रीतिकालीन कविता की पृष्ठभूमि और आधार

इस इकाई को पढ़ने के बाद आपः

  • रीतिकाव्य की पृष्ठभूमि से परिचित हो सकेंगे;
  • रीतिकाव्य की मनोभूमि के पीछे सक्रिय सामाजिक और ऐतिहासिक वास्तविकता को समझ सकेंगे;
  • रीतिकाव्य के अंतर्गत विभिन्न अंतर्वर्ती धाराओं के साहित्य की चर्चा कर सकेंगे;
  • रीतिकाव्य की प्रवृत्तियों की भी संक्षिप्त जानकारी दे सकेंगे।

कविता का जन्म सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के बीच होता है। हर युग की परिस्थितियाँ कविता के रूप और अर्थ का गठन करती हैं। परिस्थितियों की भिन्नता के कारण ही कविता का स्वाद भी बदल जाता है। रीति युग की कविता का मिज़ाज़ समझने के लिए आवश्यक है कि हम उस युग की पृष्ठभूमि को समझें। रीति युग की कविता में एक खास प्रकार का सौंदर्य है। यह सौंदर्य जीवन के प्रति ऐहिक दृष्टिकोण के कारण विकसित हुआ है। रीति काव्य में प्रेम और श्रृंगार का विवेचन रीति कवियों के इसी ऐहिकतावादी दृष्टि का परिणाम था। रीति कविता के साथ-साथ इस युग की सांस्कृतिक उपलब्धियों की चर्चा हम इस इकाई में करेंगे। विभिन्न सांस्कृतिक उपलब्धि और उस युग की कविता के बीच के अंत:सूत्रों को भी इस इकाई में खोजने का प्रयत्न करेंगे।

हिंदी साहित्य का रीतिकाल भक्तिकाल के बाद शुरू होता है अत: इस काल-खंड में जिन काव्यप्रवृत्तियों का प्रवर्तन हुआ उन पर पूर्ववर्ती काव्यधाराओं का पर्याप्त प्रभाव पाया जाता है। भक्तिकाल की कृष्णभक्ति काव्यधारा की रागात्मिका भक्ति ही रीतिकाल में दरबारी वातावरण और फारसी साहित्य के प्रभाव से लौकिक शृंगार में परिणत हो गई।

इस इकाई में रीतिकाल की परिवर्तित परिस्थितियों का संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है ताकि रीतिकालीन कविता की पृष्ठभूमि और उस पर आधारित काव्य को आसानी से समझा जा सके।

रीतिकाल का नामकरण और सीमा निर्धारण

साहित्य में कोई भी नामकरण प्रवृत्ति-निरपेक्ष नहीं हो सकता। पूर्व मध्यकाल में भक्ति की प्रवृत्ति प्रमुख थी और उत्तर मध्य काल में शृंगार की प्रवृत्ति प्रमुख थी। इसीलिए पूर्वमध्यकाल को भक्तिकाल और उत्तरमध्यकाल को शृंगारकाल कहा गया। आचार्य शुक्ल ने रस या भाव की दृष्टि से शृंगारकाल कहने की छूट दी है किंतु ग्रंथ रचना की व्यापक पद्धति रीतिबद्ध दिखाई पड़ी अत: उन्होंने इस काल को रीतिकाल कहना ही उचित समझा।

सबसे पहले मिश्र बंधुओं ने उत्तर मध्यकाल को ‘अंलकृतकाल’ कहा। मिश्र बंधुओं ने संस्कृत काव्यशास्त्र में सामान्यत: व्यवहृत ‘अलंकार’ शब्द को व्यापक अर्थ में ग्रहण किया जो कि सम्पूर्ण काव्यांगों का बोधक था। शुक्लजी ने उसी व्यापक अर्थ में ‘रीति’ शब्द का प्रयोग किया है। पं.विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने ‘व्यापक प्रवृत्तियों के बोध और अंतर्विभाग का सुभीता’ की दृष्टि से इसे शृंगारकाल कहना अधिक उपयुक्त समझा। उनकी मान्यता थी कि इस नाम को स्वीकार करने से काव्य के आंतर धर्म ‘रस’ का बोध होता है जब कि ‘रीतिकाल’ उसके बाह्य रूप काव्य-रीति का बोधक है। डॉ. रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने इसे ‘कलाकाल’ कहा जो कि ‘अलंकृत काल’ का ही अपर पर्याय माना जा सकता है।

डॉ.नगेन्द्र ने हिंदी साहित्य के बृहत् इतिहास, षष्ठभाग के संपादकीय वक्तव्य’ में शृंगारकाल नाम की अपेक्षा ‘रीतिकाल’ को ही उपयुक्त माना। आचार्य शुक्ल का रीतिकाल’ नाम प्राय: सभी विद्वानों ने स्वीकार किया और वही प्रचलित भी हुआ।

सीमा निर्धारण

साहित्य में किसी प्रवृत्ति का न तो आविर्भाव होता है न पूर्णत: तिरोभाव । उसमें एक प्रवृत्ति प्रारंभ होती है, उसका उत्थान होता है फिर धीरे-धीरे अवसान। रीतिकाव्य का सूत्रपात तो बहुत पहले हो चुका था, जिसका प्रमाण कृपाराम की हिततरंगिणी से मिलता है, किंतु उसका विधिवत् प्रवाह चिंतामणि से माना जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के मध्यकाल का विस्तार सं.1375-1900 वि. तक माना है। इसे पुन: दो खंडो में विभाजित किया गया – पूर्व मध्यकाल अर्थात् भक्तिकाल (सं.1375 से 1700 वि.) और उत्तर मध्यकाल अर्थात् रीतिकाल (सं.1700 से 1900 वि.)।

वास्तव में संपूर्ण मध्यकाल की साहित्यिक प्रवृत्ति भक्ति और श्रृंगार परक रही है। पहले भक्ति प्रमुख थी और श्रृंगार गौण, बाद में श्रृंगार प्रमुख हो गया और भक्ति गौण ।

रीतिकालीन कविता की पृष्ठभूमि

पूर्वमध्यकाल का काव्य लोकवादी रहा है क्योंकि भक्त-कवि प्राय: सामान्य जन के बीच अपनी भक्ति-भावना का प्रचार करते थे। उनमें लोक मंगल और रंजन की प्रवृत्ति प्रधान थी किंतु रीतिकालीन कविता सामान्य जन से कटकर राजदबारों में आ गई। परिणामत: वह जन-साहित्य न होकर गोष्ठी साहित्य हो गई। गोष्ठी साहित्य में जीवन का गतिशील रूप नहीं रहता बल्कि उसका स्थिर रूप ही प्रस्तुत होता है। साहित्य अपने परिवेश से प्रभावित होता है। रीतिकालीन कविता देशी या विदेशी राजाओं-नवाबों के दरबार में लिखी गई इसलिए उस पर तत्कालीन सामंती परिवेश का पूरा प्रभाव पड़ा। केवल कविता की ही बात नहीं है, अन्य ललित कलाएँ भी उससे प्रेरित हुई। रीतिकालीन कविता की निम्नलिखित पृष्ठभूमियों का विवेचन हम यहाँ संक्षेप में कर रहे हैं।

दरबारी पृष्ठभूमि

यों तो हर युग में कवि अपने आश्रय के लिए राज-सभाओं में जाने को बाध्य होता था क्योंकि उसे वहीं पोषण मिलता था। प्राचीन काल के सम्राटों की सभाओं में विद्वान, कवि, गायक, विदूषक, इतिहास पुराण के ज्ञाता आदि रहते थे। इन्हें आश्रय और सम्मान देकर आश्रयदाता भी यश और सम्मान प्राप्त करता था। विक्रमादित्य और भोज ऐसे ही गुणज्ञ शासक थे। किंतु धीरे-धीरे राजाओं की गुणज्ञता क्षीण होने लगी और उनके दरबारों मे रूढिबद्धता बढ़ने लगी। भाव की गंभीरता और व्यापकता के स्थान पर काव्यों में अलंकरण और प्रदर्शन की प्रवृत्ति ही शेष रह गई।

जब शासन-व्यवस्था सृदृढ़ होती है, देश में समृद्धि और शांति होती है तब अन्य कलाओं के साथ काव्य का भी उत्कर्ष होता है। सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल, आठवीं शताब्दी विक्रमी तक देश में शांति, सुव्यवस्था दृढ़ थी तो काव्य और कलाओं का पूर्ण उत्कर्ष हुआ किंतु उसके बाद पश्चिमोत्तर सीमांत से विदेशियों के आक्रमण प्रारंभ हो गए और देश के उत्तरी भू-भाग में अराजकता छा गई। यह स्थिति न्यूनाधिक अकबर के समय तक बनी रही। मुगल दरबार में संगीतज्ञ, शिल्पी, चित्रकार और विविध भाषाओं के कवि रहते थे। अब्दुल रहीम खानखाना जैसे प्रतिभा सम्पन्न प्रशासक, कवि और गुणज्ञ व्यक्ति थे जिनका संपर्क तुलसीदास, केशवदास और वैष्णव भक्तों से बना हुआ था। नरहरि, तानसेन, गंग, बीरबल आदि ‘अकबर के अनेक दरबारी कवि थे। जहाँगीर के दरबार में पुहकर, केशव मिश्र तथा शाहजहाँ के दरबार में सुंदर, कुलपति मिश्र, चिंतामणि और आचार्य पंडितराज जगन्नाथ रहते थे। किंतु उसके बाद औरंगजेब की कट्टरता के कारण कवि-कलाकार मुगल दरबार से विदा हो गए।

जो स्थिति मुगल दरबार की थी वही स्थिति उत्तर भारत के सभी राज दरबारों की थी। अकबर के द्वारा स्थापित समृद्ध राज्य के उत्तराधिकारी विलासी और प्रदर्शन-प्रिय हो गए। उसके प्रभाव से देशी राजाओं में भी सुरा-सुंदरी का प्रचलन बढ़ा। रीतिकालीन कवि इस दरबारी वातावरण से पूरी तरह प्रभावित हुए। रातिबद्ध कवि तो उसके अभिन्न अंग थे ही रीतिमुक्त कवि भी उससे अछूते न रहे। बाद में अपनी स्वच्छंदवृत्ति के कारण ये कवि दरबारों से मुक्त होकर स्वतंत्रतापूर्वक काव्य-रचना में लगे।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

औरंगजेब की मृत्यु के बाद देश की केद्रीय सत्ता का प्रभाव कम होने लगा। जगह-जगह सामंत अपनी शक्ति को बढ़ाने लगे। सामंत, बादशाहों की जीवन पद्धति का भी अनुकरण करने लगे। विभिन्न सामंतों के यहाँ हरमखाने खुलने लगे। हरमखाना में हजारों स्त्रियाँ पुरूष के मनोरंजन के लिए रखी जाने लगी। कला और संगीत में घरानों का उदय भी इसी काल में हुआ था। वस्तुत: सामंत, जीवन के हर पक्ष में बादशाह की नकल करने लगे। सत्ता के विकेंद्रीकरण के साथ उन जीवन दृष्टियों का भी विकेंद्रीकरण हुआ, जिस जीवन दृष्टि को सामंतवाद ने अर्जित किया था। सामंतवादी जीवन मूल्यों ने प्रदर्शन और विलासिता को बढ़ाया दिया।

जैसा कि पहले भी संकेत किया जा चुका है रीतिकालीन काव्य राजदरबारों में निर्मित हुआ, अत: वह एक वर्ग-विशेष की प्रवृत्तियों को ही प्रतिफलित करता है। जिस समय रीतिकाल का आरंभ हुआ उस समय सम्राट और सामंत वैभव के प्रदर्शन और विलासिता में अपने कर्तव्यों को तिलांजलि दे चुके थे। शाहजहाँ के पश्चात उसके बेटों में सत्ता के लिए संघर्ष शुरू हो चुका था। साहिष्णु दारा शिकोह की हत्या कर औरंगजेब गद्दी पर बैठा। वह कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने अपनी रूढ़िवादिता के कारण साहित्य, संगीत और कलाओं का बहिष्कार किया। हिंदुओं पर तरह-तरह के अत्याचार किए। इसके परिणामस्वरूप सिखों, मराठों, जाटों आदि ने उसके प्रति विद्रोह प्रारंभ कर दिया। उसका अधिक समय विद्रोहियों से युद्ध करने में व्यतीत हुआ।

औरंगजेब के पश्चात मुगल वंश में कोई भी ऐसा पुरुषार्थी शासक उत्पन्न नहीं हुआ जो देश में शांति-सुव्यवस्था स्थापित करता । प्रजा इस राजनीतिक दुरावस्था से दुखित थी –

दुसह दुराज प्रजानु कौं, क्यों न बढ़े दुख-दंदु।

अधिक अंधेरौ जग करत मिलि मावस रबि-चंदु।।

– बिहारी रत्नाकर

शासन व्यवस्था के शिथिल होने और आंतरिक कलह के कारण विदेशियों के आक्रमण शुरू हो गए। नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली ने मनमाने ढंग से कत्लेआम किया और प्रजा को लूटा। उसके प्रतिरोध की क्षमता न तो दिल्ली के बादशाह में थी और न देशी राजाओं में ही। यदि संगठन की शक्ति होती तो न बाहरी लुटरे लूटपाट कर सकते न प्रजा की तबाही ही होती। यही दशा अंग्रेजों से युद्ध करते समय बक्सर में हुई जिसमें शाह आलम को बुरी तरह पराजित होना पड़ा और देश का पूर्वी भाग अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। यदि राजस्थान के राजे-महाराजे और सामंतगण संयुक्त रूप से विदेशी आक्रमणकारियों का मुकाबला करते तो हिंदी के कवियों को भी शौर्य और पराक्रम के भाव जगाने की प्रेरणा मिलती। किंतु शासक वर्ग में षड्यंत्र और स्वार्थपरता व्याप्त थी।

सामाजिक पृष्ठभूमि

जब देश में पौरुषहीन विलासिता और वैभव के प्रदर्शन की प्रवृत्ति व्याप्त हो तब सामाजिक सुव्यवस्था कैसे रह सकती है? समाज में शासक और शासित के बीच खाई बढ़ती जा रही थी। शासन-तंत्र निरंकुश और शोषक बन गया था। प्रजा की दयनीय दशा की तरफ ध्यान देने वाला कोई नहीं था। शोषक शासकों का समूह बढ़ता जा रहा था और शोषित प्रजा हर प्रकार के अत्याचार को सहने के लिए विवश होती जा रही थी। ऐसी दशा में अपने भाग्य का ही दोष मान कर उसने संतोष कर लिया था।

कवि-कलाकार उत्पन्न होते थे प्रजा-वर्ग में, किंतु उन्हें अपनी कला के समादर और अपनी आजीविका के लिए सामन्त या राजन्य वर्ग की शरण लेनी पड़ती थी। ऐसी स्थिति में वे अपने आश्रयदाता की रुचि के अनुकूल अपनी कला को ढालते थे। सामान्य जन में न तो कला की परख थी और न कलाकार को पुरस्कृत करने की क्षमता। उसे तो परिवार का पेट भरना ही कठिन था। सारा जीवन घोर परिश्रम में ही बीत जाता था। उनके सुख-दुख की बात सुनने-सुनाने वाला कोई नहीं था। कवि-कलाकार को जहाँ से पोषण मिलता था, वे उसी वातावरण से प्रेरणा लेते थे। रीतिकाल के कवियों को रसिक वर्ग में रखा जा सकता है क्योंकि इन्हें राजदरबार में सामंतों के संसर्ग में रहना पड़ता था। इनकी भी रुचि नागर होती थी। ये अशिक्षित ग्रामीणों को गँवार समझते थे जिनकी गणना अरसिकों में होती थी।

वे न इहाँ नागर, बढ़ी जिन आदर तो आब।

फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ, गँवई-गाँव, गुलाब ।।

बिहारी-रत्नाकर

इस प्रकार रीतिकालीन कविता का सामाजिक परिवेश नागर होता था जो विशेष संस्कार और रुचि से सम्पन्न माना जाता था। लोकजीवन की त्रासद स्थितियों की चर्चा करके वे आश्रयदाता का कोप भाजन नहीं बनना चाहते थे। इतिहासकारों ने इस विषय की विस्तार से चर्चा की है। इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए आप हिन्दी साहित्य के विभिन्न इतिहासों का अध्ययन कर सकते हैं।

सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

रीतिकालीन कविता जिस संस्कृति की उपज थी, उस पर तत्कालीन दरबारों का गहरा प्रभाव पाया जाता है। दरबारों में ही संगीत कला, चित्रकला और स्थापत्यकला का पोषण हो रहा था। दरबार चाहे मुगल बादशाहों, नवाबों का हो या राजा-महाराजाओं का, कलाकारों को वहीं प्रश्रय मिलता था। मुगल दरबारों में फारसी भाषा ही प्रचलित थी, उनकी कलात्मक अभिरुचि ईरानी शैली से प्रभावित थी। हिंदू दरबारों में जिन कलाओं को संरक्षण मिला उन पर भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का प्रभाव देखा जा सकता है, किंतु उन पर धीरे-धीरे ईरानी शैली अपना रंग चढ़ाती गई। आइए, इस युग की विविध कलाओं तथा उन पर पड़े प्रभावों की चर्चा करें।

चित्रकला

डॉ. कुमारस्वामी ने राजपूत शैली और मुगल शैली की चित्रकला को पृथक-पृथक माना था किंतु नए अनुसंधानों से दोनों शैलियों पर एक दूसरे का प्रभाव पाया गया है। रीतिकाल में इन शैलियों में चित्रकार की आंतरिक ऊर्जा के स्थान पर परंपरा निर्वाह की प्रवृत्ति ही प्राप्त होती है। चाहे ये चित्र नायक नायिका भेद से संबद्ध हों चाहे राग-रागिनियों से या फिर पौराणिक आख्यानों से सब में विलासिता और प्रदर्शन की ही प्रमुखता होती है। पौराणिक आख्यानों या व्यक्ति चित्रों के आलेख में कोई मौलिकता या सजीवता नहीं मिलती।

स्थापत्य कला

फारसी वास्तुशैली को भारतीय स्थापत्य कला से सम्मिश्रित करके जिस नई शिल्पकारी का जन्म हुआ था उसका श्रेष्ठ प्रमाण ‘ताजमहल’ है। अकबर के शासन काल में लाल पत्थरों के प्रयोग से निर्मित किले सम्राट की महत्त्वाकांक्षा और पौरुष के प्रतीक बन गए थे। इसी समय से अलंकरण और प्रदर्शन की प्रवृत्ति शुरू हो गई थी फिर भी उनमें चमत्कारपूर्ण प्रभाव उत्पन्न करने की अद्भुत क्षमता थी। राजपूत शैली में निर्मित राजस्थान के महलों के निर्माण में मुगल शैली के अनुकरण का प्रयास लक्षित होता है।

जहाँगीर ने वास्तुकला के विकास में विशेष योगदान दिया। वास्तव में वह चित्रकला का प्रेमी था अत: उसके समय में भवनों, मकबरों और मस्जिदों के निर्माण में भी बारीक पच्चीकारी के नमूने प्राप्त होते हैं। विलास और ऐश्वर्य के इस युग में संगमर्मर के श्वेत पत्थरों में तरह-तरह के बेलबटे और कीमती पत्थरों के प्रयोग द्वारा युगानुरूप प्रभाव उत्पन्न करने का प्रयास किया गया। शाहजहाँ ने इनमें और भी सूक्ष्म सज्जा का प्रयोग किया। जामा मस्जिद और ताजमहल दोनों हुमायूँ के मकबरे के अनुकरण पर निर्मित है। जिस । प्रकार चित्रकला में परंपरित शैली, विलास और ऐश्वर्य के साथ अलंकरण की प्रवृत्ति प्राप्त होती है उसी प्रकार तत्कालीन स्थापत्यकला पर मौलिकता शून्य अभ्यासजन्य पच्चीकारी की अधिकता लाक्षित की जा सकती है।

संगीत कला

अकबर के समय में संगीत का चरम उत्कर्ष दृष्टिगत होता है। ग्वालियर के दरबार में ‘ध्रुपद’ जैसी गंभीर शैली का विकास हुआ। तानसेन ने संगीत में एक कीर्तिमान स्थापित किया । जहाँगीर के समय में संगीत दर्पण’ जैसे संगीत शास्त्र का सुव्यवस्थित ग्रंथ निर्मित हुआ। शाहजहाँ के समय में गंभीरता और उदात्तता के स्थान पर कोमल रागों का ज्यादा प्रयोग हुआ। मुगल और हिंदू संगीतज्ञों को राज्याश्रय मिला किंतु औरंगेजेब के कट्टर धार्मिक आग्रह के कारण दिल्ली दरबार से विलासिता और ऐश्वर्य प्रदर्शन के साथ कलात्मक आमोद-प्रमोद भी बहिष्कृत कर दिए गए। मुहम्मदशाह ‘रंगीले’ के समय में दिल्ली दरबार पुन: संगीतकारों और रसिक कलाकारों से सुशोभित हो उठा। भारतीय संगीत फारसी प्रभाव से सम्पन्न होकर विलासवृत्ति प्रधान हो गया।

इस युग में चतुंरग शैली में ख्याल, तराना, सरगम और चिवट (मृदंग के बोल) सबके मिश्रण से संगीत की वैचित्र्यपूर्ण रचना की जाती थी। डॉ.श्यामसुन्दर दास ने लिखा – “वाजिद अली शाह (अवध के नवाब) के समय की रंगीली रसीली ठुमरी अपने-अपने आश्रयदाताओं की मनोवृत्ति की ही परिचायक नहीं लोक की प्रौढ़ रुचि में जिस क्रम से पतन हुआ उसका इतिहास भी है।”

इन ललित कलाओं के विकास और ह्रास पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट होता है कि ये सब अपने आश्रयदाताओं की रुचियों के परिवर्तनों का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं । मुगल साम्राज्य के उत्थान के साथ इनका भी उत्थान हुआ और पतन के साथ ही इनमें भी पतन के लक्षण दृष्टिगत हुए।

धार्मिक पृष्ठभूमि

धर्म भी युगधर्म से अप्रभावित नहीं रह सकता। अकबर के शासनकाल में धर्म में भी उदारता और सहिष्णुता की भावना प्रधान हो गई थी। अकबर ने विभिन्न धर्मों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया था। उसके द्वारा चलाया गया धर्म ‘दीने-इलाही’ इस बात का प्रमाण है। हिंदू-मुसलमान की एकता के लिए उसने राजपूतों से वैवाहिक संबंध स्थापित किए किंतु औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता ने उसके दीर्घकालीन प्रयासों को धराशायी कर दिया।

नैतिक पतन के इस युग में धार्मिक भावना भी अपने उदात्त मूल्यों का त्याग कर रूढ़िपालन और अंधविश्वास से ग्रस्त हो गई। पंडितराज की प्रसिद्ध उक्ति है “दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा” अर्थात् कवि-कलाकारों को संरक्षण या तो दिल्लीश्वर के दरबार में मिल सकता है या फिर जगदीश्वर के दरबार में ही। लेकिन उन्हीं पंडितराज के समय में दोनों ईश्वरों के चारों और विलासिता और ऐश्वर्य प्रदर्शन का जाल बिछ गया था जिससे धर्म या नैतिकता के स्वरूप में काफी गिरावट आ गई थी।

आचार्य शांडिल्य ने भक्ति की व्याख्या करते हुए ईश्वर के प्रति जिस ‘परानुरक्ति’ या उत्कृष्ट प्रेम की प्राप्ति भक्त का परम लक्ष्य सिद्ध किया था, कालान्तर में वही भक्ति भाव-तत्व से विहीन होकर स्थूल काम-चेष्टाओं की अभिव्यक्ति का साधन बन गई। श्री सम्प्रदाय के आचार्य रामानुज ने प्रपत्तिवाद या दास्य भक्ति का प्रचार किया था। उन्हीं की शिष्य परंपरा में आने वाले रीतिकालीन सतनामी, लालदासी. नारायणी आदि सम्प्रदायों के शिष्य विलास और वैभव की आराधना करने लगे।

श्री निम्बार्काचार्य ने कृष्णभक्ति की जिस मधुर धारा को प्रवाहित किया उसमें दीक्षित रीतिकाल के अधिकांश भक्त और कवियों ने बाह्य विलास-कलाओं के विस्तार द्वारा हिंदी काव्य को परिपूर्ण कर दिया। हितहरिवंश के राधावल्लभ सम्प्रदाय में और चैतन्यमतानुयायी गोस्वामियों के मधुर रस में जिस प्रेममूला भक्ति को स्वीकृति मिली वही बाद में काममूला रति में परिणत हो गई। द्विवेदीजी ने भक्तों की ऐसी साधना में आंतरिक प्रेम-निवेदन की भावना के साथ ही साथ बाह्य उपकरणों में भी सभी भाव, वेश-भूषा और हाव-भाव के अनुकरण को साधना-पक्ष के ह्रास का द्योतक माना है। रीतिकाल की धार्मिक पृष्ठभूमि भी ऐसी सुदृढ़ और उदात्त नहीं रह गई थी कि समाज में व्याप्त अंधविश्वास, स्वार्थपरता और नैतिक दुर्बलता को दूर करने में सक्षम होती। रागानुगा भक्ति में तो वैलासिक वृत्ति के विकास का पूरा अवकाश था ही, उसके प्रभाव से वैधी भक्ति के मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी बच नहीं पाए। उनकी मधुरोपासना ने दरबारी शृंगारिक काव्य को भी पीछे छोड़ दिया।

साहित्यिक पृष्ठभूमि

साहित्य पर समाज और संस्कृति का प्रभाव अवश्य पड़ता है। रीतिकाल का काव्य भी अन्य ललितकलाओं की भांति सामन्ती परिवेश से पूर्णतः प्रभावित है। रीतिकालीन कवियों का सौंदर्य-बोध मुगलकालीन वैभव और विलास से ही प्रेरित था। आ.शुक्ल ने लिखा -“राजा-महाराजाओं के दरबार में विदेशी शिष्टता और सभ्यता के व्यवहार का अनुकरण हुआ और फारसी के लच्छेदार शब्द वहाँ चारों ओर सुनाई देने लगे। अत: भाट या कवि लोग ‘आयुष्मान्’ और ‘जयजयकार’ ही तक अपने को कैसे रख सकते थे? वे दरबार में खड़े होकर ‘उमरदराज महाराज तेरी चाहिए’ पुकारने लगे।”

भक्तिकाल के कवियों ने दास्य, सख्य, वत्सल और श्रृंगार या मधुर इन चार रसों को स्वीकार किया पर कृष्णभक्ति में विशेष विकास शृंगार का ही हुआ। भक्ति काल की अंतिम रचनाएँ काव्य दृष्टि से शृंगार की ही रचनाएँ हैं, भले ही उसे हम लौकिक शृंगार की सीमा में न घेर सकें पर वह शृंगार का ही ईश्वर से संबद्ध रूप हो गई हैं। इस विषय में आ.शुक्ल का कहना है कि – हिंदी में भंगार की काव्यधारा भक्तिधारा से ही फूटी अत: स्वकीया – प्रेम के लिए उसमें अवकाश न रहा।

प्रेम के विस्तार और वैविध्य के लिए परकीया – प्रेम ही अधिक उपयुक्त था, फिर दरबारों में फारसी प्रेम – पद्धति के निरूपण में भी परकीया – प्रेम में आवेग और तीव्रता का प्रदर्शन किया जाता था। जिससे हिंदी के कवि भी अछूते न रह सके। भारतीय मर्यादा को ध्यान में रखकर प्रेम के आलंबन श्रीकृष्ण और राधा ही रखे गए। घोर वासनापूर्ण रचना करने वालों ने भी भक्ति की शृंगारिकता का आवरण बनाए रखा। इन कृष्ण भक्त कवियों ने अपने भगवत् प्रेम की पुष्टि के लिए जिस शृंगारमयी लोकोत्तर छटा और आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना से जनता को रासोन्मत्त किया, उसका लौकिक स्थूल दृष्टि रखने वाले विषय वासना पूर्ण जीवों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, इसकी ओर उन्होंने ध्यान न दिया। फलत: रीतिकालीन कविता में राधा-कृष्ण के नाम के साथ उनकी वे सारी लीलाएँ भी आ गई जो तयुगीन वैलासिक अभियक्ति में सहायक हुईं।

रीतिकालीन कविता में जिस साहित्यिक दृष्टिकोण का विकास प्राप्त होता है वह भारतीय साहित्य की परंपरा से अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। उसके अनुसंधान के लिए संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिंदी के रीतिपूर्व साहित्यिक परंपरा का अनुशीलन आवश्यक है। विद्वानों का मत है कि ऐहिक शृंगारपरक मुक्तकों का स्रोत वैदिक सूक्तों में पाया जा सकता है। उसका अगला विकास लौकिक संस्कृत में हुआ किंतु ऐसे मुक्तकों का प्राचीन संग्रह प्राप्त नहीं होता।

प्राकृत भाषा में हाल की सप्तशती अवश्य प्राप्त होती है। जिससे संकेत मिलता है कि ऐसी गाथाएँ लोक जीवन में पर्याप्त मात्रा में प्रचलित रही होंगी। इन गाथाओं के संबंध में विद्वानों का अनुमान है कि ये गाथाएँ आर्य और आभीर संस्कृतियों के निकट संपर्क के कारण उद्भूत मानसिकता को प्रकट करती हैं। रीतिकालीन कविता को इससे पर्याप्त प्रेरणा मिली। ‘रीतिकालीन कविता के स्वरूप’ की इकाई में हम इस विषय पर चर्चा करेंगे।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि रीतिकालीन कविता की पृष्ठभूमि भक्तिकालीन कविता की आदर्शोन्मुख गंभीरता, व्यापकता और मानवीय मूल्यों की उदात्तता खो चुकी थी। राजनीतिक पराभव के साथ ही धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्रों में नैतिकता का ह्रास, रूढ़िवादिता और मौलिकता का अभाव व्याप्त हो गया था। अकबर की उदारता और समन्वय की प्रवृत्ति ने जहाँ देश को कुशल प्रशासन, दृढ़ता और सुव्यवस्था दी वहीं साहित्य, संगीत और कलाओं में भी अद्भुत सामंजस्य और मौलिकता के । दर्शन हुए। उसके दरबार में नौ रत्नों के अतिरिक्त भी अनेक विद्वानों कवियों और धार्मिक नेताओं का सम्मान किया जाता था। उसने उच्चस्तरीय सांस्कृतिक चेतना का प्रसार किया किंतु उसके उत्तराधिकारी प्रदर्शनप्रिय और विलासी हो गए जिसका प्रभाव हिंदी-साहित्य पर दूर तक पाया जाता है। भक्ति काव्य में अलंकरण और शृंगारिकता का प्रचलन बढ़ा।

भारत-ईरानी कला और जीवन दर्शन ने साहित्य में व्यापक रूप ग्रहण किया। देवालयों में मुगल दरबार का अनुकरण किया जाने लगा। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और नट नागर कृष्ण दोनों पर तत्कालीन दरबारों का प्रभाव पाया जाता है। सामान्य जन-भावना से देश के शासक और विश्वनियंता देवता दोनों दूर होते गए। यह सांस्कृतिक और नैतिक पतन का चरम बिंदु था। साहित्य जब-जब रूढ़िग्रस्त होकर अपनी जीवंतता खोने लगता है तो नई स्फूर्ति के लिए उसे जन-जीवन के निकट संपर्क में आना पड़ता है। रीतिकाल के बाद हिंदी साहित्य नई चेतना के लिए फिर लोकोन्मुख हुआ और उसमें नव-जागरण के स्वर मुखर हुए।

वास्तव में, रीति काव्य भक्तिकाव्य का ही परिविस्तार है। अंतर केवल इतना है कि पूर्ववर्ती साहित्य में लोक-जीवन के निकट होने के कारण भावावेग और भाव-विस्तार है जबकि परवर्ती साहित्य सीमित परिवेश की उपज था। अत: उसमें जीवंतता का अभाव पाया जाता है।

रीतिकालीन काव्य का आधार

पहले ‘रीतिकालीन कविता की पृष्ठभूमि’ में तयुगीन दरबारी, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और साहित्यिक पृष्ठभूमियों का परिचय दिया जा चुका है। अब आप रीतिकालीन कविता के विभिन्न आधारों का अध्ययन करेंगे जिनसे उस युग के कवियों ने प्रेरणा ली तथा साहित्य रचना की ओर उन्मुख हुए। देखा जाए तो, रीतिकालीन कविता में जो प्रवृत्तियाँ दृष्टिगत होती है उनका सूत्रपात बहुत पहले ही हो चुका था। कुछ प्रवृत्तियाँ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश से हिंदी में आईं। इनमें से कुछ का अस्तित्व नगण्य रहा पर कुछ प्रवृत्तियों का विकास प्रबल वेग के साथ हुआ। आइए, रीतिकाव्य के विकास के आधारों पर चर्चा करें।

काव्यशास्त्रीय आधार

रीतिकालीन कविता के विकास का प्रमुख आधार काव्यशास्त्रीय है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसी प्रवृत्ति के आधार पर उत्तर मध्ययुग को ‘रीतिकाल’ की संज्ञा प्रदान की। हिंदी में जो काव्यशास्त्रीय परंपरा विकसित हुई, उसका आधार बहुत कुछ संस्कृत काव्यशास्त्र है। भक्तिकाल में ही कृपाराम की हिततरंगिणी’ नंददास की रसमंजरी’ सूरदास की ‘साहित्यलहरी’ केशवदास की कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’ की रचना हो चुकी थी। आचार्य केशवदास का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि उन्होंने रीति-निरूपण की हिंदी में सुदृढ़ परंपरा स्थापित कर दी। आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने नंददास से लेकर सेनापति तक रीति-निरूपक आचार्यों की अविच्छिन्न परंपरा का उल्लेख किया है। अन्य साहित्य-इतिहासकारों ने उक्त तालिका में कृपाराम का नाम भी जोड़ दिया है।

संस्कृत में काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र और कामशास्त्र की एक लंबी परंपरा प्राप्त होती है। हिंदी के रीतिकवियों ने नाट्यशास्त्र और कामशास्त्र की परंपरा को अंगीकार नहीं किया। इन दोनों का जो प्रभाव संस्कृत काव्यशास्त्र पर पड़ा उसे अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया। संस्कृत में शास्त्रीय-विवेचन जिस प्रौढता और गंभीरता से किया गया वैसा हिंदी में नहीं हो सका। इसके कई कारण हैं ।

तत्कालीन सामंतवर्ग की काव्यशास्त्र में कोई विशेष रुचि नहीं थीं। वे मूलत: रसिक थे और काव्यशास्त्र के सामान्य ज्ञान द्वारा अपनी रसिकता का ही पोषण करना चाहते थे। इसीलिए संस्कृत काव्यशास्त्र के रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि गंभीर संप्रदायों का विकास हिंदी में नहीं हो सका। केवल रस और अलंकार संप्रदायों का ही किंचित् परिचय इन हिंदी काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में मिलता है। वास्तव में हिंदी के आचार्य कवि-कर्म का निर्वाह भी साथ-साथ करने लगे थे। जिससे न तो वे पूर्णरूप से आचार्य ही हो पाए और न रीतिबंधन को स्वीकार करने के कारण अपनी काव्य प्रतिभा का ही उत्कर्ष प्रकट कर सके। रीतिबद्ध कवियों की अपेक्षा रीतिसिद्ध कवियों में काव्य प्रतिभा का अधिक उपयोग देखा जा सकता है और रीतिमुक्त या स्वच्छंद काव्यधारा के कवियों में उसका चरम प्रदर्शन हो सका है।

रीतिकालीन कवियों को प्राय: तीन मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया जाता है :

  1. रीतिबद्ध कवि 
  2. रीतिसिद्ध कवि
  3. रीतिमुक्त कवि

रीतिबद्ध कवि पुन: दो प्रकार के माने गए – एक सर्वांगनिरूपक और दूसरे विविधांग निरूपक या विशिष्टांग निरूपक । रीतिबद्ध सर्वांग निरूपक कवि वे हैं जिन्होंने काव्य के सभी अंगों काव्य लक्षण, काव्य-हेतु, काव्य-प्रयोजन, काव्य-गुण, काव्य-दोष, शब्द शक्ति, रीति, वृत्ति, रस, अलंकार, ध्वनि आदि का विवेचन किया। इस वर्ग में केशवदास, चिंतामणि, देव, सोमनाथ, भिखारीदास, प्रतापसाहि और ग्वाल मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं। इन कवियों ने आचार्य कर्म को अधिक गंभीरता से लिया। इसलिए उदाहरणों की अपेक्षा लक्षणों पर इनका ध्यान अधिक था। इन्होंने संस्कृत के प्रौढ़ ग्रंथों-मम्मट के काव्यप्रकाश’ और विश्वनाथ के ‘साहित्यदर्पण’ को अपना उपजीव्य बनाया। हालांकि ये कवि ध्वनि और उसके भेदों के विवेचन में भी प्रवृत्त हुए पर उसमें स्पष्टता और स्वच्छता न ला सके।

दूसरे प्रकार के (विविधांग/विशिष्टांग निरूपक) कवियों ने काव्यशास्त्र के उन अंगों का निरूपण किया जिनमें उन्हें सरस उदाहरणों की रचना का अधिक अवकाश था। इन्हें मुख्यत: तीन वर्गों में रखा जा सकता है :

  1. रस निरूपक
  2. अलंकार निरूपक
  3. पिंगल निरूपक

रस-निरूपक आचार्यों ने मुख्यत: शृंगार रस का सांगोपांग विवेचन किया किंतु अन्य रसों का संक्षिप्त परिचय-मात्र दिया। इनमें भी उन्होंने अधिक रुचि नायक-नायिका भेद के प्रतिपादन में दिखाई। इन्होंने मुख्य रूप से संस्कृत के भानुदत्त की रसमंजरी और रसतरंगिणी को अपना आधार बनाया किंतु कहीं-कहीं ‘नाट्यशास्त्र’, ‘कामशास्त्र’, ‘काव्यप्रकाश’ और ‘साहित्यदर्पण’ से भी सहायता ली है। संस्कृत के अलावा हिंदी के रसिकप्रिया’, ‘बरवै नायिका भेद’ और नगर शोभा’ भी इनके आधार ग्रंथ रहे हैं। इस वर्ग में हिंदी रीति-कवि तोष की सुधानिधि’, देव के ‘भावविलास’, भिखारी दास के रस सारांश, सैयद गुलाम नबी रसलीन’ के रसप्रबोध’, पदमाकर के जगद्विनोद’, बेनी प्रवीन’ के नवरसतरंग’ आदि का उल्लेख किया जा सकता है। श्रंगार रस एवं नायक-नायिका भेद-निरूपक ग्रंथों में मतिराम के रसराज’, कालिदास त्रिवेदी के ‘वारवधू विनोद’ का विशिष्ट स्थान है।

इस वर्ग के लगभग बीस कवियों और उनकी कृतियों का विवेचन ‘हिंदी साहित्य का वृहत् इतिहास’ के षष्ठ भाग में किया गया है। अलंकार-निरूपक आचार्यों ने संस्कृत के जयदेव के चंद्रालोक’ और अप्पयदीक्षित के ‘कुवलयानंद’ का ही अधिक आधार ग्रहण किया है। हिंदी में आचार्य केशवदास ही ऐसे आचार्य-कवि हैं जिन्होंने दंडी के काव्यादर्श को अपने अलंकार विवेचन का आदर्श बनाया।

जिस प्रकार रस और नायक-नायिका भेद का विवेचन करने वाले आचार्यों ने ‘भानुदत्त’ को अपना आधार बनाया था जिससे काव्य-रसिकों को रस और नायक-नायिका भेद का सामान्य ज्ञान कराया जा सके उसी प्रकार अलंकार विवेचन करने वाले आचार्यों ने अलंकार शास्त्र की पाठ्यपुस्तकों- चंद्रालोक’ और कुवलयानंद’ को उपजीव्य बनाया। आचार्य केशव ने तो कवि-प्रिया’ के रचना-उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है – 

‘समुझें बाला-बालकहु बर्नन पंथ अगाध ।

कविप्रिया केशवकरी, छमियो कवि अपराध ।’

लेकिन केशव ने जो अलंकार शब्द का वर्ण्य और वर्णनशैली दोनों के अर्थ में प्रयोग किया और इसके दो भेद सामान्यालंकार’ और ‘विशेषालंकार’ किए, वे रीतिकवियों को स्वीकृत नहीं हुए।

केशवदास के पश्चात् पचास वर्ष बाद महाराज जसवंत सिंह ने ‘कुवलयानंद’ के आधार पर अलंकार-निरूपण किया। इनके ग्रंथ ‘भाषाभूषण’ की विशेषता यह है कि एक ही दोहे में लक्षण और उदाहरण भी ‘कुवलयानंद’ की शैली में निबद्ध किए गए हैं। यद्यपि इनका निरूपण स्पष्ट और बोधगम्य है किंतु उससे अलंकारों का पूरा स्वरूप-बोध नहीं हो पाता। इन्होंने चंद्रालोक’ के अनुसार शब्दालकारों का भी परिचय दिया है जबकि ‘कुवलयानंद’ में इनका उल्लेख नहीं है। इस वर्ग में मतिराम के ‘ललितललाम’ और ‘अलंकार पंचाशिका’ दो ग्रंथ मिलते हैं।

अलंकारों की संख्या और क्रम ‘कुवलयानंद’ के ही अनुसार हैं। विषय के अवबोध के लिए ‘ललितललाम’ अधिक प्रौढ़ है। ‘पंचाशिका’ इनकी प्रारंभिक रचना मालूम पड़ती है। भूषण कवि ने मतिराम के ‘ललितललाम’ के ही आधार पर शिवराजभूषण’ की रचना की है। पद्माकर के ‘पद्माभरण’ का सरस और संक्षिप्त शैली के कारण अलंकार-निरूपक ग्रंथों में विशिष्ट स्थान है। पद्माकर रीतिकाल के अंतिम प्रसिद्ध आचार्य थे। इनके अतिरिक्त गोप, रसिक सुमति, दूलह, बैरीसाल और गोकुलनाथ भी उल्लेख्य आचार्य हैं।

छन्द निरूपक आचार्य

हिंदी में पिंगलनिरूपण का विविधत् प्रारंभ आचार्य केशवदास से माना जाता है। दूसरे आचार्य चिंतामणि और उनके भाई मतिराम माने जाते हैं। केशव ने ‘छंदमाला’ की रचना कवि शिक्षक के रूप में की। वे स्वयं लिखते हैं,

‘भाषा कवि समुझै सवै सिगरे छंद सुझाई।

छंदन की मालाकरी सोभन केसवराइ।

चिंतामणि के ग्रंथ का भी नाम ‘छंदमाला’ ही है। उक्त दोनों ग्रंथ सामान्य कोटि के हैं। मतिराम की ‘वृत्तकौमुकी’ छंदोनिरूपक ग्रंथों में महत्वपूर्ण है। इसके उपजीव्य ग्रंथ भट्ट केदार का वृत्तरत्नाकर’, हेमचंद्र का ‘छंदोनुशासन’ और ‘प्राकृत पैंगलम’ हैं। मौलिकता न होते हुए भी इसमें मात्रिक और वर्णिक छंदों का सुव्यवस्थित और परिपूर्ण विवेचन किया गया है। इसके उदाहरण सरल और सरस है। हिंदी साहित्य का वृह्त इतिहास में इस वर्ग के पन्द्रह कवि-आचार्यों के कृतित्त्व का परिचय दिया गया है। यद्यपि उपर्युक्त आचार्यों ने संस्कृत-प्राकृत के ग्रंथों से ही सामग्री का संकलन किया है फिर भी कहीं-कहीं कुछ नए छंदों की रचना का प्रयास किया गया है। कवि शिक्षक के रूप में इन आचार्यों के योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

हिंदी में काव्यशास्त्रीय विवेचन की परिपाटी संस्कृत से भिन्न प्रणाली पर चली। संस्कृत में लक्ष्य ग्रंथों का निर्माण पहले हुआ लक्षण ग्रंथों का बाद में । वहाँ कवि ‘अविचारित रमणीय’ की रचना करता था और आचार्य उसके अनुसार ‘सुविचारित नियमों’ की स्थापना करता था। हिंदी में दोनों प्रकार की रचना एक ही व्यक्ति करने लगा। परिणाम यह हुआ कि संस्कृत की बँधी-बँधाई पद्धति पर लक्षणों का अनुवाद प्रस्तुत करके उसके अनुरूप उदाहरण रचे जाने लगे। परिणामत: न तो लक्षणों में मौलिकता आ सकी न उदाहरण में ही।

हिंदी के तथाकथित आचार्य मौलिक चिंतक नहीं थे। उन्होंने आचार्य कर्म को गंभीरता से नहीं लिया, उसकी आवश्यकता भी नहीं समझी। क्योंकि इनका उद्देश्य काव्यशास्त्र-विवेचन नहीं था। वह तो संस्कृत में पर्याप्त मात्रा में हो ही चुका था। हाँ, हिंदी काव्यधारा के लक्ष्यों को दृष्टि में रखकर लक्षणों का निर्माण यदि होता तो इस क्षेत्र में मौलिकता आती किंतु इन कवियों का कार्य तो सरस उदाहरणों के द्वारा काव्य शास्त्रीय सिद्धांतों का सरल परिचय करा देना भर था। लक्षणानुसारी उदाहरणों की रचना में भी मौलिकता का क्षेत्र सीमित रह गया, अत: अधिकांश उदाहरणों में एकरूपता पाई जाती है। फिर भी इस युग में सामान्य जन के ज्ञानवर्द्धन, रसिकवृत्ति के अनुरंजन और अल्पप्रयास से यश और धन की प्राप्ति के लिए जिस रीतिशास्त्र का निर्माण हुआ उससे कवि और काव्य के स्वरूप की प्रतिष्ठा हुई और काव्यशास्त्र का प्रचार-प्रसार हुआ।

हिंदी के भारतेन्दु युग तक रस, छंद, अलंकार के ज्ञान को विद्वत्ता का प्रतीक माना जाता था, किंतु बाद में नवजागरण, सुधारवादी प्रवृत्ति और ज्ञान-विज्ञान के नए क्षेत्रों के विस्तार के कारण रीति परंपरा उपेक्षित हुई और द्विवेदी युग में आदर्शवादी राष्ट्रीय चेतना के प्रसार के कारण रीति परंपरा को प्रगति-विरोधी ही नहीं संकुचित और अश्लील तक कहा जाने लगा। यह दृष्टि साहित्य के शाश्वत स्वरूप को न देखकर तात्कालिक उपयोगितावाद को ही महत्त्व देने लगी। आचार्य शुक्ल की लोकवादी मान्यताओं ने भी रीति साहित्य में विलासिता और चमत्कार के आधिक्य की निंदा की किंतु पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र, डॉ. भगीरथ मिश्र और डॉ:रमेश कुमार शर्मा आदि विद्वानों ने आधुनिक आलोचकों के आक्षेपों का निराकरण करते हुए रीतिकाव्य के सद्पक्ष की पुष्टि की है।

शृंगारिकता का आधार

यदि रीतिकाव्य की प्रतिपादन शैली काव्यशास्त्रीय है तो उसका प्रतिपाद्य विषय शृंगार है। इस शृंगारिकता का आधार काव्यशास्त्र में शृंगार की प्रतिष्ठा, उसके रसराजत्व की स्थापना और शुष्क शास्त्रीय लक्षणों के सरस उदाहरण प्रस्तुत करने की सुदीर्घ परंपरा है। संस्कृत काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों का प्रतिपादन शृंगार बहुल उदाहरणों के द्वारा ही किया जाता रहा है। कविता को ही लोगों ने कामिनी के रूप में स्वीकार किया है। रस-निरूपण में जितना विस्तार शृंगार का किया गया उतना किसी भी रस का नहीं।

हिंदी में रीतिकाल या शृंगारकाल भक्तिकाल का ही विकास है। भक्ति में शृंगार को दिव्य और उज्ज्वल रस के रूप में अलौकिक सिद्ध किया गया किंतु सामान्य जन के लिए उसका लौकिक और स्थूल रूप ही अधिक ग्राह्य हुआ। श्रीकृष्ण की कैशोर लीलाओं का वर्णन श्रीमद्भागवत में विस्तार पूर्वक किया गया है। वहीं से गोपी (राधा) और कृष्ण, रीतिकाव्य में शृंगार के नायक-नायिका के रूप में गृहीत हुए।

रीतिकालीन कविता दरबारी या सामंती परिवेश की देन है। उसमें वैलासिक वृत्ति ही प्रमुख थी जिसके अनुरूप शृंगार रस और नायिका-भेद का विस्तार हुआ। फारसी, विदेशी दरबारों की समादृत भाषा थी, उसका साहित्य भी अधिकांशत: शृंगारपरक है। उसने हिंदी की श्रृंगारिकता को और भी प्रोत्साहन दिया। परकीया-प्रेम और प्रेम-वैषम्य उसी परंपरा की देन है। रीतिकाव्य मुक्तकों में निर्मित हुआ। इस शैली में श्रृंगारपरक वर्णन वैदिक साहित्य, लौकिक संस्कृत साहित्य, प्राकृत के गाथा साहित्य, अपभ्रंश के दूहा साहित्य और आदिकाल की वीरगाथाओं में भी अधिकांशत: परंपरित-रूप में प्राप्त होते हैं।

विविध ललितकलाओं जैसे मूर्ति, चित्र, संगीत आदि – में सर्वत्र श्रृंगार के विषयों का ही ग्रहण अधिक हुआ। रीतिकालीन कविता की शृंगारिकता के आधार-काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र, काम शास्त्र, भक्ति के विभिन्न संप्रदायों में न्यूनाधिक मात्रा में गृहीत माधुर्य भाव, तत्कालीन और पूर्ववर्ती देशी-विदेशी राजदरबारों में लालित्यपूर्ण और विलासवृत्ति के अनुकूल वातावरण की उपस्थिति, मुक्तकों की सुदीर्घ परंपरा का आश्रयण आदि माने जा सकते हैं।

आधुनिक युग के मान्य आलोचकों – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पं.विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ.नगेन्द्र और डॉ.भगीरथ मिश्र आदि ने एक स्वर से यह स्वीकार किया है कि रीतिकालीन कविता में प्राप्त शृंगार के वैविध्यपूर्ण उदाहरण विश्व साहित्य में अपना प्रतिस्पर्धी नहीं रखते।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि रीति कवियों की शृंगारिकता में सामान्य रूप में इंद्रिय दमनजन्य कुंठाहीनता, शारीरिक सुख की साधना, अनेकोन्मुख प्रेमजन्य विलासिता, रूपलिप्सा, भोगेच्छा, नारी के प्रति सामन्तीय दृष्टि तथा गार्हस्थिकता के गुणदोषों के रहते हुए ऐसी ताजगी है जो काव्यशास्त्रीय नियमों के घेरे में बंद रहकर भी साधारण पाठक को एक क्षण के लिए आत्मविभोर कर सकती है।

अलकरण का आधार

काव्य में स्वाभाविक उक्ति की अपेक्षा वक्रतापूर्ण उक्ति को चिरकाल से महत्व दिया जाता रहा है। विद्वानों ने वैदिक साहित्य में भी अलंकृत शैली के प्रयोग के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। लौकिक साहित्य में भी विशेषत: संस्कृत के कालिदास और उनके परवर्ती कवियों में इस प्रवृत्ति की उत्तरोत्तर वृद्धि हुई। भारवि, माघ और श्रीहर्ष के प्रबंधकाव्य तो इसके प्रमाण हैं ही। मुक्तकों में भर्तहरि, अमरूक, गोवर्द्धनाचार्य आदि के शतकों एवं सप्तशतियों में भी अलंकृत शैली ही अपनाई गई, स्तोत्र साहित्य भी निरलंकृत नहीं है। प्राकृत, अपभ्रश आदि लोकोन्मुख काव्यों में स्वाभाविक उक्तियाँ अधिक हैं वक्रतापूर्ण कम फिर भी उनमें अलंकृत शैली पाई जाती है।

समाज में जैसे-जैसे प्रदर्शन की प्रवृत्ति बढ़ती गई अलंकृत शैली का विकास होता गया। अभिव्यंग्य भाव या रस और अभिव्यंजना शैली-अलंकारादि को अलग-अलग नहीं माना जा सकता। पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने लिखा है, “साहित्य-संसार में कविता के साथ अलंकारों का वही संबंध है जो कामिनी और उसके सौंदर्य में पाया जाता है।” उन्होंने भाव और अलंकार को दूध-पानी की तरह अभिन्न माना है।

रीतिकालीन कविता में अलंकरण वृत्ति की अधिकता का प्रमुख कारण यह है कि इन कवियों ने अलंकारों के स्वरूप और उसके प्रयोग पर विशेष ध्यान दिया। काव्यशास्त्र-विवेचन में अलंकारों की स्वीकृति भरत मुनि के ही समय से थी। संस्कृत में अलंकार संप्रदाय की प्रमुखता बहुत दिनों तक थी। हिंदी में उस परंपरा की प्रतिष्ठा सर्वप्रथम आचार्य केशव ने ‘भूषन बिन न विराजई कविता, बनिता, मित्त’ कहकर की थी। रीतिकाल में संस्कृत के विभिन्न काव्यशास्त्रीय संप्रदायों में से रसवाद और अलंकारवाद की ही व्यापक स्वीकृति हुई।

रीतिकालीन कविता राजदरबारों में संवर्द्धित हुई । तत्कालीन सम्राटों और सांमतों में अलंकरण के प्रति विशेष आकर्षण पाया जाता था। चित्रकला, स्थापत्यकला, संगीतकला में अलंकृत शैली का प्रवेश बहुत पहले से हो चुका था। वैभव प्रदर्शन के लिए जिस प्रकार स्थूल अलंकारों का प्रयोग सामंत वर्ग करता था उसी प्रकार अपने बुद्धि वैभव के प्रकाशन हेतु कवि लोकातिशायिनी उक्ति का प्रयोग करते थे। मुक्तक शैली को ग्रहण करने के कारण उचित-चमत्कार को और भी अधिक महत्त्व मिला। दूर की कौड़ी लाने का प्रयास फारसी काव्य में अधिक था उसकी स्पर्धा में हिंदी काव्य भी अतिशयोक्ति अत्युक्ति से परिपूर्ण हो गया। देखा जाए तो शृंगारिकता और अलंकरण बहुत कुछ एक दूसरे के पूरक के रूप में भारतीय साहित्य में सदा से प्राप्त होते रहे हैं। लेकिन विलासिता और मनोरंजन के लिए अलंकरण एक अनिवार्य उपादान के रूप में रीतिकालीन कविता में ही स्वीकृत हुआ।

रीति काव्य में वीर और प्रशस्ति के भाव

संस्कृत काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में विभिन्न काव्यांगों के जो उदाहरण दिए गए हैं, वे संस्कृत, प्राकृत के प्रबंध मुक्तकों के श्लोकों से लिए गए हैं। इन श्लोकों-गाथाओं में अधिकांश शृंगारिक हैं लेकिन कुछ वीर, भक्ति, वैराग्य और नीतिपरक भी हैं। इससे शास्त्र विवेचन की एकरसता समाप्त होती है और भिन्न-भिन्न रुचियों का परिपोष भी होता है। रीतिकालीन कवि-आचार्यों के रीति-निरूपण में उक्त पद्धति को आधार के रूप में स्वीकार किया है। रीति काव्य में रीति-निरूपण, शृंगारिकता और अलंकरण की प्रवृत्ति मुख्य है शेष वीर व्यक्ति के शौर्य की प्रशंसा प्राचीन काल से होती आई है। वीरता के प्रदर्शन गृह-कलंह और राज-कलह दोनों में प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त देव काव्यों में राम, कृष्ण, शिव आदि के साथ चण्डी या दुर्गा के वीर-कार्यों का वर्णन महाभारत आदि पुराणों में प्राप्त होते हैं। इनका वर्णन प्रबंध और मुक्तक दोनों रूपों में प्राप्त होता है। रीतिकाल के कवियों ने वीरता का वर्णन नराशंसी काव्यों और पौराणिक देवी-देवताओं से संबद्ध काव्यों में किया है।

विक्रम की दसवीं शती से पश्चिमोत्तर प्रान्त से विदेशियों के आक्रमण प्रारंभ हो गए थे जो रीतिकाल तक अनवरत चलते रहे। राजपूत स्वभावत: वीर, देशभक्त और स्वाभिमानी होते थे, जो जी-जान से इन आक्रांताओं का मुकाबला करते थे किन्तु आपस की फूट या स्वार्थी तत्त्वों की सक्रियता से उन्हें पराजय का भी मुँह देखना पड़ता था। इसके अनेक उदाहरण इतिहास ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। रीतिकाल में आदिकालीन राष्ट्राभिमानी योद्धाओं की पीढी समाप्त हो गई थी। महाराणा प्रताप, शिवाजी, छत्रसाल जैसे कुछ ही वीर पुरुष रह गए थे। महाराणा प्रताप आदि हिंदू नरेशों के वीर-कर्म का वर्णन करने वाले ग्रंथ आज प्रभूत मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं इसका एक कारण विदेशी शासकों का आतंक हो सकता है। फिर भी, शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का वर्णन ‘भूषण’ आदि कवियों ने किया है।

शिवाजी और छत्रसाल ने राष्ट्र-विरोधी और धर्मांध शासकों से अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए युद्ध किया था। अत: वे सच्चे जन-नायक के रूप में प्रतिष्ठित हुए जबकि रीतिकाल के अधिकांश कवि परंपरा पालन के लिए अपने विलासी और स्वार्थी आश्रयदाताओं की प्रशस्ति लिख दिया करते थे। आचार्य केशव दास ने ‘रतन बावनी’, ‘वीर सिंह देव चरित’ और ‘जहाँगीर जस चंद्रिका’ में वीर-प्रशस्ति की काव्य-परंपरा का निर्वाह किया था। भूषण में वीर रस का जो ओजपूर्ण प्रवाह है वह लोकनायक शिवाजी के चारित्रिक गरिमा के कारण अद्वितीय है। मान के ‘राजविलास’ लाल कवि के ‘छत्रप्रकाश’, सूदन के ‘सुजान चरित’ पद्माकर के हिम्मत बहादुर विरुदावली,’ ‘प्रताप विरुदावली,’ जोधराज के ‘हम्मीर रासो’ में अपने-अपने चरित नायकों की वीरता की प्रशंसा की गई है।

रीतिकाल में विलासिता और आत्मश्लाघा की वृत्ति प्रधान थी अत: जो वीर काव्य लिखे गए उनमें कवि की आंतरिक ऊर्जा का उपयोग कम ही हुआ है। यही कारण है कि इनमें पृथ्वीराज रासो की ऊर्जस्वित शैली के दर्शन नहीं होते।

भक्तिपरक वर्णन का आधार

भारतीय साहित्य में दसवीं-ग्यारहवीं शती से भक्ति आंदोलन पूरे वेग से प्रवर्तित हुआ। हिन्दी में भी आदिकाल से ही कुछ भक्तिपरक उक्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं। भक्तिकाल में राम, कृष्ण, सूफी और संत काव्यों में भक्ति की उदात्त भावना का ऐसा प्रवाह आया कि हिन्दी साहित्य का वह स्वर्ण युग बन गया। वह समय ऐसा था जब देश में समन्वय की भावना प्रबल थी। मानवीय मूल्यों की जैसी स्थापना इन काव्यों में प्राप्त होती है वह कालांतर क्षीण हो गई। इसका मूल कारण है कवियों का लोक जीवन से विमुख होकर .. सामंतों के प्रभाव में आ जाना।

संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी में भी देव विषयक रति के वर्णन में भक्ति भाव की दृढ़ता दृष्टिगत होती है। अपने इष्टदेव के ऐश्वर्य सामर्थ्य का वर्णन करना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसी के परिणामस्वरूप रीतिकालीन कवियों ने भी भक्ति के छंदों की रचना की। किन्तु इनमें वह निष्ठा और समर्पण का भाव नहीं पाया जाता जो भक्त कवियों के साहित्य में उपलब्ध है। भक्त कवियों की जीवनसाधना आध्यात्मिक उन्नति के लिए थी किन्तु रीतिकवियों में भक्ति भावना सामान्य आस्थावादी भारतीय की मानसिकता को प्रकट करती है।

नीति और वैराग्यपरक कविता का आधार

रीतिकालीन रीतिकवियों ने तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक पृष्ठभूमियों के दबाव या संघात से जैसी मानसिक अवस्था प्राप्त की थी उसमें भक्ति की ही तरह वैराग्य भाव सहज संभूत था। काव्य का उद्देश्य मनोरंजन के अतिरिक्त कान्तासम्मित उपदेश’ देना भी माना गया है। रीतिकवियों ने अपने जीवनानुभवों को इन नीति और वैराग्यमूलक उक्तियों में निबद्ध किया है। नीति की ये उक्तियाँ लोक-यात्रा को सुगम और सफल बनाने के लिए चिरकाल से उपयोगी मानी जाती रही हैं। ऐसे मक्तकों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। पहली श्रेणी में वे अन्योक्तियाँ ली जा सकती हैं जिनमें भ्रमर, कोकिल, काग आदि के व्याज से उपदेश दिए जाते हैं। दूसरी श्रेणी उन मुक्तकों की है जिनमें सरल शैली में व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा दी गई है। तीसरी श्रेणी उन मुक्तकों की है जिनमें संसार को माया का प्रसार मानकर विरक्ति की शिक्षा दी गई है।

नीति-वैराग्य की सूक्तियाँ महाभारत, पुराणों, महाकाव्यों और मुक्तकों में प्राचीन काल से प्राप्त होती रही हैं। भक्तिकाल में धार्मिक वृत्ति प्रधान होने के कारण व्यापक धर्म को व्यावहारिक जीवन में आचरण का अंग बनाने का प्रयास संतों ने विशेष रूप से किया है। कबीर, रहीम और तुलसी के स्वर में जीवनानुभवों की जो ऊष्मा और तीव्रता है वह रीतिकालीन कवियों यथा बिहारी, रसनिधि, भड्डरी, बैताल, छत्रसाल, वृंद, गिरिधर दास, दीनदयाल गिरि आदि में प्राप्त नहीं होती। इनकी उक्तियाँ प्राय: परंपरित और संस्कृत-सूक्तियों पर आधारित लगती हैं ।

रीतिकालीन काव्य भाषा का आधार

रीतिकाल में जिस प्रकार काव्य के वर्ण्य विषय पूर्ववर्ती भक्तिकाल से लिए गए उसी प्रकार काव्य भाषा-ब्रजभाषा भी ली गई। रीतिकाल को डॉ.रसाल ने ‘कलाकाल’ कहा है। उनका कथन इस दृष्टि से उपयुक्त है कि इसी काल में भाषा-शैली को कलात्मक सज्जा प्रदान की गई। पं.विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने शुद्ध साहित्य की रचना की दृष्टि से इसे ‘अनारोपित काव्यकाल’ कहा है और डॉ.नगेन्द्र के कथन से भी इसी बात की पुष्टि होती है। वस्तुत: मुगल दरबार में कलात्मक अभिव्यक्ति को विशेष गौरव प्राप्त था। यही स्थिति देशी राज-दरबारों की थी। वहाँ के दास-दासी भी अलंकृत शैली का प्रयोग करते थे। ऐसी स्थिति में कवियों की शिल्प संबंधी सजगता स्वाभाविक थी।

रीतिकाव्य की भाषा मूलत: ब्रजी थी। किन्तु उसमें अन्य भाषाओं के शब्दों का ग्रहण उदारतापूर्वक किया गया। इसका कारण यह है कि चिरकाल से मध्यदेश की भाषा ही उत्तर भारत की साहित्य-भाषा बनी हुई थी। शौरसेनी प्राकृत में प्रभूत साहित्य की रचना हई। शौरसेनी अपभ्रंश का विस्तार पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में गुजरात तक उत्तर में पंजाब से लेकर दक्षिण में महाराष्ट्र तक हुआ। अत: इस युग के साहित्य में शौरसेनी की बेटी ब्रजभाषा में गुजराती, पंजाबी, मैथिली, अवधी, बुंदेलखंडी, खड़ी बोली और संस्कृत, प्राकृत, उर्दू, अरबी-फारसी में शब्दों का मुक्त रूप से प्रयोग पाया जाता है।

यह कहना उचित नहीं कि रीतिकाल में काव्य शिल्प का संकुचन हुआ। भक्तिकाल की अपेक्षा रीतिकाल में ब्रजभाषा का शब्द-भंडार अधिक मृद्ध और वैविध्यपूर्ण हुआ। आचार्य भिखारी दास ने ‘तुलसी-गंग’ के विविध भाषा-प्रयोग की चर्चा की है पर रीतिकाल के कवियों की भाषा भी गुण की दृष्टि से किसी से कम नहीं हैं। आचार्य शक्ल ने तत्कालीन भाषा के व्याकरण सम्मत और परिमार्जित न होने की बात कही है। यह सत्य है कि उस समय भी शब्द-रूप, क्रिया-प्रयोग, वाक्य-विन्यास में त्रुटियाँ प्राप्त होती हैं पर उन्होंने ही मतिराम, बिहारी, पद्माकर और घनानंद की भाषा और शैली की प्रशंसा भी की है। घनानंद की भाषा-शैली की प्रशंसा पं.विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने भी विस्तार से की है। त्रुटिपूर्ण और असमर्थ भाषा के द्वारा भावों की समर्थ अभिव्यक्ति नहीं हो सकती।

रीतिकाल के कवि मतिराम, देव, बिहारी, घनानंद और पद्माकर जैसे रससिद्ध कवियों ने सवैया, कवित्त और दोहा छंदों में जिस प्रकार प्रौढ़ और प्रांजल भाषा का प्रयोग किया है उसके समक्ष भक्तिकाल के शीर्षस्थ कवि तुलसी की पदावली अनगढ़-सी लगती है। रीतिकाव्य की रचना जिस वातावरण में हो रही थी, उसमें फारसी काव्य का विशेष सम्मान था। अत: रीतिकवियों ने केवल उनके शब्दों को ही ग्रहण नहीं किया अपितु शैली को भी ले लिया। जिसके परिणामस्वरूप अनेक कवियों पर दूर की कौड़ी लाने, अरुचिकर और अश्लील वर्णन करने का आरोप किया गया। संक्षेप में कहा जा सकता है कि भाषा और अभिव्यंजना शिल्प की दृष्टि से रीतिकाव्य की उपलब्धियाँ महत्वपूर्ण हैं। इसीलिए भारतेंदु युग तक इसका वर्चस्व बना रहा।

सारांश

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप रीतिकालीन कविता के गठन की पृष्ठभूमि को समझ गए होंगे। रीतिकालीन कविता किन मानसिक दशा के बीच स्थान ग्रहण करती है, इसकी जानकारी भी आपको प्राप्त हुई होगी। वस्तुत: रीतिकाल की कविता सामंती समाज के बीच पनपी थी। सामंती मनोवृत्ति और शास्त्रीयता का अद्भुत संयोग रीतिकाव्य में देखने को मिलता है। चमत्कार प्रदर्शन, शृंगार और सौंदर्य रीतिकाव्य के प्रमुख बिंदु हैं। सामंतों ने इन्हीं प्रवृत्तियों को फलने-फूलने में मदद की। रीति काल में मात्र शृंगारिक कविता ही नहीं रची जा रही थी। विविध प्रकार से भक्ति, वैराग्य, वीरता और प्रशस्ति के पद भी रचे जा रहे थे। इन सबकी रचना का आधार क्या था इसकी जानकारी भी इस इकाई में आपको दी गई।

प्रश्न/अभ्यास

  1. रीतिकालीन कविता दरबारी काव्य परंपरा का प्रतिनिधित्व करती है, स्पष्ट कीजिए।
  2. रीतिकालीन ऐतिहासिक तथा सामाजिक पृष्ठभूमि से रीतिकाव्य किस सीमा तक प्रभावित हुआ?
  3. रीतिकालीन कविता की विभिन्न प्रवृत्तियों का आधार क्या था? विवेचन कीजिए।
  4. रीतिकालीन काव्य की भाषा पर प्रकाश डालिए।

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.