सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के काव्य का वैचारिक आधार

इससे पूर्व आपने छायावाद के पुरस्कर्ता जयशंकर प्रसाद के काव्य का अध्ययन कर लिया है। यह इकाई छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी के काव्य पर आधारित है। इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप निराला काव्य की अब तक हुई आलोचना और आलोचना दृष्टियों की कतिपय अपर्याप्तता से परिचित हो सकेंगे। आप यह भी जान सकेंगे कि किस प्रकार आलोचकों ने निराला के व्यक्तित्व और निजी जीवन को उनके काव्य पर चस्पा करते हुए कैसे निष्कर्ष निकाले हैं। हर रचना का एक वैचारिक परिप्रेक्ष्य और अपना एक वैचारिक आधार होता है जो रचनाकार के निजी व्यक्तित्व और जीवन से मुक्त होता है और जिस की जाँच पड़ताल रचना की अपनी स्वायत्तता में तथा युग-संदर्भ में ही हो सकती है। निराला काव्य का वृहत्तर वैचारिक आधार क्या है और भिन्न-भिन्न कविताओं के वैचारिक आधारों में कैसी समानता/भिन्नता है, इसका अध्ययन भी आप इस इकाई में करेंगे।

हिंदी आलोचना में रचनाकारों को समझने के उपक्रम में उनकी रचनाओं के वैचारिक परिप्रेक्ष्य को वस्तुगत ढंग से जाँचने की परंपरा ज्यादा सुदृढ़ दिखाई नहीं पड़ती। अधिक से अधिक युगीन परिस्थितियों को ज्यों का त्यों उल्लिखित कर दिया जाता है और यह देखने, विश्लेषित करने के प्रयास कम ही किए जाते हैं कि लेखक की रचनाओं का उन परिस्थितियों से आवयविक संबंध कैसा है। परिस्थितियों की बात करते समय लेखक की रचनाओं को तो भुला ही दिया जाता है। और रचनाओं का विश्लेषण करते समय भाषा, रूप, संरचना, कथ्य की चर्चा भी साहित्य परंपरा और परिस्थितियों से निरपेक्ष रहकर ही की जाती है। ऐसे खंड-खंड विश्लेषण के बाद लेखक के बारे में कुछ ऐसे सूत्र गढ़ दिए जाते हैं कि उसे जानने-समझने की ज़रूरत लगभग खत्म हो जाती है और रचना आलोचना के उस बने-बनाये सूत्रात्मक गढ़ से बाहर नहीं निकल पाती। फलतः रचनाकार महान, प्रगतिशील,

प्रस्तुत इकाई में प्रारंभ में निराला के संदर्भ में उनको आलोचना की इसी प्रकार की प्रचलित धारणाओं की कमियों का उद्घाटन किया गया है और बताया गया है कि किस प्रकार आलोचक कवि निराला के जीवन, व्यक्तित्व को उनकी रचनाओं के संदर्भ में आरोपित करते रहे हैं और किस प्रकार रचना का मूल मर्म, संवेदना इन आरोपों के कारण धुंधली पड़ती गई है।

ज़रूरत है रचना को एक स्वायत्त सत्ता या इकाई मानकर समझने की। इस समझ को पुख्ता करने के लिए रचनाकार को जानना, रचना के वैचारिक परिप्रेक्ष्य को समझना भी ज़रूरी है। तभी रचना अपनी समस्त संभावनाओं के साथ पाठक के सामने आ सकती है। किसी भी रचना के वैचारिक आधार को जानने के लिए उस रचना के भीतर यह देखने की ज़रूरत है कि अपने युग के किस विचार दर्शन, प्रणाली, पद्धति को आधार बनाकर उस रचना ने आकार ग्रहण किया है। जहाँ तक निराला का संबंध है तो यह तो आप जानते ही हैं कि साहित्य में छायावाद युग से जाना जाने वाला युग स्वतंत्रता आंदोलन के विकास का भी युग था और निराला इसी युग में रचनारत थे। स्वतंत्रता आंदोलन के युग की मूल चेतना मुक्ति का एक ऐसा वृहत्तर स्वप्न रही है जो साहित्य में, राजनीति में, समाज में हर जगह व्याप्त था। मुक्ति का यही वृहत्तर स्वप्न उस युग का वैचारिक आधार था जिसकी नींव पर साहित्य, कला की मीनारें खड़ी हुई। रूढ़ियों से मुक्ति, पुराने सड़ चुके बंधनों से मुक्ति, साहित्य में पारंपरिक भाषा, रूपबंध, अलंकार, छंद से मुक्ति। निराला के काव्य का वैचारिक आधार भी यही मुक्ति का चिंतन था जिसे इकाई में आगे विस्तार से विश्लेषित किया गया है।

पूरे युग की एक वृहत्तर चेतना के भीतर कई विचार दर्शन, प्रणालियाँ, पद्धतियाँ सक्रिय रहती हैं, जो एक ही लेखक की विभिन्न रचनाओं के सृजन की वैचारिक आधार भी बनती हैं।। निराला की इसी प्रकार की विभिन्न वैचारिक आधारों वाली कुछ कविताओं को इस संदर्भ में विश्लेषित भी किया जाएगा।

तो आइए, निराला के काव्य की आलोचना की प्रचलित धारणाओं से अपनी बात शुरू करें।

निराला काव्य की आलोचना के प्रचलित आधार

निराला की कविता पर लिखते समय आलोचकों ने उनके निजी जीवन या “निराला के मन” का ज्यादा विश्लेषण किया है, कविता को उसी विश्लेषण के गवाह के तौर पर इस्तेमाल किया है। उनकी कविताओं की सापेक्ष स्वायत्तता और उन कविताओं की अंतर्निहित विचार-सरणि को अक्सर अनदेखा किया गया है। विश्व भर में आलोचना के क्षेत्र में जो सैद्धांतिक विमर्श अब तक सामने आये हैं, उनसे यह बात तो स्पष्ट है कि किसी कवि की घोषित विचारधारा और उसकी रचना में रची-बसी विचारधारा एक ही हो, यह ज़रुरी नहीं। रचना एक भाषिक संरचना होती है और वह समाज में एक स्वायत्त कला इकाई के रुप में अस्तित्व रखते हुए भी अपने देश और काल की किसी न किसी विचारधारा का अंग होती है। इस रुप में वह लेखक के निजी जीवन और निजी विचारधारा से भी स्वतंत्र हो जाती है। निराला के आलोचकों ने रचना की इस स्वतंत्रता को अनदेखा करके ज्यादातर कविताओं को कवि के निजी जीवन से जोड़ दिया है। आइए, कुछ आलोचकों की इस पद्धति की बानगी ली जाये।

निराला के जीवन और साहित्य पर डॉ. रामविलास शर्मा ने सबसे अधिक लिखा है। उनकी आलोचना पद्धति को बारीकी से देखें तो एक शब्द बार-बार आता है, “निराला का मन”, “निराला स्वयं”। वे लिखते हैं, “निराला के मन में गंध के प्रति प्रबल आकर्षण है।’ (निराला की साहित्य साधना-2, पृ0224,) फिर शूर्पणखा के एक कथन से “गुलाब” का उदाहरण देते हुए “शूर्पणखा के मन में राम का सौंदर्य गुलाब जैसा” बताते हैं और दो पंक्तियों का उद्धरण दे कर टिप्पणी करते हैं कि “यहाँ कवि के मन में गुलाब के प्रति कोई ऐसा मोह नहीं है जिसे भंग करना आवश्यक हो।” इसी तरह “स्फटिक शिला’ कविता की व्याख्या करते समय जहाँ वे निराला द्वारा “एक सद्य स्नाता युवती का चित्रण’ बताते हैं वहीं यह भी कहते हैं कि “रवीन्द्रनाथ की विजयिनी यहाँ फिर अवतरित हो गयी है” (वही – पृ० 227) मगर इस वस्तुगत काव्यवस्तु को कुछ ही पंक्तियों के बाद वे आत्मगत स्वरुप दे देते हैं, “स्वयं कवि उसके सौंदर्य का प्रत्यक्षदर्शी है।” फिर निराला के ‘मन’ पर आ जाते हैं और कहते हैं, ”मोह और मोहभंग के बीच निराला का मन कैसे झूलता था, यह कविता उसका प्रमाण है।” (वही पृ० 228) दरअसल, वे निराला की सारी कविताओं (और कई कथा कृतियों को भी) निराला के निजी जीवन और “उनके मन’ के ही किसी न किसी अंश का “प्रमाण’ बताते चलते हैं। राम की शक्ति पूजा” जैसी नाटकीय कविता को भी डॉ. रामविलास शर्मा निराला के “मन’ से जोड़ देते हैं। उन्होंने लिखा:

“राम की शक्तिपूजा” लिखते समय निराला का मन एक ओर पराजय, ग्लानि के बीच विपर्यस्त लटों वाले राम को देख रहा था, दूसरी ओर अब तक जो पढ़ा-गुना था, उसे समेटकर – उसका सारतत्व ले कर – काव्यचित्रों को सजा रहा था।”

इसी तरह ‘अनामिका” की एक कविता की व्याख्या करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा निराला के जीवन को बीच में ले आते हैं। कविता में “सूखी भूमि, सूखे तरु, सूखे सिक्त आलवाल’ जैसे बिंब किसी सार्वजनिक और सामाजिक स्थिति का बोध कराते हैं, मगर डॉ शर्मा कहते हैं, “इस साहित्यिक संघर्ष का केंद्र निराला स्वयं थे, …”जला है जीवन यह” – निराला का जीवन जला है। …निराला के मन की आशाएं, विषाद, उल्लास, निराशा, वीरतापूर्ण कर्म, त्रास, दुःस्वप्न – यह सब कुछ कहीं-न-कहीं हिंदी के इस आंतरिक संघर्ष से जुड़ा हुआ है। 

साहित्य समीक्षा की यह जीवनीपरक या मनोविश्लेषणवादी पद्धति दुनियाभर में खारिज की जा चुकी है क्योंकि इसमें काफी मनमानापन बरते जाने की गुंजाइश रहती है जबकि रचनाकार के “मन” का या “जीवन’ का जटिलताभरा स्वरुप उसके जीवन काल में भी जानना आसान नहीं होता, मृत्यु के बाद सिर्फ काव्यभाषा से उसे विश्लेषित करना तो और भी अप्रामाणिक होगा क्योंकि काव्यभाषा तो बहुलार्थक होती है। काव्यभाषा के इस गुण के बारे में भारतीय काव्यशास्त्र में भी और पश्चिमी साहित्यालोचन के सिद्धांतों में भी काफी कुछ कहा गया है। काव्यभाषा के इस वस्तुगत अस्तित्व को अनदेखा करके निराला के आलोचकों ने उनकी कविताओं के बजाय उनके जीवन पर ज्यादा ध्यान दिया है। निराला पर एक और किताब का जिक्र अक्सर आता है, यह है दूधनाथ सिंह द्वारा लिखी किताब, “निराला : आत्महंता आस्था”।

इस किताब में भी, जैसा कि शीर्षक से ही ध्वनित है, निराला के “आत्म” या “निजत्व” पर ज्यादा ज़ोर है। हालांकि डॉ. रामविलास शर्मा के मुकाबले दूधनाथ सिंह की आलोचना में निराला की रचनाओं की रचनाप्रक्रिया का काफी कुछ वस्तुगत विश्लेषण है, फिर भी “मैं शैली अपनाने वाले निराला की कविताओं से वे भी उनके निजी जीवन को ही जानने-समझने और पारिभाषित करने की कोशिश करते हैं। डा. शर्मा की तरह वे भी लिखते हैं : “उनका (निराला का) सारा जीवन सांसारिक दृष्टि से असफल, अव्यवस्थित, विश्रृंखल, अतिशय अव्यावहारिक और दुखद रहा है। आर्थिक विपन्नता इसमें प्रमुख रही है। इस सांसारिक दुखद नियति के आगे हार-जीत की द्वंद्वपूर्ण मन:स्थिति और उसका अंतस्ताप ही निराला की रचनात्मकता की मुख्य दिशा बन गयी है। (पृ014) यह देख कर हैरानी होती है कि “बादल राग” जैसी निर्वैयक्तिक और नाटकीय रचना को भी दूधनाथ सिंह निराला की ‘आत्मा” से या “निजी जीवन’ से जोड़ देते हैं। वे लिखते हैं : “निराला ऋतु के माध्यम से अपने जीवन-बिंब को ही बार-बार अवतरित करते हैं, उसे पाते हैं और उसे खो देते हैं।

 इस तरह की आलोचना में एक अंतर्विरोध भी है, क्योंकि ये आलोचक जब कविताओं का विश्लेषण या ‘पाठ’ करते हैं तो उनका आलोचनात्मक विमर्श अक्सर “निजी जीवन’ या “आत्मचरित’ से दूर चला जाता है। यह स्थिति डॉ. रामविलास शर्मा और दूधनाथ सिंह दोनों की ही आलोचना पद्धति में देखी जा सकती है।

साहित्य अकादमी ने 1985 में निराला पर एक पुस्तिका (मोनोग्राफ) प्रकाशित की थी जिसके लेखक हैं: परमानंद श्रीवास्तव। इस पुस्तिका में परमानंद श्रीवास्तव ने भी डा. रामविलास शर्मा की आलोचना पद्धति का अनुसरण किया और कवि के व्यक्तिगत जीवन को ही कविता के भीतर ज्यादा देखा। “राम की शक्ति पूजा’ जैसी नाटकीय कविता में डॉ. शर्मा की तरह श्रीवास्तव जी भी निराला का निजी जीवन ढूंढ रहे हैं। वे लिखते है : “अन्याय जिधर है, उधर शक्ति” कह कर निराला अपने ही जीवन के दुर्भाग्य की विडंबना प्रकट कर रहे थे।’ (पृ018) इसी तरह वे निराला की “मैं शैली” को “आत्मसाक्षात्कार’ या “आत्मसंघर्ष’ के हवाले करके आलोचना की इतिश्री करते हैं : “निराला के काव्य संसार में आत्मसंघर्ष और आत्मसाक्षात्कार के अनुभव चित्र अनेक हैं और उनके आधार पर देखा जा सकता है कि निराला का “मैं’ लगातार शेष संसार की वास्तविकता से टकराता है।”

यह बात श्रीवास्तव जी ने निराला के गीतों के बारे में भी कही है, वे लिखते हैं : “आत्म-साक्षात्कार या आत्मसंघर्ष के अनुभव निराला के गीतों में बिखरे पड़े हैं। आत्मसाक्षात्कार एक तरह से निराला के गीतों के केंद्र में है।’ (वही, पृ038) चलो, गीतों के बारे में यह बात मान भी ली जाये (हालांकि गीत भी रचे जाने के बाद “आत्म’ से दूर हो जाते है), मगर अपनी पूरी नाटकीयता के साथ लिखी गयी लंबी कविताओं के बारे में भी श्रीवास्तव जी अन्य हिंदी आलोचकों की ही तरह “निराला के जीवन संघर्ष’ का राग अलापते हैं : “इनका महत्व इस लिए भी है कि इनके भीतर निराला के जीवन संघर्ष का मार्मिक साक्ष्य मिलता है  |

इस तरह हम देखते हैं कि हिंदी आलोचना में अभी तक रचना को एक सापेक्षतया स्वायत्त इकाई मानने और उसका विश्लेषण करने या उसमें निहित विचार सरणि को परिभाषित करने की पद्धति विकसित नहीं हुई है। जहाँ आलोचकों ने उनकी अलग-अलग कविताओं की कलात्मकता की चर्चा की है वहाँ रुपवादी आलोचना पद्धतियों से निराला की शब्दशक्ति, अलंकार प्रयोग, प्रतीकात्मकता, बिंबात्मकता आदि के बारे में वक्तव्य दिये हैं। यह बयानबाजी भी उसी नज़रिये से की गयी है जिसमें ध्यान रचनाकार के व्यक्तित्व को महानतम सिद्ध करने पर रहता है। इस काम के लिए हिंदी आलोचना एक और नुस्खा अपनाये हुए है जिसका ज़िक्र करना भी यहाँ ज़रुरी है। यह नुस्खा है किसी दूसरे कवि से

अपने इष्ट कवि की तुलना करना और दूसरे को हेठा या छोटा दिखा कर अपने इष्ट कवि-व्यक्तित्व को ऊंचा सिद्ध करना। निराला पर लिखी हिंदी आलोचना में भी यह प्रवृत्ति खूब मिलती है।

डॉ. रामविलास शर्मा की पुस्तक “निराला की साहित्य साधना” के द्वितीय खंड को देखें तो हर अध्याय में इस तुलनात्मक प्रवृत्ति की मिसाल मिल जायेगी। इस किताब की शुरुआत ही वे अंग्रेज़ी कवि मिल्टन और तमिल कवि सुब्रह्मण्यम भारती से करते हैं। फिर जगह-जगह हिंदी के अन्य लेखकों को हेठा सिद्ध करते चलते हैं। मसलन, निराला की एक टिप्पणी पर अपनी राय प्रकट करते हुए डॉ. शर्मा यह जोड़ देते हैं कि “निराला सन् 32 में यह टिप्पणी लिखते हुए जहाँ पहुंचे थे, वहाँ उस समय के नये और पुराने लेखकों को पहुंचने में अभी देर थी” (पृ0114) निराला की भाषा की शक्ति की प्रशंसा करते समय वह बाकी सारे कवियों पर टिप्पणी करते हैं कि “वे निराला से बड़े कवि नहीं, उनकी भाषा में वह शक्ति नहीं जो निराला की भाषा में है।” (पृ0408) निराला के छंदों की स्वच्छंद लय के विकास के बारे में लिखते समय टिप्पणी की, “हिंदी में उसका जैसा विकास निराला में हुआ है, वैसा अन्य कवि में नहीं… “

इसी तरह निराला को महान घोषित करने के लिए उनकी एक उक्ति की तुलना लौन्जाइनस की उक्ति से कर दी (पृ0495), एक जगह लिखा, निराला ने शेक्सपीयर के सानेट का सारतत्व खींचकर एक पंक्ति लिखी – “खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन।” (पृ0530), कृत्तिवासीय रामायण के राम की तुलना “राम की शक्तिपूजा” के राम से करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा, “राम के आंसू असाधारण हैं। उन्हें देखकर शक्ति के अक्षय स्रोत चंचल हो उठते हैं, “ये अश्रु राम के” आते ही मन में विचार/ उद्वेल हो उठा शक्ति खेल सागर अपार । शक्ति सागर का यह उद्वेल इसीलिए संभव है कि निराला की आंखों में आंसू आसानी से नहीं आते। ऐसा भाव-संयम, उनके भंग होने पर करुणा की ऐसी अपूर्व अभिव्यक्ति केवल शेक्सपीयर में है।” (पृ0533) तुलना करने की यह प्रवृत्ति डॉ. रामविलास शर्मा की आलोचना में उसी तरह व्याप्त है जैसे कवियों के “मन” या “व्यक्तित्व” का विश्लेषण करने की अनाधिकार कोशिश। “अभिप्राय” नामक हिंदी पत्रिका के अंक 20 (जनवरी-मार्च 1998) में दिये गये एक इंटरव्यू में प्रश्नकर्ता भी निराला और मुक्तिबोध का तुलनात्मक आकलन डॉ. शर्मा के मुंह से सुनना चाहता है और डॉ. शर्मा (जो अन्य हिंदी आलोचकों की तरह इस काम में सिद्धहस्त है) फौरन तुलना कर डालते हैं और कहते हैं : ‘…मुक्तिबोध किसान आंदोलन से कटे हुए थे। उनकी कृति “अंधेरे में’ असामान्य मनोदशा की रचना है।

इसके विपरीत निराला अपने समय में सामाजिक सरोकारों से सर्वाधिक रूप से कवियों में प्रथम ठहरते हैं। मुक्तिबोध कहीं भी निराला के समक्ष नहीं ठहरते – आज भी मेरा यह मानना है।” (पृ047) इस इंटरव्यू में भी गौर से देखें तो ‘मनोदशा” और अपने इष्ट को महानतम सिद्ध करने की प्रवृत्ति मौजूद है।

अन्य कवियों को नीचा सिद्ध करने की प्रवृत्ति हिंदी आलोचना में खूब मिलती है और अभी इससे मुक्ति नहीं। निराला पर लिखने वाले अन्य लेखक भी इस तरह की तुलनात्मक टिप्पणी करते हैं। दूधनाथ सिंह ने भी अपनी पुस्तक, “निराला : आत्महंता आस्था” में निराला की प्रेम कविताओं को व्याख्यायित करते समय कबीर, जायसी और रवींद्रनाथ ठाकुर से उनकी तुलना की है और यह दर्शाया है मानों ये रचनाकार निराला के मुकाबले कमज़ोर थे। (देखें पृ0 33-34) परमानंद श्रीवास्तव ने भी इसी तरह लिखा : “पूरे छायावाद युग में और संभवत: छायावादोत्तर युग में भी निराला जैसी प्रतिभा का दूसरा रचनात्मक लेखक नहीं है। निराला हर तरह से हिंदी की जातीय रचनात्मक परम्परा के अद्वितीय लेखक हैं।’

निराला के काव्य का वैचारिक आधार

हिंदी आलोचना की उक्त दो सीमाओं का उल्लेख यहाँ करना इसलिए जरुरी था क्योंकि अब समय आ गया है कि 21वीं सदी में हम बेहतरं आलोचना ज्ञान से अपने साहित्य को समृद्ध करें। इसीलिए इस पाठ का शीर्षक भी यह ध्वनित करता है कि हम “काव्य का वैचारिक आधार’ विश्लेषित करें, निराला की घोषित विचारधारा या उनके व्यक्तित्व और जीवन की सुनी सुनायी बातों पर भरोसा न करें। ऐसी समीक्षा से ही काफी कुछ वस्तुगत आकलन संभव होगा। रचना में निहित विचारधारा रचना की भाषा से हासिल की जाती है, कवि या लेखक अपनी विचारधारा का जो उद्घोष करता है, ज़रूरी नहीं कि वही विचारधारा उसके द्वारा निर्मित काव्यनायकों की भी हो क्योंकि किसी रचना का वाचक या नायक ”मैं” शैली के बावजूद कवि खुद नहीं रह जाता। इसी वजह से कवि की एक रचना का वैचारिक आधार, हो सकता है, किसी अन्य कविता के वैचारिक आधार से बिल्कुल भिन्न हो। इस स्थिति को आलोचक अपनी नासमझी में कवि के अंतर्विरोध कह कर छुट्टी कर देते हैं।

दरअसल, यह गुत्थी इस सत्य को जानने से ही सुलझती है कि हर रचना सापेक्षतया एक स्वायत्त इकाई है, उसका अपना एक वाचक है, उस रचना की सापेक्षता अपने देश और काल के बीच है, वह वाचक और रचना एक काव्यभाषा द्वारा निर्मित होते हैं, भाषा समाज के बीच की होती है, इसीलिए समाज सापेक्ष होती है, और एक से अधिक अर्थ वाली यानी बहुलार्थक होती है। इसीलिए आलोचक रचनाओं का अपना-अपना भाष्य प्रस्तुत करते हैं। इन भाष्यों या “पाठों” में से एक पाठ खुद रचनाकार का भी हो सकता है, लेकिन अन्य “पाठ भी खारिज नहीं किये जा सकते क्योंकि भाषा की यह अपनी प्रकृति है। 

भाषा की इस प्रकृति की पहचान भारतीय काव्यशास्त्र में तो हुई ही थी, पश्चिम में स्विस भाषा वैज्ञानिक फर्डिनांड डि सौस्यूर (1857-1913) के भाषा संबंधी चिंतन ने इसे और अधिक पुष्ट किया। उनके ज्ञान से रुपवादी आलोचना ने तो बहुत फायदा उठाया, लेकिन वैज्ञानिक चिंतन में रुचि रखने वाले वस्तुवादी आलोचकों, खासकर मार्क्सवादी आलोचकों ने भी अपनी आलोचना पद्धति को पुष्ट किया। फ्रांस में रोला बार्थ ने भाषा की बहुलार्थक प्रकृति को मार्क्सवादी नजरिये से समृद्ध किया। उन्होंने “व्यक्तित्व” की अवधारणा (जिसे सार्च के अस्तित्ववाद ने सूत्रबद्ध किया था) को विखंडित कर दिया और कहा कि किसी भी मनुष्य का एक व्यक्तित्व नहीं होता, बहुत से व्यक्तित्व होते हैं। इसीलिए रोलां बार्थ ने उस प्राध्यापकीय आलोचना को विखंडित किया जो रचनाकार के जीवनचरित या “व्यक्तित्व” या “मन” को विश्लेषित करती थी और उस आलोचना को भी जो रचना को देशकाल निरपेक्ष मान कर सार्वभौमिक (यानी सभी देशों और सभी युगों से ऊपर या उस समाज के वर्गीय यथार्थ से ऊपर) सत्य या मूल्य घोषित करती थी।

निराला जिस समाज और समय में रचनाकर्म कर रहे थे, उस समय तक हिंदी भाषा का जो विकास हो पाया था, उसे और आगे तक जे जाने के उद्देश्य से भाषा के बारे में भी उन्होंने काफी चिंतन किया था। उनकी कुछ मान्यताएं आश्चर्यजनक रुप से रोलां बार्थ की मान्यताओं से मिलती हैं जबकि रोलां बार्थ का सैद्धांतिक लेखन छठे दशक के शुरु में प्रकाश में आया था, वह भी फ्रेंच भाषा में। भाषा की बहुलार्थक प्रकृति के बारे में उन्होंने संस्कृत वाड्.मय की उक्ति”, “एक सद्विप्रा बहुधा वदंति” का सहारा ले कर लिखा, सैद्धांतिक बहस में ज्यादा न उलझ कर उन्होंने तुलसीदास, गालिब, मीर नज़ीर अकबराबादी की रचनाओं का अपना भाष्य या ‘पाठ’ भी प्रस्तुत किया। हलके-फुलके तरीके ही से सही, उन्होंने दुलारेलाल भार्गव के एक दोहे के छ: अर्थ यानी आज की भाषा में “पाठ” प्रस्तुत किये। अंत में यह भी लिखा : “इस दोहे के यहाँ छ: अर्थ मैंने किये हैं, और भी अनेक होते हैं। अभी यहाँ इतने ही दिये, विचारशील पाठक अर्थों की सार्थकता देखें।’ (निराला ग्रंथावली, सं. ओंकार शरद, भाग1, पृ0562)

यहाँ निराला ने यह संकेत भी दे दिया कि ज़रुरी नहीं सारे अर्थ ठीक ही लगें, पाठक खुद , उसका निर्णय करें यानी पाठक के लिए एक अन्य अर्थ की संभावना को उन्होंने खुला रखा। इस खुलेपन में पाठक की अपनी रचनात्मकता की गुंजाइश बनी रहती है। यह समझ, हो सकता है, उन्हें तुलसी साहित्य की बहुसार्थकता या ग़ालिब की रचनाओं की बहुलार्थकता से हासिल हुई हो जिसके प्रमाण उनके निबंधों में मिलते हैं।

भाषा की बहुलार्थक प्रकृति की ही तरह निराला का एक और विचार रोलां बार्थ से मिलता जुलता है। रोला बार्थ रचनात्मक भाषा को सरल, तर्कसंगत और समझ में सीधे-सीधे आ जाने वाली भाषा के रुप में देखने के पक्ष में नहीं था। वह इस तरह की भाषा की मांग को फ्रांस के पूंजीपतिवर्ग के स्वार्थ से जुड़ी हुई मांग मानता था क्योंकि पूंजीपतियों को इस तरह की भाषा में अपने अखबार और अन्य संचार माध्यमों को संचालित करना होता था। प्रतिरोध की भावना से युक्त भाषा सरल नहीं होनी चाहिए, बल्कि रोलां बार्थ तो क्लिष्ट और विसंगतिपूर्ण भाषा की रचना को पूंजीवाद के खिलाफ एक प्रतिरोध का ही रूप मानता था। निराला भी “साहित्य और भाषा” शीर्षक निबंध में ‘सरल” सरल की गुहार का . विरोध करते हैं। वे लिखते हैं: “हिंदी की सरलता के संबंध में बकवास करने वाले लोगों में अधिकांश को मैंने देखा – लिखते बहुत हैं, जानते बहुत थोड़ा हैं।’ (निराला ग्रंथावली-1, सं.ओंकार शरद, पृ0 62) आगे उन्होंने लिखा कि जिन बड़े-बड़े साहित्यिकों से समाज का वास्तव में कल्याण हुआ है, “उन प्राचीन बड़े-बड़े साहित्यिकों की भाषा कभी जनता की भाषा नहीं रही। सोलह आने में चार आने जनता के लायक रहना साहित्य का ही स्वभाव है।” 

निराला हो या रोलां बार्थ या कोई अन्य चिंतक, उनके विचार किसी न किसी सामाजिक हलचल या गति से अस्तित्व में आते हैं, व्यक्ति, खासकर प्रतिभाशाली और संवेदनशील व्यक्ति, अपने चिंतन के माध्यम से उन विचारों को रुप प्रदान कर देता है। इसी तरह किसी रचना का भी अपना वैचारिक आधार उसके समाज और काल में ही निहित होता है। निराला के काव्य का वैचारिक आधार जानने के लिए ज़रुरी है उनके समय के समाज के यथार्थ को वैज्ञानिक चिंतन के आधार पर समझना। समाज के विकास के वैज्ञानिक नियमों के अनुसार किसी भी समाज के यथार्थ को समझने के लिए ज़रुरी है, उस समय में समाज में विभिन्न वर्गों की स्थिति और भूमिका को समझना। निराला का काव्य उनके विकासकाल में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान लिखा गया और परवर्ती साहित्य स्वाधीनता के बाद। भारतीय समाज की एक बनावट स्वाधीनता आंदोलन के दौरान थी, उससे भिन्न एक नयी बनावट आज़ादी हासिल कर लेने के बाद सामने आयी। इन दोनों चरणों के वर्गीय ढांचे को समझे बगैर उस दौर के रचनात्मक साहित्य के वैचारिक आधार को समझ पाना मुश्किल होगा।

स्वाधीनता आंदोलन के दौर में हमारे देश पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद का शासन था, देश के बाकी अन्य वर्ग गुलाम थे। देश के सामंतवर्ग को शासकों ने अपने साथ मिला लिया था, शेष वर्गों में आते थे, देश के नवोदित पूंजीपति, मध्यवर्ग के लोग, किसान और मज़दूर। इन वर्गों में से पूंजीपतिवर्ग को अपने विकास के लिए भारत को एकताबद्ध करना और अपने लिए यहाँ के बाज़ार को मुक्त कराना सबसे ज्यादा ज़रुरी था, इसी उद्देश्य से उसने उन्नीसवीं सदी में ही भारतेंदु के माध्यम से यह अहसास करवाया कि “…धन विदेस चलि जात यहै दुःख भारी।’ पूंजीपतिवर्ग ने ही “राष्ट्रीयता’ यानी “भारत” का बोध प्रचारित किया। इसीलिए रीतिकाल के दोहों में व्यक्त “मेरी भवबाधा’ की जगह उन्नीसवीं सदी के अंत में ‘भारतदुर्दशा का बोध सामने आया। उसके बाद “भारत भारती’ आदि में भी इसी भारत की कल्पना और उसकी मुक्ति का अहसास कराया गया। इसी दौर में नारा आया, “स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।” इस नारे के पीछे भी प्रेरक शक्ति देशी पूंजीपतिवर्ग ही था जिसे अपने लिए भारत का बाज़ार विदेशी पूंजीपतियों से मुक्त कराना था।

चूंकि देश के अन्य शोषितवर्गों के हित भी स्वाधीनता से जुड़ गये थे, इसलिए इस आंदोलन में सबकी शिरकत होने लगी थी, वह एक साझा आंदोलन बनने लगा था। इसलिए इस दौर की रचनाओं का आधारभूत वैचारिक आधार मुक्ति का दर्शन था, निराला के काव्य का भी वैचारिक आधार मुक्ति का ही दर्शन था। जिस तरह फ्रांस की 1789 की क्रांति का उद्देश्य पूंजीवाद द्वारा सामंतवाद का खात्मा करके राजसत्ता हथियाना था जिसके लिए तीन नारे दिये गये थे. “स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व”, उसी तरह हमारे यहाँ भी पहले “स्वराज”, “स्वदेशी” का नारा दिया गया और फिर “बंधुत्व” भाईचारे का। “समता” के नारे को ज्यादा प्रचारित नहीं किया गया। फ्रांस की क्रांति के नारों ने पूरे यूरोप के साहित्य में रोमांटिक साहित्य को जन्म दिया, उसी तरह हमारे यहाँ “स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” के नारे ने सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में रोमांटिक साहित्य आंदोलन को पैदा कर दिया।

“मुक्ति’ एक नये मानव मूल्य की तरह चेतना का हिस्सा बनने लगी, हर स्तर पर पराधीनता के खिलाफ चेतना प्रस्फुटित होने लगी। इसी भावना को “राष्ट्रवाद”, “राष्ट्र प्रेम” (जिसका सारतत्व भारतीय बाज़ार को देशी पूंजीपतियों के लिए मुक्त कराना था) के नाम से प्रचारित किया गया। चूंकि इन नये मानव मूल्यों से हमारा समाज विकास की नयी मंजिल में प्रवेश कर सकता था, इसीलिए ये सारे मूल्य प्रगतिशील मूल्य थे। सामाजिक विकास की नयी मंजिल हासिल करने के लिए देश के लाखों लोगों ने जाने कुर्बान कर दीं। मुक्ति का यह अहसास बहुत बड़ी शक्ति छिपाये हुए था, इसमें बड़ी ऊर्जा थी, इसी ऊर्जा से निराला का साहित्य भी दीप्त हो रहा था।

उनके रचनात्मक साहित्य का वैचारिक आधार यही मुक्ति का दर्शन था। मुक्ति के विचार से संगति बिठाने वाले हर दार्शनिक चिंतन को वे आत्मसात करने और उसे नया अर्थ देने की कोशिश में लग जाते थे। इसी प्रक्रिया में भारतीय नवजागरण के सभी बौद्धिक स्रोतों पर निराला ने देर सवेर निगाह डाली। अन्य रचनाकारों की तरह उन्होंने भी अतीत को गौरवान्वित करके, भारतीय चेतना में रचे-बसे मिथकों को इस्तेमाल करके पराधीनता की नींद से सोये हुए देश के जन गण को जगाने की रचनात्मक कोशिश की। “जागो फिर एक बार’ जैसी रचना की व्याख्या भारतीय नवजागरण की प्रक्रिया को समझे बगैर ठीक से नहीं हो सकती। इसलिए “जागो फिर एक बार’ कविता का वैचारिक आधार भारतीय नवजागरण की वे तमाम दार्शनिक प्रणालियाँ हैं, जो अपने आंतरिक अंतर्विरोधों के साथ भी हर भारतीय को अतीत की महानता का बोध कराती थीं, पराधीनता से मुक्त होने के लिए उत्प्रेरित करती थीं।

मुक्ति का दर्शन/चिंतन

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, निराला की कविताओं का वैचारिक आधार, अन्य छायावादी कवियों के वैचारिक आधार की ही तरह, मुक्ति का चिंतन था। दरअसल, मुक्ति के इस चिंतन की प्रक्रिया में कोई एक बंधीबंधायी दार्शनिक प्रणाली इस दौर के किसी भी कवि को आकर्षित नहीं कर पा रही थी। मुक्ति संग्राम में भी कोशिश यह हो रही थी कि अतीत की ही कोई दार्शनिक प्रणाली हाथ लग जाये तो उसी के सहारे आज़ादी की लड़ाई लड़ी जाये। ऐसा इसलिए हो रहा था क्योंकि हमारे समाज का विकास एक खास मंजिल तक ही पहुंच पाया था और इस नये विकास में दो नये वर्ग ही ऐतिहासिक रुप से अपनी भूमिका निभा सकते थे, इनमें से एक वर्ग नवोदित पूंजीपतिवर्ग और दूसरा उनके अधीन काम करने वाले मजदूरों का वर्ग था।

भारत का नवोदित पूंजीपति वर्ग भूस्वामियों समेत सभी अन्य वर्गों को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ अपने पक्ष में एकताबद्ध करना चाहता था, प्रथम विश्वयुद्ध में भारी मुनाफे कमा कर यहाँ का पूंजीपति इतना शक्तिशाली हो चुका था कि वह स्वाधीनता आंदोलन का राजनीतिक नेतृत्व अपने हाथ में ले सके। उसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को राजनीतिक पार्टी के रुप में इस नेतृत्व का मंच या माध्यम तैयार किया। चीन जैसे देश में पूंजीवाद अपने दलाल चरित्र से ऊपर उठ कर सशक्त नहीं बन पाया था, इसलिए वहाँ के मुक्ति आंदोलन की जिम्मेदारी मजदूर वर्ग की पार्टी यानी कम्युनिस्ट पार्टी पर आ गयी थी।

हमारे यहाँ मज़दूर वर्ग ने अपनी राजनीतिक पहलकदमी और अपनी पार्टी का गठन आदि का काम देर से शुरु किया, तब तक पूंजीपतियों की पार्टी और राजनीति ने भारत के अवाम की चेतना में पैठ कर ली थी और देशभक्ति और राष्ट्रवाद की लहर पूरे उपमहाद्वीप में फैला दी थी।

पूंजीपतिवर्ग ने हमारे यहाँ सामंतवाद के खात्मे को कभी अपने एजेंडे में शामिल नहीं किया जैसा कि पश्चिम के देशों में हुआ था। इसी वजह से हमारे यहाँ अतीत की विचारधाराओं का सहारा लेकर मुक्ति संग्राम लड़ने की कोशिशें हुई। अतीत का गौरवगान और सामंती अतीत के नायकों की शौर्यगाथा इसी जटिलता की सूचक थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने इस अतीत प्रेम को सांप्रदायिक रंगत दे कर हिंदूमुसलमान के बीच खाई पैदा करने में योगदान दिया, अतीत प्रेमी सामंती तत्वों ने हिंदू महासभा और आर.एस.एस. जैसे संगठन खड़े किये जिनसे ब्रिटिश हकूमत को काफी मदद मिली क्योंकि भारतीय जनता की एकता तोड़ने में ये संगठन मददगार साबित हो रहे थे।

इन संगठनों से आतंकित होकर मुसलमानों के भीतर के सामंती जेहनियत वाले अतीतगामियों ने “मुस्लिम लीग’ बना कर वही भूमिका अदा की जो हिंदू महासभा और आर.एस.एस. के संगठन कर रहे थे। इस तरह दोनों तरह के सांप्रदायिक तत्व ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिए मददगार साबित हो रहे थे क्योंकि उनकी नीति ही थी, “फूट डालो और राज करो”।

अतीतप्रेम की इस जटिल परिस्थिति का वैचारिक असर बुद्धिजीवियों पर भी पड़ रहा था। भारतेंदु हरिश्चंद्र से ले कर आज तक ऐसे बहुत से कवि जो अतीतप्रेम से आलिप्त हो जाते हैं, मुख्यतया हिंदू सामंतों के समय की विचारधाराओं को ही “भारतीय मनीषा” कह कर महिमामंडित करते हैं, अन्य कलाओं और सांस्कृतिक सवालों में भी हिंदुओं से इतर समुदायों के मनीषियों, कलाकारों आदि को गिनती में नहीं लाते। सांप्रदायिकता का यह ज़हर काफी गहरे आज तक हमारे समाज की चिंतनप्रणाली में समाया हुआ है।

निराला की कविताओं में भी भारतीय नवजागरण की विचार प्रणालियों के अंतर्विरोध हैं, इसलिए उनकी सारी कविताओं का एक ही वैचारिक आधार नहीं है। “महाराज शिवाजी का पत्र” शीर्षक कविता का वही वैचारिक आधार नहीं है जो “बादल राग” का या फिर “राजे ने अपनी रखवाली की’ जैसी कविताओं का है। हालांकि “स्वतंत्रता” के मूल्य को फलित देखने की चाह तीनों कविताओं के वाचकों को है जो कि इस दौर का आधारभूत मूल्य है, फिर भी “महाराज शिवाजी का पत्र” वस्तुगत रुप में (निराला के मन में चाहे जो कुछ रहा हो, वह यहाँ महत्वपूर्ण नहीं है और उस मंतव्य की तलाश विकसित काव्यालोचन का काम भी नहीं है) अतीत के उस सांप्रदायिक वैचारिक आधार की कविता ही ठहरती है जिसका पोषण राजे महाराजे करते रहे, अंग्रेज़ शासक भी करते रहे और स्वाधीन भारत में भी शोषक-शासक वर्ग आज भी कर रहे है।

“बादल राग” कृषक मुक्ति की विचारधारा की कविता है, “राजे ने अपनी रखवाली की’ का वैचारिक आधार मज़दूर वर्ग की विचारधारा यानी मार्क्सवादलेनिनवाद है क्योंकि उसी विज्ञान के प्रकाश में यह सत्य उजागर होता है कि शोषण पर आधारित वर्गीय सामाजिक ढांचे में “राजे’ यानी शासकवर्ग के हित साधन के लिए ही “सुपरस्ट्रक्चर” होता है, कवि, कलाकार, इतिहासकार आदि उसी “सुपरस्ट्रक्चर’ के हिस्से होते हैं। आइए, इन तीनों कविताओं के वैचारिक आधार के अंतर को जानने के लिए इनका पाठात्मक विमर्श सामने रखें।

विभिन्न वैचारिक आधार वाली कविताएँ

पहले “महाराज शिवाजी का पत्र” कविता को लें। डा. रामविलास शर्मा ने इस कविता को निराला की “वक्तृत्वकला’ के खाते में डाल कर छुट्टी कर ली क्योंकि इस कविता में “निराला का मन” या “जीवन’ ढूंढने की कोई गुंजाइश नहीं थी। उन्होंने लिखा, “महाराज शिवाजी का पत्र” एक लंबी वक्तृता है। इसमें पत्र-लेखन-कला नहीं, भाषणकला है। कविता मानो लिखी इस उद्देश्य से गयी है…” (निराला की साहित्य साधना, खंड-2, पृ0270) दूधनाथ सिंह ने भी कहा कि “वाग्मिता इस कविता का सबसे बड़ा गुण है, जिसे अंग्रेजी में “इलोक्वेंस” (Eloquence) कहते हैं।” (निराला : आत्महंता आस्था मृ0100) मगर दूधनाथ सिंह ने इस कविता के संदर्भ में उसकी अंतर्वस्तु को, डा. शर्मा की तरह, अनदेखा नहीं किया। उन्हें लगा कि यह कविता “सांस्कृतिक क्षय” की चिंता को मुखरित करती है। लेकिन “व्यक्तित्व’ पर ही निगाह टिकाने की हिंदी आलोचना की आदत की वजह से उन्होंने यह लिखा : “जिस तरह वे’ एक ओर हिंदू एक ओर मुसलमान हो” की बात करते हैं, व्यक्ति के जातिगत खिंचाव की वकालत करते हैं – आज के धर्मनिरपेक्ष हिंदुस्तान में यह शब्दावली बड़ी अटपटी लगती है। इस तरह की शब्दावली से निराला के कुल व्यक्तित्व पर ही कभी-कभी शंका होने लगती है” 

दरअसल, यह कविता इस बात का प्रमाण है कि कवि की घोषित विचारधारा और कविता में प्रतिफलित विचारधारा को एक मान लेना एकदम अवैज्ञानिक है, इसी तरह कवि के निजी जीवन को और कविता में चित्रित जीवन को एक समझ बैठना आलोचना की सबसे बड़ी भूल है, और इस भूल से हिंदी आलोचना अभी तक मुक्त नहीं हो पा रही। “महाराज शिवाजी का पत्र” एक नाटकीय एकालाप है जिसका वाचक शिवाजी है। शिवाजी का एक शत्रु है जिसे वह इसलिए परास्त नहीं कर पा रहा क्योंकि शक्ति संतुलन शत्रु के पक्ष में है। इसलिए वाचक शत्रु के खेमे से “जयसिंह’ को तोड़कर जातीय एकता के आधार पर नया शक्तिसंतुलन पैदा करना चाहता है। शत्रु पर विजय के लिए यह एक कारगर रणनीति है। कविता का अपना वस्तुगत आधार इसलिए गड़बड़ा जाता है क्योंकि कवि ने इतिहास से जो प्रतीक चुना उसका टकराव “मोगल दल’ से था, ऐसे चुनाव के कारण कविता की स्वायत्त सत्ता में उसकी रंगत सांप्रदायिक हो गयी क्योंकि तब नया शक्ति संतुलन कविता ने “हिंदू” बनाम “मुसलमान” बना दिया :

फैले समवेदना

एक ओर हिंदू एक ओर मुसलमान हों

व्यक्ति का खिंचाव यदि जातिगत हो जाय

देखो परिणाम फिर

स्थिर रहेंगे न पैर यवनों के

पस्त हौसला होगा –

ध्वस्त होगा साम्राज्य

हालांकि “महाराज शिवाजी का पत्र” कविता में उक्त पंक्तियों के बाद ही वाचक “दासता के पाश कट जायेंगे” के माध्यम से स्वाधीनता आंदोलन की विचारधारा को व्यक्त करने की कोशिश करता है, मगर कविता में खेमों का जो ध्रुवीकरण हो गया है, उससे इस कविता का वैचारिक आधार सांप्रदायिक विचारधारा का हो गया है जो कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन और भावी विकास के लिए काफी खतरनाक विचारधारा थी और आज भी है। इतना ही नहीं, कविता का अंत उस वर्णाश्रम संहिता की विचारधारा से परिचालित हो गया है जो मनुष्य और मनुष्य के बीच असमानता के दर्शन पर टिकी हुई है और इसलिए लोकतांत्रिक विचारभूमि के प्रतिकूल तो वह है ही, हमारे यहाँ के भक्ति-साहित्य के रचनाकारों, सूफी-संतों तक की विचारधारा के खिलाफ जाती है :

चमकेंगे खड्ग सब

विद्युद्युति बास्बार,

खून की पियेंगी धार

संगिनी सहेलियां भवानी की,

धन्य हूंगा, देव-द्विज-देश को

सौंप सर्वस्व निज

निराला के “देव, द्विज’ के बारे में और मुसलमानों के बारे में घोषित विचार इस कविता में निहित या प्रतिफलित विचारों से बिल्कुल उलट हैं। उनमें न तो “देव, द्विज’ को ऐसा गौरव प्रदान किया गया है और मुसलमानों को तो कहीं भी शायद इस तरह नफरत का निशाना नहीं बनाया गया है। डॉ.

रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक के “विचारधारा” खंड में “राष्ट्रीय एकता और मुसलमान’ शीर्षक अध्याय में जो उद्धरण दिये हैं उनसे यह स्पष्ट होता है कि निराला के घोषित विचार कतई सांप्रदायिक नहीं थे, वे भारत में बसे सभी धर्मों के लोगों और जातीयताओं को भारतीय मानकर उनकी एकता के लिए समर्पित थे। इसी तरह “देव, द्विजों” को गौरवान्वित न करके वे मनुष्य और मनुष्य की बराबरी के पक्ष में थे। मगर उक्त कविता में से निकलने वाली विचारधारा उनके निजी विचारों से स्वतंत्र हो कर बिल्कुल उलट हो गयी। दूधनाथ सिंह को इसीलिए लिखना पड़ा कि “इस कविता की ओजस्विता और वाग्मिता की तारीफ करते हुए भी वस्तु के स्तर पर इसकी वकालत शायद उचित नहीं होगी।”

“बादल राग” में निराला की छह कविताएं हैं। ज्यादातर आलोचकों ने इन्हें अलग-अलग रंगत और अलग-अलग भावभूमि की कविताएं कहा है। निराला ने खुद भी अपनी एक व्याख्या या अपना ‘पाठ’ प्रस्तुत किया है जिसमें एक ओर उन्होंने इसकी अर्थ-बहुलता का संकेत दिया है वहीं काव्यवस्तु के रुप में “बुराई के खिलाफ “बगावत’ को रेखांकित किया है। इन्हें अलग-अलग रंगत और भावभूमि की कविताएं मानते हुए सभी आलोचकों ने इनके वैचारिक आधार को एक ही नहीं बताया। इसीलिए दूसरी ओर छठी कविता को ही ज्यादा महत्व दिया है। दूधनाथ सिंह ने लिखा, “बादल राग” की सभी कविताएं इस विप्लव की भूमिका में नहीं रखी गयी हैं। सबकी भावभूमि अलग-अलग है। (निराला : आत्महता आस्था, पृ0237) फिर आगे कहा, “बादल राग” क्रम की दूसरी तथा छठी ये दो कविताएं क्रांति की भूमिका से संबद्ध हैं (पृ0238) लगभग इसी तरह की बात डॉ. दिनेश्वर प्रसाद ने “बादल राग’ पर लिखे अपने एक लेख में कही है और उन कविताओं का उन्होंने अपना “पाठ’ भी इसी नज़रिये से कर डाला है। यह ज़रुर है कि उन्होंने पहली कविता को भी दूसरी और छठी कविता की संवेदना से संबंधित घोषित किया है, मगर तीसरी, चौथी, पांचवीं कविता को इस केंद्रीय संवेदना से काटकर सतही तौर पर व्याख्यायित कर डाला है और पांचवीं कविता में तो बादल को “परमात्मा के व्यक्त रुप का प्रतीक’ ही बता दिया है।

दरअसल, “बादल राग” शीर्षक छह कविताएं एक ही वैचारिक आधार की कविताएं हैं, बिंबों और टोन के आधार पर उन्हें अलग-अलग भावभूमि की रचनाएँ मानना सही नहीं लगता। कविताओं का वाचक दूसरी कविता में अंतिम पंक्ति में कहता है, “गरजो विप्लव नव जलधर”। इस “नव जलधर’ को सामाजिक विकास के वैज्ञानिक ज्ञान के बिना सामान्यतया नहीं समझा जा सकता है। मैंने जैसा कि ऊपर कहा है कि भारत के स्वाधीनता संग्राम की ऐतिहासिक तौर पर जिम्मेदारी दो ही वर्ग जो कि नये वर्ग थे निभा सकते थे, एक तो नवोदित पूंजीपतिवर्ग जिसे इस उपमहाद्वीप का बाज़ार अपने लिए ब्रिटिश पूंजीपतियों के हाथ से मुक्त कराना था, दूसरे, सर्वहारा वर्ग भी यह जिम्मेदारी निभा सकता था जो कि उसी तरह से नया वर्ग था और जो ऐतिहासिक रुप से किसानों समेत अन्य सभी वर्गों को शोषण की विभीषिका से मुक्त करा सकता है। जिस दौर में यह कविता लिखी गयी थी, उस दौर में सोवियत क्रांति द्वारा इस नये सर्वहारा वर्ग ने यह सत्य साबित भी कर दिखाया था। निराला की कविता में यही वर्ग “नव जलधर’ है।

भारत में भी सर्वहारा वर्ग से उम्मीद की जा रही थी कि वही हमारे मुक्ति संग्राम का नायक बनेगा। पर कविता में यह सचाई भी प्रतिबिंबितत होती है कि वह अभी “शिशु” अवस्था में ही था, अपनी पार्टी यानी कम्युनिस्ट पार्टी भी गठित नहीं कर पाया था। चौथी कविता का “मुक्त शिशु” इसी नये वर्ग का ही बिंब है जिसे हिंदी आलोचक दूसरी और छठी कविता के भाव बोध से भिन्न मानते हैं। विश्वसाहित्य में मुक्ति की विचारधारा से अनुप्राणित होने वाले साहित्य में “शिशु’ या “बालक” का बिंब या प्रतीक बास्बार आया है। फ्रांस की क्रांति ने जब मुक्ति (लिबर्टी) का संदेश यूरोप के समाज को दिया था, तब वहाँ भी कविता में “शिशु का बिंब हर कवि की कविता में आया था क्योंकि “शिशु” किसी को गुलाम नहीं बनाता, स्वछंद कल्पना और निश्छलता का वह रूप होता है। इसी रूप में वह अंग्रेज़ी कवि विलियम ब्लेक की कविताओं में, वर्डस्वर्थ की कविताओं में और बाद में चार्ल्स डिकेन्स के उपन्यासों में आया था।

हमारे यहाँ मुक्ति की नयी विचारधारा मार्क्सवाद के प्रभाव में मुक्तिबोध ने जो कविताएँ लिखीं उनके केन्द्र में भी “शिशु” का बिंब आया है। निराला की बादल राग अंतिम पंक्तियाँ इसी वैचारिक प्रेरणा को वस्तुगत रूप में व्यक्त करती हैं :

बधिर विश्व के कानों में

भरते हो अपना राग,

मुक्त शिशु, पुन: पुन: एक ही राग अनुराग

इसी तरह “बादल राग’ की तीसरी और पांचवी कविता भी मुक्ति के केंद्रीय संवेदन से जुड़ी हुई है। जहाँ तीसरी कविता बादल को एक त्यागी और कर्मरत क्रांतिकारी के रूप में प्रस्तुत करती है जो अपनी धरती को पराधीनता से मुक्त कराने के लिए “सेवा पथ पर’ चला जाता है, “छोड़ अपना परिचित संसार’। कविता यह संकेत भी देती है कि “वीर भोग्या” वसुंधरा “उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर है और “स्वर्ग के अभिलाषी ऐ वीर’ का इंतज़ार कर रही है। वाचक आश्वस्त है कि उस वीर को उसकी प्रिया मिलेगी। अपनी संरचना में तीसरी कविता प्रेम कविता जैसी लगती है जिसमें अंग्रेज़ी के मध्ययुगीन रोमांस विधा की झलक मिलती है और हिंदी के राम-सीता या राधा-कृष्ण जैसे मिथकीय रोमांस की छायाएँ भी हैं, मगर इस कविता का वैचारिक आधार मुक्ति की संवेदना से ही जुड़ा हुआ है। इस कविता में वाचक बास्बार “नयन” के बिंब को लाता है, “निरंजन बने नयन अंजन”।

नयन में अंजन से शोभा भी बढ़ती है और ज्योति भी। निराला के काव्य को ध्यान से पढ़ें, तो “नयन’ के बिंब का बहुत ही सार्थक प्रयोग जगह-जगह मिलेगा। दरअसल, मुक्ति की विचारधारा “नयन” का “अंजन” है, जिसे आंज कर नयी ज्योति प्राप्त होती है, क्रांतिकारी विश्वदृष्टि के बगैर स्वाधीनता प्राप्त करना संभव नहीं। पांचवी कविता के बिंब इसी दृष्टि की महत्ता को सूचित करते हैं, इसीलिए बार-बार यह पंक्ति आती है, “बने नयन अंजन”।

“राजे ने अपनी रखवाली की” कविता स्पष्टत: वर्ग-विभाजित समाज में शोषक वर्ग के वर्चस्व से जुड़ी असलियत को खोलती है। वाचक ने इस कविता में शोषण के वर्ग आधार और उस पर खड़ी संरचना या सुपरस्ट्रक्चरं के चरित्र को उद्घाटित किया है। राजा अपनी रखवाली किला बनाकर, फौजें रखकर तो करता ही है, विचारों के गुलाम भी बनाता है :

कितने ब्राह्मण आये

पोथियों में जनता को बांधे हुए।

कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाये

लेखकों ने लेख लिखे

ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे

कितने नाट्य-कलाकारों ने नाटक रचे

रंगमंच पर खेले।

जनता पर जादू चला-राजे के समाज का

समाज में शोषकवर्गीय आधार (“राजे”) और उसे मजबूत करने वाले सुपरस्ट्रक्चर (विचार साहित्य, कला, विधि विधान, संस्कृति, धर्म आदि) के इस रिश्ते को उक्त कविता का वाचक सामने लाता है। समाज में देखता है। वह शोषकवर्गों का “विचित्र प्रोसेशन” उस वक्त देखता है जब “सब सोये हुए हैं।” उस प्रोसेशन में हैं:

कर्नल, ब्रिगेडियर जनरल, मार्शल

कई और सेनापति सेनाध्यक्ष

चेहरे वे मेरे जाने बूझे से लगते

उनके चित्र समाचार पत्रों में छपे थे

उनके लेख देखे थे

यहाँ तक कि कविताएं पढ़ी थीं,

भई वाह,

उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण

मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान

यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात

डोमाजी उस्ताद

(मुक्तिबोध रचनावली-2, पृ0329-30)

सारांश

निराला की अपनी विचारधाराओं का विकास हुआ होगा, अपने अनुभव, चिंतन, अध्ययन और दोस्तों के संग साथ से तरह-तरह के विचारों को उन्होंने आत्मसात किया होगा जैसा कि हर कवि के साथ होता है। मगर उनकी कविताओं का वैचारिक आधार उनके घोषित विचारों का पद्यानुवाद हो, ऐसा ज़रूरी नहीं। हर कविता समाज सापेक्ष वैचारिक आधार रखती है, इसलिए जो आलोचक एक ही विचारधारा तलाश करना चाहेंगे, उन्हें निराला के जीवन की ओर जाने की अवैज्ञानिक कोशिश करनी पड़ेगी ही और इससे गलत नतीजे निकल सकते हैं।

निराला के काव्य का वैचारिक आधार जहाँ अलग-अलग कविताओं के भीतर से हासिल करना होगा, वहीं यह उस समय के देश और उसके भीतर हो रही हलचलों और नये मूल्यों के उद्भव और विकास से भी जुड़ा हुआ होगा। कविताओं के इस दुहरे वैचारिक सामंजस्य (आंतरिक और बाह्य) को विश्लेषित-संश्लेषित करना ही सही पाठ-प्रक्रिया हो सकती है। इस प्रक्रिया में आलोचनात्मक विमर्श भी एक और पाठ बनेगा, वह रचना पर आधारित एक रचनात्मक विमर्श होगा, कवि के जीवन या उद्घोषों के आधार पर “यही सिद्ध करना था” के ज्यामितीय प्रमेयों की तरह का विमर्श नहीं जिसमें रचना की कोई पंक्ति झूठे सच्चे गवाह की तरह आलोचक द्वारा अदालत में पेश की जाती है।

निराला काव्य के वैचारिक आधार में जो विविधता पायी जाती है, उसका कारण खुद स्वाधीनता आंदोलन के भीतर अनेक विचारधाराओं का समाहित होना है। भारतीय पूंजीपति वर्ग इस आंदोलन की नेतृत्वकारी शक्ति बन चुका था, इसलिए वह ऐसे तमाम विचारों की “एकता”, “सामंजस्य”, “सामरस्य” का पक्षधर हो गया था जिससे स्वाधीनता हासिल करने में मदद मिलती हो। ये विचार अतीत के दर्शनों में से लिये गये हों, या वर्तमान की स्थितियों से जन्मे हों, या किसी अन्य देश के चिंतकों से हासिल हुए हों।

निराला का काव्य इन सभी तरह के विचारों को प्रतिबिंबित करता है। इस “विविधता में एकता” का आधार भारत की मुक्ति ही था। निराला के गद्य लेखन और कविता दोनों में से निकलने वाली विचारधाराएं चाहे वे मिथकीय हों या यथार्थवादी एक ही सूत्र में पिरोयी हुई हैं, वह सूत्र है भारत की आज़ादी। मुक्ति की प्रेरणा ने ही उनकी कल्पना को उन्मुक्त किया, प्रेम की उन्मुक्तता को जन्म दिया, प्रकृति प्रेम या कालबोध या मृत्युबोध की रचनाएँ भी मुक्ति के विचारों से ही प्रेरित हैं। जो आलोचक उन्हें निराला के निजी जीवन से जोड़ते हैं, वे गलती करते हैं।

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