पाजेब : जैनेन्द्र कुमार

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • बालमनोविज्ञान पर आधारित इस कहानी में अभिव्यक्त बालमनोविज्ञान की सामान्य प्रवृत्तियों और बालसुलभ भावनाओं से परिचित हो सकेंगे,
  • बालकों की चारित्रिक विशेषताओं को समझ सकेंगे, मध्यवर्ग में भौतिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण आसक्ति और जीवन में इसे दिए गए विशेष महत्व को समझ सकेंगे तथा मध्यवर्गीय जीवन के प्रति आय की आलोचनात्मक दृष्टि का विकास हो सकेगा,
  • मध्यवर्ग के अपने स्वार्थ और संकुचित दृष्टि के कारण बदलती मानसिकता तथा जीवन के बदलते मुल्यों का गंभीरता से विवेचन कर सकेंगे, जनेद्र कुमार की कहानी कला तथा शिल्प से परिचित हो सकेंगे।

जैनेन्द्र की कहानियों का पहला संग्रह सन् 1929 में ‘फांसी’ नाम से प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की सभी कहानियाँ आम आदमी के जीवन-यथार्थ को अपने में समेटती है। विचारों की प्रधानता के साथ-साथ जैनेन्द्र तत्कालीन राजनीतिक संदों को भी अभिव्यक्त करती है। विचारों के प्रभाव की अधिकता में कई बार जीवन की वास्तविकता के संदर्भ इन कहानियों से छूट जाते हैं, कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि जैनेन्द्र जीवन की वास्तविकता का लगभग तिरस्कार करके आगे बढ़ जाते हैं। पाजेब’ कहानी में जीवन की एक छोटी-सी घटना को विस्तार दिया गया है। एक छोटी सी बच्ची के मन में पाजेव के प्रति उठी ललक के रूप में कहानी शुरू होती है। बुआ ने दी पाजेब को पाकर हुई खुशी को ‘मुन्नी’ सारे घर-आंगन में नाचती हुई प्रकट करती है। एक छोटा सा चांदी का आभूषण सारे घर में आनंद और उल्लास भर देता है। प्रस्तुत कहानी बालमनोविज्ञान पर आधारित है, जिससे लेखक की मनोवैज्ञानिक सूझबूझ के साथ मनोविज्ञान से गहरे परिचय का भी पता चलता है। ‘पाजेब’ कहानी में बच्चों की स्वाभाविक लालसाओ, इच्छाओं और प्रतिक्रियाओं का समावेश है, जैसे ‘मुन्नी’ में आभूषण के लिए स्वाभाविक लालसा है। बालक प्रायः खिलौने चाहते हैं और उनसे खेलना उनकी स्वाभाविक गतिविधि है।

इस कहानी का बच्चा आशुतोष साइकिल की माँग करता है, क्योंकि साइकिल उसके लिए एक . खिलौने के समान ही है। बच्चों की अनेक प्रतिक्रियाओं तथा गतिविधियों के चित्रण से भी लेखक ने उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को कहानी में व्यक्त किया है। बालमनोविज्ञान से परिचित कोई लेखक ही ऐसा चित्रण कर सकता था और हमारे महाशय आशुतोष, जो मुन्नी के बड़े भाई थे, पहले तो मुन्नी को सजी-वजी देखकर बड़े खुश हुए। वह हाथ पकड़कर अपनी बढ़िया मुन्नी को पाजेब सहित दिखाने के लिए आस-पास ले गए। मुन्नी की पाजेब का गौरव उन्हें अपना भी मालूम होता था। वह खब हंसे और ताली पीटी, लेकिन थोड़ी देर बाद वह ठुमकने लगे कि “मुन्नी को पाजेब दी, सो हम भी बाईसिकिल लेंगे।”

जैनेन्द्र की कहानी ‘पाजेब’ पहले ‘पाजेब’ नामक कहानी संकलन में छपी थी। फिर इसे उनके संग्रह ‘जैनेन्द्र की कहानियाँ’. के दूसरे भाग में भी सम्मिलित किया गया, जो पूर्वोदय प्रकाशन, दिल्ली से सन् 1953 ई. में छपा था। आधी शताब्दी के बाद भी जैनेन्द्र की यह कहानी प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है। इस कहानी का उद्देश्य यह बताना भी है कि बच्चे प्रायः सच बोलते हैं और वे किसी विवशता या दबाव के कारण ही झूठ बोलते हैं अथवा डर या लालच के कारण ऐसा करते हैं। प्रायः देखा जाता है कि माता-पिता या परिवार के लोग उन पर संदेह करके या उन्हें डरा धमका कर झूठ बोलने या गलत व्यवहार करने के लिए विवश करते हैं। पाजेब के खो जाने को चोरी समझने और बच्चों पर संदेह करने से बल्कि उन पर आरोप लगाने से बच्चों पर जो कुछ. बीतती है, उसका रोचक वर्णन इस कहानी में किया गया है।

कहानी: पाजेब

बाजार में एक नई तरह की पाजेब चली है। पैरों में पड़कर वे बड़ी अच्छी मालूम होती हैं। उनकी कड़ियां आपस में लचक के साथ जुड़ी रहती हैं कि पाजेब का मानो निज का आकार कुछ नहीं है, जिस पांव में पड़े उसी के अनुकूल ही रहती हैं।

पास-पड़ोस में तो सब नन्हीं-बड़ी के पैरों में आप वही पाजेब देख लीजिए। एक ने पहनी कि फिर दूसरी ने भी पहनी। देखा-देखी में इस तरह उनका न पहनना मुश्किल हो गया है।

हमारी मुन्नी ने भी कहा कि बाबूजी, हम पाजेब पहनेंगे। बोलिए भला कठिनाई से चार बरस की उम्र और पाजेब पहनेगी।

मैंने कहा, कैसी पाजेब?

बोली, वही जैसी रुकमन पहनती है, जैसी शीला पहनती है।

मैंने कहा, अच्छा-अच्छा।

बोली, मैं तो आज ही मंगा लूंगी।

मैंने कहा, अच्छा भाई आज सही।

उस वक्त तो खैर मुन्नी किसी काम में बहल गई। लेकिन जब दोपहर आई मुन्नी की बुआ, तब वह मुन्नी सहज मानने वाली न थी।

बुआ ने मुन्नी को मिठाई खिलाई और गोद में लिया और कहा कि अच्छा, तो तेरी पाजेब अबके इतवार को जरूर लेती आऊंगी।

इतवार को बुआ आई और पाजेब ले आई। मुन्नी पहनकर खुशी के मारे यहां-से-वहां ठुमकती फिरी। रुकमन के पास गई और कहा-देख रुकमन, मेरी पाजेब। शीला को भी अपनी पाजेब दिखाई। सबने पाजेब पहनी देखकर उसे प्यार किया और तारीफ की। सचमुच वह चांदी कि सफेद दो-तीन लड़ियां-सी टखनों के चारों ओर लिपटकर, चुपचाप बिछी हुई, बहुत ही सुघड़ लगती थी, और बच्ची की खुशी का ठिकाना न था।

और हमारे महाशय आशुतोष, जो मुन्नी के बड़े भाई थे, पहले तो मुन्नी को सजी-बजी देखकर बड़े खुश हुए। वह हाथ पकड़कर अपनी बढ़िया मुन्नी को पाजेब-सहित दिखाने के लिए आस-पास ले गए। मुन्नी की पाजेब का गौरव उन्हें अपना भी मालूम होता था। वह खूब हँसे और ताली पीटी, लेकिन थोड़ी देर बाद वह ठुमकने लगे कि मुन्नी को पाजेब दी, सो हम भी बाईसिकिल लेंगे।

बुआ ने कहा कि अच्छा बेटा अबके जन्म-दिन को तुझे बाईसिकिल दिलवाएंगे।

आशुतोष बाबू ने कहा कि हम तो अभी लेंगे।

बुआ ने कहा, ‘छी-छी, तू कोई लड़की है? जिद तो लड़कियाँ किया करती हैं। और लड़कियाँ रोती हैं। कहीं बाबू साहब लोग रोते हैं?”

आशुतोष बाबू ने कहा कि तो हम बाईसिकिल जरूर लेंगे जन्म-दिन वाले रोज।

बुआ ने कहा कि हां, यह बात पक्की रही, जन्म-दिन पर तुमको बाईसिकिल मिलेगी।

इस तरह वह इतवार का दिन हंसी-खुशी पूरा हुआ। शाम होने पर बच्चों की बुआ चली गई। पाजेब का शौक घड़ीभर का था। वह फिर उतारकर रख-रखा दी गई; जिससे कहीं खो न जाए। पाजेब वह बारीक और सुबुक काम की थी और खासे दाम लग गए थे।

श्रीमतीजी ने हमसे कहा, क्यों जी, लगती तो अच्छी है, मैं भी अपने लिए बनवा लूं?

मैंने कहा कि क्यों न बनावाओं! तुम कौन चार बरस की नहीं हो?

खैर, यह हुआ। पर मैं रात को अपनी मेज पर था कि श्रीमती ने आकर कहा कि तुमने पाजेब तो नहीं देखी?

मैंने आश्चर्य से कहा कि क्या मतलब?

बोली कि देखो, यहाँ मेज-वेज पर तो नहीं है? एक तो है पर दूसरे पैर की मिलती नहीं है। जाने कहां गई?

मैंने कहा कि जाएगी कहाँ? यहीं-कहीं देख लो। मिल जाएगी।

उन्होंने मेरे मेज के कागज उठाने-धरने शुरू किए और आलमारी की किताबें टटोल डालने का भी मनसूबा दिखाया।

मैंने कहा कि यह क्या कर रही हो? यहां वह कहाँ से आएगी?

जवाब में वह मुझी से पूछने लगी कि फिर कहाँ है?

मैंने कहा तुम्हीं ने तो रखी थी। कहाँ रखी थी?

बतलाने लगी कि दोपहर के बाद कोई दो बजे उतारकर दोनों को अच्छी तरह संभालकर उस नीचे वाले बाक्स में रख दी थीं। अब देखा तो एक है, दूसरी गायब है।

मैंने कहा कि तो चलकर वह इस कमरे में कैसे आ जाएगी? भूल हो गई होगी। एक रखी होगी, एक वहीं-कहीं फर्श पर छूट गई होगी। देखो, मिल जाएगी। कहीं जा नहीं सकती।

इस पर श्रीमती कहा-सुनी करने लगीं कि तुम तो ऐसे ही हो। खुद लापरवाह हो, दोष उल्टे मुझे देते हो। कह तो रही हूँ कि मैंने दोनों संभालकर रखी थीं।

मैंने कहा कि संभालकर रखी थीं, तो फिर यहां-वहां क्यों देख रही थी? जहां रखी थीं वहीं से ले लो न। वहां नहीं है तो फिर किसी ने निकाली ही होगी।

श्रीमती बोलीं कि मेरा भी यही ख्याल हो रहा है। हो न हो, बंसी नौकर ने निकाली हो। मैंने रखी, तब वह वहां मौजूद था।

मैंने कहा, तो उससे पूछा?

बोलीं, वह तो साफ इंकार कर रहा है।

मैंने कहा, तो फिर?

श्रीमती जोर से बोली, तो फिर मैं क्या बताऊं? तुम्हें तो किसी बात की फिकर है नही। डांटकर कहते क्यों नहीं हो, उस बंसी को बुलाकर? जरूर पाजेब उसी ने ली है।

मैंने कहा कि अच्छा, तो उसे क्या कहना होगा? यह कहूं कि ला भाई पाजेब दे दे!

श्रीमती झल्ला कर बोलीं कि हो चुका सब कुछ तुमसे। तुम्हीं ने तो उस नौकर की जात को शहजोर बना रखा है। डांट न फटकार, नौकर ऐसे सिर न चढ़ेगा तो क्या होगा?

बोलीं कि कह तो रही हूं कि किसी ने उसे बक्स से निकाला ही है। और सोलह में पंद्रह आने यह बंसी है। सुनते हो न, वही है।

मैंने कहा कि मैंने बंसी से पूछा था। उसने नहीं ली मालूम होती।

इस पर श्रीमती ने कहा कि तुम नौकरों को नहीं जानते। वे बड़े छंटे होते हैं। बंसी चोर जरूर है। नहीं तो क्या फरिश्ते लेने आते?

मैंने कहा कि तुमने आशुतोष से भी पूछा?

बोलीं, पूछा था। वह तो खुद ट्रंक और बक्स के नीचे घुस-घुसकर खोज लगाने में मेरी मदद करता रहा है। वह नहीं ले सकता।

मैंने कहा, उसे पतंग का बड़ा शौक है।

बोलीं कि तुम तो उसे बताते-बरजते कुछ हो नहीं। उमर होती जा रही है। वह यों ही रह जाएगा। तुम्हीं हो उसे पतंग की शह देने वाले।

मैंने कहा कि जो कहीं पाजेब ही पड़ी मिल गई हो तो?

बोलीं, नहीं, नहीं! मिलती तो वह बता न देता?

खैर, बातों-बातों में मालूम हुआ कि उस शाम आशुतोष पतंग और डोर का पिन्ना नया लाया है।

श्रीमती ने कहा कि यह तुम्हीं हो जिसने पतंग की उसे इजाजत दी। बस सारे दिन पतंग-पतंग। यह नहीं कि कभी उसे बिठाकर सबक की भी कोई बात पूछो। मैं सोचती हूँ कि एक दिन तोड़-ताड़ दूं उसकी सब डोर और पतंग।

मैंने कहा कि खैर; छोड़ो। कल सवेरे पूछ-ताछ करेंगे।

सवेरे बुलाकर मैंने गंभीरता से उससे पूछा कि क्यों बेटा, एक पाजेब नहीं मिल रही है, तुमने तो नहीं देखी?

वह गुम हो गया। जैसे नाराज हो। उसने सिर हिलाया कि उसने नहीं ली। पर मुंह नहीं खोला।

मैंने कहा कि देखो बेटे, ली हो तो कोई बात नहीं, सच बता देना चाहिए।

उसका मुँह और भी फूल आया। और वह गुम-सुम बैठा रहा।

मेरे मन में उस समय तरह-तरह के सिद्धांत आए। मैंने स्थिर किया कि अपराध के प्रति करुणा ही होनी चाहिए। रोष का अधिकार नहीं है। प्रेम से ही अपराध-वृति को जीता जा सकता है। आतंक से उसे दबाना ठीक नहीं है। बालक का स्वभाव कोमल होता है और सदा ही उससे स्नेह से व्यवहार करन चाहिए, इत्यादि।

मैंने कहा कि बेटा आशुतोष, तुम घबराओ नहीं। सच कहने में घबराना नहीं चाहिए। ली हो तो खुल कर कह दो, बेटा! हम कोई सच कहने की सजा थोड़े ही दे सकते हैं। बल्कि बोलने पर तो इनाम मिला करता है।

आशुतोष तब बैठा सुनता रहा। उसका मुंह सूजा था। वह सामने मेरी आँखों में नहीं देख रहा था। रह-रहकर उसके माथे पर बल पड़ते थे।

“क्यों बेटे, तुमने ली तो नहीं?”

उसने सिर हिलाकर क्रोध से अस्थिर और तेज आवाज में कहा कि मैंने नहीं ली, नहीं ली, नहीं ली। यह कहकर वह रोने को हो आया, पर रोया नहीं। आँखों में आँसू रोक लिए।

उस वक्त मुझे प्रतीत हुआ, उग्रता दोष का लक्षण है।

मैंने कहा, देखो बेटा, डरो नहीं; अच्छा जाओ, ढूंढो; शायद कहीं पड़ी हुई वह पाजेब मिल जाए। मिल जाएगी तो हम तुम्हें इनाम देंगे।

वह चला गया और दूसरे कमरे में जाकर पहले तो एक कोने में खड़ा हो गया। कुछ देर चुपचाप खड़े रहकर वह फिर यहां-वहां पाजेब की तलाश में लग गया।

श्रीमती आकर बोलीं, आशू से तुमने पूछ लिया? क्या ख्याल है?

मैंने कहा कि संदेह तो मुझे होता है। नौकर का तो काम यह है नहीं!

श्रीमती ने कहा, नहीं जी, आशू भला क्यों लेगा?

मैं कुछ बोला नहीं। मेरा मन जाने कैसे गंभीर प्रेम के भाव से आशुतोष के प्रति उमड़ रहा था। मुझे ऐसा मालूम होता था कि ठीक इस समय आशुतोष को हमें अपनी सहानुभूति से वंचित नहीं करना चाहिए। बल्कि कुछ अतिरिक्त स्नेह इस समय बालक को मिलना चाहिए। मुझे यह एक भारी दुर्घटना मालूम होती थी। मालूम होता था कि अगर आशुतोष ने चोरी की है तो उसका इतना दोष नहीं है; बल्कि यह हमारे ऊपर बड़ा भारी इल्जाम है। बच्चे में चोरी की आदत भयावह हो सकती है, लेकिन बच्चे के लिए वैसी लाचारी उपस्थित हो आई, यह और भी कहीं भयावह है। यह हमारी आलोचना है। हम उस चोरी से बरी नहीं हो सकते।

मैंने बुलाकर कहा, “अच्छा सुनो। देखो, मेरी तरफ देखो, यह बताओ कि पाजेब तुमने छुन्नू को दी है न?”

वह कुछ देर कुछ नहीं बोला। उसके चेहरे पर रंग आया और गया। मैं एक-एक छाया ताड़ना चाहता था।

मैंने आश्वासन देते हुए कहा कि डरने की कोई बात नहीं। हाँ, हाँ, बोलो डरो नहीं। ठीक बताओ, बेटे ! कैसा हमारा सच्चा बेटा है!

मानो बड़ी कठिनाई के बाद उसने अपना सिर हिलाया।

मैंने बहुत खुश होकर कहा कि दी है न छुन्नू को ?

उसने सिर हिला दिया।

अत्यंत सांत्वना के स्वर में स्नेहपूर्वक मैंने कहा कि मुंह से बोलो। छुन्नू को दी है?

उसने कहा, “हाँ-आँ।”

मैंने अत्यंत हर्ष के साथ दोनों बाँहों में लेकर उसे उठा लिया। कहा कि ऐसे ही बोल दिया करते हैं अच्छे लड़के। आशू हमारा राजा बेटा है। गर्व के भाव से उसे गोद में लिए-लिए मैं उसकी माँ की तरफ गया। उल्लासपूर्वक बोला कि देखो हमारे बेटे ने सच कबूल किया है। पाजेब उसने छुन्नू को दी है।

सुनकर माँ उसकी बहुत खुश हो आईं। उन्होंने उसे चूमा। बहुत शाबाशी दी ओर उसकी बलैयां लेने लगी !

आशुतोष भी मुस्करा आया, अगरचे एक उदासी भी उसके चेहरे से दूर नहीं हुई थी।

उसके बाद अलग ले जाकर मैंने बड़े प्रेम से पूछा कि पाजेब छुन्नू के पास है न? जाओ, माँग ला सकते हो उससे?

आशुतोष मेरी ओर देखता हुआ बैठा रहा। मैंने कहा कि जाओ बेटे! ले आओ।

उसने जवाब में मुंह नहीं खोला।

मैंने आग्रह किया तो वह बोला कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा ?

मैंने कहा कि तो जिसको उसने दी होगी उसका नाम बता देगा। सुनकर वह चुप हो गया। मेरे बार-बार कहने पर वह यही कहता रहा कि पाजेब छुन्नू के पास न हुई तो वह देगा कहाँ से ?

अंत में हारकर मैंने कहा कि वह कहीं तो होगी। अच्छा, तुमने कहाँ से उठाई थी ?

“पड़ी मिली थी ।”

“और फिर नीचे जाकर वह तुमने छुन्नू को दिखाई ?”

“हाँ !”

“फिर उसी ने कहा कि इसे बेचेंगे !”

“हाँ !”

“कहाँ बेचने को कहा ?”

“कहा मिठाई लाएंगे ?”

“नहीं, पतंग लाएंगे ?”

“हाँ!”

“सो पाजेब छुन्नू के पास रह गई ?”

“हाँ !”

“तो उसी के पास होनी चाहिए न ! या पतंग वाले के पास होगी ! जाओ, बेटा, उससे ले आओ। कहना, हमारे बाबूजी तुम्हें इनाम देंगे।

वह जाना नहीं चाहता था। उसने फिर कहा कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो कहाँ से देगा !

मुझे उसकी जिद बुरी मालूम हुई। मैंने कहा कि तो कहीं तुमने उसे गाड़ दिया है? क्या किया है? बोलते क्यों नहीं?

वह मेरी ओर देखता रहा, और कुछ नहीं बोला।

मैंने कहा, कुछ कहते क्यों नहीं?

वह गुम-सुम रह गया। और नहीं बोला।

मैंने डपटकर कहा कि जाओ, जहाँ हो वही से पाजेब लेकर आओ।

जब वह अपनी जगह से नहीं उठा और नहीं गया तो मैंने उसे कान पकड़कर उठाया। कहा कि सुनते हो ? जाओ, पाजेब लेकर आओ। नहीं तो घर में तुम्हारा काम नहीं है।

उस तरह उठाया जाकर वह उठ गया और कमरे से बाहर निकल गया । निकलकर बरामदे के एक कोने में रूठा मुंह बनाकर खड़ा रह गया ।

मुझे बड़ा क्षोभ हो रहा था। यह लड़का सच बोलकर अब किस बात से घबरा रहा है, यह मैं कुछ समझ न सका। मैंने बाहर आकर धीरे से कहा कि जाओ भाई, जाकर छुन्नू से कहते क्यों नहीं हो?

पहले तो उसने कोई जवाब नहीं दिया और जवाब दिया तो बार-बार कहने लगा कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा?

मैंने कहा कि जितने में उसने बेची होगी वह दाम दे देंगे। समझे न जाओ, तुम कहो तो।

छुन्नू की माँ तो कह रही है कि उसका लड़का ऐसा काम नहीं कर सकता। उसने पाजेब नहीं देखी।

जिस पर आशुतोष की माँ ने कहा कि नहीं तुम्हारा छुन्नू झूठ बोलता है। क्यों रे आशुतोष, तैने दी थी न?

आशुतोष ने धीरे से कहा, हाँ, दी थी।

दूसरे ओर से छुन्नू बढ़कर आया और हाथ फटकारकर बोला कि मुझे नहीं दी। क्यों रे, मुझे कब दी थी ?

आशुतोष ने जिद बांधकर कहा कि दी तो थी। कह दो, नहीं दी थी ?

नतीजा यह हुआ कि छुन्नू की माँ ने छुन्नू को खूब पीटा और खुद भी रोने लगी। कहती जाती कि हाय रे, अब हम चोर हो गए। कुलच्छनी औलाद जाने कब मिटेगी ?

बात दूर तक फैल चली। पड़ोस की स्त्रियों में पवन पड़ने लगी। और श्रीमती ने घर लौटकर कहा कि छुन्नू और उसकी माँ दोनों एक-से हैं। मैंने कहा कि तुमने तेजा-तेजी क्यों कर डाली? ऐसी कोई बात भला सुलझती है !

बोली कि हाँ, मैं तेज बोलती हूँ। अब जाओ ना, तुम्हीं उनके पास से पाजेब निकालकर लाते क्यों नहीं ? तब जानूँ, जब पाजेब निकलवा दो।

मैंने कहा कि पाजेब से बढ़कर शांति है । और अशांति से तो पाजेब मिल नहीं जाएगी।

श्रीमती बुदबुदाती हुई नाराज होकर मेरे सामने से चली गईं ।

थोड़ी देर बाद छुन्नू की माँ हमारे घर आई । श्रीमती उन्हें लाई थी। अब उनके बीच गर्मी नहीं थी, उन्होंने मेरे सामने आकर कहा कि छुन्नू तो पाजेब के लिए इनकार करता है। वह पाजेब कितने की थी, मैं उसके दाम भर सकती हूँ।

मैंने कहा, “यह आप क्या कहती है! बच्चे बच्चे हैं। आपने छुन्नू से सहूलियत से पूछा भी !”

उन्होंने उसी समय छुन्नू को बुलाकर मेरे सामने कर दिया। कहा कि क्यों रे, बता क्यों नहीं देता जो तैने पाजेब देखी हो ?

छुन्नू ने जोर से सिर हिलाकर इनकार किया। और बताया कि पाजेब आशुतोष के हाथ में मैंने देखी थी और वह पतंग वालों को दे आया है। मैंने खूब देखी थी, वह चाँदी की थी।

“तुम्हें ठीक मालूम है ?”

“हाँ, वह मुझसे कह रहा था कि तू भी चल। पतंग लाएंगे।”

“पाजेब कितनी बड़ी थी? बताओ तो ।”

छुन्नू ने उसका आकार बताया, जो ठीक ही था।

मैंने उसकी माँ की तरफ देखकर कहा देखिए न पहले यही कहता था कि मैंने पाजेब देखी तक नहीं। अब कहता है कि देखी है ।

माँ ने मेरे सामने छुन्नू को खींचकर तभी धम्म-धम्म पीटना शुरू कर दिया। कहा कि क्यों रे, झूठ बोलता है ? तेरी चमड़ी न उधेड़ी तो मैं नहीं।

मैंने बीच-बचाव करके छुन्नू को बचाया। वह शहीद की भांति पिटता रहा था। रोया बिल्कुल नहीं और एक कोने में खड़े आशुतोष को जाने किस भाव से देख रहा था।

खैर, मैंने सबको छुट्टी दी। कहा, जाओ बेटा छुन्नू खेलो। उसकी माँ को कहा, आप उसे मारिएगा नहीं। और पाजेब कोई ऐसी बड़ी चीज़ नहीं है।

छुन्नू चला गया। तब, उसकी माँ ने पूछा कि आप उसे कसूरवर समझतें हैं ?

मैंने कहा कि मालूम तो होता है कि उसे कुछ पता है। और वह मामले में शामिल है।

इस पर छुन्नू की माँ ने पास बैठी हुई मेरी पत्नी से कहा, “चलो बहनजी, मैं तुम्हें अपना सारा घर दिखाए देती हूँ। एक-एक चीज देख लो। होगी पाजेब तो जाएगी कहाँ ?”

मैंने कहा, “छोड़िए भी। बेबात को बात बढ़ाने से क्या फायदा ।” सो ज्यों-त्यों मैंने उन्हें दिलासा दिया। नहीं तो वह छुन्नू को पीट-पाट हाल-बेहाल कर डालने का प्रण ही उठाए ले रही थी। कुलच्छनी, आज उसी धरती में नहीं गाड़ दिया तो, मेरा नाम नहीं ।

खैर, जिस-तिस भांति बखेड़ा टाला। मैं इस झंझट में दफ्तर भी समय पर नहीं जा सका। जाते वक्त श्रीमती को कह गया कि देखो, आशुतोष को धमकाना मत। प्यार से सारी बातें पूछना। धमकाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं, और हाथ कुछ नहीं आता। समझी न ?

शाम को दफ्तर से लौटा तो श्रीमती से सूचना दी कि आशुतोष ने सब बतला दिया है। ग्यारह आने पैसे में वह पाजेब पतंग वाले को दे दी है। पैसे उसने थोड़े-थोड़े करके देने को कहे हैं। पाँच आने जो दिए वह छुन्नू के पास हैं। इस तरह रत्ती-रत्ती बात उसने कह दी है ।

कहने लगी कि मैंने बड़े प्यार से पूछ-पूछकर यह सब उसके पेट में से निकाला है। दो-तीन घंटे में मगज़ मारती रही। हाय राम, बच्चे का भी क्या जी होता है।

मैं सुनकर खुश हुआ। मैंने कहा कि चलो अच्छा है, अब पाँच आने भेजकर पाजेब मँगवा लेंगे। लेकिन यह पतंग वाला भी कितना बदमाश है, बच्चों के हाथ से ऐसी चीज़ें लेता है। उसे पुलिस में दे देना चाहिए । उचक्का कहीं का !

फिर मैंने पूछा कि आशुतोष कहाँ है?

उन्होंने बताया कि बाहर ही कहीं खेल-खाल रहा होगा।

मैंने कहा कि बंसी, जाकर उसे बुला तो लाओ।

बंसी गया और उसने आकर कहा कि वे अभी आते हैं।

“क्या कर रहा है ?”

“छुन्नू के साथ गिल्ली डंडा खेल रहे हैं ।”

थोड़ी देर में आशुतोष आया । तब मैंने उसे गोद में लेकर प्यार किया । आते-आते उसका चेहरा उदास हो गया और गोद में लेने पर भी वह कोई विशेष प्रसन्न नहीं मालूम नहीं हुआ।

उसकी माँ ने खुश होकर कहा कि आशुतोष ने सब बातें अपने आप पूरी-पूरी बता दी हैं। हमारा आशुतोष बड़ा सच्चा लड़का है ।

आशुतोष मेरी गोद में टिका रहा। लेकिन अपनी बड़ाई सुनकर भी उसको कुछ हर्ष नहीं हुआ, ऐसा प्रतीत होता था।

मैंने कहा कि आओ चलो । अब क्या बात है। क्यों हज़रत, तुमको पाँच ही आने तो मिले हैं न ? हम से पाँच आने माँग लेते तो क्या हम न देते? सुनो, अब से ऐसा मत करना, बेटे !

कमरे में जाकर मैंने उससे फिर पूछताछ की, “क्यों बेटा, पतंग वाले ने पाँच आने तुम्हें दिए न ?”

“हाँ”!

“और वह छुन्नू के पास हैं न!”

“हाँ!”

“अभी तो उसके पास होंगे न !”

“नहीं”

“खर्च कर दिए !”

“नहीं”

“नहीं खर्च किए?”

“हाँ”

“खर्च किए, कि नहीं खर्च किए ?”

उस ओर से प्रश्न करने वह मेरी ओर देखता रहा, उत्तर नहीं दिया।

“बताओं खर्च कर दिए कि अभी हैं ?”

जवाब में उसने एक बार ‘हाँ’ कहा तो दूसरी बात ‘नहीं’ कहा।

मैंने कहा, तो यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हें नहीं मालूम है ?

“हाँ।”

“बेटा, मालूम है न ?”

“हाँ।”

पतंग वाले से पैसे छुन्नू ने लिए हैं न?

“हाँ”

“तुमने क्यों नहीं लिए ?”

वह चुप।

“इकन्नियां कितनी थी, बोलो ?”

“दो।”

“बाकी पैसे थे ?”

“हाँ”

“दुअन्नी थी!”

“हाँ ।”

मुझे क्रोध आने लगा। डपटकर कहा कि सच क्यों नहीं बोलते जी ? सच बताओ कितनी इकन्नियां थी और कितना क्या था ।”

वह गुम-सुम खड़ा रहा, कुछ नहीं बोला।

“बोलते क्यों नहीं ?”

वह नहीं बोला।

“सुनते हो ! बोला-नहीं तो—”

आशुतोष डर गया। और कुछ नहीं बोला।

“सुनते नहीं, मैं क्या कह रहा हूँ?”

इस बार भी वह नहीं बोला तो मैंने कान पकड़कर उसके कान खींच लिए। वह बिना आँसू लाए गुम-सुम खड़ा रहा।

“अब भी नहीं बोलोगे ?”

वह डर के मारे पीला हो आया। लेकिन बोल नहीं सका। मैंने जोर से बुलाया “बंसी यहाँ आओ, इनको ले जाकर कोठरी में बंद कर दो ।”

बंसी नौकर उसे उठाकर ले गया और कोठरी में मूंद दिया।

दस मिनट बाद फिर उसे पास बुलवाया। उसका मुँह सूजा हुआ था। बिना कुछ बोले उसके ओंठ हिल रहे थे। कोठरी में बंद होकर भी वह रोया नहीं।

मैंने कहा, “क्यों रे, अब तो अकल आई ?”

वह सुनता हुआ गुम-सुम खड़ा रहा।

“अच्छा, पतंग वाला कौन सा है ? दाई तरफ का चौराहे वाला ?”

उसने कुछ ओठों में ही बड़बड़ा दिया। जिसे मैं कुछ समझ न सका ।

“वह चौराहे वाला ? बोलो—”

“हाँ।”

“देखो, अपने चाचा के साथ चले जाओ। बता देना कि कौन सा है। फिर उसे स्वयं भुगत लेंगे। समझते हो न ?”

यह कहकर मैंने अपने भाई को बुलवाया। सब बात समझाकर कहा, “देखो, पाँच आने के पैसे ले जाओ। पहले तुम दूर रहना। आशुतोष पैसे ले जाकर उसे देगा और अपनी पाजेब माँगेगा। अव्वल तो यह पाजेब लौटा ही देगा। नहीं तो उसे डांटना और कहना कि तुझे पुलिस के सुपुर्द कर दूंगा। बच्चों से माल ठगता है ? समझे ? नरमी की जरूरत नहीं हैं।”

“और आशुतोष, अब जाओ। अपने चाचा के साथ जाओ।” वह अपनी जगह पर खड़ा था। सुनकर भी टस-से-मस होता दिखाई नहीं दिया।

“नहीं जाओगे!”

उसने सिर हिला दिया कि नहीं जाऊंगा।

मैंने तब उसे समझाकर कहा कि “भैया घर की चीज है, दाम लगे हैं। भला पाँच आने में रुपयों का माल किसी के हाथ खो दोगे ! जाओ, चाचा के संग जाओ। तुम्हें कुछ नहीं कहना होगा। हाँ, पैसे दे देना और अपनी चीज वापस माँग लेना। दे तो दे, नहीं दे तो नहीं दे । तुम्हारा इससे कोई सरोकार नहीं। सच है न, बेटे ! अब जाओ।”

पर वह जाने को तैयार ही नहीं दिखा। मुझे लड़के की गुस्ताखी पर बड़ा बुरा मालूम हुआ। बोला, “इसमें बात क्या है? इसमें मुश्किल कहाँ है? समझाकर बात कर रहे है सो समझता ही नहीं, सुनता ही नहीं।”

मैंने कहा कि, “क्यों रे नहीं जाएगा?”

उसने फिर सिर हिला दिया कि नहीं जाऊंगा।

मैंने प्रकाश, अपने छोटे भाई को बुलाया। कहा, “प्रकाश, इसे पकड़कर ले जाओ।”

प्रकाश ने उसे पकड़ा और आशुतोष अपने हाथ-पैरों से उसका प्रतिकार करने लगा। वह साथ जाना नहीं चाहता था।

मैंने अपने ऊपर बहुत जब्र करके फिर आशुतोष को पुचकारा, कि जाओ भाई! डरो नहीं। अपनी चीज घर में आएगी। इतनी-सी बात समझते नहीं। प्रकाश इसे गोद में उठाकर ले जाओ और जो चीज माँगे उसे बाजार में दिला देना। जाओ भाई आशुतोष !

पर उसका मुंह फूला हुआ था। जैसे-तैसे बहुत समझाने पर वह प्रकाश के साथ चला। ऐसे चला मानो पैर उठाना उसे भारी हो रहा हो। आठ बरस का यह लड़का होने को आया फिर भी देखो न कि किसी भी बात की उसमें समझ नहीं हैं। मुझे जो गुस्सा आया कि क्या बतलाऊं! लेकिन यह याद करके कि गुस्से से बच्चे संभलने की जगह बिगड़ते हैं, मैं अपने को दबाता चला गया। खैर, वह गया तो मैंने चैन की सांस ली।

लेकिन देखता क्या हूँ कि कुछ देर में प्रकाश लौट आया है।

मैंने पूछा, “क्यों?”

बोला कि आशुतोष भाग आया है।

मैंने कहा कि “अब वह कहाँ है?”

“वह रूठा खड़ा है, घर में नहीं आता।”

“जाओ, पकड़कर तो लाओ।”

वह पकड़ा हुआ आया। मैंने कहा, “क्यों रे, तू शरारत से बाज नहीं आएगा? बोल, जाएगा कि नहीं?”

वह नहीं बोला तो मैंने कसकर उसके दो चांटे दिए। थप्पड़ लगते ही वह एक दम चीखा, पर फौरन चुप हो गया। वह वैसे ही मेरे सामने खड़ा रहा।

मैंने उसे देखकर मारे गुस्से से कहा कि ले जाओ इसे मेरे सामने से। जाकर कोठरी में बंद कर दो। दुष्ट!

इस बार वह आध-एक घंटे बंद रहा। मुझे ख्याल आया कि मैं ठीक नहीं कर रहा हूँ, लेकिन जैसे कोई दूसरा रास्ता न दिखता था। मार-पीटकर मन को ठिकाना देने की आदत पड़ कई थी, और कुछ अभ्यास न था।

खैर, मैंने इस बीच प्रकाश को कहा कि तुम दोनों पतंग वाले के पास जाओ।

मालूम करना कि किसने पाजेब ली है। होशियारी से मालूम करना। मालूम होने पर सख्ती करना। मुरव्वत की जरूरत नहीं। समझे।

प्रकाश गया और लौटने पर बताया कि उसके पास पाजेब नहीं है।

सुनकर मैं झल्ला आया, कहा कि तुमसे कुछ काम नहीं हो सकता। जरा सी बात नहीं हुई, तुमसे क्या उम्मीद रखी जाए?

वह अपनी सफाई देने लगा। मैंने कहा, “बस, तुम जाओ।”

प्रकाश मेरा बहुत लिहाज मानता था। वह मुंह डालकर चला गया। कोठरी खुलवाने पर आशुतोष को फर्श पर सोता पाया। उसके चेहरे पर अब भी आँसू नहीं थे। सच पूछो तो मुझे उस समय बालक पर करुणा हुई । लेकिन आदमी में एक ही साथ जाने क्या-क्या विरोधी भाव उठते हैं !

मैंने उसे जगाया। वह हड़बड़ाकर उठा। मैंने कहा, “कहो, क्या हालत है?”

थोड़ी देर तक वह समझा ही नहीं। फिर शायद पिछला सिलसिला याद आया।

झट उसके चेहरे पर वहीं जिद, अकड़ ओर प्रतिरोध के भाव दिखाई देने लगे।

मैंने कहा कि या तो राजी-राजी चले जाओ नहीं तो इस कोठरी में फिर बंद किए देते हैं।

आशुतोष पर इसका विशेष प्रभाव पड़ा हो, ऐसा मालूम नहीं हुआ।

खैर, उसे पकड़कर लाया और समझाने लगा। मैंने निकालकर उसे एक रुपया दिया और कहा, “बेटा, इसे पतंग वाले को दे देना और पाजेब माँग लेना कोई घबराने की बात नहीं। तुम समझदार लड़के हो।”

उसने कहा कि जो पाजेब उसके पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा?

“इसका क्या मतलब, तुमने कहा न कि पाँच आने में पाजेब दी है। न हो तो छुन्नू को भी साथ ले लेना। समझे?”

वह चुप हो गया। आखिर समझाने पर जाने को तैयार हुआ। मैंने प्रेमपूर्वक उसे प्रकाश के साथ जाने को कहा। उसका मुँह भारी देखकर डांटने वाला ही था कि इतने में सामने उसकी बुआ दिखाई दी।

बुआ ने आशुतोष के सिर पर हाथ रखकर पूछा कि कहाँ जा रहे हो, मैं तो तुम्हारे लिए केले और मिठाई लाई हूँ।

आशुतोष का चेहरा रूठा ही रहा। मैंने बुआ से कहा कि उसे रोको मत, जाने दो।

आशुतोष रुकने को उद्यत था। वह चलने में आनाकानी दिखाने लगा। बुआ ने पूछा, “क्या बात है?”

मैंने कहा, “कोई बात नहीं, जाने दो न उसे।”

पर आशुतोष मचलने पर आ गया था। मैंने डांटकर कहा, “प्रकाश, इसे ले क्यों नहीं जाते हो?”

बुआ ने कहा कि बात क्या है? क्या बात है?

मैंने पुकारा, “बंसी, तू भी साथ जा। बीच से लौटने न पाए।” सो मेरे आदेश पर दोनों आशुतोष को जबरदस्ती उठाकर सामने से ले गए। बुआ ने कहा, “क्यों उसे सता रहे हो?”

मैंने कहा कि कुछ नहीं, जरा यों ही-

फिर मैं उनके साथ इधर-उधर की बातें ले बैठा। राजनीति राष्ट्र की ही नहीं होती, मुहल्ले में भी राजनीति होती है। यह भार स्त्रियों पर टिकता है। कहाँ क्या हुआ, क्या होना चाहिए इत्यादि चर्चा स्त्रियों को लेकर रंग फैलाती है। इसी प्रकार कुछ बातें हुईं, फिर छोटा-सा बक्सा सरका कर बोली, इनमें वह कागज है जो तुमने माँगें थे। और यहाँ-

यह कहकर उन्होंने अपने बास्कट की जेब में हाथ डालकर पाजेब निकालकर सामने की, जैसे सामने बिच्छू हों। मैं भयभीत भाव से कह उठा कि यह क्या?

बोली कि उस रोज भूल से यह एक पाजेब मेरे साथ चली गई थी।

बाल मनोविज्ञान की कहानी : ‘पाजेब’

कहानी के पहले ही प्रसंग से बुआ द्वारा मुन्नी और आशुतोष के लाड़प्यार का संक्षिप्त वर्णन है। बुआ मुन्नी को पाजेब खरीद कर देती है, जिस से मुन्नी की आभूषण की। लालसा की ओर संकेत शुरू में ही मिल जाता है। बुआ आशुतोष को उसके जन्मदिन पर साइकिल देने का आश्वासन देती है। परिवार में यदि एक बच्चे को कछ दिया जाए तो दूसरे बच्चों में ईर्ष्या पैदा होती है। यह ईर्ष्या भी बच्चों की स्वाभाविक लालसा से उत्पन्न होती है। आशुतोष बुआ से कोई वस्तु नहीं पाता, पर साइकिल का आश्वासन पाकर संतुष्ट हो जाता है। मुन्नी द्वारा पाजेब की माँग और आशुतोष द्वारा साइकिल की माँग में केवल रूचि भेद का ही अंतर नहीं है, बल्कि जैविक अंतर भी है और परिवार में लड़की तथा लड़के के पालन-पोषण में किया जाने वाला अंतर भी है। परिवार में लड़के का जन्मदिन एक महत्वपूर्ण तिथि है, जिसे उल्लासपूर्वक मनाया जाता है, पर लड़की का जन्मदिन मनाने की परम्परा भारतीय परिवारों में प्रायः नहीं है। मुन्नी पाजेब पाकर फुदकती-नाचती सब को दिखाती फिर रही है और आशुतोष अपने जन्मदिन पर मिलने वाली साइकिल की कल्पना में मग्न है। उनकी बाल सुलभ चेष्टाओं का लेखक ने कुशल अंकन किया है। बच्चों की स्वाभाविक इच्छाओं, उनकी भोली चेष्टाओं की निर्व्याज अभिव्यक्ति कहानी के शुरू में ही मिल जाती है। यह मानो कहानी की प्रस्तावना है। प्रस्तावना में ही लेखक मनोवैज्ञानिक तेवर अपना लेता है, जो बालकों के आपसी संवादों, उनकी बाल सुलभ चेष्टाओं द्वारा प्रकट होता है।

इसके बाद एक पाजेब के न मिलने की सूचना दी जाती है। एक पाजेब का खो जाना चोरी में बदल जाता है। घर में अक्सर चीजें ठीक अवसर पर नहीं मिलती और खो भी जाती हैं, पर चाँदी की एक पाजेब का खो जाना परिवार के लिए एक महत्वपूर्ण घटना है। वह एक वस्तु की अनुपस्थिति नहीं आभूषण की अनुपस्थिति है। आभूषण का भारतीय मध्यवर्गीय परिवारों में विशेष महत्व है। इसलिए पाजेब का खोना तुरन्त चोरी में बदल जाता है। पाजेब भी एक वस्तु है, पर वह चाँदी की है, इसलिए उसका खो जाना सरासर चोरी मान लिया जाता है। चोरी शक को जन्म देती है और शक के घेरे में घर का नौकर वंशी, फिर बालक आशुतोष और एक पड़ोसी का बालक छुन्नू आ जाते हैं। कहानी का सम्पूर्ण घटनाक्रम इस संक्षिप्त चोरी के चारों ओर घूमता है। एक मामूली घटना अनेक प्रसंगों में फैलती जाती है। वंशी, आशुतोष, छुन्नू से पूछताछ होती है, घरों में तनाव बढ़ता है और आशुतोष की माँ तथा पड़ोसन छुन्नू की माँ के बीच कहा सुनी हो जाती है। 

कहा जा सकता है कि ‘पाजेब’ एक मामूली घटना (एक पाजेब का घर में न मिलना) पर आधृत एक कहानी है। निश्चित रूप से इस कहानी का आधार बड़ी मामूली घटना है, पर इस से लेखक ने यह संकेत देना चाहा है कि आधुनिक कहानी में घटना मुख्य नहीं रही, बल्कि घटना में निहित अर्थ मुख्य हो गया है। इस कारण छोटी से छोटी। घटना कहानी का आधार हो सकता है, जैसे कोई मामूली व्यक्ति आधुनिक हिंदी उपन्यास का आधार हो सकता है। तो अब घटना का चित्रण, उसका विवरण कहानी की उत्कृष्टता की कसौटी नहीं रहा, बल्कि उस का निहितार्थ अथवा उसकी संवेदना की मार्मिकता मुख्य हो गई है। इस प्रकार ‘पाजेब’ कहानी एक मामूली घटना पर आधृत होकर भी गैरमामूली कहानी हो गई है।

कहानी का घटनाक्रम आगे बढ़ता है तो हम पाते हैं कि पिता द्वारा प्यार के प्रदर्शन, सच बोलने। पर इनाम के लालच के बावजूद आशुतोष पाजेब चुराने के आरोप को स्वीकार नहीं करता। किंतु बार-बार पूछे जाने पर पूछताछ की यातना से मुक्ति पाने के लिए या किसी अज्ञात डर या आशंका के कारण वह स्वीकार कर लेता है कि उसने पाजेब छुन्नू को दी। बालक चोरी के आरोप से इंकार करने पर भी चोरी में शामिल कर लेता है। बालक बुद्धि को चोरी के आरोप से मुक्त होने के लिए यही मार्ग सूझा कि उसे छुन्नू के सिर डाल दे। उसने यह कल्पना भी नहीं की थी कि छुन्नू से भी पूछताछ की जाएगी और उसका झूठ पकड़ा जाएगा। उसका यह आचरण बाल मनोविज्ञान का सूचक है।

“मैंने बुलाकर कहा, ‘अच्छा सुनो। देखो, मेरी तरफ देखो, यह बताओ कि पाजेब तुमने छुन्नू को दी है न?”

वह कुछ देर कुछ नहीं बोला। उसके चेहरे पर रंग आया और गया। मैं एक-एक छाया ताड़ना चाहता था। मैंने आश्वासन देते हुए कहा कि कोई बात नहीं। हाँ-हाँ, बोलो डरो नहीं। ठीक बताओ बेटे कैसा हमारा सच्चा बेटा है। मानो बड़ी कठिनाई के बाद उसने  अपना सिर हिलाया। मैंने बहुत खुश होकर कहा कि दी है न छुन्नू को? उसने सिर हिला दिया।”

छुन्न से पूछताछ की जाती है तो वह चोरी से इंकार करता है और आरोप को आशुतोष के कंधे पर सरका देता है। बच्चों का एक दूसरे पर यह आरोप-प्रत्यारोप बालक बुद्धि का ही परिचायक है। पर चोरी का आरोप अपने पुत्र पर लगते देख कर धुन्न की माँ उसकी पिटाई करती है। दोनों बच्चों की माताओं में कहा सुनी होती है। बच्चे जो कल घनिष्ठ मित्र थे, आरोप-प्रत्यारोप के बीच एक दूसरे के शत्रु की तरह व्यवहार करते हैं। पाजेब की चोरी तो संदिग्ध थी, पर आशुतोष और छुन्न के बीच तनाव, उनकी माताओं के बीच झगड़ा एक वास्तविकता बन गया।

छुन्नू की माँ तो कह रही है कि उसका लड़का ऐसा काम नहीं कर सकता। उसने पाजेब नहीं देखी। जिस पर आशुतोष की माँ ने कहा कि नहीं तुम्हारा छुन्नू झूठ बोलता है।

नतीजा यह हुआ कि छुन्नू की माँ ने छुन्नू को खूब पीटा ओर खुद भी रोने लगी। कहती जाती कि हाय रे, अब हम चोर हो गए। यह कुलच्छिनी औलाद जाने कब मिटेगी।”

इस प्रकार स्पष्ट है कि पाजेब के खोने की मामूली घटना से निकलने वाले सूत्र फैलते जाते हैं और उनमें उलझनें पैदा होने लगती हैं। ये उलझनें विभिन्न पात्रों के द्वंद्व तथा अंतर्द्वद्व को कुशलता से चित्रित कर जाती हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि लेखक का बल किसी घटना या प्रसंग के विस्तृत वर्णन पर नहीं है, बल्कि उससे उत्पन्न मानसिक उथल-पुथल, चित्तवृत्तियों के परिवर्तनों पर है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि इस कहानी में बाह्य स्तर पर जो कुछ घटित होते दिखाया गया है, उससे अधिक आन्तरिक स्तर पर घटित होते दिखाया गया है। ऐसा जैनेन्द्र की। कहानियों में अक्सर दिखाई देता है। कहा जा सकता है कि लेखक का बल बाह्य घटना के बजाए आन्तरिक घटना पर अधिक है।

कहानी के इस हिस्से में कहानीकार ने पाजेब की तथाकथित चोरी के प्रसंग को लेकर छोटी-छोटी घटनाओं या प्रसंगों का जो तानाबाना बुना है, उसमें बच्चों के साथ उनके परिवार के व्यक्ति भी शामिल कर लिए गए। रोचक बात यह है कि पहले आशुतोष और छुन्न चोरी से इन्कार करते हैं, बाद में डराने धमकाने पर उसे स्वीकार कर लेते हैं और उस आरोप को एक दूसरे पर डाल कर उससे मुक्ति पाने की कोशिश करते हैं। इन बाल सुलभ-चेष्टाओं से बाल मनोविज्ञान उद्घाटित होता है।

कहानी में दूसरा मोड़ शाम को उपस्थित होता है, जब दफ्तर से लौट कर आशुतोष के पिता को सूचना मिलती है कि आशुतोष ने पाजेब की चोरी के रहस्य को खोल दिया है और उसने सब कुछ बता दिया है। बाप के डर से आशुतोष जो कुछ नहीं बता । सकता था, वह सब कुछ उसने माँ की ममता के आगे उडेल दिया। बाप से बच्चे डरते हैं और माँ को अपना हमराज़ समझते हैं, यह भी एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। बाल मनोविज्ञान के इस तथ्य का उद्घाटन लेखक ने बड़े सहज ढंग से कर दिया है।

“शाम को दफ्तर से लौटा तो श्रीमती ने सूचना दी कि आशुतोष ने सब बतला दिया

कहने लगी कि मैंने बड़े प्यार से पूछ-पूछकर यह सब उसके पेट से निकाला है। दोतीन घंटे मैं मगज मारती रही। हाय राम, बच्चे का भी क्या जी होता है।”

गहरी से गहरी बात को सरल शब्दों, छोटे छोटे वाक्यों और संक्षिप्त संवादों से कह देने . की कला में जैनेन्द्र माहिर हैं। उनकी कहानी कला की यह विशेषता यों तो इस पूरी कहानी में विद्यमान है, पर कहानी के इस भाग में भी उसके दर्शन होते हैं।

“मुझे क्रोध आने लगा डपटकर कहा कि सच क्यों नहीं बोलते जी? सच बताओ कितनी इकन्नियाँ थी और कितना क्या था?”

वह गुम-सुम खड़ा रहा, कुछ नहीं बोला।

“बोलते क्यों नहीं?”

वह नहीं बोला। “सुनते हो! बोलते नहीं तो…..

” आशुतोष डर गया। और कुछ नहीं बोला।

इस बार भी वह नहीं बोला तो मैंने पकड़कर उसके कान खींच लिए। वह बिना आँसू लाए गुम-सुम खड़ा रहा।

“अब भी नहीं बोलोगे?”

वह डर के मारे पीला हो आया। लेकिन बोल नहीं सका।

आशुतोष शाम तक स्वीकार कर लेता है कि उसने पाजेब छुन्नू को दी, जिसने उसे पाँच आने में पतंग वाले को बेच दिया। वह स्वयं दूर खड़ा रहा और छुन्नू पाजेब लेकर पतंग वाले के पास गया, इसलिए वह पाजेब की चोरी में शामिल नहीं है। यह भोला तर्क बालक को ही शोभा देता है। बालक प्रायः सच बोलते हैं, पर जब आशुतोष के इस सच को, किं उसने चोरी नहीं की, पिता द्वारा स्वीकार नहीं किया गया और उसे निरन्तर संदेह की दृष्टि से देखा जाता रहा तब उसने अपनी जान बचाने के लिए छुन्नू का नाम ले दिया। सच को. ठुकराए जाने पर ही उसने झूठ की शरण ली। तात्पर्य यह है कि आशुतोष को पिता की संदेहपूर्ण दृष्टि से बचने के लिए झूठ बोलना पड़ा।

आशुतोष और छुन्नू में दोस्ती है, पर अपनी जान बचाने के लिए उसने छुन्नू के कंधे . पर चोरी का आरोप रख दिया। क्षण भर में दोस्ती शत्रुता में बदल गई और छून्नू उसे घृणा भरी नजरों से देखने लगा। पर शाम तक आशुतोष और छुन्न के बीच का तनाव समाप्त हो गया था, क्योंकि दोनों गली में गिल्ली डंडा खेल रहे थे। यहाँ भी बाल मनोविज्ञान की झलक मिलती है। बच्चों का निर्मल हृदय घर के दूषित वातावरण अथवा माता-पिता द्वारा किए गए गलत व्यवहार से भी दूषित होता है, यह भी कहानी के इस भाग में ध्वनित होता है।

शाम को पिता ने आशुतोष को आदेश दिया कि पतंग वाले को पाँच आने लौटा कर पाजेब वापस ले आओ। पर आशुतोष तैयार नहीं हुआ, क्योंकि पाँच आने छुन्न ने लिए थे। छुन्नू ने वे खर्च कर दिए या नहीं, यह उसने स्पष्ट नहीं किया। कभी वह ‘हाँ’ कहता: कभी ‘ना’, जिसका एक मतलब यह था कि दोनों ने मिल कर पैसे उड़ा दिए और दूसरा अर्थ यह था कि वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि पिता को क्या उत्तर दे। इसके उत्तरों से यह ध्वनि भी निकलती थी कि एक आवश्यकता आ पड़ी थी और वह यह नहीं सोच पा रहा था कि दूसरा झूठ कौन सा गढ़े। क्योंकि आशुतोष बच्चा था, कोई चालाक गवाह नहीं, जो अवसर के अनुकूल झूठ गढ़ लेता है। उसकी दुविधा बढती गई और उस मन-स्थिति में वह पतंग वाले से पाजेब वापस लाने को तैयार नहीं हुआ। पिता ने उसे कोठरी में बंद कर दिया, पर आशुतोष जिद्दी बालक की तरह अपनी जिद पर अड़ा रहा। बालक आशुतोष के व्यवहार से उस की द्वंद्वग्रस्त मनःस्थिति स्पष्ट होती है और जिद्दी बालक के मनोविज्ञान का भी पता चलता है।

मध्यवर्ग : भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति ।

कहानी के तीसरे भाग में घटनाक्रम उत्कर्ष की ओर बढ़ता है। आशुतोष को चाचा के साथ पतंग वाले के पास जाने के लिए विवश किया जाता है। पहले तो वह न जाने की जिद पर अड़ा रहा। समझाने बुझाने, फुसलाने डराने के बाद वह चाचा के साथ गया भी तो रास्ते से लौट आया। उसका सबसे बड़ा डर यह है कि पिता के दबाव में आकर वह जो झूठ बोला है (यद्यपि उसे सच के रूप में कहा गया है) उसकी पोल खुल जाएगी और उसका झूठ पकड़ा जाएगा। पिता.के दबाव में आकर या बार-बार की पूछताछ से बचने के लिए अथवा अपने पर किए गए संदेह की दिशा को छुन्नू की ओर मोड़ने के लिए उसने झूठ बोल दिया और समझ लिया कि मुसीबत टल गई। पर एक झूठ दूसरे झूठ को जन्म देता है या दूसरे झूठ की भूमिका तैयार कर देता है। इस प्रकार झूठ की एक श्रृंखला बन जाती है और आदमी अनचाहे उसमें फंस जाता है।

रास्ते से लौट आने पर पिता द्वारा आशुतोष को फिर कोठरी में बंद कर दिया जाता है। पिता ने यह समझा था कि सख्ती करके वह बेटे को सीधे मार्ग पर ले आएगा, पर . उसकी सख्ती बेकार गई। जब कोठरी का दरवाजा खोला गया तो आशुतोष को मजे से सोता हुआ पाया गया। बालक के साथ ज्यादा सख्ती करके भी उसकी जिद पर काबू नहीं पाया जा सकता। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है, जिसकी ओर कहानीकार ने बड़ी सहजता से संकेत कर दिया है। जिद किसी व्यक्ति का प्रकट दृढ़ निश्चय हो सकता है, पर वह एक प्रतिक्रिया भी हो सकती है, जो किसी बात का विरोध करने के लिए अथवा झूठ को सच सिद्ध करने के असफल कोशिश के उद्देश्य से व्यक्त हो सकती है। आशुतोष का व्यवहार इसी तथ्य की ओर संकेत करता है।

जब कोठरी में बंद करना व्यर्थ गया तो पिता ने उसे एक रुपया देकर, फुसला कर, लालच देकर चाचा के साथ पतंग वाले के पास जाने का आदेश दिया। बालक पर सख्ती का असर नहीं हुआ था, पर एक रुपये का लालच काम कर गया और आशुतोष चाचा के साथ पतंग वाले के पास जाने को तैयार हो गया। यहाँ एक दूसरा मनोवैज्ञानिक तथ्य सामने आया कि बच्चे को वांछित मार्ग पर लाने के लिए सख्ती के बजाए उसे ललचा कर, बहला कर काम चलाना अधिक उपयुक्त है। इस प्रसंग से यह भी प्रकट होता है कि बच्चे को फुसलाना आसान है और सख्ती करने से अथवा .. पिटाई करने से वह जिद्दी और ढीठ हो जाता है।

कहानी अपने उत्कर्ष पर अंत में वहाँ पहँचती है, जहाँ आशुतोष की बुआ प्रकट होकर सूचना देती है कि पाजेब गलती से उसके साथ चली गई थी और वह पाजेब निकाल कर सामने रख देती है। अंत में जब रहस्य खुलता है कि पाजेब की चोरी ही नहीं हुई थी और उसके खोने की चोरी मान लिया गया था, तब आशुतोष और छुन्नू पर लगाए गए चोरी और झूठ बोलने के आरोप कितने व्यर्थ लगते हैं। आशुतोष के हाथ में पतंग देखकर अनुमान लगा लिया गया कि. वह पतंग वाले को पाजेब बेच कर पतंग खरीद कर लाया होगा।

‘पाजेब’ कहानी के अंतिम भाग से पता चलता है कि लेखक ने जिस रहस्य को कहानी में दूर तक छिपाए रखा, उसे उपयुक्त समय पर उद्घाटित करके औपन्यासिक युक्ति का इस्तेमाल किया, जिससे पाठकों को जिज्ञासा-तृप्ति. का सुख मिलता है। इससे कहानी की रोचकता में भी वृद्धि हुई है।

उक्त रहस्य के उदघाटन से कहानी की दिशा ही बदल जाती है, पर कहानी घटनाक्रम की दृष्टि से अपने उत्कर्ष पर पहुँच जाती है। पश्चिमी साहित्य-सिद्धांत के अनुसार उत्कर्ष (climax) के बाद anti-climax का भी विधान है। पर कहानी समाप्त हो जाती है, अर्थात् इस की कथा वस्तु में कोई उतार या anti-climax नहीं है। पर कहानी का अंत बड़ा आकस्मिक और इसलिए रोचक है। कहानी का उत्कर्ष पर पहुँच कर समाप्त हो जाना चौंकाने वाला है और इसलिए कैसे शुरू की जाएं और कैसे  उसका अंत किया जाए, यह कहानी लेखक की कहानीकला का महत्वपूर्ण अंग है। इस संदर्भ में जैनेन्द्र अपने लेखकीय कौशल का परिचय देते हैं।

‘पाजेब’ कहानी के तीसरे मोड़ पर आशुतोष पर दबाव डाला जाता है कि वह अपने चाचा के साथ पतंग वाले की दुकान पर जाकर पाँच आने उसे लौटा कर पाजेब वापस लाए। इसके लिए पहले वह तैयार नहीं हुआ। बाद में वह गया भी तो रास्ते से भाग आया। उसे डर था कि वह पतंग वाले से क्या कहेगा, क्योंकि उसने पतंग वाले को छन्न द्वारा पाजेब बेचने की मनगढंत कहानी पिता को बताई थी। वह सोचता था कि पतंग वाले का सामना किस मुंह से करेगा। इसी ऊहापोह में वह रास्ते से लौट आया। इस से बालक की मानसिक स्थिति का, उस की दुविधा का पता चलता है। दुविधा का कारण उसकी यह चिन्ता है कि उस का झूठ पकड़ा जाएगा, वह झूठ जो उसने पिता द्वारा निरन्तर पूछताछ से तंग आ कर बोला था।

इससे यह मनोवैज्ञानिक तथ्य सामने आता है कि बच्चे प्रायः सच बोलते हैं, पर किसी दबाव या लालच के कारण वे झूठ का सहारा लेने पर विवश होते हैं। झूठ बोलना उन की विवशता हो सकती है, स्वभाव नहीं।

रास्ते से भाग आने के बाद आशुतोष को कोठरी में बंद कर दिया गया, जहाँ उसने मक्ति की सांस ली और सो गया। पिता ने जब उसे एक रुपया देकर ललचाया तो वह पतंग वाले के पास जाने को तैयार हुआ। इस प्रकार पिता द्वारा की गई सख्ती काम नहीं आई, एक रुपए का लालच उसे पतंग वाले के पास जाने के लिए तैयार कर गया। इससे स्पष्ट होता है कि सख्त व्यवहार अथवा मारपीट से बच्चे जिद्दी हो जाते हैं, प्यार दुलार या लालच से उन्हें वांछित दिशा की ओर मोड़ा जा सकता है।

उसी समय बुआ ने प्रकट होकर पाजेब के खोने का रहस्य खोल दिया कि वह गलती से उसके सामान के साथ चली गई थी। तात्पर्य यह कि पाजेब की चोरी हुई ही नहीं थी। पाजेब न मिलने को चोरी मान लिया गया। इस प्रकार उत्कर्ष पर पहुँच कर कहानी समाप्त हो गई।

‘पाजेब’ कहानी का उद्देश्य बालकों के मनोविज्ञान को स्पष्ट करना है। उन के मनोविज्ञान को समझ कर ही माँ बाप उनके साथ संतुलित व्यवहार कर सकेंगे।

बच्चों में खिलौनों की स्वाभाविक लालसा होती है और बच्चियों में आभूषण पाने की। इसी लिए मुन्नी को बुआ द्वारा पाजेब मिली और आशुतोष को साइकिल का आश्वासन। साइकिल जन्मदिन पर मिलती। तब वह बाजार से पतंग ले आया। बालक की यह स्वाभाविक चेष्टा है।

इसी बीच पाजेब खो गई, जिसे घर के लोगों ने चोरी समझ लिया। चोरी का आरोप घर के नौकर वंशी पर, फिर आशुतोष पर लगा। इस मुसीबत से बचने के लिए पिता द्वारा धमकाए जाने पर आशुतोष ने चोरी का आरोप स्वीकार कर लिया, पर उसने छुन्नू को भी फँसा लिया। बच्चे अक्सर ऐसा करते हैं, जिसके कारण उन में लड़ाई होती है और फिर आसानी से सुलह भी। दोनों बच्चे चोरी का आरोप एक दूसरे पर लगाते हैं, जिसको लेकर उनकी माताओं में कहा सुनी हो जाती है। दोनों की माताएँ. यदि बाल मनोविज्ञान को समझतीं तो उनमें लड़ाई न होती। लेकिन ‘पाजेब’ के चोरी होने से एक मध्यवर्गीय परिवार में अशांति का वातावरण पैदा हो गया। जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भौतिक वस्तुओं के प्रति इनके मन में असीम लालसा है जिसकी तृप्ति के लिए या चाहने पर वे सभी तरह के मनोवैज्ञानिक दबाव का प्रयोग करने से भी नहीं चूकते।

दिन भर आशुतोष मुँह फुलाए रहा और पिता के सामने उस ने पहले चोरी का आरोप स्वीकार नहीं किया। बाप से डर कर जो वह नहीं कह सका, उस ने माँ के सामने कह दिया। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि बाप से बच्चे डरते हैं और उससे एक दूरी रखते हैं, पर माँ उनकी हमराज़ होती है।

शाम को पिता ने आशुतोष को आदेश दिया कि छुन्नू को साथ लेकर पतंग बाले के पास जाए और छुन्न से उसे पाँच आने वापस दिला कर अपनी पाजेब लेकर आए। उसकी मुसीबत फिर शुरू हो गई और छुन्नू के साथ गली में गिल्ली डंडे का खेल रुक गया। दोनों बालकों ने फिर एक दूसरे के विरोधी की भमिका सँभाल ली। बच्चों की दोस्ती और दुश्मनी क्षणिक होती है, स्थायी नहीं। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य भी इस कहानी से उजागर होता है।

उत्कर्ष पर पहुँच कर कहानी का अंत रोचक हो गया है। इस रोचकता में पाजेब का आकस्मिक रूप में मिल जाना भी सहायक हुआ। इस रोचक अंत और आकस्मिकता से लेखक की कहानी कहने की कला का परिचय मिलता है। छोटे-छोटे वाक्यों, सरल शब्दों, स्वाभाविक संवाद योजना, मनोवैज्ञानिक तथ्यों के समावेश से जैनेन्द्र एक कुशल कहानीकार सिद्ध होते हैं।

मध्यवर्गीय मानसिकता और बदलते नैतिक मूल्य

जैनेन्द्र ने पाजेब कहानी के माध्यम से नौकरीपेशा मध्यवर्ग की मानसिकता में आ रहे बदलाव की आरे संकेत किया है। शहरीकरण और पूँजी के बढ़ते हुए वर्चस्व के कारण मानवीय संबंधों में तेजी से बदलाव आने लगा था। नई कहानी के दौर के सभी लेखकों की रचनाओं में इस बदलते हुए जीवन संदों को यथार्थवादी, मनोविश्लेषणवादी और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण से जाँच-परख कर प्रस्तुत किया। जीवन मूल्यों के तेजी से बदलने का वह समय था। व्यक्ति का जीवन इतना सरल नहीं रह गया था जैसा कि कुछ समय पहले तक वे तत्व मौजूद थे। आपसी संबंधों में संदेह  और अविश्वास पैदा होने लग गया था। आर्थिक और राजनीतिक दबाव ने व्यक्तिव्यक्ति के बीच संदेह का वातावरण तैयार कर दिया था। एक प्रकार के भय से आक्रांत मध्यवर्ग कई-कई आशंकाओं को अपने मन में पालने लग गया था। संयुक्त परिवार के विघटन ने मध्यवर्ग को भयाक्रांत कर दिया था। जीवन के आदर्शों से वह हटने लगा था। व्यवस्था में आए बदलाव ने आपसी रिश्ते-नातों पर भी आघात करना प्रारंभ कर दिया था। इन्हीं बदलते हुए संबंधों, आशंकाओं और संदेहों के माध्यम से जैनेन्द्र ने ‘पाजेब’ के माध्यम से मध्यवर्गीय मानसिकता में आए बदलाव को चित्रित किया है। व्यवस्था के अंतर्विरोधों को उघाड़ने में पारिवारिक संबंधों के बीच आ बैठे संदेह ने पिता ने पुत्र पर दबाव डालकर न हुई चोरी को कबुलने के लिए मजबूर कर दिया। यहाँ केवल बेटे द्वारा एक अपराध होने की या चोरी करने की मात्र आशंका से मध्यवर्गीय नीति मूल्यों के टूटने की पीड़ा पिता को घेर लेती है।

आशुतोष का प्रत्येक हाव-भाव, उसके दोस्त छुन्नू के साथ उसका पतंग उड़ाना आदि बाल सुलभ खेल को संदेह की नजर से देखा जाना, तत्कालीन समय में आर्थिक दबाव के कारण बदलते जीवन मूल्यों की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं। नैतिक मूल्यों की वास्तविक शिक्षा बाल्यकाल में ही दी जानी चाहिए, इस समय दंड और पुरस्कार देकर बच्चों में इन मूल्यों का विकास किया जा सकता है जो एक बालक की प्रवृत्तियों के अनुकूल ही है। लेकिन जैसे ही दंड और पुरस्कार को कठोर अनुशासन के तौर पर इस्तेमाल किया जाएगा तो नैतिक विकास की दिशा विपरीत हो जाएगी। परिवार में नैतिक मूल्यों की एकरूपता बालक के नैतिक विकास के लिए अति आवश्यक है। पिता का नैतिक मूल्यों के प्रति अति आग्रह और आशुतोष में इन मूल्यों के विकास के अभाव की शंका ने पिता को कठोर शासन करने पर मजबूर कर दिया था। यहाँ हम देख रहे हैं कि अपने पक्ष की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए परिवार ने आशुतोष को संदेह के घेरे में लेकर एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया। बल्कि अस्तित्व को नकारकर उसके निजी क्षेत्र में अर्थात उसके निर्णय लेने अथवा उसके कहे गए सच को न मानकर उसे अंत में झूठ बोलने पर मजबूर किया जाना। मध्यवर्ग कि इस उधेड-बन अवस्था उसकी अर्थ की समस्याओं का ही परिणाम है। व्यक्ति जितना आर्थिक समस्याओं से जूझता जाता है उतना ही वह इस उधेड़-बुन में फंसता चला जाता है। अपने ऊपर या परिवार जनों पर से विश्वास उठना व्यक्ति के जीवन में हो रहे उतार-चढ़ाव का ही प्रतिबिंब होता है।

आशतोष के माता-पिता एक विशिष्ट दायरे में घुमते हुए नजर आते हैं, सामाजिक यथार्थ से एकदम निरपेक्ष अपनी ही समस्याओं से घिरे हुए। उनका संघर्ष व्यक्ति के अंतर्मन में अधिक चलता है, सतह पर कम दिखता है। पाजेब खो जाने की घटना से परिवार के सदस्यों का चिंतित हो जाना स्वाभाविक है लेकिन जीवन की अन्य समस्याओं के प्रति उदासीन होकर केवल पाजेब की चोरी तक ही इसे सीमित किए जाने से यह केवल पारिवारिक समस्या बन कर रह जाती है। इसका सामाजिक पक्ष इसमें निहित नहीं है। सारा संघर्ष भीतरी है, व्यक्ति के मन के भीतर चलता है, समाज के भीतर नहीं।

मध्यवर्ग की संकुचित दायरे में केवल अपने तहत् सोचने की मानसिकता का जैनेन्द्र ने वास्तविक चित्रण इस कहानी के माध्यम से किया है। जैनेन्द्र की यह विशेषता है कि व्यक्ति के मन के भीतर चलने वाले द्वंद्व और उथल-पुथल को अभिव्यक्त करना, यही उनकी कहानी का लक्ष्य भी होता है। इसलिए ‘पाजेब’ कहानी में केवल एक परिवार के आंतरिक संबंधों, आपसी मतभेद, उतार-चढ़ाव, व्यक्तिगत समस्याओं को ही महत्व दिया गया है। कहानी में केवल एक घटना है और उसके इर्द-गिर्द सभी पात्र घुमते रहते हैं। घटना बहुलता नहीं है, सामाजिक सरोकारों को अभिव्यक्त करने या संबंध होने का जैसे कोई औचित्य ही नहीं है।

कहानी का शिल्प

किसी लेखक की कहानी कला का सम्यक विवेचन उस की संपूर्ण कहानियों के आधार पर ही किया जा सकता है, पर उसकी प्रतिनिधि कहानियों के आधार पर भी कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। ‘पाजेब’ जैनेन्द्र की एक प्रतिनिधि कहानी है, जो उनकी कहानीकला की कुछ विशेषताओं से भी पाठकों का परिचय कराती है। नीचे इसी कहानी को आधार बना कर लेखक की कहानी के शिल्प पर विचार किया जा रहा है। प्रेमचंद युगीन हिंदी कहानी में वर्णनात्मकता और घटना प्रधानता का आग्रह अधिक प्रचलित था, पर आगे चल कर जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी आदि . कहानीकारों ने पात्रों के चरित्र-चित्रण तथा आंतरिक उथल पुथल की अभिव्यक्ति को मनोवैज्ञानिक कहानी कहना शुरू किया।

प्रेमचन्द्र और उनके युग के कहानीकारों की कहानियों में मनोविज्ञान की उपेक्षा नहीं की गई थी, पर उनमें घटना के वर्णन का महत्व सर्वोपरि था। हिंदी कहानी में मनोवैज्ञानिक तथ्यों के समावेश और मनोविश्लेषण की प्रवृत्ति को प्रचलित करने का श्रेय जैनेन्द्र और उन जैसे कहानीकारों को दिया जा सकता है।

‘पाजेब’ भी एक मनोवैज्ञानिक कहानी है, जिसमें चित्रित घटनाएँ गौण अथवा प्रासंगिक है। पूरी कहानी बाल-मनोविज्ञान पर आधृत है। बालकों की छोटी-छोटी इच्छाएँ, उनके बाल सुलभ कामों, क्षण में शत्रुता और क्षण में दोस्ती का व्यवहार, खिलौने और आभूषणों से प्रेम आदि बाल सुलभ प्रवृत्तियों को इस कहानी में दिखाया गया है। मुन्नी का पाजेब की फरमाइश करना और आशुतोष द्वारा साइकिल की इच्छा अत्यन्त स्वाभाविक है। इन दोनों बालकों के अतिरिक्त छुन्नू के चरित्र का चित्रण भी स्वाभाविक एवं यथार्थ है।

चरित्र चित्रण के लिए जैनेन्द्र ने प्रमुख रूप से दो विधियाँ अपनाई है। एक तो पात्रों की गतिविधियों अथवा कार्यकलापों का संक्षिप्त वर्णन और दूसरी विधि है पात्रों के संक्षिप्त तथा स्वाभाविक संवाद। पाजेब पाकर मुन्नी का फुदकना और उसे सब को पर साइकिल का आश्वासन पाकर संतुष्ट तो हो जाता है, पर उसे मुन्नी की तरह। कोई वस्तु नहीं मिली। इसलिए वह पतंग खरीद लाता है। ये क्रिया कलाप बालकों के स्वभाव के अनुकूल है।

इसी प्रकार आशुतोष द्वारा छुन्नू को चोरी के आरोप में शामिल करने पर छुन्नू का बदला हुआ व्यवहार और अपने बचाव की कोशिश में आशुतोष पर प्रत्यारोप लगाना बाल सुलभ चेष्टाएँ हैं। आशुतोष द्वारा चाचा के साथ पतंग वाले के पास जाते हुए रास्ते से भाग आना उसके अंर्तद्वंद्व तथा तनाव ग्रस्त मानसिकता को प्रकट करता है।

इस कहानी के पात्रों के अनुकूल, अवसर के अनुकूल संवाद भी लेखक की कहानीकला के वैशिष्टय हैं। प्रायः संवाद लम्बे नहीं हैं। कहीं-कहीं एक दो शब्दों से, ‘हाँ’ या ‘ना’ से और कभी मौन से काम चलाया गया है। आशुतोष और उसके पिता के बीच हुए संवाद ऐसे ही हैं। आशुतोष की माँ और छुन्नू की माँ के बीच हुए संवाद दोनों की संकीर्ण सोच को स्पष्ट करते हैं। वे पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं के द्योतक हैं।

सारांश

‘पाजेब’ एक चरित्र प्रधान कहानी है, जिसमें लम्बी चौड़ी घटनाएँ नहीं घटतीं। घर में पाजेब का खो जाना और खोने को चोरी समझ लेना एक मामूली घटना है। इसलिए इस कहानी का कहानीपन घटना के वर्णन में निहित नहीं है, बल्कि बालक पात्रों के चरित्र चित्रण द्वारा बाल-मनोविज्ञान की कुशल अभिव्यंजना में निहित है।

चरित्र प्रधान कहानी की सफलता पात्रों के कुशल चरित्रांकन पर अवलम्बित है। जैनेन्द्र की कहानी कला का एक सशक्त पक्ष उनका चरित्र चित्रण है और चरित्र चित्रण के समय भी बाह्य घटनाओं पर लेखक उतना बल नहीं देता, जितना आन्तरिक दबावों, भीतरी हलचल और भावों के उत्थान पतन पर देता है। कहा जा सकता है कि ‘पाजेब’ । कहानी बाहर की तरफ उतनी नहीं फैलती, जितनी वह भीतरी गहराई में उतरती है। यह विशेषता उनकी अनेक कहानियों में मिलती है।

जैनेन्द्र की कहानी-कला का एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि वे द्वंद्व तथा अंर्तद्वंद्व के चित्रण में बड़े कुशल हैं। उनकी कहानियों में और ‘पाजेब’ में चित्रित द्वंद्व भी बड़े . मानवीय संघर्ष नहीं हैं, पर कहानी के मूल में कोई द्वंद्व निहित होता है। यह बाह्य क्रियाकलापों में भी व्यक्त होता है, पर उन से अधिक वह अंर्तद्वंद्व के रूप में सामने आता है। ‘पाजेब’ कहानी में मुख्य रूप से बालक आशुतोष के अंर्तद्वंद्व को व्यक्त किया गया है, जिससे उसके चरित्र के यथार्थ चित्रण में भी सहायता मिली है। यों द्वंद्व की स्थिति आशुतोष और उसके पिता के बीच, आशुतोष और छुन्नू के बीच, दोनों बालकों की माताओं के बीच भी है।

कहा जा सकता है कि जैनेन्द्र की रूचि घटनाओं के विस्तृत वर्णन में उतनी नहीं है, जितनी घटनाओं के संदर्भ में होने वाले मानसिक परिवर्तनों और अंर्तद्वंद्व के अंकन में है। इस विधि से उन्हें बाल-मनोविज्ञान को स्पष्ट करने में भी मदद मिली है। जैनेन्द्र की कहानियों की भाषा, विशेषतः ‘पाजेब’ की भाषा पर विचार किया जाए तो कहना होगा कि गहरी से गहरी बात को सरल शब्दों, छोटे-छोटे वाक्यों, संक्षिप्त संवादों और शहर के मध्यवर्ग की बोलचाल की भाषा में कह देने की कला में वे माहिर हैं। उनकी बोधगम्य पैनी भाषा पाठकों के मन में उतरती जाती है। उनकी भाषा के पीछे उनकी दार्शनिकता, उनका अध्ययन और जीवन जगत का व्यापक अनुभव बोलता है। इसलिए उनकी भाषा प्रायः विशेष अर्थगर्भित हो गई है, जो मुख्यार्थ का अतिक्रमण कर अन्य अर्थध्वनियों की ओर अग्रसर होने लगती है।

‘पाजेब’ कहानी जब उत्कर्ष पर पहुँचती है तो उसका अंत हो जाता है। इसमें उत्कर्ष तो है, पर उतार नहीं है। इससे कहानी का अंत आकस्मिक हो गया है, जो पाठकों की उत्सुकता को शांत करते हुए रोचक हो गया है। कहानी कैसे शुरू की जाए और कैसे उसका अंत हो, यह किसी लेखक की कहानीकला का महत्वपूर्ण अंग है। जैनेन्द्र इस संबंध में अपने लेखकीय कौशल का परिचय देते हैं। कहानी के अंतिम भाग में बुआ द्वारा यह रहस्योद्घाटन कि पाजेब गलती से उसके सामान के साथ चली गई थी, आकस्मिकता तथा रहस्य के तत्वों के सन्निवेश का संकेत देता है। आकस्मिकता और रहस्य को भी जैनेन्द्र की कहानीकला की विशेषताएँ माना जा सकता है। यह रहस्य कहीं किसी गोपनीय बात के रूप में होता है, जैसा कि ‘पाजेब’ कहानी में है और कहीं आकस्मिकता के रूप में जिसके कार्यकलाप बहुधा रहस्यमय होते हैं।

कहानीकला का संबंध कहानी के शीर्षक से भी है। शीर्षक एक नाम है, पर नाम का जीवन में भी महत्व है और साहित्यिक कृतियों में भी। पर साहित्यिक कृति में नाम । का भी महत्व है। कहानी का नाम उसकी प्रकृति की ओर कुछ न कुछ संकेत अवश्य करता है। ‘पाजेब’ कहानी का शीर्षक सार्थक तथा उपयुक्त है। पाजेब के खोने पर पूरी कहानी चलती है और वह कहानी में व्यक्त सारे द्वंद्वों तथा अंतर्द्वद्वों की जड़ है। सारा बखेड़ा पाजेब के कारण होता है। पाजेब मुन्नी की आभूषणप्रियता की भी प्रतीक है। कहानी में पाजेब एक संज्ञा मात्र नहीं रह गई। वह प्रतीक में रूपान्तरित हो गई है। साहित्यिक कृतियों में प्रयुक्त सामान्य शब्द कैसे सामान्य अर्थ से ऊपर उठ कर विशेष अर्थ ग्रहण कर लेते हैं, यह यहाँ ‘पाजेब’ शब्द के प्रयोग में (शीर्षक के रूप में प्रयुक्त) देखा जा सकता है।

अतः इस कहानी के शीर्षक से भी कहानीकार की सूझबूझ और उसकी उन्नत कहानीकला के दर्शन होते हैं। कहानी का अंत भी रोचक और कलात्मक है।

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