सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में अंधेर नगरी’

पिछली इकाई में आपने भारतेंदु के नाटककार व्यक्तित्व, उनको मिली विभिन्न नाट्य परंपराओं, भारतेंदु की नाट्य संबंधी सोच, भारतेंदु द्वारा रचित विभिन्न नाटकों और एक नाट्य रचना के रूप में अंधेर नगरी के बारे में जाना। प्रस्तुत इकाई में आप सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में अंधेर नगरी का अध्ययन करेंगे।

अंधेर नगरी में व्यक्त सामाजिक यथार्थ का संबंध स्वयं भारतेंदु के समय से है, यद्यपि उसकी प्रस्तुति सामंती व्यवस्था के ढाँचे में हुई है लेकिन यह ढाँचा सिर्फ बाहरी है। नाटक की अंतर्वस्तु का गहरा संबंध भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय की भारत की विशिष्ट परिस्थितियों से है। वह समय कैसा था और उसकी अभिव्यक्ति नाटक में किस रूप में हुई है, इसकी चर्चा आप इस इकाई में पढ़ेंगे। साथ ही अंधेर नगरी में व्यक्त यथार्थ के स्वरूप पर भी इकाई के प्रकाश डाला जाएगा ताकि आप उसकी पहचान कर सकें।

अंधेर नगरी सिर्फ नाटक ही नहीं है, वह एक राजनीतिक नाटक भी है। इस दृष्टि से भी नाटक पर इस इकाई में विचार किया गया है और यह जाँचने की कोशिश की गई है कि नाटक में व्यक्त राजनीतिक दृष्टि की विशेषता क्या है। अंधेर नगरी का व्यंग्य बड़ा तीक्ष्ण है और उसमें यथार्थ में निहित विडम्बना का मार्मिक चित्रण भी हुआ है। नाटक को व्यंग्य और विडंबना की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में भी विवेचित करने का प्रयास इकाई में किया गया है ताकि नाटक की आंतरिक शक्ति को पहचाना जा सके।

पहली इकाई में हमनें भारतेंदु हरिश्चंद्र की नाट्य दृष्टि उनके नाटकों तथा अंधेर नगरी की रचना के बारे में अध्ययन किया था। आपने पढ़ा था कि जब भारतेंदु ने नाटक लिखना शुरू किया था, तब हिंदी में नाटकों की कोई परंपरा मौजूद नहीं थी। कहना चाहिए कि हिंदी में नाटकों की शुरूआत का श्रेय भारतेंदु को ही जाता है। भारतेंदु को नाटक की परंपरा तीन क्षेत्रों से प्राप्त हुई पश्चिमी नाट्य परंपरा, संस्कृत नाट्य परंपरा और लोक नाट्य परंपरा। इस नाटक पर हम इन तीनों का प्रभाव देख सकते हैं। अंधेर नगरी की रचना भारतेंदु ने क्यों की और उसकी प्रासंगिकता क्या है, इस पर भी पहली इकाई में विचार किया गया है। एक सौ से अधिक साल पहले लिखे जाने के बावजूद भी यह नाटक आज भी उतना ही लोकप्रिय है।

इस खंड की तीसरी इकाई में अंधेर नगरी के नाट्यशिल्प की विशेषताओं, उसके रूप विधान, उसकी भाषा और उस की बुनावट, उसके रंगमंचीय लचीलेपन और रंगमंच पर होने वाले विभिन्न प्रयोगों का अध्ययन करेंगे। लेकिन इनको पढ़ने से पहले आपके लिए यह जानना आवश्यक है कि भारतेंदु युग की सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियाँ क्या थी? उस युग की सांस्कृतिक आवश्यकताएँ क्या थी और उस परिप्रेक्ष्य में अंधेर नगरी में व्यक्त यथार्थ क्या है? अंधेर नगरी में व्यक्त राजनीतिक दृष्टि कहाँ तक वर्तमान संदर्भो और विश्वजनीन स्थितियों का संकेत करती है? अंधेर नगरी नाटक तत्कालीन विसंगतियों का इतना तीखा चित्रण करता है कि वह मूलतः व्यंग्य और विडंबना का नाटक लगने लगता है। इन सारी बातों को समझने पर ही आप नाटक का समकालीन संदर्भो में विश्लेषण और मूल्यांकन कर सकेंगे। इन व्यंजनाओं और संभावनाओं को जानने पर ही आप आगे इस नाटक के शिल्प, भाषा, रंगमंचीय सौंदर्य की गहनता को, उनके संयोजन और सांकेतिकता को समझ सकेंगे।

भारतेंदु युगीन समय

भारतेंदु का जन्म सन् 1850 में हुआ था। जब वे सात साल के थे, तभी देश में अंग्रेजों के विरूद्ध पहला स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया था। सन् 1885 में भारतेन्दु का देहांत हो गया। यह वही साल है जब कांग्रेस की स्थापना हुई थी और जिसके नेतृत्व में देश ने सन् 1947 में आजादी प्राप्त की थी। भारतेंदु का समय इन्हीं दो ऐतिहासिक घटनाओं के बीच का समय है। हिंदी साहित्य के इतिहास में भारतेंदु युग के नाम से यही काल जाना जाता है। 1857 का संग्राम यद्यपि देशी सामंतशाही के नेतृत्व में लड़ा गया । था, लेकिन इसमें भारत की, विशेष रूप से उत्तर भारत की किसान जनता ने भी सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था। 1857 का विद्रोह असफल रहा। लेकिन देश की बागडोर ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से निकलकर सीधे ब्रिटेन की महारानी और वहाँ की संसद के हाथ में आ गई थी। अंग्रेजों के आगमन से भारत में राजसत्ता का स्वरूप बदलने लगा। यद्यपि देश अब भी छोटी-बड़ी रियासतों में बँटा था, लेकिन देश की केंद्रीकृत सत्ता पर अंग्रेजों का वचर्व बढ़ता जा रहा था। देश के कई हिस्से सीधे अंग्रेजों के अधीन थे, तो कई ऐसे सामंतों के अधीन जिन्होंने अंग्रेजों के शासन के मातहत रहना स्वीकार कर लिया था।

अंग्रेजों ने ऊपर से नीचे तक राजसत्ता के ढाँचे को बदलना शुरू कर दिया था। स्थानीय स्तर पर जमींदारी प्रथा का विस्तार हुआ, जिसने किसानों की दशा को पहले से अधिक दयनीय बना दिया। यह जमींदारी प्रथा किसानों को ऐसी पैदावार के लिए मजबूर कर रही थी, जिनसे देशी जमींदारों और विदेशी शासकों को लाभ था, लेकिन जिसकी वजह से किसानों का शोषण और उत्पीड़न बेतहाशा बढ़ गया था। इसके साथ ही अंग्रेजों ने इंगलैंड में बने माल की बिक्री सुनिश्चित करने के लिए, देशी उद्योगों को नष्ट करना शुरू कर दिया। कई बड़े औद्योगिक केंद्र जो मुगल काल में विकसित हुए थे, अंग्रेजों के राज में धीरे-धीरे नष्ट होने लगे। दूसरी ओर, यूरोप इंगलैंड में उद्योगीकरण की जो प्रक्रिया आरंभ हुई थी, उसका असर भारत पर भी पड़ा। एक ओर भारत से कच्चा माल एकत्र करने और उसे भारत से बाहर ले जाने की जरूरत थी, तो दूसरी ओर इंगलैंड और यूरोप का बना माल भारत के विभिन्न हिस्सों तक पहुँचाने की।

यही कारण था कि भारत में अंग्रेजों ने रेल यातायात की शुरुआत की। रेल सिर्फ एक नये तरह के परिवहन का साधन ही नहीं थी, बल्कि उसने आधुनिकीकरण और औद्योगिकीरण की प्रक्रिया को भी गति प्रदान की। कार्ल मार्क्स ने इस संबंध में अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा था कि रेलवे का प्रादुर्भाव भारत में आधुनिक उद्योगों के आगमन का पूर्वसूचक है।’ उन्नीसवीं सदी के मध्य में नील, चाय, काफी के क्षेत्र में कई उद्योग स्थापित हुए। 1850 और 1855 के बीच सूती कपड़ों के कारखाने, जूट की मिलें और कोयला खानों की स्थापना हुई। 1879 में भारत में 56 सूती कपड़ा मिलें स्थापित हो चुकी थी। 1882 में जूट की 20 मिलें लग चुकी थीं और 1880 में 56 कोयला खदानें काम कर रही थीं।

इसी दौर में उस आधुनिक शिक्षा का प्रसार हुआ जिसने राष्ट्रव्यापी और सुधारवादी आंदोलनों पर गहरा असर डाला। भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रसार ब्रिटिश सरकार ने अपनी राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक जरूरतों के चलते किया। मैकाले जैसे अंग्रेज शासकों का विचार था कि अंग्रेजी शिक्षा के द्वारा भारतीयों को पूरी तरह पश्चिमी सभ्यता में रंगा जा सकेगा और उन्हें सदा के लिए राजभक्त बनाया जा सकेगा। लेकिन अंग्रेज शासकों की यह इच्छा एक सीमा तक ही पूरी हुई। इस शिक्षा ने एक हद तक भारतीयों को पश्चिमी सभ्यता के विकृत रूप में रंगा, उन्हें अंग्रेजों जैसा बनने की प्रेरणा भी। दी। लेकिन यह शिक्षा धर्म निरपेक्ष, उदारवादी और ब्रिटिश शासन से पहले की शिक्षा पद्धति के विपरीत जाति और धर्म का ख्याल किये बिना सर्वसुलभ थी। शिक्षा के प्रभाव को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध समाजशास्त्री ए.आर.देसाई लिखते हैं, ‘भारतीय राष्ट्रवाद ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप लिया।

उस वक्त तक देश में एक शिक्षित वर्ग तैयार हो गया था और भारतीय उद्योगों के उदय के साथ ही भारतीय औद्योगिक बुर्जुआजी का भी जन्म हो चुका था। इन्हीं वर्गों ने राष्ट्रीय आंदोलन का संगठन किया और अपनी विरोधी पताका में निम्नांकित नारे लिखे, सरकारी नौकरियों का भारतीयकरण, भारतीय उद्योगों के लए सुरक्षा, वित्तीय स्वायत्तता आदि। आर्थिक और अन्य क्षेत्रों में ब्रिटिश और भारतीय हितों के संघर्ष के कारण यह आंदोलन शुरू हुआ।

इस आधुनिक शिक्षा ने उस बुद्धिजीवी वर्ग को पैदा किया जिसने राष्ट्रीय मुक्ति और समाज सुधार आंदोलन में न केवल महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वरन् उसका नेतृत्व भी किया। उन्होंने, ‘राष्ट्रीयता और जनतंत्र की भावनाओं से ओतप्रोत संपन्न प्रादेशिक साहित्य और संस्कृति की सृष्टि की। इसके बीच से महान वैज्ञानिक, कवि, इतिहासकार, समाजशास्त्री, साहित्यिक, दार्शनिक और अर्थशास्त्री उत्पन्न हुए। प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग ने आधुनिक पाश्चात्य जनतांत्रिक संस्कृति का स्वांगीकरण किया और नवजात भारतीय राष्ट्र की जटिल समस्याओं को समझा। भारतेंदु हरिश्चंद्र इसी प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।

बुद्धिजीवी वर्ग ने अपने विचारों को लोगों तक पहुँचाने के लिए कई तरीकों का इस्तेमाल किया। उन्होंने कई राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठन बनाए, समाचारपत्र और पत्रिकाओं का प्रकाशन किया और उनके माध्यम से लोगों में नई चेतना और नये विचारों का प्रचार-प्रसार किया। स्वयं भारतेंदु ने कई पत्रिकाओं का प्रकाशन किया और अपने समकालीन लेखकों को पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन और उनमें लिखने के लिए प्रेरित किया।

19वीं सदी में जो नया समाज बन रहा था, उसकी जरूरतें वही नहीं थीं, जो उससे पहले के समाज की थीं। इन नयी आवश्यकताओं की पहचान उस नये बौद्धिक वर्ग ने की जो उस दौर में उभर रहा था। उसने समाज में से पुरानी रूढ़ियों, मान्यताओं और आचरणों को समाप्त करने के लिए अनथक प्रयास किया। क्योंकि उनका विश्वास था कि इसके बिना राष्ट्र की उन्नति असंभव है। समाज सुधार के बारे में प्रबुद्ध वर्ग का दृष्टिकोण उदार, विवेकशील और लोकतांत्रिक भावनाओं पर आधारित था। जैसे उन्होंने वर्ण व्यवस्था और जातिवाद का विरोध किया। स्त्री की हीन-दशा से जुड़ी प्रथाओं को समाप्त कराने का संघर्ष किया जिनमें सती प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह, बालिका वध आदि शामिल हैं। उन्होंने स्त्री-शिक्षा, विधवा विवाह आदि का समर्थन ही नहीं किया वरन् इसके लिए संस्थाएँ भी स्थापित की।

1857 के संघर्ष की असफलता ने सामंती शासन की पुनः स्थापना का विकल्प हमेशा के लिए खत्म कर दिया था। लेकिन इसी दौर में परिस्थितियाँ नये ढंग से सामने आ रही थीं जिसने 1870 के बाद नये राजनीतिक उभार को जन्म दिया और जिसकी परिणति 1885 में कांग्रेस की स्थापना में हुई। इस दौर की उस विशेष स्थिति पर रोशनी डालते हुए ए.आर.देसाई लिखते हैं, ‘1857 के विद्रोह के परवर्ती काल में किसानों का असंतोष लगातार बढ़ गया क्योंकि ब्रिटिश शासन में वे अधिकाधिक विपन्न होते गये थे। भू-राजस्व और लगान के बढ़ते हुए बोझ का उन पर बड़ा बुरा असर पड़ा था। 1870 तक हस्तशिल्प और कारीगर उद्योग पूरी तरह खत्म हो गए थे जिसके चलते कृषि संकुलता बढ़ी। 1870 के कृषि संकट के फलस्वरूप किसानों की स्थिति और भी बुरी हुई और उनमें ऋणग्रस्तता बढ़ी। 1867 और 1880 के बीच कई अनर्थकारी दुर्भिक्ष पड़े।

दूसरे अफगान युद्ध के वित्तीय बोझ और 1877 के असंयत, अतिव्यापी, भव्य और चमत्कारिक दिल्ली दरबार जिसमें विक्टोरिया को भारत साम्राज्ञी घोषित किया गया, के कारण लोगों का असंतोष और रोष बढ़ा ही, खासकर इसलिए कि यह दुर्भिक्ष और । भुखमरी का जमाना था। फिर 1878 के वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट जो भारतीय प्रेस की स्वतंत्रता पर रोक लगाने के निमित्त पारित किया गया था, और 1879 के इंडियन प्रेस और आर्स एक्ट के कारण लोगों के असंतोष की ज्वाला प्रज्वलित हुई। इन्हीं परिस्थितियों के बीच भारतेंदु और उनके समय के दूसरे लेखक लिख रहे थे। राष्ट्रीय असंतोष की जिस भावना को इस दौर में डब्ल्यू.सी.बनर्जी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, आर.सी.दत्त, दादा भाई नौरोजी, जस्टिस रानाडे, गोपालकृष्ण गोखले आदि व्यक्त कर रहे थे, उसी असंतोष को अपने ढंग से भारतेंदु युग के लेखक भी व्यक्त कर रहे थे और अंधेर नगरी की रचना इन्हीं परिस्थितियों में इसी असंतोष की अभिव्यक्ति के लिए हुई थी।

जैसा कि हमने कहा है, भारतेंदु युगीन समय में ध्यान देने योग्य बात है एक ओर भारतीय किसानों और सिपाहियों का राष्ट्रीय विद्रोह और दूसरी ओर राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म। राष्ट्रीय विद्रोह का स्वर क्रांतिकारी है और राष्ट्रीय कांग्रेस का सुधारवादी। इसलिए विचारणीय है कि भारतेंदु के साहित्य में कौन सा स्वर प्रमुख है? क्या वह 1857 के राष्ट्रीय विद्रोह की चेतना का विकास है या 1885 की काग्रेस की सुधारवादी चेतना के अधिक निकट है? वस्तुत: भारतेंदु युग का संबंध इस द्वंद्वात्मक चेतना से है जब भीतर ही भीतर बहुत तेजी से नवीन मौलिक दृष्टि राजनीतिक क्रांति के रूप में मुखर हो रही थी जिसे हम भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी में सीधे देख सकते हैं। भारतेंदु ने अपने प्रहसनों में इस साम्राज्यवादी व्यवस्था को बड़ी निर्ममता से उघाड़ा है। भारतेंदु ने अपने पारिवारिक संस्कारों से निरंतर संर्घष करते हुए रूढ़िग्रस्त देशवासियों को साम्राज्यवाद के विरुद्ध जगाने का साहसिक कार्य किया। अंग्रेजी राज में सुख, समृद्धि, शक्ति एवं व्यवस्था का उन्होंने खूब मजाक उड़ाया। तत्कालीन परिस्थितियों में भारतेंदु ने साहित्य और जनता को निकट लाने का गंभीर दायित्व निभाया। अंग्रेज राज की दमनकारी व्यवस्था में उनके पास मिथक और प्रहसन ही एक रास्ता था, अंधेर नगरी से यह प्रमाणित हो जाता है। भारतेंदु युग में जो तीखा प्रहसनात्मक व्यंग्य , अपने समय के प्रति गहरी आलोचनात्मक समझ और वैचारिक संर्घष पनप रहा था उसी में भविष्य के बीज मौजूद हैं। सत्ता और व्यवस्था के परिवर्तन की आकांक्षा और जनसामान्य के शोषण का विरोध उनके नाटकों में व्यक्त हुआ।

‘अंधेर नगरी’ में व्यक्त यथार्थ

अंधेर नगरी में कोई बहुत बड़ा या गंभीर कथानक नहीं है। जो है भी वह एक दृष्टान्त की तरह सामने आया है। महन्त अपने शिष्यों गोवर्धनदास और नारायण दास को लोभी वृत्ति से बचे रहने का उपदेश देकर सुंदर नगर में भेजता है। गोवर्धन शहर के रंग ढंग से बहुत प्रभावित हेता है। वह उसी नगर में रहना चाहता है, लेकिन महंत उसे सावधान करते हैं। लेकिन वह नहीं मानता। गोवर्धन उस बाजार के आकर्षण में आनन्द-विभोर हो जाता है जहाँ हर चीज टके सेर बिकती है। वह उसी नगर में रहने लगता है और मिठाई व दूसरी चीजों का भरपूर उपभोग करता है। वहां के राजदरबार में एक मुकदमा आता है। मुकदमे का विस्तृत वर्णन उस राज्य व्यवस्था की न्याय प्रक्रिया का असली चेहरा सामने ला देता है। दिवार गिरने से बकरी की मौत का मुकदमा गोवर्धन दास को फांसी देने के फैसले पर खत्म होता है। गोवर्धन का बकरी की मौत से दू-दूर तक संबंध नहीं है। लेकिन जिस व्यक्ति को फांसी दी जानी है, उसका गला फांसी के फंदे के नाप का नहीं है और न्याय की मांग है कि अपराध की सजा तो दी ही जानी चाहिए इसलिए खा-खाकर मुटियाया हुआ गोवर्धन पकड़ लिया जाता है। अपने को निरपराध पकड़े जाने पर गोवर्धन को अपने गुरु की याद आती है। वह उनका स्मरण करता है। महंत वहां पहुंचते हैं, जहाँ गोवर्धन को फाँसी चढ़ाई जानी है। दोनों इस बात पर लड़ने लगते हैं कि फाँसी पर वह. चढ़ेगा। राजा उनके झगड़े को समझ नहीं पाता और जानना चाहता है कि वे क्यों लड़ रहे हैं। तब महंत बताता है कि, ‘इस समय ऐसी साइत है कि जो मरेगा सीधा वैकुंठ जाएगा। इस बात पर सभी फाँसी चढ़ने के लिए उतावले होने लगते हैं। लेकिन वैकुंठ जाने के लालच में राजा स्वयं को फाँसी पर चढ़ाए जाने का आदेश देता है। अंधेर नगरी के इस अतिरंजित या अयथार्थ लगने वाले कथानक में मौजूद व्यंग्य को दर्शक शीघ्र ही पहचानने लगते हैं। अंधेर नगरी की संपूर्ण कथा को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं। पहले भाग में अंधेर नगरी का चित्रण। दूसरे भाग में मुकदमे की कार्रवाई और तीसरे भाग में गोवर्धन को फाँसी चढाए जाने का दृश्य। अंधेर नगरी में व्यक्त यथार्थ को समझने के लिए हमें इन तीनों पर विचार करना होगा क्योंकि इसी प्रक्रिया में हम अंधेर नगरी की अंधी अव्यवस्था का वास्तविक अर्थ समझ सकते हैं।

अंधेर नगरी समसामयिक संदर्भो का जीवन्त नाटक है। कुछ रचनाएँ अपनी प्रासंगिकता हमेशा सिद्ध करती रहती हैं। बदलते परिवेश और बदलती परिस्थितियों में उनके नये-नये अर्थ उद्घाटित होते रहते हैं। इस नाटक का अर्थ न तो एक देश और न एक काल तक सीमित है। इस नाटक में निहित राजनीतिक व्यंग्य जितना अंग्रेजों के शासनाधीन भारत के लिए सच था, उतना ही आज के स्वतंत्र भारत के लिए। भारतेंदु ने एक ऐसे राजा की कहानी कही है, जिसके राज्य में प्रत्येक वस्तु का मूल्य समान था। जहाँ सोना और मिट्टी की कीमत एक थी। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि जहाँ सोना मिट्टी के भाव बिकता हो, वहाँ के लोगों को दरिद्रता और भुखमरी का सामना नहीं करना पड़ता होगा। लेकिन ‘टके सेर भाजी टके सेर खाजा’ जनता के हित का सूचक नहीं था, बल्कि राज्य की अविवेकपूर्ण कुव्यवस्था का सूचक था। अंधेर नगरी का चौपट राजा अविवेकपूर्ण राजसत्ता का प्रतीक है, जिसे नौकरशाही मनमाने ढंग से चलाती है। भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले अरु प्यादै।। अंधेर नगरी की राजसत्ता क्या काल्पनिक है.या भारतेंदु के समय के भारत का यथार्थ है?

हमने पिछले भाग में भारतेंदु के समय पर विचार किया है अंधेर नगरी की अंतर्वस्तु की तुलना अगर भारतेंदु के समय के साथ की जाए तो अंधेर नगरी में व्यक्त यथार्थ की विशेषताओं को पहचाना जा सकता है।

अंधेर नगरी की कथा सामंतशाही राज्य व्यवस्था के साथ संबद्ध है। लेकिन नाटक की प्रस्तुति लोकनाट्य शैली में है। अंग्रेजों का राज सामंतशाही राज्य व्यवस्था से कुछ हद तक भिन्न था। यद्यपि अब भी जनता अधिकार विहीन थी, लेकिन राज्य व्यवस्था का संचालन करने वाली व्यापक नौकरशही एक नयी बात थी। इसके उत्पीड़न की कहीं सुनवाई नहीं थी। वे क्षेत्र जो सीधे अंग्रेजी शासन के अधीन नहीं थे, उन पर शासन करने वाले देशी शासक भी वैसे ही उत्पीड़क और अन्यायकारी थे। भारतेंदु ने अंधेर नगरी में अपने दौर के इस यथार्थ को ही प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। भारतेंदु के लिए यह तो आसान नहीं था कि वे अंग्रेजी राज्य व्यवस्था की खुलकर आलोचना करते। लेकिन अंधेर नगरी में उन्होंने विभिन्न अवसरों पर कभी स्पष्ट रूप से और कभी सांकेतिक रूप में अपनी बात कही है। नाटक के दूसरे दृश्य में जहाँ बाजार का दृश्य प्रस्तुत किया गया है, वहाँ विभिन्न सामग्री बेचने वाले लोग ग्राहकों को आकृष्ट करने के लिए जो बात कहते हैं उनमें उन्होंने अपने समय का खाका भी प्रस्तुत किया है और उसकी आलोचना भी। इस आलोचना की दो विशेषताएं हैं – एक तो, तत्कालीन नौकरशाही की तीखी आलोचना और दूसरी, भारतवासियों को अपनी कमजोरियों के प्रति आगाह करना।

नौकरशाही की तीखी आलोचना

नौकरशाही की आलोचना करते हुए भारतेंदु ने उनकी रिश्वतखोरी, जनता के प्रति विद्वेष और उत्पीड़न की नीति, टैक्स लगाकर उनके जीवन को मुश्किल बनाना आदि को खासतौर पर रेखांकित किया है। ‘चना जोर गरम’ बेचने वाला ‘घासी राम’ कहता है :

चना हाकिम सब जो खाते। सब पर दूना टिकस लगाते।

चूरन बेचने वाला ‘पाचक वाला’ कहता है :

चूरन अमले सब जो खावै। दूनी रुशवत तुरत पचावै।

चूरन साहब लोग जो खाता। सारा हिंद हजम कर जाता।

चूरन पुलिस वाले खाते। सब कानून हजम कर जाते।

इसी प्रकार पाँचवें दृश्य में गोवर्धन दास ‘राग काफी’ में जो गीत गाता है उसी में यह भी कहा गया है:

भीतर स्वाहा बाहर सादे, राज करहिं अमले अरु प्यादे।

अन्धाधुन्ध मच्चौ सब देसा, मानहूं राजा रहत विदेसा।

उक्त पंक्तियां अत्यंत सारगर्भित हैं। अंग्रेजों का राज 1857 के बाद ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के हाथ में आ गया था। लेकिन विक्टोरिया के नाम पर राजसत्ता पर वास्तविक अधिकार अंग्रेज नौकरशाही के पास था। विक्टोरिया तो लंदन में ही वास करती थी। भारतेन्दु युग के दौर में भारतीय मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का यह विश्वास था कि महारानी विक्टोरिया का भारत की शासक होना ईश्वरीय वरदान है, लेकिन भारतवासियों पर जो भी उत्पीड़न और अत्याचार हो रहा है, उसके लिए नौकरशाही ही जिम्मेदार है। यही कारण है कि भारतेन्दु महारानी विक्टोरिया या उनके शाही परिवार की अम्यर्थना का कोई भी अवसर नहीं चूकते। मसलन मुद्राराक्षस नाटक का यह अंश द्रष्टव्य है :

पूरी अमी कटोरिया सी, चिरजीओ सदा विक्टोरिया रानी।

सूरज चंद प्रकास कर जब लौं, रहै सात हू सिंधु में पानी।

राज करौ सुख सौं तब लौं निज, पुत्र औ पौत्र समेत सयानी।

पालौ प्रजागन को सुख सौं जग, की रति मान करै गुन गानी।

लेकिन साथ ही वे अंग्रेज राज की नौकरशाही (जिनमें वे राजे-रजवाड़े और जमींदारों को भी शामिल करते हैं।) की आलोचना भी करते हैं। यह अंतर्द्वद्व अकेले भारतेन्दु में ही नहीं था बल्कि उस दौर के प्राय: सभी देशभक्त बुद्धिजीवियों और लेखकों में विद्यमान था।

अंधेर नगरी में भारतेन्दु ने इसी नौकरशाही की कुव्यवस्था का चित्र प्रस्तुत किया है। कुछ तो सीधे-सीधे । संवादों के माध्यम से और कुछ कथा की अंतर्वस्तु में सांकेतिक अभिव्यक्ति के माध्यम से। अंधेर नगरी में राजव्यवस्था के चित्रण में एक तरह की व्यंग्यात्मकता निहित है। गोवर्धनदास को पहली नजर में राज्य अत्यंत सुखकर लगता है क्योंकि वहां हर चीज़ एक ही दाम पर बिकती है। लेकिन जब वह निरपराध पकड़ा जाता है और उसे फांसी का हुक्म हो जाता है, तो राजसत्ता का वास्तविक चरित्र उसके सामने आता है। राजसत्ता का बाहरी चरित्र कुछ और है तथा आंतरिक चरित्र कुछ और। यह द्वैत ही अंधेर नगरी को भारतेन्दु युग के राजनीतिक यथार्थ से जोड़ता है।

नौकरशाही के चरित्र को भारतेंदु ने मुकदमे वाले प्रसंग द्वारा भी व्यक्त किया है। वस्तुतः न्याय की प्रक्रिया का यह चित्र अयथार्थ प्रतीत होता हुआ भी अपने अर्थ में यथार्थ में निहित विडंबना को प्रभावशाली रूप में व्यक्त करता है। नाटक के चौथे दृश्य का आरंभ राजसभा से होता है। सेवक राजा से चिल्लाकर कहता है कि ‘पान खाइए, महाराज’ तो राजा उसके चिल्लाने से डर जाता है और मंत्री को आदेश देता है कि वह सेवक को सौ कोड़े लगाए। इस पर मंत्री सेवक का बचाव करते हुए दोष तमोली पर थोपता है – “न तमोली पान लगाकर देता, न यह पुकारता।” इस पर राजा तमोली को दो सौ कोड़े लगाने का आदेश देता है। मंत्री फिर बात बदलता है और राजा को सुपनखा को सजा देने का परामर्श देता है। राजा और मंत्री के बीच की यह बातचीत राजा की मूर्खता और मंत्री की चतुराई का उदाहरण है। राजा के पास शक्ति है, लेकिन बुद्धि और विवेक का अभाव है। मंत्री उसकी मूर्खता और शक्ति का इस्तेमाल अपने बौद्धिक बल से करता है।

निर्णय लेने और आदेश देने का अधिकार राजा के पास है, लेकिन निर्णय लेने और आदेश देने का वास्तविक अधिकार मंत्री के पास है क्योंकि राजा उसी के कहे अनुसार निर्णय करता है। इस प्रकार मंत्री राजा से अधिक ताकतवर दिखाई देता है, वास्तविक सत्ता उसी के हाथ में है। बकरी के मरने का मुकदमा इसी सच्चाई को व्यंग्यात्मक रूप में प्रकट करता है। यहाँ मंत्री तब तक राजा की मूर्खताओं को ढील देता रहता है, जब तक कि मामला उसके हाथ से नहीं निकलता। जब राजा कोतवाल से जवाबतलब करता है और मंत्री को यह आशंका होती है कि ‘ऐसा न हो कि बेवकूफ – इस बात पर सारे नगर को फूंक दे या फाँसी दे। तो वह अपने हस्तक्षेप द्वारा मामले को कोतवाल की सजा पर ही खत्म करवा देता है। इस प्रकार राजा का कथित न्याय नौकरशाही के हथकंडों से तय होता है। राजा के इस फैसले के क्रियान्वयन का भार भी नौकरशाही पर है। कोतवाल को फांसी देने का काम नौकरशाही को करना है। कोतवाल उसी नौकरशाही का हिस्सा ।जाहिर है फाँसी उसे नहीं दी जा सकती, तर्क है – कोतवाल की गर्दन फांसी के फंदे से बहुत छोटी  है।

‘हुक्म हुआ कि मोटा आदमी पकड़ कर फांसी दे दो, क्योंकि बकरी मारने के अपराध में किसी न किसी को सजा होनी जरूरी है, नहीं तो न्याव न होगा।’

राजा के इस बदले हुए फैसले के अनुसार मोटे आदमी की तलाश शुरू हो जाती है। न्याय की यह पूरी प्रक्रिया झूठ और दिखावे के सिवा कुछ नहीं है। अंधेर नगरी में न्याय के नाम पर जो कुछ घटित होता है, उसका संबंध क्या तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था से नहीं था? यह अंधेर नगरी कौन सी है और यह चौपट राजा कौन है? भारतेंदु ने क्यों इसी कथा को प्रहसन के लिए चुना?

 ‘अंधेर नगरी’ और भारतेन्दु का वैचारिक परिप्रेक्ष्य

अंधेर नगरी इसलिए अंधेर नगरी नहीं है क्योंकि वहाँ का राजा बुद्धिहीन है और नौकरशाही चालाक। अंधेर नगरी इसलिए भी अंधेर नगरी है क्योंकि भारतेन्दु के अनुसार उसमें धर्म और अधर्म में अंतर नहीं किया जाता। ऊँच और नीच में भेद नहीं किया जाता। कुल-मर्यादा का लोप हो गया है। अंधेर नगरी का यह जो चित्रण है, यह काल्पनिक नहीं है। यह लेखक की अपने समय की समझ है। लेकिन अपने समय की भारतेन्दु की इस आलोचना को समझने की आवश्यकता है। भारतेन्दु ने अपने युग को किस रूप में समझा है और उनकी आलोचना का परिप्रेक्ष्य क्या है? क्या भारतेन्दु का युग ऐसा ही था और इसे अंधेर नगरी नाम दिया जाना उचित है? आइए, अंधेर नगरी में अपने युग की भारतेन्दु की आलोचना का जायजा लें।

भारतेन्दु के इस प्रहसन में पैसा केन्द्रीय महत्व की चीज है। टके सेर भाजी, टके सेर खाजा का केंद्रीय स्वर इसी सच्चाई को व्यक्त करता है। ब्राह्मण के मुख से भी भारतेन्दु ने इसी सच्चाई को उजागर किया है।

एक टका दो, हम अभी अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्ते ब्राह्मण से धोबी हो जाएं और धोबी को ब्राह्मण कर दें, टके के वास्ते, जैसी कहो, वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते झूठ को सच करें। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिन्दू से क्रिस्तान। टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचें।

उपर्युक्त संवाद ‘टके सेर भाजी, टके सेर खाजा’ के कथन को नया अर्थ देता है। अब मतलब सभी वस्तुओं के एक दाम से नहीं है, वरन् हर चीज बेची और खरीदी जा सकती है, इससे है। यह विशेषता युग के बदलने की सूचक है और पूर्व से भिन्नता को दर्शाने वाली केंद्रीय विशेषता है। पैसे के इस महत्व ने समाज में पूर्व विद्यमान मूल्य व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया है। अंग्रेजों ने जो राज्य व्यवस्था कायम की यह उस नयी व्यवस्था की केंद्रीय पहचान है। भारत में जो सामन्तशाही पहले विद्यमान थी, उसमें धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर समाज में मनुष्य की प्रतिष्ठा थी। लेकिन अब प्रतिष्ठा का यह आधार समाप्त हो रहा था। इसका स्थान पूंजी (या पैसे) ने ले लिया था। लेकिन पूंजी के वर्चस्व के इस युग में धर्म, जाति, लिंग के भेद समाप्त हो रहे थे। सभी मनुष्य बराबर है उनमें भेदभाव किया जाना अनुचित है, यह विचार तेजी से फैल रहा था। भारतेन्दु संभवतः इस नये दृष्टिकोण को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। यही कारण है कि तीसरे दृश्य में वे महन्त से कहलाते हैं :

सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास

ऐसे देस कुदेस में, कबहूँ न कीजै बास ।

कोकिल, बायस एक सम, पण्डित मूरख एक

इन्द्रायन दाडिम विषय, जहाँ न नेकु विवेक

इन पंक्तियों से यह जाहिर है कि वे इस राज्य व्यवस्था की आलोचना इस बात को लेकर कर रहे हैं कि यहाँ विवेक के आधार पर मनुष्य मनुष्य में अंतर नहीं किया जा रहा है। यहाँ मूर्ख और पंडित में, कौवे और कोयल में अंतर करने का विवेक नहीं है। ऐसी व्यवस्था जिसमें इस तरह का विवेक न हो, निश्चय ही कुव्यवस्था कहलाएगी। लेकिन इस विवेक का वैचारिक आधार क्या हो, यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है। इसका उत्तर हमें प्रहसन के पाँचवे दृश्य में मिलता है। इस दृश्य की शुरुआत गोवर्धनदास के गीत से होती है। इस गीत की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :

नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भडुए पंडित तैसे।

कुल मरजाद न मान बड़ाई। सबै एक से लोग लुगाई।

जात पांत पूछ नहि कोई। हरि को भजे सो हरि को होई।।

वेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना।।

धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा कैर सो न्याव सदाई।

गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई। मानहूँ नृपति विधर्मी कोई।।

ऊँच नीच सब एकहि सारा । मानहुँ ब्रह्म ज्ञान बिस्तारा।।

गीत की इन पंक्तियों को अगर हम तीसरे दृश्य के दोहों के साथ रखकर पढ़ें तो हमें स्पष्ट हो जाएगा कि राज्य व्यवस्था की उनकी आलोचना का वैचारिक आधार क्या है? यहाँ वे उस सामंती व्यवस्था के टूटने का दुख प्रकट कर रहे हैं, जो वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवाद पर आधारित थी। ऊँच-नीच के बीच व्याप्त होने वाली एकता की आलोचना इसी वर्णवादी दृष्टिकोण से की जा रही है, जिसको ‘कुल मरजाद’ (कुल मर्यादा) के खत्म होने की बात कहकर दोहराते हैं। अगली पंक्ति में वे फिर जात-पाँत के खत्म होने की पीड़ा व्यक्त करते हैं और जब वे कहते हैं कि ‘गाय, ब्राह्मण और धार्मिक ग्रंथों के प्रति आदर नहीं रह गया है, मानो कोई विधर्मी राजा हो’, तो वे स्पष्ट रूप से पुराणपंथी ब्राह्मणवाद के प्रति घटते सम्मान पर ही दुख व्यक्त कर रहे हैं। यहाँ भारतेन्दु द्वारा प्रस्तुत की गई भावना कमोबेश वैसी ही है, जैसी तुलसीदास के ‘रामचरित मानस ‘ में कलियुग वर्णन के रूप में मिलती है। यह भारतेन्दु पर पुनरुत्थानवाद के स्पष्ट प्रभाव का द्योतक है।

लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वे तत्कालीन राज्यव्यवस्था की आलोचना सिर्फ पुनरुत्थानवादी दृष्टि से ही करते हैं बल्कि इस नाटक में उन्होंने अंग्रेजी राज की उन बुराइयों का उल्लेख भी किया है जो शोषणवादी व्यवस्था की सूचक है। मसलन वे लिखते हैं कि इस अंधेर नगरी में सच्चे लोगों को कोई नहीं पूछता, वे बिचारे इधर-उधर भटकते रहते हैं, जबकि जो छल कपट वाला है, उसका वर्चस्व कायम है। जो बाहर से तो सभ्य नज़र आते हैं, लेकिन जिनके दिल मे छल कपट भरा है, राजा की सभा में उन्हीं का बोलबाला है, वे ही ज्यादा शक्तिशाली हैं, उन्हीं को तरह-मरह के पद हासिल हैं। जहाँ छली लोग एकजुट हैं, उनकी जितनी भी आलोचना की जाए लेकिन उन पर कोई असर नहीं होता। भारतेन्दु इस बात पर दुःख व्यक्त करते हैं कि ऐसा युग आ गया है जब हृदय में चाहे जितना मैल हो, लेकिन बाहरी चमक-दमक की ही पूछ है।

जहाँ धर्म और अधर्म एक सा दिखाई देता है और राज की बागडोर राजा के हाथ में नहीं वरन् नौकरों-चाकरों के हाथ में है। जहाँ इतनी अंधेरगर्दी मची है कि ऐसा लगता है मानो राजा विदेश में रहता है। भारतेंदु हरि चंद्र द्वारा की गई यह आलोचना तत्कालीन साम्राज्यवादी राज्य व्यवस्था के कुप्रशासन की आलोचना है। साम्राज्यवाद पूँजीवाद की ही एक विकसित अवस्था है। इस आलोचना में उनका स्वर यथ र्थवादी है और तत्कालीन व्यवस्था के उत्पीड़क रूप को उजागर करती है। इस प्रकार भारतेन्दु एक ओर तत्कालीन राज्य व्यवस्था के जन विरोधी और शोषक-उत्पीड़क ढाँचे के टूटने का दुख व्यक्त करते हैं वहीं वे ब्राह्मणवादी-सामंतवादी ढाँचे के टूटने का दुख भी व्यक्त करते हैं। लेकिन इसका नर्थ यह भी नहीं है कि वे इस ब्राह्मण्वादीसामंतवादी ढाँचे को पूरी तरह स्वीकार करते हैं। अगर ऐसा होता तो इसी नाटक के आरंभ में निम्नलिखित पंक्तियाँ न लिखते :

मान्य योग्य नहिं होत कोऊ कोरो पद पाए।

मान्य योग्य नर ते, जे केवल परहित जाए।

यहाँ वे ऊँच-नीच का भेद उसके पद या जन्म से नहीं करते वरन् इस बात से कर रहे हैं कि वही व्यक्ति मान्य (उच्च) है जो दूसरों के हित के लिए जीता हो। इसी तरह वे अपनी रचनाओं में पंडितों के कुकृत्यों की आलोचना भी करते हैं और जाति-पाँति से मुक्त होने की मांग भी करते हैं।लेकिन इन सबके बावजूद यह स्वीकारना होगा कि अंधेर नगरी में भारतेन्दु के वैचारिक परिप्रेक्ष्य मे अंतर्विरोध है और इस अंतर्विरोध को नकार कर भारतेन्दु को अनालोचनात्मक रूप में प्रगतिशील घोषित करना कहाँ तक. तर्कसंगत है?

व्यंग्य और विडंबना के रूप में ‘अंधेर नगरी’

आपने इससे पहले यह जान लिया है कि अंधेर नगरी प्रहसन होते हुए भी अपनी सोद्देश्यता, अपनी सामाजिक-राजनीतिक चेतना के कारण बहुत तीखा व्यंग्यात्मक नाटक है। आप जानते हैं कि गंभीर व्यंग्य हमेशा सार्थक आलोचना का, गंभीर प्रतिक्रिया का, चुभन का कार्य करता है। वह रचनाकार के अनुभव, उसकी रचना-दृष्टि, समीक्षा-शक्ति का, संवेदनात्मक ईमानदारी का प्रमाण होता है। मूल्यहीनता की व्यंग्य चेतना इस पूरे नाटक का लक्ष्य है। प्रहसन के मुख्य तत्व अतिरंजित शारीरिक क्रियाएं, चरित्र और परिस्थिति की अतिरंजना, पात्रों की विसंगत, ऊटपटांग बेतुकी, असामान्य और विलक्ष्ण क्रियाएं हैं। अंधेर नगरी में आप इस तरह के बेतुकेपन की बहुत संभावनाएं पाएंगे जिससे उसका हास्य-व्यंग्य, कटाक्ष, भर्त्सना, चुनौती, चेतावनी के स्वरों में मिलता चला गया है और ऊपर से हास्य प्रधान लगने वाला नाटक वस्तुत: तीखी व्यंग्यपूर्ण और विडंबनाओं की व्यंजक स्थितियों का नाटक बन जाता है।

यह दूसरी बात है कि भारतेंदु का व्यंग्य बहुत कटु और उतना प्रत्यक्ष नहीं होता जितना बंगला नाटककार माइकेल मधुसूदन दत्त का है। फिर भी, भारतेंदु के व्यंग्य का सौंदर्य आक्रमकता में नहीं उसकी अनायास प्रवहमान अभिव्यक्ति और रोचकता में है जो हँसाता भी है और तिलमिलाता भी है। इसीलिए एक नयी सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता, आत्मसजगता की प्रेरणा और प्रगति में विश्वास का अनुभव होने लगता है। परिवर्तनों के प्रति सकारात्मक दृष्टि ही सर्जनात्मक नाटक और सार्थक व्यंग्य को जन्म देती है। जीवन और साहित्य के बीच की दूरी और द्वंद्व को यह नाटक मिटाता है। आधुनिक रंगकर्मियों ने इसमें अपने देश की बदलती परिस्थितियों, समकालीन मूल्यहीनता और खोखलेपन को देखना आरंभ किया और तब इसमें अन्तर्निहित देशव्यापी ही नहीं विश्वव्यापी विसंगतियों का अनुभव किया जिससे इस लघु नाटक का अर्थ विस्तार होता गया।

आप देख चुके हैं कि इस नाटक के सामान्य से दीखने वाले कथानक में तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था की भ्रष्टाचारिता, सत्ता की मूढ़ता, विवेकहीनता निरीह जनता को सताने और ठगने की प्रवृत्ति का, युग की विकृति और विसंगति का चित्रण मिलता है। वैसे तो अंधेरी नगरी का केंद्र बिंदु है – पैसे और धन का बढ़ता महत्व। लेकिन नाटक का मूल स्वर इतना ही नहीं है, मूल स्वर तो धन पर आधारित अमानवीय व्यवस्था और उससे उत्पन्न उत्पीड़क और अराजक स्थितियों का चित्रण है। अंधेर नगरी अंधव्यवस्था का प्रतीक है। चौपट राजा न्याय-दृष्टि के न होने का। उसका न्याय भी अन्धता का प्रमाण है। न्याय की पूरी प्रक्रिया शासन-सत्ता की संवेदनहीनता और मानवीय विडंबना को दिखाता है। साथ ही, आज के मानव समाज में बढ़ती जाती लोभ-वृत्ति पर भी व्यंग्य है क्योंकि वही मनुष्य को अन्ध-व्यवस्था में फंसाती है, जहाँ शोषक-शोषित, अपराधी-निरपराधी में कोई अंतर नहीं। अंधेर नगरी को व्यापक रूपक के तौर पर देखें तो वह समकालीन राज्य व्यवस्थाओं पर व्यंग्य के रूप में भी देखा जा सकता है। ‘टके’ पर आधारित व्यवस्था आज पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हुई है। इसने जहाँ एक ओर नौकरशाही को और ताकतवर बनाया है वहीं आम आदमी की मुश्किलों में इजाफा किया है।

1970 के बाद के दौर में, अंधेर नगरी की ओर साहित्य संसार का ध्यान एक बार फिर गया। यह नाटक जगह-जगह कई रूपों में खेला गया। मंचीय नाटक के रूप में, नुक्कड़ नाटक के रूप में, लोक नाट्य के रूप में। अंधेर नगरी में राज्य व्यवस्था का जो चित्र प्रस्तुत किया गया था, वह आज भी . उतना ही सच नजर आ रहा है, जितना भारतेंदु के दौर में आता होगा। अगर हम नाटक में निहित उनकी पुनरुत्थानवादी और नैतिकतावादी दृष्टि पर बल न दें, तो उसमें निहित यथार्थ लगभग उसी रूप में आज भी मौजूद हैं। मनुष्य की पहचान आज पहले के किसी भी समय से ज्यादा पैसे से नापी जाती है। मनुष्य की बौद्धिकता और कौशल का, ईमानदारी और कर्मठता का कोई मूल्य नजर नहीं आता। सत्ता वर्ग अपने हित के लिए धर्म और जाति के नाम पर लोगों में फूट और द्वेष फैलाता है। आम आदमी आज भी टैक्स के बोझ तले दबा जा रहा है और पुलिस के अत्याचार और राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों में व्याप्त भ्रष्टाचार से वह त्रस्त है :

चूरन साहब लोग जो खाता

सारा हिन्द हज़म कर जाता।

ये पंक्तियाँ ब्रिटिश शासन तक ही सीमित नहीं है – यह आज भी उतनी ही यथार्थ है। न्याय व्यवस्था का जो चित्र अंधेर नगरी में व्यक्त हुआ है, आज भी वैसे ही आम आदमी की कोई सुनवाई नहीं है। न्याय के नाम पर जो अन्याय होता है, उसके कदमों तले गरीब और असमर्थ पिस रहा है। उसकी फरियाद कोई सुनने वाला भी नहीं है। कानून के दाव-पेंच के आगे वह निरुपाय है। अंधेर नगरी आज की न्याय व्यवस्था के आडंबर, आतंक और न्याय प्रक्रिया की जटिलता और अंधेपन को भी उजागर करता है। अंत में, फांसी का दृश्य आज की व्यवस्था की क्रूरता, अविवेकशीलता और अंधेपन का भयानक मजाक है। इस तरह अंधेर नगरी में भारतेंदु विद्रूप स्थितियों पर विदूषक की तरह हंसते-हंसाते हैं। पूरा नाटक इस माने में आपको समकालीन विसंगतियों का, विडंबनाओं का नाटक लगेगा। नाटक का अंत इस बात का सूचक भी है कि यह व्यवस्था अपने ही बनाए दुष्चक्र में समाप्त हो जाएगी। लेकिन नाटक के अंत को लोकतांत्रिक मूल्यों की जीत के रूप में देखना औचित्यपूर्ण नहीं लगता। महंत जिस बौद्धिक युक्ति से राजा को फांसी लगाने के लिए प्रेरित करता है, वह जनता की सामूहिक शक्ति का प्रतीक नही है। इससे केवल इतना ही अर्थ निकलता है कि शासक वर्ग अपने ही बनाए जाल में फंस कर समाप्त हो सकता है। इस अंत का सकारात्मक पहलू यह है कि यह शोषक और उत्पीड़क व्यवस्था की समाप्ति के प्रति आशा का भाव जगाता है।

सारांश

पाठ्यक्रम की इस दूसरी इकाई का अध्ययन करने के बाद आपको भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक अंघेर नगरी में व्यक्त सामाजिक यथार्थ को समझने में मदद मिली होगी। इकाई में हमने बताया था कि 1857 और 1885 के बीच की अवधि से भारतेंदु के लेखन का गहरा संबंध है। 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम नाकामयाब रहा था। उसके बाद के लगभग तीन दशकों में अंग्रेजी साम्राज्यवाद के शासन के अंतर्गत देश की जो परिस्थितियाँ थीं, उसी को भारतेंदु ने अंधेर नगरी का रूपक देकर व्यक्त किया है। तत्कालीन व्यवस्था की जिस केंद्रीय विशेषता को उन्होंने उजागर किया है, वह है धन की सत्ता। साम्राज्यवादी व्यवस्था की क्रूरता और अमानुषिकता को उन्होंने नौकरशाही और न्याय व्यवस्था के असली चेहरे को अनावृत करते हुए व्यक्त किया है। उनकी आलोचना राजनीतिक आलोचना है, लेकिन इस आलोचना पर मध्यवर्गीय नैतिकता और पुनरुस्थानवादी दृष्टि का भी असर है, इसे आपने इकाई में की गई नाटक की व्याख्या से समझ लिया होगा।

अंधेर नगरी समसामयिक संदर्भो का जीवन्त नाटक है। इसका संबंध ब्रिटिश शासक वर्ग से ही नहीं है। नाटक में व्यक्त यथार्थ और उसमें निहित विडंबना वर्तमान जनविरोधी पूंजी आश्रित सत्ताओं की भी है। विश्व में निरंतर बढ़ती जाती मानव विरोधी प्रवृत्तियों और मूल्यों के संघर्ष से, सामाजिक और राजनीतिक चेतना से इसका संबंध नये-नये अर्थ और व्यंजनाएँ विकसित करता गया। अंधेर नगरी के कथानक की जानकारी देकर आपको यह स्पष्ट बताया जा चुका है कि इस नाटक में व्यक्त यथार्थ सीमित नहीं है, वह व्यापक चेतना और गतिशील यथार्थ का नाटक है। भारतेंदु के इस नाटक में उनकी राजनीतिक-सामाजिक दृष्टि का भी इकाई में विश्लेषण किया गया है। अंधेर नगरी में उनकी स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि व्यक्त हुई है। लेकिन इस राजनीतिक दृष्टि की सीमा यह है कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों की ओर संकेत तो करती है, लेकिन जनता की शक्ति और अधिकारों को स्पष्ट रूप में व्यक्त नहीं कर पाती। हालांकि, इससे नाटक का महत्व और उसकी प्रासंगिकता कम नहीं हो जाती।

इकाई में आपको यह भी बताया गया है कि अपने इन्हीं गंभीर और सजग स्वरों के कारण अंधेर नगरी व्यंग्य और विडंबना का संवेदनापूर्ण नाटक है। उसका व्यंग्य तीखा है पर नकारात्मक या आक्रामक नहीं। अंधेर नगरी में राजव्यवस्था और उसके दो महत्वपूर्ण स्तंभों नौकरशाही और न्याय व्यवस्था को व्यंग्य का निशाना बनाया गया है। चौपट राजा इस अंधेर नगरी के रूपक के केंद्र में है और उसकी बुद्धिहीनता किसी व्यक्ति की नहीं बल्कि संपूर्ण व्यवस्था की बुद्धिहीनता की प्रतीक है। यह बुद्धिहीनता ही वह अंधापन है, जिसके कारण निर्दोष को सजा दी जाती है और अपराधी खुले घूमते हैं। यही अंधापन नौकरशाही को अनियंत्रित और क्रूर बनाता है और न्याय व्यवस्था को अन्यायकारी और अमानुषिक। अंधेर नगरी के इन पक्षों के अध्ययन से आप नाटक के महत्व और उसकी प्रासंगिकता से परिचित होंगे, ऐसी आशा है।

अभ्यास

  1. भारतेंदु ने अंधेर नगरी के माध्यम से तत्कालीन राज्यव्यवस्था के प्रति किस तरह का दृष्टिकोण व्यक्त किया है?
  2. अंधेर नगरी में व्यक्त व्यंग्य और विडंबना की व्याख्या कीजिए और यह भी बताइए कि यह नाटक किस अर्थ में आज भी प्रासंगिक है?
  3. भारतेंदु युगीन राजनीतिक-सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में अंधेर नगरी नाटक का महत्व प्रतिपादित कीजिए।

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