जयशंकर प्रसाद की भाषा और काव्य-शिल्प
यह इकाई जयशंकर प्रसाद की काव्यभाषा और काव्य-शिल्प पर आधारित है।
इसे पढ़ने के बाद आप –
- जान सकेंगे कि छायावादी काव्य-भाषा क्या है।
- अपनी पूर्ववर्ती काव्य-भाषा से वह किस रूप में भिन्न है।
- छायावादी काव्यभाषा के संघटक तत्व कौन-कौन से हैं।
- प्रसाद की काव्य-भाषा की बनावट और बुनावट कैसी है।
- तथा कुछ चुनिंदा काव्य कृतियों के आधार पर काव्यभाषा तथा काव्यशिल्प की दृष्टि से प्रसाद का मूल्यांकन कर पाएंगे।
प्रसाद की काव्यभाषा और काव्यशिल्प पर विचार करने से पूर्व आप के लिए यह जानना ज़रूरी है कि छायावाद की काव्यभाषा और काव्य-रूपों की क्या विशेषताएँ हैं। और इससे पूर्व छायावाद से पहले द्विवेद्वी युग, भारतेंदु युग और मध्यकालीन काव्यभाषा और काव्यरूपों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। यह तो आप जानते ही हैं कि काव्य-भाषा, काव्य-रूप और अन्तर्वस्तु का द्वंद्वात्मक संबंध होता है। अपने युग, समय का दबाव भी उसे प्रभावित करता है। घात-प्रतिघात की सृजनात्मक प्रक्रिया में ही किसी कवि, युग की काव्यभाषा, काव्यरूप निर्धारित होते हैं ! एक युग की काव्यभाषा, काव्यरूप एक जैसे होते हुए भी एक नहीं होते क्योंकि हर कवि की इन तमाम समानताओं के बावजूद एक निजी पहचान भी होती है ! उसकी रूचि, अरूचि, विश्वदृष्टि, सृजनात्मक प्रतिभा उसकी रचना को, रचनारूप को एक वैशिष्ट्य प्रदान करती है।
इस इकाई में सर्वप्रथम हम छायावादी काव्यभाषा और काव्यशिल्प पर विचार करेंगे! इसके बाद प्रसाद की कुछ चुनी हुई रचनाओं के आधार पर उनकी काव्यभाषा की विशेषताओं की पड़ताल करेंगे! प्रसाद ने किन-किन काव्य-रूपों का इस्तेमाल किया, छदं के प्रति उनकी क्या दृष्टि रही, और छंद, लय, संगीत उनके काव्य में क्या भूमिका अदा करते हैं, इन सब भी पर भी इस इकाई में हम अलग-अलग विचार करेंगे। अंत में कामायनी के ‘श्रद्धा-सर्ग,’ ‘आँसू’ तथा ‘प्रलय की छाया’ कविताओं के आधार पर प्रसाद की काव्यभाषा तथा काव्यशिल्पगत विशिष्टताओं को भी रेखाक्ति करेंगे।
जैसा हमने पहले कहा था आपके लिए यह अध्ययन तभी सार्थक हो सकता है जब आप प्रसाद की भाषा और काव्यशिल्प की विशिष्टता को सीधे प्रसाद की कविता के पाठ के क्रम में समझने का प्रयास करें। तभी आप बता सकेंगे कि यह है लाक्षणिकता, यह है अनुभूति का खास निजीपन, यह है चित्रमयता। प्रसाद को आप अपने प्रिय कवि की तरह इन विशेषताओं के बीच पढ़ सकें- प्रसाद की कविता का सीधा आस्वाद ग्रहण कर सकें-ऐसे अध्ययन की सार्थकता तभी है।
हमारी दृष्टि में प्रसाद को पढ़ना छायावाद के निर्माणकर्ता कवि के रूप में पढ़ना भी है और प्रसाद की निजी विशेषताओं की पहचान के साथ पढ़ना भी। छायावाद की विशेषताएँ तो प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी सबके यहाँ प्रकट हैं, पर इन सभी महत्वपूर्ण कवियों में कुछ ऐसा भी है जो उनका अपना है। सबकी भाषा, अभिव्यक्ति प्रणाली एक-सी नहीं है। इस भेद पर भी आपका ध्यान जाना चाहिए।
छायावाद की प्रसाद की अपनी अवधारणा है। वे छायावाद को भाषागत रूपगत नवीनता और विशिष्टता के कारण एक तरह की घटना मानते हैं, पर स्वीकार करते हैं कि छायावादी कवियों की ‘स्वानुभूति’ में ही कुछ ऐसा नयापन था कि वह परम्परागत शब्दावली या रूपविधान की सीमा में व्यक्त नहीं हो सकता था। हमारी दृष्टि में वे साहित्यिक विवाद भी रहने चाहिएँ, जिनसे एक काव्य-आन्दोलन के रूप में छायावाद की महत्ता और क्षमता का आभास मिलता है। यह महत्वपूर्ण है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल छायावाद के बारे में आरंभ में शंकालु थे और जब वे छायावाद को सबसे पहले मात्र’काव्यशैली’ बता रहे थे तो छायावाद की अंतर्वस्तु की सीमाओं के बारे में भी आलोचनात्मक प्रतिक्रिया कर रहे थे, उसमें विषय-संकोच को भी रेखांकित कर रहे थे।
इस अध्ययन में हमारी पद्धति यह होगी कि हम प्रसाद के काव्य-विकास के संदर्भ में भी उनकी भाषासम्बन्धी तथा रूपशिल्प-सम्बन्धी विशेषताओं को देख सकें, उनका मूल्यांकन कर सकें। प्रसाद ने अपनी काव्ययात्रा ब्रजभाषा से शुरू की। ‘झरना’ तक उनकी खड़ी बोली ‘काव्य-भाषा में कुछ नयापन दिखाई देने लगा। मुकुटधर पाण्डे ने जब 1920 में जबलपुर की ‘श्री शारदा’ पत्रिका में ‘हिन्दी में छायावाद’ शीर्षक लेख-माला प्रकाशित की, तो उन्होंने विशेष रूप से ‘झरना’ संकलन की ‘झरना’ कविता का इस प्रकार उल्लेख किया :
एक दिन तव अपांग की धारा
कर गई प्लावित तन-मन सारा
मनोहर झरना, कठिन गिरि कहीं विदरित करना
इससे स्पष्ट है कि छायावादी काव्यभाषा और प्रसाद की काव्यभाषा भी क्रमशः विकसित हो रही थी। द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मक कविता-भाषा की प्रतिक्रिया में एक नई काव्यभाषा अचानक विकसित नहीं हो गयी थी। इसके लिए छायावादी कवियों को पर्याप्त श्रम करना पड़ा है। बावजूद इसके छायावादी काव्य-भाषा का विकास धीरे-धीरे प्रौढ़ता की ओर बढ़ा है। इसके लिए हम छायावादी काव्य-भाषा और शिल्प के क्रमिक विकास को भी दिखाने का प्रयास करेंगे।
छायावाद : काव्यभाषा और काव्यशिल्प
हम आरंभ में ही आपका ध्यान ‘मुकुटधर पांडे’ के ऐतिहासिक महत्व के निबंध ‘हिन्दी में छायावाद’ (1920) की कुछ स्थापनाओं की ओर आकृष्ट करेंगे। इससे पता चलेगा कि जब ‘छायावाद’ आया आया ही था, और आचार्य ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘ जैसे रसज्ञ आलोचक संपादक भी छायावाद को अर्थहीन बता रहे थे, तब कवि-समीक्षक ‘मुकुटधर पांडेय’ को छायावाद कैसा लगा था। ‘मुकुटधर पांडे’ . की इससे संबद्ध स्थापनाएँ इस प्रकार हैं :
- छायावाद एक ऐसी मायामय सूक्ष्म वस्तु है कि शब्दों द्वारा उसका ठीक-ठीक वर्णन करना असंभव है। उसका एक मोटा लक्षण यह है कि उसमें शब्द और अर्थ का सामंजस्य बहुत कम रहता है।
- छायावाद के कवि वस्तुओं को एक असाधारण दृष्टि से देखते हैं यह अन्तरंग दृष्टि ही छायावाद की विचित्र प्रकाशन-रीति का मूल है।
- छायावाद भावराज्य की वस्तु है। उसमें केवल संकेत से ही काम लिया जाता है।
- यह मोहन-मंत्र वाली निपुणता है क्या ? यह है काव्य में चित्रकारी और संगीत का अपूर्व एकीकरण ।
अब आप प्रसाद के निबंध “यथार्थवाद और छायावाद” को याद करें जिसकी चर्चा हमने इससे पूर्व की इकाई में की थी। इससे स्पष्ट हो जाएगा कि प्रसाद भी छायावाद की भाषा-शैली की विशिष्टता को बहुत कुछ मुकुटधर पाण्डेय की तरह ही देख रहे थे। “आभ्यंतर सूक्ष्म भावों की प्रेरणा बाह्य स्थूल आकार में भी कुछ विचित्रता उत्पन्न करती है। सूक्ष्म आभ्यंतर भावों के व्यवहार में प्रचलित पदयोजना असफल रही। उसके लिए नवीन शैली नया वाक्यविन्यास आवश्यक था। हिन्दी में नवीन शब्दों की भंगिमा स्पृहणीय आभ्यंतर वर्णन के लिए प्रयुक्त होने लगी। शब्दविन्यास में ऐसा पानी चढ़ा कि उसमें एक तड़प उत्पन्न करके सूक्ष्म अभिव्यक्ति का प्रयास किया गया।” ( काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध, पृष्ठ 124 ) । अपने इस निबन्ध के अन्त में प्रसाद ने स्पष्ट किया था कि ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौन्दर्यमय प्रतीकविधान तथा उपचास्वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृति छायावाद की विशेषताएँ हैं। अब अच्छा हो कि हम कुछ कविताओं के साक्ष्य पर इन विशेषताओं की जाँच परख करें।
हम आपके समक्ष सन्ध्या-चित्रण के दो उदाहरण रख रहे हैं। आप स्वयं देखें कि द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मक, यथातथ्यात्मक, स्थूल अभिव्यक्ति से किस तरह छायावादी कवि की अभिव्यक्ति भिन्न थी, पहला चित्र हरिऔध के ‘प्रियप्रवास’ का है :
दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला
तरू शिखा पर थी अवराजती
कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा
दिन का अन्त निकट है-जैसी सूचनाएँ दी जा रही हैं। तथ्य कथन जैसा है-कि आकाश लालरंग का हो गया था और डूबते हुऐ सूर्य की कांति पेड़ की ऊपरी फुनगी पर जा टिकी थी। वर्णन अत्यंत सीधा, स्पष्ट और सपाट है। संध्या के इससे भिन्न स्वरूप को प्रस्तुत करने वाली निराला की ‘संध्या सुंदरी’ कविता की काव्य-भाषा है :
दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह सन्ध्या-सुन्दरी परी-सी
धीरे-धीरे-धीरे
यहाँ स्वर व्यंजन सम्बन्धी अनुप्रास की छटा ही देखने की चीज़ नहीं है बल्कि अभिव्यक्ति में कल्पना के वैचित्रय द्वारा उत्पन्न नवीन लय और गति से सम्पन्न भाषा का स्वरूप महत्वपूर्ण है। क्योंकि आगे ही पंक्तियां हैं –‘अलसता की-सी लता/ किन्तु कोमलता की वह कली / सखी नीरवता के कंधे पर डाले बाँह / छाँह-सी अम्बर-पथ से चली।’ धीरे-धीरे शाम हो रही है। वातावरण में आलस्य का सौन्दर्य है, अनोखी शांति है। देखें कि छायावादी कवि निराला की कल्पना में सन्ध्या सुंदरी हो गयी, वह भी परीसी। गति का सौंदर्य। धीरे-धीरे उतरना। फिर नीरवता या शांति है इस सुन्दरी संध्या की सहेली, जिसके कंधे पर हाथ रखकर वह उतरती है। आलस्य की-सी लता’ – यानी ऐसी लता-सी जिस पर आलस्य छाया हो। यह वह आलस्य है जो, संध्या-सुंदरी का सौन्दर्य कहीं अधिक बढ़ा रहा है, उसे मानवीकृत मादक रूप दे रहा है।
एक अलग तरह का चित्र देखें- ‘छाया’ का। पंत कैसी अनोखी चित्रात्मक कल्पना करते हैं। सूक्ष्मता अमूर्तता पर यहाँ ध्यान जाना ही चाहिए :
गूढ कल्पना-सी कवियों की
अज्ञाता के विस्मय -सी
ऋषियों के गंभीर हृदय-सी
बच्चों के तुतले भय सी
प्रसाद जिसे उपचार वक्रता कहते हैं, वह यही है छाया-बच्चों के तुतले भय के समान। भय तुतला नहीं होता। वर्णन है छाया का। अत: देना है अस्पष्ट रूपाकार — कल्पना में ही चित्रात्मकता की झलक देते हुए। स्वयं प्रसाद ‘कामायनी ‘ में लज्जा का चित्र उपस्थित करते हैं- ‘कोमल किसलय के अंचल में/नन्हीं कलियाँ ज्यों छिपती सी’ गोधूली के धूमिल पट में/दीपक के स्वर में दिपती सीं’। ध्यान दें कि ‘दीपक’ एक राग भी है। तो यह है एक नयी भाषा जिसमें चित्रात्मकता, संगीतात्मकता, सूक्ष्मता, लाक्षणिकता का खास योग है। भीतर की अनुभूति में ही वैचित्र्य है नयापन है, जिसे परम्परागत भाषा शैली में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
छायावादी काव्यभाषा के संघटक तत्व
पहले तो, काव्यभाषा है क्या ! शब्द-अर्थ का संगठन। शब्दार्थ सम्बन्ध की विशिष्ट निर्मिति। सामान्य भाषा से भिन्न। सामान्य भाषा जहाँ तथ्यात्मक होगी, प्रयोजन-सापेक्ष होगी वहाँ काव्यभाषा नयी कल्पना या कल्पना के नये उन्मेष से सम्पन्न होगी । काव्यभाषा का उपयोग केवल वस्तु की सूचना देने के लिए नहीं होता-मन में भावचित्र उपस्थित करने के लिए होता है। नये प्रकार का सौन्दर्य नये तरह के सादृश्यविधान में सहायक होता है। सादृश्यविधान, बिम्बविधान, प्रतीकविधान, मिथकीय कल्पना आदि छायावादी काव्यभाषा के संघटक तत्व हैं। यों तो ये किसी भी समय की काव्यभाषा के लिए आदर्श हो सकते हैं- जैसे सादृश्यविधान तो जायसी की कविता का भी ज़रूरी उपादान है। पर छायावाद के लिए ‘आभ्यंतर’ अनुभव की नयी अभिव्यक्ति के लिए नयी काव्यभाषा ज़रूरी हो उठी है। अलंकार तो छायावादी कवि पंत के लिए भी ज़रूरी हैं। पर पंत के लिए अलंकार क्या है- “भाव की अभिव्यक्ति के विशेष द्वार” केवल सज्जात्मक अलंकार से छायावादी कवि का काम नहीं चलता। यहाँ ज़रूरी है कि हम अंलकार से बिम्ब और प्रतीक का अन्तर समझकर आगे बढ़ें।
अलंकार में प्रस्तुत-अप्रस्तुत का द्वैत किसी न किसी रूप में बना रहता है। जबकि एक सच्चा बिम्ब वहीं होता है जहाँ यह द्वैत समाप्त हो जाय। इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि बिम्ब और प्रतीक भाषिक प्रक्रिया में प्रस्तुत के स्थानापन्न हो जाते हैं। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी की शब्दावली में कहें तो एक नये संवेदनशील रूपान्तरण में वे भाषा ही हो जाते हैं। अभी हम अलंकार, बिम्ब, प्रतीक, मिथक की परिभाषा की जटिलताओं की चर्चा नहीं करेंगे। आप यह देखें कि छायावादी कविता की भाषा में इनके प्रयोग से क्या विशेषता पैदा होती है। अतः कुछ और विशेषताओं की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना ज़रूरी है।
छायावादी कवि अक्सर नये शब्द भी देते हैं या शब्दों का क्रम ही ऐसा रख देते हैं कि उनसें नया अर्थ पैदा होने लगता है। रंग, स्वाद, स्पर्श, गंध और ध्वनि के नये ऐन्द्रिक अनुभव से भी छायावादी काव्यभाषा में नयापन प्रकट होता है। ‘तुतलाभय’ ‘नीली झंकार’ में रंग-ध्वनि दोनों की संवेदना है। मध्यकालीन काव्यभाषा से छायावादी काव्यभाषा की भिन्नता पर आपका ध्यान जाना चाहिए। कोमलता के आग्रह से जैसे छोटे-छोटे व्यंजक शब्द छायावादी कवियों ने निर्मित किये, वह एक सर्वथा नयी चीज़ थी। निराला ‘सरोज स्मृति’ कविता में जब कह रहे थे- ‘ज्यों मालकोश नव वीणा पर’ तो रूप का बिम्ब उपस्थित करने के लिए अर्थात् दृश्य संवेदना के लिए श्रव्य संवेदना का सहारा ले रहे थे। सरोज का सौन्दर्य कैसा ! जैसे नयी वीणा पर बज रहा राग मालकोश ! यह चित्र केवल कल्पना से पाठक या श्रोता के मन में उपस्थित हो सकता है। छंद या लय की नवीनता भी भाषा में नयेपन की संभावना जगाती है।
स्वच्छन्द कल्पना ही छायावादी काव्यभाषा के मूल में है। प्रकृति छायावादी कवियों के लिए एक सजीव सत्ता की तरह है। छायावादी कवियों की कल्पना ने सबसे अधिक भाषात्मक नवीनता प्रकृति-चित्रों में ही संभव की है। श्रद्धा का सौन्दर्य वर्णन और लज्जा का रूपविधान इसका प्रमाण है। पहले की कविता में गिने चुने प्रकृति-बिम्ब आते थे जिनमें वही यमुना तट, वही वंशी वट प्रमुख होते थे। प्रकृति और मनुष्य के नये सम्बन्ध के विवेक से छायावादी कविता में प्रकृति-बिम्बों के असंख्य नये रूप दिखाई देते हैं । ‘ज्योत्सना निर्झर’, ‘लघु परिमल घन-सी चाँदनी’, ‘विहंगम-सा बैठा गिरि पर विशाल अम्बर’ ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। अन्त में, इस पर भी ध्यान दें कि जिसे ‘शैली’ कहते हैं उसकी विशिष्ठता का आभास भी कई बार भाषा के ही स्तर पर होता है।
छायावाद : एक काव्य शैली के रूप में
आपके लिए यह जानना बहुत ज़रूरी है कि क्यों आचार्य रामचंद्र शुक्ल छायावाद को मुख्यत: काव्यशैली बता रहे थे! “हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में उनकी व्याख्या इस प्रकार है-‘छायावाद’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका सम्बन्ध काव्यवस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। ….छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्यशैली या पद्धतिविशेष के अर्थ में है। “( हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0453) द्विवेदी युग की कविता में भाषा की सफाई ज़रूर आयी पर उसका स्वरूप गद्यवत, रूखा, इतिवृत्तात्मक और अधिकतर बाह्यार्थ निरूपक हो गया। छायावाद उसी के विरोध में आया, जिसका प्रधान लक्ष्य काव्यशैली की ओर था, वस्तुविधान की ओर नहीं। यह है शुक्ल जी का छायावाद के बारे में दृष्टिकोण। छायावाद मुख्यत: काव्य-शैली है। उनकी दृष्टि में छायावाद की शैली-रूप में विशेषताएँ हैं – अभिव्यंजना का लाक्षणिक वैचित्र्य, वस्तुविन्यास की विश्रंखलता अर्थात बिखरापन या खंड-खंड चित्रण, चित्रमयी भाषा-मधुमयी कल्पना के अनुरूप कविता का रूपविधान। यहाँ कल्पना का महत्व सबसे अधिक स्वीकार किया जाना चाहिए। यह भावावेग प्रेरित, नयी अन्तर्दृष्टि देने वाली कल्पना ही थी, जिसने छायावाद के रूपविधान में इतना बड़ा परिवर्तन उपस्थित किया कि शुक्ल जी जैसे आलोचक को वह मुख्यत: शैली या काव्यशैली ही प्रतीत हुआ।
शैली की विशेषताएँ भी भाषा के स्तर पर ही प्रकट होती हैं। सादृश्यविधान की नवीनता का छायावादी कवियों ने जैसा इस्तेमाल किया वह मध्यकालीन अलंकारविधान से भिन्न चीज़ है। नये सौन्दर्यबोध ने नयी कल्पना से प्रेरित रचनाविधान को संभव बनाया। छायावाद शैली के नये रूप विधान, नये प्रतीक विधान, नयी व्यंजना के कारण जाना गया। सेनापति जैसे रीतिकालीन कवि से छायावादी पंत के बादल-वर्णन की तुलना करें तो शैली का भेद स्पष्ट हो जायेगा। सेनापति की पंक्ति है-“आने हैं पहाड़ मानों काजर के ढोइ के”। कल्पना थोड़ी नयी अवश्य है पर उपमान की सीमा में बंधी भी है। पंत जी के यहाँ बादल दर्जनों उपमानों का उपमेय है। पंत के बादल जहाँ अनिल के स्रोत में तमाल के पत्तों-से दिखाई देते हैं या गगन की शाखाओं में मकड़ी के जाल की तरह, तो कहीं उनका क्षितिज पर धीरे-धीरे उठना मन में धीरे-धीरे पैदा होने वाला ‘संशय’ जान पड़ता है। कभी वे अपयश की तरह फैलते हैं और कभी वे मोह की तरह उभरते हैं। शैली की दृष्टि से विशेषता यह है कि वस्तुओं के बीच आकार-साम्य भर न देखकर आंतरिक प्रभाव-साम्य पर बल दिया गया है। जैसे शब्दों का उलट-पुलट जाना, जिसे विशेषण-विपर्यय कहते हैं। यह भी नयी शैली की पहचान है। पहले भी हम ‘नीली झंकार’, ‘तुतला भय’ जैसे प्रयोगों पर विचार कर चुके हैं।
छायावादी कविता में प्रतीकों का नया प्रयोग शैलीगत विशिष्टता का सूचक है। कविता के पाठ पर ध्यान जाना चाहिए कि प्रतीकविधान एकदम कैसे कविता में नया प्रभाव पैदा करता है। वह हमारे आस्वाद के अभ्यास को तोड़ता भी है और उसे सघन भी बनाता है। आप पढ़ते हैं : ‘उषा का था उर में आवास / मुकुल का मुख में मृदुल विकास / चाँदनी का स्वभाव में वास /(या भास/ दोनों पाठ हैं) विचारों में बच्चों की साँस’ तो जान लेते हैं उषा, मुकुल, चाँदनी यहाँ प्रतीक ही हो सकते हैं। बच्चों की साँस’ भी प्रतीकात्मक प्रयोग है- शिशुता अबोधता आदि के लिए व्यंजक उपमानपद।’
विराट कल्पना से छायावादियों ने सुदूर वस्तुओं में नज़दीकी रिश्ता दिखाया। वस्तुओं के बीच सम्बन्ध की निकटता या नवीन सम्बन्ध भावना महत्वपूर्ण है। ‘आँसू’ में स्वप्नमिलन की स्मृतियाँ इसके लिए उदाहरण हैं :
छायानट छवि-परदे में
सम्मोहन-वेणु बजाता
सन्ध्या-कुहुकिनी-अंचल में
कौतुक अपना कर जाता
छायावाद में छंद की नवीनता भी शैली को आकर्षण प्रदान करती है। प्रगीतात्मकता तो प्रमुख प्रवृत्ति है ही, लोक में रचे-बसे छन्दों का नया आविष्कार भी इन कवियों ने किया है। कजली, आल्हा जैसे छंद भी नया रूप लेकर आते हैं। ‘संघर्ष’ सर्ग में प्रसाद रोला छंद का प्रयोग करते हैं :
श्रद्धा का था स्वप्न किन्तु वह स्वप्न बना था
स्वच्छन्दता यहाँ नयी लय को जन्म देती है। प्रगीत में तो नयापन है ही, मुक्त छंद का नया प्रयोग भी . इन्हीं कवियों की देन है। छायावाद में शैलीगत विशेषताएँ क्यों प्रमुख हो उठी हैं, इसका कुछ संकेत आप पा सके होंगे।
छायावादी काव्य में कल्पना
छायावाद में कल्पना ही नयी सृष्टि का विधान करने वाली है। कल्पना की सबसे अधिक चर्चा आचार्य शुक्ल ने ही की है क्योंकि वे सीधे छायावादी कविता से टकरा रहे थे। धीरे-धीरे उन्होंने इस कल्पनाप्रियता का मर्म समझा। अंग्रेज़ी रोमान्टिक कवियों में कोलरिज कल्पना के महत्वपूर्ण व्याख्याता हैं। कोलरिज ने प्रकृति पर मानवीय भावों के आरोप को ही कल्पना कहा था। यह छायावाद को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण सूत्र है। काव्य में वर्ण तथा रूप की योजना कल्पना ही करती है। ‘नील परिधान बीच सुकुमार/ खुल रहा मृदुल अधिखिला अंग/ खिला हो ज्यों बिजली का फूल/ मेघ वन बीच गुलाबी रंग।’, ‘बिजली का फूल’ कल्पना से ही संभव है। छायावादी कवियों ने सादृश्यविधान के लिये जहाँ दृष्टिकल्पना या ध्वनिकल्पना का उपयोग किया है वहीं स्पर्शकल्पना या गंध-कल्पना का भी। ‘ज्यों मालकोश नव वीणा पर’ कल्पना का यह सौंदर्य हम पहले भी बता चुके हैं।
छायावाद में कल्पना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है और कल्पना की इस नवीनता का सम्बन्ध एक प्रकार की स्वाधीन चेतना से भी है। स्वछन्द कल्पना पर बल यहाँ अधिक है। रोमेंटिक इमैजिनेशन (स्वच्छंद कल्पना) पर बहुत विचार हुआ है। कहा गया है कल्पना जब अत्यधिक वैयक्तिक स्तर पर, एक भावात्मक विद्रोह के रूप में प्रकट होती है तब वह स्वच्छन्द कल्पना कहलाती है। प्रसाद कहते हैं :
हे कल्पना सुखदान
तुम मनुज जीवनदान
निराला के शब्द हैं :
कल्पना के कानन की रानी
आओ, आओ, मृदु पद, मेरे
मानस की कुसुमित वाणी
पंत के यहाँ :
‘कल्पना में है कसकती वेदना’
जैसा पहले कहा गया, सौन्दर्य के नये चित्रण में, विराट की उद्भावना में, स्मृतिविधान के लिए, बिम्बविधान या प्रतीकविधान के लिए कल्पना विशेष महत्वपूर्ण है। छायावादी कविता को समझने के लिए आचार्य शुक्ल का यह भेद ध्यान में रखें — प्रत्यक्ष रूपविधान करने वाली कल्पना, कल्पित रूपविधान और स्मृतिविधायिनी कल्पना। कभी कल्पना कोई मूर्त-प्रत्यक्ष रूप भी सामने लाती है :
अचल हिमालय का शोभन तम
लता कलित शुचि सानु शरीर
आगे ही वह कल्पित रूपविधान — जिसे प्रकृति पर मानवीय भावों का आरोप कहेंगे –“निद्रा में सुखस्वप्न देखता / जैसे पुलकित हुआ अधीर” । ‘आँसू’ के इस चित्र में स्मृतिविधायिनी कल्पना का रूप है। कवि स्मृति में प्रिया का वह रूप याद करता है जिसकी आँखें तृप्ति का सागर हैं, पुतलियाँ नीलम की नाव, और कज्जल रेखा कालेपानी के किनारे-सी हैं (जहाँ से वापसी का नियम नहीं है)।
कल्पना : भाषायी तथा शैलीगत नवीनता
इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि कल्पना ही नयी भाषा का मुख्य प्रेरक तत्व है। वही शैलीगत नवीनता का भी प्रमुख आधार है। कल्पना केवल चमत्कार – विधान के लिए नहीं, सहज सधन अनुभूति-चित्रण के लिए भी उपयोगी है। कल्पना नये सौन्दर्य चित्रण की मुख्य प्रेरणा है। बिम्ब का नया संगठन कल्पना द्वारा ही संभव होता है। प्रतीक जहाँ एक अकेले अर्थ की विशिष्टता का द्योतक है, वहाँ बिम्ब एक संश्लिष्ट रूप में ग्राह्य होता है। ‘राम की शक्ति पूजा’ में जब हताश राम के मन में सीता की स्मृति विद्युत-सी कौंधती है तो एक पूरा संश्लिष्ट बिम्ब ‘पुरुष वाटिका मिलन’ की स्मृति राम के अनुभव के रूप में उभरने लगता है।
यह ऐसी भाषागत नवीनता है या शैली का ऐसा नया ढंग है कि पाठक का ध्यान अलग-अलग अलंकार, बिम्ब और प्रतीक पर नहीं जाता। लगता है कि अलंकार बिम्ब, प्रतीक एक दूसरे में घुलमिल गये हैं। आगे भी हम देखेंगे कि प्रसाद जैसे छायावादी कवि का ध्यान सज्जात्मक या अलंकरणप्रधान बिम्ब की ओर नहीं जाता। वह अधिकतर संवेदनात्मक बिम्बों की ओर ही जाता है।
प्रसाद की काव्यभाषा
ब्रजभाषा से खड़ी बोली तक और इतिवृत्तात्मक अनगढ़ खड़ी बोली से रचनात्मक संवेदना सम्पन्न, रागसमृद्ध, लाक्षणिक, चित्रमय, ध्वनिमय काव्य-भाषा तक प्रसाद का विकास आप क्रमश: देख और समझ रहे होंगे। प्रसाद की काव्यभाषा में नयी अलंकृति को नये सादृश्य-साधर्म्य सम्बन्ध को, उसमें निहित नयी चमक को समझने की दृष्टि से आपको प्रसाद की कविता के पाठ का अपना ढंग विकसित करना चाहिए। हम कुछ सूत्र भर दे रहे हैं कि आप प्रसाद की काव्यभाषा को संगठित करने वाले उपादानों – बिम्ब, प्रतीक, मिथक, सादृश्यविधान — को समझ सकें और उनके आधार पर प्रसाद की काव्यभाषा के समग्र आकर्षण को, संश्लिष्ट आकर्षण को भी हृदयंगम कर सकें। प्रसाद की काव्यभाषा की समझ में शब्द का उनका अपना चुनाव सबसे अधिक सहायक है।
प्रसाद के काव्यशब्दों के पीछे बंगला-संस्कार की ओर ध्यान जाना चाहिए। प्रसाद का आकर्षण कोमल लयात्मक पदविन्यास में बराबर बना रहा। प्रसाद की मधुमयी प्रवृत्ति ऐसे शब्दों के प्रयोग में अधिक रूचि लेती है। प्रसाद की निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में इन्दीवर, मधु की धारा, माधवी निशा जैसे प्रयोगों को देखें :
इस इन्दीवर से गन्ध भरी
बुनती जाली मधु की धारा
माधवी निशा की अलसाई
अलकों में लुकते तारा-सी
प्रसाद की कल्पना व्यंजक-चित्रों की अभिव्यक्ति में दूर तक सहायक है। यह भाषा प्रगीतात्मकता के अनुकूल तो है ही, शुक्ल जी ने स्वीकार किया है कि प्रसाद जी प्रबंध क्षेत्र में भी छायावाद की चित्रविधान और लाक्षणिक शैली की सफलता की आशा बंधा गये हैं ।
उल्लेखनीय है कि प्रसाद ने पुराने शब्दों को नया अर्थ, नया संस्कार दिया। अप्रचलित शब्दों में नयी चमक पैदा की। साथ ही अपने भावावेग प्रेरित लाक्षणिक शब्दों को नयी भंगिमा दी। यह अर्थपूर्ण अछूता बिम्ब देखें — चित्र है जलप्लावन के बाद अकेले बचे मनु का :
एक विस्मृति का स्तूप अचेत
ज्योति का धुंधला-सा प्रतिबिम्ब
प्रसाद के शब्द प्रयोगों की प्रकृति विचारणीय है। क्यों उन्हें ‘शीतल दाह,’ ‘शिथिल सुरभि, ‘स्मितिमय चाँदनी’ जैसे प्रयोग अधिक अर्थवान लगते हैं ! रजनी उनके यहाँ एक ओर ‘इन्द्रजाल रजनी’ है तो दूसरी ओर वही “विश्व कमल की मृदुल मधुकरी” है। प्रसाद का स्वभाव ऐसे प्रयोगों के पीछे पहचाना जा सकता है। विशेष प्रकार की आन्तरिक अनुभूति ही प्रसाद की काव्यभाषा के नयेपन के मूल में है।
प्रसाद के काव्य-बिम्ब
आप सहज ही देख सकेंगे कि प्रसाद के काव्यबिम्बों के पीछे ऐन्द्रिक अनुभवों की चेतना है। यह सौन्दर्यबिम्ब स्पष्ट रूप से वर्ण-बिम्ब है :
और उस मुख पर वह मुस्कान !
रक्त किसलय पर ले विश्राम
अरुण की एक किरण अम्लान
अधिक अलसाई हो अभिराम !
प्रसाद यहाँ अधरों की लाली में घुली हुई मुसकान की हल्की लाली को एक दूसरे से अलगाते हुए इस सूक्ष्म सौन्दर्य बिम्ब की कल्पना कर सके हैं। देखें कि “ अलसाई” विशेषण से ‘किरण’ शब्द में एक अद्भुत मूर्तिमत्ता आ गयी है। केदारनाथ सिंह ने संकेत किया है कि प्रसाद विरोधी वर्ण योजना से अनुभूति के नये बिम्ब रचते हैं। जैसे :
एक लघु ज्वालामुखी अचेत
माधवी रजनी में अश्रान्त
‘ज्वालामुखी’ और ‘माधवी रजनी’ का विरोध प्रकट है। पर देखें कि प्रसाद ‘ज्वालामुखी’ की दाहकता को कम करने के लिए उसे दो विशेषणों से घेरते हैं। ‘लघु’ और ‘अचेत’ | यह प्रसाद की अपनी कला है।
स्वाद बोध का एक बिम्ब लाक्षणिकता की दृष्टि से विचारणीय है :
पवन पी रहा था शब्दों को
निर्जनता की उखड़ी साँस
ध्वनि संवेदना और स्वाद संवेदना का यह मिश्रण ध्यान देने योग्य है। स्पर्श का बिम्ब यहाँ इस दृष्टि से विचारणीय है कि वह भावात्मक प्रतीति के स्तर पर अर्थवान है :
छूने में हिचक, देखने में
पलकें आँखों पर झुकती हैं
कलरव परिहास भरी गूंजें
अधरों तक सहसा रुकती हैं
‘कामायनी’ में प्रसाद के अग्निसंकेत आदिम बिम्ब की सृष्टि में सहायक हैं। कामायनी की काव्यवस्तु में पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि के विलक्षण संकेत हैं। मनु श्रद्धा के प्रथम मिलन का संकेत इस प्रकार है :
दो काठों की सन्धि-बीच
उस निभृत गुफा में अपने
अग्नि शिखा बुझ गई,
जागने पर जैसे सुख-सपने
इस बिम्ब विधान में ‘अग्नि’ प्रतीकात्मक अर्थ से सम्पन्न है। बिम्बात्मक प्रतीक या प्रतीकात्मक बिम्ब काव्यभाषा में अलग पहचाने जा सकते हैं। प्रसाद के बिम्बों में दृश्य-संवेदना प्रधान है। पर आप देखेंगे कि उनकी एक विशेषता यह भी है कि वे अस्पष्टता लिये हुए धुंधले भावबोध के स्तर पर ही ग्राह्य होते हैं | ‘लज्जा सर्ग’ में ऐसे बिम्ब एक पूरी श्रृंखला बनाते हैं :
जो गूंज उठे फिर नस-नस में
मूर्च्छना समान मचलता-सा
आँखों के साँचे में आकर
रमणीय रूप बन ढलता-सा
‘मूर्च्छना’ शब्द पर ध्यान दें। यह शब्द संगीत के क्षेत्र से आया है और भावमूलक बिम्ब में सहायक है। इन संकेतों के आधार पर आप प्रसाद की काव्यभाषा में बिम्बविधान की सार्थकता का अनुभव कर सकते हैं।
प्रसाद के काव्य-प्रतीक
पहले बिम्ब और प्रतीक के अन्तर को समझ लें। कहा जा सकता है कि जब भावावेग प्रेरित कल्पना मन में एक सहज स्फूर्त बिम्ब तात्कालिक चित्र उपस्थित करती है तो वह ‘बिम्ब’ होता है। मूर्तता बिम्ब का गुण है पर वह अनेकार्थक, अस्पष्ट हो सकता है। यह बिम्ब जब बार-बार उसी-उसी अर्थ में दुहराया जाता है और लगभग रूढ़ एकार्थक हो जाता है तब वही प्रतीक कहलाता है। आचार्य शुक्ल जब शैली की दृष्टि से छायावाद की विशिष्टता बता रहे थे तो आभ्यंतर साम्य पर आधारित अप्रस्तुतों का विशेष महत्व बता रहे थे। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0454) | उनका संकेत था कि ऐसे अप्रस्तुत अधिकतर प्रतीक के रूप में ही आते हैं। जैसे – सुख, आनंद, प्रफुल्लता यौवन की व्यंजना के लिए ‘उषा”प्रभात’ प्रतीक रूप में आ सकते हैं। ये प्रतीक निस्संदेह सामान्य अनुभूति के मेल में ही आते हैं। जैसे आँसू में :
झंझा झकोर गर्जन है
बिजली है, नीरद माला
पाकर इस शून्य हृदय को
सबने आ डेरा डाला
‘झंझा’ झकोर – आकुलता का प्रतीक है। ‘गर्जन’ वेदना की तड़प का प्रतीक है। कामायनी का सारा रचनाविधान भी जिसे रूपक कहा जाता है, एक अर्थ में प्रतीक निर्भर ही है। श्रद्धा-इड़ा तो प्रतीक हैं ही। प्रकृति व्यापारों से लिये शब्द भी प्रतीक के रूप में ही आते हैं। कहा जा सकता है कि प्रतीकों का प्रयोग एक ऐतिहासिक जीवन में ही अर्थ प्राप्त करता है। जातीय स्मृति से प्रतीकों को सार्थकता प्राप्त होती है। प्रसाद की ‘कामायनी’ में मनु श्रद्धा, इड़ा तो प्रतीक हैं ही, देव सभ्यता, सारस्वतनगर, हिमालय, कैलास, प्रलय, संघर्ष आदि भी प्रतीक की तरह प्रयुक्त हुए हैं।
प्रसाद जहाँ रहस्यवाद की शैली अपनाते हैं वहाँ दार्शनिक विचार परम्परा के प्रतीक भी आते हैं। जैसे ‘कामायनी’ के दर्शन सर्ग में :
शक्ति तरंग प्रलय पावक का
उस त्रिकोण में निखर गठा सा
शृंग और डमरू निनाद बस
सकल विश्व में बिखर उठा सा
यहाँ त्रिकोण, शृंग, डमरू जैसे प्रतीक शैव दर्शन से आये हैं। प्रसाद अपने आनंदवाद के आग्रह से इन प्रतीकों का प्रयोग बंधे हुए ढर्रे पर ही कर रहे हैं। यहाँ काव्यभाषा का वास्तविक सौन्दर्य प्रकट नहीं होता। प्रतीक वहीं कविता के लिए सार्थक हैं, जहाँ कल्पना के बल पर नया संकेत देते हों। जहाँ तक ‘कामायनी’ के प्रतीकों का सवाल है, वे एक सीमा तक छायावादी आवरण से ढंके हैं, दूसरी ओर आधुनिक युग की वास्तविकता की भी झलक देते हैं।
प्रसाद की भाषा और मिथकीयता
मिथ या मिथक की चर्चा आपको शायद उलझनों से भरी लगे। हम इतना ही मानकर चलें कि मिथ या मिथक पौराणिक कल्पना है। उसका आधार जातीय स्मृति और विश्वास होते हैं। मिथकीय कल्पना कविता के लिए तभी उपयोगी होती है जब कवि जातीय विश्वास में एक तरह का हस्तक्षेप करता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि मिथक तत्व वस्तुत: भाषा का पूरक है। कवि प्रतिभा के स्पर्श से आदिम कल्पना नये मूर्तिविधान में रूप ग्रहण करती है। प्रसाद ‘मिथ’ को सामूहिक चेतना से ही सम्बद्ध मानते हैं। पर वे भी मिथक को काव्योपयोगी बना पाते हैं- मिथ को व्यक्तिगत स्पर्श देकर।
श्रद्धा मनु की कथा ‘कामायनी’ में मिथकीय कल्पना भाषा में अवश्य ही कुछ नया जोड़ पाती है :
कुंकुम का चूर्ण उड़ाते -से
मिलने को गले ललकते -से
अंतरिक्ष के मधु उत्सव के
विद्युत् कण मिले झलकते से
(‘काम’ सर्ग से)
यहाँ मिथ का नयापन भी देखने की चीज़ है। प्रसाद की कल्पना नये मिथक रचती है। ऐसे मिथक भी पुराने मिथकों के सम्पर्क में अर्थ प्राप्त करते हैं। प्रसाद की कल्पना मिथक का उपयोग जातीय स्मृतियों की पुनर्रचना के लिए करती है। ‘आशा’ सर्ग में मनु के प्रश्न इसके लिए उदाहरण हैं :
विश्वदेव सविता या पूषा
सोम मरुत चंचल पवमान
वरुण आदि सब घूम रहे हैं
किसके शासन में अम्लान
इस प्रकार काव्यभाषा मिथकीय कल्पना से एक नया आयाम ग्रहण करती है।
सादृश्यविधान और प्रसाद की काव्यभाषा की बनावट
यहाँ हम “अलंका-विधान” पद का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। सादृश्य विधान पद का प्रयोग व्यापक अर्थ में कर रहे हैं। प्रभाव-साम्य या रूप-गुण-धर्म साम्य को भी इसी में सम्मिलित मानकर। अलंकार को वाणी के विकल्प के रूप में देखा गया है अर्थात् इस रूप में कि कहने के कितने असीमित ढंग एक कल्पनाशील कवि के पास हैं। पर व्यवहार में ऐसे कवि अधिक हुए जिन्होंने अलंकार को चमत्कार तक सीमित किया। छायावादी कवि अलंकार की भी नयी परिभाषा करते हैं। पंत ‘पल्लव’ की भूमिका में कहते ही हैं- “अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं, वे भाव की अभिव्यक्ति के विशेष द्वार हैं।” यहाँ हम फिर शुक्ल जी की ही स्थापना की ओर ध्यान दिलायेंगे-“छायावाद बड़ी सहृदयता के साथ प्रभाव-साम्य पर ही विशेष लक्ष्य रखकर चला है। कहीं-कहीं बाहरी सादृश्य या साधर्म्य अत्यन्त अल्प या न रहने पर भी आभ्यन्तर प्रभाव-साम्य लेकर भी अप्रस्तुतों का सन्निवेश कर दिया जाता है।”
प्रसाद ने कल्पना के बल पर ही सादृश्य विधान के असंख्य नये रूप अपनी कविता में दिखाये हैं। उनकी अभिव्यक्ति क्षमता का पता सबसे अधिक सादृश्य विधान के रूप में ही दिखाई देता है। हम आपका ध्यान कुछ ऐसी कल्पनाओं की ओर आकृष्ट करेंगे, जिनसे प्रसाद के कवि-स्वभाव का और साथ ही उनकी क्षमता का भी पता चलता है।
‘कानन कुसुम’ में ‘प्रथम प्रभात’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं :
मनोवृत्तियाँ खग-कुल-सी थीं सो रहीं ।
नील गगन-सा शान्त हृदय भी हो रहा
‘झरना’ में ‘किरण’ के लिए कल्पना है :
धारा पर झुकी प्रार्थना सदृश
मधुर मुरली-सी फिर भी मौन
‘आँसू’ की प्रसिद्ध कल्पना है :
जीवन की जटिल समस्या है
बढ़ी जटा-सी कैसी
या मादकता-से आये तुम
संज्ञा-से चले गये थे
‘प्रलय की छाया’ से यह चित्र :
खिली स्वर्णमल्लिका की सुरभित वल्लरी -सी
गुर्जर के थाले में मरन्द वर्षा करती मैं
कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रसाद का सादृश्यविधान रागबोध के विस्तार और वैविध्य की सूचना देता है। विराट कल्पनाएँ बोधवृत्ति के विस्तार का पता देती हैं। विस्मृति का स्तूप अचेत’ इसी का उदाहरण है। प्रसाद काव्यगत अनुभूति को तीव्र और मूर्त बनाते हैं- नये सादृश्यविधान से ! इसके लिए वे सौन्दर्यश्रृंगारक्षेत्र से आगे भी आते हैं और जीवन तथा संस्कृति के नितांत अजाने क्षेत्रों में प्रवेश करते हैं। सादृश्यविधान की विशिष्टता उनके यहाँ बिम्ब, प्रतीक, मिथक, फैन्टेसी के प्रयोग में भी देखी जा सकती है। इसके आधार पर ही प्रसाद की वायवी अमूर्त कल्पना भी मूर्त रूप ग्रहण करती है :
नीख निशीथ की लतिका-सी
तुम कौन आ रही हो बढ़ती ?
कोमल बाँहें फैलाए-सी
आलिंगन का जादू पढ़ती।
अब तक हम प्रसाद की बहुत सी काव्यभाषा-विषयक विशेषताएँ देख चुके हैं। आशा है आप इस पहचान को आस्वाद-प्रक्रिया अर्थात् काव्य पाठ के दौरान अधिक समृद्ध कर सकेंगे।
प्रसाद का काव्य-शिल्प
प्रसाद की काव्यशैली या काव्यशिल्प की चर्चा करते हुए हम भाषायी विशेषताओं को भी शैली के अंग के रूप में देख सकते हैं। पहले भाषा वैशिष्ट्य की चर्चा शैली के अन्तर्गत ही की जाती थी। इस दृष्टि से लाक्षणिक चित्रात्मक भाषा का वैशिष्ट्य शैली का ही वैशिष्ट्य है। छायावाद जैसी काव्यशैली के संदर्भ में प्रसाद वक्रोक्ति के आचार्य कुंतक को तथा ध्वनि के आचार्य आनंदवर्धन को याद करते हैं। शब्द की वक्रता और अर्थ की वक्रता का मर्म बताते हैं। अभिव्यक्ति की भंगिमा समझने के कुछ सूत्र देते हैं। ‘काव्य और कला तथा अन्य निबंध’ में संकलित पहला ही निबंध ‘काव्य और कला’ पर है। स्वाभाविक है कि यहाँ प्रसाद का ध्यान शैली या रूप. के वैशिष्ट्य पर जाय। जब वे कहते हैं – “काव्य में जो आत्मा की मौलिक अनुभूति की प्रेरणा है, वही सौन्दर्यमयी और संकल्पात्मक होने के कारण अपनी श्रेय स्थिति में रमणीय आकार में प्रकट होती है।” यह रमणीय आकार ही शैलीविशेष है जिसे प्रसाद अपनी कविता को देना चाहते हैं।
महत्व उन्हें अनुभूति का कहीं अधिक जान पड़ता है। पर स्वीकार करते हैं कि विशिष्ट अनुभूति या नयी अनुभूति नयी अभिव्यक्ति पद्धति की माँग भी करेगी। यहाँ हम प्रसाद के काव्यरूप की विशिष्टता पर विचार करेंगे – प्रगीतात्मकता और नयी प्रबन्धात्मकता पर। कामायनी प्रबंध काव्य तो है और उस रूप में महाकाव्य भी। पर परम्परागत लक्षणों प्रतिमानों को छोड़कर| प्रगीतात्मकता का एक भी ढंग प्रसाद नहीं अपनाते। यहीं हम छंद, मुक्तछंद, रूप, लय, संगीत पर भी विचार करेंगे।
प्रसाद के काव्यरूप
जब आपका साक्षात् द्विवेदीयुग की तथ्यात्मक इतिवृत्तात्मक शैली वाली कविता से होता है तो आप अक्सर एक भाषण जैसी शैली देखते हैं। जैसी सपाट अन्तर्वस्तु है, वैसी ही शैली है — सपाट कथन वाली। छन्दों के व्यवहार में संस्कृत छन्दों की ओर या हिन्दी के पुराने छन्दों की ओर ही कवियों का ध्यान है। मुक्तक प्रणाली की कविताएँ भी नवीनता की कोई झलक नहीं देतीं। अलंकार हैं तो पुराने ढंग के ही — जो रूढ़ि बन चुके हैं।
अब प्रसाद के काव्यरूपों की नवीनता देखें जो छायावादी काव्य-शैली के अन्तर्गत नयेपन का आभास कराते हैं। पहले प्रगीतात्मक शैली की कविताएँ – नये छंद विधान का परिचय देती हुई या लोकछंदों का नया संस्कार ग्रहण करती हुई। ‘कामायनी’ का एक गीत ‘सरस्वती’ पत्रिका में 1935 में प्रकाशित हुआ था :
तुमुल कोलाहल कलह में
कह हृदय की बात रे मन
विकल होकर नित्य चंचल
खोजती जब नींद के पल
चेतना थक सी रही तब
मैं मलय की बात रे मन
– (‘निर्वेद’ सर्ग से)
इस गीत में क्या नयापन है ! क्या इसका संगीत लोकधुन या लय से प्रभावित है ! क्या इसका संगीत लोकधुन या लय से प्रभावित है ! कोमल पद-विन्यास, वाक्य विन्यास, वाक्य-लय। इनके साथ ही प्रगीतात्मकता की नयी पहचान बनती है। छायावाद की प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति की विशेषताएँ आपका ध्यान ज़रूर आकृष्ट करती होंगी।
‘लहर’ के एक गीत की बनावट पर ध्यान दें। इसमें क्या नया है, यह इसलिए भी विचारणीय है कि किसी अज्ञात नियम से भी छायावादी रूपविधान की नवीनता हमें आकृष्ट करती है। गीत इस प्रकार है:
वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे!
जब सावन-घन-सघन-बरसते –
इन आँखों की छाया भर थे!
सुरधनु रंजित नव जलधर से –भरे,
क्षितिज व्यापी अम्बर से,
मिले चूमते जब सरिता के ।
हरित कूल युग मधुर अधर थे!
छायावादी प्रगीतात्मकता की विशेषताओं को निराला, पंत, महादेवी के गीतों के साथ देखना भी आपके लिए उपयोगी होगा।
‘लहर’ में संकलित ‘अशोक की चिंता’ जैसी कविताओं को ‘आख्यानक प्रगीत’ कह सकते हैं। यहाँ ढाँचा भर प्रगीत जैसा है, सारां बल आख्यान पर है। इससे भिन्न स्थिति ‘प्रलय की छाया’, ‘शेर सिंह का शस्त्र समर्पण’ जैसी लम्बी कविताओं की है। पूरी कविता लम्बी कविता का ऐसा आदर्श है जिसमें प्रगीतात्मकता तथा नाटकीयता का सहज समावेश है। ‘प्रलय की छाया’ जैसी लम्बी कविता को भी आख्यानक प्रगीत कहा गया है पर अब जब हमारे समक्ष ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘सरोज स्मृति’ (निराला) ‘अँधेरे में’ (मुक्तिबोध) तथा ‘असाध्य वीणा'(अज्ञेय) जैसी लम्बी कविताओं के रचनाविधान की विशिष्टता है, हम ‘प्रलय की छाया’ को लम्बी कविता ही कहेंगे। यहाँ मुक्तछंद में भी प्रगीतात्मकता की लय बनी हुई है। पर इस कविता के रूप संगठन को, रूप प्रकार को आप गहन अध्ययन के आधार पर समझ सकेंगे।
यह कविता ‘हंस’ 1931 में प्रकाशित हुई थी जब लम्बी कविता का आदर्श विकसित न था। लम्बी कविता के रूप में ‘प्रलय की छाया’ भी प्रगीतात्मकता तथा नाटकीयता को मुक्त छंद के विन्यास में संभाले हुए है।
‘प्रलय की छाया’ के रूपगठन को ध्यान से देखें। फ्लैशबैक या पूर्वदीप्ति शैली में यह नाटकीय कविता गुर्जर रानी कमलावती की असफल रूपगाथा का पछतावे से भरा एकालाप है। इस कविता का विस्तृत मूल्यांकन हम आगे करेंगे। अभी तो हम इसे लम्बी कविता के रूप में देखें, जिसमें नाटकीयता तथा प्रगीतात्मकता के समावेश से एक नया काव्य-रूप बनने की संभावना है। क्षीण-कथा में यह एक स्त्रीमन का एकालाप है। कविता का आरंभ धूसर रंग की सन्ध्या से होता है और अवसान भी कालिमा की धारा में परिणत होने वाली रक्तमयी प्रगाढ़ सन्ध्या से। इस दृष्टि से इसकी संरचना वर्तुलाकार है। आरंभ से अंत के सूत्र इस तरह मिलते हैं कि अन्विति सी घटित होती है।
यह अन्विति ही प्रगीतात्मकता का आधार है। अन्तःसंवाद एक नाटकीय प्रभाव पैदा करते हैं। आरंभ के इस चित्र को देखें जो आत्मविषाद का चित्र है लेकिन इसे विन्यास की दृष्टि से देखें। एक लम्बी कविता का आरंभ इस प्रकार है :
थके हए दिन के निराशा भरे जीवन की ।
सन्ध्या है आज भी तो धूसर क्षितिज में।
और उस दिन तो :
निर्जन जलधि-वेला रागमयी सन्ध्या से
सीखती थी सौरभ से भरी रंगरलियाँ।
स्मृतियाँ सब सन्ध्या की। अंत से पहले भी
एक दिन संध्या थी :
मलिन उदास मेरे हृदय-पटल-सा
लाल-पीला होता था दिगन्त निज क्षोभ से
और अन्त :
गिरता नक्षत्र नीचे कालिमा की धारा-सा
असफल सृष्टि सोती
प्रलय की छाया में।
अभी इतना ही याद रखें कि इस लम्बी कविता में प्रगीतात्मकता नाटकीयता का समावेश क्या अर्थ रखता है- वस्तु के अनुरूप।
‘कामायनी’ छायावादी शैली का अकेला महाकाव्य है। कथाप्रधान महाकाव्यों के शास्त्रनिर्दिष्ट लक्षणों से अलग महाकाव्य है। नायक मनु कमज़ोर विभाजित द्वन्द्वशील दुविधाग्रस्त पात्र है, जिसे धीरोदात्त नहीं कहा जा सकता। निर्वाह के लिए महाकाव्य के लक्षणों को समाविष्ट करने का प्रसाद ने कोई प्रयास नही किया है। यहाँ भी प्रबन्ध के बावजूद खंड-खंड रूपों में प्रगीतात्मकता के लिए संभावना है। कथासूत्र ध्यान में आते हैं। वे मिलकर एक नाटकीय लय बनाते हैं। कार्य-व्यापार का अभाव है। वस्तुविन्यास बहिर्मुख न होकर अन्तर्मुख है। जैसा डॉक्टर नगेन्द्र कहते हैं- कामायनी महाकाव्यं है पर मानव चेतना का महाकाव्य है। (कामायनी के अध्ययन की समस्याएँ / नगेन्द्र) जहाँ स्थूल घटनाएँ प्रधान हैं जैसे प्रलय वर्णन, संघर्ष आदि में वहाँ तो भावप्रवाह मूर्तता सघनता लिये हुए है।
वर्णन में आवेग प्रबल है। जहाँ अंतर्मुखता प्रधान है, जैसे ‘श्रद्धा’ सर्ग में मनु-श्रद्धा-संवाद, वहाँ प्रगीतात्मकता ही प्रधान हैनिस्संदेह कथा-लय बनाती हुई। भव्य और उदात्त के लिए जहाँ संभावना है, वहाँ वे हैं, पर शास्त्रनिर्दिष्ट लक्षणों से अलग। प्रसाद जो काव्यरूप चुनते हैं उनमें उनका अपना क्या है, यह जानने की उत्सुकता आपमें होनी चाहिए।
छंद और छंद मुक्ति
छायावादी कवियों ने छंद के भीतर ही छंदमुक्ति का प्रयास किया या मुक्त छंद का प्रयोग किया। निराला ने कविता की मुक्ति की चर्चा करते हुए स्पष्ट किया था कि वे छंदहीन कविता का समर्थन नहीं कर रहे हैं। मुक्त छंद भी छंद है। प्रसाद ने जहाँ मुक्त छंद का प्रयोग किया है वहाँ भी प्रगीतात्मकता का अपना बीज रूप दिखाई देता है।
प्रसाद के यहाँ छंद और मुक्त छंद की स्थिति देखें। पहले तो यही बात ध्यान में रखें कि वाक्य छंद की इकाई है। गद्य पद्य सभी में एक तरह का छंद होता है जो वाक्य की गति लय में ही छिपा रहता है। नामवर सिंह की इस व्याख्या को भी ध्यान में रखें : “ छायावादी कवि के जिस हृदयस्पन्दन ने वाक्यविन्यास को प्रभावित किया, उसी ने वाक्यविन्यास के माध्यम से छंदविधान का भी निश्चय किया। छायावाद का यह हृदय स्पंदन मुख्यत : प्रगीत-भावना थी। छायावादी छंदों में से अधिकांश का निश्चय प्रगीत-भावना ने किया।” प्रसाद ने फ़ारसी बहर में भी कविताएँ लिखीं जैसे :
‘न छेड़ना उस अतीत स्मृति के खिंचे हुए वीन तार कोकिल’
लोकछंदों के प्रभाव से प्रसाद ने कई बार नया छंद बना लिया। जैसे ‘आल्हा’ के प्रभाव से : तीस मात्राओं का यह छंद :
‘उषा सुनहले तीर बरसती जयलक्ष्मी सी उदित हुई’
‘लावनी’ का प्रभाव लेकर : बत्तीस मात्राओं का यह छंद :
‘कौन तुम संसृति जलनिधि तीर तरंगों से फेंकी मणि एक’
‘रोला’ छंद का प्रयोग देखें : संघर्ष सर्ग में :
श्रद्धा का था स्वप्न किन्तु वह स्वप्न बना था
‘आँसू’ सखी छंद में है। ‘कामायनी’ का आनंद सर्ग. भी इसी छंद में :
रो रोकर सिसक सिसक कर कहता मैं करुण कहानी
प्रसाद का योगदान यह है कि उन्होंने पुराने छंदों का, लोकछंदों का नया उपयोग किया। जहाँ तक ‘प्रलय की छाया’ जैसी कविताओं के मुक्त छंद का प्रश्न है हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि यहाँ प्रगीतात्मकता तथा नाटकीयता का सन्निवेश ही मुक्त छंद को सार्थक बनाता है।
छंद, लय और संगीत
प्रसाद का अपना भाषा-संगीत है जो छंद के बहुरूपात्मक प्रयोगों में देखने योग्य है। प्रसाद के नाट्य गीतों में संगीत और लय का विन्यास भाषा और रूप दोनों को प्रभावित करने वाला है। ‘न छेड़ना उस अतीत स्मृति से खिंचे हुए वीन तार कोकिल’ स्कंदगुप्त का नाट्यगीत ही है। ‘स्कंदगुप्त’ में देवसेना का अंतिम गीत- ‘आह वेदना मिली विदाई’ संगीतात्मक विन्यास के लिए महत्वपूर्ण रचना है।
प्लेटो ने कविता को संगीत के अंतर्गत मान्यता दी, यह बात प्रसाद को ‘काव्य और कला’ निबंध में अलग से विचारणीय लगती है। पर प्रसाद ही कहते हैं- “संगीत के द्वारा मनोभावों की अभिव्यक्ति केवल ध्वन्यात्मक होती है। वाणी का संभवत : वह आरंभिक स्वरूप है” | इस दृष्टि से वह कविता की जगह लेने वाली विधा नहीं है। कविता का स्थानापन्न नहीं है। पर कविता को जीवन देने में, देर तक कविता की गूंज को जिलाये रखने में उसका महत्व है।
अन्य पक्ष
हम यहाँ फिर कहना चाहेंगे कि प्रसाद की भाषा और उनके शिल्प सम्बन्धी अध्ययन में · विशेषण’ शब्दों को ध्यान से देखें। इनसे प्रसाद के कवि-स्वभाव का पता चलता है :
जैसे, मधुमय, सुरभित, पुलकित, शिथिल, हेमाभ, नीरव, हठीला, मूर्छित, मूक……..।
‘ध्वांत’ ‘ ऊर्जस्वित’ जैसे शब्दों को भी प्रसाद पूरे पदविन्यास में कैसे खपा लेते हैं यह भी हमें देखना चाहिए। इसलिए ज़रूरी है-कविता का सीधा प्रत्यक्ष पाठ)
‘काव्य पाठ’ के चयन के आधार पर प्रसाद का मल्यांकन
हम अपेक्षा करेंगे कि आप चयन के लिए निर्धारित पाठ के सीधे सम्पर्क में हैं। यह सारी व्याख्या, यह सारा विश्लेषण किसलिए ! कविता की आस्वाद-क्षमता विकसित करने के लिए। फिर आप ही विश्लेषण करेंगे। आप ही मूल्यांकन। ये सारे विचार-सूत्र सीधे पाठ की प्रेरणा के लिए हैं। आपके लिए विशिष्ट निर्धारित पाठ यह है :
- कामायनी का श्रद्धा सर्ग
- आँसू
- प्रलय की छाया
हम अब इनके पाठ-विश्लेषण के सूत्र भर सुझा रहे हैं। काव्यशिल्प की विशिष्टता के निर्देश के साथ।
प्रसाद का काव्यशिल्प और ‘कामायनी’ का श्रद्धा सर्ग
… ‘श्रद्धा’, ‘कामायनी’ का अत्यंत महत्वपूर्ण सर्ग है। कामायनी भी श्रद्धा ही है। स्वाभाविक है कि प्रसाद की मूल भावधारा और विचारधारा इस सर्ग में अभिव्यक्ति पा सके। पर अधिक महत्वपूर्ण है मनु-श्रद्धा मिलन प्रसंग का कलात्मक संयोजन। हम पहले बता चुके हैं कि ‘कामायनी’ नये प्रकार का प्रबन्ध है। प्रबन्ध में प्रगीत और नाटक का-सा विन्यास प्रकट है। श्रद्धा का आगमन ही नाटकीयता लिये हुए है। मनु से आकस्मिक प्रश्न करती हुई वह जैसे जीवन के रंगमंच पर आती हो। मनु-श्रद्धा के संवाद में उनके अपने-अपने मनोभावों की भी अभिव्यक्ति है। संवाद आत्मसंवाद लगने लगता है :
क्या कहूँ क्या हूँ मैं उद्भ्रान्त
विवर में नीलगगन के आज
श्रद्धा का सौन्दर्य मनु को चकित करने वाला है- बाह्य शरीर के आकर्षण से ही नहीं, मन की उदारता गुणवत्ता के आकर्षण से भी। श्रद्धा के व्यक्तित्व में एक छंद है। वह सजग इतनी है कि मनु की दुर्बलता की तह तक जाती है- इस पूछने के ढंग में बहुत कुछ है- राग-विराम का द्वन्द्व , विराग के छल की निस्सारता, राग की उत्तेजना। कहा जा रहा है शांत ढंग से पर उद्वेग भरा हुआ है- मन में भी और शब्दों में भी। श्रद्धा पूछती है :
हृदय में क्या है नहीं अधीर
लालसा जीवन की निश्शेष?
कर रहा बंचित कहीं न त्याग
तुम्हें, मन में धर सुन्दर वेश।
श्रद्धा सर्ग का संगठन विलक्षण है। दार्शनिक कथन भी जैसे प्रगीतात्मक की लय को तोड़ता नहीं है। श्रद्धा के व्यक्तित्व के अनुरूप मंगलकामना की उदारता के साथ।
प्रसाद की काव्यशैली की जो भी विशेषताएँ कही जाती हैं – अलंकार या सादृश्यविधान, बिम्ब, प्रतीक, मिथक का काव्यभाषा में रचाव, भाषा में चित्रमयता की प्रवृत्ति, लाक्षणिकता का साहस, संगीतात्मकता’श्रद्धा’ सर्ग में इन विशेषताओं को हम प्राय: लक्षित करते रहे हैं। आप इन्हें पुन: अभ्यास-क्रम में निर्दिष्ट करें और अपने ढंग से इन विशेषताओं की व्याख्या करें। ये संकेत पर्याप्त होंगे। देखें कि इनमें कुछ और विशेषतायें भी शायद आपके अपने पाठ में आकर जुड़ें।
‘आँसू और प्रसाद की शिल्पगत विशिष्टता
हमने प्रसाद की शिल्पगत विशेषताओं की ओर इस अध्ययन-क्रम में पहले भी आपका ध्यान आकृष्ट किया है। हम आपका ध्यान यहाँ रमेशचंद्र शाह के एक निबंध की ओर ले जाना चाहेंगे। निबन्ध का शीर्षक है, “आँसू की प्रयोगशाला में प्रसाद’ । शाह की व्याख्या है- “आँसू में कोई निश्चित संरचनात्मक ढाँचा नहीं है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि इसके छंदों में अनिवार्य पूर्वापरकता है ही।” | इसलिए स्वाभाविक है कि इस कृति की विधा को नाम देने की स्पष्ट सुविधा आलोचकों के पास न हो। वे इसे कथा-सूत्र के कारण गीतात्मक प्रबन्ध कहते हैं। मुक्तक-प्रबंध के बीच का एक नया काव्य-रूप। यहाँ छन्द प्रयोग में तराश और दीप्ति की झलक है। वाक्यविन्यास कई बार सूक्ति के निकट जान पडता है :
मानव जीवन वेदी पर / परिणय हो विरह मिलन का
सुख दुख दोनों नाचेंगे / है खेल आँख का मन का
इसमें सन्देह नहीं कि ‘आँसू’ में कलापक्ष का परिष्कार या निखार दिखाई देता है। रचनाविधान की विलक्षणता के साथ प्रसाद की जानी-पहचानी विशेषताएँ सहज ही लक्ष्य की जा सकती हैं जैसे विलक्षण कल्पना का भाषा में रचाव, रमणीय कल्पना, लयपूर्ण चित्रात्मक भाषा, लाक्षणिकता, प्रतीक विधान, नये प्रकार के अप्रस्तुतों का प्रयोग। इन्हें आप अभ्यास-क्रम में सहज ही देख सकेंगे।
प्रलय की छाया : रूपबंध : लंबी कविता के रूप में मूल्यांकन
‘प्रलय की छाया’ को जीवन की अनेक रंगीन सन्ध्याओं की कलादीर्घा कहा गया है। यहाँ स्त्री के विफल सौन्दर्य के तीखे अनुभव के साथ रूपगर्व की मादक स्मृतियाँ हैं-फ्लैशबैक या पूर्वदीप्ति की तरह। स्त्री का रूप गर्व, लालसा, प्रतिशोध, विवशता,अहंकार, वासना, ग्लानि- जैसे अनुभव एक श्रृंखला-सी बनाते हैं- घटनाक्रम में आगे-पीछे चलकर। आख्यान इतिहास-आधारित है पर प्रसाद उसमें बहुत कुछ बदल देते हैं। इतिहास में खुसरू और मानिक एक नहीं हैं। प्रसाद के यहाँ एक हैं।
अलाउद्दीन स्वास्थ्य बिगड़ने और सामंतों के विद्रोह से चिन्तित होकर मरा था। प्रसाद ने मानिक द्वारा उसकी हत्या करा दी है। वहाँ कमलावती भारतेश्वरी हो जाती है जो इतिहास-प्रमाणित नहीं है। ये सभी परिवर्तन प्रसाद ने काव्य-न्याय से किये हैं क्योंकि प्रलय की छाया इतिहास नहीं है, लम्बी कविता के रूप में कमलावती के स्त्रीमन के व्दन्दों का विश्लेषण है। कविता के विशिष्ट रचनाविधान के भीतर।
पहले कविता की अंतर्वस्तुः प्रभुत्व के उन्माद तथा प्रतिशोध से प्रेरित खुसरू की व्यंगवाणी से मर्माहत कमला आत्मावलोकन के रोमांचकारी क्षणों में डूब जाती है। वह क्षण याद आता है जब कमला अपनी ही सुगंध से पागल हो उठती है। लहरीली नीली अलकावली सी लहरें उसे चूमने लगती हैं। नृत्यशीला यौवन की स्मृतियाँ खिलखिलाती हैं। कल्पना कुमारियाँ अप्सरा-सी उसका श्रृंगार करती हैं। आत्मरति में मुग्ध कमला देखती है- गुर्जरेश को प्रणत होते हुए। कामद किरणों से कमला की चंद्रकांतमणि जैसी अंगलतिका स्निग्ध मसृण हो गई है। उसके साहचर्य की मरन्द वर्षा से गुर्जरेश का जीवन सुख सौरभ से भर उठता है।
फिर एक और सन्ध्या आती है। बलिदान की, पदिमनी के जौहर की, चारों ओर पवित्र आग की सुगंध फैली है। कुलवधुओं, कुमारियों को विषमय परतंत्रता बींधने लगती है। पर कमला मरने की जगह मारने का रास्ता चुनती है :
पदिमनी जली थी किन्तु मैं जलाऊँगी
वह दावानल ज्वाला जिसमें सुलतान जले
देखे तो प्रचण्ड रूप – ज्वाला – सी धधकती
मुझको सजीव वह अपने विरूद्ध
यह एक क्षण है जब देश पराजित है। तुर्कों के अधीन। पति-पत्नी दोनों संकट में। गुर्जरेश का छल। वे दूर निकल जाते हैं। कमला बन्दिनी है। प्रतिशोध से विकल। पर मन में द्वन्द्व अनेक। कभी वह पति का प्रतिशोध लेना चाहती है, कभी सुलतान के मन में अपने उद्दाम रूप का आकर्षण जगाना चाहती है। रंगमहल में स्मृतियों में डूबी सुलतान को वश में किए। तभी दिख जाता है मानिक। पूर्वप्रेमी मानिक। क्या मरने आया है वह ! नहीं जीवन की आशा लेकर आया है। बन्दी बना लिया जाता है वह। कमला रूपगर्विता, छल से सुलतान की ‘प्रेमगर्विता’ भी- वह मानिक का जीवन बचा पाती है। पति कर्णदेव की मृत्यु की सूचना का क्या अर्थ ! वह तो भारतेश्वरी बनने की कल्पना में है। तभी मानिक सुलतान की हत्या कर देता है। मानिक का धिक्कार उसे भीतर ही भीतर क्षुब्ध करने लगता है। ग्लानि और पछतावा । यही ‘प्रलय की छाया’ का अंत है – अंधकार तक। इसी अर्थ में कहा गया है कि इसकी संरचना वर्तुलाकार है।
कहीं रागमयी संध्या के पर्दे पर शैशव-यौवन की प्रगल्भता जैसे मुग्धावस्था में ही संक्रमित। एक मादक संध्या। फिर एक और मादक संध्या। फिर एक छलनामयी संध्या जो रात्रि की कालिमा तक जा पहुँचती है। एक तीखी विलक्षण सादृश्य योजना :
कृष्णा वह आई, फिर रजनी भी
खोलकर ताराओं की विरल दशनपंक्ति
अट्टहास करती थी, दूर मानों व्योम में
एक वह संध्या – उन्माद-अभिमान का संयोग। यहाँ कमला के लिए प्रसाद प्रतीक चुनते हैं – कृष्णा गुरूवर्तिका :
कृष्णा गुरूवर्तिका
जल चुकी स्वर्णपात्र के ही अभिमान में
एक धूम रेखा मात्र शेष थी
उस निस्पंद रंग मन्दिर के व्योम में
क्षीण गन्ध निरवलम्ब
एक उजाड़ धूसर सन्ध्या फिर आती है – कालिमा की धारा में विलीन होती। इस तरह देखें तो सभी सन्ध्याएँ छायावाद की विशेषताओं (रागात्मकता, चित्रात्मकता, लाक्षणिकता, ध्वन्यात्मकता, प्रतीकात्मकता, सादृश्यविधान की नवीनता) को एक रचनाविधान में पुष्ट करती हैं और प्रगीतात्मकता तथा नाटकीयता के सन्निवेश से ‘लम्बी कविता’ जैसे रूप का नया प्रतिमान बनाती हैं।
स्मृत्तियों पर आधारित आत्मसंलाप या एकालाप। मन के भीतर के द्वन्द्वों में सक्रिय अन्त: संवाद। कविता में लय रचती हुई कोमल शब्दावली। रूपविधान में विलक्षण कसाव। इन विशेषताओं को लक्ष्य करते हुए आप इस कविता का एक खास अपना मूल्यांकन कर सकेंगे।
सारांश
इस व्याख्यान-पाठ में हमने आपको प्रसाद की काव्यभाषा और काव्यशिल्प के प्रति उत्सुक सजग बनाने की चेष्टा की है। हमने क्रमश : स्पष्ट करना चाहा है कि :
- प्रसाद छायावाद के कवि हैं – छायावादी काव्यशैली और भाषा की विशेषताओं से सम्पन्न;
- यह छायावाद द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता के विरूद्ध सूक्ष्म शैली और रूपविधान पर इतना बल देते हुए आया, कि शुक्ल जी को वह मुख्यत : काव्यशैली प्रतीत हुआ;
- प्रसाद ने स्वयं जिन विशेषताओं की पहचान बनायी वे हैं – स्वानुभूति प्रेरित नयी कल्पना, नया सादृश्य विधान, चित्रात्मकता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, संगीतात्मकता, उपचार वक्रता, बिम्बप्रतीक-मिथक-सादृश्यविधान के अन्तर्सम्बन्ध को आत्मसात करने वाला नया भाषिक संगठन, प्रगीतात्मक-नाटकीयता का सहसंयोजन आदि;
- प्रसाद रमणीय कल्पना के लिए ही नहीं, उदात्त कल्पना के लिए, विराट कल्पना के लिए, आदिम कल्पना के लिए भी महत्वपूर्ण हैं;
- प्रसाद ब्रजभाषा से खड़ी बोली तक और अनगढ़ खड़ीबोली से संवेदनसमृद्ध खड़ीबोली काव्यभाषा तक-लम्बी यात्रा करने वाले कवि हैं;
- प्रसाद पुराने ग़ायब हो चुके शब्दों को, छन्दों को पुनर्जीवन देने वाले कवि हैं;
- अलंकार से अधिक बिम्ब में प्रसाद की रूचि है- बिम्ब भी कभी प्रतीकात्मक, कभी मिथकीय;
- प्रसाद का छंद संगठन प्रगीतों में तो महत्वपूर्ण है ही, उनके मुक्त छंद सम्बन्धी प्रयोग भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। वहाँ भी छंद का मूल आधार लिया गया है। प्रसाद ने लोकछंदों के पुन : संस्कार से भी नयी काव्यात्मक सार्थकता सिद्ध की है। प्रसाद जिस प्रकार प्रगीतात्मकता में खास नयापन लाते हैं, उसी प्रकार महाकाव्यात्मकता की नयी पद्धति या शैली विकसित करते हैं।
इस इकाई को इससे पूर्व की इकाई से सम्बद्ध करके देखें। तब आप स्वयं प्रसाद की भाषा और काव्यशैली की विशेषताओं को ठीक तरह से समझ सकेंगे और अपने अनुभवों के आधार पर संभवत : नयी विशेषताओं का निर्धारण भी कर सकेंगे।