द्विवेदी युग

आपने देखा कि भारतेंदु जैसे व्यक्तित्व के आगमन से हिन्दी साहित्य को नवीन दिशा एवं दृष्टि मिली। खड़ी बोली में हिंदी साहित्य रचना का जो रूप उन्होंने दिया था, उसमें परिवर्तन होते गए। भाषा-साहित्य के क्षेत्र में अराजकता का वातावरण बन गया। ऐसे समय में महावीर प्रसार द्विवेदी जैसे व्यक्तित्व का पर्दापण हुआ और उन्होंने ‘सरस्वती’ के माध्यम से हिंदी भाषा और साहित्य को परिमार्जित और सरल रूप प्रदान करने का कार्य किया। इस इकाई को पढ़ने के बाद आपः

  • महावीर प्रसाद द्विवेदी के साहित्यिक आदर्शों को जान सकेंगे, और
  • द्विवेदी-युगीन गद्य एवं पद्य साहित्य से परिचित हो सकेंगे।

एक दृष्टि से द्विवेदी युग, भारतेंदु युग का विस्तार ही है। हम यह भी कह सकते हैं कि आधुनिक काल में हिंदी साहित्य ने भारतेंदु युग में पहला चरण रखा और द्विवेदी युग में उसने दूसरा चरण रखा। शायद इसीलिए डॉ. बच्चन सिंह ने अपने ‘हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास’ (1996) में 1857 ई. से 1920 के काल को एक ही काल माना है – ‘नवजागरण युग’ । लेकिन उन्होंने इससे पूर्व प्रकाशित अपने ‘आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास’ में भारतेंदु युग और द्विवेदी युग को अलग-अलग माना है यद्यपि उन्होंने इन दोनों कालों का नया नामकरण किया है – ‘पुनर्जागरण काल’ (1857 ई.1900 ई.) और ‘पूर्व-स्वच्छंदता काल’ (1900 ई.-1920 ई.) किंतु उनके अतिरिक्त प्राय: अन्य सभी हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने इन दोनों युगों को न केवल अलग-अलग माना है अपितु भारतेंदु युग और द्विवेदी युग नामों को भी स्वीकार कर लिया है। यही उचित भी है क्योंकि भारतेंदु युग और द्विवेदी युग में यदि समानताएँ हैं तो ऐसी असमानताएँ भी हैं जो उनके बीच स्पष्ट विभाजक रेखाएँ खींचती हैं। भारतेंदु युग में कोई एक ऐसी साहित्यिक पत्रिका नहीं थी, जिसने पूरे युग को लगभग पूर्णत: नियंत्रित किया हो। द्विवेदी जी का व्यक्तित्व भी वैसा स्वच्छंद नहीं था जैसा भारतेंदु का था।

इसीलिए जो स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियाँ भारतेंदु युग में जन्मीं थीं, वे द्विवेदी युग में दबी-सी रहीं। अत: ‘सरस्वती’ के प्रकाशन-वर्ष से इस युग का प्रारंभ माना जाता है। स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियों के उभार का पहला प्रमाण जयशंकर प्रसाद के ‘झरना’ (1918 ई.) की कविताओं में मिला। इसलिए ‘झरना’ के प्रकाशन-वर्ष को द्विवेदी युग की अंतिम सीमा माना जाता है। भारतेंदु युग से द्विवेदी युग को अलग करने वाले कुछ और बिंदु भी हैं। भारतेंदु युग संक्रांति-काल था। उसमें पक्ष-विपक्ष परस्पर उलझे हुए थे। द्विवेदी युग में आकर संक्रमण की स्थिति लगभग समाप्त हो जाती है। भारतेंदु युग के उलझे हुए प्रश्नों का इस युग में आकर समाधान हो जाता है।

इस युग में खड़ी बोली को गद्य की भाषा के । साथ-साथ पद्य या कविता की भाषा के रूप में भी स्वीकार कर लिया जाता है। इस युग में एक और विशेष बात हुई है, वह यह कि भारतेंदु युग के मध्य-वर्ग की अपेक्षा द्विवेदी युग के मध्य-वर्ग में आभिजात्य की भावना बहुत प्रबल हो गई। वह अपने को जन-सामान्य से बहुत ऊपर समझने लगा और उसमें यह भाव आ गया कि वह जन-सामान्य को शिक्षा दे सकता है। फलत: उसके लेखन और व्यक्तित्व, दोनों में भारतेंद युग जैसी अनौपचारिकता और आत्मीयता नहीं रह गई। इसलिए द्विवेदी युग को भारतेंदु युग से अलग मानना ही उचित होगा।

स्वाधीनता आंदोलन और द्विवेदी युग का मूल चरित्र

1856 ई. में हिंदी भाषा क्षेत्र पर पूरी तरह अंग्रेजों के आधिपत्य स्थापित करते ही अगले वर्ष 1857 ई. में उनके विरुद्ध विद्रोह की आग भड़क उठी। यद्यपि अंग्रेजों ने स्वाधीनता की इस पहली लड़ाई को क्रूरतापूर्वक दबा दिया, किंतु वे स्वाधीनता की भावना को नहीं दबा सके। भारतेंदु युग का कवि ही स्वाधीनता की माँग करने लगा था –

‘सब तजि गहौ स्वतंत्रता, नहिं चुप लातें खाय ।’

(प्रतापनारायण मिश्र)

द्विवेदी युग में स्वाधीनता की माँग और तीव्र हुई। 28 सितम्बर, 1885 ई. में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय . कांग्रेस उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों की सदभावना और न्यायप्रियता पर विश्वास करके अपनी माँगे उनके सामने प्रार्थना के रूप में प्रस्तुत करती रही, लेकिन इन प्रार्थनाओं का कोई फल नहीं निकला। इसलिए कांग्रेस में असंतोष बढ़ने लगा जो 1905 ई. में बंग-भंग के समय पूर्णत: सामने आ गया। इस बंग-भंग का सभी देशभक्त भारतीयों ने विरोध किया, लेकिन विरोधक स्वरूप को लेकर उनमें मतभेद था। फलत: कांग्रेस में उग्र और अनुग्र दो दल बन गए। 1906 ई. में कांग्रेस की सदस्यता के नियम इस प्रकार बना दिए गए जिससे उग्र दल वालों के लिए उसके दरवाजे बंद हो गए। अंग्रेज सरकार भी उग्रवादियों के खिलाफ थी।

अत: 1907 ई. में बिना मुकदमा चलाए लाला लाजपतराय को देश से निर्वासित करके माण्डले भेज दिया गया। अगले ही वर्ष केसरी के लेखों को बहाना बनाकर तिलक को छह वर्ष की कड़ी सजा देकर माण्डले भेज दिया। लेकिन इससे अंग्रेजी शासन का विरोध कम नहीं हुआ। 1915 ई. में तिलक और एनी बेसेण्ट ने होमरूल (स्वशासन) आंदोलन चलाया। 1916 ई. में उग्रवादियों को कांग्रेस में फिर प्रवेश मिला। 1914 ई. में प्रारंभ होने वाले प्रथम महायुद्ध में अंग्रेजों की सहायता करने के लिए गांधीजी ने कांग्रेसियों को मना लिया। इस सहायता के पीछे मनोभाव यह था कि युद्ध की समाप्ति पर अंग्रेज़ शासन में भारतीयों की भागीदारी बढ़ाएँगे, उनकी मांगों को कुछ न कुछ स्वीकार करेंगे, लेकिन हुआ उलटा। युद्ध समाप्त होते ही अंग्रेजों ने अपना दमनचक्र पूरी तेजी से चलाया, जिसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई। 1919 ई. का रौलट-बिल इसी दमनचक्र का अंग था और 13 अप्रैल, 1919 ई. को जलियाँवाला बाग का हत्याकाण्ड उस दमनचक्र की चरम परिणति थी।

राजनीति के क्षेत्र में घटनाएँ बड़ी तेजी से घट रही थी और राजनीति में उग्रता बढ़ रही थी, लेकिन द्विवेदी युगीन हिंदी साहित्य में यह उग्रता पूरी तरह प्रतिबिंबित होती नहीं दिखाई देती। इसका एक कारण तो साहित्यकार का मध्यवर्गीय चरित्र है जो एक सीमा तक ही जोखिम उठा सकता है। लेकिन इससे भी बड़ा कारण है इस युग के साहित्य को नियंत्रित करने वाले आचार्य महावीर प्रसार द्विवेदी का व्यक्तित्व ।

आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने इस संबंध में ठीक ही लिखा है – ‘भावना की वह गहन तन्मयता, जो रवीन्द्रनाथ को कविता के निगूढ़ रहस्यमय अंत:पट का दर्शन करा देती है, द्विवेदी जी में नहीं मिलती, न इन्हें कल्पना की वह आकाशगामिनी गति ही मिली है जो सदा रवि बाबू के साथ रहती है। परंतु इन प्रदेशों में निष्पन्न, कर्मठ ब्राह्मण की भाँति द्विवेदी जी का शुष्क, सात्विक आचार साहित्य पर भी अपनी छाप छोड़ गया है, जिसमें न कल्पना की उच्च उद्भावना है, न साहित्य की सूक्ष्म दृष्टि, केवल एक शुद्ध प्रेरणा है, जो भाषा का भी मार्जन करती है और समय पर सरल, उदात्त भावों का भी । सत्कार करती है। यही द्विवेदी जी की देन है। शुष्कता में व्यंग्य है, सात्विकता में विनोद है। द्विवेदी जी में ये दोनों ही हैं। स्वभाव की रुखाई, कपास की भाँति नीरस होती हुई भी गुणमय फल देती है।

द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य के क्षेत्र में कपास की ही खेती की – “निरस विसद गुणमय फल जासू”।’ (हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी, पृ. 11) द्विवेदी जी के व्यक्तित्व की इस विशेषता को डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने भी रेखांकित किया है – ‘भारतेंदु के व्यक्तित्व में बंगाल की कोमलता और भावुकता थी, आचार्य द्विवेदी के व्यक्तित्व में महाराष्ट्र की कठोरता और वस्तुन्मुखता।’ (हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 108) द्विवेदी जी का यह व्यक्तित्व ही उनके युग के साहित्य के मूल चरित्र को प्रभावित करता है। आर्य समाज के हिंदी क्षेत्र पर बढ़ते प्रभाव ने इसे और पुष्ट किया है एवं दृढ़ बनाया है।

‘सरस्वती’ और महावीर प्रसाद द्विवेदी की भूमिका

जिस तरह आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीसवीं शताब्दी के प्रथम दो दशकों के साहित्य को अनुशासित और निर्देशित किया वैसा न उनसे पहले और न ही उनके बाद कोई एक व्यक्ति कर सका। वे सच्चे अर्थों में युग-निर्माता थे। और यह कार्य उन्होंने किया ‘सरस्वती’ के माध्यम से। इस पत्रिका का पहला अंक जनवरी, 1900 ई. में प्रकाशित हुआ। पहले वर्ष में इसके सम्पादक थे – श्यामसुंदरदास, कार्तिक प्रसाद खत्री, राधाकृष्णदास, जगन्नाथदास रत्नाकर और किशोरीलाल गोस्वामी। अगले वर्ष अर्थात् 1901 ई. में केवल श्यामसुंदरदास इसके सम्पादक रह गए। जनवरी, 1903 ई. में द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ का सम्पादन संभाला और 1920 ई. तक, बीच के दो वर्ष छोड़कर, वे इसका सम्पादन करते रहे।उनके सम्पादन काल में इसमें जो भी रचनाएँ प्रकाशित हुई, द्विवेदी जी ने न केवल उनकी भाषा को सुधारा, अपितु उनके भावों और विचारों को भी नियंत्रित किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा का संस्कार शुरू किया।

उस समय खड़ी बोली में रचना करने वाले लेखक अलग-अलग रचना सिद्धांत रखते थे। अंग्रेज़ी, बंगला, संस्कृत आदि के काव्य के अनुसार कई शैलियाँ चल पड़ी थीं। द्विवेदी जी ने काव्य रचना के क्षेत्र में काव्य भाषा को परिमार्जित एवं स्थिर रूप देने के लिए कार्य किया। एक समर्थ आलोचक की भाँति उन्होंने विभिन्न रचनाकारों की रचना को सुधारा। भाषा को सजाने-संवारने का कार्य उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से किया। गद्य और पद्य की एक भाषा के लिए द्विवेदी जी ने अथक परिश्रम किया। उनकी लगन से ही खड़ी बोली का परिमार्जित रूप उभर कर सामने आया और पद्य और गद्य की भिन्न भाषा का झगड़ा दूर हो गया। मुख्य रूप से उन्होंने भाषा को प्रसाद गुण से युक्त, व्याकरण संबंधी अशुद्धियों से दूर, अभिव्यंजना शक्ति से पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया। रचनाकारों को उन्होंने, शब्दाडम्बर के साथ-साथ । अश्लील और ग्राम्य शब्द प्रयोग से बचने का भी सुझाव दिया। उन्होंने लेखकों को देशज शब्द के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित किया। मुहावरों का प्रयोग तथा स्वाभाविक अलंकारों के प्रयोग के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार एक कठोर शासक के समान उन्होंने भाषा के क्षेत्र में लेखकों को नियंत्रित किया। यह नियंत्रण उन्होंने सम्पादक होने से पहले ही प्रारंभ कर दिया था।

1901 ई. में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित अपने ‘कवि-कर्त्तव्य’ शीर्षक लेख में उन्होंने लिखा था – “कविता का विषय मनोरंजन एवं उपदेशात्मक होना चाहिए। यमुना के किनारे केलि-कौतूहल का अद्भुत-अद्भुत वर्णन बहुत हो चुका । न परकीयाओं पर प्रबंध लिखने की अब आवश्यकता है और न स्वकीयाओं के ‘गतागत’ की पहेली बुझाने की। चींटी से लेकर हाथी पर्यन्त जीव, भिक्षु से लेकर राजा पर्यन्त मनुष्य, बिंदु से लेकर समुद्र पर्यन्त जल, अनंत आकाश, अनंत पृथ्वी, अनंत पर्वत-सभी पर कविता हो सकती है, सभी से उपदेश मिल सकता है और सभी के वर्णन से मनोरंजन हो सकता है।  यदि ‘मेघनादवध’ अथवा ‘यशवंतराव महाकाव्य वे नहीं लिख सकते तो उनको ईश्वर की निस्सीम सृष्टि में से छोटे-छोटे सजीव अथवा निर्जीव पदार्थों को चुनकर उन्हीं पर छोटी-छोटी कविताएँ करनी चाहिए।” (रसज्ञ रंजन, पृ. 23) द्विवेदी जी के इस निर्देश का पालन उनके युग के कवियों ने किया था, यह उनकी रचनाओं से स्पष्ट है।

‘सरस्वती’ में प्रकाशित होने अथवा प्रकाशित न होने वाले इस युग के सभी रचनाकार समान रूप से द्विवेदी जी से प्रभावित नहीं थे। कुछ पर उनका प्रभाव प्रत्यक्ष था, कुछ पर अप्रत्यक्ष और कुछ उनसे सर्वथा अप्रभावित थे। बालकृष्णराव ने इस युग के कवियों को तीन वर्गों में विभाजित किया है –

‘प्रथम वर्ग तो उन कवियों का है, जो पहले से ही शास्त्रीय पद्धति पर काव्य-साधना में रत थे और द्विवेदी जी के सम्पर्क में आने के पश्चात् उनके सिद्धांतों एवं विचारों के अनुकूल अपने को ढालते रहे। इन कवियों में प्रमुख हैं – श्रीधर पाठक, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, राय देवी प्रसाद ‘पूर्ण’, नाथूराम शर्मा शंकर, सेठ कन्हैयालाल पौद्दार आदि। द्वितीय वर्ग उन कवियों का है जो द्विवेदी जी के प्रभाव से ही पनपे और जीवन-भर उनके आदर्शों पर चलते रहे। इनमें सर्वप्रमुख हैं – मैथिलीशरण गुप्त । इनके अतिरिक्त कामता प्रसाद गुरू, रामचरित उपाध्याय, लोचन प्रसाद पाण्डेय, सियारामशरण गुप्त, रूपनारायण पाण्डेय, मुकुटधर पाण्डेय, लक्ष्मीधर वाजपेयी, गोपालशरण सिंह आदि । तृतीय वर्ग उन कवियों का है, जिन्होंने उनका परोक्ष प्रभाव ग्रहण किया। इनमें प्रमुख हैं – गिरधर शर्मा, गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेहीं’, रामनरेश त्रिपाठी, बदरीनाथ भट्ट, प्रसाद, पन्त और निराला।’ (हिंदी साहित्य, तृतीय खण्ड, संपा, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा आदि)

ऐसा ही वर्गीकरण अन्य विधाओं के रचनाकारों का भी किया जा सकता है।

इन कवियों में एक पूरी धारा स्वच्छंदतावादी कवियों की है यथा श्रीधर पाठक, मुकुटधर पाण्डेय, लोचन प्रसाद पाण्डेय, रूपनारायण पाण्डेय, रामनरेश त्रिपाठी, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत और निराला। इनमें से निराला को छोड़कर शेष सभी ‘सरस्वती’ में उसी समय प्रकाशित हुए। फिर भी द्विवेदी जी के काव्यादर्श से इनका मेल नहीं बैठता इसलिए इन्हें ‘सरस्वती’ और द्विवेदी जी से स्वतंत्र रहकर साहित्य-सृजन करने वाला कहा जा सकता है। असल में इनकी काव्य-रचना द्विवेदी जी के काव्य-संस्कारों से मेल नहीं खाती थी। उनके काव्य-संस्कारों का कुछ अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि वे जगदम्बा प्रसाद हितैषी’ की कविता को सुमित्रानन्दन पन्त की कविता से हज़ार दर्जे अच्छा समझते थे।

परवर्ती ‘सरस्वती’ सम्पादक पं. देवीदत्त शुक्ल के नाम लिखित अपने 5 सितम्बर 1929 के पत्र में उन्होंने लिखा था – ‘कानपुर के पं. जगदम्बाप्रसाद बड़े अच्छे कवि हैं । सरस्वती के कविता-स्तम्भ को चमकाने के लिए मैंने उनसे कहा था कि आपको कभी-कभी कविता भेजा करें। उन्होंने शायद भेजा भी। पर पुरस्कार देना तो दूर आपने उन्हें सरस्वती तक न भेजी। अब भेजिए । पहाड़ी पन्त से उनकी कविता हज़ार दर्जे अच्छी होती है।’ (सम्मेलन-पत्रिका, भाग 68, सं. 1-2) आज हम जानते हैं कि इन दो कवियों में से कौन किससे हज़ार दर्जे अच्छी कविता लिखता था!

द्विवेदी जी का साहित्यिक आदर्श

द्विवेदी जी का साहित्यिक आदर्श क्या था, इसका कुछ आभास ऊपर जो कुछ लिखा गया है, उससे मिल जाता है। सूत्र रूप में कहा जा सकता है कि उनकी दृष्टि उपयोगितावादी थी। वे ‘कला कला के लिए’ नहीं मानते थे। वे साहित्य के माध्यम से लोगों की रुचि का परिष्कार करना चाहते थे। वे कविता को न तो शब्द-क्रीड़ा मानते थे और न ही मानसिक विलास की चीज़। हिंदी के कवि से उनकी अपेक्षा थी कि ‘वह लोगों की रुचि का विचार रखकर अपनी कविता ऐसी सहज और मनोहर रचे कि साधारण पढ़े-लिखे लोगों में भी पुरानी कविता के साथ-साथ नयी कविता पढ़ने का अनुराग उत्पन्न हो जाए। पढ़ने वालों के मन में नयी-नयी उपमाओं को, नये-नये शब्दों को और नये-नये विचारों को समझने की योग्यता उत्पन्न करना कवि ही का कर्तव्य है। जब लोगों का झुकाव इस ओर होने लगे तब समय-समय पर कल्पित अथवा सत्य आख्यानों के द्वारा सामाजिक, नैतिक और धार्मिक विषयों की मनोहर शिक्षा दे।’ (रसज्ञ-रंजन, पृ. 29-30)

द्विवेदी जी का यह साहित्यादर्श बहुत दृढ़ था। उसमें क्रमश: थोड़ा-बहुत विकास तो हुआ, लेकिन मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। द्विवेदी जी ने रचना के सभी आयामों और सत् असत् पर ही विचार नहीं किया अपितु सत्साहित्य के आधारभूत सिद्धांतों का भी विवेचन किया है। उन्होंने लोकरुचि का भी परिष्कार किया तथा सत्साहित्य लेखन की प्रेरणा दी। यही कारण है कि द्विवेदी जी को युग-प्रवर्तक कहा जाता है। आचार्य

हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी ने महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के बारे में कहा है – ‘निबंधों और समालोचनाओं द्वारा ये साहित्यिकों को निरंतर प्रेरणा देते रहे। द्विवेदी जी की समालोचनाओं ने जहाँ एक ओर तरुण साहित्यकारों को रूढ़िमुक्त होकर लिखने की प्रेरणा दी, दूसरी ओर कई कृती-साहित्यकारों को वाद-विवाद के क्षेत्र में उतरने और विचारोत्तेजक लेख लिखने का प्रोत्साहन दिया।’

द्विवेदी-युगीन गद्य साहित्य

गद्य-साहित्य की कई विधाओं की नींव भारतेंदु युग में पड़ गई थी, द्विवेदी युग में उनका विकास हुआ तथा कुछ नई गद्य-विधाओं ने जन्म लिया, जैसे, आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, यात्रा विवरण, रेखाचित्र आदि। वस्तुत: इस युग में गद्य-साहित्य अपनी सभी विधाओं एवं दिशाओं में पूर्णत: उभरकर सामने आया। इन पर हम आगे विचार कर रहे हैं।

नाटक

नाटक भारतेंदु युग में एक केंद्रीय विधा थी, द्विवेदी युग में वह निर्जीव हो गई। जैसी सक्रियता, सजीवता और नाट्य-चेतना हमें भारतेंदु युग में दिखाई देती है वैसी द्विवेदी युग में नहीं। इसका एक कारण तो पारसी थियेट्रीकल कम्पनियों की सक्रियता है। इन कम्पनियों का मुख्य उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन करके धनार्जन करना था। इन कम्पनियों का 1853 ई. में अव्यावसायिक स्तर पर और 1867-69 ई. में व्यावसायिक स्तर पर प्रारंभ हो गया था। इन कम्पनियों को नाटकों की साहित्यिकता, युगीन प्रासंगिकता और कलात्मकता से कुछ लेना-देना नहीं था। इन कम्पनियों के लिए और पारसी रंगमंच से प्रभावित होकर नाटक लिखने वालों में नारायणप्रसाद बेताब’, रघुनन्दन प्रसाद शुक्ल, विश्वभंर सहाय व्याकुल’, जनेश्वर प्रसाद ‘मायल’, तुलसीदत्त ‘शैदा’, हरिकृष्ण जौहर’, राधेश्याम कथावाचक आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके नाटकों का कोई साहित्यिक महत्त्व नहीं है। इन्होंने हिंदी नाटक में कुछ जोड़ा नहीं। इनमें से कुछ के नाटक बड़े लोकप्रिय हुए थे। जैसे विश्वंभर सहाय ‘व्याकुल’ का बुद्धदेव, जनेश्वर प्रसाद मायल का सम्राट चन्द्रगुप्त, राधेश्याम कथावाचक का वीर अभिमन्यु आदि।

इन नाटककारों के अतिरिक्त द्विवेदी युग में लगभग तीस नाटककार ऐसे हैं जिन्होंने ‘साहित्यिक’ नाटक लिखे हैं। इन नाटककारों में से बद्रीनाथ भट्ट के ऐतिहासिक नाटक ‘दुर्गावती’ और उनके प्रहसनों, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ के ‘महात्मा ईसा’, माधव शुक्ल के ‘महाभारत’ को विशेष लोकप्रियता प्राप्त हुई। शिवनाथ शर्मा, गंगा प्रसाद श्रीवास्तव, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, विश्वम्भर नाथ शर्मा । ‘कौशिक’, सुदर्शन, प्रेमचन्द आदि ने भी नाटक लिखे, जिनमें से माखनलाल चतुर्वेदी के ‘कृष्णार्जुन युद्ध’ को छोड़कर अन्य किसी नाटक को विशेष सफलता नहीं मिली। इसका कारण पारसी रंगमंच को छोड़कर किसी गंभीर रंगमंच का अभाव होना था। दूसरे, इस युग के साहित्यिक नेता महावीर प्रसार द्विवेदी की नाटक में कोई रुचि नहीं थी। नाटक विधा में उन्नति उस समय हुई जब जयशंकर प्रसाद ने इस विधा में लेखन किया। उन्होंने उत्कृष्ट साहित्यिक नाटकों की रचना की।

उपन्यास

नाटक की तरह, द्विवेदी युग में उपन्यास भी बहुत समृद्ध नहीं है। जिन उपन्यासकारों ने भारतेंदु युग में उपन्यास लिखना प्रारंभ किया था, वही इस युग में भी उपन्यास लिख रहे थे। मेहता लज्जाराम शर्मा, किशोरी लाल गोस्वामी, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, ब्रजनन्दन सहाय, बलदेव प्रसाद मिश्र, मन्नन द्विवेदी, गंगाप्रसाद गुप्त, देवकीनन्दन खत्री, गोपाल राम गहमरी इत्यदि के अनेक उपन्यास द्विवेदी युग में भी प्रकाशित हुए, किंतु प्रवृत्ति की दृष्टि से वे भारतेंदु-युगीन उपन्यास ही हैं।

इन उपन्यासकारों के उपन्यासों ने हिंदी उपन्यास को किसी नई दिशा में नहीं मोड़ा। हिंदी उपन्यास को नई दिशा प्रदान की प्रेमचंद ने, जिनका हिंदी में पहला उपन्यास ‘सेवासदन’ 1918 ई. में प्रकाशित हुआ। यह प्रेमचंद का पहला उपन्यास नहीं था। इससे पूर्व उर्दू में वे कई उपन्यास लिख चुके थे। ‘सेवासदन’ भी हिंदी में प्रकाशित होने से पूर्व उर्दू में ‘बाज़ारे-हुस्न’ के नाम से लिखा जा चुका था। सेवासदन’ ने हिंदी उपन्यास को कोरे मनोरंजक उपन्यासों या कोरे उपदेशात्मक उपन्यासों से अलग करके सामाजिक-राजनैतिक जीवन की समस्याओं को गंभीरतापूर्वक स्वाभाविक लगने वाले कथानकों, यथार्थ प्रतीत होने वाले पात्रों, कलात्मकता और व्यंजना से परिपूर्ण भाषा के माध्यम से व्यक्त करने वाली नई दिशा में मोड़ा। प्रेमचंद की दृष्टि आदर्शवादी थी, किंतु उनकी शक्ति समस्याओं के यथार्थ परिप्रेक्ष्य में थी। ‘सेवासदन’ का महत्त्व वेश्या-समस्या के आदर्शवादी समाधान में नहीं है, अपितु उस समस्या की यथार्थ और विश्वसनीय प्रस्तुति में है। असल में 1918 ई. से पहले का हिंदी उपन्यास, जिसे प्रमचंद-पूर्व उपन्यास’ भी कहते हैं, तैयारी मात्र है। न केवल हिंदी उपन्यास को, अपितु स्वयं प्रेमचंद को भी सेवासदन’ में ही परिपक्वता का एक स्तर प्राप्त होता है।

कहानी

हिंदी में कहानी का जन्म द्विवेदीयुग में ही हुआ। हिंदी साहित्य के विभिन्न इतिहासकारों ने हिंदी की पहली कहानी के रूप में जिन कहानियों की चर्चा की है वे हैं किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इन्दुमती’ (1900 ई.),  माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ (1901 ई.), रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ (1903 ई.), और बंगमहिला की ‘दुलाईवाली’ (1907 ई.)। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखा था – “यदि ‘इन्दुमती किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है तो यही हिंदी की पहली मौलिक कहानी ठहरती हैं।” (पृष्ठ 462) बाद के अनुसंधानों से यह सिद्ध हो गया कि ‘इन्दुमती’ किसी बंगला कहानी की छाया तो नहीं है, किंतु शेक्सपीयर के नाटक ‘द टेम्पेस्ट’ का भारतीयकरण के साथ हिंदी रूपांतर अवश्य है। वह मौलिक कहानी नहीं है और इसीलिए हिंदी की पहली कहानी के रूप में अमान्य है। यही बात ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ के संबंध में भी कही जा सकती है। वह भी फिरदौसी के शाहनामा’ की एक कथा ‘नौशेखाँ का इन्साफ’ पर आधारित है। शुक्ल जी की कहानी ‘ग्यारह वर्ष का समय’ की मौलिकता पर आज तक किसी ने प्रश्न-चिह्न नहीं लगाया है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जिस तर्क के आधार पर इसे हिंदी की पहली कहानी नहीं माना है, उसे स्वीकार करना संभव नहीं है। उन्होंने लिखा है – “यह कहानी (‘ग्यारह वर्ष का समय’) आधुनिकता के लक्षणों से युक्त अवश्य थी और किशोरी लाल जी की पूर्व-प्रकाशित दोनों कहानियों से श्रेष्ठ थी, फिर भी ‘दुलाईवाली में जैसा । निखार है वैसा इसमें नहीं है।’ (हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास, पृ. 244) ‘निखार’ का यह तर्क कोई तर्क नहीं है। इसलिए ‘ग्यारह वर्ष का समय’ को हिंदी की पहली मौलिक कहानी माना जा सकता है।

द्विवेदी युग का पहला दशक हिंदी कहानी में प्रयोग का दशक है। इस दशक में पहली कहानी की रचना करने वाला कोई लेखक कहानीकार के रूप में विकसित नहीं हुआ। किंतु इसी दशक में वृंदावनलाल वर्मा की तीन कहानियाँ-‘राखीबंद भाई’ (1909 ई.), तातार’ (1910 ई.) और ‘एक वीर राजपूत’ (1910 ई.) प्रकाशित हुई और वर्मा जी हिंदी के श्रेष्ठ कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। द्विवेदी युग के दूसरे दशक में आगे कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित होने वाले कई कहानीकारों की पहली-पहली कहानियाँ प्रकाशित हुई।

प्रसाद जी की ‘ग्राम’, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की ‘सुखमय जीवन’, ‘बूद्धू का कांटा’, और उसने कहा था’, राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की ‘कानों में कँगना’, आचार्य चतुरसेन शास्त्री की ‘गृह लक्ष्मी’, प्रेमचंद की ‘सौत’ और ‘पंच परमेश्वर’ कहानियाँ 1910 ई. और 1916 ई. के बीच प्रकाशित हुई। इनके अतिरिक्त जी.पी. श्रीवास्तव, शिवपूजन सहाय, विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक’, रायकृष्णदास, सुदर्शन इत्यदि की प्रांरभिक कहानियाँ भी इसी दशक में प्रकाशित हुईं। इस प्रकार, बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में हिंदी कहानी की पुख्ता नींव पड़ी। प्रेमचंद और प्रसाद इसी दशक में कहानीकार के रूप में उभरकर सामने आए, जिन्होंने हिंदी कहानी को दो विशिष्ट शैलियाँ प्रदान की जिनके आधार पर इनके समकालीन और परवर्ती कहानियों को प्रमचन्द स्कूल’ और ‘प्रसाद स्कूल’ के कहानीकारों के रूप में वर्गीकृत किया जाने लगा।

निबंध

द्विवेदीयुगीन लेखक में वह आत्मीयता, अनौपचारिकता और सजीवता नहीं रह गई, जो भारतेंदु युगीन लेखक में थी। फलत: इस युग में लेख अधिक लिखे गए, निबंध कम। और ‘अधिकतर लेख (भी) ‘बातों के संग्रह के रूप में ही रहते थे, लेखकों के अंत:प्रयास से निकली विचारधारा के रूप में नहीं।’ (रामचन्द्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 466) इसलिए इस युग में जिन्हें सच्चा निबंधकार माना जा सकता है वे दो-चार ही हैं। स्वयं महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अधिकांशत: लेख ही लिखे हैं। इसी प्रकार, इस युग के लेखकों में श्यामसुंदरदास, मिश्र बंधु, स्वामी सत्यदेव परिव्राजक, अयोध्या सिंह उपाध्याय, माधवराव सप्रे, जनार्दनभट्ट, काशीनाथ जायसवाल, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा इत्यादि लेखकार ही हैं, निबंधकार नहीं।

भारतेंदु और द्विवेदी युग की संधि पर विद्यमान सच्चे निबंधकार हैं – बालमुकुन्द गुप्त। निबंधकार के रूप में उनका यश ‘शिवशम्भु के चिठे और खत’ पर आधारित है। इन चिट्ठों और खतों में गुप्तजी ने मुख्यत: अपने समकालीन अंग्रेज़ी शासन और उसकी नीतियों की आकर्षक ढंग से आलोचना की है। इनमें एक ओर तीखा व्यंग्य है तो दूसरी ओर पराधीन देश के नागरिक की पीड़ा। उन्हीं के समकालीन गोविन्दनारायण मिश्र भी कवि और चित्रकार’, ‘षड्ऋतु वर्णन’, ‘आत्माराम की टें-टें’ जैसे गिने-चुने निबंधों के कारण उल्लेखनीय माने जाते हैं, यद्यपि उनकी भाषा ऐसी है जो अच्छे-अच्छों के दाँत खट्टे कर दे। उनकी शब्द-योजना और वाक्य-रचना बाणभट्ट की याद दिलाती है।

वस्तुत: द्विवेदी युग के तीन विशिष्ट निबंधकार हैं – माधवप्रसाद मिश्र, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, और सरदार पूर्ण सिंह। ‘सुदर्शन’ के सम्पादक के रूप में मिश्रजी ने राजनीति, साहित्य, तीर्थस्थानों, पर्व-त्योहारों आदि से संबंधित अनेक लेख लिखे, जिनमें विचारों के नीचे उनका व्यक्तित्व’ दबा रहा है। लेकिन सब मिट्टी हो गया’, श्रीपंचमी’, ‘कुम्भपर्व’, विजयादशमी’, रामलीला’, ‘क्षमा’ जैसे निबंधों में उनका भावक, संवेगात्मक, राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण व्यक्तित्व खूब उभरकर सामने आया है। वे भारतीय संस्कृति, सनातन धर्म, संस्कृत भाषा और साहित्य आदि के प्रति ऐसे प्रतिबद्ध थे कि इनके विरोध में कही गई किसी बात को सहन नहीं कर पाते थे। वे अपने विरोधियों के विरुद्ध बड़े जोश से लिखते थे और उनकी लेखन-शैली में तर्क, आवेश और भावुकता का अद्भुत मिश्रण हो जाता था।

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जितने प्रकाण्ड पण्डित थे उतने ही जीवन्त और सरस व्यक्ति थे। उनका पाण्डित्य. जीवंतता और सरसता उनकी सभी रचनाओं में विद्यमान हैं, लेकिन उनके निबंधों में ये विशेष रूप से परिलक्षित होती हैं। ‘कछुआ धर्म’, ‘मारेसि मोहिं कुठाऊँ’, ‘काशी’, ‘काशी की नींद और काशी के नूपुर’, ‘जय जमुना मैया की’, ‘होली की ठिठोली वा एप्रिल फूल’ जैसे निबंधों में उनके व्यक्तित्व की इन। विशेषताओं के साथ-साथ उनकी प्रगतिशील दृष्टि भी अभिव्यक्त हुई है। हास्य, व्यंग्य और संदर्भ-बहुलता का उपयोग करते हुए अर्थगर्भित वक्रतापूर्ण भाषा-शैली में उन्होंने अपने निबंधों में अपने पाण्डित्य के बल पर रूढियों और अंधविश्वासों पर प्रहार किया है।

अंग्रेजी और पंजाबी में बहुत-कुछ लिखने वाले सरदार पूर्ण सिंह ने हिंदी में केवल छह निबंध लिखे हैं – सच्ची वीरता’, ‘कन्यादान’ (नयनों की गंगा), पवित्रता’, ‘आचरण की सभ्यता’, ‘मजदूरी और प्रेम’ तथा ‘अमेरिका का मस्त जोगी वाल्ट व्हिटमैन’ । अपने इन्हीं निबंधों के कारण वे हिंदी में अमर हैं। उनके इन निबंधों में उनका व्यक्तित्व इतना अधिक व्यक्त हुआ है कि इनके आधार पर उनके व्यक्तित्व की पुनर्रचना की जा सकती है। सरल, भावुक, आदर्शवादी, काव्यमय, किसानों, गड़रियों और साधारण लोगों को हृदय का हार समझने वाले सरदार पूर्ण सिंह ही ऐसे निबंध लिख सकते थे। उनके ये निबंध विशेष मनोदशा को व्यक्त करने वाले हैं। इन निबंधों में निबंधकार कहीं कविता करने लगता है, कहीं विश्लेषण में रत हो जाता है, कहीं कहानी सुनाने लगता है और कहीं रेखाचित्र प्रस्तुत करने लगता है। अंग्रेजी, हिंदी, उर्द, पंजाबी के उद्धरण इन निबंधों में मोतियों की तरह पिरोये हए हैं। भावना के अतिरेक ने भाषा को लाक्षणिक वैचित्र्य, चित्रात्मकता और आलंकारिकता प्रदान की है।

द्विवेदी युग में ही नहीं, अन्य कालों में भी सच्चे निबंधकारों की संख्या नहीं है, क्योंकि अच्छा निबंध लिखने के लिए अत्यंत सम्पन्न और सरल व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है, जो दुर्लभ है।

आलोचना

हिंदी में जिस आलोचना का सूत्रपात भारतेंदु युग में हुआ, द्विवेदी युग में उसका विकास हुआ। आलोचना के क्षेत्र में महावीरप्रसाद द्विवेदी ने एक ओर जहाँ ‘विक्रमांक-चरित् चर्चा’, ‘नैषधचरित् चर्चा’, ‘मेघदूत’ में संस्कृत कवियों का परिचय देकर तो दूसरी ओर कालिदास की निरंकुशता’, ‘हिंदी कालिदास की आलोचना’ आदि में भाषागत दोषों को रेखांकित करके अपना योगदान दिया। उनके इन आलोचनात्मक प्रयासों में मौलिकता का अभाव था। इसीलिए द्विवेदी जी के इन आलोचना-प्रयासों पर टिप्पणी करते हुए शुक्ल जी ने लिखा है – ‘इन पुस्तकों को एक मुहल्ले में फैली बातों से दूसरे मुहल्ले वालों को परिचित कराने के प्रयत्न के रूप में समझना चाहिए, स्वतंत्र समालोचना के रूप में नहीं।’ (हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 485) दरअसल द्विवेदी जी ‘सरस्वती’ के सम्पादन और भाषा के सुधार-परिष्कार में इतने व्यस्त थे कि वे अन्य क्षेत्रों में बहुत मौलिक एवं महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सके। उन्होंने विभिन्न विधाओं की जो रचनाएँ की हैं वे अन्य लेखकों को प्रेरित करने के लिए नमूने के तौर पर की हैं। ‘कवि-कर्त्तव्य’, ‘कवि बनने के लिए सापेक्ष साधन’, ‘कवि और कविता’, ‘कविता’ जैसे सैद्धांतिक लेख भी कवियों को प्रेरित करने के लिए ही लिखे थे। इसलिए आलोचक के रूप में द्विवेदी जी का महत्त्व पथ-प्रदर्शक की दृष्टि से है, गंभीर विवेचन-विश्लेषण करके मूल्यांकन करने वाले आलोचक की दृष्टि से नहीं।

महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी आलोचना को जहाँ तक पहुँचाया, उसे उससे आगे मिश्र बंधुओं ने बढ़ाया। उन्होंने ‘हिंदी नवरत्न’ (1910-11) में नौ प्रतिष्ठित कवियों की आलोचना प्रस्तुत की, जिसमें एक ओर इन कवियों के काव्य को रस, ध्वनि, गुण, अलंकार आदि की दृष्टि से देखा गया था तथा दूसरी ओर कवियों की भाव संवेदना, विचारधारा, जीवनदृष्टि आदि पर भी कहीं-कहीं विचार किया गया था। मिश्रबंध इन दोनों पक्षों को न तो समन्वित कर पाए और न ही गहरे जाकर इनका विश्लेषण कर पाए। उन्होंने कवियों के संबंध में तथ्यात्मक शोध भी की और उनकी परस्पर तुलना करके उन्हें छोटा-बड़ा भी सिद्ध किया। इसी से निर्णयात्मक आलोचना और तुलनात्मक आलोचना का प्रचलन हुआ। मिश्र बंधुओं की आलोचनात्मक उपलब्धि बहुत बड़ी नहीं है, किंतु उनका महत्व इस बात में है कि उन्होंने हिंदी आलोचना को गुण-दोष-दर्शन से आगे बढ़ाकर नयी दिशा में मोड़ा।

उनकी दूसरी पुस्तक ‘मिश्रबंधु विनोद’ (1914, 34 : कुल चार खण्ड) आलोचना की दृष्टि से कम साहित्येतिहास की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है। इस पुस्तक में उन्होंने हिंदी के नये-पुराने लगभग 5000 कवियों का जीवनवृत्त एवं संक्षिप्त काव्य-परिचय प्रस्तुत किया है। यह हिंदी साहित्य का इतिहास नहीं है, लेकिन इतिहास की आधारभूत सामग्री अवश्य प्रस्तुत करता है। अपने साहित्येतिहास के लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इससे बहुत सहायता ली थी।

‘हिंदी नवरत्न’ में मिश्रबंधुओं ने देव को सबसे बड़ा कवि सिद्ध किया और यह सिद्ध करने के लिए बिहारी के काव्य में वे दोष भी दिखाये, जो उसमें हैं नहीं। इससे एक विवाद उठ खड़ा हुआ कि देव बड़े हैं अथवा बिहारी। बिहारी के भक्त पदमसिंह शर्मा’ इसे सह नहीं पाये और उन्होंने बिहारी को देव से ही नहीं अन्य कवियों से भी बड़ा सिद्ध करने के लिए मोर्चा खोल दिया। ‘बिहारी की सतसई’ में उन्होंने संस्कृत, फारसी, उर्दू, हिंदी आदि के पद्यों के साथ तुलना करके बिहारी को बड़ा कवि सिद्ध किया। उनकी आलोचना का अंदाज महफिल में दाद देने वालों का है, किंतु कविता के अभिव्यंजना पक्ष का सक्ष्म विवेचन भी उन्होंने किया है। उनके संबंध में नन्ददुलारे वाजपेयी का यह कहना ठीक है कि ‘ये अभिव्यंजना परीक्षा के आचार्य थे। शब्दगत और अर्थगत बारीकियों तक उनका जैसा अबाध प्रवेश था, हिंदी में किसी दूसरे व्यक्ति का नहीं देखा गया।’ (हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी, विज्ञप्ति, पृ. 8)

देव और बिहारी संबंधी इस विवाद में अपनी पुस्तक देव और बिहारी’ (1920 ई.) के द्वारा कृष्णबिहारी मिश्र ने देव को बिहारी से बड़ा सिद्ध किया। उनकी आलोचना के औज़ार परंपरागत ही हैं, यद्यपि इन्होंने विवेचना की दिशा में बढ़ने का प्रयत्न किया है। यह पुरानी परिपाटी की साहित्य समीक्षा के भीतर अच्छा स्थान पाने के योग्य हैं।’ (रामचन्द्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 487)।

द्विवेदी-युगीन कविता

इस युग में गद्य साहित्य की उपर्युक्त विधाओं के विकास के बावजूद केंद्र में कविता ही है। भारतेंदु युग में कविता की माध्यम भाषा को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ था। यह विवाद एक सीमा तक इस काल में भी बना हुआ है। 1909 ई. में ‘कविता-कलाप’ की भूमिका में द्विवेदी जी ने यह आशा व्यक्त की थी कि बहुत संभव है कि किसी समय हिंदी गद्य और पद्य की भाषा एक ही हो जाये। (पृष्ठ 3) उनकी यह आशा जल्दी ही पूर्ण हो गयी। बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में ही कविता की भाषा के रूप में ब्रजभाषा पिछड़ रही थी, इसका प्रमाण यह है कि इस दशक में ब्रजभाषा की केवल आठ काव्य-पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जब कि खड़ी बोली की सत्तरह। फिर भी द्विवेदी-युग में ब्रजभाषा में लिखी गयी कविता अपना अस्तित्व और महत्व बनाये रही।

ब्रजभाषा की कविता

इस युग में श्रीधर पाठक, रायदेवीप्रसाद ‘पूर्ण’, नाथूराम शंकर शर्मा, गया प्रसाद शुक्ल, ‘सनेही’, लाला भगवानदीन, जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, अयोध्यासिंह उपाध्याय, हरदयालु सिंह , सत्यनारायण कविरत्न आदि ऐसे कवि हैं, जो ब्रजभाषा में कविता लिखते रहे। इनमें से रत्नाकर, कविरत्न और हरदयालु सिंह को छोड़ कर शेष सभी कवि ‘दोरंगी कवि थे, जो ब्रजभाषा में तो भंगार, वीर, भक्ति आदि की पुरानी परिपाटी की कविता कवित्त-सवैया या गेय पदों में करते आते थे और खड़ी बोली में नूतन विषयों को लेकर चलते थे।’ (रामचन्द्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 572) इनमें से ब्रजभाषा के प्रति एकान्त समर्पित जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ और सत्यनारायण कविरत्न ने ब्रजभाषा-काव्य में वैशिष्ट्य प्राप्त किया। रत्नाकर की ब्रजभाषा कविता का चरम उत्कर्ष उद्धव शतक में विद्यमान है। उद्धव शतक का विषय, भाषा और शैली तीनों परंपरागत हैं, फिर भी इसमें ऐसा कुछ है जो ताज़गी का आभास देता है और आज भी आकर्षित करता है। यह ताज़गी गोपियों के परंपरागत रूप से किंचित भिन्न नये रूप में है।

‘सूर की भावुकता और नन्ददास की तार्किकता से अलग रत्नाकर की गोपियों में जो वाग्वैदग्ध्य है, वह समूची भ्रमरगीत-परंपरा में एक नया आयाम जोड़ता है। यह वाग्वैदग्ध्य गोपी-उद्धव-संवाद की एक नयी शैली-भर नहीं है, इससे गोपियों के व्यक्तित्व में एक आत्मविश्वास-भाव के उदय की सूचना मिलती है।’ (रामस्वरूप चतुर्वेदी : हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृष्ठ 121) उद्धव शतक में ऐसे अनेक छंद हैं जिनमें गोपियों की हास्य, व्यंग्य, तर्कशीलता, बौद्धिक प्रखरता, गंभीरता, चुलबुलेपन, तटस्थता, संतुलन इत्यादि की प्रवृत्तियाँ एक साथ मिलती हैं। जैसे, उद्धव के द्वारा उपदेशित प्राणायाम के विरोध में गोपियों का यह कथन –

और हूँ उपाय केते सहज सुढंग ऊधौ,

साँस रोकिबै कौं कहा जोग की कुढंग है।

कुटिल कटारी है, अटारी है उतंग अति,

जमुना तरंग है, तिहारौ सतसंग है।।

रत्नाकर ने दो कवित्त खड़ी बोली में लिखे थे किंतु सत्यनारायण कविरत्न ने अपनी सम्पूर्ण कविता ब्रजभाषा में ही लिखी। केवल कुछ वर्षों (1903 ई.-1918 ई.) के रचनाकाल में ही उन्होंने आधुनिक ब्रजभाषा काव्य पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। इसका कारण उनकी सरलता थी, जिसे उनके ये शब्द प्रमाणित करते हैं –

सदा दारु-योषित सम बेबस आज्ञा मुदित प्रमानै ।

कोरो सत्य ग्राम कौ बासी कहा तकल्लुफ जानै ।।

उनका ‘तकल्लुफ’ न जानना ही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। वे जैसा अनुभव करते थे और जैसी ब्रजभाषा बोलते थे, उसे वैसी की वैसी भाषा में व्यक्त कर देते थे। इसलिए उनकी कविता, चाहे भक्ति भाव की हों, राष्ट्र प्रेम की हों, निजी जीवन की त्रासदी की हों अथवा समसामयिक घटनाओं और व्यक्तियों से संबंधित हो, इतनी सहज और प्रभावशाली बन पड़ी हैं कि कोई उनकी मर्मस्पर्शिता से बच नहीं सकता।

खड़ी बोली की कविता

द्विवेदी युग की हिंदी कविता को सबसे बड़ी देन खड़ी बोली को कविता की माध्यम-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना है। खड़ी बोली में दोरंगी कवियों की कविताओं का महत्व अवश्य है, लेकिन उनसे अधिक महत्त्व उन कवियों की कविताओं का है जो इसी युग की उपज हैं और जिन्होंने खड़ी बोली में कविता लिखी है। ऐसे कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामनरेश त्रिपाठी, सियारामशरण गुप्त, रामचरित उपाध्याय, मुकुटधर पाण्डेय आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ तो अपने आप में ही एक वर्ग हैं।

द्विवेदी जी ने कविता के माध्यम से भी पथ-प्रदर्शक का ही काम किया। उन्होंने अपने युग के कवियों को गद्य के माध्यम से ही नहीं, पद्य के माध्यम से भी नए विषयों को अपनाने की प्रेरणा दी। फलत: हिंदी कविता से रीतिकालीन विषय-संकोच दूर हुआ और कवि तमाम नए विषयों पर कविता लिखने लगे। नए विषयों पर लिखी गई बहुत-सी कविता पद्य से आगे कम ही बढ़ सकी है। इस पद्य में उपदेशात्मकता, इतिवृत्तात्मकता, निबंधात्मकता और वक्तृत्त्व की प्रवृत्तियाँ प्रधान हैं।

द्विवेदी युगीन कविता की मूल प्रवृत्ति राष्ट्रीयता की भावना है, जो अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों में प्रसृत है और जिसे मैथिलीशरण गुप्त ने सूत्र रूप में इस प्रकार व्यक्त किया है –

हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी;

आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।

(भारत-भारती, पृ. 11)

इस युग का कवि जब अपने अतीत की ओर देखता है तो उसे गर्व होता है। वह अनुभव करता है कि भारतवर्ष संसार का सिरमौर है –

हाँ, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है,

ऐसा पुरातनदेश कोई विश्व में क्या और है?

भगवान की भवभूतियों का यह प्रथम भण्डार है,

विधि ने किया नर-सृष्टि का पहले यहीं विस्तार है।

(भारत-भारती, पृ. 12)

अतीत के प्रति यह गर्व की भावना भारतेंदु युग के कवि ने भी अनुभव की थी। द्विवेदी युग में इस भावना में अधिक विशदता, अधिक प्रखरता आयी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि कविगण अतीत के गौरव में ही खोकर रह जाएँ। वे वर्तमान की अधोगति से भी परिचित हैं और उसके कारणों को भी जानते हैं।

अब कमल क्या, जल तक नहीं, सर-मध्य केवल पंक है;

वह राज-राज कुबेर अब हा! रंक का भी रंक है।

(भारत-भारती, पृ. 82)

वर्तमान भारत तो दारिद्र्य, दुर्भिक्षों, व्याधियों, कुसंस्कारों, चरित्रहीनता, अविद्या, अशिक्षा, आडम्बर, . अंधविश्वास, पारस्परिक कलह, अभाव, दासता इत्यादि से भरा हुआ है। इनसे मुक्त होने के लिए आवश्यक है एकजुट होकर बुराइयों को त्यागकर उठ खड़े होना –

उठो त्याग दें द्वेष, एक ही सबके मत हों।

सीख ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल उन्नत हों।

भारत की उन्नति सिद्धि से हम सबका कल्याण है।

दृढ़ समझो इस सिद्धांत को, हम शरीर यह प्राण है।

आधुनिक काल में मध्यकालीन जड़ता से मुक्ति बौद्धिकता के कारण मिली है। द्विवेदी युग में बौद्धिकता की प्रबलता ने भावुकता को दबाया है। इसी बौद्धिकता का परिणाम है कि इस युग का कवि पुरातन अतिमानवीय प्रसंगों की पुनर्व्याख्या करके उन्हें मानवीय संभवनीयता प्रदान करता है, प्राचीन अतिमानवीय चरित्रों को मानवीय रूप प्रदान करता है, परंपरागत आध्यात्मिक मूल्यों पर प्रश्न चिह्न लगाता है, मनुष्य की अमित संभावनाओं को स्वीकार करता है इत्यादि। मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध आदि कवियों के द्वारा चित्रित राम, कृष्ण, सीता, राधा आदि अपनी मध्यकालीनता त्यागकर एक विशेष अर्थ में ‘आधुनिक’ बन गए हैं। द्विवेदी युगीन कवि के द्वारा चित्रित यशोधरा ही, मुक्ति जैसे सबसे बड़े आध्यात्मिक मूल्य पर प्रश्नचिह्न लगा सकती थी और राधा समाज-सेविका बन सकती थी। मैथिलीशरण गुप्त का ‘नहुष’ ही कह सकता है –

मानता हूँ और सब, हार नहीं मानता,

अपनी अगति नहीं आज भी मैं जानता।

आज मेरा भुक्तोज्झित हो गया स्वर्ग भी

लेके दिखा दूंगा कल मैं ही अपवर्ग भी।

(‘नहुष’ काव्य)

क्योंकि मैथिलीशरण गुप्त मानते हैं कि मैं मनुष्यता को सुरक्षा की जननी भी कह सकता हूँ।’ (लक्ष्मण, ‘पंचवटी’) यह मानवतावादी दर्शन द्विवेदी युग की मूल जीवन-दृष्टि है, यद्यपि इस मानवतावाद में पर्याप्त प्रखरता और प्रसार नहीं है। इसलिए वह विरोधी जीवन-दृष्टियों से टकराता नहीं है।

द्विवेदी युगीन बौद्धिकता ने इस काल को इतिवृत्तात्मक और गद्यात्मक बनाया है। सौंदर्य-चित्रण तक में यह प्रवृत्ति विद्यमान है। सौंदर्य चाहे स्त्री का हो, प्रकृति का हो अथवा किसी भाव का हो. कवि कुछ चीजों के नाम गिना देने या कुछ तथ्यों का उल्लेख कर देने में ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझता है। हरिऔध ‘प्रियप्रवास’ में ब्रज की प्रकृति के चित्रण के प्रसंग में जम्बू, अम्ब, कदम्ब, निम्ब, फलसा, जम्बीर, आँवला, लीची, दाडिम, नारियल, इमली, शिंशपा, इंगुदी इत्यादि न जाने कितने नाम गिनाते हैं लेकिन करील को भूल जाते हैं। (नवम् सर्ग, पृ. 100) किंतु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रामनरेश त्रिपाठी, मुकुटधर पाण्डेय जैसे कवि इसके अपवाद भी हैं। उन्होंने स्व-निरीक्षित प्रकृति के सुंदर सजीव चित्र भी अंकित किए हैं।

द्विवेदी युग में गद्यात्मकता कितनी अधिक थी, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि किस प्रकार पद्य को अपनी ओर से एक शब्द जोड़े बिना भी सहज गद्य में बदला जा सकता है। प्रियप्रवास’ का पहला ही छंद है –

दिवस का अवसान समीप था।

गगन था कुछ लोहित हो चला ।

तरु-शिखा पर भी अब राजती।

कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा।।

इसे गद्य-रूप में इस प्रकार पढ़ा जा सकता है – ‘दिवस का अवसान समीप था। गगन कुछ लोहित हो चला था। अब तरुशिखर पर कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रजा राजती थी।’ कविता में इससे ज्यादा गद्यात्मकता और क्या हो सकती है। यह गद्यात्मकता भाषा की नहीं है, अपितु अनुभव की है।

कविता की माध्यम भाषा के रूप में खड़ी बोली द्विवेदी युग में काफी लंगड़ा-लंगड़ा कर चली है। कविता में या गद्य में भी खड़ी बोली की कोई पुष्ट परंपरा न होने के कारण उसका व्याकरणिक रूप भी धीरे-धीरे स्थिर हुआ है और शब्दावली भी। द्विवेदी युगीन कवियों की कविता में व्याकरण संबंधी अनेक त्रुटियाँ मिल जाएंगी। व्याकरणिक व्यवस्था की तरह ही कविता की शब्दावली की समस्या भी इस युग के कवि के सामने है। उसके सामने प्रश्न यह है कि वह संस्कृत के तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग करे अथवा अरबी-फारसी मूल के शब्दों का अधिक प्रयोग करे अथवा बोलचाल में प्रयुक्त शब्दों का अधिक प्रयोग करे? इस दुविधा के सर्वोत्तम उदाहरण हमें ‘हरिऔध’ के काव्य में मिलते हैं। तमाम प्रयोगों के बाद यह पाया गया कि हिंदी की प्रकृति तीसरे विकल्प के अनुकूल है। इसलिए काव्यभाषा का आदर्श रूप मैथिलीशरण गुप्त ने वैसे ही प्रस्तुत किया जैसे गद्य भाषा का आदर्श रूप प्रेमचंद ने प्रस्तुत किया। यह रूप था – 

नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुंदर है।

सूर्यचन्द्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।

नदियाँ प्रेम-प्रवाह सूर्य-तारे मण्डन हैं।

वन्दी विविध विहंग शेषफन सिंहासन है।

करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।

हे मातृभूमि! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।।

(सरस्वती, मार्च 1911 ई.)

द्विवेदी युगीन कवियों ने काव्यभाषा का स्वरूप स्थिर कर आगे चलकर उसे अधिक मधुर, अधिक कलात्मक और अधिक अभिव्यंजनात्मक बनाने का छायावादी कवियों का कार्य सुगम बना दिया।

द्विवेदी युगीन कवियों ने छंदो, अलंकारों, काव्य-रूपों आदि के क्षेत्र में भी नए-नए प्रयोग किए। उन्होंने पुराने छंदों को लोकप्रिय बनाया। हरिगीतिका इसका सुंदर उदाहरण है। संस्कृत के वर्णवृत्तों का पहली और अंतिम बार इतना अधिक प्रयोग हुआ। घनाक्षरी में फेरबदलकर गुप्तजी ने ‘नहष’, ‘सिद्धराज’ आदि में और सियारामशरण गुप्त ने ‘बापू’ में नए छंद निर्मित किए। इस युग के कवियों ने बंगला और उर्दू की लय के आधार पर भी छंद-संबंधी कुछ प्रयोग किए। अलंकारों के क्षेत्र में नए उपमानों को अपनाने की प्रवृत्ति इस युग में शुरू हुई। परंपरागत मुक्तक काव्यरूपों के साथ-साथ नए काव्यरूप इस युग के कवियों ने निर्मित किए।

गीत का मूल ढाँचा इस युग के कवियों के द्वारा निर्मित हुआ। गीतिकाव्य के विभिन्न रूपों का प्रयोग भी इस युग के कवियों ने किया, यद्यपि उन्होंने प्रेरणा बंगला, उर्दू और अंग्रेज़ी काव्य से ली। काव्यरूप के क्षेत्र में इस युग के कवि की सबसे बड़ी देन प्रबंध-काव्य के क्षेत्र में है। प्रियप्रवास’, ‘साकेत’, ‘रामचरित चिन्तामणि’, ‘जयभारत’ जैसी महाकाव्य होने का दावा करने वाली रचनाएँ इसी युग के कवियों की देन हैं। इस युग के कवियों ने खण्ड-काव्य तो इतने अधिक लिखे हैं जितने इनसे पहले या इनके बाद के कवियों ने कभी नहीं लिखे। ये शिल्पगत प्रयोग इस युग की विशेष मनोभूमि का पता देते हैं।

सारांश

यह युग भारतेंदु युगीन प्रवृत्तियों का अधिक विकसित और वैविध्यपूर्ण रूप है। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दो दशकों के स्वाधीनता आंदोलन ने इस युग के साहित्य को एक सीमा तक ही प्रभावित किया है। इसका कारण एक तो साहित्यकार का मध्यवर्गीय चरित्र है, और दूसरे सरस्वती और उसके सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का नियंत्रण और निर्देशन है। एक पत्रिका और एक व्यक्ति ने पूरे युग को किस प्रकार और कितना नियंत्रित किया, इसका उदाहरण द्विवेदी युग के अतिरिक्त दूसरा नहीं है।

इस युग के साहित्यिक आदर्श और जीवन-दृष्टि सामान्यत: द्विवेदी जी की देन है। इस युग में जिन अनेक गद्य-रूपों का विकास हुआ है, उन पर द्विवेदी जी का प्रभाव तो है, लेकिन कविता की अपेक्षा कम, क्योंकि द्विवेदी जी की रुचि जितनी भाषा-निर्माण में थी, उतनी साहित्य-निर्माण में नहीं। साहित्य-निर्माण में भी उनकी जितनी रुचि कविता में थी उतनी गद्य-साहित्य में नहीं। संभवत: इसीलिए गद्य-साहित्य के विकास के बावजूद इस युग में केंद्र में कविता ही है। युग की माँग और द्विवेदी जी के प्रभाव के कारण इस काल में ब्रजभाषा की कविता पिछड़ी और खड़ी बोली की कविता प्रतिष्ठित हुई। इस युग में अंतत: यह निर्णय हो गया कि खड़ी बोली न केवल गद्य का अपितु कविता का भी सशक्त माध्यम हो सकता है। 

प्रश्न/अभ्यास

  1. द्विवेदी युग के प्रमुख निबंधकार कौन-कौन से हैं? उनकी कृतियों का उदाहरण देते हुए चर्चा कीजिए।
  2. महावीर प्रसाद द्विवेदी के साहित्यिक आदर्शों का विवेचन कीजिए।
  3. द्विवेदीयुगीन खड़ी बोली की कविता की प्रवृत्तियों का परिचय दीजिए।
  4. आलोचना के क्षेत्र में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के योगदान की चर्चा कीजिए।

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