‘चीफ की दावत’ – भीष्म साहनी

यह इकाई भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावत’ कहानी पर आधारित है। प्रस्तुत कहानी में नगरों-महानगरों में रहने वाले मध्यवर्गियों में परिवारिक मूल्यों के प्रति बढ़ती अनास्था और पनप रही अवसरवादिता का यथार्थ चित्रण किया गया है। इस कहानी को पढ़ने के बाद आप :

  • मध्यवर्गीय अवसरवादिता ओर मानवीय मूल्यों के विघटन में मध्यवर्ग की भूमिका पर प्रकाश डाल सकेंगे,
  • मध्यवर्ग में अपने स्वार्थ हेतु बढ़ती झूठी प्रदर्शन प्रियता और आधुनिकता के भोंडे अनुकरण के कारण,
  • अपनों से दूर होते जाने की प्रक्रिया को समझ सकेंगे परिवारिक जीवन मूल्यों के विघटन के लिए जिम्मेदार व्यक्तिगत विकास की स्वार्थ निहित प्रवृत्तियों पर आलोचनात्मक टिप्पणी कर सकेंगे, ‘चीफ की दावत ‘ कहानी की कलात्मक विशेषताएं स्पष्ट कर सकेंगे, . आधुनिक हिंदी कहानिकारों में भीष्म साहनी के विशिष्ट स्थान को रेखांकित कर सकेंगे।

प्रगतिशील कहानीकार के रूप में भीष्म साहनी सर्वपरिचित व्यक्तित्व है। इनके ‘तमस’ उपन्यास पर बने टी.वी. सिरियल ने लगभग एक वर्ष तक लोगों को बांध कर रखा था। भारत-पाकिस्तान के विभाजन से उत्पन्न भयंकर विभीषिका का इसमें यथार्थपूर्ण चित्रण किया गया है। विभाजन से टूटते परिवार, छूटता परिवेश और दर-दर की ठोकरें खाने को विवश स्त्री-पुरुष, बच्चे-बुढ़ों की जीवन त्रासदी का अंकन भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। इनके प्रकाशित कहानी संग्रह ‘पटरियाँ ‘, ‘बां’, ‘भाग्यरेखा’, ‘पहला पाठ’ तथा ‘भटकती राख’ हैं, जिनकी प्रमुख कहानियाँ ‘अमृतसर आ गया’, ‘कटघरे’, ‘चीफ की दावत’, ‘दहलीज’ ‘पटरियाँ’, ‘सिर का सदका’, ‘सफर’ आदि है। इनकी कहानियों में वर्गगत भेदभाव, आर्थिक जटिलताओं के साथ-साथ चरित्रों की कुण्ठित मनःस्थिति, अंतर्विरोध और जीवन के कटु अनुभवों की अभिव्यक्ति हुई है। इनकी कहानियों का एक निश्चित उद्देश्य रहता है और वह है, मनुष्य का विषमता के विरोध में किए जा रहे संघर्ष का यथातथ्य वर्णन करना।

भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावत’ कहानी में मध्यवर्गीय समाज उसके परिवेश और मानसिकता को वास्तविकता के साथ अभिव्यक्त किया है। इसी अभिव्यक्ति में इनकी कहानियों में वैयक्तिक चेतना का किंचित पुट लक्षित होता है। इस वर्ग की कुण्ठाओं, घुटन, बिखराव को यथार्थ के धरातल पर रेखांकित किया है। खोखली मर्यादाओं, बाह्य आडम्बरों और आरोपित नैतिकता के प्रति भीष्म साहनी ने व्यंग्यपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया

भीष्म साहनी की कहानियों में यथार्थ के प्रति आग्रह दिखाई देता है, जिसके पीछे विशेष रूप से आदर्श की स्थापना का हेतु है। नगरों-महानगरों के लोग पारिवारिक मूल्यों की खिल्ली उड़ाते नजर आते है। ऐसे में वे यह भूल जाते है कि जीवन कितना खोखला होता जा रहा है। अपने बड़ों के प्रति असंवेदनशील होने से, ममता, दया, करुणा, सहानुभूति जैसे जीवन के मूलभूत तत्व लुप्त होते जा रही है। इसी प्रकार के यथार्थ को प्रस्तुत कहानी में चित्रित किया है। प्रगतिशील कहानीकार होते हुए भी भीष्म साहनी की कहानियाँ आक्रोशयुक्त राजनीति की शिकार नहीं हुई है। प्रस्तुत कहानी में मध्यवर्गीय के हृदय की थाह ली गई है। व्यंग्य के पुट द्वारा कहानी मार्मिक बनी है।

मध्यवर्गीय अवसरवादिता और मानवीय मूल्यों का विघटन

भीष्म साहनी एक प्रगतिशील कलाकार हैं, इन्होंने कहानियों के साथ ही उपन्यासों और नाटकों की भी रचना की है।

भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ की दावत’ का मुख्य उद्देश्य मध्यम वर्गीय व्यक्ति की अवसरवादिता, उसकी महत्वाकांक्षा में पारिवारिक रिश्ते के विघटन को उजागर करना है। मध्यवर्ग के व्यक्ति की यह सामान्य विशेषता है कि वह उच्च वर्ग में शामिल होने के अवसरों की तलाश में रहता है, चाहे वह स्वयं निम्नवर्ग से मध्यवर्ग में पहुँचा हो। . औद्योगीकरण के विकास के साथ भारत में मध्यवर्ग का तेजी से विकास हुआ। शिक्षा प्राप्त कर अच्छी नौकरी पाकर या आजीविका का अन्य साधन पाकर निम्नवर्ग का व्यक्ति मध्यवर्ग में पहुँच कर उच्चवर्ग की संस्तुति के लिए उच्चवर्ग के मुँह की ओर ताकने लगा।

इस कहानी का नायक श्यामनाथ दफ्तर की नौकरी पाकर उच्च पद पाने की महत्वाकांक्षा रखने लगा और उस की पूर्ति के लिए अपने दफ्तर के विदेशी चीफ की खुशामद में लग गया। चीफ की दावत का प्रबन्ध अपने घर में करके वह अपनी बूढी माँ की उपेक्षा करता है। महत्वकांक्षा की पूर्ति के लिए माँ के साथ उस का खून का रिश्ता भी गौण हो जाता है।

आधुनिक परिवारों में बूढों की किस प्रकार उपेक्षा होती है और उन की क्या दुर्दशा होती है, यह दिखाना भी इस कहानी का उद्देश्य है।आधुनिक दिखने की चाह में मध्यवर्गीय व्यक्ति प्रदर्शन प्रिय हो गया और बूढ़ी माँ चीफ की दावत के समय प्रदर्शन योग्य वस्तु नहीं, बल्कि कूड़े की तरह कही छिपाने की वस्तु हो गई है। इस झूठी प्रदर्शन प्रियता और छद्म आधुनिकता की कलात्मक व्यंजना इस कहानी में हुई है।

समग्रतः ‘चीफ की दावत’ पारिवारिक जीवन मूल्यों के विघटन को स्पष्ट करने के उद्देश्य को लेकर लिखी गई कहानी है। लेकिन माँ की ममता और उसके महत्व की स्थापना के माध्यम से लेखक ने माँ के रूप तथा स्वस्थ पुरानी परम्परा को वरेण्य सिद्ध किया है। श्यामनाथ जिस माँ को उपेक्षित होने लायक वस्तु मान रहे है, उसी के माध्यम से उसकी पदोन्नति होती है।

चीफ की दावत कहानी के घटनाक्रम के विकास के आधार पर इसे दो भागों में बाँट कर विश्लेषित किया जा सकता है। यह कृत्रिम विभाजन है, पर अध्ययन की सुविधा के लिए यह विभाजन किया गया है।

पहले भाग में चीफ की दावत के लिए की जा रही तैयारी के दृश्य हैं। श्यामनाथ और उस की पत्नी घर की सजावट, विशेषतः ड्राइंग रूम की सजावट, के लिए विशेष चिन्तित हैं। आधुनिक दिखने के लिए और उच्चवर्ग के विदेशी चीफ की नजरों में सुंसस्कृत दिखने के लिए यह प्रदर्शनप्रियता उनके लिए आवश्यक हो गई है।

घर को सजाना सामान्यतः सुरुचि का परिचायक है। हर कोई अपने घर को, बैठक को अच्छी दशा में देखना चाहता है। यह सुरुचि सम्पन्नता मानव का विशेष गुण है। बल्कि कहा जा सकता है कि इस आदिम सुरुचि से पशु जगत भी खाली नहीं है! तभी तो कुत्ता जहाँ बैठता है, उस जगह को अपनी पूंछ से साफ कर लेता है। कहानी के प्रारम्भ में ही श्यामनाथ की सुसंस्कृति सम्पन्नता की प्रवृत्ति हास्यास्पद प्रतीत होने लगती है। सुसंस्कृत और सुरुचि सम्पन्न होना एक बात है, पर वैसा दिखना दूसरी बात है, अर्थात प्रदर्शन प्रियता है। प्रायः ऐसा होता है कि व्यक्ति में जिस गुण या चीज का अभाव होता है या उसकी कमी होती है, उसका ही वह प्रदर्शन करता है।

श्यामनाथ और उस की पत्नी की यह तथाकथित रुचि सम्पन्नता और सांस्कृतिकबोध वहाँ अपने असली रुप में दिखाई देता है, जहाँ श्यामनाथ की बूढी माँ उन दोनों के लिए कूड़े की तरह छिपाने की वस्तु बन जाती है। जब कूडे और माँ में कोई अन्तर नहीं रहता, तब वहाँ सुरुचि सम्पन्नता और आधुनिकता बोध नहीं, व्यक्ति की फूहड़ता और टुच्चापन प्रकट होता है। कहानी के इस भाग में कहानीकार ने श्यामनाथ के छद्म आधुनिकता बोध, संस्कृति के नाम पर उसकी प्रदर्शन प्रियता की प्रवृति को स्वाभाविक तथा कलात्मक ढंग से प्रस्तुत कर दिया है।

कथाक्रम में आगे दिखाया गया कि जब श्यामनाथ को लगा कि घर में माँ को छिपाया नहीं जा सकता और उसे पडोस की विधवा के घर भेजने से भी उसकी नाक कट जाएगी, तब उसे यह चिन्ता सताने लगी कि चीफ के आने पर माँ कहाँ बैठगी, कैसे – बैठेगी, कौन से कपड़े पहनेगी और कौन सा जेवर पहनेगी। दूसरे शब्दों में उसकी चिन्ता यह थी कि प्रदर्शन के अयोग्य माँ को प्रदर्शन की वस्तु (show piece) कैसे बनाया जाए। इस बारे में माँ के साथ उसके संवाद बड़े रोचक और अर्थगर्भित है।

“और माँ हम लोग पहले बैठक में बैठेंगे। उतनी देर तुम वहाँ बरामदे में बैठना। फिर जब हम वहाँ आ जाएँ, तो तुम गुसलखाने के रास्ते बैठक में चली जाना।” माँ अवाक् बेटे का चेहेरा देखने लगी। फिर धीरे से बोली – “अच्छा, बेटा।’ (एक दुनिया समानान्तर – पृ. 224)

माँ कहाँ बैठेगी, इस बारे में निर्देश देकर श्यामनाथ ने एक समस्या का समाधान तो कर लिया। दूसरी चिन्ता को श्यामनाथ ने कैसे दूर करने की कोशिश की, यह इस उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है

एक कुर्सी को उठा कर बरामदे में कोठरी के बाहर रखते हुए बोले – “आओ माँ, इस पर जरा बैठो तो।”

माँ माला सँभालती, पल्ला ठीक करती हुई उठी, और धीरे से कुर्सी पर आकर बैठ गई।

“यूँ नहीं, माँ, टाँगे ऊपर चढ़ाकर नहीं बैठते। यह खाट नहीं है। माँ ने टाँगें नीचे उतार लीं।” (एक दुनिया समानान्तर – पृ. 224)

तात्पर्य यह कि श्यामनाथ अपनी माँ को उचित स्थान पर उचित ढंग से उसी प्रकार रखने के लिए व्यग्र दिखाया गया है, जैसे वह घर के सामान को सजाने के लिए प्रयत्नशील था। कहानी के इस भाग में श्यामनाथ अपनी माँ को यह निर्देश भी देता है कि वह कैसी साड़ी पहने। वह माँ को कुर्सी पर बैठ कर सोने की मनाही भी कर जाता है, क्योंकि सोते समय माँ जोर के खर्राटे लेती है, जिस से चीफ की दावत में बाधा पड़ सकती है। माँ का उत्तर बड़ा करुण है

“क्या करूँ बेटा, मेरे बस की बात नहीं है। जब से बीमारी से उठी हूँ नाक से सांस नहीं ले सकती।” (वही – पृ. 224)

श्यामनाथ की एक समस्या यह भी है कि वह अपनी सम्पन्नता का प्रदर्शन कैसे करे| घर के कोने-कोने को सजा कर और विशेष रुप से बैठक को सजा कर वह अपनी सुरुचि के साथ अपनी सम्पन्नता और समृद्धि का प्रदर्शन कर के चीफ के ऊपर अपनी धाक जमाना चाहता है। इस इच्छा से प्रेरित होकर वह माँ को निर्देश देता है कि वह सफेद कमीज और सफेद सलवार पहन ले। माँ नये कपड़े पहन कर आई तो उस से श्यामनाथ का जो संवाद हुआ, वह उस की शूद्र मानसिकता का परिचायक है।

“चलो ठीक है। कोई चूड़ियाँ-बूड़ियाँ हों तो वह भी पहन लो। कोई हर्ज नहीं।”

“चूड़ियाँ कहाँ से लाऊँ बेटा, तुम तो जानते हो, सब जेवर तुम्हारी पढ़ाई में बिक गए।”

यह वाक्य श्यामनाथ को तीर की तरह लगा। तुनक कर बोले “यह कौन सा राग छेड़ दिया माँ, सीधा कह दो, नहीं है जेवर, बस। इसमें पढ़ाई-वढ़ाई का क्या ताल्लुक है?”

ऊपर के संवाद से स्पष्ट हो जाता है कि उस की पढ़ाई में माँ ने जेवर बेचकर जो त्याग और वात्सल्य का प्रमाण दिया था, उस के उल्लेख मात्र से वह खिन्न हो गया। उसकी खिन्नता से लगता है कि वह अपने ऊपर किए गए माँ के एहसान को स्वीकार नहीं करता और अपनी माँ के वात्सल्य का अपमान इन शब्दों में करता ‘जितना दिया था उस से दुगना ले लेना।’ क्योंकि माँ की ममता के मूल्य को कभी चुकाया जा सकता है? पर इस कहानी का श्यामनाथ माँ के एहसान को ना ही मानता, बल्कि उस के वात्सल्य का अपमान भी करता है। माँ ने अपनी विपन्नता का केवल संकेत किया था, क्योंकि उसके पास कोई जेवर नहीं बचा था, पर अपनी समृद्धि के प्रदर्शन के नशे में मस्त श्यामनाथ माँ की विपन्नता के उल्लेख मात्र से तिलमिला गया। यह उसकी प्रदर्शनप्रियता के साथ उसकी शूद्रता का सूचक है। इस प्रकार ‘चीफ की दावत’ कहानी के प्रथम भाग में मध्यवर्गीय व्यक्ति के अवसरवादी चरित्र का उद्घाटन हो जाता है। श्यामनाथ के माध्यम से कहानीकार ने पारिवारिक जीवन मूल्यों के विघटन, और . परिवार में बूढ़ों की दुर्दशा का चित्रण किया है। श्यामनाथ के घर में बूढ़ी माँ की जो दुर्दशा है, वह अनेक परिवारों में बूढ़ों की होगी।

आधुनिकता, सुसंस्कृति का पाखंड और अवसरवादिता

‘चीफ की दावत’ कहानी के दूसरे भाग में दावत के समय की स्थितियों, श्यामनाथ और उसकी पत्नी के खुशामदपूर्ण व्यवहार, चीफ के सामने पड़ने पर माँ की विचित्र स्थिति आदि का वर्णन है। दावत के समय भोजन से पहले शराब का दौर रात के लगभग साढ़े दस बजे तक चला। यह पश्चिमी सभ्यता का सूचक है। इस कहानी का चीफ तो विदेशी है, पर अतिथियों में अन्य कई हिन्दुस्तानी हैं। पर सब पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगे दिखाए गए हैं। दावत में उपस्थित सभी पुरुष और महिलाएँ बेहिचक शराब पीती हैं और वह भी कई घंटों तक। चीफ की पत्नी हिन्दुस्तानी औरतों की दृष्टि का केन्द्र बनी हुई है। शराब के नशे के बीच खुशामद, हँसी, कहकहों की लहरें उठती गई, पर श्यामनाथ की माँ बरामदे में कुर्सी पर बैठी रही और थक कर सो गई तो खर्राटों की आवाज आने लगी।

कहानी के इस भाग में माँ की विचित्र स्थिति, और उसकी विवशता को बड़ी कुशलता से दिखाया गया है। बरामदे में कुर्सी पर बैठी, सोती हुई और खर्राटे लेती हुई माँ आखिर चीफ और अतिथियों के सामने पड़ ही गई। वही स्थिति सामने आ गई, जिसे श्यामनाथ टालना चाहता था। माँ हड़बड़ा कर उठी। श्यामनाथ ने चीफ द्वारा माँ को नमस्ते कहने के जवाब में माँ को हाथ मिलाने का आदेश दिया। माँ ने अपना बायाँ हाथ आगे कर दिया तो सब कहकहे लगाने लगे। हाथ मिला कर अभिवादन करना पश्चिमी ढंग है. पर माँ को इसके लिए विवश किया गया। पर ऐसा करते हए वह सब के उपहास का पात्र बन गई। श्यामनाथ इतने पर संतुष्ट नहीं हुआ। चीफ ने माँ से पूछा “How do you do?” तो श्यामनाथ ने अनपढ़ माँ से अंग्रेजी शब्दों को दुहराने का आदेश दिया। पर जब माँ “हौ डू डू’ ही कह सकी तो फिर कहकहे की आवाज गूंज उठी। माँ बेटे के आदेश का पालन करने और सब के उपहास के केन्द्र बनने के लिए विवश थी। माँ की विवशता के कई करुण चित्र कहानी के इस भाग में देखे जा सकते हैं।

श्यामनाथ चीफ की खुशामद में इतना सक्रिय है कि उसे खुश करने के प्रयत्न में वह अपनी माँ का उपयोग करना आवश्यक मानता है। चीफ की इच्छा जान कर वह माँ से गाने की फरमाइश भी कर बैठा। यहाँ भी माँ की विवशता बड़ी करुण हो उठी। मना करते करते भी उसे पंजाबी लोकगीत गाना पड़ा और उसके गाने पर भी हँसी और कहकहों के स्वर तेज हो गए। उस दृश्य को कहानीकार ने यो प्रस्तुत किया है “बरामदा तालियों से गूंज उठा। साहब तालियाँ पीटना बन्द ही न करते थे। श्यामनाथ की खीज प्रसन्नता और गर्व में बदल उठी थी। माँ ने पार्टी में नया रंग भर दिया था।” (एक दुनिया समानान्तर – पृ. 228)

माँ की विवशता श्यामनाथ के लिए ‘प्रसन्नता और गर्व’ का कारण थी। यह प्रसन्नता कितनी झूठी है और गर्व कितना खोखला है, कहानी के पिछले भाग पर ध्यान देने से स्पष्ट हो जाता है, जहाँ श्यामनाथ की मुख्य चिन्ता यह थी कि माँ को चीफ की नजरों से कैसे दूर रखा जाए और उसे घर के कूड़े की तरह कहाँ छिपाया जाए।

कहानी के दूसरे भाग में एक और प्रसंग है, जिससे स्थिति का विद्रूप और स्पष्ट हो जाता है। चीफ के सामने फुलकारी का उल्लेख हुआ तो श्यामनाथ ने माँ को फुलकारी दिखाने का आदेश दे डाला। वह बिचारी अपनी पुरानी फटी फुलकारी ले आई। माँ की विपन्नता का हाल फटी हुई फुलकारी बता रही थी। इस स्थिति को कहानीकार ने यों प्रस्तुत किया

.“साहब बड़ी रुचि से फुलकारी देखने लगे। पुरानी फुलकारी थी, जगह जगह से उसके तागे टूट रहे थे और कपड़ा फटने लगा था। साहब की रुचि देखकर श्यामनाथ बोले – ‘यह फटी हुई है, साहब, मैं आपको नयी बनवा दूंगा। माँ बना देंगी। क्यों माँ, साहब को फुलकारी बहुत पसन्द है, इन्हें ऐसी ही एक फुलकारी बना दोगी न?”

माँ चुप रही। फिर डरते-डरते धीरे से बोली “अब मेरी नजर कहाँ है, बेटा! बूढ़ी आँखें क्या देखेंगी।”

मगर माँ का वाक्य बीच में ही तोड़ते हुए श्यामनाथ साहब से बोले “वह जरूर बना देंगी। आप उसे देख कर खुश होंगे।” (वही पृ. 228)

ऊपर के उद्धरण से स्पष्ट है कि श्यामनाथ माँ को नई फुलकारी लाकर नहीं दे सका, पर साहब के लिए वह नई फुलकारी बनवाने के लिए चिन्तित है। साहब को फुलकारी पसन्द है, यह बात उसके लिए अधिक महत्वपूर्ण है। माँ की नजर कमजोर है और नई फुलकारी बनाने के योग्य नहीं, यह बात उपेक्षणीय है। इसलिए माँ की असमर्थता और उसकी मनाही की उपेक्षा करके वह उसे साहब के लिए नई फुलकारी बनाने का आदेश देता है, क्योंकि साहब ‘उसे देखकर खुश होंगे।’ माँ की असमर्थता और विवशता के बावजूद श्यामनाथ को साहब की खुशी चाहिए। साहब खुश होंगे तो उसकी तरक्की होगी।

‘चीफ की दावत’ कहानी का अन्त बड़ा करुण और स्वाभाविक है। दावत के अंत में कहानीकार ने माँ की दयनीय अवस्था का जो चित्र खींचा है, वह बड़ा करुण तथा मार्मिक है। दावत के बाद माँ अपनी कोठरी में चली गई ओर अश्रु की नदी में डूब गई। आधी रात के बाद बेटे ने कोठरी का दरवाजा खटकाया तो माँ का दिल बैठ गया। वह अनेक आशंकाओं से भर उठी। वह सोचने लगी कि उस से फिर कोई भूल हो गई, जिसके लिए उसके बेटे ने उसे क्षमा नहीं किया। इस से अनुमान लगाया जा सकता है कि बूढ़ी माँ बेटे के घर में घुट-घुट कर जी रही थी। इस घुटन भरे वातावरण से मुक्ति पाने के लिए उसने बेटे के सामने प्रस्ताव रखा कि उसे हरिद्वार भेज दे, जिसे श्यामनाथ ने अपनी बदनामी के डर से स्वीकार नहीं किया। फिर उसने दूसरी चिन्ता यह प्रकट की-

‘तुम चली जाओगी तो फुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है।’

“मेरी आँखें नहीं हैं, बेटा, जो फुलकारी बना सकूँ। तुम कहीं और से बनवा लो। बनी बनाई ले लो।”“माँ, तुम मुझे धोखा देकर यूँ चली जाओगी? मेरा बनता काम बिगाड़ोगी? जानती नहीं, साहब खुश होगा तो मुझे तरक्की मिलेगी। (वही, पृ. 229)

बेटे की तरक्की की आशा देख कर माँ ने फुलकारी बनाने का वादा कर लिया। बेटे को माँ की लाचारी का ध्यान नहीं आया, पर माँ बेटे की तरक्की की आशा देखकर अपनी लाचारी भूल गई और फुलकारी बनाने को तैयार हो गई। पुत्र के दुर्व्यवहार के बाद भी माँ बेटे की तरक्की की आशा मात्र से अपना दुख भूल गई।

श्यामनाथ की माँ वात्सल्य की प्रतिमा के रूप में चित्रित हुई है और श्यामनाथ मध्यवर्ग के एक दुनियादार, महत्वाकांक्षी, खुशामदी, प्रदर्शन-प्रिय, अवसरवादी व्यक्ति के रूप में ही दिखाया गया है। कहानीकार ने उसे ‘मिस्टर शामनाथ’ के रूप में प्रस्तुत किया है। यहाँ ‘मिस्टर’ शब्द मनमाने ढंग से ‘श्री’ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त नहीं हुआ है, बल्कि पश्चिमी सभ्यता के रंग में डूबे उसके आधुनिक चरित्र का सूचक है।

कहानी का निहित उद्देश्य

चीफ की दावत कहानी नयी कहानी के दौर की एक विशिष्ट कहानी है। इसमें भी मध्यवर्गीय मानसिकता और पारिवारिक संबंध बड़ी कुशलता से समाविष्ट हुए हैं। लेकिन भीष्म साहनी, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर आदि भाववादी-व्यक्तिवादी कहानीकारों से भिन्न यथार्थवादी प्रगतिवादी कहानीकार हैं। इन्होंने स्वस्थ परम्परा और पारिवारिक संबंधों के महत्व को स्वीकार किया है। अन्य नए कहानीकार जहाँ माँ-बाप और सगे संबंधियों को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, वहाँ भीष्म साहनी ने संबंधों के महत्व को स्वीकार किया है। अतः इस कहानी में लेखक ने माँ को पुरानी परंपरा का . एक प्रतीक भी माना है।

पार्टी के दौरान श्यामनाथ की महत्वाकांक्षा पर पानी फिर चुका था, क्योंकि पदोन्नति के संबंध में कोई बात नहीं हो पाई थी। माँ की वजह से श्यामनाथ का चीफ के साथ एक पारिवारिक रिश्ता कायम होता है, जिससे चीफ फिर घर पर आने और फुलकारी ले जाने का वादा करता है। इस तरह माँ रूपी परंपरा के कारण ही श्यामनाथ को पदोन्नति की आशा बंधती है और उसके साथ हार्दिक रूप से जुड़ पाता है। इन सभी तथ्यों को भीष्म साहनी ने माँ के माध्यम से अत्यंत बारीकी से संकेतित कर दिया है। गंदे कूड़े की तरह छिपाने की वस्तु बनने वाली माँ श्यामनाथ के लिए पदोन्नति का सार्थक दरवाजा बनकर प्रतिष्ठित हुई है। इस प्रकार भीष्म साहनी ने मध्यवर्गीय यथार्थ के टुच्चेपन पर एक प्रगतिशील परिप्रेक्ष्य अपनाया है। माँ के रूप में पुरानी किंतु स्वस्थ परंपरा त्याज्य नहीं, वरन् वरेण्य बनकर प्रस्तुत हुई है।

कहानी का कलात्मक पक्ष

यह कहानी यथार्थवादी शिल्प में लिखी गई है। इस प्रकार यह यथार्थवादी कहानी कही जा सकती है। मध्यवर्गीय परिवार की यथार्थ स्थिति का इसमें अंकन है। यथार्थ स्थिति के कई पक्ष इस में उद्घाटित हुए हैं, जैसे मध्यवर्गीय व्यक्ति की अवसरवादिता, आधुनिकता का आडम्बर, प्रदर्शन प्रियता, पारिवारिक रिश्तों के प्रति उपेक्षा श्यामनाथ के  व्यवहारों से प्रकट हुई है। साथ ही मध्यवर्गीय व्यक्ति की मानसिकता उसके व्यवहारों, शब्दों के माध्यम से भी व्यक्त हुई है, जिससे यथार्थ चित्रण में मनोवैज्ञानिकता का समावेश भी हो गया है। कहा जा सकता है कि कहानी में यथार्थ का चित्रण मनोविज्ञान के आलोक में किया गया है।

भीष्म साहनी यथार्थवाद का जो अर्थ लेते हैं, उस पर ध्यान दें तो यथार्थवादी शिल्प पर भी प्रकाश पड़ेगा। ‘हिन्दी कहानी संग्रह (प्रकाशक – साहित्य अकादमी, दिल्ली, पृ. 14, तृतीय संस्करण सन् 1994) की भूमिका में भीष्म साहनी ने यथार्थवाद के बारे में लिखा ‘किसी घटना का यथावत् चित्रण ही यथार्थ नहीं कहलाता, उसकी तह में काम करने वाले तत्वों और अन्तर्विरोधों की पकड़ रचना को यथार्थवादी बनाती है।

प्रस्तुत कहानी में चित्रित श्यामनाथ और उसकी पत्नी के व्यवहारों के पीछे छिपे स्वार्थों, और अन्तर्विरोधों को लेखक ने कुशलता से सूचित किया है। विभिन्न पात्रों के संवादों में उनकी मनःस्थितियाँ ध्वनित हो जाती हैं। उपेक्षित माँ की घुटन उसके संक्षिप्त संवादों और विभिन्न क्रियाकलापों से स्पष्ट हो जाती है। समग्रतः कहा जा सकता है कि जीवन के यथार्थ और पात्रों के मनोविज्ञान का कुशल समन्वय इस कहानी में हुआ है। ‘चीफ की दावत’ कहानी में शहरी व्यक्ति की बोलचाल की भाषा प्रयुक्त हुई है, जिसमें संस्कृत शब्दों के बजाए उर्दू शब्दों, तद्भव शब्दों के प्रति लेखक की अधिक रूचि प्रकट होती है।

भीष्म साहनी मिली जुली भाषा के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं। भाषा के बारे में उनका दृष्टिकोण शुद्धतावादी नहीं है। भाव स्थितियों के मूर्तीकरण के लिए उन्हें जिस किसी स्रोत से शब्द मिले वे ले लेते हैं। इस कहानी में आधुनिकता के सूचक कुछ अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी हुआ है, जैसे ड्रैसिंग गाउन, पाउडर, मिस्टर, नैपकिन, ड्रिंक, डिनर, चीफ, साइज़ आदि। श्यामनाथ संज्ञा के पहले कहानीकार ने ‘मिस्टर’ शब्द जानबूझ कर लगाया है, जो श्यामनाथ के व्यक्तित्व के अंग्रेजीकरण का सूचक है। कहानीकार ने श्यामनाथ को कई जगह “मिस्टर श्यामनाथ’ लिखा है। फिर मुख्य अतिथि के लिए भी ‘चीफं’ शब्द का प्रयोग किया है।

कहानी का शीर्षक ‘चीफ की दावत’ कहानी की मुख्य कथा वस्तु, उसके मुख्य घटना स्थल, और उसकी मुख्य संवेदना के अनुकूल है। ‘चीफ’ कोई भी हो सकता है, इसलिए उसका नाम नहीं बताया गया, पर प्रत्येक ‘ चीफ’ को खुश करने के लिए उसे दावत देना जरूरी है। आधुनिक संस्कृति दिखावे की संस्कृति है, पर इस संस्कृति में माँ के लिए कोई स्थान नहीं है। इसीलिए दावत के समय माँ को कूड़े की तरह छिपाने की आवश्यकता महसूस होती है।

कहानी का शीर्षक कहानीकार की भाषागत रुचि की ओर भी संकेत करता है। शीर्षक कहानी से अलग नहीं होता। उसे उसका आवश्यक भाग ही मानना चाहिए। इसलिए प्रत्येक कहानी का कोई सधा हुआ शीर्षक होता है। यह शीर्षक भी सधा हुआ और सोच-समयकर बनाया गया है।

सारांश

प्रस्तुत कहानी के प्रथम भाग में ‘चीफ की दावत’ के लिए की जा रही तैयारी का वर्णन है। इसमें श्यामनाथ और उसकी पत्नी लगी है। उन्हें विदेशी चीफ की नजरों में आधुनिक तथा सुसंस्कृत दिखने की अधिक चिंता है। इस चिंता के कारण से सामान्यतः पूरे घर की सजावट और विशेषतः ड्राइंग रूम की सजावट पर विशेष ध्यान देते हैं। प्रत्यक वस्तु को उसके उचित स्थान पर रखने और घर के कूड़े को कहीं छिपाने के लिए दोनों प्रयत्नशील है। वह ड्राइंगरूम को एक प्रदर्शनी बनाना चाहते हैं।

आधुनिकता और संस्कृति के प्रदर्शन की तैयारी में एक बाधा तब उपस्थित हो गई जब श्यामनाथ का ध्यान अपनी बूढ़ी माँ की ओर गया, जो उसकी नजरों में प्रदर्शन के योग्य नहीं है और इसलिए वह चीफ से मिलाने के योग्य नहीं है। तब बूढी माँ उसके लिए एक फालतु सामान या कूड़े में रुपांतरित हो जाती है। कूड़ा और उसकी माँ में कोई अंतर नहीं रहता। श्यामनाथ अपनी माँ से दुर्व्यवहार करता है। इससे उसके सुसंस्कृत होने का पता नहीं चलता, बल्कि उसका टुच्चापन, उसकी अवसरवादिता और शूद्रता ही उजागर होती है।

कहानी में शुरू में यह भी दिखाया गया है कि जब श्यामनाथ का ध्यान अपनी माँ की ओर गया और उसे लगा कि उसे चीफ की नज़रों से ओझल नहीं किया जा सकता तो उसने माँ को प्रदर्शन योग्य बनाने का निश्चय कर लिया। पहले माँ को छिपाने की चिन्ता सता रही थी, अब वह माँ को प्रदर्शन की वस्तु बनाने में लग गया। उसने माँ को बताया कि कैसे कुर्सी पर बैठा जाए और वह कैसे कपड़े पहने। जैसे उसने ड्राइंग रूप और बरामदे में प्रत्येक वस्तु को उचित स्थान पर उचित ढंग से सजा दिया था, वैसे माँ को भी सजावट के सामान की तरह उचित स्थान पर उचित ढंग से बिठाने की कोशिश करने लगा। जब चीफ और अन्य अतिथि ड्राइंग रूम में हों तो माँ के लिए उचित स्थान बरामदे में कुर्सी निर्धारित की गई और उसे यह भी बता दिया गया कि वह कुर्सी पर पाँव लटका कर बैठे और सोये नहीं, क्योंकि सोने पर उसके खर्राटे दावत में बाधा डाल सकते हैं।

श्यामनाथ की एक चारित्रिक विशेषता अपनी झूठी सम्पन्नता के प्रदर्शन की भी है। आधुनिकता और सुसंस्कृति के प्रदर्शन की तरह वह अपनी समृद्धि का भी प्रदर्शन करना चाहता है। तभी उसने माँ से पूछा कि सोने की चूड़ियाँ कहाँ हैं और वह उन्हें पहन ले, ताकि अतिथियों को पता लग जाए कि उसकी बूढ़ी माँ हाथों में सोने की चूड़ियाँ पहने है। माँ द्वारा यह सूचना पाकर कि सारे जेवर उसकी पढ़ाई में बिक गए, श्यामनाथ तिलमिला जाता है। उसकी तीखी प्रतिक्रिया से माँ के प्रति अवमानना, कृतघ्नता तथा उसकी शुद्रता का पता चलता है। वह माँ की ममता का मूल्य चुकाने की बात कह कर उसके वात्सल्य का भी अपमान करता है।

यहाँ मध्यवर्गीय व्यक्ति की प्रदर्शन प्रियता, आधुनिकता और सुसंस्कृति का पाखंड, पारिवारिक जीवन मूल्यों का विघटन, बूढ़ों की दुर्दशा आदि समस्याएँ श्यामनाथ के क्रियाकलापों के माध्यम से सफलतापूर्वक उद्घाटित हो जाती हैं।

कहानी के दूसरे भाग में चीफ की दावत के समय के वातावरण का कुशल अंकन है। भोजन से पहले शराब का लम्बा दौर रात के साढ़े दस बजे तक चला। श्यामनाथ और उसकी पत्नी का खुशामदपूर्ण व्यवहार परिस्थिति के अनुकूल है। दावत में विदेशी अफसर सब की दृष्टियों का केंद्र है और उसकी पत्नी सब महिला अतिथियों की आँखों की पुतली बनी हुई है। दावत में सभी स्त्री पुरुष शराब पीते हुए दिखाए गए हैं। यह पश्चिमी सभ्यता का सूचक है।

इस रंगीन वातावरण से अलग श्यामनाथ की बूढ़ी माँ बरामदे में कुर्सी पर बैठी-बैठी थक कर सो गई और खर्राटों की आवाज वातावरण में गूंजने लगी। कहानी के इस भाग में माँ की विचित्र स्थिति और उसकी विवशता का कुशल वर्णन है।

मदिरापान के लम्बे सत्र की समाप्ति के बाद चीफ और अन्य अतिथि भोजन के लिए बरामदे में आए तो चीफ के सामने खर्राटे लेती माँ पड़ गई। श्यामनाथ ने माँ को चीफ का स्वागत करने के लिए कहा तो माँ ने हाथ जोड़ दिए, पर चीफ ने अपना हाथ बढ़ाया तो माँ को आदेश मिला कि वह साहब से हाथ मिलाए। उसने बायाँ हाथ आगे कर दिया, पर सबके उपहास और कहकहों का केन्द्र बन गई। चीफ द्वारा ‘how do you do’ कहने पर श्यामनाथ ने अनपढ़ माँ को अंग्रेजी शब्दों को दोहराने के लिए विवश किया और उससे जब ‘हौ ड्रडू’ कहते नहीं बना तो वह फिर सब के उपहास का पात्र बन गई। माँ की विवशता के कई करुण चित्र इस कहानी में बिखरे पड़े हैं।

चीफ की इच्छा जान कर श्यामनाथ अपनी माँ से गाने की फरमाइश कर बैठा। मना । करते करते भी उसे एक पंजाबी लोक गीत की कुछ पंक्तियाँ गानी पड़ी। यह श्यामनाथ के लिए प्रसन्नता और गर्व की बात थी, क्योंकि माँ ने पार्टी में नया रंग भर दिया था।

कहानी के उस मोड़ पर बूढ़ी माँ की स्थिति तब और भी निरीह हो गई जब उसके बेटे ने आदेश दिया कि चीफ को अपनी फुलकारी दिखा दे। उसने पुरानी फटी हुई फुलकारी आगे कर दी। साहब ने फुलकारी में थोड़ी रुचि दिखाई तो श्यामनाथ ने तुरंत वादा कर लिया कि उसकी माँ उसके लिए नई फुलकारी बना देगी। उसकी सबसे बड़ी चिन्ता साहब को खुश करने की थी। साहब की खुशी पर उस ने अपनी बूढी लाचार माँ की विवशता ओर कमजोर आँखों को न्योछावर कर दिया। माँ की असमर्थता के बावजूद उसे साहब की खुशी चाहिए। मध्यवर्गीय परिवार का आधुनिक व्यक्ति अपने बुजुर्गो की कितनी उपेक्षा करता है, वह बूढ़ी माँ के प्रति श्यामनाथ के व्यवहार से स्पष्ट है।

दावत के बाद माँ अपनी कोठरी में जा कर आँसुओं की नदी में डूब गई। आशंकाओं के बीच जब उसने कोठरी का दरवाजा खोला तो उसने घुटन भरे वातावरण से मुक्ति पाने के लिए श्यामनाथ से कहा कि वह उसे हरिद्वार छोड़ आए। माँ की घुटन और विषाद को अनदेखा कर श्यामनाथ क्रुद्ध होकर बोला – “तुम चली जाओगी तो फुलकारी कौन बनाएगा?” अपनी तरक्की का सपना दिखा कर उसने माँ को साहब के लिए फुलकारी बनाने के लिए राजी कर लिया। बेटे की कृतघ्नता के आगे माँ का वात्सल्य विजयी हुआ। बेटे की तरक्की की आशा में माँ अपना दुःख भूल गई। कहानी का अंत करुण है, पर माँ की ममता को गौरवान्वित कर जाता है।

प्रश्न

  1. ‘चीफ की दावत’ कहानी में लेखक का मुख्य उद्देश्य क्या है ? उसकी सिद्धि में उसे कितनी सफलता मिली है? ‘
  2. चीफ की दावत’ कहानी मध्यवर्गीय व्यक्ति की मानसिकता का दर्पण है – इस  कथन का विशद विवेचन करें।
  3. ‘चीफ की दावत’ एक यथार्थवादी कहानी है। कैसे?
  4. ‘चीफ की दावत’ की कलात्मक विशेषताएँ स्पष्ट करें।
  5. आधुनिक हिंदी कहानीकारों में भीष्म साहनी का स्थान निर्धारित करें।

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