मोहन राकेश की नाट्य स्रष्टि

मोहन राकेश ने कुल चार नाटक लिखे हैं जिनमें से चौथा नाटक ‘पैर तले की ज़मीन‘ वे पूरा नहीं कर सके। शेष तीन नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ और ‘आधे-अधूरे’ के माध्यम से लेखक ने क्या कहना चाहा है, इस पर इकाई में विचार किया गया है।

उनके पहले दो नाटकों का कथानक इतिहास आधारित है। आप इससे पूर्व प्रसाद का नाटक ‘स्कंदगुप्त’ भी पढ़ चुके हैं, उसका कथानक भी इतिहास पर आधारित है। मोहन राकेश ने इतिहास को नाटकों का आधार क्यों बनाया और उनके माध्यम से उन्होंने जो कहना चाहा है, क्या उसका संबंध वर्तमान से है? इस इकाई में इस पहलू पर भी विचार किया गया है।

मोहन राकेश के नाटक प्रसाद के नाटकों से काफी अलग हैं। प्रसाद के नाटक अपनी साहित्यिक मूल्यवत्ता के बावजूद रंगमंच पर सफल नहीं थे जबकि राकेश के नाटक दोनों दृष्टियों से सफल थे। उनकी इस सफलता का कारण नाटक और रंगमंच संबंधी उनके सोच में निहित था। इकाई का अध्ययन करने से आप मोहन राकेश के नाटक संबंधी चिंतन से भी परिचित हो सकेंगे।

मोहन राकेश के सभी नाटकों की सैकड़ों प्रस्तुतियाँ प्रख्यात निर्देशिकों द्वारा सफलतापूर्वक की गई है। मोहन राकेश के नाटकों के संदर्भ में नाटक और रंगमंच के अंतःसंबंधों पर भी इकाई में विचार किया जाएगा।

मोहन राकेश के नाटकों में ‘आधे-अधूरे’ का विशिष्ट स्थान है। इसका कथानक इतिहास आधारित नहीं है। इसको लेकर काफी वाद-विवाद भी होता रहा है, इसके बावजूद इसकी श्रेष्ठता और सफलता असंदिग्ध है।  ‘आधे-अधूरे’ के इस महत्व पर भी इकाई में विचार गया जाएगा।

मोहन राकेश का नाटक ‘आधे-अधूरे’ स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के दौर में लिखा गया है। इसका कथानक मध्य वर्ग के जीवन से संबंधित है। एक शहरी मध्यवर्गीय परिवार की कहानी इसमें कही गई है जो धीरे-धीरे टूट रहा है। पुरुष महेंद्रनाथ एक असफल व्यक्ति है और पत्नी सावित्री की नौकरी से ही घर का खर्च चलता है। पति की असफलता और दब्बूपन ने पत्नी के जीवन को रिक्तता से भर दिया है और इससे मुक्ति पाने के लिए वह ऐसे पुरुष की तलाश में है. जो उसे इस खालीपन से आजाद कराए। लेकिन इस नाटक के सभी पात्र आधे-अधूरे हैं और मुक्ति की तलाश के बावजूद वे उसी नियति से बंधे चक्कर लगाते रहते हैं। मध्यवर्ग की इस विडंबना को ही मोहन राकेश ने प्रभावशाली रूप में नाटक में प्रस्तुत किया है।

मोहन राकेश ने अपनी रचनाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों की गहरी पड़ताल की है। यह कोशिश हमें इस नाटक में भी नज़र आती है। नाटक की सफलता रंगमंच पर प्रदर्शन से सिद्ध होती है। इस दृष्टि से मोहन राकेश हिंदी के पहले ऐसे नाटककार हैं जिनके सभी नाटक रंगमंच पर अत्यंत सफलतापूर्वक खेले जाते रहे हैं। मोहन राकेश का नाट्य संबंधी सोच प्रसाद के सोच से भिन्न है। वे नाटक की सफलता उसके रंगमंच पर प्रदर्शन में मानते हैं। मोहन राकेश के नाटकों के इन पक्षों पर इस इकाई में विचार किया गया है। इस इकाई को पढ़ने से पूर्व आप’आधे-अधूरे’ अवश्य पढ़ें। अन्यथा आप इकाई में कही गई बातों को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझ पाएँगे।

मोहन राकेश का नाट्य कर्म

मोहन राकेश असाधारण प्रतिभा के धनी कलाकार थे। उन्होंने गद्य की प्रायः सभी विधाओं में साहित्य सजन किया। लेकिन उन्हें सबसे अधिक ख्याति नाट्य लेखन में मिली। उनके लिखे तीन नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ और ‘आधे-अधूरे अपनी साहित्यिक और रंगमंचीय उत्कर्षता के कारण आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। आधे-अधूरे’ नाटक आधुनिक मध्यवर्गीय जीवन से संबंधित है जबकि ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘लहरों के राजहंस’ ऐतिहासिक कथानकों पर आधारित हैं। उनका चौथा और अंतिम नाटक ‘पैर तले की ज़मीन’ उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ। नेमिचंद्र जैन के अनुसार, ‘इसे वह स्वयं पूरा नहीं कर पाये थे और मृत्यु से पहले केवल पहला अंक और दूसरे का कुछ अंश ही लिखा जा सका था। ये अंश भी कई बार लिखे जाने के बावजूद अभी एक तरह के मसौदे के रूप में ही थे जिनके आधार पर उनके मित्र कमलेश्वर ने नाटक का दूसरा अंक लिखकर उसे प्रकाशित कराया। इस अधूरेपन के बावजूद, पहला अंक अत्यंत संभावनापूर्ण नाटकीय स्थिति को प्रस्तुत करता है।’ (मोहन राकेश के संपूर्ण नाटक, सं0 नेमिचंद्र जैन, राजपाल एंड संस, दिल्ली, पृष्ठ 15, संस्करण 1973)

मोहन राकेश का पहला नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन ‘, 1958 में प्रकाशित हुआ था। तीन महीने के बाद ही उसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ और इसके बाद से कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। यह नाटक अत्यंत लोकप्रिय है। इसकी साहित्यिक उत्कर्षता और रंगमंचीय सफलता ने मोहन राकेश को एक सफल नाटककार के रूप में स्थापित कर दिया। इस नाटक के लिए मोहन राकेश ने संस्कृत के महाकवि और नाटककार कालिदास के जीवन प्रसंगों को आधार बनाया है। कालिदास के बारे में प्रामाणिक रूप से कुछ भी कहना मुश्किल है, लेकिन प्रचलित किवदंतियों को आधार बनाकर जो प्रश्न मोहन राकेश ने उठाया है, उसका संबंध कालिदास और उनके समय से रहा हो या न रहा हो, हमारे समय से काफी गहरा है। राज्याश्रय और रचनाकर्म में परस्पर संबंध हमेशा विवाद का विषय रहा है। इस नाटक की कथावस्तु में लेखक और राज्य के बीच संबंधों से उत्पन्न रचनाकार के द्वंद्व को गहरी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया गया है।

इतिहास के बारे में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए मोहन राकेश ने लिखा था, ‘इतिहास या ऐतिहासिक व्यक्तित्व का आश्रय साहित्य को इतिहास नहीं बना देता। इतिहास तथ्यों का संकलन करता है, उन्हें एक समय तालिका में प्रस्तुत करता है। साहित्य का ऐसा उद्देश्य कभी नहीं रहा। इतिहास के रिक्त कोष्ठों की पूर्ति करना भी साहित्य का उपलब्धि क्षेत्र नहीं है। साहित्य इतिहास के समय से बँधता नहीं, समय में इतिहास का विस्तार करता है, युग से युग को अलग नहीं करता, कई-कई यूगों को एक साथ जोड़ देता है। इतिहास की नाटककार की समझ हमें यही बताती है कि उसके लिए इतिहास अतीत की घटनाओं का संकलन नहीं है बल्कि साहित्य के लिए इतिहास अतीत और वर्तमान को जोड़ने का माध्यम है। मोहन राकेश को कालिदास में इसी संबद्धता के सूत्र दिखाई देते हैं। यही कारण है कि वे इतिहास-व्यक्ति कालिदास की बात नहीं करते बल्कि उस कालिदास की बात करते हैं जो उनकी रचनाओं से बना है। स्वयं लेखक के शब्दों में, ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास का जैसा भी चित्र है, वह उसकी रचनाओं में समाहित उसके व्यक्तित्व से बहुत हटकर नहीं है, हाँ, आधुनिक प्रतीक के निर्वाह की दृष्टि से उसमें थोड़ा परिवर्तन अवश्य किया गया है।

यह इसलिए कि कालिदास मेरे लिए एक व्यक्ति नहीं, हमारी सृजनात्मक शक्तियों का प्रतीक है, नाटक में वह प्रतीक अंतर्द्वद्व को संकेतित करने के लिए है जो किसी भी काल में सजनशील प्रतिभा को आंदोलित करता है। व्यक्ति कालिदास को उस अंतर्द्वद्व में से गुजरना पड़ा या नहीं, यह बात गौण है। मुख्य बात यह है कि हर काल में बहुतों को उसमें से गुजरना पड़ा है। हम भी आज उसमें से गुजर रहे हैं। हो सकता है व्यक्ति कालिदास का यह नाम भी वास्तविक न हो, पर हमारी आज तक की सृजनात्मक प्रतिभा के लिए इससे अच्छा दूसरा नाम, दूसरा संकेत मुझे नहीं मिला।”

इतिहास और इतिहास-चरित्रों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखने की इस समझ को यदि हम ध्यान में नहीं रखेंगे तो मोहन राकेश के ऐतिहासिक कथानकों पर आधारित नाटकों के महत्व को भी नहीं समझ पाएंगे। यह बात सिर्फ मोहन राकेश पर ही लागू नहीं होती, जयशंकर प्रसाद पर भी लागू होती है, जिन्होंने ऐतिहासिक कथानकों को आधार बनाकर नाटक लिखे थे।

मोहन राकेश का दूसरा नाटक ‘लहरों के राजहंस’ का संबंध भी इतिहास से है। भगवान बुद्ध के छोटे भाई नंद के जीवन से संबंधित इस नाटक को उन्होंने अश्वघोष के काव्य ‘सौन्दरनंद’  की कथा के आधार पर निर्मित किया है। स्वयं नाटककार का मानना है कि ‘जो स्वतंत्रता ‘सौन्दरनन्द’ के लेखक ने उपलब्ध तथ्यों से आगे जाने में ली, वही स्वतंत्रता यदि आज का लेखक सौन्दरनन्द के तथ्यों से आगे जाने में लेता है, तो ‘पुराणसर्वस्व’ व्यक्तियों को चौंकना नहीं चाहिए।’ इतिहास को नाट्य वस्तु का आधार बनाते हुए भी अपनी बात कहने के लिए उससे बंधे रहने की अनिवार्यता मोहन राकेश नहीं स्वीकार करते। वे ‘लहरों के राजहंस’ की प्रेरणा को स्पष्ट करते हए लिखते हैं, यहाँ नन्द और सुंदरी की कथा एक आश्रय-मात्र है, क्योंकि मुझे लगा कि इसे समय में परिक्षेपित किया जा सकता है। नाटक का मूल अंतर्द्वद्व उस अर्थ में यहाँ भी आधुनिक है जिस अर्थ में ‘आषाढ़ का एक दिन’ के अंतर्गत है।’

मोहन राकेश के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि उन्होंने ‘लहरों के राजहंस’ की रचना भी इतिहास की पुनर्रचना करने के लिए नहीं की बल्कि इसकी रचना के पीछे भी प्रेरणा आधुनिक है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में राजसत्ता और रचनाकार का अंतर्द्वद्व है तो इस नाटक में जीवन के प्रति राग और विराग का। ऐतिहासिक कथानकों के माध्यम से इन सवालों को रखने के पीछे लेखक का उद्देश्य संभवतः यह रहा है कि वह यह बता सके कि इन सवालों से प्रत्येक युग का रचनाधर्मी और संवेदनशील व्यक्ति जूझता है। इनसे जूझे बिना कुछ भी सार्थक नहीं रचा जा सकता।

‘लहरों के राजहंस’ रंगमंच पर उतना सफल नहीं रहा जितना कि ‘आषाढ़ का एक दिन ‘। लेकिन इस नाटक को भी पर्याप्त प्रसिद्धी मिली और इसको लेकर साहित्यिक हलकों और रंगकर्मियों और रंगप्रेमियों के बीच व्यापक चर्चा हुई।

मोहन राकेश का तीसरा नाटक ‘आधे-अधूरे’ का कथानक इतिहास पर आधारित नहीं है। इसमें उन्होंने समकालीन यथार्थ पर आधारित कथावस्तु को ही लिया है। एक मध्यवर्गीय शहरी परिवार की कहानी इसमें कही गई है। अपने पहले के दो नाटकों की तरह इस नाटक में भी मध्यवर्गीय जीवन के माध्यम से मोहन राकेश ने स्त्री-पुरुष संबंधों में आते बदलाव को दर्शाया है। प्रसिद्ध रंग निर्देशक इब्राहीम अलकाजी ने ‘आधे-अधूरे’ पर टिप्पणी करते हए लिखा था, ‘यह नाटक मध्यवर्गीय जीवन की शुष्क, विनाशकारी रिक्तता का प्रखर दस्तावेज़ है और विकृत मूल्यों, भ्रांतियों एवं दोगली नैतिकता का निर्मम अनावरण, जो उस रिक्तता के कारण है।’

मोहन राकेश का चौथा और अधुरा नाटक ‘पैर तले की ज़मीन’ का कथानक भी समकालीन यथार्थ से संबंधित है। राकेश ने यदि अपने पहले दो नाटक ऐतिहासिक कथानक पर लिखे तो शेष दोनों नाटकों का संबंध आधुनिक सामाजिक यथार्थ से है। कई अर्थों में उनका अंतिम नाटक पहले के नाटकों से भिन्न है। पहले के तीनों नाटकों में लेखक ने स्त्री-पुरुष संबंधों के माध्यम से अपनी बात कही थी लेकिन अपने चौथे नाटक में चरित्रों में वैसा कोई संबंध नहीं है। वे संयोग से एकत्र हुए हैं और मृत्यु के आसन्न संकट से उत्पन्न स्थितियाँ ही इस नाटक की कथावस्तु का आधार है। रंगकर्मी प्रतिभा अग्रवाल ने नाटक पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, ‘ ‘पैर तले की ज़मीन’ भी आधुनिक जीवन की विसंगति, अवसाद एवं घुटन को लेकर लिखा गया नाटक है। इस नाटक की मूल प्रवृत्ति अस्तित्ववादी है, परिवेश घर से बाहर कश्मीर में एक टूरिस्ट क्लब है। पात्र सब अलग-अलग हैं तथापि नियति ने उस एक दिन के लिए उन्हें एक स्थल पर ला रखा है और अचानक भयंकर बाढ़ के कारण ट्ररिस्ट क्लब को शहर से जोड़ने वाला पुल टूटने लगता है और उनक सम्पर्क बाहर की दुनिया से कट जाता है। आसन्न मृत्यू की छाया में उन पात्रों की परिवर्तित मनोवृत्ति का बड़ा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एव चित्रण राकेश ने किया है। कुछेक घंटों बाद बाढ़ के पानी के कम होने की सूचना मिलती है, टेलीफोन की घंटी बज उठती है, जीवन के बचने का आश्वासन मिलता है, सब पुनः पहले की मनःस्थिति को प्राप्त होते हैं।’

मोहन राकेश का कुल नाट्य कर्म यही है, लेकिन उनके तीनों पूर्ण नाटक हिंदी में ही नहीं भारतीय नाटकों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। आगे के भागों में नाटक और रंगमंच संबंधी मोहन राकेश की दृष्टि को समझने और उसका विवेचन करने का प्रयत्न करेंगे।

मोहन राकेश का नाट्य चिंतन

एक नाटककार के लिए मंच की सीमाओं का परिज्ञान आवश्यक है। मोहन राकेश को मंच की सीमाओं का गहरा ज्ञान था। वे मंच और दर्शकों को दृष्टि में रखकर नाटक लिखते थे। लेकिन मंच और दर्शक के लिए वे नाटक का स्तर नहीं गिराते थे। साहित्यिक स्तर और रंगमंच – दोनों के सार्थक समन्वय के वे पक्षधर थे। पारसी रंगमंच स्तरीय न होने कारण उन्हें अनुकूल नहीं लगा और प्रसाद का जटिल रंगमंच भी उनकी मान्यता के विपरीत था। पारसी रंगमंच के संबंध में मोहन राकेश लिखते हैं – “हिंदी रंगमंच ने उन पारसी कम्पनियों की हीन और गली-सड़ी विरासत लेकर जन्म लिया, जो स्वयं घटिया दर्जे के यूनानी रंगमंच से प्रेरणा लेकर पनपी थीं।  हिंदी में कविरत्न पं० राधेश्याम कथावाचक की कृतियाँ ही इस रंगमंच के अनुकूल बन सकीं। इससे अधिक की शायद आशा भी नहीं की जा सकती थी।’ (मोहन राकेश : साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि, पृष्ठ 98-99)।

प्रसाद के संबंध में राकेश का मत है – ‘प्रसाद जी ने पारसी कम्पनियों की परम्परा से तो नाता तोड़ा, पर न उन्होंने भारतेंदु की परम्परा को आगे ले जाने का प्रयत्न किया और न ही रंगमंच की किसी नयी परम्परा का संकेत दिया। यद्यपि उनका विचार था कि परिष्कृत बुद्धि के अभिनेता हों, सुरुचि – सम्पन्न सामाजिक हों और पर्याप्त द्रव्य काम में लाया जाये तो उनके नाटक अभिनीत होकर अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं, पर उनके नाटकों के शिल्प को देखते हुए उनसे सहमत होना असंभव प्रतीत होता है।

प्रसाद जी का रंगमंच के साथ संपर्क नहीं रहा,शायद इसीलिए वे रंगमंच की सीमाओं से परिचित नहीं हो सके” (साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि, पृष्ठ 100) भारतेंदु की रंग-दृष्टि हिंदी रंगमंच को विकास की ओर ले जा सकती थी। राकेश लिखते हैं – “भारतेंद के मौलिक नाटकों में रंगमंच के संबंध में उनकी स्पष्ट दृष्टि का परिचय अवश्य मिलता है। लोकरुचि और परम्परा, दोनों को मान्यता देते हुए उन्होंने संस्कृत नाटक के रंगशिल्प को नये साँचे में ढालने का प्रयत्न किया। भारतेंदु की पात्र-कल्पना तथा उनके दृश्य-संयोजन का जनसाधारण में नाटक की स्थापना करने की इच्छा को व्यक्त करते हैं। भारतेंदु की दृष्टि को आगे विकसित किया जाता तो अब तक हिंदी रंगमंच का एक निश्चित रूप हमारे सामने आ गया होता।’

नाटक के लिए रंगमंच का महत्व स्वीकार करते हुए राकेश लिखते हैं – “लिखा गया नाटक एक हड्डियों के ढाँचे की तरह है जिसे रंगमंच का वातावरण ही मासंलता प्रदान करता है। उनके अनुसार सही रंगमंच की खोज के लिए आवश्यक है – ‘अपने जीवन और परिवेश की गहरी पहचान-आज के अपने घात-प्रतिघातों की रंगमंचीय संभावनाओं पर दृष्टिपात। यह खोज ही हमें वास्तविक नये प्रयोगें की दिशा में ले जा सकती है और उस रंग-शिल्प को आकार दे सकती है जिससे हम स्वयं अब तक परिचित नहीं हैं।’ हिंदी रंगमंच की विपन्न स्थिति को देखते हुए राकेश सहज मंच के हिमायती है – “तकनीकी रूप से समृद्ध और संश्लिष्ट रंगमंच भी अपने में विकास की एक दिशा है, परंतु उस से हटकर एक दूसरी दिशा भी है और मुझे लगता है कि हमारे प्रयोगशील रंगमंच की वही दिशा हो सकती है। वह दिशा रंगमंच के शब्द और मानवपक्ष को समृद्ध बनाने की है – अर्थात् न्यूनतम उपकरणों के साथ संश्लिष्ट से संश्लिष्ट प्रयोग कर सकने की| यहीं रंगमंच में शब्दकार का स्थान महत्वपूर्ण हो उठता है।।’ अन्यत्र और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं – ‘हमारी अपेक्षा न्यूनतम तकनीकी उपादानों के आश्रय से रंगमंच के विकास की है, और उसके लिए विशिष्ट तकनीकी सुविधाओं से सम्पन्न प्रदर्शन-गृहों की अपेक्षा और निर्भरता से हमें, जहाँ तक बन पड़े, अपने को मुक्त करना होगा। उन परिस्थितियों से हम सब परिचित हैं, जिनके कारण हमारे यहाँ अच्छे से अच्छे नाट्य प्रयोगों के तीन-तीन, चार-चार से अधिक प्रदर्शन नहीं हो पाते। और इतना भी संभव बनाने के लिए आयोजकों को कितना श्रम करना पड़ता है और कितनी आर्थिक क्षति झेलनी पड़ती है, यह सब हमसे छिपा नहीं है।’

मोहन राकेश नाट्य रचना में उपयुक्त भाषा पर विशेष बल देते हैं – ‘शब्द मूलतः ध्वनि तथा लय ध्वनि का धर्म होने से किसी भी तरह के शब्द प्रयोग की सार्थकता उसके लय – नियोजन पर निर्भर करती है। यह लय-नियोजन अपने से ही कई-कई बिम्बों तथा मिथकों के संसर्ग मन में जगाकर शब्दों के व्याकरण-विश्लेषित अर्थ से परे बहुत-से अनिर्वचनीय तथा विश्लेषणातीत अर्थों की अनुगूंज मन में पैदा कर सकता है। इस लय-नियोजन के नाटकीय प्रयोग की संभावनाएँ असीमित हैं। एक नाटक के अंतर्गत साधारण से साधारण ढंग से बोले गये शब्दों के तो अपने अर्थ-संसर्ग रहते ही हैं, उन अर्थ-संसगों में किसी विशेष लय के संयोग से बहुत चामत्कारिक प्रभाव पैदा करने वाले दूसरे-दूसरे अर्थ संसर्ग भी लाये जा सकते हैं।’ एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं – ‘आज के रंगमंच के लिए उपयुक्त शब्द प्रस्तुत करने में समकालीन नाटककार बहुत हद तक असफल रहा है। रंगमंच को किसी भी तरह की चकाचौंध का पर्याय बना देना, उसके अंतर्हित तर्क को ही पराजित करना है। शब्द, अभिनेता, और इन दोनों का संयोजन करने वाले निर्देशक के अतिरिक्त और कुछ ऐसा नहीं है जो नाटकीय रंगमंच की अनिवार्य शर्त हो। पर इससे शब्द का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। … मैं सिनेमाई अभिनय की तुलना में रंगमंचीय अभिनय में अभिनेता की उन्मुक्तता को भी बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ, परंतु यह उन्मुक्तता तभी सार्थक है, जब वह उस संयम के अंतर्गत हो, जो शब्द का है।”

मोहन राकेश रंगमंच और नाटक को सिनेमा और रेडियो से अधिका प्राणवान् मानते हैं। वे लिखते हैं – “सिनेमा और रेडियो के विशिष्ट और विकसित शिल्प के बावजूद उनकी अपनी सीमाएँ हैं। रेडियो नाटक मात्र ध्वनि की सीमाओं में आबद्ध है श्रोता को अपने लिए अपनी कल्पना से चित्रों के निर्माण का आयास करना पड़ता है। तीसरे आयाम का अभाव सिनेमा नाटक की सीमा है, जिसके कारण पर्दे पर दिखाई देने वाली रंगीन या कृष्ण-श्वेत छायाकृतियाँ अयथार्थ के भ्रम को नहीं मिटा पातीं। सिनेमा में तीसरे आयाम का विस्तार हो जाने पर भी कैमरे की आँख से देखे गये चरित्र जीते-जागते इंसानों का स्थान न ले पायेंगे, इसलिए रंगमंच की संभावनाएँ असंदिग्ध हैं। रंगमंचीय नाटकों में बढ़ती हुई लोकरुचि इस बात का प्रमाण है। दूसरे, समाज के सभी क्षेत्रों और वर्गों के लोगों में अभिनय की रुचि वर्तमान रहती है। सिनेमा और रेडियो सबकी अभिनय-रुचि की परितृप्ति का साधन नहीं बन सकते, उनके लिए रंगमंच ही एक मात्र साधन है। रंगमंच सिनेमा और रेडियो के लिए अच्छे चरित्रों के चयन का केंद्र भी बन सकता है।”

मोहन राकेश नाटककार, रंग-निर्देशक तथा अभिनेता के सहयोगी प्रयास को रंगमंच के विकास के लिए आवश्यक मानते हैं – ‘हमारी रंग-अवधारणा को विशेष रूप से मानवीय पक्ष पर ही निर्भर रहकर चलना होगा। अर्थात नाटककार, रंग-निर्देशक तथा अभिनेता, इन तीनों के सहयोगी प्रयास को ही प्रमुखता देकर कल की संभावनाओं की खोज करनी होगी।” मोहन राकेश नाटककार और निर्देशक के बीच उपयुक्त तालमेल के पक्षधर हैं। वे नहीं चाहते कि निर्देशक नाटक के साथ मनमानी करे, या नाटककार ज्यों-का-त्यों नाटक मंचित करने का आग्रह करे। वे लिखते हैं – ‘रंगमंच की पूरी प्रयोग – प्रक्रिया में नाटककार केवल एक अभ्यागत, सम्मानित दर्शक या बाहर की इकाई बना रहे, यह स्थिति मुझे स्वीकार्य नहीं लगती। न ही यह कि नाटककार की प्रयोगशीलता उसकी अपनी अलग चारदीवारी तक सीमित रहे और क्रियात्मक रंगमंच की प्रयोगशीलता उससे दूर अपनी अलग चार दीवारी तक। इन दोनों को एक धरातल पर लाने के लिए अपेक्षित है कि नाटककार पूरी रंग-प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग बन सके। साथ ही यह भी कि वह उस प्रक्रिया को अपनी प्रयोगशीलता के ही अगले चरण के रूप में देख सके।’

नाटककार और निर्देशक के बीच सही सामंजस्य होना चाहिए। नाटक का रंगमंच पर खरा उतरना आवश्यक है। मोहन राकेश लिखते हैं – ‘बहुत बार ऐसा होता है कि अपेक्षाओं के अनुसार नाटकों की रचना की जाती है, पर कई बार ऐसा भी होता है कि एक नाटक के लिए विशेष रंगमंच का संयोजन किया जाता है। परंतु दोनों ही स्थितियों में नाटककार के सामने रंगमंच के रूप -विधान का स्पष्ट होना आवश्यक है। तथाकथित साहित्यिक नाटक साहित्यकृति होते हुए भी नाटक नहीं होता। विचार और भावपूर्ण गुम्फित भाषा नाटकीयता की कसौटी नहीं है। संवादों और घटनाओं को दृश्यों और अंकों में बाँट देना ही पर्याप्त नहीं, नाटककार के लिए यह आवश्यक है कि वह जो कुछ लिखता है उसे आँख मूंदकर अपनी कल्पना के रंगमंच पर घटित होते हुए भी देखे। लिखा हुआ नाटक अपने में पूर्ण कृति नहीं होती। रंगमंच की पृष्ठभूमि और पात्रों का अभिनय उसे पूर्णता प्रदान करते हैं। एक कृति के रूप में नाटक तभी सफलता प्राप्त कर सकता है जबकि उसमें रंगमंच पर अभिनीत होने की संभावनाएँ निहित हों।’

मोहन राकेश हिदी रंगमंच के विकास और दर्शकों की कमी पर भी विचार करते हैं। उनका मानना है – “हिंदी का वास्तविक रंगमंच राजकीय आयोजनों से नहीं, समर्थ नाटककारों और अभिनेताओं तथा निर्देशकों के हाथों विकसित होगा। यदि नाटक जीवन के द्वंद्वों का चित्रण करेगा तो रंगमंच को भी जीवन की परिस्थितियों के अनुकूल ढलना होगा। हिंदी रंगमंच को हिंदी भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक पूर्तियों और आकांक्षाओं का प्रतीक बनना होगा।’ दर्शकों के विषय में उनका कहना है – ‘दर्शक-वर्ग में गंभीर रंगमंच के संस्कार न होना अपने में कोई बहुत बड़ा तर्क नहीं है, क्योंकि यह संस्कार धीरे-धीरे चाहे विकसित हो, अपने आप विकसित नहीं होगा। उसके लिए जैसे-तैसे यह संभव बनाना ही होगा कि हमारे रंग-प्रयोग एक विस्तृत दर्शक समुदाय तक पहुँच सकें।’ इस प्रकार मोहन राकेश का नाट्य चिंतन, नाटक और रंगमंच के व्यापक स्वरूप को अपने में समाहित किये हुए है।

नाटक और रंगमंच के अंतःसंबंधों में संगति

नाटक रंगमंचीय विधा है। नाटक की सही परीक्षा रंगमंच पर होती है। नाटक को हम सुनते भी हैं और देखते भी हैं। नाटक जब मंचित होता है तो उसमें केवल पात्र ही नहीं बोलते – पूरा मंच बोलता है – मंच सज्जा, रूप सज्जा, वेशभूषा सभी बोलते हैं। यहाँ तक कि पात्र का पूरा शरीर बोलता है। अतः जिस नाटक में जितनी ही अधिक मंचीय संभावनाएँ होती हैं, वह नाटक उतना ही अधिक सफल होता है। रंगमंच सजीव और साकार कला माध्यम है। रंगमंच का तात्पर्य केवल रंगस्थली या रंग – मंडप से नहीं है। इसकी परिधि में रंगशाला, नाटक, पात्र, वेश-भूषा, अभिनय, मंचीय उपकरण आदि सभी आ जाते हैं। रंगमंच ऐसा दृश्य और श्रव्य माध्यम है, जिसमें सभी ललित कलाएँ समन्वित हो जाती हैं। भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में लिखा है कि ऐसा कोई भी ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला, योग या कर्म नहीं है जो नाट्य में न हों।

रंगमंच का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। इसकी ओर शिक्षित और अशिक्षित, सभी आकृष्ट होते हैं। सामूहिक कला होने के कारण रंगमंच से दर्शकों में भावात्मक एकता स्थापित होती है। इससे दर्शकों का मनोरंजन तो होता ही है, साथ ही यह उनको अपनी सांस्कृतिक परम्परा से भी जोड़ता है, और उनके मानस को परिष्कृत करता है। इससे समाज में मानवीय मूल्यों की स्थापना होती है। रंगमंच कथ्य को व्यापकता के साथ अभिव्यक्त करता है और इसका प्रभाव भी दर्शकों पर गहरा पड़ता है, क्योंकि यह गतिशील कार्य व्यापार से युक्त है। यह दर्शकों को सीधे कलाकृति से जोड़ता है।

नाटक और रंगमंच का संबंध अन्योन्याश्रित है। बिना रंगमंच के नाटक अपूर्ण है और बिना नाटक के रंगमंच। जो नाटककार रंगमंच की सीमाओं को जानता है और उनको दृष्टि में रखकर नाटक लिखता है, उसके नाटक प्रायः अधिक सार्थक और मंच के अनुकूल होते हैं। वैसे तो पर्याप्त साधन और मंचीय उपकरण उपलब्ध होने पर जटिल और गंभीर नाटक भी मंचित कर लिए जाते हैं, पर उनसे रंगमंच का व्यापक विकास नहीं हो पाता। हिंदी का रंगमंच अभी अधिक समृद्ध नहीं है अतः इसके लिए सहज अभिनेय नाटक ही उपयुक्त है। मोहन राकेश के सभी नाटक, रंगमंचीय सीमाओं को दृष्टि में रखकर लिखे गये हैं। मोहन राकेश नाट्य लेखन को बड़ी गंभीरता से लेते थे और हर नाटक पर पर्याप्त श्रम करते थे। उन्होंने रंगनिर्देशक के साथ मिलकर अपने नाटकों में रंगमंचीय अपेक्षाओं के अनुसार सुधार भी किया।

मोहन राकेश के तीनों ही नाटक एक मंचबन्ध में संयोजित हैं। ‘आषाढ़ का एक दिन’ का कथ्य तीन अंकों में विभक्त है और तीनों ही अंक एक-एक दृश्य के हैं। अंकों का ‘सेट’ मल्लिका के घर का कमरा है। मंच सज्जा यथार्थवादी है, लेकिन एक बार ‘सेट’ लगा देने के बाद फिर उसे हटाना नहीं पड़ता। इसी तरह ‘लहरों के राजहंस’ नाटक भी तीन अंकों का है – सभी अंक एक-एक दृश्य के हैं। पूरा नाटक सुंदरी के कक्ष में ही चलता है। मंच सज्जा इसमें भी यथार्थवादी है। मंच पर रखी गयी, पुरुष और नारी मूर्ति प्रतीकात्मक है – दायीं और शिखर पर पुरुष-मूर्ति, बाहें फैली हुई तो आँखें आकाश की ओर उठी हुई। बायीं और शिखर पर नारीमूर्ति, बाहें संवलित तथा आँखें धरती की ओर झुकी हुई। ‘आधे-अधूरे’ नाटक का कथ्य दो भागों में विभक्त हैं, दोनों भाग एक दृश्यीय हैं। दोनों भागों के मध्य, छोटा-सा ‘अंतराल-विकल्प ‘ है। मंच-बंध एक है – सावित्री के घर का एक कमरा। इस नाटक की मंच सज्जा भी यथार्थवादी है।

मोहन राकेश ने अपने तीनों नाटकों में, मंच सज्जा, वेश-भूषा और अभिनय के पर्याप्त निर्देश दिये हैं। ‘आधे-अधूरे’ में अभिनय से संबंधित निर्देश काफी विस्तृत हैं। एक संश्लिष्ट निर्देश का स्वरूप इस प्रकार है – ‘हल्के अभिवादन के रूप में सिर हिलाता है, जिसके साथ ही उसकी आकति धीरे-धीरे धुंधलाकर अँधेरे में गम हो जाती है। उसके बाद कमरे के अलग-अलग कोने एक-एक करके आलोकित होते हैं और एक आलोक व्यवस्था में मिल जाते हैं। कमरा खाली है। तिपाई पर खुला हुआ हाई स्कूल का बैग पड़ा है जिसमें से आधी कापियाँ और किताबें बाहर बिखरी हैं। सोफे पर दो-एक पुराने मैगज़ीन, एक कैंची और कुछ कटी-अधकटी तस्वीरें रखी हैं। एक कुरसी की पीठ पर उतरा हुआ पाजामा झूल रहा है। स्त्री कई-कुछ सँभाले बाहर से आती है। कई-कुछ में कुछ घर का है, कुछ दफ्तर का, कुछ अपना। चेहरे पर दिन-भर के काम की थकान है और इतनी चीज़ों के साथ चलकर आने की उलझन। आकर सामान कुरसी पर रखती हुई वह पूरे कमरे पर एक नज़र डाल लेती है।’ मोहन राकेश के नाटकों में दिये गये रंगसंकेत, नाटककार की रंगमंच में गहरी पैठ के परिचायक हैं।

मोहन राकेश ने अपने नाटकों में संकलन-त्रय पर भी ध्यान रखा है। वे स्थान, काल और समय का पूरा ध्यान रखते हैं। ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक में अंकों के बीच कुछ वर्षों का अंतराल है। ‘लहरों के राजहंस’ नाटक की पूरी कथा चौबीस घंटे की अवधि में संयोजित है। इसी प्रकार ‘आधे-अधूरे’ नाटक के बीच का अंतराल भी एक दिन का ही है। नाटक के स्थान में तो वे कोई परिवर्तन करते ही नहीं। प्रत्येक नाटक एक स्थान में ही घटित होता है।

मोहन राकेश नाटक के वस्तु संयोजन में भी बड़े कुशल हैं। वे वस्तु को बड़े स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक ढंग से संयोजित करते हैं। वस्तु अपने पूरे कार्य व्यापार के साथ आगे बढ़ती है। कहीं-कहीं वे पात्र के प्रवेश के पूर्व ही उसकी भाव-भूमि निर्मित कर देते हैं, इससे कथ्य सहज ही गतिशील हो जाता है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास के प्रवेश के पूर्व ही अम्बिका और मल्लिका के वार्तालाप द्वारा, कालिदास के मनोभाव और स्थिति को स्पष्ट कर दिया जाता है। इसके साथ ही कहीं-कहीं पात्र के अचानक प्रवेश द्वारा कौतूहल की सृष्टि की गयी है। मोहन राकेश विचार को, प्रायः संवेदना से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं, इससे नाटक में नीरसता नहीं आने पाती। कहीं-कहीं रोचक प्रसंगों की भी अवतारणा की गयी है, पर थे प्रसंग मूल कथा से पूरी तरह जुड़े हैं। जैसे ‘आषाढ़ का एक दिन’ में अनुस्वार और अनुनासिक का कार्यव्यापार।

रंगमंचीय भाषा, शब्द की संगति और लय-ध्वनि पर भी राकेश पूरा ध्यान रखते हैं। रंगमंचीय भाषा की दृष्टि से ‘आधे-अधूरे’ नाटक की भाषा एक मानक है। सहज, स्वाभाविक और गतिशील भाषा का प्रयोग इस नाटक में किया गया है। एक उदाहरण देखिए – ‘तुम्हारा घर है तुम बेहतर जानती हो। कम-से-कम मानकर यही चलती हो। इसीलिए बहुत कुछ चाहते हुए भी मुझे अब कुछ भी संभव नजर नहीं आता। और इसीलिए फिर एक बार पूछना चाहता हूँ तुमसे – क्या सचमुच किसी तरह तुम उस आदमी को छुटकारा नहीं दे सकती?’

मोहन राकेश की दृष्टि नाटक लिखने में पूरे रंग-तंत्र पर रहती है। इस संदर्भ में जीवन प्रकाश जोशी का एक कथन उल्लेख्य है – ‘राकेश का दृश्य-विधान, रंगमंचीय साज-सज्जा, मनोभावों के अभिव्यक्ति सूचक स्थिति संकेत, वाद्य-वादन, स्वर-संचरण, कथोपकथन, व्यावहारिक अथवा परिस्थितिजन्य प्रकट अंतर्द्वद्व, भाषा-शैली, चरित्र-घटना की एक आंतरिक अन्विति, अवांतर घटनाओं की संयोजना और सुष्ठ अभिव्यक्ति, इस नाटककार के नाटकों को, अधिकतर अनौपचारिक अतः आस्वाद्य योग्य बनाये रखती है।’ मोहन राकेश वस्तु और शिल्प-दोनों स्तर .पर रंगमंच से संगति स्थापित करते हैं। उन्होंने अपने नाटकों में परम्परा और आधुनिकता का बड़ा सुंदर समन्वय किया है। एक ओर परिमार्जित भाषा है तो दूसरी ओर रंगमंचीय भाषा की व्यापक भूमि। कहना न होगा कि मोहन राकेश तीन नाटक लिखकर, जो कार्य कर गये. वह दर्जनों नाटक लिखने के बाद भी दूसरे नाटककार नहीं कर सके। मोहन राकेश के नाट्य लेखन के पीछे उनकी अनवरत साधना, रंगमंच के प्रति उनकी अटूट निष्ठा और कला के प्रति दायित्वबोध की महत्वपूर्ण भूमिका है।

मोहन राकेश और ‘आधे-अधूरे

मोहन राकेश के नाटकों पर टिप्पणी करते हुए प्रख्यात नाट्य आलोचक नेमिचंद्र जैन ने कहा है, “हिंदी नाटक के क्षितिज पर मोहन राकेश का उदय उस समय हुआ जब स्वाधीनता के बाद पचास के दशक में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का ज्वार देश में, जीवन के हर क्षेत्र को स्पन्दित कर रहा था। उनके नाटकों ने न सिर्फ हिंदी नाटक का आस्वाद, तेवर और स्तर ही बदल दिया, बल्कि हिंदी रंगमंच की दिशा को भी प्रभावित किया।’ मोहन राकेश से पहले भी हिंदी में कई नाटककार हुए जिन्होंने हिंदी में नाटक-लेखन की परंपरा को समृद्ध किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर मोहन राकेश तक की अवधि के बीच जयशंकर प्रसाद, लक्ष्मीनारायण मिश्र, उपेंद्रनाथ अश्क, जगदीशचंद्र माथुर, लक्ष्मीनारायण लाल आदि कई नाटककार हुए। लेकिन भारतेंदु के नाटक ‘अंधेर नगरी’ को छोड़कर कोई भी नाटक ऐसा नहीं था जिसे प्रदर्शन की दृष्टि से भी कामयाब कहा जा सके। जयशंकर प्रसाद (जिनके नाटक ‘स्कंदगुप्त’ का आपने अध्ययन किया है) के नाटकों की साहित्यिक उत्कृष्टता और रचनात्मक मौलिकता को सभी ने स्वीकार किया, लेकिन उनके नाटक मंच पर प्रस्तुति की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण ही बने रहे। नाटककार यह मानते रहे कि उनके नाटक साहित्यिक कृति के रूप में उत्कृष्ट हों, भले ही रंगमंच पर उनको उतनी सफलता न मिले।

परिणाम यह हुआ कि हिंदी रंगमंच का अपना स्वतंत्र विकास अवरुद्ध बना रहा या हिंदी में नाटक खेले भी गए तो वे अनूदित नाटक थे। रंगमंच के संबंधों की इस दूरी को पाटने का काम मोहन राकेश के नाटकों ने किया। जैसा कि इसी इकाई में हम मोहन राकेश के कथन को उद्धृत कर चुके हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘लिखा गया नाटक हड्डियों के ढाँचे की तरह है जिसे रंगमंच का वातावरण ही मासंलता प्रदान करता है।

मोहन राकेश की यह दृष्टि प्रसाद की दृष्टि से पूर्णतः अलग थी। प्रसाद का तो मानना था कि, ‘रंगमंच की बाध्य-बाधकता का जब हम विचार करते हैं, तो उसके इतिहास से यह प्रकट होता है कि काव्यों के अनुसार प्राचीन रंगमंच विकसित हुए और रंगमंचों की नियमानुकूलता मानने के लिए काव्य बाधित नहीं हुए। अर्थात् रंगमंचों को ही काव्य के अनुसार अपना विस्तार करना पड़ा और यह प्रत्येक काल में माना जाएगा कि काव्यों के अथवा नाटकों के लिए ही रंगमंच होते हैं। प्रसाद के इस सोच ने ही उनके नाटकों को मंच के लिए लगभग अनुपयोगी बना दिया।

प्रसाद के बाद के दौर में लिखे गए नाटकों में रंगमंच से इतना अलगाव तो नहीं दिखाई दिया, लेकिन उनमें से ज्यादातर नाटक कथ्य और अभिनेयता दोनों दृष्टियों से साधारण ही साबित हुए। नाटक के माध्यम से अपने समय और समाज के ऐसे प्रश्नों को भी प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसकी प्रस्तुति समय और समाज की सीमाओं को तोड़ती भी हो। ‘आषाढ़ का एक दिन ‘ हिंदी का ऐसा ही पहला नाटक था। उस समय के हिंदी नाटक के परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए नेमिचंद्र जैन लिखते हैं ‘हिंदी नाटक की इस यात्रा में ‘आषाढ़ का एक दिन’ कई प्रकार से एक महत्वपूर्ण पड़ाव तो है ही, इस दौर के नाटक-लेखन की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में गिनने योग्य भी है। एक प्रकार से उपेन्द्रनाथ अश्क और जगदीशचंद्र माथुर ने, विशेषकर जगदीशचंद्र माथुर ने, नाटक में सहज स्वाभाविकत और नाटकीयता के, यथार्थपरकता और काव्यात्मकता के, जिस मिश्रण का सूत्रपात किया, उसकी महत्वपूर्ण परिणति ‘आषाढ़ का एक दिन’ में हुई है।’

‘आषाढ़ का एक दिन’ की अपार सफलता ने मोहन राकेश को एक नाटककार के रूप में भी व्यापक-प्रतिष्ठा मिली। इसके बाद के उनके दोनों नाटकों ने उनको प्रसादोत्तर काल का निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ नाटककार बना दिया। हालांकि बाद के दोनों नाटकों को ‘आषाढ़ का एक दिन’ की तुलना में कमजोर माना गया। इस दृष्टि से उनका तीसरा नाटक ‘आधे-अधूरे’ ज्यादा विवादास्पद रहा। जैसा कि इब्राहीम अलकाजी ने लिखा था, ‘यह रचना तेज़ वाद-विवाद का बायस बनी। जहाँ एक ओर समीक्षकों ने इसे आधुनिक भारतीय रंगमंच में एक अन्यतम कृति और हिंदी नाटक में पहली गंभीर उपलब्धि माना, वहीं दूसरी ओर कलात्मक दृष्टि से असार्थक लेखन कहकर इस पर प्रहार भी किया गया जो मध्यवर्ग का ऐसा एकतरफा विरूपित चित्रण करता है, जिसकी कोई सामाजिक प्रासंगिकता नहीं।” सत्यदेव दुबे ने नाटक के सफल रंग-प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए लिखा था, ‘इस नाटक ने इस मिथक को ध्वस्त कर दिया कि हिंदी नाटककार समकालीन स्थितियों और हमारे जीवन से जुड़े हुए चरित्रों को लेकर नाटक नहीं लिख सकता। ‘आधे-अधूरे’ साहित्य और रंगमंच दोनों पर खरा उतरा।

आज तक भारत में कहीं भी हिंदी में प्रस्तुत होने वाले नाटकों में यह सबसे सफल है।’ इस बात को स्वीकार करते हुए भी नेमिचंद्र जैन का मानना है कि ”आधे अधूरे’ कोई बड़ा विक्षोभकारी सर्जनात्मक अनुभव नहीं प्रस्तुत करता| आज के हमारे समाज में बहस्तरीय पारिवारिक या स्त्रीपुरुष संबंधों की कोई गहरी या सूक्ष्म पहचान भी उससे नहीं मिलती। बल्कि शायद हिंदी रचनाजगत की संपूर्ण सर्जनात्मक चेतना के संदर्भ में ‘आधे-अधूरे’ की विषय-वस्तु और उसके कलात्मक विस्तार में, एक ओर, घिसे-पिटेपन का, और दूसरी ओर, पश्चिमी समाज के सामाजिक संबंधों के साँचों की सतही पुनरावृत्ति का आभास होता है। उस तरह की ताज़गी का एहसास नहीं होता जैसा ‘आषाढ़ का एक दिन’ में हुआ था।’

मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ की जिस ताज़गी की बात नेमिचंद्र जैन ने की है, उसका संबंध नाटक के कथ्य और संरचना दोनों से है। लेकिन बाद के नाटकों में कई समीक्षकों को यह प्रतीत होने लगा कि मोहन राकेश उसी कहानी को दोहरा रहे हैं जिसे वे ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कह चुके हैं यद्यपि संदर्भ तीनों नाटकों में अलग-अलग हैं। इस एकरूपता और एकरसता को ही व्याख्यायित करते हए नेमिचंद्र जैन ने लिखा था, ‘उनके तीनों नाटकों की विषयवस्तु पुरुष पात्र से जुड़ी है, पर हर नाटक का केंद्रीय चरित्र स्त्री बन जाती है। चाहे वे कालिदास-मल्लिका हों, नंद-सुंदरी हों, चाहे सावित्री-महेंद्रनाथ। तीनों नाटकों में गलत स्त्री ही होती है। पुरुष उसे छोड़कर चले जाने के लिए मजबूर दिखाई पड़ता है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास और ‘लहरों के राजहंस’ में नंद एकबार वापस लौटकर दोबारा जाते हैं। आधे-अधूरे’ में महेंद्रनाथ लौटता तो है, पर फिर जाता नहीं, वहीं रहने को मजबूर है। न जाने क्यों राकेश अपने नाटकों में स्त्री-पुरुषों के बीच चरम साक्षात्कार कराने से कतराते हैं।

उनके सभी पुरुष पात्र स्त्री से खीझकर, निराश होकर, या अन्य किसी कारण से, खिसक जाने वाले भगोड़े हैं। वे अपने संबंधों की नियति का सामना करन से बचते हैं। ऐसा लगता है कि एक ही अनुभव छोटे-छोटे परिवर्तन के साथ बार-बार दोहराया जा रहा है। उसमें ताज़गी, या आयाम अथवा स्तर की नवीनता, बहुत ही कम है। महेंद्रनाथ और जुनेजा के साथ सावित्री के बहुत से संवादों में ‘लहरों के राजहंस’ के नये रूप में नंद और सुंदरी के बीच अंतिम संवादों की बहुत ज्यादा अनुगूंज है।”

इन सारी सीमाओं के बावजूद ‘आधे-अधूरे’ नाटक का प्रदर्शन अत्यंत सफल रहा बल्कि कई समीक्षकों की दृष्टि में यह हिंदी का पहला सफलतम नाटक था। इसमें सातवें दशक में शहरी मध्यवर्गीय पारिवारिक और सामाजिक जीवन का जो यथार्थ प्रस्तुत किया गया था, वह उन दर्शकों के जीवन और मन के बहुत नज़दीक था और कहीं-न-कहीं इस नाटक ने उनके अपने अनुभव संसार को पुनर्सजित कर दिया था। लेकिन यह सृजन उस मध्यवर्ग की अपनी भाषा और अपने मुहावरे में था। यह एक बड़ी उपलब्धि थी और इसी ने इसे सफल और सार्थक नाटक बनाया।

सारांश

मोहन राकेश ‘नयी कहानी’ आंदोलन से जुड़े रचनाकार थे। कहानियों और उपन्यासों के अलावा आपने नाटक भी लिखे। हिंदी नाटक परंपरा में मोहन राकेश के नाटकों का विशिष्ट स्थान है। मोहन राकेश ने कुल चार नाटक लिखे। ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’, ‘आधे-अधूरे’ और ‘पैर तले की ज़मीन’। ‘पैर तले की ज़मीन’ उनका आखरी नाटक था, जिसे वे पूरा नहीं कर सके। ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘लहरों के राजहंस’ इतिहास आधारित नाटक हैं जबकि शेष दोनों नाटकों की कथा समकालीन यथार्थ पर आधारित हैं। इन सभी नाटकों में उठाई गई समस्याओं का संबंध वर्तमान समय से है।

मोहन राकेश का मानना था कि नाटक की सफलता और सार्थकता उसके रंगमंच पर प्रदर्शन से ही आंकी जा सकती है। इस दृष्टि के कारण उनके नाटक रंगमंच पर प्रदर्शन के सर्वथा अनुकूल थे। उनके सभी नाटकों को मंच पर सफलतापूर्वक प्रदर्शित किया जाता रहा है। इस दृष्टि से ‘आधे-अधूरे’ का विशिष्ट स्थान है। ‘आधे-अधूरे’ में शहरी मध्यवर्ग के विघटित होते परिवार की कहानी कही गई है। व्यवसाय में असफल पति, जीवन के अधूरेपन से त्रस्त पत्नी और पति-पत्नी के तनाव और झगड़ों के बीच भविष्य के प्रति निराश बच्चों के पारस्परिक द्वंद्व की कहानी ‘आधे-अधूरे’ में है। ‘आधे-अधूरे’ एक विवादास्पद रचना भी रही है, लेकिन रंगमंच पर इसकी अभूतपूर्व सफलता ने इसको श्रेष्ठ नाट्यकृति के रूप में स्थापित कर दिया है। 

अभ्यास

  1. मोहन राकेश के नाट्य संबंधी विचारों की समीक्षा प्रस्तुत कीजिए।
  2. मोहन राकेश के नाटकों का परिचय देते हुए उनके महत्व और प्रासंगिकता का उल्लेख कीजिए।
  3. हिंदी नाटक परंपरा में ‘आधे-अधूरे’ का स्थान निर्धारित कीजिए।

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