“धरती धन न अपना” : चित्रांकन और आंचलिक पहलू (जगदीशचन्द्र)

इससे पहले आपने “धरती धन न अपना” में अभिव्यक्त दलित जीवन के सरोकारों और उससे उत्पन्न संघर्ष का परिचय प्राप्त किया। काली, ज्ञानो, चाची प्रतापी, जीतू, मंगू, नंदसिंह जैसे दलित चरित्रों के जीवन संघर्ष और त्रासदी का विस्तार से अवलोकन किया। जातिवादी प्रवृत्तियों के अमानवीय पहलुओं और अपने भीतर अमानवीय प्रवृत्तियों को पनाह देने वाले सवर्ण समाज की असाधारण धर्मांधता, कट्टरता और स्वार्थ का परिचय प्राप्त किया। दलित जीवन की त्रासदी के लिए जिम्मेदार इस समाज व्यवस्था को बदलने के लिए छटपटाते दलित चरित्रों का और पंजाब के आंचलिक पहलुओं का इस इकाई में आप परिचय प्राप्त करेंगे। 

पहले इसे पढ़ें:

धरती धन न अपना : दलित जीवन की त्रासदी के संदर्भ में

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • सामाजिक अत्याचार व उत्पीड़न के प्रतिरोध का प्रतीक काली के सशक्त व स्वतंत्र व्यक्तित्व से आप परिचित हो सकेंगे,
  • संवेदनशील और दृढ़ स्वभाव वाली दलित लड़की ज्ञानो के तीहरे संघर्ष और दलित जीवन की सच्चाई से आप अवगत हो सकेंगे,
  • चमादड़ी के अन्य दलित चरित्रों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संघर्ष में समय-समय पर अभिव्यक्त कमजोरियों और उनकी लाचारी को समझ पाएंगे,
  • शोषक, वर्चस्ववादी वर्ग के चौधरियों की अमानवीय और क्रूर प्रवृत्तियों से परिचित हो  सकेंगे,
  • पंजाब के दोआबा क्षेत्र की आंचलिक विशेषताओं से तथा सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को आप जान सकेंगे,
  • पंजाब क्षेत्र देश की आर्थिक प्रगति व विकास का बहुत बड़ा केंद्र माना जाता है, लेकिन पंजाब के दलितों की आर्थिक विपन्नता और पिछड़ापन दर्शाता है कि इनकी सामाजिक स्थिति कैसे इनकी आर्थिक व सांस्कृतिक प्रगति में सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़ी है। इस वास्तविकता से आप परिचित हो सकेंगे।

“धरती धन न अपना” उपन्यास के कथ्य व केंद्रीय वस्तु पर आपने पिछली इकाई में विस्तार से विचार किया। इस इकाई में “धरती धन न अपना” के चरित्रों पर विचार किया जाएगा। क्योंकि “धरती धन न अपना” पंजाब के अंचल विशेष के जीवन को प्रस्तुत करता है, इसलिए इस इकाई में उस आंचल विशेष का अंकन किस प्रकार हुआ है, उस पर भी विचार किया जाएगा।

“धरती धन न अपना” में अनेक चरित्र अपनी विविध प्रवृत्तियों के साथ हमारे सामने आते हैं। काली और ज्ञानो इस उपन्यास के केंद्रीय चरित्र हैं, औपन्यासिक भाषा में इन्हें उपन्यास के नायक व प्रतापी, निक्कू-प्रीतो, छज्जू शाह, जीतू, मंगू, लालू पहलवान, डॉ. बिशनदास, पादरी अचिंतराम, नंद सिंह इत्यादि। चरित्र समुदाय विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं। “धरती धन न अपना” के चरित्रों पर विचार करते समय काली और ज्ञानो के चरित्रों पर प्रमुख रूप से व अन्य चरित्रों पर गौण रूप से विचार किया जाएगा। लेखक द्वारा चरित्रांकन में किन पद्धतियों का प्रयोग किया गया है, इस पर भी ध्यान दिया जाएगा।

“धरती धन न अपना” में पंजाब के दोआबा के ग्रामीण अंचल को चित्रमय रूप दिया गया है। होशियारपुर जिले के घोड़ेवाहा गाँव, जो काल्पनिक न होकर वास्तविक गाँव है, के पूरे सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य को लेखक ने उपन्यास में विस्तार से चित्रित किया है। इस चित्रण में वहाँ का रहन-सहन, रस्म-रिवाज़ व भाषागत चित्रण भी शामिल है। उपन्यास लिखा तो हिंदी में गया है और इस अंचल की भाषा पंजाबी है, लेकिन उपन्यास में अंचल की। भाषायी रंगत भी सहज ही समाविष्ट हो गई है। अतः इकाई का आगे का हिस्सा अंचल के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित करता है।

चरित्रांकन

जगदीश चंद्र का उपन्यास “धरती धन न अपना ” अपने केंद्रीय रूप में परिवेश प्रधान है। पंजाब के गाँव के समाजार्थिक परिवेश को इसमें अपनी संपूर्णता में प्रस्तुत किया गया है। इस समाजार्थिक परिवेश को गाँव के विभिन्न चरित्रों के घात-प्रतिघात, परस्पर व्यवहार द्वारा प्रस्तुत कर लेखक ने अपने कौशल का परिचय दिया है।

उपन्यास में चरित्र अनेक हैं लेकिन सर्वप्रथम चरित्र काली और ज्ञानो है। इनमें भी काली उपन्यास के केंद्रीय चरित्र का दर्जा रखता है। शेष अन्य चरित्रों में चाची प्रतापी, जीत, ताई निहाली, प्रीतो व निक्कू, लच्छो, मंगू चौधरी कन्ता व बसंता, चौधरी हरनाम सिंह, लालू पहलवान, हरदेव, छज्जूशाह, डॉ. बिशनदास, पादरी अचिंतराम, पंडित संतराम, महाशय, नंद सिंह , कापरेड टहल सिंह इत्यादि शामिल हैं। इनमें से अधिकांश चरित्र वैयक्तिक न होकर समुदाय या वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में आए हैं। ज्ञानो व काली भी इस अर्थ में प्रतिनिधि चरित्र हैं, क्योंकि वे अपने व्यक्तिगत विशिष्ट गुणों के बावजूद प्रतिनिधित्व अपने वर्ग या समुदाय का ही करते हैं।

काली

काली माखे का पुत्र है। उसके माँ-बाप उसके शैशव में ही मर चुके हैं। उसे उसके चाचाचाची पालते हैं, जिनका अपना कोई बच्चा नहीं बचता इसलिए काली उनका पुत्र भी है और उनके खानदान की एकमात्र निशानी भी।

उपन्यास का आरंभ काली के छह साल बाद गाँव लौटने से होता है, लेकिन उसे गाँव क्यों छोड़ना पड़ा और गाँव क्यों लौटता है, इसे आगे चलकर स्पष्ट किया गया है। काली का पिता मारवा पहलवानी करता था व गाँव का इज्जतदार आदमी था, लेकिन वह काली को बिना जी भर देखे चल बसता है। चाचा को भी कछ साल बाद “हैजा हो जाता है’, चाची ने उसे “चप्पे गिनगिन कर’ पाला है। लेकिन घर में गरीबी की हालत यह थी कि छह साल पहले काली “दो दिन का भूखा प्यासा” घर से चोरी-चोरी फटेहाली की हालत में भाग गया था और छह साल तक उसकी चाची को उसकी कोई खबर नहीं मिली। काली इस बीच कानपुर पहुँच कर मज़दूरी करने लगता है। उसकी आर्थिक स्थिति कुछ सुधर जाती है। छुआछूत के अपमान का दंश भी शहर में कम है, लेकिन वहाँ उसे बहुत अकेलापन महसूस होता है और अपनी माँ जैसी चाची की याद सताती है। छह साल बाद पैसा कमा कर वह चाची के मोह के कारण गाँव लौटता है ताकि माँ समान चाची को कुछ सुख दे सके और अपना पुत्र होने का फर्ज़ निभा सके। कानपुर में रह कर काली की चेतना गाँव के चमार होने की अपेक्षा शहरी मज़दूर होने से अधिक विकसित हो गई है। गाँव में इस बीच कोई परिवर्तन नहीं हुआ है और गाँव की वही पुरानी स्थितियाँ देख एक बार तो काली का मन चाहता है कि वह “उलटे पाँव कानपुर लौट जाए” लेकिन चाची के मोह से बंधा वह गाँव में ही रहने का फैसला करता है, हालांकि उसका दोस्त जीतू यही कहता है कि वह “दोबारा इस नर्क में क्यों आ गया है।”

काली अपनी सामाजिक स्थिति से अनजान नहीं है। पक्का कोठा बनवाने की उसकी घोषणा गाँव के सवर्णों में हलचल पैदा कर देती है। उनकी सत्ता को यह चुनौती देने जैसी हरकत लगती है। काली की अच्छी आर्थिक स्थिति का होना भी सभी की आँखों में चुभने लगता है। पक्का कोठा बनवाने की इच्छा प्रकट करते ही, उसे यह बताया जाना कि जिस जमीन पर चमादड़ी बसी है, वह उनकी अपनी जमीन नहीं है, वह शामलात की अर्थात् गाँव की सांझी जमीन है। इससे उसे यह संकेत दे देना चाहते हैं कि धरती पर दलितों का अधिकार नहीं। गाँव अगर चाहे तो कभी भी उन्हें घर से बेघर कर सकता है। यहाँ गाँव का अर्थ है, सवर्ण समाज, जो जमीनों का मालिक भी है और उसका कानून भी चलता है। काली को यह अहसास होता है कि धरती से वह महरूम है।

चूंकि काली की चेतना गाँव के अन्य दलितों (चमारों) से अधिक विकसित हो गई है, इसलिए वह अन्य दलितों से भिन्न प्रकार का व्यवहार करता है। उसके व्यवहार में उसकी मानवीय अस्मिता की पहचान शामिल है| चमादड़ी में पहला पक्का मकान बनवाने की उसकी घोषणा एक सामाजिक क्रांति से कम नहीं है, क्योंकि इस घोषणा से दलितों में सामान्य मानवीय. जीवन जीने की लालसा प्रकट होती है। काली की यह घोषणा व उसका आत्म सम्मान युक्त व्यवहार गाँव की स्थिर शोषण व्यवस्था में खलल डाल देता है। काली के इस व्यवहार से. दलित (चमार) युवकों में भी मानवीय इच्छाएं जगने लगती है। ये युवक व लालू पहलवान जैसे न्यायप्रिय व्यक्ति तथा अन्य कारणों से पादरी अचिंतराम व डॉ. बिशनदास आदि काली के. प्रशंसक बनते हैं। दूसरी ओर चौधरी हरनाम सिहं जैसे दमनकारी चौधरियों व मंगू चमार जैसे चौधरियों के अर्द्ध-गुलामों को काली का आत्म सम्मान युक्त व्यवहार बहुत खटकता है। मंगू काली से बार-बार झगड़ा करता है व उसके हाथों पिट कर ही पीछे हटता है। चौधरियों का लड़का हरदेव कबड्डी के खेल में काली का कूल्हा तोड़ देता है। छज्जूशाह उससे चाचा के बकाया उधार के नाम पर पैसा दबोच लेता है।

यह सारी स्थितियाँ काली को कई बार पस्त हिम्मत तो करती हैं, लेकिन उसे डिगाती नहीं।’ घनिष्ट मानवीय संबंध उसे सहारा देते है, चाहे वह चाची का मोह हो या फिर ज्ञानो के साथ विकसित हो रहा उसका प्रेम संबंध हो। काली के चरित्र की जो विशेषताएं उपन्यासकार ने उभारी हैं, उनमें उसके व्यक्तित्व में शारीरिक व मानसिक दृढ़ता शामिल है। वह पहलवान का बेटा है और स्वयं भी अच्छे गठे शरीर का स्वामी है। कबड्डी के खेल में, बाढ़ के समय या मंगू आदि के साथ झगड़े के समय उसकी शारीरिक क्षमता का पता चलता है। इसी प्रकार मानसिक रूप में भी काली दृढ़ व्यक्तित्व रखता है, वह धीरज से स्थितियों का सामना करता है। विशेषतः चौधरी-चमार संघर्ष के समय वह धैर्य और दृढ़ता का परिचय देता है। वह आत्म बलिदानी स्वभाव का भी है। हड़ताल के समय वह स्वयं भूखा रहना स्वीकार करता है और अपना सारा अनाज प्रीतो को दे देता है। चाची की मृत्यु के पश्चात शोक में बैठने आई स्त्रियों में कोई उसकी चाची के छोड़े गहने-रुपए आदि चुरा लेती है, तब भी वह दिल छोटा नहीं करता, हाँ घर पक्का करवाने की इच्छा वह अधूरी छोड़ देता है। काली में जीवन की ललक है, वह जीना चाहता है, भरपूर जीवन आत्म सम्मान के साथ जीना चाहता है। इसीलिए वह ‘चमार ‘ कहलाकर छुआछूत का व्यवहार सहन नहीं करता।

अपने कट्टर विरोधी मंगू को भी जब चौधरी “चमार’ या “कुत्ता चमार” कह कर गाली देते या अपमानित करते हैं तो काली तिलमिलाता है। अपने वस्तुगत रूप में काली गाँव में सामाजिक क्रांति का आगाज़ करता है। पक्का मकान बनवाना शुरू करना, भले ही उसे वह पूरा न कर पाया, न ही उसमें रह पाने का सुख ले पाया, सामाजिक क्रांति के आगाज़ का सूचक है। चौधरियों के साथ दिहाड़ी के प्रश्न पर काली का आगे बढ़ कर बेगार का विरोध करना भी काली द्वारा सामाजिक क्रांति को और आगे बढ़ाने वाला कदम है। यह सही है कि काली के पास न तो ट्रेड यूनियन संगठन की चेतना है और न ही संघर्ष की कोई दृष्टि ही है। फिर भी वह संघर्ष में उतरता है और आधे दिन की दिहाड़ी हासिल कर दलितों की आंशिकजीत को संभव बनाता है। काली में जहाँ एक ओर सामाजिक क्रांति चेतना का वाहक बनने के वस्तुगत गुण हैं वही दूसरी ओर उसकी चेतना में पिछड़ापन व अंतर्विरोध उसके । व्यक्तित्व के कमजोर पहलुओं को रेखांकित करते हैं। इनसे उसके चरित्र के दुखांत की ओर इशारा भी हुआ है। न सिर्फ काली का दुखांत ही इन अंतर्विरोधों से उघड़ता है, वरन इससे भी बड़ा व मार्मिक दुखांत ज्ञानो की हत्या के रूप में सामने आता है, जो सामाजिक रूढ़ियों के कारण भी घटता है, काली की कमजोर चेतना के कारण भी।

काली की चेतना का दुर्बल पक्ष सबसे पहले प्रकट होता है चाची प्रतापी की बीमारी के समय। वह डॉ. बिशनदास से दवाई लाता है। दो दिन में वह ठीक नहीं होती तो वह ओझा के चक्कर में फंस कर झाड़-फूंक करवाने लगता है। यही झाड़-फूंक चाची की मृत्यु का कारण बनता है, लेकिन काली को इस बात का एहसास नहीं होता। सांस्कृतिक स्तर पर काली की चेतना विकसित नहीं हुई है और वह पिछड़ेपन का शिकार है। इसका दुःखांत परिणाम भुगतना पड़ता है ज्ञानो को व स्वयं उसे। ज्ञानो से उसे गहरा प्रेम है, लेकिन वह इस स्थिति को पहचान ही नहीं पाता कि गाँव में रहते उसका ज्ञानो से विवाह असंभव है। अतः या तो वह ज्ञानो को लेकर कानपुर जैसे शहर की ओर चला जाता, जहाँ उसकी पहचान भी थी और गाँव से भी शायद कोई उसका पीछा न कर पाता या फिर गाँव में रुढ़ियों की जकड़न के खिलाफ जागृति पैदा करता या अपने प्रेम को कुर्बान कर ज्ञानो की प्राण रक्षा करता। लेकिन काली किसी भी विकल्प को नहीं चुनता व स्थितियों को निमंत्रित करने का कोई प्रयास नहीं करता। अंततः स्थितियाँ ज्ञानो को लील जाती हैं। अपनी माँ व भाई के हाथों उसकी हत्या होती है और काली को प्राण रक्षा के लिए पुनः गाँव से पलायन करना पड़ता है। अपने प्रेम-संबंधों की दुःखद परिणति से काली को वह कटुतम अहसास होता है कि केवल धरती से वह महरूम नहीं है, वे दुखियारे तो अपने तन और मन के भी स्वामी नहीं हैं। ज्ञानो और काली के मन को उनका अपना समाज कुचल देता है और यही समाज ज्ञानों का मन कुचलने के बाद उसकी हत्या भी कर देता है। अर्थात उसका अपने तन पर भी अधिकार नहीं है। दलित होना इतना दर्दनाक हो सकता है कि धन, मन और तन पर उनके अधिकार को उनसे छीन लिया जाए। उनके तन और मन का नियंत्रण भी परिस्थितियों व समाज के हाथों ही रहा।

काली अपनी अंतिम परिणति में दुखांत चरित्र है। वह बहुत हद तक अपने वर्ग व समुदाय का प्रतिनिधि चरित्र है, लेकिन इसका व्यक्तित्व अपने वर्ग को सीमाओं का अतिक्रमण कर स्वतंत्र रूप भी ग्रहण करता है। उसका यह स्वतंत्र व्यक्तित्व उसके सकारात्मक पक्ष को प्रकट करता है, लेकिन यही उसके दुखांत का कारण भी बनता है। वैसे काली के दुखांत चरित्र होने में ही उसका महत्व है। काली का चरित्र उपन्यासकार ने अत्यंत सहानुभूतिपूर्वक निर्मित किया है। काली और ज्ञानो का प्रेम हीर-रांझा के प्रेम से कम महान नहीं है। काली सामाजिक अत्याचार के प्रतिरोध का प्रतीक बनकर प्रस्तुत होता है और इसी प्रतिरोध में उसके चरित्र की महानता

ज्ञानो

ज्ञानो “धरती धन न अपना” का दूसरा प्रमुख चरित्र है। ज्ञानो जस्सो की बेटी व मंगू की बहिन है। ज्ञानो और मंगू अपने घर में दो विपरीत दिशाएं हैं। मंगू चौधरियों की चापलूसी और गुलामी करता है और ज्ञानो जन्मजात विद्रोहिणी है। वह कोई भी अन्याय सहन नहीं करती। इसी स्वभाव के कारण ज्ञानो काली का मन जीत लेती है। ज्ञानो संवेदनशील और दृढ़ स्वभाव की लड़की है। चौधरियों से पिटे जीत की देखभाल वह करती है। चाची प्रतापी व काली की तो वह हर समय देखभाल करती है। जिस कारण घर पर मंगू व अपनी माँ के हाथों वह प्रायः हर रोज़ पिटती है।

ज्ञानो के चरित्र में दृढ़ता उसका बहुत बड़ा गुण है। कई अर्थों में वह काली से भी अधिक दृढ़ चरित्र है। किसी चौधरी की मजाल नहीं कि वह उसे छेड़ें या तंग करे, हालांकि चमारों की लड़कियों को चौधरी अपना चारा ही समझते हैं।

काली के पक्का मकान बनवाने की बात से ज्ञानो ही सबसे अधिक खुश होती है और वह काली को इसके लिए खूब उत्साहित करती है। काली जब भी निराश होता है, ज्ञानो का सुदृढ़ व्यक्तित्व उसका सहारा बनता है और वह गाँव में रह कर मुश्किलों से जूझने का फैसला करता है। काली को कबड्डी के खेल में हरदेव चोट पहुंचाता है तो ज्ञानो हर तरह का खतरा मोल लेकर काली से मिलने आती है। यही पर पहली बार उनके शारीरिक संबंध भी बनते हैं। लेकिन ज्ञानो इन संबंधों से खुश न होकर शर्म व डर महसूस करती है और जब कभी काली इस तरह के संबंध का आग्रह करता है तो ज्ञानो उस पर खीझती है। ज्ञानो के इस डर व शर्म का आधार ज्ञानो की हत्या के दुःखद अंत से स्पष्ट हो जाता है। ज्ञानो की गर्भवती होने की स्थिति ही उसकी हत्या का कारण बनता है। स्त्री-पुरुष शारीरिक संबंधों की कीमत स्त्री को कई बार अपने प्राणों की आहुति देकर चुकानी पड़ती है, विशेषतः सामंती मूल्यों की जकड़न वाले समाजों में। ज्ञानो भी इस स्थिति का शिकार बनती है।

चमार संघर्ष के समय ज्ञानो पूरे उत्साह में है। काली का पूरा ध्यान रखते हुए भी ज्ञानो। स्वाभिमानिनी लड़की है और काली द्वारा एक बार उसकी अवमानना किए जाने पर वह उसे फटकार भी देती है। ज्ञानो का दुःखद अंत अत्यंत मार्मिक है। ज्ञानो के गर्भधारण की स्थिति। उसके लिए अत्यंत विषम परिस्थितियाँ पैदा कर देती है। उसका विवाह करने के उसकी माँ के प्रयास असफल हो जाते हैं। काली के साथ ब्याहने को उसकी माँ या भाई तैयार नहीं, खुद गाँव भी इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं। पादरी भी उनका ब्याह करवाने से इंकार कर देता है, हालांकि वे ईसाई बनने को भी राज़ी हो जाते हैं। इस हालत में वही हुआ, जो गाँवों में अक्सर होता है। माँ ज्ञानो को संखिए की गोली दे देती है, जो वह नियति को स्वीकार कर . चुपचाप खा लेती है। पहली बार उसका भाई मंगू उसके लिए रोता है, माँ चीखें मारती हैं। गाँव वालों को इन चीखों का राज़ पता है, क्योंकि “गाँव में हर प्रेम की मारी मुटियार का गर्भवती होने के बाद यही हाल होता था और ऐसी मुटियार माँ की चीखें बहुत ही करुणा भरी होती थी। क्योंकि उनमें बेटी के पाप के साथ-साथ उसके पाप का पछतावा भी शामिल होता था।”

अन्य दलित चरित्र

उपन्यास ‘चूंकि दलित जीवन पर अधिक केंद्रित है, इसलिए उपन्यास में दलित चरित्र अधिक संख्या में है। जिनमें काली की चाची प्रतापी, उसका दोस्त जीतू व उसकी ताई निहालो, पड़ोसी – निक्को-प्रीतो-परिवार, जिसमें लच्छो नाम की युवा व शोषित लड़की शामिल है, चौधरी कन्ता व चौधरी बसंता, मंगू व नंद सिंह आदि चरित्र उपन्यास में अपनी उपस्थिति किसी न किसी रूप में दर्ज करवाते हैं। इनमें दो चरित्र बाकी चरित्रों से कुछ अलग है – मंगू, जिसे डॉ. बिशनदास “किवथ काल मिस्ट’ या काली पेड़ समझता है, जो अपने वर्ग के हितो, यहाँ तक कि अपनी ही बहिन के विरुद्ध चौधरियों के हाथों अपनी ज़मीर व मानवीय अस्मिता को बेच चुका है। दूसरा नंद सिंह है, जो खेत मज़दूरी न कर, पुश्तैनी धंधा जूते बनाने-संवारने का काम करता है और ईसाई बन कर अपने समुदाय से भी कट जाता है। चौधरियों के हाथों तो वह बराबर अपमानित होता रहता है। मंगू का चरित्र कुछ हद तक नकारात्मक रूप से अतिरंजनापूर्ण लगता है, लेकिन अपनी बहिन ज्ञानो को संखिया देकर मारने के बाद उसे रोता दिखा कर उसमें बची मानवीयता दिखाने का प्रयास लेखक ने जरूर किया है।

नंद सिंह अपने आत्म सम्मान के प्रति सचेत स्वाभिमानी चरित्र है। वह मज़दूरी के लिए चौधरियों पर निर्भर नहीं है फिर भी चौधरी उसे “चमार’, “कुत्ता चमार’ कह कर अपमानित करते रहते हैं। जाति व्यवस्था के दंभ से पीड़ित होकर ही वह पहले सिख धर्म को जाति-पाति से ऊपर समझ कर सिख बना था, लेकिन उसकी सामाजिक दशा नहीं सुधरी। इसी व्यवहार से तंग आकर वह पुनः धर्म परिवतर्न कर इस बार ईसाई बनता है, लेकिन उसकी सामाजिक स्थिति में फिर भी अंतर नहीं आता। नंद सिंह इस अर्थ में दुखांत चरित्र है और वह सामंती व्यवस्था व जाति-पाति की छुआछत व्यवस्था – दोनों के हाथों प्रताड़ित है, हालांकि आर्थिक रूप से वह किसी अन्य पर निर्भर नहीं है। नंद सिंह की अवस्था से दलित वर्ग के जातिउत्पीड़न की पीड़ा का अनुमान व समकालीन समय में दलित जागरण को सकारात्मक रूप से समझा जा सकता है।

काली की चाची प्रतापी साधारण लेकिन दुःख झेली हुई स्त्री है, जिसके पास रिश्तों के नाम पर सिर्फ उसका भतीजा या बेटा काली ही है। उसने बहुत गरीबी व अकेलापन भोगा है और काली उसी की खातिर गाँव लौटता है। काली उसके अंतिम समय उसके पास रह कर उसके मन को चैन पहुँचाता है। ताई निहालो व जीतू भी साधारण न्यायप्रिय दलित चरित्र हैं। लेकिन प्रीतो-निक्कू परिवार, जो काली का पड़ोसी है, की स्थिति अलग है। निक्कू निठल्ला आदमी है, और दस-ग्यारह बच्चों का बाप| घर चलाने के लिए प्रीतो काम करती है और उसकी बेटी लच्छो भी कच्ची उम्र में चौधरियों के यहाँ काम पर जाने लगती है और कच्ची उम्र में ही हरदेव के हाथों यौन शोषण का शिकार बनती है। उसकी माँ प्रीतो भी सारी उम्र यौन-शोषण का शिकार रही है और दलितों की बहुत सारी स्त्रियाँ चौधरियों या अन्य सवर्णों के हाथों यौनशोषण का शिकार होती है। दलित स्त्रियों के आपसी झगड़ों या हंसी-मज़ाक के समय सवर्ण पुरुषों से उनके यौन-शोषित होने के “खुले रहस्य” प्रकट होते हैं।

चौधरियों द्वारा दलित स्त्रियों का यौन-शोषण जातिगत उत्पीड़न और सवर्णों के आतंक का परिणाम है। बाहर और घरों में काम करने वाली दलित स्त्रियाँ आर्थिक रूप से इन्हीं चौधरियों पर निर्भर है। उनकी आर्थिक निर्भरता व सामाजिक स्थिति, जिसके कारण इनके अस्तित्व, अस्मिता को नकारकर इन्हें अपमानित कर सवर्ण जाति अपना अधिकार मानती है। पुरुष प्रधानता का वर्चस्व इस प्रकार के व्यवहार से स्पष्ट होता है। दलित स्त्री होने के नाते तीहरे शोषण की शिकार है। आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक सुरक्षा के अभाव में उसके अस्तित्व व अस्मिता को बार-बार कुचला जाता है। ज्ञानो ने अपने अस्तित्व के लिए परिवार व अपने ही पुरुष प्रधान समाज से संघर्ष करने का प्रयास किया था लेकिन इसमें उसे अपनी जान ही देनी पड़ी। लच्छो जैसी अबोध व असहाय लड़की को यौन शोषण को झेलने के लिए

मजबूर किया जाता है। चेतना के विकास के अभाव में वह इसे नियति समझकर चुप रहती है। उसके इस अपमान को उसका बाप और माँ भी चुपचाप सहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। परिस्थितियों और जातिगत शोषण के दबाव को दलित परिवार संघर्ष या विद्रोह किए बिना ही सहने के लिए विवश कर दिए गए हैं।

बाबा फत्तो व ताया बसंता एक तरह से दलित समुदाय के प्रतिष्ठित बुजुर्ग हैं, जो अपने समाज के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। समय-समय पर उन्हें पंचायत में या चौधरियों से किसी झगड़े या विवाद को हल करने के लिए दलितों की ओर से बात करनी होती है। काली के गाँव आने पर व उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व देख कर दलित युवक उसकी ओर नेतृत्व के लिए देखते हैं, लेकिन चमार-चौधरी संघर्ष का फैसला फिर ताये बसंते से बात करके ही हल होता है।

वर्चस्ववादी सवर्ण चरित्र

चौधरी वर्ग, जो गाँव का वर्चस्वकारी वर्ग है और ज़मीनों का मालिक है, “धरती धन न अपना” में शोषक अमानवीय और क्रूर चरित्रों के रूप में सामने आते हैं। उनमें लालू पहलवान जेसे न्याय प्रिय व्यक्ति भी हैं, जो अपने मजदूरों के साथ मानवीय व्यवहार करते हैं और दुखतकलीफ के समय उनके घरों में जाने से भी संकोच नहीं करते। चौधरी हरनाम सिंह, हरदेव, चौधरी मुंशी आदि कुछ अधिक उदंड स्वभाव के हैं। लेकिन चौधरी-दलित संघर्ष के समय लाल का अपने वर्ग के साथ रहना समाज में वर्गीय स्थिति के प्रभावी होने के यथार्थ को संकेतित करता है। चौधरियों में ही एक चरित्र घडम्म चौधरी है, जो उपन्यास में कुछ हास्य-व्यंग्य की स्थिति पैदा करता है। धडम्म चौधरी हर गाँव में पाए जाते हैं व ये निठल्ले रह कर बातों की कमाई खाते हैं। यहाँ भी धडम्म चौधरी कानून का विशेषज्ञ बन कर गाँव पर अपना आतंक जमाए हुए है और उसी से अपना कमीशन निकाल कर काम चलाता है।

“धरती धन न अपना” के चौधरियों और चमारों के बीच के जो चरित्र हैं, वे अधिक दिलचस्प और जीवंत हैं। इनमें एक गाँव का बनिया छज्जू शाह है, जो चौधरियों और दलितों दोनों से मधुर संबंध रखता है और दोनों को ही समान रूप से ब्याज आदि के द्वारा लूटता है। जहाँ उसका हित चौधरियों-दलितों को लड़वाने में है, वहाँ वह उन्हें उकसा देता है और जब उसके अपने हितों की हानि होती है तो समझौते के लिए दोनों पक्षों को समझाने लगता है। उसके लिए पैसा ही बड़ी सामाजिक सत्ता है, इसीलिए कानपुर से कुछ कमाई करके लौटा काली उसके लिए “बाबू कालीदास” है और उसकी जेब खाली होते ही वह फिर काली ही रह जाता है। छज्जू शाह बनिया समुदाय का प्रतिनिधि चरित्र है। पं. संतराम, महाशय और पादरी अचिंतराम धार्मिक समुदायों सनातनी, आर्य समाज और ईसाई धर्म के प्रतिनिधि चरित्र हैं। तीनों ही अपने व्यवहार में कपटी व पाखंडी हैं। पं. संतराम दलितों से छुआछूत का व्यवहार रखता है, लेकिन दलित स्त्रियों पर उसकी लार टपकती है। महाशय या पादरी भी दलितों के मानवीय दुखों में कोई सहायता देने को तैयार नहीं हैं। अलबत्ता वह अवसर का लाभ उठा कर उनका धर्म परिवर्तन जरूर करवाना चाहता है। अपने व्यवहार में ये सारे धार्मिक चरित्र अपने खोखलेपन को प्रकट करते हैं।

डॉ. बिशनदास व कामरेड टहल सिंह कम्युनिस्टों के व्यंग्य चित्र हैं। बिशनदास घोर किताबी कामरेड है। गाँव में दवाइयों की दुकान है और शगल है प्रोलतारी इन्कलाब की गाहे-बगाहे चर्चा | गाँव वाले उसे बहुत बड़ा “चाट” समझते हैं और बहुत बार वह अपनी बोलने की आदत के कारण झिड़कियाँ भी खाता है। चौधरी-दलित संघर्ष के समय उसका व पड़ोसी गाँव के मध्यवर्गीय जाट कामरेड टहल सिंह का व्यंग्यचित्र खुब उभर कर सामने आता है। ये दोनों किताबी कामरेड स्तालिन, ट्राटस्की लाईन पर बहसे करते हैं। दलित खेत मज़दूरों की हड़ताल में प्रोलतारी इन्कलाब शुरू होने के सपने देखने लगते हैं। रात में काली व कुछ और दलितों को बुला कर मीटिंग करते हैं व उन्हें इन्कलाब के भाषण पिलाने लगते हैं। दलितों के संघर्ष जारी रखने की जो बुनियादी शर्त है कि उन्हें अनाज इकट्ठा करके दिया जाए ताकि वे चौधरियों का मुकाबला जारी रख सकें, इसे वे “रिफार्मिस्ट अप्रोच” बता कर उन्हें फाकेकशी करते हुए “इन्कलाबी जजबा” मजबूत करने की हवाई बाते कहते हैं। उनके लिए अनाज इकट्ठा न करके वे गाँव में जलसे करने के ऐलान करने लगते हैं, जिनके होने से पहले ही . दोनों पक्ष बिना हार-जीत के फैसला करके कामरेडों के “प्रोलतारी तबके के ज़ेहन साफ करने” और उन्हें “आईडिलाजीकली” पुख्ता करने की योजना ठस्स कर देते हैं। (अफ़जल हसन रंधावा “दोआबा” (पंजाबी) दिपक पब्लीशर्स, जालंधर)

वास्तव में डॉ. बिशनदास व कामरेड टहल सिंह दोनों ही सुविधाभोगी मध्यवर्गीय चरित्र हैं, इसलिए उन्हें कम्युनिजम का किताबी शौक है, जिंदगी के संघर्षों से उनका कोई वास्ता नहीं है, इसलिए उनका समूचा व्यवहार उनके वर्गीय चरित्र को ही प्रस्तुत करता है। जाति संघर्ष के बुनियादी आधार को वर्ग संघर्ष की वैचारिक सोच के अनुसार अधिरचना में रखने के कारण समस्याओं का समाधान ढूंढने और संघर्ष के व्यावहारिक स्वरूप में फर्क आ जाता है। कम्युनिस्ट दलितों के शोषण को आर्थिक शोषण मानते हैं। जाति विभाजन के कारण मानव निर्मित व्यवस्था में दलितों की निम्न स्थिति का मूल आधार वर्ण व जाति व्यवस्था है और उसे जन्मना माना गया है। विभाजन व बंटवारा भी जाति की श्रेष्ठता व निकृष्टता के आधार पर किया गया है। निम्न मानी गई जातियों के लिए श्रम से जुड़े और आय की दृष्टि से निम्नतर व्यवसाय ही सौप दिए गए है। जिससे उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में परिवर्तन नहीं हो रहा। जब भी परिवर्तन के लिए कोई व्यक्तिगत या सामुहिक प्रयास दलित जातियों द्वारा किया जाता है, तब दमन की प्रक्रिया अधिक तीव्र हो जाती है।

सामाजिक बहिष्कार जैसी अमानवीय आदिम व्यवस्था की पंरपराओं के द्वारा दलितों को आर्थिक दृष्टि से दयनीय अवस्था तक पहुँचाकर, जाति भेदभाव के कारण अपमानित करके उनके मनोबल को तोड़ दिया जाता है। स्थितियों से समझौता करने के अलावा कोई दूसरा पर्याय न देखकर दलित अपना संघर्ष भूलकर फिर से अधीनता की स्थिति में पहुँचा दिए जाते। दलितों का अस्तित्व के लिए संघर्ष, जाति संघर्ष है। आर्थिक संघर्ष जाति संघर्ष का ही अभिन्न अंग है। दलितों का आर्थिक व  सामाजिक शोषण उनकी निम्न जाति के कारण है, जो कि जन्म के आधार पर तय है। काली की आर्थिक स्थिति में हए परिवर्तन से उसकी सामाजिक स्थिति नहीं बदली है। इस बदलाव को चौधरियों ने स्वीकार नहीं किया। क्योंकि आर्थिक स्थिति बदलने से भी उसकी दलित पहचान को, उसके चमार होने को किसी ने भी नहीं भुलाया। यही जाति संघर्ष और वर्ग संघर्ष का बुनियादी फर्क है।

जगदीश चंद्र ने ‘धरती धन न अपना” में अपने चरित्रों के अंकन के लिए कई पद्धतियाँ प्रयुक्त की हैं। अधिकांशतः उनके चरित्र लेखक के अपने विवरणों से उदघाटित होते चलते हैं। दूसरे स्तर पर उनके चरित्रों के कार्य-कलापों से उनका उद्घाटन होता है। जैसे डॉ. बिशनदास व कामरेड टहल सिंह के कार्य-कलाप। चरित्रों के लक्षण संवादों द्वारा भी लक्षित होते हैं, जब दो चरित्र किसी तीसरे चरित्र या उसके जीवन और कार्य-व्यवहार संबंधी बातचीत करते हैं। जगदीश चन्द्र ने अपने चरित्रांकन में कई स्थलों पर इस पद्धति का प्रयोग भी किया है। संक्षेप में जगदीश चन्द्र ने “धरती धन न अपना” में काली और ज्ञानो के चरित्रों के साथ-साथ अन्य चरित्रों को भी उनके विशिष्ट गुणों के साथ उद्घाटित किया है। अतः उनका चरित्र चित्रण प्रभावशाली है।

 “धरती धन न अपना” : आंचलिक पहलु

“धरती धन न अपना” उपन्यास दलितों के जीवन पर केंद्रित उपन्यास है, लेकिन दलितों के जीवन के साथ-साथ यह उपन्यास अंचल विशेष की गंध व छाप भी लिए हुए हैं। “धरती धन न अपना” में जगदीश चंद्र ने स्वयं अपने ही गांव को कथा के केंद्र में रखा है. जहाँ उनका अपना बचपन गुज़रा था और जिसकी स्मृतियाँ अपनी पूरी विविधता व चित्रमयता के साथ उनके मस्तिष्क में संजोयी हुई थी। “धरती धन न अपना” का यह गाँव घोड़ेवाहा पंजाब के अंचल विशेष दोआबा के होशियारपुर जिला का गाँव है। दोआबा क्षेत्र शायद देश के किसी और हिस्से में भी हो, क्योंकि शाब्दिक अर्थ दो नदियों के बीच का क्षेत्र होता है। जहाँजहाँ देश में विशेषतः उत्तर भारत में दो नदियों के बीच का प्रदेश आबाद होगा, उसे संभवतः दोआबा कहा जाता होगा। जैसे मालवा पंजाब का भी अंचल विशेष है और मध्य प्रदेश का भी। पंजाब का यह दोआबा क्षेत्र विभाजन पूर्व पंजाब में भी दोआबा ही कहलाता था। एक पाकिस्तानी पंजाबी उपन्यासकार ने इसी क्षेत्र को आधार बना कर “दोआबा’ शीर्षक से पंजाबी उपन्यास की रचना भी की है।

“धरती धन न अपना” के दोआबा क्षेत्र में होशियारपुर जिले का गाँव घोड़ेवाहा चित्रित हुआ है। दोआबा क्षेत्र में पंजाब के जालंघर, होशियारपुर, कपूरथला व नवांशहर जिले आते हैं। इनमें से होशियारपुर जिले की हद हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र से लगती है व होशियारपुर क्षेत्र पहाड़ी क्षेत्र की गोद में बसा है। इस क्षेत्र का “चो” विशिष्ट शब्द है जो इसी क्षेत्र में प्रयुक्त होता है। “चो” एक प्रकार की पहाड़ी नदी या नाला है, जिस रास्ते से ऊपर पहाड़ों से वर्षा का पानी आकर बहता है। कई बार “चो” सूखा रहता है तो वहाँ बच्चों की खेल-कूद जैसी गतिविधियाँ चलती रहती हैं। अतः “चो” इस अंचल विशेष की विशिष्ट पहचान है और “धरती धन न । अपना” में “चो” की बड़ी भूमिका है। “चो” से ही बाढ़ आती है और “चौ” में ही बच्चे खेलते हैं। “धरती धन न अपना” में लेखक को अंचल विशेष के परिवेश चित्रण में पर्याप्त सफलता मिली है, इसीलिए कई आलोचकों ने “धरती धन न अपना” की गणना आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में भी की है। उपन्यास के आरंभ से ही लेखक ने परिवेश चित्रण पर विशेष ध्यान दिया है। भौगोलिक से सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश तक उसकी दृष्टि का विस्तार है। गाँव में दाखिल होते ही काली के नाक को गाँव की विशिष्ट गंध की पहचान मिलती है, भले । ही वह छह वर्ष बाद ही गाँव लौटा है।

इस अंचल विशेष की संस्कृति के अनुरूप काली की चाची प्रतापी उसे बिना दरों पर तेल चुए घर में दाखिल नहीं होने देती, भले ही उसकी शीशी में मुश्किल से तेल की एक बूंद ही निकले। इस अंचल विशेष, जो पूरे पंजाब पर भी लागू होता है, मानवीय संबंधों का स्वरूप भी उपन्यास में स्पष्ट रूप से उघड़ा है। पंजाबी लोग स्वभाव में प्रायः भावुक, संबंधों में शोरीले .. होते हैं, इसलिए अपने संबंधों की चर्चा वे ऊँचे सुरों में करते हैं। वैसे तो प्रायः उनका प्रत्येक व्यवहार ऊँचे सुर वाला होता है। यही स्थिति “घोड़ेवाहा” गाँव के दलितों संबंधी भी सच है और अन्य समुदायों संबंधी भी। घोड़ेवाहा गाँव के दलित समाज पर भारतीय समाज के उच्च वर्गों के सांस्कृतिक मूल्य वर्चस्व बनाए हुए हैं, ये बात भी “धरती धन न अपना” से जाहिर होती है। यह सही है कि किसी धर्म विशेष के प्रति चमादड़ी का आग्रह नजर नहीं आता, विशेष धार्मिक रस्मों में पड़े हुए भी नजर नहीं आते, लेकिन जीवन में कुछ निर्णायक क्षणों में वे उच्च वर्ग की रूढ़ियों से परिचालित हो जाते हैं। इससे उनके दिमागी पिछेड़पन व उच्च वर्णो द्वारा अपने जाल में फंसाए रखने की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। काली की चाची की बीमारी के समय, जब काली कानपुर में छह वर्ष रह कर लौटने पर भी इतना तर्कशील व समझदार नहीं बन पाता है कि वह ओझा के जाल से बच जाता और चाची का इलाज डाक्टर से जारी रखता। वह झाड़-फूंक के चक्कर में पड़ कर चाची के प्राण भी गँवाता है, अपना चैन भी व चाची के दिए गहने और अपने रुपए आदि भी।

वास्तव में “धरती धन न अपना” के दलित सांस्कृतिक स्तर पर पिछड़े इसलिए भी हैं कि उनमें शिक्षा का प्रायः अभाव है। पढ़े लिखे दलित (चमार) की उपन्यास में चर्चा ही नहीं है। गाँव के स्कूल की चर्चा है, लेकिन वहाँ दलित बच्चों को पढ़ने की इजाजत नहीं है। शिक्षा का यह अभाव भी उन्हें सांस्कृतिक रूप से पिछड़ेपन में जकड़े रखता है। उनकी संस्कृति का सर्वाधिक दमनकारी रूप उभर कर सामने आता है – काली और ज्ञानो के प्रेम के प्रति दलित समाज की प्रतिक्रिया में। गाँव में एक भी ऐसा उदारमन व्यक्ति नजर नहीं आता (दलित – गैर दलित दोनों में ही), जो उनके प्रेम का प्रशंसक हो। मिस्त्री संता सिंह काली को ज्ञानो का यौवन लूटने के लिए ही उकसाता है, उनके सच्चे प्रेम का वह प्रशंसक नहीं है। डॉ. बिशनदास जैसा कामरेड भी स्त्री-पुरुष साथी चुनाव का समर्थक नज़र नहीं आता। गाँव का दलित समाज काली, ज्ञानो को सीधी नातेदारी का संबंध न होकर भी जबरदस्ती भाई-बहिन बनाने व मनवाने पर उतारू है, जबकि देश क आदिवासी क्षेत्रों में ऐसी दमनकारी स्थिति नजर नहीं आती।

घोड़ेवाहा गाँव के छज्जूशाह घड़म्म चौधरी जैसे चरित्र प्रायः पंजाब के अधिकांश गाँवों में इन्हीं चारित्रिक लक्षणों के साथ मिलते हैं। इस अर्थ में वे पूरे पंजाब के ग्रामीण परिवेश के प्रतिनिधि चरित्र हैं। लेकिन घोड़ेवाहा के चमारों की तरह सभी गाँवों के चमार जरूरी नहीं कि खेतमजदूरी ही करते हो। चौधरियों की स्थिति सभी जगह लगभग एक जैसी है, लेकिन ‘चौधरी ‘ शब्द दोआबा या विशेषतः होशियारपुर क्षेत्र का ही विशिष्ट शब्द है। माझा या मालवा अंचल में जमीदारों. को अधिकांश “सरदार’ या “सरदार जी’ के रूप में पहचाना जाता है। इसी प्रकार ईसाईयत का प्रभाव भी दोआबा के अंचल विशेष का यथार्थ है। पंजाब के मालवा व माझा क्षेत्र में ईसाई धर्म प्रचारकों को विशेष सफलता नहीं मिली है। लेकिन दोआबा क्षेत्र के दलितों में ईसाई धर्म प्रचारकों को कुछ सफलता मिली और इसी क्षेत्र में पंजाब के ईसाइयों की सर्वाधिक आबादी है। हालांकि घोड़ेवाहा गाँव में खाली नंद सिंह ही धर्म परिवर्तन कर ईसाई बनता है, लेकिन आसपास के क्षेत्र में ईसाई होने के यथार्थ को “धरती धन न अपना” में भी रेखांकित किया गया है।

इसी प्रकार दोआबा क्षेत्र में “शामलात” (गाँव की सांझी जमीन) पर दलितों के घर होने व ये घर उनकी मालकियत न होकर “मौरूसी” अधिकार (अर्थात जब तक उनका खानदान चलता है, तभी तक उस घर की जमीन के टुकड़े पर उनका हक माना जाता, इसके बाद में टुकड़ा फिर गाँव की शामलात माना जाना) में होने की स्थिति भी इस क्षेत्र में कम से कम 1960 तक तो रही ही है। बाद में शायद उन्हें मालकियत अधिकार मिले हों। “धरती धन न अपना” का कालखंड 1947-48 से 1960-65 के बीच का प्रतीत होता है। इस कालखंड में गाँवों में व दोआबा अंचल में दलितों की सामाजार्थिक स्थिति को लेखक ने यथार्थ रूप से प्रस्तुत किया है।

दोआबा क्षेत्र में कम्युनिस्ट आंदोलन का व्यंग्य चित्र भी यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया है, यद्यपि सभी गाँवों में ऐसी स्थिति न थी। इस क्षेत्र के कई गाँवों में कम्युनिस्ट आंदोलन सशक्त रहा है व दर्शन सिंह कॅनेडियन चन्नण सिंह धूत (दोनों ही खालिस्तानियों द्वारा शहीद किए गए) जैसे व्यापक जन आंदोलन के कम्युनिस्ट कार्यकर्ता होशियारपुर जिले से ही संबद्ध थे। दोनों इस कालखंड में काफी सक्रिय भी थे।

उपन्यास की भाषा पर इस क्षेत्र की अपनी भाषा (पंजाबी का दोआबा रूप) की छाप अपनी पूरी शैली लिए हुए है। लेखक ने उपन्यास उर्दू प्रभावित हिंदी या हिंदुस्तानी जैसी हिंदी भाषा में रचा है। लेखक की इस भाषा शैली में पंजाबी भाषा के “चो”, “शामलात” जैसे शब्दों आदि व पंजाबी मुहावरों के प्रयोग ने “धरती धन न अपना” के आंचलिक पहलू को और भी . सुंदरता से प्रस्तुत किया है। हालांकि कई स्थलों पर पंजाबी मुहावरों का हिंदी रूपांतरण कुछ अटपटा सा भी लगता है, जैसे – चौधरियों से “माथा लेता है”, “चोट नहीं खाएगा तो और क्या होगा। शुक्र करे जान बच गई।” पंजाबी में ये मुहावरा “पंगा लेना” तो है, लेकिन “माथा लेना” प्रयोग अटपटा है।

जहाँ तक घोड़ेवाहा या इस अंचल में जाति आधारित छुआछूत का व्यवहार है, वह इस अंचल में भी है और अन्य अंचलों में भी। सातवें दशक तक जमीदार और खेत मजदूरों के झगड़े में हरिजनों के बायकाट व उनका खेतों में जाना बंद करने की खबरें समाचार पत्रों में अक्सर छपती थी। “दलित जागृति’ के साथ-साथ घटनाएं कम हुई है, व सातवें दशक में फैले । नक्सलवादी आंदोलन ने भी “दलित बायकाट’ को कम करने में भूमिका निभाई थी।

कुल मिलाकर “धरती धन न अपना” का अंचल विशेष चरित्र विविधता व चित्रमयता लिए है।

सारांश

“धरती धन न अपना” की दूसरी इकाई का आपने अध्ययन किया। इस दूसरी इकाई में मुख्य रूप से आपने उपन्यास के विभिन्न चरित्रों की चरित्र विशेषता, इनकी विभिन्न प्रवृत्तियाँ, इनके व्यक्तित्व, इनके सामाजिक, सांस्कृतिक सरोकार, स्वार्थ, त्याग, क्रूरता, दयनीयता, सहृदयता आदि से परिचय प्राप्त किया। उपन्यास के नायक नायिका के रूप में काली और ज्ञानो की। चारीत्रिक विशिष्टताओं से आप अवगत हो चुके। काली का चरित्र लेखक ने अत्यंत संवेदना से चित्रित किया है। काली और ज्ञानो दोनों ही दलित (चमार) है, लेकिन उनके प्रेम की पवित्रता उन्हें श्रेष्ठता के शिखर पर पहुँचा देती है। समाज उनके प्रेम को मान्यता नहीं देता, ज्ञानो को अपना जीवन साथी बनाने की उसकी सारी कोशिशे कट्टरवादी समाज असफल कर देता है। ज्ञानो की माँ और भाई द्वारा हत्या कर देने पर, वह किसी को भी दोष दिए बिना अपने सीने पर बोझ लेकर गाँव छोड़कर चला जाता है। काली अपने और ज्ञानो के संबंध में निर्णय लेने में कमजोर पड़ जाता है। वह समाज से टक्कर लेने के लिए तैयार नहीं होता। जातिवाद के खिलाफ संघर्ष करने वाला काली ज्ञानो के सच्चे प्रेम को मजबूत इरादों के साथ पूर्णत्व को प्राप्त नहीं कर पाया है। यहाँ पर उसके चरित्र की कमजोरी स्पष्ट हो जाती है। चाची के इलाज के लिए वह शहर ले जाना चाहता है, लेकिन गाँव के बड़े बूढ़ों के कहने में आकर चाची का इलाज गाँव में झाड-फूंक से करवाने पर उसका राजी हो जाना, उसकी चेतना की दुर्बलता को ही दिखाता है। काली अपनी अंतिम परिणति में दुखांत चरित्र है, क्योंकि जीवन में वह अपनी समस्याएं हल नहीं कर पाता।

ज्ञानो का चरित्र कई अर्थों में काली से अधिक सशक्त है। ज्ञानो अत्याचार बर्दाश्त नहीं करती, वह विद्रोहिणी है। चौधरियों द्वारा चमारों पर किए जाने वाले अत्याचार के विरोध में उसका स्वर तेज हो जाता है। उसके चरित्र की दृढ़ता के कारण कोई चौधरी उस पर कामुक दृष्टि डाल नहीं सकता। माँ और भाई के विरोध के बावजूद काली से वह प्रेम करती है, उससे मिलना नहीं छोड़ती और उसके प्रति अपने प्रेम को दर्शाती भी है। गर्भवती होने के बाद, माँ की लाख कोशिशों के बाद वह काली का नाम नहीं लेती। समाज द्वारा दो प्रेमियों के मिलन का विरोध चुपचाप सहती है और अपने बलिदान से इस प्रेम को अमर बना देती है। ज्ञानो के दुखांत रूप में सामंती मूल्यों वाले समाज द्वारा एक बहुत अच्छी व सशक्त नारी की हत्या कर देना, भारतीय समाज में नारी की स्थिति को स्पष्ट कर देता है।

सभी सवर्ण चौधरी शोषक, दमनकारी, क्रूर, जातिवादी और अमानवीय चरित्र के रूप में उभरते है। बात-बात पर चमार-कुत्ता कहकर चमारों को अपमानित करना, अत्याचार करना, दलित स्त्रियों और तरुणियों को हीन दृष्टि से देखना उनका यौन शोषण करना इनके चरित्र की आदिम सामंति प्रवृत्तियों को दर्शाता था।

उपन्यास के अन्य पात्र भी अपनी-अपनी चारित्रिक विशेषताओं के कारण उपन्यास को मजबूती देते हैं। “धरती धन न अपना” में अंचल विशेष के सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण को चित्रित करके उपन्यासकार ने हिंदू समाज के दमनकारी रूप को चित्रित किया है। पंजाब क दोआबा अंचल की भौगोलिक व नैसर्गिक विशेषताओं के चित्रण के साथ-साथ इस प्रदेश के सांस्कृतिक-सामाजिक और आर्थिक सरोकारों को उसके यथार्थ रूप में अभिव्यक्त किया है।

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