धरती धन न अपना : दलित जीवन की त्रासदी के संदर्भ में (जगदीशचन्द्र)

इसमें आप जगदीशचन्द्र द्वारा लिखित उपन्यास ‘धरती धन न अपना का अध्ययन करेंगे। यह उपन्यास भारतीय जाति व्यवस्था में हाशिए पर ढकेल दिए गए बहिष्कृतों का जीवन व्यतीत करने वाले दलितों की जीवन त्रासदी की मार्मिक अभिव्यक्ति है। मुख्य गाँव से बहिष्कृत बस्ती चमादड़ी में बसने वाली चमार जाति की पीड़ा व उत्पीड़न को जगदीशचन्द्र ने यथार्थ की भूमि पर उतारा है। छुआछूत के व्यवहार से उपजा यातना व संताप का मिलाजुला विद्रोही स्वर भी इस उपन्यास में अभिव्यक्त हुआ है। उपन्यास को आप इस इकाई के अध्ययन से पहले व बाद में भी जरूर पढ़िए। 

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • भारतीय जातिव्यवस्था की निर्मिति के पीछे छुपे स्वार्थ निहित षडयंत्र के अंतर्गत इंसानों को जातियों के कटघरों में बाँट कर किसी एक जाति या वर्ण की श्रेष्ठता को बनाए रखने के प्रयासों को समझ सकेंगे,
  • बहिष्कृत करार दी गई ‘चमादड़ी ‘ में रहने वाले दलितों के जीवन के विभिन्न पहलुओं से आप परिचित हो सकेंगे,
  • मानव निर्मित जातिव्यवस्था में तथाकथित निम्न मानी गई जातियों में जन्म लेने से व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व धार्मिक संदर्भ किस तरह बदल जाते हैं,
  • इसकी आप समीक्षा कर सकेंगे, दलित जीवन त्रासदी के विविध संदर्भो से आप परिचित हो सकेंगे
  • छुआछूत और सामाजिक बहिष्कार के व्यवहार से तथाकथित उच्च मानी गई जातियों  के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्वार्थों की परिपूर्ति व जाति अहं की तुष्टि की मानसिकता को समझ सकेंगे,
  • धर्म का सहारा लेकर धर्म के कटटर अनयायी इंसानों के प्रति कितने अमानवीय हो । सकते हैं, इसे आप जान सकेंगे।

उपन्यास और कहानी के पाठ्यक्रम में आपने हिंदी के महत्वपूर्ण उपन्यासों व कहानियों का  अध्ययन किया है और इसी कड़ी में जगदीश चंद्र के महत्वपूर्ण उपन्यास ‘धरती धन न अपना’ का आपको अध्ययन करना है।

“धरती धन न अपना” स्व. जगदीश चंद्र का लेखन में पहला लेकिन प्रकाशन में दूसरा उपन्यास है। इस उपन्यास का लेखन तो मई 1955 में शुरु कर दिया था, लेकिन आठ अध्याय लिख कर छोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने एक और उपन्यास लिखा, जो ‘यादों के पहाड़’ शीर्षक से 1966 में छपा। कुछ दोस्तों के आग्रह से उन्होंने अपने पहले उपन्यास को आठ अध्याय से आगे लिखना शुरु किया, जो 1968 में पूरा हुआ और यही उपन्यास 1972 में ‘धरती धन न अपना’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के प्रकाशित होते ही साहित्यिक क्षेत्रों में इसका भरपूर स्वागत हुआ और अपने विषय के अछूतेपन के कारण उपन्यास खूब चर्चित हुआ।

“धरती धन न अपना” की कहानी को लेखक ने 1988 के बाद फिर छुआ और इसके दूसरे खंड के रुप में ‘नरककुंड में बास’ का प्रकाशन 1993 में हुआ। 1 अप्रैल 1996 में अकस्मात देहांत से पहले लेखक ने इसी उपन्यास का तीसरा व अंतिम खंड भी पूरा किया जो ‘ज़मीन अपनी तो थी’ शीर्षक से प्रकाशन हेतु तैयार है।

“धरती धन न अपना” के लेखक जगदीश चंद्र का जन्म पंजाब के होशियारपुर जिले में 23 नवंबर 1930 को हुआ। घोडेवाहा उनका पैतृक गाँव क रलहन उनकी ननिहाल थी। दसूहा व जालंधर में उनकी शिक्षा दीक्षा हई। उन्होंने अर्थशास्त्र में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की और फिर सरकारी नौकरी में अनेक जगहों पर रहे। सेवानिवृत होकर वे जालंधर में रहने लगे और यहीं पर 10 अप्रैल 1996 को अकस्मात उनका निधन हुआ।

हिंदी के अतिरिक्त उन्होंने उर्दू व पंजाबी में भी लिखा। ‘पुराने घर’ उर्दू व ‘उडीकां’ संग्रह पंजाबी में प्रकाशित हैं। हिंदी में 1966 में ‘यादों के पहाड़’ उनका प्रथम उपन्यास प्रकाशित हुआ जिसका विशेष नोटिस नहीं लिया गया। लेकिन 1972 में ‘धरती धन न अपना’ के प्रकाशित होते ही जगदीश चंद्र को लेखक रुप में प्रतिष्ठा हासिल हई। इसके बाद तो उनकी सभी रचनाओ को सम्मान व व्यापक पाठक वर्ग भी मिला। सेना में सेवारत रहने के अनुभवों को उन्होंने ‘आधा पुल’ और ‘टुण्डा लाट’ उपन्यासों के द्वारा अभिव्यक्त किया। ‘टुण्डा लाट का दूसरा व अंतिम भाग ‘लाट की वापसी’ एक दैनिक समाचार पत्र में धारावाहिक रुप में छप चुका हैं, लेकिन अभी पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हुआ है।

“मुट्ठी भर कांकर’ उनका एक अन्य महत्वपूर्ण उपन्यास है, जिसका दूसरा भाग “घास गोदाम” शीर्षक से प्रकाशित हुआ। पंजाब के किसान जीवन पर आधारित उनका एक और महत्वपूर्ण उपन्यास है – ‘कभी न छोड़े खेत’ जिसका नाट्यरुपांतर व टेली सीरियल रुपांतर भी चर्चित रहा।

सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जगदीश चंद्र की उपन्यास त्रयी – “धरती धन न अपना” (1972), “नरककुंड में बास” (1993) व “जमीन अपनी तो थी'(शीघ्र प्रकाशित हो रहा है)। उपन्यासों के अतिरिक्त हिंदी में जगदीश चंद्र का ‘पहली रपट’ (कहानी संग्रह) व ‘नेता का जन्म’ (नाटक) भी प्रकाशित हैं। एक रिपोर्ताज ‘आप्रेशन ब्लू स्टार भी हाल में छपा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अपने छियासठ वर्ष के जीवन में जगदीश चंद्र चालीस वर्ष से कुछ अधिक समय रचनारत रहे और इन चार दशकों के सृजन काल में उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण रचनाओं से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।

जगदीश चंद्र की उपन्यास त्रयी की रचना पंजाब के दोआबा क्षेत्र के दलित जीवन को केंद्र में रखकर की गई है। उन्होंने ‘धरती धन न अपना’ में रचना के अनुभव बताते हुए लिखा है कि बचपन व किशोरावस्था में अपने ददिहाल व ननिहाल में दलित घरों के जीवन को उन्होंने जितनी गहराई से देखा, उसका उनके संवेदनशील मन पर गहरा प्रभाव पड़ा जिससे आगे चल कर उनकी साहित्य लेखन की सृजनशीलता जागृत हुई। अपने बचपन व किशोरावस्था के देखे व महसूस किए दलित जीवन को जिस प्रकार उन्होंने अपनी उपन्यास त्रयी में प्रामाणिक रुप से प्रस्तुत किया, उसी से उनकी हिंदी के एक महत्वपूर्ण उपन्यासकार के रुप में प्रतिष्ठा बनी। ‘धरती धन न अपना’ न केवल हिंदी का वरन भारत का एक प्रमुख उपन्यास माना गया, जिसके विदेशी भाषाओं फ्रेंच, जर्मन, रुसी, अंग्रेजी आदि में अनुवाद हुए है। भारत की प्रमुख भाषाओं में भी इसका अनुवाद हुआ और विदेशी विद्वानों ने इस उपन्यास की समीक्षाएँ भी प्रचुर मात्रा में की हैं।

प्रस्तुत इकाई में आप दलित जीवन की त्रासदी के संदर्भ में ‘धरती धन न अपना’ का अध्ययन करेंगे।

 “धरती धन न अपना” का कथासूत्र

“धरती धन न अपना” उपन्यास का आरंभ होता है काली के छह साल बाद कानपुर से अपने गाँव घोड़ेवाहा लौटने से| गाँव में काली की एक मात्र संबंधी उसकी चाची प्रतापी है। उसके माता-पिता व चाचा का देहांत हो चुका हैं। काली को उसके चाचा-चाची ने ही पाल पोस कर बड़ा किया क्योंकि उसके मां-बाप उसके शैशव में ही चल बसे थे| काली का पिता मारवा । गांव का चर्चित पहलवान भी था। उसके गांव लौटने का एकमात्र कारण चाची से उसका मोह ही है। पौ फटने पर काली गांव के पास पहुंचता है। गांव में छह सालों में कोई तब्दीली नही हुई है। गलियों के कुत्ते भौंक-भौंक कर काली का स्वागत करते हैं और घर पर चाची को जीवित पाकर काली प्रसन्नता से अभिभूत हो उठता है। काली की चाची काली के लौटने की सूचना पूरे मुहल्ले को शक्कर बाँट कर देती है।

छह वर्ष के कानपुर प्रवास ने काली और गांव वालों के बीच एक दूरी सी आ गई है। चमारों के मुहल्ले में एक कोठा भी अभी तक पक्का नहीं हुआ है। मुहल्ले की औरतें काली से हंसी मजाक कर उसका अजनबीपन दूर करती हैं। छह साल कानपुर में मजदूरी कर काली कुछ कमाई कर गांव लौटा है इससे चमार होने पर भी गांव में उसके व्यक्तित्व का कुछ प्रभाव पडता है और कुछ गाँववासी उसे बाबू कालीदास कहते हैं।

गाँव में ज़मीनों के मालिक चौधरी हैं, एक दो बनिए दुकानदार है व जमीनों पर तथा घरों में काम करने वाले दलित चमार हैं। चौधरी लोग बेबात चमारों से गाली-गलौच करते व उन्हें पीटते रहते हैं। उपन्यास के शुरु में ही चौधरी हरनाम सिंह अपने खेत की फसल नष्ट करने के संदेह में जीतू की पिटाई करता है। हालाँकि वह निर्दोष है। मंगू चमार चौधरी हरनाम सिंह का गुलाम बना हुआ है, जबकि उसकी बहन ज्ञानों चौधरियों के अन्याय का विरोध करती है, जो काली को ज्ञानों के प्रति आकषिर्त करता है।

काली अपने कच्चे कोठे को गिरा कर पक्का मकान बनाना चाहता है और इसके लिए वह छज्जू शाह से सलाह लेने जाता है। छज्जू शाह उसे पक्का मकान बनाने के उपाय तो बताता है, लेकिन साथ ही काली को इस तथ्य से भी अवगत करा देता है कि जिन घरों में दलित लोग रह रहे हैं, वह जगह गाँव की सांझी जगह ‘शामलात’ है और इन घरों पर दलितों का “मौरूसी’ अधिकार ही है अर्थात जब तक उनके खानदान का कोई व्यक्ति उस घर में रहता है तभी तक वे वहाँ रह सकते हैं। काली की गाँठ में पैसा देख कर गाँव का छज्जू शाह उससे उसके चाचा का लिया उधार व उस पर ब्याज की रकम भी झटक लेता है।

काली का अपना घर पक्का करने के बारे में सोचना ही वास्तव में दलितों के शोषण पर टिकी ग्रामीण सामंती व्यवस्था के लिए विध्वंसात्मक कार्रवाई है, ऊपर से काली का चौधरियों के सामने आत्म सम्मान की भावना से पेश आना भी उनके दमनात्मक रवैये को चुनौती है। उसका अपना दलित समाज भी काली का प्रशंसक या समर्थक नहीं है। ज्ञानों या जीतू आदि कुछ गिने चुने प्रबुद्ध दलित युवक-युवतियों को छोड़ चमादड़ी के अधिकांश लोग काली से ईर्ष्या करते हैं। विशेषतः ज्ञानों का भाई मंगू उससे उलझा ही रहता है। एक बार काली के हाथ उसकी पिटाई भी होती है। काली के पड़ोसी निक्कू को भी मंगू काली से लड़वाता है। लेकिन धीरे-धीरे गांव में काली की प्रतिष्ठा बढ़ती है और साथ ही ज्ञानों और काली में प्रेमसंबंध भी विकसित होते हैं।

काली यद्यपि चमादड़ी में पहला पक्का मकान बनवा कर अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाता है, लेकिन वह जिस किसी से भी मिलता है – मिस्त्री हो या छज्जू शाह सब उसके साथ चमार कह कर छुआछूत का व्यवहार करते हैं। जो उसे बहुत चुभता है। नंद सिंह इसी छुआछूत के व्यवहार से तंग आकर पहले सिख बना था, अब ईसाई बनता है, लेकिन छुआछूत फिर भी उसका पीछा नहीं छोड़ती। मंगू यद्यपि काली के प्रति शत्रुता रखता है, लेकिन चौधरियों द्वारा बार-बार उसे ‘कुत्ता चमार ‘ कह कर पुकारा जाना भी काली को बहुत बुरा लगता है। गाँव का ईसाई पादरी या किताबी कामरेड डॉ. बिशनदास छुआछूत के व्यवहार को रोकने का कोई प्रयास करते नहीं दीखते।

काली अपने पिता मारवे की तरह कबड्डी का खिलाड़ी है। वह अपने खेल का जौहर भी गाँव में दिखाता है, लेकिन चौधरियों का लड़का ‘हरदेव’ जानबूझ कर खेल में उसका कूल्हा तोड़ देता है, लालू पहलवान इस हरकत के लिए हरदेव को फटकारता है और काली का इलाज भी करता है।

काली की चाची प्रतापी की अचानक बीमारी व झाड़-फूंक के कारण देहांत से कथा में नया मोड़ आता है, काली का मकान पक्का करने का सपना पूरा नहीं हो पाता। न सिर्फ मकान बीच में ही छूट जाता है, उसकी कमाई के पैसे व चाची द्वारा बनाए गहने-रुपये भी चाची की मृत्यु के बाद शोक जताने आई कोई पड़ोसिन ले उड़ती है, काली सब कुछ लुटा कर घास खोदने का धंधा करता है फिर लालू पहलवान के यहाँ मजदूरी करने लगता है।

गाँव में आई बाढ़ कथा का अगला मोड़ है। प्राकृतिक आपदा का सामना चौधरी और चमार मिल कर करते हैं, लेकिन चौधरियों के खेतों को बचाने के लिए दलित बेगार नहीं करना चाहते। तीन दिन के काम के बाद भी दिहाड़ी न मिलने पर चौधरी-चमार संघर्ष शुरू होता है। चमारों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है और वे भी काम से हड़ताल करते हैं। पादरी उनकी मदद करना चाहता है, लेकिन शर्त भी रखता है कि उन्हें उसके लिए ईशु की शरण में आ जाना चाहिए। डॉ. बिशनदास व कामरेड टहल सिंह जैसे हवाई कामरेड दलितों की सहायता न कर उन्हें भाषण पिलाते व जलसा करने की घोषणा करते हैं। पंद्रह दिन तक बच्चों को भूख से बिलबिलाते हए देख कर चमारों का साहस जवाब दे देता है और वे आखिस्कर चौधरियों की शर्त को मान लेने के लिए विवश हो जाते हैं और दोनों ही पक्ष संघर्ष को व्यर्थ समझ आधे दिन की दिहाड़ी पर समझौता कर लेते हैं।

“धरती धन न अपना” का अंतिम पक्ष ज्ञानो और काली के प्रेम के त्रासद अंत को मार्मिकता से चित्रित करता है। ज्ञानो गर्भवती हो जाती है। काली के साथ उसकी शादी समाज को स्वीकार नहीं, गाँव उनके प्रेम संबंधों के कारण दोनों का दुश्मन हो जाता है। काली की प्रतिष्ठा खत्म हो जाती है। लालू पहलवान उसे नौकरी से निकाल देता है। काली पड़ोस के कस्बे में मजदूरी करने लगता है व ज्ञानो को लेकर भाग जाना चाहता है। दोनों अपना मिलनाजुलना भी बंद नहीं करते, परिणामतः ज्ञानो को उसकी मां व भाई ज़हर देकर मार डालते हैं और काली गाँव से भाग जाता है।

काली के गाँव लौटने से थोड़े सुखद रूप में उपन्यास का आरंभ होता है, जबकि अत्यंत विषम परिस्थितियों में गाँव से जान बचा कर व अपनी प्रेमिका की हत्या का मर्मान्तक दुख लेकर गाँव से चले जाने से उपन्यास का अंत होता है।

“धरती धन न अपना” में अंकित दलित जीवन के पहलू

उपन्यासकार जगदीशचन्द्र के स्वयं के वक्तव्य के अनुसार ‘धरती धन न अपना’ उपन्यास दलितों के जीवन यथार्थ पर केंद्रित है इसलिए उन्होंने समाज के अन्य सभी समुदायों को उनके साथ अन्तः संबंधों में चित्रित किया है।

उपन्यास का आरंभ काली के गाँव लौटने की घटना से होता है। लेकिन काली के गाँव की सीमा में दाखिल होने से लेकर उसके घर पहुँचने तक लेखक ने पूरे गाँव के भूगोल को और सामाजिक वातावरण को अंकित कर दिया है। ‘पहले आता है चौधरियों का मुहल्ला, जिसमें हवेलियाँ हैं, फिर स्कूल आता है, जहाँ के मुंशी के लिए साग, गन्ने, गाजरें, मूलियाँ जाटों के लड़के लाते थे लेकिन मुंशी के घर उन्हें कम्मियों के लड़के पहुँचाते थे। फिर मंदिर और उसके चारो ओर दुकानदारों के चौबारे। उससे आगे हरिजन बस्ती जो चमादड़ी कहलाती है। जहाँ गोबर की तेज बदबू है, जिसका कुआं गंदे पानी और कीचड़ से घिरा है, इस गली में सारे घर कच्चे व टूटे फूटे हैं।’

चमादड़ी में बीमारी का हमेशा प्रकोप रहता है। काली की माँ को प्लेग खा गई, उसका बाप भी असमय काल-कवलित हुआ। चाचा को हैजे ने खा लिया। गरीबी का आलम यह है कि छह साल पहले काली दो दिन से भूखा-प्यासा, फटेहाल घर से भाग कर कानपुर पहुंचा था,  दलित (चमार) घर-परिवारों में गरीबी इतनी है कि काली के पास नोटों की संख्या देखकर व. दस से कम का नोट न होने पर काली की चाची आश्चर्य चकित व आतंकित हो उठती है, क्योंकि उसे इस अप्रत्याशित धन के चोरी हो जाने का डर है।

‘चमादड़ी मुहल्ला गाँव के अन्य मुहल्लों – महाजनों, नंबरदारों, गवियों, भोदियों, मिटठो व चुनौतियों के मुहल्ले से अलग गाँव से बाहर की ओर बसाया गया है। चमादड़ी में सिर्फ एक ही लंबी और तंग गली है। मुहल्ले के बाहर गोबर और कूड़े के ढेर हैं और एक दो छप्पड़ भी। मुहल्ले में एक भी ऐसा कोठा (घर) नहीं जिसमें पक्की ईंट लगी हो।’ 

‘चमादड़ी की औरतों के कपड़े मैले-कुचैले, फटे-पुराने हैं। बच्चे नंग-धडंग नाक सुड़सुड़ाते हैं। चमार परिवारों में भी कम उम्र में शादियाँ हो जाती हैं और काली को लगता है कि मुहल्ले में उसके सिवा सभी का ब्याह हो चुका है। दलित परिवारों में बच्चे भी काफी संख्या में पैदा होते हैं, लेकिन बचते बहुत कम हैं। बेबे हुक्मा तेरह बच्चों को जन्म देती है, लेकिन बचा एक ही। काली के पड़ोसी प्रीतो-निक्कू के ग्यारह बच्चे हैं।’

दलित जीवन में धर्म का बहुत अधिक महत्व नहीं है, लेकिन अपने जीवन को सुधारने व अपनी मानवीय अस्मिता को स्वीकार के लिए वे कई बार धर्म परिवर्तन करते हैं, लेकिन उनकी मानवीय अस्मिता का फिर भी सम्मान नही होता। ‘धरती धन न अपना’ में नंद सिंह सिख व ईसाई दोनों धर्म अपना कर देख लेता है, लेकिन चौधरियों के लिए वह ‘चमार’ का ‘चमार’ ही रहता है! धर्म दलितों के लिए सामाजिक व्यवहार का मामला है, रूढ़ियों का नहीं। नंद सिंह ईसाई बन कर धार्मिक रस्मों का पालन तो करता है, लेकिन उसमें या उसके परिवार में धार्मिक पूर्वाग्रह नहीं हैं, इसीलिए काली के प्रति नंद सिंह का व्यवहार उसमें अच्छे दामाद होने की संभावना से परिचालित है।

दलित समाज में भारतीय समाज की कुछ ऐसी रूढ़ियों का प्रभाव जरूर है, जो उनके समाज में कई दुखांतों को भी जन्म देती है। जैसे काली और ज्ञानों के बीच कोई सीधी रिश्तेदारी न होकर भी उनके बीच विवाह संबंध उस समाज में स्वीकार्य नहीं हैं, भले ही उनमें आदर्श दम्पति बनने के गुण क्यों न हो।

‘धरती धन न अपना’ में जगदीश चंद्र ने दलित जीवन के अनेक पहलुओं को चित्रित किया है, लेकिन सबसे ज्यादा विस्तार उन्होंने दलितों के समाजार्थिक जीवन के चित्रण पर दिया है। नंद सिंह जैसा तो एकाध चरित्र ही उपन्यास में है, जो जूते बनाने का स्वतंत्र रूप में व्यवसाय करता है। फिर भी उसे मानवीय सम्मान नहीं मिलता। ‘धरती धन न अपना’ के अधिकांश दलित (चमार) गाँव के जमींदारों पर काम के लिए आश्रित हैं अर्थात् इसीलिए उन्हें ‘कम्मी भी कहा जाता है, लेकिन उनका जमीदारों के साथ मजदूर और मालिक का आधुनिक संबंध नहीं है, जिसमें आठ घंटे की दिहाड़ी पर निश्चित पारिश्रमिक मिले। उनकी स्थिति अर्द्ध-गुलामों की है। उनकी स्त्रियाँ भी ज़मींदारों के घरों में काम के लिए जाती हैं और इस प्रकार से वहाँ पर शोषित होती हैं, जिसमें यौन-शोषण भी शामिल है।

“धरती धन न अपना” में चौधरी-चमार संबंधों की पहली झलक तीसरे अध्याय के शुरू में मिलती है, जब चौधारे वाला चौधरी (हरनाम सिंह) आकर चमादड़ी में पहले गालियाँ देना शुरू करता है और फिर जूतों से मारना शुरू करता है। वह निर्दोष जीतू की भयंकर पिटाई करता है, लेकिन कोई भी जीत के हक में ज़बान नहीं खोलता, क्योंकि लेखक के अपने शब्दों में “चमादड़ी में ऐसी घटना कोई नयी बात नहीं थी। ऐसा अक्सर होता रहता था। जब किसी चौधरी की फसल चोरी हो जाती, बरबाद कर दी जाती, चमार चौधरी के काम पर न जाता या फिर किसी चौधरी के अन्दर ज़मीन की मलकियत का एहसास ज़ोर पकड़ लेता तो वह अपनी साख बनाने और चौधर मनवाने के लिए इस मुहल्ले में चला आता।”

चौधरी हरनाम सिंह अपने जाति अंह की तुष्टि के लिए अमानवीय पद्धति का प्रयोग करता है। सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक शोषण संस्थाओं का निर्माण इसी उद्देश्य से किया गया है, जिसके अंतर्गत गुलामों की तरह जीने वाला एक समुदाय तैयार किया गया है। धर्म के टोटकों का आधार देकर जन्म और कर्म सिद्धांत की झूठी साजिश में फंसाकर मानसिक व शारीरिक रूप से पंगु बना दी गई तमाम दलित जातियों का सदियों से शोषण किया जा रहा है। वे अपने अस्तित्वबोध से प्रेरित होकर बगावत पर न उतर आए, इस डर से सवर्ण कही गई जातियाँ अमानुषता का सहारा लेती रहती है। हरनाम सिंह द्वारा जीतू को इस प्रकार पीटना व अपमानित करना यही दर्शाता है।

दलित वर्ग को दबाए रखने के लिए शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की यंत्रणाएँ देकर शारीरिक यंत्रणाओं के माध्यम से मानसिक रूप से भी उन्हें पंगु बनाना चाहता है, इस बात को लेखक ने रेखांकित किया है। स्वयं शोषित वर्ग में सजगता नहीं है, इसलिए चौधरियों या शोषक वर्ग के प्रति घृणा की बजाय वे अपने ही वर्ग के लोगों को दुत्कारते रहते हैं। निर्दोष जीतू की भर्त्सना चमारों में ही कई लोग करते हैं, लेकिन उसी समाज की ज्ञानो चौधरियों को गालियाँ देती हैं, क्योंकि “नाजायज बातें देखकर उसे गुस्सा आ जाता है। यह गुस्सा काली को भी आता है, जब वह अपनी चाची से कहता है – “अगर जीतू की जगह मैं होता तो चौधरी की बांह मरोड़ देता।” 

काली छह साल कानपुर में रह कर अपनी मानवीय अस्मिता के प्रति सचेत हुआ है, इसलिए वह अपनी कमाई से मकान पक्का करवाना चाहता है, लेकिन चाची डरती है और चाहती है कि काली ऐसी बातें न सोचे, क्योंकि इससे पहले किसी ने मकान को “पक्की ईंट नहीं लगवाई।” 

काली का मकान पक्का करवाने का इरादा एक स्तर पर गाँव के चौधरियों के वर्चस्व को भी चनौती है। उन्होंने गाँव के चमारों को नीच मनुष्य के स्तर तक पहँचा दिया है। काली निम्न मानव स्तर से ऊपर उठ कर मानव स्तर को पाना चाहता है। उसका पक्का मकान बनवाना उसकी मानव स्तर को पाने की कामना का प्रतिरूप है। लेकिन यहाँ भी छज्जू शाह उसे गाँव में उनकी समाजार्थिक स्थिति का कटु बोध करवाता है, जब वह उसे कहता है “कालीदास, जिस ज़मीन की तुम बात कर रहे हो, वह ज़मीन भी तुम्हारी नहीं है। वह शामलात (गाँव के ज़मीदारों की सांझी ज़मीन) है। जब तक तू या तेरे वारिस (उत्तराधिकारी) इस गाँव में रहेंगे, ज़मीन का यह टुकड़ा रिहायश के लिए तुम्हारा है। बाद में उसका मालिक गाँव होगा। वह तेरी मालकियती जमीन नहीं है, मौरूसी ज़मीन है।” 

‘धरती धन न अपना’ का यह प्रसंग इस उपन्यास की केन्द्रीय वस्तु व इसके शीर्षक दोनों को स्पष्ट कर देता है। गाँव के दलितों का धरती के किसी भी टुकड़े पर अधिकार नहीं है। उन्हें इस अधिकार से वंचित करने के बारे में मनुस्मृति जो कि हिंदू धर्म की आचार संहिता मानी जाती है और उसमें कही गई एक-एक बात हिंदू धर्म के मानने वाले प्रमाण मानते हैं, में दलितों और स्त्रियों को संपत्ति के अधिकार से वंचित रखा गया है। इसी विचारधारा को मानकर आज का आधुनिक समाज भी उसी लीक पर चल रहा है। हालांकि प्राकृतिक रूप में धरती सारे समाज या मानव-समूहों के लिए है और संपत्ति पर आधारित समाजों में धरती सम्पत्ति का महत्वपूर्ण रूप बनी, लेकिन भारतीय दलितों के जीवन की विडंबना और त्रासदी यह बनी कि सामंती कृषि व्यवस्था व जाति विभाजित समाज में उन्हें “सम्पत्ति या ‘धरती के सामान्य मानव अधिकार से ही वंचित रखा गया। उसके लिए नागरिक अधिकार या जनतांत्रिक अधिकार तो दूर की बात, उन्हें तो न्यूनतम मानव अधिकारों से भी वंचित रखा गया। इस बात का एहसास काली को छज्जू शाह करवाता है। लेकिन काली में मानव अधिकार पाने की प्रबल आकांक्षा है और वह कहता है कि “चाची यहीं रहूँगा और मकान भी पक्का ही बनाऊंगा।” वह समय आने पर चौधरियों से संघर्ष के लिए भी तैयार है, क्योंकि उसके लिए “डर-डर कर दिन गुजारने से मर जाना अच्छा है।”

इस स्पष्ट निर्णय के बाद तो काली गाँव में शोषकों का भी सामना करता है और अपने ही शोषित वर्ग के भीतर के हमलों का भी। पूरा उपन्यास चौधरी-दलित संघर्ष को अंकित करता है, जिसकी चरम सीमा है – दलित खेत मज़दूरों द्वारा दिहाड़ी न दिए जाने के विरोध में काम से हड़ताल व बदले में चौधरियों द्वारा दलितों का सामाजिक बहिष्कार। लेकिन यह सारा संघर्ष दलित जीवन की त्रासदी को रेखांकित करता है, आगे के पृष्ठों में आप इसका अध्ययन करेंगे।

“धरती धन न अपना’ में जगदीश चन्द्र ने पंजाब के गाँवों में दलित जीवन के विविध पहलुओं को विस्तार से अंकित किया है। दलित घर-परिवार के भीतरी माहौल से लेकर दलित मुहल्लों के जीवन, उनके रस्म-रिवाजों व संस्कारों आदि का अंकन भी लेखक ने किया है। इससे भी ज्यादा विस्तार से लेखक ने दलितों के समाजार्थिक जीवन, गाँव में उनकी निम्न मानव स्थिति, जमीदारों-शोषकों द्वारा उनके शोषण-उत्पीड़न की स्थिति उनके अपने समाज में ही चेतना न होने की स्थिति व जमीदार-दलित (शोषक-शोषित) संघर्ष की स्थिति का चित्रण किया है, जिसका अंत त्रासद है।

धरती धन न अपना : दलित जीवन की त्रासदी के संदर्भ

“धरती धन न अपना” में दलितों के जीवन की त्रासदी को सृजनात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उपन्यास लेखक ने उपन्यास रचना की पृष्ठभूमि में इस उपन्यास के उन यथार्थ पहलुओं पर प्रकाश डाला है जिसे प्रत्यक्ष देखकर लेखक के अंतर्मन में बहुत गहरे कहीं उथल-पुथल मच गई थी। वास्तविक जीवन की घटनाएं और स्थितियाँ लेखक के मन में कचोटती थीं। जब लेखक को इन घटनाओं के विश्लेषण की क्षमता हासिल हुई तो उन्होंने अपने अनुभवों को अपनी विश्लेषण दृष्टि के साथ ‘धरती धन न अपना’ के औपन्यासिक रूप में ढाल कर प्रस्तुत किया, परिणामतः एक ऐसी मार्मिक कृति सामने आई, जिसमें दलित जीवन यथार्थ के त्रासद रूप अत्यंत प्रभावी रूप से सामने आए है।

“धरती धन न अपना” में दलित जीवन की त्रासदी को कई रूपों में देखा जा सकता है : सामाजिक स्तर पर छुआछूत के व्यवहार में,

समाजार्थिक रूप में उनके श्रम के शोषण व निम्न मानव के स्तर तक उन्हें पहुंचाने में, दलित स्त्रियों के यौन शोषण द्वारा उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित करने में, दलित समाज को चेतना के अभाव में, आपसी फूट व शोषकों से संघर्ष न कर पाने की त्रासदी का सामना करना पड़ता है। दलित समाज की अपनी उत्पीड़क संस्कृति, जिसमें ज्ञानों और काली जैसे सबसे अच्छे स्त्रीपुरुष त्रासद अंत को प्राप्त होते हैं।

सारांशतः इकाई के इस अंश में हमने देखा कि गाँव में दलितों का जीवन अनवरत त्रासदी है। उन्हें छुआछूत द्वारा अपमानित-प्रताड़ित किया जाता है। उनकी स्त्रियों को यौन-शोषण द्वारा अपमानित और मानसिक रूप से पंगु बनाया जाता है। शिष्ट-संस्कृति से वंचित रख उन्हें चेतना के अभाव में शारीरिक-मानसिक गुलामी की स्थिति में रखा जाता है ताकि वे सचेतसजग-संगठित हो अपनी मुक्ति का प्रयास न कर सकें। इन सब के साथ उनकी संस्कृति को भी दमनकारी बनाया जाता है ताकि वे ज्ञानो और काली जैसे अपने श्रेष्ठ स्त्री-पुरुषों को स्वयं ही नष्ट कर दे, जो उनमें चेतना विकसित करने की क्षमता रखते हैं। कुल मिलाकर जगदीश चन्द्र ने दलित जीवन की त्रासदी को अनेक स्तरों व अनेक पहलुओं से उपन्यास में चित्रित कर ‘धरती धन न अपना’ को एक क्लासिक उपन्यास बना दिया है।

 छूआछूत और अपमानित मानवता

“धरती धन न अपना’ में उपन्यास के आरंभ से अंत तक दलितों (चमारों) के साथ गाँव के सवर्णों का छुआछूत का व्यवहार चित्रित हुआ है। गाँव का बनिया छज्जू शाह, काली को संपन्न देख उसे ‘बाबू कालीदास’ कह कर संबोधित करता है, लेकिन उसके लिए सिगरेट दूर से फेंकता है ताकि कहीं वह उससे छु न जाए। उसे वह गर्व से बताता है कि उसके पास दो टुक्के रखे थे – एक चौधरियों के लिए, एक चमारों के लिए। और तो और खुद काम करने वाले मिस्त्री संता सिंह, ईंट भट्टे का मुंशी आदि भी जब काली से छुआछूत का व्यवहार करते हैं तो उसे बहत चुभता है। गाँव का पंडित वैसे तो दलित स्त्रियों पर लार फेंकता है, लेकिन दलितों का उसे छू जाना उसकी क्रोधाग्नि को भड़काने के लिए पर्याप्त है।

छुआछूत के व्यवहार से चमारों को हमेशा उनके अछूत होने का अपमान बोध कराना और बारबार “चमार-कुत्ता’ कहना, या “चमार सिर पर चढ़ते जा रहे हैं, इनका दिमाग खराब हो गया है। इन्हें सीधा करना ही पड़ेगा।” जाति अहं से भरे यह शब्द दलित समुदायों के प्रति सवर्णों के मन में पनपती घणा व तिरस्कार को व्यक्त करते हैं। इनके इस प्रकार के कथन के पीछे भारतीय जातिव्यवस्था के कारण निम्न जातियों का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक शोषण करने के अधिकार प्राप्ती की दंभ भरी स्वीकृति है। जानवरों के समान, इंसानों को भी ठोक-पीटकर, दहशत पैदा करके अमानवीय तरीके से अपने अधीन बनाने का तरीका दुनिया के किसी भी क्षेत्र में दृष्टिंगत नहीं होता।

छुआछूत के कारण अपमानित होने की इस पीड़ा को जब नंदसिंह बर्दाश्त नहीं कर पाता तो इसाई बन जाता है। लेकिन उसके चमार होने को कोई भूल नहीं पाता और बार-बार उसे चमारे या चमार ही कहकर पुकारते थे। इससे तंग आकर उसने सिख धर्म अपनाया तब भी वह चमार ही रहा। समानता और भाईचारे के दर्शन पर टिका सिख धर्म भी उसे वह सम्मान नहीं दे सका।

पंडित संतराम की चिंता है कि हिंदू या सिख बनकर चमार नंदसिंह की हैसियत में कोई फर्क नहीं हुआ तो अब इसाई बनने से कौन सी हैसियत बढ़ जाएगी।

‘नंदसिंह पहले सिख बना लेकिन ऊँची जात के किसी सिख ने उसे मुँह नहीं लगाया। अब वह क्रिस्तान बनकर भी चमार का चमार ही रहेगा। बल्कि कुछ नीचे ही गिर जाएगा।’

चमारों की बिरादरी से निकलकर चूड़ों-भंगियों में जा मिलेगा।’  जाति के कटघरों में बंटा समाज किसी भी रूप में इस बंटवारे को न भुला पाता है न भुलाने देता है। जाति श्रेष्ठता के झूठे प्रमाण-पत्र के कारण समाज में निश्चित किया गया स्थान, उससे जुड़ा आर्थिक व्यवसाय, भूमि और देश की संपत्ति पर अधिक अधिकार जमाएं बैठना और इस अधिकार को बनाए रखने के लिए मिलने वाली धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यता। इन्हीं कारणों से सवर्ण कही जाने वाली सत्ताधारी जातियाँ जातिव्यवस्था को टूटने नहीं देती बल्कि चिरकाल तक बनाकर रखना चाहती है। कभी धर्म का सहारा लेकर तो कभी राष्ट्रवादी बनकर अन्य धर्मावलम्बियों पर कहर बरपा करती है। वर्चस्व और सत्ता की चाह इंसान को कितना गिरा सकती है इसकी यह मिसाल है।

छुआछूत की अमानवीय पराकाष्ठा “धरती धन न अपना” में देखने को मिलती है। अछूत कही गई जातियों को आज भी सवर्णों के कुएँ पर चढ़ने नहीं देते। चमादड़ी में चमारों के लिए बना कुआँ बाढ़ के पानी में डूब जाने पर पूरी चमादड़ी के लोग पानी के लिए तरसने लगे थे। चमारों के प्रति सवर्णों की घृणा, तिरस्कार और उपेक्षा किस सीमा तक बढ़ सकती है, इसका वर्णन जगदीश चन्द्र ने प्रामाणिक रूप में किया है।

‘बरसात में जैसे ही पानी का बहाव चो की ओर बह निकलता है तो सबसे पहले गाँव का सारा पानी चमादड़ी में घुस आता है। चमादड़ी में पानी भर जाना हमेशा की ही बात थी, क्योंकि उसके चारों ओर न कहीं नालिया थी न गड़ड़ो को भी भरा गया था। दोपहर के बाद वर्षा फिर बंद हो गई और आकाश में कहीं-कहीं बादल फट गए। चो में पहाड़ी पानी आना शुरू हो गया। चमादड़ी की गलियों में टखने तक और बाहर कुएँ के पास कमर तक पानी भर गया। सब लोग पानी में छप-छप की आवाज पैदा करते हुए चो के किनारे जमा हो गए। पीले रंग का गहरा पानी काफी तेजी से बह रहा था और उसकी लहरों पर मटमैली झाग के साथ-साथ पेड़ों की टहनियाँ, तरबूजों के खप्पर, गले-सड़े आम और चीड़ के खपेरे तैर रहे थे। चो में पानी प्रतिक्षण बढ़ रहा था और पूर्व-उत्तर में शिवालिक की पहाड़ियों पर भी जोर की वर्षा हो रही थी।’ 

‘प्रातः लोग घरों से बाहर निकले तो चमादड़ी का कुआँ कही नजर नहीं आ रहा था। गली में खड़ा पानी घुटनों तक उठ आया था और कुएँ के आसपास छाती से भी ऊँचा था। कुएँ के पानी में डूब जाने पर चमादड़ी में कुहराम मच गया। सबके सामने प्रश्न था कि वे पीने का पानी कहाँ से लाएंगे। चिंता ग्रस्त लोग वर्षा में खड़े आपस में सलाह-मशविरा करने लगे।’ 

गाँव में और तीन कएँ थे जिस पर चमारों को पानी नहीं भरने दिया जाता। कुछ दिन तक तो पादरी के घर के नल से स्त्रियाँ और बच्चे पानी ले आयी थी लेकिन किसी बच्चे ने नल के पास ही टट्टी कर देने से पादरानी ने पानी लेने से मनाही कर दी। तब पीने के पानी की समस्या का एक ही हल रह गया था। सभी ने सोचा पंडित संतराम से मिन्नत की जाए तो वह मान जाएगा। लेकिन पंडित संतराम को चमारों के पानी के बिना मर जाने की चिंता से अधिक चिंता थी चमारों द्वारा मंदिर के कुएँ को छूने से उसके अशुद्ध हो जाने की। पानी लेने आई चमार स्त्रियों को उसने डांट कर भगाया। एक बुजुर्ग ने बड़ी दयनीयता से कहा, पंडित जी, हमारा कुआँ पानी में डूब गया है। हमारे पास पीने की एक बूंद भी नहीं है।’ 

पंडित ने क्रुद्ध होकर कहा, ‘तो तुम मंदिर के कुएँ पर चढ़ना चाहती हो?’ और वह आग बबूला होकर सब को मारने उनके पीछे दोडा स्त्रियाँ भय से भाग निकली। इस भगदड़ में कई नीचे गिर गई और उनके कच्चे घड़े टूट गए। पंडित संतराम गालियाँ देता हुआ चमादड़ी की ओर मुड़ने वाले रास्ते तक उनका पीछा करता रहा। 

पानी के लिए तरसते चमारों को विवश होकर बरसाती पानी पीना पड़ा। और धर्म के ठेकेदारों को छुआछूत की परंपरा निबाहने से हिंदू धर्म की रक्षा जी-जान से करने की वहशीयाना तसल्ली मिली। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। वर्णाश्रम, अधिकार भेद और जाति व्यवस्था के जरिए ही जातियों का उत्पीड़न करने का तंत्र बनता है, जिसका पालन करने को “सनातन धर्म ” और “मर्यादा ” जैसी परंपराओं को निबाहने का नाम दिया गया है। जन्मजात अछूतों द्वारा अपनी मर्यादा का उल्लंघन चाहे वह एक बूंद पानी को हासिल करने के लिए ही क्यों न हो, धर्म के रक्षकों को मंजूर नहीं है। गैर बराबरी को बनाए रखने व भेदभाव बरतने से ही तो ब्राह्मण जाति का श्रेष्ठत्व बना रहेगा। पंडित संतराम के कृत्य से यह स्थापित हो जाता है कि हिंदू धर्म गैरबराबरी, भेदभाव और छुआछूत के व्यवहार द्वारा अपना अस्तित्व बनाए रखने की कोशिश ही नहीं करता बल्कि उसमें विश्वास भी करता है। “ब्राह्मणों को धर्म ने हर आदमी की हैसियत तय करने का अधिकार दिया है। ” (मस्तराम कपूर, हरिजन से दलित, )

दलित स्त्री शोषण : सामाजिक व आर्थिक कारण

संपूर्ण दलित समाज का आर्थिक रूप से चौधरियों पर निर्भर होने के कारण दलित स्त्रियों को भी चौधरियों के घर काम करने जाना पड़ता है और वहाँ शायद ही कोई ऐसा घर हो, जहाँ उनका यौन शोषण न होता हो। प्रीतो की लड़की लच्छो के साथ हरदेवा जैसे बलात्कार करता है, वह तो इस यौन शोषण की प्रक्रिया की बानगी मात्र है, अन्यथा शायद ही कोई दलित स्त्री ऐसी हो, जो चौधरियों या सवर्णों के हाथों यौन-शिकार न हुई हो। प्रीतो और अन्य चमार स्त्रियों के आपस के मज़ाक और कई बार झगड़ा होने पर एक दूसरे के पोतड़े खोलने में यही तथ्य सामने आते हैं कि कोई दलित स्त्री चौधरियों, सवर्णों के हाथों सुरक्षित नहीं। पंडित संतराम आदि छुआछूत का पाखंड कितना ही क्यों न करें, दलित स्त्री की देह के लिए वे हर समय लार टपकाते रहते हैं।

दलित स्त्रियों के यौन-शोषण द्वारा चौधरी वर्ग न केवल अपनी यौन विकृतियों की तुष्टी करता है, बल्कि इससे भी बढ़ कर दलित आत्म सम्मान को कुचल कर उसे मानसिक रूप से पंगु बना कर उस पर अपनी यंत्रणा का वर्चस्व भी स्थापित करता है।

दलित जीवन के त्रासद रूपों में सर्वाधिक त्रासद है इन तमाम शारीरिक, मानसिक यंत्रणाओं को सहते हुए उनके भीतर चेतना का अभाव और परस्पर फूट। जब भी कोई चौधरी किसी चमार को गाली देता है, उसे पीटता है तो बाकी चमार उत्पीडित का साथ देने के बजाय दहशत के कारण चुप रहते हैं। कोई कोई चौधरियों को ऐसे उत्पीड़न के लिए उकसाता भी है, जैसे मंगू। लेकिन काली के आने से स्थिति बदलने लगती है और उसका चरम रूप मिलता है – बेगार के सवाल पर चौधरी-चमारों के संघर्ष के रूप में विस्फोट से। लेकिन उनका यह संघर्ष सामाजिक विषमताओं के अन्य अनेक सूक्ष्म रूपों को भी उदघाटित कर देता है। चौधरी सामाजिक बहिष्कार के द्वारा चमारों का बायकाट, उनका खेतों में आना जाना, यहाँ तक कि उनके प्राकृतिक कर्म – टट्टी-पेशाब जाने में भी बाधाएं खड़ी कर देते हैं। उनको वे भूखों मार कर कदमों पर गिराना चाहते हैं। गांव में पहली बार ऐसा होता है, इससे अनेक नई बातें पैदा होती हैं। पहली बार चमारों में संघर्ष चेतना विकसित होती है, भले ही तीन दिनों की फाकाकशी उन्हें पस्त हिम्मती की ओर ले जाती है। इस स्थिति में उनसे सच्ची हमदर्दी कोई नहीं करता। ईसाई पादरी अचिंत राम इस मौके का लाभ उठाकर उनका धर्म परिवर्तन करवा उन्हें ईसाई बनाना चाहता है। बिना उनके ईसाई बने वह कोई मदद नहीं करना चाहता।

किताबी कामरेड – डॉ. बिशनदास चमारों के दिहाड़ी के संघर्ष में रूस की बोलशेविक क्रांति के सपने देखने लगता है। कामरेड टहल सिंह को बुलाकर वह काली आदि से मीटिंगे करता है, लेकिन उन्हें अनाज के रूप में मदद न देकर, जिससे वे कुछ और दिन संघर्ष चला सकते व चौधरियों को झुका सकते, वह उनके लिए जलसे की घोषणा करता है। यह बात दीगर है कि कामरेडों के जलसे से पहले ही चौधरी और चमार समझौता कर लेते हैं और डॉ. बिशन दास का “शुद्ध क्रांति ” का सपना बिखर जाता है।

इस संघर्ष के दौरान चमारों में फूट और एकता दोनों ही देखने को मिलते हैं। भूख से तंग आकर प्रीतो अपने लड़के को मंगू के साथ चौधरियों के यहाँ मजूरी के लिए भेजना चाहती है, लेकिन काली द्वारा अपना सारा अनाज उसे दे देने पर अपनी बिरादरी का साथ देने लगती है। संघर्षशील चमारों के पास संघर्ष की दीर्घकालीन योजना नहीं है, उधर चौधरियों का भी लंबे संघर्ष में नुकसान है, अतः जिस तरह गर्मा गर्मी में संघर्ष शुरू होता है, वैसे ही आधी दिहाडी के समझौते से संघर्ष समाप्त भी हो जाता है।

“धरती धन न अपना ” के दलितों में एक ओर सामाजिक चेतना का अभाव है, जिससे वे संघर्ष से जल्दी पीछे हट जाते हैं तो दूसरी ओर उनके अपने सांस्कृतिक मूल्य भी इतने उत्पीड़क हैं कि अपने समाज के सबसे अच्छे व विकसित चेतना वाले व्यक्तियों की बली ले लेते हैं।

उपन्यास का सबसे त्रासद पक्ष इन्हीं उत्पीड़क सांस्कृतिक मूल्यों के दबाव में उजागर हो उघड़ता है। काली जो दलित (चमार) समाज का सबसे अच्छा व विकसित चेतना वाला युवक है और ज्ञानो जो बेहद आत्म-सम्मानी व दबंग युवती है, जिसे चौधरी युवक चाह कर भी अपने जाल में नहीं फांस सकते, दोनों ही अपने समाज के सांस्कृतिक उत्पीड़न की बलि चढ़ते हैं। तार्किक रूप में ज्ञानो और काली का परस्पर आकर्षण, प्रेम अत्यंत स्वाभाविक है। जैसा दोनों का स्वभाव है और जैसी चेतना। उसमें इन दोनों में प्रेम संबंध विकसित होना एक अत्यंत सहज प्रक्रिया है। उनके इस सहज प्रेम का एक मुक्त समाज स्वागत करता और दोनों को एक साथ जीवन बिताने का आशीर्वाद देता, लेकिन रूढ़ियों की जकड़न से घिरा दलित समाज यहाँ अपने सबसे योग्य स्त्री पुरुष का अनजाने में शत्रु बन बैठता है और ज्ञानो की दुखद हत्या व काली के गाँव से पलायन रूप में उपन्यास का अत्यंत त्रासद अंत होता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘धरती धन न अपना’ उपन्यास में दलित जीवन की त्रासदी अनेक स्तरों पर अभिव्यक्त होती है और ज्ञानो की हत्या व काली के पलायन रूप में तो यह त्रासदी चरम को पहुँच कर अत्यंत मर्मस्पर्शी बन जाती है।

जाति व्यवस्था का धार्मिक आधार

“किसी को जनेऊ का अधिकार देकर, किसी को मंदिर प्रवेश का अधिकार दे कर, किसी के घर चंडी पाठ कर, किसी के ऊपर पानी छिड़क कर, किसी को दूब का स्पर्श कर ब्राह्मण दूसरों का उद्धार करता रहता है और इस तरह वह हमेशा अपना वर्चस्व बनाए रखता है तथा जाति प्रथा को नष्ट होने से बचाए रखता है। “

इ.स.1927 में महाराष्ट्र के महाड़ ग्राम के “चवदार तालाब का सत्यग्रह दलितों को सम्मान और मानवीय अधिकार दिलाने का एक ऐतिहासिक संघर्ष था। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जो स्वयं भी दलित थे, सवर्णों के अमानवीय व्यवहार और छुआछूत के कारण हो रहे उत्पीड़न को दलित मुक्ति संघर्ष द्वारा दूर करना चाहते थे। नासिक का “कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह और चवदर तालाब सत्या ग्रह ” ये इसी संघर्ष की कड़ियाँ हैं। अछूत समाज की अस्मिता को हासिल करने का डॉ. आंबेडकर का यह संघर्ष था। “सवर्णों के अत्याचार को समाप्त करने और सामाजिक समता लाने के कामों को वे सर्वाधिक महत्व देते थे।”

“अमानवीय प्रथाओं के पालन को जाति श्रेष्ठता के लिए उपयोग में लाना,धर्म की नीति और अनुदारता का उदाहरण है।’ जाति व्यवस्था के धार्मिक आधार की आलोचना करते हए वे । कहते हैं, “जो वर्णों पर आधारित है, न कि व्यक्तियों पर यह वह व्यवस्था है, जिसमें वर्णों को एक-दूसरे के ऊपर श्रेणीबद्ध किया गया है। यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें वर्णो की प्रतिष्ठा तथा कार्य निर्धारण निश्चित है। हिंदू समाज-व्यवस्था एक कठोर सामाजिक प्रणाली है। इस बात से उसे कोई लेना-देना नहीं कि किसी व्यक्ति के पद और प्रतिष्ठा में अपेक्षाकृत परिवर्तन हो, लेकिन वह जिस वर्ण में पैदा हुआ है, उस वर्ण के सदस्य के रूप में उसकी सामाजिक स्थिति दूसरे वर्ण के दूसरे व्यक्ति के संदर्भ में किसी भी तरह से प्रभावित नहीं होगी। उच्च वर्ण में जन्में और निम्न वर्ण में जन्में व्यक्ति की नियति उसका जन्मजात वर्ण है।” (बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय – खंड-6,) उन्होंने जाति के उद्गम को धर्म आधारित माना है और धर्म के आधार पर जाति व्यवस्था का निर्धारण आर्थिक व्यवस्था को भी निर्धारित करती है। इस प्रकार ‘धरती धन न अपना ‘ के चमारों की सामाजिक स्थिति से जुड़ा हुआ उत्पीड़न और उनके आर्थिक अभाव व दरिद्रता का भी कारण उनके निम्न जाति में पैदा होने का परिणाम है।

सारांश

“धरती धन न अपना” उपन्यास में जगदीश चन्द्र ने पंजाब के दलित जीवन की त्रासदी को चित्रित किया है। जो स्थिति पंजाब में है वही संपूर्ण भारत के दलितों की स्थिति है। इस प्रकार जातिव्यवस्था और उससे जुड़े उत्पीड़न, अभाव, अपमान, वेदना को अभिव्यक्ति देने में यह उपन्यास कई स्तरों पर सफल हुआ है। जातिगत विभाजन के कारण चमादड़ी में बसे चमार न केवल सामाजिक स्तर पर शोषित है बल्कि उससे जुड़े हुए आर्थिक, सांस्कृतिक व धार्मिक शोषण को भी झेल रहे है। इस उपन्यास की शुरूआत काली के गाँव लौट आने से होती है। चमादड़ी की हालत दर्दनाक स्थिति तक पहुँची हुई है। पूरी चमादड़ी में एक घर भी पक्की ईंटों का नहीं है। नंग-धडंग या आधा तन ढकने भर कपड़े पहने बच्चे, पसीने की गंध से गंधाती। औरते, बात-बात पर गालियाँ निकालती और बच्चों की पीटती माँए। यह यथार्थ चित्रण चमारों के आर्थिक, सामाजिक पिछड़ेपन को हमारे सामने स्पष्ट कर देता है।

चौधरी हरनामसिंह का जीतू को लातों से लहुलुहान होने तक मारना, साथ ही अपमानित करने वाली गालियाँ देना दलित समाज के शोषण और उत्पीड़न को दर्शाता है। चमादड़ी का कोई भी व्यक्ति जीत को बचाने की चेष्टा नहीं कर सकता ना ही चौधरी के इस कार्य की निंदा करता है। चौधरियों द्वारा जाति के अहं की तुष्टि के लिए फैलाएं इस आतंक का कोई भी सामना नहीं करता। क्योंकि आर्थिक रूप से चमार चौधरियों पर ही निर्भर है। चमार या तो बेगार करने वाले बंधुआ मजदूर हैं अथवा दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर। उनकी स्त्रियाँ खेतों में और चौधरियों के घरों में साफ-सफाई का काम करती हैं। बदले में एक-आध रोटी या कुछ सेर दाने मिल जाते हैं। इन्हें काम भी तभी मिल सकता है, जब चौधरी या चौधराईन चाहेगी।

इस प्रकार आर्थिक निर्भरता चमारों को किस हीन दशा तक पहुँचाती है, उनमें इनका विरोध करने की शक्ति या चेतना नहीं जगती। कोई ऊँची आवाज में बोल नहीं सकता। इस प्रकार की चेतना को तुरंत सवर्ण समाज द्वारा कुचल दिया जाता है। गाँव के महाजन, पटवारी, सरपंच और जमीनों के मालिक सभी मिलकर चमारों का शोषण कर रहे हैं। यह कोई अनायास होने वाली घटनाएं नहीं है। यह जातिप्रथा को बनाए रखने और उसके आधार पर निम्न मानी गई जातियों का आर्थिक, सांस्कृतिक व सामाजिक शोषण करने की नीति का हिस्सा है।

अछूत कहे गए चमारों को संपत्ति, सत्ता, शिक्षा व नैसर्गिक संपदाओं पर अधिकार से वंचित किए जाने की यह वास्तविकता है। जिसे मनुस्मृति व पुराणों द्वारा धार्मिक अधिष्ठान देकर तर्कसंगत माना गया है। छुआछूत के कारण चमादड़ी के चमार, बच्चे, बूढ़े, स्त्रियाँ सवर्णों के कुएँ से पानी तक लेने के अधिकारी नहीं। विवश होकर वे बरसाती गंदे और मटमैले पानी से अपनी प्यास बुझाते हैं। धर्म रक्षा की गुहार देने परार्ण चमारों को पानी के बिना तड़पते-मरते देख सकते हैं, लेकिन पानी लेने का अधिकार इस समाज को नहीं दे सकते। धर्म व परंपराओं की अमानवीय रूढ़ियों का पालन करने वाले सवर्ण, दलितों को आर्थिक व सामाजिक अधिकारों से वंचित रखकर अपनी सत्ता को बनाए रखते हैं।

दलित स्त्रियाँ सवर्ण पुरुषों द्वारा यौन शोषण का शिकार होने से अपने को बचा नहीं पाती। एक तो आर्थिक रूप से वे इन्हीं सवर्ण समाज पर निर्भर है। खेतों, खलिहानों, जंगलों व घरों में काम करते वक्त वह सामाजिक रूप से सुरक्षित नहीं। उसके प्रति सवर्ण पुरुषों का रवैया विकृती की स्थिति तक पहुँचता है। उसे केवल भोग की वस्तु समझा जाता है। समाज में । निम्न मानी गई श्रेणी के कारण सुरक्षा के उन सभी कवचों से दलित स्त्री वंचित है। अतः हर समय वह असुरक्षित स्थितियों में ही अपना काम करती है। सवर्ण जातियों के मन में चमारों के प्रति घृणा का भाव कितना गहरा है यह काली के पक्का मकान बनाने के प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है। काली की पक्का मकान बनाने की इच्छा गाँव के चौधरी और अन्य सवर्णों को उनकी सत्ता के गलियारे में एक चमार द्वारा प्रवेश करने जैसी घटना लगने लगती है। जाति अहं के कारण अपनी श्रेष्ठता व वर्चस्व बनाए रखने के लिए बौखलाए हुए विप्र कभी छुआछूत के व्यवहार द्वारा उसे अपमानित करते, तो कभी उसे शारीरिक यंत्रणा देते। ताकि उसके ऊपर उठने की इच्छा को अंकुरित होने से पहले ही कुचला जा सकें। काली का पक्का मकान बनाने के बारे में सोचना ही समाज व्यवस्था के लिए विध्वंसात्मक कार्रवाई है, अतः हर तरह के विरोध का उसे सामना करना पड़ता है।

गांवों में जमीन के किसी भी टुकड़े पर चमारों का (अछूतों) अधिकार नहीं। यहाँ तक कि जहां चमादड़ी बसी है, वह जमीन भी शामलात की है, गाँव की सांझी जमीन है। यह इस देश की वास्तविकता है, जिसे “धरती धन न अपना” के माध्यम से लेखक ने हमारे सामने रखा है। छुआछूत के कारण बार-बार होते अपमान से बचने के लिए नंदसिंह का पहले क्रिश्चियन बनना व बाद में सिख धर्म को अपनाना भी उसे सवर्णों द्वारा हीन भाव से देखने से रोक नहीं सका। नैसर्गिक विपदा की स्थिति में भी चमारों का तिरस्कार ही किया जाता। “चो’ में आई बाढ़ के कारण चमारों का कुँआ बाढ़ के पानी से भर गया और उन्हें पीने के पानी के लिए तरसता चमारों द्वारा बेगारी करने से मना करने पर, गाँव द्वारा उनका सामाजिक बहिष्कार जातिव्यवस्था की कट्टरता, जाति प्रतिष्ठा व अमानवीयता पर प्रकाश डालती है। दलित समाज में चेतना का अभाव व उनकी आपसी फूट उनके जाति संघर्ष को बहुत दिन तक टिकने नहीं देती। चौधरियों के सामने चमारों का झुकना सवर्णों की जीत को ही स्थापित करती है। चमारों के जीवन की यातना न केवल उन पर होते चौधरियों के अत्याचारों के रूप में ही चित्रित हुई है वरन् उनके अपने समाज के दमनकारी ढांचे में ज्ञानो व काली के दुखांत के रूप में भी चित्रित हुई है।

दलित समाज अपने अंतर्विरोधों के बीच जीता है। उसके ये अंतर्विरोध जितने उसके अपने है उतने ही बाहरी दबाव और दमनात्मक सांस्कृतिक ढांचे का भी हिस्सा है। लेखक ने दलितों के आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के कारणों को समग्रता में देखा है। आर्थिक विकास सामाजिक विकास का एकमात्र कारण नहीं बनता। काली की आर्थिक स्थिति घोड़ेवाहा गाँव के अनेक सवर्ण व्यक्तियों से अच्छी होने के बावजूद उसे सवर्णों की तरह सम्मान व आदर नहीं मिल पाता। किसी भी सवर्ण के मन में उसके प्रति समानता का और अपनेपन का भाव नहीं उपजता! हर समय तिरस्कार से दुत्कारा जाना काली को बर्दाश्त नहीं हो पाता, लेकिन उस परिवेश में विद्रोह के लिए उर चेतना का कोई संकेत नजर नहीं आता। कामरेड टहल सिंह की ओर कुछ मय के लिए यह आकर्षित हो जाता है, लेकिन सामाजिक परिवर्तन चाहने वाली विचारधारा भी कठमुल्लापन से ग्रस्त है। केवल किताबी बातों के सहारे क्रांति लाने की उसे चिंता है। प्रतक्ष दलितों को जो सामाजिक और आर्थिक समस्या है, उसे हल किए बिना ही क्रांति के सपने देखे जाते हैं। जैसे क्रांति कोई अमूर्त चीज हो जिसका जीवन से कोई संबंध नहीं है।

जातिगत भेदभाव और अत्याचार के विरोध में दलित संगठित होकर संघर्ष तो करना चाहते हैं लेकिन इसके लिए दिशादर्शी विचारधारा व दर्शन के अभाव में भटक जाते हैं। अपना संघर्ष अधूरा छोड़कर फिर से यथास्थितिवादियों के दबाव में उन्हें समझौता करना पड़ता है। यह पराजय उन्हें कचोटती नहीं क्योंकि दलित चेतना के विकास का नितांत अभाव इस परिवेश में है। काली और ज्ञानों मिलकर इस निराशा को आशा में परिवर्तित करने में असफल हो जाते हैं। “धरती धन न अपना” शीर्षक, उपन्यास की केंद्रीय समस्या व उद्देश्य को काफी हद तक स्पष्ट करने में सफल हुआ है।

उपन्यासकार जगदीशचन्द्र को अपने उद्देश्य में दोनों स्तरों पर सफलता मिली है। वेदना की अभिव्यक्ति भी मर्मस्पर्शी ढंग से हुई है और इस वेदना के सामाजिक-आर्थिक कारणों को भी प्रामाणिकता से व्यक्त किया गया है। लेकिन दलित समाज में परिवर्तन की इच्छा का अभाव और उसके कारणों की चर्चा बहुत प्रभावी रूप से नहीं हो पाई है। शोषण के विरोध में विद्रोह का स्वर तीव्र नहीं है, बल्कि काली का अंधकार में गाँव से पलायन, संपूर्ण दलित समाज में व्याप्त निराशा और गतिशीलता के अभाव को ही अभिव्यक्त करती है।

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