काल विभाजन नामकरण

इस इकाई को पढ़ने के बाद आपः

  • साहित्य के इतिहास में काल विभाजन और नामकरण की आवश्यकता को समझ सकेंगे;
  • काल विभाजन और नामकरण के संदर्भ में आने वाली कठिनाइयों से परिचित हो सकेंगे;
  • काल विभाजन और नामकरण के उन आधारों को समझ सकेंगे,
  • जिन आधारों पर साहित्य के इतिहास में काल विभाजन और नामकरण किया जाता है;
  • हिन्दी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की चर्चा कर सकेंगे;
  • आदिकाल के सीमा निर्धारण और नामकरण संबंधी प्रचलित विवाद को जान सकेंगे;
  • भक्तिकाल और रीतिकाल के काल विभाजन और नामकरण के आधार को समझ सकेंगे; और
  • आधुनिक काल की संवेदना के विकास को भी आप समझ सकेंगे।

हिंदी साहित्य के इतिहास पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तब हमारी पहली समस्या होती है कि 1000 वर्षों के इतिहास को कैसे पढ़ा जाय? इसी समस्या को ध्यान में रखकर इतिहास को कालखंडों में विभाजित करते हैं। लेकिन इससे हमारे प्रश्न का समाधान नहीं होता। इसी से जुड़ा एक दूसरा प्रश्न उठ खड़ा होता है | साहित्य के इतिहास में काल विभाजन और नामकरण की अनिवार्यता क्या है? इस अनिवार्यता को इतिहास में किन तथ्यों से पुष्ट किया जाता है ? इतिहास का कोई कालखंड या युग इतिहास की तथ्यपूर्ण वास्तविकता को प्रतिबिंबित करता है, अथवा वह इतिहासकार के मन की संकल्पना है। क्या युग की पहचान इतिहासकार की व्याख्या है? इन सारे प्रश्नों का समाधान ढूंढना आवश्यक है। इन प्रश्नों से टकराये बिना इतिहास का सही विभाजन नहीं हो सकता। और उसके बिना हम काल विभाजन के आधारों को नहीं समझ सकते।

पृष्ठभूमि

यदि युग विभाजन इतिहास की केवल पद्धतिगत अनिवार्यता है तो उसका औचित्य इतिहास बोध की वास्तविकता से ही निर्धारित हो सकता है। इतिहास बोध में एक प्रकार की आलोचनात्मक चेतना होती है। एक ऐसी चेतना जिसका उपयोग हम जीवन और संस्कृति के परीक्षण के लिए करते हैं। जिसकी कसौटी पर साहित्य और समाज के रिश्ते की पहचान की जाती है। साहित्य का इतिहासकार इन रिश्तों में आये परिवर्तन को जितनी तीव्रता से अनुभव करेगा, उसका कालविभाजन उतना ही प्रामाणिक होगा। क्या यही कारण नहीं है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास की ओर बार-बार लौटने की जरूरत होती है। उनके इतिहास की ओर हम इसलिए लौटते हैं क्योंकि उन्होंने अपनी प्रखर आलोचनात्मक दृष्टि से इतिहास बोध को अर्जित किया था। उन्होंने साहित्य के इतिहास को कार्य-कारण के संबंधों की श्रृंखला में प्राप्त किया था। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में कालविभाग पर लिखा है-“शिक्षित जनता की जिन-जिन प्रवृत्तियों के अनुसार हमारे साहित्य के स्वरूप में जो-जो परिवर्तन होते आए हैं, जिन-जिन प्रभावों की प्रेरणा से काव्यधारा की भिन्न-भिन्न शाखाएँ फूटती रही हैं, उन सबके सम्यक् निरूपण तथा उनकी दृष्टि से किए हुए सुसंगत काल विभाग के बिना साहित्य इतिहास का सच्चा अध्ययन कठिन दिखाई पड़ता था। सात आठ सौ वर्षों की संचित ग्रंथराशि सामने लगी हुई थी, पर ऐसी निर्दिष्ट सारणियों की उदभावना नहीं हुई थी जिसके अनुसार सुगमता से प्रभूत सामग्री का वर्गीकरण होता।” इस लंबे उद्धरण में शिक्षित जनता जैसे शब्द को छोड़कर शायद ही किसी बात पर ऐतराज जाहिर किया जा सकता है। सारांश यह है कि बिना ठोस इतिहास दृष्टि के सुसंगत काल विभाजन नहीं किया जा सकता और बिना काल विभाग के इतिहास का अध्ययन कठिन है।

साहित्य के इतिहासकार का सबसे महत्वपूर्ण दायित्व यह है कि वह युग के समूचे तंतुजाल के रेशों का, जिसमें साहित्य का यथार्थ और युग का अनुभव एक दूसरे से गुंथा हुआ है, का । विश्लेषण स्पष्टता से करे । इसके लिए आवश्यक है, कि जिस युग में इतिहासकार जी रहा है उस युग के समसमायिक प्रश्नों पर उसकी पकड़ गहरी हो। इसके बिना इतिहास दृष्टि निर्मित नहीं होगी और होगी भी तो वह अतीतोन्मुखी होगी। इतिहास दृष्टि की सार्थकता उसके भविष्योन्मुख होने में है। ऐतिहासिक सामाजिक संदर्भो को पहचान कर ही साहित्य के कालखंडों का निर्धारण किया जा सकता है। ऐतिहासिक संदर्भ रचनाओं की जटिलता और विशिष्टता को समझने के आवश्यक उपादान हैं। कुछ विद्वानों की तरफ से यह संकेत अवश्य मिलते रहे हैं कि साहित्य के कालखंड का निर्धारण विशुद्ध साहित्य के मानदंड पर होना चाहिए। यदि इस प्रकार के मानदंड स्वीकार कर भी लिए जाएँ तो क्या ऐसा करना वैज्ञानिक होगा। साहित्य के मूल्यांकन का एक आधार इतिहास भी होता है। यदि इतिहास को छोड़ देंगे तो मूल्यांकन का दूसरा आधार शास्त्र होगा और शास्त्र प्रायः जीवन और समाज की सजीव चेतना का परीक्षण नहीं करता है। उसमें जड़ता होती है। यही कारण है कि संस्कृत काव्य शास्त्र में साहित्येतिहास की परिपाटी नहीं है।

ऊपर के परिच्छेद में हमने जिस तीसरे प्रश्न को उठाया था कि इतिहास वास्तविक तथ्य है या इतिहासकार के मन की संकल्पना, उस प्रश्न का विवेचन भी अनिवार्य है। वस्तुतः इतिहास तथ्यगत वास्तविकताओं के साथ एक व्याख्या की माँग भी करता है। इसी से हमारे जीवन मूल्य निर्धारित होते हैं। यदि किसी कृति को इतिहासकार ने मूल्यवान माना है, तो क्यों? उसकी व्याख्या में ही इस प्रश्न का जबाव दिया जा सकता है। उदाहरण के लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल तुलसीदास को महत्वपूर्ण कवि घोषित करते हैं। इस घोषणा के आधार की खोज करते हुए हम पाते हैं, कि तुलसीदास आचार्य शुक्ल के कट्टर मर्यादावाद और नैतिकतावाद पर खरे उतरते हैं। आचार्य शुक्ल तुलसीदास की तरह समाज में अव्यवस्था स्वीकार नहीं करते। इस व्याख्या में ही आचार्य शुक्ल के इतिहास की सीमाएँ सामने आ जाती हैं। तुलसीदास की कृति इतिहास के लिए ऐतिहासिक दस्तावेज हो जाती है और आचार्य शुक्ल उस ऐतिहासिक दस्तावेज का विश्लेषण और मूल्यांकन अपनी इतिहास दृष्टि से करते है। इस मूल्यांकन से इतिहासकार रामचंद्र शुक्ल की इतिहास दृष्टि की सीमाओं को स्पष्ट किया जा सकता है। तथ्यात्मक वास्तविकताओं की व्याख्या में ही इतिहास दृष्टि की सीमाएँ और संभावनाएँ स्पष्ट हो जाती हैं।

काल विभाजन की समस्याएँ

काल विभाजन की आवश्यकता पर विचार करने के बाद कालविभाग के आधारों का विवेचन आवश्यक है। एक बात जिस पर आरंभ में ही चर्चा करना अपेक्षित है, वह यह है कि इतिहास या समाजशास्त्र में किसी घटना को आधार बनाकर एक रेखा खींची जा सकती है, उदाहरण के लिए इतिहास में पुनर्जागरण का आरंभ सामान्यतः तुर्कों के हाथों कुस्तुनतुनिया की पराजय की तिथि से माना जाता है। लेकिन साहित्य के इतिहासकार को साहित्य के रुझान का रुख पता करने में कठिनाई हो सकती है। क्योंकि साहित्य का रुझान परिवर्तन किसी एक तिथि की घटना नहीं है। यदि प्रवृत्ति को ही आधार बनाएँ तो, ऐसा देखा गया है कि जब साहित्य में एक प्रकार की प्रवृत्ति गतिशील होती है, तो उसके समानांतर कभी-कभी प्रतिरोधी प्रवृत्ति भी। गतिशील हो उठती है। इस अन्तर्विरोध के कारण काल विभाजन का पूरा ढाँचा ही चरमरा उठता है। हिंदी साहित्य का ही उदाहरण लें तो आदिकाल का उदाहरण दिया जा सकता है, जिसका विस्तृत विवेचन आगे किया जायेगा।

काल विभाजन में दूसरी समस्या संक्रांति काल को लेकर होती है। संक्रमण के जिन बिंदुओं पर इतिहास के दो युगों को तोड़ा जाता है, वहाँ इतिहासधारा की चिन्तनधारा ही नहीं टूटती है बल्कि इस टूटने की प्रक्रिया में बहुत कुछ छूट भी जाता है। क्या यही कारण नहीं है कि आचार्य शुक्ल के इतिहास में संक्रांति काल के बड़े साहित्यकारों को फुटकर खाते में स्थान मिलता है, उदाहरण के लिए विद्यापति, खुसरो और केशवदास का नाम गिनाया जा सकता है। संक्रांतिकाल की वास्तविकता यह होती है कि संक्रांति बिंदु पर खड़े कवि के साहित्य में एक मार्ग पीछे से आता है और दूसरा रास्ता आगे से शुरू होता है। दो प्रवृत्तियों की निरंतर टकराहट उनमें मिलती है। इनमें किस प्रवृत्ति का आगे विकास होता है, इसी को ध्यान में रखा जाना आवश्यक होता है। इसी सूत्र से संक्रांतिकाल की समस्या सुलझती है।

काल विभाजन की कठिनाइयों में एक और कठिनाई का जिक्र होना चाहिए। साहित्य के इतिहास में और राजनैतिक इतिहास में अक्सर समानता नहीं होती। उदाहरण के लिए हमारे साहित्य का जो आदिकाल है लगभग उसी के आसपास राजनीतिक इतिहास का मध्ययुग शुरू होता है। ऐसी स्थिति में कुछ इतिहासकार आधुनिक काल से पूर्व समूचे साहित्य को मध्ययुगीन साहित्य कहना ही उचित मानते हैं और मध्ययुगीन साहित्य को विभिन्न प्रवृत्तियों में बाँटकर उसका विवेचन करना उचित समझते हैं। वीरकाव्य, नीतिकाव्य, प्रेमाख्यान काव्य आदि के अनुसार साहित्य को इतिहास का ढाँचा बनाते हैं। इस प्रकार के विभाजन से सहमति कठिन है। यदि हम प्रवृत्ति के आधार पर विभाजन करते हैं तो कार्यकारण संबंधों को भी दिखाना चाहिए। दूसरा प्रश्न यह है कि इस प्रकार का विभाजन परवर्ती साहित्यकारों में कितना अधिक स्वीकृत हुआ। यदि इस प्रकार के विश्लेषण को स्वीकृति नहीं मिली तो यह माना जाना चाहिए कि इतिहास ने उनको स्वीकार नहीं किया।

भारतीय हिंदी परिषद से हिंदी साहित्य का जो द्वितीय खंड प्रकाशित हुआ उसमें आदि, मध्य और आधुनिक तीनों कालों को तोड़कर ‘प्राचीन’ एवं ‘आधुनिक’ केवल दो कालों में उन्हें ग्रहण किया गया है। इस प्रकार के काल विभाजन में इतिहास की परिपक्व दृष्टि का स्पष्ट अभाव मिलता है। उसमें राजनैतिक इतिहास के स्थूल प्रतिमानों को आधार बनाया गया है। काल-विभाजन के मुख्य उपकरण, संवेदना, को पहचानने की क्षमता है। संवेदना को पहचान कर हम इतिहास की रचना करते हैं। शुक्लोत्तर इतिहास लेखन में इस बात को नजरअंदाज कर दिया गया है। इससे साहित्य के इतिहास को समझने में बाधा पड़ी है। इन इतिहासों के प्रस्तावित काल खंड से जो चित्र प्राप्त हुए हैं उसका स्वरूप ही खंडित है। उसमें इतिहास की समग्रता का प्रमाण नहीं मिलता है। नागरी प्रचारिणी सभा ने अपने “हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास” के लिए जो प्रारूप बनाया है वह आचार्य शुक्ल के इतिहास को आधार में रखकर बनाया गया है। यह उचित भी है, क्योंकि नये इतिहास को बनाने के लिए अत्यंत व्यापक दृष्टि की आवश्यकता होती है। इस दृष्टि के अभाव में एक प्रामाणिक इतिहास के ढाँचे को  अपनाना ही बेहतर है।

काल विभाजन के आधार

साहित्येतिहास में प्रवृत्तियों के परिवर्तन को आधार बनाकर काल विभाजन की परिपाटी पुरानी है। यह परिपाटी पुरानी होने पर भी सार्थक है। इससे हम उन उलझनों से बच जाते हैं, जिससे काल विभाजन के निर्णय में अराजकता की संभावना होती है। साहित्य की अन्तःप्रकृति की। एकता को समझने पर ही कालविभाग को संयोजित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए हिंदी साहित्य के आदिकाल में धार्मिक, शृंगारिक और वीरगाथात्मक साहित्य का सृजन हुआ है। इन काव्यों की रचना प्रकृति की अन्तःधारा को समझकर उसे एक-दूसरे से अलग कर सकते । हैं। काल की अन्तःप्रकृति को समझने में बड़ी सूक्ष्म दृष्टि की जरूरत होती है नहीं तो, कोई बड़ी ऐतिहासिक भूल हो सकती है। इस सूक्ष्म दृष्टि के द्वारा हम युग की मनोभूमि और उसके समाज के मन को परखकर उसे दूसरे युग के समाज के मन तथा उसकी मनोभूमि से अलग किया जा सकता है। भक्तिकाल से रीतिकाल तक आते-आते किस प्रकार से मनोभूमि का परिवर्तन हो चुका था, इसका विश्लेषण करने के लिए गहराई से समझने की आवश्यकता है। भक्तिकालीन कविता में प्रेम की आध्यात्मिक अनुभूति रीति कविता में स्थूल शृंगार में बदल जाती है। इस प्रकार के संधि-बिन्दु को पहचानने के बाद ही युग विभाजन को एक प्रामाणिक आधार मिलता है। साहित्य के काल निर्णय में जनता के रुचि संस्कार पर भी पर्याप्त चर्चा अपेक्षित है। युग। परिवर्तन में निर्णायक भूमिका जनरुचि की होती है। साहित्यकार समाज का अंग होने के नाते उसे अनुभव ही नहीं करता है, उसको अभिव्यंजित भी करता है। जनरुचि नये सर्जनात्मक अंकुर के लिए उर्वर भूमि तैयार करती है। इसलिए जनता की अभिरुचि और साहित्यिक परिवर्तन के संबंधों की वास्तविकता को मानवीय आयाम से देखना उचित है।

स्वयं आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है “जनता की चित्तवृति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। इस दृष्टि से हिंदी साहित्य का विवेचन करने में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि किसी विशेष समय में लोगों में रुचि विशेष का संचार और पोषण किधर से और किस प्रकार हुआ।” जनता की अभिरुचि किस प्रकार से एक विधा के स्थान पर दूसरी विधा को प्रतिष्ठित करती है, इसे हम भारतेंदु युग और द्विवेदी युग की तुलना में देख सकते हैं । भारतेंदु युग में नाटकों के महत्व का मूल कारण जनरुचि ही थी। लेकिन उपन्यासों की बढ़ती लोकप्रियता के कारण नाटक का हास हुआ और उपन्यास एक महत्वपूर्ण विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ । इस प्रकार से हम देखते हैं कि विधाओं की दृष्टि से दो युग में अंतर हो जाता है। यदि द्विवेदी युगीन साहित्य में उपन्यास का महत्व बढ़ रहा था तो वह इसलिए कि जीवन की जटिलता को नाटक में अभिव्यक्त कर पाना संभव नहीं हो पा रहा था। काल निर्णय के लिए साहित्य के अतिरिक्त जनता के जीवन के मर्म को टटोलना होता है। कभी-कभी साहित्य में ऐसी दुर्घटना होती है कि लोक-रुचि और सत्ता की रुचि में अंतर हो जाता है। रीतिकाल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। आश्रयदाताओं की रुचि की ओर ध्यान देकर साहित्य में एक विशेष भाव बोध विकसित हो गया।

आचार्य शुक्ल के शब्दों में- “शृंगार के वर्णन को बहुतेरे कवियों ने अश्लीलता की सीमा तक पहुँचा दिया था। इसका कारण जनता की रुचि नहीं, आश्रयदाता राजा महाराजाओं की रुचि थी जिनके लिए कर्मण्यता और वीरता का जीवन बहुत कम रह गया था। इसलिए इतिहास के कालनिर्णय में लोकरुचि को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।

नामकरण के आधार

काल विभाग और नामकरण दो अलग-अलग प्रश्न नहीं है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जिन मुद्दों को ध्यान में रखकर काल विभाजन का निर्णय लिया जाता है, उन्हीं को ध्यान में रखकर उनका नामकरण भी किया जाता है | जिस तरह से रचना की प्रवृत्ति काल विभाजन का आधार रही है, उसी तरह वह नामकरण का भी एक महत्वपूर्ण आधार रही है। रचना प्रवृत्ति के आधार पर नामकरण हिंदी की एक सर्वमान्य परंपरा रही है। रचना की अन्तर्वस्तु की केन्द्रीयता को ध्यान में रख कालखंड को नामांकित कर दिया जाता है। इस प्रकार के नामकरण का आधार रचनाओं की बहुलता से जुड़ा है। रचनाओं की बहुलता से प्रवृत्ति का औसत निकालकर ठीक लगनेवाले नाम से साहित्यिक कालखंड का नामकरण करने का प्रचलन है। लेकिन इस पद्धति से नामकरण में संकट तब पैदा होता है, जब साहित्य में अंतर्विरोध का स्वर मुखर हो जाता है। ऐसी स्थिति में साहित्य की मूलगामी धारा, जो केन्द्रीय प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करती है, उसके प्रतिरोध में बहने वाली धारा का महत्व उतना ही हो जाता है। एक भिन्न प्रकार की इतिहास दृष्टि से देखें तो इस प्रतिरोध की धारा में जीवन और साहित्य का मूल्यवान तत्व प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए रीतिमुक्त कवियों का काव्य रीतिकाल की मुख्य धारा की प्रवृत्तियों से अलग है। उसमें मानवीय प्रेम और समर्पण का गम्भीर वर्णन मिलता है। इस तरह की वास्तविकता को स्वीकार करना इतिहास की सच्चाइयों को स्वीकार करना है। सामान्यतया इतिहास में इस तरह की रचना प्रवृत्ति को साहित्यिक प्रचुरता के अभाव में अनदेखा किया जाता है।

समाज और हमारे सांस्कृतिक जीवन में कुछ आंदोलन ऐसे होते हैं जिनका प्रभाव जीवन के विविध क्षेत्रों में दिखाई पड़ता है। इस तरह के आंदोलन को आधार बनाकर कालखंड नामकरण की व्यवस्था साहित्य में है। उदाहरण के लिए स्वच्छंदतावाद अथवा भक्तिकाल जैसे नामों को इसी श्रेणी में रख सकते हैं। भक्तिकाल हमारे इतिहास का मात्र एक साहित्यिक आंदोलन नहीं था। वह एक प्रकार का सांस्कृतिक आंदोलन था। भक्ति की व्यापक चेतना का प्रसार कला और समाज के विविध आयामों में हुआ था। यदि संपूर्णता में देखें तो चित्रकला, नृत्य और संगीत में भक्ति संवेदना का प्रभाव दिखाई पड़ता है। भक्ति जीवन की विराट अनुभूति का सत्य बन गया था। इस प्रकार के साहित्यिक कालखंडों के नामकरण में विशेष सुविधा होती है। जिसमें प्रवृत्ति मात्र साहित्यिक न होकर जन आंदोलन का रूप हो जाती है। भक्ति काल जैसे नामकरण के अंतर्गत सभी तरह की प्रवृत्तियों को आश्रय मिल जाता है तथा इसमें अंतर्विरोध की सम्भावना भी नहीं होती है।

साहित्य के इतिहास में कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है कि उसके नाम पर एक युग ही चल पड़ता है। उस व्यक्ति विशेष के नाम पर ही साहित्यिक कालखंड का नाम रख दिया जाता है। उदाहरण के लिए भारतेंदु युग और द्विवेदी युग का नामकरण इसी प्रकार का है। लेकिन इस प्रकार के नाम पर गौर करने वाली बात यह है, कि ये नाम व्यक्तिवाचक नहीं होकर एक विशिष्ट प्रकार के जीवन मूल्यों को सूचित करते हैं । भारतेंदु युग मात्र भारतेंदु के साहित्य को ही नहीं हिंदी के आधुनिक काल खंड की प्रारंभिक मंजिल पर ठहरे सभी साहित्यकारों के साहित्य के सामूहिक जीवनबोध का संदेश देता है। वह हिंदी साहित्य के पुनर्जागरण काल के साहित्य के विशिष्ट मूल्यों को अभिव्यक्त करता है। अंग्रेजी साहित्य में शासकों के नाम पर कई साहित्यिक काल खंडों का नामांकन किया गया है। विक्टोरियन युग या ऐलिजाबेथेन युग जैसे नाम का उदाहरण अंग्रेजी साहित्य में भी मिलता है। विक्टोरियन आधुनिक युग से पूर्व प्रचलित था। विक्टोरियन युग एक विशेष प्रकार की जीवन शैली और साहित्यिक शैली का पर्याय था।

नामकरण का एक आधार घटना को भी माना जाता है। उदाहरण के लिए स्वतंत्रता भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। भारतीय साहित्य के इतिहास में भी इस घटना को आधार बनाया गया है। ‘स्वातंत्र्योत्तर साहित्य’ जैसे नाम लोकप्रिय हुए हैं । इस तरह के नामकरण रखने में विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है। घटना का साहित्य पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव पड़ने की स्थिति में ही ऐसे नामकरण की सार्थकता होती है। वरना यह एक साधारण तरह का नाम होगा जिसका संवेदना से कोई विशेष मतलब नहीं होगा | घटना के आधार पर नामकरण रखने से पूर्व उस घटना के प्रभाव का मूल्यांकन करना होता है।

हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाग और नामकरण

हिंदी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन और नामकरण साधारणतः आचार्य शुक्ल के इतिहास से ही ग्रहण किया जाता है। आचार्य शुक्ल के नामांकन और सीमांकन की कुछ सीमाएँ भी हैं जिसे यथा स्थान हम स्पष्ट करेंगे।

  • आदिकाल (वीरगाथा काल) : संवत् 1050 से 1375 ई०
  • पूर्वमध्यकाल (भक्तिकाल) : 1375 से 1700 ई०
  • उत्तरमध्यकाल (रीतिकाल) : 1700 से 1900 ई०
  • आधुनिककाल (गद्यकाल) : 1900 से अब तक

अनेक विद्वानों द्वारा आदिकालीन साहित्य के संबंध में आचार्य शुक्ल की मान्यताओं का खंडन किया गया है। जिस अपभ्रंश काव्य को वे परोक्ष रूप में स्वीकार करते हुए भी साहित्य में स्थान नहीं देते हैं, उसी के आधार पर उनकी मान्यता पर प्रश्न उठाया गया है। इसकी चर्चा आदिकाल के प्रसंग में की जायेगी। इसी तरह रीतिकाल के नाम के संबंध में भी कुछ विवाद है। आधुनिक काल को समान्यतया पच्चीस-पच्चीस वर्षों के विभाजन के साथ हिंदी साहित्य में रखा जाता है। हिंदी साहित्य की कुछ समस्याएँ संक्रांति काल की हैं। जिसे युग संदर्भ के विवेचन में उठाया जायेगा।

आदिकाल का सीमा निर्धारण

हिंदी साहित्य के आरंभ के विषय पर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। इस मतभेद का मूल कारण अपभ्रंश भाषा को हिंदी में स्वीकार या बहिष्कृत करने से जुड़ा है। अपभ्रंश हिंदी से पूर्व प्रचलित भाषा थी। उनमें कौन से परिवर्तन किस बिंदु पर आरंभ हुए जिससे धीरे-धीरे हिंदी भाषा का स्वतंत्र विकास हुआ इस प्रश्न का सीधा और स्पष्ट उत्तर नहीं दिया जा सकता। भाषा प्रयोग से भाषा का विकास होता है। भाषा प्रवाहिनी नदी के समान गतिशील है। भाषा की प्रवाह प्रक्रिया में भाषा परिवर्तन को समझने में कठिनाई होती है। वस्तुतः अपभ्रंश जब । साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी तब जनभाषा से दूर हट गई थी। अपभ्रंश की जनभाषा से हिंदी का विकास होता है। चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने इसे ही पुरानी हिंदी कहा है। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि उत्तर अपभ्रंश ही पुरानी हिंदी है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी का आरंभ 993 ई. से मानते हैं जब अपभ्रंश भाषा घिस-घिस कर एक नई भाषा को विकसित करने में सक्षम हो रही थी। लेकिन हिंदी के आरंभिक रूप का पता उन्हें बौद्ध तांत्रिकों की रचना में मिलता है। उन्होंने लिखा है “अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी के पद्यों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की सांप्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है। मुंज और भोज के समय (संवत् 1050) के लगभग तो ऐसी अपभ्रंश या पुरानी हिंदी का पूरा प्रचार शुद्ध साहित्य या काव्य रचनाओं में भी पाया जाता है। अतः हिंदी साहित्य का आदिकाल संवत् 1050 से लेकर संवत् 1375 तक अर्थात् महाराज भोज के समय से लेकर हम्मीर देव के समय के कुछ पीछे तक जा सकता है।”

आचार्य शुक्ल हिंदी का आरंभ तो सिद्धों की रचनाओं से स्वीकार करते हैं लेकिन वास्तविक हिंदी का प्रारंभ वे 993 ई. यानी दसवीं शताब्दी से मानते हैं। इसमें साहित्यिक तथ्य और उनकी विचारधारा का संघर्ष स्पष्ट दिखायी देता है। अनुभव और प्रयोग के धरातल पर भाषा का विकास सातवीं सदी से हो चुका था। लेकिन उनका मताग्रह और सिद्धांत की कट्टरता, उन्हें बौद्धतांत्रिक रचनाओं से हिंदी भाषा का विकास मानने से रोकती है। उनमें मर्यादावाद और नैतिकतावाद इस तरह प्रभाव जमाता है, कि वे समाज के दूसरे विकल्प को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते हैं। आचार्य शुक्ल के इतिहास और आलोचना में यह आग्रह बार-बार दिखाई पड़ता है। आचार्य शुक्ल के इतिहास में नाथ सिद्धों और जैन रचनाकारों की उपेक्षा की गई है। उन्होंने ऐसे साहित्य की कभी धार्मिक साहित्य कहकर उपेक्षा की और कभी वे विशुद्ध साहित्य के नाम पर उनको हाशिए पर रखते रहे ।

आचार्य शुक्ल ने आगे लिखा है – “आगे चलकर भक्तिकाल में निर्गुण संत संप्रदाय किस प्रकार वेदांत के ज्ञानवाद, सूफियों के प्रेमवाद तथा वैष्णव के अहिंसावाद और प्रपत्तिवाद को मिलाकर सिद्धों और योगियों द्वारा बनाए हुए इस रास्ते पर चल पड़ा यह आगे दिखाया जायेगा।” हमारे कहने का मकसद स्पष्ट है कि यदि हम हिंदी व्यवहार को सिद्धों की रचनाओं में पाते हैं तो वहाँ से हिंदी का विकास मानने में । हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। भाषा और अनुभूति दोनों स्तरों पर उस परंपरा का विकास बाद के साहित्य में भी मिलता है। नाथ पंथियों की भाषा पर विचार करते हुए आचार्य शुक्ल लिखते हैं “इस प्रकार नाथपंथियों के इन जोगियों ने परंपरागत साहित्य की भाषा या काव्यभाषा से जिसका ढाँचा नागर अपभ्रंश या ब्रजभाषा का था, अलग एक सधुक्कड़ी भाषा का सहारा लिया, जिसका ढाँचा कुछ खड़ी बोली लिए राजस्थानी था।” भाषा और साहित्य की इस तथ्यगत वास्तविकता को स्वीकार करने के बाद भी यदि हम उ हित्य में जगह न दें तो यह हमारे सिद्धांत की कमजोरी है।

किसी भी कालखंड के परिवर्तन में भाषा और संवेदना के कुछ सूत्र मिलते हैं, जिससे हम नये साहित्य के आरंभ की सूचना पाते हैं । अनुभूति के विस्तार और नये प्रयोग से नई भाषा के । आविर्भाव को रेखांकित कर सकते हैं। कथ्य के आधार पर नाथ और सिद्धों का मूल्यांकन करने पर हम पाते हैं कि, सिद्धों ने पंडित परंपरा के वर्चस्व को चुनौती दी। जनता की भाषा में साहित्य को रचा जिसका स्वाभाविक विकास भक्तिकाल में हुआ, इसलिए आरंभिक सीमा को थोड़ा पीछे ले जाया जा सकता है। इसका विकल्प आचार्य शुक्ल के इतिहास से भी उभरता दिखाई देता है।

नाथ, सिद्ध और जैन रचनाकारों के साहित्य से हिंदी साहित्य का आरंभ माना जा सकता है। हिंदी भाषा को विशिष्ट बनाने वाली भाषा प्रवृत्तियों का लक्षण इनके साहित्य में मिलता है। भाषा को विशिष्ट बनाने वाली मूलतः तीन भाषा प्रवृत्तियाँ हैं। प्रथम, क्षतिपूरक दीर्धीकरण जैसे प्राकृत अपभ्रंश के कम्म’ ‘कज्ज’ जैसे शब्द हिंदी में ‘काम’ और ‘काज’ बन गए। दूसरा है, परसर्गों की बहुलता और तीसरा, तत्सम शब्दों का प्रचलन । जैन आचार्यों और कवियों की रचनाएँ मूल रूप में प्रामाणिक और सुरक्षित हैं। उनके अध्ययन से तत्कालीन साहित्यिक परिस्थिति की जो कुछ सूचना मिलती है, वह वास्तविक और विश्वसनीय है। इस दृष्टि से जैन रचनाओं का महत्व बहुत अधिक है। ये हमें लोकभाषा के काव्य रूपों को समझने में सहायता पहुँचाते हैं और साथ ही उस काल की भाषागत अवस्थाओं और प्रवृत्तियों को समझने में मदद भी करते हैं। जैन रचनाकारों के चरित काव्यों के अध्ययन से परवर्ती साहित्य की कथानक रूढ़ियों, काव्यरूपों, छंद योजना, वर्णन शैली और वस्तुविन्यास को समझने में मदद मिलती है। इस प्रकार अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों स्तरों पर जैन साहित्य का महत्व बढ़ जाता है।

आचार्य शुक्ल के बाद दूसरे महत्वपूर्ण इतिहासकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हैं | उन्होंने अपभ्रंश भाषा को एक स्वतंत्र भाषा के रूप में स्वीकार किया है। लेकिन स्वतंत्र भाषा का महत्व उन्होंने हिंदी के लिए आवश्यक माना है। उन्होंने आदिकालीन भाषा और साहित्य का रूप इतना अधिक मिला जुला पाया कि वास्तविक हिंदी की शुरुआत ही वे भक्ति काल से मानते हैं । वस्तुतः आदिकालीन साहित्य की भाषा में कई तरह के मिश्रित रूप हमें मिलते हैं। सिद्धों की भाषा, नाथों की भाषा, और जैन कवियों की भाषा में क्षेत्रीय विविधता के लोकरंग के साथ भाषा रंगी हुई जान पड़ती है। वे रासो काव्य परंपरा की भाषा में अलग प्रकार की विविधता को देखते हैं। इतनी अधिक मिश्रित संवेदनाओं के बीच यह पहचानने में अवश्य कठिनाई होती है, कि, भाषा कहाँ से शुरू हुई थी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक के समय को हिंदी साहित्य का आदिकाल मानते हैं । तब मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक हो जाता है कि फिर अपभ्रंश काव्य पर इतनी विस्तृत चर्चा का उद्देश्य क्या था? अपरोक्ष रूप से आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भी आदिकाल की प्रारंभिक सीमा को सातवीं सदी में ही स्वीकार. करते हैं। उन्हीं के अनुसार इस प्रकार दसवीं से चौदहवीं शताब्दी का काल जिसे हिंदी का आदिकाल कहते हैं, भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश के ही आगे का रूप है। इसी अपभ्रंश के परवर्ती रूप को कुछ लोग उत्तरकालीन अपभ्रंश कहते हैं और कुछ लोग पुरानी हिंदी। इस वक्तव्य को ध्यान पूर्वक पढ़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि बारहवीं शताब्दी से पहले की भाषा अपभ्रंश थी। यही अपभ्रंश भाषा पुरानी हिंदी भी थी। दूसरा उद्धरण आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के ही ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य उद्भव और विकास’ से प्रस्तुत किया जा सकता है। उनका कथन है “सातवीं आठवीं शताब्दी से इन रचनाओं की प्राप्ति होने लगती है।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक के काव्य में दो प्रकार के भाव पाये हैं।

  • सिद्धों की वाणी, और
  • सामन्तों की स्तुति ।

इसलिए उन्होंने उस काल को सिद्ध सामंत युग कहा है किंतु इस नाम से उन अत्यंत महत्वपूर्ण लौकिक साहित्य का कुछ भी आभास नहीं मिलता जो परवर्ती काव्य में भी व्यापक रूप में प्रकट हुई हैं।” इस पूरे उद्धरण से ऐसा लगता है कि उन्हें सातवीं-आठवीं शताब्दी से साहित्य का उद्भव मानने में कोई आपत्ति नहीं है। इसलिए सातवीं-आठवीं शताब्दी से हिंदी साहित्य का उद्भव माना जा सकता है। बाद के साहित्यकारों में डॉ. रामकुमार वर्मा तथा राहुल सांकृत्यायन ने भी सातवीं आठवीं शताब्दी से हिंदी का प्रारंभ माना है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने गुलेरी जी के मत का समर्थन किया है और राहुल सांकृत्यायन ने भी उत्तर अपभ्रंश की रचनाओं को हिंदी की रचना माना है। अतः हिंदी साहित्य का आरंभ सातवीं शताब्दी से स्वीकार किया जा सकता है। यह एक अलग विवाद है कि सरहपा को प्रथम कवि माने या पुष्य को। यदि तत्सम प्रधान भाषा के प्रयोग को हिंदी का मुख्य आधार बनाया जाता है तो सरहपा पहले कवि ठहरते हैं।

हिंदी भाषा के आदिकाल की प्रारंभिक सीमा की तरह अंतिम सीमा भी विवादपूर्ण है। ग्रियर्सन आदिकाल की अंतिम सीमा 1400 ई. तक मानते हैं । मिश्रबंधु आदिकाल की अंतिम सीमा । 1529 ई. स्वीकार करते है। रामचंद्र शुक्ल संवेदना के बदलाव के साथ आदिकाल की अंतिम सीमा 1318 ई. स्वीकार करते हैं, परंतु वे विद्यापति को आदिकाल में रखते हैं। विद्यापति संवेदना की दृष्टि से मूलतः इंद्रिय बोध के कवि हैं। उनकी कविता में मानवीय प्रेम और शृंगार की अभिव्यक्ति हुई है। उन्हें भक्तिकाल में नहीं रखा जा सकता है। उनका जीवन बोध प्रेम की अनुभूति से प्रेरित है, लेकिन वे वीर और भक्ति भाव से पूर्ण काव्य की रचना भी करते थे। विद्यापति की कविता का रचनाकाल 1318 ई. के बाद का है। अतः हमें सीमा के सुसंगत विभाजन के लिए काल सीमा को आगे ले जाना होगा। अतः 1400 ई. को आदिकाल की अंतिम सीमा रखा जा सकता है। अमीर खुसरो को भी इस सीमा के अंतर्गत स्थान मिल जाता है। इसलिए आदिकाल की अंतिम सीमा को विद्वानों ने 1400 ई. ही माना है।

आदिकाल का नामकरण

आदिकाल के कालविभाजन की चर्चा के उपरांत यह आवश्यक है कि हम आदिकाल के नामकरण की भी चर्चा करें। जिन आधारों पर काल विभाजन किया जाता है अंततः उन्हीं आधारों पर नामकरण की समस्या भी हल होती है। आदिकाल की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसमें किसी प्रवृत्ति की केन्द्रीय भूमिका नहीं है। किसी भी जीवित साहित्य के विकास में कई प्रकार की मनःस्थितियों और भावों का विकास साथ-साथ होता है। ऐसी स्थिति में चेतना की बहुकेन्द्रीयता का आभास पूरे साहित्य में होता है। इस प्रकार की साहित्यिक परिस्थिति में किसी एक प्रवृत्ति को केन्द्रीय मानकर उसका नामकरण एक प्रकार से नाइंसाफी है। नामकरण पर विवेचना के लिए, उस काल खंड के रचना और परिवेश के जटिल संबंधों को सूक्ष्मता से समझना होगा। उस कालखंड की रचनाओं के भीतर घात-प्रतिघात को सामाजिक ऐतिहासिक संदर्भो में पहचानना होगा।

हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने आदिकाल के संबंध में जो अपनी अवधारणा बनायी है उस पर एक आलोचनात्मक बहस आवश्यक है। हिंदी साहित्य के प्रथम इतिहासकार ‘गार्सादत्तासी’ , के इतिहास में इस प्रकार के साहित्यिक काल खंड का कोई विभाजन नहीं है। स्पष्ट दृष्टिकोण के अभाव में यह इतिहास कवि वृत्त संग्रह ही कहा जा सकता है। इसी प्रकार ठाकुर शिवसिंह सेंगर के “शिव सरोज” में किसी निश्चित दृष्टिकोण के अभाव में काल विभाजन ठीक से नहीं किया गया है। आचार्य शक्ल के पूर्ववर्ती इतिहासकारों में जिन दो इतिहासकारों का नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उनमें से एक हैं जार्ज ग्रियर्सन और दूसरे मिश्रबंधु । जार्ज ग्रियर्सन शायद हिंदी साहित्य के पहले इतिहासकार हैं जिन्होंने कालविभाजन और नामकरण की परंपरा की शुरुआत की और इस प्रकार इतिहास की प्रक्रिया का हल्का-सा आभास दिया ।

जार्ज ग्रियर्सन ने ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत इस काल का नामकरण “चारणकाल” रखा। वे इस काल की आरंभिक सीमा को 643 ई. मानते हैं। लेकिन वे विभाजन और नामकरण के बीच तालमेल नहीं बिठा पाते। वे जिस समय से साहित्य का आरंभ मानते हैं, हम उस समय में चारणों की प्रवृत्ति को उस प्रकार से उभरते हुए नहीं पाते हैं। वह काल तो नाथों और सिद्धों के साहित्य सृजन का काल है। उस काल के साहित्य में कुछ हद तक धार्मिक तत्व तो पाये जाते हैं लेकिन चारणों से जुड़े स्तुतिपरक साहित्य का अभाव ही है। जार्ज ग्रियर्सन के नामकरण के पीछे कर्नल टॉड के ग्रंथ “राजस्थान” की बड़ी भूमिका है। वस्तुतः चारणों के साहित्य का स्वरूप तो दसवीं शताब्दी के बाद उभरता है। जब समाज में केंद्रीय शासन के हास के बाद स्थानीय शासकों की भूमिका बलवती होती दिखाई पड़ती है। सामंतों के साथ ही साहित्य में चारणों का भी आविर्भाव होता है। काल विभाजन और नामकरण में स्पष्ट तालमेल के अभाव में यह नाम अनुचित लगता है। दूसरे महत्वपूर्ण इतिहासकार ‘मिश्रबंधु’ हैं। उन्होंने आदिकाल का नाम ‘प्रारंभिक काल’ रखा था। यह एक सामान्य सा नाम है। उन्होंने नाम की प्रस्तावना के पीछे कोई तर्क नहीं रखा । नामकरण की प्रस्तावना की सार्थकता ही उसके पीछे की तार्किक परिणति में होती है। इस नाम से उस काल के साहित्य के मुख्य मनोभाव और जनरुचि का पता नहीं चलता है। अतः इस नाम को एक सामान्य नाम ही मानना चाहिए।

मिश्रबंधु के पश्चात आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य के इतिहास क्षितिज पर आते हैं | इनके । साथ ही हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का वास्तविक युग प्रारंभ होता है। रामचंद्र शुक्ल ने इतिहास का ठोस दर्शन ही नहीं दिया है अपितु वे इतिहास का वास्तविक विवेचन भी करते हैं। उन्होंने इतिहास का मात्र साहित्यकार और कृतियों के संदर्भ में विश्लेषण ही नहीं किया बल्कि इतिहास को ठोस सामाजिक वास्तविकता के रूप में भी स्वीकारा है। उन्होंने काल खंड के पीछे सक्रिय ऐतिहासिक सामाजिक वास्तविकता को आधार बनाकर काल खंड का नामकरण किया । यदि उन्होंने साहित्य के प्रथम काल को “वीरगाथा काल” कहा है, तो उसके पीछे उनकी एक स्पष्ट विचारधारा है, चाहे विवादास्पद ही क्यों न हो।

हिंदी साहित्य के प्रथम काल का नामकरण करते हुए उन्होंने उसे वीरगाथा काल की संज्ञा दी है। वीरगाथा नामकरण के लिए उन्होंने यह तर्क उपस्थित किया है कि “आदिकाल की इस दीर्घ परंपरा के बीच प्रथम डेढ़ सौ वर्ष के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता है-धर्म, नीति, श्रृंगार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति के उपरांत जब मुसलमानों की चढ़ाइयों का प्रारंभ होता है तब से हम हिंदी साहित्य की प्रवृत्ति एक विशेष रूप में बँधती हुई पाते हैं। राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार नीति शृंगार आदि के फुटकल दोहे राजसभाओं में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रमपूर्ण चरितों या गाथाओं का वर्णन भी किया करते थे। यही प्रबंध परंपरा ‘रासो’ के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने “वीरगाथा काल” कहा है।”

इस काल को वीरगाथा काल कहने के पीछे आचार्य शुक्ल के सिद्धांत में मताग्रह दिखाई पड़ता है। आरंभिक साहित्य की विविधतापूर्ण प्रवृत्तियों को छोड़कर वे एक विशिष्ट वर्ग के द्वारा रचे गये साहित्य को अपना आधार बनाते हैं। वे नाथ, सिद्धों और जैनों के साहित्य को छोड़कर साहित्य की संवेदना का विकास देखना चाहते हैं, लेकिन क्या मजबूरी थी कि उन्हें भी अपभ्रंश काव्य के विवेचन के लिए विवश होना पड़ा। वे इन जटिलताओं की ओर ध्यान नहीं देना चाहते । इन जटिलताओं की परत को तोड़ने का अर्थ है साहित्य की उन परंपराओं को आत्मसात करना जो हमारी मुख्य धारा से अलग हैं लेकिन जिन्हें हम अपने विवेचन में छोड़ नहीं सकते हैं। काल विभाग के संदर्भ में हमने नाथों और सिद्धों के साहित्य को साहित्य में स्थान न देने के कारण पर चर्चा की है। लेकिन आचार्य शुक्ल की इतिहास दृष्टि के संदर्भ में थोड़ी चर्चा अपेक्षित है। आचार्य शुक्ल की दृष्टि स्पष्ट है-“उनकी रचनाओं का जीवन की।

स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं से कोई संबंध नहीं। वे संप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं। उन रचनाओं की परंपरा को हम काव्य या साहित्य की कोई धारा नहीं कह सकते।” यदि विशुद्ध साहित्य को आधार बनाया गया तो हिंदी साहित्य के एक बड़े हिस्से को साहित्य से अलग करना होगा। हमें तुलसीदास, प्रेमचंद और निराला के साहित्य को भी हिंदी साहित्य से अलग करना होगा क्योंकि इनकी रचनाएँ भी शुद्ध साहित्य की सीमाओं में नहीं आती हैं। यदि इन रचनाकारों को निकाला जा सकता है तो निस्संदेह उन नाथों और सिद्धों की रचनाओं से भी विमुख होना पड़ेगा। यदि नहीं निकाला जा सकता तो यह दृष्टि की सीमा है।

इस संदर्भ में हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि जब कुछ नया घटित होता है या नया रचा जाता है तो स्थापित से विरोध होना स्वाभाविक है। इसलिए विरोध होने मात्र से उसे साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता है। उन रचनाकारों ने समाज के सामने एक दूसरा विकल्प रखा । जहाँ तक सांप्रादायिकता की बात है। उसके संबंध में केवल इतना ही कहना है कि उस कसौटी पर समूचा भक्तिकाल सांप्रदायिक हो उठेगा। जहाँ तक जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों का सवाल है जैन धार्मिक काव्यों में जीवन की गहरी मनोदशा का चित्रण है। उन्हें साहित्य में स्थान दिया जा सकता है। अपभ्रंश की इन रचनाओं को यदि आचार्य शुक्ल साहित्य में स्थान नहीं देना चाहते हैं तो उसका एक कारण है, वस्तुतः उसमें विभिन्न प्रवृत्तियों का कोलाहल सुनाई पड़ता है। इस तरह के साहित्य में हिंदी साहित्य की आदिम संवेदना अपने अनगढ़ रूपों में अपना रास्ता टटोल रही थी। जीवन के विविध अनुभवों को ग्रहण कर रही थी, इसलिए किसी एक विशिष्ट प्रवृत्ति में हम उसे बँधी हुई नहीं पाते हैं ।

आचार्य शुक्ल ने जिन बारह ग्रंथों के आधार पर आदिकाल का नामकरण किया है। उनकी चर्चा यहाँ आवश्यक होगी। शुक्लजी काव्यग्रंथों की तालिका इस प्रकार से प्रस्तुत करते हैं:

  1. विजयपाल रासो
  2. खुम्माण रासो
  3. बीसलदेव रासो
  4. पृथ्वीराज रासो
  5. जयचंद प्रकाश
  6. जयमयंक जस चंद्रिका
  7. हम्मीर रासो
  8. परमाल रासो
  9. विद्यापति की पदावली
  10. कीर्तिलता
  11. कीर्तिपताका
  12. अमीर खुसरों की मुकरियाँ

इन्हीं बारह पुस्तकों को आधार बनाकर आचार्य शुक्ल ने इस काल का नाम वीरगाथा काल रखा है। इन पुस्तकों को इतिहास की सामग्री बनाते हुए इतिहासकार में संकोच और झिझक है क्योंकि इन ग्रंथों की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ था । स्वयं आचार्य शुक्ल ने लिखा है “दूसरी बात इस आदिकाल के संबंध में ध्यान देने की यह है कि इस काल की जो साहित्यिक सामग्री प्राप्त है, उसमें कुछ तो असंदिग्ध है और कुछ संदिग्ध है।” आचार्य ने जिन पुस्तकों को आधार बनाया था उसकी संदिग्धता इतनी बढ़ गई है कि उनके द्वारा किये गए नामकरण की नींव हिलती दिखाई दे रही है। इन पुस्तकों की प्रामाणिकता का संक्षिप्त विवेचन करना आवश्यक होगा । इन बारह पुस्तकों में विद्यापति रचित “कीर्तिलता”, ‘पदावली’ तथा नरपति नाल्ह रचित ‘बीसलदेव रासो’ ही प्रामाणिक रूप में उपलब्ध हैं । “हम्मीर रांसो” “जयचंद प्रकाश” और “जयमंयक जस चंद्रिका’ उपलब्ध नहीं है। हम्मीर विषयक एक पद्य ‘प्राकृत पैंगलम’ में अवश्य मिलता है, जिसके बारे में शुक्ल जी का विश्वास है कि वह हम्मीर रासो का ही है।

इस तरह के छिट-पुट प्रमाण पर इतिहास का ढाँचा खड़ा करना मुश्किल है। खुम्माण रासो में 9वीं शताब्दी के खुम्मान के युद्ध का वर्णन है। लेकिन उसमें मेवाड़ के परवर्ती शासकों जैसे महाराणा प्रतापसिंह और राजसिंह का भी वर्णन है। इससे इन बात का पता मिलता है कि यह रचना 16वीं शती के आस-पास की है। ‘परमाल रासो’ लोकगान है। वह विभिन्न क्षेत्रों में विविध रूपों में गाया जाता है। जयानक के “पृथ्वीराज विजय” के प्रकाशन के साथ “पृथ्वीराज रासो” की प्रामाणिकता भी संदिग्ध हो गई है। स्वयं आचार्य शुक्ल ने लिखा है” इस दशा में भाटों के इस वाग्जाल के बीच कहाँ पर कितना अंश असली है, इसका निर्णय असंभव होने के कारण यह ग्रंथ न तो भाषा के इतिहास के और न साहित्य के इतिहास के जिज्ञासुओं के काम का है।”

जब इन ग्रंथों की प्रामाणिकता ही संदिग्ध है तो उसके आधार पर किया गया नामकरण कितना असंदिग्ध हो सकता है, यह सोचने की बात है। राजस्थान के साहित्य और संस्कृति के विद्वान मोतीलाल मेनारिया ने लिखा है “जिसके आधार पर वीरगाथा काल की कल्पना की गई है, राजस्थान के किसी समय विशेष की साहित्यिक प्रवृत्ति को सूचित नहीं करते। केवल चारण भाट आदि वर्ग के कुछ लोगों की जन्मजात मनोवृत्ति को प्रकट करते हैं । जिस रासो ग्रंथ की प्रबंध परंपरा को लक्ष्य करके आचार्य शुक्ल ने वीरगाथा काल नाम “कीर्तिपताका” इसी कोटि के ग्रंथ हैं। परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि मैथिल कोकिल विद्यापति का महत्व उनकी पदावली को लेकर है। जिसमें शृंगार की ऐहिकता और भक्ति की धार्मिकता है। मानवीय मनोभाव की परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों का सामंजस्य उनमें मिलता है। नाकरण संबंधी सारे तथ्यों पर विवेचन के बाद वीरगाथा काल की प्रासंगिकता क्या है? यह सोचने की आवश्यकता है।

आचार्य शुक्ल के “वीरगाथा काल” संबंधी मान्यताओं के परीक्षण के उपरांत उनके बाद के इतिहासकारों की मान्यताओं पर विवेचन करना अनिवार्य है। आचार्य शुक्ल के बाद इतिहासकारों में डा. रामकुमार वर्मा ने अपनी पुस्तक “हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास” में एक नाम सुझाया है। उन्होंने प्रथम काल का नाम “संधिकाल और चारण काल” रखा है। उनका नाम दो भागों में विभाजित है। इस प्रकार के नाम के पीछे चिंतन का जो आधार है वह दो भागों में टूटता दिखाई देता है। यह चिंतन भाषा और संवेदना के दो स्तरों पर भी विभाजित है। “संधि” भाषा की अवसा को सूचित करती है और चारण संवेदनागत वास्तविकता है। उनके संधि कहने का तात्पर्य प्राकृत, अपभ्रंश और हिंदी की मिलीजुली भाषा से है, जो उस समय विकसित हो रही थी। चारण कवियों की कृतियों को ध्यान में रखकर उन्होंने चारणकाल नाम प्रस्तावित किया। परंतु मात्र चारणों ने ही उस काल के साहित्य को निर्मित नहीं किया था। उसमें जैन, नाथों, सिद्धों और लौकिक साहित्य के रचयिताओं का योगदान भी है। इस नामकरण को यदि स्वीकार कर लिया जाए तो उन अनेक कवियों और साहित्यकारों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता जिनका इस काल के साहित्य निर्माण में बड़ा योगदान है। इस नाम से साहित्य की सामूहिक मनःस्थिति को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है। स्पष्ट मौलिकता और नवीनता के अभाव में इस नामकरण का ऊपरी हिस्सा ही कमजोर हो गया है।

रामकुमार वर्मा के इतिहास के उपरांत राहुल सांकृत्यायन इस काल का विस्तृत विश्लेषण अपनी पुस्तक “मध्यकालीन काव्यधारा” में करते हैं। राहुल सांकृत्यायन प्रथम काल के लिए “सिद्ध सामंत काल” नाम प्रस्तावित करते हैं। इस नामकरण के माध्यम से वे तत्कालीन समाज की वास्तविकता और जीवन के अनुभव को गहराई में पकड़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन चिंतन में यहाँ भी एक फाँक है जो नामकरण के दो अलग-अलग हिस्सों में प्रस्तावित होती है। राहुल जी जब सिद्ध और सामंत नाम प्रस्तावित करते हैं तो उनका परिप्रेक्ष्य और संदर्भ अधिक खुला हुआ और विस्तृत दिखाई पड़ता है। सिद्धियाँ मात्र बौद्धों की साधना का विषय नहीं है। सिद्धियाँ धार्मिक रचनाओं की एक मुख्य प्रवृत्ति बन जाती है। उनके अनुसार सिद्धियाँ इस काव्य में उसी प्रकार प्रेरणा की विषय थीं, जिस प्रकार परवर्ती काल में भक्ति प्रेरणा का प्रमुख आधार बनी थी। सिद्धियों को हम एक प्रकार से प्रोटेस्ट कह सकते हैं । यह प्रतिरोध वर्णवाद और व्यवस्था के संदर्भ में तत्कालीन समाज में उपजा था। इसलिए उनकी रचना में उन असंख्य लोक समूहों की वाणी है जिन्हें व्यवस्था ने हमेशा हाशिए पर रखा था। यही कारण है कि उनका साहित्य अनगढ़ है। उसमें अभिजात साहित्य का सौन्दर्य हमें नहीं मिलता है।

सिद्ध के अतिरिक्त इस काल के नामकरण में राहुल जी एक शब्द ‘सामंत’ को जोड़ते हैं। सामंत तत्कालीन राजनैतिक व्यवस्था को सूचित करते हैं । हम वीरगाथा काल, चारण काल, आदि जितने भी नामकरण की सूची पाते हैं उसके मूल में सामंतवादी व्यवस्था की छाया ही दिखाई पड़ती है। केंद्रीय व्यवस्था के विखंडन से सामंतों का वर्ग तेजी से राजनैतिक परिदृश्य में उभरता है। वह धीरे-धीरे जीवन व्यवस्था और संस्कृति को आच्छादित कर लेता है। यह । नाम साहित्य और राजनीति की संपूर्ण प्रवृत्ति को गहराई में जाकर पकड़ता है। सामंत, कवियों के प्रधान आश्रयदाता ही नहीं, उनके काव्य नायक भी थे। ये कवि उन्हीं को केन्द्र में रखकर कविता की रचना करते थे। उनकी रचनाओं में श्रृंगार और वीर के मिश्रित मनोभाव हैं, जो सामंती साहित्य का एक प्रमुख लक्षण है। लेकिन राहुलजी द्वारा दिया नाम विद्वानों में लोकप्रिय नहीं हुआ। नामकरण के लिए यह भी आवश्यक है कि उसके बारे में व्यापक सहमति हो। किसी भी नामकरण पर विद्वानों में सहमति के उपरांत ही उसकी सार्थकता सिद्ध होती है।

हिंदी साहित्य के प्रथम काल को आदिकाल भी कहा जाता है। यद्यपि इसकी प्रस्तावना आचार्य शुक्ल के इतिहास में भी मिलती है, लेकिन उन्होंने आदि शब्द को काल तक ही सीमित रखा था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रवृत्ति के रूप में आदि शब्द को स्वीकार करते हैं | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास’ में लिखा है “कुछ आलोचकों को इस काल का नाम आदिकाल ही अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। इस पुस्तक में भी इस काल को इसी नाम से कहा गया है। इस नाम से एक भ्रामक धारणा की सृष्टि होती है।… यदि पाठक इस धारणा से सावधान रहें तो यह नाम बुरा नहीं है।” आदिकाल से साहित्य की आदिम प्रवृत्ति का बोध होता है। वह भाषा की आदिम अवस्था हो सकती है और वह संवेदना की भी आदिम अवस्था हो सकती है। आदिकाल में वीर, शृंगार और भक्ति जैसी कई मनोवृत्तियों के साहित्य रचे गए थे। जिस काल में इतनी तरह की मनोवृत्तियाँ सक्रिय हों उस काल के लिए एक नाम खोज पाना निस्संदेह कठिन है। आदिकाल नाम में परस्पर विरोधी चेतना के साहित्य को भी बिना किसी उलझन के स्थान दिया जा सकता है। आदिकाल नामकरण से विविध मनोभावों की रचनाओं को एक साथ रखने पर कोई अनौचित्य प्रतीत नहीं होता। साहित्यिक वैविध्य को भी एक आधार मिल जाता है। इसी कारण यह नाम विद्वानों में अधिक लोकप्रिय हुआ।

द्विवेदी जी द्वारा दिए गए नाम ‘आदिकाल’ को यदि व्यापक स्वीकृति मिली तो इसलिए कि वे अपने नामकरण में जनता के उस सामूहिक मन को पकड़ते हैं, जिससे साहित्य की प्रवृत्ति निर्धारित होती है। इस सामूहिक मनःस्थिति को पाने के लिए व्यापक पृष्ठभूमि को स्वीकार करना होता है। द्विवेदी जी ने व्यापक चेतना से इतिहास के अन्तर्विरोधों को देखा है। इसलिए उनकी दृष्टि उन बिंदुओं की ओर गई है जिसे अब तक इतिहासकार अनदेखा कर रहे थे। उन्होंने उसे निचोड़ने की कोशिश की है। उनके नामकरण में दूसरी विशेषता यह है कि उन्होंने साहित्य के विराट प्रवाह में अन्तर्वस्तु का मूल्यांकन किया है।

भक्ति काल : काल विभाजन और नामकरण

सृजन की दृष्टि से हिंदी साहित्य का पूर्व मध्यकाल जिसे भक्ति काल कहा जाता है अत्यधिक वैभवशाली युग है । जार्ज ग्रियर्सन 1400 ई. से ही भक्ति काव्य की शुरुआत मानते हैं। अतः भक्तिकाल की आरंभिक सीमा 1400 ई. से मानना उचित प्रतीत होता है। भक्तिकाल की अंतिम सीमा के निर्धारण में थोड़ा विवाद है। विवाद के कारण केशवदास हैं। केशवदास भक्तिकाल के कवि हैं या रीतिकाल के, विवाद का यही बिंदु है। केशवदास का रचनाकाल (1555-1617 ई.) है | रचनाकाल की दृष्टि से केशव भक्तिकाल में आते हैं। लेकिन उनकी रचना शैली और साहित्यिक चेतना का स्वर रीतिवादी है। यहीं यह प्रश्न उठता है कि भक्तिकाल का रूपांतरण किस प्रकार से रीतिकाल में हुआ । भक्ति में प्रेम और समर्पण मुख्य भाव थे। भक्ति का प्रेम तिरोहित होकर स्थूल श्रृंगार का विषय हो गया, और उसमें समर्पण के स्थान पर उपभोग की प्रधानता हो गई। तब भक्ति की संवेदना अवरुद्ध हो गई और रीतिवाद का विकास आरंभ हुआ। श्रृंगार की आध्यात्मिक अनुभूति के मानवीय अनुभूति बनने में तत्कालीन सामंतों की रुचि ने व्यापक योगदान दिया। वह वास्तविक लौकिक श्रृंगार कम बना कुछ लोगों के मनोरंजन का साधन अधिक बना।

जहाँ तक केशव का सवाल है, केशव के पचास वर्ष बाद रीतिकाल की अखंड धारा प्रवाहित होती है। लेकिन साहित्यिक मनोवृत्ति और रचना की भावधारा का मिजाज पहले ही बदल चुका था। उस बदले हुए मिजाज की अभिव्यक्ति को केशव की रचना में आसानी से पहचाना जा सकता है।

“रामचंद्रिका के साथ उन्होंने “कविप्रिया” और “रसिकप्रिया” को भी रचा था । वस्तुतः केशव भक्ति के प्रभाव क्षेत्र से मुक्त होकर रीति के चमत्कार क्षेत्र की ओर अग्रसर हो रहे थे। केशव के साहित्य और जीवन के जो मूल्य सामने आते हैं, वे निःसंदेह रीतिकाल के जीवन मूल्य हैं। केशवदास की रचनाओं में छंदों की विविधता, अलंकारों की बहुलता एवं चमत्कार प्रियता अधिक है । यह रीतिकाल की मुख्य विशेषता है। रीतिकालीन साहित्य के जो आधार हैं, जैसे लक्षण ग्रंथ का निर्माण, दरबारी संस्कृति का गुणगान और आश्रयदाता की प्रशंसा, ये सभी बातें केशव के साहित्य में मिलती हैं। भक्ति काल का शायद ही कोई कवि हो जिसने आश्रयदाता की छत्रछाया को स्वीकार किया हो। केशव ने राजाश्रय में कविता को रचा था। इसलिए केशव को संक्रांति काल का कवि मानते हुए भी उन्हें रीतिकाल में ही रखा जा सकता है और भक्ति काल की अंतिम सीमा को 1643 ई. स्वीकार करना उचित होगा । आचार्य शुक्ल द्वारा खींची गई वह सीमा रेखा हिंदी साहित्य में मान्य हो चली है।

भक्तिकाल के नामकरण के संबंध में कोई विवाद नहीं है। लगभग सभी साहित्येतिहासकारों ने एकमत से इस नाम का समर्थन किया है। भक्ति तत्कालीन साहित्य का आंतरिक भाव है। भक्ति के प्रकार में भिन्नता मिलती है। लेकिन भक्ति साहित्य की अन्तरिक चेतना में कोई विरोध नहीं मिलता है। भक्ति कहाँ तक धर्म और अध्यात्म का विषय है तथा कहाँ इसमें मानवीय गरिमा है, इस पर थोड़ी चर्चा आवश्यक है। भक्तिकाव्य का जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू है वह यह है, कि यदि भक्तिकाव्य की धार्मिक और अध्यात्मिक अनुभूतियों को छोड़ भी दिया जाए, तो भी उसमें मानवीय संवेदना की शीतल छाया मौजूद है। भक्तिकाव्य ने जीवन के प्रश्न को कविता का प्रश्न बनाया है। इसलिए वह दबे स्वर में व्यवस्था को चुनौती देता है। समाज के लिए एक विकल्प की तलाश करता है। उस साहित्य में क्रांति और विद्रोह की चेतना है। भक्ति साहित्य कालजयी इसीलिए है कि उसने जीवन की जटिलताओं को काव्य के उद्देश्य के रूप में प्रस्तावित किया।

भक्तिकाल में जीवन मूल्यों को केन्द्र में रखकर भिन्न-भिन्न प्रकार की भक्ति की उपधाराएँ फूटती रही हैं। वैचारिक रेखाओं में भिन्नता के आधार पर उनका अलग पथ बनता गया है। कालविभाजन और नामकरण के लिए इन उपविभाजनों को भी समझना आवश्यक होगा। भक्तिकाल में जो काव्य सामग्री मिलती है उसके दो विभाजन किए गए हैं- निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति । निर्गुण भक्ति के क्रमशः दो विभाजन किए गए हैं, ज्ञानाश्रयी शाखा और प्रेममार्गी शाखा । सगुण भक्ति के अन्तर्गत रामभक्ति और कृष्ण भक्ति का अलग-अलग विभाजन किया गया है। निर्गुण भक्त कवि लीलावाद और अवतारवाद के आधार पर सगुणभक्त कवियों से अलग होते हैं। निर्गण शाखा के कवियों ने लीला और अवतार की परिकल्पना को नहीं माना। उन्होंने निर्गुण और निराकार ईश्वर की उपासना की। फिर ज्ञानाश्रयी शाखा में विद्रोह है। इस धारा के संतों ने वर्ण व्यवस्था की पीड़ा को सहा था। इसलिए उनमें सामाजिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश था । प्रेमाश्रयी धारा के सूफी काव्य में प्रेम की पीड़ा है। उनके काव्य में प्रेम की संवेदना है। सगुण भक्ति के अन्तर्गत रामभक्ति शाखा का साहित्य सामाजिक मर्यादा और लोकमंगल का साहित्य है। इसी प्रकार कृष्ण भक्ति साहित्य ने प्रधानतः लोकरंजन के पक्ष को अपनी कविता का विषय बनाया है। यथार्थ रूप में भक्ति आंदोलन एक जन आंदोलन था।’

रीतिकाल का सीमा निर्धारण

हिंदी साहित्य के इतिहास में उत्तर मध्यकाल की समय सीमा को 1643 ई. से 1843 ई. तक स्वीकार किया गया है। यह कालविभाजन आचार्य शुक्ल ने किया था जिसे बाद के इतिहासकारों ने भी मान्यता दी । साहित्य के इतिहास में कालविभाजन की एक रेखा नहीं. खींची जा सकती है। इस बिंदु पर हमने आरंभ में चर्चा की है। भक्तिकाल और रीतिकाल के संधि पर केशवदास खड़े हैं। ऐसी स्थिति में कालविभाजन को प्रामाणिक रूप में एक-दूसरे से अलग करना जटिल है। जटिलता इस अर्थ में है, कि केशव काल की दृष्टि से भक्ति काल में हैं, लेकिन प्रवृत्ति की दृष्टि से वे रीतिकाल के कवि ठहरते हैं | साहित्य में इन परिवर्तनों के रेखांकन में कठिनाई होती है। इसलिए साहित्य के इतिहास में 50 वर्ष तक का समय इधर-उधर हो सकता है क्योंकि प्रवृत्ति निर्माण और नये मनोभाव के बनने में इतना समय लग जाता है। समय-सीमा के निर्धारण में इन अंतर्विरोधों को समझना पड़ेगा, भक्ति और रीति का संपृक्त मनोभाव कब एक दूसरे से अलग होकर अपना पथ तैयार करता है, इसे गणित की सैद्धांतिक अवधारणाओं में ग्रहण नहीं किया जा सकता। युग की मनोभूमि और उसके रुचि परिवर्तन को समग्रता में विश्लेषित करने के उपरांत ही परिदृश्य स्पष्ट होता है।

रीति काल : नामकरण

उत्तर मध्यकाल के नामकरण से पूर्व उस युग की मनोभूमि किस प्रकार की थी इस पर थोड़ी सी चर्चा करना अनिवार्य है। वस्तुतः हमारे साहित्य का मध्यकाल दो भागों में विभक्त है। भक्तिकाल और रीतिकाल मध्यकाल के दो हिस्से हैं। भक्तिकाल के संदर्भ में हम देख चुके हैं, कि किस प्रकार आध्यात्मिक प्रेम की मिटती हुई छाया ने मानवीय प्रेम को प्रस्तावित किया। प्रेम और भक्ति की अद्वैत अनुभूति के बीच से प्रेम का संबंध शृंगारिक मनोवृत्ति से जुड़ता गया। सामंतों की रुचि ने किस प्रकार से उसे उकसाकर रचनाकारों को उस पर साहित्य रचना के लिए प्रेरित किया। रीतिकाल में साहित्य और दरबारी संस्कृति के बीच बड़ा गहरा संबंध है। इस काल के कवि अपने आश्रयदाता सामंतों के यहाँ रहते थे। उन्हीं के मनोरंजन के लिए साहित्य रचना करते थे।

कवि अब सहज अनुभूति की प्रेरणा से काव्य रचना नहीं करते थे। साहित्य, कवियों के अर्थ प्राप्ति का साधन हो गया था। अर्थ के आधार पर उनका मूल्य निर्णय होता था। अर्थ जब सृजन का आधार हो गया तो कविता में कृत्रिम मनोभाव को भरकर अधिक से अधिक अर्थ कमाने के लिए कवि विवश हो गए। इस स्थिति में रीतिकाव्य में रसिकता और शास्त्रीयता का योग हुआ, जो सामंतों द्वारा पोषित थी और शास्त्र द्वारा रक्षित थी। रीतिकालीन कवियों के । मानसिक गठन में किसी प्रकार का कोई द्वंद्व या संघर्ष नहीं मिलता है। उन्होंने जीवन के प्रश्न से अलग हटकर विशुद्ध कला के प्रश्नों को अपने साहित्य की बुनियाद में रखा।

हिंदी साहित्य के “उत्तरमध्यकाल” के नाम को लेकर विद्वानों में विवाद है। इस काल को नामांकित करने के लिए तीन-चार नाम सुझाए गए हैं। सर्वप्रथम मिश्रबंधु ने “मिश्रबंधु विनोद” में इस काल को “अलकृत काल” कहना अधिक उचित समझा। मिश्रबंधु के बाद आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने व्यवस्थित इतिहास अध्ययन और इतिहास दृष्टि के आधार पर उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल नाम से संबोधित किया। शुक्ल जी के बाद के इतिहासकारों में रामकुमार वर्मा ने उस युग की संवेदना के मूल में कलात्मक गौरव को रेखांकित करते हुए “कलाकाल” की संज्ञा दी, डॉ. रसाल ने इस युग को “काव्यकला काल” कहना अधिक उपयुक्त माना है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इस काल को “श्रृंगार काल” नाम से संबोधित करते हैं।

“अलंकृत काल”, “कला काल” जितने भी नाम दिए गए हैं, वे सभी नाम रीतिकाल की अपेक्षा सीमित अर्थ देने वाले हैं। यदि अंलकृत काल कहते हैं, तो इससे मात्र अलंकार का संकेत मिलता है। अलंकृत शब्द युग की कविता का ही विशेषण हो सकता है। वह लक्षण ग्रंथों का विशेषण नहीं हो सकता, जो इस काल में उपलब्ध होते हैं। यह नाम पूरे युग की मानसिक बनावट का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाता। कलाकाल से मात्र साहित्यकला का बोध नहीं होता है, उससे कला के विभिन्न रूपों का बोध होता है। इस नाम से कोई साहित्यिक प्रवृत्ति नहीं । उभरती। साहित्य सृजनात्मक कर्म है लेकिन वह कलाकर्म की कोटि तक इस युग में ही पहुँचता है। किन्तु यह नाम उस काल खंड के साहित्य की आंतरिक या बाह्य संवेदना की किसी मूलभूत विशेषता को प्रतिपादित नहीं करता। “काव्य कला काल” एक सामान्य नाम है “कलाकाल” नाम में काव्य को जोड़कर साहित्य और कला की सामूहिक विशेषता की ओर संकेत किया गया है।

मुख्य विवाद “रीतिकाल” और “शृंगार काल” को लेकर है। यह सही है कि आचार्य शुक्ल के मन में इस काल का “रीतिकाल” नामकरण करते हुए भी श्रृंगार काल का विकल्प उपलब्ध था। उन्होंने लिखा है “वास्तव में शृंगार और वीर इन्हीं दो रसों की कविता इस काल में हुई। प्रधानता शृंगार की ही रही। इससे इस काल को रस के विचार से कोई शृंगारकाल कहे तो कह सकता है।” यह सही है कि भक्तिकाल की तुलना में अनुभूति या संवेदना के बदलाव की दृष्टि से शृंगारकाल नाम अधिक उचित प्रतीत होता है। क्योंकि रीतिकाल संवेदना का नहीं संवेदना को अभिव्यंजित करने के माध्यम का संकेत करता है। रीति शब्द से शास्त्रीय अर्थ मार्ग या पद्धति के अतिरिक्त कौशल और रचनात्मक उपादानों एवं काव्य के विभिन्न घटकों का भी बोध होता है। शृंगार में अनुभूति और उसकी प्रवृत्ति का अर्थ संकेत है।

प्रयोग और अर्थविस्तार का प्रश्न साहित्य के इतिहास में बड़ा महत्वपूर्ण होता है। रीति शब्द अपने परंपरागत अर्थ मार्ग या प्रस्थान हेतु को बनाये रखते हुए भी काव्य के साथ जुड़कर श्रृंगार का अर्थ पा गया है। इसीलिए रीतिकाल नाम साहित्य और साहित्य से परे पद्धति, कौशल, शृंगारिकता, नायिका भेद, कलात्मकता आदि के अर्थ में लिया जाता है। सारांश रूप में कह सकते हैं रीतिकाल शब्द में अर्थ का विस्तार हुआ है। यह मात्र शास्त्र का पर्याय न होकर शृंगारिक संवेदना को भी सूचित करता है। रीति शब्द का प्रयोग संस्कृत काव्यशास्त्र में एक विशिष्ट मूल्यांकन पद्धति के लिए हुआ था। हिंदी में रीतिकाल के पूर्व इस शब्द का प्रयोग बहुत कम मिलता है। जगदीश गुप्त के अनुसार रीति शब्द का प्रथम प्रयोग तुलसीदास के पार्वती मंगल में पद्धति के अर्थ में हुआ है। भिखारीदास “काव्य की रीति सिखौ सुकबीन सों ” में काव्य सिद्धांत या काव्य रचना के नियम या पद्धति के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग करते हैं। शुक्ल जी ने इस सारे अर्थों को “रीतिकाल” में समाहित कर दिया है।

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘श्रृंगार काल’ कहने के पीछे यह तर्क दिया है कि रीतिकाल कहने से रीतिमुक्त कवियों की उपेक्षा होती है। रीतिकाल की जो स्वच्छंदतावादी धारा है जिसमें घनानंद, बोधा, आलम और ठाकुर जैसे कवि हैं, रीतिकाल कहने से इन कवियों की रचनाधारा उसमें समाहित नहीं होती। लेकिन शृंगार काल कहने से भी सभी कवियों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है | भूषण जैसे वीर रस के कवि और कुछ भक्त कवि फिर भी छूट जाते हैं । इसके अतिरिक्त काव्यांग विवेचन की दृष्टि से लिखित अनेक महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध लक्षण ग्रंथ इसकी सीमा में नहीं आ पाते। काव्यांग विवेचन रीतिकाल की एक प्रमुख प्रवृत्ति है।

स्वच्छंदतावादी कवियों का विद्रोह भी इन्हीं लक्षणग्रंथों की परिपाटी के विरुद्ध हुआ था। इसलिए वह युग के केन्द्र में है। लक्षण उदाहरण से युक्त बहुसंख्यक रीति ग्रंथों के निर्माण में आचार्यत्व का प्रदर्शन मूल प्रेरक भाव है। यदि परंपरा और पृष्ठभूमि में भक्तिकाल को देखते हैं तो रीतिकाल ने भक्तिकाल से शास्त्रीय विवेचन की परिपाटी को प्राप्त किया । भक्ति जब शास्त्र का विषय हो गया तब उसी समय से रीति के लक्षण भी साहित्य में मिलने लगे। नंददास द्वारा “रस मंजरी” जैसे नायिका भेद का ग्रंथ लिखा जाना रीतिशब्द की सार्थकता को सिद्ध करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि रीतिकाल शब्द भक्तिकालीन कविता के ढलान को भी सूचित करता है, जब भक्ति अनुभूति का विषय न होकर शास्त्र का विषय हो गई थी। यह बात सच है कि रीति शब्द मानसिक प्रवृत्ति होते हुए भी अनुभूति या संवेदना को प्रतिपादित नहीं करता है। प्रश्न नाम की सार्थकता का नहीं है, उसकी अनेक स्तरीय संवेदना का है, जो रीतिकाल के लिए रूढ़ हो चुका है।

इस पूरे विवेचन के उपरांत हमें दो इतिहासकारों की इतिहास दृष्टि पर चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। आचार्य शुक्ल की इतिहास दृष्टि एक युग समीक्षक और संस्कृति समीक्षक की दृष्टि है। वे नामकरण के द्वारा पूरे युग और समूची सामंती संस्कृति की विशेषता को एक नाम में बाँधना चाहते हैं । इसीलिए उनके यहाँ शब्दों के अर्थ का विस्तार होता है। रीति मात्र पद्धति का पर्याय नहीं होकर एक युग की सोच और उसके मानसिक ढाँचे को प्रतिपादित करता है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, जो आधुनिक युग के रीतिवादी आचार्य हैं, उनके द्वारा प्रस्तावित नाम श्रृंगार काल युग संवेदना की दृष्टि से यद्यपि उस काल की प्रधान मनोवृत्ति को व्यक्त करता है लेकिन यह नाम साहित्य की सीमाओं से आगे नहीं जा पाता। रसवादी दृष्टिकोण से आगे नहीं बढ़ पाता । इतिहास में रसवादी मनोभाव को प्रधानता देना आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के इतिहास दृष्टि की सीमा है। आचार्य शुक्ल रीतिकाल के विश्लेषण में साहित्य के साथ उस युग की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिस्थिति पर भी विचार करते हैं। उनके द्वारा दिए गए नाम “रीतिकाल” में व्यापक अर्थ की व्यंजना है। जिसमें जीवन और समाज की कई विशिष्टताओं को प्रतिपादित करने की शक्ति है। डॉ. जगदीश गुप्त के शब्दों में कहें तो “कला काल कहने से कवियों की रसिकता की उपेक्षा होती है शृंगार काल कहने वीररस और राजप्रशंसा की। रीतिकाल कहने से प्रायः कोई भी महत्वपूर्ण वस्तुगत विशेषता उपेक्षित नहीं होती और प्रमुख प्रवृत्ति सामने आ जाती है।”

आधुनिक काल की पृष्ठभूमि

हिंदी साहित्य के आधुनिक काल पर चर्चा करने से पूर्व आधुनिक काल की पृष्ठभूमि से परिचित होना अनिवार्य है। वस्तुतः योरोप में राष्ट्रीयतावाद की जो क्रांति आरंभ हुई उसका औद्योगिक क्रांति से गहरा संबंध था। इस कारण योरोप में राष्ट्रीयतावाद ने एक आक्रामक रूप लिया जिसकी चरम परिणति उपनिवेशवाद था। दूसरी ओर औद्योगिक क्रांति का इतना ही गहरा संबंध उदार मानवीय दृष्टि से भी था, जिसने मानवीय स्वाधीनता अथवा लिबरल दर्शनों को प्रेरित किया । औद्योगिक क्रांति के माध्यम से केवल उपनिवेशवाद ही भारत नहीं पहुँचा, उसके साथ वे कुछ मानवीय मूल्य भी साथ आए थे, जिसे योरोपीय सभ्यता ने गहरे वैचारिक मंथन के बाद प्राप्त किया था। उदाहरण के लिए समता की भावना अथवा मानवीय स्वतंत्रता कुछ ऐसे जीवन मूल्य थे, जिसे पश्चिमी सभ्यता ने गहन आत्ममंथन के बाद प्राप्त किया था। भारत का बहुविध संपर्क जब पश्चिम से हुआ, तब भारतीय समाज भी तेजी से बदलने लगा। सामाजिक क्षेत्रों में इस प्रभाव ने नई केन्द्रोन्मुखी प्रवृत्तियों को, विश्रृंखल और विभाजित समाज को पुनः संगठित करने के लिए प्रेरित किया, जो कई सामाजिक आंदोलनों के माध्यम से प्रकट हुए। आर्य समाज और ब्रह्म समाज दोनों सामाजिक आंदोलन थे। उनका धार्मिक पक्ष से अधिक सामाजिक भावना पर बल था।

औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप विज्ञान की उन्नति हुई। विज्ञान की उन्नति का यह परिणाम हुआ कि मनुष्य सभ्यता के केन्द्र में आ गया। इससे मानवीय मूल्यों का महत्व बढ़ता गया। विज्ञान ने नैतिकता को ईश्वरपरक न मानकर मानव सापेक्ष माना। विश्व का मानदंड मनुष्य को मानते ही हमारी नैतिकता के आधार में बहुत से अवश्यंभावी परिवर्तन होने लगते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो संवेदना का रूप आधुनिकता हो जाता है। आधुनिक चेतना ने धर्म के आस्थावादी दृष्टिकोण को स्थानांतरित कर इतिहास के प्रश्नों और संशयों को प्रमुखता दी। आधुनिक चेतना ने ऐसी मानसिकता को जन्म दिया, जिसके सहारे भारतीय बुद्धिजीवी और . रचनाकार उपनिवेशवाद के शोषण को खुली आँखों से देखने में सक्षम हो सके । वे सामंतों, रजवाड़ों के संधि विग्रहों और गठबंधनों से ऊपर उठकर नई विदेशी सत्ता के राजनैतिक और आर्थिक तंत्र के शोषण को समझ कर, इस निष्कर्ष पर पहुँच सके कि इस शोषण में हिंदू और मुस्लिम समान रूप से शोषित हैं। आधुनिक विचार का उदय औपनिवेशिक दासता की छाया में हुआ था, लेकिन उस औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति भारत में आधुनिकता की कसौटी बन गई।

आधुनिक शब्द जीवन के यथार्थ और वास्तविक संदर्भो को व्यक्त करता है। आधुनिक शब्द एक विशेष कालखंड को द्योतित करते हुए भी मध्ययुगीन विचार पद्धति से भिन्न एक नई जीवन दृष्टि की ओर भी संकेत करता है। हमारे काल खंड. का संबंध जब इस नई जीवन दृष्टि से होता है, तो बहुत सी चीजों के साथ हमारे संबंध बदल जाते हैं, इतिहास के साथ, तंत्र और श्रम के साथ, पूँजी के साथ, शासन व्यवस्था के साथ, कला, साहित्य और सौन्दर्यशास्त्र के साथ । इस नये बोध के कारण रूढ़ियों के प्रति विद्रोह की भावना जागती है। यह नवीनता बाह्य आचारों से ही संबंधित नहीं रहती वरन् यह वैचारिक स्तर पर भी मनुष्य का संस्कार करती है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में उन्नीसवीं सदी से आज तक के साहित्य को “आधुनिक काल” के नाम से अभिहित किया जाता है।

आधुनिक संवेदना के आधार

पृष्ठभूमि को समझ लेने के उपरांत आधुनिक काल का प्रारंभ कहाँ से होता है, उस पर विचार करना आवश्यक होगा। इसके लिए हमें उन मानदंडों का भी निर्धारण करना होगा, जिसके आधार पर हम मध्यकाल से अलग आधुनिक काल का मूल्यांकन करते हैं । आचार्य शुक्ल गद्य के उत्थान को प्रधान साहित्यिक घटना मानते हैं। उनके मत में खड़ीबोली गद्य का विकास ही आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रवर्तन की सूचना देता है। उस समय देश में एक ऐसी व्यापक प्रयोग की भाषा की आवश्यकता महसूस की जा रही थी, जिसमें क्षेत्रीय सीमा का बंधन न हो। कानपुर, कलकत्ता, आगरा, काशी, पटना, भोपाल और बंबई जैसे विविध क्षेत्रों की भाषाई एकता को परस्पर संयोजित करने की सामर्थ्य भी हो। ऐसी भाषा खड़ीबोली ही थी। खड़ीबोली भाषा का प्रयोग विविध क्षेत्रों के लोकानुभव से जुड़ा था। इसलिए उसमें गद्यात्मक अभिव्यक्ति का सामर्थ्य अधिक था। खड़ी बोली गद्य का विकास जन भाषा के रूप में हो रहा था। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे अनुभव और सोच में जो परिवर्तन आया उसे खड़ी बोली गद्य में रचा सकता था। नई सोच ने नई गद्य विधाओं की प्रस्तावना की, यथा नाटक, कहानी, उपन्यास आदि।

खड़ी बोली गद्य के विकास को आधुनिक काल विभाजन और नामकरण का प्रामाणिक आधार मानने के बाद सर्वप्रथम काल विभाजन की सीमाओं से परिचित होना अनिवार्य है। खड़ी बोली गद्य को आधार मानकर कुछ विद्वान फोर्टविलियम कॉलेज की स्थापना काल से ही आधुनिक काल की शुरुआत मानना चाहते थे। फोर्ट विलियम कॉलेज में गिलक्राइस्ट के निर्देशन में चार अध्यापक बोलचाल वाली हिंदी के गद्य को विकसित करने में अपना योगदान दे रहे थे। सदासुख नियाज़ी, इंशाअल्ला खाँ, लल्लूलाल और सदलमिश्र ने खड़ी बोली गद्य में रचना की। इन रचनाकारों की रचना में भाषा की एकरूपता नहीं थी। आचार्य शुक्ल के शब्दों में कहें तो सदासुख नियाज़ी में पंडितारुपन था, लल्लूलाल की भाषा में ब्रजभाषापन था, सदलमिश्र की भाषा में पूर्वीपन था। दूसरे, इन रचनाकारों की भाषा की शैली में मौखिक परंपरा की शैली मिलती है जिसका आधुनिक चेतना से बहुत अधिक मतलब नहीं था, इसलिए इन लोगों की रचनाओं से आधुनिक काल का प्रारंभ मानना उचित प्रतीत नहीं होता है।

हिंदी खड़ी बोली गद्य को प्रतिष्ठित करने में प्रेस की बड़ी भूमिका रही है। प्रेस के कारण समाचार पत्र का निकलना संभव हुआ। समाचार पत्रों के लिए नए ढंग के गद्य की। आवश्यकता हुई। देश में सर्वप्रथम प्रेस की स्थापना सन् 1823 ई. में सिरामपुर में हुई। जुगलकिशोर ने सन् 1826 ई. में कलकत्ता से पहला हिंदी का समाचार पत्र “उदंतमार्तंड” प्रारंभ किया। धीरे-धीरे वैज्ञानिक विकास भी भारत में हो रहा था। सन् 1851-54 के बीच रेल, और डाकतार की सुविधा प्रारंभ हुई। संचार की सुविधा ने भारतीय जनजीवन के संपर्क सूत्रों को मजबूत बनाया। इसका असर साहित्य पर भी दिखाई पड़ा। इससे विभिन्न भारतीय भाषाओं में आपसी लेनदेन के लिए एक मंच तैयार होता है। इसके साथ ही सन् 1857 ई. में देश में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का युद्ध भी लड़ा गया था और बिट्रिश साम्राज्यवाद को चुनौती दी गई थी।

भारतेंदु युग का काल विभाजन और नामकरण

आधुनिक हिंदी के विकास की प्रारंभिक सीमा को आचार्य शुक्ल 1843 ई. मानते हैं। डॉ. रामविलास शर्मा आधुनिक साहित्य का प्रारंभ 1868 ई. से मानते हैं, जब से भारतेंद् लेखन का प्रारंभ करते हैं। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय 1850 ई. से हिंदी साहित्य के आधुनिक युग का प्रारंभ मानते हैं। वैज्ञानिक घटनाओं और राजनैतिक घटनाओं के प्रभाव को देखते हुए हिंदी साहित्य के आधुनिक युग का प्रारंभ 1850 ई. से मानना उचित प्रतीत होता है। इन घटनाओं के कारण का समय 1850 ई. आस पास ही ठहरता है। दूसरा कारण यह है कि 1850 ई. भारतेंदु का जन्मकाल है। भले ही उनके जन्म से आधुनिकता प्रारंभ नहीं होती है, लेकिन अन्य घटनाओं के साथ यह भी एक घटना ही है, इसलिए इस वर्ष को आधुनिक संवेदना का प्राथमिक चरण स्वीकार किया जा सकता है। चूंकि आधुनिक युग पूरे कालखंड के नाम का पर्याय है, इसलिए आधुनिक युग की समाप्ति नहीं होती है। आधुनिक युग के अंतर्गत साहित्य विशेष की प्रवृत्ति जिसे सामान्यतया भारतेंदु काल कहा जाता है, उसकी समाप्ति होती है। उसकी अंतिम सीमा आचार्य शुक्ल 1893 ई. मानते हैं | डॉ. रामविलास शर्मा और लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय भारतेंदुयुग की अंतिम सीमा 1900 ई. मानते हैं । आचार्य शुक्ल के 1893 ई. मानने का कारण यह रहा होगा कि यह वर्ष ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना का वर्ष है। इस संस्था ने हिंदी प्रचार में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। लेकिन 1893 ई. को भारतेंदु युग की अंतिम सीमा मानना इसलिए उचित प्रतीत नहीं होता है कि भारतेंदु युग की साहित्यिक प्रवृत्ति उस काल में भी सक्रिय थी। अतः 1900 ई. को ही भारतेंदु युग की आखिरी सीमा मानना सही प्रतीत होता है।

1850 ई. से 1900 ई. तक के 50 वर्ष के साहित्य के लिए हिंदी साहित्य के इतिहास में तीन चार नाम प्रस्तावित किए गए हैं। इस कालखंड के लिए परिवर्तनकाल, पुनर्जागरण काल, आधुनिक काल और नवजागरण काल जैसे कुछ नाम सुझाए गए हैं। परिवर्तन किसी एक कालविशेष का लक्षण नहीं हैं | परिवर्तन की प्रवृत्ति हर देश और काल के साहित्य में व्याप्त होती है। अतः परिवर्तनकाल नाम में किसी औचित्य का बोध नहीं होता है। पुनर्जागरण का महत्व किसी विशिष्ट उद्देश्य से बँधा होता है। पुनर्जागरण का प्रभाव जीवन के विविध अंगों में दिखाई पड़ता है। भारतीय पुनर्जागरण की लहर भारतेंदु युग में ही समाप्त नहीं होती है। उसका प्रचार स्वतंत्रता काल तक होता है। इतने बड़े कालखंड के साहित्य में इतनी अधिक . विविधता मिलती है, कि साहित्यिक संवेदना को मात्र पुनर्जागरण कहकर पहचानने में कठिनाई हो सकती है। अतः पुनर्जागरण काल नाम रखने से काम नहीं चलता है। पुनर्जागरण को भी उपविभाग में बाँटकर देखना अनिवार्य हो जाता है। आधुनिक काल नाम सामान्य सा नाम है। आधुनिक संपूर्ण काल खंड के लिए एक नाम है। इसलिए आधुनिक काल के प्रथम 50 वर्षों के साहित्य को उपविभाग में बाँटना आवश्यक हो जाता है । भारतेंदुयुग नवजागरण की सूचना देता है अथवा पुनरुत्थान की, उसके संबंध में विद्वानों में गहरा मतभेद है। अतः यह नाम भी विवाद से परे नहीं है।

1850-1900 ई. तक के साहित्यिक काल खंड को आचार्य रामचंद्रशुक्ल भी भारतेंदुयुग नाम से नहीं पुकारते हैं | गद्य की दृष्टि से इसे वे हिंदी गद्य साहित्य का प्रवर्तनकाल तथा काव्य की दृष्टि से इसे वे नई धारा नाम देते हैं। उन्होंने अपने इतिहास में स्थान-स्थान पर हरिश्चंद्र काल जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। आचार्य शुक्ल आधुनिक काल के विकसित साहित्यिक मनोभाव में भारतेंदु की भूमिका को प्रमुख मानते हैं। वे अपने इतिहास में भाषा और साहित्य पर भारतेंदु के गहरे प्रभाव को स्वीकार करते हैं | उन्हीं के शब्दों में “बंगदेश में नए ढंग के नाटकों और उपन्यासों का सूत्रपात हो चुका था जिनमें देश और समाज की नई रुचि और भावना का प्रतिबिंब आने लगा था, पर हिंदी साहित्य अपने पुराने रास्ते पर ही पड़ा था। भारतेंदु ने उस साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर जीवन के साथ फिर से लगा दिया। इस प्रकार हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद पड़ रहा था उसे उन्होंने दूर किया। हमारे साहित्य को नए-नए विषयों की ओर प्रवृत्त करनेवाले हरिश्चंद्र ही हुए।” इस प्रकार हम देखते हैं कि “भारतेंदु” साहित्य को एक लोकदृष्टि प्रदान करते हैं। उनके युग प्रवर्तक व्यक्तित्व के कारण ही साहित्य का एक कालखंड उनके नाम से पुकारा जाने लगता है। हम पाते हैं कि शायद किसी भी साहित्येतिहासकार को इस नाम से कोई परेशानी नहीं है। भारतेंदु रचनाकार ही नहीं एक संस्थापक भी थे। उन्होंने साहित्य की रचना ही नहीं की अपितु नये साहित्य के लिए एक वातावरण भी तैयार किया। उनके इन्हीं योगदानों को देखते हुए हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने इस काल को भारतेंदु युग की संज्ञा दी है।

द्विवेदी युग

आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा काल 1900 ई. आसपास शुरू होता है। सरस्वती पत्रिका का प्रारंभ इसी वर्ष हुआ था । अधिकांश विद्वान सरस्वती पत्रिका के प्रारंभ से द्विवेदी युग की शुरुआत मानते हैं। महावीर प्रसार द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका का संपादन 1903 से संभाला था। उनके नेतृत्व में सरस्वती पत्रिका उस वक्त के साहित्य की मानक-निर्धारिक संस्थान बन गई थी। भाषा की शुद्धता द्विवेदी जी का आदर्श था और मर्यादाबद्ध नैतिकता, साहित्य का मानदंड। भारतेंदु युग का साहित्य उत्साह और उमंग से भरा हुआ था, लेकिन द्विवेदी युग के साहित्य में सर्वत्र अनुशासनबद्धता दिखाई पड़ती है। द्विवेदी जी का प्रभाव केवल गद्य साहित्य पर ही नहीं था, उनका प्रभाव पद्य और काव्यनिर्माण पर भी व्यापक रूप से पड़ा। उन्हीं के प्रभाव से हिंदी परंपरा में व्यवहृत छंदों के स्थान पर संस्कृत पदावली का समावेश बढ़ने लगा। उन्होंने मध्ययुगीन भक्तिकालीन और रीतिकालीन परिपाटी के स्थान पर संस्कृत साहित्य की। पद्धति की ओर ध्यान दिया । द्विवेदी जी के आग्रह से कविता में इतिवृत्तात्मकता की प्रवृत्ति बढ़ने लगी थी। इस प्रकार हम पाते हैं कि “द्विवेदी युग” का नाम एक कालखंड का व्यक्तिवादी नाम बनकर नहीं उभरता है। वह एक युग के जीवन मूल्यों और साहित्यिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता जान पड़ता है। द्विवेदी युग के नामकरण के संबंध में विद्वानों में विशेष विवाद नहीं है। विद्वानों की तरफ से एकाध नाम सुझाए गए हैं जैसे ‘जागरण-सुधार काल, लेकिन 1900-1920 ई. तक के हिंदी साहित्य के लिए द्विवेदी युग नाम ही चल निकला है। विद्वानों के बीच इसी नाम पर आम सहमति है।

छायावाद

द्विवेदी युग की अंतिम सीमा और छायावाद के प्रारंभ के संबंध में लगभग आम सहमति से 1920 ई. को माना गया है। इसी के आसपास छायावादी साहित्य का आरंभ होता है लेकिन छायावादी काव्य प्रवृत्ति की सूचना कुछ पहले से मिलने लगी थी। 1916 में निराला की ‘जही की कली’ प्रकाशित होती है, प्रसाद की कृति ‘झरना’ का प्रकाशन काल 1918 ई. और पंत के ‘पल्लव’ की कुछ कविताएँ 1920 के आसपास प्रकाशित होती हैं। इस प्रकार 1915 ई. के । बाद द्विवेदी युगीन काव्य प्रवृत्ति का ढलान देखा जा सकता है। इस आधार पर छायावाद का प्रारंभ 1920 ई. से ही मानना चाहिए। छायावाद की अंतिम सीमा 1936 ई. मानी जाती है। इस समय तक छायावाद की श्रेष्ठ कृतियों का प्रकाशन हो चुका था। 1936 में प्रसाद की ‘कामायनी’, निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ प्रेमचंद का ‘गोदान’ रचा जा चुका था। इसके साथ इसी वर्ष प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना भी हुई थी। अतः 1936 ई. को छायावाद की आखिरी सीमा मानना चाहिए।

छायावाद के नाम पर भी भक्तिकाल की तरह लगभग आम सहमति है। छायावाद काव्य की . प्रवृत्ति थी लेकिन उसमें जो कुछ साहित्यिक मूल्य मिलते हैं उसका संबंध उस युग के विविध – प्रकार के साहित्य से है। छायावादी साहित्य में रोमांटिक भावबोध की प्रखरता है। यह भावबोध जहाँ पुरानी रूढ़ियों से मुक्ति पाना चाहता है, वहीं ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति का स्वप्न भी देखता है। यह एक महज संयोग है कि राजनीति में गाँधी जी का प्रवेश और छायावाद का आगमन लगभग साथ-साथ ही हुआ है । गाँधीयुग का प्रभाव छायावादी साहित्य में विशेषकर गद्य विधाओं में देखने को मिलता है। प्रेमचंद के उपन्यास में गाँधी युग की विराट नाटकीयता का सजीव चित्रण मिलता है। छायावादी काव्य के संदर्भ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। रवीन्द्रनाथ की आध्यात्मिक और रहस्यवादी कविता का प्रभाव हिंदी काव्य जगत में भी हुआ। इस प्रभाव के फलस्वरूप रहस्यात्मक अनुभूति के और अमूर्त भाव की अभिव्यंजना के लिए लाक्षणिक और चित्रमयी भाषा में रचना होने लगी। अनुभूति, दर्शन और कल्पना के योग से नये प्रकार का काव्य रचा जाने लगा।

आचार्य शुक्ल के शब्दों में “छायावाद जहाँ तक आध्यात्मिक प्रेम लेकर चला है वहाँ तक तो रहस्यवाद के ही अंतर्गत रहा है। उसके आगे प्रतीकवाद या चित्रभाषावाद (सिंबलिज्म) नाम की काव्य शैली के रूप में गृहीत होकर भी वह अधिकतम प्रेमगान ही करता रहा है।”

छायावादोत्तर

छायावादोत्तर साहित्य में विविध प्रकार की काव्य प्रवृत्तियाँ समय-समय पर अपना मार्ग ग्रहण करती रही हैं। छायावादोत्तर साहित्य में प्रगतिवाद, व्यक्तिवादी गीतिकाव्य, राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता, प्रयोगवाद, नयी कविता, नई कहानी, अकविता के कुछ प्रमुख आंदोलन चले । इस नये साहित्य के आंदोलन के नामकरण और कालविभाजन पर कोई विशेष चर्चा की जरूरत नहीं है। उनके वस्तु और तथ्य पर विवाद हो सकता है उनके कालविभाजन और नामकरण पर कोई विवाद नहीं है। 

सारांश

कालविभाजन और नामकरण की विस्तृत चर्चा के उपरांत आप साहित्य के इतिहास में उसके महत्व को समझ गए होंगे। साथ ही आप साहित्य की उन प्रवृत्तियों से भी परिचित हो गए होंगे जिनको आधार बनाकर साधारणतया काल विभाजन किया जाता है। किसी भी नामकरण को प्रस्तावित करने के पीछे इतिहासकार का मूल मंतव्य क्या होता है, इसे समझने में भी आपको दिक्कत नहीं हुई होगी। चिंतन की धारा में दो काल विभाग किन बिंदुओं पर अलग होते हैं और उसका अंतर्विरोध किस प्रकार से प्रकट होता है, इस महत्वपूर्ण प्रश्न को भी आप समझ गए। होंगे। हमने यह भी चर्चा की कि किस प्रकार से अंतर्विरोधी प्रवृत्ति एक ही काल खंड में सक्रिय होती है। उससे हमारे काल विभाग और नामकरण के निर्णय पर क्या असर पड़ता है।

किसी नामकरण के लिए कालखंड को समग्रता में देखना कितना आवश्यक है । इतिहास, समाज और साहित्य के रिश्तों की आपसी पहचान को भी आपने इस इकाई में समझने की कोशिश की। काल विभाजन के बहाने आप जनता के उस मनोभाव से भी परिचित हुए होंगे, जिससे विशिष्ट कालखंड में विशिष्ट प्रकार की चेतना निर्मित होती है। वही भाषा और संवेदना का मूलाधार है।

अभ्यास प्रश्न

  1. कालविभाजन की समस्याओं पर प्रकाश डालिए।
  2. हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक काल के नामकरण संबंधी विवादों की चर्चा करते हुए “आदिकाल” नाम की सार्थकता स्पष्ट कीजिए।
  3. भक्तिकाल के काल विभाजन और नामकरण पर विचार कीजिए।
  4. आधुनिक काल के विविध कालखंडों के कालविभाजन और नामकरण पर प्रकाश डालिए।

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