हिंदी आलोचना

“हिंदी भाषा एवं साहित्य का इतिहास” से संबंधित इस इकाई में हिंदी आलोचना पर प्रकाश डाला गया है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • हिंदी आलोचना के उद्भव और विकास को समझा सकेंगे; हिंदी आलोचना की प्रारंभिक स्थिति का परिचय दे सकेंगे;
  • हिंदी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन कर सकेंगे;
  • परवर्ती हिंदी आलोचना (शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना) पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के प्रभावों को जान सकेंगे;
  • स्वातंत्र्योतर हिंदी आलोचना की दशा और दिशा की जानकारी प्राप्त पर सकेंगे;
  • हिंदी में प्रचलित विभिन्न आलोचना पद्धतियों से अवगत हो सकेंगे;
  • हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं से संबंधित आलोचना की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कर सकेंगे;
  • हिंदी आलोचना की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डाल सकेंगे; और
  • हिंदी के प्रमुख आलोचकों के अवदान और वैशिष्ट्य को बता सकेंगे।

प्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चन्द्र के समय से ही हिंदी साहित्य में आधुनिक काल की शुरुआत हुई और इसी युग से अनेक गद्य-विधाओं – कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि- की विकास यात्रा आरंभ हुई। अब तक आपने कहानी, अपन्यास और नाट्य साहित्य के उद्भव और विकास का परिचय प्राप्त किया है। इस इकाई में हिंदी आलोचना के विकास पर प्रकाश डाला जा रहा है। इससे आप हिंदी आलोचना के विकासात्मक स्वरूप से परिचित हो सकेंगे।

रचना को समझने के लिए आलोचना की जरूरत पड़ती है । आलोचना का अर्थ है किसी वस्तु या कृति का सम्यक् मूल्यांकन करना। इस मूल्यांकन-प्रक्रिया में रसास्वादन, विवेचन, परीक्षण, विश्लेषण आदि का योगदान होता है। आलोचना, रचना और पाठक या सहृदय के बीच सेतु का कार्य करती है। यह रचना के मूल्य और सौंदर्य को उद्घाटित करती है, पाठक की समझ का विस्तार करती है और कृति को जाँचने-परखने के लिए उसे आलोचनात्मक दृष्टि देती है। रचना के गुण-दोष विवेचन से लेकर उसमें अंतर्निहित सौंदर्य और मूल्य के उद्घाटन तक की यात्रा करने वाली आलोचना की भी अनेक पद्धतियाँ हैं जैसे निर्णयात्मक आलोचना, तुलनात्मक आलोचना, ऐतिहासिक आलोचना, सैद्धांतिक आलोचना, व्यावहारिक आलोचना आदि। इस इकाई में आप हिंदी आलोचना के क्रमिक विकास का अध्ययन करके यह जान सकेंगे कि जो हिंदी आलोचना प्रारंभ में पुस्तक-परिचय और सामान्य गुण-दोष-विवेचन तक ही सीमित थी, बाद में उसमें अनेक आलोचना-पद्धतियों का विकास हुआ और गद्य की यह विधा इतनी समर्थ और सशक्त हुई कि इसने रचना के समानान्तर अपने को प्रतिष्ठित कर लिया।

अनेक आलोचकों की उत्कृष्ट आलोचनाओं ने यह प्रमाणित किया कि आलोचना रचना की अनुवर्ती नहीं है बल्कि उसकी भी एक स्वतंत्र सत्ता है और रचना की तरह वह भी एक सृजन है। इस इकाई में आप हिंदी आलोचना की विकास-यात्रा का आलोचनात्मक परिचय प्राप्त करने के साथ-साथ उसकी शक्ति और सीमा की भी जानकारी प्राप्त करेंगे। आशा है, इस इकाई को पढ़ने के बाद आप हिंदी आलोचना की प्रमुख प्रवृत्तियों, विशेषताओं और पद्धतियों को अच्छी तरह समझ जाएँगे और यह भी जान जाएँगे कि हिंदी आलोचना में कब और कैसे नए मोड़ या परिवर्तन उपस्थित हुए।

आधुनिक हिंदी आलोचना की आरंभिक स्थिति

आधुनिक हिन्दी आलोचना की आरंभिक स्थिति पर प्रकाश डालने से पूर्व आपको यह बता देना जरूरी है कि हिंदी में आलोचना का उद्भव और विकास आधुनिक काल में ही हुआ है। इस इकाई में आप हिंदी आलोचना का जो विकासात्मक परियच प्राप्त करेंगे वह माधुनिक हिंदी आलोचना का ही परिचय और इतिहास है। फिर भी संक्षेप में आधुनिक काल से पहले की हिंदी आलोचना की जानकारी प्राप्त कर लेना आवश्यक है।

आधुनिक काल से पहले की हिंदी आलोचना

हिंदी साहित्य के आदिकाल और भक्तिकाल में आलोचना का कार्य नहीं हुआ। इस काल के कवि संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रंथों से प्रेरणा लेकर काव्य-रचना करते रहे और अपनी रचनाओं में यत्र-तत्र अपने काव्यादर्शों का भी उल्लेख करते रहे, किंतु उनके समय में न तो उनके उल्लेखों के आधार पर काव्य-सिद्धांतों की सृष्टि हुई, न ही उनकी रचनाओं के मूल्यांकन-परीक्षण की प्रक्रिया आरंभ हुई।

रीतिकाल में संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रंथों से प्रेरणा लेकर केशवदास, चिन्तामणि, मतिराम, कुलपति मिश्र, भिखारीदास आदि अनेक आचार्य-कवियों ने रस, छंद, अलंकार, रीति. शब्दशक्ति और नायक-नायिका भेद से संबंधित अनेक लक्षण-ग्रंथों की रचना की किंतु इनसे सिद्धांत-निरूपण से आगे बढ़कर व्यावहारिक समीक्षा का मार्ग प्रशस्त नहीं हुआ। इसका एक बड़ा कारण यह था कि उस समय तक गद्य का विकास नहीं हुआ था। सारी बातें पद्य में लिखी जाती थीं। पद्य में किसी बात पर तर्क-वितर्क करना, उसका सम्यक् मूल्यांकन और विश्लेषण करना संभव नहीं था, इसलिए व्यावहारिक आलोचना का मार्ग अवरुद्ध रहा। डॉ रामचन्द्र तिवारी का यह कथन ध्यान देने योग्य है कि लगभग दो सौ वर्षों तक निरंतर सिद्धांत-निरूपण में लीन रहने पर भी हिंदी के आचार्य न तो किसी मौलिक सिद्धांत की स्थापना कर सके और न संस्कृत के सिद्धांतों को ही विकसित कर सके। रीतिकाल में व्यावहारिक आलोचना का रूप संस्कृत की सूत्र-शैली के रूप में ही प्रचलित रहा- वह भी पद्य में ही। इस काल में कवियों की विशेषताओं को सूत्र-रूप में व्यक्त करने की पद्धति क्षीण रूप में प्रचलित थी। जैसे बिहारी के दोषों से संबंधित यह उक्ति

सतसइया के दोहरे ज्यों नावक के तीर।

देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर।।

कभी-कभी कवियों की पारस्परिक तुलना भी की गई –

सूर-सूर तुलसी ससी, उडगन केशवदास ।

अब के कवि खद्योत सम, जहँ तहँ करत प्रकास।।

आलोचना का यह स्फुट रूप, गहन चिन्तन, मनन और विश्लेषण से शून्य था। इसमें प्रभावात्मक अभिव्यक्ति और प्रशंसात्मक मूल्यांकन की प्रधानता थी। खंडन-मंडन की इस शैली से साहित्य का न तो मूल्यांकन संभव था, न उसका रसास्वादन ।

भारतेंदु युगीन हिंदी आलोचना : आधुनिक हिंदी आलोचना का सूत्रपात

हिंदी साहित्य के आधुनिक काल का आरंभ भारतेंदु के समय (सन् 1850-1885) के साथ ही माना जाता है। जैसा कि आप इकाई सं.- 13 में पढ़ चुके हैं कि इसी कालखंड में भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का व्यापक प्रभाव पड़ा। भारतीय जनता में बौद्धिकता, तार्किकता और भौतिकवादी दृष्टिकोण का प्रसार हुआ और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अन्य गद्य रूपों के साथ हिंदी आलोचना के नए और आधुनिक रूप का जन्म हुआ। भारतेंदु द्वारा सम्पादित — “कविवचनसूधा’ और “हरिश्चन्द्र मैगजीन” में समीक्षा के स्तम्भों में पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित होती थीं। “हिंदी प्रदीप”, “भारतमित्र”, “ब्राह्मण”, “आनंद कादम्बिनी” आदि ने भी पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित करके इस विधा को गति प्रदान की। यद्यपि आरंभ में ये समीक्षाएँ परिचयात्मक एवं साधारण कोटि की थीं लेकिन धीरे-धीरे उनमें निखार और परिष्कार भी आता गया।

भारतेंदु ने अपने “नाटक” नामक लेख में नाटक पर विचार करते समय उसकी प्रकृति, समसामयिक जीवन रुचि, स्वाभाविकता, यथार्थता और प्राचीन नाट्यशास्त्र की उपयोगिता तथा नए नाटकों की आवश्यकता का जो विवेचन किया है, उसे हिंदी आलोचना का प्रथम उन्मेष मानना चाहिए और भारतेंदु । को हिंदी का प्रथम आलोचक । यद्यपि भारतेंदु व्यावहारिक आलोचना का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सके, वे ज्यादातर सैद्धांतिक विवेचन तक ही सीमित रह गए, किंतु उनके विवेचन में आलोचना-दृष्टि का जो उन्मेष हुआ, उसको बालकृष्ण भट्ट और चौधरी बदरी नारायण “प्रमघन” ने आगे बढ़ाया। आलोचना के अंतर्गत किसी कृति के मूल्यांकन का कार्य इन्हीं दोनों की समीक्षाओं से आरंभ हुआ। प्रेमघन जी ने “आनंद कादम्बिनी” में बाणभट्ट की “कादम्बरी” की जहाँ प्रशंसात्मक समीक्षा की, वहीं बाबू गदाघर सिंह द्वारा लिखे गए “बंग विजेता” नामक बंगला उपन्यास की विस्तृत समीक्षा उपन्यास के तत्वों के आधार पर की और स्वाभाविकता, मनोवैज्ञानिकता तथा सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से उपन्यास के गुण-दोषों का उल्लेख किया।

लाला श्रीनिवास दास के “संयोगिता स्वयंवर” नाटक की समीक्षा जहाँ प्रेमघन ने “आनंद कादम्बिनी” में बड़े प्रशंसात्मक ढंग से की, वहीं बालकृष्ण भट्ट ने “हिंदी प्रदीप” में “सच्ची समालोचना” के नाम से उसकी कटु समीक्षा की। इस तरह भारतेंदु युग में एक ओर परम्परागत साहित्य सिद्धांतों को विकसित करने का प्रयत्न हुआ और दूसरी ओर व्यावहारिक समीक्षा का सूत्रपात हुआ।

द्विवेदी युगीन हिंदी आलोचना

हिंदी भाषा और साहित्य के विकास एवं परिष्कार के लिए आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जो कार्य किया, वह हिंदी साहित्य में अद्वितीय है। उनके युग में हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि तो हुई ही, साहित्यालोचना के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य हुआ। इस युग में यद्यपि हिंदी आलोचना का गंभीर एवं तात्विक रूप तो नहीं निखरा किंतु अनेक महत्वपूर्ण आलोचना-पद्धतियाँ अवश्य विकसित हुईं, जैसे – शास्त्रीय आलोचना, तुलानात्मक मूल्यांकन एवं निर्णय, परिचयात्मक तथा व्याख्यात्मक आलोचना, अन्वेषण तथा अनुसंधानपरक समीक्षा आदि।

रीतिकालीन लक्षण-ग्रंथों की परम्परा का पालन करते हुए अनेकों विद्वानों ने इस युग में काव्यशास्त्रीय ग्रंथों की रचना करके शास्त्रीय एवं सैद्धांतिक समीक्षा को परिपुष्ट किया। राजा मुरारीदान कृत “जसवन्त भूषण”, महाराजा प्रतापनारायण सिंह कृत “रसकुसुमाकर”, जगन्नाथ भानु कृत “काव्यप्रभाकर”, लाला भागवानदीन कृत “अलंकारमंजूषा”, सीताराम शास्त्री कृत “साहित्य सिद्धांत” आयोध्या सिंह उपाध्याय कृत “रसकलश” आदि इस युग के वे सैद्धांतिक ग्रंथ हैं जिनसे हिंदी की शास्त्रीय आलोचना का विकास हुआ है। इन ग्रंथों में रीतिकालीन लक्षण-ग्रंथों की परम्परा का तो निर्वाह हुआ ही है, अंग्रेजी, फारसी, उर्दू आदि भाषा-साहित्यों के संपर्क और युगीन प्रभावों के फलस्वरूप कतिपय नई बातों का भी समावेश हुआ है।

प्राचीन सिद्धांतों के परिपोषण और विवेचन के साथ ही इस युग के नवीन सिद्धांतों के प्रतिपादन का भी कार्य हुआ है। इस दृष्टि से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पुन्नालाल बख्शी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बाबू श्यामसुन्दर दास और गुलाब राय के नाम उल्लेखनीय हैं। द्विवेदी जी ने “रसारंजन” में विषय के अनुकूल छंदयोजना, सरल भाषा के प्रयोग, अर्थ-सौरस्य, मनोरंजन के स्थान पर युगबोध, नैतिकता, मर्यादा, देश-प्रेम आदि से संबंधित उच्च भावों की अभिव्यक्ति पर विशेष बल दिया और रीतिकालीन कविता की अतिशृंगारिकता तथा विलासिता की प्रवृत्ति की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि इससे न तो देश और समाज का कल्याण हो सकता है, न उसके सर्जक का ही। उन्होंने अपने “कवि कर्त्तव्य” नामक निबंध में विस्तार के साथ कवि के नए कर्तव्यों का बोध कराते हुए काव्य-विषय, काव्य-भाषा, शैली, उद्देश्य आदि का जो विवेचन किया है, उससे पता चलता है कि द्विवेदी जी नवीनता के पोषक थे और नयी परिस्थितियों में साहित्य साधना को नए दायित्वों से जोड़ना चाहते थे। उन्होंने “सरस्वती” पत्रिका के माध्यम से इस कार्य को सम्पन्न किया और हिंदी भाषा, साहित्य और आलोचना को नयी दिशा प्रदान की।

द्विवेदी-युग में तुलनात्मक समीक्षा में विशेष प्रगति हुई। इस युग में साहित्यकारों का संस्कृत के साथ-साथ अंग्रेजी, फारसी, उर्दू आदि भाषाओं के साहित्य से घनिष्ठ परिचय होने के कारण तुलनात्मक एवं निर्णयात्मक समीक्षा की प्रवृत्ति का विकास हुआ। इस क्षेत्र में पदमसिंह शर्मा, मिश्रबंध (श्यामबिहारी मिश्र, शुकदेव बिहारी मिश्र, गणेश बिहारी मिश्र), लाला भगवानदीन और कृष्णबिहारी मिश्र ने विशेष कार्य किया। सबसे पहले पद्मसिंह शर्मा ने ‘बिहारी’ और फारसी के कवि ‘ सादी’ की तुलनात्मक आलोचना की, उसके बाद मिश्रबंधुओं ने ” हिंदी नवरत्न” नामक ग्रंथ में तुलनात्मक मूल्यांकन के आधार पर हिंदी के नौ कवियों (सूर, तुलसी, देव, बिहारी, केशव, भूषण, सेनापति, चन्द, हरिशचन्द्र) को श्रेणीबद्ध करके उनकी आलोचना प्रकाशित की। बाद में उनके इस श्रेणी-निर्धारण में परिवर्तन भी होता रहा मिश्र बंधुओं ने देव को बिहारी से ऊँचा कवि माना, इसके उत्तर में पद्मसिंह शर्मा ने “ बिहारी’ को बड़ा सिद्ध किया। बाद में तुलना के इस अखाड़े में कृष्णबिहारी मिश्र और लाला भगवानदीन भी आ गए। कृष्णबिहारी मिश्र ने ” देव और बिहारी’ पुस्तक लिखकर देव को बड़ा कवि सिद्ध किया, इस पर लाला भगवानदीन ने “ बिहारी और देव” पुस्तक लिखकर बिहारी को बड़ा सिद्ध करने का प्रयत्न किया।

इस तरह तुलनात्मक समीक्षा का एक ऐसा मार्ग निकला जिसमें प्रचीन सिद्धांतों के आलोक में हिंदी कवियों की व्यावहारिक समीक्षा की गई। यह शास्त्रीय आलोचना के भीतर जन्म लेने वाली वह व्यावहारिक समीक्षा थी जिसमें गुण-दोष विवेचन और बड़ा-छोटा सिद्ध करने की प्रवृत्ति अधिक थी। जीवन और समाज के व्यापक संदर्भो में साहित्य को समझने की यदि कोशिश की गई होती तो इस आलोचना में अधिक व्यापकता आ जाती।

आलोचना की नवीन व्यावहारिक पद्धति का प्रयोग भारतेंदु युग की पुस्तक परिचय वाली आलोचना में ही प्रकट होने लगा था। किंतु उसका विकास द्विवेद्वी युग में “सरस्वती” पत्रिका के माध्यम से हुआ। इस युग में पुस्तक परिचय से पुस्तक-समीक्षा और फिर साहित्यिक समालोचना का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस युग में “साहित्यालोचन” की प्रवृत्तियों और आदर्शों पर अनेक लेख “नागरी प्रचारिणी पत्रिका”, “सरस्वती”, “समालोचक”, “इन्द्र”, “माधुरी’, आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। “नागरी प्रचारिणी पत्रिका” में गंगाप्रसाद अग्निहोत्री ने “समालोचना” नामक लेख प्रकाशित करके समालोचक के गुणों – मूलग्रंथ का ज्ञान, सत्य-प्रीति, शांत स्वभाव और सह्दयता – को रेखांकित किया। इसी पत्रिका में जगन्नाथदास “रत्नाकर” ने अंग्रेजी साहित्यकार पोप के “एसे ऑन क्रिटिसिज्म” का अनुवाद “समालोचनादर्श’ के नाम से प्रकाशित किया। इस तरह साहित्य-समीक्षा के स्वरूप और आदर्श पर विचार-विमर्श शुरू हुआ।

महावीरप्रसाद द्विवेदी ने “विक्रमांकदेव चरित नैषधचरित चर्चा” और “कालिदास की निरंकुशता” जैसे लेखों से व्यावहारिक समीक्षा का मार्ग प्रशस्त किया और संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी, मराठी और उर्दू साहित्य में प्राप्त महत्वपूर्ण सामग्री की जानकारी हिंदी पाठकों को दी जिसे आचार्य शुक्ल ने “एक मुहल्ले की बात दूसरे मुहल्ले तक पहुँचाने” का कार्य कहा, किंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि यह हिंदी पाठकों, सर्जकों और समीक्षकों को ज्ञान से समृद्ध करने वाला एक महत्वपूर्ण कार्य था। द्विवेदी जी ने समालोचक का कर्तव्य निर्धारित करते हुए लिखा है – “किसी पुस्तक या प्रबंध में क्या लिखा गया है, किस ढंग से लिखा गया है, वह विषय उपयोगी है या नहीं, उससे किसी का मनोरंजन हो सकता है या नहीं, उससे किसी को लाभ पहुँच सकता है या नहीं, लेखक ने कोई नई बात लिखी है या नहीं, यही विचारणीय विषय है। समालोचक को प्रधानतः इन्हीं बातों पर विचार करना चाहिए।’

द्विवेदी युग में ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की व्यावहारिक समीक्षा की व्याख्यात्मक पद्धति विकसित हुई। चूँकि शुक्ल जी की आलोचना कई तरह से हिंदी आलोचना में एक मानक की तरह है और द्विवेदी युग की आलोचना से काफी आगे की है, इसलिए इसकी विशेष चर्चा शुक्ल युगीन हिंदी आलोचना के अंतर्गत की जाएगी।

द्विवेदी युग में ही अनुसंधानपरक समीक्षा का विकास हुआ। वैसे तो “नागरी प्रचारिणी पत्रिका” में प्रकाशित लेखों से ही इस पद्धति के दर्शन होने लगे थे, किंतु उसका सम्यक् विकास द्विवेदी-युग में 1921 ई. में बाबू श्याम सुंदर दास के काशी हिंदू विश्वद्यिालय में हिंदी विभाग में नियुक्त होने के बाद ही हुआ। शोध या अनुसंधानपरक आलोचना में अनुपलब्ध या अज्ञात तथ्यों का अन्वेषण तथा उपलब्ध तथ्यों का नवीन आख्यान आवश्यक होता है। बाबू श्यामसुंदर दास, राधाकृष्ण दास, जगन्नाथ दास रत्नाकर और सुधाकर द्विवेदी ने द्विवेदी युगीन अनुसंधानपरक आलोचना का स्वरूप विकसित करने में योग दिया है।

इय प्रकार द्विवेदी युग में हिंदी आलोचना विभिन्न पद्धतियों को विकसित करती हुई उत्तरोत्तर शक्ति सम्पन्न हुई। इसी युग में पाश्चात्य साहित्य से परिचित होकर और उसका स्वस्थ प्रभाव ग्रहण कर हिंदी आलोचना ने स्वतंत्र व्यक्तित्व प्राप्त किया और इसमें कवि-विशेष के सामान्य गण-दोष के विवेचन के साथ ही रचना की गहरी छान-बीन, देश और समाज के परिप्रेक्ष्य में साहित्य की उपयोगिता और मूल्यवत्ता को परखने की प्रवृत्ति विकसित हुई।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिंदी आलोचना

द्विवेदी-युग की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक समीक्षा को विकसित एवं समृद्ध करने का श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को है। वे हिंदी आलोचना के प्रशस्त-पथ पर एक ऐसे आलोक-स्तम्भ के रूप में प्रतिष्ठित हैं जिसके प्रकाश में हम आगे और पीछे दोनों ओर बहुत दूर तक देख सकते हैं। इस युग की आलोचना को “शुक्ल-युगीन आलोचना” के रूप में देखा-समझा जाता है।

आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि यद्यपि द्विवेदी-युग में विस्तृत समालोचना का मार्ग प्रशस्त हो गया था, किंतु वह आलोचना भाषा के गुण-दोष विवेचन, रस, अलंकार आदि की समीचीनता आदि बहिरंग बातों तक ही सीमित थी। उसमें स्थायी साहित्य में परिगणित होने वाली समालोचना, जिसमें किसी कवि की अन्तर्वत्ति का सूक्ष्म व्यवच्छेद होता है, उसकी मानसिक प्रवृत्ति की विशेषताएँ दिखाई जाती हैं, बहुत ही कम दिखाई पड़ी। समालोचना की यह कमी शुक्लयुगीन हिंदी आलोचना, विशेषत: आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की व्यावहारिक आलोचना से दूर हुई। इस युग में आलोचकों का ध्यान गुण-दोष कथन से आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और उनकी अंत:वृत्ति की छानबीन की ओर गया। इस प्रकार की समीक्षा का आदर्श शक्ल जी की सूर, जायसी और तुलसी संबंधी समीक्षाओं में देखा जा सकता है।

इन समीक्षाओं में शुक्ल जी के गंभीर अध्ययन, वस्तुनिष्ठ विवेचन, सारग्राहिणी दृष्टि, संवेदनशील हृदय और प्रखर बौद्धिकता का सामंजस्य, प्राचीनता और नवीनता के समुचित समन्वय से प्राप्त प्रगतिशील विचारधारा, रसवादी, नीतिवादी, मर्यादावादी और लोकवादी दृष्टि का सम्यक् परिचय प्राप्त होता है। इन सबके चलते शुक्ल जी ने हिंदी आलोचना में अपना विशिष्ट व्यक्तित्व स्थापित किया और वे एक ऐसे आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित हए जिसमें सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक समीक्षा का उत्कृष्ट रूप दिखाई पड़ता है। हिंदी में ही नहीं, आधुनिक काल की समूची भारतीय आलोचना-परम्परा में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का विशिष्ट स्थान और महत्व है।

शुक्ल जी ने सूर, तुलसी, जायसी आदि मध्यकालीन कवियों और छायावादी काव्यधारा का गंभीर मूल्यांकन करके जहाँ व्यावहारिक आलोचना का आदर्श प्रस्तुत किया और हिंदी आलोचना को उन्नति के शिखर तक पहुँचाया, वहीं “चिंतामणि” और “रसमीमांसा” जैसे ग्रंथों से सैद्धांतिक आलोचना को नई गरिमा और ऊँचाई प्रदान की। “कविता क्या है’, “काव्य में रहस्यवाद’, ‘साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद’, ‘रसात्मक बोध के विविध रूप’ आदि निबंधों में शक्ल जी ने अपनी काव्यशास्त्रीय मेधा और स्वतंत्र चिंतन-शक्ति के साथ-साथ भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य शास्त्र के विशद् एवं गंभीर ज्ञान तथा व्यापक लोकानुभव और गहरी लोकसंस्कृति का जो परिचय दिया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।

आचार्य शुक्ल ने अपनी व्यावहारिक समीक्षा में जिस तरह के सूत्रात्मक निष्कर्ष और आलोचना के नए मानदंड प्रस्तुत किए हैं, वे उनकी समीक्षा-शक्ति और साहित्य में गहरी पैठ के प्रमाण हैं। उनकी शास्त्रीय समीक्षा में उनका पाण्डित्य, मौलिकता और सूक्ष्म पर्यवेक्षण पग-पग पर दिखाई पड़ता है। हिंदी की सैद्धांतिक आलोचना को परिचय और सामान्य विवेचन के धरातल से उठाकर गंभीर मूल्यांकन और व्यावहारिक सिद्धांत प्रतिपादन की उच्चभूमि पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को है। सूर, तुलसी, जायसी संबंधी उनकी आलोचनाएँ व्यावहारिक आलोचना का प्रतिमान बनी हुई हैं। आचार्य शुक्ल लोकवादी समीक्षक हैं। लोकमंगल, लोक धर्म, लोक मर्यादा आदि को केंद्र में रखकर ही वे साहित्य की श्रेष्ठता और उत्कृष्टता का निदर्शन करते हैं।

शुक्ल युगीन अन्य आलोचना

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के साथ-साथ हिंदी आलोचना को समर्थ और गतिशील बनाने वाले आलोचकों में पं. कृष्णशंकर शुक्ल, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, गुलाब राय, लक्ष्मीनारायण “सुधांशु” के नाम उल्लेखनीय हैं। कृष्णशंकर ने “केशव की काव्यकला” और “कविकर रत्नाकर” नामक कृतियों में केशवदास और जगन्नाथ दास “रत्नाकर” की जीवनी और उनके काव्य के विभिन्न पक्षों पर सहृदयतापूर्वक प्रकाश डाला है। इन दोनों पुस्तकों की प्रशंसा करते हुए आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास-ग्रंथ में लिखा – “केशव की काव्यकला” में पंडित कृष्णशंकर शुक्ल ने अच्छा विद्वत्तापूर्ण अनुसंधान भी किया है। उनका “कविवर रत्नाकर” भी कवि की विशेषताओं को मार्मिक ढंग से सामने रखता है। कृष्णशंकर शुक्ल ने आचार्य शुक्ल की केशवदास संबंधी स्थापनाओं का मुखर विरोध न करते हुए भी केशवदास की सहृदयता और काव्यकला की जिस रूप में मीमांसा और समीक्षा की है, वह सारगर्भित और महत्वपूर्ण है। “केशवदास की काव्यकला” में उनकी तत्वान्वेषिणी दृष्टि और पृष्ट एवं गंभीर शैली के दर्शन होते है।

इसी प्रकार आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने भी “हिंदी साहित्य का अतीत'” और ” बिहारी की वाग्विभूति” जैसे ग्रंथों में उत्कृष्ट आलोचना-प्रतिभा का परिचय दिया है। इन्होंने रीतिकाल के महत्वपूर्ण कवियों, बिहारी, केशव, घनानंद, भूषण, रसखान आदि की विस्तृत समीक्षा करके अपनी सिद्धांतनिष्ठ, अनुसंधानपरक और सारग्राही आलोचना-पद्धति से हिंदी आलोचना को काफी शक्ति प्रदान की है। उनकी रीतिकाव्य की व्याख्याएँ और टीकाएँ भी आलोचना के बड़े काम की हैं।

लक्ष्मीनारायण सुधांशु ने “काव्य में अभिव्यंजनावाद” में क्रोचे के अभिव्यंजनावाद और उसके प्रकाश में भारतीय काव्यशास्त्र और हिंदी के नवीन काव्य पर विचार करते हुए अपनी सहृदयता, विद्वत्ता और मर्मग्राहिता का परिचय दिया है। बाबू गुलाबराय ने “सिद्धांत और अध्ययन'”, “काव्य के रूप” और “नवरस’ जैसे ग्रंथों के माध्यम से हिंदी की सैद्धांतिक आलोचना को पुष्ट किया। उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल की ही तरह भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र के समन्वय से नवीन आलोचना-सिद्धांतों को विकसित करने का कार्य किया। गुलाबराय ने स्वयं लिखा है – “सिद्धांत और अध्ययन” और “काव्य के रूप में परिभाषाएँ देने में मैंने देशी-विदेशी विद्वानों के मतों का समन्वय करके ही अपनी परिभाषाएँ दी हैं”।

पाश्चात्य एवं भारतीय काव्यशास्त्रों की मान्यताओं का गंभीर अध्ययन-विश्लेषण करके अपनी समन्वय बुद्धि द्वारा आचार्य शुक्ल ने भी हिंदी के एक नए आलोचना-शास्त्र के निर्माण का कार्य किया। इस संदर्भ में डॉ. नगेन्द्र का यह कथन-

उद्धरणीय है – “शुक्लजी ने संस्कृत काव्यशास्त्र का पुनराख्यान कर और पाश्चात्य आलोचना-सिद्धांतों को अपने अनुरूप ढालकर हिंदी के लिए एक नए आलोचना-शास्त्र का निर्माण किया।” शुक्लानुवर्ती आलोचकों ने उनके इस कार्य में योग दिया, यह दूसरी बात है कि वे आचार्य शुक्ल की सी गहराई, व्यापकता और ऊँचाई का परिचय नहीं दे सके, फिर भी उनके योगदान को कम करके नहीं आँका जा सकता है।

शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना के केंद्र में वीरगाथा काल से लेकर छायावादी काव्यधारा तक का साहित्य रहा है। उनके समीक्षा-सिद्धांत और काव्य के प्रतिमान विशेष रूप से भक्तिकाव्य के आधार पर निर्मित हुए हैं। जिस समय शुक्ल जी का आलोचक व्यक्तित्व अपने पूरे निखार पर था। उसी समय व्यक्तिचेतना को केंद्र में रखकर छायावादी काव्यधारा का विकास हुआ जिसकी आचार्य शुक्ल ने कड़ी आलोचना की। रसवादी, परम्परानिष्ठ, लोकमंगलवादी और मर्यादावादी आचार्य शुक्ल व्यक्ति के सुख-दुख, आशा-आकांक्षा, प्रेम-विरह और मानवीय सौंदर्य के आकर्षण से परिपूर्ण छायावादी कविता को अपेक्षित सहृदयता से न देख-समझ सके। फलस्वरूप छायावादी कवियों को अपने पक्ष की प्रस्तुति के लिए। आलोचनात्मक विवेक के साथ सामने आना पड़ा। प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा ने छायावाद ।

नाम की अभिनव काव्य-प्रवृत्ति की विशेषताओं और उसकी आवश्यकताओं को अपनी पुस्तकों की भूमिकाओं और स्फुट आलोचनाओं में रेखांकित किया और शुक्ल जी की इस धारणा का विरोध किया कि छायावादी कविता विदेशी कविता (अंग्रेजी कविता) की नकल और अभिव्यंजना की नूतन प्रणाली मात्र है। प्रसाद ने छायावाद को भारतीय परंपरा से संबद्ध सिद्ध किया, पंत और महादेवी वर्मा ने उसे युग की आवश्यकता और मनुष्य के अंतर्मन की अदम्य अभिव्यक्ति के रूप में रेखांकित किया।

छायावादी कवियों की मान्यताओं और स्थापनाओं के स्पष्ट रूप सामने आ जाने पर परवर्ती आलोचकों को इस काव्यधारा को समझने में आसानी हुई और इसे नन्ददुलारे वाजपेयी, शांतिप्रिय द्विवेदी और डॉ. नगेंद्र जैसे समर्थ आलोचकों का बल प्राप्त हुआ। इन आलोचकों ने आचार्य शुक्ल की आलोचना-परम्परा का विकास करते हुए अनेक संदर्भो में अपनी स्वतंत्र दृष्टि और मौलिकता का परिचय दिया है। शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना का विकास कई रूपों में हुआ। यहाँ पर आचार्य शुक्ल के बाद से स्वतंत्रता प्राप्ति तक की हिंदी आलोचना की विभिन्न प्रवृत्तियों एवं पद्धतियों पर प्रकाश डाला जा रहा है।

आचार्य शुक्ल के बाद हिंदी में स्वच्छन्दतावादी, प्रभाववादी, मनोवैज्ञानिक या अन्तश्चेतनावादी, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक, शास्त्रीय या सैद्धांतिक आलोचना, अन्वेषण एवं अनुसंधानपरक आलोचना और मार्क्सवादी आलोचना का विकास हुआ। इनका स्वतंत्र रूप से परिचय प्राप्त कर लेना आवश्यक है।

स्वच्छन्दतावादी आलोचना

स्वच्छन्दतावादी आलोचना का विकास हिंदी की छायावादी काव्यधारा के मूल्यांकन के साथ हुआ। पुराने आचार्यों ने छायावादी काव्य की नवीन चेतना को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा और न उसका ठीक से मूल्यांकन किया। छायावादी कवियों ने अपने काव्य के समुचित मूल्यांकन के लिए जहाँ अपने काव्य-सिद्धांतों और मान्यताओं को स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया, वहीं नए आलोचकों को प्रेरित एवं प्रभावित करके छायावादी या स्वच्छन्दतावादी काव्यालोचना का मार्ग प्रशस्त किया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के व्यापक प्रभाव के बावजूद भी आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने छायावाद को अपना समर्थन दिया और इस काव्यधारा के सौंदर्य को प्रभावशाली ढंग से उद्घाटित किया। उन्होंने छायावादी कवियों के स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए साहित्य की स्वायत्त सत्ता की घोषणा की और कहा – “काव्य का महत्व तो काव्य के अंतर्गत ही है, किसी बाहरी वस्तु में नहीं। काव्य और साहित्य की स्वतंत्र सत्ता है, उसकी स्वतंत्र प्रक्रिया है और उसकी परीक्षा के स्वतंत्र साधन हैं।”

अपनी इस धारणा के तहत उन्होंने छायावादी काव्य का मूल्यांकन किया। उन्होंने बड़ी दृढ़ता से स्पष्ट किया कि छायावाद का अपना जीवन-दर्शन है, अपनी भाव सम्पत्ति है, वह द्विवेदीकालीन कविता की परिपाटीबद्धता, नीतिमत्ता और स्थूलतः के विरुद्ध नवोन्मेष अनुभूति-प्रवण कविता है। उसमें अनुभूति, दर्शन और शैली का अद्भुत साम:य है। वह राष्ट्रीय चेतना के स्वर से परिपूर्ण है, उसका भी अपना आध्यात्मिक पक्ष है। वाजपेयी जी की इन स्थापनाओं से छायावाद-संबंधी अनेक भ्रमों का निराकरण हुआ और इस काव्यधारा के स्वस्थ मूल्यांकन की पंरपरा चल पड़ी। वाजपेयी जी की इस आलोचना को, स्वच्छन्दता को चरम मूल्य मानने के कारण “स्वच्छन्दतावादी’ और काव्य-सौष्ठव पर बल देने के कारण ‘सौष्ठववादी’ संज्ञा मिली। नन्ददुलारे वाजपेयी ने ‘आधुनिक साहित्य’, नया साहित्य : नए प्रश्न’, ‘जयशंकर प्रसाद’, ‘कवि निराला’, ‘हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी’ आदि जैसे आलोचनात्मक ग्रंथों में छायावाद, स्वच्छन्दतावाद और छायावादी कवियों – पंत, निराला, प्रसाद – का मूल्यांकन प्रस्तुत किया और इस नवीन काव्यधारा के संदर्भ में नए समीक्षा-सिद्धांतों का निर्माण किया ।

वाजपेयी जी के साथ ही डॉ. नगेन्द्र ने छायावादी काव्य का जो मूल्यांकन प्रस्तुत किया, वह भी हिंदी की स्वच्छन्दतावादी आलोचना को परिपुष्ट करने वाला है। ‘आधुनिक हिंदी कविता की प्रवृत्तियाँ’ और ‘समित्रानंदन पंत’ जैसे ग्रंथों से उन्हें छायावादी आलोचक के रूप में ख्याति मिली। उन्होंने काव्य में आत्माभिव्यक्ति को महत्वपूर्ण माना और छायावाद को ‘स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का विद्रोह’ कहा। उन्होंने यह स्थापित किया कि भक्ति आंदोलन के बाद हिंदी साहित्य में छायावाद एक बड़ा काव्यान्दोलन था। पंत के काव्य का मूल्यांकन करके डॉ. नगन्द्र ने जहाँ उनके काव्य को समझने की दृष्टि दी, वहीं उनकी कविता से ही अपनी आलोचना के मूल्य भी निकाले। डॉ. नगेन्द्र यद्यपि रसवादी समीक्षक हैं किंतु उनकी आलोचना-दृष्टि नए साहित्य के संपर्क से बराबर विकसित होती रही। रस-सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या के साथ-साथ डॉ. नगेन्द्र ने काव्य भाषा, काव्य बिम्ब, शैली विज्ञान आदि पर भी जो कार्य किया है वह हिंदी की सैद्धांतिक आलोचना को समृद्ध करने वाला है। उनकी व्यावहारिक समीक्षाएँ भी काफी मूल्यवान हैं।

प्रभाववादी या प्रभावाभिव्यंजक आलोचक

इस समीक्षा-पद्धति में सहृदय आलोचक काव्य-कृति को पढ़कर अपने मन पर पड़े प्रभावों को मार्मिक ढंग से व्यक्त करके दूसरों तक पहुंचाता है। उसकी आलोचना भी एक नयी रचना का-सा आनंद देने लगती है। कभी-कभी आलोचना रचना के मूल विषय से बहुत दूर भी चली जाती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे अच्छी आलोचना नहीं माना है। हिंदी में प्रभाववादी समीक्षा का प्रथम आभास तो पद्मसिंह शर्मा के बिहारी संबंधी मूल्यांकन में मिला था, किंतु इसका पूर्ण स्फुरण शांतिप्रिय द्विवेदी की आलोचना में हुआ। उन्होंने छायावादी काव्य की आलोचना किसी सिद्धांत से बँधकर नहीं, उसके स्वतंत्र आस्वादन के आधार पर की है और छायावादी काव्य में, विशेषत: पंत के काव्य में अच्छाइयों का ही भावपूर्ण दर्शन किया है। वे जब पंत की सराहना करने लगते हैं तो भावविह्वल हो जाते हैं और ऐसे अवसरों पर उनका गद्य गद्य-काव्य हो जाता है। उनकी पंत-संबंधी आलोचना कुछ इस तरह की है मानो उसे स्वयं पंत ने ही लिखा हो। डॉ. नगेन्द्र की भी छायावाद संबंधी समीक्षा में प्रभावाभिव्यंजकता है, किंतु उसमें संतुलन एवं वस्तुनिष्ठ विश्लेषण के कारण भावातिरेक की मात्रा बहुत कम हो गई है। वैसे प्रभावाभिव्यंजक आलोचना के इस गुण को महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए कि आलोचना के लिए रचना का सहृदयतापूर्ण अवगाहन जरूरी है। इसके बिना रचना का सही मूल्यांकन संभव नहीं हो सकता। इस आलोचना-पद्धति का हिंदी में अधिक विकास नहीं हुआ।

मनोवैज्ञानिक या अन्तश्चेतनावादी आलोचना

मनोविश्लेषणवादी आलोचना का संबंध फ्रायड के अन्तश्चेतनावादी कला-सिद्धांत से है जो यह मानता है कि साहित्य और कलाएँ मनुष्य की दमित वासनाओं की अभिव्यक्ति हैं। उसका मानना है कि मनुष्य की दमित वासनाओं का उदात्तीकृत रूप ही साहित्य या कला में व्यक्त होता है। दमित वासनाएँ काममूला होती हैं। मनोवैज्ञानिक आलोचक कवि के व्यक्तिगत जीवन के आधार पर उसकी वासनाओं का विश्लेषण करता है और उसके साहित्य में उनकी अभिव्यक्ति को रेखांकित करता है। मनोविश्लेषणवादी साहित्य-दृष्टि के अनुसार साहित्य-निर्माण की प्रेरणा मनुष्य की चेतना से नहीं, अवचेतन में दमित वासनाओं (कामवासनाओं, हीनता की क्षतिपूर्ति की वासनाओं, जीने की वासनाओं) में मिलती है। चूंकि ये वासनाएँ प्रवृत्तिमूलक और वैयक्तिक होती हैं, अत: यह माना जाता है कि साहित्य का संबंध व्यक्ति-चेतना से अधिक है, सामाजिक चेतना से नहीं अत: साहित्य सामाजिक होने की अपेक्षा व्यक्तिगत होता है। इस तरह कला मूलत: स्वान्तः सुखाय होती है। मनोविश्लेषणवादी, नैतिकता के प्रश्न को भी महत्व नहीं देता।

वह मानता  है कि व्यक्ति जैसा है, वही उसका वास्तविक रूप है और उसे उसी रूप में साहित्य में चित्रित होना चाहिए। उसे आदर्श, नैतिकता के आवरण में डालकर प्रस्तुत करना बेमानी है। यही वजह है कि मनोविश्लेषणवादी, चरित्रों के अंत: सत्य पर विशेष बल देता है और पात्र की अच्छाई-बुराई को उसी से जोड़कर देखता है। वह आदर्श चरित्रों की अपेक्षा यथार्थ चरित्रों की सृष्टि में विश्वास रखता है। ऐसी स्थिति में यदि उसके पात्र मनोरोगी, दीन-हीन, दुर्बल, अनैतिक और दुश्चरित्र हों तो वह इसे यथार्थ की उपज मानता है, अपनी कला की कमजोरी या विकृति नहीं। मनोविश्लेषणवादी कला में नवीन प्रयोगों को मन्यता प्रदान करता है। उसकी धारणा है कि ज्यों-ज्यों समाज विकसित होगा, जीवन-स्थितियों में परिवर्तन होगा, उसके सनातन अवचेतन और चेतन में संघर्ष बढ़ता जाएगा और मानव-चरित्र की संश्लिष्टता और जटिलता बढ़ती जाएगी। उस संश्लिष्टता और जटिलता की अभिव्यक्ति के लिए नवीन प्रतीकों, संकेतों, भाषिक क्षमताओं को विकसित करना होगा।

इन अवधारणाओं के मद्देनजर इलाचन्द्र जोशी ने साहित्य-रचना और समीक्षा का उल्लेखनीय कार्य किया है। उन्होंने ‘साहित्य-सर्जना’ नामक पुस्तक से अपने मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों की स्थापना की और विवेचना’, ‘विश्लेषण’, ‘दखा-परखा’ जैसी कृतियों में मनोवैज्ञानिक आलोचना का व्यावहारिक रूप प्रस्तुत किया। भारतीय साहित्य में प्रगतिशीलता’, ‘महादेवी जी का आलोचना-साहित्य’, ‘छायावादी तथा प्रगतिपंथी कवियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण’, ‘कामायनी’, ‘शरतचन्द्र की प्रतिभा’, आदि निबंधों में उनकी मनोविश्लेषणवादी समीक्षा-दृष्टि व्यावहारिक रूप से प्रकट हुई है। इलाचन्द्र जोशी का मानना है कि हिंदी का भक्ति साहित्य दमित काम-कंठा का ही प्रतीक है। छायावादी काव्य में भी उन्हें यौन-संबंधों की कुंठाएँ शालीन रूप में अभिव्यक्त हुई दिखाई पड़ती हैं।

अज्ञेय, डॉ. नगेन्द्र और डॉ. देवराज की भी समीक्षाओं में मनोविश्लेषण की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। अज्ञेय के ‘त्रिशंक’, ‘आत्मनेपद’, डॉ नगेन्द्र के रस-सिद्धांत के विश्लेषण और पंत-काव्य के मूल्यांकन तथा डॉ. देवराज के साहित्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन’ नामक ग्रंथों में मनोविश्लेषणवादी समीक्षा-दृष्टि का व्यावहारिक एवं सैद्धांतिक रूप देखा जा सकता है।

ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक आलोचना

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी में ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक आलोचना का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ नामक पुस्तक में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया कि किसी ग्रंथकार का स्थान निर्धारित करने के लिए क्रमागत सामाजिक, सांस्कृतिक एवं जातीय सातत्य को देखना आवश्यक है। इसके लिए आवश्यक है कि आलोचक को अपनी जातीय परंपरा या सांस्कृतिक विरासत का बोध हो। आचार्य द्विवेदी ने अपनी इस धारणा के तहत ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’, हिंदी साहित्य का आदिकाल’ और ‘कबीर’ जैसे आलोचनात्मक ग्रंथों की रचना की। उन्होंने हिंदी साहित्य को ठीक से समझने के लिए। पूर्ववर्ती साहित्य-परम्पराओं (संस्कृत, पालि, प्राकृत एवं अपभ्रंश) की जानकारी को आवश्यक माना और उनके साथ हिंदी-साहित्य के घनिष्ठ संबंध को रेखांकित किया।

उन्होंने ‘मध्यकालीन बोध का स्वरूप’, ‘भारत के प्राचीन कला – विनोद’, ‘कालिदास की लालित्य योजना’ जैसी कृतियों के माध्यम से ऐतिहासिक-सांस्कृतिक आलोचना को परिपुष्ट किया। उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक-सांस्कृतिक आलोचना किसी कृति का मूल्यांकन इतिहास और संस्कृति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में करती है । ऐतिहासिक आलोचक के अनुसार मानव-समुदाय की चेतना देश-काल के अनुसार परिवर्तित होते हुए भी परंपरा से बँधी होती है। इसी तरह सांस्कृतिक आलोचना भी रचना में सांस्कृतिक तत्वों की छानबीन करती है और उसके सांस्कृतिक महत्व और अवदान को रेखांकित करती है। द्विवेदी जी ने अपने समीक्षात्मक ग्रंथों में ऐतिहासिक-सांस्कृतिक आलोचना का आदर्श रूप प्रस्तुत किया है।

ऐतिहासिक समीक्षा के उदाहरण पं. विश्वनाथ मिश्र और आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के ग्रंथों में मिलते हैं। आचार्य मिश्र ने ‘भूषण ग्रंथावली’ और परशुराम चतुर्वेदी ने ‘उत्तरी भारत की संत परंपरा’ में ऐतिहासिक विवेचना एवं मूल्यांकन को चरितार्थ किया है। इसके अलावा हिंदी के अनेक शोधकर्ताओं ने हिंदी साहित्य के ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययनों से ऐतिहासिक-सांस्कृतिक आलोचना को समृद्ध करने का प्रयास किया किंतु अधिकांश शोध-प्रबंधों में ऐतिहासिक-सांस्कृतिक तत्वों और तथ्यों का स्थूल विवेचन ही हुआ है, उन्हें रचना की आंतरिक संगति, बुनावट और अर्थवत्ता से जोड़कर बहुत कम देखा-परखा गया है।

शास्त्रीय समीक्षा

द्विवेदीयुग में हिंदी में शास्त्रीय अथवा सैद्धांतिक समीक्षा का विकास दो रूपों में हुआ। कुछ आलोचकों ने गीतिकालीन लक्षण-ग्रंथों की परम्परा में विवेचनापूर्ण लक्षण-ग्रंथों की रचना की और कुछ ने संस्कृत एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र के सिद्धांतों का समन्वय करके नए सिद्धांत-ग्रंथों का निर्माण किया। आचार्य शुक्ल के बाद नवीन लक्षण ग्रंथों की रचना तो नहीं हुई, किंतु भारतीय एवं पाश्चात्य सिद्धांत-ग्रंथों के अनुवाद और उनके आधार पर नए सिद्धांतों की स्थापना का कार्य अवश्य हुआ। ‘काव्यादर्श’ (दंडी), ‘काव्यालंकार सूत्र’ (वामन), ‘ध्वन्यालोक’ (आनंदवर्धन), ‘वक्रोक्ति जीवितम्’ (कुन्तक), ‘काव्य प्रकाश’ (मम्मट) आदि के साथ-साथ अरस्तू के पोयटिक्स’, लांजाइनस के ‘ऑन द सब्लाइम’ और होरेस के ‘आर्स पोएटिका’ के अनुवादों ने हिंदी की शास्त्रीय समीक्षा को समृद्ध किया और हिंदी आलोचकों को भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्य-दृष्टियों के समन्वय से नई साहित्य-दृष्टि के निर्माण में सहयोग प्रदान किया।

इस समन्वित दृष्टि से लिखे गए ग्रंथों में रामकुमार वर्मा का साहित्यशास्त्र’, भगीरथ मिश्र का काव्यशास्त्र’, सीताराम चतुर्वेदी का ‘समीक्षाशास्त्र’, नन्ददुलारे वाजपेयी का ‘नया साहित्य, नए प्रश्न’ आदि हैं। कतिपय ग्रंथों में पाश्चात्य काव्य-सिद्धांतों का भी स्वतंत्र रूप से विवेचन किया गया है जैसे ‘पाश्चात्य साहित्यालोचन के सिद्धांत’ (लीलाधर गुप्त), रोमांटिक साहित्यशास्त्र’ दिवराज उपाध्याय), ‘पाश्चात्य साहित्यालोचन और हिंदी पर उसका प्रभाव’ (रवीन्द्र सहाय वर्मा), ‘पाश्चात्य काव्यशास्त्र’ (डॉ. केशरीनारायण शुक्ल)। इन ग्रंथों के विषय में डॉ. रामचंद्र तिवारी का यह निष्कर्ष सही है कि “यह सब कुछ होने पर भी काव्यशास्त्रीय ग्रंथों का जैसा गंभीर, तात्विक, मर्मग्राही एवं संश्लिष्ट विवेचन आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया है, उसका अभाव बना हुआ है। उपर्युक्त ग्रंथों में मात्र सामग्री उपस्थित की गई है, तत्व का विवेचन नहीं किया गया है।”

अन्वेषण एवं अनुसंधानपरक आलोचना

आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के समय में इस आलोचना-पद्धति की शुरुआत हुई थी किंतु बाद में विश्वविद्यालयों में हिंदी विभागों की स्थापना और शोध-कार्यों के प्रश्रय के कारण विपुल संख्या में शोध-ग्रंथों का जो लेखन-प्रकाशन हुआ, उससे हिंदी में अन्वेषण एवं अनुसंधानपरक आलोचना काफी समृद्ध हुई। डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल के शोध प्रबंध निर्गुण सम्प्रदाय’ के बाद हिंदी काव्यशास्त्र का विकास (रमाशंकर शुक्ल रसाल), ‘तुलसी दर्शन’ (बलदेव प्रसाद मिश्र), ‘तुलसीदास’ (माताप्रसाद गुप्त), ‘आधुनिक हिंदी साहित्य’ (लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय), ‘आधुनिक हिंदी साहित्य का विकास’ (श्रीकृष्ण लाल), ‘प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन’ (जगन्नाथ प्रसाद शर्मा), ‘अष्टछाप और बल्लभ संप्रदाय’ (दीनदयाल गुप्त), ‘रामकथा : उत्पति और विकास’ (कामिल बुल्के) आदि सैंकड़ों शोध-ग्रंथों ने इस आलोचना पद्धति को समृद्ध किया है और अनुसंधान की नई-नई दिशाओं, प्रवृत्तियों और दृष्टियों को विकसित किया है। इसी से हिंदी की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, तुलनात्मक आदि विभिन्न आलोचना-पद्धतियाँ भी समृद्ध हुई हैं। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि शोध-प्रबंधों का जो विपुल भंडार तैयार हुआ है उसमें सभी उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ नहीं है।

वास्तविकता तो यह है कि अब दिनों दिन शोध प्रबंधों का स्तर गिरता जा रहा है। जहाँ यह आलोचना-पद्धति अध्ययन, अन्वेषण, मूल्यांकन आदि की दृष्टि से गंभीर, अधिक वस्तुनिष्ठ तथा प्रामाणिक है, वहीं अब इसका जो स्वरूप सामने आ रहा है, वह चिंता का विषय है। जैसे-तैसे शोध-प्रबंधों का लिखा जाना, परिचय-संपर्कों के आधार पर उनका स्वीकृत होना और डिग्री प्राप्त हो जाने के बाद उन प्रबंधों का अता-पता न रहना आदि बातें यह दर्शाती हैं कि हिंदी शोध की स्थिति उत्तरोत्तर बदतर होती जा रही है और उसमें से आलोचना और मूल्यांकन की गंभीरता गायब होती जा रही है।

प्रगतिवादी या मार्क्सवादी आलोचना

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद हिंदी आलोचकों का जब एक वर्ग छायावाद की प्रतिष्ठा में संलग्न था, उसी समय पंत जैसे छायावादी कवि युगान्त की घोषणा करके नए युग का आह्वान करने लगे थे और आकाश में उड़ते हुए छायावाद के कल्पना-विहग को दाने के लिए धरती पर आने की आवश्यकता का अनुभव होने लगा था। इसी समय (1936 ई.) प्रगतिशील लेखक संघ’ का प्रथम अधिवेशन हुआ जिसमें प्रेमचंद ने अपने अध्यक्षीय भाषण में साहित्य के नए उद्देश्यों और सौंदर्य की नई कसौटियों और दृष्टियों पर विस्तृत प्रकाश डाला। इसी के साथ हिंदी में प्रगतिशील लेखन और मूल्यांकन का दौर शुरू हुआ। प्रगतिशील आंदोलन का वैचारिक आधार मार्क्सवादी दर्शन रहा है जो वस्तुजगत को ही चरम सत्य मानता है और विकास की द्वंद्वात्मक प्रणाली में विश्वास करता है। मार्क्सवादी की मान्यता है कि मानव-चेतना का नियमन सामाजिक परिस्थितियाँ करती हैं और कला चेतना मानव चेतना का ही उदात्त रूप है, इसलिए प्रत्येक युग का कलाकार जाने-अनजाने उस वर्ग विशेष का ही प्रतिनिधत्व करता है जिसमें वह पला होता है।

यह दुनिया दो वर्गों में विभक्त हैं- एक शोषक वर्ग है, दूसरा शोषित । शोषक वर्ग का पूँजी पर एकाधिपत्य है और शोषित वर्ग अपने अथक श्रम के बावजूद हर तरह से दीन-हीन और विपन्न है। यही सर्वहारा वर्ग है। मार्क्सवाद मानता है कि पूँजीवाद को मिटाने और साम्यवाद की स्थापना का धर्म है कि वह अपनी रचना के माध्यम से सर्वहारा के स्वाभिमान को जागृत करे और उसे अपने हक की लड़ाई के लिए तैयार करे। इस धारणा के तहत जो रचनाएँ होती हैं उन्हें मार्क्सवादी या प्रगतिवादी साहित्य कहते हैं और रचना में उपर्युक्त विशेषताओं की खोजबीन करने वाली आलोचना को मार्क्सवादी या प्रगतिवादी आलोचना कहा जाता है।

मार्क्सवादी-विचार-दर्शन से अनुप्राणित होकर आरंभ में जिन आलोचकों ने मार्क्सवादी आलोचना का मार्ग प्रशस्त किया, उनमें शिवदान सिंह चौहान, प्रकाशचन्द्र गुप्त और रामविलास शर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं। शिवदान सिंह चौहान ने ‘प्रगतिवाद’, ‘साहित्य की परख’, ‘आलोचना के मान’, ‘साहित्य की समस्याएँ’ और ‘साहित्यानुशीलन’, प्रकाशचन्द्र गुप्त ने ‘हिंदी साहित्य’, ‘आधुनिक हिंदी साहित्य’ और ‘हिंदी साहित्य की जनवादी परंपरा’ तथा रामविलास शर्मा ने ‘प्रगति और परंपरा’, ‘प्रगतिशील साहित्य की समस्याएँ’, ‘आस्था और सौंदर्य’ जैसे आलोचनात्मक ग्रंथों से हिंदी की मार्क्सवादी समीक्षा का स्वरूप विकसित किया। इन आलोचकों ने रचना की सामाजिक उपयोगिता और महत्ता पर प्रकाश डाला और उन्हीं रचनाओं को श्रेष्ठ माना जिनमें जनकल्याण की भावना निहित रही और सामाजिक परिवर्तन में जिनकी क्रांतिकारी चेतना अहम् भूमिका निभाती है। रामविलास शर्मा ने आचार्य शुक्ल की लोकमंगल की भावना को. प्रगतिशील साहित्यालोचन के केंद्र में रखकर जिस तरह परम्परा का मूल्यांकन किया है, वह हिंदी की प्रगतिशील आलोचना का श्रेष्ठ उदाहरण है। आगे चलकर हिंदी में मार्क्सवादी समीक्षा का काफी विकास हुआ। इसकी विस्तृत चर्चा स्वात्रंत्र्योत्तर हिंदी आलोचना के अंतर्गत की जाएगी।

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी आलोचना

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद हिंदी के सर्जनात्मक साहित्य में जिस तरह का परिवर्तन उपस्थित हुआ, उसके मूल्यांकन के लिए मान-मूल्यों की भी आवश्यकता पड़ी इसके फलस्वरूप स्वातंत्र्योत्तर हिंदी-आलोचना का अनेकायामी विकास हुआ। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद पहले से चली आती हई मार्क्सवादी आलोचना का अधिक विकास हुआ। रामविलास शर्मा का अधिकांश आलोचना-साहित्य स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद ही प्रकाशित हुआ। उन्होंने आलोचक प्रवर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, उपन्यास सम्राट प्रेमचंद और क्रांतिकारी कवि निराला की विस्तृत समीक्षा लिखकर जहाँ अपने मार्क्सवादी एवं प्रगतिवादी आलोचना-कर्म का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया, वहीं मार्क्सवादी आलोचना को हिंदी आलोचना के केंद्र में भी प्रतिष्ठित कर दिया। ‘

आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’, प्रमचंद और उनका युग’ तथा ‘निराला की साहित्यसाधना’ उनकी वे श्रेष्ठ आलोचना-पुस्तकें हैं जिनमें उन्होंने मार्क्सवादी दृष्टि से साहित्य की नई व्याख्या प्रस्तुत की है। यही नहीं अपनी ‘आस्था और सौंदर्य’ नामक पुस्तक में यह भी प्रमाणित किया है कि वे जड़ मार्क्सवादी समीक्षक नहीं हैं। उन्होंने ‘सौंदर्य की वस्तुगत सत्ता और सामाजिक विकास’ नामक निबंध में सौंदर्य की वस्तुगत व्याख्या करते हुए भी सौंदर्य को व्यक्ति या विषय में मानने के बजाय संयुक्त रूप से दोनों में स्वीकार किया है। उन्होंने यह भी घोषणा की है कि साहित्य शुद्ध विचारधारा का रूप नहीं है। उन्होंने ‘निराला की साहित्य-साधना, भाग-2’ में निराला की विचारधारा के साथ-साथ उनकी कलात्मक सजगता और उत्कृष्टता की भी व्याख्या की है। इस तरह रामविलास शर्मा ने मार्क्सवादी आलोचना की निरी विचारधारात्मकता को कलात्मक विश्लेषण से जोड़कर उसे पूर्णता प्रदान करने की सार्थक कोशिश की और रचना के वस्तु और रूप को समान महत्व प्रदान किया है।

रामविलास शर्मा के साथ स्वातंत्र्योत्तर काल की प्रगतिशील हिंदी आलोचना या मार्क्सवादी हिंदी आलोचना को सशक्त बनाने वालों में गजानन माधव मुक्तिबोध, नामवर सिंह, रांगेय राघव, विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, शिवकुमार मिश्र के नाम उल्लेखनीय हैं। मुक्तिबोध ने ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’, ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’, ‘नये साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ जैसे ग्रंथों से हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना को एक ऐसी ऊँचाई प्रदान की है जिसको छू पाना परवर्ती आलोचना के लिए मुश्किल हो रहा है। मुक्तिबोध ने छायावादी काव्य के प्रति सकारात्मक रुख अपनाया और उसकी प्रगतिशील भूमिका की सराहना भी की।

उन्होंने एक सुलझे हुए मार्क्सवादी के रूप में रचना की सापेक्ष स्वायत्तता स्वीकार की और मार्क्सवादी दृष्टि से ‘कामायनी’ की जो समीक्षा की, वह कई दृष्टियों से विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण है। उन्होंने कामायनीवादियों की गलतफहमियों को रेखांकित किया और अपनी आलोचना द्वारा उन्हें दूर करने का कार्य भी किया। उन्होंने कामायनी को द्विअर्थक कृति न मानकर एक फैंटेसी माना और यह स्थापित किया कि कामायनी इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि उसमें मनु को देश-कालातीत, शाश्वत मानव का रूप दिया गया है बल्कि उसकी महत्ता इसमें है कि उसमें पूँजीवादी हासगत सभ्यता के भीतर व्यक्ति के भीतरी विकेंद्रीकरण का प्रश्न बड़े जोर से उठाया गया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इड़ा बुद्धिवाद की प्रतीक न होकर पूँजीवाद की प्रतिनिधि है।

तात्पर्य यह है कि कामायनी: एक पुनर्विचार’ मुक्तिबोध की मार्क्सवादी समीक्षा-दृष्टि का श्रेष्ठ उदाहरण है। मुक्तिबोध ने अपना आलोचना-कर्म व्यावहारिक आलोचना से अवश्य शुरू किया, किंतु उत्तरोत्तर वे कला-कृति की रचना-प्रक्रिया और शिल्प-संरचना, के विवेचन और विश्लेषण में तल्लीन होते गए और ‘एक साहित्यिक की डायरी’ एवं ‘नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ जैसी पुस्तकों की रचना करके मार्क्सवादी जीवन-दृष्टि और कला-सिद्धांतों की ऐसी रूपरेखा प्रस्तुत कर दी, जो फिलहाल हिंदी आलोचना में एक मानक बनी हुई है।

मुक्तिबोध के साथ ही नामवर सिंह ने भी हिंदी की मार्क्सवादी समीक्षा को काफी सुदृढ़ किया है। उनकी महत्वपूर्ण आलोचना-पुस्तकों में छायावाद’, ‘कविता के नये प्रतिमान’, ‘दूसरी परम्परा की खोज’, और ‘वाद-विवाद संवाद’, विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन पुस्तकों के आधार पर नामवर सिंह की मार्क्सवादी आलोचना-दृष्टि और उनकी व्यावहारिक समीक्षा का अच्छा परिचय प्राप्त किया जा सकता है। नामवर सिंह एक प्रखर समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं। वे रसवादी समीक्षक डॉ. नगेन्द्र, मार्क्सवादी समीक्षक रामविलास शर्मा और कलावादी समीक्षक अशोक वाजपेयी से बराबर भिड़ते रहे हैं और इस भिड़न्त से ही उन्होंने अपनी आलोचना में वह धार पैदा की है जिसका उल्लेख लोग कभी-कभी ‘नामवरी तेवर’ के रूप में करते हैं।

नामवर सिंह ने ‘छायावाद’ पुस्तक में छायावादी काव्यधारा की जैसी वस्तुनिष्ठ आलोचना की है वह छायावाद संबंधी समूची आलोचना में विशिष्ट और महत्वपूर्ण है। इसमें न तो छायावादी कविता की महत्ता को दिग्दर्शित करने का अतिरिक्त उत्साह है, न खोज-खोजकर खराबियाँ निकालने की हठधर्मिता। छायावादी कविता के भाव और शिल्प की जैसी विवेचना इस पुस्तक में हुई है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। इस पुस्तक ने आचार्य शुक्त के छायावाद-संबंधी मूल्यांकन के साथ उठे हुए विरोध-ज्वार को एकदम ठंडा कर दिया है। किंतु ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में नामवर सिंह ने आचार्य राचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को जिस तरह आमने-सामने करके अपनी प्रखर प्रगतिशीलता का परिचय दिया है उससे कई तरह के नए विवाद पैदा हो गए। दरअसल विवाद करके संवाद कायम करना नामवर सिंह की विशिष्ट शैली है। इस शैली के वे अकेले उस्ताद हैं।

‘वाद-विवाद संवाद’ पुस्तक उनकी इस उस्तादी का श्रेष्ठ उदाहरण है। इस पुस्तक में नामवर सिंह ने ‘जनतंत्र और समालोचना’, आलोचना की स्वायत्तता’, ‘प्रासंगिकता पर पुनश्च : प्रलय की छाया’, ‘आलोचना की संस्कृति और संस्कृति की आलोचना’ जैसे निबंधों से हिंदी। आलोचना को नए सरोकारों से जोड़ते हुए आने वाले खतरों से जिस तरह आगाह किया है, वह उनकी प्रखर आलोचना-दृष्टि और सचेत आलोचना-कर्म का उत्कृष्ट उदाहरण है। वाद-विवाद नामवर सिंह की प्रकृति में है और वे यह मानते हैं कि “वादे-वादे जायते तत्वबोधः ।”

नामवर सिंह डॉ. नगेन्द्र, विजयदेव नारायण साही, अशोक वाजपेयी, रामविलास शर्मा और राजेन्द्र यादव से बराबर वाद-विवाद करते रहे हैं। इस विवाद से हिंदी आलोचना को तेवर भी मिला है और दृष्टि भी। मार्क्सवादी आलोचना-परंपरा के अन्य आलोचकों में रांगेय राधव (प्रगतिशील साहित्य के मापदंड, काव्य, यथार्थ और प्रगति, काव्य के मूल विवेच्य) का नाम विशेष उल्लेखनीय है। ये रूप-तत्व को बहुत महत्व नहीं देते हैं। इन्होंने द्वन्द्वात्मक भौकिकवाद के आलोक में भारतीय काव्यशास्त्र का भी अध्ययन किया है। ये प्रतिबद्ध मार्क्सवादी समीक्षक हैं।

स्वातंत्र्ययोत्तर काल में मार्क्सवादी आलोचना के साथ-साथ ‘नयी समीक्षा’ का भी विकास हुआ। छायावादी काव्यचेतना की प्रतिक्रिया में उठी हुई प्रगतिवादी रचना और आलोचना उत्तरोत्तर विचारधारा की गिरफ्त में आती गयी और उस पर कम्युनिस्ट राजनीति का रंग भी गहराता गया। 1942-43 ई. तक यह अनुभव किया जाने लगा था कि ‘छायावाद’ और ‘प्रगतिवाद’ दोनों की सीमाओं से मुक्त होना जरूरी है। इसी समय 1943 ई. में अज्ञेय के सम्पादन में ‘तारसप्तक’ प्रकाशित हुआ।

जिसमें कवियों को राहों का अन्वेषी’ कहा गया और जीवन-जगत के नए-नए क्षेत्रों को उद्घाटित करना तथा उन्हें नए भाषा-संकेतों, नए बिम्बों, नए प्रतीकों और नए उपमानों के माध्यम से नए ढंग से प्रस्तुत करने को कवि-कर्म का उद्देश्य माना गया। प्रयोगशीलता इस काव्यधारा की मूल प्रेरणा थी, इसलिए इसे प्रयोगवादी काव्यधारा कहा गया, हालाँकि बाद में अज्ञेय ने कहा कि हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही गलत “है जितना कवितावादी कहना। इस सब के बावजूद प्रयोगवादी काव्यधारा का विकास हुआ। 1950 ई. के बाद नए भाव-बोध (आधुनिक बोध) वाली कविताओं को ‘नयी कविता’ की संज्ञा मिली।

अज्ञेय ने उपने ‘तारसप्तक’ के वक्तव्य में ‘जीवन की जटिलता’, ‘स्थिति-परिवर्तन की असाधारण तीव्र गति’, ‘कवि की उलझी हुई संवेदना’, साधारणीकरण और सम्प्रेषण की समस्या, जैसी अनेक नई बातों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया और नए भावबोध से लिखी गई कविताओं के लिए नए आलोचना-प्रतिमानों की आवश्यकता पर बल दिया। इसी समय अज्ञेय ने ‘तारसप्तक’ में लिखा – “नयी कविता का अपने पाठक और स्वयं के प्रति उत्तरदायित्व बढ़ गया है। यह मानकर कि शास्त्रीय आलोचकों से उसका सहानुभूतिपूर्ण तो क्या पूर्वाग्रहरहित अध्ययन भी नहीं मिला है, यह आवश्यक हो गया है कि स्वयं आलोचक तटस्थ और निर्मम भाव से उसका परीक्षण करें। दूसरे शब्दों में परिस्थिति की माँग यह है कि कविगण स्वयं एक दूसरे के आलोचक बनकर सामने आएँ।” कवियों को आलोचना-कर्म में प्रवृत्त करने का यह आह्वान नया नहीं था। छायावादी कवियों ने भी यह कार्य किया था।

यदि छायावादी कवियों ने अपनी काव्य-संबंधी मान्यताओं और धारणाओं को अच्छी तरह स्पष्ट न किया होता तो शायद उस काव्यधारा को सहानुभूतिशील आलोचकों से भी यथोचित न्याय न मिल पाता। अज्ञेय इस तथ्य से परिचित थे। उन्हें यह भी पता था कि नए भावबोध की रचनाओं को समझने में पांरपरिक दृष्टि के आलोचक से चूक हो सकती है। इसलिए उन्होंने अपनी काव्य पुस्तकों की भूमिकाओं तथा ‘भवन्ती’, ‘त्रिशंकु’, ‘आत्मनेपद’ आदि वैचारिक गद्य-कृतियों में अपनी काव्य-दृष्टि का स्पष्ट विवेचन किया और अपनी कविता के साथ ही अन्य समकालीन कवियों की भी समीक्षाएँ लिखीं। उनकी विचारधारा पर टी. एस. इलिएट के ‘निर्वैयक्तिक’ सिद्धांत की गहरी छाप है। वे कविता को अहं के विलयन का साधन मानते हैं । ‘अनुभव की अद्वितीयता’, ‘वरण की स्वतंत्रता’, ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’, ‘संप्रेषणीयता’, ‘स्वाधीन चेतना’, ‘परंपरा और आधुनिकता’, ‘सर्जनात्मक क्षमता’, ‘जिजीविषा’, ‘रचना की स्वायत्तता’, ‘प्रयोगशीलता’, ‘आत्माभिव्यक्ति’, ‘व्यक्तित्व की अद्वितीयता’, आदि पर अज्ञेय ने गंभीरतापूर्वक विचार किया है और अपनी साहित्यिक समालोचना में इनको समाविष्ट किया है। इससे हिंदी को नए भावबोध को व्यक्त करने वाली नयी शब्दावली भी मिली है। अज्ञेय की समीक्षा-दृष्टि पर अस्तित्ववाद, मनोविश्लेषणवाद और अंग्रेजी की नयी समीक्षा का प्रभाव है।

1954 ई. में ‘नयी कविता’ पत्रिका के साथ ही ‘नयी कविता’ की पूर्ण प्रतिष्ठा हुई। इसी के साथ हिंदी में ‘नयी समीक्षा का स्वर मुखरित हुआ। 1953 ई. में ही विजयदेवनारायण साही नयी कविता को कुत्सित समाजशास्त्रीय व्याख्या से मुक्त करने और नए लेखकों को एक ऐसी भावभूमि पर लाने का आह्वान कर चुके थे जहाँ लेखक अपनी वैयक्तिकता को सुरक्षित रखते हुए सामाजिकता को आत्मसात कर सकते थे। स्पष्ट है कि इस समय तक हिंदी कविता की दो धाराएँ हो गई थीं – एक धारा आधुनिकतावादियों की थी और दूसरी उन यथार्थवादियों की जो मार्क्सवाद को केंद्र में रखकर दलितों-शोषितों को सभी प्रकार के शोषणों से मुक्ति दिलाने में ही साहित्य-कर्म की सार्थकता मानते थे। कविता की इन दो धाराओं के अनुसार हिंदी समीक्षा की भी दो धाराएँ स्पष्ट रूप से प्रचलित हुई – एक आधुनिकतावादी धारा – जिसे नयी समीक्षा के रूप में जाना-पहचाना गया, दूसरी मार्क्सवादी समीक्षा जिसकी पंरपरा पहले से ही चली आ रही थी। इस समय की नयी समीक्षा के केंद्र में थे अज्ञेय और मार्क्सवादी समीक्षा के केन्द्र में मुक्तिबोध । मार्क्सवादी समीक्षा का परिचय हम पहले दे चुके हैं।

यहाँ थोड़ा रुककर आंग्ल-अमरीकी ‘नयी समीक्षा’ को समझ लेना जरूरी है। टी. एस. इलियट, आई ए. रिचर्ड्स, जॉन क्रो रेन्सम, एलेन टेट, राबर्ट पेन वारेन, आर. पी. ब्लेकमर, क्लीन्थ ब्रुक्स आदि ने ‘नयी समीक्षा’ का जो शास्त्र और दर्शन तैयार किया उसकी मुख्य बातें इस प्रकार हैं –

  1. रचना एक पूर्ण एवं स्वायत्त भाषिक संरचना है। इसलिए भाषा के सर्जनात्मक तत्वों का विश्लेषण ही समीक्षा का मुख्य कार्य है। 
  2. ऐतिहासिक, सामाजशास्त्रीय, दार्शनिक एवं विश्लेषणवादी समीक्षाएँ अनावश्यक एवं अप्रसांगिक हैं। क्योंकि ये सहित्येतर प्रतिमान हैं।
  3. रचना का मूल्यांकन रचना के रूप में ही करना अभीष्ट है।
  4. रचना की आंतरिक संगति और संश्लिष्ट विधान के विवेचन-विश्लेषण के लिए उसका गहन पाठ आवश्यक है।

उल्लेखनीय है कि कोलम्बिया विश्वविद्यालय के तुलनात्मक साहित्य के प्रोफेसर रिपन गार्न ने 1911 ई. में ‘नयी समीक्षा’ (New crticism) नाम से एक शोध-पत्र लिखकर (जो 1913 ई. में प्रकाशित हुआ) क्लैसिकल, रोमैंटिक, समाजशास्त्रीय, जीवनमूलक आदि समीक्षा-पद्धतियों को अस्वीकार करते हुए यह स्थापित किया था कि समीक्षा वस्तुत: एक वैयक्तिक प्रतिक्रिया (subjective reaction) है जो जीवन्त अंतर्दृष्टि (Vivid intution) पर आधृत होती है। बाद में इस समीक्षा-पद्धति की अन्य विशेषताओं को उद्घाटित एवं स्थापित किया। रिचर्ड्स और इलियट ने यह माना कि कविता की व्याख्या कविता के रूप में ही होनी चाहिए, इतर कारणों से उसे महत्वपूर्ण मानना अन्याय है। क्लीन्थ ब्रुक्स ने भी इसी तथ्य पर बल देते हुए लिखा – ‘यह बात एकदम सही है कि आधुनिक आलोचकों की वृत्ति फिर से कृति के पाठ पर ध्यान केंद्रित करने की ओर गई है अर्थात् कविता को कविता की तरह देखना न कि उसे कवि की जीवनगाथा के परिशिष्ट के रूप में अथवा उसके अध्ययन के प्रतिबिंब के रूप में या विचारों के इतिहास के उदाहरण के रूप में।

इस बात पर बल देने का अर्थ स्वभावत: कृति के घनिष्ठ पाठ पर जोर देना होता है। चूंकि कविताएँ शब्दों में लिखी जाती हैं, इसलिए सावधानी से भाषा पर ही ध्यान देने पर ही इसका (समीक्षा का) बल रहता है।’ क्लीन्थ ब्रुक्स ने भाषागत वैशिष्ट्य को विसंगति (पैराडाक्स) और विडम्बना (आइरनी) के रूप में, एलेन टेट ने तनाव (टेन्शन) के रूप में, ब्लैकमर ने टेक्स्चर और स्ट्रक्चर के द्वंद्व के रूप में उत्पन्न जेस्चर (भंगिमा) के रूप में रेखांकित किया।

हिंदी के नए समीक्षकों पर भी उपर्युक्त बातों का प्रभाव पड़ा। हिंदी के आलोचकों ने भी जटिल भावबोध और तदनुकूल जटिल कलात्मक उपादानों – शब्द-संकेतों, बिंबों, प्रतीकों, उपमानों आदि – से युक्त संश्लिष्ट काव्यभाषा वाली नयी कविता की समीक्षा के लिए एक सर्वथा भिन्न समीक्षा-दृष्टि एवं शैली की आवश्यकता का अनुभव किया जिसके फलस्वरूप हिंदी में “नयी समीक्षा’ का प्रसार हुआ। आधुनिक भावबोध को केंद्र में रखकर समीक्षा-कर्म में प्रवृत्त होने वाले समीक्षकों में अज्ञेय, गिरिजाकुमार माथुर, रघुवंश, लक्ष्मीकांत वर्मा, विजयदेवनारायण साही, जगदीश गुप्त, मलयज, रामस्वरूप चतुर्वेदी, अशोक वाजपेयी, रमेशचन्द्र शाह आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।

इन समीक्षकों ने युगीन परिवेश में व्याप्त विसंगति’, विडम्बना’, ‘असहायता’, ‘निरुद्देश्यता’, ‘एकाकीपन’, ‘अजनबीपन’, ‘ऊब’, ‘संत्रास’, ‘कुंठा’ आदि का विश्लेषण करते हुए ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ और ‘व्यक्तित्व की अद्वितीयता’ को रेखांकित किया और ‘अस्मिता के संकट’ से गुजरते हुए मनुष्य की मुक्ति की आवश्यकता पर बल दिया। इसके साथ ही रचना को भाषिक सर्जना मानकर काव्य-भाषा के विश्लेषण को समीक्षा का मुख्य विषय बनाया।

नयी समीक्षा की विशेषताओं को उद्घाटित एवं स्थापित करने वाली तथा इस दृष्टि से नयी कविता और कवियों की समीक्षा करने वाली रचनाओं में ‘भवंती’, ‘आत्मनेपद’, ‘आलवाल’, ‘अद्यतन’ (अज्ञेय), ‘नयी कविता के प्रतिमान’ (लक्ष्मीकांत वर्मा), हिंदी नवलेखन’, ‘काव्यधारा के तीन निबंध’, ‘भाषा और संवेदना’, ‘सर्जन और भाषिक संरचना’,(रामस्वरूप चतुर्वेदी), ‘मानवमूल्य और साहित्य’ (धर्मवीर भारती), ‘साहित्य का नया परिप्रेक्ष्य’ (रघुवंश), नयी कविता : सीमाएँ और संभावनाएँ’ (गिरिजाकुमार माथुर), ‘नयी कविता : स्वरूप और समस्याएँ’ (जगदीश गुप्त), ‘कविता से साक्षात्कार’, ‘संवाद और एकालाप’ (मलयज), ‘समानान्तर’, ‘वागर्थ’, ‘सबद निरंतर’,(रमेशचन्द्र शाह), ‘फिलहाल’ (अशोक वाजपेयी) आदि उल्लेखनीय हैं।

यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि हिंदी के नए समीक्षकों ने काव्य के संदर्भ में भाषा के महत्व को स्वीकार किया, उसके सर्जनात्मक तत्वों का विश्लेषण और मूल्यांकन किया, सर्जनात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट रचना की अद्वितीयता और महत्ता को सराहा, संवेदना और शिल्प की अन्विति को रेखांकित किया, वस्तु और रूप के संबंधों का विश्लेषण किया किंतु अमरीकी या पश्चिम के नए समीक्षकों की तरह रचना को उसके ऐतिहासिक संदर्भा से पूरी तरह काटकर नहीं देखा। इतना अवश्य है कि कई समीक्षकों ने कविता के सर्जनात्मक तत्वों के विश्लेषण, उनकी संश्लिष्टता और अनुभव की अद्वितीयता आदि पर विशेष बल देते हुए अपने कलावादी रुझान को अधिक मुखर रूप में व्यक्त किया।

यद्यपि नयी समीक्षा का ज्वार बड़ी जल्दी उतर गया, किंतु यह भी एक तथ्य है कि इसकी वेगवती धारा थोड़ी देर के लिए ही सही, मार्क्सवादी समीक्षकों को भी अपने प्रवाह में बहा ले गई। मुक्तिबोध के ‘कामायनी: एक पुनर्विचार’, नामवर सिंह के ‘कविता के नये प्रतिमान’ और रामविलास शर्मा के . निराला संबंधी मूल्यांकन में इसे देखा जा सकता है। ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ पुस्तक में मुक्तिबोध भी यह मानते हैं कि रचना का कलात्मक सौंदर्य ही वह सिंहद्वार है जिससे रचना में अंत:प्रवेश किया जा । सकता है, नामवर सिंह ‘कविता के नए प्रतिमान’ में काव्यधारा की सृजनशीलता, काव्य-बिंब, काव्यानुभूति की जटिलता और तनाव, विसंगति और विडम्बना का विस्तृत विश्लेषण करते हैं जिसको लक्ष्य करके नेमिचंद्र जैन ने लिखा है – “नामवर सिंह का विश्लेषण उस प्रवृत्ति को समर्थन देता जान पड़ता है जिसका मूल्यों से, किसी सामाजिक सार्थकता से कोई संबंध नहीं।’ रामविलास शर्मा ने निराला की काव्यभाषा के सर्जनात्मक तत्वों – प्रतीक योजना, बिंब योजना, अनुप्रास-प्रेम, शब्द योजना, ध्वनि प्रवाह आदि का जो विश्लेषण किया है वह भी समीक्षा के प्रभाव और दबाव का ही परिणाम है। मार्क्सवादी कवि शमशेर की भी समीक्षाएँ और कविताएँ उनके कलावादी रुझान का पता देती हैं। तात्पर्य यह है कि नयी समीक्षा की रूपवादी प्रवृत्तियों ने वस्तुवादी मार्क्सवादियों को यह मानने के लिए मजबूर किया कि रचना का सौंदर्य वस्तु और रूप के सम्मिलित सौंदर्य में ही निहित है इसीलिए इन आलोचकों को भी रचना की सापेक्ष स्वायत्तता को स्वीकार करना पड़ा।

नयी समीक्षा का संबंध विशेष रूप से कविता से ही रहा है। कहना चाहिए कि यह कविता-केंद्रित ऐसी आलोचना-पद्धति थी जिसने कविता की स्वायत्तता और सर्जनात्मकता पर अधिक बल दिया। उपन्यास, कहानी, नाटक आदि गद्य-विधाओं के मूल्यांकन के लिए इस पद्धति का उपयोग बहुत कम हुआ।

नयी समीक्षा की संरचना-केंद्रित आलोचना-दृष्टि को और अधिक सूक्ष्म और सघन करने वाली एक और समीक्षा-पद्धति का विकास हुआ जिसे शैली विज्ञान कहा गया। यह भाषिक विश्लेषण की वह वैज्ञानिक पद्धति है जिसमें भाषा के सभी उपादानों – शब्द, पद, वाक्य, ध्वनि, छंद, – को अध्ययन का विषय बनाया जाता है। हिंदी में इस समीक्षा-मद्धति के पुरस्कर्ता हैं – रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, जिन्होंने शैली विज्ञान का सिद्धांत भी तैयार किया और तदनकल व्यावहारिक शैली वैज्ञानिक समीक्षा भी लिखी। पांडेय शशिभूषण शीतांशु और सुरेश कुमार ने भी इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है। पं. विद्यानिवास मिश्र ने शैलीविज्ञान की जगह रीति विज्ञान को प्रमुखता प्रदान की, किंतु उनके तर्को को अधिक बल नहीं मिला।

रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने शैली वैज्ञानिक समीक्षा का जो व्यावहारिक रूप केदारनाथ सिंह की कविता ‘इस अनागत का करें क्या’ की समीक्षा करके प्रस्तुत किया उसे डॉ. बच्चन सिंह ने कविता की शव-परीक्षा कहकर शैली-वैज्ञानिक समीक्षा की सीमाओं को भली-भाँति उजागर कर दिया। उन्होंने उस समीक्षा की समीक्षा करते हए लिखा – “स्पष्ट है कि शैली वैज्ञानिक प्रणाली के आधार पर वाक्यों, उपवाक्यों, संज्ञा, सर्वनाम, पद, पद-बंध आदि के माध्यम से कविता की जो परीक्षा की गई है, वह उसकी शव-परीक्षा बन जाती है। इसमें जिस व्याकरण की सहायता ली गई है वह कविता को छोटे-छोटे खंडों में काट तो देता है पर उसे संश्लेषित नहीं कर पाता। इस व्यवच्छेदन-व्यापार से मूल्यांकन का संबंध निश्शेष हो जाता है।” दरअसल शैली वैज्ञानिक समीक्षा एक प्रकार का भाषिक विश्लेषण है जो काव्य भाषा को तार-तार करके उसके प्रयोग वैशिष्ट्य और कलात्मक बारीकी को तो प्रस्तुत कर देता है। किंतु न तो काव्यमर्म को उद्घाटित कर पाता है, न ही रचना की मूल्यवत्ता को ठीक से रेखांकित कर पाता है। यह एक तरह से नींबू-निचोड़ समीक्षा है जो रस को बाहर फेंक देती है और गूदे का विश्लेषण करके उसका सौंदर्य देखती हैं।

यद्यपि रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव यह मानते रहे हैं कि साहित्यिक और सांस्कृतिक समग्रता की पृष्ठभूमि में रखकर कृति को एक संश्लिष्ट घटक के रूप में देखना चाहिए’ किंतु न तो वे इस दृष्टि का व्यावहारिक विकास कर सके, न अन्य शैली वैज्ञानिक समीक्षक इस रास्ते पर दूर तक चल सके। फलत: जल्द ही यह आलोचना-पद्धति स्थगित हो गई। कुछ दिनों के लिए शोधकर्ताओं के लिए इसने नए विषय-क्षेत्र का भी काम किया अवश्य, किंतु जो इस तरह के शोध-प्रबंध तैयार हुए वे शैली वैज्ञानिक अध्ययन के स्थूल उदाहरण ही सिद्ध हुए।

शैली विज्ञान के साथ ही ‘संरचनावाद’ का स्वर भी हिंदी समीक्षा में सुनाई पड़ा। इनका मूल स्रोत जेनेवा और पेरिस के भाषा-विज्ञान के प्रोफेसर फर्दिनाद डि सस्यूर का वह भाषा सिद्धांत है जिसके अनुसार भाषा के दो रूप माने गए हैं – एक अंतर्वैयक्तिक, दूसरा वैयक्तिक। उसके इस सिद्धांत के सहारे रोलाँ वार्थ ने ‘संरचनावाद’ को परिपुष्ट किया। ‘संरचनावाद’ रचना की संश्लिष्टता में विश्वास रखता है। इसकी मान्यता है कि रचना ध्वनि, बिंब, प्रतीक आदि का एक गुंफ है। रचना पर्त-दर-पर्त इतनी जटिल होती है कि उसके अवयवों को विश्लेषित करके ही उसको समझा जा सकता है। संरचनावाद के लिए भी रचना शाब्दिक या भाषिक संरचना है। इसका भी झुकाव रूपवाद की ओर है। हिंदी में भी संरचनावाद का नाम सुनाई पड़ा है, कुछ चर्चाएँ हुई हैं। लेकिन इस सिद्धांत के तहत समीक्षा-कार्य नहीं हुआ है।

‘नयी समीक्षा’ ‘शैली विज्ञान’ और संरचनावाद’ के साथ ही हिंदी में सर्जनात्मक आलोचना की भी काफी चर्चा हुई है। समीक्षक के कार्य की सृजनशीलता की चर्चा करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है “आलोचक या समीक्षक का कार्य, वस्तुत: कलाकार या लेखक से भी अधिक तन्मयतापूर्ण और सृजनशील होता है, उसे एक साथ जीवन के वास्तविक अनुभवों के समुद्र में डूबना पड़ता है और उससे उबरना भी पड़ता है कि जिससे लहरों का पानी उसकी आँखों में न घुस पड़े। उनकी दृष्टि में ‘जीवन-सत्यों पर आधारित साहित्य-समीक्षा स्वयं एक सृजनशील कार्य है और वह न केवल लेखक को वरन् पाठक को भी जीवन-सत्यों के अपने उद्घाटनों द्वारा सहायता करती जाती है।’ इसीलिए मुक्तिबोध ‘आलोचना को रचना की पुनर्सष्टि’ मानते हैं। नामवर सिंह भी लगभग इसी तरह की बातें कहते हैं – “आलोचक जब आलोच्य कृति के संपूर्ण कथ्य को कथन-मात्र के रूप में स्वीकार करके आलोचना-कर्म में प्रवृत्त होता है तो उस पर कथ्य-कथन संबंध में प्रवेश करने की कठिन जिम्मेदारी आ जाती है। तादात्म्य के रूप में प्रस्तुत कथ्य-कथन के बीच वह एक तरह से सेंध लगाता है और अंतर्निहित तनाव की तलाश करता है।

आलोचक की यह तलाश ही उसकी सृजनशीलता है।” मुक्तिबोध यह मानते हैं कि रचना में इस प्रकार का सृजनात्मक अंत:प्रवेश उसके कलात्मक सौंदर्य के माध्यम से ही किया जा सकता है – “कलात्मक सौंदर्य तो वह सिंहद्वार है जिसमें से गुजरकर ही कृति के मर्म क्षेत्र में विचरण किया जा सकता है, अन्यथा नहीं।” अभिप्राय यह कि आलोचना भी एक रचना है और उसकी यह रचनात्मकता आलोच्य कृति में उसकी अभिव्यक्ति के उपकरणों के माध्यम से उसमें अंत: प्रवेश करके ही उपलब्ध की जा सकती है।

मुक्तिबोध का कहना है कि जो आलोचक यह कार्य नहीं कर सकता है, उसकी ‘साहित्यिक समीक्षा कुतिया के उस बच्चे के समान है जिसकी आँखे खुली नहीं हैं।’ यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि दोनों तरह के समीक्षकों – मार्क्सवादी और रूपवादी ने सर्जनात्मक आलोचना को महत्व प्रदान किया है किंतु दोनों की तत्संबंधी अवधारणा में अंतर है। मार्क्सवादी जहाँ रचना में अंत:प्रवेश करके रचना-मर्म के उद्घाटन में आलोचना की सर्जनात्मकता की बात करता है वहाँ रूपवादी रचना के सर्जनात्मक तत्वों के विश्लेषण को सर्जनात्मक अलोचना का कार्य मानता है। इस दृष्टि-भेद को ध्यान में न रखने के कारण हिंदी में सर्जनात्मक आलोचना का स्वस्थ एवं समुचित विकास नहीं हो सका। रूपवादी समीक्षक रचना का भाषिक विश्लेषण करते हुए शैली विज्ञान की दिशा में चले गए और मार्क्सवादी उगमें अंत:प्रवेश करके अपनी विचारधारा का मर्म पाकर प्रसन्न हुए और यदि वह नहीं मिला तो खिन्न और क्रुद्ध हो गए।

इसमें कोई संदेह नहीं कि सर्जनात्मक आलोचना उच्च श्रेणी की आलोचना है और वह आलोचक को भी रचनाकार की श्रेणी में रख देती है तथा उसकी आलोचना को रचनात्मक समृद्धि प्रदान करती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना में भी सर्जनात्मकता के तत्व प्रभूत मात्रा में विद्यमान हैं। मुक्तिबोध की पुस्तक ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ सर्जनात्मक आलोचना का श्रेष्ठ उदाहरण है। अशोक वाजपेयी और मलयज की आलोचनाएँ भी सर्जनात्मक आलोचना की विशेषताओं से परिपूर्ण हैं।

दरअसल आलोचना का कार्य साहित्य का निर्णय अथवा व्याख्या करना नहीं है। वह स्वयं भी रचनात्मक हो सकती है यदि वह अपने में आलोच्य कृति की पुनर्रचना कर ले। यह पुनर्रचना आलोचक की रचनात्मक क्षमता पर निर्भर करती है। अत: कहा जा सकता है कि रचनात्मक प्रतिभा से संपन्न आलोचक ही सर्जनात्मक समीक्षा लिख सकता है, किंतु इसका सरलीकरण इस रूप में नहीं हो सकता कि रचनाकार ही श्रेष्ठ सर्जनात्मक आलोचक हो सकता है बावजूद इस सत्य के कि अनेक रचनाकारों ने उत्कृष्ट आलोचनाएँ भी लिखी हैं । ‘प्रसाद’, ‘पंत’, ‘निराला’, ‘अज्ञेय’, मुक्तिबोध’, ‘विजयदेव नारायण साही’, और ‘शमशेर’ इस बात के उदाहरण हैं कि उनकी कविताएँ जितनी अच्छी हैं, उतनी ही अच्छी और संभावनापूर्ण उनकी समीक्षाएँ भी हैं। जिस तरह संभावनापूर्ण होकर कोई रचना अत्यधिक रचनात्मक प्रमाणित होती है, उसी तरह संभावनापूर्ण होकर कोई आलोचना भी अपनी रचनात्मकता को प्रत्यक्ष करती है।

बँधे-बँधाए प्रतिमानों से रचना की व्याख्या करने या उससे प्रतिमानों को निकालने की कोशिश आलोचना को श्रेष्ठ नहीं बनाती बल्कि उसके रचनात्मक सौंदर्य को आत्मसात करके, रचना में व्यक्त अनुभव को अपने अभ्यन्तर में अनुभावन करके मुक्त मन से जो आलोचना लिखी जाती है वही सर्जनात्मक आलोचना हो सकती है और वही यह भी सिद्ध कर सकती है कि मनुष्यों की मुक्ति की तरह जैसे रचना की मुक्ति होती है वैसी ही मुक्ति आलोचना की भी होती है। श्रेष्ठ सृजन चेतना की मुक्ति में ही संभव है, बंधन में नहीं। यही आलोचना के लिए भी सत्य है।

इधर हिंदी में ‘समाजशास्त्रीय आलोचना’ का भी स्वर मुखरित हुआ है। इस आलोचना की पृष्ठभूमि तैयार करने में श्रीराम मेहरोत्रा कृत ‘साहित्य का समाजशास्त्र’, डॉ नगेन्द्र कृत ‘साहित्य का समाजशास्त्र’, डॉ. बच्चन सिंह कृत ‘साहित्य का समाजशास्त्र और रूपवाद’ तथा निर्मला जैन द्वारा संपादित ‘साहित्य का समाजशास्त्रीय चिंतन’ और मैनेजर पाण्डेय कृत ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’ का विशेष योगदान है। इस आलोचना-पद्धति पर प्रकाश डालते हुए मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं – “साहित्य का समाजशास्त्र व्यापक सामाजिक प्रक्रिया के भीतर क्रियाशील संपूर्ण साहित्य-प्रक्रिया की विभिन्न गतियों और परिणतियों की व्याख्या करते हुए साहित्य के वास्तविक सामाजिक स्वरूप की पहचान कराता है और उसमें पाठकों की दिलचस्पी जगाता है।

इस तरह वह रचना और आलोचना दोनों की सामाजिक सार्थकता बढ़ाता है।” इसके साथ ही वे यह भी लिखते हैं – “साहित्य के समाजशास्त्र की प्रवृत्ति समतावादी है। वह साहित्य के सभी रूपों और पक्षों को समग्रता में समझने पर जोर देता है। साहित्य-प्रक्रिया के तीन मुख्य पक्ष हैं : लेखक, रचना और पाठक । साहित्य-विश्लेषण की अधिकांश दृष्टियों के केंद्र में इन तीनों में से कोई एक रहता है। साहित्य के समाजशास्त्र में इन तीनों का विवेचन होता है और इनके आपसी संबंधों का भी। उसमें गंभीर कलात्मक साहित्य के साथ लोकप्रिय साहित्य के सामाजिक संदर्भ और प्रयोजन का भी विश्लेषण होता है।’

स्पष्ट है कि साहित्य की समाजशास्त्रीय आलोचना केवल कृति की व्याख्या नहीं कराती, वह । कृति की सामाजिक अस्मिता की भी व्याख्या करती है। यह साहित्य का समाज से रिश्ता ही नहीं मानती है, उस रिश्ते और उसकी प्रक्रिया को भी ठीक से पहचानने का यत्न करती है। साहित्य का समाजशास्त्र समाज से संपूर्ण साहित्य-प्रक्रिया या एक कृति के अनेक स्तरीय प्रत्यक्ष तथा परोक्ष संबंधों के विश्लेषण में मनमानीपन की जगह सुनिश्चित दृष्टि पर जोर देता है। समाजशास्त्रीय आलोचना सुनिश्चित दृष्टि की जरूरत पर जोर तो देती है लेकिन वह दृष्टि की कट्टरता का समर्थन नहीं करती।

समाजशास्त्रीय आलोचना की उपर्युक्त अवधारणा के अनुसार अभी हिंदी में कोई उपयुक्त व्यावहारिक समीक्षा प्रकाश में नहीं आई है, इतना अवश्य है कि शोध-छात्रों ने कतिपय रचनाकारों के साहित्य, (विशेषत: उपन्यास और नाटक) का समाजशास्त्रीय अध्ययन किया है किंतु वह प्रथापालन जैसा ही है, अंतर्दृष्टि-सम्पन्न नहीं। समाजशास्त्रीय अनुशीलन के संदर्भ में विशेष ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इसमें साहित्य और समाज के स्थूल रिश्तों की विवेचना नहीं होती है बल्कि उस प्रक्रिया और गति का विश्लेषण प्रमुख होता है जिसके फलस्वरूप कोई रचना एक रूपाकार ग्रहण करती है। यह आलोचना यह मानती है कि जैसे अन्य सामाजिक संस्थाएँ अपने सदस्यों को दिशा-निर्देश देती हैं, उन्हें कुछ मूल्यों और आदर्शों की ओर आकृष्ट करती हैं उसी तरह साहित्य भी संस्थात्मक रूप से अपने पाठकों को प्रेरित-निर्देशित करता है। यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि मार्क्सवादी समीक्षा भी साहित्य और समाज के गहरे संबंध को मानकर चलती है लेकिन मैनेजर पाण्डेय का कहना है कि वह समाजशास्त्रीय अध्ययन की मीमांसावादी धारा है।

इसकी दूसरी धारा अनुभववादी है जिसमें संरचनात्मक कार्यात्मक दृष्टियाँ सक्रिय रहती हैं। इस दृष्टि से मार्क्सवादी समीक्षा समाजशास्त्रीय आलोचना की एक धारा है और समाजशास्त्रीय आलोचना उससे अधिक व्यापक है। कहना चाहिए कि समाजशास्त्रीय आलोचना मार्क्सवादी आलोचना का अगला कदम है जो साहित्य और समाज के रिश्तों की ही व्याख्या नहीं करती, उसको प्रेरित-प्रभावित करने वाले कारकों पर भी विचार करती है। मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं – “साहित्य के समाजशास्त्र में उस पूरी प्रक्रिया को समझने की कोशिश होती है जिसमें कोई रचना साहित्यिक कृति बनती है। इस प्रक्रिया में सामाजिक संरचनाओं तथा सांस्कृतिक संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, प्रकाशन एवं वितरण की व्यवस्था का योगदान होता है, राजनीति तथा सत्ता का हस्तक्षेप होता है और आलोचना की माध्यमिकता होती है।

इस प्रक्रिया के दूसरे छोर पर वह पाठक समुदाय है जिसके स्वीकार-अस्वीकार के बिना कोई लेखन अच्छा-बुरा साहित्य कहा नहीं जा सकता। सच बात तो यह है कि आज के जमाने में साहित्य बनने के लिए किसी रचना का लिखा जाना काफी नहीं है। साहित्य बनने के लिए रचना का पाठक के पास पहुँचना जरूरी है और पाठक के पास पहुँचने के पहले उसे एक लम्बी आर्थिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इस प्रक्रिया से गुजर कर ही कोई लेखन साहित्य बनता है या बनाया जाता है। इस प्रक्रिया तक जिन लेखकों की पहुँच नहीं होती उनका लेखन भविष्य की निधि भले ही हो, लेकिन वह वर्तमान में साहित्य नहीं हो पाता। लेखन को साहित्य बनाने वाली इस प्रक्रिया का विश्लेषण केवल साहित्य के समाजशास्त्र में होता है, किसी दूसरी आलोचना-पद्धति में नहीं।’ डॉ. पाण्डेय के इस वक्तव्य से समाजशास्त्रीय आलोचना की व्याप्ति का पता चलता है जिससे यह ज्ञात होता है कि जीवन-जगत के हर रिश्ते-नाते की छानबीन करना और साहित्य पर पड़ने वाले उसके प्रभावों को रेखांकित करना । समाजशास्त्रीय आलोचना का लक्ष्य है। समाजशास्त्रीय आलोचना की यह व्याप्ति आलोचना को एकांगी होने से बचाती है और उसे पूर्णता की ओर ले जाने में सहयोग भी करती है किंतु असावधान आलोचकों द्वारा । इसमें अतिव्याप्ति दोष को उत्पन्न कर देने का खतरा भी है। इस खतरे से बचकर ही यह आलोचना श्रेष्ठ हो सकती है।

हिंदी आलोचना की वर्तमान स्थिति

सामान्यतया पिछले पच्चीस-तीस वर्षों के दौरान लिखी गई आलोचना को समकालीन हिंदी आलोचना की संज्ञा दी गई है। इसी के आधार पर हिंदी आलोचना की वर्तमान स्थिति का पता लगाया जा सकता है।

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी आलोचना का विवेचन करते हुए प्राय: आज तक की हिंदी आलोचना की प्रवृत्तियों और उपलब्धियों को रेखांकित करने की कोशिश की गई है। उन सबको ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि हिंदी की वर्तमान आलोचना में अनेक प्रवृत्तियाँ, दृष्टियाँ और पद्धतियाँ सक्रिय हैं। मुख्य रूप से मार्क्सवादी और रूपवादी प्रवृत्तियों की प्रबलता है लेकिन अत्यधिक प्रभावी और प्रसरणशील आलोचना-पद्धति के रूप में मार्क्सवादी आलोचना का ही विकास हो रहा है। मार्क्सवादी समीक्षकों में रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के साथ इधर नए समीक्षकों की एक बड़ी पंक्ति तैयार हुई है। जिसमें शिवकुमार मिश्र, धनंजय वर्मा, निर्मला जैन, नंदकिशोर नवल, शंभुनाथ, कर्णसिंह चौहान, मधुरेश, खगेन्द्र ठाकुर आदि के नाम उल्लेखनीय है ।

मार्क्सवादियों में भी जनवादियों की एक अलग पीढ़ी तैयार हो रही है जिसकी अगली पंक्ति में शिवकुमार मिश्र और मैनेजर पाण्डेय दिखाई पड़ रहे हैं। दरअसल इस समय रचना और आलोचना को लेखक-संगठन और लघु पत्रिकाएँ अपने-अपने ढंग से निर्देशित-प्रेरित कर रही हैं और तदनुसार ‘किसिम-किसिम’ की आलोचना प्रकाश में आ रही है, जिसमें अपने को और अपने पक्षधरों को स्थापित और उत्साहित करने की प्रवृत्ति अधिक है और रचना का वस्तुगत मूल्यांकन गौण हो गया है। एक ही रचना एक खेमे में श्रेष्ठ और महान मानी जाती है. दसरे खेमे में निकृष्ट और महत्वहीन । यह आलोचना-जगत में एक प्रकार की वही अराजकता है जो वर्तमान भारतीय राजनीति में आए दिन दिखाई पड़ रही है।

फिर भी इस समय जो लोग गंभीर आलोचना-कर्म में लगे हुए हैं उनमें उपर्युक्त समीक्षकों के अलावा गोपाल राय, परमानंद श्रीवास्तव, विश्वनाथ त्रिपाठी, विश्वनाथप्रसाद तिवारी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, अजय तिवारी, रेवती रमण आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। दूसरी तरफ ऐसे मताग्रही आलोचक भी हैं जो मार्क्सवादी, जनवाद और रूपवाद के नाम पर पत्र-पत्रिकाओं में अपने-अपने झंडे लहरा रहे हैं और लेखकों-पाठकों को अपने तेवर से प्रभावित-आकर्षित कर रहे हैं। उनकी समीक्षा-दृष्टि और शैली का मूल्यांकन उनके जोश के उतर जाने के बाद ही किया जा सकता है।

सारांश

इस इकाई में आपने हिंदी आलोचना के विश्लेषण और मूल्यांकन का अध्ययन किया। आपने जाना कि सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से हिंदी आलोचना का उत्तरोत्तर विकास हुआ है और नयी । रचनाशीलता के साथ-साथ हिंदी आलोचना ने भी अपने में बराबर परिवर्तन भी किया है। यह रचना के समानान्तर आलोचना की वह यात्रा है जो रचना को परखने का भी कार्य करती है और रचना के दबावों के अनुरूप अपने में नयी शक्ति और सामर्थ्य का भी विकास करती है। हिंदी आलोचना की यह प्रगतिशीलता इस रूप में अधिक स्पष्टता के साथ देखी जा सकती है कि जो आलोचना आरंभ में शास्त्रनिष्ठ और सैद्धांतिक अधिक थी, वह उत्तरोत्तर उन्मुक्त होती हुई आलोचना की सर्जनात्मकता के बिंदु तक पहुँच गई। यदि आलोचना में कठमुल्लापन ही बना रहता, देशी-विदेशी संदर्भो से जुड़कर अपने को नवीन करने की प्रवृत्ति न होती, रचना में अंत:प्रवेश करके रचना-मूल्यों को टटोलने की उत्सुकता न होती तो आलोचना और रचना के बीच घनिष्ठ रिश्ता कायम न हो पाता।

हिंदी आलोचना के विकास-क्रम का अध्ययन करने से आपको यह भी स्पष्ट हो गया कि समय-समय पर अनेक समीक्षकों ने अपनी उत्कृष्ट आलोचना-प्रतिभा और साहित्य की गहरी समझ से हिंदी आलोचना को नई ऊँचाई और गरिमा प्रदान की है। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ नगेन्द्र, डॉ रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, डॉ.नामवर सिंह, डॉ. बच्चन सिंह, डॉ. रघुवंश, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, अशोक वाजपेयी, मलयज, विजयदेव नारायण साही आदि ऐसे आलोचक हैं जिन्हेंने आलोचना को अपनी सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक समीक्षा से समृद्ध किया है और उसे जड़ या स्थिर होने से बचाया है। इनकी व्यावहारिक आलोचनाओं से हिंदी में रचनात्मक उत्कर्ष की नई दिशाएँ भी स्पष्ट हुई हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि इनकी आलोचनाओं और स्थापनाओं ने रचनाओं के लिए नई चुनौतियाँ भी पेश की हैं। इससे रचना और आलोचना का वह द्वंद्वात्मक रिश्ता भी स्पष्ट हुआ है जो दोनों में गुणात्मक विकास को प्रत्यक्ष करने में सक्षम होता है।

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी आलोचना रचना के अधिक निकट आ गई है, कहना चाहिए कि रचना और आलोचना के बीच घनिष्ठ संबंध स्थापित हुआ है – वह चाहे काव्यालोचना हो, कथा समीक्षा या नाट्य-समीक्षा हो। अब तक आलोचना को जो दोयम दर्जे की स्थिति प्राप्त थी, वह मुक्तिबोध आदि की आलोचनाओं से समाप्त हुई और आलोचना-कर्म भी रचना जैसा ही श्रेष्ठ कर्म माना जाने लगा। इससे आलोचक और सर्जक के बीच श्रेणियों का अंतर समाप्त हुआ। रचनाकारों के आलोचक-रूप में सामने आ जाने से आलोचक और सर्जक का जो अद्वैत कायम हुआ उससे भी हिंदी आलोचना को रचनात्मक समृद्धि प्राप्त हुई। कुल मिलाकर हिंदी आलोचना की विकास-यात्रा संतुलित, अनेकायामी और उत्कर्षपूर्ण रही है।

अभ्यास प्रश्न

  1. आधुनिक हिन्दी आलोचना की आरंभिक स्थिति पर विस्तार से चर्चा कीजिए।
  2. प्रभाववादी आलोचना का विवेचन करते हुए उसके प्रमुख आलोचकों एवं कृतियों का उल्लेख कीजिए।
  3. प्रगतिवादी या मार्क्सवादी आलोचना से आप क्या समझते हैं ? मार्क्सवादी आलोचकों तथा उनकी कृतियों के उदाहरण देते हुए उनकी रचनाओं के विषय की चर्चा कीजिए।
  4. स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी आलोचना पर लेख लिखिए । (लगभग 300-400 शब्दों में)

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