किसान जीवन के परिप्रेक्ष्य में गोदान

हम प्रेमचंद के रूप में आप एक सुपरिचित कथाकार का अध्ययन करने जा रहे है। हिंदी में जब भी उपन्यास लेखकों की चर्चा की जाती है, तब प्रेमचंद का नाम सबसे पहले लिया जाता है। एक तो . इसलिए कि प्रेमचंद हिंदी के पहले गंभीर उपन्यास लेखक हैं और दूसरे उनके उपन्यास आज भी श्रेष्ठ एवं प्रासंगिक बने हुए है। इस इकाई के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाएगा कि ‘गोदान’ (1936ई.) की चर्चा किए बिना हिंदी उपन्यास साहित्य पर सार्थक चर्चा नहीं हो सकती। इस इकाई में ‘किसान-जीवन’ को ध्यान में रखते हुए हम ‘गोदान’ की विषय वस्तु का विश्लेषण करेंगे।

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • भारतीय किसानों का आर्थिक-सामाजिक शोषण करने वाली दमनकारी ज़मींदारी व्यवस्था से परिचित हो सकेंगे,
  • जातिव्यवस्था और शोषण प्रक्रिया के अंतः संबंधों को जान सकेंगे,
  • ‘गोदान’ में गाय के महत्व और धर्म के दबाव को झेलते किसान की मनःस्थिति को समझ सकेंगे,
  • होरी का शोषण व्यवस्था और शोषकों के विरोध में विद्रोह न करने के कारणों को भी जान सकेंगे,
  • पूँजीवाद के आगमन के कारण बदलते आर्थिक-सामाजिक संबंधों का आप विवेचन कर सकेंगे।

गोदान का अध्ययन-विश्लेषण इन्हीं प्रश्नों और बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए करने का हमने प्रयास किया है, इस पाठ का ध्यानपूर्वक अध्ययन करे।

जून, 1903 में प्रेमचंद ने “ऑलिवर क्रामवेल” की जीवनी पर एक लेख लिखा। इसमें : उन्होंने एक रचनात्मक निरीक्षण करते हुए लिखा है – “ऐसा बहुत कम संयोग हुआ है . कि एक शांति-प्रेमी किसान के रोज़ाना हालात विस्तार के साथ लिखें हुए, मिल सकते हों या उनमें किस्सों की-सी दिलचस्पी और अजब-अनोखी बातें पायी जाती हों।” (विविध प्रसंग, भाग-1, पृ.37 सं.अमृतराय, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, 1962) यह प्रेमचंद का आरंभिक लेख है। इस लेख में प्रेमचंद की रचनात्मक चुनौती और भीतरी लालसा का पता चलता है कि आखिर किसान का दैनिक जीवन किस्से-कहानियों का विषय क्यों नहीं हो सकता? प्रेमचंद ने इस संभावना की तलाश की। किसान-जीवन का बारीकी से मनन किया। उसके जीवन के करुण-मनोहर पक्षों को देखा-परखा। इस क्रम में उन्होंने सर्वप्रथम “पंच परमेश्वरः’ (1915) कहानी लिखी। बाद में “सवा सेर गेहूं”, “दो बैलों . की कथा”, “बलिदान”, “मुक्तिमार्ग”, “पूस की रात” आदि अनेक कहानियाँ तथा “प्रेमाश्रम”, “कर्मभूमि” आदि उपन्यास लिखे। इतने सारे लेखन के बावजूद प्रेमचंद की रचनात्मकता संतुष्ट नहीं हुई। उनको लगता रहा कि अभी “शांति-प्रेमी किसान के रोज़ाना हालात विस्तार के साथ” चित्रित नहीं हो पाए हैं। अतः वे किसान जीवन के . मनन एवं किसान पात्रों की तलाश में लगे रहे। अंततः “गोदान” में होरी-धनिया को उपस्थित कर उन्होंने अपने उस स्वप्न को साकार किया, जिसकी अनकही चुनौती 1903 ई. से उनके मन-मस्तिष्क में सजीव थी। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि “गोदान” प्रेमचंद की आकस्मिक रचना नहीं है, वरन् उनके जीवन-भर के सर्जनात्मक  प्रयासों का निष्कर्ष देने वाली रचना है। 

“गोदान” उपन्यास की कथा-योजना

“गोदान’ में प्रेमचंद ने होरी-धनिया के जीवन के माध्यम से उत्तर भारत के “शांति-प्रेमी किसान” की कष्टप्रद ज़िंदगी का चित्रण किया है। इस क्रम में उन्होंने संपूर्ण गाँवजीवन के आपसी संबंधों का ताना-बाना प्रस्तुत किया है, परंतु “गोदान’ सिर्फ ग्रामकथा नहीं है। गाँव की कथा के साथ-साथ इसमें शहरी जीवन की कथा भी चलती रहती है जिसमें ज़मींदार राय साहब अमरपाल सिंह, मिर्जा खुर्शद, मिस मालती, मि.खन्ना, ओंकारनाथ, मि.मेहता आदि अनेक शहरी पात्र भी आते हैं। ये दोनों कथाएँ “गोदान” में अलग-अलग होते हुए भी साथ-साथ चलती हैं।

प्रेमचंद साहित्य के अनेक आलोचकों का मत है कि “गोदान” में प्रेमचंद को सिर्फ होरी-धनिया के गाँव की कहानी कहनी चाहिए थी। उपन्यास में शहर के पात्रों को डालकर, शहरी जीवन का वर्णन करके उन्होंने उपन्यास की कलात्मकता को नुकसान पहुँचायां है। इससे उपन्यास का कथानक ढीला-ढाला हो गया है और उपन्यास का कलात्मक संयोजन बिगड़ गया है। फिर, ग्राम-कथा तो प्रेमचंद के अनुभव-जगत् से पुष्ट होने के कारण यथार्थवादी कथा है, जबकि शहर की कथा में वैसी प्रामाणिकता का . अभाव है। इसमें अनावश्यक भाषण, वार्तालाप, चर्चा-परिचर्चा का सहारा लेकर शहरी जीवन का सतही परिचय दिया गया है। प्रेमचंद को संपूर्ण समाज के चित्रण का मोह त्याग कर ग्रामीण जीवन की कहानी कहनी चाहिए थी। इन्हीं बातों को लेकर जैनेन्द्र कुमार ने ”गोदान” की समीक्षा करते हुए अपने लेख का शीर्षक दिया “प्रेमचंद का गोदान यदि मैं लिखता।” (प्रेमचंद कृती व्यक्तित्व, जैनेन्द्र कुमार, पूर्वोदय प्रकाशन, दिल्ली)

इसी तरह, आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी ने “गोदान” की तुलना एक ऐसे मकान से की है जिसके दो अलग-अलग खण्डों में दो परिवारों के रूप में गाँव तथा शहर रहते हों और जो कभी-कभी एक-दूसरे से मिल लेते हों। (आधुनिक साहित्य, पृ.174, ले.नंददुलारे वाजपेयी, भारती भण्डार, इलाहाबाद, संवत 2031 वि.) कहने का तात्पर्य यह है कि “गोदान’ में आई हुई ग्राम-कथा तो ठीक है, परंतु उसमें आई हुई शहर की कथा अप्रासंगिक है। इससे “गोदान” की कलात्मकता में बाधा पहुँचती है। “गोदान’ की कथा की संरचना का विश्लेषण करने के लिए इन बातों की परीक्षा करने की आवश्यकता है। सबसे पहले हम यह देखें कि प्रेमचंद क्या मानते हुए प्रतीत होते हैं। ये मत प्रेमचंद की मृत्यु के बाद प्रकट हुए हैं, इसलिए प्रेमचंद की इस संबंध में क्या राय हो सकती थी। इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। फिर भी, उनकी रचनाओं का विश्लेषण करके हम कुछ-कुछ अनुमान कर सकते हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया।

प्रेमचंद मानते हैं कि भारतीय गाँव समाज की स्वायत्त इकाई नहीं है, वरन् उसका संबंध सूत्र शहर, राष्ट्र और ब्रिटिश साम्राज्य से जुड़ा है। इसलिए संपूर्ण ब्रिटिश भारत के परिप्रेक्ष्य में ही गाँव-जीवन को देखा-समझा जा सकता है। “गोदान” में “सेमरी और . बेलारी दोनों अवध प्रांत के गाँव’ हैं। “दोनों गाँवों में केवल पाँच मील” का अंतर है। होरी बेलारी में रहता है और उसके ज़मींदार राय साहब अमरपाल सिंह सेमरी में विराजते हैं। उपन्यास ज्यों ही बेलारी से निकल कर सेमरी में पहुँचता है, एकाएक उपन्यास में शहर आ जाता है। आज़ादी से पूर्व ज़मींदार और ज़मींदारी प्रथा के संदर्भ के बिना किसान-जीवन की परिकल्पना करना अयथार्थपूर्ण लगता है। ज़मींदार की आमदनी गाँव से होती है, परंतु उसका उपभोग वह शहर में करता है। ज़मींदार की प्रकृति को स्पष्ट किए बिना किसान-चरित्र का उद्घाटन संभव नहीं है। स्वाभाविक रूप से ज़मींदार के शहरी मित्र भी उसके साथ खिंचे चले आए हैं।

“गोदान’ में होरी राय साहब से मिलता है। “यह इसी मिलते-जुलते रहने की परसाद है कि अब तक जान बची हुई है, नहीं कहीं पता न लगता कि किधर गए। गाँव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदखली नहीं आयी, किस पर कुड़की नहीं आयी। जब दूसरों के पाँवों-तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुशल है।” (गोदान, पृ.7) उनके संबंधों का वर्णन तो लेखक को करना ही पड़ेगा। राय साहब के घर पर उत्सव है, उसमें होरी को बुलाया गया है। उस दिन के नाटक ‘धनुष-यज्ञ’ में उसे राजा जनक का माली बनना है। इस उत्सव के लिए होरी को पाँच रुपए नज़राना देना है। इससे होरी चिंतित हो गया है। इस उत्सव में शहर के धनी-मानी लोग सम्मिलित होते हैं। उनकी आपसी बातचीत से शहरी जीवन अभिव्यक्त होता है।

होरी के घर पर दमड़ी बसोर आता है तथा बाँस खरीदता है। होरी के मन में बेईमानी आती है। भाव-ताव में कमी-बेसी करके बीस रुपया सैंकड़ा की दर तय होती है, शर्त यह है कि दमड़ी होरी के भाइयों को पन्द्रह रुपया सैंकड़ा बताएगा। इस संदर्भ में जो विवाद खड़ा होता है आगे चलकर वह होरी की गाय को ज़हर खिलाने तक चलता है। यहाँ दमड़ी कहता है – “ऐसे क्या, इससे अच्छे बाँस मिल जाते हैं दस रुपए पर, हाँ, दस . कोस और पच्छिम चले जाओ। मोल बाँस का नहीं है, शहर के नगीच होने का है।” (गोदान, पृ.26)

इसी तरह, गोबर गाँव से भागकर शहर में आ जाता है और मिर्जा खुर्शद के यहाँ 15 रुपए वेतन पर नौकर हो जाता है। होरी के जीवन पर आए संकटों में से एके गोबर के घर से भाग जाने से भी आता है। यही गोबर जब वापस गाँव आता है तो उसके व्यक्तित्व में हुए परिवर्तन को सभी पात्र लक्षित करते हैं — “उसने अंग्रेज़ी फैशन के बाल कटवा लिए हैं, महीन धोती और पम्प शू पहनता है। एक लाल ऊनी चादर खरीद ली और पान-सिगरेट का शौकीन हो गया है। सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है। राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है। सामाजिक रूढ़ियों की प्रतिष्ठा और लोक-निन्दा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है।” 

“गोदान” के किसान शहर में शक्कर मिल खुल जाने की बातें करते हैं। राय साहब के मित्र खन्ना यह मिल खोलते हैं, जिसमें आगे चलकर गोबर कुछ दिन मज़दूरी करता है। इस मिल के लिए खड़ी ऊख खरीदी जाती है — “सारा गाँव खड़ी ऊख बेचने को तैयार हो गया है। और जब ऊख तैयार हो गई, किसानों ने उसे मिल में पहुँचा दिया तब मुनीम से मिलकर गाँव के महाजन झिंगुरी सिंह ने अपने रुपए वसूल कर लिए, क्योंकि . “जिस खन्ना बाबू की मिल है, उन्हीं खन्ना बाबू की महाजनी कोठी भी है। दोनों एक हैं।’ (‘गोदान”, पृ.153) शहर और गाँव का यह आर्थिक रिश्ता गाँव में मौजूद है। प्रेमचंद इसे दिखाते हैं।

मेहता और मालती घूमते-घामते एक दिन बेलारी पहुँच जाते हैं और एक दिन होरी के घर पर ठहरते हैं। मेहता किसानों से खेती के बारे में बातचीत करते हैं तथा मालती .. देहाती औरतों के स्वास्थ्य की जाँच करती है। मिर्जा खुर्शद शिकार पार्टी के दौरान सारे गाँव को दावत खिलाते हैं। उपन्यास में पुलिस आती है तथा किसी-न-किसी बहाने सारे गाँव को डरा-धमकाकर शहर चली जाती है। फिर, होरी के गाँव में रायसाहब का कारिन्दा नोखेराम रहता है। अंग्रेज़ सरकार का पटवारी पटेश्वरी का निवास भी बेलारी में है। होरी के शोषण में इन दोनों की निर्णायक भूमिका रहती है।

“गोदान” के अंतिम पृष्ठों में रामसेवक भारतीय किसान के राजनीतिक-आर्थिक संबंधों को विश्लेषित करते हुए कहता है, “यहाँ तो जो किसान है, वह सबका नरम चारा है। पटवारी का नजराना और दस्तूरी न दे तो गाँव में रहना मुश्किल। ज़मींदार के चपरासी और कारिन्दों के पेट न भरे तो निबाह न हो। थानेदार और कानिसिटिबिल तो जैसे आपके दामाद हैं। जब उनका दौरा गाँव में हो जाय, किसानों का धरम है, वह उनका आदर-सत्कार करें, नजर-नयाज दें, नहीं एक रिपोर्ट में गाँव का गाँव बँध जाय। कभी कानूनगो आते हैं, कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी, कभी जण्ट, कभी कलक्टर, कभी कमिसनर। किसान को उनके सामने हाथ बाँधे हाजिर रहना चाहिए। उनके लिए रसदचारे, अंडे-मुर्गी, दूध-घी का इन्तजाम करना चाहिए। तुम्हारे सिर भी तो वही बीत रही है महाराज! एक-न-एक हाकिम रोज नए-नए बढ़ते जाते हैं। एक डाक्टर कओं में दवाई। डालने के लिए आने लगा है। एक दूसरा डाक्टर कभी-कभी आकर ढोरों को देखता है, लड़कों का इम्तहान लेने वाला इंसपिट्टर है, न जाने किस-किस महकमे के अफसर हैं, नहर के अलग; जंगल के अलग, ताड़ी-सराब के अलग, गाँव-सुधार के अलग, खेती विभाग के अलग। कहाँ तक गिनाऊं? पादड़ी आ जाता है तो उसे भी रसद देना पड़ता है, नहीं शिकायत कर दे।” (“गोदान”, पृ.292) ये सारे अफसर शहर से गाँव आते हैं। इसलिए शहरी जीवन की प्रकृति को समझे बिना गाँव-जीवन की कथा के अंतःसंबंधों को समझ पाना मुश्किल है। संभवतः यही कारण है कि प्रेमचंद ने सिर्फ गाँव की कथा ही नहीं लिखी है वरन् गाँव के भाग्य को निर्धारित करने वाले शहर की कथा भी लिखी। यदि प्रेमचंद सिर्फ होरी-धनिया की ही कहानी कहते तो इससे न केवल भारतीय समाज. की अधूरी तस्वीर पेश करते वरन् होरी-धनिया की भी संतही तस्वीर पेश करते। तब हम होरी की करूण कथा की गहराई का अंदाजा नहीं लगा पाते।

‘गोदान ‘ में भारतीय किसानों की वेदना की अभिव्यक्ति

प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में संपूर्ण भारतवर्ष के किसानों के दुःख-दर्द का चित्रण नहीं किया है; उन्होंने सिर्फ उत्तर भारत में ज़मींदारी-प्रथा के भीतर रहने वाले किसानों का वर्णन किया है। ब्रिटिश भारत में अंग्रेज़ों ने कुछ हिस्सों में रैयतवारी और कुछ हिस्सों में इस्तमवारी. भूमि-व्यवस्था लागू कर रखी थी। रैयतवारी व्यवस्था में किसान अपनी लगान सीधे अंग्रेज़ सरकार को दे देता है। इस्तमवारी व्यवस्था में लगान वसूलने का काम बिचौलिए वर्ग के रूप में ज़मींदार वसूल करते थे तथा ज़मींदार ही अंग्रेज़ों के पास लगान। जमा करवाते थे। देशी रियासतों में भूमि कर की व्यवस्था स्थानीय सामंत किया करते थे, जो अपने जागीरदारों एवं अन्य लोगों के माध्यम से लगान वसूल करते थे। उन्होंने न तो देशी रियासतों के भीतर रहने वाले किसानों का वर्णन किया है और न रैयतवारी, व्यवस्था में रहने वाले किसानों को उपस्थित किया है।

उनकी आरंभिक रचनाओं, विशेषकर “प्रेमाश्रय’ में तो रैयतवारी व्यवस्था का समर्थन किया गया है। भौगोलिक दृष्टि से भी उन्होंने लखनऊ फैजाबाद, बनारस, कानपुर, गोरखपुर, प्रतापगढ़ के आसपास के किसानों को चित्रित किया है। इसलिए होरी भौगोलिक दृष्टि से संपूर्ण भारत के किसानों का प्रतिनिधि पात्र नहीं है। वह तो सिर्फ उत्तर भारत की ज़मींदारी-व्यवस्था में रहने वाले किसानों के दुःख-दर्द को वहन करता है।

“गोदान” में प्रेमचंद ने मोटे तौर से तीन तरह के किसानों का वर्णन किया है। बेलारी में कुछ ऐसे लोग रहते हैं जिनके पास अपनी ज़मीन है, वे लगान देते हैं, परंतु स्वयं उस पर खेती नहीं करते। वे अपने खेत में खेत-मज़दूरों से काम करवाते हैं। ”गोदान” के सभी धनी किसान इस श्रेणी में आते हैं। पं.दातादीन, झिंगुरी सिंह, पटेश्वरी आदि कोई खेत में जाकर काम करता हुआ नहीं दिखाई देता। प्रेमचंद इन्हें किसान नहीं मानते। इसलिए इस वर्ग के पक्ष में वे कुछ नहीं लिखते। ये लोग ज़मींदार या कारिन्दो से मिलकर ग़रीब किसानों के शोषण में सहायक की भूमिका निभाते हैं। धनिया इन्हें “हत्यारा” कहती है। गाँव में कुछ ऐसे लोग भी रहते हैं जिनके पास अपनी ज़मीन नहीं होती। ये दूसरों की ज़मीन पर खेती का काम करते हैं। दलित जातियों से संबंधित ऐसे लोग खेत-मज़दूरों की श्रेणी में आते हैं। प्रेमचंद ने बहुत सहानुभूति से इन पात्रों को उपस्थित किया है। हरखू, सिलिया और उनका परिवार इसी श्रेणी में आता है। प्रेमचंद इस वर्ग को भी किसान नहीं मानते। किसान इस वर्ग में मिल रहे हैं, उनकी ज़मीन . छीनी जा रही है, इसे प्रेमचंद ने देखा है, दिखाया है, चिंता की है। परंतु वे किसान से मज़दूर बन जाने में किसान की हेठी समझते हैं। इसलिए इस प्रक्रिया का समर्थन नहीं करते। इस वर्ग की पीड़ाओं का भी विस्तृत वर्णन प्रेमचंद नहीं करते। इनके दुःख-दर्द की ओर इशारा करके वे आगे बढ़ जाते हैं।

प्रेमचंद की दृष्टि में किसान वह है जिसके पास अपनी ज़मीन है और जिसपर वह स्वयं खेती करता है। वही ज़मींदार को लगान देता है। होरी के पास पाँच बीघा मौरूसी ज़मीन है। इस वर्ग को प्रेमचंद किसान मानते हैं। प्रेमचंद इसी वर्ग के पक्षधर लेखक हैं। ऐसे . लोगों के शोषण-उत्पीड़न का वे विरोध करते हैं। अपनी इस ज़मीन को बचाए रखने के लिए यह वर्ग जो संघर्ष करता है, उस संघर्ष को लेखकीय सहानुभूति का बड़ा हिस्सा – मिलता है। “गोदान” के अंतिम पृष्ठों में प्रेमचंद ने लिखा – “हारे हुए महीप की भाँति उसने अपने को इन तीन बीघे के किले में बंद कर लिया था और उसे प्राणों की तरह बचा रहा था। फाके सहे, बदनाम हुआ, मजूरी की; पर किले को हाथ से न जाने दिया; मगर अब वह किला भी हाथ से निकला जाता था।…..कहीं से रुपए मिलने की आशा न थी। ज़मीन उसके हाथ से निकल जाएगी और उसके जीवन के बाकी दिन मजूरी करने में कटेंगे। भगवान की इच्छा।”

प्रेमचंद किसान को किसान के रूप में देखना चाहते हैं। इसी वर्ग में रहते हुए इनकी दशा सुधारने की वकालत करते हैं। होरी इसी गरीब छोटी जोत वर्ग का प्रतिनिधि पात्र है। ऐसा किसान जिसके पास पाँच-छह बीघा जमीन है, बकाया लगान का बोझ है, न . उतरने वाला ऋण है, अनेक सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं से जकड़ा हुआ है, असंगठित है, असहाय है और बस खेत-मज़दूर बनने ही वाला है। प्रेमचंद इसके पक्षधर हैं। अनेक कष्टों के बावजूद होरी की किसान बने रहने की इस जिद्दनुमा आकांक्षा को प्रेमचंद ने बहुत आदर से देखा है। यह एक किसान के अस्तित्व रक्षा का सवाल है। इस आकांक्षा के लिए होरी छोटी-मोटी बेईमानी भी करता है, यहाँ तक कि अंत में अपनी बेटी बेचने पर मजबूर हो जाता है। तब भी, वह लेखकीय सहानुभूति से वंचित नहीं होता। प्रेमचंद उसकी अनैतिकता में भी नैतिक गौरव देखते हैं और दिखाते हैं।

‘गोदान’ के पाठक

अब “गोदान’ को इस रूप में देखना भी आपके लिए महत्वपूर्ण है कि उसका संभावित पाठक वर्ग कौन है? प्रेमचंद ने इसमें किसको संबोधित किया है? लेखक किसानों के दुःख-दर्द की करुण कहानी किसको सुनाना चाहता है? वैसे तो लिखी जाने के बाद कोई भी रचना लेखक से छूट कर न मालूम किस-किस पाठक समुदाय के पास पहुँच जाती है? इसका एहसास लेखक को नहीं रहता, न उसपर लेखक का कोई नियंत्रण रहता है। तब भी, किसी रचना के स्वरुप निर्धारण में उसके तात्कालिक पाठक की भूमिका होती है। .

प्रेमचंद का “गोदान” किसानों को सम्बोधित रचना नहीं है। उन्होंने अपढ़ किसानों के बारे में लिखा है, परंतु उनके पढ़ने के लिए उन्होंने “गोदान” की रचना नहीं की। भले ही, आज का किसान उसे पढ़कर अपने पूर्वजों के बारे में जान सकता है। इसी तरह उन्होंने ज़मींदारों-ताल्लुकेदारों-अधिकारियों के लिए भी इसे नहीं लिखा। उनके हृदय- । परिवर्तन की आशा लेखक को नहीं है। यदि ऐसा होता तो “गोदान” की वर्तमान रुप-.. सज्जा में बहत परिवर्तन हो जाता। दरअसल यह मध्य वर्ग के शिक्षित पाठकों को सम्बोधित रचना है। इस वर्ग को किसान जीवन से परिचित करवाना तथा इसे किसानों के पक्ष में करना लेखक का उद्देश्य रहा है। इसलिए उन्होंने अपने किसान पात्रों को इस ।। रुप में चित्रित किया है, जिससे पाठक को यह महसूस हो सके कि किसान भी आपहम जैसे ही मनुष्य हैं। उनमें भी हर्ष, शोक, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा जैसे मानवीय भाव विद्यमान हैं। किसान किसी विचित्र लोक का विचित्र प्राणी नहीं है। परंतु वह मध्य वर्ग से कुछ मामलों में थोड़ा-सा अलग है। उनमें कुछ कमियाँ हैं तो कुछ अच्छाइयाँ भी हैं।

इस तरह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद का साहित्य शिक्षित मध्य वर्ग को किसानों के पक्ष में करने के लिए लिखा गया है। उन्हें अपने गाँव की कहानी पढ़े-लिखे, देहात से अनभिज्ञ पाठक को सुनानी है। इसमें एक तरफ तो यह ध्यान रखा गया है कि पाठक के मानस पर गाँव का नक्शा उतर आए, जो न इतना अपरिचित ही हो कि पाठक उससे तादात्म्य ही न कर पाए और न इतना परिचित ही हो कि शहरी जीवन से अलग उसकी कोई पहचान ही न बन पाए। साथ ही यह नक्शा गाँव के गतिशील यथार्थ के करीब भी हो। (“प्रेमचंद और भारतीय किसान”, पृ.89 ले.डॉ.रामबक्ष, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1982)

इसी कारण प्रेमचंद ने कई बार गाँव एवं शहर के पात्रों को आपस में मिला दिया है। राय साहब की शिकार-पार्टी में मालती और जंगली युवती की तुलना कर दी, तंखा की किसान से होड़ करवा दी, जो मरे हुए हरिण को लेकर दौड़ा जा रहा था या कि धनुषयज्ञ के पठान से होरी को भिड़ा दिया। मेहता-मालती को होरी-धनिया के घर भेजकर भी लेखक ने यही किया है। ये सामान्य से दिखाई पड़ने वाले प्रसंग उपन्यासकार ने इसी कारण प्रस्तुत किए हैं।

रचना के स्तर पर यहाँ प्रेमचंद को भाषिक समस्या से भी जूझना पड़ा है। कहना चाहिए और लेखकों ने भी ये समस्याएं लिखीं। यहाँ लेखक उन किसानों को लिखित भाषा में .. बाँधकर प्रस्तुत करता है जो स्वयं साक्षर नहीं है। अपढ़ किसानों की अभिव्यंजना के मूल भाव को बनाए रखते हुए उनकी भाषा को पठनीय बनाना प्रेमचंद के लिए बड़ी भारी . चुनौती थी, जिसे प्रेमचंद ने बहुत कुशलतापूर्वक हल कर लिया। इस दृष्टि से होरी की भाषा में जबर्दस्त अभिव्यंजना-क्षमता विद्यमान है।

गोंदान में गाय का महत्व

किसान के अस्तित्व रक्षा की चिन्ता ‘गोदान” में सर्वाधिक मुखर रूप में दिखाई देती है। लेखक ज्यों ही गाँव-जीवन में प्रविष्ट होता है त्यों ही उसकी लेखनी में करुणा का संचार होने लगता है। उल्लास-उत्साह और उमंग का वातावरण “गोदान” में कम मिलता है। जहाँ भी ऐसा प्रसंग आता है वहाँ भावी अनिष्ट की आशंका कथा को .. विगलित करती रहती है। गरीबी, दुःख, दैन्य, पीड़ा, अन्याय, अत्याचार का वर्णन पढ़तेपढ़ते हम थकने लगते हैं। जहाँ भी, जब भी दो पात्र आपस में दिल खोलकर बातें करते हुए आते हैं, वहाँ थोड़ी देर बाद कोई-न-कोई करुण प्रसंग उपस्थित हो जाता है। शहर । का वर्णन करते हुए बेशक लेखक हास्य-व्यंग्य के प्रसंग ले आता है, थोड़ी देर के लिए लेखक आनंद में मग्न हो जाता है, मिर्जा-तंखा, मेहता-मालती की चर्चाओं में अन्य भावस्थितियाँ भी अभिव्यक्ति पा जाती हैं, तथापि मूल मनोभाव वहाँ भी करुणा का ही रहता है।

“गोदान’ की कथा के केंद्र में गाय की लालसा है। संपूर्ण उपन्यास में किसी न किसी रूप में गाय मौजूद रहती है। उपन्यास के आरंभ में प्रेमचंद लिखते हैं – “हर एक गृहस्थ की भाँति होरी के मन में भी गऊ की लालसा चिरकाल से संचित चली आती थी। यही . उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न, सबसे बड़ी साध थी। बैंक सूद से चैन करने या ज़मीन खरीदने या महल बनवाने की विशाल आकांक्षाएँ उसके नन्हे-से हृदय में कैसे समातीं।” (“गोदान’, पृ.8) इस उद्धरण से स्पष्ट है कि होरी का अब तक का जीवन के बीच भी होरी गाय रखने की इच्छा पाले रखता है। ज्यों ही उसे अवसर मिलता है, वह गाय का इंतजाम करता है। भोला को किसी तरह से पटाकर वह उधार में गांय ले आता है। यह उपन्यास का प्रस्थान है।

होरी की अपूर्ण आकांक्षा की आसान पूर्ति देखकर गाँव में कोई खुश नहीं होता। सभी की नज़र होरी की इस गाय पर लग जाती है। आसाढ की बरसात होती है, किसान खेत जोतने जाते हैं और तब “राय साहब के कारकून ने कहला भेजा, जब तक बाकी न चुक जायगी, किसी को खेत में हल न ले जाने दिया जायगा। (“गोदान”, पृ.86) अब क्या हो? होरी महाजन झिंगुरी सिंह के पास रुपए लेने जाता है तो देखता है कि महाजन की नजर इसी गाय पर है। वे गाय लेना चाहते हैं। इस बीच होरी के भाई हीरा की धनिया से कहा-सुनी हो जाती है। हीरा का क्रोध भी इसी गाय पर उतरता है और हीरा गाय को जहर खिला देता है। इस तरह होरी की चिरसंचित आकांक्षा फिर “अपूर्ण” हो जाती है। आगे की सारी कथा इस गाय का कर्ज उतारने से बँधी हुई चलती है और फिर कभी गाय खरीदने का सामर्थ्य होरी नहीं जुटा पाता।

होरी गाय तो नहीं खरीदता परंतु उसके घर का कोई सदस्य जब भी स्वप्न देखता है तो वह सोचता है कि “सबसे पहले वह एक पछाईं गाय लाएगा।” (”गोदान”, पृ.113 – गोबर यह सोचता है) रूपा का विवाह धनी किसान रामसेवक से होता है। वहाँ की सम्पन्नता देखकर रूपा के मन में भी गाय की वही स्मृति पुनः सजीव हो उठती है। “उस गाय की याद अभी भी उसके दिल में हरी थी, जो मेहमान की तरह आयी थी और सबको रोता छोड़कर चली गई थी। वह स्मृति इतने दिनों के बाद अब और भी मृदु हो गई थी।” – उपन्यास के अंत में होरी जब मरने लगा तो उसे वही “गाय” याद आयी। धनिया से कहे गए अंतिम शब्दों में भी उसी गाय की चर्चा करते हुए कहा, “अब जाता हूँ। गाय की लासा मन में ही रह गई।” (गोदान, पृ.300) प्रेमचंद ब्राह्मणवादी स्वार्थी प्रवृत्ति पर इस प्रसंग की निर्मिति द्वारा करारी चोट करते है। मरते समय यदि गाय दान किया जाए तो मरने वाला व्यक्ति सीधे स्वर्ग पहुँचता है। इस धार्मिक अंधविश्वास को बनाए रखने की पूरी कोशिश यहाँ ब्राह्मण दातादीन द्वारा की जा रही थी। धर्म का सहारा लेकर अशिक्षित गरीब व लाचार लोगों की इसी स्थिति का भरपूर फायदा उठाना पुरोहित वर्ग का अति प्रिय कर्म रहा है, जिसके कारण कोई श्रम किए बिना इस समुदाय का जीवनयापन बड़े मजे से चल रहा है। गाय का दान करने से होरी की आत्मा को मुक्ति मिलेगी यह अंधविश्वास पक्का करने के लिए दातादीन धनिया से गाय का दान करवाना चाहता है।

जीवन की विडंबना को उजागर करते हुए उपन्यास के अंत में प्रेमचंद ने दिखाया कि जिस गाय की कामना में होरी जीवन-भर दुःख पाता रहा, अनेक कष्ट झेले, अपमान सहा; फिर भी खरीद न सका; मरते समय ब्राह्मण दातादीन उसी का दान माँग रहा है। “गोदान” की इस परम्परा पर चोट करते हुए धनिया कहती है – “महाराज घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है।” 

इस तरह हम देखते हैं कि ‘गोदान’ की कथा का एक श्रमजीवी तबका गाय पालने की छोटी-सी आकांक्षा से संबंध रखता है। गाय “गोदान” की कथा को नियंत्रित करती है, उसे नया मोड़ देती है, उसमें गति देती है, अनेक पात्रों के चरित्र को खोलती है, लेखक की मान्यताओं को उजागर करती है। और वह जीवन की चरम उपलब्धि की प्रतीक बन जाती है। तथा अपूर्ण आकांक्षा का प्रतिरूप हो जाती है। एक स्तर पर यह उपन्यास होरी-धनिया की कहानी होते हुए भी अपूर्ण आकांक्षा की मृग-मरीचिका की कहानी बन जाता है।

किसानों का आर्थिक-सामाजिक शोषण

“गोदान’ में होरी-धनिया “मोटा-झोटा खाकर मरजाद के साथ रहना चाहते हैं। वे एक किसान के रूप में जीवन बसर करते रहने के लिए प्रयत्नशील हैं। गाय पालने की एक छोटी-इच्छा जरूर है, परंतु नीति और धर्म के मार्ग पर चलकर इस इच्छा को पूरी करना चाहते हैं। मेहनती हैं, ईमानदार हैं – परंतु वर्तमान व्यवस्था में वे अपनी मर्यादा का पालन नहीं कर पाते किसानी और मर्यादा में से उन्हें किसी एक को तिलांजलि देनी है। होरी किसान बने रहना चाहता है, परंतु रह नहीं पाता।

प्रेमचंद ने होरी की इस कामना के विरोधियों के अंतःसंबंध और उनके हथकण्डों का पर्दाफाश किया है। प्रेमचंद प्रथमतः ज़मींदार विरोधी थे। इस तंत्र की पद्धति का उद्घाटन करते हुए साम्राज्यवाद विरोधी हो गए। “गोदान” में अंग्रेज़ी राज का पोषण राज्य-कर्मचारियों के द्वारा होता है। होरी के गाँव में पटेश्वरी सरकारी नौकर है। वह एक बार धमकाते हुए कहता है, “मैं ज़मींदार या महाजन का नौकर नहीं हूँ, सरकार बहादुर का नौकर हूँ, जिसका दुनिया भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और ज़मींदार दोनों का मालिक है।’

प्रेमचंद ने ज़मींदारों की असलियत का बयान करते हुए शक्तिशाली ब्रिटिश राज्य के  शोषण एवं आतंक की ओर इशारा किया है। राय साहब कहते हैं, “हम बिच्छू नहीं हैं कि अनायास ही सबको डंक मारते फिरें। न गरीबों का गला दबाना कोई बड़े आनंद का. काम है।” परंतु करें क्या? “अफसरों को दावतें कहाँ से दूँ, सरकारी चन्दे कहाँ से . दूँ?…आएगा तो असामियों ही के घर से। आप समझते होंगे, ज़मींदार और ताल्लुकेदार सारे संसार का सुख भोग रहे हैं। उनकी असली हालत का आपको ज्ञान नहीं; अगर वह धर्मात्मा बन कर रहे तो उनका जिन्दा रहना मुश्किल हो जाए। अफसरों को डालियाँ न. दें, तो जेलखाना हो जाए।’ (”गोदान’, पृ.145) एक दूसरे प्रसंग में वे कहते हैं, “वसूली सरकार के घर गई। बकाया असामियों ने दबा लिया। तब मैं कहाँ जाऊं?”. (“गोदान’, पृ.142) तात्पर्य यह है कि होरी का शोषण सूत्र अंग्रेजी राज तक जाता है। प्रेमचंद ने चूँकि अंग्रेज़ों की शोषण प्रक्रिया का उद्घाटन नहीं किया है, इसलिए वे आवश्यकतानुसार उस ओर इशारा करके अपनी मूल कथा-भूमि में लौट आते हैं।

यदि होरी से पूछा जाए तो वह यही कहेगा कि लगान की अधिकता सबसे अधिक पीड़क है। धनिया सोचती है – “यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस वर्षों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी ही कतर ब्योंत करो, कितना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो; मगर लगान बेबाक होना मुश्किल है।’ (“गोदान”, पृ.7) फ़िर ज़मींदार का कारिन्दा कभी लगान की रसीद नहीं देता। इसलिए जब भी ज़मींदार किसी किसान को दण्डित करना चाहता है, उस पर बकाया लगान का दावा कर देता है। इस तरह दो-तीन बार लगान चुका देने के बाद एक स्थिति ऐसी आती है जब किसान रुपए नहीं जुटा पाता और फिर उसे खेत से बेदखल कर दिया जाता है। उसके मौरुसी हक छीन लिए जाते हैं। (गोबर कहता है, ”मैं अदालत में तुमसे गंगाजली उठवाकर रुपए दूंगा; इसी गाँव में एक सौ सहादतें दिलाकर साबित कर दूंगा कि तुम रसीद नहीं देते। सीधे-सादे किसान हैं, कुछ बोलते नहीं, तो तुमने समझ लिया कि सब । काठ के उल्लू हैं।”

फिर ज़मींदार किसानों पर बकाया लगान का दबाव या दावा ऐसे नाजुक अवसरों पर करते हैं, जब किसान सबसे ज्यादा संकट में होते हैं या जब उन्हें लगता है कि किसान किसी भी तरह से रुपए नहीं जुटा सकते। रायसाहब ने होरी से बकाया लगान की माँग तब की, जब पहली बरसात हुई और किसान खेत बोने के लिए जाने वाले थे। ऐसे नाजुक अवसर पर महाजन उद्धारक का बाना पहनकर कर्ज देने के लिए सामने आता है और किसान ज़मींदार की चंगुल से निकलकर महाजन की गिरफ्त में आ जाता है और • कर्ज़ वह मेहमान है जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता। प्रेमचंद ने “गोदान’ में कर्ज़ और सूद का थोड़ा-बहुत हिसाब दिया है – होरी ने “मंगरु शाह से आज पाँच साल हुए, बैल के लिए साठ रुपए लिए थे; उसमें साठ दे चुका था; पर वह साठ रुपए ज्यों के-त्यों बने हुए थे। दातादीन पण्डित से तीस रुपए लेकर आलू बोए थे। आलू तो चोर • खोद ले गए, और उसके तीन बरसों में सौ हो गए थे। दुलारी विधवा सहआइन थी, जो गाँव में नोन, तेल, तमाखू की दूकान रखे हुए थी। बँटवारे के समय उससे चालीस रुपए लेकर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रुपए हो गए थे; क्योंकि आने रुपए का ब्याज था। 

शोभा एक बार मँगरु साह से पूछता है – “अच्छा, ईमान से बताओ साह, कितने रुपए दिए थे, जिसके अब तीन सौ रुपए हो गए हैं। “जब तुम साल के साल सूद न दोगे, तो आप ही बढ़ेंगे।” “पहले-पहल कितने रुपए दिए थे तुमने? पचास ही तो।”

इसी तरह “तीस रुपए का कागद लिखने पर कहीं पचीस रुपए मिलेंगे और तीन-चार साल तक न दिए गए तो पूरे सौ हो जाएंगे।” (गोदान, पृ.87) भारतीय किसान को शोषण के पंजों में जकड़कर ज़मींदारी और महाजनी प्रथा ने इस प्रकार निचोड़ दिया है कि उन्हें अपने जीवन में किसी प्रकार का उत्साह और उमंग नहीं बच पाती, जीवन में केवल अंधकार छा जाता है जैसे प्रेमचंद लिखते हैं जीवन में न कोई आशा है, न कोई उमंग, जेसे उनके जीवन के सोते सूख गए हों और सारी हरियाली मुरझा गई हो। जेठ के दिन है, अभी तक खलिहानों में अनाज मौजूद है, मगर किसी के चेहरे पर खुशी नहीं है। बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुलकर महाजनों और कारिन्दों की भेंट हो चुका है, और जो कुछ बचा है वह भी दूसरों का है। भविष्य अंधकार की भांति उनके सामने है। उनके जीवन में स्वाद का लोप हो गया है।’

इसी तरह होली में नकल करते हुए महाजनी शोषण का भण्डा-फोड़ किया गया है। फिर दूसरी नकल हुई, जिसमें ठाकुर ने दस रुपए का दस्तावेज लिखकर पाँच रुपए दिये, शेष जनराने और तहरीर और दस्तूरी और ब्याज में काट लिए।

किसान आकर ठाकुर के चरण पकड़कर रोने लगता है। बड़ी मुश्किल से ठाकुर रुपए देने पर राजी होते हैं। जब कागज लिख जाता है और असामी के हाथ में पाँच रुपए रख दिये जाते हैं तो वह चकराकर पूछता है –

‘ ‘यह तो पाँच ही हैं मालिक!

‘ ‘पाँच नहीं, दस हैं। घर जाकर गिनना।’ ‘

नहीं सरकार, पाँच हैं!’ ‘एक रुपया नजराने का हुआ कि नहीं? ‘

‘हाँ, सरकार!’ ‘

एक तहरीर का? ‘

. ‘हाँ, सरकार!’

‘एक कागद का?

‘ ‘हाँ, सरकार!’

‘एक दस्तूरी का?’

‘हाँ, सरकार!’

‘एक सूद का?

‘ ‘हाँ, सरकार!’ ‘पाँच नगद, दस हुए कि नहीं? ‘

‘हाँ, सरकार अब यह पाँचों भी मेरी ओर से रख लीजिए।’

‘कैसा पागल है? ‘ ‘

नहीं सरकार, एक रुपया छोटी ठकुराइन का नजराना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का। एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने को, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को। बाकी बचा एक, वह आपकी क्रिया-करम के लिए।”

लगान और सूद के अलावा भी किसानों के शोषण के कई अन्य तरीके ज़मींदारों ने खोज निकाले हैं जिनमें बेगार, नजराना, डाँड, दस्तूरी, शगुन आदि अनेक गैर-कानूनी कर शामिल हैं। इन्हें वसूल करने का अधिकार ज़मींदार, कारिन्दे, महाजन, सरकारी कर्मचारी, पटवारी, पुलिस, कचहरी सभी के पास है और भारतीय किसान “सबका नरम . चारा” बना हुआ है। प्रेमचंद उपन्यास की कथा को रोक-रोककर इन हथकंडों से पाठकों को परिचित कराते रहते हैं।

प्रेमचंद मानते हैं कि किसी अच्छे या भले ज़मींदार से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता क्योंकि “यह संबंध ही ऐसा है कि एक ओर प्रजा में भय, अविश्वास और आत्महीनता के भावों को पुष्ट करता है और दूसरी ओर ज़मींदारों को अभिमानी, निर्दय और निरंकुश बना देता है।”  इसलिए प्रेमचंद को जब भी अवसर मिला है, उन्होंने इस बिचौलिये वर्ग के रूप में ज़मींदारों के अस्तित्व का विरोध किया है।

जिस तरह ज़मींदार और महाजन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, उसी तरह महाजन और धर्म भी एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। ज्यों ही कोई आसामी रुपए देने में आनाकानी करता है, महाजन उसकी धार्मिक भावनाओं को उकसाता है। दातादीन ने होरी को तीस रुपए कर्ज़ दिए थे, जो अब दो सौ रुपए हो गए। गोबर कानून सम्मत सत्तर रुपए देना चाहता है। इस परं पण्डित दातादीन होरी को कहता है | “सुनते हो होरी, गोबर का फैसला? मैं अपने दो सौ छोड़ के सत्तर रुपए ले लूँ, नहीं अदालत करूँ। इस तरह का व्यवहार हुआ तो कै दिन संसार चलेगा? और तुम बैठे सुन रहे हो; मगर यह समझ लो, मैं ब्राह्मण हूँ। मेरे रुपए हजम करके तुम चैन पाओगे। मैंने ये सत्तर रुपए भी छोड़े अदालत भी न जाऊंगा, जाओ। अगर मैं ब्राह्मण हूँ तो अपने पूरे दो सौ रुपए लेकर दिखा दूंगा और तुम मेरे द्वार पर आओगे और हाथ बाँधकर दोगे।” (गोदान, पृ.184) जाहिर है कि होरी पर इस धमकी का असर पड़ता है और वह दो सौ रुपए चुकाने के लिए राजी हो जाता है। फिर जजमानी का एक आर्थिक रूप भी है। ब्राह्मणों को मिलने वाली जजमानी की व्याख्या करते हुए पं.दातादीन कहते हैं, “ज़मींदारी मिट जाय, बंकघर टूट जाय, लेकिन जजमानी अंत तक बनी रहेगी। जब तक हिन्दू जाति रहेगी, तब तक ब्राह्मण भी रहेंगे और जजमानी भी रहेगी। सहालग में मजे से घर बैठे सौ-दो सौ फटकार लेते हैं। कभी भाग लड़ गया, तो चार-पाँच सौ मार लिया। कपड़े, बरतन, भोजन अलग। कहीं न कहीं नित ही कार-परोजन पड़ा ही रहता है। कुछ न मिले तब भी एक दो थाल और दो-चार आने दक्षिणा मिल ही जाते हैं।” 

होरी की बरबादी में जहाँ धर्म की भूमिका है, वहाँ बिरादरी का भय भी कम नहीं है। गोबर और झनिया के संबंध से बिरादरी को एतराज है। पंचों ने होरी पर सौ रुपए नकद और तीस मन अनाज की डाँड लगा दी। होरी ने रुपयों के लिए अपना घर गिरवी रखा तथा फसल पर पैदा हुआ अनाज डाँड में दे दिया। इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए प्रेमचंद ने लिखा है कि होरी में “बिरादरी का वह आतंक था कि अपने सिर पर लादकर अनाज ढो रहा था, मानो अपने हाथों अपनी कब्र खोद रहा हो। ज़मींदार, साहूकार, सरकार किसका इतना रौब था? कल बाल-बच्चे क्या खायेंगे, इसकी चिन्ता प्राणों को सोख लेती थी: पर बिरादरी का भय पिशाच की भाँति सिर पर सवार आंकुस दिये जा रहा था।” 

प्रेमचंद ने दिखाया है कि धर्म, बिरादरी, सरकार, ज़मींदार ‘पंच ‘ सब वही लोग हैं जो समाज के कर्ता-धर्ता बने हुए हैं। उन्हीं पंचों में से कोई कारिन्दा है, कोई महाजन, कोई पुजारी है, कोई पटवारी। इनकी अलग-अलग भूमिकाएँ हैं। सब मिलकर किसान को तबाह करने में लगे हुए हैं। कोई किसी से कम नहीं है। सब अलग-अलग तरीके से किसान को लूटते हैं। पुजारी धर्म-भावना का सहारा लेता है, पुलिस डांडे के बल से, कचहरी कानून से, बिरादरी दबाव से तथा ज़मींदार सभी हथकंडों से शोषण करता है।

धनिया इन सबको “हत्यारा” कहकर अपनी भड़ास निकालती है।

“गोदान” में एक स्थान पर सारे शोषक इकट्ठे हो जाते हैं। हीरा ने होरी की गाय को जहर खिलाकर मार डाला। सारे गाँव में हंगामा हुआ। रायसाहब का कारिन्दा नोखेराम आया, पंडित दातादीन आए, महाजन झिंगुरी सिंह आए, अंग्रेज़ बहादुर के पटवारी पटेश्वरी भी पहुंचे। पुलिस आयी। पंडित जी ने धर्म के दण्ड का ज़ोर दिखाया। पुलिस हीरा के घर की तलाशी लेने के लिए तैयार हुई। होरी की मर्यादा चेता जागी। सबने मिल-जुलकर थानेदार के लिए रिश्वत की राशि तय की। पंच बिचौलिए बन गए। झिंगुरी सिंह महाजन बन गए। उन्होंने होरी को तीस रुपए उधार दिए। इनमें से आधे पुलिस को और आधे पंचों को मिलने थे। यहाँ प्रेमचंद ने लेखकीय कौशल का प्रयोग करके रिश्वत के रुपए बचा लिए। धनिया का आकस्मिक पराक्रम काम कर गया परंतु मान्य स्थितियों में तो होरी लूट ही लिया जाता।

प्रेमचंद ने शोषण की इस प्रक्रिया का चित्रण करते हुए किसी एक व्यक्ति या संस्था को जिम्मेदार नहीं ठहराया है, बल्कि शोषण के संपूर्ण तंत्र को उत्तरदायी ठहराया है। दरअसल वे इन शोषकों के शोषण की कहानी कहने के लिए नहीं बैठे हैं। ये सब लोग तो आवश्यक बुराई के रूप में उपन्यास में आ जाते हैं। लेखक तो होरी की बदहाली की कथा कहना चाहता है। उसे उसकी विफलताओं की दास्तान सुनानी है, उसकी विडम्बना को उजागर करना है। होरी के बचने का कोई रास्ता खोजना चाहते हैं, वे यह जानते हैं कि इस तंत्र में होरी के बचने का कोई रास्ता नहीं है। वैसे तो होरी का कोई सहायक भी नहीं है, अगर होता तो भी इस तंत्र में उसे कोई सहयोग दिया नहीं जा सकता। प्रेमचंद ने इस सवाल का भी दरवाज़ा बंद कर दिया है कि कानून बना देने से भी होरी को कोई सहायता हो सकती है। झिंगुरी सिंह कानून की सीमा बताते हुए कहता है – “कानून और न्याय उसका है, जिसके पास पैसा है। कानून तो है कि.. महाजन किसी आसामी के साथ कड़ाई न करे, कोई ज़मींदार किसी काश्तकार के साथ सख्ती न करे, मगर होता क्या है, रोज ही देखते हो। ज़मींदार मुसक बंधवा के पिटवाता है और महाजन लात और जूते से बात करता है। जो किसान पोढ़ा है, उससे . न ज़मींदार बोलता है, न महाजन। ऐसे आदमियों से हम मिल जाते हैं और उनकी मदद से दूसरे आदमियों की गर्दन दबाते हैं।…..कचहरी-अदालत उसी के साथ है, जिसके पास पैसा है। हम लोगों को घबराने की कोई बात नहीं।”

होरी का स्थितियों से समझौता

शोषण की इतनी भीषणता के बावजूद प्रेमचंद के किसान प्रायः विद्रोह नहीं करते, विशेष रूप से होरी के मन में कभी विरोध का स्वर नहीं उठता। वह तो मानता है कि किसान की कुशल दबे रहने में ही है। धनिया जरूर कभी-कभी विद्रोही तेवर दिखाती है, लेकिन वह उसकी पीड़ा की कराह मात्र है, उसकी कराह विद्रोह की सीमा तक नहीं बढ़ती। धनिया की तरह अन्य किसान भी आपसी बातचीत में, हँसी-मजाक में, नकलप्रहसन में अपने भावों को प्रकट करते हैं। परंतु ये भाव संगठित रूप ग्रहण नहीं कर पाते।

दरअसल किसान ज़मींदार और सरकार द्वारा किए जा रहे शोषण को अधिकांशतः .. समझते है लेकिन शोषण के चंगुल से निकल नहीं पाते। उनका रोजमर्रा का जीवन ज़मींदार की जमीन से जुड़े रोजगार व काश्तकारी से नियंत्रित है। रोजगार व मजदूरी के लिए ये पूर्णतः ज़मींदार पर निर्भर है। ज़मींदारों के खेतों को जोतने, सारा साल मेहनत-मुशक्कत करने पर साल भर पूरा पड़े इतना भी अनाज किसान के पास नहीं . किसान जीवन के परिप्रेक्ष्य बचता। लगान के रूप में आधा अनाज वापस करना पड़ता है और भूखों रहने की में गोदान विवशता को झेलना पड़ता है। लेकिन लगान देना तो किसान के लिए अनिवार्य है, किसान खुद भी इसे उचित मानते है। इसलिए वे कभी विद्रोह नहीं करते। किसानों ने विद्रोह तब किया है जब शोषण की सीमा वैध एवं परंपरानुमोदित रूप से बहुत आगे बढ़ जाती है। लगान देना वह वैध मानता है। पण्डे-पुजारी भी जो उसका शोषण करते हैं, उन्हें किसान “पुण्य’ मानता है। महाजनी शोषण से किसान पीड़ित तो बहुत होता है, परंतु यह आम तौर से ‘उपकार’ के रुपए में लिया गया कर्ज होता है। रुपया लेते वक्त किसान को महाजन की चिरौरी करनी पड़ती है, तब वह एहसान करता हुआ रुपए उधार . देता है। इसलिए इनके प्रति भी घृणा दब जाती है। होरी तो आम भारतीय किसानों की तरह “असमानता की परंपरागत संस्कृति” में विश्वास करता है। इसलिए अपने शोषकों  को वह शोषकों के रूप में नहीं पहचानता, वरन उन्हें अपना “हितैषी’ समझता है। इसलिए अपनी बदहाली के लिए अपने भाग्य व कर्मफल को दोष देकर संतुष्ट हो जाता  है।

प्रेमचंद के साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें उन्होंने किसानों के शोषकों की सुस्पष्ट तस्वीर पेश कर दी है। होरी की बदहाली के जिम्मेदार लोग पाठकों को स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।

गोदान भारतीय सीमांत किसान के जीवन संघर्ष का वास्तववादी उपन्यास है। “होरी” का शोषक शक्तियों द्वारा हो रहा शोषण और उसकी असहायता तथा व्यथा को हमारे सामने साकार करने वाली प्रेमचंद की यह रचना हिंदी उपन्यास साहित्य की सर्वोत्कृष्ट रचना मानी जाती है। कारण यह रचना पहली बार समाज के सबसे परीश्रमी लेकिन . अभाव में रहने के लिए मजबूर, साधनहीन, वंचित किसान के जीवन यथार्थ को हमारे सामने प्रस्तुत करती है। अर्थ-उत्पादन के मूल साधनों के असमान बंटवारे, असमान अधिकार और भागीदारीपर सवाल उठाती है। होरी और धनिया के जीवन भर के परिश्रम का मूल्य उन्हें अपनी पाँच बीघे जमीन से बेदखल करके मजदूर में परिवर्तित करती है। जमीन और सत्ता के अधिकारियों द्वारा महाजन, पुलिस और पुरोहितों की सहायता से गरीब किसानों के निरंतर शोषण किए जाने की साजिशे रचाई जाती है। लगान, डांड व धर्म पुण्य के नाम पर शोषण की इस प्रक्रिया में अंततः किसान सब कुछ से हाथ धो । बैठता है। शोषकों के षड़यन्त्र और दबाव को वह महसूस तो करता है, लेकिन विरोध में शब्द भी नहीं कहता। परंपरागत मानसिकता और अंधःविश्वासों से वह भी घिरा हुआ है। वह इसे अपनी नियति मान कर स्वीकारता चलता है, जब तक इस अंधकार से निकलने का रास्ता उसे नहीं मिलता वह इसमें गहरे डुबता चला जाएगा, इसका उसे अहसास भी होता है। होरी शोषण के इस षडयन्त्र में फँसता चला जाता है। प्रेमचंद ने होरी को केवल गरीब, निर्धन किसान के रुप में ही चित्रित नहीं किया है बल्कि अंधःविश्वासी, रुढ़िग्रस्त, धर्मभीरु और दिखावे की भावना रखने वाले ग्रामीण किसान के रुप में भी चित्रित किया । है। होरी का अपढ़, गंवार, अंधविश्वासी और धर्मभीरु होना उस समाज की उपज है, जिसे होरी जैसे किसानों को इसी दशा और मानसिक स्थिति में रखने से फायदा है। एक निर्जीव साधन बनाकर रखने में ज़मींदार, साहूकार और पुरोहितों का स्वार्थ ही स्वार्थ है। यह निर्जीव साधन इसे अपना प्रारब्ध मानकर, बिना विरोध किए चुपचाप जीये चला जाता है।

किसान का चौतरफा शोषण करने वाली शक्तियाँ अंग्रेज सरकार की शोषक नीतियों को ही अपनाती है। ज़मींदार वर्ग अंग्रेज शासन के प्रति अपनी स्वामिभक्ति को दिखाने के लिए हर संभव प्रयास करता रहता है। किसानों से दूगना-चौगुना लगान वसुल करके, सरकारी तिजोरियाँ भरकर अपनी स्वामिभक्ति का प्रमाण देना चाहता है। इस प्रक्रिया में किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करके उन्हें किसान से मजदूर बनाए जाने की पूरी कोशिश की जाती रही है। होरी का प्रयास केवल पाँच बीघे खेत को जी जान से बचाने का और मजदूर बनने से बचने का आंखरी प्रयास है। प्रेमचंद मानते है जब तक ज़मींदारी व्यवस्था समाप्त नहीं होगी, किसानों का ज़मीन से बेदखल होकर मजदूर बनना टल नहीं सकता।

प्रेमचंद शोषण की इस प्रक्रिया के लिए किसी एक व्यक्ति या संस्था को जिम्मेदार नहीं मानते, बल्कि शोषण के संपूर्ण तंत्र को इसके लिए जिम्मेदार मानते है। “गोदान’ में “होरी’ की बदहाली की कथा के द्वारा यह भी बताते है कि केवल उपरी सुधारों से । किसानों का भला नहीं हो सकता। किसानों की भलाई के लिए इस तंत्र को, पूरी व्यवस्था को बदलना जरुरी होगा। ज़मींदारी प्रथा को समाप्त किए जाने के लिए कानूनी प्रावधान भी सक्षम हो सकेंगे अथवा नहीं इसके बारे में प्रेमचंद आशंकित है। सरकारी तंत्र से जुड़े सभी सरकारी अधिकारी और ज़मींदारी से जुड़े कारिंदे,महाजन और पुरोहित तक किसी भी कानून को लागू न होने देने की पूरी कोशिश करेंगे। क्योंकि इन सभी का स्वार्थ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। सत्ता और धन के जोर पर कानून को भी यही लोग खरीद लेंगे और कानून भी गरीब किसान को सहायता नहीं कर पाएगा, न्याय मिलने की बात तो बहुत दूर रही।

प्रेमचंद इस बात से पूरी तरह से सहमत थे कि जब तक रैयतवारी और इस्तमवारी जैसी शोषक प्रथाएं कायम रहेगी, तब तक किसानों का आर्थिक, सामाजिक, शोषण खत्म नहीं होगा। देश के स्वतंत्र होने पर ही समानता पर आधारित शोषण विहीन समाज की स्थापना की प्रेमचंद कल्पना करते है। इस कल्पना को साकार होने का विश्वास उन्हें शहर में मजदूरी करके पेट पाल रहे गोबर के विचार चेतना में आये बदलाव के रुपमें मिलता है। “होरी’ की परंपरागत मान्यता और अंधःविश्वास को दूर करने की “गोबर” कोशिश करता है। कर्म और जन्म सिद्धान्त की झूठी गढ़ी गई कहानी पर विश्वास करके अमीर-गरीब होने को भाग्य का लिखा मानकर चुपचाप शोषण को सहते जाना गोबर की चेतना को मान्य नहीं। समाज के कुछ ठेकेदार अपने स्वार्थ के लिए समय-समय पर बहुजन समाज को धर्म के नाम पर लूटते जा रहे हैं। पाप-पुण्य की कल्पना, धर्म के आतंक और अंधविश्वास से घिरे ‘होरी’ को इस सबसे बाहर निकालने का गोबर अपने तई बहुत प्रयास करता है, लेकिन होरी उसकी एक नहीं सुनता। असमानता और भेदभाव को जन्म देने वाले इन विश्वासों का प्रेमचंद ने बार-बार गोबर के माध्यम से खंडन किया है।

गांवो से शहरों में मजदूरी की तलाश में जा बसे मजदूरों में स्वतंत्रता और समानता की चेतना का जागृत होना, नगरीकरण और औद्योगिकरण से संभव हो पाया है। गोबर जैसे किसान से मजदूर बनी नई पीढ़ी अधिक निश्चित, निर्भिक, समझदार और विद्रोही बन रही है। चौतरफा होने वाले शोषण को झेलते रहने के बावजूद होरी जैसे किसान विद्रोह नहीं करते, क्योंकि वे इसे अपना भाग्य मानकर कर्मफल को दोष देकर संतुष्ट हो जाते है। असमानता की परंपरागत संस्कृति में ये विश्वास करते है। शोषकों की शोषक प्रवृत्ति को समझकर भी उससे दबे रहने में ही अपनी भलाई देखते है। उनके मन के विद्रोही भाव संगठित रुप ग्रहण नही कर पाते। प्रेमचंद द्वारा चित्रित किसान दो प्रकार की असमानताओं में भी विश्वास करता है, एक है आर्थिक असमानता और दूसरी जाति के आधार पर तय श्रेणीगत असमानता। अतः दो प्रकार से विभाजित किसान शक्ति का एक साथ संगठित होकर आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर विद्रोह करना भारतीय समाजव्यवस्था में संभव ही नहीं लगता। जब तक कि सामाजिक समानता पर आधारित शोषण विहीन समाजव्यवस्था यहाँ पर स्थापित नहीं होती, आर्थिक समानता और न्याय की कल्पना महज एक कल्पना मात्र ही हो सकती है।

सारांश

इस इकाई का आपने ध्यानपूर्वक अध्ययन किया है, आपने यह निश्चित रूप से महसूस किया होगा कि प्रेमचंद का ‘गोदान : किसान जीवन के संघर्ष को अभिव्यक्त करने वाली सबसे महत्वपूर्ण रचना है। यह प्रेमचंद की आकस्मिक रचना नहीं है, वरन् उनके . जीवन-भर के सर्जनात्मक प्रयासों का निष्कर्ष है।

होरी जैसे अल्पभूधारक किसान का जीवन-भर सामंती व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष भारतीय किसान की त्रासदी को हमारे समक्ष स्पष्ट कर देता है। अपनी जान और कुल-मर्यादा से भी प्यारी जमीन ‘ को बचाने के प्रयासों में अपना सब कुछ खोकर वह मजदूर हो . जाने पर विवश हो जाता है। ज़मींदार, साहूकार, अफसर, पटवारी और पुरोहित जैसी अनेक शोषक शक्तियाँ एक किसान को भूमि से वंचित कर मजदूरी की ओर धकेलने में सहायक हो जाती है। शोषक यहाँ ज़मींदार ही है जो पहले सामंतवाद को पोषित कर रहा था अब पूंजीवादी व्यवस्था का नियामक होता चला जा रहा है। वास्तव में गोदान एक ऐसे काल खंड की कथा है जिसमें सामंती समाज के अंग किसान और ज़मींदार दोनों ही मिट रहे हैं और पूंजीवादी समाज के मजदूर तथा उद्योगपति उनकी जगह ले रहे हैं।

प्रेमचंद ने ‘जबरदस्ती ‘ (8 मई, 1933) नामक लेख में भारतीय किसान की दयनीय स्थिति के बारे में लिखा है “भारतीय किसान की इस समय जैसी दयनीय दशा है, उसे कोई शब्दों में अंकित नहीं कर सकता। उनकी दुर्दशा को वे स्वयं जानते हैं – या उनका भगवान जानता है। ज़मींदार को समय पर मालगुजारी चाहिए, सरकार को समय पर लगान चाहिए, किसान को खाने के लिए दो मुट्ठी अन्न चाहिए, पहनने के लिए एक चीथड़ा चाहिए, चाहिए सब कुछ, पर एक ओर तुषार तथा अतिवृष्टि फसल चौपट कर रही है, एक ओर आंधी उनके रहे-सहे खेत को भी भ्रष्ट कर रही है – दूसरी ओर रोग, प्लेग, हैजा, शीतला उनके नौजवानों को हरी-भरी तथा लहराती जवानी में उसी तरह उठाए लिए चली जा रही है, जिस तरह लहलहाता खेत अभी छ: दिन पूर्व के पत्थर-पाले से जल गया। गल्ला पैदा हो रहा है, पर भाव इतना मंदा है कि कोई दो वक्त भोजन भी नहीं कर सकता। स्त्री के तन पर जो दो-चार गहने थे, वे साहूकार के पेट से बचकर सरकार की मालगुजारी के पेट में चले गए। नन्हे बच्चे जो चीथड़े ओढ़कर जाड़ा काटते थे, वही अब उनका पिता पहनकर अपने तन की लाज ढक रहा है। माता के पास केवल इतना ही वस्त्र है, जितने से वह बूंघट काढ़ सके – धोती चाहे घुटने तक ही क्यों न । खिसक आए।”

प्रेमचंद अपने लेखों में बार-बार किसान द्वारा एक बार कर्ज लेने पर जिंदगी भर तक उस कर्जे के बोझ को ढोते रहने की विवशता को रेखांकित करते है। होरी द्वारा कर्ज से मुक्ति के लिए जी-जान से की जाने वाली कोशिशे उसकी विवशता को बयान करती है। चौतरफा शोषण को झेलने के लिए मजबूर होरी, कुछ न कर पाने की स्थिति में भाग्य पर दोष लगाकर और शिथिल हो जाता है। मजबूरी में ही सही ज़मींदारों के पैर सहलाने में ही वह अपना भला समझता है। किसानों के भाग्यवादी, अंधविश्वासी होने के कारण भी उसका सामाजिक और आर्थिक शोषण होने की संभावनाएँ बढ़ती रहती है। प्रेमचंद ने किसानों के शोषण की इस न खत्म होने वाली श्रृंखला में होरी पर बिरादरी द्वारा लगाए गए जुर्माने और डांड के प्रसंग को विस्तार से हमारे सामने प्रस्तुत किया है। जाति प्रधान ।

सामाज-व्यवस्था की निष्ठुर अमानवीयता ने होरी पर लगाए जुर्माने और डांड को चुकाने के लिए होरी खुद ही अनाज के टोकरे भर-भर कर पंचायत में पहुँचा आता है। वह .. बिरादरी द्वारा बहिष्कृत किए जाने के डर से विवश होकर यह सब करता है। उसका शोषण करने वालों के समक्ष समर्पण, अपने बचाव का ही प्रयास है। समर्पण और समझौता किसान जीवन की त्रासदी के दो महत्वपूर्ण सत्य है। प्रेमचंद होरी के माध्यम से भारतीय किसान के चौतरफा शोषण के कारण हुई उसकी दयनीय स्थिति को उजागर करते है।

महाजनी सभ्यता के पूंजीवादी व्यवस्था के रूप में उभरते खतरे को प्रेमचंद जान चुके थे। किसान और उसके भूमि से जुड़े रिश्ते को धीरे-धीरे यह खत्म कर रही थी तो ज़मींदारों को कर्ज दे-देकर उनके अस्तित्व को मिटा रही थी। कृषक-सभ्यता के ये दोनों स्तंभ धराशायी हो रहे थे। होरी का किसान से मजदूर बनना इसी वास्तविकता को दर्शाता है। होरी का यह निर्णय उसका अपना नहीं है यह उसकी विवशता है और  आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक दबावों का परिणाम है। हम देखते हैं कि प्रेमचंद में कृषक सभ्यता, संयुक्त परिवार व्यवस्था आदि के प्रति मोह है लेकिन इसका · . यह अर्थ कदापि नहीं है कि प्रेमचंद ज़मींदारी प्रथा या सामन्ती प्रथा में जी रहे किसानों के शोषण का विरोध नहीं करते। ज़मींदारी प्रथा के शोषण के तरीकों का उन्होंने पर्दाफाश किया है, लेकिन औद्योगिकरण और नगरीकरण के कारण व्यक्तिगत संबंधों में . पड़ने वाली दरार को वे अच्छी प्रकार समझ चुके थे। होरी और गोबर के बीच में समाप्त . होते नेह और गोबर का केवल अपने बारे में सोचना इसी का संकेत है। गोबर अपनी कमाई का एक पैसा भी घर नहीं भेजता और उसे यह व्यवहार युक्तिसंगत भी लगता है, “वे लोग तो रुपये पाते ही आकाश में उड़ने लगेंगे। दादा को तुरंत गाय खरीदने और अम्मा को गहने बनवाने की धुन सवार हो जाएगी।’

होरी और धनिया की बेहतर जीवन की जो आशाएं गोबर के साथ जुड़ी थी, वह सब गोबर के स्वार्थपूर्ण व्यवहार से चूर-चूर हो जाती है। प्रेमचंद इन बदलते संबंधों के प्रति चिंतित थे और महाजनी सभ्यता को इसके लिए जिम्मेदार मानते थे। जिसेकि अपनी मौरुसी की पाँच बीघा जमीन को जी-जान से बचाने की कोशिश करते होरी-धनिया के माध्यम से हमारे सामने स्पष्ट कर देते हैं। ज़मींदारी प्रथा भी चरमराती अवस्था में जैसेतैसे कर्ज के सहारे जीवित थी। महाजनों, बैंकरों की चिरौरी करके अपनी झुठी शान बचाने के लिए और सरकारी अधिकारियों की आवभगत के लिए रुपया उधार लेकर किसी तरह अंतिम सांसे ले रही थी।

आपने इस इकाई के अध्ययन के दौरान यह महसूस किया होगा कि होरी की ‘गाय ‘ की लालसा और उसे पाने और खोने की घटनाओं का महत्व केवल होरी के जीवन की त्रासदी की ही अभिव्यक्ति नहीं है। बल्कि उसके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति की वास्तविकता को उजागर करने की यथार्थवादी दृष्टि भी है।

गोदान काल के प्रेमचंद को यह विश्वास होने लगा था कि बीसवीं सदी समाजवाद की सदी होगी, जिसमें अमीर-गरीब के बीच की गहरी खाई को कम किया जाएगा। प्रेमचंद समझने लगे थे कि तमाम विरोधों के बावजूद समाजवाद को रोकना आसान नहीं होगा और यह आकर ही रहेगा। ‘निकट भविष्य में आजकल का पूंजीवाद जमीन पर पड़ा. . होगा और उसकी लाश पर समाजवाद की धारा बह रही होगी। ‘ प्रेमचंद बहुत हद तक नेहरू जी के भारत में समाजवादी व्यवस्था ही असमानता और शोषण को खत्म कर सकती है, इस विचार से सहमती दर्शाते है। गोदान में राय साहब द्वारा इस विचार की अभिव्यक्ति इस प्रकार हुई है – ‘जब तक किसानों को ये रियायतें अधिकार के रूप में न मिलेंगी, केवल सद्भावना के आधार पर उनकी दशा नहीं सुधर सकती। स्वेच्छा अगर स्वार्थ छोड़ दे तो अपवाद है। मैं खुद सद्भावनावश करते हुए भी स्वार्थ नहीं छोड़ सकता और चाहता हूँ कि हमारे वर्ग को शासन और नीति के बल से अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए मजबूर किया जाए।’

ऊपरी सुधारों से किसानों का भला नहीं हो सकता क्योंकि सरकारी तंत्र के साथ . ज़मींदारों के संबंध बहुत गहरे थे, इसलिए तंत्र के साथ पूरी व्यवस्था को बदलने की जरूरत थी। कानून बना देने भर से गरीब किसानों, दलितों, मजदरों को न्याय मिलने की आशा नहीं बंधती थी, न्याय, कचहरी और अदालत तो पैसे वालों के ही हाथों में खेल रही थी। अंग्रेजों के साथ मिलकर भारतीय सामंत, ज़मींदार, छोटे-छोटे रियासतों के नवाब राज्य का नियंत्रण और नितियों का निर्धारण कर रहे थे। किसानों का सीधा संघर्ष अंग्रेज सरकार, सामन्त, ज़मींदार अफसर और महाजनों से था। ये सभी गोलबंद होकर अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए एक-दूसरे का साथ देते हुए किसानों का शोषण कर रहे थे। हम देख रहे हैं कि ‘गोदान ‘ में किसान और ज़मींदारों के बीच संघर्ष का कोई संकेत नहीं . मिलता। किसान जीवन पर ज़मींदारों और महाजनों का अधिकार है, उसके सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक अधिकारों का निर्धारण भी इन्हीं के द्वारा किया जाता है।

ज़मींदार और उसके कारिंदे किसान जीवन के नियामक बने हुए हैं। फिर किसान इस शोषण के विरोध में विद्रोह कैसे करेगा? करने की सोच भी नहीं सकता है। मानवीय अस्तित्व की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए किसान सर्वथा इन्हीं शोषकों की मर्जी पर निर्भर है। ‘गाय ‘ की अभिलाषा रखने वाला होरी अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पाता। यह समाज का वही वंचित तबका है जो भारतीय जाति व्यवस्था के अंतर्गत निम्न जातियों में शामिल है। जाति के आधार पर इनका सामाजिक दर्जा तय है बल्कि … व्यवसाय तथा उत्पादन के साधनों के साथ इनका संबंध भी तय है। उत्पादन प्रणाली में . इनके हिस्से में केवल श्रम ही आया है। इनके परिश्रम से. उत्पन्न उत्पाद पर जातिव्यवस्था में श्रेष्ठ मानी गई जातियों का ही अधिकार है। इन तथाकथित उच्च जातियों का काम. केवल भोग करना है, श्रम न करके भी जीवन के सभी सुख इनके समक्ष हाथ जोड़कर खड़े है। यह उस जातिव्यवस्था का कमाल है, जो जन्म के आधार पर निश्चित होती है। केवल कुछ व्यक्तियों के लिए संपूर्ण बहुजन और सर्वहारा को या तो मजदूर बन कर जीना पड़ रहा है या सेवा करने वाला गुलाम ।

उत्पादन के सभी संसाधनों और श्रम पर . भी इन्हीं उच्च कही गई जातियों का एकाधिकार है, इस एकाधिकार को बनाए रखने के लिए समय-समय पर ये दमनकारी तरीके अपनाते रहते हैं, जिससे किसान और मजदूरों पर इनका दबाव बना रहे। किसान और मजदूरों के श्रम का मूल्य उनकी शर्तों पर नहीं बल्कि ज़मींदारों, साहुकारों, अधिकारियों की शर्तों के अनुसार तय होता है, जो कभी भी उसके आर्थिक स्तर से ऊपर उठने में मदद नहीं करती। बल्कि होरी तो किसान से । मजदूर बनने के लिए मजबूर हो गया है। थोड़ी सी जमीन जो उसे व उसके परिवार के लिए जान से भी प्यारी थी, उस जमीन को बचाने में वह असमर्थ हो जाता है। दरवाजे पर गाय का बंधा होना एक किसान के लिए जीवन भर की पूँजी है, एक सपना है लेकिन होरी का गाय खरीद ने का सपना अंत तक पूरा नहीं हुआ, गाय की आकांक्षा मन में लिए ही होरी मर जाता है।

‘गोदान ‘ में होरी की गाय खरीदने की आकांक्षा का पूर्ण न होना, केवल वैयक्तिक आकांक्षा के संदर्भ में अभिव्यक्त नहीं हुआ है। यहाँ प्रेमचंद भारतीय किसानों की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक वास्तविकता को उजागर करना चाहते थे। इस वास्तविकता में छिपे उस सत्य से तत्कालीन समाज और संवेदनशील पाठक वर्ग को परिचित करवाना चाहते थे। सामन्तवाद के अंत और पूंजीवाद के उद्भव की उन स्थितियों से अवगत कराना चाह रहे थे, वे किसान और ज़मींदार, कृषक सभ्यता के दोनों स्तंभों के धराशायी होने से चिंतित थे। बदलते आर्थिक संदर्भो में गरीब किसान या मजदूर की आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव आने का संकेत नहीं मिलता है।

आर्थिक अधिकार चाहे ज़मींदारों के हाथ में रहे, चाहे पूँजीपतियों के हाथ में हो, किसान और मजदूर की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होगा। जब तक किसान अपनी सामाजिक स्थिति मजबूत करके आर्थिक उत्पादन में अपनी भागीदारी निश्चित करने के लिए संघर्ष नहीं करता, तब तक होरी जैसी दयनीय स्थिति से बचने का उसके पास दूसरा कोई कारगर उपाय नहीं है।

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