पुरस्कार : जयशंकर प्रसाद

प्रस्तुत इकाई में आप जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित ‘पुरस्कार’ कहानी का अध्ययन करेंगे। प्रेमचंद के समकालीन जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ जिस काल खंड में रची गई, कहानी के विकास की दृष्टि से वह अतीशय महत्व का काल था। देश में स्वाधीनता आंदोलन का जबर्दस्त जन-उभार आ चुका था और देश की क्रांतिकारी शक्तियाँ बहुत सक्रिय थी। ऐसे समय जब प्रसाद कहानी लेखन कर रहे थे तो क्या उनकी कहानियों में स्वाधीनता आंदोलन के जन उभार और देश की स्वाधीनता की आकांक्षा को अभिव्यक्ति मिली है अथवा नहीं, इसकी पड़ताल हम पुरस्कार कहानी के माध्यम से करेंगे। 

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • जयशंकर प्रसाद की कहानी पुरस्कार में अभिव्यक्त राष्ट्रीय भावना और व्यक्तिचेतना को समझ सकेंगे। मधूलिका के अतर्मन में स्वीकृत मूल्य और इच्छा के बीच चल रहे संघर्ष पर प्रकाश डाल सकेंगे;
  • दो परस्पर विरोधी मनोभावों के सामंजस्य के उहापोह को अभिव्यक्त कर सकेंगे;
  • एक सबल नारी के रूप में मधुलिका के चरित्र का चित्रण कर सकेंगे;
  • पुरस्कार के शिल्प पक्ष की विशेषताओं को प्रकट कर सकेंगे।

जयशंकर प्रसाद प्रेमचंद युग के एक महत्वपूर्ण कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। कहानी, कविता और नाटक. में इनकी रचनात्मक सक्रीयता एक साथ दिखाई देती है। सन 1910 में ‘प्रेम-पथिक’ के प्रकाशन से एक कवि के रूप में उदय के साथ सन् । 1912 में कहानियों के संकलन ‘छाया’ से वे कहानीकार के रूप में भी प्रतिष्ठित हुए। उनकी कहानियों का अंतिम संकलन ‘इंद्रजाल’ उनके निधन से एक वर्ष पूर्व 1936 में प्रकाशित हुआ था। काव्य और नाटक के साथ-साथ प्रसाद ने कहानी, उपन्यास एवं निबंध को एक विशिष्ट पहचान दी है। प्रसाद अंतर्मुखी प्रवृत्ति के लेखक थे किंतु अपने युग के प्रति वे उदासीन नहीं थे। उनकी रचनाओं में प्रेमचंद के लेखन में तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक हलचलों जैसी मुखर अभिव्यक्ति नहीं मिलती लेकिन देशव्यापी आंदोलन में उनकी हिस्सेदारी और प्रतिबद्धताएं भिन्न प्रकार से अभिव्यक्त हुई हैं। भारतीय संस्कृति, इतिहास और दर्शन की उनकी गहरी समझ और अध्ययन सर्जनात्मक स्तर पर एक भिन्न दिशा की ओर मुखरित होता हुआ दिखाई देता है। उनके यहाँ यथार्थवाद का आग्रह नहीं दिखता। देश की पराधीनता से उपजी भारतीय जनता की हताशा और पीड़ा को अभिव्यक्त करने और अतीत के प्रति मुग्ध होकर भारत के गौरवगान को उसके निराकरण को वर्तमान स्थिति में ढूंढ़ने की अपेक्षा याद करते चलते हैं।

इस प्रकार प्रसाद की कहानियाँ घोर अतीतवाद से प्रभावित दिखती हैं। संस्कृत इतिहास की उनकी व्याख्या काफी हद तक संकुचित होने का प्रमाण देती रहती है। ‘प्रसाद ने भारतीय इतिहास के मुस्लिम काल को लगभग नहीं के बराबर छुआ है। जहाँआरा’ और ‘गुलाम’ जैसी कहानियाँ अपवाद मात्र है। यहाँ भी प्रसाद के रचनात्मक सरोकार भिन्न प्रकार के हैं। ऋग्वैदिक संस्कृति के प्रति उनके मन में गहरा आकर्षण और श्रद्धा का भाव है। हिंदी कहानी : अस्मिता की तलाश – मधुरेश (पृ. 244)

प्रसाद जिस समय कहानियाँ लिख रहे थे वह स्वाधीनता आंदोलन के उत्कर्ष का काल था। देश में क्रांतिकारी आंदोलन सक्रीय था ऐसे में प्रसाद इन घटनाओं से पूरी तरह निर्लिप्त रहे हों ऐसा संभव नहीं था। स्वाधीनता की चेतना उनकी कहानियों में अभिव्यक्त जरूर हुई है लेकिन मुक्ति चेतना को इतिहास और संस्कृति तथा अतीत के साथ जोड़कर । इसके लिए उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों को माध्यम बनाया है जिनके द्वारा जातीय अभिमान और राष्ट्रीय स्वाधीनता के प्रति कटिबद्धता को दिखाया गया है।

प्रसाद के कुछ अन्य कहानी संग्रहों में महत्वपूर्ण हैं ‘प्रतिध्वनि’ 1926, ‘आंधी’ तथा आकाशदीप क्रमशः 1929 और 1931 और 1931 में प्रकाशित हुए थे। उनके प्रसिद्ध नाटक हैं ‘चंद्रगुप्त’, ‘स्कंदगुप्त’ और ‘ध्रुवस्वामिनी’।

पुरस्कार का केंद्रीय चरित्र मधूलिका है। उसके पिता सिंहमित्र ने युद्ध में कोशल की प्रतिष्ठा बचायी थी और स्वयं मधूलिका भी अपनी मातृभूमि से बहुत प्रेम करती है। वह अपने खेतों में अपना पसीना बहाकर मेहनत कर सुखपूर्वक जीवन बिता रही होती है कि एक राष्ट्रीय नियम उसे विचलित कर जाता है। कोशल के महाराज को एक दिन किसान बनना पड़ता था। वे एक चुने हुए खेत में बीज बोते थे और उस खेत का चौगुना मूल्य उसके स्वामी को राजकीय कोष से दे दिया जाता था। मधूलिका अपनी भूमि का मूल्य नहीं लेती। मगध का निर्वासित राजकुमार अरुण मधूलिका को महत्वाकांक्षा की सीढ़ी बनाना चाहता है। वह उसे राजा से दुर्ग के समीप की भूमि माँगने के लिए उकसाता है। वह भूमि मिल जाने पर अरुण वहाँ से दुर्ग पर आक्रमण की योजना बनाता है। वह सफल भी हो जाता लेकिन सहसा मधूलिका को याद आ गया कि वह कोशल के रक्षक वीर सिंहमित्र की कन्या है। वह अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए सन्नद्ध होती है। परिणामस्वरूप अरुण पकड़ा जाता है और महाराज मधूलिका से पुरस्कार माँगने के लिए कहते हैं। मधुलिका पुरस्कार स्वरूप में प्राणदंड’ माँगती है और बंदी अरुण के बगल में जाकर खड़ी हो जाती है।

कहानी: पुरस्कार

आर्द्रा नक्षत्र; आकाश में काले-काले बादलों की घुमड़, जिसमें देव-दुन्दुभी का गम्भीर घोष। प्राची के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण-पुरुष झाँकने लगा था।-देखने लगा महाराज की सवारी। शैलमाला के अञ्चल में समतल उर्वरा भूमि से सोंधी बास उठ रही थी। नगर-तोरण से जयघोष हुआ, भीड़ में गजराज का चामरधारी शुण्ड उन्नत दिखायी पड़ा। वह हर्ष और उत्साह का समुद्र हिलोर भरता हुआ आगे बढ़ने लगा।

प्रभात की हेम-किरणों से अनुरञ्जित नन्ही-नन्ही बूँदों का एक झोंका स्वर्ण-मल्लिका के समान बरस पड़ा। मंगल सूचना से जनता ने हर्ष-ध्वनि की।

रथों, हाथियों और अश्वारोहियों की पंक्ति जम गई। दर्शकों की भीड़ भी कम न थी। गजराज बैठ गया, सीढिय़ों से महाराज उतरे। सौभाग्यवती और कुमारी सुन्दरियों के दो दल, आम्रपल्लवों से सुशोभित मंगल-कलश और फूल, कुंकुम तथा खीलों से भरे थाल लिए, मधुर गान करते हुए आगे बढ़े।

महाराज के मुख पर मधुर मुस्क्यान थी। पुरोहित-वर्ग ने स्वस्त्ययन किया। स्वर्ण-रञ्जित हल की मूठ पकड़ कर महाराज ने जुते हुए सुन्दर पुष्ट बैलों को चलने का संकेत किया। बाजे बजने लगे। किशोरी कुमारियों ने खीलों और फूलों की वर्षा की।

कोशल का यह उत्सव प्रसिद्ध था। एक दिन के लिए महाराज को कृषक बनना पड़ता-उस दिन इंद्र-पूजन की धूम-धाम होती; गोठ होती। नगर-निवासी उस पहाड़ी भूमि में आनन्द मनाते। प्रतिवर्ष कृषि का यह महोत्सव उत्साह से सम्पन्न होता; दूसरे राज्यों से भी युवक राजकुमार इस उत्सव में बड़े चाव से आकर योग देते।

मगध का एक राजकुमार अरुण अपने रथ पर बैठा बड़े कुतूहल से यह दृश्य देख रहा था।

बीजों का एक बाल लिये कुमारी मधूलिका महाराज के साथ थी। बीज बोते हुए महाराज जब हाथ बढ़ाते, तब मधूलिका उनके सामने थाल कर देती। यह खेत मधूलिका का था, जो इस साल महाराज की खेती के लिए चुना गया था; इसलिए बीज देने का सम्मान मधूलिका ही को मिला। वह कुमारी थी। सुन्दरी थी। कौशेयवसन उसके शरीर पर इधर-उधर लहराता हुआ स्वयं शोभित हो रहा था। वह कभी उसे सम्हालती और कभी अपने रूखे अलकों को। कृषक बालिका के शुभ्र भाल पर श्रमकणों की भी कमी न थी, वे सब बरौनियों में गुँथे जा रहे थे। सम्मान और लज्जा उसके अधरों पर मन्द मुस्कराहट के साथ सिहर उठते; किन्तु महाराज को बीज देने में उसने शिथिलता नहीं की। सब लोग महाराज का हल चलाना देख रहे थे-विस्मय से, कुतूहल से। और अरुण देख रहा था कृषक कुमारी मधूलिका को। अहा कितना भोला सौन्दर्य! कितनी सरल चितवन!

उत्सव का प्रधान कृत्य समाप्त हो गया। महाराज ने मधूलिका के खेत का पुरस्कार दिया, थाल में कुछ स्वर्ण मुद्राएँ। वह राजकीय अनुग्रह था। मधूलिका ने थाली सिर से लगा ली; किन्तु साथ उसमें की स्वर्णमुद्राओं को महाराज पर न्योछावर करके बिखेर दिया। मधूलिका की उस समय की ऊर्जस्वित मूर्ति लोग आश्चर्य से देखने लगे! महाराज की भृकुटी भी जरा चढ़ी ही थी कि मधूलिका ने सविनय कहा-

देव! यह मेरे पितृ-पितामहों की भूमि है। इसे बेचना अपराध है; इसलिए मूल्य स्वीकार करना मेरी सामथ्र्य के बाहर है। महाराज के बोलने के पहले ही वृद्ध मन्त्री ने तीखे स्वर से कहा-अबोध! क्या बक रही है? राजकीय अनुग्रह का तिरस्कार! तेरी भूमि से चौगुना मूल्य है; फिर कोशल का तो यह सुनिश्चित राष्ट्रीय नियम है। तू आज से राजकीय रक्षण पाने की अधिकारिणी हुई, इस धन से अपने को सुखी बना।

राजकीय रक्षण की अधिकारिणी तो सारी प्रजा है, मन्त्रिवर! …. महाराज को भूमि-समर्पण करने में तो मेरा कोई विरोध न था और न है; किन्तु मूल्य स्वीकार करना असम्भव है।-मधूलिका उत्तेजित हो उठी।

महाराज के संकेत करने पर मन्त्री ने कहा-देव! वाराणसी-युद्ध के अन्यतम वीर सिंहमित्र की यह एक-मात्र कन्या है।-महाराज चौंक उठे-सिंहमित्र की कन्या! जिसने मगध के सामने कोशल की लाज रख ली थी, उसी वीर की मधूलिका कन्या है?

हाँ, देव! -सविनय मन्त्री ने कहा।

इस उत्सव के पराम्परागत नियम क्या हैं, मन्त्रिवर?-महाराज ने पूछा।

देव, नियम तो बहुत साधारण हैं। किसी भी अच्छी भूमि को इस उत्सव के लिए चुनकर नियमानुसार पुरस्कार-स्वरूप उसका मूल्य दे दिया जाता है। वह भी अत्यन्त अनुग्रहपूर्वक अर्थात् भू-सम्पत्ति का चौगुना मूल्य उसे मिलता है। उस खेती को वही व्यक्ति वर्ष भर देखता है। वह राजा का खेत कहा जाता है।

महाराज को विचार-संघर्ष से विश्राम की अत्यन्त आवश्यकता थी। महाराज चुप रहे। जयघोष के साथ सभा विसर्जित हुई। सब अपने-अपने शिविरों में चले गये। किन्तु मधूलिका को उत्सव में फिर किसी ने न देखा। वह अपने खेत की सीमा पर विशाल मधूक-वृक्ष के चिकने हरे पत्तों की छाया में अनमनी चुपचाप बैठी रही।

रात्रि का उत्सव अब विश्राम ले रहा था। राजकुमार अरुण उसमें सम्मिलित नहीं हुआ-अपने विश्राम-भवन में जागरण कर रहा था। आँखों में नींद न थी। प्राची में जैसी गुलाली खिल रही थी, वह रंग उसकी आँखों में था। सामने देखा तो मुण्डेर पर कपोती एक पैर पर खड़ी पंख फैलाये अँगड़ाई ले रही थी। अरुण उठ खड़ा हुआ। द्वार पर सुसज्जित अश्व था, वह देखते-देखते नगर-तोरण पर जा पहुँचा। रक्षक-गण ऊँघ रहे थे, अश्व के पैरों के शब्द से चौंक उठे।

युवक-कुमार तीर-सा निकल गया। सिन्धुदेश का तुरंग प्रभात के पवन से पुलकित हो रहा था। घूमता-घूमता अरुण उसी मधूक-वृक्ष के नीचे पहुँचा, जहाँ मधूलिका अपने हाथ पर सिर धरे हुए खिन्न-निद्रा का सुख ले रही थी।

अरुण ने देखा, एक छिन्न माधवीलता वृक्ष की शाखा से च्युत होकर पड़ी है। सुमन मुकुलित, भ्रमर निस्पन्द थे। अरुण ने अपने अश्व को मौन रहने का संकेत किया, उस सुषमा को देखने लिए, परन्तु कोकिल बोल उठा। जैसे उसने अरुण से प्रश्न किया-छि:, कुमारी के सोये हुए सौन्दर्य पर दृष्टिपात करनेवाले धृष्ट, तुम कौन? मधूलिका की आँखे खुल पड़ीं। उसने देखा, एक अपरिचित युवक। वह संकोच से उठ बैठी। -भद्रे! तुम्हीं न कल के उत्सव की सञ्चालिका रही हो?

उत्सव! हाँ, उत्सव ही तो था।

कल उस सम्मान….

क्यों आपको कल का स्वप्न सता रहा है? भद्र! आप क्या मुझे इस अवस्था में सन्तुष्ट न रहने देंगे?

मेरा हृदय तुम्हारी उस छवि का भक्त बन गया है, देवि!

मेरे उस अभिनय का-मेरी विडम्बना का। आह! मनुष्य कितना निर्दय है, अपरिचित! क्षमा करो, जाओ अपने मार्ग।

सरलता की देवि! मैं मगध का राजकुमार तुम्हारे अनुग्रह का प्रार्थी हूँ-मेरे हृदय की भावना अवगुण्ठन में रहना नहीं जानती। उसे अपनी….।

राजकुमार! मैं कृषक-बालिका हूँ। आप नन्दनबिहारी और मैं पृथ्वी पर परिश्रम करके जीनेवाली। आज मेरी स्नेह की भूमि पर से मेरा अधिकार छीन लिया गया है। मैं दु:ख से विकल हूँ; मेरा उपहास न करो।

मैं कोशल-नरेश से तुम्हारी भूमि तुम्हें दिलवा दूंगा।

नहीं, वह कोशल का राष्ट्रीय नियम है। मैं उसे बदलना नहीं चाहती-चाहे उससे मुझे कितना ही दु:ख हो।

तब तुम्हारा रहस्य क्या है?

यह रहस्य मानव-हृदय का है, मेरा नहीं। राजकुमार, नियमों से यदि मानव-हृदय बाध्य होता, तो आज मगध के राजकुमार का हृदय किसी राजकुमारी की ओर न खिंच कर एक कृषक-बालिका का अपमान करने न आता। मधूलिका उठ खड़ी हुई।

चोट खाकर राजकुमार लौट पड़ा। किशोर किरणों में उसका रत्नकिरीट चमक उठा। अश्व वेग से चला जा रहा था और मधूलिका निष्ठुर प्रहार करके क्या स्वयं आहत न हुई? उसके हृदय में टीस-सी होने लगी। वह सजल नेत्रों से उड़ती हुई धूल देखने लगी।

मधूलिका ने राजा का प्रतिपादन, अनुग्रह नहीं लिया। वह दूसरे खेतों में काम करती और चौथे पहर रूखी-सूखी खाकर पड़ रहती। मधूक-वृक्ष के नीचे छोटी-सी पर्णकुटीर थी। सूखे डंठलों से उसकी दीवार बनी थी। मधूलिका का वही आश्रय था। कठोर परिश्रम से जो रूखा अन्न मिलता, वही उसकी साँसों को बढ़ाने के लिए पर्याप्त था।

दुबली होने पर भी उसके अंग पर तपस्या की कान्ति थी। आस-पास के कृषक उसका आदर करते। वह एक आदर्श बालिका थी। दिन, सप्ताह, महीने और वर्ष बीतने लगे।

शीतकाल की रजनी, मेघों से भरा आकाश, जिसमें बिजली की दौड़-धूप। मधूलिका का छाजन टपक रहा था! ओढऩे की कमी थी। वह ठिठुरकर एक कोने में बैठी थी। मधूलिका अपने अभाव को आज बढ़ाकर सोच रही थी। जीवन से सामञ्जस्य बनाये रखने वाले उपकरण तो अपनी सीमा निर्धारित रखते हैं; परन्तु उनकी आवश्यकता और कल्पना भावना के साथ बढ़ती-घटती रहती है। आज बहुत दिनों पर उसे बीती हुई बात स्मरण हुई। दो, नहीं-नहीं, तीन वर्ष हुए होंगे, इसी मधूक के नीचे प्रभात में-तरुण राजकुमार ने क्या कहा था?

वह अपने हृदय से पूछने लगी-उन चाटुकारी के शब्दों को सुनने के लिए उत्सुक-सी वह पूछने लगी-क्या कहा था? दु:ख-दग्ध हृदय उन स्वप्न-सी बातों को स्मरण रख सकता था? और स्मरण ही होता, तो भी कष्टों की इस काली निशा में वह कहने का साहस करता। हाय री बिडम्बना!

आज मधूलिका उस बीते हुए क्षण को लौटा लेने के लिए विकल थी। दारिद्रय की ठोकरों ने उसे व्यथित और अधीर कर दिया है। मगध की प्रासाद-माला के वैभव का काल्पनिक चित्र-उन सूखे डंठलों के रन्ध्रों से, नभ में-बिजली के आलोक में-नाचता हुआ दिखाई देने लगा। खिलवाड़ी शिशु जैसे श्रावण की सन्ध्या में जुगनू को पकड़ने के लिए हाथ लपकाता है, वैसे ही मधूलिका मन-ही-मन कर रही थी। ‘अभी वह निकल गया’। वर्षा ने भीषण रूप धारण किया। गड़गड़ाहट बढ़ने लगी; ओले पड़ने की सम्भावना थी। मधूलिका अपनी जर्जर झोपड़ी के लिए काँप उठी। सहसा बाहर कुछ शब्द हुआ-

कौन है यहाँ? पथिक को आश्रय चाहिए।

मधूलिका ने डंठलों का कपाट खोल दिया। बिजली चमक उठी। उसने देखा, एक पुरुष घोड़े की डोर पकड़े खड़ा है। सहसा वह चिल्ला उठी-राजकुमार!

मधूलिका?-आश्चर्य से युवक ने कहा।

एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। मधूलिका अपनी कल्पना को सहसा प्रत्यक्ष देखकर चकित हो गई -इतने दिनों के बाद आज फिर!

अरुण ने कहा-कितना समझाया मैंने-परन्तु…..

मधूलिका अपनी दयनीय अवस्था पर संकेत करने देना नहीं चाहती थी। उसने कहा-और आज आपकी यह क्या दशा है?

सिर झुकाकर अरुण ने कहा-मैं मगध का विद्रोही निर्वासित कोशल में जीविका खोजने आया हूँ।

मधूलिका उस अन्धकार में हँस पड़ी-मगध का विद्रोही राजकुमार का स्वागत करे एक अनाथिनी कृषक-बालिका, यह भी एक विडम्बना है, तो भी मैं स्वागत के लिए प्रस्तुत हूँ।

शीतकाल की निस्तब्ध रजनी, कुहरे से धुली हुई चाँदनी, हाड़ कँपा देनेवाला समीर, तो भी अरुण और मधूलिका दोनों पहाड़ी गह्वर के द्वार पर वट-वृक्ष के नीचे बैठे हुए बातें कर रहे हैं। मधूलिका की वाणी में उत्साह था, किन्तु अरुण जैसे अत्यन्त सावधान होकर बोलता।

मधूलिका ने पूछा-जब तुम इतनी विपन्न अवस्था में हो, तो फिर इतने सैनिकों को साथ रखने की क्या आवश्यकता है?

मधूलिका! बाहुबल ही तो वीरों की आजीविका है। ये मेरे जीवन-मरण के साथी हैं, भला मैं इन्हें कैसे छोड़ देता? और करता ही क्या?

क्यों? हम लोग परिश्रम से कमाते और खाते। अब तो तुम…।

भूल न करो, मैं अपने बाहुबल पर भरोसा करता हूँ। नये राज्य की स्थापना कर सकता हूँ। निराश क्यों हो जाऊँ?-अरुण के शब्दों में कम्पन था; वह जैसे कुछ कहना चाहता था; पर कह न सकता था।

नवीन राज्य! ओहो, तुम्हारा उत्साह तो कम नहीं। भला कैसे? कोई ढंग बताओ, तो मैं भी कल्पना का आनन्द ले लूँ।

कल्पना का आनन्द नहीं मधूलिका, मैं तुम्हे राजरानी के सम्मान में सिंहासन पर बिठाऊँगा! तुम अपने छिने हुए खेत की चिन्ता करके भयभीत न हो।

एक क्षण में सरल मधूलिका के मन में प्रमाद का अन्धड़ बहने लगा-द्वन्द्व मच गया। उसने सहसा कहा-आह, मैं सचमुच आज तक तुम्हारी प्रतीक्षा करती थी, राजकुमार!

अरुण ढिठाई से उसके हाथों को दबाकर बोला-तो मेरा भ्रम था, तुम सचमुच मुझे प्यार करती हो?

युवती का वक्षस्थल फूल उठा, वह हाँ भी नहीं कह सकी, ना भी नहीं। अरुण ने उसकी अवस्था का अनुभव कर लिया। कुशल मनुष्य के समान उसने अवसर को हाथ से न जाने दिया। तुरन्त बोल उठा-तुम्हारी इच्छा हो, तो प्राणों से पण लगाकर मैं तुम्हें इस कोशल-सिंहासन पर बिठा दूँ। मधूलिके! अरुण के खड्ग का आतंक देखोगी?-मधूलिका एक बार काँप उठी। वह कहना चाहती थी…नहीं; किन्तु उसके मुँह से निकला-क्या?

सत्य मधूलिका, कोशल-नरेश तभी से तुम्हारे लिए चिन्तित हैं। यह मैं जानता हूँ, तुम्हारी साधारण-सी प्रार्थना वह अस्वीकार न करेंगे। और मुझे यह भी विदित है कि कोशल के सेनापति अधिकांश सैनिको के साथ पहाड़ी दस्युओं का दमन करने के लिए बहुत दूर चले गये हैं।

मधूलिका की आँखों के आगे बिजलियाँ हँसने लगी। दारुण भावना से उसका मस्तक विकृत हो उठा। अरुण ने कहा-तुम बोलती नहीं हो?

जो कहोगे, वह करूँगी….मन्त्रमुग्ध-सी मधूलिका ने कहा।

स्वर्णमञ्च पर कोशल-नरेश अर्द्धनिद्रित अवस्था में आँखे मुकुलित किये हैं। एक चामधारिणी युवती पीछे खड़ी अपनी कलाई बड़ी कुशलता से घुमा रही है। चामर के शुभ्र आन्दोलन उस प्रकोष्ठ में धीरे-धीरे सञ्चलित हो रहे हैं। ताम्बूल-वाहिनी प्रतिमा के समान दूर खड़ी है।

प्रतिहारी ने आकर कहा-जय हो देव! एक स्त्री कुछ प्रार्थना लेकर आई है।

आँख खोलते हुए महाराज ने कहा-स्त्री! प्रार्थना करने आई? आने दो।

प्रतिहारी के साथ मधूलिका आई। उसने प्रणाम किया। महाराज ने स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखा और कहा-तुम्हें कहीं देखा है?

तीन बरस हुए देव! मेरी भूमि खेती के लिए ली गई थी।

ओह, तो तुमने इतने दिन कष्ट में बिताये, आज उसका मूल्य माँगने आई हो, क्यों? अच्छा-अच्छा तुम्हें मिलेगा। प्रतिहारी!

नहीं महाराज, मुझे मूल्य नहीं चाहिए।

मूर्ख! फिर क्या चाहिए?

उतनी ही भूमि, दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की जंगली भूमि, वहीं मैं अपनी खेती करूँगी। मुझे एक सहायक मिल गया है। वह मनुष्यों से मेरी सहायता करेगा, भूमि को समतल भी बनाना होगा।

महाराज ने कहा-कृषक बालिके! वह बड़ी उबड़-खाबड़ भूमि है। तिस पर वह दुर्ग के समीप एक सैनिक महत्व रखती है।

तो फिर निराश लौट जाऊँ?

सिंहमित्र की कन्या! मैं क्या करूँ, तुम्हारी यह प्रार्थना….

देव! जैसी आज्ञा हो!

जाओ, तुम श्रमजीवियों को उसमें लगाओ। मैं अमात्य को आज्ञापत्र देने का आदेश करता हूँ।

जय हो देव!-कहकर प्रणाम करती हुई मधूलिका राजमन्दिर के बाहर आई।

दुर्ग के दक्षिण, भयावने नाले के तट पर, घना जंगल है, आज मनुष्यों के पद-सञ्चार से शून्यता भंग हो रही थी। अरुण के छिपे वे मनुष्य स्वतन्त्रता से इधर-उधर घूमते थे। झाड़ियों को काट कर पथ बन रहा था। नगर दूर था, फिर उधर यों ही कोई नहीं आता था। फिर अब तो महाराज की आज्ञा से वहाँ मधूलिका का अच्छा-सा खेत बन रहा था। तब इधर की किसको चिन्ता होती?

एक घने कुञ्ज में अरुण और मधूलिका एक दूसरे को हर्षित नेत्रों से देख रहे थे। सन्ध्या हो चली थी। उस निविड़ वन में उन नवागत मनुष्यों को देखकर पक्षीगण अपने नीड़ को लौटते हुए अधिक कोलाहल कर रहे थे।

प्रसन्नता से अरुण की आँखे चमक उठीं। सूर्य की अन्तिम किरण झुरमुट में घुसकर मधूलिका के कपोलों से खेलने लगी। अरुण ने कहा-चार प्रहर और, विश्वास करो, प्रभात में ही इस जीर्ण-कलेवर कोशल-राष्ट्र की राजधानी श्रावस्ती में तुम्हारा अभिषेक होगा और मगध से निर्वासित मैं एक स्वतन्त्र राष्ट्र का अधिपति बनूँगा, मधूलिके!

भयानक! अरुण, तुम्हारा साहस देखकर मैं चकित हो रही हूँ। केवल सौ सैनिकों से तुम…

रात के तीसरे प्रहर मेरी विजय-यात्रा होगी।

तो तुमको इस विजय पर विश्वास है?

अवश्य, तुम अपनी झोपड़ी में यह रात बिताओ; प्रभात से तो राज-मन्दिर ही तुम्हारा लीला-निकेतन बनेगा।

मधूलिका प्रसन्न थी; किन्तु अरुण के लिए उसकी कल्याण-कामना सशंक थी। वह कभी-कभी उद्विग्न-सी होकर बालकों के समान प्रश्न कर बैठती। अरुण उसका समाधान कर देता। सहसा कोई संकेत पाकर उसने कहा-अच्छा, अन्धकार अधिक हो गया। अभी तुम्हें दूर जाना है और मुझे भी प्राण-पण से इस अभियान के प्रारम्भिक कार्यों को अर्द्धरात्रि तक पूरा कर लेना चाहिए; तब रात्रि भर के लिए विदा! मधूलिके!

मधूलिका उठ खड़ी हुई। कँटीली झाड़ियों से उलझती हुई क्रम से, बढ़नेवाले अन्धकार में वह झोपड़ी की ओर चली।

पथ अन्धकारमय था और मधूलिका का हृदय भी निविड़-तम से घिरा था। उसका मन सहसा विचलित हो उठा, मधुरता नष्ट हो गई। जितनी सुख-कल्पना थी, वह जैसे अन्धकार में विलीन होने लगी। वह भयभीत थी, पहला भय उसे अरुण के लिए उत्पन्न हुआ, यदि वह सफल न हुआ तो? फिर सहसा सोचने लगी-वह क्यों सफल हो? श्रावस्ती दुर्ग एक विदेशी के अधिकार में क्यों चला जाय? मगध का चिरशत्रु! ओह, उसकी विजय! कोशल-नरेश ने क्या कहा था-‘सिंहमित्र की कन्या।’ सिंहमित्र, कोशल का रक्षक वीर, उसी की कन्या आज क्या करने जा रही है? नहीं, नहीं, मधूलिका! मधूलिका!!’ जैसे उसके पिता उस अन्धकार में पुकार रहे थे। वह पगली की तरह चिल्ला उठी। रास्ता भूल गई।

रात एक पहर बीत चली, पर मधूलिका अपनी झोपड़ी तक न पहुँची। वह उधेड़बुन में विक्षिप्त-सी चली जा रही थी। उसकी आँखों के सामने कभी सिंहमित्र और कभी अरुण की मूर्ति अन्धकार में चित्रित होती जाती। उसे सामने आलोक दिखाई पड़ा। वह बीच पथ में खड़ी हो गई। प्राय: एक सौ उल्काधारी अश्वारोही चले आ रहे थे और आगे-आगे एक वीर अधेड़ सैनिक था। उसके बायें हाथ में अश्व की वल्गा और दाहिने हाथ में नग्न खड्ग। अत्यन्त धीरता से वह टुकड़ी अपने पथ पर चल रही थी। परन्तु मधूलिका बीच पथ से हिली नहीं। प्रमुख सैनिक पास आ गया; पर मधूलिका अब भी नहीं हटी। सैनिक ने अश्व रोककर कहा-कौन? कोई उत्तर नहीं मिला। तब तक दूसरे अश्वारोही ने सड़क पर कहा-तू कौन है, स्त्री? कोशल के सेनापति को उत्तर शीघ्र दे।

रमणी जैसे विकार-ग्रस्त स्वर में चिल्ला उठी-बाँध लो, मुझे बाँध लो! मेरी हत्या करो। मैंने अपराध ही ऐसा किया है।

सेनापति हँस पड़े, बोले-पगली है।

पगली नहीं, यदि वही होती, तो इतनी विचार-वेदना क्यों होती? सेनापति! मुझे बाँध लो। राजा के पास ले चलो।

क्या है, स्पष्ट कह!

श्रावस्ती का दुर्ग एक प्रहर में दस्युओं के हस्तगत हो जायेगा। दक्षिणी नाले के पार उनका आक्रमण होगा।

सेनापति चौंक उठे। उन्होंने आश्चर्य से पूछा-तू क्या कह रही है?

मैं सत्य कह रही हूँ; शीघ्रता करो।

सेनापति ने अस्सी सैनिकों को नाले की ओर धीरे-धीरे बढ़ने की आज्ञा दी और स्वयं बीस अश्वारोहियों के साथ दुर्ग की ओर बढ़े। मधूलिका एक अश्वारोही के साथ बाँध दी गई।

श्रावस्ती का दुर्ग, कोशल राष्ट्र का केन्द्र, इस रात्रि में अपने विगत वैभव का स्वप्न देख रहा था। भिन्न राजवंशों ने उसके प्रान्तों पर अधिकार जमा लिया है। अब वह केवल कई गाँवों का अधिपति है। फिर भी उसके साथ कोशल के अतीत की स्वर्ण-गाथाएँ लिपटी हैं। वही लोगों की ईष्र्या का कारण है। जब थोड़े से अश्वारोही बड़े वेग से आते हुए दुर्ग-द्वार पर रुके, तब दुर्ग के प्रहरी चौंक उठे। उल्का के आलोक में उन्होंने सेनापति को पहचाना, द्वार खुला। सेनापति घोड़े की पीठ से उतरे। उन्होंने कहा-अग्निसेन! दुर्ग में कितने सैनिक होंगे?

सेनापति की जय हो! दो सौ ।

उन्हें शीघ्र ही एकत्र करो; परन्तु बिना किसी शब्द के। सौ को लेकर तुम शीघ्र ही चुपचाप दुर्ग के दक्षिण की ओर चलो। आलोक और शब्द न हों।

सेनापति ने मधूलिका की ओर देखा। वह खोल दी गई। उसे अपने पीछे आने का संकेत कर सेनापति राजमन्दिर की ओर बढ़े। प्रतिहारी ने सेनापति को देखते ही महाराज को सावधान किया। वह अपनी सुख-निद्रा के लिये प्रस्तुत हो रहे थे; किन्तु सेनापति और साथ में मधूलिका को देखते ही चञ्चल हो उठे। सेनापति ने कहा-जय हो देव! इस स्त्री के कारण मुझे इस समय उपस्थित होना पड़ा है।

महाराज ने स्थिर नेत्रों से देखकर कहा-सिंहमित्र की कन्या! फिर यहाँ क्यों? क्या तुम्हारा क्षेत्र नहीं बन रहा है? कोई बाधा? सेनापति! मैंने दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की भूमि इसे दी है। क्या उसी सम्बन्ध में तुम कहना चाहते हो?

देव! किसी गुप्त शत्रु ने उसी ओर से आज की रात में दुर्ग पर अधिकार कर लेने का प्रबन्ध किया है और इसी स्त्री ने मुझे पथ में यह सन्देश दिया है।

राजा ने मधूलिका की ओर देखा। वह काँप उठी। घृणा और लज्जा से वह गड़ी जा रही थी। राजा ने पूछा-मधूलिका, यह सत्य है!

हाँ, देव!

राजा ने सेनापति से कहा-सैनिकों को एकत्र करके तुम चलो मैं अभी आता हूँ। सेनापति के चले जाने पर राजा ने कहा-सिंहमित्र की कन्या! तुमने एक बार फिर कोशल का उपकार किया। यह सूचना देकर तुमने पुरस्कार का काम किया है। अच्छा, तुम यहीं ठहरो। पहले उन आतताईयों का प्रबन्ध कर लूँ।

अपने साहसिक अभियान में अरुण बन्दी हुआ और दुर्ग उल्का के आलोक में अतिरञ्जित हो गया। भीड़ ने जयघोष किया। सबके मन में उल्लास था। श्रावस्ती-दुर्ग आज एक दस्यु के हाथ में जाने से बचा था। आबाल-वृद्ध-नारी आनन्द से उन्मत्त हो उठे।

ऊषा के आलोक में सभा-मण्डप दर्शकों से भर गया। बन्दी अरुण को देखते ही जनता ने रोष से हूँकार करते हुए कहा-‘वध करो!’ राजा ने सबसे सहमत होकर आज्ञा दी-‘प्राण दण्ड।’ मधूलिका बुलायी गई। वह पगली-सी आकर खड़ी हो गई। कोशल-नरेश ने पूछा-मधूलिका, तुझे जो पुरस्कार लेना हो, माँग। वह चुप रही।

राजा ने कहा-मेरी निज की जितनी खेती है, मैं सब तुझे देता हूँ। मधूलिका ने एक बार बन्दी अरुण की ओर देखा। उसने कहा-मुझे कुछ न चाहिए। अरुण हँस पड़ा। राजा ने कहा-नहीं, मैं तुझे अवश्य दूँगा। माँग ले।

तो मुझे भी प्राणदण्ड मिले। कहती हुई वह बन्दी अरुण के पास जा खड़ी हुई।

राष्ट्रीय भावना और व्यक्ति चेतना

‘पुरस्कार’ कहानी के लेख के पीछे जयशंकर प्रसाद की दृष्टि क्या थी इसे जानना हमारे लिए जरूरी है। स्वाधीनता आंदोलन के काल में देश के इतिहास और संस्कृति के प्रति गौरव और गरिमा की दृष्टि का विकास करना तथा अस्मिता की पहचान कराना जिससे कि स्वाधीनता आंदोलन में जनसामान्य की ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी बढ़ सके । जयशंकर प्रसाद की सोच के अनुसार स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अपने इस इतिहास का स्मरण कराना निश्चय ही जनता में स्फूर्ति और प्रेरणा का संचार कर सकेगी। इस प्रकार की सोच का जनसामान्य पर कितना प्रभाव हुआ होगा यह निश्चित रूप से कहना मुश्किल है लेकिन पुनरुत्थानवादी दृष्टि के विकास द्वारा देश की स्वतंत्रता के लिए वातावरण निर्मिति का ही प्रयास दृष्टिगत होता है। इसी दृष्टिकोण से प्रसाद ऐतिहासिक पौराणिक कथाओं को उस समय के परिवेश की जरूरत के अनुसार ढालने की कोशिश करते दिखाई देते हैं।

जयशंकर प्रसाद के प्रथम संग्रह की अधिकांश कहानियाँ ऐतिहासिक पृष्टभूमि पर रचित कहानियाँ है। लेकिन कहानियों को पढ़ने के बाद कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि इन कहानियों में जिस इतिहास और संस्कृति, गौरव को मुख्य आधार बनाया गया है वह वर्तमान काल में अर्थात् स्वाधीनता-आंदोलन के लिए वातावरण निर्मिति में बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही है। यह भी कह सकते हैं कि स्वयं प्रसाद का भी राष्ट्रीय संदर्भो में इसके उपयोग के प्रति विशेष आग्रह नहीं दिखता।

‘पुरस्कार’ का मूल्यांकन करते समय यह स्मरण रखना जरूरी है कि ‘राष्ट्र’ की जो … अवधारणा आज है, वह इस कहानी के घटित होने के समय यथावत् नहीं थी। आज एक विशाल भूखंड में रहने वाले एक ही प्रजाति के निवासियों को राष्ट्र माना जाता है। जिनका इतिहास एक होता है और संस्कृति भी बहुत भिन्न नहीं होती। ‘पुरस्कार’ में जो कोशल राष्ट्र है, वह कुछ गाँवों का राज्य भर है, जिसका केन्द्र श्रावस्ती दुर्ग है। कभी कौशल एक बड़ा राज्य रहा होगा, लेकिन कहानी में अरुण जिस कोशल का । अधिपति बनना चाहता है, वह एक छोटा-सा राज्य है। कहानीकार ने इस राष्ट्र का परिचय इस प्रकार दिया है –

“श्रावस्ती का दुर्ग, कोशल राष्ट्र का केंद्र, इस रात्रि में अपने विगत वैभव का स्वप्न देख रहा था। भिन्न राजवंशों ने उसके प्रांतों पर अधिकार जमा लिया है। अब वह कई गाँवों का अधि पिति है। फिर भी इसके साथ कोशल के अतीत की स्वर्णगाथाएँ लिपटी हैं।”

यहाँ अतीत की चर्चा से संकेत है कि इस राष्ट्र के लोगों का अपना एक गौरवशाली इतिहास है। इसके बावजूद यही लगता है कि ‘पुरस्कार’ कहानी का राष्ट्र या तो एक राज्य का बोधक है या फिर जन्मभूमि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

मधूलिका को राष्ट्र-प्रेम विरासत में मिला है। इसीलिए अपनी भूमि ले लिए जाने पर वह दुखी तो होती है लेकिन उस नियम की अवज्ञा नहीं करना चाहती। उसका दुख है – “आज मेरे स्नेह की भूमि पर मेरा अधिकार छीन लिया गया है। मैं दुख से विकल हूँ ……” अरुण उसे उसकी जमीन वापस दिलवाने का आश्वासन देता है तो वह अपने व्यक्तिगत दुख पर राष्ट्रीय नियम को वरीयता देती है”

नहीं वह कौशल का राष्ट्रीय नियम है। मैं इसे बदलना नहीं चाहती – चाहे उससे मुझे कितना ही दुख हो।”

‘प्रणय’ एक व्यक्तिगत मूल्य है, जबकि देश-रक्षा एक सामाजिक दायित्व है। ‘पुरस्कार’ कहानी में एक समय ऐसा आया है, जब व्यक्तिगत स्वार्थ अधिक महत्वपूर्ण दिखायी देता है। अरुण के प्रेम में मुग्ध और बेसुध मधुलिका अरुण के षड़यंत्र का अंग बन जाती है। कौशल की पराधीनता के विषय में वह कुछ भी सोच-विचार नहीं करती। लेकिन निर्णायक क्षणों में वह गहरे द्वन्द्व का शिकार हो जाती है। इस द्वंद्व में देश-प्रेम और राष्ट्रीय-चेतना का पलड़ा भारी पड़ता है -.

“श्रावस्ती – दुर्ग एक विदेशी के अधिकार में क्यों चला जाये मगध कौशल का चिरशत्रु । ओह, उसकी विजय। कौशल नरेश ने क्या कहा था – ‘सिंहमित्र की कन्या’ सिंहमित्र कौशल का रक्षक वीर, उसी की कन्या आज क्या करने जा रही है नहीं नहीं।”

वह सेनापति को अरुण के अभियान की सूचना देती है। राजा इस सूचना के लिए उसका आभार व्यक्त करते हैं – “सिंहमित्र की कन्या! तुमने एक बार फिर कोशल का उपकार किया। यह सूचना देकर तुमने पुरस्कार का काम किया है।” वह उसे पुरस्कार में अपनी निज की सारी खेती देने का प्रस्ताव करता है। लेकिन जयशंकर ‘प्रसाद’ के कथा चरित्र इतने सपाट नहीं है। मधुलिका के चरित्र की जटिलता फिर व्यक्त होती है। वह अपने सामाजिक दायित्व और राष्ट्रीय भावना का निर्वाह करने के बाद अपने निजी लगाव के लिए भी अपना समर्पण जताती है। ‘सच्चा प्रेम वही है, जिसकी तृप्ति आत्मबलि पर हो निर्भर’ – यह स्वच्छंदतावादी बोध इस कहानी के अंत में ध्वनित है। राष्ट्रीय-भावना और व्यक्ति-चेतना-दोनों का एक साथ सामंजस्य बैठाने का या दोनों के प्रति अपना समर्पण सिद्ध करने की शक्ति मधूलिका जैसे इने गिने चरित्रों में ही मिलती है और इस असाध्य को साधने का कोशल प्रसाद जैसे कथा-शिल्पी द्वारा ही संभव है।

इच्छा और स्वीकृति मूल्यों का संघर्ष

‘पुरस्कार’ में राष्ट्रीय भावना और व्यक्ति चेतना के टकराव को एक और रूप में देख सकते हैं। यह विधान और प्रवृत्ति का द्वंद्व भी है। ‘विधान’ अर्थात् मान्य और स्वीकृत मूल्य तथा प्रवृत्ति का मतलब व्यक्ति की अपनी इच्छा। कहानी में जिस ‘राष्ट्रीय नियम’ का उल्लेख है, वह विधान का एक अंग है। राजा जिस भूमि को चाहे ले सकता है और प्रजा के लिए बाध्यता है कि वह उसे शिरोधार्य कर ले। मधूलिका भी अनचाहे अपने ‘स्नेह की भूमि’ को राजा के अधिकार में जाते देखती है और उसका कोई प्रत्यक्ष विरोध नहीं करती है। लेकिन पुरस्कार में प्राप्त स्वर्ण मुद्राओं को न्यौछावर . करके बिखेर देती है, जिसका अभिप्राय यह है कि वह अपनी भूमि को बेचना नहीं चाहती। वह चकित राजा से कहती है –

“देव! यह मेरे पितृ-पितामहों की भूमि है। इसे बेचना अपराध है। इसका मूल्य स्वीकार करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है।”

यह उद्धरण मधूलिका की प्रवृत्ति’ को रेखांकित करता है, जबकि ‘विधान’ की कठोरता मंत्री के कथन में व्यक्त हुई है।

“अबोध, क्या बक रही है राजकीय अनुग्रह का तिरस्कार! तेरी भूमि का चौगुना मूल्य है, फिर कोशल का यह सुनिश्चित राष्ट्रीय नियम है। तुम राजकीय रक्षण पाने की  कारिणी हुई. इस धन से अपने को सुखी बना।”

प्रसाद के कथा चरित्र एकदम विद्रोही और व्यवस्था – विरोधी नहीं साबित होते। लेकिन वे अपनी असहमति को सांकेतिक रूप में अभिव्यक्त करते हैं। ‘आकाश दीप’ की चंपा सबल और समृद्ध बुधगुप्त के विवाह-प्रस्ताव को अस्वीकार करती है, ‘देवस्थ’ में सुजाता – धर्म-शासन’ और ‘वासना तृप्ति के द्वंद्व को रेखांकित करती है। ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक, में प्रसाद ने राजा और प्रजा के रिश्ते को पर्वत-शिखर और कोमल लताओं के प्रतीक से व्यक्त करते हुए व्यंग्य किया है कि कठोर शिखर के चरणों में लोटना लताओं की नियति है। यह नियति मधूलिका की भी है। लेकिन वह भूमि के बदले में दी जाने वाली मद्राएँ अस्वीकार कर अपना विरोध दर्शाती है। वह राजकीय नियम की मर्यादा नहीं तोड़ती, लेकिन मूल्य न स्वीकार करके वह अपनी स्वाभिमानी प्रवृत्ति की रक्षा का प्रयास भी करती है। उसके अनुसार

“महाराज को भूमि समर्पण करने में मेरा कोई विरोध न था और न है, किंतु मूल्य  स्वीकार करना अंसभव है।”

यहीं मधूलिका जब अरुण के समझाने पर राजकीय नियम के तहत अपनी भूमि के मूल्य-स्वरूप सुरक्षा दृष्टि से महत्व की जमीन राजा से मांगती है तो इसके पीछे प्रेम में कुछ भी कर गुजरने की एक प्रेममुग्धा तरुणी के मनोभावों की अभिव्यक्ति है। अरुण के प्रति उसका लगाव उसे अपने पूर्वजों की भूमि का मूल्य लेने को विवश कर देता है। कहानी का अंत ‘प्रवृत्ति के दबाव और शक्ति का सूचक है। राजा के पक्ष से देखें तो वहाँ भी प्रवृत्ति’ और ‘विधान’ का द्वंद्व है। राजा जानता है कि मधूलिका जिस जमीन को माँग रही है, वह उसके राज्य की सुरक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण है। लेकिन वह मधूलिका की प्रार्थना को स्वीकार कर लेता है। प्रार्थना स्वीकृत होने का एक कारण मधूलिका का सिंहमित्र की कन्या’ होना है। लेकिन मुख्य कारण राजकीय नियम का पालन माना जा सकता है।

‘पुरस्कार’ कहानी में घटनाएँ उतनी प्रधान नहीं हैं, जितनी भावनाएँ और मूल्य-मर्यादाएँ, जिनका आपसी संघर्ष कहानी के ‘कथ्य’ को सघन और प्रखर बनाता है। इनमें भी राष्ट्रीय भावना और व्यक्ति चेतना का तनाव कई रूपों में व्यक्त हुआ है

  • पुरस्कार’ कहानी में राष्ट्र की अवधारणा उसके आधुनिक अर्थ से पूर्णतः मेल नहीं खाती। इसमें ‘राष्ट्र’ कुछ संकुचित अर्थ में पितृ-पितामहों के देश और जम्न-भूमि के रूप में है। कुछ थोड़े से किलों और गाँवों का सम्मिलित रूप इसमें ‘कोशल’ राष्ट्र के रूप में है। इसकी राष्ट्रीयता मगध की राष्ट्रीयता से अलग-थलग है।
  • जिस युग की यह कहानी है, उस काल में राज्य के लिए प्राण देना स्वदेश-प्रेम का चरम उत्कर्ष माना जाता था। समाज और राज्य की ओर से ऐसे व्यक्ति को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। मधूलिका भी सिंहमित्र की कन्या होने का गर्व अनुभव करती है।
  • जब व्यक्ति की अपनी इच्छाएँ प्रबल होती हैं, जब वह कभी-कभी समाज और राष्ट्र की चिंता नहीं करता। मधलिका भी अरुण के प्रेम-प्रवाह में अपना सामाजिक दायित्व भूल जाती है। लेकिन पिता के बलिदान का स्मरण उसे देश के प्रति विश्वासघात से बचा लेता है।
  • इस कहानी की यह विशेषता है कि सपाट और उग्र राष्ट्रीय भावना को गौरवान्वित करना इसका लक्ष्य नहीं है। मधूलिका अपनी जन्मभूमि तो बचाती ही है लेकिन अपने ‘प्रेम’ की रक्षा भी करती है। वह स्वयं प्राण देने के लिए प्रस्तुत हो जाती है।
  • इस कहानी में राष्ट्रीय भावना और व्यक्तिा चेतना के तनाव को ‘विधान और ‘प्रवत्ति’ के द्वंद्व के रूप में देखा जा सकता है। विधान’ और प्रवृत्ति’ में सामंजस्य बैठाने और दोनों का ही निर्वाह करने की कोशिश ने इस कहानी को विशिष्ट बना दिया है।

मधूलिका का अंर्तद्वंद्व

मधूलिका कभी कोशल के प्रति अपने अनुराग की ओर झुकती है तो कभी प्रेम का वह पक्ष प्रबल हो जाता है जो अरुण से संबंधित है। द्वंद्व की स्थिति अरुण के प्रति प्रेम को लेकर भी है। मगध का राजकुमार अरुण प्रथम दर्शन में ही मधूलिका के प्रति आसक्त हो जाता है और उससे अपना प्रणय-भाव निवेदन कर देता है “मैं मगध का राजकुमार तुम्हारे अनुग्रह का प्रार्थी हूँ। मेरे हृदय की भावना अवगुण्ठन में रहना नहीं जानती लेकिन मधूलिका को अपनी हैसियत का ध्यान है। वह वर्ग भेद की खाई से परिचित है “राजकुमार! मैं कृषक बालिका हूँ। आप नंदन बिहारी और मैं पृथ्वी पर परिश्रम करके जीने वाली। आज मेरे स्नेह की भूमि पर मेरा अधिकार छीन लिया गया है। मैं दुख से निकज हु। मेरा उपहास न करो।”

यह उद्धरण बताता है कि प्रणय का प्रार्थी अरुण उसी वर्ग का है, जिसने मधुलिका की “स्नेह की भमि’ को छीन लिया है। अतः उस वर्ग के व्यक्ति के प्रति विकर्षण स्वाभाविक है। इसलिए मधूलिका अरुण के प्रति कठोर बनती है। प्रसाद की कहानियों में विकर्षण से आकर्षण और घृणा से प्रेम की जुगलबंदी प्रायः मिलती है। ‘मधुलिका सामंत वर्ग” से, उसकी मानसिकता से घृणा करती है, लेकिन अरुण एक युवा के रूप में उसे अच्छा लगता है। अतः उसका तिरस्कार. करके वह स्वयं भी कम आहत नहीं होती – “चोट खाकर राजकुमार लौट पड़ा। किशोर किरणों में उसका रत्न किरीट चमक उठा। अश्व वेग से चला जा रहा था और मूधलिका निष्ठुर प्रहार करके क्या स्वयं आहत नहीं हुई उसके हृदय में टीस-सी होने लगी।”

मधूलिका के हृदय की यह ‘टीस’ स्थाई पीड़ा बन जाती है। घोर अभाव का जीवन जीते हुए इस पीड़ा का नुकीलापन बढ़ जाता है। उसका मन कई बार पश्चाताप करता है कि उसने सौभाग्य का तिरस्कार क्यों कर दिया। यहाँ उसकी अपनी वास्तविक स्थिति-नियति, उसके सुख-स्वप्न से टकराती है। उसका द्वंद्व, उसका असमंजस शीध एक किनारा पा जाता है। उसे लगता है कि यह राजकुमार की प्रतीक्षा कर रही है, उसे प्रेम करने लगी है। कहानीकार ने उसकी व्यग्रता और भावनात्मक उतार-चढ़ाव को बहुत सलीके से बयान किया है।

“आज मधूलिका उस बीते हुए क्षण को लौटा लेने के लिए विकल थी। असहाय दारिद्रय की ठोकरों ने उसे व्यथित और अधीर कर दिया था। मगध की प्रसाद माला के वैभव का काल्पनिक चित्र, उन सूखेडंठलों के रंधों से नीचे नभ में – बिजली के आलोक में नाचता हुआ दिखाई देने लगा।”

मधूलिका एक सरल हृदय, मेहनती तरुणी है, जो अपने खेतों में काम करके अपने जीने भर के लिए अनाज उगाती है। वह अपनी इस स्थिति से संतुष्ट है। उसके मन में राजसी वैभव के प्रति कोई लगाव भी दिखाई नहीं देता। अपने कर्तव्य को वह भली भांति जानती है। इसलिए राजाज्ञा की वह अवहेलना नहीं करती बल्कि राजा द्वारा ली गई उसकी भूमि के बदले में दिए जा रहे मूल्य को भी वह स्वीकार करती है। वैभव या पैसे के प्रति उसके मन में कोई लाम नहीं है, यह जानते हुए भी कि मुद्रा और भूमि के बिना उसके लिए जीवन कठिन हो जाएगा। अभाव का सामना करना पड़ेगा। लेकिन अपने देश के प्रति प्रेम की भावना उसके लिए सर्वोपरी हो जाती है।

भोली-भाली देशप्रेमी कृषक कन्या के रूप में मधूलिका की छवि हमारे सामने प्रकट होती है। दूसरी ओर अरुण जो एक सामंत है और साम्राज्य को फैलाने की अपनी आकांक्षा को वह महत्वपूर्ण समझता है। जिसके लिए एक भोली-भाली कृषक कन्या का उपयोग करने में उसे कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं होती। प्रेम का प्रदर्शन करना, आश्वासन देना या विश्वास पैदा करना उसके संस्कार और स्वार्थ का अविभाज्य हिस्सा है। ऐसी स्थिति में अपने स्वार्थ के लिए मधूलिका का वह बड़ी चालाकी से उपयोग कर लेता है। इसके विपरीत मधूलिका एक मेहनतकश मजदूर कृषक कन्या है। जो स्वभावतः सामंतवर्ग का तीरस्कार करती है। सामंतवादी सोच और प्रवृत्तियों का ही तो वह शिकार हुई है। एक राजा ने केवल अपनी परंपरा का निर्वाह करने हेतु उसके खेत को कुछ मुद्राओं के मूल्य के ऐवज में अपने अधिकार में ले लिया है। यहाँ पर कृषक समाज या व्यक्ति की इच्छा-अनिच्छा को कोई महत्व नहीं दिया गया। केवल राजाज्ञा को स्वीकार करना ही जनता का कर्तव्य बताया जाता है। मधूलिका द्वारा विरोध न करना यही दर्शाता है कि यदि वह विरोध करके अपनी भूमि बचाना चाहती, तो वह दंड पाती।

इससे भी महत्वपूर्ण है कि अपने देश या मातृभूमि के लिए असीम प्रेम में वह उसके समक्ष आने वाले कठोर भविष्य के प्रति भी उदासीन हो जाती है। उस समय केवल देशप्रेम और अपने कर्तव्य के प्रति उसका समर्पण महत्वपूर्ण है। जिस काल की यह कहानी है उस काल में राज्य के लिए प्राण देना या त्याग करना सहज प्रवृत्ति मानी जाती थी। जिसे ही स्वदेश-प्रेम या भक्ति कहा जाता रहा। लेकिन इसके पीछे के सत्य को कहीं भी उजागर न होने देने की कोशिश भी की जाती रही।

अरुण के साहचर्य में रहकर मधूलिका वैभव के काल्पनिक आंनद को महसूस करती है। उसका द्वंद्व शमित लगता है। प्रिय के प्रेम का प्रभाव उस पर हावी हो जाता है। लेकिन जब अरुण अपने अभियान पर जाता है, तब उसका द्वंद्व नये सिरे से परवान चढ़ता है। इस बार द्वंद्व ‘कल्पना’ और ‘यथार्थ’ का नहीं है। अब टकराहट । ‘प्रियतम-प्रेम’ और ‘देश-प्रेम’ के बीच है। इस महत्वपूर्ण क्षण को प्रसाद ने विस्तार से व्यक्त किया है।

“उसका मन सहसा विचलित हो उठा, मधरिता नष्ट हो गई। जितनी सुख-कल्पना थी, वह अंधकार में विलीन होने लगी। वह भयभीत थी, पहला भय उसे अरुण के लिए उत्पन्न हुआ, यदि वह सफल न हुआ तो फिर सहसा सोचने लगी, वह क्यों सफल हो श्रावस्ती दुर्ग एक विदेशी के अधिकार में क्यों चला जाए।”

दो मनोभावों का सामंजस्य

यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मधुलिका केवल प्रेमवश अरुण के अभियान को अपना समर्थन नहीं देती है, अपनी स्नेह-भूमि छिन जाने का भय भी उसके मन में है। इस संदर्भ में डा. रामदरश मिश्र का विश्लेषण सटीक जान पडता है – “

जब एकाएक उसमें अपने साम्राज्य के प्रति कर्तव्य-बोध जागृत होता है तो उसके प्रेम से लिपटी प्रतिक्रिया की ईा छिटक कर दूर जा पड़ती है और देश-प्रेम तथा प्रियतम-प्रेम का द्वंद्व-बिंदु तीव्रता से आलोकित हो उठता है। इस द्वंद्व-बिंदु में ऊपर-ऊपर कर्तव्यबोध देश-प्रेम विजयी होता हुआ दिखाई पड़ता है, किंतु भीतर-भीतर दोनों का तनाव चलता रहता है” हिंदी कहानी. एक अंतरंग पहचान, मधूलिका के भीतर चल रहे इस दुहरे प्रेम के तनाव की अभिव्यक्ति कहानी के अंतिम चरण में होती है। पाठक को इस अंतिम पंक्तियों से ऐसा लग सकता है कि कर्तव्यबोध की भावना पर प्रेम की भावना भारी पड़ रही है –

“राजा ने कहा – मेरी निज की जितनी खेती है, मैं सब तुझे देता हूँ।”

मधूलिका ने एक बार बंदी अरुण की ओर देखा। उसने कहा “मुझे कुछ न चाहिए।”

अरुण हँस पड़ा।

राजा ने कहा-नहीं मैं तुझे अवश्य दूंगा। माँग ले ।

“तो मुझे प्राणदंड मिले – कहती हुई वह बंदी अरुण के पास जा खड़ी हुई।”

इस पंक्तियों में तो मुझे प्राणदंड मिले’ से संकेत है कि देश के प्रति कर्तव्यबुद्धि और प्रियकर के प्रति प्रेम, इन दोनों ही शक्तिशाली मनोभावों का द्वंद्व अंततः सामंजस्य में परिणत हो गया है।

जहाँ तक पात्रों के द्वंद्व का प्रश्न है, आश्चर्यजनक रूप से मधूलिका का प्रियपात्र अरुण किसी तरह के असमंजस में नहीं पड़ता है। उसका चरित्र शुद्ध रूप से सामंती है। वह मधूलिका के क्षोभ-भाव और प्रणय-भावना को उभार कर अपनी स्वार्थ-सिद्धि करना चाहता है। वह उसे राज सिंहासन पर बैठा देने का प्रलोभन देता है –

“युवती का वक्षस्थल फूल उठा, वह हाँ भी नहीं कर सकी ना भी नहीं/अरुण ने उसकी अवस्था का अनुभव कर लिया। कुशल मनुष्य के समान उसने अवसर को हाथ से न जाने दिया। तुरंत बोल उठा – ‘तुम्हारी इच्छा हो तो प्राणों से पण लगा कर मैं तुम्हें इसी कोशल -सिंहासन पर बैठा दूं।”

कहानीकार ने अरुण को इस बात के लिए कहीं भी द्वंद्वग्रस्त नहीं दिखाया है कि वह एक भोली-भानी किशोरी का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए क्यों कर रहा है कोशल के महाराज को एक निर्णायक बिंदु पर ठिठकता हुआ अवश्य दिखाया गया है, जब मधूलिका उनसे अपने खेत के बदले सामरिक महत्व की भूमि चाहती है तो वे · .. राज्य-हित को ध्यान में रखकर उसकी याचना को ठुकराना चाहते हैं। लेकिन तभी उन्हें याद आ जाता है कि मधूलिका तो कोशल की रक्षा करने वाले सिंहमित्र की कन्या है और वे उसे वह भूमि प्रदान कर देते हैं।

मधूलिका : सबल नारी चरित्र

प्रसाद के संपूर्ण साहित्य में नारी का तेजस्वी, सकारात्मक और सबल रूप व्यक्त हुआ। श्रद्धा, देव-सेना, ध्रुवस्वामिनी, चंपा, मालविका आदि नारी पात्र पुरुष पात्रों की तुलना में अधिक सशक्त हैं। ‘पुरस्कार’ में भी कहानीकार ने मधुलिका के चरित्र को ही प्रयत्नपूर्वक संवारा है। उसी के द्वंद्व, उसी का स्वाभिमान और उसी का क्षोभ संपूर्ण कहानी को आच्छादित किए हुए है। कहानी का चरमबिंदु उसी के निर्णय पर टिका है। मधूलिका को साहस और दृढ़ता विरासत में मिली है। इसी के बूते पर वह राजा की स्वर्ण मुद्राएँ उसी पर न्यौछावर कर देती है। राजा का अनुग्रह न स्वीकार करके वह । दूसरे के खेतों में काम करके अपना जीवन-यापन करती है। कहानीकार दर्शाता है कि उसकी तेजस्विता के पीछे श्रम का ठोस आधार है और उसका सौंदर्य भी कठोर परिश्रम से निखरा है।

“कठोर परिश्रम से जो रूखा सूखा अन्न मिलता, वही उसकी साँसों को बढ़ाने के लिए पर्याप्त था। दुबली होने पर भी उसके अंग पर तपस्या की कांति थी। आसपास के कृषक उसका आदर करते। वह एक आदर्श बालिका थी।”

अरुण के मोहपाश में वह कुछ देर के लिए उचित-अनुचित का भेद भूल जाती है, लेकिन उसका विवेक उसे शीघ्र ही सावधान कर देता है – “सिंहमित्र कोशल का रक्षक वीर, उसी की कन्या आज क्या करने जा रही है” वह असह्य वेदना से भर उठती है और सेनापति को अरुण के आक्रमण से अवगत करा देती है। कहानी के अंतिम हिस्से में हम देखते हैं कि वह बलिदान का साहस भी रखती है। अरुण के साथ ही प्राण दंड का पुरस्कार माँग कर वह, जैसे अरुण के साथ अपने विश्वासघात का प्रायश्चित कर रही है।

पुरस्कार का शिल्प पक्ष

खड़ी बोली की विकास यात्रा की शुरूआत में भाषा के दो मॉडल भारतेंदु हरिश्चंद्र और राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद के रूप में सामने आए हैं। हिंदी में भारतेंदु की भाषा-परंपरा ही मुख्यधारा बनकर आगे स्वीकृत हुई। प्रसाद की रचनाओं पर भारतेंदु की भाषा का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। कुछ आलोचकों को लगता है कि प्रसाद की कहानियों में तत्सम शब्दावली की प्रधानता संप्रेषणीयता में बाधा उत्पन्न करती है। वस्तुतः प्रसाद ने जिस बीते हुए कल की घटनाओं और चरित्रों को अपनी कहानियों में आत्मसात् किया है, उसकी अभिव्यक्ति आज की बोलचाल वाली भाषा के माध्यम से संभव नहीं है।

‘पुरस्कार’ में भाषा के दो रूप मिलते हैं। जहाँ प्रकृति के सौंदर्य का अंकन है भाषा अधिक संस्कृतनिष्ठ, अधिक काव्यात्मक और बिम्बात्मक हो गई है। ऐसे स्थलों पर . लगता है कि छायावादी कविता का कोई अंश गद्य-खंड के रूप सामने है। कहानी का प्रारंभिक अंश इस संदर्भ में द्रष्टव्य है-

“आर्द्रानक्षत्र; आकाश में काले-काले बादलों की घुमड़ जिसमें देवदुंदुभी का गंभीर घोष। प्राचीन के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण-पुरुष झांकने लगा – देखने लंगा महाराज की सवारी। शैलबाला के अंचल में समतल उर्वरा-भूमि से सोधी बास उठ रही थीं। नगर तोरण से जय-घोष हुआ।”

इस अवतरण में ‘निरभ्र’, ‘प्राची’, ‘देवदुंदुभी’, ‘शैलपाला’, ‘उर्वरा’, ‘तोरण’, ‘घोष’ आदि शब्दों के अर्थ से अपरिचित पाठक के लिए इस ‘वर्णन’ के मर्म तक पहुँचना संभव नहीं है। लेकिन इसी अवतरण में ‘बादलों’, ‘घुमड़’, ‘सवारी’, ‘बास’ आदि शब्दों की उपस्थिति बताती है कि प्रसाद भाषा को यांत्रिक ढंग से तत्सम-प्रधान नहीं बनाते हैं। कहानी में अन्यत्र भी ‘मिन्न माधवी-लता’, ‘सिंधु देश का तुरंग’, ‘चामर के शुभ्र आंदोलन’ पद भी तत्सम प्रधानता की पुष्टि करते हैं। भाषा का एक अन्य रूप भी ‘पुरस्कार’ में प्रयुक्त है, जो बोलचाल की भाषा के बहुत निकट का है और सामान्य पाठक को समझने में आसान है। कुछ उदाहरण देखें।

  • ‘वह दूसरे खेतों में काम करती और चौथे पहर रूखी-सूखे खकर पड़ जाती।
  • ‘उतनी ही भूमि, दूर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की जंगली भूमि! वहीं मैं अपनी  खेती करूँगी। मुझे एक सहायक मिल गया है। वह मनुष्यों से मेरी सहायता करेगा, भूमि को समतल भी तो बनाना होगा।’

भाषा चाहे जैसी हो, उसमें निहित अर्थ और बिम्ब को समझने की क्षमता भरपर है। मधूलिका के संशय को व्यक्त करने के लिए कहानीकार ने लिखा है –

‘पथ अंधकारमय था और मधूलिका का हृदय भी निविड़ तम से घिरा था। आगे इसी संशय और असमंजस के अंधकार में निर्णय की दिशा को ‘आलोक’ दिखाई देने से व्यंजित किया गया हैं –

“उसकी आंखों के सामने कभी सिंहमित्र और कभी अरुण की मूर्ति अंधकार में चित्रित हो जाती। उसे सामने आलोक दिखाई पड़ा।”

प्रसाद की कथा-भाषा कम शब्दों में बहुत कुछ अभिव्यक्त करने का प्रयास करती है। इसलिए स्थूल और सपाट कथन ‘पुरस्कार’ में कम मिलते हैं। जहाँ अनुभव को एक निर्णयात्मक रूप दिया गया है, वहाँ अवश्य भाषा कुछ स्थूल और सपाट हो गई है –

“जीवन से सामंजस्य बनाए रखने वाले उपकरण तो अपनी सीमा निर्धारित रखते हैं, परंतु उनकी आवश्यकता और कल्पना भावना के साथ बढ़ती-घटती रहती है।”

काव्यात्मकता का स्पर्श : प्रसाद का कवि रूप उनकी गद्य-रचनाओं में बार-बार उभरता है। प्रकृति-चित्रण के अतिरिक्त पात्रों की मानसिकता के वर्णन में भी अलंकरण और बिम्बात्मकता का प्रयोग देखा जा सकता है। सोती हुई मधूलिका को जब अरुण देखता है तो उसे लगता है – “एक छिन्न माधवीलता वृक्ष की शाखा से च्युत होकर पड़ी है। सुमन मुकलित थे, भ्रमर निस्पंद।” मधूलिका की निराशा को व्यक्त करने के लिए कहानीकार ने एक नए उपमान का चुनाव किया है। यह अप्रस्तुत कोई दूर की कौड़ी न होकर जीवन का एक परिचित चित्र है।

“खिलवाड़ी शिशु जैसे श्रावण की संध्या में जुगनू पकड़ने के लिए हाथ लपकाता है वैसे ही मधूलिका, ‘अभी वह निकल गया’ मन ही मन कह रही थी।”

इसी प्रकार ‘उसकी कल्याण-कामना साशंक थी’ और ‘मन में प्रसाद का अंधड़ बहने लगा’ आदि वाक्यों में परिचित उपमान और बिम्ब भाषा की शक्ति को प्रमाणित करते है।

  • नाटकीय शिल्प विधि का उपयोग : प्रसाद की कहानियों की संरचना पर विचार करते हुए देखा गया है कि कुछ कहानियों में ‘सुक्ष्म संवेदना’ का चित्रण काव्यात्मकता और नाटकीयता के साथ है। पुरस्कार’ इसी प्रकार की कहानी है। कम से कम दो अवसरों पर नाटकीयता का बहुत सधा हुआ उपयोग हुआ है। मधूलिका तीन वर्ष पहले अरुण से हुई भेंट को ‘पूर्वदीप्ति’ के सहारे दुहराना चाहती है। वह अरुण के बारे में सोच रही होती है कि द्वार पर एक पथिक का आगमन होता है। वह द्वार खोलकर चकित भाव से राजकुमार अरुण को खड़ा देखती है – ‘एक क्षण के बाद सन्नाटा छा गया। मधूलिका अपनी कल्पना को सहसा प्रत्यक्ष देखकर चकित हो गई, “इतने दिनों के बाद आज फिर ।” यहाँ मधूलिका के साथ-साथ पाठक भी इस आकस्मिक संयोग से स्तब्ध रह जाता है।

नाटकीय शिल्पविधि से उत्सुकता के चरम बिंदु का निर्माण करने का कौशल कहानी के समापन अंश में द्रष्टव्य है। अरुण का हँसना और तत्काल मधूलिका का प्राणदंड माँग बैठना एकदम आकस्मिक है। “तो मुझे प्राणदंड मिले” – कहकर मधूलिका अरुण के बगल में खड़ी हो जाती है। इस बिंदु पर पाठक न केवल हतप्रभ है, अपितु कहानी का अंत एकदम खुला हुआ है। यदि किसी को यह जानना जरूरी है कि मधूलिका को क्या पुरस्कार मिला तो इसके निर्धारण में उसकी कल्पना और उसके अपने संस्कार सहायक होंगे। कहानीकार तीन संभावनाओं के द्वार खोल गया है –

  • महाराज ने केवल दोषी अरुण को प्राणदंड दिया होगा और मधूलिका को छोड़ दिया होगा।
  • महाराज ने क्रुद्ध होकर अरुण और मधूलिका – दोनों को प्राणदंड दे दिया होगा।
  • तीसरी और सबसे बेहतर संभावना है कि सारी बात जानकर महाराज ने मधूलिका के त्याग और उत्सर्ग को सम्मान दिया होगा और अरुण को दंड-मुक्त कर दिया होगा।

एक भावूक पाठक के लिए तीसरी संभावना अधिक ग्राह्य है जबकि सत्ता के चरित्र से अवगत प्रबुद्ध पाठक दूसरी संभावना को रेखांकित कर सकता है। जो भी हो, ‘पुरस्कार’ कहानी पाठकों के मन में एक बेचैनी पैदा करके समाप्त होती है।

‘पुरस्कार’ कहानी का कलापक्ष बहुत सशक्त है। इसकी कलात्मक बुनावट के प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं।

  • प्रसाद ने प्रकृति-सौंदर्य के अंकन में तत्सम शब्दावली और बिम्ब बहुल भाषा का प्रयोग किया है। कई अवसरों पर यह भाषा पाठकों के लिए आसानी से ग्राह्य नहीं है।
  • ‘पुरस्कार’ कहानी में बोलचाल की भाषा का सौंदर्य भी कई स्थलों पर है। लेकिन स्थूल वर्णन और सपाट कथन इस कहानी में कम है।
  • इस कहानी की भाषा अर्थग्रहण कराने में जितनी सक्षम है उतनी ही बिम्ब ग्रहण कराने की शक्ति से सम्पन्न है।
  • उपयुक्त उपमानों के नए-ताजे प्रयोग प्रसाद की अभिव्यंजना को कलात्मक बना सके हैं। प्रसाद का कवि-स्वभाव ऐसे स्थलों पर मुखर दिखाई देता है।
  • प्रसाद का नाटककार रूप भी उनकी कहानी कला को प्रभावित करता है। ‘पुरस्कार’ में कई स्थलों पर नाटकीय शैली का सहयोग लिया गया है। कहानी का अंतिम अंश खासा नाटकीय है।

ऊपरी तौर पर प्रसाद की कहानियाँ व्यक्ति की उलझनों तक सीमित रह जाने की प्रतीति कराती हैं। वास्तव में ऐसा है नहीं। प्रसाद की कहानियों में अपने परिवेश और समय की चिंताएँ भी मौजूद हैं। उन्हें प्रेमचंद से एकदम विपरीत कथाकार सिद्ध करने की कोशिश हुई है। वास्तविकता तो यह है कि वे भी अपनी कई कहानियों में प्रेमचंद की आदर्शोन्मुख यथार्थवादी परंपरा को ही विकसित कर रहे थे।

दो शक्तिशाली मनोभावों का द्वंद्व और उससे उत्पन्न उलझन प्रसाद की सभी चर्चित कहानियों में केंद्रस्थ है। पुरस्कार में इस द्वंद्व को हम कई रूपों में देख सकते हैं। जब मधूलिका राष्ट्रीय नियम के तहत अपनी जमीन ले लिए जाने पर क्षुब्ध होती है, जब द्वंद्व प्रवृत्ति और ‘विधान’ के बीच होता है। विधान’ को वह अस्वीकार नहीं करती है, लेकिन अपना असंतोष भी जता देती है। अरुण की प्रणय-याचना भी द्वंद्व को जन्म देती है। सामंतवादी वर्ग के चरित्र से अवगत मधूलिका पहले तो उस याचना को ठुकरा देती है, बाद में उसे अरुण के अभाव का अनुभव होता है। यहाँ ‘घृणा’ और ‘प्रेम’ का वैसा ही द्वंद्व थोड़ी देर तक बना रहता है, जैसा ‘आकाशदीप’ में चम्पा के मन में है। कहानी के समापन चरण में राष्ट्रीय भावना और व्यक्ति चेतना आमने-सामने हैं। अपने निजी सुख की कल्पना में मधूलिका अपनी जन्मभूमि की पराधीनता के विषय में कुछ ध्यान नहीं करती। अपने निजी सुख की कल्पना में मधूलिका अपनी जन्मभूमि की पराधीनता के विषय में कुछ ध्यान नहीं करती। लेकिन निर्णायक क्षणों में उसे याद आता है कि वह उस सिंहमित्र की कन्या है, जिसमें कोशल की रक्षा में प्राण दे दिए थे। इस द्वंद्व में आखिरकार राष्ट्रीय भावना विजयी होती है। लेकिन अंत में अपने लिए प्राणदंड मांग कर मधूलिका ‘प्रेम’ के प्रति अपनी निष्ठा और समर्पण-भावना का प्रमाण भी देती है।

प्रसाद ने मधूलिका के जीवन-संघर्ष उसके अंतर्द्वद्व और उसकी निर्णय-शक्ति का प्रभावपूर्ण बयान किया है। कहानी के अन्य पात्र उसके सामने फीके नज़र आते हैं। प्रसाद साहित्य में नारी पात्र प्रायः अधिक तेजस्वी और सबल हैं भी। ‘पुरस्कार’ में ‘कथ्य’ और ‘सरंचना’ संश्लिष्ट रूप में है। मानसिक तनाव और द्वंद्व को व्यक्त करने के लिए सक्षम भाषा प्रसाद के पास है, जो अर्थ-ग्रहण के साथ-साथ बिम्ब-ग्रहण भी कराती है। सटीक बिम्बों, अप्रस्तुतों के माध्यमों से चरित्रों की बेचैनी, क्षोभ, राग-विराग आदि को सलीके से अभिव्यक्त किया गया है। प्रसाद का कवि रूप और नाटककार । रूप उनके कहानीकार की सदैव सहायता करता है। पूर्वदीप्ति, वर्णनात्मक शिल्पविधियों के साथ नाटकीयता ने इस कहानी की अभिव्यंजना को प्रभावपूर्ण और तीक्ष्ण बनाया है। कहानी का अंत विशिष्ट, बेधक और कई तरह की संभावनाओं से सम्पन्न है। ‘पुरस्कार’ जयशंकर प्रसाद की कहानी कला का प्रतिनिधित्व करने में सर्वथा सक्षम है।

सारांश

इकाई के अध्ययन से निम्नलिखित तथ्य सामने आते हैं प्रसाद कृत ‘गुंडा’, ‘आकाशदीप’, ‘व्रतभंग’ आदि प्रमुख कहानियों की तरह ‘पुरस्कार’ में भी दो शक्तिशाली मनोभाव टकरा रहे हैं। देश-प्रेम और व्यक्ति -प्रेम के बीच मधूलिका भीषण अंतर्द्वद्व का शिकार हो जाती है। मधूलिका शुरू में अरुण के प्रणय-प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है। उसके मन में सामंती शक्तियों और प्रतिनिधियों के प्रति वितृष्णा का भाव है क्योंकि कोशल के राजा ने नियम की आड़ में उसका खेत ले लिया है। अभावग्रस्त जीवन और अरुण का साहचर्य मधूलिका की वितृष्णा को और बढ़ा देते हैं। . वह अरुण के षडयंत्र में सम्मिलित हो जाती है। कहानी के कथ्य का सबसे परिवर्तनकारी बिंदु निजी प्रेम और देश के प्रति दायित्व को लेकर मधूलिका का अंतर्द्वद्वगस्त होना है। उसे अपने पिता का कौशल के लिए बलिदान याद आता है। पिता के बलिदान को याद करते ही वह अपना मार्ग निश्चित करती है। अपने लिए भी प्राणदंड माँगना मधूलिका की भावुकता का वह मार्मिक पक्ष है जो देश रक्षा के बाद अब अपने प्रेम की रक्षा के लिए आत्म बलिदान का रास्ता चुनता है। प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ केवल मनोभावों के टकराव या बलिदान के साहस के फलस्वरूप ही उल्लेखनीय नहीं है। उनका शिल्प पक्ष भी प्रौढ़ और सुगठित है। चाहे भाषा की बुनावट का संदर्भ हो या बयान का सलीका, हर दृष्टि से ये कहानियाँ सचेत कला दृष्टि की देन लगती हैं। यहाँ स्मरण रखना जरूरी होगा कि सचेत कलादृष्टि और कलावादी दृष्टिकोण में बहुत अंतर होता है। प्रसाद की कहानियों में ‘वस्तु’ और ‘कला’ संश्लिष्ट रूप में उपलब्ध हैं।

प्रश्न

  1. मधूलिका का चरित्र-चित्रण करते हुए उसके द्वंद्व के कारणों की चर्चा कीजिए।
  2. भारतीय अस्मिता की खोज प्रसाद ऐतिहासिक सांस्कृतिक संदर्भो में करते हैं। क्या इससे स्वाधीनता आंदोलन में विभिन्न समुदायों की सम्मिलित हिस्सेदारी स्पष्ट हो पाई है।
  3. क्या आप समझने हैं कि ‘पुरस्कार’ कहानी इतिहास और परंपराओं के पुनर्मूल्यांकन द्वारा आधुनिक जीवन में उसकी सार्थकता स्पष्ट कर पाई है।
  4. पुरस्कार कहानी में नाटकीय शिल्पविधि के द्वारा प्रसाद पाठक को बार-बार चौंकाते हैं, इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
  5. पुरस्कार के कथा शिल्प की विशेषताएँ बताइए।

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