राम भक्ति काव्य

इस इकाई में आप भक्तिकालीन रामभक्ति काव्य का अध्ययन करेंगे। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप : 

  • भक्ति आंदोलन के संदर्भ में रामभक्ति काव्य की चर्चा कर सकेंगे;
  • रामभक्ति शाखा की दार्शनिक पृष्ठभूमि का परिचय दे सकेंगे;
  • रामभक्ति काव्य के सामन्तवाद विरोधी मूल्यों का विवेचन कर सकेंगे; और
  • रामभक्ति साहित्य में लोकमंगल की भावना से परिचित हो सकेंगे।

हिन्दी साहित्य में रामभक्ति काव्यधारा ने सगुण भक्ति और भक्ति आंदोलन की मूल संवेदना को लोक-भाव-भूमि पर दृढ़ता से प्रतिष्ठित किया है। दक्षिण भारत में भक्ति-आंदोलन और उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन दोनों की चेतना को तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में देखना होगा। इस इकाई में हम चिन्तन-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में यह भी समझेंगे कि इसमें रामानंद की क्या भूमिका रही है और उन्हें रामकाव्य परम्परा के चिंतन का मेरुदण्ड क्यों कहा जाता है? रामानन्द का रूढ़िवाद-पुरोहितवाद विरोधी चिन्तन ही कबीर और तुलसीदास में रचनात्मक निष्पत्ति पाता है। रामानन्द ने शास्त्र-परम्परा और संस्कृत भाषा के स्थान पर लोक-जागरण, लोक-कल्याण के लिए लोकभाषा में काव्य-सृजन की भूमिका तैयार की।

इसी भूमिका पर कबीर और तुलसी की भक्ति-चेतना, लोक-संवेदना का निर्माण विस्तार हुआ। वाल्मीकि रामायण की परम्परा ने समय के साथ परिवर्तनों को स्वीकार किया, उसी का नया सृजन-चिंतन राम-भक्ति काव्य में देखने को मिलता है।

रामकाव्य परम्परा

राम-कथा ऐतिहासिक है या पौराणिक-काल्पनिक? इस प्रश्न का सप्रमाण उत्तर देना कठिन है। रामकाव्य-परम्परा के अध्ययन से ऐसा अनुमान होता है कि राम भारतीय-संस्कृति के भाव-नायक हैं। इस भाव-नायक की कथा में हर युग कुछ-न-कुछ जोड़ता चला आया है। राम ऐतिहासिक पुरुष नहीं हैं – पुराण पुरुष हैं, मिथक नायक हैं – भावनायक और लोकनायक । देश और काल के परिवर्तन चक्रों में पड़े राम को लोक-नायक बनने में हजारों वर्ष लग गए। वैदिक काल के बाद संभवत: छठी शताब्दी ई.पू. में इक्ष्वाकुवंश के सूत्रों द्वारा रामकथा-विषयक गाथाओं की सृष्टि होने लगी। फलत: चौथी शताब्दी ई.पू. तक राम का चरित्र स्फुट आख्यान-काव्यों में रचा जाने लगा। इसलिए रामकथा के विद्वानों की एक बड़ी संख्या यह मानती है कि आदिकवि वाल्मीकि से कई शताब्दी पूर्व राम-कथा को लेकर आख्यान-काव्य-परम्परा मिलती है। किन्तु यह वाचिक परम्परा थी अत: इसका साहित्य आज अप्राप्य है। ऐसी स्थिति के कारण वाल्मीकिकृत रामायण प्राचीनतम उपलब्ध रामकाव्य है।

भारतीय परम्परा वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ और रामायण को ‘आदिकाव्य’ मानती है – यह भी इस बात का प्रमाण है कि काव्य-रूप में ‘रामायण’ को ही सर्वप्रथम लोकप्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। संभवत: आदिकाव्य का रचनाकाल चौथी शताब्दी ई.पू. रहा होगा। बहुत समय तक मौखिक रूप में प्रचलित रहने के कारण इस रचना का रूप स्थिर न रह सका। बालकांड तथा उत्तरकाण्ड के साथ अन्य कांडों में भी प्रक्षिप्तांशों का मुक्त प्रवेश हुआ। इस प्रकार वाल्मीकिकृत आदि रामायण का कलेवर दुगुना हो गया। कहते हैं कि वाल्मीकि ने तो बारह हजार श्लोकों के प्रबंध काव्य की रचना की थी जिसमें अयोध्या कांड से लेकर युद्धकांड तक की कथा थी, बाद में बालकांड और उत्तरकांड जोड़े गए।

वाल्मीकि ने देवताओं पर काव्य रचने की परंपरा को अस्वीकार करते हुए मानव की महिमा को प्रतिष्ठित करने के लिए नर-काव्य ‘आदिकाव्य’ का सजन किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘भारतवर्ष में इतिहास धारा’ नामक निबंध में कहा है कि वाल्मीकि ने सर्वप्रथम नरकाव्य परंपरा का प्रवर्तन किया। कथागायक कुशीलव अपने श्रोताओं की रुचि को ध्यान में रखकर रामकथा का गायन करते रहे। राम कौन थे, सीता कौन थी, इनका जन्म विवाह कब कहाँ हुआ, रावण कौन था, रावण वध के बाद राम-सीता का जीवन कैसा रहा, लोक में उठे इन तमाम प्रश्नों जिज्ञासाओं को शान्त करने के लिए ‘आदिकाव्य’ में बालकांड तथा उत्तरकांड को प्रक्षिप्त रूप में जोड़ दिया गया। इस प्रकार राम-कथा राम का अयन अर्थात राम का भ्रमण न रहकर सम्पूर्ण राम चरित के रूप में विकसित हुई। तुलसीदास का यह कहना ‘मास आदि कवि पुंगव नाना। जिन भाषा हरि चरित बखाना’ तथा ‘राम कथा की मिति जग नाही’ इसी सत्य की ओर संकेत करता है।

प्रचलित ‘वाल्मीकि रामायण’ के आज तीन भिन्न पाठ मिलते हैं –

  • दाक्षिणात्य पाठ (दक्षिण तथा गुजराती संस्करणों के पाठ),
  • गौड़ीय पाठ (गोरेसियो द्वारा सम्पादित तथा पेरिस में 1843 ई. में प्रकाशित कलकत्ता सीरीज का संस्करण) तथा
  • पश्चिमोत्तरीय पाठ (लाहौर का संस्करण)।

इन सभी पाठों में काफी अन्तर है। इसका कारण है कि ‘आदिकाव्य’ को कई शताब्दियों के बाद अलग-अलग परंपराओं के आधार पर लिपिबद्ध किया गया।

बौद्धों ने कई शताब्दियों पूर्व राम को बोधिसत्व’ मानकर, राम-काव्य को जातक साहित्य में स्थान दिया है। इस मेल-मिलाप से ‘दशरथ जातक’, ‘अनाकम् जातक’ तथा ‘दशरथ कथानम’ ये तीन जातक उत्पन्न हुए। बौद्धों की भाँति जैनियों ने भी राम-कथा को अपनाया और पर्याप्त लोकप्रियता प्रदान की। फलत: जैनियों ने विपुल राम-साहित्य की सृष्टि की। ईसवी सन् की तीसरी शताब्दी में जैनकवि विमलसूरि ने ‘पउमचरिय’ प्राकृत भाषा में लिखकर राम-कथा को जैन धर्म के साँचे में ढाल दिया। इसका संस्कृत रूपान्तर रविषेण ने सन् 660 ई. में ‘पद्मचरित’ नाम से किया और संवत् 1818 में दौलतराम ने इसका हिन्दी में अनुवाद किया। इस प्रमुख ग्रंथ के आधार पर रामकाव्य की परम्परा में सृजन-कर्म को लेकर तेजी दिखाई दी।

संस्कृत में हेमचन्द्र ने जैन रामायण’ (12वीं शताब्दी) जिनदास ने ‘रामपुराण’ (15वीं शताब्दी) पद्मदेव विजयगणि ने ‘रामचरित’ (16वीं श.) अपभ्रंश में सत्यभूदेव ने ‘पउमचरिय’ कन्नड़ में नागचन्द ने ‘परम्परायण’ (11वीं श.) कुमुन्देन्दु ने ‘रामायण’ (13वीं श.) तथा देवाय ने ‘रामविजय चरित’ की रचना की। जैन राम कथा का एक दूसरा रूप गुणभद्र ने उत्तरपुराण’ (9वीं श.) लिखकर प्रस्तुत किया। इसके आधार पर भी संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश में रामकाव्य रचा गया।

संस्कृत के सृजनात्मक साहित्य में राम कथा को लेकर महाकाव्य तथा नाटकों के सृजन की एक विशाल परम्परा मिलती है। इस सृजन-परम्परा में ‘वाल्मीकि रामायण’ से अलग हटकर शृंगार को स्थान मिला। सेतुबंध तथा भट्टिकाव्य में राक्षसों की शृंगार-चेतना, जानकीहरण, कुमारसंभव में भोगवाद का उभार मिलता है। कालिदास ने रघुवंश में पूरी रघुवंश की परम्परा का वर्णन किया। इस प्रकार वे रामायण के अंधानुकरण से दूर रहे। महाराष्ट्री प्राकृत में कश्मीर के राजा प्रवरसेन ने रावणवहो लिखा। भट्टिकवि ने बाईस सर्गों में व्याकरण के नियमों के निरूपण के साथ रावणवध लिखा। कुमार दास ने जानकी हरण, अभिनन्द ने रामचरित, आचार्य क्षेमेन्द्र ने रामायणमंजरी, साकल्पमल्ल ने उदारराघव शीर्षक महाकाव्य की रचना की। संस्कृत नाटकों ने राम कथा को नया रूप देकर नया सहृदय समाज दिया।

आश्चर्य चूडामणि, अद्भुत दर्पण, महावीर दर्पण, अनर्घ राघव, बाल रामायण, महानाटक आदि नाटकों में इसी परम्परा के संकेत मिलते हैं। भास ने प्रतिमानाटक तथा अभिषेक नाटक लिखकर राम कथा को लोक में आगे बढ़ाया। इस परम्परा का श्रेष्ठ रूप भवभूति के महावीरचरित तथा उत्तररामचरित में मिलता है। उत्तररामचरित ने प्रचलित रामायण के उत्तरकांड की कथा को नया रूप दिया। भवभूति ने राम तथा अयोध्या की जनता के सामने सीता-चरित सबंधी करुण कथा के अभिनय की योजना की। भवभूति ने यह सिद्ध किया है कि मानव मर्म को स्पर्श करने में करुण-रस जैसा दूसरा कोई रस नहीं है। भवभूति के अनुकरण पर धरिनाग ने कुंदमाला नाटक की रचना की पर सफल न हो सके। राजशेखर ने बाल रामायण (10वीं शताब्दी) की रचना भी भवभूति के अनुकरण पर की- पर उत्तररामचरित के उत्कर्ष को कोई नहीं पा सका। प्रसन्नराघव, उदात्तराघव, महानाटक, अनर्घराघव आदि बहुत से नाटक लिखे गए पर वे भी राम कथा में कुछ नया नहीं जोड़ सके। राम काव्य परम्परा में कालिदास के मेघदूत के अनुकरण पर हंसदूत अथवा हंस संदेश, सीताराघव, राघवविलास आदि का सृजन भी हुआ।

भारतीय भाषाओं में राम काव्य की परम्परा बहुत विशाल है। दक्षिण की भाषाओं में प्राचीनतम प्राप्त राम कथा कवि कम्बन कृत तमिल रामायण है जिसका रचना काल ग्यारहवीं शताब्दी माना जाता है। तेलुगु में रंगनाथ रामायण (12वीं शताब्दी), बुद्धराजकृत भास्कर रामायण (14वीं शताब्दी), मोल्ला कुम्हारिन रचित ‘मोल्ला रामायण’ जनप्रिय रही है। मलयालम में वाल्मीकि रामायण के कण्ण्श्श रामायण’ तथा ‘केरलवर्मा रामायण’ दो अनुवाद लोकप्रिय हुए। यहाँ अध्यात्म रामायण का अनुवाद भी हुआ। कन्नड़भाषा में तोवेर रामायण’ नरहरिकृत मैरावणवध’ की रचना जनसाधारण में लोकप्रिय रही है। आधुनिक भारतीय भाषाओं के राम काव्य पर इन रामायणों की गहरी छाप है। उत्तरी भारत में तुलसी रचित ‘रामचरितमानस’ तथा कृत्तिवासीय रामायण’ दोनों बहुत लोकप्रिय हैं।

कृत्तिवास ने पन्द्रहवीं शताब्दी में बंगला के पयारछन्द में रामायण रच डाली। इसके बाद बंगला में चन्द्रावली ने ‘रामायण’ रामानंद ने ‘रामलीला’, रघुनन्दन ने ‘राम रसायन’ लिखा। माधवि कन्दलि ने चौदहवीं शताब्दी में असमिया के ‘वाल्मीकि रामायण’ का पद्यानुवाद किया तथा दुर्गावर ने ‘गीतिरामायण’ की रचना की। असमिया कवि शंकर देव ने ‘राम विजय नाटक’ लिखा । गुजराती में भालण ने सीतास्वयंबर’ (राम-विवाह) गिरधरदास ने ‘रामायण’ ‘बलरामदास रामायण’, ‘दाण्डिरामायण’, सरलादासकृत विलंकारामायण’ या विचित्र रामायण’, कश्मीरी में दिवाकर भट्ट ने ‘कश्मीरी रामायण’ नेपाली में कवि भानु ने ‘अपना रामायण’ की रचना की। सारांश यह है कि पूरा भारतीय काव्य शताब्दियों तक नैतिक-आध्यात्मिक आदर्शो-मूल्यों को लेकर राममय रहा है।

विदेश में रामकथा का प्रसार सर्वप्रथम बौद्धों ने किया है। ‘अनामजातकम्’ तथा ‘दशरथकथानम्’ का तीसरी-चौथी शताब्दी में चीनी भाषा में अनुवाद हुआ। इसके बाद तिब्बती रामायण मिलती है और रामायण के अनुवाद छाए रहे। जावा में रामायण का काविन, हिकायत सेरीराम काव्य, कम्बोडिया में रामकेर्ति, श्याम रामकियेन की रामकाव्य परम्परा है। विदेशों में रामलीला का अभिनय आज भी जारी है। भारत से मारीशस, फीजी आदि जाने वाले लोग भी रामचरितमानस को साथ लेकर गए और राममय होकर जीते हैं।

भारत से रोजी-रोटी के लिए विदेश जाने वाले मजदूर, कुली अपने साथ रामचरितमानस, कम्बरामायण, कृत्तिवास रामायण अवश्य ले गए। अपने प्रवास में इन सभी ने अपने राम को नहीं छोड़ा – सीता-हनुमान को नहीं छोड़ा। इस प्रकार विश्वभर में अवध के राम किसी न किसी रूप में विद्यमान मिलते हैं। विदेश में राम-काव्य की एक ऐसी परम्परा है जिसका इतिहास हमें आश्चर्यचकित कर देता है।

हिन्दी में सगुण रामकाव्य परंपरा

रामभक्ति शाखा में रामकाव्य के महत्वपूर्ण कवि तुलसीदास के अतिरिक्त भी कुछ कवि हैं। इन कवियों ने तुलसीदास की तरह सार्वदशिक और सार्वकालिक रचना तो नहीं की परंतु उनका महत्व भी रामभक्ति शाखा के इतिहास में है। उन रामभक्त कवियों में रामानंद का नाम आता है। रामानंद ने भक्ति को शास्त्रीय मर्यादा के बंधन से मुक्त माना। जाति और वर्ण के भेदभाव से ऊपर उठकर भक्ति को जनसामान्य से जोड़ने का प्रयत्न किया। इसलिए रामानंद की शिष्य परंपरा का संबंध रामभक्ति शाखा के तपसी और उदासी सम्प्रदाय से जोड़ा जाता है, वहीं निर्गुण भक्ति के ज्ञानमार्गी परंपरा से भी उनका संबंध संकेतित किया जाता है। रामानंद के कुछ पद हनुमान जी की स्तुति के रूप में प्रचलित हैं।

“आरति कीजै हनुमान लला की, दुष्ट दलन रघुनाथ कला की।”

दूसरे रामभक्त कवियों में अग्रदास का नाम प्रमुख है। अग्रदास ने रामभक्ति को कृष्ण भक्ति के लोकानुरंजन के समीप लाने का प्रयत्न किया। उनके काव्य में अष्टयाम अथवा रामाष्टयाम को मुख्य माना जाता है। राम के ऐश्वर्य रूप की झाँकी इन लीलाओं में स्पष्ट दिखाई देती है। इन्होंने सखी सम्प्रदाय के लिए रास्ता साफ कर दिया। ईश्वर दास भी रामभक्त कवि थे। राम कथा से संबद्ध उनकी रचनाओं में ‘भरत मिलाप’ और ‘अंगद पैज’ प्रमुख हैं। भरत मिलाप में उन्होंने करुण प्रसंग को तन्मन्यता से रचा है। अंगद पैज में अंगद की वीरता का ओजपूर्ण वर्णन है।

नाभादास तुलसीदास के समकालीन रामभक्त कवि थे। नाभादास अग्रदास के शिष्य थे। भक्त माल की रचना नाभादास ने की थी। भक्त माल हिंदी साहित्य के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें मध्यकाल के भक्त कवियों पर टिप्पणी की गई है। इस ग्रंथ से तत्कालीन समाज की मानसिकता का पता चलता है। भक्त कवियों का जनता पर क्या प्रभाव था इसकी भी सूचना हमें मिलती है। अन्य राम भक्त कवियों में प्राण चंद चौहान का और हृदय राम का उल्लेख किया जाता है। प्राणचंद चौहान ने रामायण महानाटक और हृदयराम ने भाषा हनुमान नाटक लिखा।

रामकथा की प्राचीनता और विरुद्धों में सामंजस्य स्थापित करने की दृष्टि

वैष्णव मत ‘भागवत मत’ पांचरात्र मत में सब का सब आर्यों का दिया हुआ नहीं है। शैव-शाक्य मत में द्राविड़ प्रभाव भी कम नहीं है। विद्वानों ने यह प्रश्न शंका के साथ समय-समय पर उठाया है कि गौरवर्ण के आर्यों ने विष्णु की कल्पना (राम और कृष्ण) में काले रंग को क्यों स्थान दिया। ऋग्वेद में तो विष्णु सूर्य के पर्याय हैं। आ. क्षितिमोहन सेन ने वैष्णव धर्म को आर्य-धर्म न मानकर अवैदिक मानते हुए कहा है कि जिस भृगु ने लिंगधारी शिव को शाप दिया था उसी ने विष्णु के वक्षस्थल पर पदप्रहार किया। अत: वैष्णव धर्म प्राचीनतर वैदिक भग के उस पदाघात से लांछित होकर हमारे देश में प्रतिष्ठित हुआ। भारत में आर्यों के देव विष्णु, द्रविड़ों के आकाश-देव से मिल गए जिनका रंग द्रविड़ों के अनुसार आकाश सदृश नीला या श्याम था। डॉ. भण्डारकर ने कहा कि विष्णु में सूर्य, नारायण, वासुदेव तीनों तत्वों का योग है। विष्णु और राम का मूल स्रोत क्या है, इसका समाधान आज भी सरल नहीं है। हाँ, यह सच है कि राम के प्रति आदर, बुद्ध तथा महावीर के समय में भी जोरों पर था। वेदों में रामकथा के पात्रों के नाम हैं – दशरथ, कैकेयी, जनक, सीता आदि। वैदिक सीता (खेत में हल से बनायी हुई रेखा) को इन्द्रपत्नी और पर्यन्द – पत्नी भी कहा गया है। महाभारत के द्रोणपर्व में कृषि की अधिष्ठात्री देवी सीता का उल्लेख है।

हरिवंश पुराण में आता है – ‘तू कृषकों के लिए सीता है।’ पंडितों का अनुमान है सीता-कृषि देवी रही होंगी। सीता ही बाद में ‘आयोनिजा कन्या’ बन गईं और उन्हें हल चलाते जनक ने पाया। इन्द्र ही परम्परा में विकसित होकर राम बन गए। कई बार पंडितों ने राम-रावण युद्ध को आर्य-अनार्य युद्ध की कल्पना से भी जोड़ा है। किन्तु इस प्रकार की कल्पना से राम कथा की किसी समस्या का समाधान नहीं होता। ऐसा लगता है कि रामायण की कथा में तीन कथाओं का मेल हुआ है –

  • अयोध्या के राजा की कथा,
  • दक्षिण में रावण की कथा तथा
  • किष्किंधा के बानरों की कथा – हनुमान आदि की कथा ।

अत: राम, रावण, हनुमान तीनों ही तीन संस्कृतियों के प्रतीक हैं जिनका समन्वय-सामंजस्य ऋषि वाल्मीकि की प्रतिभा द्वारा संभव हुआ। आर्य-आर्येतर जातियाँ – वैष्णव, शिव सब एक हो गए। राम धीरे-धीरे विष्णु के अवतार बन गए। रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय’ में खोज-बीन के बाद कहा है, “भारत में संस्कृतियों का जो विराट समन्वय हुआ है, राम कथा उसका अत्यंत उज्ज्वल प्रतीक है। सबसे पहले तो यह बात है कि इस कथा में भारत की भौगोलिक एकता ध्वनित होती है, एक ही कथा में अयोध्या, किष्किंधा और लंका तीनों के बँध जाने के कारण सारा देश एक दीखता है। राम कथा की दूसरी विशेषता है कि इसके माध्यम से वैष्णव और शैव मतों का विभेद दूर किया गया।”

रामभक्ति काव्य और रामानंद सम्प्रदाय

रामानंद को रामभक्ति परम्परा के चिंतन का मेरुदण्ड कहा जा सकता है। उन्होंने ही सर्वप्रथम लोक भाषा में रचना कर्म करने की प्रेरणा दी। रामानंद की दो भुजाएँ – निर्गुण धारा में कबीर और सगुणधारा में तुलसीदास दोनों ही रामानंद के मानस-शिष्य हैं और दोनों ही दो परम्पराओं के प्रवर्तक और अपने-अपने ढंग के लोकमंगलवादी हैं। रामानंद सम्प्रदाय की स्थापना आज से छह सौ वर्ष पूर्व हुई थी। इस सम्प्रदाय या मत के प्रवर्तक स्वामी रामानंद का पूर्व-सम्बंध रामानुजाचार्य (11वीं शताब्दी) के सम्प्रदाय से रहा। इस बात की पुष्टि नाभादासकृत ‘भक्तमाल’ से भी होती है। रामानुजाचार्य की चिन्तन-परम्परा को हर्याचार्यकृत ‘रामस्तवराज भाष्य’, ‘रसिक प्रकाश’, ‘भक्तमाल’, ‘सम्प्रदाय दिग्दर्शन’ आदि ग्रंथों ने आगे बढ़ाया। विद्वानों ने रामानंद के द्वारा स्वतंत्र सम्प्रदाय के निर्माण का कारण बताते हुए कहा है कि देश-भ्रमण के बाद । रामानंद के भाइयों ने जगह-जगह खान-पान करने के कारण उन्हें धर्मभ्रष्ट कहकर अलग कर दिया।

फलत: गुरु-आज्ञा पाकर रामानंद ने एक अलग सम्प्रदाय की स्थापना की जिसमें जातिवाद का खंडन प्रमुख स्थान रखता है। राम को अपना आराध्य स्वीकार करते हुए रामानंद ने गाया – ‘जाति-पाँति पूछे नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।।’ इस प्रकार सभी जातियों के लिए बिना किसी भेद-भाव के हरि-भक्ति का मार्ग रामानंद ने खोल दिया। हिंदी के भक्ति-आंदोलन का जातिवाद-विरोधी चरित्र रामानंद की इसी विचारधारा का प्रचार-प्रसार कहा जा सकता है। 

रामानंद-सम्प्रदाय से पूर्व ‘श्री सम्प्रदाय’ था। मंत्र, ध्यान, पूजा, उपासना, उपास्यदेव आदि के आचारों के कारण इसकी दो शाखाएँ हो गई – एक में भगवान राम को प्रधानता मिली, दूसरे में नारायण को। कालान्तर में राम-शाखा का उद्धार रामानंद ने किया। अग्रदास ने रामानंद की गुरु-परम्परा में श्रुतानंद, चिदानंद, पूर्णानंद, हर्यानंद, राघवानंद तथा रामानंद का उल्लेख किया है। रामानंद ने स्वयं अपने ग्रंथ ‘रामार्चन-पद्धति’ में अपनी गुरु-परम्परा दी है। रामानंद ने अनुभव किया कि राम-भक्ति को साधना पक्ष की रूढ़ियों -जटिलताओं से मुक्त कर जनता के हृदय में उतारा जाए। उन्होंने राम और सीता के साथ हनुमान को नया रूप दिया।

रामानंद ने ही हनुमान की पूजा-आरती का तुलसीदास से पहले उत्तरी भारत में विस्तार किया। उन्होंने ही ‘आरति श्री हनुमान लला की’ प्रार्थना की रचना की जो भक्तों का कंठहार बनी है। रामानंद का जन्म प्रयाग में हुआ था और इस यायावर संत-आचार्य का देहावसान काशी में हुआ (सं. 1356-सं. 1467)। रामानंद के ग्रंथों में ‘श्री वैष्णवमताब्ज भास्कर’, ‘श्री रामार्चन पद्धति’, ‘आनंद भाष्य’, ‘सिद्धांत पटल’, ‘रामरक्षा स्तोत्र’, ‘योग चिन्तामणि’, ‘श्री रामाराधन’, ‘रामानंदादेश’, वेदान्त विचार’, शिवरामाष्टक’, हनुमानस्तुति’ आदि है। रामानंद के शिष्यों में अनंतानंद, सुखानंद, नरहर्यानंद, भावानंद, कबीर, पीपा, तुलसीदास आदि हैं। इस सम्प्रदाय के प्रसिद्ध स्थान अयोध्या, चित्रकूट, मिथिला और काशी रहे हैं।

रामानंद-संप्रदाय में विशिष्टाद्वैत को ही मान्यता प्राप्त है। रामानंद ने अपने मत को ‘आनंद भाष्य’ में प्रस्तुत किया और विशेष दार्शनिक विचार-धारा को ‘श्रीरामार्चन पद्धति’, ‘श्री वैष्णवमताब्ज भास्कर’ में स्पष्ट किया। उनके शिष्य कृष्णदास पयोहारी ने राजस्थान में गलता नामक स्थान में रामानंद की गद्दी स्थापित की। रामानंद के आराध्य हैं – श्रीराम । वे शील, शक्ति एवं सौंदर्य के केन्द्र हैं। रामानंद का यही प्रतिमान तुलसी ने ‘मानस’ में अपनाया है। इस संप्रदाय ने माना कि संसार के एकमात्र कर्ता, पालक एवं संहर्ता राम ही हैं – जीव उनका ही अंश है – अंशी-अंश सम्बंध । सीता, राम की अनादि-सहचरी, आद्याशक्ति हैं। राम-सीता की एकाग्रभाव से भक्ति ही भव-मोक्ष का साधन है। प्रपत्ति और न्यास इसके दो प्रधान अंग हैं और व्यवहार में नवधा-भक्ति की महिमा है।

इस सम्प्रदाय की मुख्य भक्ति पद्धति दास्य भाव की है। भक्ति के अधिकारी ब्राह्मण, शूद्र सभी हैं। यहाँ कर्मकाण्ड को विशेष आदर नहीं दिया गया। कबीर, तुलसी, मैथिलीशरण पर रामानंदी, विचारधारा का गहरा प्रभाव है। राम के साथ जीव का सेवक-स्वामी, सेव्य-सेवक, रक्ष्य-रक्षक संबंध है और राम ही रस-रूप हैं – आनंद रूप हैं कबीर ने अपने राम को । निर्गुण-निरंजन कहते हुए भी उसके गुणों का वर्णन किया है – पर दशरथ पुत्र अवतारी राम में कबीर का विश्वास नहीं है – तुलसी का है। किन्तु दोनों की भक्ति दास्य-भाव की है और दोनों ही लोक-भाषा के कवि हैं। तुलसी ने गोरखनाथ के योग-मार्ग की निंदा की है और कबीर ने शाक्तों की, किंतु दोनों भक्ति-मार्ग के धीर-गंभीर साधक हैं। रामानंद सम्प्रदाय के कवियों में अग्रदेव, अवधभूषणदास, कृपानिवास, कामदेन्द्रमणि, चित्रनिधि, जनकराज किशोरीशरण, जानकी रसिक शरण, नाभादास, रामचरणदास, रामप्रियाशरण, रसरंगमणिदास आदि का प्रमुख स्थान है। भ्रष्ट भक्तों ने राम-भक्ति में रसिक-सम्प्रदाय चलाकर माधुर्य-भाव के बहाने शृंगार-भाव भोग का चक्र भी चलाया है।

रामलीला परम्परा का प्रवर्तन

आ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘गोसाईं तुलसीदास’ शीर्षक ग्रंथ में राम-लीला परम्परा के प्रवर्तन का श्रेय तुलसीदास जी को दिया है। उनका मत है कि जनश्रुति के अनुसार नाटक की लोकशक्ति को समझकर तुलसीदास ने रामलीला का प्रारूप तैयार किया और काशी में पहली राम-लीला उन्हीं की प्रेरणा से हई। तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ को ‘नाट्य लीला प्रबंध’ के काव्य रूप में ढाला है। आज भी ‘रामचरितमानस’ की लोकप्रियता का आधार रामकथा का लीला के रूप में मंचन है। राम को लोक-नायक बनाकर तुलसी ने पूरे भारत में एकत्राणकारी के रूप में राम को निर्मित किया।

सिद्धों-नाथों की चमत्कारवादी-योगवादी-अद्वैती परम्परा से तुलसी ने अपने ढंग से मुकाबला किया – सगुण, साकार ब्रहम के लीला गायन – भजन कीर्तन के द्वारा। जयशंकर प्रसाद ने काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध’ शीर्षक पुस्तक के रहस्यवाद’ लेख में लिखा है – ‘दुखवाद जिस मनन शैली का फल था, वह बुद्धि या विवेक के आधार पर तर्कों के आश्रय में बढ़ती ही रही। अनात्मवाद की प्रतिक्रिया होनी ही चाहिए। फलत: पिछले काल में भारत के दार्शनिक अनात्मवादी ही भक्तिवादी बने और बुद्धिवाद का विकास भक्ति के रूप में हुआ।’ फिर आगे उन्होंने कहा, “जिन-जिन लोगों में आत्मविश्वास नहीं था उन्हें एक त्राणकारी की  आवश्यकता हुई।” कविवर प्रसाद का यह मत आ. रामचंद्र शुक्त के मत ‘भगवान की शरण’ में जानेवाली बात से एकदम जुड़ जाता है।

राजनीतिक पराभव के कारण जातीय आत्मविश्वास के स्खलन के भाव की चर्चा सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने ‘तुलसीदास’ काव्य में भी की है। स्वयं निराला पर तुलसीदास का बहुत गहरा प्रभाव है। तुलसीदास ने जातीय-आत्मविश्वास को दृढ़ करने के लिए राम लीला-नाट्य की रचना की। इस बात में पूर्णसत्य चाहे न हो पर आंशिक सत्य अवश्य है। उसकी चिंता ‘गोरख जगायो जोग भगति भगायो लोक’ निश्चय ही थी और रामानंद विचार पद्धति के भाव से हिन्दूजाति तन्त्र की जड़ता पर भी प्रहार करना चाहते थे।

‘परम्परा का मूल्यांकन’ पुस्तक में डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘तुलसी साहित्य में सामंत-विरोधी मूल्य’ तथा ‘भक्ति आंदोलन और तुलसीदास’ में तुलसी के भक्त की क्रांतिकारी भूमिका का अच्छा विवेचन मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। डॉ. रामविलास शर्मा ने ग.मा. मुक्तिबोध के प्रसिद्ध निबन्ध ‘मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन का एक पहलू’ की इस स्थापना कि सगुणवादियों ने निर्गुण संतों की भक्ति धारा के दाँत – ‘क्रांतिकारी दाँत उखाड़ दिए’ का खण्डन किया है। राम भक्ति धारा ने चाहे शूद्र राम भक्त कवि पैदा न किया हो पर शूद्र केवट, शबरी-निशाद, कोल-किरात को गले लगाया है। तुलसी के राम के मन में शूद्र और नारी के प्रति अपार सम्मान का भाव है। ‘ढोल गँवार शूद्र पशु नारी’ जैसी काव्यपंक्ति का अज्ञानियों ने दुरुपयोग किया है। राम के अयोध्या लौटने पर राम की अगवानी में नारियाँ आगे हैं, पुरुष नहीं। ‘नारि समुद्र समान’ का अर्थ भी हमें ठीक से समझना चाहिए।

राम लीला का प्रचार भक्तिकाल में जोरों पर था। अवध, काशी पहले प्रधान केन्द्र थे पर राजपूताना, इटावा, मथुरा, मैनपुरी, एटा, फर्रूखाबाद, अलीगढ़, कानपुर सभी जगह इसकी धूम थी। यह दक्षिण में बरार, मैसूर, रामेश्वरम् तक पहुँची। राम लीला का आधार पौराणिक राम कथा है और ‘रामचरित मानस’ इसका प्राण पोषक । संवाद छंदोबद्ध रहते हैं – प्राय: दोहा-चौपाई। सभी रस कथा में अद्भुत तत्व की सृष्टि करते हैं। धनुष यज्ञ के दृश्य, सीता स्वयंवर, परशुराम-लक्ष्मण संवाद, सीताहरण प्रसंग, बालि-वध प्रसंग, हनुमान-सीता-अशोकवाटिका आदि के दृश्य प्रसंग जनता के हृदय में रच बस जाते हैं। रंगमंच पर हर आयु का व्यक्ति अभिनय करता है। सूत्रधार रंगभूमि में उपस्थित रहता है और लीला का संचालन करता है। लीला के आरंभ और अंत में राम-सीता की आरती होती है। आज भी राम-लीला भारतीय जनता का अतीत नहीं वर्तमान है।

राम भक्ति भावना

भारतीय भक्ति भावना की प्राचीन परम्परा तथा वैष्णव चिन्तन में राम-भक्ति की महत्व प्रतिष्ठा देखकर सहसा ही यह विश्वास होता है कि राम भक्ति के विकास में वैष्णव चिंतन की आगम (लोक) निगम विद) परम्पराओं का बहुत बड़ा हाथ रहा है। यज्ञप्रधान, कर्मकाण्डी, ब्राह्मण धर्म की प्रतिक्रियास्वरूप भागवत धर्म उत्पन्न हुआ था। कहते हैं कि स्वयं भगवान को इस धर्म का प्रवर्तन करना पड़ा इसलिए इसका नाम पड़ा – ‘भागवत धर्म’ । भागवत-धर्म में भक्ति-मार्ग का विकास हुआ एवं भागवतों ने इष्टदेव वासुदेव को वैदिक देवता विष्णु का अवतार माना। इस प्रकार ब्राह्मण धर्म तथा भागवत धर्म के सामंजस्य से वैष्णव धर्म की उत्पत्ति हुई। वैष्णव धर्म में भक्ति-भावना विष्णु नारायण वासुदेव कृष्ण के साथ उत्तरोत्तर बढ़ने लगी।

ईसवीं सन् के प्रारंभ से राम को विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकृति मिल गई। किन्तु शताब्दियों तक राम-भक्ति ठंडी पड़ी रही। फादर कामिल बुल्के (रामकथा) तथा गोपाल भण्डारकर (वैष्णविज्म एंड शैविज्म) जैसे विद्वानों का कहना है कि भक्ति के क्षेत्र में राम की प्रतिष्ठा ग्यारहवीं शताब्दी ई. के लगभग प्रारंभ हुई। दरअसल, राम भक्ति की सशक्त अभिव्यक्ति काव्य के रूप में हुई। तमिल आलवारों की ‘नालियर-प्रबंध’ नामक रचना में भगवान विष्णु के अवतारों के प्रति भक्ति मिलती है।

कवि कुलशेखर (नवीं शताब्दी ई.) के पदों में राम-भक्ति का प्रवाह है और वहाँ ग्यारहवीं शताब्दी में राम-भक्ति से संबंधित रचनाओं की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई तथा स्तोत्र साहित्य उमड़ पड़ा, जैसे श्री राम सहस्त्रनाम स्तोत्र, रामरक्षा स्तोत्र आदि। पन्द्रहवीं शताब्दी ई. तक राम भक्ति की धारा ने दक्षिण से उत्तर में नया मोड़ लिया। श्री सम्प्रदाय के आचार्यों ने राम-भक्ति-काव्य की शास्त्रीय दार्शनिक भूमिका तैयार की। ध्यान देने की बात यह है कि श्री सम्प्रदाय उन चार सम्प्रदाय में से एक है जो शंकराचार्य के मायावाद के विरोध में सामने आया है। इसने अवतारवाद को स्वीकार कर भक्ति के दार्शनिक आधार को प्रस्तुत किया। श्री सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने अपने ‘श्रीकाव्य’ में राम और कृष्ण के अवतारों का उल्लेख किया तथा भक्ति के नर-नारायण सिद्धांत को आदर के साथ प्रतिष्ठित किया।

श्री सम्प्रदाय के तीनों उपनिषद् राम-भक्ति का प्रतिपादन करते हैं – ‘रामपूर्वतापनीय’, ‘रामोत्तरतापनय’ तथा ‘रामरहस्योपनिषद्’ । राम भक्ति में संहिताएँ लिखी गई – जैसे ‘अगस्त्य संहिता’, ‘कालिराघव संहिता’, ‘राघवीय संहिता’ आदि। यह ठीक बात है कि रामानंद से पूर्व महाराष्ट्र में नामवेद और त्रिलोचन राम-भक्ति का प्रचार कर चुके थे। किन्तु उत्तर भारत में राम-भक्ति को जनसाधारण में लोकप्रियता प्रदान कराने का श्रेय रामानंद को ही है। ‘अध्यात्मरामायण’, ‘आनंदरामायण’, ‘अद्भुत रामायण’ तथा ‘भुशुण्डी रामायण’ आदि ने राम-भक्ति की भूमि तुलसीदास के लिए तैयार कर दी थी।

वैष्णव-शैव-भक्ति आंदोलन और हिंदी का भक्ति काव्य

भारतीय चिंतनधारा में भक्ति-मार्ग का विशिष्ट महत्व अनेक साहित्यिक सांस्कृतिक, धार्मिक-राजनीतिक कारणों से है। अपने पूरे स्वरूप में यह आन्दोलन अखिल भारतीय है और इसका चरित्र सामन्त-विरोधी है। कर्मकाण्डवाद-ब्राह्मणवाद, पुरोहितवाद, कट्टर धर्मवाद, जातिवाद का विरोध इस भक्ति-आंदोलन की क्रांतिकारी चेतना है। भक्ति के बीज वैदिक-उपनिषद् युग में ही मिलने लगते हैं। कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड की दुरूहता को भक्ति-मार्ग समाप्त करता चलता है इसलिए शास्त्र के विरुद्ध लोक-जागरण की विद्रोही। चेतना इस भक्ति-आंदोलन का ‘स्व-भाव’ है। वेद, उपनिषद्, रामायण-महाभारत-काल, गीता महाकाव्य, भागवत धर्म आदि को वैष्णव-भक्ति भावना के विकास का सोपान मानना होगा। ब्राह्मण ग्रंथों का कर्मकाण्ड और यज्ञ का पुरोहितवाद बौद्धों के चिंतन से लड़खड़ा जाता है। बौद्ध और जैन दोनों दर्शनों का चिंतन ब्राह्मणवाद विरोधी रहा है। बौद्ध धर्म जैसे-जैसे लोक-धर्म में घुलता गया, वैसे-वैसे मध्ययुगीन धर्म-साधना में सहज-साधना और भक्ति-भावना की भूमि तैयार होती गई।

दक्षिण भारत में विशेषकर तमिल प्रदेश में आलवार और नयनारों ने भक्ति आंदोलन को तेज गति प्रदान की। आलवारों ने भक्ति-मार्ग को जो नया रूप दिया, उसे ही ‘वैष्णव भक्ति आंदोलन’ कहा जाता है। आंदोलन का यहाँ अर्थ है – सुधारवादी नवजागरण की चेतना का विद्रोही तेवर। आलवारों ने शास्त्रीय वैष्णव भक्ति को भावमूलक बनाकर जनसाधारण में फैलाया। इस प्रकार भक्ति आंदोलन को जन-आंदोलन बनाने में आलवारों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। इन आलवार भक्तों का समय ईसा की पाँचवी शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक है। आठवीं शताब्दी में शंकराचार्य के आविर्भाव ने भक्ति आंदोलन को भारी झटका दिया लेकिन कुछ समय बाद रामानुजाचार्य (11वीं शताब्दी) ने इसमें पुनः प्राण डाल दिए। रामानुजाचार्य ने शंकर की दार्शनिक स्थापनाओं का विरोध करते हुए भक्ति का शास्त्रीय विवेचन किया। इस प्रयत्न से अनेक सम्प्रदायों का जन्म हुआ और दक्षिण भारत की भक्ति का प्रवाह उत्तर भारत पहुँचा। ‘भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाए रामानंद’ के पीछे मध्ययुग के महान संत रामानंद की महिमा का ही उद्घोष है। भक्ति की निर्गुण और सगुण मार्गी धाराओं पर रामानंद के चिंतन का प्रभाव पड़ा है।

रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य, मध्वाचार्य और बल्लभाचार्य जैसे आचार्यों ने भक्ति आन्दोलन को दृढ़ दार्शनिक और सामाजिक आधार प्रदान किया। दक्षिण के ये आचार्य उत्तरी भारत में आए और जनता की भक्ति-भावना को सींचने का कार्य करने लगे। मध्वाचार्य-वल्लभाचार्य ने कृष्णोपासना को और रामानंद ने रामोपासना को संजीवनी देने का कार्य किया।

आलवार और नयनार दोनों ने सगुणभक्ति को विशेष रूप से अपनाया और उसमें शरणागतिभाव (प्रपत्तिभाव) को प्रधानता दी। सामान्यत: आलवारों की संख्या बारह मानी गई है और इनके भजन गीत जिस ग्रंथ में संग्रहीत किए गए हैं उसका नाम है – ‘तमिलदिव्यप्रबन्धम’। नवीं शताब्दी में नाथमनि ने मौखिक परम्परा में विद्यमान आलवार भक्तों की रचनाओं को संग्रहीत किया। रामानुजाचार्य के समय में उनके शिष्य अमुदन ने अपने गुरु रामानुजाचार्य की स्तुति में जो पद रचे थे उन्हें भी बाद में तमिल प्रबन्धम’ कहते हैं। इस वैष्णव कवि समूह में आंदाल (गोदा) एकमात्र स्त्री है। वैष्णव आलवारों के साथ शैव भक्त कवि नयनार का भक्ति आंदोलन में अविस्मरणीय योगदान है। शैव भक्तों ने तमिल में बौद्धों और जैनों को परास्त कर शैव भक्ति को जनभक्ति का रूप दिया। ये शैव संत इतने लोकप्रिय हुए कि शैव मंदिरों में इनकी मूर्तियाँ स्थापित की गई और इनके पदों का गायन शुरू हुआ। नयनार भक्तों की एक लम्बी परम्परा है जिसमें तिरसठ संत-भक्त आते हैं। पल्लव-चोल राजाओं का इन्हें राज्याश्रय मिला और सैंकड़ों शैव-मंदिरों का निर्माण हुआ।

आलवारों ने श्रीकृष्ण और राम को विष्णु का अवतार माना है और क्षीरशायी विष्णु के रूष को विशेष महिमामंडित किया। किन्तु आलवारों का मन राम में कम श्रीकृष्ण में ज्यादा रमा है। सच बात यह है कि रामकथा का विकास भारतीय भाषाओं में ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के बाद ही अधिक हुआ है। ‘नालियार दिव्य प्रबन्धम’ से प्रभावित दक्षिण भारत के भक्त आचार्यों ने शंकराचार्य के ‘मायावाद’ का खंडन किया। रामानुजाचार्य (सं० 1084-1194) ने उत्तरी भारत की यात्रा की और विशिष्टाद्वैत (जीव और जगत दोनों परमात्मा के गुण विशेष हैं और जगत सत्य है – यह सिद्धान्त विशिष्टाद्वैत कहलाता है) के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। कर्मकांड एवं ज्ञान कांड का खंडन करते हुए भक्ति मार्ग की स्थापना की तथा उच्चवर्णों के साथ निम्नवर्गों के लिए भी भक्ति का द्वार खोल दिया।

निम्बार्काचार्य (सं. 1171-1219) ने दार्शनिक मत द्वैताद्वैत के अनुसार राधा-कृष्ण भक्ति का प्रतिपादन किया। मध्वाचार्य (सं. 1254-1333) ने द्वैत-सम्प्रदाय के अनुकूल सगुण राधा-कृष्ण के लीलागान पर बल दिया। बल्लभाचार्य (सं०1536-1587) ने अपने शुद्धाद्वैतवाद में राधा-कृष्ण भक्ति का ‘पुष्टि-मार्ग’ प्रदिपादित किया। बल्लभाचार्य के प्रभाव से भक्ति आंदोलन में जनता के लिए राग और रस तत्व का प्रवेश डटकर हुआ है। चैतन्यदेव (सं. 1542-1590) ने राग प्रधान रागानुरागा भक्ति को जनभाषा के माध्यम से जनसाधारण के भक्ति आंदोलन में बदलने का प्रयास किया। रामानंद के द्वारा यह बहुत बड़ा कार्य हुआ कि उन्होंने कबीर और तुलसीदास दोनों को जातिवाद विरोधी भक्ति आंदोलन का रास्ता दिखाया है।

हिन्दी साहित्य का भक्ति आंदोलन : इस्लाम का प्रभाव है या प्रतिक्रिया

आइए इस विषय की स्पष्ट समझ के लिए अधिक विस्तार से चर्चा करें। हिंदी साहित्य में भक्ति धारा का उदय ‘वीरगाथाकाल’ के बाद क्यों, और कैसे हुआ, इस पर विद्वानों में विवाद हुआ। ‘जिन-जिन लोगों में आत्मविश्वास नहीं था उन्हें एक त्राणकारी की आवश्यकता हुई।’ (काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध) जयशंकर प्रसाद के इस मत से आ. रामचन्द्र शुक्ल का मत बहुत मिलता है। इस्लाम की आक्रामक परिस्थितियों ने भक्ति आंदोलन को तीव्र किया। साथ ही ‘भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा अवकाश दिया’ ।

आ. शुक्ल ‘जनता की चित्तवृत्ति’ के अनुसार भक्तिकाल के उदय की व्याख्या करते रहे। आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में लोकचिंता’ को आधार बनाकर आ. शुक्ल के मत का प्रतिवाद किया। भारतीय साहित्य की प्राणधारा और भारतीय चिन्ता के स्वाभाविक विकास’ पर ध्यान देकर उन्होंने कहा – ‘मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस (हिन्दी) साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।’ आ. द्विवेदी ने कहा कि हिंदी साहित्य ‘हतदर्प पराजित जाति’ की सम्पत्ति नहीं है और न मुस्लिम आक्रमण की प्रतिक्रिया है।

आ. शुक्ल और आ. द्विवेदी के द्वारा उठाए गए विवाद को लेकर नए सिरे से रामस्वरूप चतुर्वेदी और नामवर सिंह के बीच एक वैचारिक युद्ध हुआ। प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने ‘हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास’ (प. 39) में लिखा है – “यहाँ स्पष्ट है कि रामचन्द्र शक्ल ने भक्तिकाल संबंधी अपनी व्याख्या में इस्लाम के प्रति जो प्रतिक्रिया की बात कही थी वह हजारीप्रसाद द्विवेदी को स्वीकार नहीं है। अच्छा तो होता कि दो पंडितों के बीच के इस विवाद को यहीं छोड़ा जा सकता। पर एक तथ्य की ओर ध्यान दिलाए बिना यह प्रसंग अधूरा रह जाएगा। सूरदास विषयक अध्ययन करते समय विद्वानों ने प्राय: वल्लभाचार्य की इन पंक्तियों को उद्धत किया है, दश म्लेछाक्रांत है, गंगादि तीर्थ दुष्टों द्वारा भ्रष्ट हो रहे हैं, अशिक्षा और अज्ञान के कारण वैदिक धर्म नष्ट हो रहा है, तत्पुरुष पीड़ित व ज्ञान-विस्मृत हो रहा है, ऐसी स्थिति में एकमात्र कृष्णाश्रय में ही जीवन का कल्याण है।’

भक्त कवियों के एक प्रमुख गुरु के सीधे साक्ष्य पर यों प्रतिक्रिया वाली व्याख्या पुष्ट होती है। अच्छा होता कि प्रभाव और प्रतिक्रिया दोनों रूपों में इस्लाम की व्याख्या सहज भाव और अकुंठ मन से की जाए। तब आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी के बीच दिखनेवाला यह मतभेद अपने आप शांत हो जाएगा। भक्ति काव्य के विकास के पीछे बौद्ध धर्म का लोकमूलक रूप है और प्राकृत के शृंगार की प्रतिक्रिया है तो इस्लाम के सांस्कृतिक आतंक से बचाव की सजग चेष्टा भी है। इस्लामी प्रतिक्रिया वाली रामचन्द्र शुक्ल की व्याख्या को कई बार अनजान में, या कि शायद जानबूझकर, विभ्रमित किया जाता है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ और उनके योग्य शिष्य नामवर सिंह ने गुरु-प्रसंग में लिखित अपनी पुस्तक ‘दूसरी परम्परा की खोज’ में इस्लाम के आगमन से उत्पन्न सांस्कृतिक आतंक की समस्या को हिन्दुओं के लिए महज सरकारी नौकरियाँ न मिल पाने की चिंता के रूप में देखा है। पर वल्लभाचार्य के लिए प्रश्न नौकरियों का नहीं है हिन्दु अस्मिता का है। इसी प्रश्न को आधुनिक काल में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने ‘तुलसीदास’ शीर्षक काव्य में उठाया है – ‘भारत के नभ का प्रभापूर्ण/शीतल च्छाय सांस्कृतिक सूर्य’ अर्थात भारत का सांस्कृतिक सूर्य मंद पड़ गया है तथा इस्लाम के चन्द्रमा की चाँदनी फैल रही है। निराला ने मुगलों-पठानों के आक्रमण को वर्षा के रूपक में बाँधा है –

‘मोगल-दल-बल के जलदयान

दर्पित पद उन्मदनद पठान हैं

बहा रहे दिग्देश ज्ञान, शरखरतर

छाया ऊपर घन अंधकार – टूटता वज्र वह दुर्निवार

नीचे प्लावन की प्रलयधार, ध्वनि हर हर।’

यहाँ का कवि निर्भय-भाव से इस्लाम के सांस्कृतिक आतंक को देख रहा है। इस पर रामस्वरूप चतुर्वेदी की टिप्पणी है – “इस सांस्कृतिक संकट की चुनौती से जूझने को उद्यत होते हैं – तुलसीदास । भक्तिकाल के उदय को लेकर रामचंद्र शुक्ल की व्याख्या का यह जैसे काव्यात्मक चित्रण निराला ने किया हो। इतिहासकार के दृष्टिकोण का जैसा पुष्ट समर्थन वल्लभाचार्य के प्रकरण ग्रंथ से होता है वैसी ही मार्मिक सहमति उसे आधुनिक कवि निराला से मिलती है। जायसी ने खुले मन से ‘पद्मावत’ में हिन्दू-तुर्क युद्ध का वर्णन किया है – निराला ने वैसे ही कहा – ‘शासन करते हैं मुसलमान’ । वल्लभ ने ‘म्लेच्छाक्रांतेषु देशेषु पापैकनिलपेषुच’ कहा है। वास्तव में यह हिन्दू-अस्मिता के लिए संकट का समय है।”

‘दूसरी परम्परा की खोज’ में नामवर सिंह ने रामस्वरूप चतुर्वेदी के मत का विरोध करते हुए लिखा है कि ‘यह सही है कि स्तोत्र के इन श्लोकों में एक जगह देश के ‘म्लेच्छाकान्त’ होने का उल्लेख है और यदि म्लेच्छ को मुसलमानों का वाचक मान भी लिया जाए तो यह कहाँ सिद्ध होता है कि गंगादि तीर्थों के भ्रष्ट होने, वेदों के अर्थ के तिरोहित होने, व्रतादिक सभी कर्मों के नष्ट होने, पाखण्ड, पाप, अज्ञान आदि के बढ़ने के लिए म्लेच्छ ही जिम्मेदार है और इन्हीं के आक्रमण के कारण कृष्ण का आश्रय ढूँढा जा रहा है।” इस पर चतुर्वेदी जी का कहना है कि बड़ी कठिनाई से आलोचक मान पाता है कि ‘म्लेच्छ’ का अर्थ मुसलमान हो सकता है’ पर इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि ‘अज्ञान आदि के बढ़ने के लिए ये म्लेच्छ ही जुम्मेदार है।’

तब वल्लभाचार्य का कृष्णाश्रय’ का मत और आ. शुक्ल का विपरीत दशा’ का देश-संकेत क्या झूठा है, नहीं ऐसा नहीं है। दरअसल, नामवर सिंह मध्ययुग के भारतीय इतिहास का मुख्य अन्तर्विरोध शास्त्र और . लोक के बीच का द्वन्द मानते हैं, इस्लाम और हिन्दू धर्म का संघर्ष नहीं। जबकि इस्लाम के सांस्कृतिक आतंक की बात को नकारा नहीं जा सकता। इसलिए चतुर्वेदी जी ने लिखा है कि नामवर सिंह इस पूरे परिदृश्य से मुँह मोड़ लेते हैं। क्यों मुँह मोड़ लेते हैं? ऐसे आलोचक वस्तुतः हिन्दू मुसलमान की चर्चा आते ही परेशान होने लगते हैं। उनकी दृष्टि में यह चर्चा मात्र साम्प्रदायिकता से प्रेरित और प्रभावित है। इस मन: स्थिति के कारण वे हिन्दी भाषा और साहित्य के सच्चे असाम्प्रदायिक चरित्र की अवहेलना करते हैं। वे यह नहीं देखते कि चन्द और जायसी हिन्दू मुसलमान युद्ध की चर्चा करके भी साम्प्रदायिक नहीं होते। आ. शुक्ल की दृष्टि में जायसी यदि किसी से तुलनीय हैं तो तुलसीदास से। रहीम और तुलसी की जनप्रियता की चर्चा में भी वे रहीम को तुलसी से कम महत्व नहीं देते।

कबीर और जायसी की निर्गुणधारा में हिन्दू तुर्क संघर्ष की चर्चा जगह-जगह मिलती है, पर कृष्ण भक्ति धारा, राम भक्ति धारा या पूरी सगुण भक्ति परम्परा में ‘हिन्दू-तुर्क’ संघर्ष का सीधा उल्लेख नहीं मिलता है। उल्लेख मिलता है तो नगण्य रूप में। इसका कारण है कि सगुण भक्त कवियों की धारा प्रेम-भक्ति-रागानुगा भक्ति की चरम तन्मयता में ही निमग्न रही है। तुलसी ने तो साफ कहा है कि ‘रामहि केवल प्रेम पियारा।’ सूफी प्रेम-तत्व का प्रभाव कृष्ण भक्त कवियों पर पड़ा और सभी कृष्ण भक्त प्रेम महिमा के मुक्त गायक और प्रशंसक हैं। पूरी की पूरी सगुण भक्ति धारा सामन्तवाद के विरोध में पंडावाद, पुरोहितवाद, जातिवाद के विरोध में डटी हुई है, इस बात की डॉ. रामविलास शर्मा ने तो हिंदी जाति का इतिहास’ पुस्तक में विस्तार से चर्चा की है। भक्ति शास्त्र से प्रेरणा लेकर भी भक्तिकाव्य ‘शास्त्र’ मोह में नहीं फँसता, वह ‘लोकधर्म’ की ओर उन्मुख रहा है। आ. शुक्ल ने ‘तुलसीदास’ पुस्तक में तुलसी के लोकधर्म की इसी विचार से चर्चा की है। तुलसी के लोकधर्म’ को ‘वर्णाश्रम-धर्म’ का पर्याय मानना न केवल अनुचित है बल्कि इतिहास की गलत व्याख्या का परिणाम है। यह न भूलना चाहिए कि रामानंद की भक्ति चेतना से प्रेरित भक्ति आंदोलन न केवल जातिवाद विरोधी था बल्कि विराट जन-आंदोलन था।

रामभक्ति काव्य के सामन्तवाद विरोधी मूल्य

‘भक्ति’ तथा ‘भक्ति आंदोलन’ का पूरा चरित्र सत्तावाद सामन्तवाद का विरोधी रहा है। कृष्ण भक्त धारा के एक भक्त कवि कुम्भनदास का पद सन्तन को कहा सीकरी सो काम’ इस पूरी विचार परम्परा का प्रतीक है। तुलसीदास ने ‘प्राकृत जन कीन्हे गुन गाना’ की प्रशस्ति परम्परा का विरोध किया । उनका यह स्वर न केवल विद्रोही स्वर है बल्कि गहरे अर्थों में चारण-भाट-सामन्त पूजा का तिरस्कार करता है। भक्ति आन्दोलन की प्राणधारा से प्रभावित अकबर ने तीर्थकर और जजिया समाप्त कर दिया। उसी के समय में राजा मानसिंह ने वृन्दावन और काशी में विशाल मन्दिर बनवाए।

कुछ अकबरकालीन ऐसे सिक्के मिले हैं जिन पर ‘राम-सीता’ का चित्र अंकित है, ऐसी एक अठन्नी ‘भारत कला भवन’ काशी में है। ‘राम-सीय’ नागरी में अंकित हैं। अकबर स्वयं सूर्यनाम का हजारा जप करता था और पंडित सुन्दर लाल जी से हिन्दू शास्त्रों की चर्चा सुनता था। ‘ईश्वर’ से बड़ा कोई नहीं है यह बात भक्तिकाल में निर्गुण कबीर, प्रेममार्गी जायसी में पूरे विश्वास के साथ मौजूद है और इसी बात को ‘राम से बड़ो है कौन’ पूछकर तुलसी ने राम-भक्ति-महिमा का लीला गान किया है। रसिक राम भक्तिधारा में रामदास, अग्रदास, विष्णुदास, नहररिदास, कल्याण जी, नाभादास, चतुरदास, रामदास, मलूकदास सभी ने ‘दाताराम’ के गुणों का गान किया है – किसी हिन्दू मुसलमान सामन्त का नहीं। इन सभी के लिए भक्ति मात्र उपासना पद्धति नहीं है – एक मूल्य है, एक पूरी जीवन-पद्धति।।

मर्यादावादी रामभक्ति परम्परा ने वाल्मीकि रामायण के आदर्श पर रामकथा पर आधारित प्रबन्धों की रचना की। तुलसी पूर्व रामभक्ति धारा में कवि ईश्वरदास तथा विष्णुदास ने चरित काव्य परम्परा का राम-रूप लिया है। मोहन ने हनुमन्नाटक’ सूरदास ने ‘सूरसागर’ में राम-रामायण लिख दी और मीराबाई . ने राम की शयन-आरती लिखकर कृष्ण भक्तों की राम निष्ठा का विस्तार किया। परमानंद दास, नंददास, हितहरिवंश सभी राम-सीता गान करते हैं। इस परंपरा का श्रेष्ठ रूप तुलसी दास में ‘रामचरितमानस’, ‘कवितावली’ ‘गीतावली’ ‘विनय पत्रिका’ आदि रचनाओं के द्वारा अभिव्यक्त हुआ है। जहाँगीर-कालीन सामंतवाद के अत्याचार तुलसी को याद हैं –

करहि उपद्रव असुर निकाया।  नाना रूप धरहिं करिमाया।।

जेहि विधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहि वेद प्रतिकूला।।

‘नाना पुराण निगमागम सम्मत’ अर्थात आगम (लोक-परंपरा) निगम (वैदिक-बौद्धिक परम्परा शास्त्र) दोनों परम्पराओं को मिलाकर तुलसी ने राम कथा को सामन्तविरोधी मूल्यों से मंडित किया। राम वनवास के । समय ग्रामवासियों से मिलते हैं – केवट-निषाद को गले लगाते हैं, अहिल्या को तारते हैं, पतित पावन राम, दीनबन्धु-दीनानाथ के रूप में सामने आते हैं – वे राजाओं के पास मदद माँगने नहीं जाते, बानरों-भालुओं-भीलों निषादों की मदद से जगत दुःखदाता’ रावण का वध करते हैं। जगह-जगह मानस में सामन्तवाद – साम्राज्यवाद को नीचा दिखाया गया है। मुनियों-तपस्वियों को सताने वाले ताड़का, सुबाहु, मारीचि का वध लोक को सुखी बनाने के लिए किया गया है। बालि का वध भी ‘अनुज-वधू भगिनी सुत नारी’ की मर्यादा के तर्क को पुष्ट करता है। तुलसी का रामकाव्य महलों के खिलाफ झोपड़ियों – ग्रामों-वनों की प्रतिष्ठा का काव्य है।

यवन भील कोल किरात निषाद सभी को राम अपनाते हैं और निषादराज को तो ‘भरत सम भाई’ कहते हैं। शास्त्र और शास्त्रीयता को तोड़कर तुलसी राम कथा को लोक ग्राह्य बनाते हैं। राम कथा के रचनाकार शिव हैं और श्रोता पार्वती। शिव-पार्वती ही यह कथा लोक में फैलाते हैं। संस्कृत को छोड़कर तुलसी जन-भाषा (अवधी) में रचते हैं। लोक-काव्यरूपों को, लोक छन्दों को अपनी कृतियों में अपनाते हैं। दरबारी काव्य-परम्परा के मूल्यों को राम भक्ति धारा हर स्तर पर चुनौती देती है। रीतिकाल में (केशवदास जिनका समय भक्तिकाल में पड़ता है) ‘रामचन्द्रिका’ के राम केशव के दरबारी काव्य के राम हैं भक्ति काव्य के ‘अशरण-शरण राम’ नहीं हैं । तुलसी की भक्ति का स्वरूप पुरोहितवाद, मुल्लावाद-पंडितवाद को अपनाने के विरुद्ध सतत संदेश देता है। राम का दीन बंधु, दीन दयाल, दीन रक्षक का रूप ही सामन्तवादविरोधी मूल्य है। डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘तुलसी साहित्य के सामन्तविरोधी मूल्य’ तथा ‘भक्ति आंदोलन और तुलसीदास’ शीर्षक निबन्धों में कहा है कि –

  1. यथार्थ यह है कि वर्णाश्रम धर्म के समर्थक पुरोहितों ने तुलसीदास को काफी सताया था और तुलसीदास ने भी उनका उचित उत्तर देने में आगा-पीछा न किया था।
  2. तुलसी की भक्ति सभी जातियों और वर्गों को मिलाने वाली थी।
  3. तुलसी की भक्ति वर्ण, जाति, धर्म आदि के कारण किसी का बहिष्कार नहीं करती। जिन तमाम लोगों के लिए पुरोहित वर्ग ने उपासना और मुक्ति के द्वारा बन्द कर दिए थे, उन सबके लिए तुलसी ने उन्हें खोल दिया।
  4. पुरोहित वर्ग ने जो व्यवहार नीची जातियों के साथ किया था वही व्यवहार उसने स्त्रियों के साथ किया था। उनके लिए केवल एक ही धर्म था कि पति की सेवा करें ।  तुलसीदास ने स्त्रियों के लिए उपासना के द्वार खोल दिए। राम से मिलने, उनका स्वागत सत्कार करने, उनका स्नेह पाने में स्त्रियाँ सबसे आगे रहती हैं।
  5. तुलसीदास ने जनसाधारण के सौंन्दर्य-बोध की जैसी सुकुमार व्यंजना की है, वह हिन्दी साहित्य में अनुपम है।
  6. याद रखना चाहिए कि तुलसी सूर आदि कवियों ने चार सौ साल पहले ही भारतीय संस्कृति को चमत्कारवादियों से मुक्त करने का बीड़ा उठाया था।
  7. तुलसीदास हमारे जातीय जनजागरण के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनकी कविता की आधार शिला जनता की एकता है।

तुलसी साहित्य एक ओर आत्मनिवेदन और विनय का साहित्य है, दूसरी ओर वह ‘प्रतिरोध का साहित्य भी है’। (परम्परा का मूल्यांकन, पृ. 94)

भक्ति-भावना का अर्थ-संदर्भ

निर्गुण-सगुण में अभेद भाव, सगुण में गहरी आस्था ही राम भक्ति की भक्ति नहीं है। भक्ति रसपान के लिए भक्त कवि में याचक भाव है और भक्ति ऐसी जिसमें अहं का विलयीकरण हो। रचना और भक्ति दोनों प्रक्रियाएँ एक साथ सक्रिय रहती हैं। ये भक्त कवि अपने को सबसे बुरा, सबसे पतित कहते हैं, यह इनका विनय-भाव है। प्रपत्तिवाद, शरणागत भाव से उपजी दास्य भक्ति का चरम प्रतिमान हनुमान भाव की भक्ति है जिसमें राम से बड़ा राम भक्त है – ‘राम ते अधिक राम कर दासा’ । नाम, ध्यान, स्मरण, जप नवधा भक्ति के सभी रूपों को राम भक्ति में अपनाया गया है। रामभक्ति का सार यही है – सेव्य-सेवक भाव।

सेव्य सेवक भाव बिनु, भव न तरिय उरगारि।

भजहु राम पद पंकज, अस सिद्धान्त विचारि ।।

(मानस)

तुलसीदास ने दार्शनिक और ज्ञानी से भक्त को बड़ा घोषित किया है और अलख-निरंजनवादी-‘गोरख जगायो जोग’ योग-तन्त्र के चमत्कारवादी विधान का खण्डन किया-तुलसी अलखहि का लखै राम नाम जपु नीच । साथ ही उन्होंने शाण्डिल्य भक्ति-सूत्र, नारद भक्ति-सूत्र, गीता के भक्ति मार्ग को छानकर भक्ति-रस का लोकमंगलमय स्वरूप निर्मित किया। इस भक्ति पर राजा-रंक, नर-नारी, ब्राहमण-शूद्र, हिन्दू-मुसलमान, पंडित-मूर्ख सभी का समान अधिकार है, सभी राम भगति के अधिकारी हैं। तुलसी ने धर्म और दर्शन को जोड़कर ‘भक्ति’ का एक विशिष्टाद्वैतवादी ढाँचा निर्मित किया जिसमें कोई भी पराया नहीं है और किसी को भी भक्ति की मनाही नहीं है। तुलसी से पूर्व कबीर ने भक्ति की व्याख्या में कर्मकाण्ड-पुरोहितवाद का खण्डन किया था- वेद पुराणों की निंदा की थी –

साखी सबदी दोहरा कहि, कहनी उपखान ।

भगति निरूपहिं भगत कलि निन्दहि वेद-पुराण।।

रामभक्ति धारा ने वैष्णव भक्तिवाद को सरस बनाने के लिए लोकचित्त को आकृष्ट करने के लिए अवतारवाद-लीलावाद को अपनाया। ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य से ज्यादा लीलाकाव्य है, चरित काव्य है। राम कथा सभी संशयों को दूर कर जन मन में राम के प्रति दृढ़ भक्ति पैदा करती है। भक्तों के लिए राम करुणा के सागर है। सन्तों का संग, प्रभु की कथा में प्रेम, गुरुपद सेवा, प्रभु के गुणों का गान, मन्त्र-जाप, सज्जन धर्म से सेवा, सन्तों का आदर, प्रभु का सखा-सखी भाव से स्मरण, आत्मनिवदेन यही नवधा भक्ति है। ‘नवधा भगति कहौं मोहि पाही’ तुलसी का यही संकेत है। ज्ञानमार्ग, कर्मयोग मार्ग से भक्ति-मार्ग श्रेष्ठ है।

तुलसीदास ने ‘मानस’ के ‘उत्तरकाण्ड’ में ज्ञान और भक्ति की विस्तार से चर्चा की है। ज्ञान-मार्ग को तलवार की धार पर चलना कहा है, पर भक्ति-मार्ग सभी के लिए सुलभ है। इस प्रकार राम काव्य परम्परा ‘निर्वाण’ तथा ‘मोक्ष’ को न चाह कर राम के चरणों की भक्ति, अनन्य भक्ति का प्रतिपादन करती है।

रामकाव्य परम्परा में लोक जीवन और लोक संघर्ष

रामभक्ति काव्य में लोक-धर्म’, ‘लोक चिन्ता’, लोक मानस’, ‘लोकरक्षा’ तथा लोक मंगल’ की भावना का प्राधान्य है। प्रमुख राम भक्त कवि तुलसी ने लोक संघर्ष अर्थात साधारण जनता के जीवन संघर्ष का चित्रण किया है। तुलसी काव्य के नैतिक मूल्यों का संघर्ष साधारण जन संघर्ष से जुड़ा संघर्ष है। स्वयं तुलसी ने भूख-गरीबी, अकाल, काम-क्रोध-मद-लोभ से संघर्ष किया है और इस आत्म संघर्ष के चित्र ‘कवितावली, गीतावली, दोहावली, विनय पत्रिका में विशेष रूप से दिए हैं। तुलसी काम से लड़ते हैं तो उसे नष्ट करने के लिए, उसे ‘मर्यादित’ करने के लिए लड़ते हैं। ‘नारद मोह प्रसंग’ में नारद की खिल्ली उड़ाते हैं तो शूर्पणखा की काम-उद्दण्डता पर दण्ड देते हैं और रावण को काम’ मर्यादा अस्वीकार करने के कारण मरण-दण्ड।

तुलसीदास वैराग्य का उपदेश नहीं देते पर लोक मर्यादा के पालन का संदेश देते हैं। जनक वाटिका में राम को कंकन-किंकिन नुपुर धुनि सुनि’, ‘मदन दुंदुभी दीन्हीं’ का विचार आता है तो कहते हैं – ‘मन कुपंथ पथ’ कभी भी रघुवंश परम्परा में नहीं रहा है। रावण परशुराम, नारद और बालि को मद हो गया तो राम उस मद को तोड़ते हैं। समुद्र को बल का मद हो गया तो राम ने ‘भय बिनु होय न प्रीति’ का सहारा लिया। तुलसी ने लोक को संघर्ष करने का उपदेश दिया है – यह संसार झूठा मिथ्या नहीं है सत्य है, इसमें कर्म सौंदर्य ही सत्य है। ‘झुठो है झूठो है’ कहने वालों पर तुलसी ने व्यंग्य किया है और इस संसार को ‘सीय राम मय सब जग जानी’ अर्थात सीता-राम का यथार्थ रूप माना है।

नीच कर्म में पड़े ब्राह्मण-पुरोहित, जातिवाद में पागल व्यक्ति की वे निंदा करते हैं। राम राज्य’ की आदर्श-कल्पना में प्रजा के सुखी सम्पन्न जीवन का स्वप्न है। तुलसी के समय ‘कालि बारहि बार अकाल परै’, ‘खेती न किसान को भिखारी को भीख बलि. बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी’ की चर्चा है – ‘दारिद-दसानन’ ने दरिद्रता रूपी रावण ने जनता को बेहाल कर दिया है। गरीबी-भुखमरी-दरिद्रता का जितना वर्णन अकेले तुलसी ने अपनी रचनाओं में किया है उतना मध्ययुग के किसी अन्य कवि ने नहीं। उन्हें स्वयं ‘बारे ते लाल बिललात द्वार-द्वार दीन’ का अनुभव था। इसलिए उन्होंने जनता को ‘दारिद दसानन’ से संघर्ष करने का संदेश दिया है।

रामकाव्य परम्परा में नारी

राम भक्ति काव्य में नारी को लेकर जो बातें कही गईं, दुर्भाग्यवश उनका गलत प्रचार किया गया है। तुलसी की तो नारी विरोधी छवि ही बना डाली है। जबकि राम भक्तिधारा नैतिकतावादी-मर्यादावादी मूल्यों पर ही टिकी विचारधारा है और तुलसी के ग्रंथ लोक-जीवन में आचार-शास्त्र का काम करते रहे हैं। यह भी कहा जाता है कि तुलसी ने मीराबाई को पत्र-लिखकर जीवन का रास्ता दिखाया था – ‘जाकै प्रिय न राम वैदेही। तजिए ताहि कोटि वैरी सम जद्यपि परम सनेही।’ ऐसे तुलसीदास को नारी-विरोधी कहने का क्या अर्थ हो सकता है? इस बात पर आज गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। तुलसी के ‘रामचरित मानस’ ‘कवितावली’ को बिना पढ़े, बिना सही संदर्भ में समझे प्राय: तुलसी की निंदा की जाती है। ‘वन्दौ कौसल्या दिशि प्राची’ कह कर राम की माता की वन्दना करते हैं – सीता को जगत-जननी कहते हैं और शिव के साथ पार्वती का आदर करते हैं।

‘रामचरित मानस’ के कथा-प्रसंगों में कई बार ‘सुनहु सती तब नारि सभाऊ’ की चर्चा विशेष सन्दर्भ में आती है – पार्वती शिव से छल करती हैं तब शिव नारी स्वभाव में छल की बात उठाते हैं। राम के सामने शबरी विनय-वश कहती है – ‘अधम ते अधम अधम अति नारी’ यहाँ नारी को अधम सिद्ध करना कवि का उद्देश्य नहीं है। भरत जैसा महान चरित्र एक बार क्रोध में नारियों को ‘सकल कपट अघ अवगुन खानी’ कह देता है पर यह सामान्य-भाव धारणा नहीं है। रावण को नीच-वचनों में एक नारि स्वभाव के ‘आठ अवगुन’ आते हैं पर सोचने की बात है कि तुलसी के मन में रावण के प्रति कौन सा भाव है। तुलसीदास नारी के माता रूप पर प्रहार नहीं करते। कभी कभार नारी के कामिनी-कामान्ध रूप पर प्रहार करते हैं – ‘नारि निबिड़ रजनी अंधियारी’। कभी कभार ‘जिमि स्वतंत्र होई बिगरहि नारी’ या ‘ढोल गँवार शूद्र पशु ।

नारी’ जैसे वचन आते हैं। तुलसी सतीनारी और कुलटा नारी में लोकमन के हिसाब से भेद करते हैं। राम और रावण में भी भेद करते हैं। नारी के प्रति तुलसी में अपार आदर न होता तो राम-कथा में राम, सीता के लिए मारे-मारे न फिरते। रावण द्वारा हरण करने पर सीता के लिए मछली की तरह न तड़पते। थकानभरी सीता को देखकर पिय की अँखिया’ आँसू न टपकातीं। राम के अवध लौटने पर नारियाँ ही आगे हैं – नारि-समुद्र उमड़ पड़ा है। कैकेयी से राम क्षमा न माँगते – ‘प्रथम तासु घर गए भवानी’ । इस प्रकार राम-कथा में नारी की महिमा है यही महिमा गान मैथिलीशरण के ‘साकेत’ और निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘तुलसीदास’ काव्य की शक्ति बना है।

राम काव्य में समन्वय साधना

हिन्दी में राम भक्ति काव्य धारा अपनी उदार समन्वय साधना के कारण बड़े आदर से याद की जाती है। इस समन्वय साधना का सर्वोत्तम रूप तुलसीदास के रचना-कर्म में प्रतिफलिंत हुआ है। आ.हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है कि लोक-नायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके। ध्यान में रखने की बात है कि विरुद्धों में सामन्जस्य स्थापित करना सरल कार्य नहीं है, उसके लिए अक्ल और धीरज चाहिए। यह अक्ल और धीरज, समन्वय के साधक तुलसीदास में है – ‘उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है, लोक-शास्त्र का समन्वय, गार्हस्थ्य और वैराग्य का समन्वय, भाषा और संस्कृत का समन्वय, ब्राह्मण और चाण्डाल का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, कथा तत्वज्ञान का समन्वय, पाण्डित्य और अपाण्डित्य का समन्वय – ‘रामचरित मानस’ शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है।’ हिन्दी में आगम-निगम । परम्परा का इतना बड़ा जानकार और समन्वयकार कोई दूसरा नहीं। विद्वानों ने ठीक कहा है कि गौतम बुद्ध के बाद तुलसीदास ही भारत में सबसे बड़े लोक नायक हुए। इस कवि ने अपने समय में प्रचलित देवी-देवताओं, दार्शनिक विचारधाराओं, अवधी, ब्रजी की भाषा परम्पराओं का समन्वय किया। शैव-शाक्त चिन्तन परम्परा से वैष्णव-चिन्तन परम्परा का पुराना झगड़ा चला आ रहा था। इस कलह का शमन जरूरी था। ‘मानस’ में राम सीता को आदर दिया गया है।

राम कहते हैं – शिव-द्रोही मेरा दास मुझे एकदम नापसन्द है। शिव द्रोही मम दास कहाना । जोजन मोहि सपनेहुं नहिं माना’।

मध्ययुगीन भारतीय विचारधारा में अनेक मत-मतान्तर थे और उनका परस्पर विरोध कभी भी प्रबल हो जाता था। विद्रोह के मूल में सामाजिक-धार्मिक विषमता थी। धर्म, जाति, दर्शन और उपासना के रगड़े-झगड़े थे। कर्मकाण्डी पुरोहितवर्ग भक्तिवादियों से झगड़ रहा था। आर्य और आर्येतर विचारधाराएँ टकरा रही थीं तुलसी जब ‘गोरख जगाओ जोग भगति भगाओ लोक’ कहते हैं तो यों ही नहीं कहते। उसके पीछे भक्ति आंदोलन का पूरा अनुभव बोलता है। सिद्धों-नाथों-कापालिकों-तान्त्रिकों के चमत्कारवाद, गुह्य-साधना, कृच्छ-साधना से भक्ति मार्ग के साधकों को टकराकर नया मार्ग निकालना पड़ा। वाममार्गी मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन – इन पाँच मकारों की उपासना करते थे, तुलसी ने इस शाक्त-मत का विरोध किया – ‘तजि स्रुतिपंथ वामपंथ चलहीं’ ।

तुलसी को वेद-मार्ग आता था – वैष्णव चिन्तन परम्परा स्वीकार्य थी। रामानंद ने वैष्णव भक्ति के द्वार निचली जातियों के लिए खोलकर बहुत बड़ा सामाजिक उपकार किया। कबीर और तुलसी, निर्गुण और सगुण दोनों को मिला देने का नतीजा सुखदायक सिद्ध हुआ। भक्ति काव्य की एक मूल विचार ध्वनि है – प्रेम (पमो पुमर्थो महान), प्रेम ही मानव-जीवन का अमृत है। रामानंद ने मंत्र दिया था – ‘जाति-पाँति बूझे नहि कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।’ इसी मंत्र से तुलसी ने सियाराम मय सब जग जानी’ का प्रतिपादन किया।

‘नाना पुराण निगमागम सम्मत’ विचार ने राम भक्ति धारा में नया लोक धर्म पैदा किया। यही सिद्धपीठ लोकमंगल कहलाती है। जो लोग तुलसी को ‘ब्राह्मणवादी’ मानते हैं उन्हें गंभीरता से उनके समन्वय सिद्धांत पर विचार करना चाहिए। ‘माँगि के खाइबो मसीन में सोइबो’ कहने वाले तुलसीदास को जीवनभर संघर्ष करना पड़ा। काशी के सामन्तों-पुरोहितों ने उन्हें कम नहीं सताया था पर वे अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए।

तुलसी परवर्ती राम काव्य-परम्परा

तुलसीदास ने राम-भक्ति काव्य को इतना उत्कर्ष प्रदान किया कि आगे के कवियों के लिए नवीन सर्जनात्मक सम्भावनाएँ लगभग समाप्त हो गईं। यह भी सच है कि तुलसी के पश्चात राम-भक्त कवि अधिक नहीं हुए। अग्नदास ने ‘कुण्डलिया रामायण’ और ‘ध्यानमंजरी’ में राम-कथा का वर्णन किया है। प्राणचन्द चौहान ने ‘रामायण-महानाटक’ तथा हृदयराम ने ‘हनुमन्नाटक’ का सृजन किया। लालदास ने ‘अवध-विलास’ लिखी। रामभक्त कवियों की संख्या बहुत कम है। वैयक्तिक अनुभूतियों के स्वच्छन्द विलास के लिए कृपाण का चरित्र-अधिक उपयुक्त था। रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने कृष्ण राधा को ‘शृंगार को सार किसोर-किसोरी’ कहकर अपनी कविता का विषय बनाया है।

तुलसीदास तथा परवर्ती भक्त कवियों के पश्चात रामकाव्य का सृजन करने वाले कवियों में केशवदास का नाम उल्लेखनीय है। विद्वानों का मत है कि केशव ने बाल्मीकि रामायण और तुलसी के ‘रामचरित मानस’ से प्रेरणा ग्रहण करते हुए ‘रामचन्द्रिका’ की रचना की। केशव विद्वान और आचार्य तो थे – पर उन्हें कवि-हृदय नहीं मिला था। प्रबन्ध काव्य के लिए कथा के मर्मस्पर्शी स्थलों की उन्हें पहचान नहीं थी। केशव ने राम को मर्यादा-पुरुषोत्तम के रूप में नहीं, एक रीतिकालीन वैभवसम्पन्न सामन्त के रूप में प्रस्तुत किया। अलंकार और द्वन्द्वकला के प्रदर्शनकारी चमत्कारवाद के कारण ‘रामचन्द्रिका’ आभाहीन होती गई। फिर केशव का समय तो भक्तिकाल है, पर प्रवृत्तियाँ रीतिकालीन हैं। पंडिगई उनके लिए बोझ है जिसके नीचे उनका कवि दबकर रह गया है।

रीतिकाल में राधा-कृष्ण के सुमिरन के बहाने श्रृंगार को अतिशय महत्व मिला। राम का लोकसंग्रही रूप रीतिकालीन कवियों की मनोवृत्ति के अनुकूल नहीं पड़ सका। यही कारण है कि इस काल में बहुत कम रचनाएँ राम को लेकर लिखी गई हैं। रीवां नरेश महाराज विश्वनाथ सिंह ने रामस्वयंवर’ तथा ‘आनन्दरघुनन्दन नाटक’, महन्त रामचरण दास ने ‘कवितावली रामायण’ आदि राम कथा की रचनाएँ की हैं। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि रामचरण दास ने राम-सीता के श्रृंगार का वर्णन करके राम भक्ति में माधुर्य भाव को स्थान दिया। आधुनिक काल में नवजागरण की चेतना से प्रेरणा पाकर अनेक रचनाकार रामकाव्य के सृजन कर्म में प्रवृत्त हुए हैं। इनमें भारतेन्दु, रामचरित उपाध्याय, रामनाथ ज्योतिषी अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, आ. बलदेवप्रसाद मिश्र, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। आधुनिक साहित्य की रामकाव्य-परम्परा में सर्वाधिक महत्व मैथिलीशरण गुप्त के महाकाव्य ‘साकेत’ और खण्डकाव्य ‘पंचवटी’ को मिला है। साकेत पर वैष्णव चिन्तन और गाँधी-विचार दर्शन की गहरी छाप है। ‘साकेत’ का कथा विधान नए युग की विचारधाराओं से आन्दोलित है। तुलसी के ‘मानस’ के बाद रामकाव्य परम्परा में ‘साकेत’ और ‘पंचवटी’ का अविस्मरणीय स्थान है।

छायावाद के और आधुनिक हिन्दी कविता के सबसे क्रान्तिकारी कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के प्रिय कवि तुलसीदास रहे हैं। निराला जी ने जीवन भर काव्य सृजन किया। सर्वाधित प्रतिभा का विस्फोट उनकी दो रचनाओं में हुआ – ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘तुलसीदास’ हिन्दी प्रदेश का नवजागरण निराला जी की जातीय प्रतिभा में नया अर्थ-सन्दर्भ पाता है और इस अर्थ सन्दर्भ को सामने लाने का माध्यम है – रामकथा। इस परम्परा में आगे चलकर सुमित्रानन्दन पंत, नरेश मेहता और जगदीश गुप्त के नाम भी उल्लेखनीय हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि राम-काव्य – परम्परा आज भी हिन्दी कविता में नए रूपों और रंगों को लेकर निरन्तरता और परिवर्तन के साथ दिखाई देती है।

सारांश

राम भक्ति काव्य धारा तीन रूपों में प्रवाहित हुई –

  • बौद्धों तथा जैनियों के द्वारा रचित राम काव्य,
  • रसिक-सम्प्रदाय के कवियों का राम-काव्य और
  • नैतिक मूल्यों पर आधारित राम-भक्त कवियों की मर्यादावादी परम्परा।

इन तीनों रूपों में सर्वाधिक लोकप्रिय हुए – राम भक्त कवि और इनमें भी तुलसीदास । तुलसीदास ने प्रबन्ध-मुक्तक गेय परम्पराओं की सभी लोक-शैलियों को अपनाकर जनता का मन मोह लिया। अवधी-भाषा के सरल सहज साहित्यिक रूप को निखारकर इतना सर्जनात्मक बना दिया कि उसका काव्य सौन्दर्य अपनी शोभा में अनुपम हो उठा। भारतीय मिथकशास्त्र और सौन्दर्य-दर्शन, काव्य शास्त्र और संस्कृत-प्राकृत के रचनात्मक साहित्य को निचोड़कर तुलसी ने राम काव्य में शील, भक्ति, सौन्दर्य का निरूपण किया।

दरअसल रामकाव्य का विकास ‘लीला नाट्य’, ‘लीला काव्य’ के रूप में हुआ। राम लीला की परम्परा का श्रीगणेश भी तुलसीदास ने किया। आज देश विदेश में राम लीला की एक विशाल परम्परा मिलती है। राम-कथा के राम को साम्राज्यवाद-अधिनायकवाद का विरोधी बना दिया। राम कथा अन्याय के विरोध का प्रतीक बन गई। अंग्रेजी-शासन में बाबा रामचन्द्र ने रामकथा से अवध – किसानआन्दोलन चलाया और हर भारतीय ने अपनी शक्ति और अस्मिता को राम कथा में पाया। राम कथा का लोक-सौंदर्य कथा प्रसंग की नाटकीयता, मार्मिकता, रसज्ञता, संवाद योजना, अप्रस्तुत-योजना, छन्द-लयविधान या पात्र-योजना तक ही सीमित नहीं है। वास्तविकता यह है कि राम कथा समस्त भारतीय सौंदर्य चेतना का प्रतिमान है।

भक्ति-काव्य के बाद रीतिकाव्य में राम कथा में उतार आया। लेकिन आधुनिक काल में मैथिलीशरण गुप्त और निराला ने राम काव्य को नया अर्थ-सन्दर्भ दिया। आज भी ‘राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है’ वाली बात सच मालूम होती है। हिन्दी में राम भक्ति काव्य परम्परा ने लोक और शास्त्र दोनों के सामन्जस्य से अपना पथ-प्रशस्त किया है। ऊपर से उनकी रचना – स्वान्तः सुखाय, आत्म निवेदनात्मक, आत्म प्रबोध के लिए दिखाई देती है – लेकिन गहराई में हम पाते हैं कि लोक-धर्म, लोक-चिन्ता, लोक-मंगल ही इस रचना कर्म की प्रेरणा भूमि है। ये सभी भक्त कवि ‘भक्ति’ को लोक कल्याण के अहं के परिष्कार का माध्यम मानते हैं लेकिन उपदेशक की भूमिका में नहीं जाते।

रचना में उपदेश है तो राम-कथा के अंतर्गत ही है। रामभक्त कवि की ओर से उसे आरोपित नहीं किया गया है। कवि का तो एक ही उपदेश है – हरि पद में अनुराग, नवधा-भक्ति में डूबकर तन्मन्यता की प्राप्ति, नैतिक-मूल्य भावना से सुधार-परिष्कार-विस्तार। भारत के राममय होने का कारण भी यही है कि संत कवि तुलसी ने परम्परा के अमृत तत्व को उसमें भर दिया है। राम हमारे जीवन का आदर्श है और रावण यथार्थ । व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो यदि इसमें रावण वृत्तियाँ हैं तो उसका पतन निश्चित है। ऐसी भावना के कारण राम-कथा अन्याय पर न्याय के जीत की कथा है।

प्रश्न अभ्यास

  1. राम काव्य परंपरा का परिचय दीजिए।
  2. काव्य प्रवृत्ति के आधार पर रामभक्ति साहित्य का मूल्यांकन कीजिए।
  3. रामकाव्य में लोकमंगल की भावना का विवेचन कीजिए।

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