मुक्तिबोध का जीवन-दर्शन और उनकी काव्य दृष्टि

इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप :

  • गजानन माधव मुक्तिबोध के जीवन-दर्शन और काव्य दृष्टि से परिचित हो सकेंगे,
  • कला की स्वायत्तता, कलात्मक अनुभूति और जीवनानुभूति का क्या संबंध होता है, यह जान सकेंगे,
  • साहित्य में पक्षधरता के क्या मानी हैं और साहित्य और राजनीति के संदर्भ में पक्षधरता क्या है – इससे परिचित हो सकेंगे,
  • सभ्यता-समीक्षा का किसी कलाकार और उसकी रचना के संदर्भ में क्या अर्थ और मूल्य है – यह जान सकेंगे,
  • काव्य की रचना-प्रक्रिया के सामान्य संदर्भ के परिप्रेक्ष्य में मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया का विश्लेषण कर सकेंगे।

मुक्तिबोध प्रगतिशील कविता के प्रमुख कवियों में से एक हैं। अन्य प्रगतिशील कवियों से आधारभूत वैचारिक समानता के बावजूद मुक्तिबोध का काव्य भिन्न और अपनी वैयक्तिक विशिष्टता लिए हुए है। जीवन और साहित्य और कला संबंधी प्रश्नों पर मुक्तिबोध ने स्वतंत्र रूप से चिंतन मनन कर जो विचार अभिव्यक्त किए हैं और जो काव्य रचना की है उसे समझने के लिए इस पाठ्यक्रम में मुक्तिबोध पर केंद्रित इस इकाई में हम मुक्तिबोध की जीवन-प्रक्रिया और रचना प्रक्रिया के संदर्भ में मुक्तिबोध के जीवन दर्शन और काव्य दृष्टि पर विश्लेषणात्मक रूप से विचार करेंगे।

मुक्तिबोध कवि कर्म को शुद्ध कवि कर्म नहीं मानते अपितु उसे गहरे सामाजिक सरोकारों से जोड़ कर देखते हैं। यह भी एक कारण रहा है कि गहरे सामाजिक सरोकारों की काव्य अभिव्यक्ति को सफल बनाने के लिए जिस काव्य पद्धति को उन्होंने ‘चुना, निर्माण किया — उसकी दुरूहता को लेकर उनकी जीवन-दृष्टि और काव्य-दृष्टि के बारे में काफी विवादास्पद स्थिति पैदा होती रही। उन्हें विश्लेषित करने के क्रम में उन्हें मार्क्सवादी, अस्तित्ववादी, रहस्यवादी, भाववादी, यथार्थवादी आदि परस्पर विरोधी मान्यताओं से युक्त अंतर्विरोधों का कवि भी सिद्ध किया गया। किंतु बाद में यह निर्विवाद रूप से साबित हो गया कि मुक्तिबोध एक प्रतिबद्ध और अपने समय से जूझते जागरूक कवि हैं। इस इकाई में उनकी जीवन-दृष्टि और काव्य दृष्टि के विभिन्न पहलुओं के विश्लेषण के अध्ययन से यह बात आप स्वयं महसूस करेंगे। जीवन जगत के बारे में, समाज के बारे में, साहित्य और कला के बारे में एक कवि की जो दृष्टि और विचार होते हैं, मौटे तौर पर उन्हें ही हम कवि की जीवन-दृष्टि और काव्य-दृष्टि कहते हैं। और यह दृष्टि जीवनानुभवों, जीवनानुभूतियों के घात-प्रतिघात से विकसित होती और रूपाकार धारण करती है। इस इकाई में आप मुक्तिबोध की जीवन-दृष्टि और काव्य-दृष्टि के बारे में अध्ययन करते हुए, साहित्य कला और जीवन के उन प्रश्नों से भी साक्षात्कार करेंगे, जिनसे जूझते हुए और जिनका समाधान खोजते हुए मुक्तिबोध की जीवन-दृष्टि का व्यापक रूप से विकास हुआ। कला की स्वायत्तता और कलात्मक अनुभूति तथा जीवनानुभूति के संबंधों की जाँच-पड़ताल, पक्षधरता का प्रश्न, सभ्यता-समीक्षा का प्रश्न या काव्य की रचना-प्रक्रिया का संबंध ऐसे ही कुछ प्रश्न हैं, जिनका मुक्तिबोध के हवाले से विस्तारपूर्वक विश्लेषण करना अपेक्षित है।

तो आइए, हम अध्ययन की शुरुआत करें।

मुक्तिबोध : जीवन दर्शन और काव्य दृष्टि

सामान्य परिवार के साथ एक सर्वसामान्य, अभाव-ग्रस्त ज़िंदगी बसर करते हुए मुक्तिबोध ने अपने जीवन दर्शन का निर्माण किया था। बावजूद इसके कि उन पर मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव था और उसके प्रकाश में उन्होंने अपने जीवनानुभवों को संशोधित संपादित किया था, जीवन दर्शन के संबंध में उनकी स्पष्ट मान्यता रही है कि “किसी-न-किसी रूप में हमारे पास व्यापक जीवन दर्शन आवश्यक है। इसमें अगर कुछ भी न हो तब भी वे बुनियादी बातें तो हों, जिन्हें साधारण जन अपने हृदय में अनुभव करते हैं, जैसे अन्याय का प्रतिकार मानव सभ्यता की स्थापना के प्रयत्न, विकृत स्वार्थवाद और भ्रष्टाचार का विरोध, समझौतापरस्ती के खिलाफ लड़ाई और साधारण भारतीय जनमत के प्रति भक्ति और अनुराग (क्या ये बातें किसी व्यापक जीवन दर्शन में नहीं आ सकतीं। क्या जीवन दर्शन के लिए हमें पश्चिमी सूक्ष्मताओं की पच्चीकारियों तक जाना होगा।”

इसी प्रकार तत्कालीन परिस्थितियों में, नयी कविता के व्यक्तिवादी दौर में भी कविता के बारे में उन्होंने एक विशिष्ट धारणा बना रखी थी। कविता को जीवन की अत्यंत मानवीय सृष्टि मानते हुए मुक्तिबोध ने एक विशिष्ट कथन प्रणाली का विकास किया था। जीवन और कविता का अत्यंत विशुद्ध और विस्तृत खुलासा उन्होंने अपनी “चकमक की चिनगारियाँ’ शीर्षक कविता में इस प्रकार प्रस्तुत किया है :

“कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में

सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएँ

गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से

कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और

उत्तर और भी छलमय

समस्या एक –

मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में

सभी मानव सुखी सुन्दर व शोषण मुक्त कब होंगे?”

अधूरी और सतही ज़िंदगी के गर्म रास्तों (चकमक की चिनगारियाँ) पर चलते हुए मुक्तिबोध ने आत्मसंघर्ष और आत्म साक्षात्कार के माध्यम से इस “एक” मूल समस्या का संधान किया है – सब की शोषण से मुक्तता, सबके लिए समान सुख-सुविधा के विधान की समस्या का संधान। समस्त मानव चिन्तन, धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान इस “एक” समस्या से उलझा है और इसकी चुनौती को स्वीकार करते हुए अलग-अलग ढंग से इसके समाधान का मार्ग भी प्रस्तुत किया गया है। लेकिन मुक्तिबोध ने एक मार्क्सवादी चिन्तन के रूप में इस समस्या को “प्रशोषण सभ्यता की दुष्टता’ के समक्ष रखकर देखा है और एकमात्र समाधान वर्ग संघर्ष पर आधारित जन क्रांति में खोजा है। “चकमक की चिंगारि याँ’ कविता में कई स्थलों पर उन्होंने इसका संकेत भी किया है। अपनी ‘अन्तःकरण का आयतन” शीर्षक कविता में भी उन्होंने दो टूक ढंग से इस तथ्य को प्रस्तुत किया है :

“सुकोमल काल्पनिक तल पर

नहीं है द्वन्द्व का उत्तर

तुम्हारी स्वप्र वीथी कर सकेगी क्या?

बिना संहार के, सर्जन असंभव है,

समन्वय झूठ है,

सब सूर्य फूटेंगे

वा उनके केंद्र टूटेंगे

व मेरे कारणों से सकुच जाती है

कि मैं अपनी अधूरी बीड़ियाँ सुलगा

खयाली सीढ़ियाँ चढ़ कर

पहुंचता हूँ

निखरते चाँद के तल पर,

अचानक विकल होकर तब मुझी से लिपट जाती है।” 

स्पष्ट है कि मुक्तिबोध के अनुसार कविता “आवेगत्वरित’ (आवेशात्मक) होते हुए भी, “काल-यात्री’ (निरंतर गतिशील प्रक्रिया) है। स्वयं कवि उसका कर्ता, पिता या पोषक नहीं होता। उसे कवि की मानस पुत्री भी नहीं माना जा सकता। (यहाँ यह बात ध्यान में रखने की है कि जब हरिऔध जी से “प्रिय प्रवास” की कुछ पंक्तियों का आशय स्पष्ट करने के लिए कहा गया था तो उन्होंने इससे इंकार करते हुए कहा था कि प्रिय प्रवास मेरी पुत्री है, उसके सौंदर्य का पान दूसरे कर सकते हैं, मैं नहीं। मुक्तिबोध ने यहाँ इस मान्यता को अस्वीकार किया है) वास्तव में अपनी स्वाधीन प्रकृति और ज्ञान सम्पन्नता के कारण कविता वर्तमान के साथ ही भविष्य के लिए भी प्रचुर संकेत लिए होती है। अपनी इस प्रकृति के कारण वह व्यक्ति चरित्री न होकर जन चरित्री होती है। इसीलिए वह व्यक्ति की सम्पदा न होकर जन सम्पदा बन जाती है। नये अध्याय-प्रकरण के रूप में उसमें कलाकार के नए अनुभव और संवेदन भी जुड़ते चलते हैं। लेकिन ये सब सामान्यीकृत होने के बाद, सब के बनने के बाद ही कविता के विषय बन पाते हैं। और यदि ये संवेदन, अनुभव नितांत वैयक्तिक ही रह जाएँ, आवेशात्मक क्षण के घेरे में बंधे रहें तो कलाकृति का क्षेत्र अत्यंत संकुचित रह जाता है, व्यक्तिवादी रह जाता है। इसे मुक्तिबोध ने “तुम्हारे कारणों से जगमगाती है। व मेरे कारणों से सकुचा जाती है” – कह कर स्पष्ट किया है। निखरते चाँद के तल पर पहुँचना, वस्तुत: “स्व” की घेरेबंदी को तोड़ कर निर्वैयक्तिकता की स्थिति को प्राप्त करना है। मुक्तिबोध के यहाँ निर्वैयक्तिकता अज्ञेय की तरह पूर्ण तटस्थता की स्थिति न होकर परम तल्लीनता की स्थिति है आत्मपक्ष से तटस्थता और परपक्ष से परम तल्लीनता की स्थिति। इसे मुक्तिबोध की काव्य की रचना-प्रक्रिया के संदर्भ में विस्तार से स्पष्ट किया जाएगा।

उपर्युक्त विवेचन-विश्लेषण द्वारा अत्यंत संक्षेप में हमने मुक्तिबोध के जीवन-दर्शन और उनकी कलादृष्टि को रेखांकित किया है। आपने देखा होगा कि इस क्रम में मुक्तिबोध के जीवन के बाहरी विवरणों से अधिकांशत: बचते हुए हमने उनकी समीक्षात्मक कृतियों और कविताओं के आधार पर ही उनके व्यक्तित्व और काव्य-दर्शन पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। इस संबंध में यह बात रेखांकित करने योग्य है कि यद्यपि वे प्रखर मार्क्सवादी चिंतक अवश्य थे, लेकिन अपने आत्मानुभवों की कसौटी पर कस कर उन्होंने मार्क्सवादी चिंतन की उपलब्धियों को अपनी अंतरात्मा का अंग बना लिया था। केवल एक कविता – “चकमक की चिनगारियाँ” के मात्र तीन उद्धरणों से मुक्तिबोध के सामाजिक सरोकार, जनोन्मुख चिंतन, काव्य-दृष्टि आदि की विशेषताएँ आपके सम्मुख रखी गई हैं। इसमें केवल मुक्तिबोध को समझने का ही नही वरन् “चकमक की चिनगारियाँ” कविता के समुचित मूल्यांकन का भी प्रयास किया गया है।

कला की स्वायत्तता और कलात्मक अनुभूति तथा जीवनानुभूति का संबध

कला की पूर्ण स्वायत्तता (आटोनामी) की स्थापना के लिए जब हिंदी के नए कवि-समीक्षकों ने कलात्मक अनुभूति और जीवनानुभूति के अलगाव या भिन्नता की मान्यता को प्रचारित-प्रसारित किया तो मुक्तिबोध को इस मान्यता के पीछे एक गहरा षडयंत्र दिखाई दिया था। उन्हें लगा था कि इस विलगाव के पीछे कलाकार को अपने व्यक्तित्व से ही नहीं वरन् समाज से भी पूरी तरह काटने की एक गहरी साजिश रची जा रही है। कलावादियों ने कला की निरपेक्ष स्वायत्तता को स्थापित करने के लिए यहाँ तक कह डाला कि कवि-कलाकार जब तक कलाकार की हैसियत से रचना कर रहा है, तब तक न वह पुत्र है न पिता, न पति है, न पत्नी, न सरकारी कर्मचारी है, न सामाजिक कार्यकर्ता। तब तक वह केवल कवि है। उसे एक विशेष क्षण में जो अनुभूति पैदा हुई है, उसमें बंध कर ही उसे रचना करनी चाहिए। उस विशिष्ट अनुभूति के क्षण से बाहर जाना या अन्य अनुभवों को उससे जोड़ना न केवल कला की स्वायत्तता को भंग करना है, वरन् अपंनी सर्जनात्मक ईमानदारी को भी खंडित करना है। इस विचार-प्रक्रिया में ही कलावादियों ने जीवनानुभव और सौंदर्यनुभूति या कलात्मक अनुभूति को

मैं गया भूख के घर द प्यास के आंगन में”

वस्तुत: इस कविता में “नत होकर उन्नत होने की जो बेचैनी है, उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति अत्यंत उत्कर्ष पर पहुंची हुई है।

इस प्रकार मुक्तिबोध ने कला के प्रश्नों को जीवन के प्रश्नों के साथ जोड़ने का सफल प्रयास किया। अन्य प्रगतिशील कवियों ने भी कविता को जीवन के साथ जोड़ कर देखा है, लेकिन उसकी सापेक्ष स्वायत्तता की सीमा का अतिक्रमण कर वे अधिक सपाट बन गए हैं। नयी कविता के अधिकांश कवि दुख, निराशा, हताशा, संत्रास आदि मनोदशाओं को शाश्वत और अपरिहार्य मानकर चले हैं। अपनी इस प्रवृत्ति को उन्होंने कला की पूर्ण स्वायत्तता और सौंदर्यानुभूति तथा जीवनानुभूति की विलगता के सिद्धांत द्वारा ढांकने की कोशिश की है। लेकिन मुक्तिबोध ने इन्हें यथार्थ और वास्तविक मानते हुए भी इनका निदान या समाधान प्रस्तुत करते हुए एक आशावादी परिप्रेक्ष्य अपनाया है। इसलिए वे अस्तित्ववाद की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए एक प्रगतिकामी कलाकार की भूमिका अदा करते हैं।

“कला की स्वायत्तता और कलात्मक अनुभूति तथा जीवनानुभूति का संबंध” वस्तुत: नयी कविता के मंच से उछाले गए ये दोनों ऐसे कला-सिद्धांत हैं, जिनके माध्यम से कविता को मानव जीवन के व्यापक संदर्भो से पूरी तरह काट देने का षडयंत्र किया गया था। मुक्तिबोध ने इन दोनों सिद्धांतों की

रहकर न अस्तित्व में आ सकती है और न ही जीवंत हो सकती है। कला की स्वायत्तता के संदर्भ में हमने इस तथ्य को विशेष रूप से रेखांकित किया है कि कवि-व्यक्तित्व सामाजिक होता है और कला यदि व्यक्तित्व के साथ जुड़ी है तो उसकी स्वायत्तता भी समाज सापेक्ष ही होगी। अपनी वास्तविक प्राण शक्ति के लिए उसे समाज पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। जहाँ तक सौंदर्यानुभूति और जीवनानुभूति के विलगाव या अलगाव का प्रश्न है, इसका खंडन करते हुए मुक्तिबोध ने विस्तार के साथ यह स्थापित किया है कि सौंदयानुभूति जीवनानुभूति का ही एक गुणात्मक रीति से परिवर्तित रूप है। वह वास्तविक जीवन की मनुष्यता है। सौंदर्यानुभूति को जब निर्वैयक्तिता की स्थिति बताते हुए उसे तटस्थता के साथ जोड़ा गया तो मुक्तिबोध ने उसे परम तल्लीनता का एक आवश्यक सोपान माना। निर्वैयक्तिकता की स्थिति अपने से परे जाने, आत्मबद्धता के दायरे को तोड़ने की स्थिति है, जिसमें मनुष्य मन अपने आपसे उदास होकर दूसरों के साथ विलीन होने लगता है। अत: निर्वैयक्तिकता आत्म संकोच नहीं, आत्म-विस्तार की स्थिति है। अत: इसमें उत्पन्न सौंदर्यानुभूति भी आत्म-विस्तार की ही स्थिति है।

पक्षधरता : साहित्य और राजनीति के संदर्भ में

प्रगतिशील साहित्यान्दोलन के आरंभ से लेकर साहित्य में कलाकार की पक्षधरता का प्रश्न अब तक एक ज्वलंत प्रश्न बना हुआ है। कला को व्यक्तिगत कार्य घोषित करते हुए जब नयी कविता के मंच से कविता के सामाजिक दायित्व से इनकार किया गया तो मुक्तिबोध को इसका विरोध करना आवश्यक लगा। अपने कला चिंतन के साथ ही उन्होंने कविताओं में भी अपनी पक्षधरता को घोषित किया है :

“धरती के विकासी द्वन्द्व क्रम में एक मेरा छटपटाता वक्ष।

स्नेहाश्लेष या संगर कहीं भी हो

कि धरती के विकासी द्वन्द-क्रम में एक मेरा पक्ष

मेरा पक्ष, नि:संदेह।।’

(अन्त:करण का आयतन)

अपने संपूर्ण मनन-चिंतन और आग्रह-अनुरोधों की दृष्टि से मुक्तिबोध: एक प्रतिबद्ध और पक्षधर कलाकार-चिंतक के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी वास्तविक प्रतिबद्धता शोषित उत्पीडित विश्व जनता के उद्धार के महान लक्ष्य से जुड़कर एक अत्यंत व्यापक आधार ग्रहण करती है। इस संबंध में उनका स्पष्ट आग्रह रहा है :

मेरे मित्र ‘

कुहरिल गत युगों के अपरिभाषित ।

सिंधु में डूबी

परस्पर जो कि मानव पुण्य धारा है,

उसी के क्षुब्ध काले बादलों को साथ लायी हूँ

उड़ेगें खंड

बिखरेंगे गहन ब्रह्मांड में सर्वत्र

उनके नाश में तुम योग दो।’

दरअसल अपनी सहस्रों पीढ़ियों की यात्रा में मानव ने विश्व का जो रमणीयतम स्वप्न देखा था, वह समन्वय और कल्पना की तंग गलियों में भटक कर खो गया। संभवत: इसका मूल कारण है, जीवन और जगत के द्वंद्वात्मक रहस्य को ठीक से न समझ सकना। समाज की ऐतिहासिक विकास की यात्रा में इस द्वंद्व का उत्तर अधिकांशत: समन्वय और कल्पना के द्वारा ही प्रस्तुत किया गया है। निर्माण के पूर्व ध्वंस के वास्तविक सौंदर्य पर केवल द्वंद्वात्मक भौतिकवादियों की ही दृष्टि गई है। “बिना संहार के सर्जन असंभव है – उसके नाश में तुम योग दो” कहकर मुक्तिबोध अपनी एक निश्चित दृष्टि का परिचय देने के साथ ही एक सही कार्य दिशा का संकेत भी करते हैं। उन्होंने इस निश्चित दृष्टि और दिशा को मार्क्सवादी चिंतन मात्र से न प्राप्त कर अपने जीवनानुभवों से भी पुष्ट किया था। आत्म-शोध और आत्मालोचन की प्रवृत्ति मुक्तिबोध में अन्य कवियों की अपेक्षा अधिक दिखाई देती है। इस संबंध में “चकमक की चिनगारियाँ’ कविता का दूसरा उदाहरण है :

“कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में

उमग कर जन्म लेना चाहता फिर से

कि व्यक्तित्वांतरित होकर

नये सिरे से समझना और जीना

चाहता हूँ सच।”

“सत्य को नये सिरे से समझने के लिए उसे स्वयं जीने की भी आकांक्षा होनी चाहिए अन्यथा सत्य या यथार्थ से वास्तविक साक्षात्कार असंभव है। इस कार्य के लिए व्यक्तित्व में लगातार परिवर्तन और संशोधन करते रहने की ज़रूरत है, अपने आपको बदलते रहने की ज़रूरत है। क्योंकि सत्य या यथार्थ निरंतर गतिशील रहते हैं। भौतिक-सामाजिक स्थिति में परिवर्तन के साथ वह निरंतर बदलता रहता है। इस परिवर्तन के साथ बने रहने के लिए एक अत्यन्त सरल मार्ग का उल्लेख करते हुए मुक्तिबोध ने अपनी “एक साहित्यिक की डायरी में लिखा है, “हमें अपने को एक विद्यार्थी मानकर चलना चाहिए – कालेज या विश्वविद्यालय का नहीं, बल्कि प्रायमरी पाठशाला का, जिसके हाथ में स्लेट-पट्टी होनी चाहिए, जिस पर लगातार लिखना, फिर मिटाना, फिर लिखना यह प्रक्रिया जीवनपर्यन्त चलती रहनी चाहिए। तभी हम अपने युग के वास्तविक सत्य को पकड़ पाएंगे।” इस मान्यता को ध्यान में रख कर ही उन्होंने स्वीकार किया है कि परिवर्तनशील यथार्थ को व्यक्त करने वाली कविता कभी पूरी नहीं हो सकती। क्योंकि वह जिस छोर पर जाकर समाप्त होती है, यथार्थ उसके आगे बढ़ जाता है।

इस दृष्टि से देखें तो मुक्तिबोध की अधिकांश कविताएँ अधूरी प्रतीत होती हैं – पाठक और कवि दोनों की दृष्टि से। एक विशेष कविता के संदर्भ में उन्होंने “एक साहित्यिक की डायरी’ में लिखा है, ”इधर वह कविता मेरा पिंड नहीं छोड़ रही थी। अगर वह कविता भावावेशपूर्ण होती तो एक बार उसकी आवेशात्मक अभिव्यक्ति हो जाने पर मेरी छुट्टी हो जाती। लेकिन वैसा हो सकना असंभव है। क्योंकि भावावेश किसी बात को लेकर होता है और वह बात किसी दूसरी बात से जुड़ी होती है और दूसरी बात किसी तीसरी बात से। इसलिए कविता समाप्त करने की कला मुझे नहीं आती। मेरी अधिकांश कविताएँ लम्बी होने के बावजूद अधूरी हैं।” “चकमक की चिनगारियाँ’ कविता का अंतिम अंश उपर्युक्त तथ्य के साथ ही कविता के स्वरूप, उसकी प्रकृति, उसकी स्वाधीनता, कवि और समाज से उसके संबंध आदि के साथ ही मुक्तिबोध की काव्य दृष्टि को भी इस प्रकार उद्घाटित करता है :

“नहीं होती, कहीं भी कविता खतम नहीं होती

कि वह आवेगत्वरित काल यात्री है

व मैं उसका नहीं कर्ता

पिता-धाता

कि वह कभी दुहिता नहीं होती

परम स्वाधीन है, वह विश्व शास्त्री है

गहन गंभीर छाया आगमिष्यत की

लिए, वह जन चरित्री है

नये अनुभव व संवेदन

नये अध्याय प्रकरण जुड़

तुम्हारे कारणों से जगमगाती है

एक दूसरे से अलग सिद्ध करने का प्रयास किया। मुक्तिबोध ने इस मान्यता का अपने कला चिंतन के साथ ही काव्य-रचना में भी तीव्र विरोध किया है।

कला की स्वायत्तता (आटोनामी) के इस असामाजिक स्वरूप को ध्यान में रखकर मुक्तिबोध ने कला की स्वायत्तता पर पुनर्विचार-किया। इसके लिए उन्होंने सामाजिक सावयविकता (आर्गेनिज्म) के आधार पर सापेक्षता या परस्पर निर्भरता का प्रश्न सामाने रखा। जो वस्तु जीवन की, सामाजिक जीवन की अंग है, अर्थात् जो वस्तु ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया (प्रासेस) का अंग बन कर आती है, उसकी स्वायत्तता निरपेक्ष (ऐबसोल्यूट) नहीं हो सकती। इस तथ्य की पुष्टि के लिए मुक्तिबोध ने एक उदाहरण दिया है, “फूल के विकास और ह्रास के अपने नियम और कार्य हैं। किंतु फूल अपने अस्तित्व के लिए सारे वृक्ष पुर निर्भर है, मूल पर स्कन्ध पर, शाखा पर -यहाँ तक कि पत्तियों पर भी। फूल की अपनी (सापेक्ष) स्वतंत्रता है। किंतु उसका पृथक अस्तित्व अन्य-निर्भर है। यह निर्भरता उसके पृथक अस्तित्व के निर्वाह के लिए, उसके प्राण-पोषण के लिए अनिवार्य है।” (नयी कविता का आत्म संघर्ष तथा अन्य निबंध, प्र० 152) इस संबंध में मुक्तिबोध की मान्यता है कि जिस प्रकार फूल वृक्ष की मूल प्राण शक्ति से कट कर निर्जीव हो जाता है, ठीक उसी प्रकार कलाकार का व्यक्तित्व, जो कि सामाजिक है, उस से कट कर कविता निष्प्राण हो जाती है। अत: अपनी जीवन शक्ति के लिए, वैभव सम्पन्नता के लिए कला, कवि-जीवन सापेक्ष्य है, समाज सापेक्ष्य है। इस वास्तविकता को मुक्तिबोध ने अत्यंत संक्षेप में इस । प्रकार प्रस्तुत किया है, “कला का अपना स्वायत्त-स्वतंत्र राज्य है। किंतु उसकी यह स्वायत्तता और स्वतंत्रता सापेक्ष्य है। अपने अस्तित्व के लिए, अपने जीवन तत्वों के लिए, प्राण वैभव के लिए, कलाबाह्य यह जो अपार विस्तृत जीवन है, उस पर निर्भर है। 

इसके साथ ही मुक्तिबोध ने नए कवि समीक्षकों की सौंदर्यानुभूति और जीवनानुभूति की पृथकता की मान्यता पर भी पुनर्विचार किया है। दोनों के स्वरूप और प्रकृति में अंतर मानते हुए भी सौंदर्यानुभूति को जीवनानुभूति के ठोस आधार पर उन्होंने प्रतिष्ठित किया है। इस संबंध में उन्होंने लिखा है, “सौंदर्यानुभूति जीवनानुभवों के गुणात्मक रीति से परिवर्तित रूप का नाम है।  इन दोनों का सार रूप एक ही है। फिर भी दोनों में महान भेद है। इन दोनों के भेद को स्पष्ट करते हुए मुक्तिबोध ने सौंदर्यानुभूति के दो लक्षण बताए हैं –

  • आत्मबद्धता की दशा का परिहार और
  • आनन्दात्मक अनुभव।

सामान्य अनुभव या वास्तविक जीवनानुभूति की यह विशेषता नहीं होती। क्योंकि इसमें व्यक्ति अपने वैयक्तिक राग-द्वेष से बंधा होता है, आत्मबद्धता की स्थिति में रहता है। अत: सौंदर्यानुभूति की सबसे बड़ी विशेषता आत्म-बद्धता की स्थिति से मुक्ति है। सौंदर्यानुभूति की इस विशेषता पर प्रकाश डालते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है, “संक्षेप में सौंदर्यानुभूति की अधिकतमता और बारंबारता जिस व्यक्ति में अधिक होगी, वह अधिक मनुष्य होगा। अतएव सौंदर्यानुभूति वास्तविक जीवन की मनुष्यता है। अपने से परे उठने और परे जाने की मनुष्य-क्षमता से उसका पूरा और सीधा संबंध है।” 

मुक्तिबोध की यह स्पष्ट मान्यता रही है कि सौंदर्यानुभूति का क्षण अनिवार्य रूप से रचना का क्षण भी हो, यह आवश्यक नहीं है। चलते-फिरते, उठते-बैठते, काम करते हुए किसी भी समय वह उपस्थित हो सकता है, जो सिर्फ कलाकार की ही बपौती नहीं है। वह किसी में भी, किसी भी समय उपस्थित हो सकता है। और यह भी आवश्यक नहीं है कि उससे कविता, कहानी, चित्र आदि का ही निर्माण हो।’ अपितु इसी से प्रेरित होकर विश्व की महान विभूतियों ने विश्व-हित, राष्ट्रहित और जनहित के बड़े बड़े कार्य संपन्न किए हैं। महात्मा बुद्ध, ईसा मसीह, हज़रत मुहम्मद से लेकर आज तक ऐसी विभूतियों की एक श्रृंखला ही है। वस्तुत: सौंदर्यानुभूति परम सक्रियता की स्थिति है, निष्क्रियता या तटस्थता की नहीं। इसकी मूल विशेषता पर प्रकाश डालते हुए ए.एस.वास्केत्स ने लिखा है, “दि ऐस्थेटिका सेंसिबिलिटी इज़ बोथ ए स्पेसिफिक फार्म आफ ह्यूमन सेंसिबिलिटी ऐंड ए सुपीरियर फार्म आफ दिस ह्यूमन सेंसिबिलिटी, इज़ ऐज़ मच ऐज़ इट कंफर्स दि एसेंशियल ह्यूमन लेबर।” । अपने इस रूप में सौंदर्य-बोध संपूर्ण मानवीय विकास का फल है, मानवीय श्रम की सारभूत विशेषता है। इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है, “अपने से परे उठने, परे जाने की जो यह प्रवृत्ति है, उसकी एक विशेष शाखा है – सौंदर्यानुभूति। यह सौंदर्यानुभूति केवल कलाकार की विशेषता नहीं है, वरन् वह उन सबकी विशेषता है, जिन्हें हम मनुष्य कहते हैं। जिसकी सहायता के बिना वास्तविक जीवन सुकर तथा सुगम नहीं होगा, जिसके बिना हम दूसरों से घुल-मिल सकने के आनंद को सघन नहीं कर सकेंगे।”

मुक्तिबोध को सौंदर्यानुभूति के क्षण की अखंड सत्ता का खंडन इसलिए करना पड़ा क्योंकि उसके माध्यम से नए कवि-समीक्षकों ने कविता को कवि के समग्र व्यक्तित्व से, उसके सामाजिक-राजनीतिक अनुभवों से काटकर अलग करने का प्रयास किया था। वस्तुत: सौंदर्यानुभूति शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया में शुद्ध और अखंडित न रहकर अन्यान्य जीवनानुभवों से संशोधित-संपादित होती हुई पर्याप्त भिन्न रूप धारण कर लेती है। कवि-कलाकारों ने एक-एक कविता पर, एक-एक चित्र पर ज़ो महीनों और वर्षों तक का समय लगाया है, वह इस बात का प्रमाण है कि कला एक क्षणिक आवेग की अभिव्यक्ति मात्र नहीं होती। वह एक लम्बे मनन चिंतन का परिणाम होती है। उसमें कवि-कलाकार के वैयक्तिक से लेकर सामाजिक अनुभव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाए रहते हैं। आखिर कोई कलाकृति युगान्तरकारी और महत्वपूर्ण क्यों होती है? क्या सौंदर्यानुभूति की विशिष्टता, उसकी अखंडता या उसकी अपनी स्वायत्तता के कारण? इसका स्पष्ट उत्तर है, नहीं। कोई भी कलाकृति मूल्यवान या महत्वपूर्ण इसलिए होती है कि उसमें संवेदन-क्षमता होती है, जीवनगत तथ्यों की संवेदन-क्षमता, जीवनगत मूल्यों की संवेदन-क्षमता और सबसे बढ़कर जीवनगत लक्ष्यादर्शों के अनुरोधों की संवेदन-क्षमता।

यहाँ आपके सामने कला की स्वायत्तता और सौंदर्यानुभूति तथा जीवनानुभूति के संबंध पर मुक्तिबोध की मान्यताओं को प्रस्तुत करने का एक उद्देश्य उनकी कविताओं को सही ढंग से समझने के लिए भूमि तैयार करना भी है। मुक्तिबोध की कविताओं में जीवन के प्रश्नों के साथ ही उनके समाधान की भी कलात्मक अभिव्यक्ति हुई है। अत: उनकी कविताओं की मूल विशेषता को समझने के लिए उनके कला चिंतन को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। अपनी बदहाली से चोट खाकर वे शोषण-उत्पीड़न और दुख का केवल चित्रण करके नहीं रह जाते। उसकी कारक शक्तियों का विवेचन-विश्लेषण करते हुए उसके समाधान का मार्ग भी प्रस्तुत करते हैं। वे प्रश्न करते हैं – “सभी मानव सुखी, सुंदर व शोषण मुक्त कब होंगे। (चकमक की चिनगारियाँ) इसे जिज्ञासा का रूप देते हुए उन्होंने लिखा है :

“क्यों मानव के

इस तुलसी वन में आग लगी

क्यों मारी-मारी फिरती है।

मन की गहरी सज्जनता

दुख के कीड़ों ने खायी क्यों –

ये जुही पत्तियाँ जीवन की”

(चाँद का मुंह टेढ़ा है)

इन प्रश्नों के उत्तर के लिए वे जीवन के प्रखर समर्थक की तरह उत्पीड़न की तह में जाते हैं। “जब प्रश्न चिह्न बौखला उठे’ शीर्षक कविता में इस बात को आसानी से समझा जा सकता है, जब वे कहते हैं :

“संघर्ष विचारों का लोहू।

पीड़ित विवेक की शिरा-शिरा

में उठा गिरा

मस्तिक तंतुओं में प्रदीप्त

‘वेदना यथार्थों की जागी

मेरे सुख-दुख ने, अकस्मात भावुकतावश

सुख-दुख के चरणों की

मन-ही-मन यों की पालागी।”

वस्तुत: यहाँ तक तो प्रसरणशील सहानुभूति की ही बात हुई, लेकिन आगे आत्म-विस्तार की यह स्थिति परिवार, ग्राम, पुर और उसके समूचे प्राकृतिक परिवेश में ‘रमते हुए राष्ट्र और विश्व मानवता के व्यापकतम छोरों का स्पर्श करती है। कवि केवल दुखी के प्रति सहानुभूति दिखा कर ही नहीं रह जाता। वह आगे कहता है :

“जब इसी गली के नुक्कड़ पर

मैंने देखी

वह फक्कड़ भूख, उदार प्यास

नि:स्वार्थ तृषा

जीने-मरने की तैयारी

बशते तय करो, किस ओर हो तुम, अब

सुनहले ऊर्ध्व आसन के

दबाते पक्ष में, अथवा

कहीं उससे लुटी टूटी

अंधेरी निम्न कक्षा में तुम्हारा मन,

कहाँ हो तुम? (चकमक की चिंगारियाँ)

मानवीय सामाजिक विकास के समूचे इतिहास में और वर्तमान युग में प्रमुख पक्ष दो ही रहे हैं। एक “सुनहले ऊर्ध्व आसन पर विराजमान शोषक-शासक वर्ग का पक्ष और दूसरा उसके बोझ से आक्रांत “अंधेरी निम्न कक्षा में” कराहता हुआ शोषित उत्पीडित बहुसंख्यक वर्ग का पक्ष। 1935 में विश्व स्तर पर प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ था और द्वितीय विश्व युद्ध के समय विश्व और सोवियत रूस के बहुत सारे कलाकर्मी युद्ध के मोर्चे पर गए थे। भारत की स्वातंत्रयोत्तरकालीन परिस्थितियों में मुक्तिबोध ने इस प्रश्न को अत्यंत मानवीय और नैतिक बनाकर प्रस्तुत किया है। इस प्रकार का प्रश्न प्रगतिशील लेखक संघ के माध्यम से हिंदी में पहले भी उठा था – “कस्मै देवाय हविषं विधेम” के रूप में। “हमें किस देवता की पूजा करनी चाहिए” के प्रश्न को प्रगति-विरोधी खेमे से उच्च एवं निम्न वर्ग की पक्षधरता का प्रश्न बनाते हुए “सबके लिए साहित्य-रचना” की बात कही गई थी। लेकिन मुक्तिबोध ने इसे शोषक-शोषित, उत्पीड़क-उत्पीडित वर्ग का प्रश्न बना कर रखा है। वस्तुत: यहाँ एक नैतिक अनुरोध व्यक्त हुआ है, जो सामाजिक विकास की “मानव पुण्यधारा’‘ का प्रश्न है, बहुसंख्यक मानव समाज के शोषण से मुक्ति का प्रश्न है। यह वह मानव समाज है, जिसके विषय में भाव-विहृल होकर मुक्तिबोध ने लिखा है :

“जिनके स्वभाव के गंगाजल ने,

युगों-युगों को तारा है,

जिनके कारण यह हिंदुस्तान हमारा है

कल्याण-व्यथाओं में घुलकर

जिनके लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया

पार लगाई है

जिनके कि पूत-पावन चरणों में

हुलसे मन – किए निछावर जा सकते

सौ-सौ जीवन”

(जब प्रश्न चिह्न बौखला उठे)

साधारण जनता के प्रति मुक्तिबोध की यह कल्पनाशील और बोधयुक्त सहानुभूति उनके लिए “हृदय दान की बेला” बनकर आती है। उनके लिए यही वास्तविक सौंदर्यानुभूति का क्षण है, जिसे वे मनुष्यता की निशानी मानते हैं। इस मानव रूप की प्राप्ति के लिए वे औरों से भी निवेदन करते हैं :

“अरे कब तक रहोगे आप अपनी ओट

कहाँ मिल पाओगे उनसे

कि जिनमें जनम ले निकले

तुम्हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी

कि तद्गत लक्ष्य में से ही हृदय के नेत्र जागेंगे,

व जीवन लक्ष्य उनके प्राप्त

करने की क्रिया में से ।

विकसते जाएँगे निजके

तुम्हारे गुण

कि अपनी मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते” (चकमक की चिंगारियाँ)

यहाँ स्वयं अपने से ही नहीं वरन् समस्त शिक्षित मध्यवर्गीय जनता से मुक्तिबोध का अनुरोध व्यक्त हुआ है। उन्होंने आत्ममुक्ति के लिए जनमुक्ति को आवश्यक मानने के साथ ही आत्मविकास के लिए जन जीवन के विकास को पहली शर्त माना है। शोषित-उत्पीडित जनजीवन के लक्ष्यादर्शों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले कर्म से मनुष्यता के गुण विकसित होते हैं। अत: अपनी मुक्ति का एक मात्र रास्ता है, जनमुक्ति। वस्तुत: इस प्रकार की गंभीर चिंता मुक्तिबोध के अंदर तत्कालीन भारतीय राजनीतिकसाहित्यिक परिस्थिति के कारण आयी है। 1950 के बाद के दशक में नयी कविता के मंच से इस बात को विशेष रूप से उठाया गया कि कवि-कलाकार सौंदर्य का उपासक होता है। सुंदर-सुंदर कृतियों का निर्माण करना ही उसका धर्म है। उसे तटस्थता की स्थिति में रहना चाहिए। किसी विशेष समुदाय का पक्षधर या विरोधी नहीं होना चाहिए। कलाकर्म व्यक्तिगत कार्य है – उसे सामाजिक परिवर्तन का हथियार नहीं समझना चाहिए। यह कार्य नितांत अकेले में नि:संगता की स्थिति में होता है। इन सभी चुनौतियों को मुक्तिबोध ने ध्यान में रखकर कलाकर्म और उसकी पक्षधरता की पुनर्व्याख्या करते हुए उसे अंतरात्मा की पक्षधरता के साथ जोड़ा है, “पक्षधरता का प्रश्न हमारी आत्मा का, हमारी अंतरात्मा का प्रश्न है। मैं उस आत्मा का, उस अंतरात्मा का पक्षधर हूँ। और चूँकि मेरी अंतरात्मा की हलचल और बेचैनी आपकी अंतरात्मा की हलचल और बेचैनी से मिलती-जुलती है इसलिए जहाँ तक अंतरात्मा का प्रश्न है, मैं आपका भी पक्षधर हूँ और आप मेरे भी पक्षधर हैं। और चूंकि हम आप जैसे अंतरात्मा वाले बहुत से लोग इस संसार में हैं, इसलिए हम सब उन सबके और वे हम सब के पक्षधर हैं।

संक्षेप में हम सब एक प्रवृत्ति हैं, एक धारा हैं – भावधारा, विचारधारा, जीवनधारा – और हम बिना इस पक्षधरता के, अपने-आप को अपूर्ण, मूल्यहीन और निरर्थक पाते हैं।”  मुक्तिबोध की यह पक्की धारणा रही है कि आज के जमाने में प्रत्येक व्यक्ति जानेअनजाने एक शिविर बन गया है, तमाम अपने जैसे लोगों के साथ। इस प्रकार एक संघर्ष चला हुआ है – व्यक्ति और व्यक्ति के नहीं – दो विरोधी शिविरों, दो विरोधी वर्गों का। यह संघर्ष वर्तमान युग की कठोर वास्तविकता है, शोषक और शोषित अथवा पूंजीवाद और समाजवाद के रूप में। इससे जो इनकार करता है, वह या तो धोखे में है या दूसरों को धोखा देना चाहता है। साहित्य और कला के क्षेत्र में भी यह वास्तविकता समान रूप से दिखायी देती है। हिंदी के प्रगतिवाद और नयी कविता के संघर्ष को मुक्तिबोध ने इसी रूप में देखा है, जिसके मूल में दो विरोधी सामाजिक हित, दो विरोधी रुखरुझान निहित थे। 

वस्तुत: नयी कविता के मंच से राजनीतिक-सामाजिक पक्षधरता के विरोध के लिए कला की स्वायत्तता और सौंदर्यानुभूति तथा जीवनानुभूति की पृथकता का सिद्धांत लाया गया था। इनके माध्यम से कविता को राजनीति के खुरदरे प्रभाव से बचाकर उसके स्वतंत्र विकास का बहाना बनाया गया। पक्षधरता और प्रतिबद्धता को वामपंथी राजनीति से जोड़कर प्रगतिशील कविता को साहित्य के क्षेत्र से खदेड़ने का प्रयास मुक्तिबोध को एक षडयंत्र की तरह लगा। फलस्वरूप उन्होंने राजनीति और कविता या कला के संबंध पर पुनर्विचार किया। “ध्यान में रखने की बात है कि एक कला-सिद्धांत के पीछे एक विशेष जीवन दृष्टि होती है, उस जीवन दृष्टि के पीछे एक जीवन दर्शन होता है और उस जीवन दर्शन के पीछे, आजकल के जमाने में एक राजनीतिक दृष्टि लगी रहती है।  यह मान्यता प्रगतिशील कविता के विषय में जितनी सत्य है, उतनी ही नयी कविता के विषय में भी। क्योंकि नयी कविता में जो राजनीति-विरोध का स्वर है, वह राजनीति से ही प्रेरित है। वह यथास्थितिवाद को बढ़ावा देते हुए शोषणमूलक पूँजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने का एक षडयंत्र तो है ही, व्यक्ति मानव में निहित क्रांतिकारी परिवर्तन की क्षमता को कुंठित करने का प्रयास भी है।

मुक्तिबोध मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण से मुक्ति के जिस आदर्श को लेकर कला चिंतन की ओर अग्रसर हुए हैं, वह राजनीतिक चेतना से अछूता रहकर कभी पूरा नहीं हो सकता। इस संबंध में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि “संपूर्ण मानव-सत्ता का निर्माण करने का एक मात्र मार्ग राजनीति है, जिसका सहायक साहित्य है।”  इसका और अधिक विस्तृत खुलासा करते हुए उन्होंने लिखा है, “जनता की राजनीति और जनोन्मुख साहित्य का स्रोत एक ही है और वह है आज का यथार्थ। यदि हमारी काव्य-प्रेरणा वस्तुत: जनजीवन से उद्भूत हुई हो तो जनजीवन की वर्तमान परिस्थितियों और कष्टों का कारण भी हमारी अनुभूति क्षेत्र का अंग होगा। अर्थात् इनसानियत को तबाह करने वाले रावणों, उनके सिपहसालारों और दासों के जनविरोधी षडयंत्र भी हमारी अनुभूति के अंग होंगे। राजनीति और साहित्य मात्र अभिव्यक्ति में भिन्न हैं।

उनका मूल है आज का यथार्थ यानी जनजीवन का यथार्थ, उसके लक्ष्य, उसके अभिप्रेत, उसके संघर्ष।’ ऐसी स्थिति में मुक्तिबोध ने राजनीति को काव्य के लिए विजातीय न मानकर परम आवश्यक सिद्ध किया है। अपने समीक्षात्मक लेखों के साथ ही उन्होंने अपनी कविताओं को भी सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया से जोड़कर अधिकाधिक राजनीतिक तेवर प्रदान किया है। “ज़िंदगी का रास्ता”, “चकमक की चिनगारियाँ”, “डूबता चांद कब डूबेगा”, “ओ काव्यात्मक फणिधर’, “चम्बल की घाटी में”, “अंधेरे में’ आदि अधिकांश महत्वपूर्ण कविताओं में मुक्तिबोध ने अपने सामाजिक राजनीतिक रुख-रुझान को पूरे आग्रह-अनुरोध के साथ संवेदनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है।

पूंजीवादी व्यवस्था असहाय जनता का शोषण करके ही अपना काम नहीं चलाती, वरन् बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों, नेताओं और यशस्वी कलाकर्मियों से भी अपनी चाकरी करवाती है। इस व्यवस्था में बुद्धिजीवी कलाकारों की दुर्दशा पर अपनी “ज़िंदगी का रास्ता’ शीर्षक कविता में मुक्तिबोध ने लिखा है :

“टूटे हुए होल्डर में लगी हुई

अच्छी सी निब-सी

केवल अहलकार का काम करती हुई

अच्छे कई व्यक्तियों की शक्तियाँ

गहरे न्यस्त स्वार्थों से अनुशासित होती हैं।

ऐसी स्थिति में “ज़िंदगी का रास्ता” का काव्य नायक अनुभव करता है :

“रामू ने देखा कि

दुनिया के पेंदे में

पूंजीवादी छेदों से

आधुनिक जीवन बुद्धिजीवियों का

ठीकरे सा लगता।”

अत: इस व्यवस्था में कलाकार और साहित्य की स्थिति का खुलासा करते हुए काव्य नायक रामू स्पष्ट शब्दों में कहता है :

”पूंजीवादी उल्लू के साहित्यिक पढ़े

बेचते हैं आत्मा को

वेश्या के देह-सा व्यभिचार के लिए।

खाते हैं, सुख की आराम की वे

बासी मिठाइयाँ

पूंजीवादी चोट्टों के घर की

स्वार्थी भी चाहते हैं औचित्य, संगति

सामंजस्य,

सुविधा की डोर से वे शोषण के तर्कों को बांध कर

फिराते हैं घुमाकर विचारों के पत्थर

शोषण की बर्बर शाखाओं पर लटकाकर

फाँसी के झूलों में मानव

चाहते हैं छूना वे मानव के सत्य को।”

कुण्ठा, हताशा, ग्लानि, संत्रास, निरर्थकता, दुख आदि के रूप में पूँजीवादी व्यवस्था के अनुचर बुद्धिजीवी कलाकार जिस अटल मानवी सत्य को स्थापित करना चाहते हैं, उसकी अमानवीय क्रूरता यहाँ अच्छी तरह स्पष्ट हो गई है। लेकिन काव्य नायक रामू इससे निराश नहीं होता :

“बीसवीं सदी के इस पचासवें चरण के प्रयास में

जन-जन के दमन के काले अंधकार बीच

गगन में उठते गरीबों के हाहाकार बीच,

रामू के सोये हुए हृदय को ..

अकस्मात् किसी ने

सत्य की शक्ति दी ।

औ, हिम्मत की राह दी

पूंजीवादी झूठ के विराट अत्याचार बीच।”

 (मुक्तिबोध रचनावली भाग-1, पृ0 251)

रामू स्वयं तो इस व्यवस्था को बदल नहीं सकता लेकिन उसे दृढ़ विश्वास है कि “कदाचित मेरी अस्थि कभी किसी काम आ जाए/ जनों के हाथों में खिलाफ जानवरों के विश्व की बहसंख्यक अभावग्रस्त उत्पीडित जनता के प्रति यह अशेष समर्पण मुक्तिबोध में ऐसे ही नहीं आया है। समस्त भौतिक मूल्यों के रचयिता को समाजेतिहास की विकास-प्रक्रिया का कर्णधार मानते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है :

“जिंदगी नशा बन घुमड़ी है

जिंदगी नशे सी छायी है

नव-वधुका बन

यह बुद्धिमती

ऐसी तेरे घर आयी है।

रे, स्वयं अगरबत्ती से जल

सुगंध फैला जिन लोगों ने

अपने अंतर में घिरे हुए

गहरी ममता के अगरुधूम

के बादल सी

मुझको अथाह मस्ती प्रदान की 

वह हुलसी, वह अकुलायी

इस हृदयदान की बेला में मेरे भीतर

उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर

मेरे भीतर मेरे भीतर” – (जब प्रश्न चिह्न बौखला उठे)

वस्तुत: इस प्रकार की कल्पनाशील सहानुभूति सौंदर्यानुभूति का विशिष्ट रूप है। इसे राजनीतिक पक्षधरता का नाम देकर कविता के क्षेत्र से बहिष्कृत नहीं किया जा सकता।

वस्तुत: मुक्तिबोध ने पक्षधरता के प्रश्न को एक मानवीय नैतिक प्रश्न बनाकर उसे रचनाकार के मानवतावाद से भी जोड़ा है। इस संबंध में, उनकी स्पष्ट मान्यता है कि यदि आज के संदर्भ में मानवतावाद का कोई अर्थ हो सकता है तो “क्या लेखक के लिए यह परम आवश्यक नहीं है कि वह विश्व जनता के अभ्युत्थान को देखे और आज की उत्पीड़न करने वाली शक्तियों से सचेत हो और उसके प्रति विद्रोह करने वाली ताकतों से सहानुभूति रखे।” (नये साहित्य का सौंदर्य शास्त्र, पृ0 37) क्या इस प्रकार की अपेक्षा की पूर्ति से कोई रचनाकार अपने कलात्मक या साहित्यिक स्तर से नीचे गिर जाएगा? वस्तुत: विश्व जनता से मुक्तिबोध का आशय यहाँ उस बहुसंख्यक साधारण जन से है, जो समस्त भौतिक मूल्यों की आधारशिला होने के बावजूद मनुष्योचित जीवन से वंचित है। मुक्तिबोध की दृष्टि से यह “साधारण मनुष्य सल्तनत नहीं चाहता, मनुष्य की स्वाभाविक गरिमा के अनुरोधों के अनुसार वह जीवन चाहता है और उस जीवन की आवश्यकताएँ पूरी हो जाने की स्थिति चाहता है।”  अत: रचनाकार का एक प्रकार से नैतिक दायित्व बन जाता है कि वह शोषित-उत्पीडित बहुसंख्यक जनता की आशा-आकांक्षा, उसकी भूख-प्यास को संवेदनात्मक रूप से अपनी आशा-आकांक्षा का अभिन्न अंग बनाए। यही मुक्तिबोध की पक्षधरता का स्वरूप है।

संक्षेप में एक सामाजिक सरोकार से युक्त प्रगतिकामी कलाकार के रूप में पक्षधरता को कलाकार के लिए अत्यंत मानवीय कर्म के रूप में मुक्तिबोध ने प्रस्तुत किया है। मुक्तिबोध की पक्षधरता की प्रकृति को यदि एक पंक्ति में रेखांकित करना हो तो कहा जा सकता है कि “मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण से मुक्ति” ही उनकी पक्षधरता की मूल प्रकृति रही है।

यहाँ तक आपने मुक्तिबोध के जीवन-दर्शन और काव्यदृष्टि पर कतिपय बिंदुओं के अंतर्गत विचार कर लिया है, जिनमें कवि की जीवन दृष्टि, कविता का स्वरूप और उसकी प्रकृति, कला की स्वायत्तता और जीवनानुभूति तथा सौंदर्यानुभूति के संबंध, पक्षधरता-प्रतिबद्धता और उसका मानवीय-राजनीतिक स्वरूप आदि मुख्य रूप से आए हैं। किंतु अभी उनके चिंतन और काव्य-जगत से संबद्ध दो पहलुओं पर विचार करना आवश्यक है। इनमें से एक है उनकी सभ्यता-समीक्षा और दूसरा काव्य की रचना-प्रक्रिया। वस्तुत: इन पर विचार किए बिना मुक्तिबोध की काव्य-जगत का विश्लेषण अधूरा रह जाएगा।

मुक्तिबोध कृत वर्तमान सभ्यता-समीक्षा

कला और साहित्य के अंतर्गत कलाकार की सभ्यता-समीक्षा या समाज-समीक्षा को मुक्तिबोध ने विशेष महत्व दिया है। नयी कविता के अन्यान्य पहलुओं की भांति ही वे उसकी सभ्यता-समीक्षा से भी पर्याप्त असंतुष्ट थे। इस संबंध में उन्होंने लिखा है कि “यह ध्यान में रखने की बात है कि नयी कविता वर्तमान ह्रासग्रस्त, अध:पतनशील सभ्यता की असलियत को जब तक पहचानती नहीं सभ्यता के मूलभूत प्रश्नों से अपने को जब तक जोड़ नहीं लेती है, मानवता के भविष्य निर्माण के संघर्ष से जब तक वह स्वयं को संयोजित नहीं कर पाती, जब तक उत्पीड़ित और शोषित मुखों के बिम्ब उसमें दिखाई नहीं देते, तब तक हमारा कार्य अधूरा रहेगा।’ -वस्तुत: मुक्तिबोध ने अपने समीक्षात्मक लेखों में नयी कविता की सामाजिक सभ्यता संबंधी मान्यताओं पर गहरा आक्षेप किया है। अस्तित्ववाद के गहरे प्रभाव के कारण उनमें व्यक्त निराशा, ग्लानि, संशय, संत्रास, अर्थहीनता आदि को जो एक शाश्वत समस्या का रूप देते हुए प्राय: मूल्य का दर्जा दिया गया है, उसे मुक्तिबोध ने गलत माना है। इनके अंत:करण में यह बहस लगातार छिड़ी रहती है :

“सहसा वह बहस छेड़ देता

मानव समाज-रूपांतर विधि

की धाराओं में मग्न

मानवी प्राणों के

मर्मों की व्यथा-कथा अगांर तपस्या पर

मानव स्वभाव के प्रश्नों पर,

मानव सभ्यता समस्या पर’ (मेरे सहचर मित्र)

अपनी कविताओं में अनेक स्थलों पर परोक्ष रूप से मुक्तिबोध ने नयी कविता की भाववादी-व्यक्तिवादी दृष्टि पर आक्षेप किए हैं। स्थान के अभाव के कारण यहाँ उदाहरण तो नहीं दिए जा सकते लेकिन “अंधेरे में” कविता के “सिर फिरे पागल’ के गान ‘ओ मेरे आदर्शवादी मन’ से लेकर “जीवित रह गए तुम’ तक के अंश को आप देख लें। यह अंश नयी कविता के व्यक्तिवादी भाववाद की प्रवृत्ति पर गंभीर आक्षेप माना जा सकता है। इसी प्रकार “ओ, काव्यात्मन् फणिधर’ का नौवाँ खंड भी आप . अवश्य देखें।

वस्तुत: मुक्तिबोध के लिए कविकृत सभ्यता-समीक्षा मूल्यांकन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण आधार रही है। ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ नामक अपनी पुस्तक में उन्होंने प्रसाद कृत सभ्यता समीक्षा को ही कामायनी के मूल्यांकन का प्रमुख आधार बनाया है। अपने गहन सामाजिक सरोकार के कारण मुक्तिबोध ने वर्तमान सभ्यता – जो मूलत: पूंजीवादी-औद्योगिक और व्यावसायिक सभ्यता है – के संबंध में अपनी संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं। ये प्रतिक्रियाएँ ही उनकी वर्तमान सभ्यता-समीक्षा है।

मुक्तिबोध स्वयं वर्तमान सभ्यता-समीक्षा की ओर एक निश्चित लक्ष्य के साथ उन्मुख हुए हैं। इसके लिए उन्होंने आज की औद्योगिक-व्यावसायिक सभ्यता के मूल में निहित और शोषण की नींव पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था पर सर्वाधिक आघात किया है। समाज में फैली सारी विकृतियों — स्वार्थ, उत्पीड़न, अवसरवाद, भ्रष्टाचार, ग्लानि, क्षोभ, हताशा आदि की मूलकारक शक्ति के रूप में पूंजीवादी शोषण के भयानक परिणामों को चित्रित करते हुए उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि :

“शोषण की अति मात्रा

स्वार्थों की सुख-यात्रा

जब जब सम्पन्न हुई

आत्मा से अर्थ गया, मर गयी सभ्यता’ – (एक स्वप्न-कथा) .

यह ह्रासोन्मुख सभ्यता कला, संस्कृति, चिंतन, दर्शन एवं ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों में प्रवेश कर उन्हें विकृत कर देती है। “ब्रह्मराक्षस’ कविता में इसका उल्लेख करते हुए मुक्तिबोध ने कहा है कि :

“किंतु – युग बदला व आया कीर्ति – व्यवसायी 

..लाभकारी कार्य में से धन

व धन में से हृदय-मन,

और धन-अभिभूत अंत:करण में से

सत्य की झाई निरंतर चिल-चिलाती थी”

इस हृदयहीन वातावारण में एक झूठी कला, एक झूठे दर्शन और निरर्थक आविष्कारों का अम्बार खड़ा होने लगता है। यह स्थिति हर क्षेत्र में सभी को विवश और अवाक कर देती है, जिसकी ओर संकेत करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है :

“सब चुप, साहित्यकार चुप और कविजन निर्वाक

चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं .

..रक्तपायी वर्ग के नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग

नपुंसक भोग शिरा-जालों में उलझे

प्रश्न की उथली सी पहचान

राह से अनजान

गढ़े जाते संवाद

गढ़ी जाती समीक्षा

गढ़ी जाती टिप्पणी ..

बौद्धिक वर्ग क्रीतदास

किराये के विचारों का उद्भास” – (अंधेरे में)

“डूबता चांद कब डूबेगा” और “ओ काव्यात्मन फणिधर’ जैसी लम्बी कविताओं में मुक्तिबोध ने पूंजीवादी सामाजिक सभ्यता के क्रूरतम प्रभाव का विस्तार से चित्रण करते हुए अंत में उससे छुटकारा पाने वाले मार्ग की ओर भी स्पष्ट संकेत किया है। अपनी “ओ, काव्यात्मन फणिधर’ कविता के माध्यम से वे पूरे समाज का निरीक्षण-परीक्षण करते हुए अपने नवजात शिशु अर्थात् सर्वहारा की नयी चेतना के प्रति विश्वस्त भाव प्रकट करते हुए कहते हैं :

“पर शोक मत करो नागात्मन्…

आ गए तुम्हारी अनुपस्थिति में लोग

प्रतीक्षा जिनकी थी

उनके प्रकाश में

दीख सकेगा भीषण मुख..

 वह भीषण मुख उस ब्रह्म देव का

जो रहकर प्रच्छन्न स्वयं

निज अंकशायिनी दुहिता-पत्नी सरस्वती

या विवेक-धी

के द्वारा ही

उद्दाम स्वार्थ या सूक्ष्म आत्मरति का प्रचार

कर भटकाता

विक्षुब्ध जगत को, उसके अपने मन से ही

काटकर अलग,

फेंक कर पृथक

उन दोनों को दूर परस्पर से, तुरंत

अपने को स्वयं चूम जाता

उस ब्रह्मदेव का टेढ़ा मुख

जग देख चुकेगा पूरा ही

उस ब्रह्मदेव का दर्शन सभी कर सकेंगे

जिसकी छत्रच्छाया में रह

अधिकाधिक दीप्तिमान होते

धन के श्री मुख,

पर, निर्धन एक-एक सीढ़ी नीचे गिरते जाते

उस ब्रह्मदेव का विवेक-दर्शन

होगा उद्घाटित पूरा”

यहाँ “आत्मज शिशु” प्रकाशमान रत्न के रूप में सर्वहारा से संपर्क करने के बाद अपना प्रभाव घर-घर में फैलाने वाला है। वस्तुत: यह शिशु अनुभव प्रसूत सर्वहारा की विचारधारा है, जो ब्रह्मदेव (पूंजीपति) की काली छाया से उसकी मुक्ति का मार्ग प्रस्तुत करेगी। ब्रह्मदेव वर्तमान पूंजीवादी व्यावसायिक सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है, जो स्वयं प्रच्छन्न रहकर अपनी दुहिता (पुत्री) सरस्वती अर्थात् ज्ञान-विज्ञान, कला आदि की उपलब्धियों को “निज अंकशायिनी” (रखैल) के रूप में बदलकर समाज में आत्मबद्धता, स्वार्थ, अलगाव, आत्म निर्वासन, निरर्थकता आदि का प्रचार-प्रसार करता है। पूंजीवाद मानवी संबंधों से, उसके मूल्यवान आशयों को समाप्त कर एक घटिया स्पर्धा और कृत्रिम उपभोक्ता प्रवृत्ति को जन्म देता है। यह प्रवृत्ति शोषण और भ्रष्टाचार के निर्मम चक्र को तेज करने में सहायक बनती है। अपनी विज्ञापन बाजी, जन संचार एवं प्रसारण के शक्तिशाली माध्यमों -पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो-टेलीविजन आदि के द्वारा पूंजीवाद एक ऐसा उपभोक्ता समूह पैदा करता है, जिसमें आत्मा, बुद्धि और चिंतन शक्ति पूर्णत: कुंठित हो जाती है। उपभोक्ता समूह की पसंद-नापसंद की दिशाएँ, उसके उपभोग का स्वरूप, उसका दृष्टिकोण, रुख-रुझान आदि सभी कुछ व्यवस्था के माध्यम से तैयार किया जाता है। सब कुछ को अपने में लपेट लेने वाला यह अमूर्तन पूंजीवाद की चारित्रिक विशेषता है, जो किसी को भी कहीं का नहीं रहने देती।

इस भावधारा, जीवनधारा या विचारधारा का कारगर विरोध करने वाली एकमात्र विचारधारा के रूप में मुक्तिबोध ने सर्वहारा की विचारधारा को स्वीकार किया है। यह विचारधारा जब साधारण जनता की विचारधारा का अंग बनेगी तभी “ब्रह्मदेव” के विवेक-दर्शन के झूठ का पर्दाफाश हो सकेगा। इस प्रकार मुक्तिबोध वर्तमान अमानवीय व्यावसायिक सभ्यता की गतिहीनता से ऊपर उठकर उसे एक नया और गतिशील परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) प्रदान करते हैं। (”ओ, काव्यात्मन् फणिधर’ कविता को पढ़ते हुए आप देखें कि आरंभ से अंत तक मुक्तिबोध किस प्रकार पूंजीवाद के भयावह छद्म (झूठ) की पोल को खोलते हुए अंत में अपने “काव्यात्मन् फणिधर’ को आश्वासन देते हैं :

“ओ, नागात्मन

संक्रमण काल में धीर धरो

ईमान न जाने दो ..

.ओ भूगर्भ-शास्त्री भीतर का

बाहर का व्यापक सर्वेक्षण कर डालो”

वस्तुतः यह कार्य मुक्तिबोध ने अपनी अन्यान्य कविताओं के माध्यम से सफलतापूर्वक सम्पन्न किया है, जिसे आप “चकमक की चिनगारियाँ”, “अंधेरे में’ जैसे कविताओं में भी देख सकते हैं।

संक्षेप में, रचना-प्रक्रिया की भांति ही मुक्तिबोध ने काव्यालोचन में कविकृत सभ्यता-समीक्षा को पर्याप्त महत्व दिया है। अपने आलोचनात्मक लेखों के साथ ही अपनी कविताओं में भी विस्तार से मुक्तिबोध ने वर्तमान युग के संदर्भ में अपनी मानसिक प्रतिक्रियाओं को प्रस्तुत किया है। वस्तुत: ये प्रतिक्रियाएँ ही उनकी वर्तमान सभ्यता-समीक्षा है। इसके अंतर्गत पूंजीवादी सामाजिक शोषण की क्रूरतम स्थितियों की भयावहता को अंकित करते हुए उन्होंने समाजवादी व्यवस्था की अनिवार्यता को रेखांकित किया है। लेकिन यह कार्य मुक्तिबोध ने इतने कलात्मक ढंग से सम्पन्न किया है कि उनके विरोधी भी, उन पर उंगली उठाने में संकोच और शर्म का अनुभव करते हैं।

काव्य की रचना प्रक्रिया

हिंदी काव्यालोचन में रचना-प्रक्रिया पर सबसे अधिक और गंभीर विचार मुक्तिबोध ने किया है। यही नहीं, उन्होंने रचना-प्रक्रिया को देखे-समझे बिना की गयी आलोचना को अपूर्ण और आलोचक के अहंकार का परिणाम माना है। इस तथ्य को रेखांकित करते हुए उन्होंने आचार्य शुक्ल, पं. नन्द दुलारे वाजपेयी, डॉ० राम विलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान की आलोचना पद्धति पर आक्षेप करते हुए लिखा है, “वह आलोचना, जो रचना प्रक्रिया को देखे बिना की जाती है, आलोचक के अंहकार से निष्पन्न होती है। भले ही वह अहंकार से आध्यात्मिक शब्दावली में प्रकट हो चाहे कलावादी शब्दावली में, चाहे प्रगतिवादी शब्दावली में।”  “कामायनी एक पुनर्विचार’ में मुक्तिबोध ने “कामायनी’ के मूल्यांकन का आधार ही प्रसाद की रचना-प्रक्रिया को बनाया है।

छायावादी कवियों, विशेषत: पंत पर विचार करते हुए उनकी रचना-प्रक्रिया का संकेत मुक्तिबोध ने इस प्रकार किया है, “पहली बात तो यह है कि पंत जी की वास्तवोन्मुखता की जितनी भी, जो भी प्रवृत्ति है, वह लालन-पालन, परिवार, वर्ग, स्वयं के जीवनानुभव, परिस्थिति आदि से सीमित तो है ही, साथ ही वह मनोरचना से भी सीमित है। जीवन-अस्तित्व की रक्षा तथा विकास के घनघोर संघर्ष में पड़कर यह मनोरचना अधिकाधिक वास्तवोन्मुख भी हो सकती थी। प्रसाद और उससे अधिक निराला के जीवन-संघर्ष के अपने-अपने ढंग के अनुभव हैं। …इससे पृथक पंत जी में वास्तव के प्रति जो संवेदन क्षमता है, उस पर मूलत: अपना निज का बोझ नहीं होने से वास्तव के प्रति उनका संबंध द्वंद्वात्मकसंघर्षात्मक नहीं रहा। इसके विपरीत निराला और प्रसाद को अपने-अपने ढंग से, अपनी-अपनी दिशा में द्वंद्वात्मक स्थिति में आना पड़ा। वास्तविक जीवनानुभवों की जितनी सम्पन्नता निराला और प्रसाद में है, उतनी, उस हद तक, उस मात्रा में पंत जी के पल्ले नहीं पड़ी।” – 

यहाँ यह लम्बा उद्धरण देने की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि आप यह समझ सकें कि कला या कविता की रचना-प्रक्रिया का सीधा संबंध जीवन-प्रक्रिया से है। इसलिए मुक्तिबोध की यह मान्यता रही है कि आलोचना के लिए कवि की रचना-प्रक्रिया का विश्लेषण और रचना-प्रक्रिया के लिए रचनाकार के व्यक्तित्व का विश्लेषण आवश्यक है। अत: कृति की आलोचना अथवा उसका प्रभाव-ग्रहण, कृतिकार के व्यक्तित्व का भी प्रभाव ग्रहण है। इस प्रकार कृति की राह से गुज़रना कृतिकार के व्यक्तित्व की राह से गुज़रना है। मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया पर विचार करने से पूर्व उनकी रचना-प्रक्रिया संबंधी मान्यताओं पर विचार कर लेना आवश्यक है।

मुक्तिबोध ने रचना-प्रक्रिया पर ”एक साहित्यिक की डायरी”, “नयी कविता का आत्म संघर्ष तथा अन्य निबंध”, “नये साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ और ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ शीर्षक अपने चारों आरंभिक ग्रंथों में विस्तार से विचार किया है। उपर्युक्त तीन रचनाओं में रचना-प्रक्रिया पर स्वतंत्र लेख के साथ ही अन्य समीक्षात्मक लेखों में भी रचना-प्रक्रिया के महत्व को रेखांकित किया गया है। “कामायनी : एक पुनर्विचार” में रचना-प्रक्रिया के व्यावहारिक प्रयोग का स्पष्ट उदाहरण मिलता है। “एक साहित्यिक की डायरी” में “तीसरा क्षण’ में वस्तुत: मुक्तिबोध ने अपनी रचना-प्रक्रिया को ही अधिक रेखांकित किया है। इसमें कला के तीन क्षणों की चर्चा करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है, “कला का पहला क्षण है, जीवन का उत्कट-तीव्र अनुभव-क्षण| दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने दुखतेकसकते मूलों से अलग हो जाना और एक फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानों वह फैंटेसी अपनी आंखों के सामने खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षण है इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था की गतिमानता।

शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया में भीतर जो प्रवाह बहता रहता है, वह समस्त व्यक्तित्व और जीवन का प्रवाह होता है। प्रवाह में वह फैंटेसी अनवरत रूप से विकसित परिवर्तित होती हुई आगे बढ़ती जाती है। इस प्रकार वह फैंटेसी अपने मूल रूप को बहुत कुछ त्यागती हुई नवीन रूप धारण कर लेती है।” (एक साहित्यिक की डायरी, पृ0 20) इस मान्यता से हमारे सामने कई तथ्य आते हैं। पहला और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह कि किसी कलाकृति के निर्माण के लिए केवल अनुभव ही पर्याप्त नहीं है। अपने नितांत वैयक्तिक अनुभवों को ही ”समझ” मानकर सत्य के रूप में उसकी प्रतिष्ठा करने वाले नयी कविता के रचनाकारों पर मुक्तिबोध ने गहरा आक्षेप किया है। उनकी दृष्टि में एक जीते-जागते सामाजिक प्राणी के आत्मानुभव में कभी विशुद्ध अनुभव हो ही नहीं सकते। इसलिए उन्होंने आत्मानुभवों को इतिहास की विकास-प्रक्रिया और समसामयिक परिवेश में रखकर उनकी जाँच-परख पर बल दिया है। इस प्रक्रिया से गुज़र कर विशिष्ट अनुभव अपने मूल स्रोत से अलग होते हुए संवेदना और ज्ञान का रूप धारण करते हैं तथा व्यापक सत्य के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं।

रचना-प्रक्रिया की उपर्युक्त मान्यता मुक्तिबोध की अपनी रचना-प्रक्रिया को भी उदघाटित करती है, क्योंकि उन्होंने फैंटेसी को अपने लिए एक विशेष शिल्प के रूप में स्वीकार किया है। फैंटेसी के वास्तविक अर्थ को अगली इकाई में विस्तार से स्पष्ट करने का प्रयास किया जाएगा। यहाँ आप इतना ही समझ लें कि फैंटेसी मुक्तिबोध के लिए एक प्रकार का मनोस्वप्न है, जिसे दिवास्वप्न भी कहा जा सकता है। सभी कवि-कलाकार इस शिल्प को नहीं अपनाते, अत: रचना-प्रक्रिया से संबद्ध अपने अन्य लेखों में मुक्तिबोध ने फैंटेसी का उल्लेख नहीं किया है और न इसे रचना-प्रक्रिया की मध्य स्थिति ही माना है।

“नयी कविता का आत्म-संघर्ष तथा अन्य निबंध’ शीर्षक अपनी दूसरी रचना में उन्होंने रचना-प्रक्रिया पर विचार करते हुए ”डायरी” के प्रथम, द्वितीय और तृतीय क्षण को भिन्न शब्दावली में स्पष्ट किया है। इसमें उन्होंने ‘मूलभूत आभ्यंतर वास्तविकता के संवेदनात्मक साक्षात्कार” को रचना का प्रथम स्तर या क्षण माना है। वस्तुत: “डायरी” का यह “उत्कट तीव्र अनुभव क्षण” है। कलाकार का दायित्व है कि इस स्तर पर वह भावों का संशोधन-सम्पादन करे। इस प्रक्रिया में पहले उपस्थित भाव या कथ्य में ऐसे तत्व जुड़ जाते हैं, जो आरंभ में कथ्य नहीं होते। इस नवीन तत्व के आगमन का कारण भाव-संपादन के साथ ही शैली संबंधी आग्रह भी है। यह कला का द्वितीय स्तर या क्षण है, जिसमें रचनाकार अपने मूल कथ्य के साथ ही एक विशेष रचना-रूप या शिल्प को स्वीकार कर चुका होता है। रचना का तृतीय स्तर या क्षण शब्दाभिव्यक्ति का क्षण है, जिसमें रचनाकार की वस्तु एवं शिल्प संबंधी पुरानी आदतें और अभ्यास बाधक बनते हैं।

इसलिए आवश्यक है कि वह अपने अंत:तत्वों के साथ ही अपनी अभिव्यक्ति के सांचों का भी निरंतर विकास करता जाए। इस प्रकार मुक्तिबोध की दृष्टि में रचनाप्रक्रिया अत्यंत मानवीय प्रक्रिया है, जिसे उन्होंने सामाजिक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ ही एक सांस्कृतिक प्रक्रिया भी माना है। रचना-क्षणों में विभिन्न संदर्मों से जुड़ते-कटते हुए रचनाकार आत्म संस्कार के साथ आत्म निर्माण भी करता है। लेकिन यह तभी संभव है, जब रचनाकार आत्म-संघर्ष, आत्म-साक्षात्कार और आत्म-संस्कार के प्रति एक तीव्र लक्ष्योन्मुखता से भी प्रेरित हो!

मुक्तिबोध द्वारा काव्य की रचना-प्रक्रिया का अत्यंत विस्तृत और प्रौढ़तम विश्लेषण “नये साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ में हुआ है। इसके अंतर्गत उन्होंने “डायरी’ के द्वितीय क्षण अर्थात् फैंटेसी के क्षण को कला का प्रथम क्षण अर्थात् सौंदर्यानुभूति का क्षण माना है। उत्कट-तीव्र जीवनानुभवों पर आधारित होते हुए भी उसकी सापेक्ष स्वतंत्र सत्ता होती है, जिस पर हमने “सौंदर्यानुभूति और जीवनानुभूति के संबंध” विषयक शीर्षक के अंतर्गत इसी इकाई में पहले ही विचार कर लिया है। सौंदर्यानुभूति का यह क्षण केवल कलाकार को ही नहीं, वरन् उन सबको प्राप्त होता है, जिन्हें हम मनुष्य कहते हैं। ‘नये साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ में कला का दूसरा क्षण कलात्मक अभिव्यक्ति का क्षण माना गया है, जो केवल कलाकार को ही प्राप्त होता है। शब्दाभिव्यक्ति के समय या अपने मूल मर्म को भाषा-प्रवाहित करते समय कवि के लिए एक नये और अत्यंत भीषण संघर्ष की शुरुआत होती है। भाषा एक सामाजिक सम्पदा है, जिसे मनमाने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा नहीं जा सकता।

उसके शब्द-संयोग एक भाव-परंपरा से जुड़े होते हैं। अत: अपने मूल अभिप्राय को अविकल रूप में व्यक्त करने के लिए कवि को नए सिरे से शब्द-साधना करनी पड़ती है। इस साधना में नए शब्द-संयोग बनते हैं, जिससे कवि के लिए नये अर्थसंयोग विकसित होते हैं। अभिव्यक्ति-संघर्ष के दौरान आवश्यक नहीं कि गृहीत वस्तु-तत्व भाषा के नवनिर्मित शब्द-संयोगों द्वारा विकसित अर्थ-संयोगों के कटघरे में पूरी तरह “फिट’ ही हो जाएं। यह भाषा और भाव का संघर्ष कवि का मानसिक संघर्ष बन जाता है, जिसमें एक तरफ भाषा की प्रचलित अर्थपरंपरा उसके नवीन जीवन-तत्वों की कतर-ब्यौंत करते हुए उसे चुनौती देती हैं तो दूसरी ओर मार्मिक जीवन-तत्वों के स्पन्दन भाषा की काट-छाँट, तोड़-मरोड़ करते हैं। इस बीहड़ प्रक्रिया में जीवन-तत्वों का मर्म कट कर संकुचित ही हो यह आवश्यक नहीं। सामाजिक निधि होने के कारण भाषा मूल मर्म को विस्तृत और संपन्न भी कर सकती है और संकुचित तथा विपन्न भी। यहाँ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कवि कितनी जागरूकता और ईमानदारी से इस संघर्ष को झेलता है और कितनी सजगता से इस संघर्ष को अपने अनुकूल मोड़ पाता है।

मुक्तिबोध सांस्कृतिक प्रक्रिया की भांति ही रचना-प्रक्रिया को एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया भी मानते हैं। अत: उन्होंने कवि कलाकार के अंतजर्गत को भी, उसके व्यक्तित्व को भी आलोचना का विषय बनाया है। “एक साहित्यिक की डायरी’ के “विशिष्ट और अद्वितीय” शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने इसी आधार पर अपने समसामयिक साहित्यकारों की जीवन-पद्धति पर आक्षेप किया है। नयी कहानी और नयी कविता की व्यक्तिवादी अन्तर्मुखता, आत्मबद्धता, असामाजिकता, अद्वितीयता, अलगाव) अजनबीयत आदि के कारणों को मुक्तिबोध ने रचनाकारों की संपूर्ण मनोवैज्ञानिक स्थिति में देखा है। इस संबंध में उन्होंने लिखा है, “वे अपने असंग संवेदनशील प्रतिभाशालित्व को अद्वितीया कहते हैं। और मैं कहता हूँ कि समय पर विवाह न होने से उनके सुकोमल तंतुओं का विस्तार नहीं हुआ है और वे सुकोमल तंतु समाज की विभिन्न संस्थाओं से, समाज के विभिन्न रूपों से घनिष्ठ रूप से जुड़ नहीं पाए हैं। इसलिए समाज का वास्तविक प्रत्यक्ष संवेदनात्मक बोध, समाज के भीतर व्यक्ति मानवता, जो उसकी विभिन्न संस्थाओं के भीतर से ही किसी-न-किसी मात्रा में व्यक्त होती है – का हार्दिक परिचय उन्हें नहीं है। उनके लिए समाज केवल आत्मप्रक्षेप है, रेत का ढेर है, ढोरों की खटपट करती हुई भीड़ है।” इससे स्पष्ट है कि मुक्तिबोध ने रचनाकार की सामाजिक चेतना के विकास के लिए उसके पारिवारिक जीवन को महत्वपूर्ण माना है। स्त्री-बच्चों के सुख-दुख, उनकी शिक्षा दीक्षा, उनके उदरपूर्ति के संघर्ष के माध्यम से कलाकार समाज से सही ढंग से जुड़ पाता है। परिवार और समाज के साथ जुड़कर ही वह सुख-दुख, अच्छा-बुरा, न्याय-अन्याय, यथार्थ-आदर्श आदि का बोध प्राप्त करता है। अपनी पारिवारिक समस्याओं के माध्यम से ही वह सामाजिक समस्याओं — शोषण, बेरोजगारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार आदि से परिचित हो पाता है। इससे स्पष्ट है कि मुक्तिबोध काव्यालोचन को प्रकारान्तर से जीवन की आलोचना भी मानते हैं, उस जीवन की, जो एक कवि-कलाकार जीता है। रचना-प्रक्रिया के अध्ययन में ये सारी बातें आ जाती हैं।

संक्षेप में मुक्तिबोध ने रचना-प्रक्रिया के संबंध में यह विशेष रूप से स्थापित किया है कि कला-रचना के लिए मात्र अनुभव ही पर्याप्त नहीं है। अपने अंतर्जगत में विद्यमान तमाम सारे अनुभवों के मध्य रख कर जब तक विशिष्ट अनुभव की जाँच-परख नहीं कर ली जाती, उसे सामान्य नहीं बना लिया जाता तब तक वे काव्य-रचना के विषय नहीं बन सकते। फलस्वरूप वे रचना-प्रक्रिया के तीन क्षणों को निर्धारित करते हैं। रचना का पहला क्षण है जीवन का उत्कट-तीव्र अनुभव क्षण तथा दूसरा क्षण है आत्मानुभवों का अपने मूल से हटकर, अपनी विशिष्टता को त्याग कर सर्वसामान्य रूप धारण करना। वस्तुत: निर्विशेषीकरण या साधारणीकरण की यह प्रक्रिया एक लम्बी और जटिल प्रक्रिया है, जो आत्म संघर्ष और आत्म साक्षात्कार के बाद ही पूरी होती है। इस क्षण को मुक्तिबोध ने कलात्मक अनुभूति का क्षण माना है। इस कलात्मक अनुभूति के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया रचना का तीसरा क्षण है। शब्दाभिव्यक्ति के इस क्षण में भाव और भाषा का द्वंद्व प्राय: रचनाकार के मानसिक द्वंद्व का रूप ले लेता है। फलस्वरूप अपने अंतिम रूप में कलाकृति एक विशिष्ट रूप धारण करती है।

मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया

रचना-प्रक्रिया से संबद्ध उपर्युक्त मान्यताओं और उनके विवेचन विश्लेषण के प्रकाश में हम मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया को आसानी से समझ सकते हैं। यहाँ इस तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि प्रत्येक कवि की नहीं, वरन् प्रत्येक युग के काव्य की सृजन-प्रक्रिया में भी अंतर होता है। क्योंकि कविदृष्टि, कवि-स्वभाव, काव्य-वस्तु के साथ ही रचनाकार की जीवन-पद्धति, सामाजिक स्तर, रुचि-अरुचि, वर्ग-स्थिति, पारिवारिक स्थिति आदि की भिन्नता के कारण रचना-प्रक्रिया में अंतर आना स्वाभाविक है। इस दृष्टि से देखें तो मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया छायावादी और नयी कविता के कवियों से ही नहीं. वरन नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल जैसे प्रगतिशील कवियों से भी नितान्त भिन्न है। इस भिन्नता के लिए उपर्युक्त अन्यान्य कारणों के साथ ही दो और कारण भी माने जा सकते हैं।

पहला तो यह कि उन्होंने आत्म-संघर्ष से आत्म-साक्षात्कार और फिर जगत-साक्षात्कार की एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया को स्वीकार किया था और दूसरा यह कि उन्होंने काव्य-रचना के लिए एक अत्यंत कठोर मान-दंड स्वीकार किया था। इन दोनों तथ्यों को उनकी रचना-प्रक्रिया में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इसके लिए “अन्त:करण का आयतन”, “जब प्रश्नचिह्न बौखला उठे’, ‘चकमक की चिनगारियाँ”, ”अंधेरे में” आदि किसी एक कविता का संपूर्ण विश्लेषण आवश्यक है। “चकमक की चिनगारियाँ” और ‘अंधेरे में’ – दोनों कविताएँ तो आपने पढ़ ही ली होंगी। “अंधेरे में’ कविता का विस्तृत अध्ययन आप इससे आगे की किसी इकाई में करेंगे ही। अतः यहाँ मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए अत्यंत संक्षेप में “चकमक की चिनगारियाँ’ कविता को आधार बनाना अधिक संगत प्रतीत होता है।

“चकमक की चिनगारियाँ’ कविता के रचना-प्रक्रियात्मक विश्लेषण से पूर्व शीर्षक के तात्पर्य पर विचार कर लेना आवश्यक है। चकमक एक विशेष प्रकार का पत्थर होता है, जिस पर चोट करने से धमकीली और ज्वलनशील चिनगारियाँ निकलती हैं। यहाँ चकमक से मुक्तिबोध का अभिप्राय उस शिलावत व्यक्तित्व से है, जिसमें जीवनानुभवों के पुंज के साथ ही संस्कार रूप में युग-युगान्तर की मानव चिन्ताधारा और विचार-परंपरा सुप्तावस्था में पड़ी रहती है। ये जीवनानुभव और अर्जित ज्ञानराशि अवचेतन या अर्ध-चेतन में पहुँच कर अनुपयोग के कारण निष्क्रिय पड़ी रहती है। ऐसी स्थिति में जीवनयात्रा के दौरान इनका समुचित उपयोग नहीं हो पाता।

संवेदनात्मक उद्देश्यों से प्रेरित बाह्य मन और अन्तरात्मा (गुप्त) मन के संघर्ष से अनुभव चकमक की चिनगारियों की भाँति प्रगट होकर जीवन को ज्ञान का प्रकाश देते हैं। इनके प्रकाश में जहाँ एक ओर अन्तर और बाह्य की दूरी कम होती है, आचार और विचार की दूरी भी कम हो जाती है, वहीं दूसरी ओर मूल्य भावना भी दृढ़ होती है। इस मूल्यभावना के सहारे व्यक्ति अपने युग और समाज के साथ सार्थक ढंग से जुड़ पाता है। इस कविता को आत्मपरक से वस्तुपरक और जगतपरक होने की प्रकिया का सुंदर उदाहरण माना जा सकता है। इसके विश्लेषण से मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया के साथ ही निजी व्यक्तित्व, उनकी जीवन-दृष्टि कला-दृष्टि, सामाजिक मूल्य-भावना आदि सभी कुछ प्रगट हो जाएगा।

“चकमक की चिनगारियाँ’ कविता में स्पष्टत: तीन स्तर या स्थितियाँ हैं। प्रथम तो जीवन का उत्कटतीव्र अनुभव क्षण है, जिसे हम आत्मभोग का स्तर कह सकते हैं। दूसरा क्षण है, आत्मबद्धता की स्थिति की समाप्ति से उत्पन्न सौन्दर्यानुभूति या फैन्टेसी का क्षण। तीसरा क्षण है, कलात्मक अभिव्यक्ति का क्षण। ये तीनों क्षण परस्पर इतने मिले-जुले हैं कि इन्हें एक दूसरे से आसानी से अलग नहीं किया जा सकता। लेकिन कविता के विश्लेषण में उनकी पृथकता की ओर आसानी से संकेत किया जा सकता है। कविता का आरंभ भोगी गयी ज़िदगी के कटुतिक्त अनुभवों की पीड़ा से इस प्रकार होता है:

”अधूरी और सतही ज़िदगी के गर्म रास्तों पर

हमारा गुप्त मन

सिकुडता जा रहा था

आत्मालोचनात्मक स्वर प्रखर हो।’ (मूल कविता आप स्वयं देख लें)

प्राय: प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह कितना भी महान क्यों न हो, जब अपने बिताए गए जीवन से अपनी अन्तरात्मा की तुलना करता है तो उसे जीवन सतही और अधूरा ही प्रतीत होता है। एक ओर निम्नमध्यवर्गी परिवार की अभाव ग्रस्त ज़िन्दगी और दूसरी ओर कवि-कलाकार के रूप में एक उच्च मानवीय नैतिक दायित्व दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर दिखायी देता है। फलस्वरूप यहाँ बाह्य मन और गुप्त मन (अन्तरात्मा) के अंतराल के माध्यम से पीड़ित व्यक्ति का चित्रण है। बाह्य मन, जो प्राय: दुनियादार होता है और गुप्त मन की पारस्परिक स्थिति को व्यक्त करने के लिए, मुक्तिबोध ने दो उपमानों का सहारा लिया है, जो मात्र उपमान न होकर विश्व की दो व्यापक उत्पीड़न मूलक स्थितियाँ हैं।

बहुत से गोरों के बीच एक हब्शी की स्थिति और सरकारी पाबंदी के मध्य, कीमती मजमून, गैर कानूनी किताब जब्तपरचों में संजोये, अभिव्यक्ति के लिए छटपटाते बेचैन सत्य की स्थिति दुनियादार मन से आक्रांत गुप्त मन की अवस्था को पूरी तरह उद्घाटित करती है। एक सामान्य सुविधा भोगी और एक नैतिक दायित्व बोध से युक्त व्यक्ति में पर्याप्त अंतर होता है। एक है, जो अपने किए पर कुछ सोचता ही नहीं, या फिर सोचता है तो उसका औचित्य सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। लेकिन दूसरा अपनी कुछ कमियों के कारण ही अपने को ‘अंधे दौर से गुज़रा”, समझकर आत्मालोचन की ओर प्रवृत्त होता है। इस आत्मालोचन की भयानक वेदना को कविता के दूसरे खंड में प्रस्तुत किया गया है। जिससे स्पष्ट है कि जीवन का उत्कट-तीव्र क्षण इतना भयानक और शर्मनाक है कि :

“हर पल चीखता हूँ शोर करता हूँ

कि वैसी चीखती कविता बनाने में मैं लजाता हूँ”

दूसरे खंड को देखकर मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया और उनके व्यक्तित्व से अपरिचित पाठक को यह लग सकता है कि मुक्तिबोध आत्म ग्लानि से अत्यधिक पीड़ित थे। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए उन्होंने दमन, शोषण और उत्पीड़न का सहारा लिया था। किंतु इसे पूरी कविता और उनके व्यक्तित्व के संदर्भ में परखें तो हम पाएंगे कि यहाँ कवि के एक ऊंचे मानवी-नैतिक दायित्व का बोध व्यक्त हुआ है। “अचानक सनसनी भौंचक” यहाँ और कुछ नहीं, वरन् संवेदनात्मक उद्देश्य हैं, जिन्हें मुक्तिबोध ने जीवन-पद्धति के साथ ही रचना-प्रक्रिया में भी अत्यधिक महत्व दिया है। ये संवेदनात्मक उद्देश्य जीवन मार्ग पर उत्पन्न होकर एक तरफ जीवन यात्रा को सार्थक बनाते हैं तो दूसरी ओर सौंदर्यानुभूति के क्षण में उत्पन्न होकर रचना-प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं। प्रत्येक कवि की रचना-प्रक्रिया की भिन्नता के बावजूद मुक्तिबोध ने उसके चार अनिवार्य तत्व स्वीकार किए हैं – पहला संवेदनात्मक उद्देश्य, दूसरा कल्पना, तीसरा भावना और चौथा बुद्धि।

अनुभव क्षण से लेकर शब्दाभिव्यक्ति के क्षण तक इस संवेदनात्मक उद्देश्य की स्थिति बराबर बनी रहती है। कविता के इस दूसरे खंड में ये संवेदनात्मक उद्देश्य मनन-चिंतन द्वारा आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया को पूर्ण करते हैं। इसे मुक्तिबोध कलात्मक अनुभव या सौंदर्यानुभूति का क्षण मानकर जीवन प्रतीति का क्षण मानते हैं। यही कारण है कि अपने अंतर के नितांतं वैयक्तिक यथार्थ को, अपनी चीख-पुकार को, ज्यों का त्यों कविता में व्यक्त करने में मुक्तिबोध लज्जा का अनुभव करते हैं।

“चकमक की चिनगारियाँ’ कविता के तीसरे खंड में वैयक्तिकता का परिहार होने के बाद ही सौंदर्यानुभूति का क्षण उपस्थित होता है। यह कार्य भी संवेदनात्मक उद्देश्य के “कनपटी पर जोर से आघात” के माध्यम से होता है। “कंधे से सिर का गायब होना” अपने ‘अहम्’ या “स्व” की घेरेबंदी का टूटना है, इस निर्वैयक्तिकता की स्थिति में पहुँचकर ही कविता का नायक महसूस कर पाता है किः

”अरे कब तक रहोगे आप अपनी ओट 

 कहाँ मिल पाओगे उनसे

कि जिनमें जनम ले निकले’

कविता के तीसरे खंड से लेकर पाँचवे खंड तक यह निर्वैयक्तिकता की स्थिति बराबर बनी रहती है, जिसमें संवेदनात्मक उद्देश्य के हस्तक्षेप से लगातार मनन-चिंतन चलता रहता है और कविता के पाँचवे खंड के अंत में यह निष्कर्ष सामने आता है कि :

“अपनी मुक्ति के रास्ते

अकेले में नहीं मिलते”

कविता के छठवें से लेकर आठवें खंड तक आत्म-साक्षात्कार से जगत साक्षात्कार के अन्यान्य पहलू रेखांकित हुए हैं। इनमें अभ्यंतर (अन्तःकरण) के बाह्यीकरण और बाह्य के आभ्यंतरीकरण की अत्यंत उलझी हुई प्रक्रिया का बहुविध चित्रण हुआ है। इस प्रक्रिया के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मुक्तिबोध ने अन्यत्र लिखा है, “बाह्य का आभ्यंतरीकरण और आभ्यंतर का बाह्यीकरण एक निरंतर चक्र है। यह आभ्यंतरीकरण और बाह्यकरण मात्र मनन जन्य नहीं है, वरन् कर्म जन्य भी है।” इस कर्मजन्यता की पृष्ठभूमि उपर्युक्त तीनों खंडों में स्पष्ट रूप से दिखायी देती है। अत: यहाँ निर्वैयक्तिकता की स्थिति पूर्ण तटस्थता की स्थिति न होकर परम तल्लीनता, अपने को अपने जैसे सभी लोगों के साथ लय कर देने की स्थिति है। इस कार्य के पीछे संवेदनात्मक उद्देश्य की महत्वपूर्ण भूमिका को मुक्तिबोध ने कविता के नीनों खंडों में अच्छी तरह रेखांकित किया है। रचनाप्रक्रिया में संवेदनात्मक उद्देश्य की स्थिति को स्पष्ट करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है, “संवेदनात्मक उद्देश्य विद्युत की वह धारा है, जो अन्तर्व्यक्तित्व से प्रसूत होकर जीवन-विधान करती है, कला विधान करती है, अभिव्यक्ति-विधान करती है। आत्मचरितात्मक ये संवेदनात्मक उद्देश्य हृदय में स्थित जीवनुभवों को एक ओर (एक दिशा में) प्रवाहित कर देते हैं।

ये संवेदनात्मक उद्देश्य हमेशा छाया की तरह अन्तर्जगत में सक्रिय रहते हैं। कविता के छठे खंड में वे “मनो-आका-चित्रा सुनेत्रा” के रूप में दिखाई दे रहा है तो कविता के सातवें खंड में वह “अंधेरे में, अकेली एक छाया-मूर्ति’ के रूप में टायपिस्ट का कार्य करते हुए “लुमुम्बा, अलजीरिया, लाओस, क्यूबा” से संबद्ध स्थितियों का निरीक्षण-परीक्षण कर रहा है। वस्तुत: लुमुम्बा की हत्या, अलजीरिया, लाओस, क्यूबा आदि देशों पर साम्राज्यवादी शक्तियों के क्रूरतम आक्रमण मुक्तिबोध के अन्तर्जगत के अंग हैं। ये घटनाएँ नितान्त वस्तु-तथ्यात्मक न होकर अपना प्रतीकार्थ भी रखती हैं, जिनके मूल में जाकर मुक्तिबोध उनके उन्मूलन की मानवीय समस्या पर विचार करते हैं। ”चकमक की चिनगारियाँ” कविता के आठवें खंड में संवेदनात्मक उद्देश्य ‘मानव-पुण्य धारा” और “मानव-न्याय-संवेदन’ का वास्ता दिलाकर यह चुनौती उपस्थित करता है, “बशर्ते तय करो, किस ओर हो तुम अब” इस निर्णय के बाद लम्बे अध्याय के रूप में कविता के नवें खंड का प्रारंभ होता है। यह खंड मुक्तिबोध के कवि स्वभाव, उनकी “स्थानान्तरगामी” (मायग्रेशन) प्रवृत्ति और नाटकीय कौशल का सूचक है।

इस खंड में एक ओर कवि ने अपने बीहड़ मनोलोक की झाँकी अत्यंत रहस्यात्मक ढंग से प्रस्तुत की है तो दूसरी ओर “प्रशोषण सभ्यता की दुष्टता के भव्य देशों” की गरीब जनता की सूचनाओं में तल्लीन होकर “जगत संवेदनों से आगमिष्यत् का सही नक्शा बनाने की भी बात की है। इसमें एक ओर शोषणउत्पीड़न के सारे यंत्र-तंत्र हैं तो दूसरी ओर “पहाड़ों-जंगलों में मुक्तिकामी लोक सेवाएँ हैं, जो शत्रुओं पर भयानक वार करती हैं। सब मिलाकर कविता के इस खंड के अंत में गरीबी, शोषण उत्पीड़न, भूख, बदहाली का ऐसा जीवन्त चित्र प्रस्तुत किया गया है, जो क्रांति की अनिवार्यता को रेखांकित करता है।

कविता का दसवाँ खंड कविकृत आत्म-साक्षात्कार से जगत-साक्षात्कार के अंतिम निष्कर्ष से संबद्ध है, जिसमें पहले खंड की “अधूरी और सतही ज़िंदगी” की पीड़ा से उबरने और जीवन के आकर्षक रूप की वास्तविक पहचान को इस प्रकार रेखांकित किया गया है :

“कि मानो या न मानो तुम .

अधूरी और सतही ज़िंदगी में भी

जगत पहचानते, मन जानते

जी-माँगते तूफान आते हैं,

उनके धूल-धुंधले, कर्ण-कर्कश

गद्य छंदों में

तड़पते भान, दुनिया छान आते हैं।’

एक दायित्व वाले व्यक्ति के लिए ज़िंदगी अपने अधूरे और सतहीपन के बावजूद आकर्षक लगती है, उसे पूर्ण और सुंदर बनाने के लिए प्रेरित करती है। प्रत्यय या बोध के इस क्षण में उसे सर्वत्र क्रांति की बू आती है और “मानव भविष्यत युद्ध में रत‘ साधारण जनता के प्रति प्यार की भावना का उदय होता है।

कविता के ग्यारहवें खंड का आरम्भ क्रांति की “बारुदी धुएँ की झार (बू)” और साधारण जनता के प्रति प्यार से होता है। यहाँ कवि मानवता के विकास के सारे प्रश्नों और उनके उत्तरों को कृत्रिम और छलपूर्ण मानते हुए केवल एक समस्या को सामने रखता है :

समस्या एक –

मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में

सभी मानव

सुखी, सुंदर व शोषण-मुक्त

कब होंगे

इस एक समस्या के समाधान की अनिवार्यता को रेखांकित करते हुए भी मुक्तिबोध अपनी ओर से कोई समाधान न देकर केवल एक मानवीय आग्रह और अनुरोध मात्र प्रस्तुत करते हैं। लेकिन वर्तमान जीवन की वास्तविकता को, उसके परिवर्तनशील यथार्थ को सही ढंग से समझ कर ये आग्रह और अनुरोध प्रस्तुत किए जा सकें, इसके लिए वे कवि-कलाकार के व्यक्तित्वान्तरण को आवश्यक मानते हैं:

“कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में

उमग कर

जन्म लेना चाहता फिर से

कि व्यक्तित्वान्तरित होकर

नये सिरे से समझना और जीना

चाहता हूँ, सच!!”

(इस अंश के विश्लेषण के लिए आप इस इकाई के आरंभ में “जीवन-दर्शन और काव्य-दृष्टि’ वाले अंश को देख लें)

वस्तुत: यह कविता इस यारहवें खंड तक ही समाप्त हो जानी चाहिए थी। इसका बारहवाँ खंड अलग से जोड़ा हुआ प्रतीत होता है। बावजूद इसके यह खंड कविता के स्वरूप, उसकी प्रकृति, स्वाधीनता, कवि और समाज के साथ उसके संबंध आदि के साथ ही मुक्तिबोध की काव्य-दृष्टि को भी उद्घाटित करता है।

‘नहीं होती कहीं भी कविता खतम नहीं होती तब मुझी से लिपट जाती है” “जीवन-दर्शन और काव्यदृष्टि’ शीर्षक के अंत में दी गई इसकी व्याख्या भी इस संदर्भ में देख लें। यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि इस अंश में मुक्तिबोध ने कला के तीनों क्षणों – उत्कट-तीव्र अनुभव क्षण, उसके फैण्टेसी या सौंदर्यानुभव में परिवर्तित होने के क्षण के साथ ही शब्दाभिव्यक्ति के क्षण को एक साथ अत्यंत कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है।

उपर्युक्त विवेचन-विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि रचना-प्रक्रिया मूलत: एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो रचना के कार्य-कारण संबंधों को प्रकाश में लाने के साथ ही रचना और रचनाकार के व्यक्तित्व-विश्लेषण को समान महत्व देती है। इसलिए मुक्तिबोध ने जीवन-प्रक्रिया या रचनाकार की जीवन पद्धति को रचना-प्रक्रिया के विश्लेषण में विशेष महत्व दिया है। इसकी जानकारी के लिए रचनाकार का वैयक्तिक पारिवारिक स्तर उसकी सामाजिक स्थिति-परिस्थिति, बाह्य परिवेश के साथ उसका संबंध, उसकी वर्गीय स्थिति आदि सभी पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है। इस विषय में उनकी स्पष्ट मान्यता है कि “कृति की आलोचना अथवा प्रभाव ग्रहण, कवि के व्यक्तित्व का भी प्रभाव-ग्रहण है।” मूलत: व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया मानते हुए भी मुक्तिबोध ने रचना-प्रक्रिया को एक सांस्कृतिक प्रक्रिया भी माना है। इसलिए उसके साथ आत्म संस्कार से लेकर समाज संस्कार के कार्य भी जुड़े हुए हैं।

अतः रचना-प्रक्रिया के अध्ययन की ओर वे एक विशेष उद्देश्य से प्रवृत्त हुए थे। वह उद्देश्य एक ओर अपनी विशेष काव्य-प्रवृत्ति का औचित्य सिद्ध करना था तो दूसरी ओर किसी कृति का समुचित मूल्यांकन करना था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जहाँ वे एक ओर सौंदर्य संबंधी एक निश्चित सिद्धान्त पर पहुंच सके हैं, वहीं दूसरी ओर उन्होंने आगे के लिए सृजनशील साहित्य का मार्ग भी प्रशस्त किया है।

रचना-प्रक्रिया के तीन क्षणों की अलग-अलग पहचान वस्तुत: मुक्तिबोध की काव्य-प्रक्रिया की पहचान के साथ ही उनके समुचित मूल्यांकन के लिए भी आवश्यक है। अगर आप नागार्जुन के काव्य पर विचार करते हुए इस मान्यता को ज्यों-का-त्यों लागू करेंगे तो उनके साथ गंभीर अन्याय होगा। मुक्तिबोध के काव्य में आभ्यंतर के बाह्यीकरण और बाह्य के आभ्यंतरीकरण के साथ अन्तर्जगत के संशोधन संपादन की जो जटिल प्रक्रिया है, वह अन्य प्रगतिशील कवियों के यहाँ नहीं है। अत: मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया में जिन विशेष बिंदुओं को रेखांकित किया गया है, वे मूलत: उनके काव्य की सही समझ के लिए ही हैं।

सारांश

सब मिलाकर मुक्तिबोध एक महत्वपूर्ण प्रगतिशील कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं। हिंदी काव्य जगत में आने वाली अगली पीढ़ी के लिए उन्होंने एक नयी जमीन दी है। अपनी समीक्षाओं के साथ ही अपनी कविताओं के माध्यम से उन्होंने जबरन दफनाए गए प्रगतिशील आंदोलन को अच्छी तरह सहेज कर, अत्यंत सावधानीपूर्वक कब्र से बाहर निकाल कर नवजीवन प्रदान किया है। आज का प्रमुख साहित्यान्दोलन-जनवादी साहित्यान्दोलन इस बात को सिद्ध करता है कि मुक्तिबोध एक रुके हुए “जबरदस्त कार्यक्रम’ और ‘आगे ढकेली गयी महत्वपूर्ण प्रतीक्षित तिथि’ थे। अपनी कविताओं के माध्यम से उन्होंने “कविता के आगमिष्यत” के साथ समाज के भविष्य-निर्माण का एक सही नक्शा, आगे आने वाली पीढ़ी के लिए एक महान स्वप्न के रूप में दिया है। यह नक्शा और स्वप्न अपनी कुछ अस्पष्टता और धुंधलेपन के बावजूद आज के समूचे प्रगतिकामी कवियों के लिए प्रेरणा-बिंदु का कार्य कर रहा है।

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