भक्तिकाल की पृष्ठभूमि

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • भक्तिकाल की समय-सीमा से परिचित हो सकेंगे;
  • भक्तिकाल की राजनीतिक पृष्ठभूमि को जान सकेंगे;
  • भक्तिकाल की आर्थिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि का विवेचन कर सकेंगे;
  • भक्तिकाल की धार्मिक स्थिति की चर्चा कर सकेंगे;
  • भक्तिकाल की दार्शनिक पृष्ठभूमि का परिचय दे सकेंगे;
  • हिन्दी साहित्य में भक्ति के उदय की व्याख्या कर सकेंगे;
  • दक्षिण भारत में भक्ति-आंदोलन के उदय के कारण और भक्ति-आंदोलन के अखिल भारतीय स्वरूप का विश्लेषण कर सकेंगे।

ऐतिहासिक दृष्टि से भक्ति-आंदोलन के विकास को दो चरणों में बाँटा जा सकता है। पहले चरण के अंतर्गत दक्षिण भारत का भक्ति-आंदोलन आता है। इस आंदोलन का काल छठी शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक का है। दूसरे चरण में उत्तर भारत का भक्ति आंदोलन आता है। इसकी समय-सीमा तेरहवीं शताब्दी के बाद से सत्रहवीं शताब्दी तक है। इसी चरण में उत्तर भारत इस्लाम के संपर्क में आया। हिंदी साहित्य के भक्तिकाल का संबंध उत्तरी भारत के भक्ति-आंदोलन से है। आचार्य’ रामचन्द्र शुक्ल ने भक्तिकाल की समय सीमा सन् 1318-1643 ई. मानी है। आगे के इतिहासकारों ने भी इसी समय-सीमा को स्वीकारा है। भक्तिकाल के काल विभाजन की विस्तृत जानकारी हम इस पाठ्यक्रम के खंड-1 की पहली इकाई में आपको दे चुके हैं।

राजनीतिक पृष्ठभूमि

राजनीतिक दृष्टि से भक्ति काल का विस्तार मुख्य रूप से तुगलक वंश से लेकर मुगल वंश के बादशाह शाहजहाँ के शासन काल तक है। इसलिए भक्तिकाल की राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए। तत्कालीन राजनीतिक गतिविधियों को समझना आवश्यक है। दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पश्चिमोत्तर मार्ग से तुर्कों का भारत पर आक्रमण हुआ। राजपूत राजाओं की पारस्परिक फूट तथा शत्रुता के परिणामस्वरूप पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गौरी के हाथों तथा जयचंद कुतुबुद्दीन ऐबक के द्वारा मारा . गया। इसके पश्चात् ही दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई। तुर्क आक्रमणकारियों द्वारा शासित राज्य को दिल्ली सल्तनत के नाम से पुकारा जाता है। दिल्ली सल्तनत का इतिहास मुहम्मद गौरी के द्वारा भारत पर आक्रमण से शुरू होता है।

सन् 1206 में तुर्की गुलाम कुतुबद्दीन ऐबक भारत में मुहम्मद गौरी का उत्तराधिकारी बना। गौरी का ही एक दूसरा गुलाम यल्दोज़ गज़नी का उत्तराधिकारी बना। यल्दोज़ ने दिल्ली पर भी अपने अधिकार का दावा किया। तभी से दिल्ली सल्तनत ने गज़नी से अपना संबंध तोड़ लिया। भारत के लिए यह फलदायी सिद्ध हुआ। इस तरह वह मध्य-एशिया की राजनीति से अलग हो गया और भारत दूसरे देशों पर निर्भर हुए बिना दिल्ली-सल्तनत में अपना स्वतंत्र विकास कर सका। शुरू के सौ वर्षों तक दिल्ली-सल्तनत को अपने राज्य की सुरक्षा के लिए प्रयास करना पड़ा। दिल्ली-सल्तनत को विदेशी आक्रमण, तुर्की अमीरों के आंतरिक विरोध, विजित राजपूत शासकों और सरदारों द्वारा फिर से राज्य को वापस लेने का खतरा था। तुर्की शासकों ने इन बाधाओं पर विजय पायी। तेरहवीं सदी के अंत तक दिल्ली-सल्तनत का विस्तार न सिर्फ मालवा और गुजरात तक, बल्कि दक्कन और दक्षिण भारत तक हो गया।

सन् 1206-1290 ई. तक दिल्ली-सल्तनत का इतिहास उतार-चढ़ाव का रहा। 1281 ई. में बलवन की मृत्यु के बाद फिर से अराजकता फैल गई। इस अराजकता का फायदा उठाकर जलालुद्दीन के नेतृत्व में कुछ सरदार सन् 1290 ई. में बलवन के अयोग्य उत्तराधिकारियों को सिंहासन से वंचित करने में सफल हुए। यहीं से खिलजी वंश की शुरुआत हुई। जलालुद्दीन खिलजी का शासन काल छह वर्ष का रहा। इस अल्प शासन काल में ही उसने बलवन के कठोर शासन में नरमी लाने का प्रयास किया। उसने राज्य का आधार ‘प्रजा का समर्थन’ माना। उसकी धारणा के अनुसार चूंकि भारत की अधिकांश जनता हिंदू थी इसलिए सही अर्थ में यहाँ कोई इस्लामी राज्य नहीं हो सकता था। सहिष्णुता और सरल दंड-विधान की नीति से उसने स्थानीय शासक वर्ग का समर्थन प्राप्त करने की कोशिश की। अगला शासक अलाउद्दीन खिलजी बना। उसने जलालुद्दीन की नीति को बिलकुल बदल डाला। जिन्होंने उसका विरोध करने का साहस किया उन्हें कठोर दंड दिया गया। अलाउद्दीन ने बड़े पैमाने पर अपने विरोधियों की हत्या की। उसने स्थानीय शासकों को अपने विरुद्ध षड्यंत्र रचने पर रोक लगाने के लिए कई कानून बनाए।

अलाउद्दीन के मरणोपरांत गयासुद्दीन तुगलक विद्रोह के बाद दिल्ली-सल्तनत की गद्दी पर बैठा। गयासुद्दीन ने एक नए वंश की स्थापना की जिसका नाम तुगलक वंश था। तुगलक वंश का शासन 1320-1412 ई. तक रहा। इस वंश में तीन महत्वपूर्ण शासक हुए – गयासुद्दीन, उसका पुत्र मुहम्मद बिन तुगलक (1324-1351 ई.) और उसका भतीजा फिरोज़ तुगलक (1351-1388 ई.)। आरंभिक दो शासकों का शासन लगभग संपूर्ण भारत पर था। फिरोज के मरने के बाद दिल्ली-सल्तनत विघटित हो गयी। यद्यपि तुगलक शासकों ने सन् 1412 ई. तक शासन किया तथापि सन् 1398 ई. में तैमूर द्वारा दिल्ली पर आक्रमण को तुगलक साम्राज्य का अंत माना गया है।

कुल मिलाकर दिल्ली-सल्तनत का शासन काल साम्राज्य के विस्तार और केंद्रीकरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। अलाउद्दीन खिलजी के सत्ता में आने से पच्चीस वर्षों के भीतर दिल्ली-सल्तनत की सेनाओं ने गुजरात और मालवा पर अधिकार कर लिया। साथ ही राजस्थान के अधिकांश राजाओं को हटाने के बाद दक्षिण भारत में दक्कन और मदुरै तक के क्षेत्रों को जीत लिया गया। आगे इस विस्तृत क्षेत्र को सीधे दिल्ली प्रशासन के अधीन रखने का प्रयास किया गया। विस्तार की नीति की शुरुआत अलाउद्दीन खिलजी के द्वारा हई। उसके उत्तराधिकारियों ने भी इस नीति को जारी रखा । मुहम्मद बिन तुगलक के काल में यह नीति अपने चरम पर पहुंच गई।

तैमूर आक्रमण के बाद सुलतान महमूद तुगलक दिल्ली से भाग गया। जब तक वह वापस दिल्ली लौटा तब तक दिल्ली के आस-पास ही कई स्थानीय शासकों और जमींदारों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। दिल्ली सल्तनत के पतन के बाद शर्की सुलतानों ने एक बड़े भू-खंड पर कानून और व्यवस्था को बनाए रखा। इस बीच कुछ समय के लिए दिल्ली पर सैयद वंश का और फिर 1451 ई. में अफगान सरदार बहलोल लोदी का शासन स्थापित हुआ। अफगानों की मदद से बहलोल ने शर्कियों को हटा दिया। इस तरह उत्तर भारत में अफगानों का वर्चस्व कायम हुआ। सबसे महत्वपूर्ण लोदी सुलतान सिकन्दर लोदी (1489-1517 ई.) था। सिकन्दर लोदी ने धौलपुर और ग्वालियर को जीतकर अपने राज्य का प्रसार किया। अपने विजय अभियान के दौरान 1506 ई. में उसने आगरा शहर की नींव डाली। इस शहर का निर्माण पूर्वी राजस्थान के क्षेत्रों तथा व्यापारिक मार्गों पर नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से किया गया था। कालान्तर में आगरा एक बड़े शहर के रूप में विकसित हुआ। आगे चलकर आगरा लोदियों की दूसरी राजधानी भी बनी। 1517 ई. में सिकन्दर लोदी की मृत्यु के बाद इब्राहीम लोदी गद्दी पर बैठा। इब्राहीम के विशाल साम्राज्य स्थापित करने के प्रयत्न से अफगान और राजपूत दोनों उसके दुश्मन बन गए। इस कारण दौलत खाँ लोदी और राणा सांगा के निमंत्रण पर बाबर भारत की ओर आया।

1525 ई. में जब बाबर पेशावर में था उसे खबर मिली कि दौलत खाँ लोदी ने अपना पलड़ा बदल दिया है, तब बाबर और दौलत खाँ के बीच युद्ध हुआ। दौलत खाँ पराजित हुआ और पंजाब पर बाबर का अधिकार हो गया। पंजाब पर विजय प्राप्त करने के बाद 20 अप्रैल 1526 ई. में बाबर की इब्राहीम लोदी से पानीपत की ऐतिहासिक लड़ाई हुई। इब्राहीम लोदी मारा गया। इस तरह अगला युद्ध राणा सांगा के साथ 1527 ई. में खनवा में हुआ। सांगा भी पराजित हुआ। उसकी मृत्यु के साथ ही बाबर के साम्राज्य का विस्तार राजस्थान तक हो गया। उसने ग्वालियर, धौलपुर, अलवर आदि पर कब्जा कर मुगल साम्राज्य का विस्तार किया। आगरा से काबुल जाते समय लाहौर में बाबर की मृत्यु हो गई। तब 1530 ई. में हुमायूँ बाबर का उत्तराधिकारी बना। हुमायूँ ने आरंभ में कई युद्धों में सफलता प्राप्त की, लेकिन कालांतर में अपने अधीनस्थ अफगान सरदार शेर खाँ से पराजित हुआ। कई युद्धों के बाद अंतत: हुमायूँ को शेर खाँ ने दिल्ली के शासन से अपदस्थ कर दिया। दिल्ली की गद्दी पर बैठते ही उसने अपना नाम शेरशाह रख लिया। वह एक कुशल योद्धा और शासक रहा। शेरशाह का शासन 1555 ई. तक रहा। उसने न सिर्फ अपने साम्राज्य का विस्तार पूरे भारत में किया अपितु कुशल प्रशासन और केंद्रीकरण के परिणामस्वरूप व्यापार को भी बढ़ाया। शेरशाह के असामयिक निधन के बाद 1555 ई. में हुमायूँ दिल्ली पर फिर से अधिकार करने में सफल हुआ। लेकिन कुछ ही दिनों में हुमायूँ का निधन (1556 ई.) हो गया। 1556 ई. में 13 वर्ष की छोटी अवस्था में ही अकबर को गद्दी मिली।

अकबर के उस्ताद और हुमायूँ के स्वामीभक्त और योग्य अधिकारी बैरम खाँ ने कठिन परिस्थिति का कुशलता और धैर्य से सामना किया। अकबर के नेतृत्व में आगे चलकर विशाल और स्थिर मुगल साम्राज्य की स्थापना हुई। उसका साम्राज्य उत्तर-पश्चिमी अफगान देश से असम तक और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में अहमदनगर तक फैला हुआ था। अकबर के शासनकाल में राज्य मूलत: धर्मनिरपेक्ष, सामाजिक विषयों में उदार तथा सांस्कृतिक एकता को प्रोत्साहित करने वाला बन गया। अकबर के बाद 17वीं सदी का पूर्वार्द्ध कुल मिलाकर प्रगति और विकास का काल था। इस अवधि में मुगल साम्राज्य जहाँगीर (1605-1627 ई.) तथा शाहजहाँ (1628-1658 ई.) इन दो शासकों के कुशल नेतृत्व में रहा। इन शासकों ने अकबर द्वारा विकसित प्रशासनिक व्यवस्था का और भी अधिक प्रसार किया। शाहजहाँ के अंत के साथ ही हिंदी साहित्य के भक्ति काल की भी समाप्ति हो गई। इसके बाद हिंदी साहित्य के इतिहास में रीतिकाल का दौर शुरू हो गया।

आर्थिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि

केंद्रीकृत शासन-व्यवस्था

तुर्कों के द्वारा भारत में शासन कायम करने से लेकर शाहजहाँ तक के राजनीतिक इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य केंद्रीकृत शासन व्यवस्था है। तुर्कों के पतन और मुगल साम्राज्य के स्थापित होने के बीच के कुछ वर्षों को छोड़ दें तो पूरा उत्तर भारत एक केंद्रीकृत शासन व्यवस्था के अधीन रहा। कभी-कभी तो साम्राज्य का विस्तार दक्षिण भारत और बंगाल तक फैल गया। केंद्रीकृत और स्थिर शासन का अर्थ-व्यवस्था पर सबसे अच्छा प्रभाव पड़ता है। इसे हम उत्तर भारत के संदर्भ में भी देख सकते हैं।

तुर्कों ने शासन-व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए केंद्रीय प्रशासन और स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था की। आय और व्यय का हिसाब रखने के लिए अधिकारियों की नियुक्तियाँ की गईं। साम्राज्य को विभिन्न सूबों में बाँटा गया और फिर सूबों को भी विभाजित किया गया, जिसे उस समय शिक कहा जाता था। शिक के नीचे परगने होते थे। गाँव में खुत, मुकद्दम, पटवारी के माध्यम से भू-राजस्व की वसूली की जाती थी। इस तरह केंद्र से लेकर गाँव तक एक सुचारू व्यवस्था कायम हुई। तुर्कों द्वारा स्थापित प्रशासनिक व्यवस्था आगे के शासकों द्वारा भी कुछ सुधारों के साथ अपनाई जाती रही।

शहरी समाज एवं व्यापार

तुर्कों के आने के बाद दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन शहरों का उदय है। दिल्ली, आगरा, बनारस, इलाहाबाद, पटना आदि कई शहरों का उदय हुआ। ये शहर आगे चलकर प्रमुख व्यापार केंद्र बने। शहरों के साथ-साथ छोटे-छोटे कस्बों का भी उदय हुआ। व्यापार के माध्यम से गाँव, कस्बे और शहरों से संबंध स्थापित हुआ। इस तरह गाँव का अलगाव दूर हुआ।

तुर्कों के साथ नई तकनीक भारत आई। इनमें चरखा, धुनकी, रहट, कागज, चुम्बकीय कुतुबनुमा, समय-सूचक उपकरण, घुड़सवार सेना, प्रौद्योगिकी प्रमुख हैं। नई तकनीकों का प्रभाव उद्योग तथा व्यापार पर पड़ा।

चरखे के आने से वस्त्र उद्योग में काफी बढ़ोतरी हुई। कारीगर की क्षमता बढ़ जाने से वस्त्र उद्योग भारत का सबसे बड़ा उद्योग हो गया। इसी काल में धुनकी भी आयी। धुनकी के आने से रुई से बीज निकालने की प्रक्रिया में भी तेजी आई। नील एवं अन्य वनस्पतिक रंजकों से अनेक चमकीले रंग बनाए जाते थे। इस तरह देखें तो वस्त्र उद्योग से भारी संख्या में लोगों को रोज़गार मिला। मुहम्मद बिन तुगलक के कारखानों में 4000 रेशमकर्मी थे जो भिन्न-भिन्न प्रकार की पोशाकों और वस्त्रों की बुनाई और कसीदाकारी करते थे। कबीरदास का संबंध इसी उद्योग से था। कबीर के साहित्य में कई रूपक बुनाई उद्योग से हैं। “झीनी झीनी बीनी चदरिया” इसका प्रसिद्ध उदाहरण है।

इस दौर में सड़कों के निर्माण का कार्य बड़े पैमाने पर हुआ। तुर्क शासक शेरशाह, मुगल शासक सभी ने सड़कें बनवायीं और सड़कों के किनारे सराय बनाकर यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था की। इसका सीधा प्रभाव व्यापार पर हुआ। इन शासकों ने व्यापार के विकास पर बहुत ध्यान दिया । उन्होंने व्यापारिक मार्गों पर सुरक्षा की व्यवस्था की। राहजनी की घटनाओं को रोकने के लिए विशेष कानून बनाया गया, जिसका सख्ती के साथ पालन किया जाता था। इस काल में शुरू होने वाला नया उद्योग कागज निर्माण का था। इसका सीधा प्रभाव व्यापार पर हुआ। हुंडी के माध्यम से सुरक्षित व्यापार का रास्ता खुल गया। इसके अतिरिक्त भवन-निर्माण उस काल में काफी हुआ। तुर्कों के आने के बाद से लेकर मुगल काल तक कई नगर बसे। किलों और महलों का निर्माण भी बहुत हुआ, जिसके परिणामस्वरूप राजमिस्त्री एवं पत्थर तराशियों का महत्व काफी बढ़ गया। कुल मिला कर देखें तो इस काल में नए शिल्पी वर्ग का उदय हुआ। भक्तिकाल के कई संत कवि इस शिल्पी वर्ग से आते हैं।

तुर्कों से लेकर मुगल काल तक उत्तर भारत में देशीय व्यापार के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार भी बढ़ गया। यहाँ से सूती वस्त्र का निर्यात बहुत ही बड़े पैमाने पर होता था। भारत में ऐसे बहुत से बंदरगाह थे जहाँ से विभिन्न देशों से व्यापार होता था। भारत दक्षिण-पूर्वी एवं पश्चिमी एशिया के कई देशों को चीनी, चावल आदि जैसे खाद्य पदार्थ भेजता था। इस पूरे दौर में व्यापार और उद्योग में काफी वृद्धि हुई जिसके परिणामस्वरूप व्यापारी समुदाय आर्थिक रूप से काफी सम्पन्न हुआ। मुगल काल के कुछ शासक खुद व्यापार करते थे। एक तरह से सामंती समाज व्यवस्था (जो भू-राजस्व पर आधारित होती है) के भीतर पूँजीवाद (जो उद्योग एवं व्यापार पर आधारित होता है) का विकास हो रहा था। इसके बावजूद नगरों में बड़ी संख्या में गरीब लोग मौजूद थे जिनका जीवन मुश्किल से चलता था।

ग्रामीण समाज

गाँव के किसानों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। बार-बार उन्हें अकाल का सामना करना पड़ता था। सिंचाई के साधनों (रहट आदि) के आने से उत्पादन में बढ़ोत्तरी हुई और गाँव के लोग वस्त्र उद्योग से जुड़े, फिर भी स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ। कई बार तो किसानों ने विद्रोह भी किया, लेकिन विद्रोहों को बुरी तरह से कुचल दिया जाता था। जमींदार और व्यापारी वर्ग की तुलना में उनकी स्थिति बहुत खराब थी। तुलसीदास के साहित्य में यह पीड़ा मौजूद है। अकाल और भूख की पीड़ा का मार्मिक चित्रण तुलसीदास ने किया है।

“कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखीं सब लोग मरै।”

तुलसी ग्रामीण चेतना के कवि हैं। उनका साहित्य तत्कालीन ग्रामीण समाज की दशा का दस्तावेज है

“खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,

बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।

जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस,

कहै एक एकन सों ‘कहाँ जाई का करी’।।”

जमींदारों के द्वारा किसानों का शोषण होता था। उस समय के ऐसे किसान जिनके पास अपनी जमीन थी, कठिन जीवन के बावजूद खाने की और दूसरी साधारण आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ थे। किंतु भूमिहीन किसानों, दस्तकारों और निचली श्रेणी के काम करने वालों की दशा और भी दयनीय थी। दरिद्रता का दुख तुलसी की निम्नलिखित पंक्तियों में देखा जा सकता है –

“नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।”

जाति व्यवस्था

ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास हिंदू धर्म को कर्मकांड के माध्यम से एकीकृत करने की कोशिश हुई। जाति व्यवस्था बनी रही। जाति और सामाजिक रीति-रिवाज की दृष्टि से हिंदू स्मृतिकारों ने ब्राह्मणों को समाज में ऊँचा स्थान देना जारी रखा। अब भी स्मृति ग्रंथों में इस बात पर जोर दिया जाता रहा कि अपराधियों को दंडित करना और अच्छे को आँखों की पुतली समझना क्षत्रियों का धर्म है। प्रजा की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करना भी उन्हीं का कर्तव्य है। शूद्रों का कर्तव्य दूसरी जातियों की सेवा करना था। शूद्रों के साथ अछूत का व्यवहार जारी रहा। मुस्लिम समाज भी नस्ल और जातिगत वर्गों में विभाजित रहा। तुर्को, इरानियों, अफगानों और भारतीय मुसलमानों में एक दूसरे के साथ वैवाहिक संबंध नहीं होता था। मुसलमानों में श्रेष्ठता की भावना, पारस्परिक विवाहों का धार्मिक निषेध और एक साथ बैठकर भोजन न करने के कारण हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सामाजिक मेल-मिलाप अधिक नहीं था। इन प्रतिबंधों के बावजूद हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सामाजिक संपर्क बना रहा। भक्ति आंदोलन की कृष्ण मार्गी धारा में कई भक्त मुसलमान थे। जाति व्यवस्था का विरोध नाथों और सिद्धों ने किया और आगे इस परंपरा में संत भक्तों की वाणियों को देखा जा सकता है।

कबीर कठोर शब्दों में पूछते हैं :

“जे तूं बाभन बाभनी का जाया । तौ आन बाट होई कहै न आया।”

तुलसीदास के साहित्य में वर्ण-व्यवस्था को लेकर अंतर्विरोध है। कहीं तो वे वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं और कहीं इस वर्ण-व्यवस्था से क्षुब्ध होकर लिखते हैं –

“धूत कहो अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोउ।

काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोउ।।

तुलसी सरनाम गुलाम है रामु को, जाको रुचै सौ कहै कछु ओऊ।

माँगि के खैबो मसीत को सोइबो, लैबो एकु न देबे को दोऊ।।”

धार्मिक पृष्ठभूमि

तुर्कों का आगमन तथा दिल्ली सल्तनत की स्थापना, विकास और खलबली दोनों साथ लेकर आया। विजय के आरंभिक चरण में अनेक शहरों को लूटा गया और मंदिरों को तोड़ा गया। कई मंदिरों को तोड़कर मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया। साम्राज्य के विस्तार के साथ यह प्रक्रिया कई चरणों में जारी रही। किंतु जैसे ही कोई प्रदेश जीत लिया गया वैसे ही शांति और विकास की प्रक्रिया आरंभ हो गई। भारत में जमने के बाद तुर्कों ने अपने मस्जिदों का निर्माण किया। हिंदुओं और जैनियों आदि के पूजास्थल के प्रति उनकी नीति मुस्लिम कानून (शरीअत) पर आधारित थी जो अन्य धर्मों के नए पूजा स्थलों के निर्माण की इजाजत नहीं देता फिर भी गाँव में जहाँ इस्लाम का प्रचार नहीं था, मंदिरों के निर्माण पर कोई प्रतिबंध नहीं था। किंतु युद्ध काल में इस उदार नीति का पालन नहीं किया जाता था।

साधारणत: इस युग में इस्लाम स्वीकार करने के लिए बल का प्रयोग नहीं किया जाता था। धर्म परिवर्तन कर इस्लाम स्वीकार करने का कारण राजनीति और आर्थिक लाभ की आशा अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने की ललक थी। कभी-कभी जब कोई प्रसिद्ध शासक या जनजाति का प्रधान धर्म परिवर्तन करता था तो उसकी प्रजा उसका अनुकरण करती थी। मुसलमान शासकों ने अनुभव किया था कि हिंदुओं में धार्मिक विश्वास इतना दृढ़ है कि बल प्रयोग द्वारा उसे नष्ट नहीं किया जा सकता था। मुसलमानों की उस समय कम जनसंख्या इसका प्रमाण है।

हिंदू धर्म का इस्लाम से संपर्क तुर्कों के आने से बहुत पहले आरंभ हो चुका था। तुर्कों के भारत आगमन के बाद यह प्रक्रिया तेज हो गई। हिंदू और मुसलमान दोनों में कुछ कट्टर लोग धर्मांधता फैला रहे थे। वे लोग दोनों धर्मों के बीच आभासित होने वाली परस्पर विरोधी प्रकृति को रेखांकित कर रहे थे। इस सबके बावजूद पारस्परिक सामंजस्य और मेल-मिलाप की धीमी प्रक्रिया आरंभ हुई। यह प्रक्रिया वास्तुकला, साहित्य, संगीत, आदि क्षेत्रों में अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रही थी। आगे चलकर यह प्रक्रिया धर्म के क्षेत्र में भक्ति-आंदोलन और सूफीवाद के रूप में दिखाई देने लगी। यह प्रक्रिया 15वीं सदी में तेजी से चली और मुगल काल (16वीं-17वीं सदी) में काफी प्रबल हो गई। इतना होते हुए भी यह मान लेना गलत होगा कि टकराव खत्म हो गया था। बल्कि मेल-मिलाप की प्रक्रिया एवं टकराव साथ-साथ चलते रहे। कुछ शासकों के काल में मेल-मिलाप की इस प्रक्रिया को धक्का लगता था, जबकि कुछ अन्य शासकों के काल में अधिक तेजी से इसका विकास होता था। यह टकराव और मेल मिलाप विशेषाधिकारी एवं शक्तिशाली लोगों तथा मानवतावादी विचारों से प्रभावित आम जनता के बीच संघर्ष का रूप था। भक्ति आंदोलन के सभी भक्त कवि सबसे पहले मानवतावादी थे।

दार्शनिक पृष्ठभूमि

वेद से बुद्ध तक

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने धर्म की भावात्मक अनुभूति को भक्ति कहा है। उनके अनुसार भक्ति का सूत्रपात महाभारत काल में और प्रवर्तन पुराण काल में हुआ। यद्यपि भक्ति के बीज वेदों में ढूँढे जा सकते हैं । वेदकाल के देवी देवता प्रकृति की विभिन्न शक्तियों के प्रतीक हैं। वेदों का मानव इन देवी-देवताओं का आवाहन करता हुआ दिखाई देता है। वहाँ इन्द्र, वरुण, सूर्य आदि अनेक दिव्य शक्ति के प्रति मानव की भावात्मक अनुभूति प्रकट हुई है। उपनिषद् युग में मानव का ध्यान प्रकृति शक्ति की अपेक्षा परमशक्ति ब्रह्म की ओर अधिक गया। विभिन्न प्रकृति देवताओं के स्थान पर त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उपासना का अधिक प्रचार हुआ। वेदोत्तर काल में व्यक्तिगत देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश) की उपासना शुरू होने पर भक्ति की संकल्पना भी पैदा हुई। ‘महाभारत’ (भगवत् गीता जिसका भाग है) में ज्ञान और  कर्म के साथ-साथ भक्ति को भी मोक्ष का एक मार्ग माना गया है।

इस तरह भारत में प्राचीन काल से ही धर्म और मोक्ष की साधना के लिए तीन मुख्य मार्ग प्रचलित रहे हैं – कर्म, ज्ञान तथा भक्ति । इनमें से कभी कर्म की प्रधानता रही, कभी ज्ञान की और कभी भक्ति मार्ग की। उपनिषद् काल में ज्ञान की प्रधानता थी जबकि ब्राह्मण काल में कर्म की। ब्राह्मण काल में कर्म पर इतना अधिक बल दिया गया कि कर्म कांड के विस्तार और उनकी विकृतियों के विरुद्ध फिर से ज्ञान और निवृत्तिमार्ग को लेकर बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। ब्राह्मण काल में आकर यज्ञ में हिंसा और पाखंड की प्रबलता हो गई। इसलिए बौद्ध एवं जैन धर्म वैदिक संस्कृति के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में आए। भारतीय धर्म के क्षेत्र में बौद्ध एवं जैन धर्म एक नया आंदोलन था। बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म ज्यों-ज्यों प्राचीन होता गया त्यों-त्यों उसमें भी वैदिक कर्मकांड का प्रवेश होता गया तथा रूढ़िवादिता बढ़ती गई।

आलवार एवं नयनार

छठी सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर दसवीं सदी तक दक्षिण भारत में अनेक संतों ने भक्ति आंदोलन का विस्तार किया। इन संतों की भक्ति विशुद्ध प्रेम पर आधारित थी। इनके उपास्य देव शिव और विष्णु थे। ये संत नयनार (जो शिव के भक्त थे) और आलवार (जो विष्णु के भक्त थे) के नाम से प्रसिद्ध हुए। नयनार और आलवार संतों ने जैनियों और बौद्धों के अपरिग्रह को अस्वीकार कर ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत भक्ति को ही मुक्ति का मार्ग बताया। इन संतों में ब्राह्मण के साथ-साथ निम्न जातियों के भी कई संत थे। उनमें । अंदाल नामक एक महिला संत भी थी जिन्होंने कहा कि ईश्वर के साथ भक्त का संबंध पति के साथ स्नेहिल पत्नी के संबंध जैसा होता है। संतों के विस्तृत आधार वाले चरित्र के कारण प्रेमपूर्ण भक्ति का उनका संदेश किसी एक वर्ग के लिए नहीं था। सभी लोग इस’भक्ति को ग्रहण कर सकते थे भले ही उनकी जाति, परिवार अथवा लिंग जो भी हो।

नयनारों और आलवारों के आक्रमण का प्रमुख लक्ष्य बौद्ध धर्म और जैन धर्म थे। उन दिनों दक्षिण भारत में बौद्ध एवं जैन अधिक प्रभावशाली थे। आम जनता को अपने साथ लाने में नयनार एवं आलवार संतों को सफलता मिली। इसका कारण कालांतर में बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म का दकियानूस एवं पुराण पंथी हो जाना था। वे निरर्थक अनुष्ठानवाद में लिप्त हो गए थे तथा लोगों की भावनात्मक आवश्यकताओं की। पूर्ति कर पाने में समर्थ नहीं रह गए थे। नयनार एवं आलवार संतों ने स्थानीय मिथकों एवं गाथाओं का सहारा लिया। उनकी भाषा आम लोगों की भाषा (तमिल एव तेलुगू) थी। इस तरह उन्होंने एक सरल एवं सहज धर्म का प्रचार-प्रसार किया। ये संत आम लोगों पर भावात्मक प्रभाव डालने में सफल हुए। इस आंदोलन को कई स्थानीय शासकों का भी समर्थन प्राप्त हुआ। लोगों का विश्वास और स्थानीय शासकों के समर्थन से यह आंदोलन पूरे दक्षिण भारत में फैल गया।

शंकराचार्य

आठवीं-नवीं सदी में दार्शनिक स्तर पर बौद्ध विचारों से टकराने की भूमिका शंकराचार्य ने निभाई। बौद्धों का प्रभाव घटाने तथा वेदों और ब्राह्मणों की महत्ता की स्थापित करने के लिए शंकराचार्य ने अपने दार्शनिक चिंतन में अद्वैतवाद के सिद्धांत पर जोर दिया। अद्वैतवाद का आधार है – ब्रह्म सत्य है जगत् मिथ्या है। आत्मा परमात्मा ही है, वह उससे भिन्न या पृथक नहीं है। सांसारिक माया के कारण मानव आत्मापरमात्मा की एकता को पहचानने की भूल करता है। शंकराचार्य एक ओर बौद्ध एवं जैन दर्शन का विरोध कर रहे थे तो दूसरी ओर उनका विरोध आलवार एवं नयनार से था। शंकराचार्य के दर्शन में वर्ण-व्यवस्था का समर्थन किया गया है। कुल मिलाकर शंकराचार्य के दर्शन ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को मजबूत करने का ही कार्य किया। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि शंकराचार्य ने ज्ञान के साथ-साथ निर्गुण ब्रह्म की उपासना का प्रचार किया। ईश्वर को शिव का स्वरूप देकर जन-साधारण के लिए शैव उपासना और पंडितों के लिए ज्ञान मार्ग के द्वारा एकेश्वरवाद का मार्ग प्रशस्त किया।

वैष्णव आचार्य

इस प्रकार हम देखें तो 10वीं सदी तक दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन ने बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म पर विजय प्राप्त कर ली थी। परंतु आगे चलकर दक्षिण भारत का भक्ति आंदोलन धीरे-धीरे अपना उन्मुक्त और समतावादी चरित्र खोने लगा। संतों द्वारा जातिगत प्रतिबंध की उपेक्षा करने के बावजूद जाति व्यवस्था और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती नहीं दी गई। मंदिरों की संख्या में काफी वृद्धि हुई। बृहत् अनुष्ठान एवं कर्मकांड की अधिकता होने लगी। इन अनुष्ठानों एवं कर्मकांड के माध्यम से ब्राह्मणों की शक्ति बढ़ गई। इस स्थिति को सुधारने का प्रयास रामानुजाचार्य ने किया। उन्होंने आलवारों की भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया। उनके मत को विशिष्टाद्वैतवाद के नाम से जाना गया। नयनार और आलवार संत पुस्तकीय ज्ञान की उपेक्षा करते थे, जबकि रामानुज ने भक्ति को वेदों की परंपरा के साथ जोड़ने का प्रयास किया। उनके मत में भक्ति का मार्ग सबके लिए खुला था। इसके बावजूद निम्न वर्ग के साथ खान-पान का निषेध बना रहा। आलवारों की भक्ति रामानुज के यहाँ दार्शनिक आधार पाकर नए युग की चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम हुई। भक्ति आंदोलन के इस विकास क्रम में आगे चलकर रामानन्द आए।

आइए, अब हम उन संप्रदायों की चर्चा करें जिनकी टकराहट शंकराचार्य के अद्वैतवाद से हई। शंकराचार्य का निर्गुण ज्ञानवाद मन में बैठी निराशा से मानव को मुक्ति नहीं दे सका। यही कारण है कि आगे चलकर चिंतकों ने अद्वैतवाद का डटकर विरोध किया तथा वैष्णव संतों द्वारा निम्नलिखित चार मतों की स्थापना हुई।

 काल                           संस्थापक                        मत                                      संप्रदाय

12वीं शताब्दी              रामानुजाचार्य                    विशिष्टाद्वैतवाद                    श्री संप्रदाय

13वीं शताब्दी             मध्वाचार्य                           द्वैतवाद                                 ब्राह्म संप्रदाय

13वीं शताब्दी             विष्णुस्वामी                       शुद्धाद्वैतवाद                            रुद्र संप्रदाय

13वीं शताब्दी             निम्बार्काचार्य                    द्वैताद्वैतवाद                         सनकादि संप्रदाय

इन चारों वैष्णव संप्रदायों ने शंकराचार्य के अद्वैत और ज्ञान मार्ग का विरोध किया। थोड़े बहुत अंतर के होते हुए भी इन सबकी प्रवृत्ति सगुण भक्ति की ओर होती चली गई। इन सभी ने ब्रह्म और जीव की पूर्ण एकता को अस्वीकार किया तथा इस धारणा का प्रचार-प्रसार किया कि सांसारिक जन्म के बाद जीव का ब्रह्म से एकीकरण समाप्त हो जाता है। हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में राम मार्गी भक्ति और कृष्ण मार्गी भक्ति का संबंध इन संप्रदायों से है।

राममार्गी भक्ति

रामानुजाचार्य के शिष्य राघवानंद ने उनके विचारों का प्रसार उत्तर भारत में किया। राघवानंद ने रामानुजाचार्य के सिद्धांत में कुछ संशोधन भी किया। इन संशोधनों में वैष्णव भक्ति में जाति पाँति के बंधन को तोड़ने की भावना, लक्ष्मीनारायण के उपास्य रूप के साथ सीता-राम की उपासना, भक्ति को योग से समन्वित करना आदि महत्वपूर्ण है। राघवानंद के शिष्य रामानन्द हुए। रामानन्द ने श्री संप्रदाय का प्रसार 14वीं सदी में राम भक्ति के रूप में किया। रामानन्द ने भी सभी वर्गों और वर्गों के लोगों को भक्ति का अधिकारी बताया। उन्होंने निम्न वर्ग के लोगों के साथ खान-पान पर निषेध का विरोध किया। ब्रह्म के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों की भक्ति का उपदेश उन्होंने दिया। उनके अनुसार सगुण ब्रह्म को ज्ञान और वैराग्यमुक्त प्रेमयोग से तथा निर्गुण ब्रह्म को प्रेम और वैराग्यमुक्त ज्ञानयोग से प्राप्त किया जा सकता है। यही कारण है कि रामानन्द के अनुयायियों में निर्गुण संत तथा सगुण भक्त दोनों हुए। इन के बारह शिष्य जो प्रसिद्ध हैं वे हैं : रैदास, कबीर, धन्ना, सेना, पीपा, भवानंद, सुखानंद, अनंतानंद, सुरसुरानंद, पद्मावर्ती, सुरसुरी। रामानन्द ने अपने मत का प्रचार लोक भाषा में किया।

कृष्णमार्गी भक्ति

रामानुजाचार्य के श्री संप्रदाय का उत्तर भारत में विकास रामभक्ति के रूप में हुआ, जबकि कृष्ण भक्ति का संबंध मध्वाचार्य के ब्रह्म संप्रदाय, विष्णुस्वामी के रुद्र संप्रदाय और निम्बार्काचार्य के सनकादि संप्रदाय से है। इन तीनों प्रवर्तकों के अनुयायियों में कुछ ऐसे भी हुए जिन्होने संप्रदाय विशेष में दीक्षित होकर भी निजी सिद्धांतों के आधार पर स्वतंत्र भक्ति संप्रदायों की स्थापना की। ऐसे अनुयायियों में चैतन्य महाप्रभु (1485-1533 ई.) और महाप्रभु बल्लभाचार्य (1478 ई.) प्रमुख हैं । बल्लभाचार्य की शिष्य परंपरा में हिंदी साहित्य के कृष्ण भक्त कवि आते हैं। बल्लभाचार्य की भक्ति को पुष्टिमार्गी भक्ति के नाम से जाना जाता है। अष्टछाप कवियों का संबंध इसी पुष्टिमार्गी भक्ति से है।

निर्गुण संत साहित्य

निर्गुण संतों का संबंध एक तरफ रामानन्द से है तो दूसरी तरफ ये नाथों एवं सिद्धों से भी प्रभावित हैं। इस्लाम के आने से पहले उत्तर भारत में ब्राह्मण धर्म के विरोध में कुछ पंथ सक्रिय थे। नाथपंथी एवं सिद्ध इनमें प्रमुख थे। राजपूत राजाओं की पराजय और तुर्कों का साम्राज्य स्थापित होने से ब्राह्मणों का आदर और उनकी शक्ति कम हो गई। परिणामत: नाथपंथ जैसे वे आंदोलन, जो वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणों के श्रेष्ठत्व को चुनौती देते थे. पनपने लगे और उन्हें लोकप्रियता मिली। नाथों एवं सिद्धों में अक्सर निम्न जातियों के लोग होते थे। चमत्कारिक शक्तियों में उनका विश्वास था। वे वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मण धर्म की आचार संहिता तथा कर्म कांड के सख्त विरोधी थे। समाज में व्याप्त मान्यताओं के प्रति अपना विरोध दर्शाने के लिए उनमें से कुछ लोगों ने वर्जित भोजन एवं पेय ग्रहण करना शुरू कर दिया। कुछ ने तो उच्चतर ज्ञान की प्राप्ति के लिए उन्मुक्त प्रेम की वकालत भी की। यद्यपि नाथपंथियों ने उच्च नैतिक स्तर अपनाया, किंतु ब्राह्मणों ने उन सबको भ्रष्ट और समाज का शत्रु करार करते हुए उनकी भर्त्सना की। नाथों का विस्तार मध्यदेश के पश्चिमोत्तर भागों में हुआ जबकि सिद्धों का पूर्वी भाग में। उत्तर भारत के निर्गुण संत साहित्य की पृष्ठभूमि के तौर पर नाथों एवं सिद्धों के साहित्य को देखा जा सकता है। सिद्धों एवं नाथों ने संधा भाषा शैली में रचनाएँ की हैं।

संधा भाषा एक प्रकार की प्रतीक भाषा है। उन्होंने अंत:-साधनात्मक अनुभूतियों को प्रतीक भाषा में ही व्यक्त किया है। यह कबीर के साहित्य में भी मौजूद है। इसे उलटबाँसी भी कहा जाता है। नाथों एवं सिद्धों के साथ ही कबीर आदि निर्गुण संतों पर महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर और नामदेव का प्रभाव भी देखा जा सकता है। सामाजिक क्षेत्र में समानता की भावना का विचार आलवारों, महाराष्ट्र के संतों और उत्तर भारतीय निर्गुण संतों में एक समान है। कबीर आदि निर्गुण संत रामानन्द के शिष्य होते हुए भी श्री संप्रदाय से नहीं जुड़े। इन संतों ने अपना स्वतंत्र विकास किया।

सूफ़ी भक्ति साहित्य

भारत में सूफी संप्रदाय अपेक्षाकृत नया है। इस्लाम के आगमन के साथ सूफी साधकों का आगमन होने लगा। तब तक भारत में भक्ति आंदोलन अपना स्वरूप ग्रहण कर चुका था। भारत में सूफ़ी साधकों के कई संप्रदाय हैं, इनमें चिश्ती संप्रदाय, कादिरा संप्रदाय, सुहरावर्दी संप्रदाय, नक्शबंदी संप्रदाय और शत्तारी संप्रदाय प्रमुख हैं। सल्तनत काल के दौरान भारत में उन्नति करने वाले दो सर्वाधिक प्रसिद्ध सूफी संप्रदाय चिश्ती और सुहरावर्दी थे। सुहरावर्दी संप्रदाय के लोग मुख्य रूप से पंजाब और सिंध में सक्रिय थे, जबकि चिश्ती लोग दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों, राजस्थान, पंजाब के कुछ भाग, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मालवा, गुजरात आदि एवं बाद में दक्षिण में भी फैल गए।

रहस्यवादियों का जन्म इस्लाम के अंतर्गत बहुत पहले हो गया था। यही रहस्यवादी बाद में सूफी कहलाए। इनमें से अधिकांश ऐसे थे जो महान भक्त थे। ये भक्त समृद्धि के भोंडे प्रदर्शन और इस्लामी साम्राज्य की स्थापना के बाद उत्पन्न नैतिक पतन के कारण दुखी थे। यही कारण था कि सूफियों को राज सत्ता से कोई सरोकार नहीं था। बाद में उनमें यही परंपरा जारी रही। सूफ़ियों ने ईश्वर और व्यक्ति के बीच प्रेप संबंध पर बहुत बल दिया। उनकी सर्वेश्वरवादी दृष्टि के कारण उनमें और इस्लामिक परंपरावादी तत्वों के बीच संघर्ष की स्थिति कई बार उत्पन्न हुई। इसके बावजूद मुस्लिम जनता में रहस्यवादी विचारों का प्रसार बढ़ता रहा। सूफ़ियों तथा हिंदू योगियों और रहस्यवादियों के बीच प्रकृति, ईश्वर, आत्मा और पदार्थ के संबंध में विचारों की काफी समानता है। यही बात पारस्परिक सहनशीलता और एक-दूसरे के सिद्धांतो को समझ सकने के संदर्भ में भी कही जा सकती है। सूफियों की साधना भारतीय भक्तों एवं संतों के अनुकूल थी। इन सूफी साधकों ने समान भाव से हिंदू और मुसलमान दोनों का आदर और विश्वास प्राप्त किया। सूफ़ी कवियों ने हिंदू घरों में प्रसिद्ध कथानकों के माध्यम से सूफी रचनाएँ की। सर्वेश्वरवादी होने के कारण सूफ़ी साधक भी इस भक्ति आंदोलन में शामिल हो गए।

भक्तिकाल का उदय (विभिन्न विद्वानों के मतों की व्याख्या)

उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन के उदय को लेकर हिंदी साहित्येतिहास में व्यापक विचार विमर्श हुआ है। इस संबंध में सर्वप्रथम जार्ज ग्रियर्सन ने अपना विचार व्यक्त करते हुए लिखा है – “हम अपने को एक ऐसे धार्मिक आंदोलन के सामने पाते हैं, जो उन सब आंदोलनों से कहीं अधिक व्यापक और विशाल है, जिन्हें भारतवर्ष ने कभी देखा था। इस युग में धर्म, ज्ञान का नहीं, बल्कि भावावेश का विषय हो गया था। यहाँ से हम साधना और प्रेमोल्लास के देश में आते हैं और ऐसी आत्माओं का साक्षात्कार करते हैं जो काशी के दिग्गज पंडितों की जाति का नहीं है, बल्कि जिसकी एकता मध्य युग के यूरोपियन भक्त बर्नर्ड ऑफ क्लेअरवक्स, टामस-ए-केम्पिस और सेंट थेरिसा से है। बिजली की चमक के समान अचानक इस , समस्त पुराने धार्मिक मतों के अंधकार के ऊपर एक नयी बात दिखायी दी। कोई हिंदू यह नहीं जानता कि यह बात कहाँ से आई और कोई भी इसके प्रादुर्भाव का कारण निश्चय नहीं कर सकता।”

ग्रियर्सन ने अनुमान किया है कि ईस्वी सन् की दूसरी-तीसरी शताब्दी में नेस्टोरियन ईसाई मद्रास प्रेसिडेंसी के कुछ हिस्सों में आकर बस गए थे। रामानुजाचार्य ने इन्हीं ईसाई भक्तों से भावावेश और प्रेमोल्लास की धार्मिक भावना का परिचय प्राप्त किया था, जो आगे चलकर उत्तर भारत में प्रचारित प्रसारित हुआ। इस आधार पर जार्ज ग्रियर्सन ने उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन को ईसाइयत की देन सिद्ध किया है। ग्रियर्सन के इस विश्लेषण का बाद के सभी इतिहासकारों ने विरोध किया। फिर भी ग्रियर्सन महत्वपूर्ण है तो बस इसलिए कि उन्होंने भक्ति आंदोलन की पहचान सबसे पहले की।

ग्रियर्सन के बाद हिंदी साहित्य का पहला वैज्ञानिक इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का है। उन्होंने भक्तिकाल का विश्लेषण विस्तार से किया है। शुक्लजी की दृष्टि में भक्ति साहित्य हतोत्साहित और पराजित हिंदू जनता की प्रतिक्रिया है। उनके अनुसार देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर मुसलमान शासकों द्वारा देव मन्दिर गिराए गए और हिंदुओं के पूज्य प्रतिष्ठित पुरुषों का अपमान किया जाने लगा। यह सब होने के बावजूद हिंदू जनता कुछ नहीं कर सकती थी। शुक्ल जी के शब्दों में – “ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?”

आचार्य शुक्ल के उपर्युक्त विश्लेषण की दृष्टि क्या है? शुक्ल जी का मानना है कि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। यहाँ दो बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। पहली बात यह है कि शुक्ल जी का बल तत्कालीन परिस्थिति पर अधिक है। इसलिए वे तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के संदर्भ में साहित्य को देखते हैं । यही कारण है कि ‘आदिकाल’ का नामकरण शुक्लजी ने ‘वीरगाथा काल’ किया है। आदिकाल की राजनीतिक परिस्थिति को देखें तो यह समय इस्लाम के आक्रमण का काल है। शुक्लजी ने उस समय के साहित्य का विश्लेषण इस्लाम आक्रमणकारियों के विरुद्ध हिंदू राजाओं के वीरतापूर्ण युद्ध की गाथाओं के रूप में किया है। इसी क्रम में भक्ति काल की व्याख्या को भी देखा जा सकता है। तत्कालीन परिस्थितियों के । दबाव के परिणास्वरूप शुक्ल जी ने भक्तिकाल के आरंभ के कारण की व्याख्या ‘मुस्लिम आक्रमणकारियों से पराजित और अपने पौरुष से हताश जाति का भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ले जाना’ कहकर की है। यह आचार्य शुक्ल की इतिहास दृष्टि का परिणाम है। इसे ध्यान में रखकर ही शुक्लजी की भक्तिकाल के आरंभ की व्याख्या को ठीक से समझा जा सकता है। अपने विश्लेषण में शुक्लजी ने उस समय के इतिहास के केंद्रीकरण की विशेषता को रेखांकित किया है।

केंद्रीकरण के परिणामस्वरूप आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में शुक्लजी के समय इतिहास में शोध नहीं हुआ था। इस परिवर्तन को हम पहले देख चुके हैं। हिंदू मंदिरों को तोड़ने का कार्य युद्ध के समय ही होता था। यह इतिहासकारों के परवर्ती शोध से पता चलता है। इसकी चर्चा भी हम चुके हैं। इसलिए शुक्लजी के विश्लेषण की सीमा बहुत दूर तक उस समय के शोध की सीमा है।

आचार्य शुक्ल उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन का संबंध दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलन से जोड़ते हैं। शुक्लजी का निष्कर्ष इस प्रकार है – “भक्ति का जो स्रोता दक्षिण की ओर से धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदयक्षेत्र में फैलाने के लिए पूरा स्थान मिला।’ यहाँ हम ‘भक्ति द्राविड़ ऊपजी, लायो रामानंद’ वाली जनोक्ति देख सकते हैं। ‘धार्मिक एवं दार्शनिक पृष्ठभूमि’ के विश्लेषण में दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलन से उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन का संबंध” हम देख चुके हैं। यहाँ शुक्ल जी ने भक्ति का मूल स्रोत दक्षिण भारत में माना है, किंतु उसके विकास और प्रसार के लिए अनुकूल परिस्थिति प्रस्तुत करने का संबंध उनके अनुसार सीधे तत्कालीन सामाजिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की इतिहास दृष्टि शुक्लजी से भिन्न है। द्विवेदी जी हिंदी साहित्य की भूमिका’ में लिखते हैं – “मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस (हिंदी) साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।’ द्विवेदी जी तात्कालिकता को तो महत्वपूर्ण मानते हैं, परंतु तात्कालिकता का प्रतिशत उनके यहाँ चार आना ही है। द्विवेदी जी का बल परंपरा’ पर अधिक है। इसे उन्होंने ‘भारतीय पंरपरा का स्वाभाविक विकास’ या ‘भारतीय साहित्य की प्राणधारा’ कहा है। प्राणधारा’ या स्वाभाविक विकास’ स्वभावत: परिवर्तनशील है, किंतु परिवर्तन का यह क्रम अटूट भी है। द्विवेदी जी ने भक्ति आंदोलन को इसी प्राणधारा या स्वाभाविक विकास के रूप में पहचाना है।

द्विवेदी जी ने ‘हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास’ में लिखा है – “यह बात अत्यन्त उपहासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मंदिर तोड़ रहे थे तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार के कारण यदि भक्ति की भावधारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिंध में या फिर उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर प्रकट हुई वह दक्षिण भारत में।” इस तरह द्विवेदी जी ने शुक्लजी की हतदर्प पराजित जाति की प्रतिक्रिया” वाली अवधारणा का खंडन किया है। उन्होंने इस्लाम के प्रभाव को पूरी तरह से नकारा नहीं है। इस्लाम के प्रभाव को द्विवेदी जी ने सिर्फ चार आना ही माना है। सवाल उठता है कि बाकी का बारह आना’ क्या है ?

द्विवेदी जी का मानना है कि भारतीय पाण्डित्य ईसा के एक हजार साल बाद आचार-विचार और भाषा क्षेत्रों में स्वाभाविक रूप से ‘लोक’ की ओर झुक रहा था। ऐसे में आगे की शताब्दियों में इस्लाम का विस्तार न भी हुआ होता तब भी ‘भक्ति’ आंदोलन का रूप ले लेती। इसका कारण उनके अनुसार ‘भीतर की शक्ति’ है। ‘भीतर की शक्ति’ से उनका संकेत ‘लोक शक्ति’ की ओर है। यही लोक शक्ति शास्त्र को लोक की ओर झुकने के लिए बाध्य कर रही थी। इस तरह द्विवेदी जी भक्ति आंदोलन को लोक आंदोलन या जन आंदोलन के रूप में पहचानते हैं। नामवर सिंह ने ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में द्विवेदी जी की मध्ययुग विषयक दृष्टि को रेखांकित करते हुए लिखा है – “इस प्रकार मध्ययुग के भारतीय इतिहास का मुख्य अंतर्विरोध शास्त्र और लोक के बीच का द्वंद्व है, न कि इस्लाम और हिंदू धर्म का संघर्ष ।’ द्विवेदी जी शास्त्र की इसी लोकोन्मुखता को भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि मानते हैं।

भक्ति आंदोलन की अभिव्यक्ति मुख्यत: चार मार्गों में हुई – ज्ञानमार्गी, प्रेममार्गी, कृष्णमार्गी और राममार्गी भक्ति। द्विवेदी जी ने चारों मार्गों की भक्ति को भारतीय परंपरा में दिखाया है। ‘धार्मिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि’ में इसे हम जान चुके हैं। इन चारों मार्गों की भक्ति के साहित्य को द्विवेदी जी ने महाभारत, रामायण, संस्कृत साहित्य, बौद्ध साहित्य, जैन साहित्य की परंपरा में दिखाया है। सूफी भक्तों ने अपने साहित्य में जिन कथानकों को चुना है यह द्विवेदी जी के अनुसार भारतीय लोककथा से लिए गए हैं। (विशेष अध्ययन के लिए देखें हिंदी साहित्य की भूमिका – आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी) द्विवेदी जी ने साहित्य की परंपरा में ‘शास्त्र का लगातार लोक की ओर झुकाव’ को रेखांकित किया है। इसका एक बड़ा प्रमाण भक्त कवियों द्वारा लोक भाषा का चुनाव भी है। द्विवेदी जी शास्त्र के लोक की ओर झुकाव को स्वाभाविक विकास मानते हैं। उन्होंने भक्ति आंदोलन को इसी स्वाभाविक विकास के रूप में समझने का प्रस्ताव किया है। द्विवेदीजी ने उत्तर भारत की भक्ति को दक्षिण भारत के आलवार भक्तों से जोड़ा है। यह परंपरा वैष्णव । आंदोलन की परंपरा है। (दार्शनिक पृष्ठभूमि में इस विषय पर हम विचार कर चुके हैं)

इस तरह हम देखते हैं कि शुक्लजी के यहाँ तात्कालिक परिस्थितियाँ महत्वपूर्ण थी, जबकि द्विवेदी जी के यहाँ उससे आगे बढ़कर तात्कालिक परिस्थिति और परंपरा का योग है। यहीं यह प्रश्न उठता है कि ‘शास्त्र’ लोक की ओर झुकने के लिए क्यों मजबूर हुआ? इसका कोई आर्थिक सामाजिक कारण भी है? समाज के आर्थिक संबंधों में ऐसा कौन सा परिवर्तन हुआ जिसके कारण भक्ति की चेतना आंदोलन के रूप में सामने आई? इन प्रश्नों पर शुक्लजी और द्विवेदीजी के यहाँ विचार नहीं हुआ है। इन प्रश्नों का उत्तर देने की कोशिश आगे चलकर के दामोदरन और इरफान हबीब जैसे इतिहासकारों ने की है। हिंदी साहित्य के इतिहास के संदर्भ में आर्थिक पहलू को ध्यान में रखकर भक्तिकाल की व्याख्या मुक्तिबोध और डॉ. रामविलास शर्मा ने की है। आगे हम रामविलास जी की व्याख्या को समझने का प्रयास करेंगे। रामविलास जी के विश्लेषण में परवर्ती इतिहासकारों के शोध का प्रभाव देखा जा सकता है।

डॉ. रामविलास शर्मा ने भक्ति आंदोलन को हिंदी प्रदेश के सामाजिक-ऐतिहासिक संदर्भ में देखने का प्रयास किया है। सबसे पहले उन्होंने हिंदी प्रदेश में ‘आधुनिक हिंदी भाषी जाति’ के निर्माण की प्रक्रिया को समझाने का प्रयास किया। जाति के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण है उत्पादन-वितरण व्यवस्था। भारत में वैदिक काल में भरत, कुरु, पांचाल आदि अनेक गण समाज थे। ऐसे समाज में उत्पादन सामूहिक श्रम द्वारा होता है और वितरण का स्वरूप भी सामूहिक होता है। गण-समाज के टूटने पर लघु जातियाँ बनती हैं। लघु जातियों का संबंध सामंती समाज व्यवस्था से है। इस समाज में उत्पादन सामूहिक श्रम के स्थान पर श्रम विभाजन के आधार पर छोटे पैमाने पर होता है। श्रम विभाजन पर आधारित उत्पादन व्यवस्था के परिणामस्वरूप ही वर्णव्यवस्था जैसी समाज व्यवस्था का चलन होता है। इस व्यवस्था में उत्पादन उपभोग के लिए होता है न कि व्यापार के लिए। सामंती समाज की लघु जातियों से आधुनिक जातियों का निर्माण होता है। ब्रज, अवधी, बुन्देली आदि लघुजातियों से आधुनिक हिंदी भाषी जाति का निर्माण हुआ। रामविलास जी ‘जाति’ का अर्थ भूमि से अलग सिर्फ मानव समुदाय मानते हैं। उनके अनुसार जाति वह मानव समुदाय है जो व्यापार द्वारा पूँजीवादी संबंधों के प्रसार के साथ गठित होता है। जाति का संबंध ‘राष्ट्रीय एकता की भावना’ से है। इस राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास परस्पर आर्थिक विनिमय, सांस्कृतिक संपर्क, भाषागत समानता और . संबद्ध ऐतिहासिक पंरपराओं में होता है।

हमने राजनीतिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि में देखा कि 12वीं सदी के बाद केंद्रीकरण का दौर आया। उससे पहले गाँव की अर्थ-व्यवस्था बहुत कुछ आत्म निर्भर थी। तुर्क बादशाहों ने बाजार, तोलने के बाट, सिक्के आदि में सुधार किया। इन सुधारों का फायदा व्यापारियों को हुआ। नई-नई मंडियाँ और नए-नए शहर आबाद हुए। शेरशाह (16वीं सदी के पूर्वार्द्ध) के समय में सड़कें और नहरें बनीं जो व्यापार में काफी सहायक सिद्ध हुईं। शेरशाह ने किसान और राज्य के बीच सीधा संबंध स्थापित किया। अकबर के समय तक सामंतों और जागीरदारों की ताकत कम हुई। केंद्रीय सत्ता मजबूत हुई। व्यापार में इस सबसे काफी बढ़ोत्तरी हुई। उत्पादन अब व्यापार के लिए होने लगा। कुल मिलाकर व्यापार द्वारा पूँजीवादी संबंधों का प्रसार हुआ। पुराने जनपदों का अलगाव दूर हुआ। पटना, बनारस, इलाहाबाद, आगरा और दिल्ली व्यापार के बड़े केन्द्र थे। इन केंद्रों में कारीगर और व्यापारी बड़ी संख्या में एकत्र होते थे।

जनपदों का एक दूसरे के नजदीक आना और उनका अलगाव दूर होना यह भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भी देखा जा सकता है। रामचरितमानस’ अवधी में रचित होने के बावजूद ब्रज, भोजपुरी इलाके में भी अपनाया गया। शहर, देहात, कुल मिलाकर देखें तो पूरे हिंदी प्रदेश में यह स्वीकृत और लोकप्रिय रचना है। तुलसीदास अवध के होते हुए भी ब्रजभाषा में लिख रहे थे। कबीर और खुसरों खड़ी बोली में और मीरा, सूर, रसखान, रहीम आदि ब्रजभाषा में लिख रहे थे। इन सबका प्रसार पूरे हिंदी प्रदेश में हो रहा था। आगे चलकर ब्रज भाषा, अवधी, खड़ी बोली आदि सभी जनपदीय बोलियों का विकास हिंदी जाति में हुआ। हिंदी जाति की सबसे बड़ी विशेषता उसका जनवादी स्वर है। रामविलास जी भक्ति आंदोलन को एक जातीय और जनवादी आंदोलन कहते हैं। सामन्ती उत्पीड़न, वर्ण व्यवस्था और पुरोहितों सामंतों के विशेष अधिकारों के विरोध का स्वर भक्ति आंदोलन में देखा जा सकता है।

” अब न बसौ इही गाँव गोसाँई” – कबीर

“धूत कहौ अवधूत कहौ” – तुलसी

हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कुछ मतभेद जरूर था, लेकिन इनकी दो अलग संस्कृतियाँ नहीं थी। जायसी, रसखान, रहीम, आलम, शेख, पजनेस वगैरह की वही संस्कृति थी जो सूर, तुलसी, नन्ददास, दादू, रैदास आदि की थी।

हमने देखा कि पूँजीवादी संबंधों का प्रसार तो इस काल में हो रहा था, लेकिन सामंती व्यवस्था बनी हुई थी। सामंती व्यवस्था में दरबारी संस्कृति पल रही थी। रीतिवाद का संबंध इसी दरबारी संस्कृति से है। जबकि जातीय और जनवादी संस्कृति का संबंध पूँजीवादी संबंधों के प्रसार से है। “संतन को कहाँ सीकरी सों काम” में सीकरी दरबार का प्रतीक है। भक्ति साहित्य लोक से जुड़ा साहित्य है। यह ‘लोक’ पूँजीवादी संबंधों के प्रसार से पैदा हुआ है। पूँजीवादी संबंधों का प्रसार ही वह कारण है जो ‘शास्त्र’ को ‘लोक’ की ओर झुका रहा था। ‘शास्त्र का लोक की ओर झुकाव’ को हमने द्विवेदी जी के विश्लेषण में देखा है। भक्ति आंदोलन इसी अर्थ में लोक जागरण का काल है। सत्रहवीं सदी के बाद जैसे ही केंद्रीय सत्ता कमजोर हुई समूचे भारत में कई छोटे-छोटे राज्य स्वतंत्र हो गए। व्यापारिक विकास रुक गया। सामंती संस्कृति फिर से वर्चस्व में आ गई। इसके साथ ही भक्ति काल का अंत हो गया और रीतिकाल आ गया । भक्ति आंदोलन के साहित्य का संबंध सामंती समाज और उसके सौंदर्य बोध से अलग लोक केंद्रित है। इस साहित्य का श्रोता/पाठक सामंत नहीं बल्कि लौकिक या जन साधारण थे। इसके परिणामस्वरूप इस साहित्य के विषय, शिल्प भाषा, सब पर लोक’ का दबाव है।

भक्ति आंदोलन का अखिल भारतीय स्वरूप

अभी तक हमने जान लिया है कि भक्ति आंदोलन की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण भारत में हुई। दक्षिण भारत का भक्ति आंदोलन बाद के दिनों में भारत के कई क्षेत्रों में फैला। यह आंदोलन दक्षिण से उत्तर भारत में कैसे विकसित हुआ इसे हम समझ चुके हैं। दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलन का एक सूत्र महाराष्ट्र के भक्ति आंदोलन से जुड़ा। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में संत ज्ञानेश्वर, नामदेव आदि भक्तों ने इस आंदोलन के मा यम से महाराष्ट्र में एक जातीय एवं सांप्रदायिक एकता को मजबूत किया। आरंभिक दौर में कट्टर पुराण पंथियों द्वारा इन संतों का विरोध भी हुआ और इन संतों को कष्टमय जीवन बिताना पड़ा। लेकिन भक्ति आंदोलन के दृढ़ हो जाने पर यह विरोध टिक नहीं सका। सत्रहवीं शताब्दी में तुकाराम और रामदास तक आते-आते यह आंदोलन महाराष्ट्रीय जनजीवन की एक शक्ति बन गया। इसी के परिणास्वरूप आगे चलकर शिवाजी के माध्यम से राजनीतिक रूप से महाराष्ट्र का जन्म हुआ। महाराष्ट्र के भक्ति आंदोलन में सगुण-निर्गुण का विवाद नहीं था। इसी तरह बंगाल में चण्डीदास से लेकर चैतन्य (1485-1533 ई.) तक सभी भक्तों ने मनुष्य मात्र की समानता पर जोर देते हुए वैष्णव भक्ति आंदोलन को दृढ़ किया। इन भक्तों का संबंध भी दक्षिण के वैष्णव आंदोलन से है। इन्होंने मनुष्य मात्र की समानता पर जोर दिया –

“शुनह मानुष भाई,

शबार उपरे मानुष शत्तो

ताहर उपरे नाई।”

– चण्डीदास

जाति और धर्म के बंधन का इन्होंने विरोध किया। हिंदू तथा मुसलमानों की निम्न श्रेणियों वाले लोग भी चैतन्य के शिष्य थे। रुज, सनातन, हरिदास आदि मुसलमान थे, जो चैतन्य के प्रधान शिष्यों में गिने जाते थे। इनके यहाँ सगुण-निर्गुण का विवाद नहीं था। उन्होंने जाति आधारित धार्मिक प्रणालियों को त्याग कर कृष्ण की शरण में जाने का संदेश दिया। पंजाब प्रांत में गुरु नानक साहब ने सिख संप्रदाय की स्थापना की। नानक से लेकर गुरु गोविन्द सिंह तक संतों की लम्बी पंरपरा है जिन्होंने समाज को संगठित करने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आगे चलकर इस संप्रदाय की क्रांतिकारी भूमिका सामने आई। इस तरह हम देखते हैं कि भक्ति आंदोलन का स्वरूप अखिल भारतीय था। भक्ति आंदोलन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है कि उसने संपूर्ण भारत को एक सांस्कृतिक सूत्र में जोड़ दिया।

दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन का उदय

इतिहासकारों ने दक्षिण भारत में भक्ति के उदय की व्याख्या सामाजिक ऐतिहासिक संदर्भो में की है। उनके अनुसार जो स्थिति उत्तर भारत में 13वीं – 14वीं सदी में उत्पन्न हुई वह दक्षिण भारत में पहली सदी के बाद ही पैदा हो गई थी। दक्षिण भारत में पहली शताब्दी के बाद कई शताब्दियों तक राजसत्ता अनेक पराक्रमी शासकों के हाथ में रही। केंद्रीय सत्ता के मजबूत होने के परिणास्वरूप व्यापार और कृषि में उन्नति स्वाभाविक है। दक्षिण में चोलवंशी शासक करिकाल ने कावेरी जल को नियंत्रित कर सिंचाई की व्यवस्था की। इसका सीधा फायदा किसानों को हुआ। कृषि के उत्पादन में काफी बढ़ोतरी हुई। उसी समय श्रीलंका को युद्ध में पराजित कर युद्धबंदियों के माध्यम से कावेरी के मुहाने पर प्रहार का प्रसिद्ध बंदरगाह निर्मित कराया गया। इसके परिणास्वरूप विदेशों से व्यापार का रास्ता खुल गया।

दक्षिण भारत से मसाले का व्यापार काफी लाभप्रद हुआ । कृषि, व्यापार और उद्योग में अभूतपूर्व उन्नति हुई। 7वीं-8वीं शताब्दी में । पल्लव शासकों ने स्थापत्य को बढ़ाया दिया। चित्रकला का विकास हुआ। कांचीपुरम में बुनकरों को वैश्यों-व्यापारियों के जैसा सम्मान प्राप्त हआ। कुल मिलाकर देखें तो यहाँ भी पूँजीवादी संबंधों का प्रसार हुआ और सामंती व्यवस्था में जो वर्ण, जातियाँ पिछड़ी हुई थीं उनमें आर्थिक सुधार हुआ। दक्षिण में आलवार भक्तों में बड़ी संख्या में शूद्र और महिला भक्त थे।

भक्ति आंदोलन : (वर्ण-व्यवस्था एवं नारी) आंतरिक अंतर्विरोध

भक्ति आंदोलन में आरंभ से ही वर्ण-व्यवस्था का विरोध दिखाई देने लगा। आलवार एवं नयनार भक्तों में वर्ण-व्यवस्था का विरोध और सामाजिक समानता की भावना बहुत साफ है। उन भक्तों में बड़ी संख्या में शूद्र थे। शूद्रों के साथ-साथ महिला भक्त भी वहाँ पहली बार दिखाई देती हैं। आण्दाल नामक महिला की गिनती प्रसिद्ध आलवार भक्तों में की जाती है। आठवीं शताब्दी के अंत में शंकराचार्य ने वर्ण व्यवस्था को फिर से मजबूत करने का आधार प्रदान किया। उनके मत से शूद्र को ज्ञान नहीं दिया जाना चाहिए। केवल द्विज को ही यज्ञ पाठ करने और दान देने व लेने का अधिकार है। उन्होंने साफ घोषणा की कि जो शूद्र वेदों को सुने उसके कानों में पिघला हुआ शीशा और लाख भर दिया जाना चाहिए। इनकी मान्यता आलवार एवं नयनार भक्तों की सामाजिक समानता की भावना के विपरीत थी। शंकराचार्य की मान्यताओं का विरोध रामानुजाचार्य एवं मध्वाचार्य ने किया। रामानुजाचार्य ने भक्ति के क्षेत्र में सबकी समानता को स्वीकार किया। इसके बावजूद वे जाति-पाँति के बंधनों को सामाजिक व्यवहार के क्षेत्र में चुनौती नहीं दे सके। उन्होने मध्यमार्ग अपनाते हुए निर्देश दिया कि सभी भक्त भजन-कीर्तन तो साथ करेंगे लेकिन भोजन अपनी जाति के अनुसार अलग-अलग पंक्ति में करेंगे। इन्हीं की शिष्य परंपरा में रामानन्द हुए। उन्होंने भक्ति तथा धर्म के क्षेत्र में ब्राह्मणों के एकाधिकार और जाति प्रथा से उत्पन्न छुआ-छूत की भावना का जोरदार विरोध किया। उनके शिष्यों की परंपरा में कबीर जुलाहा, रैदास हरिजन, धर्मदास अछूत जाट किसान और सेना नाई जाति के थे।

उत्तर भारत के अधिकांश निर्गुण संत नीची जातियों से थे। यही स्थिति कृष्णमार्गी भक्ति की थी। मध्वाचार्य ने अपने शिष्यों को साफ निर्देश दिया कि वे जाति और संप्रदाय भेद पर आधारित कुरीतियों को दूर करने का प्रयास करें। ब्राह्मणों तथा उच्च जातियों की तरह शूद्रों को भी वेदों के अध्ययन का अधिकार होना चाहिए और अछूतों को भी विष्णु भक्ति से रोका नहीं जाना चाहिए। बल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग में जातीय भेदभाव नहीं था। अष्टछाप के कवियों में कृष्णदास, कुंभनदास और चतुर्भुज दास शूद्र थे। मुसलमान भक्त कवि रसखान बिट्ठलनाथ के प्रिय शिष्य थे। इसमें कोई शक नहीं कि रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, रामानन्द, बल्लभाचार्य आदि ब्राह्मण थे। लेकिन इन्होंने जाति की सुविधाओं और उच्च वर्ग के दृष्टिकोण का परित्याग कर भक्ति आंदोलन का नेतृत्व किया। इन सभी ने कर्मकांड, बाह्याचार, ब्राह्मण-पुरोहित वर्चस्व तथा जाति एवं वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया। इस सबके बावजूद भक्ति एवं उपासना के क्षेत्र में तो उनकी समानता की भावना का विकास हुआ लेकिन समाज व्यवस्था में वे उपेक्षित ही रहे। यही कारण है कि निर्गुण संतों के साहित्य में वर्ण-व्यवस्था को लेकर तीखी प्रतिक्रिया हुई। उनसे पहले नाथों एवं सिद्धों की वाणी में भी यह प्रतिक्रिया मौजूद है।

हमने भक्तिकाल की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से जाना है कि सामन्ती समाज व्यवस्था में दरार पड़नी शुरू हो गयी थी। निम्न जातियों में आर्थिक विकास होने लगा था। इसके कारण निम्न जातियों में आत्म विश्वास और आत्म गौरव के भाव का उदय हुआ। इसके परिणामस्वरूप हम देखते हैं कि पहली बार इतनी बड़ी संख्या में शूद्र एवं उपेक्षित जातियों से संत महात्मा, कवि, कलाकार और चिंतक सामने आते हैं। वे सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर अपनी बराबरी का दावा करते हैं। ये लोग अनुभव के आधार पर रूढ़ शास्त्रमतवादियों का विरोध करते हैं । कबीर लिखते हैं:

मैं कहता आंखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।”

भक्ति आंदोलन में जितनी संख्या में शद्र भक्त हए स्त्री भक्तों की संख्या उतनी नहीं थी। फिर भी इतिहास में पहली बार महिला भक्त एवं लेखिकाओं की उपस्थिति देखी जा सकती है। दक्षिण में आपदाल तो थी ही, उत्तर भारत में निर्गुण भक्तों में भी कई महिला संत मौजूद थीं। रामानन्द के शिष्यों में भी सुरसुरी और पद्मावती नाम की महिला संत थीं। कृष्णमार्गी भक्ति में मीरां जैसी सशक्त भक्त कवयित्री का उदाहरण हमारे सामने है। उस समय की सामंती पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिला भक्तों की उपस्थिति अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती है। कुल मिलाकर देखें तो भक्ति आंदोलन ने सामाजिक चेतना के वृत्त का इतना विस्तार किया कि जिससे परिधि पर स्थित शुद्र और नारी दोनों ही उसके अंदर आ गए। भक्ति की दृष्टि में नारी-पुरुष और ब्राह्मण-शूद्र का भेद नहीं है। सभी अंशी के अंश हैं।

भक्ति साहित्य में हम ने देखा कि शूद्र और नारी जो इतिहास से बाहर थे भक्ति के वृत्त में शामिल हो गए। इसके बावजूद कबीर हों या तुलसी, नारी ‘माया’ की भूमिका में ही रही । तुलसी नारी की पराधीनता के प्रति संवेदनशील भी हैं और साथ ही उसे ‘तारन के अधिकारी’ भी मानते हैं। वर्ण व्यवस्था का तीखा विरोध इस भक्ति आंदोलन का स्वर रहा है, यह हम देख चुके हैं। इसी भक्ति आंदोलन के सशक्त कवि तुलसी की इन पंक्तियों में वर्ण व्यवस्था का समर्थन भी देख सकते हैं

“बादहिं सूद्र द्विजन सन हम तुम्हतें कछ घाटि ।

जानहिं ब्रह्म सो विप्रवर, आँख देखावहिं डाँटि ।।

साखी सब दी दोहरा कहि किहनी उपखांन ।

भगति निरूपहिं भगत कलि निन्दहि वेद-पुरान।।” – दोहावली

“सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ज्ञाना। मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना।।

जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।।

नारि मुई घर संपति नासी। मुड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी।।

ते विप्रन सन आपु पुजावहिं । उभय लोक निज हाथ नसावहिं।।

सूद्र करहिं जप तप व्रत नाना। बैठि बरासन पढ़हिं पुराना ।।” – मानस

“बरन धरम गायो आश्रम निवास तज्यो

त्रासन चकित सो परावनों परो सो है।” – कवितावली

इस तरह के विरोध के साथ ही शबरी और केवट जैसे शूद्र और निम्नवर्गीय पात्रों का उद्धार भी तुलसी के राम करते हैं। नारी और शूद्र को लेकर भक्ति काल में अंतर्विरोध बहुत साफ है। इसलिए भक्ति आंदोलन को एक सपाट और अखंड इकाई के तौर पर नहीं देखा जा सकता है। ज़रूरत है इस अंतर्विरोध को समझने की। यहीं एक और बिंदु उठाया जा सकता है। नाथ, सिद्ध और संत कवियों में वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध जो तीखी प्रतिक्रिया है वह कृष्ण मार्गी भक्तों के यहाँ शिथिल हो जाती है। तुलसी के यहाँ तक आते-आते वर्ण । व्यवस्था के पक्ष में एक बार फिर से वकालत होने लगी। इसका सामाजिक-आर्थिक कारण क्या है? आइए इस प्रश्न पर विचार करें।

नारी पराधीनता और वर्ण व्यवस्था एक दूसरे से संबद्ध हैं। दोनों का सामंतवादी व्यवस्था से गहरा संबंध है। सामंतवादी व्यवस्था का आधार है कृषि आधारित ग्राम-व्यवस्था। गाँव आत्मनिर्भर और स्वत: पूर्ण इकाई होती थी। सामंतवादी सामाजिक संरचना में जाति व्यवस्था कृषि पर आधारित ग्राम व्यवस्था की एक अनिवार्यता. थी। इसमें काम और पेशे के अनुसार जातियों का विभाजन हुआ था। ग्राम-स्तर पर सभी जातियाँ एक-दूसरे पर आश्रित थीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय से लेकर नाई, धोबी, कहार, दर्जी, लोहार, बढ़ई, धुनियां, बुनकर, माली, हरिजन आदि के अपने-अपने निश्चित जातीय कर्म थे। गाँव की पंचायत वहाँ के सामंत या जमींदार के माध्यम से सम्राट के शासन को लागू करने के साथ ही भूमि व्यवस्था और करों का नियमन भी करती थी। इस तरह पूरी सामंतवादी व्यवस्था जाति व्यवस्था पर टिकी हुई थी। सामंतवादी व्यवस्था को आधार प्रदान करने का कार्य ब्राह्मण पुरोहित वर्ग के हाथ में था। यह वर्ग वेद, शास्त्र, पुराण आदि की आड़ में अनेक कर्मकांडों और अनुष्ठानों की योजना के माध्यम से निम्न जातियों का शोषण करता था।

इसी कारण कबीर आदि निर्गुण संतों द्वारा ब्राह्मणवाद पर कुठाराघात किया गया। इसके बावजूद यह जाति व्यवस्था ट्टी नहीं। क्योंकि आत्मनिर्भर ग्राम इकाई को तोड़े बिना इस जाति व्यवस्था की समाप्ति संभव नहीं थी। निर्गुण संतों का प्रभाव शहरों के आसपास के गाँव तक ही सीमित रहा। इसका कारण था इन गाँवों को बाजार और उसके लिए माल उत्पादन की सुविधा मिलना। कारीगर, शिल्पी और व्यवसायी वर्ग आत्मनिर्भर ग्राम इकाई से निकल कर बाजार में पहुंच गए थे। यह पूँजीवादी व्यवस्था के आरंभिक विकास का परिणाम था। सामंती व्यवस्था की जकड़ मजबूत होते ही फिर से वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया जाने लगा। तुलसी दास को अपनी सगुण राम-भक्ति के द्वारा लोक-मर्यादा के रूप में वर्ण व्यवस्था की पनप्रतिष्ठा में कोई विशेष । दिक्कत नहीं हुई। आगे चलकर रीतिकाल में नारी का स्वरूप ‘नायिका’ का और राधा-कृष्ण ‘सुमिरन का बहाना’ होकर रह गये, क्योंकि तब तक सामंतवाद एक बार फिर से मजबूत हो गया।

नाथ, सिद्ध एवं कबीर आदि निम्नवर्गीय संत वर्ण व्यवस्था का विरोध अपनी स्थिति के कारण करते हैं। वर्ण व्यवस्था में उनके लिए अवकाश नहीं है। तुलसी ब्राह्मण हैं। उन्हें ब्राह्मणों ने कष्ट भी पहुँचाया। इसके बावजूद शूद्रों के साथ उनकी सहानुभूति सिर्फ भक्ति के अधिकार तक है। समाज व्यवस्था की उनकी विश्व-दृष्टि सामंतवादी ही थी। यह उनकी ऐतिहासिक सीमा थी। यह ज्ञान के ऐतिहासिक विकास की सीमा थी। इस सीमा को समझे बिना भक्तिकाल के इस अंतर्विरोध को भी नहीं समझा जा सकता।

सारांश

अभी तक हम लोगों ने भक्ति काल की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं दार्शनिक पृष्ठभूमि को समझते हुए उत्तर भारत में भक्ति के उदय के कारणों को विभिन्न दृष्टि से देखा। हमने यह भी चर्चा की कि जहाँ शुक्लजी की दृष्टि में तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थिति महत्वपूर्ण है. वहीं द्विवेदी जी का बल परंपरा पर अधिक है। द्विवेदी जी तत्कालीन परिस्थिति को नकारते नहीं हैं। आगे चलकर के, दामोदरन और डॉ. रामविलास शर्मा ने परवर्ती इतिहास में हए शोध निष्कर्षों के सहारे भक्ति काल की नए ढंग से व्याख्या की। इस व्याख्या की विशेषता आर्थिक पहलू है। तुर्कों और मुगलों के भारत में आने से इतिहास में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। सामाजिक संरचना पर उसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। शुक्लजी और द्विवेदी जी के समय तक इस तरह का शोध-निष्कर्ष सामने नहीं आया था। आगे चलकर डॉ. रामविलास शर्मा ने इन निष्कर्षों का सहारा लेकर भक्ति आंदोलन की पुनर्व्याख्या की।

भक्ति आंदोलन को एकांगी दृष्टि से नहीं समझा जा सकता है। इसका सबसे बड़ा कारण है इस आंदोलन का बहुमुखी प्रभाव । भक्ति आंदोलन का प्रभाव सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक संदर्भो पर तो रहा ही साथ ही साथ कला और संस्कृति पर भी इसका प्रभाव बहुत ही गहरा पड़ा। इस आंदोलन में अवर्ण से लेकर सवर्ण तक, महिला से लेकर पुरुष तक, शिक्षित से लेकर अशिक्षित तक और हिंदू से लेकर मुसलमान तक सभी शामिल थे। यह आंदोलन अपने स्वभाव में जनतांत्रिक था। इसके साथ ही इस आंदोलन का स्वरूप अखिल भारतीय था। भक्ति साहित्य इसी आंदोलन की देन है। इसलिए भक्ति साहित्य को पढ़ते हुए इस आंदोलन की प्रकृति और स्वरूप को ध्यान में रखना जरूरी है।

अभ्यास प्रश्न

  1. “अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी हिंदी साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।” इस कथन के आलोक में भक्ति आंदोलन के उदय को समझाइए।
  2. “भक्ति द्राविड़ ऊपजी, लाये रामानन्द” – इस जनोक्ति को ध्यान में रखते हुए भक्ति आंदोलन के अखिल भारतीय स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  3. “भक्ति आंदोलन सामंत विरोधी शक्तियों के उभरने का परिणाम है।” आप इससे कितना सहमत हैं? युक्ति-युक्त उत्तर दीजिए।
  4. तत्कालीन सामाजिक, ऐतिहासिक संदर्भ में भक्ति आंदोलन की व्याख्या कीजिए।

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