सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के काव्य में प्रयोगशीलता की दिशाएं

इस इकाई में निराला के काव्य में प्रयोगशीलता के विभिन्न आयामों को रेखांकित किया गया है। इस इकाई के अध्ययन के बाद आप जान सकेंगे :

  • प्रयोगशीलता क्या होती है और प्रयोगशीलता के कारक तत्व कौन-कौन से होते हैं ?
  • प्रयोगशीलता में पुराने और नये का क्या संबंध होता है ?
  • काव्य में प्रयोगशीलता का क्या अर्थ है ?
  • निराला काव्य में प्रयोगशीलता के कौन-कौन से आयाम हैं ?
  • निराला के वास्तविक महत्व का आधार उनकी प्रयोगशीलता है।

कवियों या रचनाकारों के संदर्भ में जब प्रयोग या प्रयोगशीलता की बात की जाती है तब इसका मतलब होता है कि उन्होंने साहित्य के परम्परा से स्थापित मानदण्डों में, भाषा, काव्य-रूपों में कुछ ऐसा नया जोड़ा है जो पहले नहीं था। कवि रचनाकार के ऐसे प्रयोगों के पीछे उनके युग के वैचारिक, सांस्कृतिक दबाव होते हैं। और जो रचनाकार जितना अधिक संवेदनशील होता है, जितना अधिक प्रतिभाशाली और व्यापक जीवनदृष्टि वाला होता है, अपनी रचनाओं में प्रयोग करने की उसकी सामर्थ्य उतनी ही अधिक होती है।

आधुनिक हिंदी कविता में प्रयोग करने की ऐसी सामर्थ्य हमें निराला में दिखाई पड़ती है, जिन्होंने अपने युग के “मुक्ति के स्वप्न” को काव्य में बंधी-बंधायी रूढ़ियों से मुक्ति के रूप में भी देखा और छंद, काव्यरूप, गीतिकाव्य, लंबी कविता आदि में नये प्रयोग कर भारतीय हिंदी काव्य की दिशा भी प्रशस्त की। वास्तव में निराला काव्य में विषय और काव्यरूपों की जैसी विविधता, गहनता और नवीनता है वैसी हिंदी के किसी दूसरे आधुनिक कवि में नहीं है। निराला काव्य में प्रयोगशीलता का जो मतलब है, उसकी जो दिशाएँ, उनका सिलसिलेवार अध्ययन यहाँ हम करेंगे।

प्रयोगशीलता के प्रेरक तत्व

निराला काव्य में शुरू से ही प्रयोगों की जो विविधता है, उसमें जितना निराला की प्रतिभा का योगदान है, उतना ही योगदान उस दौर की वैचारिक बौद्धिक सामाजिक चेतना का भी है। भारत में ही नहीं, विश्वभर में जहाँ कहीं भी पुरानी शोषणपरक व्यवस्था से मुक्ति की चेतना बलवती होती है, वहाँ की कविता में हमें कल्पना का मुक्त आचरण देखने को मिलता है। पुराने घिसे-पिटे काव्यरूप, बिंब और प्रतीक, छंद और अलंकरण के तमाम सारे उपकरण तब बासी और उबाऊ लगने लगते हैं। ऐसे दौर के कवि अपनी मुक्त कल्पना से पुराने रूपों को भी नयेपन से भर कर नयी चेतना के अनुरूप रचनाकर्म करते हैं। इसी दौर में कई बार नये प्रयोग इस उच्च स्तर के होते हैं कि उन्हें नयी विधा के रूप में नया नाम देना पड़ता है। पश्चिम में उभरते पूंजीवाद ने जब पुरानी सामंती शोषण व्यवस्था से मुक्ति की चेतना समाज में फैलायी तो उसकी गुणात्मक परिणति 1789 की फ्रांस की क्रांति में हुई। इस क्रांति के समय तीन नये नारे दिये गये ; स्वाधीनता, समता, बंधुत्व। इन तीन शब्दों ने विचारों और मूल्यों के क्षेत्र में नये परिवर्तन कर दिये, साहित्य में इनका प्रतिफलन नये बिंबों, प्रतीकों, काव्यरूपों आदि में तो हुआ ही, “उपन्यास” नामक नयी विधा का भी जन्म इन्हीं विचारों और मूल्यों के कारण हुआ। इससे पहले महाकाव्य नामक विधा में काव्यनायक के लिए किसी राजा, महाराजा या राजकुमार को ही चुनना अनिवार्य था, काव्यशास्त्री “धीरोदात्त नायक” की शर्त लगाते थे, (देखिए, निराला की ही कविता, “राजे ने अपनी रखवाली की।”) इस शर्त से मनुष्य और मनुष्य के बीच “समता” का मानवमूल्य खंडित होता था, तब साधारण जन को नायक के रूप में चित्रित करने के लिए नयी विधा की ज़रूरत महसूस हुई और इस तरह “नावेल” जिसका अंग्रेज़ी में अर्थ ही है “नया”, अस्तित्व में आया। इसीलिए गुजराती भाषा में इस नयी विधा को “नवलकथा” नाम दिया गया।

जिस तरह फ्रांस के उदीयमान पूंजीपतिवर्ग ने नये विचारों, नये मानवमूल्यों से चेतना में परिवर्तन ला दिये, जिनसे रचनाकारों में प्रयोगशीलता की नयी धारा प्रवाहित हुई, उसी तरह हमारे यहाँ के उदीयमान पूंजीपतिवर्ग ने भी अपने लिए भारतीय उपमहाद्वीप के बाज़ार को ब्रिटिश पूंजीपतियों के शिकंजे से मुक्त कराने के लिए कुछ नये मानवमूल्यों को समाज में पैदा किया। पहले “राष्ट्र” का बोध (जिसे हम भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय में “भारत दुर्दशा” आदि में देखते हैं, फिर मैथिलीशरण गुप्त की “भारत भारती” में पाते हैं) चेतना में जाग्रत किया। पश्चिम में यह काम वहाँ के व्यापारिक पूंजीवाद ने फ्रांस की क्रांति से बहुत पहले कर दिया था जिसके लिए धर्म को मोहरा बनाया गया था और रोम के कैथलिक चर्च के खिलाफ राष्ट्रीय भावनाएं पैदा करके “राष्ट्रीय चर्च” की स्थापना करवायी थी। सामंती शोषण व्यवस्था वाले तत्व रोम के चर्च के पक्षधर रहे जबकि व्यापारिक पूंजीवादी तत्व “राष्ट्रीय चर्च” के साथ हुए. इस मुद्दे को लेकर वहाँ “राष्ट्रवाद’ की भावना अस्तित्व में आयी। हमारे यहाँ यह बोध सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष करके पैदा नहीं हुआ, यहाँ के उदीयमान पूंजीवाद ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में “राष्ट्रवाद’ की भावना और उसके कुछ ही दिनों बाद “स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” के माध्यम से मुक्ति की भावना समाज में पैदा की।

इसी सामाजिक चेतना ने कवियों की कल्पना को मुक्त किया और उन्होंने “राष्ट्रीय” गौरव को बढ़ाने के महान उद्देश्य से प्रेरित होकर साहित्य में नयी प्रयोगशीलता अपनायी जिससे कि वे अपने साहित्य के भंडार को बेहतर से बेहतर कृतियों से भर सकें। हमारे यहाँ भी उपन्यास विधा का जन्म हुआ, कहानी विधा का विश्व स्तरीय माध्यम अस्तित्व में आया। कविता में नये-नये प्रयोग हुए। नाटकों की स्तरीय रचनाएँ हुईं। इन सभी रचनात्मक कार्यों के पीछे प्रेरक शक्ति हमारी आज़ादी की लड़ाई ही थी जिसका नेतृत्व यहाँ का नवोदित पूंजीपतिवर्ग कर रहा था।

प्रयोगशीलता में नये और पुराने का सामंजस्य

पश्चिमी साहित्य में फ्रांस की क्रांति से पैदा हुए नये मानवमूल्यों से प्रेरित होकर. कवियों ने जो नये प्रयोग किये, उनमें पुराने साहित्य से निकलने वाले सामंती मूल्यों से सामंजस्य बिठाने की कोशिश नहीं मिलेगी। हमारे यहाँ सामंतवाद से निर्णायक संघर्ष अभी तक नहीं लड़ा गया। भारतीय पूंजीपतिवर्ग ने भारत के सभी वर्गों के साथ “एकता”, “सामंजस्य”, “सामरस्य” की विचारधारा का व्यापक प्रचार किया। यहाँ की “विविधता में एकता” को भी अपने इसी उद्देश्य के लिए प्रचारित किया क्योंकि राष्ट्रीय मुक्ति इस एकता के बिना संभव नहीं थी। यही वजह है कि भारतीय साहित्य में पुराने काव्यप्रयोगों को भी निषिद्ध नहीं माना, न विचारों के स्तर पर और न फार्म रूप के स्तर पर| कविता में जहाँ नये से नये प्रयोग मिलेंगे, वहीं कवित्त और सवैयों का भी इस्तेमाल मिलेगा। भारत में अतीत को गौरवान्वित करने वाले राजाओं और महाराजाओं के किस्से भी मिलेंगे और फटेहाल किसान और मजदूर और भिक्षुक भी मिलेंगे।

इस “विविधता में एकता” में एक ही सूत्र काम कर रहा था, भारत में राजा से रंक तक एक पक्ष में हों, सब के बीच “सामरस्य” हो और ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति मिले। प्रयोगों के स्तर पर भी। नये और पुराने का सामंजस्य जिसे शुक्ल जी की शब्दावली में “विरुद्धों का सामंजस्य” कह सकते हैं । इसी वजह से मिलता है। प्रयोगों में इस सामंजस्य को छायावाद के कवियों में सबसे ज्यादा स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। निराला के काव्य में दिखायी देने वाली प्रयोगशीलता का भी यही रहस्य है। इसमें उनकी प्रतिभा का भी योगदान है, लेकिन देश और काल की सामाजिक चेतना उन्हें लगातार प्रयोगशीलता की नयी दिशाएं तलाश करने की ओर प्रेरित कर रही थी।

काव्य में प्रयोगशीलता का अर्थ

काव्य में प्रयोगशीलता का अर्थ है नये-नये कथ्य, नये बिंब, नये प्रतीक, नये छंद, नयी लय और कविता के दायरे में समाने वाले नये भाषिक प्रयोग। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, इन प्रयोगों की प्रेरणा रचनाकारों को अपने समय की सामाजिक चेतना से मिलती है। पतनशील सामंती युग में राजाओं को रिझाने के लिए, या उनकी सत्ता को बरकरार रखने के लिए कवियों ने राजाओं के संरक्षण में या तो दरबारी कविताएं लिखीं जैसा कि हमारे यहाँ रीतिकाल में हुआ, या फिर क्लासीकल साहित्य के कथ्य और रूप को अपनाकर काव्य रचना की गयी जैसा कि अंग्रेजी साहित्य में अठारहवीं सदी में हुआ जिसे वहाँ “नवक्लासीकल युग” भी कहा जाता है। इन दोनों तरह के साहित्यों में प्रयोगशीलता की गुंजाइश बहुत कम होती है। सामंती अभिरुचि का एक ढांचा बन जाता है, उसी में कारीगरी करके रचनाकार को रचना करनी पड़ती है। हमारे यहाँ रीतिकाल में श्रृंगार रस या वीर रस की कविताएं जो राजा से अशर्फी हासिल करने के लिए लिखीं गयीं, उनमें नये प्रयोग कम ही मिलेंगे, यदि मिलेंगे भी तो “सौंह करै, भौंहनि हंसे, देन कहै नटि जाय” जैसे मिलेंगे।

अंग्रेजी साहित्य में “क्लासीसिज्म” की विचारधारा को एक ही तरह के छंद में रचा गया जिसे “हीरोइक कपलेट” कहा गया। इस विचारधारा का सारतत्व यह था कि मनुष्य की इस सृष्टि में जो जगह है, उसका अतिक्रमण करने की कोशिश उसे नहीं करनी चाहिए, वह सीमाओं में आबद्ध है जैसे कि प्राचीन ग्रीक साहित्य में काव्यनायक सीमाबद्ध हुआ करते थे। जिसने भी उन सीमाओं का उल्लंघन किया, उसे दंड मिला। प्रसिद्ध नाटककार सोफोक्लीज ने (जिसके नाटकों को अरस्तू ने अपने काव्यशास्त्र का माडल माना था) जिन नायकों की सृष्टि की, वे सब अपनी सीमा का उल्लंघन करने के कारण त्रासद अंत को प्राप्त करते हैं। क्लासीकल साहित्य मनुष्य को बास्बार यही याद दिलाता है कि तू कुछ भी नहीं है, “आत्मानम् विधि”। या फिर “होइहि सोइ जो राम रचि राखा/को करि तरक बढ़ावहि साखा”। “होता है वही जो मंजूरे खुदा होता है।” बार-बार सीमाओं में बधे होने का अहसास दिलाने के कारण “नवक्लासीकल युग” के साहित्य में कल्पना मुक्त नहीं हो पायी, इसलिए उसमें प्रयोगशीलता की गुंजाइश नहीं थी। शोषण पर आधारित व्यवस्था अपने पतनकाल में बार-बार अतीत की “क्लासीकल” विचारधारा की ओर समाज का मुंह मोड़ने की कोशिश करती है।

ऐसे वक्त में रचना में प्रयोगशीलता के अवसर कम होते हैं, कल्पना उन विचारों में आबद्ध हो कर पुराने कथ्य को ही पुराने रूपों में दुहराती रहती है जैसा कि हमारे यहाँ रीतिकाल में हुआ और अंग्रेजी साहित्य में अठारहवीं सदी के दौर में रचित “नवक्लासीकल” साहित्य में हुआ जिसके खिलाफ प्रतिक्रिया फ्रांस की क्रांति के बाद हुई और रोमांटिक साहित्य रचा गया।

हमारे यहाँ, जैसा कि कहा जा चुका है, सामंतवाद के खिलाफ कोई निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ी गयी, इसलिए साहित्य में भी पुराने बिंब, प्रतीक, मिथक और भाषिक संरचनाएँ दिखायी दे जायेंगी। लेकिन स्वाधीनता संघर्ष ने जिन नये मानवमूल्यों को जन्म दिया, उनसे यहाँ की कल्पना भी मुक्ति की दिशा में बढ़ी और “नये” के प्रति रचनात्मक ललक दिखायी दी। अतीत के प्रति मोह रखते हुए भी यहाँ के रचनाकारों ने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के दौरान लिखी रचनाओं में “नव” के प्रति अपनी आकांक्षा भाषिक प्रयोगों में भी सबसे ज्यादा मुखरित की। फ्रांस की क्रांति के दौर में यूरोप के साहित्य में ऐसे बिंब, प्रतीक और मिथक बहुत अधिक मिलेंगे जो “स्वतंत्रता”, “समता” और “भाईचारा” जैसे नये मानवमूल्यों का अर्थ ध्वनित करते थे। मसलन, आकाशचारी बिंब, जैसे पक्षी, बादल, इंद्रधनुष, चंद्र, सूर्य, पवन, तारांगण खूब मिलेंगे।

किसी न किसी पक्षी पर अंग्रेज़ी के रोमांटिक कवियों ने कविता ज़रूर लिखी क्योंकि मुक्त गगन में उड़ान भरने वाली कल्पना को “पक्षी” से बेहतर या “बादल” से बेहतर किस बिंब से चित्रित किया जा सकता था। वर्डस्वर्थ ने “कोयल” पर, “बादल” पर, “इंद्रधनुष” पर कविताएं लिखीं, ये कविताएं “स्वतंत्रता”. के नये मूल्य की चेतना प्रतिबिंबित करती हैं, उन्होंने भाईचारा और समता जैसे मूल्यों को प्रतिबिंबित करने वाली “माइकेल”, “कम्बरलैंड का भिक्षुक”, “दृढ़ निर्णय और स्वतंत्रता” (या “जोंक पकड़ने वाला”) जैसी कविताएं लिखीं। कीट्स ने भी “नाइटइंगेल” नामक पक्षी पर कविता लिखी, शैली ने “स्काइलार्क” नामक पक्षी पर कविता लिखी। “पश्चिमी पवन” पर भी उनकी कविता है। उस दौर के कवियों ने “शिश” पर भी कविताएँ लिखीं। और ग्राम्य जीवन पर कविताएं लिखीं जो कि अठारहवीं सदी के साहित्य में निषिद्ध विषय था। ये सब कविता में नये प्रयोग थे। कविता की भाषा के बारे में भी यह कहा गया कि साधारण जन की भाषा ही आदर्श काव्यभाषी होती है हालांकि उसमें से “चुनाव” करने की बात भी कही गयी। यह नयी प्रयोगशीलता की ही बात थी जो साहित्य में शास्त्रीय मुद्दा बनकर सामने आ रही थी।

इस तरह की प्रयोगशीलता हमारे यहाँ भी छायावाद के समय में सामने आ रही थी। मुक्ति के बिंब के रूप में “प्रकृति” या उसके उपादान खूब आ रहे थे क्योंकि प्रकृति मुक्त है, आकाशचारी बिंब जैसे “बादल”, “पक्षी”, “आकाशदीप”, पवन, “सूर्य”, “चंद्र’, “तारागण” हमारे यहाँ भी छायावादी साहित्य में भरपूर मिलते हैं।

निराला काव्य में प्रयोगशीलता

जैसा कि पीछे कहा चुका है कि छायावाद में “नव”, या “नूतन” के प्रति अभूतपूर्व ललक है, यह ललक निराला काव्य में भी जगह-जगह मिलती है। निराला की रचनाशीलता के सामने दो चुनौतियां थीं, एक तो खड़ी बोली के विकास की, दूसरे उसको नयी काव्यभाषा के रूप में प्रस्तुत करने की। रूपगत विविधता और प्रयोगशीलता से संपन्न रचनाएँ निराला के साहित्य में हमें शुरू से ही इसी वजह से मिलती हैं। निराला ने अपने लेखों में भाषा और साहित्य के उच्च स्तर से प्रेरणा ले कर हिंदी भाषा और साहित्य को भी उसी स्तर तक या उससे भी आगे ले जाने की रचनात्मक कोशिश की। वे बंगला के लगभग सभी बड़े लेखकों और बुद्धिजीवियों के ज्ञान और कर्म के उदाहरण अपने गद्य-लेखन में देते हुए यही तड़प प्रदर्शित करते हैं कि हिंदी भाषा और साहित्य भी उच्च कोटि का हो जाये। इसके लिए वे स्मृति, सत्ता और भविष्यत (यानी अतीत, वर्तमान और आगे के विचार और ज्ञान) के भंडार में से रत्न चुनने और अपने काव्य में पिरोने में कतई संकोच नहीं करते थे। वे अन्य भाषाओं से शब्द लेकर अपनी कविता में नये प्रयोग करते थे, इसी तरह के प्रयोग लय, छंद, अलंकार आदि के भी करते थे और इस तरह अपनी कविता में नयापन लाने की कोशिश करते थे। “वीणावादिनि वर दें” का वाचक सरस्वती से यही वरदान मांगता है:

नव गति, नव लय, ताल-छंद नव

नवल कंठ, नव जलद-मंद्र रव

नव नभ के नव विहग वृंद को

नव पर नव स्वर दे।

“नव स्वर” की इस चाह के ही कारण निराला के काव्य में प्रयोगशीलता की विविध धाराएं देखने को मिलती हैं। इस बारे में दूधनाथ सिंह ने ठीक ही कहा है कि “अपने समकालीनों में निराला ही एक ऐसे कवि हैं, जिनके विराट, सर्वग्रासी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व में काव्य-रचना-प्रक्रिया के अनेक स्तर हर समय साथ-साथ क्रियाशील रहे हैं।”  दूधनाथ सिंह ने उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया है कि भाषा, संवेदना और काव्य उपकरणों के प्रयोगों में विविधता उनकी शुरू से लेकर अंत तक की कविताओं में मिलती है। उनके पहले कविता-संग्रह में ही विविधता की यह बानगी मिल जाएगी, भाषा में पुराने और नये प्रयोग, काव्यरूपों (जैसे गीत, लंबी कविता, मुक्तछंद काव्य) के पुराने और नये प्रयोग पहले संकलन “अनामिका” से लेकर अंतिम संकलन “सांध्यकाकली” तक में मिलेंगे। “नव स्वर” की यह तलाश निराला ने अपने पूरे काव्य-जीवन में जारी रखी।

कथ्य के क्षेत्र में प्रयोगशीलता

प्रयोगशीलता की दृष्टि से निराला हिंदी काव्य-जगत में बेजोड़ माने जा सकते हैं। अपनी इस प्रवृत्ति का उद्घाटन करते हुए इन्होंने स्वयं लिखा है कि मैंने ‘भाव, भाषा और छंद की उलटी गंगा बहाई है।’ इनकी प्रयोगशीलता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है, काव्य-विषय संबंधी प्रयोगशीलता। इस दृष्टि से इन्होंने छायावाद के बंधन को पूरी तरह अस्वीकार कर अपनी स्वछंद प्रकृति का परिचय दिया है। ‘जूही की कली’, ‘संध्या सुंदरी’ जैसी प्रकृति से संबद्ध उत्कृष्ट छायावादी रचनाओं के साथ ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘तुलसीदास’, ‘सरस्वती वंदना’ आदि ऐतिहासिक पौराणिक रचनाओं में वे छायावाद को उत्कर्ष प्रदान करते हैं। लेकिन अपनी गद्यात्मक रचनाओं में कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा, चतुरी चमार आदि के साथ ही कविता के क्षेत्र में ‘वह तोड़ती पत्थर’, ‘भिक्षुक’, ‘रानी और कानी’, ‘गरम पकौड़ी’, ‘खजोहरा’, ‘चरखा चला’, ‘कुत्ता भोंकने लगा’, ‘डिप्टी साहब आए’, ‘छलांग मारता चला गया, ‘झींगुर इँटकर बोला , ‘महंगू महँगा रहा’, ‘टूटी बांह जवाहर की ‘ आदि ऐसे विषय हैं, जो अन्य छायावादी कवियों के लिए अकल्पनीय रहे हैं।

मानव जीवन के, विशेषकर अपने युग जीवन के किसी भी पहलू को इन्होंने कविता के क्षेत्र में वर्जित नहीं माना। अपनी इन कविताओं और अन्य बहुत सी कविताओं के माध्यम से निराला ने अपने युग की राजनीति, प्रशासनिक व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, सामंतीय शोषण पर आधारित व्यवस्था में खुलकर हस्तक्षेप किया। उनकी कविता की यह धार अन्य छायावादी कवियों में प्रायः नहीं मिलेगी। इस प्रकार की सारी विशेषताएँ निराला में उनकी प्रयोग धर्मिता के कारण ही आयी हैं।

स्वच्छंद छंद प्रयोग

निराला ने अपनी प्रारंभिक कविताओं में ही मुक्ति की चेतना को प्रतिबिंबित किया था। यह चेतना “बंधनमय छंदों” से मुक्ति की चाह के रूप में भी परिलक्षित होती थी। अपनी इस चाह को उन्होंने “प्रगल्भ प्रेम” कविता में यों कहा भी थाः

आज नहीं है मुझे और कुछ चाह

अर्धविकच इस हृदयकमल में आ तू

प्रिये छोड़कर बंधनमय छंदों की छोटी राह

अपनी इस आकांक्षा को निराला ने अपने पहले काव्य-संग्रह की एक कविता “जुही की कली” में भी एक नये प्रयोग की तरह फलीभूत किया था। “जुही की कली” में हमें जो नया स्वछंद छंद प्रयोग दिखायी देता है, उसमें पुराने और नये का मेल किया गया है। उसकी लय में कवित्व का गुण है, लेकिन झलक मात्र के लिए। पहला खंड स्वच्छंद है, लेकिन भाषा में अनुप्रास का खूब प्रयोग है, “विज़न-वन-वल्लरी”, “स्नेह-स्वप्न-मग्न”, “विरह-विधुर”, “दूर देश”  दूसरे खंड में “आई याद” के साथ तुकांत पंक्तियां हैं, फिर स्वच्छंद पंक्तियां है और उसके बाद फिर चार पंक्तियाँ तुकांत हैं, और तदुपरांत कविता के अंत तक स्वच्छंद रचना है। यह एकदम नया प्रयोग था। यह कविता 1916 में लिखी गयी थी और उस समय के बीच देखें तो इस अभिनव प्रयोग की महत्ता समझ में आ सकती है।

भाषा के स्तर पर देखें तो “जुही की कली’ में संस्कृतनिष्ठ भाषा है तो बोलचाल की भाषा का भी मिश्रण है। इस कविता में क्रम इस तरह रखा है कि पहले संस्कृतनिष्ठ, फिर बोलचाल की भाषा, फिर संस्कृतनिष्ठ, फिर बोलचाल की भाषा। इसी कालखंड में लिखी “अध्यात्म फल” शीर्षक कविता में एक ही साथ भाषा और छंद के एकदम नये प्रयोग हैं :

जब कड़ी मारें पड़ी, दिल हिल गया

पर कभी चूं भी न कर पाया यहाँ

मुक्ति को तब युक्ति से मिल खिल गया

भाव जिसका चाव है छाया वहाँ।

पूरी कविता को इसी पैटर्न पर लिखा गया है। इस पैटर्न में हर पंक्ति में बीच में दो तुकें हैं जैसे पहली पंक्ति में “कड़ी” और “पड़ी”, दूसरी पंक्ति में “कभी” और “चूं भी’, तीसरी पंक्ति में “मुक्ति” और “युक्ति”, चौथी पंक्ति में “भाव” और “चाव” । इसके बाद अंग्रेज़ी के “सानेट” काव्यरूप की तरह पंक्ति की आखिरी तुकें नये तरीके से सजायी हैं, पहली पंक्ति की तुक तीसरी से मिलती है और दूसरी पंक्ति की तुक चौथी पंक्ति से। “दिल हिल गया” की तुक “मिल खिल गया” से और “पाया यहाँ’ की तुक “छाया वहाँ” से मिलती है। हिंदी में यह अभिनव प्रयोग था। इस पैटर्न को कविता के पाँचों चौपदों में निभाया है।

“जागो फिर एक बार” के दोनों खंड भी स्वछंद छंद में लिखे हैं जैसा कि दूसरे खंड के अंत में एक पंक्ति भी आती है, “मुक्त हो सदा तुम/ बाधा-विहीन-बंध छंद ज्यों” | लेकिन “राम की शक्तिपूजा” में अंग्रेज़ी के “हीरोइक कपलेट’ जिसका प्रयोग अठारहवीं सदी के सभी कवियों ने इंग्लैंड में किया था और जिसमें अलेग्जेंडर पोप और ड्रायडन ने अपने व्यंग्य महाकाव्य लिखे थे को हिंदी में सबसे पहले निराला ने इस्तेमाल किया। यह भी अभिनव प्रयोग था। लेकिन “बादल राग” की कविताओं में फिर स्वछंद छंद का प्रयोग मिलेगा। बादल की स्वच्छंद वृत्ति के अनुकूल छंद का भी इस्तेमाल हुआ है। वाचक बादल को संबोधित करते हुए कहता है :

ऐ निबंध !

अंध-तम-अगम-अनर्गल-बादल !

ऐ स्वच्छंद!

मंद-चंचल-समीर-रथ पर उच्छृखल !

ऐ उद्दाम !

अपार कामनाओं के प्राण !

बाधारहित विराट् !

बादल के उक्त बिंबों की सारी विशेषताएं निराला ने इन कविताओं की छंद योजना में भी भर दी हैं।

निराला ने स्वच्छंद छंद प्रयोगों में ध्वन्यात्मकता का बहुत ही खूबसूरत प्रयोग किया है। हालांकि निराला को मात्रिक छंद-रचना में भी महारत हासिल थी जिसका परिचय उन्होंने अनेक कविताओं और गीतों में दिया है, फिर भी ध्वन्यात्मकता को उन्होंने प्राथमिकता दी। “बादल राग” तो इसका सबसे सुंदर उदाहरण है। “राम की शक्तिपूजा” में युद्ध का वर्णन और बाद में भावों के अनुसार ध्वन्यात्मकता का निर्वाह सचमुच अद्भुत है। तुलसीदास उनके प्रिय कवि हैं और यह गुण उन्होंने हिंदी के इस महाकवि की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए ही सीखा होगा। “रामचरितमानस” में तुलसीदास ने भी ध्वन्यात्मकता के अद्भुत प्रयोग किये हैं। जनक वाटिका में सीता को देखकर राम अपने भाई लक्ष्मण से जिन शब्दों में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, उनमें ध्वन्यात्मकता का समीचीन प्रयोग है : “कंकन किंकिन नपुर धुनि सुनि/कहत लखन सन राम हृदय गुनि/मानह मदन दुंदुभि दीन्ही/मनसा विश्व विजय के कीन्हीं।” यहाँ दुंदुभि की ताल ही चौपाई में प्रयुक्त शब्दों में व्यक्त कर दी गयी है।

इसी तरह राक्षसों से युद्ध वर्णन में भी ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग हुआ है। वैसा ही प्रयोग हम “राम की शक्तिपूजा” के प्रारंभिक खंड में देखते हैं। अंग्रेज़ी में जिसे “औनोमैटोपोइया” अलंकार कहा जाता है, उसका प्रयोग निराला ने अपनी काव्यभाषा में खूब किया है।

काव्य-रूपों में प्रयोगशीलता

निराला का पूरा रचनाकर्म भारत के मुक्ति आंदोलन से प्रेरित है। उनका यह सपना है कि स्वाधीन भारत में आधुनिक हिंदी ही राष्ट्रभाषा होगी जैसा उस समय अधिकांश लोंगों का सपना था और जिसका प्रतिबिंबन स्वाधीन भारत के नवनिर्मित संविधान में भी हुआ। वह सपना उचित था या नहीं, इस पर उस समय विचार करने का मतलब देश में पैदा हो रही राष्ट्रीय एकता को तोड़ना था, इस वजह से यह विचार पुख्ता होता गया कि स्वाधीन भारत में एक ही भाषा राष्ट्रीय भाषा होगी और वह हिंदी ही हो सकती है। हालांकि इस सपने ने हिंदी प्रेमियों के बीच एक अंधभाषावाद पैदा कर दिया, जिससे स्वाधीन भारत में अन्य भाषाभाषी राज्यों के नागरिकों में हिंदी विरोध की मनोदशा मुखरित होने लगी और 1965 तक हिंदी को राष्ट्रभाषा बना देने की संविधान की अयथार्थवादी परिकल्पना पूरी नहीं हुई और न निकट भविष्य में पूरी हो पाएगी। निराला को अपने समय में हिंदी भाषा और साहित्य को समृद्ध से समृद्ध बनाने की चिंता बहुत अधिक थी।

अपनी इस चिंता को उन्होंने अपने लेखों, भूमिकाओं आदि में बार बार अभिव्यक्त किया था। हिंदी साहित्य के भंडार को भरने के लिए भी वे “मुक्ति” का वैचारिक तर्क देते थे जिसका उल्लेख कई जगह उनकी गद्य रचनाओं में आता है। “परिमल” की भूमिका में उनका यह तर्क लगभग गीत की टेक की तरह आता है। “मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। …मुक्त काव्य साहित्य के लिए कभी अनर्थकारी नहीं होता, किंतु उससे एक प्रकार की स्वाधीन चेतना फैलती है, जो साहित्य के कल्याण की ही मूल होती है।” उसी भूमिका में आगे एक जगह लिखते हैं कि “साहित्य की मुक्ति उसके काव्य में दिख पड़ती है। इस तरह जाति के मुक्ति प्रयास का पता चलता है।”

“मुक्ति” की इस भावना से ही प्रयोगशीलता को प्रोत्साहन मिलता है। निराला ने इसी भावना के तहत हिंदी काव्य में नये से नये प्रयोग किये। परंपरा से जो साहित्यिक उपकरण उपलब्ध थे, उन्हें परिमार्जित करके इस्तेमाल किया और बांग्ला साहित्य आदि से भी प्रेरित होकर नये प्रयोग किये। अंग्रेज़ी काव्यरूपों से प्रेरित होकर भी उन्होंने नये काव्यरूप रचे। इसलिए जहाँ हम निराला के साहित्य में पारंपरिक गीत विधा का चरम उत्कर्ष देखते हैं, वहीं आदि को परिमार्जित करके नये रचे काव्यरूपों को भी उनकी रचनाशीलता में पिरोया हुआ पाते हैं। आख्यानपरक लंबी कविताएं जहाँ मिलती हैं वहीं कवित्त गीति नाट्य के प्रयोग भी हैं। ग़ज़ल के प्रयोग हैं तो सानेट की झलक मारते हुए काव्यरूप हैं। मुक्तछंद की कविताएँ तो उनकी रचनाशीलता की महत्वपूर्ण अंग हैं। प्रयोगशीलता का ऐसा बहुआयामी रचनासंसार उस युग में निराला जैसे मुक्तिप्रेमी कवि में ही संभव था।

निराला के काव्य में प्रयोगशीलता को हिंदी आलोचकों ने कई कोणों से देखा और परखा है। डॉ० रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक “निराला की साहित्य साधना – द्वितीय खंड” में “कला” शीर्षक उपखंड में निराला की कविता के शिल्प संबंधी प्रयोगों की विस्तार से चर्चा की है। अन्य आलोचकों ने सुविधा के लिए निराला की कविताओं का वर्गीकरण करके उनमें प्रयोगशीलता को रेखांकित किया है। पद्मसिंह शर्मा “कमलेश” ने निराला के संपूर्ण काव्य को कुछ रूपगत विशेषताओं के आधार पर चार श्रेणियों में बाँटा है :

  • गीत
  • प्रगीत
  • आख्यानक काव्य
  • गीति नाट्य

उन्होंने विस्तार से इन श्रेणियों को व्याख्यायित करके निराला काव्य में रूपगत प्रयोगशीलता को रेखांकित किया है। (देखें, लोकभारती मूल्यांकन माला के तहत प्रकाशित “निराला”, संपादक : इंद्रनाथ मदान, पृ0 152) दूधनाथ सिंह ने रूप और अंतर्वस्तु दोनों के आधार पर निराला के संपूर्ण काव्य को छः श्रेणियों में विभाजित किया है, अंतःसंगीत की रचनाएँ, लंबी कथात्मक कविताएं, राष्ट्रीय उदबोधन की कविताएं, काव्य आभिजात्य से मुक्तिप्रयास की रचनाएँ, ऋतु प्रार्थनाएं और प्रपत्ति की कविताएँ। दूधनाथ सिंह का वर्गीकरण और उनका विवेचन निराला काव्य में प्रयोगशीलता के विविध आयामों को समझने में काफी मददगार साबित होता है।

उनकी कमी सिर्फ यही है कि हिंदी आलोचना की उस आम प्रवृत्ति से वे भी नहीं बच पाये हैं जो रचना को रचनाकार के निजी जीवन से पैबंद की तरह जोड़ती चलती है। आलोचना का इस तरह का विमर्श बहुत पहले पीछे छूट जाना चाहिए था, मगर यह कमी चली आ रही है। दूसरी कमी यह भी है कि किसी न किसी दूसरे बड़े रचनाकार को हेटा सिद्ध करके अपने इष्ट रचनाकार को शीर्षस्थान देने की कोशिश की जाती है। डॉ० दूधनाथ सिंह ने यह ज्यादती रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ कर दी है और निराला के अंतःसंगीत को कहीं अधिक “महानता” प्रदान की है जिसकी कतई ज़रूरत नहीं थी। वे लिखते हैं : “रवींद्रनाथ से उनकी महानता रवींद्रनाथ से ठीक प्रतिकूल होने में है, उनके समान दिखने में नहीं।”

हिंदी आलोचना की यह कौन सी मजबूरी है कि एक रचनाकार की प्रयोगशीलता को महान सिद्ध करने के लिए किसी अन्य रचनाकार को हेटा सिद्ध किया ही जाये ? यह प्रवृत्ति आज भी जगह-जगह हिंदी आलोचना में देखने को मिल जाती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि चेतना में सदियों पुरानी जड़ जमाये बैठी सामंती मूल्य व्यवस्था जनित “असमानता” की भावना ही ऐसा करने के लिए प्रेरित करती हो। कहीं हम एक को “राजा” और दूसरे को “रंक” सिद्ध करने की ही कोशिश तो नहीं कर रहे होते हैं ?

गीतिकाव्य में प्रयोगशीलता

अन्य छायावादी कवियों की ही तरह हमें निराला काव्य में भी गीतों का अपार भंडार मिलता है जिसमें हम अनेक तरह के मनोभावों (मूड्स) और शिल्प के स्तर के अनेक नये प्रयोगों को देख सकते हैं। इन गीतों में हमें प्रेम गीत, ऋतु गीत, प्रार्थना गीत, राष्ट्रीय उद्बोधन के गीत, मृत्यु गीत और आत्मसाक्षात्कार के दार्शनिक गीत और यहाँ तक कि लोकगीत और ग़ज़लों के नये-नये रूप मिल जायेंगे। गीत विधा भारत के लोकजीवन का हिस्सा तो है ही, इसे साहित्यिक और कलात्मक ऊंचाई भक्ति आंदोलन के दौरान हासिल हुई। निर्गुण कवियों ने इसमें दार्शनिक तत्व का समावेश करके और सगुण कवियों ने लोकजीवन की छवियों और बिंबों से गीत विधा को भरीपूरी कलात्मक रचना का स्वरूप प्रदान किया। निराला में हम इन दोनों परंपराओं को तो देखते ही हैं, भाषिक संरचनाओं के अद्भुत प्रयोग भी पाते हैं। निराला ने एक गीत प्रफुल्लित आंखों पर लिखा था, उस गीत में आंखों की जिन-जिन खूबियों को वाचक ने गिनाया है वे सारी खूबियाँ निराला के गीतों पर भी लागू होती हैं :

द्रुमदल दल लोभी फुल्ल नयन ये

जीवन के मधु-गंध-चयन ये।

रवि के पूरक, रंग-रंग के

छाया-छवि कवि के अनंग के

व्यंग्य-व्यंग्य के संग-संग के,

अंग-अंग के शमित शयन ये।

देह भूमि के सजल श्याम घन

प्रणय पवन से ज्योतिर्वर्षण

उर के उत्पल के हर्षण-क्षण

आंदोलन के सृष्ट अयन ये।

प्रेम पाठ के पृष्ठ उभय ज्यों

खुले भी न अब तलक खुले हों,

नित्य अनित्य हो रहे हैं, यों ।

विविध-विश्व-दर्शन-प्रणयन ये।

जिस तरह आंखों के माध्यम से विविध मुडस की अभिव्यक्ति होती है, उसी तरह निराला के गीतों के माध्यम से भी। इन गीतों में भी “जीवन” है, “ज्योतिर्वर्षण” है, “श्याम घन” है, “आंदोलन” है, “प्रेम पाठ” है, “विविध विश्व-दर्शन” है, “नित्य-अनित्य” (मृत्यु) का संकेत है, तो “व्यंग्य” भी है।

निराला के गीतों की अंतर्वस्तु में प्रयोगशीलता के जो आयाम ऊपर गिनाये गये हैं, उन पर थोड़ा दृष्टिपात कर लें। पहले “जीवन” को ही लें, पराधीन भारत में अवाम का जीवन कोई जीवन नहीं था, यह अहसास हर संवेदनशील रचनाकार को व्यथित कर रहा था। इसलिए जीवन की आकांक्षा, एक स्वाधीन और मानवीय जीवन जीने की चाह को निराला ने अपने गीतों में अभिव्यक्ति दी। स्वाधीन जीवन तभी संभव है जब पराधीनता की रात में मुंदी हुई आंखे खोली जायें, तभी जीवन में बहार आ सकती है:

प्रिय, मुद्रित दृग खोलो।

गत स्वप्न-निशा का तिमिर जाल

नव किरणों से धो लो।

जीवन-प्रसून वह वृंतहीन

खुल गया उषा-नभ में नवीन

इसी गीत के अंतिम बंध में वाचक बताता है कि वासना प्रेयसी (जिजीविषा) बार-बार कहती है कि “प्रतिदिन के उपवन के जीवन में आई बहार/बहती इस विमल वायु में/बह चलने का बल तो लो।” निराला के ऐसे बहुत सारे गीत हैं जिनमें “जीवन” का उल्लेख ज़रूर होता है। एक अन्य गीत का भी अंत यही कहता है कि “तुम किरणों से अश्रू पोंछ लेते हो/नव प्रभात जीवन में भर देते हो।” एक अन्य गीत में वाचक “भारति” से कहता है कि “गह कर अकल तूलि, रंग-रंग कर/बहु जीवनोपाय भर दो घर/भारति, भारत को फिर दो वर।” यह अनुनय वाचक “जीवन-धनिके” से कर रहा है। इसी तरह जब वह “घन” से अनुनय करता है कि “घन, गर्जन से भर दो वन” तब उस गीत का अंत भी “जीवन” की मांग से होता है:

गरजो, हे मंद्र वज्र स्वर

थर्राये भूधर भूधर

झरझर झरझर धार झर

पल्लव पल्लव पर जीवन

इसी तरह “अभी न होगा मेरा अंत” शीर्षक गीत में वाचक “जीवन” की उद्दाम लालसा को उद्घाटित करता है:

पुष्प पुष्प से तंद्रालस लालसा खींच लूंगा मैं,

अपने नव जीवन का अमृत सहर्ष सींच दूंगा मैं

मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण

इसमें कहां मृत्यु

है जीवन ही जीवन

इसी तरह निराला ने “प्रेम” की शाश्वत थीम को भी जब अपने गीतों में पिरोया तो उनमें प्रयोगशीलता के नये आयाम जोड़े। निराला की इस प्रयोगशीलता या मौलिक सर्जना के बारे में दूधनाथसिंह ने लिखा है कि “इस मौलिक सर्जना की पृष्ठभूमि में निराला की प्रेमसंबंधी निजी और महत्वपूर्ण धारणा है। प्रेम उनके लिए वह महान तत्व है जो उन्हें भारयुक्त न करके भारमुक्त करता है। उन्हें पूर्ण बनाता है। व्यक्तित्व के भीतर जो खोखले, अंधेरे कोटर हैं उन्हें भरता है और आलोक फैलाता है। पूर्णता की अनुभूति ही उनके प्रेमगीतों में बार-बार अभिव्यक्त हुई है।” जैसा कि कहा जा चुका है, हिंदी आलोचक निराला की हर कविता को उनके “निजी” जीवन या “व्यक्तित्व” से जोड़ देते हैं, इसलिए उनके प्रेमगीतों को भी “लिरिकल” यानी निजी संवेगों की अभिव्यक्ति करार देते हैं तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं। हिंदी गीतों की महान परंपरा कभी “लिरिकल” नहीं रही, वह अपने स्वरूप में हमेशा “नाटकीय” रही, चाहे वह विद्यापति के गीत हों या सूर के भ्रमरगीत, उनमें कवि “स्व” से ऊपर उठकर एक वाचक की रचना करता है। निराला ने भी इसी परंपरा को विकसित किया। इसलिए दूधनाथसिंह का यह कथन सही नहीं है कि निराला ने “अपने से अपनी कविता को कभी भी अलगाया नहीं।” हर महान कवि को अपनी कविता को अपने से अलगाना पड़ता है और निराला ने भी यही किया।

दरअसल, प्रेम की थीम का आधार भी हमारा स्वाधीनता संग्राम था। गांधीवाद में सत्य, अहिंसा के साथ “प्रेम” भी मुक्ति का एक साधन था। ये उस दौर के जनवादी मूल्य थे। ब्रिटिश साम्राज्यवाद असत्य, हिंसा और क्रूरता का हिमायती. था, उससे लड़ने के लिए सत्य, अहिंसा और प्रेम के मानवीय मूल्य भारतीय जन को एकताबद्ध करते थे, बहुत सारे धर्मों और संस्कृतियों वाले इस देश में ये मूल्य सबकी साझा विरासत थे, इसलिए गांधी ने फ्रांस की क्रांति के तीन नारों “समता, स्वाधीनता, बंधुत्व” की जगह “सत्य, अहिंसा, प्रेम” के तीन नारे दिये। तिलक ने “स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा देकर इस सत्य को उजागर कर दिया। मुक्ति की इस अबाध राष्ट्रीय आकांक्षा ने जीवन के हर स्तर पर पुरानी जकड़बंदी से निजात पाने की नयी करवट ली। प्रेम संबंधों में भी यही नयी करवट अभिव्यक्त हुई जो हमें छायावाद के सभी कवियों में दिखायी देती है। निराला में भी प्रेम की अभिव्यक्ति को इसी परिप्रेक्ष्य मे देखना ज्यादा सही होगा।

प्रेम की अंतर्वस्तु के गीतों में प्रयोगशीलता के नये आयामों की ही तरह निराला के ऋतुगीतों में भी नवीनता झलकती है। “सखि, वसंत आया/भरा हर्ष वन के मन/नवोत्कर्ष छाया” या फिर वसंत के जाने पर लिखा हुआ गीत, “सुमन भर न लिये/सखि, वसंत गया” आदि निराला की प्रयोगशीलता के ही उदाहरण हैं। वर्षा और बादल पर निराला ने बहुत लिखा, गीतों के रूप में भी और कविताओं के रूप में भी। बादल मुक्ति के प्रतीक के रूप में हर साहित्य के रोमांटिक दौर में प्रयुक्त हुआ है। भारतीय कविता में तो इसकी परंपरा पहले से है। निराला ने “अलि, घर आये घन पावस के” जैसे गीत से लेकर “बादल छाये/ये मेरे अपने सपने/आंखों से निकले, मंडराये” और फिर “बादल राग” की मनःस्थिति से मिलते जुलते गीत, “गर्जन से भर दो वन” भी लिखे। उनके ऋतुगीतों में हर्ष, विषाद, मुक्ति की आकांक्षा और अन्य अनेक मानवीय भावों की अभिव्यक्ति मिलेगी, इसीलिए उनके गीत “लिरिकल” न होकर सार्वभौमिक सत्य या भावों की अभिव्यक्ति हैं।

ऋतगीतों के अलावा निराला ने बहत से प्रार्थनागीत भी रचे। इन गीतों के केंद्र में भी स्वाधीनता की चाह ही दिखायी देती है। “सरस्वती” के प्रति लिखे गये कई प्रार्थनागीत हैं जिनमें नये ज्ञान, नयी रचनाशीलता, नयी वाणी, नयी लय आदि की मांग है। भारती के बिंब में वे भारतमाता को भी देखते हैं, उसे शक्ति या दुर्गा या श्यामा का रूप भी देते हैं। ये एकदम नये प्रयोग हैं, राष्ट्रीयता के नये मूल्य को निराला ने इस तरह नयी बिंबात्मकता दी :

भारति, जय विजय करे

कनक – शस्य – कमल धरे! ।

लंका पदतल – शतदल

गर्जितोर्मि सागर – जल

धोता शुचि चरण-युगल

स्तव कर बहु अर्थ भरे !

मातृवंदना के अनेक स्वर नये-नये रूपों में निराला के काव्य में मिलते हैं। किसी गीत का वाचक कहता है कि “भीरुता के बंधे पाश सब छिन्न हों/मार्ग के रोध विश्वास से भिन्न हों/आज्ञा, जननि, दिवस-निशि करूँ अनुसरण” तो एक अन्य गीत में वाचक कहता है कि “मुक्त करूंगा तुझे अटल/तेरे चरणों पर देकर बलि/सकल श्रेय-श्रम-संचित फल।’ एक अन्य गीत में वाचक कहता है कि “प्रात तव द्वार पर/आया, जननि, नैश अंध पथ पार कर।” इसी तरह “एक बार बस और नाच तू श्यामा” जैसे गीत भी अभिनव प्रयोग हैं जिनमें कहीं भी “लिरिकल” तत्व नहीं है, देश की मुक्ति का पावन भाव है, निजत्व का समावेश नहीं।

निराला के कुछ गीत दार्शनिक सवालों पर हैं, इन्हीं गीतों में मृत्यु संबधी गीत भी आते हैं। “मरण को जिसने वरा है/उसी से जीवन भरा है।” या फिर “मुक्ति हूँ मैं, मृत्यु में/आयी हुई, न डरो।” दरअसल, हर बड़े कवि और दार्शनिक में कालबोध रहता ही है, अमरता हासिल करने के लिए यह ज़रुरी है। गौतम बुद्ध को भी यही ज्ञान हासिल हुआ था, निराला ने भी इसे अर्जित किया था कि जो “अस्ति” है, उसे “नास्ति’ होना है। इसलिए कालबोध के गीत भी निराला काव्य का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। “मैं अकेला/देखता हूँ, आ रही/मेरे दिवस की सांध्य बेला।” या फिर “स्नेह निर्झर बह गया है/रेत ज्यों तन रह गया है।” इसी कालबोध के दार्शनिक पहलू के गीत हैं।

लंबी कविताओं में प्रयोगशीलता

जिस तरह निराला ने गीत विधा को नये-नये प्रयोगों द्वारा एक ऊंचाई प्रदान की, उसी तरह उन्होंने लंबी कविताओं के भी नये-नये प्रयोग किये। इन लंबी कविताओं में शोकगीत, उद्बोधन कविताएं, आख्यानपरक कविता, नाट्यकविता आदि के प्रयोग मिलते हैं। “सरोज स्मृति” जैसा शोकगीत हो, या “छत्रपति शिवाजी का पत्र”, “यमुना के प्रति”, “जागो फिर एक बार” आदि जैसे उद्बोधन काव्य हों, या “राम की शक्तिपूजा”, “तुलसीदास” जैसे आख्यानक काव्य हों, सभी नये प्रयोग हैं। इनमें निराला ने छंदों, भावों, काव्यभाषा के नये प्रसाधनों का इस्तेमाल करके अपनी प्रतिभा और प्रयोगशीलता का अद्भुत परिचय दिया है। “छत्रपति शिवाजी का पत्र” में जहाँ कवित्त छंद की लय वाला मुक्त छंद ईज़ाद किया है तो “य उना के प्रति” में आल्हा की लय अपनायी है। अंग्रेज़ी के शोकगीत, खासकर टामस ग्रे द्वारा लिखित, “एक गांव के श्मशान में लिखा शोकगीत” की लय को “सरोज स्मृति” में अपनाया है। “राम की शक्तिपूजा” में “हीरोइक कपलेट” की झलक है।

इसी तरह उनकी इन रचनाओं में जहाँ भारतीय परंपरा की अलंकारप्रियता है वहीं वाल्ट व्हिटमैन जैसी कैटालागिंग यानी विवरणात्मकता है जिससे उनकी इन लंबी कविताओं में आधुनिक महाकाव्यात्मकता का गुण आ जाता है। इसी तरह निराला काव्यभाषा का भी एक विस्तृत मैदान रचते हैं जिसमें भावोचित भाषा के प्रयोग मिलेंगे, कहीं अत्यंत गरिष्ठ और संस्कृतनिष्ठ और कहीं एकदम बोलचाल की भाषा। अकेले “राम की शक्तिपूजा” को ही देखें तो पायेंगे कि युद्धवर्णन की भाषा में संस्कृतनिष्ठ समासयुक्त भाषा का प्रयोग है, मगर बाद में राम की मनोदशा के बदलने के साथ भाषा को भी बदल दिया गया है।

प्रयोगशीलता और काव्य विकास

निराला में प्रयोगशीलता की जो आकांक्षा थी उसी की वजह से उनकी काव्यधारा में लगातार विकास होता गया। भाव, दर्शन और चेतना में भी बदलाव आता गया। दूधनाथ सिंह ने उनके इस विकास को “काव्य आभिजात्य से मुक्ति का प्रयास” की संज्ञा दी है। निराला ने अपनी काव्ययात्रा के दौरान जब यह महसूस किया कि सदियों से चली आ रही शोषण व्यवस्था साधारण जन को ठगती आ रही है, तो उन्होंने इस सामाजिक सत्य को खोलना शुरू किया। भारत की मुक्ति का अर्थ केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद से ही मुक्ति नहीं था, सदियों से चली आ रही अमानवीय शोषण व्यवस्था से भी मुक्ति का सवाल हर संवेदनशील रचनाकार के सामने था। निराला ने इस सत्य को उद्घाटित किया :

बड़े बड़े ऋषि आये, मुनि आये कवि आये

तरह तरह की वाणी जनता को दे गये

किसी ने कहा कि एक तीन हैं

किसी ने कहा कि तीन तीन हैं।

किसी ने नसें टोई, किसी ने कमल देखे

किसी ने विहार किया, किसी ने अंगूठे चूमे

लोगों ने कहा कि धन्य हो गये

मगर खंजड़ी न गयी

दगा की इस सभ्यता ने दगा की

“दगा की इस सभ्यता” की पहचान के साथ ही निराला की काव्यभाषा किस तरह बदल गयी, यह उनके विकास का ही द्योतक है। निराला की कविता के इस जनपक्षधर रूप का आधार भी स्वाधीनता आंदोलन ही था जो कि शोषित दलित और साधारण जन की भागीदारी के बगैर सफल नहीं हो सकता था। साधारण जन की इस शक्ति का अहसास जिस तरह फ्रांस की क्रांति के समय यूरोप के रचनाकारों को हो गया था जिन्होंने दीन-हीन जन पर कविताएं और उपन्यास लिखे थे और अपने साहित्य को विकसित किया था, उसी तरह निराला ने भी दीन हीन जनों पर अपनी कविताएं और उपन्यास लिखकर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। स्वाधीन भारत में भी जब उन्होंने सत्ता का हस्तांतरण शोषकवर्गों यानी पूंजीपतियों और भूस्वामियों के हाथों देखा तो उन्होंने अपनी आलोचनात्मक यथार्थवादी दृष्टि से उस नये सत्य को भी सामने रखा। उनकी परवर्ती रचनाएँ इसी विकास की महत्वपूर्ण कड़ी हैं।

“राजे ने अपनी रखवाली की” जैसी रचना इसी वैचारिक विकास को दर्शाती है। “कुकुरमुत्ता” और “नये पत्ते” की रचनाएँ निराला की ऐसी ही प्रयोगशीलता की बेहतरीन मिसालें हैं। ये रचनाएँ नये यथार्थ की उन पर्तों को खोलती हैं जिन्हें उस दौर में समझना आसान नहीं था। इसके लिए जिस मुंहफट भाषा की दरकार थी, निराला ने उसी भाषा का इस्तेमाल किया :

आजकल पंडित जी देश में विराजते हैं।

बड़े बाप के बेटे

बीसियों भी पर्तों के अंदर खुले हुए

एक एक पर्त बड़े बड़े विलायती लोग

देश की बड़ी बड़ी थातियाँ लिये

हुए राजों के बाजू पकड़, बाप की वकालत से

कुर्सी रखने वाले अनुलंघ्य विद्या से

देसी जनों के बीच

लेंड़ी जमींदारों की आंखों तले रखे हुए

मिलों के मुनाफे खाने वालों के अभिन्न मित्र

विलायती राष्ट्र से समझौते के लिए

गले का चढ़ाव बोर्जुआज़ी का नहीं गया

पंडित जवाहरलाल नेहरू के माध्यम से भारतीय राजसत्ता का यह वैज्ञानिक सार तत्व निराला की उक्त कविता में बड़े पैनैपन से आ गया है। ऐसे दौर में जब डांगेपंथी कम्युनिस्ट जवाहरलाल नेहरू को जनवादी मानकर समर्थन देने की कोशिश में लगे थे, निराला की यथार्थवादी दृष्टि यह सही ही बता रही थी कि नेहरू जी भारतीय बड़े पूंजीपतियों और बड़े भूस्वामियों के हितसाधक थे और विदेशी पूंजीपतियों के साथ भी समझौते को तत्पर थे। इस यथार्थ उद्घाटन के लिए उन्होंने “फ्रेंच” शब्द “बोर्जुआजी” जिसे मार्क्सवादी चिंतक पूंजीपतिवर्ग के लिए प्रयुक्त करते हैं का इस्तेमाल अपनी कविता में किया।

इस तरह हम देखते हैं कि निराला काव्य का विकास प्रयोगशीलता की ललक के साथ ही हुआ था। वे हिंदी साहित्य को बहुत समृद्ध और विश्व स्तर का बनाना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अपनी वैचारिक और सौंदर्यशास्त्रीय तैयारी करके वैविध्यपूर्ण रचनाकर्म किया।

सारांश

इस प्रकार हमने ‘प्रयोगशीलता’ के प्रेरक तत्वों पर विस्तार से चर्चा करते हुए देखा कि किस प्रकार समय, युग बदलने पर साहित्य में स्वीकृत विषय और पारंपरित पुराने रूप, पद्धतियाँ, भाषा आदि पुराने पड़ जाते हैं, संप्रेषण की उनकी क्षमता कमतर होने लगती है, और किस प्रकार जागरूक, संवेदनशील रचनाकार नये कथ्य, नये रूप, नये छंद, नयी भाषा आदि का प्रयोग कर उन्हें इस रूप में संवदेनशील बनाते हैं ताकि अपने युग को समग्रता के साथ कलात्मक रूप में संप्रेषित करने में साहित्य कारगर हो सके। हमने यह भी देखा कि प्रयोगशीलता की इस प्रक्रिया में पुराने मूल्यों से यदि निर्णायक संघर्ष लड़ा गया हो तो नये मूल्य पुराने मूल्यों से तालमेल बिठाकर पैदा नहीं होते लेकिन यदि यह लड़ाई आधी-अधूरी हो तो दोनों तरह के मूल्य एक साथ चलते हुए दिखाई पड़ जाते हैं।

यही बात साहित्य पर भी, साहित्यिक विषयों, विधाओं, रूप, भाषा, छंद आदि पर भी समान रूप से लागू होती है। इसके बाद हमने निराला-काव्य में प्रयोगशीलता के तत्वों का विश्लेषण करते हुए देखा कि किस प्रकार निराला काव्य-विषय, भाषा, काव्य-रूप, छंद आदि में प्रयोग करते हैं और काव्य के भविष्य की दिशा निर्धारण में प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार निराला ने काव्य और कथन प्रणाली दोनों ही दृष्टियों से अपनी रचनात्मक प्रयोगशीलता का परिचय दिया है।

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