निबंध : कुटज

हिंदी निबंध परंपरा में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद सबसे महत्वपूर्ण नाम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का ही है। शुक्लजी के निबंधों से भिन्न ललित निबंध की पंरपरा की शुरुआत करने और उसे श्रेष्ठता के शिखर पर पहुँचाने का श्रेय उन्हें ही हैं। इस इकाई में हम द्विवेदीजी के निबंध लेखन की विशेषताओं के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।

द्विवेदीजी का प्रख्यात निबंध कुटज आपके पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। कुटज पहाड़ों पर उगने वाला एक पौधा है। उसके गुण और सौंदर्य का वर्णन करते हुए द्विवेदीजी मानव स्वभाव और मानव जीवन के कई पहलुओं पर सार्थक टिप्पणियाँ करते हैं। इकाई में उक्त निबंध की विषयवस्तु का विवेचन करते हुए उसके प्रतिपाद्य पर भी प्रकाश डाला गया है।

कुटज ललित निबंध है और ललित निबंध की विशेषताओं के संदर्भ में इसकी विशेषताओं को भी पाठ लेखक ने उजागर किया है। ललित निबंध में भाषा और शैली का केंद्रीय महत्व होता है। इस खंड में आपने जो भी निबंध पढ़ें हैं उनसे कुटज की विशिष्टता की ओर आपका ध्यान ज़रूर गया होगा। इस इकाई में आप इस निबंध की भाषा और शैली की विशेषताओं का भी ज्ञान प्राप्त करेंगे।

इस खंड में आप अब तक दो इकाइयाँ पढ़ चुके हैं। प्रातपनारायण मिश्र का निबंध धोखा और रामचंद्र शुक्ल का निबंध लोभ और प्रीति के संबंध में पढ़ी गई इकाइयों से आपको दो भिन्न तरह के निबंध रूपों की जानकारी प्राप्त हुई है। इस इकाई में आप द्विवेदीजी के निबंध कुटज के बारे में पढ़ने जा रहे हैं। कुटज ललित निबंध है। यह शिवालिक पर्वत श्रृंखला पर मिलने वाला अल्प परिचित पौधा है। इसी के बहाने द्विवेदीजी अपनी चिरपरिचित शैली में अपनी बात कहते चलते हैं। पढ़ते हुए आपको पहले तो यह आभास होगा कि वे सिर्फ कुटज की बात कर रहे हैं, लेकिन धीरे-धीरे आपको एहसास होगा कि कुटज तो बहाना है। वे तो मनुष्य के बारे में, उसके जीवन, उसके संघर्ष और उसके भविष्य के बारे में बात कर रहे हैं। बातचीत करने की यह शैली इतनी आत्मीय और हृदयस्पर्शी है कि हम चाहते हुए भी उसके प्रभाव से अछूते नहीं रह पाते।

ललित निबंध में लेखकीय व्यक्तित्व का जो प्रस्फुटन होता है, वैसा प्रस्फुटन किसी अन्य निबंध में नहीं होता। द्विवेदीजी के इस निबंध में उनका पांडित्य, उनकी विशाल हृदयता, उदारता, मानवतावादी दृष्टि, जिंदादिली का आभास मिलता रहता है। यद्यपि इकाई में इस पक्ष पर अलग से विचार नहीं किया गया है, लेकिन निबंध और इकाई को पढ़ते हुए आप उसकी पहचान आसानी से कर लेंगे। ललित निबंध में शैली का सौंदय हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। लेखक की रचनात्मकता का जैसा प्रमाण ललित निबंध में मिलता है, वैसा अन्यत्र नहीं। उसमें इतनी तरह की शैलियाँ और भाषा के ऐसे मनोहारी रूप की छटा दिखाई देती है कि निबंध के रस में पाठक सराबोर हो जाता है। इस निबंध में आप कुटज की भाषा शैली की विशेषताओं का अध्ययन करते हुए इसका प्रमाण प्राप्त करेंगे। इकाई पढ़ने से पूर्व आप निबंध अवश्य पढ़ लें अन्यथा इकाई में कही गई बातों का पूरा मंतव्य स्पष्ट नहीं होगा।

हजारी प्रसाद द्विवेदी और उनका निबंध लेखन

हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य के प्रख्यात रचनाकार और आलोचक हैं। हिंदी जगत् में द्विवेदी जी की प्रतिष्ठा अन्वेषक, इतिहासकार, आलोचक, निबंधकार तथा उपन्यासकार के रूप में है। निबंध-लेखन के क्षेत्र में उनकी विशिष्ट पहचान है। वे निबंध को ‘व्यक्ति की स्वाधीन चिंता की उपज’ मानते हैं। द्विवेदी जी का अध्ययन व्यापक है तथा अध्ययन का यह विस्तार उनके लेखन में सर्वत्र व्याप्त है। निबंध लेखक के रूप में उनके व्यक्तित्व की छाप हर जगह दिखाई देती है। उनकी आत्म व्यंजना के विविध रूप उनके ललित निबंधों का प्राण है। ‘अशोक के फूल’, ‘कल्पलता’, ‘विचार और वितर्क’, ‘विचार प्रवाह’ और ‘कुटज’ द्विवेदीजी के निबंध संग्रह हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी का लेखन सोद्देश्य है। वे साहित्य-मात्र को मनुष्य के संदर्भ में देखते हैं। द्विवेदीजी के अनुसार, ‘साहित्य, वस्तुतः मनुष्य का वह उच्छलित आनंद है जो उसके अंतर में अँटाए नहीं अँट सका था।’ इस आनंद का आधार वे ‘एकत्व की अनुभूति’ को मानते हैं। वे मानते हैं कि मनुष्य की चरम मनुष्यता – एकत्व की अनुभूति – संवेदना, के आधार पर ही संभव है। यही संवेदना ललित कलाओं का प्राण है। द्विवेदीजी मानते हैं कि, मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है। वे समस्त साहित्य में मानवीय चेतना को लक्षित करते हैं। द्विवेदीजी पर रवींद्रनाथ ठाकुर की मान्यताओं का प्रभाव भी पड़ा है। द्विवेदीजी ने अपने साहित्य में जिस मनुष्य की प्रतिष्ठा की है वह सामजिक मनुष्य है।

निबंध को द्विवेदीजी व्यक्ति की स्वाधीन चिंता की उपज मानते हैं। इसे स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं, ‘निबंधों के व्यक्तिगत होने का अर्थ यह नहीं है कि उसमें विचार श्रृंखला न हो। ऐसा होने से तो वे प्रलाप कहे जाएंगे।

द्विवेदीजी के अनुसार, निबंध लेखक विषय के संबंध में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए वैज्ञानिक जैसी तटस्थता का पालन नहीं कर सकता है। वह अपनी ‘निजता’ बनाए रखता है। द्विवेदीजी के निबंधों में वार्तालाप, व्याख्यान, गप्प और स्वगत-चिंतन की विशेषताएँ समाहित हैं पर इन विशेषताओं के अतिरिक्त द्विवेदीजी की मान्यताओं में सामाजिकता, मनुष्य की असीम शक्ति और आस्था का समावेश भी है। उनके निबंधों में मनुष्य के सांस्कृतिक विकास की आकांक्षा है। मनुष्य की जययात्रा के प्रति उन्हें असीम विश्वास है। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य, धर्म, कला एवं संस्कृति का अनुशीलन करते हुए वे बार-बार यह घोषित करते हैं कि यह सब मनुष्य को पूर्ण बनाने के साधन मात्र हैं। वे साहित्य के लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए मानते हैं कि, साहित्य का लक्ष्य, मनुष्यता की सिद्धि, उच्चतम मूल्यों की उपलब्धि और मंगल-विधान है।

द्विवेदी जी के ललित निबंधों में उनके व्यक्तित्व की भंगिमा, उनके मन का उच्छ्वास और उनके भीतर की आर्द्रता व्यक्त हुई है। ‘अशोक के फूल’, ‘कुटज’, ‘बसंत आ गया है’ आदि निबंधों में विषय के साथ-साथ शैली की मोहकता हमें आकर्षित करती है। इस शैली में लालित्य भी है और इसके साथ ही द्विवेदी जी के सहज व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति भी। ऋतुओं, पुष्पों, वृक्षों, पर्यों और स्थानों के पीछे मानव इतिहास छिपा हआ है। इनकी चर्चा द्विवेदी जी बड़े मनोयोग से करते हैं। ‘इनकी चर्चा करते हुए द्विवेदी जी कभी आई चित्त से, कभी उदास होकर, कभी विच्छल मन से, कभी क्षोभ के साथ, अतीत में, इतिहास के खंडहरों में पाठक को साथ लेकर रमने लगते हैं और पाठक कभी उनके ज्ञान से चकित होकर, कभी अतीत में खोकर,कभी उनकी व्याख्याओं और अनुमानों से तुष्ट होता हुआ अद्भुत आनंद का अनुभव करता है। (डा. रामचंद्र तिवारी)। द्विवेदी जी के निबंध विचार और अनुभूति के संगम है। द्विवेदीजी का कथन है कि – ‘मनुष्य थका है, पर रूका नहीं है।’ द्विवेदीजी मनुष्य के गतिशील तत्वों के पारखी हैं। वे मानव-सत्य को प्रतिष्ठित करने वाले साहित्यकार हैं। उनका ज्ञान विस्तृत है। ललित निबंधों में उनके व्यक्तित्व का प्रकाशन पूर्ण रूप से हुआ है।

‘कुटज’ की अंतर्वस्तु

‘कुटज’ ललित निबंध है। इसका केंद्र कुटज नाम का वृक्ष है जो पुष्पों से भरा हुआ होता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के इस निबंध को उनकी आत्माभिव्यक्ति के रूप में अधिक जाना जाता है। कुटज के माध्यम से द्विवेदीजी बहुत से महत्वपूर्ण बिंदुओं की व्यंजना करते चलते हैं। द्विवेदीजी के पास ज्ञान का भंडार है। विशेषतः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और बंगला भाषा, साहित्य पर वे अधिकार-पूर्वक लिखते रहे हैं। वे संस्कृत के तो विद्वान थे ही किंतु उनका वैशिष्ट्य ऐसा कोरा पाण्डित्य नहीं है जो शुष्क होता है। वे साहित्य की सरसता के पारखी हैं और सर्जना के क्षेत्र में वे उसका भरपूर उपयोग करते हैं। कुटज या ‘अशोक के फूल’ अथवा ‘देवदारू’ जैसे वृक्षों को लेकर लिखे गए निबंधों में नीरस पाण्डित्य न होकर द्विवेदीजी के ललित और उन्मुक्त भावों की प्रवाहपूर्ण भाषा में अभिव्यक्ति है। द्विवेदीजी की निजता का प्रकाशन मोहक और ज्ञानवर्धक है। कुटज के नाम, रूप, उत्पत्ति आदि की शास्त्रीय अवधारणाओं के प्रकाशन के साथ वे उसे जीवंत रूप में प्रस्तुत करते हैं और कुटज को एक नया व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। तब कुटज वृक्ष न होकर व्यक्ति-रूप में रूपांतरित होता हुआ प्रतीत होता है। यह रूपांतरण पाठक को जब दृष्टिगत होने लगता है तब वह भाव-विभोर होकर रसमग्न हो जाता है।

प्रारंभ में द्विवेदीजी उस स्थल विशेष को प्रस्तुत करते हैं जहाँ कुटज उगता है, पनपता है और पुष्पित पल्लवित होता है। यह स्थान है शिवालिक-श्रृंखला। हिमालय की निचली पहाड़ियाँ। वे शिवालिक का अर्थ बतलाते हुए लिखते हैं – ‘शिवालिक’ या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा।’ ‘शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है।’ यह पर्वत श्रृंखला शिव के जटाजूट के निचले हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है। आगे ‘हिमालय’ और ‘पर्वत’ के वैशिष्ट्य को प्रस्तुत करते हुए वे कालिदास का स्मरण करते हुए कहते हैं : यथा – ‘पूर्व और अपर समुद्र – महोदधि और आकर – दोनों को दोनों भुजाओं से थाहता हुआ हिमालय ‘पृथ्वी का मानदंड’ कहा जाए तो गलत क्या है।’ हिमालय की शिवालिक श्रृंखला की भूमि का स्वरूप वर्णन करते हुए वे विषय की पृष्ठभूमि बताते हैं। जहाँ कुटज उगता है उस भूमि पर हरियाली नहीं है, दूब तक सूख गई है, काली-काली चट्टानों के बीच थोड़ी-थोड़ी रेती है। यहीं कुटज उगता है।

द्विवेदीजी प्रश्न करते हैं – ‘रस कहाँ है?’ अब कुटज पेड़ का वर्णन देखिए – ये जो ठिगने से लेकिन शानदार दरख्त गर्मी की भयंकर मार खा खा कर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सहकर भी जी रहे हैं, इन्हें क्या कहूँ? सिर्फ जी ही नहीं रहे हैं, हँस भी रहे हैं। फिर द्विवेदीजी दो प्रश्न करते हैं – ‘बेहया हैं क्या? या मस्तमौला?’ प्रश्न का उत्तर पाठकों पर छोड़कर द्विवेदीजी व्यंग भी करते हैं और वस्तु का वैशिष्ट्य भी स्पष्ट करते हैं। यथा – ‘कभी कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफी गहरी पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्वर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।’ अर्थात् कुटज ऊपर से ही बेहया प्रतीत होता है पर उसकी जड़ें गहरी हैं और इस प्रश्न का कि रस कहाँ है : उत्तर है – ‘पाषाण की छाती के बहुत नीचे। इस रस को ये वृक्ष जाने कहां से खींच लाते हैं, यही इनका भोग्य है। कुटज का स्वरूप अद्भुत है। ये वृक्ष इतनी कठिनाई के बीच भी मुस्कराते रहते हैं, ये द्वंद्वातीत हैं, अलमस्त हैं। इन वृक्षों को हम नहीं जानते। न नाम, न कुल, न शील, पर लगता है ये हमें अनादि काल से जानते हैं। द्विवेदीजी इस पहचान के बाद कुटज के नामरूप पर विस्तृत चर्चा करते हुए नाम और रूप की व्याख्या और तुलना करते हैं। बड़ा कौन है? रूप या नाम? द्विवेदीजी सूत्र प्रस्तुत करते हुए कहते हैं ‘नाम इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है ।’ रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज सत्य।’ वे बाद में अपने विषय का विशद विस्तार करते हैं। निबंध का विषय है कुटज किंतु वस्तु विवेचन में उनकी ज्ञान-दृष्टि है। अंततः वे घोषणा करते हैं – ‘संस्कृत साहित्य का बहुत परिचित, किंतु कवियों द्वारा अवमानित, यह छोटा सा शानदार वृक्ष कुटज है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी बहुत बड़े भाषाशास्त्री भी थे, फलतः कुटज शब्द की व्युत्पत्ति का भी वे नाना प्रकार से आकलन करते हैं। गिरिकूट पर उत्पन्न होने के कारण यह कुटज है। अर्थात् गिरिकूट पर जन्म लेने वाला। एक दूसरी व्युत्पत्ति है, कुटज अर्थात् जो ‘कुट’ से पैदा हुआ है। कुट के दो अर्थ हैं :

  1. घड़ा,
  2. घर।

तब क्या कुट घड़े से उत्पन्न् है? घड़ा क्या गमला है? हो तो भी कुट का अर्थ इन दोनों से मेल नहीं खाता। संस्कृत में ‘कटहा रिका’ और ‘कुटकारिका ‘, ‘कुटनी’, ‘कुट्टनी’ शब्द हैं जो दासी के लिए प्रयुक्त होते हैं, इसी तरह ‘कुटिया या कुटीर’ शब्द भी हैं। संस्कृत में कुटज ‘कुटच’ और ‘कूटज’ शब्द भी मिल जाते हैं किंतु इन सबसे कुटज वृक्ष का अर्थ असम्बद्ध ही रह जाता है। द्विवेदीजी इसे आग्नेय भाषा परिवार का मानते हैं जो आस्ट्रो-एशियाटिक परिवार का नाम होगा। अब इसे ‘कोल परिवार’ की भाषा कहा जाता है। हो सकता है यह शब्द इस परिवार का हो। इस शब्द का अर्थ पूरी तरह से द्विवेदीजी भी नहीं बता पाए हैं। वे इतना अवश्य मानते हैं कि -यह शब्द ‘आर्य जाति का तो नहीं जान पड़ता।’ संस्कृत में दूसरी भाषा के शब्द के प्रवेश के इस कथन के द्वारा वे संस्कृतियों के समन्वय की स्वाभाविक प्रक्रिया का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।

चर्चा के बाद लेखक का सर्जनात्मक रूप फिर सामने आने लगता है। वे कुटज की विशेषताओं का वर्णन करते हुए पुनः ललित भाव और ललित भाषा के साथ प्रवहमान हो उठते हैं। कुटज की पहली विशेषता है, ‘अपराजेय जीवनी शक्ति।’ यह नाम-रूप दोनों में है। कितने ही नाम आए और चल गए पर संस्कृत साहित्य में यह नाम जम कर बैठा है| कालिदास को मेघ की अर्चना के लिए कुटज पुष्प ही तो मिले थे। नाम के साथ रूप भी अपराजेय शक्ति के साथ विद्यमान है। द्विवेदीजी के शब्दों में – ‘चारों ओर कुपित यमराज के दारूण निःश्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रूद्ध अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है। और मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूखे गिरि कांतर में ऐसा मस्त बना है कि ईर्ष्या होती है।

कितनी कठिन जीवनी शक्ति है। प्राण को प्राण पुलकित करता है, जीवनी शक्ति ही, जीवनी शक्ति को प्रेरणा देती है।’ यह उद्धरण अपराजेय जीवनी शक्ति की पूरी-पूरी व्याख्या समर्थ भाषा में करता है। यह जीवनी-शक्ति है जो गर्म हवाओं में भी रूप को मलिन नहीं होने देती। यह जीवनी शक्ति ही है जो पत्थर को फोड़कर बहुत गहराई से रस निकाल लाती है और तमाम विपदाओं और कठिनाइयों के बीच में जीवंत बनाए रखती है। यह सत्य कुटज के माध्यम से मनुष्य की अपराजेय जीवनी शक्ति की व्याख्या भी है। इसके कारण ही आनंद भी है और जीवन की प्रेरणा भी है। यही कुटज की अभिव्यक्ति है। इस कुटज के रूपांतरण को पहचान कर ही हम निबंध लेखक को पहचान पाते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है, मानों हजारी प्रसाद द्विवेदी अब सीधे-सीधे मनुष्य को सम्बोधित कर रहे हैं – ‘जीना चाहते हो? कठोर पाषण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर झंझा तूफान को रगड़कर, अपना प्राप्य वसूल लो, आकाश को चूमकर अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो | कुटज का यही उपदेश है।’

द्विवेदीजी की भाषा की निजी विशेषता है। कुटज तो माध्यम है। वास्तविक तो द्विवेदीजी का सत्य है जो उपर्युक्त शब्दों में झरने की भाँति फूट रहा है। इसीलिए वे जीवन को कला और तपस्या दोनों मानते हैं। जीवन की कला क्या है और तपस्या क्या है? इसे वे और भी स्पष्ट करते हैं।

जीवन जीना केवल जीवित रहना ही नहीं है। सारा संसार केवल स्वार्थ के लिए जीवित है। हजारी प्रसाद द्विवेदी चिंतन अर्थात् बुद्धि पक्ष और भाव अर्थात् हृदय पक्ष को साथ-साथ लेकर चलते हैं। द्विवेदीजी जहाँ आवश्यक है विचार पक्ष को शुद्ध रूप में रखते हैं अन्यथा वे ललित भाव से विषय को प्रस्तुत करते हैं। पुत्र हो या प्रिया सभी अपने मतलब से प्यार करते हैं। अपने समर्थन में द्विवेदीजी पश्चिम के हाब्स और हेल्वेशियस का उल्लेख करते हैं। वे संस्कृत का एक वाक्य भी प्रस्तुत करते हैं – ‘आत्मनस्तु कामाय सर्वप्रियं भवतु | द्विवेदीजी स्वार्थ की शास्त्रगत चर्चा करते हए भावुक हो उठते हैं और ओजपूर्ण भाषा में लिखने लगते हैं : ‘दुनिया में त्याग नहीं है, प्रेम नहीं है, परमार्थ नहीं है – है केवल प्रचण्ड स्वार्थ।’ इस स्वार्थ के साथ ही वे जिजीविषा अर्थात् ‘जीने की इच्छा’ की भी विशद चर्चा करते हैं। भीतर की जिजीविषा – जीते रहने की प्रचण्ड इच्छा – ही अगर बड़ी बात है तो फिर यह सारी बड़ी बड़ी बोलियाँ, जिनके बल पर दल बनाए जाते हैं, शत्रुमर्दन का अभिनय किया जाता है, देशोद्धार का नारा लगाया जाता है, साहित्य और कला की महिमा गायी जाती है, झूठ हैं।

इसके द्वारा कोई-न-कोई अपना बड़ा स्वार्थ सिद्ध करता है। इस सबका निष्कर्ष निकालते हुए वे मानते हैं कि यह सोचना गलत है। स्वार्थ और जिजीविषा से भी प्रचण्ड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है। वह शक्ति क्या है? इसका उत्तर देते हुए वे ‘समष्टि बुद्धि’ को मान्यता देते हैं। अर्थात् समष्टि का स्वार्थ ही सबसे बड़ी शक्ति है। द्विवेदीजी ने अपन उपन्यासों में भी इसी की स्थापना की है। उनकी स्पष्ट किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण मान्यता है कि ‘अपने आपको दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर जब तक ‘सर्व’ के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता तब तक स्वार्थ खण्ड सत्य है, वह मोह को बढ़ावा देता है, तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय कृपण बना देता है। इसका अर्थ यह हुआ कि समष्टि और सर्व के प्रति अपने आपको पूरा दे देना ही पूर्ण सत्य है।

अपने इसी पूर्ण सत्य के लिए द्विवेदीजी कुटज को सामने रखते हैं। भावात्मकता और प्रवाहमयता के साथ वे कुटज की बात करते हैं – ‘कुटज क्या केवल जी रहा है। वह दूसरे के द्वार पर भीख माँगने नही जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता, दूसरों को अवमानित करने क लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता। आत्मोन्नति हेतु नीलम नहीं धारण करता, अंगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगले नहीं झाँकता। जीता है और शान से जीता है- काहे वास्ते, किस उद्देश्य से? कोई नहीं जानता मगर कुछ बड़ी बात है। स्वार्थ के दायरे से बाहर की बात है। भीष्म पितामह की भाँति अवधूत की भाषा में कह रहा है, ‘चाहे सुख हो या दुख, प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाए उसे शान के साथ, हृदय से बिल्कुल अपराजित होकर, सोल्लास ग्रहण करो। हार मत मानो।’

निबंध में, ‘दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर दे देना’ को ही ‘कुटज का मूर्त रूप’ व्याख्यायित किय गया है। केवल जीना या स्वार्थ के लिए जीना सत्य नहीं है। स्वार्थ के कारण ही झुकना पड़ता है, भय का शिकार होना पड़ता है, खुशामद करनी पड़ती है, ढोंग करना पड़ता है, और भी नाना प्रकार के निंदनीय कर्म करने पड़ते हैं। कुटज इन सबसे विलग होकर जीता है। द्विवेदीजी प्रश्न करते हैं किस लिए? काहे के वास्ते? वे ही उत्तर देते हैं कि – कुटज हृदय से अपराजेय होकर जीता है। वह अपने लिए नहीं जीता, सबके लिए जीता है। वह सुख में दुख में, प्रिय-अप्रिय में, सब स्थितियों में जो भी मिल जाए – ‘सुख मिले या दुख’ प्रिय मिले या अप्रिय सबको आनंद के साथ ग्रहण करता है। यही अवधूत भाषा है। कुटज निर्भय है।

कुटज की तीन विशेषताओं का उल्लेख हजारी प्रसाद द्विवेदी करते हैं :

  1. अकुतोभया वृत्ति,
  2. अपराजित स्वभाव,
  3. अविचल जीवन दृष्टि।

द्विवेदीजी कुटज को मिथ्याचारों से मुक्त मानते हैं। कुटज निबंध के अंत में द्विवेदीजी की मान्यताएँ प्रखर रूप से अभिव्यक्त हुई है। ये मान्यताएँ भारतीय चिंतन के मुक्तकण हैं। प्रथम बात तो यह है कि व्यक्ति न किसी का उपकार कर सकता है न अपकार। दूसरी बात यह है कि मनुष्य केवल जी रहा है, यह जीना इतिहास विधाता की इच्छा और योजना के अनुसार है। तीसरी बात यह है कि मनुष्य के द्वारा किसी को न सुख पहुँचाया जा सकता है न दुख। सुख पहुँच जाए, यह अच्छी बात है, इस पर अभिमान नहीं करना चाहिए। सुखी वह है जिसका मनवश में है और दुखी वह है जिसका मन पर वश नहीं है। ‘सुख और दुख मन के विकल्प हैं।’ जिसका मन वश में नहीं है वह छल-छंद रचता है। धोखा देता है। कुटज इन सबसे मुक्त है। हजारी प्रसाद द्विवेदी इसको ही हमारे सामने कुटज के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। इसी कारण वे कुटज को प्रतीक के रूप में उपस्थित करते हैं और लिखते हैं कि कुटज ‘वैरागी’ है। राजा जनक की तरह संसार में रहकर, सम्पूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है।

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कुटज अपने मन पर सवारी करता है, मन को अपने पर सवार नहीं होने देता।’

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि इस निबंध के केंद्र में कुटज है। यह अपने आप में भारतीय चिंतन का सिद्ध रूप है। यह सिद्ध रूप अपने मन को वश में कर लेने पर ही प्राप्त होता है स्वार्थ के लिए जीना व्यर्थ है, मूल तो समष्टि दृष्टि में और समष्टि के लिए अपना सब कुछ दे देने में है। यही विषय-वस्तु का सार है।

ललित निबंध के रूप में ‘कुटज’

ललित निबंध क्या है? ललित निबंध का स्वरूप क्या है? ललित निबंध के तत्व क्या हैं। ललित निबंध के रूप में ‘कुटज’ का परीक्षण करने के पूर्व इन प्रश्नों का उत्तर जानना आवश्यक है।

ललित निबंध मूलतः भाव प्रधान निबंध होते हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि इस प्रकार के निबंधों में विचार तत्व का अभाव होता है। कतिपय निबंधों में भावुकता का आधिक्य होने पर भी विचारों की अंतर्धारा बराबर प्रवाहित होती रहती है। कुछ.निबंध पूरी तरह से भाव-प्रधान होते हैं। द्विवेदीजी के ललित निबंधों में विचार और भाव का समावेश बराबर-बराबर है। द्विवेदीजी का पाण्डित्य बराबर उनके साथ रहता है। निबंध लेखन में, स्वच्छंदता, सरलता, आडम्बर हीनता, घनिष्ठता और आत्मीयता के साथ लेखक के वैयक्तिक दृष्टिकोण का समावेश रहता है। निबंध एक ऐसी कलाकृति है जिसके नियमों का निर्माता स्वयं लेखक ही होता है। इतना अवश्य है कि सहज, आडम्बर-हीन आत्माभिव्यक्ति के लिए परिपक्व और विचारशील गंभीर व्यक्तित्व का होना आवश्यक है तभी निबंध लेखक की निकटता और आत्मीयता वास्तविक होती है।

वस्तुतः ललित निबंध चिंतन प्रधान होते हैं किंतु निबंध लेखक अपनी प्रवृत्ति, स्वभाव या परिस्थिति के अनुसार भावना को प्रधानता देते हैं। इस प्रकार भावना और विचार का एक सहज समन्वय ललित निबंध का वैशिष्ट्य है। यह समन्वय पाठक के हृदय को द्रवीभूत भी करता है और उसकी बुद्धि को प्रेरित भी करता है। कुटज में हजारी प्रसाद द्विवेदी शास्त्र और भाव दोनों का आश्रय लेकर ललित शैली में तथ्य और सत्य को आत्मीयता के साथ प्रस्तुत करते हैं। कुटज एक फूलों वाला वृक्ष है पर उसका मानवीकरण करते हुए, द्विवेदीजी उसे मित्र, सखा और उससे भी अधिक एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

ललित निबंध वह साहित्यिक विधा है जिसमें भावना और विचारों का समन्वय होता है। . स्वच्छंदता, सरसता, आडम्बर हीनता, घनिष्ठता और आत्मीयता के साथ लेखक अपनी निजता के साथ वैयक्तिक बोध और आत्मीयता को इसमें समाहित करता है। ललित निबंधों में कई साहित्य रूपों के गुण भी समाविष्ट रहते हैं। इसमें, जीवन की वास्तविकता, कहानी की संवेदना, नाटक की नाटकीयता, उपन्यास की चारू कल्पना, गद्य काव्य की भावातिशयता, महाकाव्यों की गरिमा, विचारों की उत्कृष्टता – सभी कुछ एक साथ प्राप्त होते हैं।

कुटज एक ललित निबंध है। इसका विषय भी कुटज है। इस विषय को प्रस्तुत करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी उस भूमि पर भी प्रकाश डालते हैं जहाँ यह उगता है। यह स्थान है हिमालय की वे पर्वत श्रृंखलाएँ जिन्हें शिवालिक कहा जाता है। इस शिवालिक के विवरण में ज्ञान का प्रकाश है। स्थूल वर्णन यथार्थ होकर भी भावमूलक है। इसके साथ ही विषय का आत्मीय-विश्लेषण भी है। प्रवाहमयी भाषा है। इसके पश्चात ‘नाम’ और ‘रूप’ की सैद्धांतिक व्याख्या है और फिर कुटज शब्द की भाषाशास्त्र के अनुसार व्याख्या है। यह व्याख्या शुष्क सैद्धांतिक न होकर भाव को भी समन्वित करती हुई चलती है। हृदय और बुद्धि का यह समन्वय इस निबंध की महत्वपूर्व उपलब्धि है। पं. रामचंद्र शुक्ल के निबंधों में प्रधानता तो बुद्धि की है – कहीं-कहीं हृदय भी उसमें जुड़ जाता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधों में हृदय और बुद्धि साथ-साथ चलते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कुटज को मानवी-चेतना का रूप प्रदान किया है। यह पुरुष विशेष है।

कुटज के साथ द्विवेदीजी सहज आत्मीय संबंध भी बना लेते हैं। इसके बीच में कालिदास का मेघदूत और उनकी कुटज कुसुमों से मेघ की अभ्यर्थना आदि समाहित है। इस सारे विवरण के साथ ही उनकी आत्मीयता कुटज की अभ्यर्थना में परिवर्तित हो जाती है। कुटज ने उनके संतप्त चित्त को सहारा दिया था। ‘बड़ भागी फूल है यह। धन्य हो कुटज, तुम गाढ़े के साथी हो। उत्तर की ओर सिर उठाकर देखता हूँ, सुदूर तक ऊँची काली पर्वतश्रृंखला छायी हुई है और एकाध सफेद बादल के बच्चे उनसे लिपटे खेल रहे हैं। मैं भी इन पुष्पों का आदर्श उन्हें चढ़ा दूं।’ आगे चलकर द्विवेदीजी कहते हैं। – ‘जो कालिदास के काम आया हो उसे ज्यादा इज्जत मिलनी चाहिए। मिली कम है। पर इज्जत तो नसीब की बात है।’ इसके समानांतर वे रहीम को रखते हैं। रहीम को भी जो स्थान मिलना चाहिए था नहीं मिला। कुटज के फूल को भी वह सम्मान नहीं मिला जिसके योग्य वह है। इस स्थान पर सहज भाव से हजारी प्रसाद द्विवेदी एक शुद्ध सत्य को सहजता के साथ रख देते हैं। लेकिन दुनिया है कि मतलब से मतलब है, रस चूस लेती है, छिलका और गुठली फेंक देती है।’

द्विवेदीजी भाषाशास्त्री हैं फलतः कुटज शब्द का ऐतिहासिक संबंध, उसकी प्राचीनता, उसकी व्युत्पत्ति, उसका भाषा परिवार, उसके विविध आयामों पर शास्त्रोक्त मीमांसा करने के पश्चात् वे पुनः प्रकृति लालित्य के मध्य कुटज की प्रतिष्ठा करते हुए प्रतीत होते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी संपूर्ण आत्मीयता के साथ कुटज को आदर्श चिंतन के प्रवक्ता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। भाषा, भाव और बोध के लालित्य के रूप में हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध कटज की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं : यथा – ‘मगर कुटज है कि संस्कृत की निरंतर स्फीयमान शब्द राशि में जो जमके बैठा सो बैठा ही है। चारों ओर कुपित यमराज के दारूण विश्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषण की कारा में रूद्ध अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है। और मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूने गिरि कांतर में भी ऐसा मस्त बना है कि ईर्ष्या होती है।

कितनी कठिन जीवनी शक्ति है। इसके पश्चात् हजारी प्रसाद द्विवेदी कुटज को जीवनी शक्ति के महत्तम प्रतीक के रूप में विनियोजित कर उसके माध्यम से अपनी सामाजिक-चेतना संबंधी विचार-सरणि को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। यह ललित-निबंध द्विवेदीजी की सामाजिक मान्यताओं का विचार-कोष है। यह निबंध हृदयानुभूति का विचार कोष भी है।

ललित निबंध का एक वैशिष्ट्य स्वच्छंदता है। स्वच्छंदता ही वह विशेषता है जो निबंध को शास्त्र के बोझ से मुक्त करती है। स्वच्छंदता का अर्थ निबंध के संदर्भ में अनियंत्रित होना नहीं है वरन वह लेखक की ‘निजता’ के मुक्त सन्निवेश से संबंधित है। मुक्तभाव से हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने विचारों को इस निबंध में स्थान देते हैं।

ललित निबंध में आत्मीयता और आडम्बरहीनता का विशेष स्थान है। कुटज निबंध में कुटज के साथ लेखक की आत्मीयता पाठक की आत्मीयता बन जाती है। इसमें शास्त्रीयता के साथ आत्मीयता का समन्वय होता है। बुद्धि और हृदय इस प्रकार के निबंधों में अलग-अलग राह पर नहीं चलते हैं। उनमें एकात्मकता रहती है। इसी कारण ललित निबंधों की व्यंजना रागाश्रित व्यंजना होती है। कुटज इस रागाश्रित व्यंजना का अभिनव रूप है। यह रागाश्रित व्यंजना पाठक को आकर्षित करती है और आत्मीयता से बाँध लेती है। पाठक, लेखक और निबंध तीनों ही एकतान होकर रचना को अपने में समाहित करते हैं और स्वयं रचना में समाहित होते हैं। लेखक के भाव और विचार पाठक को प्रभावित करते हैं। यह आत्मीयता रस की संवाहिका भी है और स्वरूप दर्शिका भी है।

आडम्बर साहित्य का गुण नहीं दुर्गुण है। ललित निबंध इस आडम्बर के आवरण को अस्वीकार कर सहजता में ही सम्पूर्ण होता है। यदि एक प्रकार से देखा जाय तो कुटज का उत्पत्ति-स्थल, रेतीले पहाड़ों के कठिनतम पर्यावरण के मध्य उसका जन्म लेना और उसी परिवेश में पुष्पित पल्लवित होना सब कुछ एक कहानी जैसा लगता है। एक ऐसी कथा जिसका नायक असीम जीवनी शक्ति से जीवंत भी है। इसका नायकत्व जीवन की कला भी जानता है। उसमें रस भी है और आदर्श भी। हजारी प्रसाद द्विवेदी उसे नाना प्रकार के विशेषणों से संबोधित करते हैं।

हजारी प्रसाद द्विवेदी आत्मीय एवं घनिष्ठ भाव से कुटज से जुड़ जाते हैं। इस निबंध से गुजरते हए ऐसा लगता है जैसे द्विवेदीजी ने उसकी काया में ही प्रवेश कर लिया है। इसको ही ‘परकाय प्रवेश’ कहते हैं। यदि ऐसा न होता तो निबंध बाह्य विवरण देकर ही समाप्त हो जाता। ललित निबंध का वैशिष्ट्य अंतरंग होने में है। कुटज के साथ यह अंतरंगता कुटज निबंध का प्राण है। वह सखा है, मनस्वी मित्र है, गाढ़े का साथी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी कुटज के साथ एकात्म हो जाते हैं। विवरण तो कोई भी सामान्य लेखक दे सकता है, पर विषय-वस्तु के साथ एकात्म स्थापित करना महान् लेखक के द्वारा ही हो सकता है। इस एकात्म भाव के कारण कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि कुटज के भीतर से हजारी प्रसाद द्विवेदी की वाणी का झरना प्रवाहित हो रहा है। विषय से अभिन्नता ललित निबंध के लिए आवश्यक है। यह एकत्व और आत्मीयता होने पर वस्तु की अंतरंगता स्पष्ट होती है। हृदय का हृदय से विनियोग होता है। यह विनियोग चिंतन के प्रवाह को प्रस्तुत करता है, भाषा को गतिमान बनाता है, आत्मीयता से भर देता है, शिल्प को वैभव प्रदान करता है और भाषा को सरस और सारगर्भित बनाता है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी कुटज के जीवन को शानदार ढंग से चित्रित करते हैं। द्विवेदीजी कुटज की रचना करते हैं और उनकी अपनी दृष्टि कुटज में रम जाती है। इस रम्य दृष्टि का आलेखन एक चमत्कार पैदा करता है। पूरे निबंध में कुटज से जुड़कर हजारी प्रसाद द्विवेदी की वैयक्तिक दृष्टि कभी भाव, कभी उपदेश और कभी जीवनादर्श के रूप में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। कुटज ‘द्वन्द्वातीत’ है। ‘अलमस्त’ है। कुटज मुझे ‘अनादिकाल से जानता है।’ मैं भी कुटज को पहचानता हूँ, ‘अवश्य पहचानता हूँ।’ आदि कथन हजारी प्रसाद द्विवेदी के एकात्मता और भाव को स्पष्ट करते है। यह कुटज ‘चिर परिचित दोस्त’ है। हजारी प्रसाद द्विवेदी इस चिरपरिचित दोस्त से जी भर कर बात करते हैं। जीवन जीना चाहते हो तो ‘कठोर पाषण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफान को रगड़कर, अपना प्राप्य वसूल लो, आकाश को चूमकर अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो।

कुटज का यही उपदेश है। पाषाण, पाताल, वायु और आकाश से क्या और कैसे लेना, यह कुटज का उपदेश नहीं हैं। यह तो हजारी प्रसाद द्विवेदी की अपनी दृष्टि है अपनी चेतना है, अपना दर्शन अथवा भारतीय चिंतन की थाती है जो कुटज के माध्यम से अभिव्यक्ति पा रही है। इसी प्रकार ‘मैं’ का ‘सबके लिए सबकुछ दे देना और यह भी ‘दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर सर्व के लिए निछावर कर देना’ भी द्विवेदीजी के चिंतन, दर्शन और दृष्टि, का ही रूप है। अंत में भी, सुखी कौन है का यह उत्तर कि जिसका मन वश में है वही सुखी है, यह कहना भी हजारी प्रसाद द्विवेदी के सोच का ही प्रमाण है जो इस निबंध में ही नहीं, उनके द्वारा रचित अन्यान्य साहित्य विधाओं में भी अभिव्यक्त हुआ है। ललित निबंध में यह वैयक्तिक दृष्टि सबके लिए प्रयुक्त होती है। ललित निबंध में सहजता, सरसता और प्रवाह का होना भी आवश्यक है कुटज निबंध में ये सभी गुण विद्यमान है।

इस निबंध का उद्देश्य क्या है? यह निबंध अपने लघु आकार में एक महाकाव्य की गरिमा समेटे हुए है। ललित इसका शिल्प है, इसकी शैली है, और जीवन को जीवनीशक्ति प्रदान करना तथा निस्वार्थ होकर व्यक्ति का समाज के लिए निःशेष हो जाना इसका उद्देश्य है। यह व्यष्टि का समष्टि के लिए आदर्श कर्म है। यही शान से जीना है।

ललित निबंध के रूप में कुटज अत्यंत उत्कृष्ट निबंध है। भाव और चिंतन का सामंजस्य तथा भाषा का लालित्य और प्रवाह इस निबंध को विशिष्टता प्रदान करते हैं। यह निबंध सहजता और सरसता में महत्तम चिंतन का प्रकाशक है। विषयवस्तु सूक्ष्म और गहन है परंतु कुटज का माध्यम जिस सहजता और प्रसन्न भाषा के साथ उसे प्रत्यक्ष करता है वह ललित निबंध का मानदंड है। शास्त्र-ज्ञान इसमें है, दर्शन इसमें है और चिंतन भी इसमें है किंतु उसकी प्रस्तुति ललित है, प्रिय है और सुंदर है। इसमें प्रकृति भी है और पुरुष भी है। दोनों का लीला भाव भी है। हिदीं ललित निबंधों के क्षेत्र में कुटज अद्वितीय है।

‘कुटज’ की भाषा-शैली

कुटज की भाषा विचारों और भावों के अनुरूप प्रवाहमयी सहज भाषा है। वाक्य रचना विषय के अनुरूप है, जिसमें कहीं छोटे-छोटे और कहीं बड़े-बड़े वाक्यों की रचना की गई है। जहाँ जिज्ञासा मूलकता है वहाँ कई प्रश्नवाचक वाक्यों की रचना की गई है। उदाहरण के लिए देखिए- रूप मुख्य है या नाम? नाम बड़ा है या रूप? पद पहले या पदार्थ? हजारी प्रसाद द्विवेदी की भाषा कहीं-कहीं व्याख्यानपरक अथवा व्याख्यात्मक भी हो जाती है। इस प्रकार की भाषा में विवरण-प्रधानता आ जाती है। यह विवरण विषय के अनुसार कहीं चित्रात्मक भाषा का रूप लेकर उपस्थित होता है, तो कहीं शास्त्रों की बारीक जानकारियों का संग्रह बनकर सपाट रूप में उपस्थित होता है। यथा –

  1. इन्हीं में से एक छोटा-सा बहुत ही ठिगना पेड़ है, पत्ते चौड़े भी हैं, बड़े भी हैं। फूलों से तो ऐसा लदा है कि कुछ पूछिए नहीं। अजीब सी अदा है, मुस्कराता जान पड़ता है।
  2. कुटज अर्थात जो कुट से पैदा हुआ हो। ‘कुट’ घड़े को भी कहते हैं, घर को भी कहते हैं। कुट अर्थात् घड़े से उत्पन्न होने के कारण अगस्त्य मुनि भी कुटज कहे जाते हैं।

इनमें उदाहरणों में भाषागत भिन्नता है। प्रथम में विवरण तो है पर साथ ही चित्रात्मकता है और चित्रात्मकता के साथ लेखक की आत्मीयता भी प्रकट हुई है। मानवीकरण तो है ही। दूसरे में शास्त्र-चर्चा है अतएव भाषा सपाट है किंतु बुद्धिमूलक है। बुद्धि के द्वारा विषय के अर्थ को सुस्पष्ट करते समय वे सस्कृत, हिंदी और देशी-विदेशी विद्वानों के, गद्य और पद्य के मिले जुले उद्धरण भी प्रस्तुत करते हैं जिसके द्वारा विषय की प्रमाणिकता की पुष्टि तो होती ही है पर साथ ही भाषा भी समर्थ और बहुआयामी बन जाती है।

ठीक इसके विपरीत जब द्विवेदीजी विषय को आत्मीय दृष्टि प्रदान करते हैं तब भाषा में प्रवाह, लालित्य तथा काव्यात्मकता का सन्निवेश हो जाता है। एक उद्धरण कुटज से प्रस्तुत है – ‘बहरहाल यह कूटज – कुटज है, मनोहर कुसुम-स्तबकों से झबराया, उल्लास लोल चारुस्मित कुटज। कालिदास ने ‘आषाढस्य प्रथम दिवसे’ रामगिरि पर यक्ष को जब मेघ की अभ्यर्थना के लिए नियोजित किया तो कम्बख्त को ताजे कुटज पुष्पों की अंजलि देकर ही संतोष करना पड़ा – चम्पक नहीं, बकुल नहीं, नीलोत्पल नहीं, अरविन्द नहीं – फकत कुटज के फूल।’ इस उद्धरण को सामने रखकर हम ललित निबंध की भाषा के प्रतिमान स्थिर कर सकते हैं। इस भाषा में कालिदास के मेघदूत के उल्लेख से भाषा के माध्यम से कितने ही बिम्ब बन जाते हैं। ये बिम्ब चाक्षुष या दृश्य बिम्ब भी हैं और मानस बिम्ब भी। बिम्बों की यह श्रृंखला केवल दृश्यात्मक ही नहीं है अपितु एक पुलक भी देती है। यह सर्जनात्मक भाषा का ऐसा रूप है, जिसमें लेखक की बुद्धि भी रमी हुई है, जो अंततः भावात्मकता और आत्मीयता में घुलमिल जाती है।

इस निबंध की भाषा का एक उदाहरण और देखिए : ‘कुटज क्या केवल जी रहा है। वह दूसरे के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता, दूसरों को अवमानित करने क लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता। आत्मोन्नति हेतु नीलम नहीं धारण करता, अंगठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगलें नहीं झाँकता| जीता है और शान से जीता है – काहे वास्ते, किस उद्देश्य से?’

इस उद्धरण में मुहावरों की झड़ी लगी हुई है। भाषा के पीछे से व्यंग भी जगह-जगह झाँकता हआ प्रतीत होता है। एक वातावरण की सृष्टि भी भाषा ने की है जिसमें रस बहमुल तथ्य का निर्देश भी है कि आज का युग स्वार्थ युग है जिसमें खुशामद, चाटुकारिता, अन्ध विश्वास, दीनता आदि ही सब कुछ हो गए हैं। पर शान से वही जी सकता है जो इन सबको धता बताकर निर्भय भाव से जीवित रहे। इस भाषा में लक्षणा और व्यंजना ने भाषा को गरिमा और शक्ति प्रदान की है। कितने ही बिम्ब अनायास ही पाठक के सामने तैरने लगते हैं। कोई भी निबंध विचार शून्य नहीं होता। द्विवेदीजी के निबंध की भाषा समर्थ भाषा है। उसमें अभिधा, लक्षणा और व्यंजना का पूरा पूरा प्रयोग है। इस भाषा में विचार और संवेदना दोनों को वहन करने की शक्ति है। इस भाषा में प्रवाह है, बिम्बात्मकता है, सहजता है और सरलता है, जटिलता नहीं। इसमें आख्यान भी है और व्याख्यान भी। यह भाषा विवेक को जाग्रत करने वाली भाषा है। भाषा का सौन्दर्य और लालित्य यहाँ गतिमान रूप में अपनी निरंतरता बनाए हए है। ललित निबंध के लिए यह मानक भाषा है। द्विवेदीजी की निबंध भाषा जड़ भाषा नहीं है, अतिशय भावुकता से सनी चिपचिपाती-भिनभिनाती भाषा भी नहीं है, यह तो एक चिंतक के हृदय की भाषा है। इस भाषा के द्वार सभी भाषाओं के लिए खुले हुए है। यहाँ संस्कृत है, उर्दू है, लोकभाषा है, हिंदी है, श्लोक है, और दोहे भी है।

‘द्वंद्वातीत’ के साथ ‘अलमस्त’ शब्द रखा हुआ है। बेहया, मस्तमौला, गलत बयानी, बेरूखी, बेकद्रदानी कितने ही उर्दू के शब्द यहाँ प्रयुक्त हुए हैं। बिरछ, काहे, जैसे लोकभाषा के शब्द के प्रयोग तो द्विवेदी की भाषा में है ही अंग्रेज़ी का तो पूरा का पूरा वाक्य ही नागरी लिपि में रख दिया गया है। ‘ह्वाट्स देयर इन ए नेम’। संस्कृत के शब्दों की तो लड़ी की लड़ी इस निबंध में प्रयुक्त हुई है। यथा – सुस्मिता, गिरिकांता, शुभ्रकिरीटिनी, मदोद्धता, विजितातपा, अलकावतंसा आदि-आदि। द्विवेदीजी की भाषा समृद्ध भाषा है। विषय के अनुरूप भाषा है। उसमें बिंबधर्मिता है, अर्थ गौरव है, व्यंजकता है और व्यापकता है। ललित निबंध की बहुआयामी सर्जनात्मक भाषा का एक आदर्श रूप उन्होंने हिदी जगत में प्रतिष्ठित किया है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने निबंधों की पाँच श्रेणियों का उल्लेख किया है। वार्तालाप मूलक, . व्याख्यान मूलक, अनियंत्रित गप्प मूलक, स्वगत चिंतन मूलक और कलह मूलक। द्विवेदी जी इन श्रेणियों को सूक्ष्म या साहित्यिक नहीं मानते हैं। मेरे विचार से ये ही निबंध की वे शैलियाँ है जो द्विवेदीजी के निबंधों का रचाव करती है।

कुटज से तो द्विवेदी जी आत्मीय भाव के साथ भिन्नता का संबंध स्थापित कर लेते हैं और उससे बातचीत करते हुए प्रतीत होते हैं। देखिए – ‘पहचानता हूँ उजाड़ के साथी, तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ।’ अथवा इस निबंध के अंत में वे कहते हैं – ‘मनस्वी मित्र, तुम धन्य हो।’ इस वार्तालाप शैली की वजह से वे कुटज का मानवीकरण करते हैं। वार्तालाप की सहजता और अपनापन कुटज निबंध की एक शैली है। द्विवेदीजी के इस निबंध में कई शैलियों का प्रयोग किया गया है।

इस निबंध की व्याख्यान शैली में सरल भाषा, व्याख्यात्मकता तथा प्रवाह का विशेष स्थान है। एक उदाहरण देखिए : ‘जो समझता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है वह अबोध है, जो समझता है कि दूसरे उसका अपकार कर रहे हैं, वह बुद्धिहीन है। कौन किसका अपकार कर रहा है? मनुष्य जी रहा है, केवल जी रहा है, अपनी इच्छा से नहीं, इतिहास विधाता की योजना के अनुसार। किसी को उससे सुख मिल जाए बहुत अच्छी बात है, नहीं मिल सका, कोई बात नहीं, परंतु उसे अभिमान नहीं होना चाहिए। सुख पहुँचाने का अभिमान यदि गलत है, तो दुख पहँचाने का अभिमान तो नितांत गलत है।’ इस उद्धरण में व्याख्यान शैली के सभी गुण विद्यमान हैं। इस उद्धरण में सहजता के साथ आकर्षित करने वाली भाषा है जिसमें निजता भी है। इसमें चिंतन भी है जो विचार करने की प्रेरणा देता है।

कुटज पिबंध में गप्प मूलकता भी है। यह कथा कहने की शैली है। गप्प का अर्थ ‘झूठ’ नहीं है। गप्प में एक कथा जैसी होती है अथवा एक बात भी होती है। गप्प मारना, कृत्रिम शैली में वार्तालाप करना है। सहजता और स्वाभाविकता के साथ सत्यता की झंकृति इस शैली की विशेषता है। इस निबंध में गप्प शैली का प्रयोग न्यूनाधिक मात्रा में किया गया है। ललित निबंध में यह शैली आत्माभिव्यक्ति के साथ सहजता प्रदान करती है। उदाहरण के लिए प्रस्तुत है कुटज का एक अंश : ‘याज्ञवल्क्य बहुत बड़े ब्रह्मवादी ऋषि थे। उन्होंने अपनी पत्नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी प्रिय नहीं होती – सब अपने मतलब के लिए प्रिय होते हैं – आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति!’ विचित्र नहीं है यह तर्क? संसार में जहाँ कहीं प्रेम है सब मतलब के लिए है।’

स्वगत चिंतन शैली इस निबंध में विशेष रूप से काम में लाई गई है। यह चिंतन कुटज के रूप, नाम और कृतित्व के प्रकाशन के साथ-साथ सामाजिक चेतना को उबुद्ध करने के लिए प्रयुक्त की गई है।

वैसे शैली अंग्रेज़ी के ‘स्टाइल’ शब्द का अनुवाद है। प्राचीन साहित्यशास्त्र में शैली से मिलता जुलता शब्द ‘रीति’ है। आचार्य वामन इसे विशिष्ट पदरचना कहते हैं। शैली को गुण मानते हुए उसकी परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है। ‘शैली अनुभूत विषयवस्तु को सजाने के उन तरीकों का नाम है जो विषयवस्तु की अभिव्यक्ति को सुंदर एवं प्रभावपूर्ण बनाती है। यदि इस परिभाषा को ग्रहण करें तो एक बात स्पष्ट है कि प्रमुखता विषय-वस्तु की है। शैली प्रस्तुतीकरण में सहायक होती है। अब प्रश्न यह है कि क्या किसी भी विषय-वस्तु की निर्धारित शैली हो सकती है। शैली का निर्धारण तो लेखक ही करता है। अतः कई प्रकार की शैलियों का प्रयोग लेखक विषय की अभिव्यक्ति के लिए अपनी रुचि के अनुसार करता है। इस प्रकार की शैलियों के कई प्रकार हो सकते हैं, जैसे विवरणात्मक, व्याख्यात्मक, समीक्षात्मक, गवेषणात्मक और भावात्मक आदि। शैलियों पर व्यास और समास शैली के रूप में भी विचार किया जाता है। समास अर्थात् सूत्रबद्धता ओर व्यास अर्थात् व्याख्यात्मकता। कुटज निबंध में विषय के अनुरूप, विवरणात्मक, व्याख्यात्मक, भावात्मक और गवेषणात्मक शैलियाँ व्यवहृत हुई

लालित्य या ललित भाव, ललित निबंध के लिए आवश्यक है। इसे हम भावात्मक शैली कह सकते हैं। कोई भी निबंध विचार से शून्य नहीं होता। विचार से शून्य होने पर तो ऐसा निबंध प्रलाप मात्र होकर रह जाएगा। कुटज विचारों की श्रृंखला भी है और भावाभिव्यंजना भी। हजारी प्रसाद द्विवेदी की शैली में इन दोनों का अभूतपूर्व सामंजस्य है।

सारांश

आपने हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध कुटज के बारे में लिखी गई इस इकाई का अध्ययन कर लिया है। आपके सामने यह स्पष्ट हो गया होगा कि द्विवेदीजी के निबंधों की क्या विशेषता है और उसमें बुटव का क्या महत्व है। कुटज ललित निबंध है। ललित निबंध यानी ऐसा निबंध जिसमें भाव और विचार के सामंजस्य और भाषा-शैली के लालित्य के द्वारा लेखक अपनी बात आत्मीय ढंग से कहता है। कुटज में द्विवेदीजी इसी ढंग से अपनी बात कहते हैं।

कुटज के बहाने से वे मानव-प्रकृति और मानव धर्म के ऐसे पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं जिनका मानव-सभ्यता और संस्कृति के विकास में केंद्रीय महत्व है। द्विवेदीजी मानवतावादी लेखक थे। वे जीवन में संघर्ष और प्रेम दोनों को समान महत्व देते थे। उनकी दृष्टि में यदि हमारा स्वार्थ सभी का स्वार्थ न बने तो मानव जीवन की सार्थकता क्या। अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने कुटज के माध्यम से व्यक्त किया है। कुटज एक अल्प परिचित प्रकृति का रूप, लेकिन जो किसी यश और अर्थ की कामना के बिना, किसी के आगे नतमस्तक हुए बिना अपने जीवन के लिए रस ग्रहण करता है और इस संघर्षधर्मी जीवन से जो सौंदर्य वह सष्टि को प्रदान करता है, उसका महत्व क्या शब्दों में बयान किया जा सकता है। द्विवेदीजी ने इसी बात को इस निबंध के माध्यम से कहा है।

कुटज को पढ़ते हुए यह लग सकता है कि हम एक पहाड़ी पौधे के बारे में जानकारी हासिल कर रहे हैं। उसके इतिहास, उसका परिवेश, उसकी प्रकृति सबके बारे में। निश्चय ही ये सब बातें निबंध में है, लेकिन इन बातों को द्विवेदीजी ने इस ढंग से कहा है कि इनका अर्थ सिर्फ कुटज तक ही सीमित नहीं रहता। यह काव्य की समास शैली है जिसका प्रयोग वे निबंध के लिए भी करते हैं।

भाषा की दृष्टि से भी निबंध का प्रभाव अप्रतिम है। द्विवेदीजी के निबंध में न तो वैचारिक बोझिलता होती है, न भावात्मक ऊहापोह। वे ज्ञान को संवेदनात्मक रूप में और संवेदना को ज्ञानात्मक रूप में प्रस्तुत करते हैं। निबंध में उनके पांडित्य का भी प्रमाण मिलता है, लेकिन वह आतंकित नहीं करता बल्कि हमारे ज्ञान भंडार को समृद्ध करता है।

आशा है इस इकाई के अध्ययन से आपको कुटज को समझने में मदद मिली होगी।

अभ्यास

  1. ललित निबंध की दृष्टि से कुटज की विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
  2. कुटज के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है? सोदाहरण उल्लेख कीजिए।
  3. कुटज पर लेखकीय व्यक्तित्व के प्रभाव की समीक्षा कीजिए।

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