राष्ट्रीय आंदोलन के संदर्भ में गोदान

आपने इससे पहले की इकाई ‘किसान के परिप्रेक्ष्य में गोदान’ में भारतीय किसानों के सामूहिक दुख-दर्द, आर्थिकसामाजिक शोषण की निरंतर प्रक्रिया और किसान से मजदूर बनने की विवशता के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त की है।

पहले इसे पढ़ें

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • ‘गोदान’ में अभिव्यक्त राष्ट्रीय आंदोलन के आधार पर प्रेमचन्द के आजाद भारत की परिकल्पना को समझ सकेंगे,
  • किसान जीवन की कथा में राष्ट्रीय आन्दोलन की उपस्थिति और उसके प्रभाव को जान सकेंगे,
  • शहरी जीवन की कथा में राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रभाव को रेखांकित कर सकेंगे,
  • प्रेमचंद का राष्ट्रीय आन्दोलन के संबंध में जनतांत्रिक दृष्टिकोण क्या था? इसका विश्लेषण कर करेंगे,

प्रेमचंद मूलतः किसानों के लेखक है। उन्होंने अपनी रचनाओं में किसान जीवन के विविध पक्षों का चित्रण किया है। पिछली इकाई में हमने भारतीय किसानों के सामुहिक दुख दर्द, शोषण और त्रासद जीवन पर विचार किया। ज़मींदार, महाजन और नौकरशाही की दमनकारी व्यवस्था से प्रताड़ित किसान का अंततः किसान से मजूदर बनने पर विवश हो जाना, शोषण के लंबे दौर से गुजरते रहने के बाद भी शोषको के विरोध में आवाज न . उठाना, हमें अंतर्मुख कर देता है। इस इकाई में हम मुख्यतः ‘गोदान’ में राष्ट्रीय आन्दोलन की उपस्थिति से किसान जीवन और शहरी जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है और विशेष रूप से लेखक की जनतांत्रिक दृष्टि से ‘गोदान’ के वस्तुविधान में जो परिवर्तन हुए है, उन पर विचार करेंगे।

प्रेमचंद राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर के लेखक हैं। उनके लेखन की शुरुआत स्वदेशी, आन्दोलन (1905) के दौरान हुई। आगे चलकर हिन्दी भाषी प्रान्तों में व्यापक रूप से फैले हुए असहयोग आन्दोलन (1921ई.) और सत्याग्रह आन्दोलन (1930ई.) के दिनों में वह उपन्यास में कभी अकेला. नहीं आता। उसके आगे-पीछे हमेशा धनिया रहती है और. वह हर मुद्दे पर अपनी राय देने से बाज नहीं आती। अक्सर होरी धनिया से तर्क में परास्त हो जाता है। उसकी डाँट-फटकार खाकर चुप हो जाता है। वह तो धनिया से मिलकर ही सम्पूर्ण चरित्र बनता है। यदि धनिया की तुलना मनोहर से की जाय तो उसके सामने मनोहर धीमा पात्र ही लगेगा। 

 वे ‘गोदान’ में किसानों का आह्वान नहीं करते, उन्हें प्रेरित नहीं करते कि वे उठकर इस व्यवस्था का अंत कर दें; वरन वे शिक्षित मध्यवर्ग को उत्साहित करते हैं। ‘गोदान’ शिक्षित वर्ग को सम्बोधित है, इसमें उनकी न्याय-चेतना को उकसाने का प्रयास किया गया है ताकि यह वर्ग किसानों की हित-चिंता के लिये संगठित प्रयास करे। प्रेमचंद को यह विश्वास हो गया था कि आधुनिक शिक्षित बुद्धिजीवियों की सक्रियता के बिना किसान स्वयं अपनी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। इसलिये उन्होंने किसानों के ओज का वर्णन न कर उनकी असहनीय पीड़ा का चित्रण किया है।

 किसान जीवन में राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव 

जहाँ तक राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रश्न है, होरी को इस आन्दोलन की कोई जानकारी नहीं है। गोबर अवश्य शहर में जाकर राजनीतिक एवं कानूनी रूप से परिचित हो गया है। गोबर के व्यक्तित्व पर टिप्पणी करते हुए प्रेमचन्द ने लिखा – “सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है। राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है। सामाजिक रूढियों की प्रतिष्ठा और लोक-निन्दा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है। आये दिन पंचायतों ने उसे निस्संकोच बना दिया है। जिस बात के पीछे वह यहाँ घर से दूर, मुँह छिपाए पड़ा हुआ है, उसी तरह थी, बल्कि उससे भी कहीं निन्दास्पद बातें यहाँ नित्य हुआ करती और कोई भागता नहीं।” इसी तरह से होली के अवसर पर गोबर जब गाँव में आता है तथा मुखियों का मखौल उडाता है, तब होरी सोचता है- “लड़के की अकल जैसे खुल गई है। कैसी बेलाग बात कहता है।” (वही, पृ.178) मुखियों को ‘हत्यारे’ बताते हुए धनिया उन पर टिप्पणी करती है – “उस पर सुराज चाहिए। जेल जाने से सुराज न मिलेगा। सुराज मिलेगा धर्म से, न्याय से।”. (वही, पृ. 97) हाँ, धनिया एक बार सुराज का जिक्र करती है, शेष किसी ग्रामीण पात्र ने कभी भी सुराज या राष्ट्रीय आन्दोलन का कहीं कोई जिक्र नहीं किया। धनिया द्वारा किया गया यह जिक्र भी धनिया का अपना नहीं लगता, वरन् ऐसा लगता है मानो लेखक स्वयं धनिया के मुंह से बोल रहा है। इन टिप्पणियों के अलावा ग्रामीण जीवन में किसान पात्रों की बातचीत में राष्ट्रीय आन्दोलन का कोई प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं मिलता। दो-एक स्थानों पर अप्रत्यक्ष उल्लेख अवश्य मिलता है।

उपन्यास के आरम्भिक हिस्से में रायसाहब का परिचय देते हुए प्रेमचन्द ने लिखा, “पिछले सत्याग्रह-संग्राम में रायसाहब ने बड़ा यश कमाया था। कौंसिल की मेम्बरी छोड़कर जेल चले गये थे। तब से उनके इलाके के असामियों को उनसे बड़ी श्रद्धा हो गयी थी।” ‘यह वक्तव्य भी लेखक का ही है। इसके द्वारा भी प्रेमचंद रायसाहब के . व्यक्तित्व को रेखांकित करना चाहते है। इससे किसानों की राजनीतिक जागरूकता का कोई सम्बन्ध नहीं ; कयोंकि किसी किसान ने कभी भी इस ‘श्रद्धा’ को अभिव्यक्त नहीं किया – न अकेले में, न सामूहिक बातचीत में।

इसलिये जहाँ तक किसानों के जीवन का प्रश्न है, प्रेमचंद ने राष्ट्रीय आन्दोलन का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया। यह अवश्य है कि ज्यों ही उपन्यास में पढ़े लिखे शहरीसम्भ्रांत पात्र आते है, चाहे वे जनता के हितैषी मेहता हो, चाहे खन्ना या रायसाहब वे सभी राष्ट्रीय आन्दोलन के संदर्भ में बातचीत करते हैं। इससे एक निष्कर्ष तो निकलता ही है कि प्रेमचंद की दृष्टि में राष्ट्रीय आंदोलन अभी तक शहरी मध्यवर्ग, पूँजीपति, ज़मींदार समुदाय तक सीमित है। शहर के निम्नमध्यवर्गीय लोग और मजदूरों तक में थोड़ी बहुत जाग्रति आ गयी हो, परन्तु विशाल किसान वर्ग से यह आन्दोलन अभी तक दूर है।

शहरी जीवन में राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रभाव

इस दृष्टि से शहरी पात्रों का जीवन-क्रम देखें तो हम पाते हैं कि लगभग सभी पात्र इस आन्दोलन से परिचित है। स्वयं रायसाहब जेल चले ही गये थे। यह अलग बात है कि “रायसाहब राष्ट्रवादी होने पर भी हुक्काम से मेल-जोल बनाए रखते थे। उनकी नजरें और डालियाँ और कर्मचारियों की दस्तूरियाँ जैसी चली आती थीं।”

इसी तरह “मिस्टर खन्ना भी साहसी आदमी थे,संग्राम में आगे बढ़ने वाले एक-दो बार जेल हो आए थे। किसी से दबना न जानते थे। खद्दर न पहनते थे और फ्रांस की शराब पीते थे। अवसर पड़ने पर बड़ी-बड़ी तकलीफें झेल सकते थे। जेल में शराब छुई तक नहीं, और ए. क्लास में रहकर भी सी. क्लास की रोटियाँ खाते रहे, हालांकि उन्हें हर तरह का आराम मिल सकता था।” (वही, पृ.75) मिस मालती भी एक बार जेल हो। आई थी। मालती एक बार कहती है-” मैंने केवल एक बार जेल जाने के सिवा और क्या जन-सेवा की है? और सच पूछिए तो उस बार भी मैं अपने मतलब ही से गयी थी, उसी तरह जैसे रायसाहब और खन्ना गये थे।’ अभी “पिछले जलसे में मालती नगर-कांग्रेस-कमेटी की सभानेत्री चुन ली गई है।” 

इसी तरह राय साहब के भावी दामाद कुँवर दिग्विजयसिंह के बारे में प्रेमचन्द ने लिखा”कुँवर साहब दुर्वासनाओं के भण्डार थे। शराब, गाँजा, अफीम, मदक, चरस, ऐसा कोई नशा न था, जो वह न करते हों। और ऐयाशी तो रईस की शोभा है।” परन्त वैसे बड़े “दबंग और निर्भीक थे। राष्ट्रीय आन्दोलन में दिल खोलकर सहयोग देते थे; गुप्त रूप से। अधिकारियों से यह बात छिपी न थी,फिर भी उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी और साल में एक-दो बार गवर्नर साहब भी उनके मेहमान हो जाते थे।” 

हाँ, यह अवश्य था कि इनमें से कुछ पात्र क्रांग्रेस को सहयोग देने के लिए पछताते हुए भी दिखायी देते हैं। कभी वे जेल जाने का गौरव गान गाते हैं तो कभी अपनी इस .. मूर्खता के लिए अपने आपको कोसते हैं। एक बार रायसाहब बोले- “सत्याग्रह आन्दोलन छिड़ा। मेरे सारे भाई शराब-कबाब में मस्त थे। मैं अपने को रोक न सका। जेल गया और लाखों रूपये की जेरबारी हुई और अभी तक उसका तावान दे रहा हूँ। मुझे उसका पछतावा नहीं है। बिलकल नहीं।” (वही, पृ.75) यही रायसाहब एक बार पछताते हए कहते हैं – “कांग्रेस में शरीक हुआ, उसका तावान अभी तक देता जाता हूँ। काली किताब में नाम दर्ज हो गया।” (वही, पृ.145-146) यह पछतावा अंततः उनको अंग्रेज राज का भक्त बना देता है। प्रेमचन्द बहुत मीठी चुटकी लेते हुए इस प्रकरण का वर्णन करते है। प्रेमचन्द ने लिखा कि रायसाहब का सितारा ‘बुलन्द’ है। “सबसे बड़े सौभाग्य की बात यह थी कि अबकी हिज मैजेस्टी के जन्म दिन के अवसर पर उन्हें राजा की पदवी भी मिल गई। अब उनकी महत्वाकांक्षा सम्पूर्ण रूप से संतुष्ट हो गई। उस दिन खूब जशन मनाया गया और इतनी शानदार दावत हुई कि पिछले सारे रिकार्ड टूट गए। जिस वक्त हिज एक्सेलेन्सी गवर्नर ने उन्हें पदवी प्रदान की, गर्व के साथ राज-भक्ति की ऐसी तरंग उनके मन में उठी कि उनका एक-एक रोम उससे प्लावित हो उठा। यह है जीवन! नहीं विद्रोहियों के फेर में पड़कर व्यर्थ बदनामी ली, जेल गए, अफसरों की नजरों में गिर गए। जिस डी.एस.पी. ने उन्हें पिछली बार गिरफ्तार किया था, इस वक्त वह उनके सामने हाथ बाँधे खड़ा था और शायद अपने अपराध के लिए क्षमा माँग रहा था।” 

उपर्युक्त सभी प्रसंगों से ऐसा लगता है कि प्रेमचन्द राष्ट्रीय आन्दोलन के तत्कालीन रूप से कुछ-कुछ असहमत होने लगे थे। इसलिए इस आन्दोलन के प्रति वैसा उल्लास और उत्साह का भाव ‘गोदान’ में नहीं मिलता, जैसा उनकी पूर्ववर्ती रचनाओं में मिलता है।’ हंस’ और ‘ जागरण’ की कई टिप्पणियों में भी प्रेमचन्द ने आन्दोलन की कमियों की ओर इशारा किया है। इसी कारण ‘गोदान’ में भी रायसाहब के घर शराब की दावत होती है, प्रेमचन्द उस पर कोई एतराज नहीं करते। मिस मालती पं. ओंकारनाथ के खान-पान की पवित्रता को छुड़ाकर, उन्हें बहला-फुसलाकर जब शराब का जाम चिलाने में सफल हो जाती है तो “जैसे पिटारे में बन्द कहकहे निकल पड़े” हों। इस अवसर पर जो टिप्पणी होती है वह भी द्रष्टव्य है- “तोड़ दिया, नमक का कानून तोड़ दिया, नेम का घड़ा फोड़ दिया।”

यही नही, शिकार-पार्टी के दौरान मिर्जा खुर्शेद सारे गांव को शराब पिलाकर मस्त कर देते हैं, और प्रेमचन्द लेखक के रूप में इस पर कोई एतराज नही करते।

28 जून 1933 के जागरण में प्रेमचन्द ने सत्याग्रह आन्दोलन का मूल्यांकन इस तरह से किया है – “सत्याग्रह आन्दोलन क्रांति असफल हो गयी।” (विविध प्रसंग भाग 3 पृ. 180 सं.अमृतराय, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, 1962) राष्ट्रीय आन्दोलन में लक्ष्मीपतियों की निर्णायक भूमिका को रेखांकित करते हुए मेहता कहते हैं- “लक्ष्मीपतियों की बदौलत ही हमारी बड़ी-बड़ी संस्थाएँ चलती हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन को दो-तीन साल तक किसने इतनी धूमधाम से चलाया। इतनी धर्मशालाएँ और पाठशालाएँ कौन बनवा रहा है। आज संसार का शासन सूत्र बैंकरों के हाथ में है। सरकार उनके हाथ का खिलौना है।” (गोदान, पृ.199) इस आन्दोलन का जो प्रभाव होना था, वह हो चुका। पिकेटिंग का अब कोई असर नहीं हो सकता क्योंकि विलायती कपड़े बेचने वालों का नया बाजार खुल  गया है। सरकारी नौकरियाँ हम छोड़ नहीं सकते क्योंकि हमारे भाई-भतीजे सरकारी नौकर हैं और वे हमारे बाल-बच्चों का पालन-पोषण करते हैं। लगान बन्दी व करबन्दी का भी असर नहीं हो सकता। यहाँ तक कि ‘नमक’ का ड्रामा भी खेला जा चुका और उसे सरकार की बेवकूफी से जो सफलता मिल गयी, उसकी अब आशा नहीं की जा सकती। इसलिए प्रेमचन्द का मत बना कि कांग्रेस अब कौंसिलों में जाये और रचनात्मक कार्य करे। यह सही है कि वैध आन्दोलन का देश को बड़ा कडुआ अनुभव रहा है, फिर भी अब उसके सिवा और कोई चारा नहीं है। इसलिए जून 1934 में जब कांग्रेस ने सत्याग्रह आन्दोलन वापिस लिया तो प्रेमचन्द ने उसका समर्थन किया। गौर तलब है कि इसके बाद ही प्रेमचन्द ने ‘गोदान’ लिखना आरंभ किया। इसलिए ‘गोदान’ के जेल जा चुके कार्यकर्ता अब कौंसिलों में जाने या न जाने के बारे में विचार करने लगे थे।

सभी बुद्धिजीवी पात्र किसी न किसी रूप में कौंसिल की गतिविधियों की चर्चा करते हुए दिखाये गये हैं। मि. तंरवा मालती को कौंसिल में जाने की, चुनाव लड़ने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं.

“मेरी इच्छा केवल यह है कि कौंसिलों में ऐसे लोग जायँ, जिन्होंने जीवन में कुछ अनुभव प्राप्त किया हे और जनता की कुछ सेवा की है। जिस महिला ने भोग विलास के सिवा कुछ जाना ही नहीं, जिसने जनता को हमेशा अपनी कार का पेट्रोल समझा, जिसकी सबसे मूल्यवान सेवा वे पार्टियाँ है, जो वह गवर्नरों और सेक्रेटरियों को दिया करती है, उनके लिए इस कौंसिल में स्थान नहीं है। नई कौंसिल में बहत कुछ अधिकार प्रतिनिधियों के हाथ में होगा और मैं नहीं चाहता कि वह अधिकार अनधिकारियों के हाथ में जाय।” इसी तरह तंखा रायसाहब से कहते है “अबकी तो आपने कौंसिल में प्रश्नों की धूम मचा दी। मै तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी मेम्बर का रिकार्ड इतना शानदार नहीं है।” (वहीं, पृ. 46( परन्तु मालती का मत है कि “जिस तरह के कौंसिल बन रहे हैं, उनके लिए रानी साहब ही ज्यादा उपयुक्त हैं।” मिर्जा खुर्शेद टिप्पणी करते हैं – “मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा दूँ। जिसे हम डिमॉक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े पूँजीपतियों और ज़मींदारों का राज्य है और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाजी ले जाता है, जिसके पास रूपए हैं। रूपए के जोर से उसके लिए सभी सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं। बड़े-बड़े लिखने और बोलने वाले, जो अपनी जबान और कलम से पब्लिक को जिस तरफ चाहें फेर दें, सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं। मैंने तो इरादा कर लिया है। अब इलेक्शन के पास न जाऊँगा। मेरा प्रोपेगंडा अब डेमॉक्रेसी के खिलाफ होगा।”

इन कौंसिलों की चुनावी हलचल से एक नये ढंग के राजनीतिक कार्यकर्ता का उदय हुआ है। प्रेमचन्द की सूक्ष्मदृष्टि से वह ओझल नहीं हुआ है., वह है असफल वकील मि. श्याम बिहारी लेखा, जो बीमा कम्पनी की दलाली करते हैं तथा “ताल्लुकेदारों को महाजनों और बैंकों से कर्ज’ दिलाते हैं। चुनाव की उठापठक और उसकी गणित के ये अच्छे जानकार हैं। “खासकर चुनाव के समय उनकी तकदीर चमकती थी। किसी पोढे उम्मीदवार को खड़ा करते, दिलोजान से उसका काम करते और दस-बीस हजार बना लेते। जब कांग्रेस का जोर था, तो कांग्रेस के उम्मीदावारों के सहायक थे। जब साम्प्रदायिक दल का जोर हुआ, तो हिन्दू सभा की ओर से काम करने लगे ; मगर इस उलटफेर के समर्थन के लिए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कि कोई उँगली न दिखा सकता था।” 

गोदान में स्वतंत्र भारत की कल्पना

‘गोदान’ की कथावस्तु में प्रेमचंद ने राष्ट्रीय आंदोलन का वर्णन नहीं किया है, तब भी रचनाकार की जीवन दृष्टि पर आंदोलन का प्रभाव होने के कारण गोदान की कथावस्तु की परिधि का निर्धारण राष्ट्रीय आंदोलन के द्वारा हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जाहिर है कि ‘गोदान’ की रचना राष्ट्रीय आंदोलन के अंतिम उद्देश्य – स्वतंत्र भारत की स्थापना के अनुरूप हुई है।

‘गोदान’ में प्रेमचंद ने किसी यूटोपिया की, किसी प्रकार के आदर्श समाज या राज्य की परिकल्पना प्रस्तुत नहीं की है। ‘ सेवासदन’ और ‘ प्रेमाश्रम’ की आश्रमवादी आदर्श चेतना का ‘गोदान’ में नितांत अभाव है। सुनहरे भविष्य की आशामयी दृष्टि रचना के यथार्थ को खंडित करती है। यह मानकर प्रेमचंद ने यथार्थवादी रचना-पद्धति के अनुरूप ‘गोदान’ का सर्जन किया है। यही ‘गोदान’ की शक्ति है। इसमें लेखक ने होरी-धनिया के जीवन की करुण कहानी पर अपनी दृष्टि केंद्रित रखी है। इसके साथ ही तत्कालीन

राष्ट्रीय आंदोलन की प्रगति के बारे में भी लेखक आलोचनात्मक दृष्टि से विचार करता ‘ हुआ दिखायी देता है। किसी भी आदर्श आकांक्षा के अभाव के बावजूद प्रेमचंद ने अपनी रचना का परिप्रेक्ष्य . स्पष्ट किया है। वे दृष्टि विहीन यथातथ्यवादी लेखक नहीं है। उनके कथा चयन में, चरित्रों के मूल्य निर्णय में, संवाद में, घटनाओं के विकास-क्रम में लेखक की जीवन दृष्टि सक्रिय रहती है। इनके माध्यम से हम ‘गोदान’ की कथा के न कहे गये अंश को परिभाषित कर सकते हैं। ‘गोदान’ की कथा का यह अनकहा हिस्सा ‘गोदान’ के प्रस्तुत कथा देश को निश्चित आकार देता है। इस दृष्टि से यदि हम ‘गोदान’ की कथा को पुनः नियोजित करें, कथा के निष्कर्षों को संगत निष्कर्षों तक ले जाये तो हम उसमें ‘ स्वतंत्र भारत’ की एक धुंधली-सी तस्वीर अवश्य बना सकते हैं। इस तस्वीर में प्रेमचंद की निश्चित भविष्यवाणियाँ, कुछ आशंकाएँ हैं, कुछ चेतावनियाँ हैं, कुछ अंदेशा है, कुछ चिंताएं हैं जो अलग-अलग प्रकरणों में देखने को मिलती है।

‘गोदान’ को पढ़ते हुए सर्वप्रथम निश्चित भविष्यवाणी दिखायी देती है वह यह है कि किसी भी हालत में स्वतंत्र भारत में ज़मींदारी व्यवस्था नहीं रह सकती है। ज़मींदारों का लोप अनिवार्य है। इसे प्रेमचंद ने अनेक घटनाओं-प्रकरणों-उदाहरणों एवं चर्चाओं में अटल सत्य के रूप में उद्घाटित किया है। रायसाहब एकाधिक बार इसका जिक्र करते हैं। राय साहब स्वीकार करते हैं – “बहुत जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है।” (गोदान पृ.15( राय साहब सजग पात्र है, परंतु वे असामियों को लूटने के लिए “मजबूर हैं। अगर अफसरों को कीमती-कीमती डालियाँ न दें, तो बागी समझे जाएँ।” (वही पृ. 47) बैंकट खन्ना उन्हें आगाह करते हुए कहता है, “यौ समझ लीजिए कि आप ज्वालामुखी के मुख पर खड़े हैं। एक हल्की सी ठोकर आपको पाताल में पहुँचा सकती है।” (वही, पृ. 195). उनका विलास, उनका कर्जा, उनकी दलाली, उनके अत्याचार और उनकी अनुपयोगिता ‘गोदान’ में सप्रमाण सिद्ध की हुई है। इसका विश्लेषण हम पिछले अध्यायों में कर चुके है।

जब तक ज़मींदारी-व्यवस्था का उन्मूलन नहीं कर दिया जाता, तब तक किसानों का अस्तित्व खतरे में है। यदि ज़मींदारी प्रथा रही तो भारतीय किसान तबाह हो जायेंगे। वे सब के सब खेत मजदूर बन जायेंगे। इसलिए यदि किसानों को बचाए रखना है तो ज़मींदारी-व्यवस्था का उन्मूलन करना ही होगा। यह किसानों के अस्तित्व-रक्षा का प्राथमिक प्रश्न है। इस विषय पर कोई ढुलमुल निर्णय नहीं लिया जा सकता। ज़मींदारप्रथा के समाप्त होते ही किसानों से वसूल किये जाने वाले गैर-कानूनी कर समाप्त हो जायेंगे। जिनमें डाँड, दस्तूरी, शगुन, बेगारी आदि अनेक कर शामिल है। इसके साथ ही भूमि की लगान को कम करना पड़ेगा। धनिया सोचती है कि ”चाहे कितनी ही कतर ब्योत करो, कितना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो, मगर लगान बेबाक होना मुश्किल है।”  किसानों की बदहाली का प्रमुख कारण लगान की यह अधिकता है। इसलिए स्वतंत्र भारत में लगान कम करना निहायत आवश्यक है।

प्रेमचंद संकेत कर देते है कि ज़मींदारी व्यवस्था के समाप्त होते ही ज़मींदार शक्तिहीन नहीं हो जायेंगे। उनकी शोषण करने की शक्ति भले ही समाप्त हो जाये, परंतु उनकी राजनीतिक ताकत तब भी बची रहेगी। कौंसिलों का राजनीतिक अनुभव उन्हें आगे भी लाभ की स्थिति में रखेगा। – इस ओर हलका सा संकेत करके प्रेमचंद आगे बढ़ जाते हैं। इस विवाद में वे शायद नहीं पड़ना चाहते थे।

प्रेमचंद आगाह करते हैं कि मात्र कानून बनाने से किसानों का भला नहीं हो सकता। कानून की अपनी सीमाएँ होती हैं। इसलिए “सरकार अगर असामियों को रुपये उधार देने का कोई बन्दोबस्त नहीं करेगी” तो “इस कानून से कुछ न होगा।” इसलिए महाजनी शोषण से मुक्ति के लिए स्वतंत्र भारत की सरकार को बैंकों से कम ब्याज पर कर्ज देने की व्यवस्था करनी होगी। ‘गोदान’ के किसानों की “कमाई का बड़ा भाग महाजनों का कर्ज चुकाने में खर्च हो जाता है।

इसके साथ ही प्रेमचंद किसानों में जागृति फैलाने के काम को भी महत्व देना चाहते हैं। यदि होरी गोबर की तरह सोचता और कार्य करता तो उसको इतनी परेशानियाँ नहीं उठानी पड़ती। न उसे गैर कानूनी सूद देना पड़ता और न बिरादरी को डाँड देनी पड़ती। इस और संकेत मात्र करके प्रेमचंद अपनी कथा में रम गये लगते हैं।

‘गोदान’ और प्रेमचन्द की जनतांत्रिक दृष्टि

‘गोदान’ की कथा में राष्ट्रीय आन्दोलन के संदर्भ के अभाव का तात्पर्य यह नहीं है कि इस उपन्यास में आन्दोलन की प्रत्यक्ष उपस्थिति न दिखायी दे, परन्तु रचनाकार की जीवन दृष्टि में राष्ट्रीय आन्दोलन का संदर्भ बराबर विद्यमान है। इस दृष्टि से ‘ गोदान’ को पढ़ने पर हमारा ध्यान ‘गोदान’ की कतिपय विशेषताओं की तरफ गये बिना नहीं रहता। इनमें से सबसे पहली बात तो यह है कि ‘गोदान’ ब्रिटिश भारत की तत्कालीन व्यवस्था का समर्थक-उपन्यास नहीं है। वह इस व्यवस्था के प्रति तटस्थ और उदासीन भी नहीं है। इसके विपरीत वह इस व्यवस्था का कटु आलोचक हैं। जिस ज़मींदारी प्रथा, प्रशासनिक व्यवस्था,न्याय व कानून की व्यवस्था अंग्रेजी सरकार ने बना रखी थी। ‘गोदान’ में उसका पर्दाफाश किया गया है। इसमें लेखक ने किसी भी स्तर पर, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अंग्रेजी सरकार का समर्थन नहीं किया है। इस दृष्टि से देखा जाए, तो एक पतनोन्मख वर्ग के सजग पात्र के रूप में कई बार रायसाहब हमारी सहानुभूति ले जाते हैं ; लेकिन कोई भी अधिकारी, पुलिस, गवर्नर, हिज एक्सेलेंसी या उनका प्रतिनिधि कभी लेखक का समर्थन नहीं जुटा पाता। ‘

होरी का शोषण प्रत्यक्ष ज़मींदार और उसके कारिंदे तथा धर्म-समाज के पंच, महाजन आदि करते हुए दिखायी देते हैं। परन्तु प्रेमचन्द को जब भी मौका मिलता है वे शक्तिशाली अंग्रेज बहादुर की उपस्थिति का एहसास करा देते हैं। यदा-कदा सरकार बहादुर का पटवारी पटेश्वरी भी सबको डरा कर चुप करा देता है। रायसाहब भी अधिकारियों को डालियाँ, दस्तूरी आदि देते रहने की चर्चा करते हैं। इस दृष्टि से राष्ट्रीय आन्दोलन से पूर्व लिखे गये उनके उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ से ‘गोदान’ की तुलना की जा सकती है। ‘प्रेमाश्रम’ के लखनपुर में पटेश्वरी नहीं रहता। यह पात्र राष्ट्रीय आन्दोलन की इस समझ से पैदा हुआ है कि भारतीय किसानों की बदहाली का मुख्य कारण अंग्रेजी राज है। ‘प्रेमाश्रम’ के डिप्टी ज्वालासिंह का न्याय ‘गोदान’ में नहीं मिलता।

इसके अलावा ‘प्रेमाश्रम’ का खलनायक ज्ञानशंकर है। प्रेमचंद इस उपन्यास में यही तो व्यक्त करते हैं कि यदि ज्ञानशंकर न रहें, ज़मींदार न रहे, किसानों को सिर्फ, मालगुजारी देनी पड़े, तो किसान खुशहाल हो सकते हैं। मायाशंकर का उदार हृदय लखनपुर को स्वर्ग बना देता है। लखनपुर का ज्ञानशंकर न केवल क्रूर है, वरन् वह सबसे शक्तिशाली भी है। उसके छल प्रपंचों के आगे कोई पात्र नहीं ठहरता। ‘प्रेमाश्रम’ के लेखन के बाद असहयोग आन्दोलन और सत्याग्रह आन्दोलन हुआ। प्रेमचंद की दृष्टि में यह बात आयी कि ज़मींदारों की क्रूरता एक शक्तिशाली वर्ग का शिकंजा नहीं है वरन् एक पतनोन्मुख वर्ग द्वारा किया गया अत्याचार है। इनकी खुद की हालत बहुत दयनीय है। ‘गोदान’ के रायसाहब स्वीकार करते हैं कि बहुत जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है।” (वही, पृ.15) खन्ना एक बार रायसाहब को आगाह करते हुए कहता है, “यों समझ लीजिए कि आप ज्वालामुखी के मुख पर खड़े हैं। एक हल्की सी ठोकर आपको पाताल में पहुचा सकती है। आपको इस मौके पर बहुत सँभलकर चलना चाहिए।  रायसाहब स्वयं जानते हैं, अपनी स्थिति से परिचित हैं, लेकिन वे क्या करें? उनकी समझ में कुछ नहीं आता। वे कहते हैं – “हम अपने असामियों को लूटने के लिए मजबूर हैं। अगर अफसरों को कीमती-कीमती डालियाँ न दें, तो बागी समझे जाएँ, शान से न रहें, तो कंजूस कहलाएँ। प्रगति की जरा सी आहट पाते ही हम काँप उठते हैं और अफसरों के पास फरियाद लेकर दौड़ते हैं कि हमारी रक्षा कीजिए। हमें अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा, न पुरूषार्थ ही रह गया। बस,हमारी दशा उन बच्चों की सी है, जिन्हें चम्मच से दूध पिलाकर पाला जाता है, बाहर से मोटे, अन्दर से दुर्बल, सत्वहीन और मोहताज।”

प्रेमचंद मानते है कि ऋण ज़मींदारों की शोभा है। इसलिए ‘ गोदान’ मे कोई ऐसा ज़मींदार या ताल्लुकेदार या राजा नहीं है जिस पर ऋण का बोझ न हो। रायसाहब तो ऋण के बोझ से दबे हुए हैं ही, कुँवर दिग्वजय सिंह, राजा सूर्यप्रतापसिंह सभी पर भारी कर्जा है। रायसाहब की ससुराल की जायदाद, जो उनके पुत्र को मिलने वाली है ”उस जायदाद पर दस लाख” के लगभग ऋण है। स्वयं रायसाहब जब देखो तब खन्ना के पास रूपये उधार लेने के लिए दौड़ते रहते हैं और यह तो तब है जब रायसाहब पर लगभग दस लाख रूपये का कर्ज है। प्रेमचंद ने उनकी आर्थिक दुरवस्था का भी विस्तृत वर्णन किया है। “इधर कुछ दिनों से रायसाहब की कन्या के विवाह की बातचीत हो रही थी। उसके साथ ही इलेक्शन भी सिर पर आ पहुँचा था, मगर इन सबों से आवश्यक उन्हें दीवानी में एक मुकदमा दायर करना था, जिसकी कोर्ट-फीस ही पचास हजार होती थी, ऊपर के खर्च!..मुश्किल यही थी कि यह तीनों काम एक साथ आ पड़े थे और उन्हें किसी तरह टाला न जा सकता था। कन्या की अवस्था 18 वर्ष की हो गई थी और केवल हाथ में रूपये न रहने के कारण अब तक उसका विवाह टलता जाता था। खर्च का अनुमान एक लाख का था। जिसके पास जाते, वही बड़ा-सा मुँह खोलता….”

प्रेमचंद ने होरी और रायसाहब दोनों को कर्ज के बोझ में डूबे हुए दिखाया है और दोनों महाजनों के सामने चिरौरी करते दिखायी देते हैं। रायसाहब खन्ना के आगे-पीछे इसी कारण घूमते हैं। रूपयों की कमी के कारण वे एक बार मि. तंखा तथा एक बार मि. ओंकारनाथ की भी मिन्नतें कर चुके हैं। यदि ज़मींदारों के शोषण का स्वायत्त सामंती शोषण होता तो रायसाहब को यूँ दर-दर की ठोकरें खाने न जाना पड़ता। परन्तु करें क्या? वे भी अंग्रेजी राज के शोषण के शिकार हैं। इसलिए वे हारते हैं तो भी हारते हैं और जीतते हैं तो भी हारते हैं। जिन तीन कार्यो की उन्होंने ठानी वे पूरे हो गये। प्रेमचंद ने लिखा – “रायसाहब का सितारा बुलंद था। उनके तीनों मंसूबे पूरे हो गए थे। कन्या की शादी धूमधाम से हो गई थी, होम मेम्बर भी हो गए थे। चारों ओर से बधाइयाँ मिल रही थीं। तारों का तांता लगा हुआ था। इस मुकदमें को जीतकर उन्होंने ताल्लुकेदारों की प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त कर लिया था। सम्मान तो उनका पहले भी किसी से कम न था; मगर अब तो उसकी जड़ और भी गहरी और मजबूत हो गई थी। सामयिक पत्रों में उनके चित्र और चरित्र दनादन निकल रहे थे। सुख की जो ऊँची से ऊँची कल्पना उन्होंने की थी, उससे भी ऊँचे जा पहुंचे थे।” 

लेखक यदि चाहता तो यहाँ रायसाहब के चरित्र की कथा बन्द कर सकता था। परन्तु लेखक ज़मींदार को पतनशील वर्ग के रूप में देखता है, उसकी उन्नति कैसे हो सकती . है, इसलिए उपन्यास का अंत होते-होते यह बता देना जरूरी लगा कि उनकी पुत्री का तलाक हो गया है, जायदाद का मुकदमा जिस पुत्र के लिए जीते थे, उससे उनका झगड़ा हो गया। “और रायसाहब ने सुख का जो स्वर्ग बनाया था, उसे अपनी जिन्दगी में ही ध्वस्त होते देख रहे थे और अब संसार से निराश होकर उनकी आत्मा अन्तर्मुखी होती जाती थी। (वही, पृ.262) होरी बर्बाद हो गया था, लेकिन रायसाहब भी आबाद हो गये हों, सो बात नहीं। प्रेमचंद के इस लेखकीय न्याय में राष्ट्रीय आन्दोलन की .. . अनुगूंज सनायी दे सकती है।

प्रेमचंद जनतांत्रिक दृष्टि सम्पन्न लेखक हैं। उन्होंने अंग्रेजी राज का विरोध इसलिए नहीं किया है कि ‘जॉन के स्थान पर गोविन्द गद्दी पर बैठ जाये। वे शोषणहीन समाज की परिकल्पना में विश्वास करते हैं। किसी भी व्यक्ति या समूह को दूसरे का शोषण करने का अधिकार नहीं है। इसलिए जो व्यक्ति ‘धनी’ है वह व्यक्ति ‘महान्’ नहीं हो सकता, ‘सुन्दर’ नहीं हो सकता। धन और सम्पति दूसरों के शोषण से इकट्ठी होती है तथा शोषण का माध्यम बनती है। 1दिसम्बर 1935 को उन्होंने श्री बनारसीदास चतुर्वेदी को पत्र में लिखा, “मैं ऐसे महान आदमी की कल्पना ही नहीं कर सकता जो धनसम्पत्ति में डूबा हुआ हो। जैसे ही मैं किसी आदमी को धनी देखता हूँ, उसकी कला और ज्ञान की सब बातें मेरे लिए बेकार हो जाती है। मुझको ऐसा लगने लगता है कि इस आदमी ने वर्तमान समाज-व्यवस्थाको, जो अमीरों द्वारा गरीबों के शोषण पर . आधारित है, स्वीकार कर लिया है। (चिट्ठी पत्री, भाग-2, पृ.93 सं. अमृतराय, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, 1962) प्रेमचंद ने यह पत्र उस समय लिखा था, जिस समय वे गोदान की रचना कर रहे थे। ‘गोदान’ में उन्होंने धन व सम्पत्ति की जगह-जगह आलोचना कर रखी है। प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में होरी-धनिया के शोषण की कहानी कही है। इस वर्णन में प्रेमचंद का मानना है कि यह शोषण अवैध है, गलत है। होरी मानता है कि यह प्राकृतिक है। प्रेमचंद होरी के इस मानसिक पिछड़ेपन को उजागर करते हुए मनुष्य और मनुष्य की समानता का आधारभूत दर्शन रखते हैं। होरी व गोबर की बातचीत में यह दर्शन व्यक्त होता है – ‘तुम्हारी समझ में हम और वह बराबर है।’ ‘भगवान ने तो सबको बराबर ही बनाया है।’ ‘यह बात नहीं है बेटा, छोटे-बड़े भगवान के घर से बनकर आते हैं। सम्पत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किए हैं, उनका आनन्द भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा, तो भोगें क्या?’

‘यह सब मन को समझाने की बाते हैं। भगवान सबको बराबर बनाते हैं। यहाँ जिसके हाथ में लाठी है। वह गरीबों को कुचलकर बड़ा आदमी बन जाता है। ‘यह तुम्हारा भरम है। मालिक आज भी चार घण्टे रोज भगवान का भजन करते हैं।’

‘किसके बल पर यह भजन-भाव और दान-धर्म होता है?’ ‘अपने बल पर। ‘नहीं, किसानों के बल पर और मजदूरों के बल पर यह पाप का धन पचे कैसे! इसलिए दान-धर्म करना पड़ता है, भगवान का भजन भी इसीलिए होता है। भूखे-नंगे रहकर भगवान का भजन करें, तो हम भी देखें। हमें कोई दोनों जून खाने को दे, तो हम आठों पहर भगवान का जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भक्ति भूल जाय। (गोदान, पृ.18)

‘गोदान’ का यह लम्बा संवाद प्रेमचंद की उस जनतांत्रिक जीवन-दृष्टि से आया है, जिसका गहरा सम्बन्ध हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ा हुआ है। इसी आन्दोलन से … समानता एवं शोषणहीन समाज की परिकल्पना आयी है। जिसके द्वारा ‘ गोदान’ की । सम्पूर्ण कथा की परिकल्पना की गयी है। प्रेमचंद में होरी की कथा का यथा तथ्य वर्णन नहीं किया है उसके दुख-दैन्यं के गणित को ही स्पष्ट नहीं किया है वरन् ये सारे तथ्य इसलिए इतने विस्तार से दिये गये है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि होरी का यह शोषण अवैध है, गैर कानूनी है, अप्राकृतिक है। शिक्षित वर्ग के सामने शोषण की अवैधता को .. स्पष्ट करने के लिए ही उन्होंने महाजनों द्वारा लिए जा रहे सूद का हिसाब दिया है, अत्यधिक लगान के बकाया रह जाने के दर्द को रेखांकित किया गया है। डाँड, जुरमाना, .. दस्तूरी आदि को स्पष्ट किया है। उनकी अत्यधिक मात्रा पर नहीं वरन् उनकी अवैधता पर प्रेमचंद बल देना चाहते हैं।

राष्ट्रीय आन्दोलन की इसी जनतांत्रिक दृष्टि के कारण होरी जैसा अपढ़, दब्बू, पिछड़ा हुआ किसान, इस उपन्यास का नायक है; अन्यथा नायकत्व की संभावनाएँ रायसाहब में सबसे अधिक हैं। यदि लेखक तटस्थ होना चाहता तो दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर मेहता को इस उपन्यास का नायक बना सकता था और तब ‘ गोदान’ की कथा का सम्पूर्ण ढांचा बदल जाता। उसी के अनुरूप शेष प्रकरणों एवं प्रसंगों के अर्थ बदल जाते ; परन्तु प्रेमचंद ने ऐसा नहीं किया। इसलिए रायसाहब, पं. दातादीन, नोखेराम, पटेश्वरी, झिंगुरी सिंह, . मंगरू शाह, मि. खन्ना जैसे चारित्रिक दृष्टि से तथाकथित शरीफ लोग खलनायक बनकर हमारे सामने आते हैं। इनको खलनायक राष्ट्रीय आन्दोलन के पक्षधर लेखक ने .. बनाया।

निष्कर्ष यह है कि भले ही प्रेमचंद ने उपन्यास की कथा वस्तु में राष्ट्रीय आन्दोलन का उल्लेख अपेक्षाकृत कम किया है, तब भी उपन्यास का मूल कथ्य राष्ट्रीय आन्दोलन की जनतांत्रिक भावधारा की चेतना को अभिव्यक्त करता है।

सारांश

‘गोदान ‘ की कथावस्तु में राष्ट्रीय आंदोलन की उपस्थिति अपेक्षाकृत कम है, तब भी उपन्यास का कथ्य राष्ट्रीय आंदोलन की जनतांत्रिक भावधारा की चेतना को अभिव्यक्त करता है। ‘गोदान ‘ वास्तविकतः ब्रिटिश राज द्वारा स्थापित व्यवस्था का विरोधी है। अंग्रेज राज द्वारा पोषित ज़मींदारी प्रथा के प्रमुख शोषकों द्वारा भारतीय किसानों का निरंतर शोषण अंग्रेजी सरकार की नीति का ही हिस्सा था। प्रेमचंद ने इन सभी शोषकों द्वारा ओढ़े हुए धर्म, नीति, मर्यादा, कानून, पाप-पुण्य और दया-करुणा-सहानुभूति के मुखौटे हटाएं हैं। इनकी सच्चाई से परिचित कराया है। किसान को घेरे रहने वाली ये शोषक शक्तियाँ आर्थिक रूप से किसान की इन पर पूर्ण रूप से निर्भरता के कारण,खुद को किसान का शोषण करने का अधिकारी मानती है। इस प्रवृति को बनाए रखने में अंग्रेज राज और उसके तंत्र ने पूरा साथ दिया। 

प्रेमचंद ने राष्ट्रीय आंदोलन को समानता पर आधारित समाज व्यवस्था की स्थापना के पर्याय के रूप में देखा था। अतः राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा ज़मींदारी प्रथा को नष्ट करने का प्रयास मुख्य रूप से उभर कर सामने आया। प्रेमचंद ने राष्ट्रीय आंदोलन के इस मुख्य उद्देश्य को ‘गोदान ‘ की कथावस्तु में इस प्रकार शामिल किया है जिससे जनचेतना का विकास हो और यही जन आंदोलन का स्वरूप ले सके।

राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना के विकास के कारण सामान्य जन में नई आशाएं, आकांक्षाएं जन्म ले रही थी। प्रेमचंद ज़मींदारी प्रथा के नष्ट किए जाने के प्रति जनसामान्य की सहमति चाहते थे। वे जान चुके थे और देख भी चुके थे कि ग्रामीण . क्षेत्र में राष्ट्रीय आंदोलन ने जनसामान्य को बहुत अधिक प्रभावित नहीं किया है। लेकिन ज़मींदारी प्रथा के शोषण से ग्रामीण किसान ही प्रभावित होने के कारण, चेतना के . संकेत वहीं से उभरने चाहिए थे और आगे इसे जन आंदोलन का स्वरूप प्राप्त होना भी आवश्यक था। प्रेमचंद राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव और चेतना को शहरों तक सीमित देखकर चिंतित भी थे। इसलिए वे इस निष्कर्ष तक पहुंच गए थे कि जब तक ज़मींदारी और रैयतवारी प्रथाएं नष्ट नहीं होती, स्वतंत्र भारत में भी किसानों की स्थिति में कोई मूलभूत बदलाव नहीं आएगा।

साधन संपन्न वर्ग अपने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव के कारण स्वतंत्र भारत में भी सत्ताधारी बनेगा और किसान, मजदूर, दलित और पिछड़ों के शोषण के नए मार्ग खोज निकालेगा। परिणामतः शोषितों, वंचितों और उत्पीड़ितों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा। प्रेमचंद की यह चिंता ‘गोदान ‘ की कथावस्तु में दृष्टिंगत हुई है। राष्ट्रीय आंदोलन में जनतांत्रिक चेतना के अभाव को देखकर प्रेमचंद इस निष्कर्ष तक पहुँच चुके थे कि राष्ट्रीय आंदोलन में जनसामान्य की अनुपस्थिति का अर्थ था, स्वतंत्र देश में भी देश के विकास के बारे में लिए गए निर्णयों में उनकी भागीदारी न होना। कौंसिलों के बनने पर सबसे अधिक फायदा मिला था आभिजात्य वर्ग के लोगों को, जो पहले से ही सत्ता के भागीदार थे और आगे आने वाले समय में भी इसी वर्ग के हाथ में सत्ता केंद्रित होती। एक जनतांत्रिक दृष्टि संपन्न लेखक की नज़र में ऐसी स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं था। इस स्थिति में प्रेमचंद अंत में राष्ट्रीय आंदोलन से भी असहमत होने लगे थे। उनकी नज़र में देश की स्वतंत्रता का अर्थ है शोषण विहीन समाज की स्थापना और किसी भी व्यक्ति या समूह को किसी दूसरे व्यक्ति या समूह के शोषण करने का अधिकार न होना।

शुरू में राष्ट्रीय आंदोलन से उभरती चेतना के प्रति प्रेमचंद काफी आश्वस्त दिखते है, लेकिन बाद में उनका यह विश्वास टूटता नज़र आता है। राष्ट्रीय आंदोलन में ज़मींदार, उद्योगपति, मिस्टर खन्ना और मि. तंखा जैसे लोगों का शामिल होना यह दर्शाता है। और इसी सत्तालोलुप स्वार्थी प्रवृत्तियों ने राष्ट्रीय आंदोलन को अपने कब्जे में करने के कारण स्वतंत्र भारत में भी, सत्ता इन्हीं के हाथों में केंद्रित रहेगी। प्रेमचंद राष्ट्रीय आंदोलन की सफलता के बाद भी गरीब किसान, मजदूर, दलित और पिछड़ों की स्थिति में कोई आमुलाग्र परिवर्तन होने की संभावनाओं को नहीं देख रहे थे। पराधीन देश में जिन पुरातन परंपराओं, रूढी-रीतियों, जातिवाद और आर्थिक असमानताओं की स्थितियाँ मौजूद थे और उनको बदलने के लिए कोई ठोस कदम उठाए जाने चाहिए थे। समानता, स्वतंत्रता और न्याय की त्रिसूत्री पर स्वतंत्र भारत की बुनियाद डाली जानी चाहिए, यह प्रेमचंद की प्रामणिक मान्यता थी।

अब इसे पढ़ें

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.