लघु पत्रिकाओं के माध्यम से प्रस्तावित ये सभी काव्य आन्दोलन बरसाती घास की तरह फूटे और समाप्त हो गए।

किसी-किसी पत्रिका का तो काव्य आंदोलन को लेकर एक अंक ही निकला। सच इतना ही है कि इन काव्य आंदोलनों ने एक नए काव्य परिवेश को निर्मित किया और इस माहौल ने मुक्त मानसिकता से हमें परिचित भी कराया। इन आंदोलनों की प्रेरणा, शक्ति और सीमाएँ आज भी काव्य सजग पाठक को सोचने पर विवश करती हैं कि युवा मानस नई चिन्ताओं तनावों-संघर्षों को सर्जनात्मकता में कैसे व्यक्त कर रहा था !

प्रश्न उठता है कि इतनी अधिक संख्या में लघु-पत्रिकाओं के प्रकाशन के बुनियादी कारण क्या थे? । इसका एक मोटा उत्तर यह है कि शिक्षा के प्रसार से युवा-पीढ़ी में राजनीतिक, आर्थिक और साहित्यिक जागृति आई। नेहरू-युग की नीतियों से हताश जन-मानस ने मार्क्सवाद-लोहियावादी समाजवाद की विचारधाराओं को व्यापक स्तर पर ग्रहण किया। नववामपंथी रूझानों वाले युवक, पूँजीवाद, व्यक्तिवाद, क्षणवाद, गाँधी वाद, अतियर्थाथवाद, विनोबा के सर्वोदयवाद से चिढ़कर उनसे दूर होते गए। नक्सलवादी, फासिस्टवादी, शीतयुद्धवादी, उपनिवेशवादी- साम्राज्यवादी, भाववादी विचारधाराओं के खिलाफ शिक्षित युवा-मानस ने विद्रोह और बगावत की वैचारिक मुद्रा अख्तियार कर ली। नक्सलपंथी, अत्यधिक गरमविचारों के मार्क्सवादी-लेनिनवादी, माओवादी तथा जयप्रकाश नारायण की लोक क्रांतिवादी समाजवाद विचारधारा वाले युवक दल सामने आए जो जेल, गोली और मौत से नहीं डरे ।

आर्थिक पराधीनता और बेरोजगारी से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष को तेज किया गया। युवकों ने यह भी देखा कि चीन और पाकिस्तान के युद्धों में सोवियत मित्रता प्रगाढ़ हुई और अमेरिका के पूँजीवाद प्रपंच से हम सावधान हुए। लेकिन एक दौर ऐसा आया कि सोवियत संघ अपने ही अन्तर्विरोधों से बिखर गया और मार्क्सवादी विचारधारा भटक गई। नव पूँजीवादी शक्तियों ने अमेरिका की अगुआई को स्वीकार करते हुए तीसरी दुनिया के देशों पर अपना वर्चस्व स्थापित किया । फलतः पूरे विश्व में एक उत्तर-आधुनिकतावादी (पोस्ट मार्डनिज्म) परिदृश्य अपस्थित हुआ। भारत ने भी पश्चिमी बाजारवाद, नव्य-साम्राज्यवादी नीतियों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए।

उदारीकरण और विश्वयारी के चक्कर में “ग्लोबल मैन” “ग्लोबल विलेज” और “ग्लोबलाइजेशन” के मोह और भ्रामक स्वर तीव्र हुए। नव्य साम्राज्यवाद-नव्य उपनिवेशवाद के “उत्तर-आधुनिकतावादी” परिदृश्य ने पुरानी सभी विचारधाराओं को अप्रासंगिक निरर्थक घोषित कर दिया। उत्तर आधुनिकतावादियों के अनुसार इतिहास परम्परा की पुरानी भूमिकाओं का अन्त हो चुका है। मनुष्य से संबंधित सभी सरोकार अब अपनी केंद्रीयता खो चुके हैं इसका कारण है विचारधाराओं के केंद्रवाद को तोड़ना।

नव्य पूँजीवाद “लेट कैपीटलिज्म” की नव तकनीकी क्रांति ने बड़े पैमाने के उत्पादन को संभव बनाया। . इसी ने नई उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म दिया। इस उपभोक्तावादी संस्कृति की चपेट में भारत भी आया और इसी से एक अपसंस्कृति का जन्म हुआ। इस प्रकार विकसित देशों ने अविकसित देशों का पूरा नक्शा बदल डाला। यह काम बहुराष्ट्रीय निगमों और सरकारों ने किया। बाजारवाद की मुक्त संस्कृति ने प्रबंधकों-वितरकों और बिचौलियों को व्यापारिक पूँजीवाद में नया लूटतन्त्र स्थापित करने का अवसर दिया। इससे मनुष्य के अन्तर्जगत का महासंहार हुआ और कविता के अन्त की घोषणा की गई। समकालीन परिस्थिति का यह उत्तर आधुनिक भाष्य सर्जनात्मकता को लील गया। इस अंधकारपूर्ण स्थिति के बीच सन् 80 के दशक में “कविता की वापिसी” का नारा बुलन्द किया गया और कहा गया कि उत्तर औपनिवेशिक पूँजीवाद अमनुष्यता का सैद्धान्तीकरण अनुचित है तथा यह सब हमारी सर्जनात्मकता का अन्त नहीं कर सकता है। पर “मास कल्चर” के लंपट-परिदृश्य ने नवजागरण और राष्ट्रीय आन्दोलन की मूल्य-चेतना का गला घोंटकर भयावह-आतंक यातना को जन्म दिया। समकालीन काव्य सृजन पर इस स्थिति का सीधा प्रभाव-दबाव है।

उपभोक्तावादी संस्कृति ने “सांस्कृतिक जागरण” की चेतना को ध्वस्त करते हुए एक विराट विखण्डनवाद को जन्म दिया। इसी में से जातिवाद, सम्प्रदायवाद, प्रदेशवाद का जहर राजनीति में आया और पूरे देश को तोड़-फोड़ की घटिया और मानवद्रोही राजनीति के हाथों तबाह कर दिया। इसी तबाही को केदारनाथ सिंह ने “उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएँ” तथा “बाघ” जैसे काव्य-संग्रहों की कविताओं में उजागर किया है। उत्तर-आधुनिकतावादी स्थितियाँ हमारी जातीय-स्मृति को मिटाने का हर संभव यत्न कर रही हैं। इस समूची पृष्ठभूमि ने समकालीन काव्य सृजन को एक बिल्कुल भिन्न परिस्थिति के हवाले कर दिया है। हालत यह है कि जटिल होती संवेदना और कठिन होते कवि कर्म ने “काव्यात्मकता” का अर्थ ही तहस-नहस कर दिया है। कवि के सामने प्रमुख प्रश्न आशावाद और निराशावाद का नहीं है अपितु जीवन को भीतर बाहर से पहचानने का है।

अमानवीय राजनीति के प्रमुख कवि रघुवीर सहाय के काव्य संग्रह “आत्महत्या के विरुद्ध” की कविताओं में इसी मानवीय अर्थ के संकल्प बीजों को पाया जा सकता है।

समकालीन कविता पर नितांत समसामयिकता और तात्कालिकता का गहरा आतंक राजनीति के नरक के भीतर से फूटकर फैला है। इसी आतंक ने आक्रोश-विक्षोभ और विद्रोह की काव्य भंगिमाएँ पैदा की हैं। यही कारण है कि यह कविता अपने समय, समाज, और राजनीति का सच्चा साक्ष्य है जिसमें “नंगापन/अंधापन होने के खिलाफ एक सख्त कार्यवाही है” (धूमिल – संसद से सड़क तक) और आदमी

“वह चाहे जो है जैसा है जहाँ कहीं है

आजकल

कोई आदमी जूते की नाप से

बाहर नहीं है”

समकालीन कविता के काव्य-मुहावरे को मलयज नयी ताकत देते हैं। मलयज के काव्य संग्रह का शीर्षक अपनाकर कहें तो राजनीति मामूली आदमी के “जख्म पर धूल” डालने के सिवा और कुछ नहीं कर सकी है। राजनीति ने एक पूरी पीढ़ी के साथ दगा किया है, रघुवीर सहाय के शब्दों में “एक पीढ़ी पराई हो गई अपने ही देश में”। राजनीति के समाजवादी ढोंग, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, धर्म का दुरुपयोग, संसदीय प्रणाली का माखौल, बुद्धिजीवियों की कायरता, चरित्र-हीनता, चापलूसों की भीड़, लोकतंत्र के नाम पर गुंडातंत्र, भारतीय संस्कृति के नाम पर छल-छंद सभी पर समकालीन कवियों ने खुलकर लिखा है।

समकालीन कविता और राजनीति का परिदृश्य

समकालीन कविता अपने गहरे अर्थ में राजनीतिक कविता है। कविता के साथ राजनीति का रिश्ता पुराना है। लेकिन कविता के इस दौर में राजनीति केन्द्रीय स्थिति पा जाती है। केन्द्रीय स्थिति पाकर राजनीति अपने क्रूर, नंगे अमानवीय रूपों में जीवन के हर क्षेत्रों में सक्रिय हुई। यहाँ तक कि धर्म तक को राजनीति ने भ्रष्ट करने से नहीं छोड़ा। आपातकाल की राजनीति ने जनता को तबाह किया और इन्दिरा-युग की इस करतूत पर नागार्जुन तथा भवानीप्रसाद मिश्र जैसे पुराने कवियों ने डटकर लिखा । नागार्जुन ने लिखा –

“हरिजन गिरिजन नंगे भूखे हम तो डोलें वन में

खुद तुम रेशम साड़ी डाँटे उड़ती फिरो गगन में

महंगाई की सूर्पनखा को ऐसे पाल रही हो

शासन का गोबर जनता के सिर पर डाल रही हो।”

निरन्तर बढ़ती महँगाई ने गरीबी-भुखमरी से आम आदमी के आत्म-निर्वासन की प्रक्रिया को तेज कर दिया। जातिवाद, साम्प्रदायिकता, झगड़े, पिछड़े का खतरनाक विभाजन, राजनीति में अपराधीकरण का वर्चस्व, धर्म के राजनीतिकरण से पूरा देश तबाही की ओर बढ़ा। गांधी का स्वदेशी आन्दोलन अमेरिकी कर्ज पर चलने वाली सरकारों ने निगल लिया और देश एक नए ढंग की पराधीनता में पुनः फँसने लगा।

नकलची, उधारभोगी उपभोक्तावादी संस्कृति ने सभी मूल्यों को चौपट कर दिया और क्रान्ति के नाम पर यौनक्रान्ति को बढ़ावा मिला। अकविता आन्दोलन के सभी कवियों ने (जगदीश चतुर्वेदी, श्याम परमार, राजकमल चौधरी, सौमित्र मोहन आदि) यौनक्रान्ति को रचनाशीलता में स्थान दिया। नैतिक रूप से पतित व्यवस्था ने “सेक्स, अपराध और हिंसा” को सत्ता में रहने का साधन बना लिया। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद पैदा हुई पीढ़ी ने चार-पाँच चुनावों के माहौल को देखा और अनुभव किया कि सिद्धान्तहीन राजनीति उसका और उसके समाज का संहार कर रही है।

फलतः इस पीढ़ी के पल-पल कठिन संघर्षों में तीव्रता आई। सौमित्र मोहन ‘लुकमान अली’ नामक लंबी कविता में जनता के इस दर्द को लिखते हैं-

“लुकमान अली के लिए स्वतंत्रता उसके कद से केवल तीन इंच बड़ी है।

वह बनियान की जगह तिरंगा पहनकर कलाबाजियाँ खाता है।

वह चाहता है कि पाँचवें आम चुनाव में बौनों का प्रतिनिधित्व करे।

उन्हें टाफियाँ बाँटे।

जाति और भाषा की उन्हें कसमें खिलाए

वह आज, नहीं कल, नहीं तो परसों, नहीं तो किसी दिन

फ्रिज में बैठकर शास्त्रों का पाठ करेगा।”

पंचवर्षीय योजनाएँ, हरित क्रान्ति, गरीबी हटाओ जनसंख्या नियंत्रण की योजनाएँ मानवाधिकार और जनविकास की सभी योजनाएँ कोरी मायावी छलनाएँ सिद्ध हुई। समकालीन कविता के कवि मलयज ने ठीक कहा है कि “इस युग के सिद्धान्तहीन राजनीति के इस अनुभव की नेहरू-युग की राजनीति से तुलना कीजिए। नेहरू-युग की राजनीति “भारत की खोज” के आधार पर आशावाद से ग्रस्त एक ऐसी राजनीति थी जिसके पैर यथार्थ पर कम स्वर्णिम मानव-भविष्य के स्वप्न पर अधिक टिके थे। ऐसी । आदर्शवादी राजनीति का अंत यदि मोहभंग में हो तो कोई आश्चर्य नहीं। यह राजनीति मुख्यतः राजनेताओं की राजनीति के कारण हुए मोहभंग में भी एक ट्रेजिकशान थी। नेहरू-युग का साहित्य इसी शानदार मोहभंग का साहित्य है। इसके विपरीत नेहरू-युग के बाद की राजनीति आम आदमी की राजनीति है। छात्र-असंतोष, घेराव और दलबदल में आम आदमी की ही नस बजती है। जिस राजनीति के अन्तर्गत न्यूनतम कार्यक्रम का झंडा, पार्टी सिद्धान्तों के चिथड़े को सिलकर बनाया गया हो, वहाँ मोहभंग की कोई गुंजाइश रह ही नहीं जाती। आम आदमी की राजनीति स्थिति के इस कटु स्वीकार से ही शुरू होती है। पिछले दशकों का साहित्य बुनियादी तौर पर इस स्थिति के इस कटु स्वीकार और उससे उत्पन्न । प्रतिक्रियाओं का साहित्य रहा है।” (कविता से साक्षात्कार, पृष्ठ-165) “स्वाधीन चिन्तन”, “स्वाधीन मनुष्य” और स्वाधीनता का स्वप्न आकाश कुसुम बनता गया।

हमने अन्धेपन में अपने देश की स्थिति परिस्थिति पर विचार किए बिना पश्चिमी “विकास” (प्रोग्रेस) और “प्रगति” (डेवलेपमेंट) की अवधारणाओं को स्वीकार कर लिया। फलतः अपने मौलिक सोच से कटकर हम भटकाव के शिकार होते गए। यह भटकाव इतना बढ़ा कि एक पूरी पीढ़ी भ्रान्तियों में फंसकर गर्क हो गई। पूरी पीढ़ी में एक ऐसा अकेलापन, आत्मनिर्वासन पनपा कि वह सोचने-समझने में लाचार हो गई। विजयदेवनारायण साही के शब्दों में कहें तो हमारे हाथों में टूटी हुई तलवारों की मूठे रह गईं जिनसे हम युद्ध तो क्या कर सकते थे अपनी ट्रेजेडी का मातम ही मना सकते थे। मुक्तिबोध ने “ब्रह्मराक्षस” कविता में इसी स्थिति का समग्र बिंब खींचते हुए कहा है-

पिस गया वह भीतरी

औ बाहरी दो कठिन पाटों के बीच

ऐसी ट्रेजेडी है नीच”

गति और संत्रास एक ही जीवन-चक्की के दो पाट हैं – इसी चक्की ने पूरी पीढ़ी को पीस डाला है। पाकिस्तान, चीन युद्धों के दौरान, आपातकाल (1975) के दौरान, लोकनायक जयप्रकाश नारायण की लोकक्रांति के दौरान, देश का पूरा जीवन संकटपूर्ण उथल-पुथल से गुजरा। देश पर भाषा की राजनीति का विकृत चेहरा थोपा गया तथा हिन्दी और भारतीय भाषाओं की छाती पर अंग्रेजी को अनन्तकाल तक के लिए बैठा दिया गया। भाषायी साम्राज्यवाद की यह भयावह स्थिति ही थी जिसने भारतीय भाषाओं के रचनाकारों के आत्मसम्मान तक को छीन लिया। शिक्षा नीति ने अंग्रेजी माध्यम की दृढ़ता से स्थापना कर दी।

हिन्दी में एक अनुवादजीवी संस्कृति का जन्म हुआ जो अपने मौलिक चिन्तन के बुनियादी सरोकारों से कटती गई। यहाँ अनुवाद जीवी संस्कृति का अर्थ है अपने मूल को गँवाकर पराई भाषा, पराये विचार पर निर्भरता। अपने चिन्तन की मूलगामी बुनियादों से विच्छिन्न हो जाने के कारण हिन्दी प्रदेशों में वैचारिक आन्दोलन नहीं उठा। केवल मन्दिर-मस्जिद की सत्यानाशी राजनीति ने अलगाववाद, धर्मवादी घृणा-भाव के बीज बोए और “हिन्दुत्व” की राजनीति ने देश में साम्प्रदायिकता को खुलकर खेलने का अवसर दिया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर पनपा क्या – फासिस्टवाद। जीवन को हर स्तर पर झूठ, पाखण्ड, छलकपट, चरित्रहीनता, भ्रष्टाचार से पाट दिया गया। समकालीन कविता सर्जनात्मक स्तर पर इस पूरे “परिवेश” से साक्षात्कार की कविता है। रघुवीर सहाय ने इसी स्थिति की पीड़ा से भरकर लिखा –

“बीस वर्ष

खो गए भरमे उपदेश में

एक पीढ़ी जन्मी पली-पुसी क्लेश में

बेगानी हो गई अपने ही देश में”

(आत्महत्या के विरुद्ध, पृ.-18)

रघुवीर सहाय ने मानवीय चिन्ताओं से भरी राजनीतिक कविताएँ इस दौर में सर्वाधिक लिखी हैं। यह प्रश्न भी उठाया गया कि क्यों हमारे विश्वविद्यालय बंजरपन के शिकार हुए और क्यों साहित्यिक संस्थाएँ दुकानें बनकर रह गई। क्यों कविता में “जीभ और जाँघ” का चालू मुहावरा प्रबल हो गया और क्यों नारी देह पूरी पवित्रता खोकर “भोग” रह गई। क्यों “भारतीयता” बेहद थका सताया शब्द रह गया। क्यों अमृतसर के मन्दिर में सेनाएँ घुसी और हत्याओं का दौर चला। क्यों राजनीति हत्यारों के हाथों चली गई। कहना न होगा कि यह “क्यों” इस सृजन में हर जगह मौजूद है। आज यह पूरा सृजन समाजवादी लोकतंत्र की पूरी पोल खोल कर रख देता है। इसी स्थिति ने इस सृजन में मामूली आदमी को भी ठोस स्थिति में नहीं रहने दिया। उसे पिघलाकर दबाकर “अमूर्त आदमी” में बदल दिया है।

समकालीनता, तात्कालिकता और परम्परा

समकालीन कविता मात्र साम्प्रतिक कविता का पर्याय नहीं है। यहाँ समकालीन का अर्थ है सन् 60 के बाद की कविता। इस संदर्भ में “समकालीन” शब्द को “समसामयिक” के पर्याय के रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता क्योंकि अगर ऐसा अर्थ लिया जाए तो प्रत्येक समय की कविता अपने समय में “समसामयिक” रही है। समकालीन कविता अपने समय, समाज और राजनीति से अनेक स्तरों पर गहराई से जुड़ी कविता है यह अलग बात है। इसी तरह समकालीन से तात्कालिकता का अर्थ भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। इधर नागार्जुन, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा की कविताओं में तात्कालिक स्थिति की कविताएँ बहुत हैं और यह हमारे वर्तमान को सीधे प्रसंगों, घटनाओं से जोड़कर सामने लाती हैं। ऐसी स्थिति में तात्कालिकता का अर्थ है कि ये कविताएँ काल चेतना (समय) को पहले की कविता की तुलना में ज्यादा सजगता, प्रखरता और चौकन्नेपन के साथ अभिव्यक्ति देती हैं। इसी सतर्कता के कारण समकालीन कविता अपने समय में प्रमुख तनावों, द्वन्द्वों-अन्तर्विरोधों, विरोधाभासों, संघर्षों और विकृत विसंगत विसंगतियों की कविता है। कवि को पता है कि कष्ट-यातना और शोषण का रूप क्या है और क्यों है उन विशेष कारणों का यह कविता संकेत देती है। कवि अपने इन जीवनानुभवों को काव्यानुभूति में रचता है। वह “कल्पित” के लिए संघर्ष नहीं करता। मामूली आदमी की यातना को वाणी देता है। फलतः यह कविता “जो हो रहा है” उसका खुलासा है। यह । लड़ते-झगड़ते-तड़पते-बौखलाते, चीखते-चिल्लाते आदमी के दर्द की कविता है। अपने अनुभव-चरित्र में यह आघातों-सूचनाओं के विस्फोटों की ब्यौरेवार विवरण देती कविता है।

यहाँ छायावादी कोमल भाव नहीं है – विचार की खुरदरी काली स्याह भयानक चट्टानें हैं जिनके भीतर से व्यंग्य-उपहास, हाय-हत्या-आतंक, राजनीति की सड़ांध से भरा नरक-जल बहता है। मूलतः यह अपने पूरे परिवेश से मुठभेड़ करते आदमी की कविता है। इस प्रकार से यह नयी कविता की परंपरा का नवीन अर्थविस्तार है। कवि ने परंपरा की लीकों को छोड़कर मौलिक ढंग से लोकचिन्ताओं। प्रश्नाकुलताओं के स्वर को बढ़ाया है। अज्ञेय और मुक्तिबोध का मार्ग इस कविता ने छोड़ा नहीं है। उसे मोड़कर फिर से नई राहों की तलाश की है। इस सृजन में एक विद्रोही मानव मूर्ति उभरती है जो नक्सलवाद की ओर जाती है और जिसमें गौरिल्ला युद्ध की छापामार मनःस्थितियों का विस्फोट है। इसमें “सशस्त्र राजनीति” और “सशस्त्र क्रांति” का अरमान प्रबल है। इन कवियों के आदर्श जयप्रकाश नारायण, चेगुपेनारा, माओ, मार्क्स-लेनिन, कोहिन-वेंदो हैं।

नक्सलवादी आन्दोलन, मार्क्सवादी दलों की प्रतिबद्ध कविताओं-जनवादी कविता की क्रांतिकारिता का इस सृजन में तूफान आया मिलता है। यह कविता पुराने सामन्तवादी, साम्राज्यवादी ढांचे को ढहाने की आवाज उठाती है और लोकतंत्र के अधिनायकवादी मुखौटे की खुलकर निन्दा करती है। कवि जानता है कि लोकतंत्र में स्वतंत्रता का अर्थ अवसरवादी स्वार्थपरता बन गया है। हम एक बार फिर “लुकमान अली” का उदाहरण लेते हैं।

“लुकमान अली के लिए स्वतंत्रता उसके कद से केवल तीन इंच बड़ी है।

वह बनियान की जगह तिरंगा पहनकर कलाबाजियाँ खाता है।

वह चाहता है कि पाँचवे आम चुनाव में वह बौनों का प्रतिनिधित्व करे।

उन्हें टॉफियाँ बाँटे।

जाति और भाषा की उन्हें कसमें खिलाए।”

जाहिर है कि आज के बाद की विद्रूपता विसंगति ही समकालीन कविता की केंद्रीय संवेदना रही है।

समकालीन कविता में आधुनिकता का अर्थ-सन्दर्भ

धूमिल, श्रीकांत वर्मा, केदारनाथ सिंह, लीलाधर जगूड़ी, रघुवीर सहाय से लेकर युवा कवि उदय प्रकाश, अरुण कमल का सृजन कर्म साक्षी है कि इस सृजन में आधुनिकता एक थकी हुई दृष्टि का पर्याय है। एक केन्द्र विहीन उत्तर आधुनिक परिदृश्य इस सृजन में उमड़-घुमड़ रहा है। यहाँ आधुनिकता का उत्तर आधुनिकता में समाहित हो जाने से उसका अर्थ बना है – पश्चिमी तकनीकी क्रांति और पश्चिम की । नकल या पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति की सीधी स्वीकृति। जिसमें मूल आदमी गायब है।

केवल एक उपभोक्तावादी समाज है जिसमें “उपभोक्ता” ही सब कुछ है। कवि यह सूचना देने वाला भर रह गया है कि विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में टेक्नालॉजी का पूरा लाभ उन्हीं को मिलता है जो बाजार के मालिक हैं। इसी आधुनिकीकरण ने आत्म-परायेपन (Self-Alienation) और अवमानवीयकरण (Dehumanization) को जन्म दिया है। हिन्दी की समकालीन कविता में धूमिल, राजकमल चौधरी, श्रीकान्त वर्मा, रघुवीर सहाय की कविताएँ इसी परिदृश्य का प्रामाणिक दस्तावेज हैं। धूमिल ने “संसद से सड़क तक” काव्य संग्रह की कविता “पटकथा” में कहा है :

“दरअसल अपने यहाँ प्रजातंत्र

एक ऐसा तमाशा है

जिसकी जान

मदारी की भाषा है

अपने यहाँ संसद

तेल की वह घानी है

और जिसमें आधा तेल आधा पानी है।”

समकालीन सभी कवियों ने “संस्कृति”, “स्वतंत्रता”, “संसद”, “आस्था”, “शांति”, “भाषा”, “कानून”. “जनतंत्र”, “त्याग”, “मनुष्यता”, “झंडा” आदि शब्दों की अर्थवत्ता खो जाने का और इनकी अर्थ विकृति का भंडाफोड़ किया है। “हर ईमान का एक चोर दरवाजा है” और आदमी जीवन के इस नरक में सड़ने को विवश कर दिया गया है। ध्यान देने की बात यह है कि समकालीन यथार्थ को समझने-समझाने का ढंग सभी कवियों का अलग-अलग है।

समकालीन यथार्थ कुँवर नारायण और विजयदेवनारायण साही की कविता में उस रूप में कहीं नहीं है जो नागार्जुन या शमशेर की कविता में है। कुँवर नारायण में। समकालीन यथार्थ को रचने का ढंग शान्त और आत्मदीप्त है, नागार्जुन में व्यंग्यपरक और उत्तेजक। रघुवीर के मोहभंगपरक यथार्थ से समकालीन कविता का यथार्थ भिन्न है। समकालीन यथार्थ राजनीतिक सांस्कृतिक विकृतियों का यथार्थ है जिन्हें जीने के लिए और जिनमें जीने के लिए आदमी लाचार है जिसके दुःखते-कसकते अनुभवों की यातना को यह कविता “चीख” और “आग” में बदलकर व्यक्त करती है।

समकालीन कविता में समसामयिकता और आधुनिकता दोनों मिलकर प्रासंगिकता का रूप ग्रहण कर लेती हैं। जिसमें तात्कालिकता वाला हल्का अर्थ भी रहता है पर वह ओट में छिप जाता है। इस प्रकार आधुनिकता का यहाँ अर्थ है – देश और काल से जीवन्त सम्बंध । समकालीन कवि का तात्कालिकता पर बढ़ता आग्रह क्या है- इतिहास से मुक्ति पाने का संघर्ष । नया कवि हर मोर्चे पर मुक्ति के लिए संघर्ष करता मिलता है।

समकालीन कविता : परिदृश्य की विशालता

नयी कविता के बाद की कविता या समकालीन कविता में एक साथ हिन्दी कविता की कई पीढ़ियों के कवि सक्रिय हैं। यह एक विशाल सृजन परिदृश्य है जिसमें अनेक धाराओं का वैचारिक कोलाहल सुनाई देता है। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि सातवें-आठवें दशक में तीस से ज्यादा काव्य-आंदोलन प्रस्तावित किए गए किन्तु उनमें से किसी को भी एक केन्द्रीय आन्दोलन के रूप में महत्त्व नहीं मिला। जाहिर है कि यह कविता किसी भी तरह के “केन्द्रवाद” (सेन्ट्रिज्म) का निषेध करती है। किसी भी एक विचारधारा या दल का इस पर वर्चस्व नहीं है यह एक खुला हुआ जीवन-जगत् का रचना क्षेत्र है जिसमें कवि अपने जीवनानुभव के यथार्थ को सर्जनात्मकता में। नयी अंतर्वस्तु और रूप देता है। विशिष्ट अनुभव का तो बहुत कुछ ‘काव्य’ है – सपाट अनुभव की रचना यहाँ असली कवि-कर्म है, जिस नई चुनौती को इन सभी कवियों ने स्वीकार किया है। कवि ‘सम्पूर्ण जीवन” पर रचना को एकाग्र करता है उसके किसी अंश मात्र पर नही ।

रघुवीर ने कहा है

“हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन

न कम न ज्यादा”

कवियों ने गद्य के चिन्तन और कविता की सघन अनुभूति को एकमेक करते हुए गद्य-कविता में बड़ी दक्षता हासिल की है। रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह, श्रीकान्त वर्मा, धूमिल-मलयज से । लेकर अशोक वाजपेयी तक इस दक्षता की खुली सम्भावनाओं का विस्तार हैं। सपाट बयानी के साथ सघन बिंब-विधान की कला इनमें से ज्यादातर के पास है। ये कवि प्रेरणा निराला, अज्ञेय और मुक्तिबोध से लेते हैं। इस कविता सृजन में यह तीनों कवि अपने-अपने ढंग से मौजूद  मिलते हैं। समकालीन कविता में कई धाराएँ है – जिनमें से कुछ प्रमुख धाराओं का हम उल्लेख कर रहे हैं :

  • प्रगतिशील यथार्थ की धारा- इसमें नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, गजानन माधव मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, धूमिल, मलयज, श्रीकान्त वर्मा, कुमार विमल, लीलाधर जगूड़ी, भगवत रावत, चन्द्रकान्त देवताले, अरुणकमल आदि कवियों का एक महत्वपूर्ण सृजन-प्रवाह है।
  • प्रयाग के “परिमल” मंच से जुड़े कवि- लक्ष्मीकान्त वर्मा, जगदीश गुप्त, विजयदेवनारायण साही, धर्मवीर भारती आदि का सृजन भी समकालीन कविता में विशेष भूमिका रखता है।
  • “तारसप्तक” की परम्परा के कवि गिरिजाकुमार माथुर, कुँवरनारायण, रामविलास शर्मा, केदारनाथ सिंह, नरेश मेहता, भवानी प्रसाद मिश्र, हरि नारायण व्यास आदि ने भी समकालीन जीवन को अपने काव्य-सृजन में खास ढंग से परिभाषित किया है।
  • स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़े कवि- माखनलाल चतुर्वेदी, बाल कृष्ण शर्मा, “नवीन” आदि की राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य-धारा भी इस काल में सक्रिय रही है।
  • नवगीत आन्दोलन भी समकालीन कविता की एक विशिष्ट धारा है जिसमें ठाकुर प्रसाद सिंह, रमानाथ अवस्थी, रमेशरंजक, चन्द्रदेव सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, शिवमंगल सिंह “सुमन”, श्रीकान्त जोशी, राजेन्द्र किशोर, विजयकिशोर मानव आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
  • अकविता आन्दोलन का समकालीन कविता में एक महत्वपूर्ण हाशिया है। इसमें जगदीश चतुर्वेदी, श्याम परमार, गंगाप्रसाद विमल, सौमित्र मोहन, मणिक मोहिनी, मोना गुलाटी और राजकमल चौधरी आदि के सृजन-कर्म की खासतौर पर चर्चा हुई है।
  • समकालीन कविता की विद्रोही धारा के कवियों में गोरख पाण्डेय, ऋतुराज, सोमदत्त, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल, इब्बार रब्बी, वेणुगोपाल, मणि मधुकर, आदि अनेक महत्वपूर्ण कवि हैं।

यहाँ समकालीन कविता के सभी नाम गिनाना न तो सम्भव है और न यह उद्देश्य ही है। बहुत से नाम छूट गए हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन सभी धाराओं के कवियों ने समय-समाज-राजनीति की चिन्ताओं-तनावों का सृजनशीलता से सीधा रिश्ता कायम किया है। चीन-पाकिस्तान युद्ध-आतंक, आपातकाल, सेक्स-हिंसा, विचारधाराओं की दिशाहीनता, भ्रष्टाचार, मानवद्रोही राजनीति का एक ऐसा । तूफान चला कि सभी मूल्य चमराकर अधमरे हो गए। इस समय के मनुष्य की हालत को परिभाषित कर पाना कठिन है क्योंकि वह यातना-विक्षोभ में पिसता दिखाई देता है। ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों में भारी अवमूल्यन ने निराशा को जन्म दिया।

इस अवमूल्यन का असर रचनाओं की अन्तर्वस्तु और भाषा दोनों पर पड़ा। काव्य-भाषा इसी प्रभाव-दबाव के कारण गम्भीर अर्थच्छायाओं की विचारभूमि से स्खलित होकर सपाट बयानी की ओर मुड़ गई और उसने गद्य से निकटता स्थापित की। जटिल स्थितियों – मनःस्थितियों – के कारण कवि-कर्म कठिन हो गया। इन कवियों ने अपनी पूरी स्थिति से क्षुब्ध होकर नितान्त तात्कालिकता को रचना में उतारने का यत्न किया। परिणाम यह हुआ कि इनका ऐतिहासिक विवेक मूर्छित होता गया और भाषा जातीय-स्मृति के गहरे बोध से कटती गई। इनमें से अधिकांश को यह ध्यान तक नहीं है कि हमारी पीठ पर एक सम्पन्न और समर्थ काव्य-परम्परा का हाथ है।

स्मृति भ्रंश से उपजी स्थिति के कारण ज्यादातर युवाकवि भयावह सरलीकरणों-निरर्थकताओं-चीखों-सन्त्रासों का । शिकार होते गए। यातना, पीड़ा, सन्त्रास, अकेलापन समकालीन आदमी ने ही झेले हों ऐसी बात नहीं है, पहले भी आदमी कष्टों-पीड़ाओं से गुजरा है। लेकिन नये कवियों ने हमारी स्थिति को विशिष्ट स्थिति। मानकर अपनी यातनाओं पर आँसू बहुत बहाए ।

कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने इसी पूरी स्थिति को तौलकर कहा – “ऐतिहासिक विवेक को छोड़ने के नतीजे रचनात्मक और अलोचनात्मक दोनों ही स्तरों पर भयानक हुए हैं। इससे इतिहास के भार से मुक्ति इतनी नहीं मिली जितनी एक बेमानी-सी स्वतंत्रता, रचनात्मक स्तर पर भाषा के संस्कार के प्रति जागरूकता का अभाव, उसकी सांस्कृतिक जड़ों के प्रति उदासीनता आई है और अपनी पांरपरिक अनूगूंजों और अनुषंगों, कवियों के अज्ञान और अरुचि के कारण कट जाने से काव्यभाषा में, ज्यादातर युवा कवियों की काव्य भाषा में सपाटता, सतहीपन और मानवीय दरिद्रता आई।” (फिलहाल, पृष्ठ-10) समकालीन कविता में जातीय स्मृति, बौद्धिकता के क्षरण से विचार और सृजन में दरिद्रता को ढो रहा है।

नयी कविता तक हिन्दी भाषी क्षेत्र में प्रखर स्वचेतना, विवेक वयस्कता, बौद्धिकता, सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ने का अरमान था – जिसे अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, भवानीप्रसाद मिश्र, सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, कुँवरनारायण, धर्मवीर भारती की उस दौर की कविताएँ सामने लाती हैं – वह दौर रातों रात कहाँ चला गया? इधर धूमिल, मलयज, लीलाधर जगूड़ी, श्रीकान्त वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, सोमदत्त, अकविता से जुड़े तमाम कवि – जगदीश चतुर्वेदी, सौमित्र मोहन आदि कवि, चीखते काव्य मुहावरे, यौन क्रांति की आवाज, दहाड़ती अबौद्धिक मुद्राएँ जो आई हैं क्या वे इन सभी के काव्य-प्रभाव को सीमित नहीं करतीं।

नवगीतकारों की एक पूरी पीढ़ी भावात्मक आस्फालन की अबौद्धिक स्थितियों का शिकार क्यों है? लक्ष्मीकान्त वर्मा, जगदीश गुप्त, श्रीराम वर्मा आदि कवियों ने “उदात्त” को क्या खोया नहीं है? नववामपंथी, जनवादी विद्रोह कविताओं की नारेबाजी का अकाव्यात्मक अन्दाज पाठक को अग्राह्य क्यों है? इन सबका उत्तर एक ही है कि राजनीतिक आतंक में फँसकर कविता अपनी गहरी सांस्कृतिक जड़ों और वैचारिक स्थितियों की धुरी से उतर गई है।

यह भी कहा जा सकता है कि समकालीन कविता में गहन सांस्कृतिक बोध और अन्य तरह के वैचारिक सरोकारों के अभाव को पाकर हमें निराश नहीं होना चाहिए। छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता तक तो विचार ने सृजन को ताकत दी लेकिन इधर “उत्तर आधुनिकतावादी परिदृश्य” ने विचारधाराओं के केन्द्रवाद को तोड़कर विचारधाराओं का अन्त कर दिया, इतिहास-परम्परा का अन्त कर दिया और एक उपभोक्तावादी संस्कृति और मनुष्य को जन्म दिया जिसकी वैचारिक क्षमता को लकवा मार गया है। क्या यह कम बड़ी बात है कि समकालीन कवि अपने “परिवेश” को सृजन बनाने लगे और मामूली आदमी की चिन्ताओं-यातनाओं का पाठक को अहसास करा सके । इन सभी ने मुक्तिबोध को बहुत आत्मीय भाव से अपनाया और उनकी कविताओं को ‘गीता’ मानकर आगे बढ़े। ज्यादातर युवा कवि गाँवों कस्बों से, छोटे शहरों और महानगरों में आए।

इस जिन्दगी ने एक नई रूमानियत और साहसिकता को जन्म दिया। युवक-युवतियाँ सहज भाव से मिले – स्त्री-पुरुष सम्बंधों में स्वतंत्रता का अर्थ भी खुलकर सामने आया। पश्चिमी जीनकल्चर, हिप्पी कल्चर, पॉप म्यूजिक कल्चर के झटके “टीनएजर्स” ने महसूस किए। फलतः प्रेम-सेक्स की धारणाओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया । युवा-सृजन में “जीभ और जाँघ का भूगोल” एक पूरी सामाजिक मानसिकता को ध्वनित करता है जिसमें “सेन्सर्स” को नकारने का भाव है। जहाँ मुक्तिबोध के काव्य का नायक सत्ता के षड्यंत्रों का भंडाफोड़ करता था वहाँ समकालीन कविता का नायक अपनी यातना-चीख के गर्क में खड़ा मिलता है।

समकालीन कविता में बृहत्तर सामाजिक, संघर्ष और आत्म-संघर्ष के बीच तनाव क्या ढीला पड़ा, रगड़ से पैदा होने वाली आग ही ठंडी हो गई। मामूली आदमी स्वार्थी राजनीति के हाथों ऐसे खेलता रहा कि न उसे स्वाधीनता-आन्दोलन का अर्थ पता चला, न गांधी, न सुभाष का, न लोहिया, न कार्लमार्क्स का। राजनीति ने घपले पर घपले किए और राजनीति “घपलावाद” का पर्याय बनकर भरोसे से विहीन हो गई। इस लोकतंत्र में देशभक्ति धोखा है और “चरित्र” मजाक । देश में फैले व्यापक गुंडातंत्र ने सत्ता को हथिया लिया। समकालीन कविता में इसी यथार्थ की नरक यात्राएँ हैं।

समकालीन सृजन की उपलब्धियों में रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, धूमिल-मलयज, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर, कुँवर नारायण, गिरिजाकुमार माथुर, विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी, केदारनाथ सिंह, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, लक्ष्मीकान्त वर्मा – नाम कहाँ तक लें-इन सभी के काव्य सृजन को लिया जा सकता है। यह सृजन अपने समय-समाज का सच्चा साक्ष्य है। रघुवीर सहाय, धूमिल और केदारनाथ सिंह का नया काव्य-मुहावरा पुरानी लीकों से हटकर है। इन सभी का सृजन हिन्दी कविता की एक उपलब्धि है। परम्परागत संस्कारों पर प्रहार करते हुए अकवितावादियों ने भी खुलापन अपनाया। राजकमल चौधरी, सौमित्र मोहन, जगदीश चतुर्वेदी का काव्य न तो पूरी तरह पश्चिम के गिंसवर्ग, नार्मल मेलर आदि बागी लेखकों की नकल है न हमारी वास्तविकता से पलायन। हाँ, इनके संघर्ष का तरीका अलग है। नववामपंथी-जनवादी रचनाकारों की सब कविताएँ “कोरी फार्मूला” नहीं है उनमें समय के घावों का दर्द सच्चा है।

समकालीन कविता की सभी धाराओं के महत्त्वपूर्ण काव्य-संग्रह इस प्रकार हैं – रघुवीर सहाय – “आत्महत्या के विरुद्ध”, “हँसो, हँसो और हँसो”, धूमिल- “संसद से सड़क तक”, मलयज-“जख्म पर धूल”, दुष्यंत कुमार-“जलते हुए वन का वसंत”, अज्ञेय-“महावृक्ष के नीचे”, “सागर मुद्रा”, शिवमंगल सिंह सुमन-“मिट्टी की बारात”, ऋतुराज-“एक मरण धर्मा और अन्य”, लीलाधर जगूड़ी-“नाटक जारी है” विनोद कुमार शुक्ल-“लगभग जयहिंद”, श्रीकान्त वर्मा-“जलसाघर”, “मगध”, वेणु गोपाल-“वे हाथ होते हैं”, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना-“खूटियों पर टँगे लोग”, भवानी प्रसाद मिश्र-“तूस की आग”, धर्मवीर भारती-“सपना अभी भी”, हरिनारायण व्यास-“आउटर पर रुकी ट्रेन”, केदारनाथ सिंह-“अकाल में सारस”, “उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएँ”, नरेश मेहता-“महाप्रस्थान”, “शबरी”, नागार्जुन-“पुरानी जूतियों का कोरस”, शमशेर-“काल तुझसे होड़ है मेरी”, विजय देव नारायण साही-“साखी”, गिरिजा कुमार माथुर-“मै वक्त के हूँ सामने”|

सन् 1980 को “कविता की वापिसी” का वर्ष कहा गया। इस वर्ष एक साथ पुराने और नए कवियों के बहुत से काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। राजनीतिक-सामाजिक विकृतियों-विषमताओं पर कवियों के तेवर विद्रोही-मुद्राओं के साथ खुलकर सामने आये। कवि कर्म में व्यंग्य की धार पैनी हो गई और लोक-वेदनाओं-यातनाओं का विस्फोट हुआ। समकालीन कविता को रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, उदय प्रकाश, श्रीकान्त वर्मा, अरुण कमल ने अन्तर्वस्तु और काव्य-भाषा के स्तर पर नई दिशाओं की ओर प्रवृत्त किया। बाद के काव्य में जो प्रक्रिया शुरू हुई उसमें व्यक्ति का निर्वासन प्रमुख हो गया। व्यक्ति के इस निर्वासन को डॉ. नामवर सिंह मार्क्सवादी व्यक्ति निर्वासन की दृष्टि से देखते हैं, मलयज सर्जनात्मकता के संदर्भ से जोड़ते हैं और डॉ. रामविलास शर्मा अस्तित्ववाद की अवधारणा से जोड़कर देखते हैं। लेकिन सभी आलोचक इस विचार से सहमत हैं कि युवा-पीढ़ी ने आत्म-निर्वासन की क्रूर यातना झेली है और उसे सृजन में बिना किसी छिपाव के व्यक्त कर दिया है।

समकालीन काव्य-सृजन की मूल प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ

समकालीन काव्य सृजन की मूलभूत प्रवृत्तियों या विशेषताओं का वस्तुवादी विवेचन-विश्लेषण और मूल्यांकन या प्रवृत्तियों का समग्र रूप में निर्धारण सम्भव नहीं है। क्यों संभव नहीं है? इसका प्रमुख कारण तो यही है कि यह सृजन अभी अपनी तरह से नयी-पुरानी पीढ़ियों के बीच तथा पूरी ताकत से । सृजन-धाराओं के रूप में प्रवाहित है। नदी की तरह इसने पुराने तटों को तोड़कर जिन नये तटों का निर्माण किया है वे अभी स्थायित्व नहीं पा सके हैं। प्रवाह में इतने खतरनाक भँवर हैं कि गोताखोर तक थाह नहीं पा सकता।

अनेक धाराएँ मिलकर जिस एक विशालधारा का निर्माण कर रही हैं उसका अनुभव तो किया जा सकता है पर मझधार में टिका नहीं जा सकता। कविता-अकविता, विचार कविता-ठोस कविता, युयुत्सावादी-निषेधवादी कविता आन्दोलनों का इतना कोलाहल है कि स्थिर मन से विचार करने में बाधा पड़ती है। पुरानी रुचियों-संस्कारों, शास्त्रीय मानदण्डों वाले आचार्य प्रवरों को समकालीन कविता में सृजन का उजाड़वाद, परम्परा की नासमझी, अराजक यौनक्रांति, चीख-गुस्सा झल्लाहट के सिवा कोई गम्भीर समस्या या जीवन-दर्शन नहीं दिखाई देता है। इनमें अधिकांश पुराने आचार्य प्रवर तो ऐसे हैं जो समकालीन कविता को पढ़ते नहीं हैं – केवल उसका खण्डन या फतवे जारी करते रहते हैं। एक नये कवि के शब्द उधार लेकर कहें तो आचार्य गण-

“थोड़ा सा ऊंघकर ।

कह देते सूंघकर

कोरी तुकबन्दी थी

कविता क्या खाक थी।”

यह हालत इसलिए भी है कि इन आचार्यों पर रीतिवादी-सौन्दर्यवादी अभिरुचियाँ “हावी” हैं, इनके पास नया विचार बोध या नया काव्य-संस्कार नहीं है। निराला-अज्ञेय-मुक्तिबोध को ये आचार्य न समझ सके न सम्मान दे सके । फलतः नये कवियों को छायावादी कवियों की भाँति अपनी बात समझाने के लिए कविता के साथ आलोचना लिखनी पड़ी। यही हाल “नयी कविता” काल में हुआ था और यही गति समकालीन कविता के काल में जारी है। मलयज, रघुवीर प्रसाद, श्रीकान्त वर्मा, शमशेर, अशोक वाजपेयी को समकालीन सृजन समझाना पड़ रहा है। शुद्ध आलोचकों को समकालीन कविता की प्रवृत्तियों को समझने के लिए समय की थोड़ी दूरी चाहिए। वे इसके इतने पास हैं कि ठीक से देख पाना सम्भव ही नहीं है। फिर समकालीन कविता की लीकें नहीं बनी हैं और न इनका काव्य-शास्त्र निर्मित हो सका है। ऐसी स्थिति के कारण मात्र समझ के लिए हम समकालीन कविता की कुछ एक प्रवृत्तियों की चर्चा कर रहे-

  • समकालीन कविता के प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण कवियों ने समय-समाज की चुनौतियों से उपजी बौद्धिक चिन्ताओं का सृजनशीलता से सीधा रिश्ता कायम किया। इन सभी कवियों ने अपनी काव्य-संवेदना को इतना धारदार, निर्भय और व्यापक बनाया कि उसमें न केवल राजनीतिक आर्थिक क्षेत्रों के भ्रष्टाचार, चरित्रहीनता पर तेज टिप्पणियाँ, व्यंग्यवक्रोक्तियाँ, खीझ आक्रोश, गुस्सा-विद्रोह की मुद्राएँ है – वरन् मानवीय सार्थकता के सभी सरोकार सक्रिय हैं। समय और समाज के जटिल यथार्थ को उजागर करने के लिए इन सभी काव्य-धाराओं-आंदोलनों-प्रवृत्तियों के कवियों ने अपनी गहरी सामाजिक सांस्कृतिक जागरूकता का अहसास कराया। जीवन जगत के व्यापक प्रश्नों को उठाने के कारण इस काव्यभूमि की अर्थ-चेतना का विस्तार हुआ है।
  • समकालीन काव्य की अन्तर्वस्तु अत्यंत व्यापक है। इतनी व्यापक है कि पूरे देश की जनता के दुःखते-कसकते अनुभव इस सृजन में व्याप्त हैं। देश की राजनीतिक-सामाजिक, आर्थिक-सांस्कृतिक, धार्मिक-नैतिक सभी समस्याओं-प्रश्नाकुलताओं को इन रचनाकारों ने निर्भय भाव से अभिव्यक्त किया है। लोकतंत्र का भीतरी खोखलापन, कांग्रेसी समाजवाद का ढोंग और छल, पूँजीपतियों से साँठ-गाँठ की चरित्रहीनता, जनता र भंयकर शोषण, श्रम का परायापन, आत्मनिर्वासन, अमानवीयकरण, भाषा नीति के साथ दगा, हरित क्रांति की असफलता, आपातकाल की क्रूरता और पागलपन, लोकनायक जयप्रकाश नारायण की लोक क्रांति, अमेरिकी भीख पर बढ़ती निर्भरता, साम्प्रदायिक शक्तियों का उभार, जातिवाद, प्रदेशवाद, नस्लवाद, घटिया-आधुनिकतावाद, व्यक्तिवाद और मार्क्सवाद की टक्कर, युवा-पीढ़ी के विद्रोह के अनेक पक्ष, हताशा के गहरे घाव आदि, सभी परिस्थितियों का चित्रण किया गया है।
  • नेता, संसद, समाजवाद और स्वतंत्रता पर समकालीन कविता ने जो स्वर अपनाया है वह स्वाधीन भारत का काला इतिहास है। कौए, गिद्ध, गुबरैले, भेड़िये, तेन्दुए, साँड, शेर इस कविता में पाशविक ताकतों की रक्तखोर मानसिकता को सामने लाते हैं। सर्वेश्वर की कविताओं में काली चट्टानों पर अंगड़ाई लेता काला तेन्दुआ सत्ता की बर्बरता का प्रतीक है तथा संसद धूमिल के शब्दों में तेली की वह घानी है जिसमें “आधा तेल है आधा पानी है”  स्वतंत्रता कहने भर को है। हर तरह की पराधीनता का नरक देश भोग रहा है। न आदमी स्वतंत्र है, न भाषा, न अर्थ-व्यवस्थता और न बुद्धजीवी। यहाँ “नेता” शब्द अवमूलियत होकर लुटेरे-हत्यारे-गुंडे-नंगई पर आमादा मुस्तंडे का अर्थ सन्दर्भ पा गया है। सौमित्र मोहन की लम्बी कविता “लुकमान अली” धूमिल की लंबी कविता “पटकथा” और “मोचीराम” नागार्जुन की लम्बी कविता “हरिजन गाथा”, पूरे राजनीतिक पतन की त्रासदी का खुलासा हैं।
  • समकालीन कविता का कथ्य, जन-संघर्ष की चेतना को अनेक रूपों-स्तरों से सीधे- सीधे अभिव्यक्ति देता है। प्रगतिवाद-नयी कविता के कवियों की व्यवस्था विरोध की प्रवृत्ति इस कविता में विद्रोह-विक्षोभ का रूप धारण कर लेती है। सन् 60 के बाद की महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अवसरवादिता, चरित्रहीनता, काला-परिवेश या आपातकाल की बर्बरता, काले-काले अध्यादेश, नागार्जुन से लेकर धूमिल तक को गुस्से से भर देते हैं। समकालीन काव्यानुभूति और काव्यानुभव में.एक ऐसे यथार्थ का नया संसार जन्म लेता है जिसमें चौतरफा लड़ाई है। शब्द युद्ध में बदल गए हैं। विजयदेव नारायण साही ने “साखी” कविता संग्रह की कविता “सत की परीक्षा” में लिखा-

“साधो आज मेरे सत की परीक्षा है।

बीच में आग जल रही है।

उस पर बहुत बड़ा कड़ाह रखा है।

कड़ाह में तेल उबल रहा है।

उस कड़ाह में मुझे सबके सामने हाथ डालना है।

साधो, आज मेरे सत की परीक्षा है।”

  • नयी कविता मोहभंग की कविता है पर समकालीन कविता मोह-भंग की कविता नहीं है। वह आत्म चीत्कार और व्यक्ति के मोहभंग का साहित्य है। मलयज ने लिखा है- “नेहरू युग का साहित्य इसी शानदार मोहभंग का साहित्य है। इसके विपरीत नेहरू-युग के बाद की राजनीति आम आदमी की राजनीति है। छात्र-असंतोष, घेराव और दल-बदल में आम आदमी की ही नस बजती है। जिस राजनीति के अन्तर्गत न्यूनतम कार्यक्रम का झंडा पार्टी-सिद्धान्तों के चिथड़े को सिलकर बनाया गया हो वहाँ मोहभंग की गुंजाइश रह ही नहीं जाती। आम आदमी की राजनीति स्थिति के इस कटु स्वीकार से ही शुरू होती है। (कविता से साक्षात्कार-पृष्ठ, 165) समकालीन कविता बुनियादी तौर पर इसी कटुस्थिति परिस्थिति की सच्चाई का साक्षात्कार है। इस सच्चाई की ईमानदार अनुभूतियाँ हाड़फोड़ दर्द से निकलकर रचना में आई हैं।
  • नयी कविता के ज्यादातर कवियों पर शीतयुद्ध के आतंक की छाया है। साथ ही उन पर आधुनिकतावादी प्रवृत्तियाँ मानववाद, क्षणवाद, व्यक्तिवाद, लघुमानववाद, अस्तित्ववाद – व्यक्ति-स्वातंत्र्य दर्शन का वर्चस्व है। लेकिन समकालीन कविता के काल में नए ढंग के नव्य साम्राज्यवाद, नव्यपूँजीवाद, नव्य-उपनिवेशवाद, उत्तर आधुनिकतावाद का दबदबा है। समकालीन कविता पर नवमानववाद का लगभग वैचारिक कब्जा है। इधर जिसे नव प्रगतिवाद नाम दिया गया है – उस धारा को रघुवीर सहाय, लीलाधर जगूड़ी, धूमिल, मलयज, कुमार विकल, उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल तथा अरुण कमल आगे बढ़ा रहे हैं। फलतः समकालीन कविता में “अकविता” ही क्यों न हो उसमें आधुनिकतावादी, कलावादी, भाववादी विचारधाराएँ पस्त और बेदम हैं।
  • समकालीन कविता में काव्य संवेदना का तनाव ढीला पड़ गया है। तनाव के ढीले पड़ने की बात लगभग समकालीन कविता के सभी आलोचकों ने उठाई है। तनाव के ढीले पड़ने के कारणों की पड़ताल करते हुए मलयज ने कहा, “समकालीन जटिल परिवेश का तीव्र अहसास और सर्जनात्मक धरातल पर उसकी चुनौती को फलीभूत न कर पाने की स्थिति में ही अक्सर सरलीकरण की प्रवृत्ति पनपती है जिसका विघटित रूप संवेदना और भाषा दोनों के ही फार्मूलाबद्ध हो जाने में दिखाई देता है।
  • सरलीकरण एक प्रकार का शार्टकट है जो स्नायुविक ऊर्जा की कमी का संकेत देता है। बहुत पहले शमशेर बहादुर सिंह ने प्रयोगवाद को “नर्वस ब्रेकडाउन” की। कला कहा था। आज की ज्यादातर कविता को अगर “नर्वसडैबिलिटी” की कला कहा जाय तो शायद अत्युक्ति नहीं होगी। आज का न सिर्फ अधिकांश लेखन बल्कि विद्रोह की मुद्राएँ भी क्यों शब्दिक लगती हैं? इसलिए नहीं कि उसके पीछे अनुभूति की प्रामाणिकता नहीं है या वह भोग हुए यथार्थ से नहीं उपजा है, बल्कि इसलिए कि संवेदना और उसकी धारक भाषा के बीच कार्यरत तनाव ढीला पड़ गया है या बिखर गया है। ऐसा होने पर सच्ची संवेदना के रहने पर भी शब्द मुर्दार पड़ जाते हैं। और प्रामाणिक लेखन छद्म लेखन बन जाता है।
  • कहना न होगा कि संवेदना और भाषा के बीच कार्यरत उस तनाव को खुराक स्नायुविक ऊर्जा से ही मिलती है। मैंने स्नायुविक ऊर्जा को किसी जीवन मूलक कसौटी के रूप में नहीं, बल्कि सर्जनात्मक परिफलन के रूप में ही ग्रहण किया है। युवालेखन के सन्दर्भ में अक्सर “विद्रोह” और “आक्रोश” जैसे शब्द प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। युवा लेखन बहस में भी यह बात उभर कर आयी है कि युवापीढ़ी ने अपनी विशेष और ऐतिहासिक स्थिति के कारण वह कुछ कर दिखाया है-चाहे वह यथार्थ का बिना लागलपेट के चित्रण हो, सेक्स और राजनीति हो, आडम्बरहीन प्रत्यक्ष संवेदनों से उत्पन्न गैररोमानी भाषा-प्रयोग हो-वह पूर्व पीढ़ी और बिचली पीढ़ी के बूते का न था।” (कविता से साक्षात्कर, पृष्ठ-170)

युवा पीढ़ी ने एक परिवर्तित ऐतिहासिक स्थिति में अपनी भूमिका को साहस के साथ स्वीकार किया। इसलिए तमाम गुस्सा चीख अकुलाहट बेबसी-बेचैनी, मलाल के बावजूद उनके सृजन में अनास्था का स्थायीभाव नहीं है। नववामपंथी विचारों की ताकत के कारण टूट-टूट कर जीने वाली आस्था की प्रवृत्तियाँ ही इस नए सृजन में प्रमुख हैं। विद्रोह-आक्रोश, चीख-हुल्लड़ के पीछे जीवन प्रक्रिया के साथ सृजन प्रक्रिया के धीमे पड़ जाने की पीड़ा का बोध है। इसमें न तो “मानवीय संवेदना” की अनुपस्थिति है न “नैतिक असंवेदन” की गलन । इसलिए इस लेखन को किसी भी कीमत पर अराजकतावादी स्मृतिभ्रष्ट, यौन-क्रांतिवादी, प्रेम में सहवास की गंध, प्रकृति की सौन्दर्य संवेदना की उपेक्षा की कविता कहकर गैरजिम्मेदार लेखन नहीं कहा जा सकता। यह कविता शहरीकरण की यंत्रणा से उपजी है जिसमें सबसे ज्यादा तबाही बच्चे-बूढ़ों तथा औरतों को झेलनी पड़ी है। रोजी-रोटी कमाने के चक्कर में आदमी सड़क की त्रासदियों का शिकार हुआ है। समकालीन कविता ऐसी स्थिति में जीवनानुभूतियों की तमाम प्रामाणिक मुद्राओं की कविता है।

  • कविता और राजनीति का घनिष्ठ रिश्ता समकालीन कविता में काफी गरम है। इतना गरम कि पिछले तीन दशकों से कविता और राजनीति के सम्बध की चर्चा रही है। आलोचकों-कवियों ने इस विषय पर जमकर लेख लिखे । कारण यह है कि आम आदमी जिन्दगी को नियंत्रित करने वाली शक्ति के रूप में राजनीतिक सत्ता और प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभावों-सम्बधों की अभिव्यक्ति बढ़ गई है। राजनीति के साथ लगाव का अर्थ है अपने युग परिवेश और युग-सन्दर्भ से सम्बन्ध । राजनीति आज जीवन में इतने रूपों, विविध मुद्राओं में घुस आई है कि उससे तटस्थ या दूर रह पाना असम्भव है। राजनीति ही जीवन यथार्थ, जीवन-प्रक्रिया की सच्चाई, ढोंग-झूठ-पाखण्ड को तय करती है। रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, साही, धूमिल से लेकर उदय प्रकाश तक का सृजन-कर्म एक व्यापक अर्थ में राजनीति से जुड़ा है। इन कवियों ने राजनीतिक कविताएँ लिखी हैं। धूमिल की “पटकथा” या सौमित्र मोहन की “लुकमान अली” अपने पूरे अर्थ सन्दर्भ में राजनीतिक कविता है। धूमिल “समाजवाद” को भी स्वार्थ के रूप में इस्तेमाल करने वालों पर व्यंग्य करते हैं-

“वे सब के सब तिजोरियों के

दुभाषिये हैं।

वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।

अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक

हैं। लेखक हैं। कवि हैं कलाकार हैं।

यानि कि

कानून की भाषा बोलता हुआ

अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है

भूख और भूख की आड़ में

चबायी गयी चीजों का अक्स

उनके दाँतों पर ढूढ़ना

बेकार है। समाजवाद

उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का

एक आधुनिक मुहावरा है।

मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद

मालगोदाम में लटकती हुई

उन बाल्टियों की तरह है जिस पर “आग” लिखा है

और उनमें बालू और पानी भरा है”

समकालीन कविता के दौर में अनगिनत राजनीतिक कविताएँ लिखी गई हैं। यह इस कविता की एक प्रवृत्ति का रूप कही जा सकती है।

  • समकालीन कविता रेटारिक से लेकर वैचारिक खुलेपन तक दौड़ लगाती है। कभी-कभार वर्णन-स्फीति, विवरण-विस्तार इस कविता की काव्यात्मकता को चौपट करता है। फिर भी जो चीज इस कविता में विशिष्ट दिखाई देती है वह है संघर्ष की ईमानदारी, यथार्थ की तार-तार स्थिति, नाटकीय और फन्तासी का अन्तःसंश्लिष्ट विधान । अनिश्चय, उग्र प्रतिरोध, सेक्स-हिंसा, आतंक-यातना, वैचारिक कशमकश और भिन्नता, व्यक्ति का नगण्यता-बोध और निर्वैयक्तिक तटस्थता, ये सभी काव्य-प्रवृत्ति के रूप में यहाँ सक्रिय हैं। अतः युवा-विद्रोह के अनेक रूप समकालीन कविता में मिलते हैं।
  • समकालीन कविता जीवन-जगत की जटिलताओं-यंत्रणाओं की कविता है। डॉ. परमानंद श्रीवास्तव ने इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “युवा कविता जटिल मानवीय नियति का राजनीतिक शब्दावली में किया गया ऐसा बयान है, जो अन्य व्यवस्थाओं की तरह स्वयं राजनीति में संदेह पैदा करता है। संसद से सड़क तक को अपने दायरे में ले आने वाली यह कविता । संसद के बारे में भी प्रश्न करती है और सड़क को लेकर भी निर्द्वन्द्व नहीं है। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में घटित तथाकथित प्रगति और विकास की अवधारणा में संदेह प्रकट करने वाली युवा कविता में आदिमता के प्रति अतयं रोमांचक लगाव मौजूद है। “जंगल के हाशिए पर जीने की तमीज” इसी लगाव का सूचक है। युवा कविता कविता की परम्परा में, साथ ही, विचार की परम्परा में भी अविश्वास प्रकट करती है और अपने समसामयिक दबावों को कविता के लिए चुनौती मानती है। कविता की भूमिका को नये सिरे से परिभाषित करने की माँग इसी दबाव का फल है। 

युवा कविता में आदमी का जो बिंब निर्मित हुआ है वह अन्तर्विरोधों से घिरा, गुस्से और नफरत के बावजूद असहाय है। उसका गुस्सा “आग” और “आँसू”का एक “तथ्यहीन मिश्रण है।” (शब्द और मनुष्य, पृष्ठ-159) नयी कविता का सहज मानक-लघुमानव समकालीन कविता में “आम आदमी” बनता है। हालांकि “आम आदमी” शब्द बड़ा भ्रामक-उलझा-अस्पष्ट अर्थ का बोधक है पर इस कविता में भी तो रोता-रिरियाता-झल्लाता-चिल्लाता, गुस्से में आग लगाता, यौन-क्रांति को विद्रोह मानता, लोकतंत्र के भ्रष्ट मलबे में दबा असहाय आदमी ही है जिसमें “उदात्त” स्थितियाँ बची ही कहाँ हैं। संसद और सड़क दोनों जगह जो आम आदमी है वह जाति, धर्म, भाषा, वर्ग, वर्ण, मंदिर, मस्जिद की राजनीति का आदमी है।

  • समकालीन कविता के सौन्दर्य शास्त्र-समाजशास्त्र को आज नये दृष्टिकोण से समझना जरूरी है। क्योंकि यह कविता नारी और प्रकृति दोनों को नयी कविता से भिन्न दृष्टि रखकर देखती है। यहाँ नारी और प्रकृति का गैररोमांटिक संसार एक ऐसी विडंबना-विसंगति के साथ उभरा है जिसमें । देहवाद का बाजारवादी-भोगवाद मौजूद है। पूरी अकविता इसी भाव-बोध का रूप कही जा सकती है। मूल बात यह है कि हम कई पीढ़ियों की इस कविता को यथार्थवाद-आधुनिकतावाद के पैमानों-फार्मलों से नहीं समझ सकते हैं। धूमिल, विनोद कुमार शुक्ल, जगूड़ी और अशोक वाजपेयी की कविताएँ कविता के नए काव्य-शास्त्र की माँग करती हैं। अब इन कविताओं को लक्ष्मीकांत वर्मा के “नयी कविता के प्रतिमान” या नामवर सिंह के “कविता के नये प्रतिमान” से नहीं समझा जा सकता। समकालीन कविता सभी पुरानी सौन्दर्याभिरुचियों पर प्रहार करती है। लोकतंत्रप्रजातंत्र के सभी मूल्य यहाँ मूल्यहीन हो गए हैं। उपभोक्तावादी-संस्कृति की विकृतियों से यह कविता पटी पड़ी है।
  • विरोध-विद्रोह, आक्रोश, विद्रूपता, क्रांति को प्रमुख स्थान देने वाली समकालीन कविता अनास्थावादी दिखाई देने के बावजूद जन-सामान्य के अखण्ड-विश्वास की नींव पर टिकी सास्थावादी कविता है। सभी कवि मानसिक और भावनात्मक यथार्थ को वस्तुगत यथार्थ के रूप में देखने का प्रयत्न करते हैं। विचारधारा के स्तर पर निराशावाद, व्यक्तिवाद, अस्तित्ववाद को यह कवि-कर्म स्वीकार नहीं करता। मध्यवर्ग की खिन्नता अवसाद की अभिव्यक्ति में पूँजीवाद के क्रूर चरित्र का भांडाफोड़ है। गाथा-प्रसंगों, नाटकीय दृश्यालेखों, वक्तव्यों, एकालापों, प्रश्नाकुल संवादों, सपाटबयानी से भरे ब्यौरो-विवरणों में भी एक ऐसी काव्यात्मकता का आलोक भरा है जो जनता के अपराजित संघर्ष का सूचक है। विनोद कुमार शुक्ल – “बाजार की सड़क”, चन्द्रकान्त देवताले – “रोशनी के मैदान की तरफ”, अरुण कमल की “उर्वर प्रदेश” जैसी अनेक कविताओं में जन-विश्वास भरा हुआ है। इस अर्थ में यह सम्पूर्ण जीवन से लगाव की कविता है –

” मैं जब लौटा तो देखा

पोटली में बंधे हुए, बूढ़ों ने

फेंके हैं अंकुर”

(उर्वर प्रदेश)

समकालीन कविता के सभी प्रतिबद्ध कवियों ने जन-पक्षधरता के साथ जीवन-विश्वास की कविता लिखी है।

  • समकालीन कविता जीवन के आत्म-विस्तार और जीवन विवेक के सौन्दर्य को खुलेपन से स्वीकार करती है इसी दृष्टि से इस रचना-यात्रा में निराला बोलते हैं। उगता हुआ सूर्य, गीत गाते बच्चे, तूस की आग, खिले कमल, किरण दल इस सृजन में बहुत मिलते हैं। प्रार्थना की मुद्रा में कवि जीवन-शक्ति का सौन्दर्य माँगता है – इस सन्दर्भ में विजयदेव नारायण साही की “साखी” से “प्रार्थना गुरु कबीरदास के लिए” कविता देखिए

“परमगुरु

दो तो ऐसी विनम्रता दो

कि अन्तहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ

और यह अन्तहीन सहानुभूति

पाखण्ड न लगे

दो तो ऐसा कलेजा दो

कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख

की गाँठों में मरोड़े हुए

इन लोगों का माथा सहला सकूँ

और इसका डर न लगे

फिर कोई हाथ ही काट जाएगा।”

दिलचस्प बात यह है कि समकालीन कविता के नए-पुराने दोनों तरह के कवियों के मन में कबीर के प्रति असीम आस्था का भाव है। कबीर से प्रेरणा ग्रहण करने का अर्थ है सामाजिक विकृतियों – भ्रष्टाचार के नायकों को ललकारने का साहस।

  • समकालीन काव्य-सृजन में लोकतंत्र की असफल-अराजक और दिशाहीन स्थिति के कारण व्यंग्य की भरमार है। सत्ता हथियाने के खेल में न कोई मूल्य है न कोई आदर्श। पूरा देश राजनेताओं-व्यापारियों के दल-दल में फँसा हुआ है। इसी परिवेश ने क्रोध में सशस्त्र क्रांति, गुरिल्ला विद्रोह, नक्सलपंथ आदि की धारणाओं को आगे बढ़ाया है। इस आक्रामक लेखन की रूढ़ियाँ बनी हैं जिसमें मृत्यु, संभोग, रति, स्तन, जाँघे, अकेलापन जैसे अनेक शब्द इतने पीटे गये हैं कि उनका अर्थ समाप्त हो गया है। स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की कल्पना अधूरी-अधकचरी है जिसमें भूख का अर्थ केवल सेक्स है। इतना ही नहीं मानवीय नियति को केवल राजनीति तक सीमित कर देना, अपनी पूरी सांस्कृतिक परंपरा की मूल्यवान स्थिति को स्मृति से बाहर कर देना है। परम्परा के प्रति अस्वीकृति के भाव ने इस सृजन की विचार-भूमि को सतही छिछला और सरल बना दिया है। हमारे मिथक और सांस्कृतिक मनोभाव इस ढंग से उपेक्षा का शिकार हुए हैं कि सृजनकर्म “सम्पूर्णता”, “अखण्डता” के भाव से कटकर उदासीनता-निरर्थकता के बोध में गर्क हो गया है। नए रचनाकारों को कलाओं-दर्शनों, साहित्यों-इतिहास के युगों की न तो कोई जानकारी है न वे उसमें दिलचस्पी रखते हैं। इसलिए उनके आक्रामक लेखन के मूल में गहरी वास्तविकता, ऐतिहासिकता, बौद्धिक वयस्कता का अभाव है, जातीय-स्मृति का भाव गायब है।

समकालीन कविता का शिल्प पक्ष

समकालीन कविता परम्परागत शिल्प से छुटकारा पाने का प्रयास मात्र नहीं है। वह पूरा संघर्ष है। शिल्प या टेकनीक की दृष्टि से सृजन कर्म का एक मूल्यवान पक्ष यह है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा चमत्कार रहित सहजता को स्थान देता है और उसमें सघन काव्यात्मक सर्जनात्मकता की निष्पत्ति करता है। कविता को प्रासंगिक बनाने के लिए पुरानी तथाकथित काव्यात्मकता से छुटकारा पाने में ही अपनी भलाई मानता है। कभी वह परम्परागत नियमों और अनुशासनों को चुनौती देकर तोड़ता है तो कभी काव्य-रूप, भाषा, बिंब-प्रतीक, छन्द-लय, कथन-शैली की भंगिमाओं को चतुर संयोजन देता है। परम्परागत प्रबंध मुक्तक को यह स्वीकार नहीं करता। क्योंकि वह जानता है कि हर नया कथ्य अपने साथ नया फार्म या रूप लाता है।

जीवन में मूल्यान्धता, अस्वीकृति का जो भाव आया है उसने समकालीन कविता के रूप-विधान पर भीतर-बाहर से असर डाला है। अनियमित जीवन के इन कवियों ने अनियमित गद्य की लय में कविता रच डाली जैसे राजकमल चौधरी की कविता “मुक्ति-प्रसंग”। ज़ाहिर है कि गहन काव्यात्मकता और कलात्मकता का स्थान समकालीन कविता ने सपाटबयानी और सामान्यीकरणोंसरलीकरणों को दे दिया।

काव्य रूप

कवियों ने प्रगीत के लीरिकल मूड को छोड़कर गद्यात्मक ठोस यथार्थ से भरी नाटकीय कविताओं की काव्य-यात्रा को आगे बढ़ाया। प्रबन्ध काव्य लिखे गए पर परम्परागत प्रबन्ध का ढाँचा गायब हो गया। भवानी प्रसाद मिश्र का “कालजयी”, जगदीश गुप्त की “गोपिका”, जगदीश चतुर्वेदी का “सूर्य पुत्र”, विनय का “महाश्वेता”, नरेश मेहता का “महाप्रस्थान” का प्रबन्ध ढाँचा एकदम विचार केन्द्रित है कथाकेन्द्रित नहीं है। दरअसल समकालीन कविता ने प्रबंधकाव्य का स्थान लम्बी-कविताओं को दे दिया है। ये लम्बी कविताएँ प्रबन्धकाव्य का स्थानापन्न हैं। विविध जीवनानुभवों को विस्तार से प्रस्तुत करने की आन्तरिक तैयारी का विस्फोट ।

संरचना-गठन, अन्विति प्रभाव सभी में प्रबंध काव्य से भिन्न । राजकमल चौधरी का “मुक्ति प्रसंग’, “कंकावती’, धूमिल की पटकथा’, “मोचीराम’, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह का “मुक्ति पर्व’, लीलाधर जगूड़ी का इस व्यवस्था में”, कमलेश का “जरत्कारु’, अशोक वाजपेयी “जबरजोत जगदीश चतुर्वेदी “एक लंगड़े आदमी का बयान’, सौमित्र मोहन लुकमान अली’, ऋतुराज, “दिनचर्या’, विनोद कुमार शुक्ल “लगभग जय हिन्द’, देवेन्द्र कुमार “खासकर उन्हीं अर्थों में”, आग्नेय “अपने ही खिलाफ’, कुमार विकल “एक सामरिक चुप्पी’; “वेणुगोपाल” “ब्लेक मेलर’, चन्द्रकान्त देवताले “दृश्य’, विष्णु खरे “एक चीज के लिए”, इस दौर की अविस्मरणीय लम्बी कविताएँ हैं। संवेदना और शिल्प में एक ऐसी आन्तरिक अन्विति है कि इन कविताओं का पाठ विश्लेषण, अर्थ प्रक्रिया के नए सन्दर्भ उजागर करता है। इस दौर में नवगीत आन्दोलन में नए नवनीत रचे गए जिनकी संवेदना शिल्प दृष्टि पुराने गीतों से एकदम भिन्न है।

समकालीन कविता का भाव-बोध, व्यक्ति का निर्वासन रमानाथ अवस्थी, दुष्यंत कुमार के गजल-नवगीतों में नयी सृष्टि और नयी दृष्टि का रूप है। गीत में तर्ज और तरन्नुम का आग्रह नवनीत में नहीं है नवगीत मूलरागों का लय-संगठन है जिसमें मनोभूमिका में बसी पीड़ा बजती है।

भाषा

समकालीन कविता में जीवन जगत के जटिल यथार्थ का दबाव भाषा की पूरी प्रकृति को बदल देता है। जीवन संघर्ष की रगड़ से फूटी काव्य-भाषा की सर्जनात्मकता में जीवन-संग्राम भरा गद्य भरभराकर फूटता है। यह काव्य भाषा समाज और मानव के उस रिश्ते को संकेतित करती है जिसमें भाषा यथार्थ को ही प्रस्तुत नहीं करती, उस छद्म और पाखंड को भी खोलकर रख देती है जिसे अमानवीय स्थिति-परिस्थिति ने बढ़ावा दिया है। लीलाधर जगूड़ी ने कहा है, “समकालीन कवियों की कविता ने केवल भाषा की शक्ति को ही नयी नहीं बनाया, बल्कि स्थिति का विश्लेषण भी किया है। यहाँ शब्द बुलेट का काम करते हैं। आम आदमी तक पहुँचने वाला भाषा का मुहावरे युवा कविता ने रचा है। बल्कि यों कहें कि आज की कविता आम आदमी की कविता है।” (आवेग, पृष्ठ. 13) भाषिक प्रक्रिया और काव्य-प्रक्रिया दोनों की सर्जनात्मकता स्वयं जगूड़ी की कविता में एक खास काव्य-टोन पैदा करती है। यथा –

“फौजी दस्ते की तरह अंधेरे में

एक भाषा खाइयाँ बदली रही है

चीजों की व्यवस्था में

तुम्हारा इस तरह गायब हो जाना

मेरे लिखने की भाषा है ।

अब निरन्तर सुन रहा हूँ अपने भीतर खुर-खुर

भाषा को जो आघात पहुँच रहा है

मेरी मरम्मत के बहाने।”

काव्य-भाषा को आभिजात्य से पूरी तरह मुक्त करने का एक जोरदार अभियान धूमिल ने चलाया। उन्होंने पैनी, कटखनी, नुकीली, व्यंग्यप्रधान, सपाटबयानी में सम्पन्न और समर्थ, सीधी मार करने वाली भाषा में बिच्छू के डंक सी चोट करने वाली भाषा को सर्जना में ढालकर दम लिया। इस भाषा के पीछे लोक संवेदना की ताकत भी कम नहीं है। लोकानुभव जब बोलचाल की भाषा में रचा जाता है तब वह कितना सहजता से सम्प्रेषणीय होता है, धूमिल ने इसे सिद्ध करके दिखा दिया। उनकी शब्दावली पर गौर करें तो कभी वह संवाद लगती है कभी एकालाप, कभी वक्तव्य, कभी हलफनामा, कभी घटना, कभी स्थिति का पूरा बिम्ब । एक जागरूक कवि का समकालीन जिन्दगी पर दिया गया सार्थक वक्तव्य । विशेष बात यह है कि इस काव्य भाषा में गुस्सा आक्रोश, नफरत-विद्रोह कि अर्थच्छायाएँ साफ-साफ उभरती हैं। भाषा का भाव-संप्रेषण व्यापार इतना सक्षम है कि अपनी बात पाठक तक पहुँचाने में उसे बाधा नहीं होती। कलावाद-रीतिवाद भी इस भाषा में नहीं है स्थानीय रंग की शब्दावली का प्रयोग भाषा की सर्जनात्मकता को बढ़ाता है। जीवन के अनुभव को वे संवेदना की गहराई से पकड़ते हैं

गीली मिट्टी की तरह हॉ हॉ मत करो

तनो

अकड़ो

अमरबेलि, की तरह मत जियो ,

जड़ पकड़ो’

निराला से लेकर धूमिल तक, धुमिल से लेकर उदय प्रकाश तक भाषा ने कृत्रिम आभिजात्य को इस हद तक तोड़ा है कि ‘चमरौंधा’, “डबरे’, “चौका’, “पाला लगी मटर, चुपाई मारौ दुलहिन जैसे अनेक स्थानीय शब्द भाषा में रचनात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं। लोक-संवेदना ने लोकोक्तियों मुहावरों में अपने जीवनानुभव को ताजगी से पेश किया। हालांकि अकविता की काव्य-भाषा में सपाटबयानी, बड़बोलापन, कथनों का अतार्किक विस्तार, फिकरेबाजी का चमत्कार है और जातीय स्मृति की कोई पहचान भी इस भाषा में नहीं है।

पुरानी पीढ़ी के कवियों की भाषा में कुछ संकटों से जूझने का भाव है जैसे रघुवीर सहाय को भाषा भ्रष्ट हो चुकी है’, के प्रति अफसोस है। लेकिन ज्यादातर नए कवियों को भाषा के ‘आस्तिक’ और “व्यक्तित्व’ निर्माण की न तो जानकारी है न चिन्ता। युवा लेखन की निर्भीकता और खुलेपन में सपाटबयानी की दरिद्रता पैठती गई। फलतः एक संस्कारवान सृजनधर्मी भाषा वे नहीं दे सके । भाषा की स्वतंत्रता देखते-देखते यहाँ दीनता में बदल गई।

अशोक वाजपेयी ने भरे हृदय से लिखा “भाषा ने बात को सीधे साफ-साफ कहने की क्षमता जरूर उपलब्ध की लेकिन जैसे ऐसा करने से उससे पहले जो कहा गया था वह सब कुछ वह भुला बैठी : हमारी भाषा स्मृतिहीन भाषा है और चूँकि अपने तात्कालिक प्रसंग के अलावा और कुछ और नहीं उकसाती या याद करती, वह एक अतीतहीन, एक अनवरत वर्तमान की भाषा है एक अनैतिहासिक मुहावरा है। (फिलहाल, पृष्ठ-143) भाषा का भीतरी ध्वंस इतना हुआ कि रचनात्मक कल्पना ने जातीय स्मृति से अपने हाथ भी धो लिये। भाषा परम्परा से कटने का अर्थ है अपने । जातीय-सांस्कृतिक संवेदन से विच्छिन्न हो जाना । समकालीन को परम्परा से, स्मृति, से न जोड़ने का परिणाम है कि समकालीन कविता क्लासिकल संवेदना की बड़ी कालजयी रचनाएँ नहीं दे पाई।

बिम्ब और प्रतीक

समकालीन कविता में बिंब, प्रतीक और मिथक तीनों की स्थिति मिलकर भी कोई सर्जनात्मक वैशिष्ट्य पैदा नहीं कर सकती। नयी कविता ने दमकते-खनकते बिंब, प्रतीक, मिथक दिये थे और उनमें हमारे परम्परा की जातीय स्मृति जीवन्तता से धड़कती थी। यह जातीय धड़कन समकालीन कविता में मंद हो गई। धीमी नब्ज निश्चय ही किसी की खतरनाक बीमारी की सूचक है। मिथक और बिंब-प्रतीक चेतना के सार्थक उपयोग के अभाव में समकालीन कविता की सपाटबयानी, ब्यौरा-वर्णन, विवरण, वक्तव्यबाजी के बड़बोलेपन का शिकार हो गए। ऐसा नहीं है कि यहाँ प्रतीक-बिंब नहीं है-पर आम आदमी की रोज़मर्रा की जिन्दगी में खोये हुए हैं। जैसे, केदारनाथ सिंह की कविता ‘बैल’ में बैल उस असहाय आदमी का प्रतीक है-जो दूसरों के द्वारा हाँका जाता है :

“वह एक ऐसा जानवर है जो दिन भर,

भूसे के बारे में सोचता है

रात भर ईश्वर के बारे में। 

समकालीन कविता में सभी कवियों के अपने-अपने बिंब-प्रतीक हैं। – सर्वेश्वर ने “जंगल’, ‘आग’, ‘कुआनो नदी’, “लोकतंत्र’, “तेन्दुआ’, ‘चट्टानें, न जाने कितने नए प्रतीक निर्मित किए और यही काम धूमिल ने किया। सर्वेश्वर में “जंगल”, इतिहास-चेतना, धूमिल में “जंगल” अव्यवस्था और जगूड़ी की कविता में “जंगल” अराजकता का प्रतीक है। अर्थ की नई चमक उसमें कौंधती है किन्तु लगातार पुनरावृत्ति और सदैव उसमें नए अर्थ भरने की चेष्टा इस समर्थ प्रतीक को निरर्थकता के कुँए में धकेल देती है। ऐतिहासिक-पौराणिक मिथकों का समकालीन कविता ने सार्थक उपयोग किया है। इतिहास के पात्र भी मिथक के रूप में आए हैं। मिथकों के इस ढंग के प्रयोग ने जातीय-अस्मिता और वर्तमान स्थितियों के बीच रचनात्मक संवाद कायम किया है। श्रीकान्त वर्मा की “जलसाघर” धर्मवीर भारती की ‘सपना अभी भी’ विजयदेव नारायण साही की “सारनी’ में इतिहास प्रसिद्ध विजेताओं के नाम लगातार कौंधते हैं। श्रीकान्त वर्मा का “मगध” इस क्षेत्र की एक बड़ी रचनात्मक उपलब्धि है – यथा

“केवल अशोक लौट रहा है

और सब

कलिंग का पता पूछ रहे हैं

केवल अशोक सिर झुकाए है

और सब विजेता की तरह चल रहे हैं”

ऐसे ही राजकमल चौधरी की कविता “मुक्ति प्रसंग” में “उग्रतारा” के पौराणिक-मिथक के माध्यम से आधुनिक मनुष्य के मन की स्वाधीनता की घोषणा संस्कारों की रगड़-उलझन के बावजूद की गई है – यथा :

“अब तुम मेरी पूजा करो उग्रतारा

मैं सोया हुआ वर्तमान हूँ

शिव हूँ

तुम्हारा सम्पूर्ण आत्म-निवेदन

स्वीकारने का एकमात्र मुझको रह गया है अधिकार”।

समकालीन कविता में बड़बोलापन एवं सपाटबयानी भी ज्यादातर कविताओं के बिंबों-प्रतीकों-मिथकों को कमजोर बनाती हैं असम्बद्ध शब्दों के संशोधन में कवि कितनी चतुराई बरते वह भाषा के अवमूल्यन से आगे नहीं बढ़ पाता। कहीं-कहीं असम्बद्ध बिंब प्रतीकों का अतिशय-विस्तार स्थिति की जटिलता को प्रभावहीन बना देता हैं | समर्थ बिंब-निर्माण समर्थ रचना कर्म की कसौटी है। मलयज के शब्दों में “बिंबों का कवि पाठक को अपने सृजनात्मक अनुभव के अंतरंग में स्थापित करना चाहता है”। (कविता से साक्षात्कार, पृष्ठ-149)

समकालीन कविता में केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल जैसे कवियों के बिंब यह काम बखूबी करते हैं लेकिन ज्यादातर युवा कवि इस काम को करने में असमर्थ है। सर्जनात्मक भाषा के इकहरेपन ने बिंब की ताकत को बढ़ने ही नहीं दिया। नतीजा यह है कि बिंबों-मिथकों के बहुआयामी सृजनात्मक अर्थ-संस्कार से समकालीन कविता का अधिकांश वंचित रह गया है।

छन्द

समकालीन कविता ने मुक्त छन्द की सर्जनात्मक संभावनाओं का जी भर कर उपयोग किया है। इस मुक्त-छन्द को हर तरह से छीलकर गद्य की लय में ढाल लिया है। कविता में बोलचाल का सहज गद्य, बौद्धिक तेवर का वैचारिक गद्य और अखबारी लेखन का गद्य तीनों मिलकर एक नयी गद्य-लय रचते हैं और यह काम रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, मुक्तिबोध आदि सभी ने खूबसूरती से किया है। रघुवीर सहाय ने इस क्षेत्र में अविस्मणीय दक्षता हासिल की है। एक उदाहरण लीजिए

“बच्चा गोद में लिए

चलती बस में

चढ़ती स्त्री और मुझमें कुछ दूर तक घिसटता जाता हुआ।”

इस कविता में गद्य के वाक्यों का छोटा-बड़ा विस्तार भीतर के वैचारिक तनाव को भाषा की लय में बाँधने का सफल प्रयास है। कविता वक्तव्य या रिपोर्ताज भर नहीं है – इससे बहुत कुछ ज्यादा है। क्योंकि अर्थ की लय पाठक को दूर तक पकड़े रहती है। पूरी गद्य की बनावट में महानगरों की भीड़ में बच्चा लिए बस पकड़ने के लिए खटती संघर्ष करती औरत अपने और अपने बच्चे की जान जोखिम में डालकर चलती बस में चढ़ती है क्योंकि उसे काम पर या अपनी मंजिल पर पहुँचना हैं।

कुछ कवियों ने तुक और गति को भी अपनाया है और तुक से अर्थ-ध्वनि में वृद्धि की है। इस काम में धूमिल माहिर हैं – “अपने यहाँ संसद एक ऐसी घानी हैं जिसमें आधा तेल-आधा पानी हैं”, मूलतः यह तुक लोककथन की एक शैली है। मध्य प्रदेश के कवि गिरिजाकुमार माथुर, विनोद कुमार शुक्ल, भगवत रावत आदि “कहन शैली” अपनाते हैं। लोक-छन्दों में इन कवियों ने बहुत सा सृजन किया है। नवगीतकार वीरेन्द्र मिश्र और गजलकार दुष्यंत कुमार की छन्द-कला अशास्त्रीय होते हुए भी शास्त्रीय है। लय में जो ठाठ बाँधा गया है उसके ठसके में देशी अदा है। कभी कभार रघुवीर सहाय जैसे कवि समकालीन कविता में श्रीधर पाठक और मैथिलीकरण गुप्त की याद ताजा कर देते हैं। जैसे

“निर्धन जनता का शोषण है

कहकर आप हँसें,

लोकतंत्र का अन्तिम क्षण है

कहकर आप हँसे।”

समकालीन कविता मुहावरा अनेक छन्दों की रंगत से निर्मित हुआ-जिन्हें दो-चार में गिनना सम्भव नहीं है। इतनी बार जरूर है कि गद्य-पद्य का कृत्रिक विभाजन मिटाकर नया सृजन नए गद्य तर्क पर केन्द्रित हो गया है। बौद्धिकता, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, संचार-सूचना, क्रांति की भाषा के प्रभाव-दबाव में नये जीवन जगत का यथार्थ कम से कम शब्दों में जीवन-लय भरकर सामने आया है।

सारांश

इस इकाई में आपने समकालीन कविता के स्वरूप एवं उसकी प्रवृत्तियों का अध्ययन किया। समकालीन कविता अभी हमारे इतने निकट है कि उसका वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन संभव नहीं है। हाँ, इस कविता की इस शक्ति को हम पहचान सकते हैं कि इसने अर्थ-भूमि का विस्तार किया है। इसके लिए जीवन जगत का कोई क्षेत्र वर्जित नहीं है, किसी पर भी कविता लिखी जा सकती है। राजनीतिक-आर्थिक क्षेत्रों की विद्रूपताओं-विकृतियों को व्यंग्य-वक्रोक्ति और सपाटबयानी दोनों ही तरह से अभिव्यक्त किया गया है और नए कवि की निर्भयता देखते ही बनती है। तमाम खोखले मूल्यों-परम्परा के प्रति उसमें सीधे-सीधे निषेध का भाव है।

यह कविता अस्तित्ववाद, कुंठावाद, भाववाद से मुक्त होकर नव वामपंथी, नव्य सांस्कृतिक-साम्राज्यवादी आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकता दोनों की चालाकी, छलकपट, पाखण्ड को उघाड़ती है। तथ्य-संवेदना और रूप में यह कविता किसी भी विदेशी आंदोलन या विचारधारा की नकल नहीं है। यह हमारे ही परिवेश की समाज-संस्कृति की, जीवन-जगत की स्थिति परिस्थिति से उपजी कविता है। इसमें हमारा देश पूरी तरह मौजूद है। जन-जन की व्यथा कथा का इसमें सच्चा इतिहास है। कविता में ठोस जीवनानुभवों को अभिव्यक्त करने में युवाकवियों में सरलीकरण और सामान्यीकरण की। प्रवृत्ति बढ़ी है और काव्य-भाषा जातीय स्मृति से कट रही है यही इस कविता की सीमा है। लेकिन कुल मिलाकर समकालीन कविता आज के हिन्दुस्तान के भीतरी-बाहरी इतिहास-राजनीति का यथार्थ प्रतिबिंब है।

प्रश्न अभ्यास

  1. समकालीन कविता के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
  2. समकालीन कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
  3. समकालीन कविता की भाषा पर चर्चा कीजिए।

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