‘स्कंदगुप्त’ की रंगमंचीय संभावनाएँ

स्कंदगुप्त से संबंधित यह तीसरी और अंतिम इकाई है। इस इकाई में नाटक की रंगमंचीय संभावनाओं और गीतों पर विचार किया गया है। हमने पिछली में प्रसाद की नाट्य दृष्टि पर विस्तार से विचार किया था। प्रसाद के नाटकों को लेकर सबसे बड़ा विवाद यही है कि उसे मंच पर खेला जा सकता है या नहीं। आमतौर पर प्रसाद के नाटकों को रंगमंच की दृष्टि से बहुत उपयुक्त नहीं समझा जाता। स्कंदगुप्त पर विचार करने से पहले यह जानना बहुत ज़रूरी है कि प्रसाद की रंगमंच संबंधी संकल्पना क्या थी। इस इकाई में इस पक्ष पर विचार किया गया है।

रंगमंच संबंधी संकल्पना को समझकर ही हम यह जान सकते हैं कि स्कंदगुप्त को रंगमंच पर किस हद तक सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया जा सकता है। इसके लिए नाटक की दृश्य योजना, क्रिया व्यापार पात्र योजना आदि पहलुओं पर विचार करना ज़रूरी है। इकाई में इन सभी पक्षों का गहन विवेचन किया गया है।

रंगमंच पर प्रस्तुति के लिए जरूरी है कि नाटक की भाषा, विशेषकर संवादों की भाषा पर विचार किया जाए। प्रसाद के संवाद क्या मंच पर प्रस्तुति के लिए उपयुक्त है? वे पात्रों, उनकी मनोदशाओं और नाटक के क्रिया व्यापार को गति देने के लिए किस सीमा तक प्रभावशाली माने जा सकते हैं? प्रसाद छायावादी कवि थे, क्या उनके संवादों पर काव्यगत विशेषताओं का प्रभाव है? क्या नाटकीयता और अभिनेयता की दृष्टि से वे सफल कहे जा सकते हैं? इन सभी पहलुओं पर इकाई में विचार किया गया है।

नाटक की सबसे बड् पहचान उसकी अभिनेयता है। रंगमंच पर प्रस्तुति के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम इस बात का विश्लेषण करें कि उसका अभिनय किस हद तक सफल होगा? स्कंदगुप्त नाटक के प्रत्येक अंक में गीतों को शामिल किया गया है। प्रसाद के ये गीत किस तरह के हैं? उनसे नाटक का प्रभाव विस्तारित हुआ है या बाधित हुआ है? गीतों में निहित काव्य सौंदर्य पर भी इकाई में विचार किया गया है।

यह नाटक तथा अन्य गद्य विद्याएं नामक पाठ्यक्रम के पहले खंड की अंतिम इकाई है। प्रस्तुत इकाई में इस प्रश्न पर विचार किया जाएगा कि प्रसाद ने रंगमंच को ध्यान में रखकर नाटकों की रचना की है या नहीं? यदि हां तो किस रंगमंच की दृष्टि से? और उस रंगमंच की रूढ़ियों ने उनके नाटकों को किस सीमा तक प्रभावित किया है? उनके नाटकों के रंगमंचीय प्रदर्शन में किस तरह की कठिनाइयां सामने आती हैं तथा रंगमंचीय प्रदर्शन की उनमें कितनी संभावनाएं हैं?

स्कंदगुप्त से संबंधित इस इकाई में रंगमंच और गीत-सृष्टि पर विचार किया गय है। प्रसाद का रंगमंच और नाटक के अंतःसंबंधों पर हम चौथी इकाई में विचार कर चुके हैं। प्रसाद का मानना था कि रंगमंच के अनुरूप नाटक नहीं लिखे जाने चाहिए वरन् नाटकों के अनुरूप रंगमंच को स्वरूप दिया जाना चाहिए। प्रसाद के समय पारसी रंगमंच ही उपलब्ध था और अपने संस्कृत साहित्य के अध्ययन के बल पर वे यह जानते थे कि भारतीय परंपरा में रंगमंच और नाटक का स्वरूप क्या था? प्रसाद ने लोक नाट्य परंपरा से रंगमंच की संकल्पना ग्रहण नहीं की। इस प्रकार उन्होंने पारसी थियेटर के विरोध में भारतीय रंगमंच को ही पुनर्स्थापित करने के लिए नाटकों को ऐसा रूप दिया। लेकिन क्या वे संस्कृत नाट्य परंपरा का अनुपालन कर सके? क्या वे पारसी नाटकों के प्रभाव से अपने को मुक्त रख सके? रंगमंच पर खेलने की दृष्टि से स्कंदगुप्त किस सीमा तक सफल है, इन सभी प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

प्रसाद के इस नाटक में गीतों का भी समावेश किया गया है। इन गीतों को अलग-अलग अवसरों और स्थितियों में शामिल किया गया है। नाटक और गीत के बीच वे किस तरह का तारत्म्य स्थापित कर सके हैं, यह भी इस इकाई में विचार किया गया है।

जयशंकर प्रसाद और रंगमंच

यह तो नहीं कहा जा सकता कि प्रसाद यह नहीं जानते थे कि नाट्यकला प्रदर्शनपरक होती है, नाटक का सृजन इस रीति से किया जाता है कि उसमें चित्रित जीवन-दशाओं या कार्यों को अभिनय के द्वारा प्रस्तुत किया जा सके। वे नाट्य-सृजन की इस प्रतिबद्धता को भली प्रकार जानते थे। किंतु वे यह नहीं मानते थे कि किसी भी नाटक को चाहे जिस किसी भी रंगमंच पर प्रस्तुत किया जा सकता है। हर एक रंगमंच का अपना अलग स्थापत्य होता है, उसका एक निजी दर्शकीय संदर्भ और सांस्कृतिक बोध होता है। इसे ध्यान में रखकर ही किसी नाटक की रंगमंचीयता या अभिनेयता पर विचार करना संगत होता है।

प्रसाद के समय में हिंदी-क्षेत्र में जो रंगमंच सुलभ थे, उनके दर्शकीय संदर्भ अथवा सांस्कृतिकता, अथवा प्रदर्शनमूलक रंगरूढ़ियों से प्रसाद संतुष्ट नहीं थे। वे रंगमंच संबंधी सोच की अपनी एक ऐसी काल्पनिक धारणा बनाकर नाट्य-रचना में प्रवृत्त हुए जिसका प्रयोग हिंदी में अभी नहीं हुआ था। अतः रंगमंच की व्यावहारिक कठिनाइयों को नज़रंदाज करते हुए ही प्रसाद नाट्य-लेखन में प्रवृत्त हुए।

प्रसाद के समय में हिंदी क्षेत्र में दो ही रंगमंच विशेष रूप से प्रचलित थे। एक व्यावसायिक पारसी रंगमंच था, तो दूसरा सीमित साधनों वाला भारतेंदु द्वारा प्रवर्तित शौकिया रंगमंच या अव्यावसायिक रंगमंच। पारसी रंगमंच के दर्शकीय संदर्भ, सांस्कृतिक अभद्रता, कृत्रिम प्रदर्शन-प्रणाली से तो प्रसाद को बहुत ही चिढ़ थी। सीमित साधनों से ही रंगकर्म करने वाले रंगकर्मियों को भी वे अपनी कल्पना के रंगदर्शन और विस्तृत एवं समुन्नत सांस्कृतिक चेतना को रूपाकार देने में सक्षम नहीं समझते थे। अपने इस विचार को प्रसाद ने कहीं नाटक की भूमिका में तो कहीं रंगमंच पर स्वतंत्र लेख लिखकर प्रकट किया है। विशाल नाटक की भूमिका में एक स्थल पर वे लिखते हैं :’ आजकल के पारसी रंगमंच के अनुकूल ये नाटक कहाँ-तक उपयुक्त होंगे इसे मैं नहीं कह सकता, क्योंकि उनका आदर्श केवल मनोरंजन है। हाँ, जातीय आदर्शों से स्थापित यदि कोई रंगमंच, जहाँ कि चमक-दमक से विशेष ध्यान पात्रों के अभिनय पर रखा जाता हो तो कोई सम्मति अपने अभिनय के अड़चन पड़ने की दे तो मैं उसे स्वीकार करने के लिए सर्वथा प्रस्तुत हूँ।’ रंगमंच पर लिखे गए अपने निबंध में वे एक स्थान पर लिखते हैं :’हिंदी के कुछ अकाल पक्व, आलोचक जिनका पारसी रंगमंच से पिण्ड नहीं छूटा है, सोचते हैं स्टेज में यथार्थवाद!  हिंदी का अपना कोई रंगमंच नहीं है, ऐसा समझने का कोई साहस नहीं करता, क्योंकि दोष-दर्शन सहज है। उसके लिए वैसा प्रयत्न करना कठिन है, जैसा कीन ने किया था।’ … पुनः वे लिखते हैं – ‘मेरी रचनाएँ तुलसीदत्त शैदा या आगा हस्र की व्यावसायिक रचनाओं के साथ नहीं नापी तोली जानी चाहिए। मैंने उन कंपनियों के लिए नाटक नहीं लिखे हैं जो चार चलते अभिनेताओं को एकत्रकर, कुछ पैसे जुटाकर चार पर्दे मँगनी माँग लेती हैं और दुअन्नी-अठन्नी के टिकट पर इक्केवाले, खोमचेवाले और दुकानदारों को बटोरकर जगह-जगह प्रहसन करती फिरती हैं।

यदि परिष्कृत बुद्धिवाले अभिनेता, सुरुचि-सम्पन्न सामाजिक हों और पर्याप्त द्रव्य काम में लाया जाय तो ये नाटक अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं। इन कथनों से इतना तो स्पष्ट होता ही है कि नाट्य सृजन करते समय प्रसाद जी रंग-दर्शन के प्रति सचेष्ट थे। किंतु वे जिस रंगमंच को कल्पना में रखकर नाटक-रचना में प्रवृत्त हुए थे, उसका कोई व्यावहारिक रूप उनके सामने नहीं था। अतः कल्पना के एक समुन्नत सांस्कृतिक रंग-दर्शन और सुरुचि-सम्पन्न दर्शकीय संदर्भ के निर्गुण आधार (रंग-व्यवहार में प्रत्यक्ष न होने वाले केवल काल्पनिक आधार) के अनुरूप ही वैविध्यपूर्ण पेचीदे दृश्यों को उन्होंने अवतरित किया। उन्हें किस प्रकार के दृश्यबंध में साकार करना सुलभ होगा, इसकी ओर कदाचित उनका ध्यान ही नहीं गया। उनके अपने समय-से लेकर आज तक के रंगकर्मी उनकी चुनौती को लक्ष्यकर भिन्न-भिन्न रंग-पद्धतियों में उनके नाटकों को प्रस्तुत करने का प्रयास करते रहे हैं।

परंतु किसी भी रंग-पद्धति चाहे वह यथार्थवादी रंगमंच की आकारवादी या प्रतीकात्मक रंग-पद्धति हो, अथवा भारतीय नाट्यधर्मी नृत्य या नृत्तमूलक अभिनय की मुद्राओं में उनके दृश्य-विधान को साकार करने का प्रयत्न किया गया हो, उनके नाटकों का कुछ-न-कुछ अनभिव्यक्त रह ही जाता है। नाटक के दृश्यों के स्वरूप में बहुत विषमता है। कुछ दृश्य तो नाटकीय होते हैं और कुछ दृश्य इतने उबाने वाले होते हैं कि उनकी प्रस्तुति रंगमंच पर असंभव ही प्रतीत होती है। नाटक इतने लम्बे हैं और दृश्यों की संख्या इतनी अधिक है कि उन्हें रंगमंच पर प्रस्तुत करने के लिए 12-15 घंटे का समय चाहिए। इतने समय तक बैठकर नाटक देखना दर्शक के लिए (चाहे वह कितना ही सुरुचि-सम्पन्न और धैर्यशाली क्यों न हो) अव्यावहारिक है।

‘स्कंदगुप्त’ में दृश्य योजना और रंगमंचीयता

स्कंदगुप्त की कथावस्तु 33 दृश्यों में प्रस्तुत की गई है। 33 बार दृश्य-परिवर्तन करते हुए नाटक को दिखलाने में कितना समय लगेगा इसका सहज ही अनुभव लगाया जा सकता है। इतने दृश्यों के नाटक को रंगमंच पर दिखलाने की योजना और दर्शक का आदि से अंत तक बैठे हुए उसे देखना व्यावहारिक ज्ञात नहीं होता। इसके अलावा कुछ ही दृश्यों के कुछ रंग-व्यापार सघन और सरल हैं, अधिकतर दृश्यों के रंग-व्यापार शिथिल और उबाने वाले प्रतीत हो सकते हैं। उनका रूप कितना भी काव्यात्मक क्यों न हो, रंगशाला में बैठकर देखते-सुनते हुए संवेदना में सहभागी होना दुष्कर लग सकता है।

एक दृश्य दूसरे दृश्य से बहुत भिन्न है। एक की दृश्य-सज्जा को समेटकर दूसरे की दृश्य-सज्जा की योजना करने में बहुत समय लगता है। बहुत देर तक का अंतराल या मौन रंग-कार्य को अरोचक बना देता है। गत्यात्मक प्रवाह में ही नाट्य-प्रदर्शन का मूलभूत सौंदर्य होता है। वस्तुवादी दृश्य-योजना को । अव्यवहारिक पाकर कुछ रंगकर्मियों ने प्रतीकात्मक रंग-विधान में स्कंदगुप्त को मंचित करने का प्रयास किया है। प्रतीकात्मक रंग-विधान में एक ही दृश्यबंध पर सामान्य परिवर्तनों से अनेक दृश्यों की योजना की जा सकती है। इसमें हर नये दृश्य के साथ पर्दा उठाने-गिराने की अपेक्षा नहीं होती। किंतु प्रयोगकर्ताओं का अनुभव प्रमाण है कि प्रतीकात्मक रंग-विधान द्वारा भी स्कंदगुप्त के कठिन और उलझे हुए कथानक का निर्वाह असाध्य-सा हो जाता है। इस शैली के रंग-विधान में वेशभूषा की प्राचीनता की व्यंजना सुलभ नहीं हो पाती। कुभा के बाँध का टूटना, अकस्मात जल का बढ़ना और उसमें स्कंदगुप्त सहित सेना के बहते जाने के दृश्य को किसी भी रंग-पद्धति से दिखलाना अत्यंत कठिन है। गगनिका (साइकोरामा) और प्रकाश-व्यवस्था का सहारा लेकर प्रतीकात्मक ढंग से दृश्यों को दिखला भी दिया जाये, तो दृश्य के प्रतीकात्मक संकेत स्थान परिवर्तन बोध का इच्छित प्रयोजन सिद्ध नहीं कर पाते हैं।

‘स्कंदगुप्त’ में बहुतायत से ऐसे दृश्यों को संयोजित किया गया है, जो अतिशय रोमांचक हैं। वे चमत्कार और कौतुक को बढ़ाने के कारण ही आकर्षक लगते हैं। नाटक की दृश्यावलियों में स्कंधावार, राज मंदिर, मदिरा-पान और नृत्य, अर्द्ध रात्रि, अंधकार, श्मशान, पर्णकुटीर वन-उपवन, कुंज, दुर्ग, रणक्षेत्र, राजपथ, राजप्रासाद, नदी-तट, सेतु, युद्ध, स्तूप, समाधि (महादेवी देवकी की समाधि ही अंक-5, दृश्य-2 की क्रियाशीलता का प्रधान केंद्र बिंदु है), रत्नगृह, स्वागत-समारोह, महाबोधि-विहार, उद्यान, अभियान आदि विभिन्न रूप-रंग वाले दृश्यों की पृष्ठभूमि में रचा गया यह नाटक रंगमंचीय प्रस्तुति के समय दृश्य-बंध और दृश्य-सज्जा को काफी हद तक अव्यवहारिक बना देता है। गुलाबराय लिखते हैं कि उनमें युद्ध अभियान आदि ऐसे दृश्य हैं जो रंगमंच पर काफी गड़बड़ करेंगे।’ स्पष्ट है कि ऐसे दृश्यों को रंगमंच की यथार्थवादी या वस्तुवादी शैली में यथातथ्य रूप से प्रत्यक्ष दिखलाना कठिन ही नहीं असंभव है।

दृश्यों के स्वरूप और वैविध्य को देखने से ऐसा विदित होता है कि नाटक की दृश्य-योजना पारसी रंगमंच की तरह चित्रांकित परदों का उपयोग कर दृश्यों को दिखलाने के लिए है। यद्यपि पारसी रंगमंच की कृत्रिम अभिनय प्रणाली, छिछली रसिकता, फुहड़ गानों, अश्लीलता व्यंजक क्रियाशीलता और भाषा-संवाद से प्रसाद का विरोध जाहिर है, तथापि चित्रांकित परदों की सीन-सीनरियों की रंगपद्धति से प्रभावित लगते हैं। उनकी दृश्य-योजना ऐसी है, जिसे वस्तुवादी रूप से तो रंगमंच पर दिखलाया नहीं जा सकता, लेकिन चित्रांकित परदों का प्रयोग कर सांकेतिक ढंग से दिखलाया जा सकता है।

प्रसाद के नाटकों (स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त आदि) की दृश्य-योजना की रंगमंचीय प्रस्तुति के लिए भारतीय प्राचीन काव्यात्मक रंगशाला या रंगभूमि, भित्ति-चित्रों एवं नाट्यधर्मी सांकेतिक दृश्य-योजना को लक्ष्यकर उन्हें अपनाने का प्रस्ताव भी रखा जा सकता है, किंतु ऐसी रंगशालाएं अब सुलभ नहीं है। स्कंदगुप्त की दृश्य-योजना में रोमांचकता, कौतुकता तथा नाट्य-वर्जनाओं की उपेक्षा कर हत्या, युद्ध, अभियान श्मशान की चिराँयध के दृश्य लाए गए हैं, वे भारतीय रंगभूमि की सीमा का अतिक्रमण ही करते हैं। अतः भारतीय ढर्रे का रंग-विधान उन्हें दिखलाने में सक्षम नहीं हो सकता है।

प्रसाद के स्कंदगुप्त की दृश्य-योजना पारसी रंगमंच की दृश्य-योजना से ही अधिक प्रभावित प्रतीत होती है। उसमें डरावनी रात के गहन अंधकार में अभिसार का जो दृश्य है, षड्यंत्र, हत्या, अपहरण, नृशंसता, प्रपंचबुद्धि के अभिचार के जो दृश्य हैं, वे जिस प्रकार चौंकाने वाले हैं, उसी प्रकार के दृश्य पारसी रंगमंच के भी उपजीव्य थे। इससे लगता है कि पारसी रंगमंच की छाप उसकी दृश्य-योजना पर है। इतना होते हुए भी, स्कंदगुप्त को जब कभी पारसी रंगमंच के नाटकों की तरह विभिन्न परदों की सहायता से प्रस्तुत किया गया, अभिनय असफल ही रहा। इस रंगमंच की दृष्टि से भी स्कंदगुप्त का दृश्य-संयोजन सुविधाजनक सिद्ध नहीं हुआ है।

स्कंदगुप्त की दृश्य-सज्जा क्यों रंगमंच पर बिखर जाती है? अथवा दृश्य-संयोजन सुविधाजनक नहीं होता, इसके कई कारण बन जाते हैं। एक प्रमुख कारण दृश्यों के स्वरूप में विषमता है कुछ दृश्य तो सघन और नाटकीय हैं, कुछ बहुत शिथिल, अनाटकीय और उबाने वाले हैं। अतः प्रस्तुतीकरण का । प्रभाव एक-सा नहीं बना रहता। स्कंदगुप्त के प्रथम अंक में ही यह देखा जा सकता है कि पहले दो दृश्य तो पर्याप्त सघन और नाटकीय हैं। किंतु तीसरा दृश्य मातृगुप्त की भावुक कल्पना से अतिरंजित प्रणयानुभूति व्यंजक ऐसा दृश्य है, जिसका नायक स्कंदगुप्त के अंतर्बाह्य संघर्ष से कहीं दूर का भी कोई रिश्ता नहीं है। इससे अंकगत दृश्यों का कुल प्रभाव बाधित ही होता है। यह दृश्य न तो सीधे आंतरिक संघर्ष से ही जड़ता है, न बाहरी संघर्ष से ही इसका कोई सीधा रिश्ता है। यह तत्वतः । अतिरिक्त दृश्य ही प्रतीत होता है। इससे नाटकीय क्रिया व्यापार की मूलधारा टूटती ही है। यह दृश्य नाटक के सम्मिलित प्रभाव को खंडित कर देता है। इसी तरह की शिथिलता को प्रकट करने वाली दृश्य-योजना चौथे अंक के तीसरे और चौथे दृश्य की भी है। ये दृश्य मूल क्रिया व्यापार से विच्छिन्न से जान पड़ते हैं। ऐसी दृश्य-योजना के कारण नाटक की प्रस्तुति का संश्लिष्ट संवेदनात्मक प्रभाव सुलभ नहीं हो सकता।

नाटक की कलात्मक अभिव्यक्ति में विचारशीलता और रंग-योजना के बीच सामंजस्य बनाए रखना जरूरी होता है। अतिरिक्त दृश्यों को भरने से (चाहे उनका काव्यात्मक सौंदर्य कितना भी उत्कृष्ट क्यों न हो) रंग-चमत्कृति और विचारशीलता का सामंजस्य खंडित हो जाता है। अभिनय बिखर जाता है। स्कंदगुप्त की रंग योजना में शिथिलता लाने वाले एवं सामंजस्य को बिगाड़ने वाले अतिरिक्त दृश्यों की बाधा खटकती है। ये नाटक को अनभिनेय बना देते हैं।

स्कंदगुप्त के वस्तु-विधान में कहीं-कहीं बड़े भद्दे जोड़ लगे हुए हैं। अनेक स्थानों पर नाटककार को घटनाओं की गति संभालना कठिन हो गया है। घटना के गत्यात्मक विकास के लिए उसे या तो वांछित व्यक्ति को उसी समय जैसे भूमि फाड़कर या ऊपर से टपक पड़ने की तरह उपस्थित कर देना पड़ा है। तृतीय अंक के दृश्य एक में प्रपंचबुद्धि से शिप्रा-तट पर भटार्क की भेंट घटना की गति संभालने के लिए इसी तरह का मिलन है। कुभा के बाँध तोड़ दिए जाने पर स्कंदगुप्त का जलधारा में बहते हुए कमला की पर्णकुटी पर पहुँचना घटना-विकास के लिए चित्रित एक ऐसा ही संयोग है। संयोगों से विकसित की जाने वाले ऐसी घटनावलियाँ आज के शिष्ट तार्किक व्यक्ति को चुभती है। इसे हम पारसी रंग-प्रदर्शन की चौंकाने वाली पद्धति के ही अनुरूप पाते हैं। कह सकते हैं कि पारसी रंगमंच से हिदीं नाटकों को मुक्त रखने का संकल्प लेकर चलते हुए प्रसाद उसी का अनुकरण करते प्रतीत होते है।

‘स्कंदगुप्त’ में भाषा, संवाद और अभिनय

प्रसाद के नाटकों के अभिनय को कठिन बनाने वाले तत्वों में एक प्रमुख तत्व उनके भाषा-प्रयोग को भी माना जाता है। उनके नाटकों की भाषा क्लिष्ट, चित्रात्मक, आलंकारिक, गीतात्मक है और संवाद वाग्मितापूर्ण और दीर्घ है। संवादों का एक बड़ा हिस्सा स्वगत कथन के रूप में हैं, जिसकी भाषिक संरचना स्वानुभूति के अंत-स्पर्श से अभिसिक्त अलंकृत और चित्रमय है। पात्रों के कथोपकथन स्कंदगुप्त में कहीं तो बहुत चुस्त और नाट्योचित हरकत या अभिनयात्मक (गति-संचार) को उकसाने वाले बन पड़े हैं। लेकिन अधिकतर कथोपकथन लम्बे और वर्णनात्मक हैं। उनका रूप काव्यात्मक या औपन्यासिक है। नाटक की संवाद-योजना. में तभी नाट्यत्व या अभिनयात्मक सौंदर्य आता है जब संवादों में एक अवस्था या स्थिति से दूसरी अवस्था या स्थिति की ओर बढ़ने की तीव्रता दिखलाई पड़ती है।

स्कंदगुप्त में भाषा का काव्यात्मक प्रयोग नाट्योपयोगी नहीं है। उसमें भाषा और संवाद का प्रयोग न तो अभिनय व्यंजक गति को उकसाने वाला है, न ही स्थिति विकास की नाट्योचित गतिशीलता ही है। नाटभाषा के विषय में अभिनवगुप्त का मत है कि – ‘वाक्यसहचरितः शरीरोभिनयो वाक्यं नाट्य वाक्यम्।” इस प्रकार नाटक रचना में संवाद ऐसे होने चाहिए जो कथानक को विकासात्मक गति दे तथा शरीरादि अभिनयों से सहज ही संयुक्त होकर दर्शक को प्रमुदित करते हुए लोक धर्म की शिक्षा भी दे। यह नाट्य-धर्मिता स्कंदगुप्त में आंशिक रूप में तो प्राप्त होती है, किंतु भाषा और संवाद का अधिकांश काव्यधर्मी ही है और नाट्योचित चंचलता से रहित है। ‘स्कंदगुप्त’ में संवाद या स्वगत कथन एक ही बात को कई प्रकार से, कई बिम्बों में ढालकर कई शैलियों में (कभी उच्छवसित अनुभूति-प्रवण संलाप शैली में, कभी दार्शनिक मुहावरों की शैली में तो, कभी वैचारिक या व्यावहारिक ऊहापोह की शैली में) प्रकट करते हैं जिससे वस्तु-विकास की गत्यात्मकता तो शिथिल होती ही है, वह दर्शकों की दृष्टि से बहुत दुरूह भी लगती है।

रंग-प्रयोग व्यावहारिक भाषा ही दर्शकीय संदर्भ की दृष्टि से उपयोगी मानी जा सकती है। सर्जनात्मक भाषा की सूक्ष्म व्यंजना और वक्रता अभिनय का आस्वाद लेते समय सामान्यतः दर्शक की पकड़ से बाहर हो जाती है।

नाटक-रचना में सर्व साधारण का ध्यान रखकर व्यावहारिक भाषा या सरल भाषा का प्रयोग ही वांछनीय है। नाटक की रंगमंचीय सफलता के लिए यह आवश्यक होता है। किंतु स्कंदगुप्त में प्रसाद ने संस्कृतनिष्ठ, संधि-समास युक्त क्लिष्ट भाषा का प्रयोग किया है यद्यपि उसकी सर्जनात्मकता पाठकों को प्रभावित करती है। सभी पात्र, चाहे उनका सामाजिक स्तर कैसा भी क्यों न हो, एक-सी संस्कृतनिष्ठ सुक्तियों, दार्शनिक मुहावरों से युक्त प्रतीकात्मक और बिम्बात्मक भाषा का प्रयोग करते दिखलाई पड़ते हैं। इस कारण भाषा के स्तर पर पात्रों की अलग-अलग पहचान नहीं हो पाती है। भाषाप्रयोग से पात्रों की जो अलग पहचान बनती है, वह अभिनय को विश्वसनीय और प्रभावी बनाती है। भटार्क जैसा महाबलाधिकृत जद यह कहता है कि – ‘एक दुर्भेय नारी हृदय में विश्व प्रहेलिका का रहस्य बीज है तो वह दार्शनिक चिंतक-सा प्रतीत होता है। पात्र की भूमिका अपेक्षित रूप में व्यक्त नहीं होती। इसी प्रकार शर्वनाग भी, जो एक सामन्य सा सेवक है, जब ऐसी भाषा में उद्गार व्यक्त कस्ता है कि -‘ सदैव इसी सुंदरी खड़गलता की प्रभा पर मैं मुग्ध रहा हूँ। तो भाषा के स्तर पर उसकी सामाजिक स्थिति की पहचान सुलभ नहीं होती है।

स्पष्ट है कि सर्जनात्मक भाषा का प्रयोग करने के कारण प्रसाद नाट्य-सृजन में, रंगमंचीय सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं। सर्जनात्मक भाषा की शब्दावली पात्रों की स्वानुभूति, अंतर्बोध और कल्पनाशीलता से अभिसिंचित होकर प्रतीकात्मक, बिम्बात्मक और अलंकृत होती है। स्कंदगुप्त में भाषा का ऐसा ही सर्जनात्मक रूप मिलता है। नाटक का प्रधान केंद्र चरित्र-चित्रण को बनाने के कारण, चरित्रों के आंतरिक भावों, विचारों, क्रियाओं को छायावादी शैली में विवृत करने के कारण भाषा संवाद में चित्रात्मकता है, अनुभूति-सिक्त स्वंय स्फूर्त कथन, अलंकृत, चित्रात्मक, प्रतीकात्मक और लयात्मक है। प्रसाद, माधुर्य और ओज गुणों से युक्त शब्दों का प्रयोग करने के कारण भी संवादों की भाषा काव्योचित प्रतीत होती है।

स्कंदगुप्त में कई संवाद ऐसे हैं, जिनकी वाक्य रचना बहुत जटिल हैं। संयुक्त, मिश्र और यौगिक वाक्यों में व्यक्त होने से संवाद की भाषा जटिल तो लगती ही है, उसमें विस्तार भी बहुत है। कथन बहुत लम्बे होते हैं। इसका एक उदाहरण दृष्टव्य है :

‘विजया : कहती हूँ – और फिर कहूँगी। प्रलोभन से, धमकी से, भय से कोई भी मुझको भटार्क से वंचित नहीं कर सकता। प्रणय वंचिता स्त्रियाँ अपनी राह के रोड़े – विघ्नों को दूर करने के लिए वज्र से भी दृढ़ होती है। हृदय को छीन लेने वाली स्त्री के प्रति हृतसर्वस्वा रमणी पहाड़ी नदियों से भयानक, ज्वालामुखी के विस्फोट से बीभत्स और प्रलय की अनलशिखा से भी लहरदार होती है। मुझे तुम्हारा सिंहासन नहीं चाहिए। मुझे क्षुद्र पुरगुप्त से  विलासजर्जर मन और यौवन में ही जीर्ण शरीर का अवलंब वांछनीय नहीं। कह देती हूँ, हट जाओ, नहीं तो तुम्हारी समस्त कुमंत्रणा को एक फूंक में उड़ा दूंगी।’

पात्रों के अंतर्द्वद्व और दार्शनिक ऊहापोह को व्यक्त करते समय भाषा का जो अलंकृत रूप अपनाया गया है, उसके कारण संवाद लम्बे हो जाते हैं। उपमेय और उपमान में संगति बैठाने के प्रयास में अभिव्यक्ति में फैलाव या विस्तार आ गया है। इस प्रवृत्ति को लक्ष्य करके आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने प्रसाद के नाटकों की भाषा को ‘पीलपाँवी भाषा’ कहा है। पात्रों के अंतर्द्वद्व या जीवन में अंतर्निहित रोमानी संघर्ष को चित्रित करते समय प्रसाद अनुभूति की नदी में जैसे तैरते जाते हैं। पात्रों की सत-असत् प्रवृत्तियों, पीड़ा-संत्रास, प्रेम-घृणा, हिंसा-अहिंसामूलक भावों को मूर्त रूप देने के लिए प्रतीकों, बिम्बों और उपमान-उपमेय की पारस्परिकता का ऐसा वितान तानते हैं जो अतिरिक्त रूप से फैला हुआ ज्ञात होता है। दर्शन और संस्कृति के मुहावरों के प्रयोग के कारण भाषा दुरूह भी लगती है। स्कंदगुप्त में मातृगुप्त, स्कंदगुप्त, देवसेना, प्रपंचबुद्धि, अनन्तदेवी, प्रख्यातकीर्ति सभी के बहुत से उद्गार इसी प्रकार की अलंकृत भाषा में हैं। इसके उदहारणस्वरूप मातृगुप्त का निम्निलखत कथन उद्धृत किया जा सकता है – ‘तो सब गया! मेरी कल्पना के सुंदर स्वप्नों का प्रभात हो रहा है। नाचती हुई नीहा-कणिकाओं पर तीखी किरणों के भाले! ओह! सोचा था कि देवता जागेंगे, एक बार आर्यावर्त में गौरव का सूर्य चमकेगा, और पुण्य-कर्मों से समस्त पाप-पंक धो जाएंगे हिमालय से निकली हुई सप्त सिंधु तथा गंगा-यमुना की घाटियां, किसी आर्य सद् गृहस्थ के स्वच्छ और पवित्र आंगन-सी, भूखी जाति के निर्वासित प्राणियों को अंन्नदान देकर संतुष्ट करेंगी, और आर्य जाति अपने दृढ़ सबल हाथों से शस्त्र गहण करके पुण्य का पुरस्कार और पाप का तिरस्कार करती हुई, अचल हिमाचल की भांति सिर ऊँचा किए, विश्व को सदाचार के लिए सावधान करती रहेगी, आलस्य सिंधु में शेष पर्यंकशायी।

सुषुप्तिनाथ जागेंगे, सिंधु में हलचल होगी, रत्नाकर से रत्नराशियाँ आर्यावर्त की बेला-भूमि पर निछावर होंगी। उद्बोधन के गीत गाए, हृदय के उद्गार सुनाए, परंतु पासा पलट कर भी न पलटा। प्रवीर उदास्हृदय स्कंदगुप्त कहां है? तब कश्मीर! तुझसे विदा।’ नाटक मे इस प्रकार के भाषा-प्रयोग को अनभिनेय ही कहा जाएगा। इतनी जटिल वाक्यावली को अभिनेता वाचिक, कायिक अथवा सात्विक अभिनय के किसी भी रूप के साथ जोड़कर प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं हो सकता। सामान्य दर्शक कथ्य का कितना आस्वाद ग्रहण कर सकेगा, सहज ही अनुमान लगाय जा सकता है।

स्कंदगप्त में प्रसाद ने साहित्यिक संस्कार की सर्जनात्मक भाषा का प्रयोग किया है, यह तो प्रकट ही है। यह भी प्रकट है कि संवादों में अतिरंजित वैचित्र्य और संदर्भो की बहुलता के कारण उसमें फैलाव भी आ गया है। किंतु ऐसा भी नहीं है, कि उसमें नाटकत्व का नितांत अभाव है। उन्हें सर्जनात्मक स्तर की भाषा के नाटकीय मर्म की पहचान थी। यह नाटकीयता स्वर के आरोह-अवरोहमूलक विधान में लक्षित है, भाषा में निहित क्रिया-व्यापार के संकेत एवं तनावपूर्ण स्थितियों में नाटकीयता अक्षण्ण है। सात्विक अभिनय की मुद्राएं भी उभर कर सामने आती हैं। इनमें कम नाटकत्व नहीं है। भाषिक अतिरंजना को काट-छांट कर यदि नाटक का रंगमंचीय आलेख तैयार किया जा सके, तो स्कंदगुप्त का प्रदर्शन प्रभावी हो सकता है।

निष्कर्ष यह कि स्कंदगुप्त की नाट्यभाषा में सरल, क्लिष्ट, सजीव निर्जीव संवाद के सभी रूप मिलते हैं। प्रसंगों का जैसा दबाव है उसी के अनुसार भाषा कहीं सरल, कहीं जटिल, कहीं निर्जीव और कहीं सजीव रूप से व्यक्त हुई है। क्लिष्ट भाषा केवल वहाँ प्रयुक्त की गई है, जहाँ नाट्य स्थिति में भावुकता का उन्मेष है, अथवा जहाँ पात्र अंतर्द्वद्व या दार्शनिक ऊहापोह में खो जाते हैं। इसके विपरीत जहाँ स्थिति व्यावहारिक है या विवरण, सूचना, तनाव, व्यंग्य, हास आदि से संबद्ध है वहाँ भाषा सरल और सुगठित है। उसमें अभिनयोचित हरकत का रूप भी मिलता है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि स्कंदगुप्त की नाट्यभाषा समग्र रूप से क्लिष्ट है एवं वह अभिनयोचित चंचलता से सर्वथा रहित है। हास्य-व्यंग्य के संवादों में नृत्यमयी मुद्रा या मुँह चिढ़ाने वाली मुद्रा अभिनयोचित धातुसेन और मुद्गल के संवादों में भाषा का चांचल्य द्रष्टव्य है।

धातुसेन : लोहा बड़ा कठोर होता है। कभी-कभी वह लोहे को भी काट डालता है। उहूं, भाई! मैं तो मिट्टी हूँ – मिट्टी जिसमें से सब निकलते हैं। मेरी समझ में तो मेरे शरीर की धातु मिट्टी है, जो किसी के लोभ की सामग्री सनहीं, और वास्तव में उसी के लिए सब धातु अस्त्र बनकर चलते हैं, लड़ते हैं, जलते हैं, टूटते हैं, फिर मिट्टी हो जाते हैं। इसलिए मुझे मिट्टी समझो धूल समझो।

वातावरण को साकार करने में भी स्कंदगुप्त में नाट्यभाषा का सक्षम रूप प्रकट है। पाँचवे अंक के दूसरे दृश्य में पर्णदत्त के कथन इसे प्रमाणित करते हैं। संवाद वातावरण को तो साकार करते ही हैं, साथ ही वे तीव्र गति से एक के बाद दूसरे प्रसंग की ओर बढ़ते नज़र आते हैं। ऐसे संवाद नाटकीय होते हैं। नाट्यभाषा में प्रकट अभिनयोचित रूप-रंगों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि स्कंदगुप्त की अतिरिक्त वाग्मिता में काट-छाँट करके नाटक का एक रंगमंचीय आलेख तैयार किया जा सकता है। ज्यों का त्यों तो उसे रंगमंच पर उतारा नहीं जा सकता, किंतु उसके उपयुक्त नाट्यालेख को रंगमंच पर प्रदर्शित किया जा सकता है जो संस्कारयुक्त सुपठित दर्शक को बहुत आकर्षक लग सकता है, क्योंकि नाटक में आभिजात्य जीवन की गरिमा का नाटकत्व विद्यमान है। मनोरंजन प्रिय दर्शक के लिए यह नाटक अवश्य ही बोधगम्य नहीं है।

‘स्कंदगुप्त’ में गीत सृष्टि

नाटक में गीतों की योजना से भी प्रसाद अपनी नाट्यकला की मौलिकता का आभास देते हैं। प्रसाद के नाटक गहन संवेदना के क्षणों में रचित नाटक है, वे जीवन की भावात्मक उष्मा व्यंजित करने वाली संवेदनाओं को अभिव्यक्त करते हैं। अन्य नाटकों की तरह ही स्कंदगुप्त में भी नाट्य वस्तु में प्रकट तीव्र संवेदनात्मक क्षणों की अभिव्यक्ति के लिए प्रसाद को जहाँ काव्यमय गद्य-संलाप पर्याप्त प्रतीत नहीं हुए, वहाँ उन्हें गीतों में रूपायित करने का प्रयास किया है। इस प्रयत्न में उन्होंने नाटक के प्रवाह को । जगह-जगह बाधित कर दिया है। प्रगीतों के मोहक संसार में खोकर दर्शक कथावस्तु के पूर्वापर संबंध सूत्रों को ढूँढ़ने का प्रयास करता है, तो वह कठिनाई में पड़ सकता है। नाटक के मूर्त व्यापार और प्रगीतों के अंतर्जगत के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता। गीतों के अवतरण के कारण नाटक की गति में ठहराव आ जाता है। तथापि, गीतों के माध्यम से पात्रों के चरित्र के अंतर्बाह्य क्रिया व्यापार को हृदयंगम करना सुलभ हो जाता है।

स्कंदगुप्त में कुल 15 गीत हैं। नाटक के प्रत्येक अंक में और कई दृश्यों में, गीतों का विधान किया गया है। गीत कहीं पात्रों के स्वभाव को व्यंजित करते हैं, कहीं कथानक में भाव-दीप्ति का सौंदर्य भरते हैं तथा अंतर्वस्तु के अगोचर, प्रवाह की व्यंजना करते हैं। इस प्रकार, नाट्यवस्तु के संवेदनात्मक रूपरंग को चटकीला बनाते हैं। उनके द्वारा पात्रों का अंतर्द्वद्व प्रकाशित हुआ है, तो कहीं उनकी योजना से मूर्त रंग-व्यापार या संघर्षों की रूक्षता दूर करने की प्रवृत्ति लक्षित है तथापि नाटक के कथा प्रवाह में गीत प्रायः बाधक ही बने हैं।

स्कंदगुप्त में कुछ गीत ऐसे हैं, जो मंच पर गाए जाने के लिए हैं। कुछ गीत नेपथ्य गीत के रूप में संयोजित हैं। मंच पर गाए जाने वाले गीत भी कई तरह के हैं। कहीं आमोद-प्रमोद के लिए नर्तकियाँ गीत गाती हैं, (प्रथम अंक, दृश्य दो और चतुर्थ अंक, दृश्य दो) कहीं कोई एक पात्र प्रगीत का गायन कर अंतश्चेतना के अपने मंथन को व्यंजित करता है। (प्रथम अंक, दृश्य तीन), कहीं कई पात्र मिलकर वृंदगान की शैली में उद्बोधन गीत गाते हैं (पंचम अंक, दृश्य तीन और पाँच)। कहीं निराशा से त्राण पाने के लिए प्रार्थना के गीत गाए गए हैं। (प्रथम अंक, दृश्य छह)। इस प्रकार परिस्थिति के भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार के गीतों की योजना की गई है। नेपथ्य गीत परिवेश को सघन बनाने के लिए संयोजित किए गए हैं। नाटक में गीत कब और किस प्रकार की परिस्थिति में संयोजित किए गए हैं,

इसकी विवेचना द्वारा स्कंदगुप्त के नाट्य-विधान में गीत-योजना का स्वरूप और महत्व प्रकाशित किया जा सकता है। प्रार्थना के स्वर में वृंदगान करती हुई स्त्रियों को हूण सैनिक जब पकड़ कर खींचते हैं, तभी मातृगुप्त उन सैनिकों पर यह गाते हुए तलवार लेकर टूट पड़ता है कि -‘हे प्रभु! हमें विश्वास दो अपना बना लो। सदा स्वच्छंद हो – चाहे जहाँ हों।’ वहीं रक्षार्थ संन्यासी वेश में गोविन्दगुप्त भी अप्रत्याशित रूप से उपस्थित और उत्साहित होकर हूण सैनिकों से भिड़ जाते हैं। मंच पर पात्रों के ऐसे समूहीकरण से अप्रत्याशित का रोमांचक दृश्य तो देखने को मिलता ही है, युद्ध की स्थिति में नागरिकों की दुर्दशा का दृश्य भी साकार हो उठता है। प्रार्थना-गीत के परिप्रेक्ष्य में अप्रत्याशित रूप से मातृगुप्त और गोविन्दगुप्त का सहायतार्थ उपस्थित होना नाटककार की ईश्वरीय आस्था को भी व्यंजित करता है। प्रसाद आस्थावादी नाटककार हैं, अव्यक्त के मांगलिक प्रसार में उनका दृढ़ विश्वास है। उनकी यह मान्यता है कि ‘अनेक अमंगलों में विभु कौन-सा मंगल छिपाए रहते हैं, किसे मालूम?’ इसी विश्वास में पात्रों के अप्रत्याशित समूहीकरण का रहस्य निहित है। केवल तार्किक विधान की दृष्टि से देखने पर लगेगा कि जब कथा की गति रूक जाती है, तब उसे आगे बढ़ाने के लिए प्रसाद के नाटकों में पात्र जैसे भूमि फोड़कर उपस्थित हो जाते हैं जो बहुत अस्वाभाविक प्रतीत होता है।

किंतु पात्रों का यह अप्रत्याशित समूहीकरण प्रार्थना-गीत के संदर्भ से जोड़े जाने के कारण अपरोक्ष शक्ति में प्रसाद के आस्था-विश्वास को व्यंजित करता है। एक अव्यक्त पात्र-सी नियति का हस्तक्षेप उनके नाटकों में बराबर मिलता है। पात्र-योजना के संदर्भ में इसकी चर्चा की गई है। गीत-योजना के संदर्भ से भी इसे देखा जा सकता है।

अंक एक दृश्य सात में युद्ध के विकट संघर्षपूर्ण माहौल में भी देवसेना प्रणय-गीत गाती है। युद्ध के माहौल में देवसेना का प्रणय-गीत विरोधाभासमूलक है। गाती तो वह प्रणय-गान है किंतु संदर्भ-विशेष को देखते हुए यह गीत उसके क्षत्राणी भाव की अगाध निर्भयता व्यंजित करता है -‘भरा नैनों में मन में रूप इस प्रकार देवसेना के इस गीत के माध्यम से युद्ध के माहौल के संघर्ष जनित तनाव को ढीला करने का प्रयास भी लक्षित होता है। इससे तनाव में ढील लाकर हौसला बटोरने का कार्य भी सम्पादित हुआ है। इस प्रकार गीत को नाट्यवस्तु की संवेदनात्मक संरचना का अभिन्न अंग बनाया गया है।

अंक दो के दृश्य एक में भी एक गीत संयोजित है। यह भी प्रणयगीत है और देवसेना ने ही इसे भी गाया है। किंतु संदर्भ भिन्न है। विजया और देवसेना दोनों ही स्कंदगुप्त के प्रति आकृष्ट होती है, किंतु दोनों के प्रेमाकर्षण के कारण भिन्न-भिन्न हैं। स्कंदगुप्त को प्रेम करने क लिए विजया इसलिए उन्मुख होती है, क्योंकि वह उसे गुप्तकुल का भावी सम्राट समझ लेती है। इस प्रकार अपने ऐश्वर्य-भोग के लिए उसके प्रति आकृष्ट होती है। इस स्थिति को बदलते हुए देखकर स्कंदगुप्त से विमुख ही नहीं होती, अपितु विरोधी प्रतिपक्ष (भटार्क, पुरगुप्त, अनंतदेवी, प्रपंचबुद्धि आदि) से मिलकर स्कंदगुप्त को क्षति पहुंचाने के षड्यंत्र का हिंसक अंग बन जाती है। इसके ठीक विपरीत देवसेना का प्रेम निःस्वार्थ प्रेम है, वह अहेतुक है, निर्व्याज है,, उत्सर्गगर्भित है। उसमें भोग का विक्षेप नहीं, त्याग जनित अंतःशीतलता है। यह गीत देवसेना के अनुभूति-प्रवण, समरस और लयात्मक स्वभाव को व्यंजित करता है:

‘घने प्रेम-तरु तले

फूल चू पड़े बात से भरे हृदय का घाव,

मन की कथा व्यथा-भरी बैठो सुनते जाव,

मिलो स्नेह से गले।

घने प्रेम-तरु तले।

विजया, देवसेना और स्कंदगुप्त को लक्ष्यकर नाटक में प्रेम का जो त्रिकोण बनता है, वह नाटक के संघर्ष को कई तरह से जटिल बनाने का एक कारण बनता है। देवसेना के प्रति उसकी सखी विजया प्रतिहिंसक हो उठती है।

अंक तीन दृश्य दो में विजया और देवसेना अचानक श्मशान भूमि में मिलती है तो वहाँ प्रसाद ने एक . नेपथ्य गीत की योजना की है :

‘सब जीवन बीता जाता है

विजया देखती है कि देवसेना कितनी भाव-विभोर होकर वह गीत सुन रही है। प्रति हिंसा के लिए आई हुई विजया का मन देवसेना के भोलेपन को देखकर डिग जाता है। प्रसाद की रोमनी जीवन दृष्टि बुरेसे-बुरे नारी-चरित्र को भी सर्वथा कुत्सित रूप में चित्रित नहीं करती। नेपथ्य गीत विजया के चरित्र में सुप्त कोमल मानवीय भावना को जैसे जाग्रत कर देता है।

अंक-पाँच, दृश्य-तीन में एक गीत देशवासियों को जगाने के हेतु देवसेना गाती है – ‘देश की दुर्दशा निहारोगे’ इसी अंक के दृश्य-पाँच में मातृगुप्त, पर्णदत्त, स्कंदगुप्त, भटार्क, भीम वर्मा आदि वृंदगान के रूप में गीत गाते हैं – ‘हिमालय के आँगन में यह गीत विजय के आलोक की तरह फैलता हुआ गीत है। इसकी दीर्घ लयात्मकता इसी चेतना के अनुरूप है।

इस प्रकार स्कंदगुप्त में प्रत्येक अंक के एक या अनेक दृश्यों में गीतों की योजना की गई हैं। यह तो स्पष्ट ही है कि इन गीतों से नाटक की गत्यात्मकता में बाधा उत्पन्न होती है। किंतु नाटक की अंतर्वस्तु के प्रकाशन में, पात्रों के चारित्रिक मर्म की विवृति में, उनके स्वभाव की अनुभूतिमूलक गहराइयों को समझने में इन गीतों से बहुत सहायता भी मिलती है। स्कंदगुप्त में पात्रों का, विशेषकर नारी-पात्रों का यह स्वभाव है कि वे अपनी अनुभूति की गहराइयों में उतरकर समस्त रागतत्व के साथ अपनी स्थिति को अभिव्यक्ति करती है। सभी पात्र, विशेषकर नारी-पात्र, अपने जीवन की किसी गहन संवेदनात्मक स्थिति को प्रकाशित करते हुए आत्मानुभूति के तीव्र क्षणों में प्रगीतात्मक गीत गाकर अपनी मनोदशा को व्यक्त करते हैं। ये गान नाटकीय गत्यात्मकता के अवरोधक तो हैं, किंतु अंतर्वस्तुगत संवेदना, बाह्य वस्तुगत परिवेश की मार्मिकता, अथवा काव्यात्मक नाट्य स्थितियों के वे अभिन्न अंग भी ज्ञात होते हैं। पात्रों की परिस्थितिजन्य भावुकता या संबंधगत भावनात्मकता प्रगीतात्मक गानों में अनायास ही फूट पड़ी-सी प्रतीत होती है। संवादों की भाषिक संरचना में गीतों का संग्रंथन, इस प्रकार, स्थितियों की अभिव्यक्ति को सजीव बनाने में योगदान करता है।

स्कंदगुप्त में हर महत्वपूर्ण दृश्य में कोई न कोई पात्र परिस्थितिजन्य भावमयता के वशीभूत होकर गीत गाने लगता है। नाटक के अंक-एक दृश्य-दो में हम देखते हैं कि मातृगुप्त (कालिदास) स्वभाव-से ही एक कवि पात्र है। वह जन्मभूमि (काश्मीर) में बिताए गए सुखमय जीवन का स्वप्न देखते हुए स्वगत कथन करता हुआ सहसा यह गीत गाने लगता है – ‘संसृति के सुंदरतम क्षण यों ही भूल नहीं जाना इसी प्रकार भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में गाए गए देवसेना, विजया, आदि के गीत भी उनके आंतरिक आवेग एवं द्वंद्व की सशक्त व्यंजना करते हैं।

स्कंदगुप्त में पात्रों की परिस्थिति जनित भावुकता को प्रकाशित करने के अतिरिक्त दूसरे-दसूरे रूप में भी गीत सन्निविष्ट किए गए हैं। वे गीत भी वस्तु-योजना में अपने ढंग से संग्रंथित हैं। कुछ प्रणय गीत महफिल की शैली के हैं जिन्हें नर्तकियाँ गाती हैं।

नाटक में कुछ गीत ऐसे हैं, जो देश की विपन्न दशा से उत्पन्न नैराश्य के परिप्रेक्ष्य में गाए गए है। ऐसे गीत प्रायः प्रार्थना गीत हैं। शत्रुओं से पददलित देश की विपन्न दशा को लक्ष्यकर पर्णदत्त के साथ देशोद्धार के लिए भीख माँगती हुई देवसेना गाती है : देश की दुर्दशा निहारोगे

गीतों का एक अन्य रूप नेपथ्य गीतों का है। ये गीत मंचगत व्यापार की संवेदनीयता को सघन बनाते हैं, अतः नाटक में इनका संयोजन कलात्मक प्रतीत होता है। नेपथ्य गीतों के द्वारा पात्रों के द्विधाविभक्त मन को एक सुनिश्चित दिशा में मोड़ने का प्रयास लक्षित है। ऐसे गीत पात्रों के विपण्ण मन को कहीं सान्त्वना देते हैं, तो कहीं परिस्थिति से लड़ने को उत्साहित करते हैं।

इस प्रकार स्कंदगुप्त में गीत-योजना नाटक की काव्यात्मकता को सुदृढ़ करती है। उसकी योजना से कहीं नाटक की अंतर्वस्तु का विस्तार किया गया है, कहीं अंतर्वस्तु और बाह्यवस्तु को जोड़ने का प्रयास दिखाई पड़ता है। कहीं उनसे नाट्य-व्यापार की दिशा निर्धारित होती है, तो कहीं पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ उद्घाटित की गई हैं। किंतु यह भी प्रकट है कि गीतों से नाटक के अभिनयात्मक व्यापार में शिथिलता आती है। कभी-कभी तो नाट्य-व्यापार इतना स्थिर हो जाता है कि दर्शक के लिए ऊबने की संभावना पैदा हो जाती है।

समग्रतः अभिनय की दृष्टि से स्कंदगुप्त की संरचना जटिल ही ज्ञात होती है। दृश्यों और पात्रों की इतनी अधिकता है, कि रंगमंच की सीमा में वे सिमट नहीं पाते। पात्रों के कितने ही रूप एक साथ सामने आते हैं जिससे उनका समुचित रूप से समूहीकरण असंभव दिखलाई पड़ता है। ऐतिहासिक पात्र, काल्पनिक पात्र, नागरिक पात्र, सैन्य दल, धर्माचार्य आदि और उनके क्रिया-कलाप के वैविध्य को समूहीकरण में व्यवस्थित करना सुलभ नहीं है। रंगमंच की कई भूमियों पर क्रिया व्यापार को संयोजित करके भी संवेदना का अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी समस्या तो भाषा और संवादों की है। अभिनेता के लिए अभिनय के साथ उसे व्यक्त करना भी कठिन है और उसकी अर्थमूलक सूक्ष्म व्यंजनाओं एवं दार्शनिकता का दर्शक द्वारा ग्रहण दोनों ही कठिन हैं। नाटक की सार्थकता दर्शक द्वारा नाट्यार्थ और नाट्यगत संवेदनाओं की ग्राह्यता में है। दर्शक की ग्राह्यता की दृष्टि से स्कंदगुप्त एक दुरूह नाटक है। अतः अभिनय की प्रयोजनीयता ही सिद्ध न हो तो नाटक को अभिनेय नहीं माना जा सकता है।

सारांश

जयशंकर प्रसाद के नाटक स्कंदगुप्त से संबंधित इस इकाई में आपने नाटक की रंगमंचीय संभावनाओं का अध्ययन किया है। प्रसाद के उक्त नाटक को रंगमंच पर खेले जाने की दृष्टि से विचार करने पर हमारे सामने कई ऐसी बातें उभरकर आती हैं जिनका विवेचन करने से हम इसकी चुनौतियों को समझ सकते हैं। स्कंदगुप्त पांच अंकों में विभाजित पूर्ण नाटक है। प्रत्येक अंक में प्रायः छह या सात दृश्य हैं। इस प्रकार कुल तैंतीस दृश्य हैं। किसी नाटक में तैंतीस बार दृश्यों के बदलने से उसकी प्रभावान्विति में बाधा उत्पन्न होती हैं दृश्य परिवर्तन के साथ स्थान और स्थिति में भी भारी फेरबदल होता है। उदहारण के लिए प्रथम अंक का पहला दृश्य उज्जयिनी में गुप्त साम्राज्य के स्कंधवार में घटित होता है और दूसरा दृश्य कुसुमपुर के राजमंदिर में जबकि तीसरा दृश्य रास्ते का है और चौथा दृश्य अनंतदेवी के प्रकोष्ठ में। ऐसे में यह कैसे संभव है कि मंच पर तेजी से दृश्य परिवर्तन के अनुसार रंगसज्जा में परिवर्तन किया जा सके।

प्रसाद के नाटक स्कंदगुप्त में दृश्यों में क्रिया व्यापार की एकता का भी अभाव दिखाई देता है। किसी दृश्य में घटनाएं तेजी से घटती हैं, किसी में शिथिलता आ जाती है। संवादों की भाषा भी रंगमंच के अनुरूप नहीं है। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली, लंबे और दुरूहवाक्य के कारण संवादों की दर्शकों तक संप्रेषणीयता सहज नहीं रहती। यद्यपि संवाद में नाटकीयता, अलंकारिकता, बिंबात्मकता और प्रतीकात्मकता होने की वजह से नाटक में काव्योचित गुण आ गए हैं, लेकिन इससे नाटक की रंगमंचीय संभावना को क्षति पहुँची है।

प्रसाद के नाटक स्कंदगुप्त में अभिनेयता की दृष्टि से कई कठिनाइयां उपस्थित होती है। बार बार दृश्य परिवर्तन, ऐसी घटनाओं और व्यापारों का उल्लेख जिन्हें रंगमंच पर दिखाना लगभग असंभव है और यदि उन्हें सांकेतिक रूप में दिखाते हैं तो अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ता। चरित्रों की अधिक संख्या भी नाटक की अभिनेयता की सीमा को प्रदर्शित करती है। इन सीमाओं के बावजूद नाटक के चरित्र प्रभावशाली हैं, उनका विकास मनोवैज्ञानिक यथार्थ के अनुरूप हुआ है और चरित्रों के अतर्बाह्य द्वंद्वों को अभिव्यक्त करने में भी नाटककार पर्याप्त सफल कहा जा सकता है।

प्रसाद के नाटकों की एक प्रमुख विशेषता है, उसमें गीतों की रचना। स्कंदगुप्त में सभी अंकों में गीतों के लिए प्रसाद जी ने अवकाश निकाल लिया है। प्रसाद ने इस नाटक में कुल 15 गीत शामिल किए हैं जो विभिन्न स्थितियों, मनःस्थितियों और भावनाओं को व्यक्त करते हैं। इन गीतों का दृश्यों में संयोजन सदैव प्रभावशाली नहीं बन पाया है। वे कई बार नाटक के सहज प्रवाह और नाटकीयता को बाधित करते हैं। इस दृष्टि से प्रसाद के गीत नाटक की रंगमंचीयता को बाधित ही करते हैं।

इस इकाई के अध्ययन से आपको रंगमंच की दृष्टि से ‘स्कंदगुप्त’ नाटक की विशेषताओं को समझने मदद मिलेगी।

अभ्यास

  1. पारसी रंगमंच के कटु आलोचक होते हुए भी स्कंदगुप्त की रंगमंचीय योजना पर उसका प्रभाव है।’ क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
  2. अभिनेयता की दृष्टि से स्कंदगुप्त की भाषा और संवाद का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  3. स्कंदगुप्त नाटक की गीत योजना की सार्थकता पर प्रकाश डालते हुए, उनकी विशेषताएँ बताइए।

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