‘गोदान’ में नारी-चरित्र

‘गोदान’ की यह तीसरी इकाई है। पिछली दो इकाइयों में क्रमशः भारतीय किसानों का ज़मींदार, महाजन, पुरोहित और अधिकारी तथा पुलिस द्वारा होने वाले शोषण का यथार्थवादी चित्र प्रस्तुत किया है। राष्ट्रीय आंदोलन में किसानों की अस्तित्व रक्षा चेतना की अभिव्यक्ति तथा आजाद भारत की परिकल्पना से आप परिचित हुए।

पहले इसे पढ़ें 

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • नारी जीवन के प्रति प्रेमचंद के दृष्टिकोण को जान सकेंगे,
  • ‘गोदान ‘ में प्रस्तुत किसान नारी और मध्यमवर्गीय नारी चरित्र की विशेषताओं से परिचित हो सकेंगे,
  • उच्चजातीय पुरुषों की दलित स्त्री के प्रति हीनदृष्टि और यौन शोषण संबंधी मानसिकता को समझ सकेंगे,
  • प्रेमचंद की नारीत्व की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।

‘गोदान ‘ में प्रेमचन्द मुख्यतः छोटी जोत के किसान की अस्तित्व रक्षा से चिंतित रहे हैं। पिछली इकाइयों में आपने प्रेमचन्द की किसान जीवन संबंधी गहरी चिंताओं के कारणों को विस्तार से समझा है। प्रस्तुत इकाई में द्रष्टव्य है कि प्रेमचंद ने गाँव-जीवन में पुरुष पात्रों का ही चित्रण नहीं किया है, सिर्फ दातादीन, मँगरू, पटेश्वरी, नोखेराम, को ही उपस्थित नहीं किया है, वरन् धनिया, झुनिया, सिलिया, नोहरी और दुलारी सहुआयन को भी चित्रित किया है। पिछली इकाई में किसान-जीवन के विश्लेषण में हमने अधिकतर पुरुष पात्रों को ही आधार बनाया है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि प्रेमचंद ने ग्रामीण जीवन में नारी चरित्रों को उचित महत्व नहीं दिया है।

प्रेमचंद ने होरी का किसान के रूप में अधूरा चरित्र ही उपस्थित किया है। होरी को ढीला-ढाला, गमखोर सबसे दबने वाला. धर्मभीरू मर्यादा प्रेमी के रूप में उपस्थित किया है। इस रूप में वह भारतीय किसान का प्रतिनिधि नहीं है। धनिया के स्वाभिमानी, निडर, मेहनती, कर्मठ, साहसी रूप से मिलकर ही वह भारतीय किसान की ‘संश्लिष्ट प्रतिमा ‘ बन पाता है। धनिया के बिना वह अधूरा पात्र है। 

‘गोदान ‘ की मूल कथा बेशक होरी-धनिया के संघर्षों और पीड़ाओं की ही है। परंतु इस मूल कथा के साथ-साथ उन्होंने अनेक अवांतर कथाओं और प्रकरणों की भी सृष्टि की है, जिनमें नोहरी, झुनिया, सिलिया, चुहिया, मालती, गोविन्दी आदि अनेक नारी चरित्र हमारे सामने आते हैं। यदि इस दृष्टि से देखा जाए तो ‘गोदान ‘ के कथाकार के सामने दो ही मुख्य प्रश्न उपस्थित हैं – एक किसान के अस्तित्व रक्षा की चिंता, और दो नारीत्व को परिभाषित करने का आधार। किसान जीवन के संदर्भ में ‘गोदान ‘ का मूल्यांकन विश्लेषण हम पिछली इकाई में कर चुके हैं। अब हम ‘गोदान ‘ में नारी चरित्रों को समझने का प्रयत्न करेंगे।

प्रेमचंद के साहित्य की शुरूआत नारी के उत्पीड़न के विरोध से होती है। उनके प्रथम उपन्यास ‘असरारे मआबिद उर्फ देवस्थान-रहस्य ‘ में मंदिरों में सियों को मूर्ख बनाने और उन्हें ठगने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया गया है। इसके बाद ‘प्रेमा ‘, ‘सेवासदन’, ‘निर्मला ‘ आदि उपन्यासों एवं अनेक कहानियों में नारी-जीवन के विविध पक्षों को उद्घाटित किया गया है। उनकी अन्य रचनाओं में भी नारी-जीवन को पर्याप्त महत्व दिया गया है। रंगभूमि में इन्दु और राजा महेन्द्र प्रताप के संबंधों का तनाव व्यक्त हुआ है। ‘कायाकल्प ‘ में ठाकुर विशाल सिंह के बहु विवाहों का वर्णन है। ‘कर्मभूमि ‘ के केन्द्र में अंग्रेज सिपाहियों द्वारा मुन्नी के साथ किया गया बलात्कार है। ‘गोदान ‘ में भी प्रेमचंद ने नारी पात्रों को समुचित स्थान दिया है। यदि गाँव और शहर की अलग-अलग कथाओं का केन्द्र बिंदु खोजें तो स्पष्ट पता चलता है कि शहरी जीवन की कथा के केंद्र में मालती है।

नारी जीवन के प्रति प्रेमचंद का दृष्टिकोण

यह सही है कि गाँव-जीवन का केंद्रीय पात्र होरी है और होरी के किसान बने रहने की चिंता लेखक की मुख्य चिंता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो किसान-संबंधी चिंतन में रचनाकार के मन में जिज्ञासा का भाव नहीं है। इस विषय पर वे मनन कर चुके हैं, संगत निष्कर्षों पर पहुंच चुके हैं। इस विषय पर अब उनको कोई बहस नहीं करनी है। .. वे जानते हैं कि किसान की समस्याएँ क्या हैं और इसे प्रेमचंद उपन्यास में बताते हैं, समझाते हैं। इसलिए इस प्रकरण में रचनाकार का आत्मविश्वास कथा को गति देता है, चरित्र को दिशा देता है, परिस्थितियों का समग्र मूल्यांकन कर डालता है। कहीं हिचक. नहीं है। संकोच नहीं है। यह भाव नहीं है कि सत्य का कोई दूसरा रूप भी हो सकता है, इसकी कहीं कोई संभावना नहीं है। यह ‘सत्य ‘ वही है जो लेखक ने देखा है, जो लेखक दिखा रहा है। इसमें विवाद की गुंजाइश नहीं है। संवाद की संभावना नहीं है। इस विषय पर जब भी दो पात्र बात करेंगे, वे एक ही बात को आगे बढ़ाएंगे। उनके संवाद परस्पर पूरक ही होंगे। इसमें परिवर्तन की गुंजाइश लेखक नहीं छोड़ता। यह आत्मविश्वास गंभीर चिंतन मनन के बाद आता है, इसमें कोई शक नहीं।

परंतु प्रेमचंद जब नारी पात्रों की तरफ़ मुड़ते हैं, तब उनमें वैसा आत्मविश्वास दिखाई नहीं देता। यहाँ ऐसा लगता है मानों इस पर लेखक को नए ढंग से विचार करना है, लेखक चिंतन करता है तथा चिंतन को आमंत्रित करता है। इस विषय पर अभी प्रेमचंद किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं। इसलिए वे एक ऐसी संभावना छोड़ते जाते हैं कि संभव है कोई कमी रह जाए। अतः संदेह का भाव बना रहता है, बहस समाप्त होते-होते फिर गुंजाइश के लिए जगह छूट जाती है। मालती के शब्दों में लेखक कहता है ‘फिर अभी यह कौन जानता है कि स्त्रियाँ जिस रास्ते पर चलना चाहती हैं, वही सत्य है। बहुत संभव है, आगे चलकर हमें अपनी धारणा बदलनी पडे ‘  किसान जीवन के किसी प्रसंग में ऐसी किसी संभावना की गुंजाइश प्रेमचंद ने नहीं छोड़ी है। प्रेमचंद ने बहुत सारे नारी-चरित्र सामने रखे हैं। उनके जीवन को अनेक तरह से देखा, जाँचा, परखा, बहस की, विचार किया और फिर भी अंतिम रूप से कुछ कह नहीं पाए। मेहता नहीं कह पाए, मालती नहीं कह पायी, गोविंदी नहीं कर पायी, सरोज नहीं कह पायी। सबने तर्क दिए। तर्क देते हुए भी गुंजाइश छोड़ दी। खुलापन रह गया।

एक बात और भी है। ‘गोदान — में प्रेमचंद ने किसान के रूप में होरी को मन लगाकर चित्रित किया है। होरी की यदि हीरा, गिरधर, शोभा, भोला से तुलना करें तो स्पष्ट दिखायी देता है कि लेखक ने इन पात्रों के साथ न्याय नहीं किया है। इनको पूर्णतः अभिव्यक्त होने का अवसर नहीं दिया गया है। होरी की तुलना में अन्य पुरुष पात्र (किसान) गौण पात्रों से भी कम स्थान घेरे हुए है। लेखक की दृष्टि के केंद्र में बेलारी के आते ही होरी आ जाता है, उसी के चरित्र में शेष पात्रों की चिंताएँ भी घुल-मिल जाती हैं। हाँ दातादीन, झिंगुरी सिंह, नोखेराम, पटेश्वरी के चरित्र फिर भी उभरे हुए हैं, परंतु ये सब किसान पात्र नहीं हैं। ये तो शोषकों की जमात के हैं। इनकी पहचान जरूरी है। ऐसी स्थिति स्त्री पात्रों (किसान) की नहीं है। यहाँ धनिया का एकछत्र साम्राज्य नहीं है। दूसरे नारी पात्रों को भी लेखकीय संरक्षण मिला है। पुनिया, झुनिया, चुहिया, नोहरी आदि सभी पात्र अपना स्वतंत्र जीवन एवं चरित्रगत विशेषताएँ लेकर हमारे सामने आते

चरित्र-चित्रण की विधि और नारी चित्रण

प्रेमचंद अपने पात्रों का चरित्र-चित्रण करने के लिए आम तौर पर चार विधियों का प्रयोग करते हैं।

इस विधि के अनुसार लेखक स्वयं प्रस्तुत पात्र के बारे में अपनी राय देता है। उसके जीवन की कुछ घटनाओं का विवरण देते हुए उसके चरित्र के बारे में अपने निष्कर्ष बताता रहता है, जिससे पाठक उस पात्र के बारे में एक विशेष प्रकार की राय बनाते हुए कथा में प्रवेश करता है। इस स्थिति में कई बार प्रेमचंद रौ में बह जाते हैं, वर्णन करते समय प्रस्तुत संदर्भ को ध्यान में रखते हुए अतिरंजित बातें लिख जाते हैं। वे कई बार ऐसी बातें भी लिख जाते हैं जिनका किसी पात्र के भावी विकास से कोई संबंध नहीं होता। भूमिका बाँधते समय, परिस्थितियों का अतिरंजित वर्णन करते हुए वे ऐसी .. अनेक खटकने वाली बातें भी कह जाते हैं, जो कोई भी कला सजग रचनाकार नहीं । लिखता। उदाहरण के लिए झुनिया के चरित्र के इन प्रकरणों को लिया जा सकता है – गोबर -झुनिया के प्रारंभिक मिलन के अवसर पर उन्होंने लिखा है – ‘वह विधवा है। उसके नारीत्व के द्वार पर पहले उसका पति रक्षक बना बैठा रहता था। वह निश्चित थी। अब उस द्वार पर कोई रक्षक न था। इसलिए वह उस द्वार को सदैव बंद रखती है। कभी-कभी घर के सूनेपन से उकताकर वह द्वार खोलती है, पर किसी को आते देखकर भयभीत होकर दोनों पट भेड़ लेती है।

इसी झुनिया के संबंध में लेखक बाद में यह टिप्पणी करता है – ‘उसे तरह-तरह के मनुष्यों से साबिका पड़ चुका था। दो-चार रूपए उसके हाथ लग जाते थे, घड़ी भर के लिए मनोरंजन भी हो जाता था, मगर वह आनंद जैसे मँगनी की चीज़ हो। उसमें टिकाव न था, समर्पण न था, अधिकार न था। वह ऐसा प्रेम चाहती थी, जिसके लिए वह जिए और मरे, जिस पर वह अपने को समर्पित कर दे। वह केवल जुगनू की चमक नहीं, दीपक का स्थायी प्रकाश चाहती थी। वह एक गृहस्थ की बालिका थी, जिसके गृहणीत्व को रसिकों की लगावटबाजियों ने कुचल नहीं पाया था। ‘ 

झुनिया जब होरी के घर पर रहने लगी तब एक दिन मातादीन आया और झुनिया से चिकनी चुपड़ी बातें करने लगा। वह रोने लगी। मातादीन ने धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया। आहिस्ता से उसने हाथ छुड़ाया। इसी समय सोना आयी और उसने पूछा कि मातादीन क्या करने आए थे? झुनिया बोली ‘पगहिया माँग रहे थे। मैंने कह दिया यहाँ पगहिया नहीं है। ‘ 

इन विरोधी वक्तव्यों से पाठक उलझन में पड़ जाता है। ऐसे अवसर पर वह प्रस्तुत प्रकरण को सत्य मानकर, पिछली राय परिवर्तित करता चलता है। कई बार कोई पात्र ऐसा व्यवहार कर देता है, जिससे लेखक का वक्तव्य निरर्थक ही नहीं मिथ्या प्रमाणित हो जाता है। परंतु प्रेमचंद इस ओर विशेष ध्यान नहीं देते। वे राय देने से कभी किसी प्रकरण में चुकते नहीं। वे पात्र के बारे में हमेशा राय देते हैं और अंतिम राय देते हैं।

कभी-कभी लेखक के ही अंदाज में एक पात्र दूसरे पात्र के बारे में अपनी राय देने लग जाता है। जिससे उसके व्यक्तित्व का उद्घाटन होता है। पात्रों पर की गयी इन टिप्पणियों में भी अक्सर लेखक की सहमति होती है। उसमें भी वक्ता सर्वज्ञ की तरह बोलता है, जिसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। मेहता एक बार मालती से कहता है – ‘तुम सब कुछ कर सकती हो, बुद्धिमती हो, चतुर हो, प्रतिभावान हो, दयालु हो, चंचल हो, स्वाभिमानी हो, त्याग कर सकती हो, लेकिन प्रेम नहीं कर सकतीं। ‘ इस वक्तव्य पर मालती टिप्पणी करती है – ‘झूठे हो तुम, बिल्कुल झूठे। मुझे तुम्हारा यह दावा निस्सार मालूम होता है कि नारी-हृदय तक पहुँच जाते हो। ‘ 

इसी तरह गोविन्दी की राय भी मालती के बारे में खास अच्छी नहीं है। ‘मेरी दृष्टि में वह वेश्याओं से भी गयी-बीती है, क्योंकि वह परदे की आड़ से शिकार खेलती है। ‘ (वही, पृष्ठ 160) खन्ना भी उसे विवाह या प्रेम के लायक नहीं मानता। आमतौर से ये टिप्पणियाँ भी कथा-प्रवाह में मिथ्या साबित हो जाती है, परंतु इससे वक्ता का व्यक्तित्व भी प्रकट हो जाता है। उदाहरण के लिए गोविन्दी की टिप्पणियों से हम मालती के बारे में न सही परंतु उसके स्वयं के बारे में तो जान ही जाते हैं। गोविंदी खन्ना की पत्नी है, जिसे उपन्यास के आरंभ में लेखक ने कामिनी खन्ना कहकर परिचित कराया है। उसके मन में मालती के प्रति पराजित मन की ईर्ष्या भरी हुई है। जब भी उसके सामने मालती आती है या मालती का जिक्र आता है तो उसे ठेस लगती है, दर्द होता है और उसकी ईर्ष्या कुत्सा के रूप में फूट पड़ती है। उसे शक है कि मालती उसके पति के पीछे पड़ी हुई है या खन्ना मालती से जितना प्रेम करते हैं, उतना ही उसको दुत्कारते हैं। जबकि उपन्यास के पहले दृश्य से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि खन्ना भले ही मालती के आगेपीछे घूम रहा हो, मालती मेहता के प्रति ही आकर्षित है और मेहता इस सबसे निर्लिप्त

‘गोदान ‘ के पात्र कई बार अपने बारे में वक्तव्य देकर भी अपने चरित्र को उद्घाटित करते हैं। इसमें भी वह पात्र सर्वज्ञ की तरह अंतिम राय देता है और किसी तरह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। ऐसे वक्तव्यों से भी आमतौर पर लेखक की सहमति होती है। झुनिया सोना से अपने बारे में कहती है ‘सिवाय मीठी-मीठी बातों के वह झुनिया से । कुछ नहीं पा सकते। और अपनी मीठी बातों को महंगे दामों बेचना भी मुझे आता है। मैं ऐसी अनाड़ी नहीं हूँ कि किसी के झांसे में आ जाऊँ। हाँ, जब जान जाऊँगी कि तुम्हारे भैया ने वहाँ किसी को रख लिया है, तब की नहीं चलाती। ‘) यदि कभी कोई असहमति की बात होती है तो प्रेमचंद उस असहमति को रेखांकित करके पाठक को पात्र के बारे में उस समय तक निश्चित राय दे देते हैं।

पात्र अपने कर्मों के द्वारा भी अपने चरित्र को उद्घाटित करते हैं। परंतु प्रेमचंद के पात्र अपने क्रिया-कलापों से अपना व्यक्तित्व बहुत कम व्यक्त कर पाते हैं। अधिकतर उनके बारे में दूसरे पात्रों की टिप्पणी या लेखक के परिचयात्मक विश्लेषण या स्वयं के बारे में कहे गये वक्तव्यों से उसका व्यक्तित्व उद्घाटित हो जाता है। पात्र के कर्म तो उन निष्कर्षों की पुष्टि के लिए दिए गए उदाहरण के समान होते हैं, उनका स्वतंत्र महत्व बहुत कम होता है। आज के पाठक को यह आरोपित रचना-पद्धति खटकती है, परंतु प्रेमचंद इन चारों पद्धतियों का प्रसंगानुसार उपयोग करके थोड़ा बहुत घटा-बढ़ाकर चरित्र का ढांचा निर्मित कर देते हैं।

यह अवश्य होता है कि पाठक की नज़र पात्र के कर्मों पर ही होती है। इसके कारण कई बार लेखक द्वारा दिया गया वक्तव्य भ्रमपूर्ण लगने लगता है। उदाहरण के लिए  सिलिया के चरित्र को लिया जा सकता है। 

मातादीन ने सिलिया को अनाज के ढेर से एक सेर अनाज, उसे पूछे बिना उठाते देखा तो, सिलिया से अनाज छिन कर अपमानित करके घर से निकल जाने के लिए कहा। प्रेमचंद ने इस प्रसंग को चित्रित करके पुरुष प्रधान समाज में स्त्री के हो रहे शोषण व उसके अधिकारों के हनन को दर्शाया है। यहाँ सिलिया मातादीन की ब्याहता नहीं है, और वह दिन-रात मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट खुद पाल रही है। मातादीन ने केवल शारीरिक आकर्षण के कारण सिलिया से बिना ब्याह किए घर पर रखा है। मातादीन को सिलिया का अनाज के ढेर से एक सेर अनाज उठा लेना उसकी चल-अचल संपत्ति में हिस्सेदारी दर्शाने की कोशिश लगती है। प्रेमचंद ने भी इस प्रसंग को आर्थिक सत्ता या भागीदारी तक ही जोड़ा है। लेकिन यदि गहराई से देखा जाए तो इसके कई पहलू हमारे सामने उभरकर आते हैं। सिलिया का निम्न जाति होना उसके जीवन की त्रासदी का सबसे अहं पहलू है। मातादीन का बिना विवाह किए ही सिलिया के साथ शारीरिक संबंध जोड़ना, उससे दिन रात मेहनत करवाना और अपने ब्राह्मणत्व को बचाने के झूठे प्रयास में, सिलिया द्वारा पकाया भोजन न खाना। उच्चवर्णीय समुदाय द्वारा अछूतों के साथ किए जाने वाले व्यवहार का ही हिस्सा है। सिलिया द्वारा इसका विरोध न करना, ना तो वह मातादीन द्वारा उसे रखैल बनाकर रखने से दुखी है। जन्म सिद्धांत और कर्मपाक सिद्धांत में वह विश्वास करती है और इस विश्वास को बनाए रखने का सतत प्रयास दातादीन व मातादीन जेसे ब्राह्मणों द्वारा किया जाता है। सिलिया में अपने अस्तित्व के प्रति चेतना का अंश दिखाई नहीं देता। माँ और भाइयों द्वारा उसे अपने घर व बिरादरी में वापस ले जाने के प्रयास भी सिलिया असफल बना देती है।

मातादीन के प्रति अटूट प्रेम होने का भी यहाँ कोई संकेत नहीं मिलता, ना ही उससे विवाह करके सम्मानपूर्वक पत्नि का दर्जा देने का कोई आश्वासन मातादीन की ओर से उसे मिला है। बल्कि मातादीन का आँखे निकालकर कहना – “नहीं, तुझे कोई अख्तियार नही हैं। काम करती है, खाती है। जा तू चाहे कि खा भी, लुटा भी, तो यह यहाँ न होगा। अगर तुझे यहाँ न परता पड़ता हो, कहीं और जाकर काम कर| मजूरों की कमी नहीं है। सेंत में नहीं लेते, खाना-कपड़ा देते हैं।’ मातादीन ने सिलिया को एक भोगदासी और मुफ्त में काम करने वाली मजदूरनी से ज्यादा नहीं समझा। जब कि सिलिया सोचती है, “अब उसके लिए दूसरा कौन सा ठौर है! वह ब्याहता न होकर भी संस्कार में और व्यवहार में और मनोभावना में ब्याहता थी, और अब मातादीन चाहे उसे मारे या काटे, उसे दूसरा आश्रय नहीं है, दूसरा अवलम्ब नहीं है।” प्रेमचंद सिलिया को शोषण व्यवस्था का विरोध करते नहीं दर्शाते, बल्कि शोषण के आगे सिर झुकाकर समर्पण करते ही दर्शाते हैं। होरी की तरह ही सिलिया भी जातिगत शोषण का विरोध करने के स्थान पर स्थितियों से समझौता करती है। वह भाग्यवाद और कर्मवाद पर विश्वास करती है इसलिए अनब्याही पत्नी के रूप में मातादीन के साथ रहने में उसके मन में किसी प्रकार का अपमानबोध नहीं जागता।

प्रेमचंद की टिप्पणी है ‘सिलिया सोच रही थी, अब उसके लिए दूसरा कौन-सा ठौर है। वह ब्याहता न होकर भी संस्कार में और व्यवहार में और मनोभावना में ब्याहता थी, और अब मातादीन चाहे उसे मारे या काटे, उसे दूसरा आश्रय नहीं, दूसरा अवलम्ब नहीं है।’ (वही, पृष्ठ 208) होरी राय देता है ‘एक यह नोहरी है और एक यह चमारिन सिलिया। देखने-सुनने में उससे लाख दरजे अच्छी। चाहे दो को खिलाकर खाए और राधिका बनी घूमे, लेकिन मजदूरी करती है, भूखों मरती है और मतई के नाम पर बैठी है, और वह निर्दयी बात भी नहीं पूछता।

इस सिलिया को कई दिनों बाद मातादीन ने होरी के हाथों दो रूपए भिजवाए। इससे सिलिया अत्यंत प्रसन्न हुई। अपनी इस प्रसन्नता को बाँटने के लिए वह रात में नदी नाले पार करके अपनी हम उम्र सहेली सोना के ससुराल पहुँच जाती है। वहाँ एकांत में सोना के पति मथुरा से भेंट होती है। क्षण भर की बातचीत में ‘सिल्लों का मुँह उसके मुँह के पास आ गया था और दोनों की साँस और आवाज और देह में कम्पन हो रहा था।’ (वही, पृष्ठ 250) बेशक यह स्खलन क्षणिक था। लेखक ने तत्क्षण सोना को भेज कर इस क्षण में सिलिया को बचा लिया। परंतु इस ‘क्षण ‘ की नाजुक बेला में सिलिया के चरित्र की गति तो उद्घाटित हो गयी। भले ही यह प्रकरण मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एकदम स्वाभाविक है, प्रेमचंद इस क्षणिक आवेग को महत्वहीन मानते हो, माना भी है। परंतु इस क्षण सिलिया का चरित्र लेखक व होरी के कथनों के विपरीत तो हो ही गया।

गोदान में प्रस्तुत किसान नारी पात्र

– प्रेमचंद ने किसान नारी की पीड़ा एवं दर्द को किसान जीवन की त्रासदी के साथ ही प्रस्तुत कर दिया है। होरी के घर में अनाज नहीं है, इसका दर्द होरी को भी है और धनिया को भी। पुनिया के घर से एहसान में अनाज पाकर धनिया की जो हेठी हुई है, उसकी मर्मांतक पीड़ा किसान जीवन की पीड़ा है। इसी तरह होरी जब बाहर से लुट कर आता है, तो धनिया उसके सीधेपन पर या भलमनसाहत पर खीझती है, होरी को कोसती है, यह होरी-धनिया का साझा अनुभव है। यह मात्र धनिया की परेशानी नहीं है। धनिया से लताड़ खाता हुआ होरी धनिया से सहमत भी होता है। इस रूप में धनिया होरी की चेतना का दूसरा पक्ष है, उसी का अधूरा भाग है, जिसे होरी ने अपने मन में नष्ट कर दिया है, परंतु प्रेमचंद ने उस चेतना को धनिया की काया में गढ़कर मूर्तिमान कर दिया है। गरीबी, शोषण, अन्याय, अत्याचार, भूखमरी का धनिया का दर्द साझा पारिवारिक दर्द है, जिसे होरी भी झेलता है। होरी और धनिया की लड़ाई और विवाद भी उनका अंतःसंघर्ष कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। इसलिए हम देखते हैं कि उनके आपसी संघर्ष पारिवारिक विघटन तक नहीं पहुंच पाते। इनके बीच बात-चीत बंद हो सकती है। यह कई दिनों तक चल सकती है परंतु इनमें से कोई भी यह नहीं सोचता कि एक दूसरे को त्याग दे। प्रेमचंद के मन में इसकी बड़ी गाढ़ी तस्वीर है, जिसे उन्होंने मन लगाकर चित्रित किया है।

प्रेमचंद ने किसान परिवारों की एक विशेषता का वर्णन किया है, विशेषतः दलित किसानों में पति-पत्नी के बीच की मार-पीट का वर्णन मध्यवर्गीय जीवन में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। यदि वहाँ मारपीट हो जाए तो विवाह-विच्छेद निश्चित है, क्योंकि मध्यवर्गीय स्त्री अपने अस्तित्वबोध के प्रति सचेत है। जैसा कि रायसाहब की पुत्री एवं दामाद के बीच हुआ। गोबर गाँव छोड़कर शहर जा रहा था तो रास्ते में एक स्थान पर पति-पत्नी आपस में लड़-झगड़ रहे थे। पति ने उससे घर चलने का आग्रह किया, पत्नी ने इनकार कर दिया। देर तक आरजू-मिन्नत करने के बाद पति को क्रोध आया और वह उसे घसीटने लगा। इस झगड़े के बीच में गोबर बोल पड़ा। अब विवाद गोबर व पुरुष के बीच होने लगा। गोबर पत्नी का पक्ष ले रहा था। दोनों में मारपीट होने ही वाली थी कि युवती बोली ‘तुम क्यों लड़ाई करने पर उतारू हो जी, अपनी राह क्यों नहीं जाते? यहाँ कोई तमाशा है? हमारा आपस का झगड़ा है। कभी वह मुझे मारता है, कभी मैं उसे डाटती हूँ। तुमसे मतलब? फिर थोड़ी देर बाद वह युवती ‘गृहिणी बन गई ‘ और मारपीट, गाली-गलौज को भूल-भाल कर प्रेमपूर्वक ऐसे बात करने लगी, जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं।

हीरा-पुनिया के बीच भी मारपीट हुई, प्रेमचंद ने उसका भी वर्णन किया है। ‘हीरा-बहू अपने घर की मालकिन थी। उसी के विद्रोह से भाइयों में अलगौझा हुआ था। धनिया को परास्त करके शेर हो गयी थी। हीरा कभी-कभी उसे पीटता था। अभी हाल में इतना मारा था कि वह कई दिन तक खाट से न उठ सकी, लेकिन अपना अधिकार वह . किसी तरह न छोड़ती थी। हीरा क्रोध में उसे मारता था, लेकिन चलता था उसी के इशारों पर, उस घोड़े की भाँति, जो कभी-कभी स्वामी को लात मारकर भी उसी के आसन के नीचे चलता है। ‘  गोबर-झुनिया के बीच में भी झगड़ा हुआ, यहां तक कि सीधा-सादा गमखोर होरी भी धनिया को पीटने लग जाता है। इस मारपीट और झगड़े के बाद कई दिनों तक अबोला रह जाता है। यह अबोला किसी प्राकृतिक विपदा या संकट के समय समाप्त हो जाता है तथा वह दाम्पत्य-जीवन पुनः अपनी गति पकड़ लेता है।

गोबर-झुनिया का झगड़ा हुआ। दोनों के बीच संवादहीनता आ गयी। इस बीच मिल में हड़ताल हुई और वहाँ हुए झगड़े में गोबर बुरी तरह घायल होकर घर पहुंचा। ‘झुनिया ने गोबर की वह चेष्टाहीन लोथ देखी तो उसका नारीत्व जाग उठा। ‘ उसने तन-मन से गोबर की सेवा-सुश्रुषा की। इसी तरह होरी को ज्वर आया तो धनिया का भी ममत्व जाग उठा – “लाख बुरा हो, पर उसी के साथ जीवन के पचीस साल कटे हैं, सुख किया है तो उसीके साथ, दुःख भोगा है तो उसी के साथ। अब तो चाहे वह अच्छा है या बुरा, अपना है। दाढ़ीजार ने मुझे सबके सामने मारा, सारे गाँव के सामने मेरा पानी उतार लिया, लेकिन तब से कितना लज्जित है कि सीधे ताकता नहीं। खाने आता है तो सिर झुकाए खाकरं उठ जाता है, डरता रहता है कि मैं कुछ कह न बैलूं। ‘गोदान ‘ के किसान दाम्पत्यों के बीच के संघर्ष पारिवारिक विघटन तक न पहुँचने का कारण वहीं नहीं है, जो प्रेमचंद सोच रहे थे। साहचर्यजन्य प्रेम अथवा एक दूसरे के प्रति त्याग की भावना जैसी आदर्शवादी स्थिति के होने का आभास पैदा किया गया है।

बास्तविकतः यहाँ पितृसत्तात्मक प्रभाव को स्पष्ट रूप से देखते है। स्त्री की अधीनता व सामाजिक दबाव के कारण सभी किसान नारी चरित्र पति के द्वारा किए गए अपमान, उत्पीड़न को चुपचाप सहती नजर आती है। कोई भी विद्रोह या विरोध नहीं करती। ‘पति-पत्नी में झगड़े तो होंगे ही ‘ या ‘यह हमारा आपस का झगड़ा है | ‘लाख बुरा हो, पर उसी के साथ जीवन के पचीस साल कटे हैं। जैसे सांत्वना भरे शब्दों से सभी नारी चरित्र अपने आप को रिझाते हुए दिखते है। दाम्पत्य जीवन के फिर से उसी गति से चल पड़ने पर प्रेमचंद काफी संतुष्ट दिखते हैं। लेकिन ‘गोदान ‘ के गाँवों की नारी अधिकारहीन व अधीन है. परिवार के द्वारा लिए गए किसी निर्णय में उसकी सहभागिता नहीं है। अशिक्षित होने के कारण अपने अस्तीत्व के प्रति सजग नहीं है। यही कारण है कि ग्रामीण स्त्री अवहेलना, अपमान और उत्पीड़न को चुपचाप सहने के लिए बाध्य है। बहुत हुआ तो विरोध का रूप कुछ दिनों तक अबोला रहने तक सीमित रह जाता है।

इसके अलावा प्रेमचंद ने ग्रामीण जीवन में विवाहेतर यौन-संबंधों का वर्णन भी किया है। इस प्रकरण में प्रेमचंद ने समाज के उत्पीड़क वर्गों द्वारा दलित वर्ग की स्त्रियों के यौनशोषण का मुद्दा उठाया है। पटेश्वरी “सरकार बहादर ‘ के नौकर हैं। उनके बारे में ‘लोगों का ख्याल था कि वह अपनी विधवा कहा रिन को रखे हुए हैं । ‘ इधर रायसाहब के कारिंदे नोखेराम को जब मौका मिला तो भोला की नयी पत्नी नोहरी को अपने घर रख लिया। जैसे बाप वैसे ही उनके बेटे। दशहरे की छुट्टियों में झिंगुरी, पटेश्वरी, नोखेराम के लड़के घर आए। ‘तीनों दिन भर ताश खेलते, भंग पीते और छैला बने घूमते। वे दिन भर कई-कई बार होरी के द्वार की ओर ताकते हुए निकलते और कुछ ऐसा संयोग था कि जिस वक्त वे निकलते, उसी वक्त सोना भी किसी-नकिसी काम से द्वार पर आ खड़ी होती। इनके अलावा प्रेमचंद ने पंडित दातादीन के पुत्र मातादीन एवं सिलिया चमारिन के बीच चल रहे प्रेम संबंधों का विस्तृत वर्णन किया है। इस प्रकरण में सिलिया की एकाग्र प्रेम-भावना एवं मातादीन की चरित्र-हीनता का वर्णन उन्होंने एकाधिक बार किया है।

सिलिया- मातादीन के झूठे प्रेमजाल में फंसी है। वह समझती है कि मातादीन ब्राह्मण होकर भी चमारिन सिलिया. को पत्नी के रूप में घर में रखा है तो जरूर उसके मन में सिलिया के प्रति अटूट प्रेम है। अपनी बिरादरी का विरोध सहकर भी मातादीन सिलिया को अपनी पत्नी के रूप में घर में रखता जरूर है लेकिन उसका प्रेम केवल शारीरिक है। सिलिया के यौवन भरे शरीर के प्रति वह आकर्षित है। निम्न जाति की सिलिया को वह मन बहलाने वाले खिलौने की तरह समझता है। सिलिया के साथ शारीरिक संबंध रखने पर उसे कोई छुआछूत या ब्राह्मण होने के अंह का अहसास नहीं होता। लेकिन सिलिया द्वारा पकाया खाना वह नहीं खाता। अपनी रसोई वह खुद पकाकर खाता है। धर्म की रक्षा मातादीन के लिए सिलिया द्वारा छुआ खाना न खाने तक सीमित है। ‘हमारा धर्म है हमारा भोजन। भोजन पवित्र रहे, फिर हमारे धर्म पर कोई आंच नहीं आ सकती। रोटियाँ ढाल बनकर अधर्म से हमारी रक्षा करती हैं।’ यही नहीं सिलिया उसकी संपत्ति या खेत के . अनाज की भी हिस्सेदार नहीं है। वह अधिकार उसे कभी भी नहीं दिया गया और जब उसने मातादीन से पूछे बिना ही दो मुट्ठी अनाज उठाया तो सिलिया को उसका सही स्थान व दर्जा और अधिकार क्षेत्र कहाँ तक है यह समझा दिया जाता है। अपमानित करके घर से निकाल दिया जाता है। उस घर से जो कभी भी सिलिया का नहीं था। 

“सिलिया सोच रही थी, अब उसके लिए कौन सा ठोर है! वह ब्याहता न होकर भी संस्कार में और व्यवहार में और मनोभावना में ब्याहता थी, और अब मातादीन चाहे उसे मारे या काटे, उसे दूसरा आश्रय नहीं है, दूसरा अवलम्ब नहीं है। उसे वह दिन याद आए – और अभी दो साल भी तो नहीं हुए – जब यही मातादीन उस के तलवे सहलाता था, जब उसने जनेऊ हाथ में लेकर कहा था सिलिया, जब तक दम में दम है, तुझे ब्याहता की तरह रखूगा, जब वह प्रेमातुर होकर घर में और बाग में और नदी तट पर उसके पीछे-पीछे पागलों की भांति फिरा. करता था। और आज उसका यही निष्ठुर व्यवहार। मुट्ठी भर अनाज के लिए उसका पानी उतार लिया। 

गोदान में चित्रित मध्यवर्गीय नारी पात्र

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि ‘गोदान ‘ की शहरी कथा के केंद्र में मालती है। उपन्यास में मालती का प्रवेश रायसाहब द्वारा दी गयी दावत में होता है। इसके बाद जब भी उपन्यास मे शहर आता है, मालती अवश्य आती है। आरंभ में प्रेमचंद ने मालती का परिचय उपहास के स्वर में दिया है। उन्होंने लिखा है – ‘दूसरी महिला जो ऊँची एड़ी का जूता पहने हुए है और जिनकी मुख छवि पर हँसी फूटी पड़ती है, मिस मालती हैं। आप इंग्लैंड से डाक्टरी पढ़ आयी हैं और अब प्रेक्टिस करती हैं। ताल्लुकेदारों के महलों में उनका बहुत प्रवेश है। आप नवयुग की साक्षात प्रतिमा हैं। गात कोमल, पर चपलता कूट-कूट कर भरी हुई है। झिझक या संकोच का कहीं नाम नहीं, मेक-अप में प्रवीण, बला की हाजिर-जवाब, पुरुष-मनोविज्ञान की अच्छी जानकार, आमोद-प्रेमाद को जीवन का तत्व समझने वाली, लुभाने और रिझाने की कला में निपुण। जहाँ आत्मा का स्थान है, वहाँ प्रदर्शन, जहाँ हृदय का स्थान है, वहाँ हाव-भाव, मनोद्गारों पर कठोर निग्रह, जिसमें इच्छा या अभिलाषा का लोप-सा हो गया। ‘  इसके विपरीत उन्होंने खन्ना की पत्नी को बहुत आदर-सम्मान से प्रस्तुत किया है। ‘वह जो खादी की साड़ी पहने बहुत गंभीर और विचारशील-सी है, मिस्टर खन्ना की पत्नी कामिनी खन्ना है। ‘ 

हालांकि अगले दिन की शिकार पार्टी के दौरान वे उसके अस्तित्व को ही भूल गए। यहाँ तक कि उपन्यास में लेखक उसका नाम भी याद नहीं रखता। यहाँ उसे कामिनी खन्ना कहकर परिचय करवाया गया है, बाद में वह इसे गोविन्दी नाम से संबोधित करता है।

आरंभ से ही प्रेमचंद परंपरा और आधुनिकता, भारतीय और पाश्चात्य सभ्यता का द्वंद्व  खड़ा करना चाहते हैं। गोविंदी को वे भारतीय नारी के आदर्श के रूप में चित्रित करना चाहते थे। मेहता जैसा विचारशील पुरुष उसी को अपना आदर्श मानता है। परंत उपन्यास के विकास क्रम में वह इस ‘आदर्श ‘ की रक्षा नहीं कर पाती तथा मालती के प्रति लेखक के दृष्टिकोण में लगातार परिवर्तन होता रहता है। कथा के विकास-क्रम में वे थोड़ी-देर बाद ही लिखते हैं, ‘मालती बाहर से तितली है भीतर से मधुमक्खी। ‘ उपन्यास का अंत होते-होते मेहता भी मालती के भक्त हो जाते हैं और लेखक उसी का आदर्शीकरण करने लग जाता है। ‘मालती केवल रमणी नहीं है. माता है और ऐसी-वैसी माता नहीं, सच्चे अर्थ में देवी और माता और जीवन देने वाली, जो पराए बालक को भी अपना समझ सकती हैं, जैसे उसने मातापन का सदैव संचय किया हो और आज दोनों हाथों से उसे लुटा रही है। ‘

मालती अविवाहित है। उपन्यास के अंत में भी वह अपने इसी निश्चय पर कायम है कि ‘मित्र बनकर रहना स्त्री-पुरुष बनकर रहने से कहीं सुखकर है। ‘ (वही, पृष्ठ 283) और तो और मालती को सारे शहर में बदनाम करने वाली गोविंदी भी एक दिन सोचती है – ‘बहुत अच्छा करती है, जो ब्याह नहीं करती। अभी सब उसके गुलाम हैं। तब वह एक की लौंडी होकर रह जाएगी। बहुत अच्छा कर रही है। समाज में दो-चार ऐसी स्त्रियाँ बनी रहें, तो अच्छा, पुरुषों के कान तो गर्म करती रहें।

दरअसल प्रेमचंद के मन में प्रेम, विवाह, नारी-स्वतंत्रता, परिवार, समाज आदि को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे थे। एक चिंतक के रूप में वे किसी निश्चित निष्कर्ष पर .. नहीं पहुंच पा रहे थे। इसलिए जब भी शहरी बुद्धिजीवी पात्र इकट्ठा होते तो वह यह सवाल उठा देते थे कि विवाह करना चाहए या नहीं। शिकार-पार्टी में कहा जाता है कि . विवाह बंधन है और ‘नयी थ्योरी है मुक्त भोग! ‘ बुद्धिजीवी मेहता से पूछा जाता है कि  आप किसे श्रेष्ठ मानते हैं? ‘समाज की दृष्टि से विवाहित जीवन को, व्यक्ति की दृष्टि से अविवाहित जीवन को। ‘  यह कहकर मेहता टाल जाते हैं। वैसे भी मेहता नारी-स्वतंत्रता को पश्चिम का आदर्श मानते हैं। ‘जिसे तुम प्रेम कहती हो, वह धोखा है, उद्दीप्त लालसा का विकृत रूप, उसी तरह जैसे सन्यास केवल भीख माँगने का संस्कृत रूप है। वह प्रेम अगर वैवाहिक जीवन में कम हैं, तो मुक्त विलास में बिल्कुल … नहीं है। सच्चा आनंद, सच्ची शांति केवल सेवा-व्रत में है। ‘ इसी तरह मेहता प्रेम के बारे में कहते हैं – ‘प्रेम जब आत्मसमर्पण. का रूप लेता है, तभी ब्याह है, उसके पहले ऐयाशी है। ‘

जातिव्यवस्था और दलित नारी का उत्पीड़न

राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ही देश के विभिन्न क्षेत्रों मे सामाजिक सुधार आंदोलन भी जोरों पर था। परंपरागत रूढिरीति, परंपराओं, अंधविश्वास, जातिवाद और स्त्री-पुरुष असमानता को नष्ट करके एक नए समतावादी समाज की स्थापना का कुछ समाज सुधारक स्वप्न देख रहे थे। जिनमें प्रमुख थे महात्मा ज्योतिबा फुले, आगरकर, न्या. रानडे, सावित्रीबाई फुले, ऐनी बेझंट, स्त्री-पुरुष समानता, शिक्षा का अधिकार और जाति के आधार पर समानता को स्थापित करने के लिए महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने पुणे में ‘सत्यशोधक समाज ‘ की स्थापना की। इसी के कार्यक्रमों के तहत् लड़कियों के लिए और दलितों के लिए पहली पाठशालाएँ खोली गई। दलितों के अधिकारों को स्थापित करने हेतु अपने घर का कुआँ दलितों के लिए खोल दिया। इस क्रांतिकारी घटना का प्रभाव ग्रहण करके महाराष्ट्र, गुजरात में समाज-सुधार . आंदोलन ने गति पकड़ी थी। इसी समय में महात्मा गांधी द्वारा अछुतोद्धार और अस्पृश्यता निवारण का आंदोलन उत्तर भारत में चल रहा था। गांधी जी का मानना था कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था को खत्म किए बिना ही अछुतोद्धार का कार्य किया जाए। गांधीजी चूंकि वर्णव्यवस्था और उससे निश्चित हुई जातिव्यवस्था के दृढ़ समर्थक थे और .. भारत के विकास के लिए इसे अनिवार्य मानते रहे हैं। उनके अनुसार उच्चजातीय समुदायों के सोच में जब तक परिवर्तन नहीं होगा, अछुतोध्दार यहाँ संभव नहीं है।

अछुतों की स्थिति को बदलने हेतु जिन अछुतोध्दार कार्यक्रमों को गांधीजी द्वारा चलाया गया व देशभर में इसके प्रति आस्था दिखाई गई थी, वास्तव में ये कार्यक्रम केवल तथाकथित … उच्च जातीय समुदायों के मन परिवर्तन हेतु चलाए जा रहे थे। इसमें संघर्ष करने अथवा परिवर्तन लाने के प्रति प्रतिबद्धता का कोई अंश नहीं था। बल्कि कांग्रेस व उनके अनुयायियों के इस कार्यक्रम को रोमानी अधिक बनाया। अतः अछूत-समस्या को खत्म करके, समानता के आधार पर नई समाज रचना का कोई कारगर प्रयास हुआ नहीं। नतीजतन आज भी जातिव्यवस्था का वही कट्टर स्वरूप स्वतंत्रता के बावन वर्षों के बाद भी दिखाई देता है। दलित, आदिवासी व पिछड़ों के सामुहिक नरसंहार जैसी घटनाएं आज भी हो रही है। मानसिक परिवर्तन के साथ-साथ यदि सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन के कार्यक्रमों गांधीजी द्वारा सोचकर लागू किया जाता तो, शायद कुछ परिवर्तन के चिह्न समाज में दृष्टिगत होते।

उच्चवर्णीय, उच्चजातीय समाज के मन परिवर्तन से यह संभव होगा। परिवर्तन या चेतना के जगाने के यह प्रयास नहीं थे। क्रांतिकारी कदम उठाने का इसमें कोई प्रयास नहीं था। अतः परिणाम यह हुआ कि हरीजन कहे जाने वाला समुदाय भी अपने काम को और अस्तित्व को स्वर्ण समाज द्वारा स्वीकार किए जाने की अनंत समय तक बाट  जोहता रह गया। प्रेमचंद के गोदान पर इसी विचारधारा का प्रभाव हमें स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उनका कोई भी दलित पात्र अपनी सामाजिक स्थिति के लिए जिम्मेदार धर्म, वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था और स्वर्ण समाज को कोई प्रश्न नहीं करता। जिस स्थिति में वे जी रहे है, उसे अपने पूर्व जन्म के कर्मफल के रूप में स्वीकार करके चुपचाप अत्याचार और अन्याय को झेलते चले जाते हैं। महाराष्ट्र में डॉ0 आंबेडकर के नेतृत्व में दलित समाज की अस्मिता और अस्तित्व की स्थापना के लिए चल रहे दलित मुक्ति आंदोलन का भी प्रेमचंद की रचना पर कोई प्रभाव नहीं दिखाई देता। सिलिया चमारिन का दातादीन के प्रति समर्पण और मूक प्रेम कोई अलौकिक प्रेम नहीं है, विवशता और विवंचना का ही परिणाम है। परंपरागत मानसिकता को वह वहन कर रही है। उसके हिस्से में आया दर्द, अवहेलना, अपमान और अत्याचार को अपने भाग्य का हिस्सा मानती है। कहीं पर भी विद्रोही स्वर सुनाई नहीं देता। मातादीन के खेत में रात दिन काम करने पर भी एक सेर अनाज उठाने का उसे हक नहीं था। केवल दो वक्त की रोटी और साल भर में एक साड़ी देकर, बंधुआ मज़दूर की तरह उससे व्यवहार किया जाता। मातादीन द्वारा सिलिया के साथ यौन-संबंध स्थापित करके भी उसे एक . मामूली मज़दूरीन ही मानना, पुरोहितवादी प्रवृत्ति का ही प्रदर्शन है। सिलिया के पूछने पर ‘तुम्हारी चीज़ में मेरा कुछ अख्तियार नहीं है? ‘ तो जाति दर्प से भरे शब्दों में मातादीन का यह उत्तर ‘नहीं, तुझे कोई अख्तियार नहीं है। काम करती है, खाती है। जो तू चाहे कि खा भी, लुटा भी, तो यह यहाँ न होगा। अगर तुझे यहाँ न परता पड़ता हो, कहीं और जाकर काम कर| मज़दूरों की कमी नहीं है। सेंत में नहीं लेते, खाना-कपड़ा देते हैं।’

मातादीन सिलिया के यौन-शोषण को, स्वर्णो का अधिकार मानता है। सिलिया इस शोषण को चुपचाप सहते चली जाती है, उसमें विद्रोह की कोई कुलबुलाहट नज़र नहीं आती। अब भी उसके मन में मातादीन के लिए स्नेह ही है। ‘उसका धर्म लेकर तुम्हें क्या मिला? अब वह भी मुझे न पूछेगा। लेकिन पूछे न पूछे रहूँगी तो उसी के साथ। वह मुझे चाहे भूखों रखे, चाहे मार डाले, पर उसका साथ न छोडूंगी।’

अपमानित होकर भी मातादीन का साथ न छोड़ने का दृढ़ निश्चय और बिरादरी, परिवार जनों से दूर होने का कोई गम न होना, सिलिया के भीतर अस्तित्व और अस्मिता के प्रति सचेतनता की कमी को दर्शाता है। 

प्रेमचंद शोषण की जातिगत प्रवृत्तियों को बहुत प्रखरता से उभार नहीं सके हैं और. गोदान में दलित चेतना का स्वर जिस प्रखरता से उभरना चाहिए था, वह नहीं उभरा है। प्रेमचंद समाजवादी विचारधारा से बहुत प्रभावित थे और तब तक समाजवादी विचारधारा . के एजेंडा पर दलितों के सामाजिक उत्पीड़न को खत्म करने का कोई कार्यक्रम तब : तक स्वीकार नहीं किया गया था।

प्रेमचंद की दृष्टि में नारीत्व की अवधारणा

दरअसल प्रेमचंद इन पात्रों के द्वारा नारी के असली रूप को उद्घाटित करना चाहते हैं। उनकी सहानुभूति नारी के मातृत्व रूप के साथ है, वे उसी को महत्व देते हैं तथा रमणी रूप की उपेक्षा करते हैं। परंतु इस उलझन में वे फँस जाते हैं। क्या दोनों रूप एक दूसरे के विरोधी हैं? क्या रमणी में माता का रूप नहीं होता? क्या माता बिना रमणी का रूप धारण किए माता बन सकती है? क्या सफल रमणीत्व के विना आदर्श मातृत्व की कल्पना की जा सकती है? प्रेमचंद के नारी विषयक विचारों की जानकारी से ऐसे अनेक सवाल उठते हैं, जिनका उत्तर उनके साहित्य में नहीं मिलता। दरअसल पाश्चात्य सभ्यता का भारतीय समाज पर जो प्रभाव पड़ रहा है उसे प्रेमचंद का किसान ‘संदेह मिश्रित सराहना ‘ के भाव से देखता है। वे समाज में मालती के आगमन को चिंतित आँखों से देखते हैं, कुछ-कुछ अनिश्चय-अनिर्णय उनके मन में बना रहता है।

दरअसल प्रेमचंद को गृहस्थ-जीवन की जानकारी बहत यथार्थ परक है। उन्होंने ‘गोदान ‘ में गृहस्थ नारियों के मनोभाव, चरित्र, प्रकृति, स्वभाव को मूर्त एवं सजीव रूप में उपस्थित किया है। इसलिए धनिया, झुनिया, पुनिया, यहाँ तक कि नोहरी का वर्णन  जितना यथार्थवादी है, उतना ही वे युवतियों के वर्णन में कच्चे दिखायी देते हैं। विवाह पूर्व के प्रेम-प्रकरणों, आकर्षण-विकर्षण की स्थितियों के वर्णन में वे निहायत सामान्य मनोवैज्ञानिक जानकारियों से काम चलाते हैं। गोबर-झुनिया का प्रेम-प्रसंग निहायत बेसुरा और हास्यास्पद स्तर तक अयथार्थवादी है। ये प्रसंग सुने-सुनाए या दूर-दूर से देखे या कल्पित होने के कारण रचनात्मक उष्मा से परिपूर्ण नहीं हैं। लेखक इन प्रकरणों को जल्दी-जल्दी निपटाकर पीछा छुड़ाना चाहता है। आगे गंभीर मसला है, उसपर बात करनी है, ऐसी शक्ल बनाकर इन प्रकरणों को चलताऊ रंग में रंग दिया गया है। हाँ, घर बसाने के बाद वह ‘यवती’ कैसे रहती है। उसका बनना – सँवरना या बिगड़ना सब उनकी पकड़ में हैं। सोना, रूपा या नोहरी का यथार्थवादी वर्णन वे कर जाते हैं।

प्रेमचंद स्वस्थ, टिकाऊ, गार्हस्थ प्रेम का समर्थन करते हैं तथा आकर्षण या प्रदर्शन, प्रिय प्रेम का विरोध करते हैं। उन्होंने दो प्रकार के प्रेम की परिकल्पना की और दोनों में विरोध खड़ा किया। एक प्रेम आकर्षण से उत्पन्न होता है, जिसके मूल में स्वार्थसिद्धि का भाव , रहता है। यह अस्थायी होता है और जल्दी ही नष्ट हो जाता है। सच्चा प्रेम सेवा से उत्पन्न होता है जिसमें आत्मबलिदान का भाव रहता है। यह अंततः श्रद्धा में परिणत हो जाता है, स्थायी रहता है। प्रेमचंद इस साहचर्य जन्य प्रेम को नारी-जीवन का आदर्श मानते हैं, जो होरी धनिया में है। मेहता-मालती का संबंध प्रेमचंद की समझ में नहीं आता। इसलिए वे उनके संबंधों को अधूरा व अनिर्णीत छोड़कर उपन्यास को समाप्त कर देते हैं।

सारांश

‘गोदान ‘ में गाँव की समाजार्थिक व्यवस्था की घुरी के तौर पर किसान की पहचान केंद्रीय स्थिति के रूप में सामने आई है। यहाँ होरी को केंद्रीय पात्र के रूप में प्रेमचंद ने चित्रित किया है। होरी की हार एक व्यक्ति की ही हार नहीं है, बल्कि ग्रामीण संस्कृति और सामंती संस्कृति की हार है! महाजनी सभ्यता के सामने होरी जैसे किसान बेबस और ज़मींदार लाचार है। ज़मींदारों के लिए तो उनके उच्चस्तरीय संबंधों के कारण कुछ राहत तो है लेकिन गरीब किसानों के लिए उनकी जमीन का छीन लिया जाना लगभग मृत्यु के समान है। होरी अपनी पाँच बीघे मौरूसी जमीन उसके लाख प्रयत्नों के बावजूद बचा नहीं पाता। बार-बार लिए गए कर्ज के बदले, लगान चुकाने के ऐवज में धीरे-धीरे उसकी जमीन महाजन और ज़मींदारों की भेट हो जाती है। होरी के इस जीवन संघर्ष में उसकी पत्नी. धनिया का बराबर का साथ है। प्रेमचंद होरी का चरित्र दब्बू, ढीला-ढाला, धर्मभीरू दिखाते है तो धनिया को निडर, स्वाभिमानी, मेहनती और साहसी चित्रित करते हैं। आधुनिक विचारधाराके प्रवर्तक प्रेमचंद होरी के संघर्ष को अकेले के संघर्ष के रूप में नहीं बल्कि होरी-धनिया के सांझा संघर्ष के रूप में दिखाते हैं। गोदान में नोहरी, झुनिया,  सिलिया, चुहिया, मालती और गोविन्दी जैसे नारी पात्र, अस्तित्व के लिए सतत् संघर्षरत है।

सिलिया, झुनिया निम्न जाति होने के कारण, तीहरे उत्पीड़न और शोषण को झेल रही है। होरी-धनिया की बिरादरी को यह मंजूर नहीं है कि गोबर बिना ब्याह किए उससे छोटी जाती की झुनिया को घर में रख ले। नतीजतन् होरी पर जुर्माना और डांड लगाया गया है न देने पर बिरादरी से सामाजिक बहिष्कार का पंचों द्वारा अमानवीय निर्णय लिया गया। सामाजिक बहिष्कार का भय दिखाकर जाति पंचायतों द्वारा बार-बार जाति के टूटने की प्रगतिशील प्रक्रिया को रोकने के प्रयास हो रहे है। प्रेमचंद चूँकि प्रगतिशील विचारधारा के प्रवर्तक थे, वे इन समस्याओं को कथाओं माध्यम से उजागर करते है। बिरादरी द्वारा दिए गए आदेश को धनिया ठुकरा देती है और झुनिया को घर से बाहरन नहीं करती। उसका और होरी का यह सांझा निर्णय था। परिणाम स्वरूप होरी को अपने परिवार के लिए संग्रहीत अनाज को डांड के रूप में पंचों के घर पहुँचाना पड़ता है। लेकिन होरी-धनिया अपने निर्णय पर अटल रहते हैं। धनिया की झुनिया के प्रति मानवीय संवेदनशीलता प्रकट रूप में हम देखते हैं। अछूत होने के अभिशाप को झेलती सिलिया शारीरिक शोषण की शिकार है। मातादीन जो अपने को ब्राह्मण मानता है, सिलिया को बहला-फुसलाकर अपने घर में रख लेता है।

उससे मेहनत-मजदूरी भी करवाता है। मातादीन के खेत खलिहानों में खटती सिलिया यह नहीं समझ पाती कि उसके शरीर को भोग रहा मातादीन समझता है कि चलो एक मुफ्त की मजदूर भी मिल गई है। वह यही सोचकर खुश है कि मातादीन जैसे ब्राह्मण ने अपने जनेऊ को हाथ में लेकर उसके साथ ब्याह करने की कसम खाई है। मातादीन जैसे द्विज की चालाकी को वह जान नहीं पाती। लेकिन जैसे ही अपना अधिकार समझकर सिलिया अनाज की ढेरी से एक सेर अनाज उठाती है, तो मातादीन अपना असली रूप प्रकट करता है। सिलिया  मातादीन के ही बच्चे की माँ बनने वाली थी, ऐसे समय मातादीन उसे अपमानित करके घर से निकाल देता है।

दलित उत्पीड़न से जुड़े आर्थिक अधिकारों और मानवाधिकारों के हो रहे हनन को हम बहुत स्पष्ट रूप से देखते हैं। सिलिया केवल अनपढ़ ही नहीं वह परंपराओं में विश्वास भी करती है। कर्मफल व जन्म सिद्धांत को मानती है। एक ब्राह्मण विप्र द्वारा चमार सिलिया को अपनाने, अपने घर में रखने से ही वह अभिभूत हो जाती है। निम्न जाति के कारण हो रहे यौन-शोषण, आर्थिक शोषण व मानव-अधिकारों के हनन को तो वह समझ नहीं पाती। अपने किए गए अपमान को चुपचाप पी जाती है। संघर्ष या विरोध का कोई स्वर नहीं उठता। सिलिया उसी दलित समुदाय का हिस्सा है जिनमें अभी अस्तित्वबोध जागा नहीं है। वे कभी यह सवाल नहीं करते कि उन्हें जातिव्यवस्था में निम्न क्यों माना जाता है? क्यों उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर है? उनके द्वारा किए जा रहे काम/धंधे क्यों घृणित माने गए? वे अस्पृश्य कैसे? सवर्ण कहे जाने वाली जातियाँ इनसे घृणाव द्वेष क्यों करती है? उनकी स्त्रियों का यौन शोषण करने का अधिकार क्यों मानती हैं? समाज बिरादरी इसका विरोध क्यों नहीं करती?

प्रेमचंद एक अछूत कन्या की विवशता, उसके उत्पीड़न व अपमान को एक प्रसंग के माध्यम से चित्रित करके पाठकों के समक्ष सवाल खड़े करते है। उनकी संवेदनाओं को जागृत करते है। गाँव और शहर के बीच विकसित होती गई गोदान की कथा में कुछ शहर की संस्कृति व परिवेश के अंतर को दर्शाया है। मालती शहर की, उच्च शिक्षा प्राप्त, आधुनिक नारी है। पाश्चात्य संस्कृति का उसके विचारों और व्यक्तिमत्व पर प्रभाव है। मेहता व खन्ना के साथ उसकी मित्रता है। पार्टियों में जाना व पुरुषों के साथ हासपरिहास उसके आधुनिक जीवन का और आसपास के परिवेश का वह हिस्सा है।

इसलिए मेहता व खन्ना के साथ उसकी मित्रता को देखकर कई लोगों के मन में इस  प्रेम के बारे में शक उत्पन्न होते देखते है। प्रेमचंद नारी समानता, नारी-स्वतंत्रता से कुछकुछ सहमत दिखाई देते है। लेकिन मेहता के माध्यम से उच्छृखलता का विरोध भी दर्शाते है। मालती के ही चरित्र में दो प्रकार के नारी व्यक्तित्व को देखने की कोशिश की है। हाँलाकि प्रेमचंद का नारी के प्रति दृष्टिकोण प्रगतिशील ही है, फिर भी उच्च शिक्षा प्राप्त, आधुनिक मालती में भी वे समर्पण, त्याग जैसे गुणों की तलाश करते हैं। उसे पुरुष से श्रेष्ठतर बताते हैं किंतु उसे बराबरी का दर्जा नहीं देते।

गोदान के मेहता-मालती-गोविन्दीखन्ना प्रसंग के समावेश का लक्ष्य तो लेखक द्वारा नारी संबंधी अपने इसी आदर्श की प्रतिष्ठा करना ही लगता है। मालती विवाह संस्था के स्वामित्व के प्रति साशंक है। वह मानती है कि व्यक्ति स्वतंत्रता पर विवाह संस्था के हावी होते ही नारी की स्वतंत्रता खतरे में पड़ती है। इसलिए वह विवाह के बिना ही स्त्री-पुरुष संबंधों के पक्ष में है। खन्ना ‘की पत्नी गोविन्दी को इसकी पक्षधरता करते हुए देखा जा सकता है। परंपरावादियों द्वारा व्यक्ति स्वतंत्रता व समानता के मूल्यों के हनन के कारण सिलिया को उत्पीड़न व शोषण का शिकार होना पड़ा है। इन्हीं मानवीय मूल्यों के हासिल होने पर आधुनिक नारी के व्यक्तिमत्व को विकसित होने का मौका मिलता है। वह जीवन में हर प्रकार के निर्णय खुद कर सकती है। लेकिन इस स्वतंत्रता व समानता को हासिल करने की उम्मीद करने वाले समुदाय लगता है विश्व के दो ध्रुवों पर बसे हुए हैं। प्रेमचंद एक ही देश में दो विपरीत स्थितियों के बीच के अंतराल को स्पष्ट करने में सफल हुए है। गाँव तथा शहर की स्थितियाँ व सोच में जो अंतर दिखाई देता है वह अनायास नहीं है।

शिक्षा का प्रसार, आर्थिक विकास, आधुनिकीकरण व अवसरों की प्राप्ति केवल शहरों तक सीमित रही है। गाँवों तक इन सुविधाओं को पहुँचाने में न तो उस समय की अंग्रेज सरकार उत्सुक थी और न ही ज़मींदार, महाजन व अधिकारीगण। क्योंकि गाँवों के विकास के साथ ही चेतना का विकास होगा और शोषित दबे हुए किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी अपने अधिकार व स्वतंत्रता की माँग करेंगे। यह अंग्रेज सरकार और उसके पक्षधरों को मंजूर नहीं था। एक तरफ उच्च शिक्षा विभूषित मालती कौंसिल का इलेक्शन लड़ती है, तो धनिया, झुनिया, सिलिया को राष्ट्रीय आंदोलन की भनक तक नहीं। प्रेमचंद ने गाँव व शहर के दो अलग-अलग परिवेशों की वास्तविकता को गोदान की रचना द्वारा अभिव्यक्ति देने में बहुत हद तक सफलता प्राप्त की है। प्रेमचंद नारी चरित्रों के माध्यम से इस अंतर को अधिक स्पष्ट कर सके है। गोदान के द्वारा उन्होंने सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक सरोकारों को एक विस्तृत पटल पर रेखांकित किया है।

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