जयशंकर प्रसाद के काव्य में राष्ट्रीय चेतना की विशिष्टता और आधुनिक भावबोध

यह इकाई छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद के काव्य पर आधारित है।

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • प्रसाद काव्य की प्रमुख विशेषताएँ जान सकेंगे
  • प्रसाद काव्य में भक्त सांस्कृतिक चेतना और राष्ट्रीय जागरण की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
  • प्रसाद काव्य में व्यक्त आधुनिक भावबोध और युगीन चेतना को समझ सकेंगे।
  • प्रसाद की कतिपय रचनाओं के आलोचनात्मक विश्लेषण के द्वारा प्रसाद काव्य का मूल्यांकन कर पाएंगे।
  • प्रसाद के काव्य की भाषा, शिल्प एवं काव्य-रूप संबंधी विशेषताओं की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।

इस पाठ्यक्रम में अब तक आप भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग से संबंधित कवियों का अध्ययन कर चुके हैं। इस इकाई में अब आप जयशंकर प्रसाद के काव्य का अध्ययन करेंगे। प्रसाद के काव्य पर कोई भी विचार विमर्श तब तक सार्थक नहीं है जब तक कि आपको प्रसाद के समय के बारे में, छायावाद के बारे में, एक रचनाकार के रूप में प्रसाद के बारे में कुछ आधारभूत जानकारी न प्राप्त हो जाए। जहाँ तक प्रसाद के समय और छायावाद का सवाल है इन दोनों के बारे में जानकारी आप पाठ्यक्रम छह से प्राप्त कर सकते हैं। अगर आपने संबंधित इकाइयों का अध्ययन नहीं किया है तो आप अवश्य कर लें। हाँ, जहाँ आवश्यकता होगी इन पहलुओं की चर्चा हम इस इकाई में भी करेंगे।

स्नातकोत्तर स्तर पर जयशंकर प्रसाद जैसे कवि को पढ़ने का अर्थ है कवि को समग्रता में पदना। उनकी काव्यानुभूति, विचारधारा और भावबोध की विशेषताओं के साथ ही आपावाद-युग की विशेषताओं के संदर्भ में प्रसाद के महत्व को समझते हुए पढ़ना। इस अध्ययन को सार्थकता आपके लिए तभी हो सकती है, जब आपको लगे कि आप सीधे प्रसाद के काव्य-मर्म तक पहुँच रहे हैं। यह अध्ययन तभी सार्थक हो सकता है जब आप प्रसाद को पढ़ते हुए अनुभव करें कि प्रसाद आपके कवि हैं। प्रसाद का पाठ अब आपके लिए अपना पाठ है। प्रसाद छायावाद के कवि हैं इसलिए स्वाभाविक है कि छायावाद की प्रवृत्तियों का परिचय प्रसाद को पढ़ने-समझने में सहायक हो। पर यह अध्ययन अधिक सार्थक तभी होगा जब हम प्रसाद को पढ़ते-पढ़ते कुछ नयी विशेषताओं, सूक्ष्मताओं को जानने-समझने में अपने को सक्षम पा रहे हों। विचार करना चाहिए कि प्रसाद छायावादी कवि के रूप में क्या कुछ नया उद्घाटित कर रहे थे, क्या कुछ नया खोज रहे थे। अधिक संभव यही लगता है कि प्रसाद छायावाद की बहुत-सी विशेषताओं की नींव रख रहे थे। हम आरंभ में ही प्रसाद के कुछ विचार-सूत्रों तथा विशिष्ट काव्यानुभवों की ओर संकेत करेंगे। इन संकेतों से शायद आप प्रसाद की कविता के प्रति गहरी उत्सुकता अनुभव करें।

प्रसाद काव्य का अध्ययन : दष्टि और पद्धति

इसमें संदेह नहीं कि प्रसाद का छायावाद-युग में होना महत्वपूर्ण है। पर प्रसाद की निजी साहित्यिक या काव्यात्मक विशेषताओं के साथ उपस्थिति भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। हम दोनों ही दृष्टियों से प्रसाद को पढ़ेंगे। पर पद्धति हमारी यह होगी कि हम प्रसाद की कविता के साक्ष्य पर ही उन युगीन विशेषताओं को भी समझने की कोशिश करें, जिन्हें ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है। ‘प्रेम पथिक ‘ (1910) से ‘कामायनी ‘ तक प्रसाद का काव्य विकास हमारी दृष्टि में होना चाहिए। ‘कानन कुसुम’, ‘चित्राधार’, ‘झरना’, ‘आँसू’, ‘लहर’ बीच की कृतियाँ हैं। ‘झरना’ का प्रथम प्रकाशन 1910 में हुआ। इसमें संकलित ‘झरना’ कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ ‘छायावाद’ के आरंभिक स्वरूप की संकेतक हैं :

‘बात कुछ छिपी हुई है गहरी

मधुर है स्रोत, मधुर है लहरी 

इस इकाई में हम प्रसाद की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना और आधुनिक भावबोध को समझने का प्रयास करेंगे। यहाँ हम न भूलें कि छायावादी भाषा और शिल्प की नयी विशेषताएँ आधुनिक भावबोध से संभव हुई हैं और यह आधुनिक भावबोध एक विशेष युग-चेतना से संबद्ध है। छायावाद को नवजागरण की अभिव्यक्ति कहा जाता है। इस नवजागरण के पीछे राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना सक्रिय थी। छायावाद कई बार प्रकृति के नवीन संवेदनात्मक चित्रों के सहारे पहचाना और सराहा गया है। प्रसाद ने भी प्रकृति को विश्वात्मा की छाया या प्रतिबिम्ब कहा था और उसे छायावाद का खास संदर्भ बताया था। पर उन्होंने यह भी कहा था कि सिर्फ प्रकृति-संवेदना के नए स्पर्श वाली कविताएँ छायावाद नहीं हैं। इस दृष्टि से ज़रूरी है कि हम छायावाद-युग की काव्यगत नवीनता को राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना और आधुनिक भावबोध की दृष्टि से देखें। यहाँ अध्ययन के लिए यह दृष्टि महत्वपूर्ण होगी। पद्धति यह होगी कि हम प्रसाद की विशेषताओं को उनकी कविताओं के संदर्भ में देखें और सामान्यीकरण से बचें।

छायावाद : युग-संदर्भ

1916 से 1936 तक बीस वर्षों का समय छायावाद युग है। दो महायुद्धों के बीच की हिंदी कविता के रूप में भी छायावाद का अध्ययन किया जा सकता है। लेकिन छायावाद का मूल उत्स भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में है। स्वाधीनता की चेतना का ही परिणाम है — कल्पना पर अधिक बल। यह तथ्य ध्यान आकृष्ट करने वाला है कि हिंदी कविता में छायावाद और भारतीय राजनीतिक मंच पर महात्मा गांधी का आगमन लगभग एक ही साथ हुआ था। इसी स्थिति ने डॉ0 नगेन्द्र जैसे आलोचक को यह कहने का आधार प्रस्तुत किया होगा कि ‘जिन परिस्थितियों ने हमारे दर्शन और कर्म को अंहिसा की ओर प्रेरित किया, उन्होंने ही भाव (सौंदर्य) वृत्ति को छायावाद की ओर।’ इसका यह अर्थ नहीं है कि छायावाद और गांधी जी की जीवन दृष्टि समान है या स्वाधीनता संघर्ष में जो भूमिका गांधी की थी, वही छायावाद की हिंदी काव्य के संदर्भ में है। लेकिन स्वाधीनता के संदर्भ में छायावाद और गांधी — दोनों की परिकल्पना उस दौर में लगभग एक समान कही जा सकती है। स्वाधीन चेतना, सूक्ष्म कल्पना, लाक्षणिकता, नए प्रकार का सादृश्य-विधान, नया सौंदर्यबोध – इन विशेषताओं को एक साथ प्रसाद की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना और नवीन भावबोध के आधार पर समझने की ज़रूरत होगी। प्रसाद को पढ़ते हुए आपका ध्यान प्रायः इन्हीं विशेषताओं की ओर जाएगा।

राष्ट्रीय चेतना

आरंभ में ही यह स्पष्टीकरण ज़रूरी है कि प्रसाद उस अर्थ में राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय चेतना के कवि नहीं है, जिस अर्थ में माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और सुभद्रा कुमारी चौहान हैं। प्रसाद की राष्ट्रीय चेतना अधिक स्पष्ट रूप में उनके नाटकों में व्यक्त हुई है। प्रसाद की अपनी पहचान के आधार पर छायावाद को ‘राष्ट्रीय काव्य’ नहीं कहा जाता। यहाँ यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि राष्ट्रीय काव्य का महत्व कम है। सचाई यह है कि छायावादी काव्य में राष्ट्रीय जागरण, सांस्कृतिक जागरण के रूप में आता है। इस सांस्कृतिक जागरण की अभिव्यक्ति प्रसाद की ‘प्रथम प्रभात’, ‘अब जागो जीवन के प्रभात’, ‘बीती विभावरी जाग री’ आदि कविताओं में है। इसकी अभिव्यक्ति हम पंत, निराला और महादेवी के यहाँ भी देख सकते हैं। निराला की ‘जागो फिर एक बार’, पंत की ‘प्रथम रश्मि’, महादेवी वर्मा की ‘जाग तुझको दूर जाना’ – जैसी कविताएँ इस दृष्टि से विचारणीय हैं। ‘लहर’ में संकलित प्रसाद की कविता ‘अब जागो जीवन के प्रभात ‘ पर विचार करें तो प्रसाद की राष्ट्रीय चेतना स्वच्छन्दतावाद की मूल चेतना से अभिन्न जान पड़ेगी :

अब जागो जीवन के प्रभात।

वसुधा पर ओस बने बिखरे

हिमकन आँसू जो क्षोभ भरे

ऊषा बटोरती अरूण गात।

छायावाद युग में लिखी कविताओं में नवजागरण के संकेत अधिक महत्वपूर्ण हैं। नवजागरण की इस भावना में एक नए मनुष्य की परिकल्पना दिखाई देती है। प्रसाद यदि छायावाद के मूल में स्वानुभूति की विशिष्टता पर बल देते हैं तो इसके पीछे भी स्वाधीन मनुष्य की कल्पना है। निराला जब कहते हैं – मैंने ‘मैं’ शैली अपनाई – तो इसी स्वाधीन चेतना को अभिव्यक्ति देते हैं। अब ऐतिहासिक दृष्टि से हम यह अंतर समझ लें कि भारतेन्दु काल में राष्ट्रीयता की जो भावना अस्पष्ट थी, अमूर्त थी, उसने द्विवेदी युग तक आते-आते स्वच्छन्दतावाद के परिप्रेक्ष्य में एक नए राष्ट्रीय आदर्शवाद का रूप ले लिया और उसी के प्रभाव में छायावाद में एक नयी मानव परिकल्पना सामने आई। इस दृष्टि से राजनीतिक परिदृश्य में तिलक की भूमिका पर विचार करें।

जब वे कांग्रेस के सिद्धांतों की व्याख्या करते हुए प्राचीन दार्शनिक मान्यताओं का परीक्षण कर रहे थे और गीता का आधुनिक भाष्य रच रहे थे, तो उसके पीछे यही नवीन राष्ट्रीय चेतना या राष्ट्रीय भावना थी। कर्म सिद्धांत की उनकी व्याख्या ‘कामायनी’ में व्यक्त ज्ञान, इच्छा और क्रिया के पारस्परिक संबंध से तुलनीय है। 1919 में तिलक का स्थान गांधी ने लिया तो स्वतंत्रता का एक नया संदेश जनता तक पहुँचा। राष्ट्रीय भावना की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति नए रूपों में दिखाई देने लगी। छायावाद-युग के संदर्भ में राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय चेतना के सांस्कृतिक पक्ष पर बल देना आवश्यक है। हम आपका ध्यान इस अंतर की ओर ज़रूर आकृष्ट करना चाहेंगे कि यह राष्ट्रीय चेतना सीमित अर्थ में राष्ट्रवाद नहीं है।

सांस्कृतिक चेतना

अभी तक के विश्लेषण पर ध्यान दें तो लगेगा कि हम राष्ट्रीय चेतना को छायावाद में एक सांस्कृतिक चेतना के रूप में ही देख रहे थे। इसीलिए हमने छायावाद को ‘शक्तिकाव्य’ कहने की सार्थकता स्पष्ट की। छायावाद की भावभूमि को गांधीवाद से जितनी प्रेरणा और स्फूर्ति मिली, उससे कम रवीन्द्रनाथ से नहीं मिली। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तो मानते ही हैं कि छायावाद बंगाल की भावभूमि का स्पर्श लेकर ही हिंदी में आया। उनकी इस व्याख्या को ध्यान में रखें – ‘इस रूपात्मक आभास को योरोप में छाया (Phantasmala) कहते थे। इसी से बंगाल में ब्रह्म समाज के बीच उक्त वाणी के अनुकरण पर जो आध्यात्मिक गीत या भजन बनते थे वे ‘छायावाद’ कहलाने लगे| धीरे-धीरे यह शब्द धार्मिक क्षेत्र से वहाँ के साहित्यिक क्षेत्र में आया और फिर रवीन्द्र बाबू की धूम मचने पर हिंदी के साहित्य-क्षेत्र में भी प्रकट हुआ। यह बात शुक्ल जी ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (पृ0 453) में कही है और इससे उनके छायावाद-संबंधी आरंभिक पूर्वग्रह का भी पता चलता है। बहुत दिनों तक शुक्ल जी छायावादी काव्य को सीमित अर्थ में ‘मधुचर्या’ कहते रहे। छायावाद की अर्थभूमि उन्हें बहुत सीमित जान पड़ती थी। छायावाद के पीछे राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना की प्रेरणा भी काम कर रही थी, यह आरंभ में वे देख न सके थे। निराला की कृति ‘तुलसीदास’, ‘राम की शक्तिपूजा’, प्रसाद की ‘कामायनी’ से परिचित होने के बाद उन्होंने अपनी धारणा बदल ली थी।

यह बात ध्यान में रखें कि रवीन्द्रनाथ ने छायावाद को उस तरह प्रभावित नहीं किया, जैसा कि शुक्ल जी बताते हैं। रवीन्द्रनाथ के सांस्कृतिक चिंतन और कलाविवेक ने छायावाद को प्रभावित किया।

कलाओं का अंतःसंबंध रवीन्द्रनाथ की सांस्कृतिक दृष्टि का आवश्यक पक्ष था। कल्पना किस तरह अनुभव और भाषा के नए साहचर्य विकसित करती है, यह रवीन्द्रनाथ में स्पष्ट था। पंत जैसे कवि इसी अर्थ में रवीन्द्रनाथ का प्रभाव स्वीकार करते हैं। रवीन्द्रनाथ के लिए राष्ट्रीयता विश्वदृष्टि से जुड़कर एक सम्यक सांस्कृतिक चेतना बनती है। इस दृष्टि से प्रसाद भी विश्व मंगल की कल्पना करते देखे जाते हैं। ‘कामायनी’ में मनु ‘विराट’ के प्रति ऐसी जिज्ञासा प्रकट करते हैं :

वह विराट था हमें घोलता

नया रंग भरने को आज

कौन? हुआ यह प्रश्न अचानक

और कुतूहल का था राज

 कवि-दृष्टि : आधुनिकता का बोध

प्रसाद का निबंध ‘यथार्थवाद और छायावाद’ पंत की ‘पल्लव’ की भूमिका और निराला की ‘परिमल’ की भूमिका से छायावादी कवियों के आधुनिकता-बोध का स्पष्ट पता लगने के साथ ही बदली हुई कवि-दृष्टि या काव्य-दृष्टि का भी पता लग जाता है। प्रसाद अपने निबंध में कहते हैं, ‘छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्यमय प्रतीक-विधान तथा उपचार वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृति छायावाद की विशेषताएँ हैं। अपने भीतर से मोती के पानी की तरह आंतर स्पर्श करके भाव समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति छाया कांतिमयी होती है।’ इस परिभाषा से लगेगा कि सारा बल भाषा की विलक्षणता और नवीनता पर है। पर ध्यान से देखें तो बल आंतरिकता के नए स्पर्श और नए सौंदर्यबोध पर भी है।

‘पल्लव’ की भूमिका में जहाँ पंत रीतिकाल के प्रभाव में लिखी गयी ब्रजभाषा कविता और उसमें निहित मध्यकालीन संवेदना की हँसी उड़ा रहे थे, वहीं खड़ी बोली की नयी कविता अर्थात छायावादी कविता के आधुनिक बोध और बदली हुई काव्य-दृष्टि को महत्व दे रहे थे। वे लिरिकल बैलेड्स के भूमिकालेखक वर्ड्सवर्थ की तरह पुस्तकों की भाषा की जगह मनुष्यों की भाषा को महत्व दे रहे थे। वे छायावाद में ‘नए हाथों का प्रयत्न, जीवित साँसों का स्पन्दन, आधुनिक इच्छाओं के अंकुर, वर्तमान के पदचिह्न, भूत की चेतावनी, भविष्य की आशा, नवीन युग की नवीन दृष्टि’ देख रहे थे। वे कह रहे थे ‘उसमें नए कटाक्ष, नए रोमांच, नए स्वप्न, नया हास, नया रुदन, नवीन हृत्कम्प, नवीन वसंत, नवीन कोकिलाओं का गान है।’ ये संकेत मध्यकालीन सौंदर्यबोध से आधुनिक सौंदर्यबोध की भिन्नता और विशिष्टता को समझने में सहायक हो सकते हैं।

अब देखें, निराला की ‘परिमल’ की भूमिका – जिसमें कविता की मुक्ति को मनुष्यों की मुक्ति के समकक्ष कहा गया है। निराला व्याख्या करते हैं – मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना। आगे उन्हीं के शब्द हैं – ‘मुक्त काव्य कभी साहित्य के लिए अनर्थकारी नहीं होता। प्रत्युत उससे साहित्य में एक प्रकार की स्वाधीन चेतना फैलती हैं जो साहित्य के कल्याण की ही मूल होती है।’

कहने की आवश्यकता नहीं कि छायावादी कवियों ने नया सौंदर्यबोध विकसित किया, नयी संबंध भावना की खोज की। रीतिकालीन कवियों ने नख-शिख वर्णन की जो रूढ़ियाँ बनायी थीं, उनसे हटकर उन्होंने नयी आधुनिक स्त्री का चित्र सामने रखा। ‘कामायनी’ में श्रद्धा का रूप चित्रण वायवी ज़रूर है पर एक नयी छवि का संकेत है। पंत की कविता में एक ही पंक्ति में स्त्री को – ‘देवी माँ सहचरि प्राण’ कहा गया है। जहाँ भूविलास पर ही ध्यान जाता है, कटाक्ष में कुटिलता ही देखी जाती रही है वहाँ छायावादी कवि पंत के लिए – ‘करूण भौहों में था आकाश’ – सौंदर्य की यह नयी दृष्टि है। स्त्री शिक्षा का प्रसार, स्वाधीनता संघर्ष में स्त्रियों की भागीदारी और ऐसे ही अन्य अनेक कारण रहे होंगे – छायावादी कवियों के आधुनिकताबोध के पीछे। उन्हीं की प्रेरणा से छायावादी कवि दृष्टि में भी बदलाव आया। आप यहाँ बदलाव के कारणों को भी समझने की कोशिश करें और काव्यात्मक परिणाम को भी। अर्थात यह देखें कि कविता कैसे अपनी बनावट अपनी भंगिमा बदल लेती है।

जयशंकर प्रसाद का महत्व : आधुनिक कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

अब हम सीधे अपने मुख्य विषय पर आ सकते हैं और आधुनिक कविता के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रसाद के महत्व पर विचार कर सकते हैं।

आधुनिक हिंदी कविता के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रसाद के महत्व को समझने के लिए आरंभिक दो . काव्ययुगों की सीमाएँ विचारणीय हैं। भारतेन्दु युग में प्रायः ब्रजभाषा ही काव्य-भाषा रही है। खड़ी बोली। काव्यभाषा रहा हा खड़ा बाला में कुछ प्रयत्न हुए भी तो उन्हें स्वीकृति नहीं मिली। वैष्णवभक्ति की अभिव्यक्ति का प्रायः एक रूढ़ मुहावरा बन गया था। राष्ट्रीय आदर्शवाद जिस रूप में भी था, वह था अस्पष्ट और अमूर्त। द्विवेदी युग के काव्य में इतिवृत्तात्मकता और विवरणात्मकता ही प्रमुख हो गयी। वहाँ खड़ी बोली काव्य-भाषा ज़रूर है, पर अटपटी, कई बार ठस और स्थूल कथन पर आश्रित। इसीलिए छायावाद आया तो उसे स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह तक कहा गया। द्विवेदी युग की कविता को स्थूल इतिवृत्तात्मक बताकर शुक्ल जी छायावाद की नयी कल्पना, लाक्षणिकता, चित्रमयता को अलग करते हैं। प्रसाद अपनी काव्य यात्रा के पहले चरण में ‘प्रेम पथिक (1909/1910) ब्रज भाषा में लिखते हैं और फिर उसे प्रायः आठ वर्ष बाद खड़ी बोली हिंदी में रूपांतरित करते हैं। इस अवधि में प्रसाद के लिए प्रेम का अर्थ बदल गया है। ‘प्रेम पथिक’ रूपांतरित होकर इस नयी भाषा तक पहुँचता है :

‘इस पथ का उद्देश्य नही है श्रांत भवन में टिक रहना

किंतु पहुँचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं।’

‘आँसू’, ‘लहर’, ‘कामायनी’ तक यह भाषा कितनी नयी हो उठी है, देखने की चीज़ है। यहाँ प्रसाद के महत्व को समझने के लिए उनके कवि व्यक्तित्व और उनकी काव्यात्मक संवेदना के कुछ और पहलुओं पर विचार करना अपेक्षित है।

प्रसाद का मूल्यांकन करते हुए आलोचक राम स्वरूप चतुर्वेदी दो संदर्भो को महत्व देते हैं – समरसता और संगीत। (प्रसाद-निराला-अज्ञेय : राम स्वरूप चतुर्वेदी, पृ0 34)। समरसता प्रसाद का जीवन-दर्शन है। क्या समरसता और संगीत पर एक साथ विचार करने का कोई अर्थ है? क्या कारण है कि प्रसाद बहुत से अनुभव संगीत की शब्दावली में व्यक्त करते हैं। प्रसाद के नाटक ‘स्कंदगुप्त’ की देवसेना समूची सृष्टि की व्याख्या विराट संगीत के रूप में करती है। उसका कहना है – ‘प्रत्येक परमाणु के मिलने के इस जागरण गीत में ‘विहाग’ शब्द पर ध्यान दें :

तु अब तक सोई है आली

आँखों में भरे विहाग-री

प्रसाद को रहस्यवादी कवि न कहकर आलोचक रमेशचंद्र शाह ने बौद्धिक कवि कहा है, लेकिन हम जानते हैं कि प्रसाद की बौद्धिकता अनुभूति और संवेदना से सम्पृक्त है और एक खास तरह की प्रतीक-व्यवस्था में अभिव्यक्ति पाती है। ‘कामायनी’ इसका प्रमाण है। प्रसाद गहरे अर्थ में सांस्कृतिक चेतना के कवि हैं — जातीय सांस्कृतिक इतिहास की सबसे प्रखर चेतना अपने काव्यबोध में लिए हुए। यह उनके महत्व का एक ज़रूरी संदर्भ है। प्रसाद के बाद निराला में ही यह सांस्कृतिक चेतना आपको मिलेगी – वह भी ‘तुलसीदास’ को छोड़कर खंड-खंड रूप में ही। प्रसाद के यहाँ यह चेतना अधिक गहरी है और उसकी प्रौढ़ परिपक्व अनुभूति उनकी कविता में ही संभव हुई है।

प्रसाद की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना : कामायनी के विशेष संदर्भ में

‘कामायनी’ एक क्लासिक कालजयी कृति है, जिसकी समकालीन अर्थवत्ता पर आपका ध्यान जाना ही चाहिए। ‘कामायनी’ छायावाद की अकेली महाकाव्यात्मक सृष्टि है। समरसता के दर्शन के सहारे प्रसाद की जिस ऐतिहासिक चेतना का आभास मिलता है, उससे ‘कामायनी’ की विचारधारा और प्रसाद की मनोभूमि को ठीक-ठीक समझा जा सकता है। ‘कामायनी’ के आमुख में प्रसाद के शब्द हैं’यदि श्रद्धा और मनु अर्थात मनन के सहयोग से मानवता का विकास एक रूपक है, तो भी बड़ा ही भावमय और श्लाध्य है। यह मनुष्यता का मनोवैज्ञानिक इतिहास बनने में समर्थ हो सकता है।’ इसे आधार मानकर प्रायः ‘कामायनी’ के आलोचक मनोवैज्ञानिक रूपक के रूप में उसकी व्याख्या करते रहे हैं। अतः अंतर्वस्तु और संगठन दोनों दृष्टियों से ‘कामायनी’ का पुनर्मूल्यांकन ज़रूरी है, जो ‘कामायनी ‘के भावपक्ष, प्रसाद के जीवन दर्शन और ‘कामायनी’ के निष्कर्षों के आगे प्रश्न चिहन लगाता हो। मुक्तिबोध की दृष्टि में ‘कामायनी’ फैंटेसी है। वैदिक कथानक का यहाँ उपयोग एक फैंटेसी की तरह ही किया गया है जिसमें प्रसाद का अपना निजी भावबोध और सामाजिक बोध भी उजागर हुआ है।

इस लिए ‘कामायनी’ आधुनिक जीवन-बोध का महाकाव्य बना है। विचारणीय है कि प्रसाद इस महत्वपूर्ण कृति में फैंटेसी के माध्यम से अपने इच्छित अभिप्रायों को किस प्रकार एकमेक करना चाहते हैं। यह तो स्पष्ट है कि प्रसाद वृत्तियों को मानव-चरित्र के रूप में देखते हैं। इस प्रक्रिया में भी कुछ समस्याएँ पैदा होती हैं जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे।

हम यह मानकर चल रहे हैं कि ‘कामायनी’ की कथावस्तु आपके ध्यान में है। फिर भी उसकी एक संक्षिप्त रूपरेखा विचारार्थ सामने रख सकते हैं। जलप्रलय की घटना देवसृष्टि के ध्वंस का संकेत है जिसका कारण बना – देवताओं का निर्बाध विलास। अकेले बचते हैं मनु – जिन्हें बस शून्य दिखाई देता है, मृत्यु दिखाई देती है। सब कहीं जल ही जल है। फिर धीरे-धीरे पृथ्वी का आभास मिलने लगता है। लताएँ, वनस्पतियाँ दिखाई देती हैं, जो जीवन की उपस्थिति का संकेत हैं। अतः चिन्ता के बाद मन में आशा जगती है, किसी बचे हुए ‘दूसरे व्यक्ति के लिए — जो उन्हें अकेलेपन से मुक्त करे| आशा निराशा के इसी द्वंद्व में श्रद्धा प्रकट होती है – रति-काम की पुत्री। विलक्षण नए सौंदर्य के साथ। एक भाववृत्ति का, रागात्मिका वृत्ति का स्त्री-रूप में सजीव प्रतिनिधि बन कर उपस्थित होना।

यह श्रद्धा मनु को जीवन में वापस लाती है। इस साहचर्य में श्रद्धा जब मानवकुमार को जन्म देने वाली है, ठीक उसी समय मनु चले जाते हैं। प्रसाद दिखा चुके हैं कि जब श्रद्धा इस स्थिति में आ रही थी, मनु के पूर्व संस्कार उन्हें पशु हिंसापूर्ण यज्ञ की ओर उन्मुख कर रहे थे जो उनकी ईर्ष्या का सूचक है। मनु अपनी भावी संतान के प्रति ईर्ष्या भाव को लेकर सारस्वत प्रदेश पहँचते हैं। वहाँ बुद्धि का प्रतीक इड़ा इनके . सामने हैं, ‘बिखरी अलकें ज्यों तर्क जाल।’ मनु उसे साथ लेकर प्रशासन तंत्र संभाल लेते हैं। नगर विकासमान है। कृषि, उद्योग, धातुओं के नए-नए हथियार, यंत्र, अहं के वर्चस्व के साथ ही नियमों का : अतिक्रमण इस प्रदेश की विशेषता बन गया है। । इड़ा उन्हें मर्यादा में देखना चाहती है। लेकिन मनु . इड़ा को भी अपनी अधीनता में रखना चाहते हैं। इससे कुपित होकर प्रजा विद्रोह कर देती है।

प्रजा से युद्ध में मनु घायल हैं। श्रद्धा दुःस्वप्न के रूप में इस घटना को पहले ही कल्पित कर लेती है। वह शिशुकुमार के साथ आती है। मनु पछतावे की आग में झुलस रहे हैं। उन्हें श्रद्धा का कोमल स्पर्श मिलता है। साथ निकलते हैं। फिर एक रात अचानक मनु गायब हो जाते हैं।। इस बीच श्रद्धा-इड़ा संवाद की अत्यंत सार्थक योजना प्रसाद ने की है। श्रद्धा इड़ा की सीमा बताती है  सिर चढ़ी रही, पाया न हृदय।’ पर मानव कुमार को सौंपती है उसे ही। प्रसाद के मन में कहीं है कि भविष्य का मनुष्य एकांगी न हो। और यह भी, कि बुद्धि के बगैर कोई नया मनुष्य अकल्पनीय ही होगा। मनु कहीं गुफा में जा छिपे हैं। देख रहे हैं अखिल विश्व के बीच नटराज का नृत्य, कल्पना में अंतर्लीन होकर। श्रद्धा ही उन्हें इस आध्यात्मिक लक्ष्य तक ले जा सकती है। सुदूर ऊँचाई पर रहस्य ही रहस्य है। इच्छा ज्ञान-क्रिया अलगअलग ठहरे आलोक बिंदु हैं, जिन्हें श्रद्धा के अनुसार समन्वित करके ही मनुष्यता विजयी हो सकती है। ज्ञान और कर्म की एकता का मर्म भी वही समझाती है। रहस्य से परे एक आनंदभूमि है — जहाँ इड़ा भी मानव कुमार के साथ पहुँचती है। प्रकृति में सब कुछ समरस है। यही है प्रसाद का आनंदवाद, जो कामायनी का वास्तविक कथा संदर्भ है। पर कवि के मन में कोई विराट कल्पना है, जिससे यह महाकाव्यात्मक विजन संभव हुआ।

मुक्तिबोध कहते हैं कि प्रसाद मनु इड़ा श्रद्धा को अपनी दार्शनिक मनोवृत्तियों के अनुकूल चाहे जैसा प्रतीकत्व प्रदान करें, कामायनी की व्याख्या वर्णित मानव चरित्रों के आधार पर ही की जा सकती है। मुक्तिबोध का यह कहना ठीक है कि वेदकालीन मनु कामायनी का मनु नहीं है। प्रसाद का मनु उसी वर्ग का मनु है, जिसके स्वयं प्रसाद जी हैं। (कामायनी एक पुनर्विचार, मुक्तिबोध, पृ० 197) मुक्तिबोध अगर उसमें पूँजीवादी व्यक्तिवाद की प्रकृति देख रहे हैं, जिसने कभी जनतंत्रीकरण का या और किसी तरह के आदर्श का बहाना भी नहीं किया – श्रद्धा और इड़ा को जब चाहा साथ ले लिया तो ठीक ही है। इसमें संदेह नहीं कि श्रद्धा का आदर्शीकरण प्रसाद अंत तक करते हैं – इस हद तक, कि वह काल्पनिक सृष्टि ही लग सकती है। दूसरी ओर वे इड़ा को. संपूर्ण स्वतंत्र व्यक्तित्व अर्जित करने से रोकते हैं।

अब जहाँ तक ‘कामायनी’ में राष्ट्रीय चेतना देखने का सवाल है, उसकी मूल संकल्पना किसी भी संकुचित राष्ट्रवाद के विरूद्ध है। विश्वमंगल ही इसका मूल प्रयोजन है। प्रसाद की स्वाधीन चेतना और विश्वदृष्टि का ही परिणाम है – कामायनी। बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक का राजनीतिक सांस्कृतिक समय ‘कामायनी’ में कहाँ किस रूप में है, विचारणीय संदर्भ यह है। मुक्तिबोध इसी प्रेरणा से कहते हैं कि प्रसाद का दर्शन एक उदार पूँजीवादी – व्यक्तिवादी दर्शन है जो वर्ग विषमता की निंदा भी करता है और वर्गातीत चेतना के आधार पर समाज के वास्तविक द्वंद्वों पर पर्दा डालना चाहता है या उनका काल्पनिक समाधान सुझाना चाहता है। ‘कामायनी’ की प्रतीकात्मकता को ध्यान में रखें तो देवसृष्टि विषयक विलास स्मृतियाँ सामंती सभ्यता की समाप्ति की सूचना देने के साथ ही पूँजीवादी युग के आरंभ की भी सूचक है।

यहाँ हम आपका ध्यान मुक्तिबोध की इस विस्तृत व्याख्या की ओर आकृष्ट करेंगे – यह बताने के लिए कि देश काल की समस्याएँ भावात्मक प्रतीकीकरण के आवरण के बावजूद ऐसी तीखी आलोचनात्मक जिज्ञासा के बीच प्रकट हो जाती हैं। इससे यह भी समझना चाहिए कि एक ही महत्वपूर्ण कृति अपने भीतर इतने आयाम छिपाए रहती है कि आलोचक उसे अलग-अलग पढ़ने में, उसकी अलग-अलग व्याख्या करने में समर्थ होते हैं। मुक्तिबोध का कामायनी संबंधी पाठ (रीडिंग) उनका अपना पाठ है और आज के पाठकों के लिए कहीं ज्यादा विश्वसनीय है। मुक्तिबोध की व्याख्या इस प्रकार है – ‘यद्यपि अखिल भारतीय पैमाने पर पूँजीवाद का ही विस्तार हो रहा था, राजनीति, समाजनीति के क्षेत्र में इस प्रक्रिया ने गांधीवादी अर्थतंत्र की प्रवृत्ति को जन्म दिया।

मशीनों के विरूद्ध, व्यापक औद्योगीकरण के विरूद्ध, राष्ट्र के केंद्रस्थ शासन तंत्र के विपरीत ग्राम प्रजातंत्र की स्थापना के पक्ष का समर्थन करने वाली विचारधारा एक ऐसी विचारधारा थी, जो भारत की अविकसित आर्थिक अवस्था को कायम रखना चाहती थी, बढ़ते हुए पूंजीवाद के प्रति शंकालु थी, वैचारिक क्षेत्र में उसका विरोध करती थी तथा भारत के पिछड़े हुए स्वरूप को समाप्त करने के बजाए उस स्वरूप में आदर्शवादी रंग मिलाना चाहती थी।’ 

मुक्तिबोध इड़ा को पूँजीवादी सभ्यता की उन्नायिका कहते हैं जिसकी प्रसाद के भाववाद ने उपेक्षा की। फिर भी प्रसाद ने इड़ा का जो व्यक्तित्वविधान किया उसमें नई युगचेतना के सभी सकारात्मक तत्व वर्तमान है :

बिखरी अलकें ज्यों तर्क – जाल।

गुंजरित मधुप – सा मुकुल सदृश

वह आनन जिसमें भरा गान

वक्षस्थल पर एकत्र धरे

संसृति के सब विज्ञान – ज्ञान

था एक हाथ में कर्म – कलश

वसुधा – जीवन रस सार लिए

दूसरा विचारों के नभ को

था मधुर अभय अवलंब दिए

(इड़ा सर्ग)

कहने की आवश्यकता नहीं, कि प्रसाद की व्यापक राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का विश्वमंगल से विरोध न था। श्रद्धा कहती ही है :

विश्व भर सौरभ से भर जाय

सुमन से खेलो सुंदर खेल

(श्रद्धा सर्ग)

यह भी सही है कि प्रसाद शोषण उत्पीड़न के विरोध में थे – द्वंद्वों से क्षुब्ध थे – विषमतारहित समाज की स्थापना चाहते थे, भले ही समाधान उनका काल्पनिक हो, आदर्शवादी हो। कहा जा सकता है कि कामायनी की मिथकीय सीमाओं में भी कर्मचेतना, संघर्ष चेतना, एकता जैसे तत्व थे, जिनका महत्व राष्ट्रीय-आंदोलन के लिए था।

प्रसाद की अन्य काव्यकृतियों में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना

प्रसाद अपनी आरंभिक कृति ‘चित्राधार’ में यह कहने का साहस कर सके, कि उस ब्रह्म को लेकर मैं क्या करूँगा जो साधारण जन की पीड़ा नहीं हरता। ‘ऐसो ब्रह्म लेइ का करिहैं जो नहिं करत, सुनत नहिं जो कछु, जो जन पीर न हरिहैं। ‘झरना’ में प्रसाद प्रेम की यह स्वच्छन्द अभिव्यक्ति दे सकते थे :

कर गई प्लावित तन मन सारा

एक दिन तव अपाड.ग की धारा

हृदय से झरना बह चला,

जैसे छा जल ढरना

प्रणय वन्या ने किया पसारा

‘आँसू’ प्रसाद की महत्वपूर्ण कृति है। पहले संस्करण में ‘मुक्तकों’ के संकलन-जैसी कृति। आठ वर्ष बाद प्रकाशित दूसरे संस्करण में कथा के अस्पष्ट विधान के रूप में ‘प्रबंध गीति’। ‘आँसू’ में विगत विलास स्मृतियाँ जिस तरह व्यक्त हैं उसी तरह ‘कामायनी’ के ‘चिंता सर्ग’ में विगत विलास सुख की स्मृतियाँ हैं। ‘आँसू’ की अंतिम पंक्तियाँ उसी विश्वमंगल की भावना की अभिव्यक्ति हैं जो ‘कामायनी’ की कल्पना के मूल में है :

सब निचोड़ लेकर तुम

सुख से सूखे जीवन में

बरसो प्रभात हिमकन – सा

आँसू इस विश्व-सदन में

वियोग की विकलता के साथ आँसू का आरंभ है। वेदना का हाहाकार है, स्मृतियाँ हैं, संयोग के सुख की, प्रिय के मिलन की स्मृतियाँ भी साथ हैं। फिर वही धनीभूत पीड़ा – आँसू में अभिव्यक्ति पाती है।। व्यक्तिगत वेदना कैसे व्यापक कल्याण भावना में बदलने लगती है, यह महत्वपूर्ण है। ‘चिरदग्ध दुखी यह वसुधा/आलोक माँगती, तब भी’। यही अनुभव कवि को विश्व भावना तक ले जाता है।

‘लहर’ की पहली कविता ‘लहर’ भी प्रसाद के भावलोक का संकेत देती है, जिसमें प्रेम, करूणा, स्वच्छंद जीवन की आकांक्षा के लिए खास जगह है : 

उठ उठ री लघु लोल लहर

करूणा की नव अंगराई – सी

मलयानिल की परछाई – सी

इस सूखे तट पर छिटक छहर

‘लहर’ में भी ‘कामायनी’ के ‘मेरे क्षितिज उदार बनो’ जैसी अभिव्यक्ति है। नवजागरण का संकेत ‘बीती विभावरी जाग री’ जैसे गीत में भी है जिसे ‘अब जागो जीवन के प्रभात’ – जैसे गीतों में भी देखा जा सकता है। ‘लहर’ की लम्बी कविताओं में ‘प्रलय की छाया’ सबसे महत्वपूर्ण है जिसके राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। ‘शेर सिंह का शस्त्र समर्पण’ तथा ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ अन्य ऐतिहासिक कविताएँ हैं, जो राष्ट्रीय-सांस्कृतिक जीवन की झलक देती हैं। विचारकों द्वारा कहा गया है कि शेर सिंह का पंचनद और पेशोला का मेवाड़ इतिहास नहीं, बल्कि प्रसाद का जीता जागता वर्तमान है। वर्तमान भी कैसा – पराजय की गहरी पीड़ा के साथ। उसे समझने के लिए ‘जीत होती जिसकी, वही है आज हारा हुआ, ‘ तथा ‘अरूण करूण बिंब/ वह निधूम भस्मरहित ज्वलन पिंड’ जैसी पंक्तियों पर ध्यान जाना चाहिए।

हम पहले भी कह चुके हैं कि महत्वपूर्ण कृतियाँ आलोचकों द्वारा हमेशा नयी दृष्टि से पढ़ी जाती हैं, और नयी व्याख्या प्राप्त करती हैं। ‘प्रलय की छाया’ की राजनीतिक अर्थवत्ता खोजते हुए उसे नामवर सिंह अलग ढंग से पढ़ते हैं। नामवर सिंह के लिए कविता का राजनीतिक अर्थ स्वाधीनता संग्राम के एक विशेष दौर की मनोदशा से संबद्ध है। (नामवर सिंह वाद विवाद संवाद/20 69)। यह बात ध्यान में रखें कि यह कविता ‘हंस’ के जनवरी 1931 अंक में प्रकाशित हुई थी। 1930 के आसपास का राजनीतिक समय एक तरह की पराजय की मनोदशा को अभिव्यक्ति है। नामवर सिंह व्याख्या के क्रम में संकेत करते हैं कि कमलावती राजशक्ति को नष्ट करने की कोशिश में स्वयं नष्ट हुई। इससे उसकी आत्मप्रवंचना के राजनीतिक निहितार्थों का अनुमान किया जा सकता है।

‘लूटा था दृप्त अधिकार ने/ जितना विभव, रूप, शील और गौरव को/ आज वे स्वतंत्र हो बिखरते हैं। एक माया-स्तूप-सा/ हो रहा है लोप इन आँखों के सामने देख कमलावती। दुलक रही है हिम बिंदु-सी/ सत्ता सौंदर्य के चपल आवरण की।’

भारत के स्वाधीनता आंदोलन के असहयोग वाले दौर के परिप्रेक्ष्य में इस कविता का इतिहास-संदर्भ समकालीन और प्रासंगिक जान पड़ता है।

आधुनिक बोध और संवेदना : प्रसाद का काव्य

प्रसाद आधुनिक बोध और संवेदना के कवि हैं। छायावादी कवियों के आधुनिकता बोध में वैयक्तिक चेतना के साथ नयी सौदर्य चेतना, नयी प्रेम चेतना, नयी नैतिक चेतना का संश्लिष्ट रूप देखा जा सकता है। डॉ0 देवराज, जिन्होंने कभी ‘छायावाद का पतन’ नाम की विचारोत्तेजक पुस्तक लिखी थी, मानते हैं कि छायावाद अनाधुनिक पौराणिक-धार्मिक चेतना के विरूद्ध आधुनिक लौकिक चेतना का विद्रोह था। इस मत को आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी के इस कथन से संबद्ध करके देखें – ‘नयी छायावादी काव्यधारा का भी एक आध्यात्मिक पक्ष है, परंतु उसकी मुख्य प्रेरणा धार्मिक न होकर मानवीय है।’ (आधुनिक हिंदी समीक्षा/ निर्मला जैन : प्रेमशंकर, पृ0 82)। इस प्रकार छायावाद में लौकिक मानवीय संस्पर्श वाली कविता का अनादर नहीं है। यह ज़रूर है कि कई बार छायावादी कवियों के यहाँ लौकिक-मानवीय अनुभव पर अस्पष्टता का पर्दा पड़ा रहा है। जैसा प्रसाद की कृति ‘आँसू’ में देखा गया, या ‘लहर’ की कई कविताओं में

इन कृतियों में भी प्रसाद संकेत से बहुत कुछ कह जाते हैं और ऐसी वेदना का चित्र भी उपस्थित कर जाते हैं जो लौकिक मानवीय है। कविता में ‘आत्मकथा’ लिखने का यह ढंग प्रसाद ने ही अपनाया है :

जिसके अरूण कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में

अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में

उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की

सीवन को उधेड़ कर देखो क्यों मेरी कंथा की

यह कविता ‘हंस’ के प्रसिद्ध आत्मकथा अंक में छपी भी थी। प्रसाद जैसे कवि के आधुनिकताबोध को नयी सौंदर्य चेतना के आधार पर पहचानना होगा। यह सौंदर्य दृष्टि प्रकृति और मनुष्य के बीच नए संबंधों की पहचान में भी प्रकट हुई है। इसी नयी सौंदर्य चेतना के कारण अनुभव के स्तर पर एक नए प्रकार के आंतरिक द्वंद्व का भी पता चलता है। यही दृष्टि वस्तु और कल्पना के नए संबंध की पहचान कराती है। कल्पना के महत्व को परम्परागत अलंकारप्रियता के विरुद्ध विद्रोह के रूप में भी देखा जा सकता है। अनुभव की प्रणाली और अभिव्यक्ति रूपों में जो नवीनता दिखाई देती है, उसे आधुनिक बोध से संबद्ध करके देखने की ज़रूरत है। ‘कामायनी’ के मनु के भीतर जो उद्विग्नता है वह एक आधुनिक मन की उद्विग्नता जान पड़ती है :

दुख का गहन पाठ पढ़कर अब

सहानुभूति समझते थे

नीरवता की गहराई में

मग्न अकेले रहते थे

आप देखें कि प्रसाद की भाषा में यहाँ एक विशेष प्रकार के नयेपन का आभास है। श्रद्धा मनु को नूतनता के आनंद का रहस्य बताती है। कहा जा सकता है कि दुखवाद और आनंदवाद के द्वंद्वपूर्ण साहचर्य में प्रसाद ने आधुनिक बोध या आधुनिक संवेदना प्राप्त की। प्रसाद ही की पंक्ति ले चल वहाँ भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे’ के आधार पर छायावाद को कभी ‘पलायनवाद’ कहा जाता था। प्रसाद ही प्रमाण है कि छायावाद में जो आधुनिकबोध है उस पर समय का, ऐतिहासिक समय का दबाव भी है।

 ‘कामायनी’ : आधुनिक बोध और संवेदना की महत्वपूर्ण फलश्रुति

‘कामायनी’ के आधुनिक बोध को समझने के लिए ज़रूरी है कि हम विचार या विचारधारा के रूप में ही उमें न देखें – सीधे कविता में देखें। क्या कारण है कि आज के पाठक को ‘चिंता’ सर्ग महत्वपूर्ण लगता है जो मनु के अनुभई के रूप में असह्य अकेलेपन का आख्यान है। जलप्रलय की स्थिति में मनु का अकेलापन उन्हें जिन प्रश्नों से टकराने को बाध्य करता है, वे प्रश्न प्रायः आज के मनुष्य को बेचैन करते हैं :

ओ चिंता की पहली रेखा,

अरी विश्व – वन की व्याली

ज्वालामुखी स्फोट के भीषण,

प्रथम कंप – सी मतवाली

इस ग्रह कक्षा की हलचल री

तरल गरल की लघु लहरी

जरा अमर जीवन की, और न

कुछ सुनने वाली बहरी

‘श्रद्धा’ सर्ग में श्रद्धा का सौंदर्य चित्रण नई सौंदर्य-दृष्टि का संकेत है। रीतिकालीन कवियों के नख-शिख वर्णन से भिन्न इस चित्रण में सौंदर्य का जादू ही आकृष्ट नहीं करता, विश्व मंगल की भावना और उदारता भी आकृष्ट करती है। प्रसाद ने अपने भाववादी समाधान के लिए श्रद्धा का जैसा भी उपयोग किया हो, उसका व्यक्तित्व विधान आधुनिक संवेदना का ही परिणाम है। यहाँ शब्द चयन पर ध्यान दें :

हृदय की अनुकृति बाह्य उदार

एक लंबी काया उन्मुक्त,

मधु पवन क्रीड़ित ज्यों शिशुसाल

सुशोभित हो सौरभ संयुक्त 

नित्य यौवन छवि से ही दीप्त

विश्व की करूण कामना मूर्ति,

स्पर्श के आकर्षण से पूर्ण

प्रकट करती ज्यों जड़ में स्फूर्ति

वह हृदय की अधीर लालसाओं को जगाने वाली है। कर्म में, कर्म के भोग में प्रवृत्त करने वाली है। वह जटिलताओं का सामना करने का साहस दे रही है। दुनिया को सुंदर बनाने की उसकी कल्पना है – उसकी अपनी मूल्य-चिंता। वह विषमता के विरूद्ध है। पुरातनता के विरूद्ध परिवर्तन के पक्ष में है। स्त्री पुरूष साहचर्य-समानता के बारे में सचेत है। स्त्री मुक्ति का यह भावात्मक आदर्श उसकी जीवन शैली है। ललित कलाओं को सीखती-जानती हुई वह मनु तक पहुँची है। संसार की पीड़ा जैसे उसने प्रकृति में ही देख या जान ली है – ‘धरा की यह सिकुड़न भयभीत/ आह कैसे है क्या है पीर।

मनु से घनिष्ठ संपर्क के अनुभव ने उसे स्नेह के अंतर्दाह से परिचित कराया है। इड़ा तो आधुनिक युग की बुद्धिचेतना ही है। संकीर्णताएँ आधुनिक समाज में जो समस्याएँ उत्पन्न करती हैं, उनकी ओर स्पष्ट संकेत है। यह है मनु के सामने उपस्थित समाज, जिसके द्वंद्व आज तक सुलझाए नहीं जा सके हैं। क्या विडम्बना है कि बीसवीं शताब्दी के अवसान के समय यह चित्र अत्यधिक प्रश्नाकुलता से भरा जान पड़ता है :

यह अभिनव मानव प्रजा-सृष्टि

द्वयता में लगी निरंतर ही वर्णों की करती रहे वृष्टि

अनजान समस्याएँ गढ़ती रचती हो अपनी ही विनष्टि

कोलाहल-कलह अनंत चले, एकता नष्ट हो, बढ़े भेद

फिर भी आप अनुभव करेंगे कि प्रसाद के आधुनिक बोध की अपनी सीमाएँ हैं। वे मनु की प्रश्नशीलता को कर्मजीवन में चरितार्थ होते हुए नहीं दिखाते हैं बल्कि उसे वायवीय दार्शनिक समाधान देकर काल्पनिक आनंदवाद की भूमिका में ले जाते हैं। क्या ‘कामायनी’ में कही जाने वाली मानव-विकासयात्रा की विसंगति पर उस समय के राजनीतिक यथार्थ की छाया है? मुक्तिबोध याद दिलाते हैं कि सामंती तत्वों ने सामाजिक-राजनीतिक धरातल पर साम्राज्यवाद से अटूट समझौता कर रखा था, फिर भी उच्च कुलोद्भव कुछ सामंती तत्व राष्ट्रवादी आंदोलन में भी आए और कांग्रेस के भीतर उन्होंने नवीन राष्ट्रीय पूँजीवाद से समझौता किया।

फिर भी, ‘कामायनी’ की आधुनिकता इसी से प्रकट है कि वह ‘बड़े जीवन चक्रों’ की, जटिल राष्ट्रीय सामाजिक समस्याओं के बीच अभिव्यक्ति का प्रयास है। ‘कामायनी’ एक अर्थ में सभ्यता-समीक्षा का ही काव्यात्मक प्रयास है। मनु के अंतर्द्वद्वों को लिए हुए, आंतरिक द्वंद्वों के भावचित्रों को संयोजित करते हुए प्रसाद ने इस कृति को आत्मपरक फैंटेसी की तरह लिखा है। ‘कामायनी’ जिस अर्थ में सकर्मक जीवन अनुभव और अकर्मक जीवन अनुभव के बीच के तनाव को कलात्मक अभिव्यक्ति देती है, उसके पीछे आधुनिक बोध और संवेदन की स्पष्ट भूमिका है। आप देखें कि आधुनिक जीवन-दृष्टि के रूप में ‘कामायनी’ के दर्शन की कितनी भी सीमाएँ हों, कवि ने अनुभूतियों के चित्रण की एक नयी कला अर्जित कर ली है। इस विशिष्टता को आप ‘श्रद्धा’ सर्ग पढ़ते हुए बार-बार देखेंगे, अनुभव करेंगे।

अन्य कृतियों में आधुनिक बोध और संवेदना की अभिव्यक्ति

आप देखेंगे कि ‘आँसू’ में प्रसाद निजी वेदना को व्यापक रूप देते हुए आंतरिक तनाव को छिपाते नहीं हैं, फिर भी प्रेम के उदात्तीकरण का आदर्श उपस्थित करते हैं – प्रसाद की आधुनिकता इसी तनाव में है। वेदना की आह ही ‘आँसू’ में सब कुछ होती तो हमें यह रोमांटिक भावना की ही कृति जान पड़ती। यहाँ रोमांटिक भावना है पर उसके साथ लगा लिपटा आधुनिक ढंग का तनाव भी है। प्रसाद के द्वंद्व स्पष्ट हैं, जहाँ व्यक्तिगत वेदना की तीव्रता भी दिखाई देती है और एक तरह की तटस्थता भी दिखाई देती है :

छलना थी तब भी मेरी

उसमें विश्वास घना था

उस माया की छाया में

कुछ सच्चा स्वयं बना था।

‘आँसू’ के बोध और अभिव्यक्ति में आधुनिकता की पहचान करते हुए एक आलोचक डॉ0 रमेशचंद्र शाह ने उसे ‘प्रयोगशीलता’ का काव्य कहा है। उनका आशय यह है कि प्रसाद एक तरह की प्रगीतात्मकता और प्रबंधात्मकता में जो नया संबंध बनाते हैं वह एक तरह की प्रयोगशीलता है। पर हमें ऐसे शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए जो विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो चुके हों। हाँ ‘आँसू’ का आधुनिक बोध या नयापन उसके रूप (या फार्म) में भी है। पर क्योंकि ‘प्रयोगशील’ तथा ‘प्रयोगवाद’ उत्तर-छायावाद युग की प्रवृत्ति के साथ जुड़ा है अतः भ्रम पैदा कर सकता है।

‘लहर’ के प्रगीतों में प्रसाद अधिक स्वच्छन्द दिखाई देते हैं। पर उनका आधुनिक बोध और संवेदन प्रकट होता है ‘प्रलय की छाया’ जैसी लम्बी कविता में — जिसमें कमला के माध्यम से एक विलक्षण रूपगर्विता का चित्र हमारे सामने आता है। हम पहले भी इस कविता के राजनीतिक अर्थ का उल्लेख कर चुके हैं। पर मूल द्वंद्व तो कविता का यही है – सत्ता से टकराने की कोशिश में स्वयं ही टूट जाना। द्वंद्व के इस अनुभव में आधुनिक ढंग का तनाव है :

शक्तिशाली होना अहोभाग्य है और फिर

बाधी-विघ्न आपदा के तीव्र प्रतिघात, का

सबल विरोध करने में कैसा सुख है?

इसका भी अनुभव हुआ था भलीभांति मुझे

किंतु वह छलना थी मिथ्या अधिकार की

हम यहाँ केवल संकेत दे रहे हैं कि सरल इकहरे समाधान में आधुनिकता नहीं है। आधुनिकता है द्वंद्व या तनाव में जिसे हम कविता में कई स्तरों पर देख सकते हैं। आपसे अपेक्षा की जाएगी कि आप कविता में आधुनिक ढंग के अनुभवों को देख सकें 1 प्रसाद में भी और प्रसाद साहित्य से अलग भी।

विशिष्ट चयन के आधार पर प्रसाद का मूल्यांकन

यहाँ विशिष्ट पाठ के लिए हमने निम्नलिखित कविताओं का चयन किया है :

  • कामायनी : श्रद्धा सर्ग
  • आँसू
  • प्रलय की छाया

अब हम इन कविताओं पर पाठ-विश्लेषण की दृष्टि से विचार करेंगे। महत्वपूर्ण कविता अपने संगठन या स्थापत्य में भी महत्वपूर्ण होती है और उसके बाहर के संदर्भ से जुड़कर भी। जिस समय लिखी गयी, उस समय की संवेदना के अनुरूप कविता की व्याख्या की जाती है। जिस समय कविता पढ़ी जा रही है, उसे बदले हुए समय की संवेदना के आधार पर भी पढ़ा जा सकता है। यहाँ कविता पाठक के लिए अपना नया अर्थ खोलती है। पाठ-प्रक्रिया में हम प्रसाद जैसे कवि को जब पढ़ते हैं तब युग तथा कविव्यक्तित्व की सामान्य विशेषताओं से भी परिचित होते हैं। फिर कविता में कवि की उन विशेषताओं की ओर ध्यान जाता है जो उसकी संरचना या संगठन में प्रमुख रूप से सहायक हुई हैं। इस प्रकार महत्वपूर्ण है कविता का सीधा, सघन, निजी पाठ। हम चाहेंगे कि चयन की कविताओं को आप अपनी व्यक्तिगत आस्वाद-क्षमता के अनुसार सराहते हुए पढ़ें।

कामायनी का श्रद्धा सर्ग : सौंदर्य चेतना और विश्व दृष्टि

जब हम कविता के सीधे पाठ पर बल देते हैं तो किन्हीं दो-एक संदर्भो को संवाद के लिए निर्धारित कर देना शायद बहुत उपयोगी न हो, पर कविता के ‘पाठ’ की अपनी सीमाएँ भी होती हैं। हम ‘श्रद्धा’ सर्ग, को समझने के लिए एक वृहत्तर सौंदर्य की ओर संकेत करना चाहते हैं। श्रद्धा सर्ग को पढ़ते हुए सबसे पहले हमारा ध्यान ही जाता है – सौंदर्य चेतना पर जब श्रद्धा अचानक मनु के जीवन में आ उपस्थित होती है और पूछती है  कि ‘संसार सागर की लहरों द्वारा उछाल फेंकी गयी ‘मणि’ की तरह तुम कौन हो, जो इस सूने अंचल की शून्यता को एक नए आलोक से भर दे रहे हो।’ तब मनु का ध्यान इस ‘रूप’ पर जाता है। यही श्रद्धा है – कामगोत्रजा श्रद्धा रति और काम की पुत्री श्रद्धा तथा हृदय की सात्विक वृत्ति का मानवीकृत रूप| भावमयता में वह मूर्त और सजीव है। दीप्ति और सुकुमारता का विलक्षण संयोग है :

और देखा वह सुंदर दृश्य

नयन का इंद्रजाल अभिराम

कुसुम वैभव में लता समान

चंद्रिका से लिपटा घनश्याम

कल्पना से ही यह रूप समझ में आता है। इसलिए सादृश्य विधान की लड़ी यहाँ दर्शनीय है :

या कि नव इंद्र नील लघु शृंग

फोड़ कर धधक रही हो कांत

एक लघु ज्वालामुखी अचेत

माधवी रजनी में अश्रांत

‘लघु ‘, ‘अचेत ‘ जैसे विशेषणों पर ध्यान दें जो व्यक्तित्व की दीप्ति और ऊष्मा के व्यंजक हैं, पर महत्वपूर्ण है वय के अनुरूप रूप की कोमलता सुकुमारता भी। कल्पना पर इतना बल है कि श्रद्धा ‘भावमूर्ति’ अधिक लगती है ‘मांसल शरीर’ कम :

‘कुसुम कानन अंचल में मंद

पवन प्रेरित सौरभ साकार

रचित परमाणु पराग शरीर

खड़ा हो ले मधु का आधार।

‘.’ और उस पर पड़ती हो शुभ

नवल मधु राका मन की साध।’

एक तो पराग परमाणुओं से रचित व्यक्तित्व की कल्पना और दूसरे वसंत की कल्पना का आधार लेकर, यौवन की नवीनता से संयुक्त व्यक्तित्व यहाँ अत्यंत चित्रमय हो गया है। ऐसी हैं मनु की चिंताएँ और असहायता का अनुभव। अकर्मकता की ग्लानि, पीड़ा, कर्म या काम के प्रति उत्सुक बनाती श्रद्धा, विश्व भावना, विश्वदृष्टि आदि कविता की शब्दावली में यह सब देखने की चीज़ है :

कर रही लीलामय आनंद

महाचिति सजग हुई-सी व्यक्त

विश्व का उन्मीलन अभिराम

इसी में सब होते अनुरक्त

काम मंगल से मंडित श्रेय

सर्ग इच्छा का है परिणाम

चेतना का सुंदर इतिहास

अखिल मानव भावों का सत्य

विश्व के हृदय पटल पर दिव्य

अक्षरों से अंकित हो नित्य

श्रद्धा का यह सौंदर्य केवल सम्मोहन जगाने वाला नहीं है, नयी संस्कृति नये विचार देने वाला भी है। 

‘आँसू’ में प्रसाद की काव्यानुभूति : प्रेम संवेदना

‘आँसू की काव्यानुभूति के केंद्र में है प्रेम संवेदना जो अस्पष्ट दिखने वाली प्रगीत योजना या मुक्तकशृंखला में एक कथा-लय जो एक प्रेमकथा या विरह कथा का आभास देती है। मिलन की पूर्व-स्मृतियाँ हैं और दुख का नैरन्तर्य। पहली चार पंक्तियाँ ही वेदना के तीव्र विस्फोट की झलक देती हैं :

‘इस करूणा कलित हृदय में

अब विकल रागिनी बजती

क्यों हाहाकार स्वरों में

वेदना असीम गरजती।

संयोग की सुखद स्मतियाँ हैं –

‘परिरम्भ कुम्भ की मदिरा

निश्वास मलय के झोंके

मुख चंद्र चाँदनी जल से

मैं उठता था मुँह धो के।

‘प्रेम की मादकता का तीखा अनुभव

‘विष प्याली जो पी ली थी

वह मदिरा बनी नयन में

सौंदर्य पलक-प्याले का

अब प्रेम बना जीवन में।’

फिर वही छले जाने की पीड़ा, विक्षुब्ध करने वाला अंतर्दाह, और कहने के ढंग में जो नयापन है, उसे लक्ष्य करें :

‘मादकता – से आये तुम

संझा से चले गये थे,

धीरे-धीरे वेदना व्यापक रूप लेती है – तब दिखाई देता है :

नीचे विपुला धरणी है

दुख भार वहन-सी करती

अपने खारे आँसू से

करूणा-सागर को भरती

और अंततः हम देखते हैं – प्रेम का उदात्तीकरण :

सबका निचोड़ लेकर तुम

सुख से सूखे जीवन में

बरसो प्रभात हिमकन-सा

आँसू इस विश्व-सदन में

आप देखेंगे कि ‘आँसू’ में कोई स्पष्ट क्रम नहीं है, इसलिए उसका सतर्क पाठ ज़रूरी है। वर्णन की परम्परागत रूढ़ियाँ भी हैं और नयी कल्पनाओं का साहस भी दिखाई देता है। कवि द्वारा रूप वर्णन के लिए कुछ आरंभिक रूपरेखा अटपटेपन या अधूरेपन में दी गई है। जैसे :

‘कुछ रेखाएँ हो ऐसी

जिनमें आकृति हो उलझी

तब तक झलक वह कितनी

मधुमय रचना हो सुलझी

आप अनुभव करेंगे कि ‘रूप’ जिस पर कवि का इतना बल है – अपने में ‘निसर्ग सुंदरता’ अथवा शिशु की उर्मिल निर्मलता लिए हुए है। करूणा में आनंद का अभिप्राय प्रसाद यहाँ देना चाहते हैं। प्रसाद के ‘आँसू’ का अपना यही पक्ष है। ‘आँसू’, ‘लहर’, ‘कामायनी’ एक ही रचना-समय की कृतियाँ हैं, यह भी ध्यान में रखें।

 ‘प्रलय की छाया’ का विशेष पाठ

‘प्रलय की छाया’ ‘लहर’ की महत्वपूर्ण रचना है। हम पहले ही इस कविता पर बहुत कुछ कह चुके हैं। इस ऐतिहासिक अनुभव में वर्तमान की पीड़ा किस तरह पहचानी जाएगी, यह अपने ढंग से देखनेजाँचने की चीज़ है। कमला का दर्प इन शब्दों में व्यक्त है :

‘मैं भी थी कमला

रूप-रानी गुजरात की

सोचती थी पद्मिनी जली थी स्वयं किंतु मैं जलाऊंगी

वह दावानल ज्वाला

जिसमें सुलतान जले।’

फिर कुछ और हो जाता है। जलाने की कोशिश में खुद जलने लगती है कमला। यह पछतावे का दंश ही कविता को महत्वपूर्ण बनाता है।

‘प्रलय की छाया’ में मुक्त छंद का विन्यास, नाटकीयता, चित्रगत जटिलता ध्यान देने की चीजें हैं। इसका वाचन करते हुए अनुभव करें पाठ के रूप में इसका सौंदर्य क्या है। इसका अर्थ-मर्म और कवित । में त्रासद विडम्बना का क्षण कहाँ है। कविता के रंगमंच पर रूपगर्विता कमला की उपस्थिति इस प्रकार हुई है :

पागल हुई मैं अपनी ही मृद्गंध से – कस्तूरी मृग जैसी।

पश्चिम जलधि में मेरी लहरीली नीली अलकावली समान

लहरें उठती थीं मानों चूमने को मुझको

और साँस लेता था संसार मुझे छूकर।

आत्म गर्व और फिर गर्व की व्याप्ति। शब्दों की कोमलता। भाषा का संगीत। ध्यान देने की ज़रूरत है कि रंगमंच के शब्द बिंब कहाँ विशेष अर्थ देने में सक्षम हैं :

‘और परिवर्तन वह।

क्षितिज वटी को आंदोलित करती हुई

नीले मेघमाला-सी

नियति-नटी थी आई सहसा गगन में

तड़ित विलास-सी नचाती भौहें अपनी।’

सारांश

इस इकाई में आपको प्रसाद-काव्य के प्रति उत्सुक बनाते हुए हमने चाहा है कि आप अनुभव करें कि प्रसाद अपनी काव्य चेतना और इतिहास की सांस्कृतिक चेतना के बीच कैसा संबंध प्रमाणित करते हैं। प्रसाद स्वच्छन्द कल्पना का, गहरी स्वानुभूति का कैसा उपयोग करते हैं। सारांश के रूप में इन स्थापनाओं को अपने ध्यान में रखें :

  • प्रसाद छायावाद की विशेषताओं का निर्माण करने वाले कवि हैं। उनकी कविता अपना वैशिष्ट्य प्रकट करने के साथ युगीन विशेषताओं को भी उद्घाटित करती है या चरितार्थ करती है।
  • प्रसाद की राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना और आधुनिक-बोध को भाषा शिल्प की नवीनता के स्तर पर भी पहचानना चाहिए।
  • प्रसाद का कल्पना पर बल देना स्वाधीन चेतना को ही प्रमाणित करना है। यह स्वाधीन चेतना नए सौंदर्य बोध, नयी चित्रमयता, लाक्षणिकता, नए सादृश्य विधान, प्रकृति मनुष्य के नए संबंध, वस्तु और कल्पना के नए संबंध में पहचानी जा सकती है।
  • प्रसाद काव्य को राष्ट्रीय काव्य, सांस्कृतिक जागरण का काव्य न कहकर ‘शक्ति काव्य’ कहा जाता है तो इसकी प्रेरणा प्रसाद के अपने काव्य में ही है।
  • प्रसाद की कविता स्वाधीन चेतना के बल पर नयी मानव परिकल्पना में सक्षम है। वह नई संबंध भावना का संकेत है। प्रसाद राष्ट्रीय भावना की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के कवि हैं।
  • प्रसाद की कल्पना इसी दृष्टि से अनुभव भाषा के नए साहचर्य (Association) विकसित करती है।
  • छायावाद के कवि (जिसमें प्रसाद अग्रणी है) कविता की नई ही परिकल्पना करते हैं। प्रसाद के लिए कविता आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है, पंत के लिए परिपूर्ण क्षणों की वाणी है।
  • प्रसाद तथा उनके सहयोगी छायावादी कवियों का बल नई सौंदर्य चेतना पर ही अधिक है।
  • प्रसाद गहरे अर्थों में सांस्कृतिक चेतना के कवि हैं।
  •  प्रसाद समरसता दर्शन को एक भावात्मक आधार देने वाले कवि हैं जिसके लिए उन्हें इतिहास और फैंटेसी में एक नया संबंध विकसित करना पड़ता है। विश्व मंगल भावना ‘कामायनी’ में ही नहीं, ‘आँसू’ में भी और ‘लहर’ के प्रगीतों में भी अभिव्यक्ति प्राप्त करती है। कामायनी की प्रतीकात्मकता महत्वपूर्ण है। ‘कामायनी’ की मिथकीयता में भी कर्म चेतना, संघर्ष चेतना के लिए जगह है और उस पर दृष्टि जानी चाहिए।
  • प्रसाद प्रेम को उदात्त बनाते हैं। ‘आँसू’ में हम इसे विशेष रूप से देख सकते हैं।
  • ‘प्रलय की छाया’ तथा ‘लहर’ की अन्य लंबी कविताएँ जहाँ इतिहास चेतना की झलक देती हैं, वहाँ ‘प्रलय की छाया’ का एक राजनीतिक अर्थ भी है।
  • ‘कामायनी’ में प्रसाद दुखवाद और आनंदवाद के बीच आधुनिक बोध या संवेदना का प्रमाण देते हैं।
  • प्रसाद सभ्यता समीक्षा को एक भावात्मक परिप्रेक्ष्य देते हैं। वे सकर्मक जीवन और अकर्मक जीवन के बीच तनाव को भी प्रत्यक्ष करते हैं।
  • ‘कामायनी’ की श्रद्धा भावमूर्ति अधिक है मांसल कम। यह और बात है कि वही मनु को कर्म जीवन में प्रवृत्त करती है।
  • प्रसाद-काव्य में नाटकीयता, कथा लय, जटिल चरित्रविधान का अपना महत्व है। प्रसाद के यहाँ संगीत, चित्र, रंगमंच की शब्दावली विशेष अभिप्राय से प्रयुक्त है।

ये कुछ स्थापनाएँ हैं जिनके आलोक में प्रसाद के अपने पाठ का रास्ता आपको स्वयं खोजना है और अपनी आस्वाद-क्षमता का विकास करना है।

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