‘रोज़’ (‘गैंग्रीन’) : अज्ञेय

अज्ञेय द्वारा लिखित कहानी ‘रोज़’ पर लिखा गया पाठ आपके सामने है। यह कहानी सर्वप्रथम ‘गैंग्रीन’ नाम से छपी थी लेकिन बाद में इसका शीर्षक बदलकर अज्ञेय ने इसे ‘रोज़’ शीर्षक के रूप में छापा था। 

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • विवाह के बाद कुछ ही वर्षों में स्त्री के जीवन में आई जड़ता, वितृष्णा की स्थिति  को रेखांकित कर सकेंगे, विवाहित नारी के अभावों में घुटते हुए पंगु बने व्यक्तित्व की त्रासदी पर प्रकाश  डाल सकेंगे
  • एक ही ढरे की जीवन शैली, स्त्री के व्यक्तित्व विकास के प्रति पति की अनास्था,
  • कोमल भावनाओं को किस प्रकार खंडित करके केवल कर्त्तव्यपरायणता में सीमित हो जाती है, को आप समझ सकेंगे,
  • सीमित दुनिया में बंद जीवन की छटपटाहट तथा अभाव को दूर करने की इच्छा और बाहरी दुनिया से जुड़ने का उपाय ढूँढ़ती स्त्री की मनस्थिति को समझ सकेंगे,
  • अज्ञेय की कल्पनाशीलता और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की क्षमता तथा शिल्प  कौशल से परिचित हो सकेंगे।

‘रोज़’ से पूर्व आपने ‘ठाकुर का कुआँ’ (प्रेमचंद), ‘पुरस्कार’ (प्रसाद), ‘कुत्ते की पूंछ’ । (यशपाल) ‘पाजेब’ (जैनेंद्र) कहानियों का अध्ययन कर लिया है। अतः आपके सामने स्पष्ट हो जाएगा कि यह कहानी (रोज़) उपर्युक्त कहानियों से कथा की दृष्टि से नितान्त भिन्न है। इसमें एक नवविवाहिता स्त्री के ‘व्यत्ति मन’ की गहरी उदासी और अकेलेपन की त्रासद अनुभूति का चित्रण है। अज्ञेय मुख्यतः कवि हैं, पर उन्होंने उपन्यास, कहानियाँ, यात्रा-वृत्तान्त, आलोचना, . ललित निबंध भी लिखे हैं। उनका एक नाटक भी छप चुका है, जिसका नाम है ‘उत्तर प्रियदर्शी’। उनके उपन्यास तीन हैं, जिनके नाम हैं ‘शेखर एक, जीवनी’, ‘नदी के द्वीप’ और ‘अपने अपने अज़नबी’। उनके कहानी संग्रहों के शीर्षक इस प्रकार हैं :

कहानी संग्रह-

  • विपथगा,
  • भग्नदूत, 
  • छोड़ा हुआ रास्ता (भाग-1), 
  • लौटती पगडंडियाँ,
  • ये तेरे प्रतिरूप

अज्ञेय ने कुल मिलाकर लगभग सडसठ (67) कहानियाँ रची हैं। उनकी कहानियों को डॉ. देवराज उपाध्याय ने तीन वर्गों में विभाजित किया है। 

  1. क्रांतिकारी जीवन से संबंधित 
  2. प्रेम संबंधी
  3. मनोवैज्ञानिक
  4. सामाजिक संदर्भ से जुड़ी कहानियाँ
  5. सेक्स एवं रोमांस से संबंधित कहानियाँ

उक्त विवरण से स्पष्ट है कि अज्ञेय ने विभिन्न विधाओं में साहित्य-लेखन किया है और प्रत्येक विधा में सफलता प्राप्त की है। हिंदी कहानी में भी उनका योगदान कम नहीं है। वे प्रेमचंद के बाद उभरने वाले उन लेखकों में से हैं, जिन्होंने हिंदी कहानी में नए आयाम उद्घाटित किए और उसे आधुनिकता बोध से सम्पन्न करते हुए उसके मार्ग को प्रशस्त किया। नामवर सिंह की दृष्टि में – “अज्ञेय ने निश्चय ही युद्ध के मोर्चे से लौटकर साहित्यिक सक्रियता का परिचय दिया। ‘प्रतीक’ के सम्पादन के साथ उन्होंने कविता और उपन्यास की तरह कहानी रचना की दिशा में भी उत्साह से कदम आगे बढ़ाया और वह भी युद्धोत्तरकालीन विविध सामाजिक अनुषंगों का आभास देते हुए।” 

उन्होंने भी घटनाओं के कोरे वर्णन के बजाए मानव के अंतर्मन के यथार्थ की परतों को खोलने की कोशिश अपनी अनेक कहानियों में की। यद्यपि उन्होंने व्यक्ति की कुंठाओं, समस्याओं पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। मनोविज्ञान संबंधी मान्यताओं, सिद्धांतों का उपयोग अपनी कहानियों के ताने बाने में करते हए अज्ञेय ने भी हिंदी कहानी को मनोवैज्ञानिक गहराई दी, जिसके कारण अनेक आलोचकों ने उनकी कहानियों को मनोवैज्ञानिक कहानी की श्रेणी में रखा। फ्रायड के मनोविश्लेषण सिद्धांत का इलाचन्द्र जोशी की तरह उन पर भी गहरा प्रभाव है। पश्चिम के अस्तित्ववाद का प्रभाव भी उनकी रचनाओं पर देखा जा सकता है। उनका उपन्यास ‘अपने अपने अज़नबी’ इसका स्पष्ट उदाहरण है।

राजेन्द्र यादव की दृष्टि में “जिन दिनों जैनेन्द्र और अज्ञेय कहानी में आ रहे थे, उन दिनों प्रेमचंद का झुकाव मार्क्सवाद की ओर बढ़ रहा था। फिल्म ‘मजदूर’ की असफलता के बाद वह फिर से ‘जागरण’ और ‘हंस’ में लग गए थे। उनकी सामाजिक व्यापक विविधता के बीच जैनेन्द्र की विशिष्ट व्यक्तिवादी दृष्टि अधिक नई, अपनी और गहरी लगती थी इनकी कहानियाँ भीतर से बाहर की ओर नहीं, बाहर से भीतर घटित होने लगी थी  एक बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि व्यक्ति । विशिष्ट होने लगा और विशिष्ट व्यक्तिगत”

‘रोज़’ शीर्षक कहानी अज्ञेय के कहानी संकलन ‘विपथगा’ के पहले संस्करण में है। पर ‘विपथगा’ के पाँचवें संस्करण में, जो सन् 1990 ई. में नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ, यही कहानी ‘गैंग्रीन’ शीर्षक से प्रकाशित है। संभव है कि लेखक ने इसके पहले शीर्षक में इस कारण परिवर्तन कर दिया हो कि इसका एक पात्र डाक्टर है, जो गैंग्रीन नामक बीमारी का उपचार करता है। मेरे विचार में इसका शीर्षक ‘रोज़’ अधिक उपयुक्त है, जो कि कहानी की मुख्य संवेदना का सूचक भी है। हिंदी जगत में भी इसे ‘रोज़’ शीर्षक से अधिक जाना गया।

इस कहानी का उद्देश्य एक युवती मालती के यान्त्रिक वैवाहिक जीवन के माध्यम से नारी के यन्त्रवत् जीवन और उसके सीमित घरेलू परिवेश में बीतते उबाऊ जीवन का चित्रण है। यह एक विवाहित नारी के अभावों में घुटते हुए पंगु बने व्यक्तित्व की त्रासदी का चित्रण है। रोज़ एक ही ढर्रे पर चलती मालती की उबाहट भरी दिनचर्या कहानी के शीर्षक ‘रोज़’ से भी ध्वनित होती है। कहानी के उद्देश्य की ओर इसका शीर्षक भी संकेत करता है। इसलिए इस कहानी का ‘रोज़’ शीर्षक सर्वथा उपयुक्त शीर्षक है।

कहानी के शीर्षक से कहानी की मुख्य संवेदना की ओर संकेत के साथ लेखक की सूझबूझ और उसके लेखकीय कौशल का भी पता चलता है।

प्रस्तुत कहानी के घटनाक्रम को देखते हुए अध्ययन की सुविधा के लिए इसके विभिन्न मोड़ों को पहचाना जा सकता है। इन मोड़ों की दृष्टि से कहानी के घटनाक्रम के तीन भाग किए जा सकते हैं, जिनमें विभिन्न विषयों, स्थितियों, मनःस्थितियों का चित्रण है। वह एक पूर्ण रूप में लिखी गई कहानी है। पर घटनाक्रम के विभिन्न मोड़ परिलक्षित होते हैं।

कहानी: ‘रोज़’ (‘गैंग्रीन’)

दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था…

मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, ‘‘आ जाओ!’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।

भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, ‘वे यहाँ नहीं है?’’

‘‘अभी आये नहीं, दफ़्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।’’

‘‘कब के गये हुए हैं?’’

‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं।’’

‘‘मैं ‘हूँ’ कर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा, ‘आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं हैं। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।

मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए।’’ पर वह नहीं मानी, बोली,‘‘वाह! चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आये हो। यहाँ तो…’’

मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ, मुझे दे दो।’’

वह शायद ‘ना’ करनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज़ सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुंह’ करके उठी और भीतर चली गयी।

मैं उसके जाते हुए, दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा – यह क्या है… यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है…

मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकट्ठे खेले हैं, इकट्ठे लड़े और पिटे हैं, और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोटेपन के बन्धनों में नहीं घिरा…

मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखना आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लड़की ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी तक सोचा नहीं था, किन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई है… और विशेषतया मालती पर…

मालती बच्चे को लेकर लौट आयी और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, ‘‘इसका नाम क्या है?’’

मालती ने बच्चे की ओर देखते हुए उत्तर दिया, ‘‘नाम तो कोई निश्चित नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं।’’

मैंने उसे बुलाया, ‘‘टिटी, टीटी, आ जा,’’ पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने लगा, ‘‘उहुं-उहुं-उहुं-ऊं…’’

मालती ने फिर उसकी ओर एक नज़र देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने लगी…

काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किन्तु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की… यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँ, कैसे आया हूँ… चुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयी? या अब मुझे दूर-इस विशेष अन्तर पर-रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती… पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए…

मैंने कुछ खिन्न-सा होकर, दूसरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई-’’

उसने एकाएक चौंककर कहा, ‘‘हूँ?’’

यह ‘हूँ’ प्रश्न-सूचक था, किन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, ‘केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी नहीं, चुप बैठ रहा। मालती कुछ बोली ही नहीं, तब थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किन्तु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देखा, उन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो… वैसे जैसे देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाये कि वह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता… मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाये…

तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये। मैंने मालती की ओर देखा, पर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाये गये, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी।

वे, यानी मालती के पति आये। मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि फ़ोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गयी, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर…

मालती के पति का नाम है महेश्वर। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैं, उसी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रातःकाल सात बजे डिस्पेन्सरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद दोपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैं, डिस्पेन्सरी के साथ के छोटे-से अस्पताल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने… उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताये हुए हैं और इसीलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं…

मालती हम दोनों के लिए खाना ले आयी। मैंने पूछा, ‘‘तुम नहीं खोओगी? या खा चुकीं?’’

महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, ‘‘वह पीछे खाया करती है…’’ पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!

महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देखकर बोले, ‘‘आपको तो खाने का मज़ा क्या ही आयेगा ऐसे बेवक़्त खा रहे हैं?’’

मैंने उत्तर दिया, ‘‘वाह! देर से खाने पर तो और अच्छा लगता है, भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।’’

मालती टोककर बोली, ‘‘ऊँहू, मेरे लिए तो यह नयी बात नहीं है… रोज़ ही ऐसा होता है…’’

मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी। बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था।

मैंने कहा, ‘‘यह रोता क्यों है?’’

मालती बोली, ‘‘हो ही गया है चिड़चिड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है।’’

फिर बच्चे को डाँटकर कहा, ‘‘चुपकर।’’ जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया। और बोली, ‘‘अच्छा ले, रो ले।’’ और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी!

जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजने वाले थे। महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, यहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आये हुए हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा… दो की शायद टाँग काटनी पड़े, गैंग्रीन हो गया है… थोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती किवाड़ बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, ‘‘अब खाना तो खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।’’

वह बोली, ‘‘खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,’’ किन्तु चली गयी। मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया।

दूर…शायद अस्पताल में ही, तीन खड़के। एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना, मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी-सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है ‘‘तीन बज गये…’’ मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य सम्पन्न हो गया हो…

थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयी, मैंने पूछा, ‘‘तुम्हारे लिए कुछ बचा भी था? सब-कुछ तो…’’

‘‘बहुत था।’’

‘‘हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।’’ मैंने हँसकर कहा।

मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, ‘‘यहाँ सब्ज़ी-वब्ज़ी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं; मुझे आये पन्द्रह दिन हुए हैं, जो सब्ज़ी साथ लाये थे वही अभी बरती जा रही है…

मैंने पूछा, ‘‘नौकर कोई नहीं है?’’

‘‘कोई ठीक मिला नहीं, शायद एक-दो दिन में हो जाए।’’

‘‘बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?’’

‘‘और कौन?’’ कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी।

मैंने पूछा, ‘‘कहाँ गयी थीं?’’

‘‘आज पानी ही नहीं है, बरतन कैसे मँजेंगे?’’

‘‘क्यों, पानी को क्या हुआ?’’

‘‘रोज़ ही होता है… कभी वक़्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बरतन मँजेंगे।’’

‘‘चलो, तुम्हें सात बजे तक छुट्टी हुई,’’ कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई?’

यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, पर मेरी सहायता टिटी ने की, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा। मैंने उसे दे दिया।

थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा नहीं, और बोली, ‘‘यहाँ आये कैसे?’’

मैंने कहा ही तो, ‘‘अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या करने?’’

‘‘तो दो-एक दिन रहोगे न?’’

‘‘नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है।’’

मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न सी हो गयी। मैं फिर नोटबुक की तरफ़ देखने लगा।

थोड़ी देर बाद मुझे भी ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने किन्तु, यहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी क्या की जाये? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश में कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे-हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती…

मैंने पूछा, ‘‘तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?’’ मैं चारों और देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़ें।

‘‘यहाँ!’’ कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी, ‘यहाँ पढ़ने को है क्या?’

मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं वापस जाकर ज़रूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा…’’ और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया…

थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, ‘‘आये कैसे हो, लारी में?’’

‘‘पैदल।’’

‘‘इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की।’’

‘‘आख़िर तुमसे मिलने आया हूँ।’’

‘‘ऐसे ही आये हो?’’

‘‘नहीं, कुली पीछे आ रहा है, सामान लेकर। मैंने सोचा, बिस्तरा ले ही चलूँ।’’

‘‘अच्छा किया, यहाँ तो बस…’’ कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, ‘‘तब तुम थके होगे, लेट जाओ।’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं थका।’’

‘‘रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?’’

‘‘और तुम क्या करोगी?’’

‘‘मैं बरतन माँज रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे।’’

मैंने कहा, ‘‘वाह!’’ क्योंकि और कोई बात मुझे सूझी नहीं…

थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयी, टिटी को साथ लेकर। तब मैं भी लेट गया और छत की ओर देखने लगा… मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बरतनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पड़ने लगे, मैं ऊँघने लगा…

एकाएक वह एक-स्वर टूट गया – मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी टूटी, मैं उस मौन में सुनने लगा…

चार खड़क रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थी… वही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार उग्र रूप में। मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस, यन्त्रवत् – वह भी थके हुए यन्त्र के से स्वर में कह रही है, ‘‘चार बज गये’’, मानो इस अनैच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडो मीटर यन्त्रवत् फ़ासला नापता जाता है, और यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया… न जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गयी।

तब छह कभी के बज चुके थे, जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली, और मैंने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं और उनके साथ ही बिस्तर लिये हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आया, पानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, ‘‘आपने बड़ी देर की?’’

उन्होंने किंचित् ग्लानि-भरे स्वर में कहा, ‘‘हाँ, आज वह गैंग्रीन का आपरेशन करना ही पड़ा, एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेन्स में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है।’’

मैंने पूछा’’ गैंग्रीन कैसे हो गया।’’

‘‘एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के…’’

मैंने पूछा, ‘‘यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?’’

बोले, ‘‘हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पतालों में भी…’’

मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गयी, ‘‘बोली, ‘‘हाँ, केस बनाते देर क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं, इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!’’

महेश्वर हँसे, बोले, ‘‘न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?’’

‘‘हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं…’’

महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिये। मालती मेरी ओर देखकर बोली, ‘‘ऐसे ही होते हैं, डॉक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह है! मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो ख़याल ही नहीं होता। पहले तो रात-रात-भर नींद नहीं आया करती थी।’’

तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा – टिप् टिप् टिप्-टिप्-टिप्-टिप्…

मालती ने कहा, ‘‘पानी!’’ और उठकर चली गयी। खनखनाहट से हमने जाना, बरतन धोए जाने लगे हैं…

टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्हें छोड़कर मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, ‘‘उधर मत जा!’’ और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।

महेश्वर बोले, ‘‘अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी।’’

मैंने पूछा, ‘‘आप लोग भीतर ही सोते हैं? गरमी तो बहुत होती है?’’

‘‘होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाये? अब के नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।’’ फिर कुछ रुककर बोले, ‘‘आज तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।’’

टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया, और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, ‘‘मैं मदद करता हूँ’’, और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिये।

अब हम तीनों… महेश्वर, टिटी और मैं, दो पलंगों पर बैठ गये और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किन्तु बीच-बीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्त्तव्य याद करके रो उठता या, और फिर एकदम चुप हो जाता था… और कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे…

मालती बरतन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई के छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, ‘‘थोड़े-से आम लाया हूँ, वह भी धो लेना।’’

‘‘कहाँ हैं?’’

‘‘अँगीठी पर रखे हैं, काग़ज़ में लिपटे हुए।’’

मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये। जिस काग़ज़ में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार का टुकड़ा था। मालती चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी… वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी।

मुझे एकाएक याद आया…बहुत दिनों की बात थी… जब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाज़िरी हो चुकने के बाद चोरी से क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बग़ीचे में पेड़ों पर चढ़कर कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना। मुझे याद आया… कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न-मन लौट आया करता था।

मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-पिता तंग थे, एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करो, हफ़्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूँगा। मालती ने चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाड़ कर फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क न पड़ने देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, ‘‘किताब समाप्त कर ली?’’ तो उत्तर दिया…‘‘हाँ, कर ली,’’ पिता ने कहा, ‘‘लाओ, मैं प्रश्न पूछूँगा, तो चुप खड़ी रही। पिता ने कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, ‘‘किताब मैंने फाड़ कर फेंक दी है, मैं नहीं पढ़ूँगी।’’

उसके बाद वह बहुत पिटी, पर वह अलग बात है। इस समय मैं यही सोच रहा था कि वह उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गयी है, कितनी शान्त, और एक अखबार के टुकड़े को तरसती है… यह क्या, यह…

तभी महेश्वर ने पूछा, ‘‘रोटी कब बनेगी!’’

‘‘बस, अभी बनाती हूँ।’’

पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्त्तव्य-भावना बहुत विस्तीर्ण हो गयी, वह मालती की ओर हाथ बढ़ा कर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठ कर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी…

और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, और भोजन की और एक-दूसरे के कुछ कहने की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे।

हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी। वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी गया था, पर तुरन्त ही लेट गया।

मैंने महेश्वर से पूछा, ‘‘आप तो थके होंगे, सो जाइये।’’

वह बोले, ‘‘थके तो आप अधिक होंगे… अठारह मील पैदल चल कर आये हैं।’’ किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया… थका तो मैं भी हूँ।’’

मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ रहे हैं।

तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी।

मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में – यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहीं, लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं इधर-उधर खिसक कर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा।

पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था।

मैंने देखा-उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस लगने वाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यन्त शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो…

मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष… गरमी से सूख कर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष… धीरे-धीरे गा रहे हों… कोई राग जो कोमल है, किन्तु करुण नहीं, अशान्तिमय है, किन्तु उद्वेगमय नहीं…

मैंने देखा, प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुन्दर दीखते हैं…

मैंने देखा – दिन-भर की तपन, अशान्ति, थकान, दाह, पहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोये जा रहे हैं, जिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं…

पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंने… महेश्वर ऊँघे रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थी, और कह रही थी…‘‘अभी छुट्टी हुई जाती है।’’ और मेरे कहने पर ही कि ‘‘ग्यारह बजने वाले हैं,’’ धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज़ ही इतने बज जाते हैं… मालती ने वह सब-कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के लिए रुकने को तैयार नहीं था…

चाँदनी में शिशु कैसा लगता है इस अलस जिज्ञासा से मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसक कर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा – ‘‘क्या हुआ?’’ मैं झपट कर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल आयी, मैंने उस ‘खट्’ शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, ‘‘चोट बहुत लग गयी बेचारे के।’’

यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया।

मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘इसके चोटें लगती ही रहती है, रोज़ ही गिर पड़ता है।’’

एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने, मेरे समूचे अस्तित्व ने, विद्रोह के स्वर में कहा – मेरे मन न भीतर ही, बाहर एक शब्द भी नहीं निकला – ‘‘माँ, युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो – और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है!’’

और, तब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गयी है, उनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गयी है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि वे उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया…

इतनी देर में, पूर्ववत् शान्ति हो गयी थी। महेश्वर फिर लेट कर ऊँघ रहे थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपट कर चुप हो गया था, यद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप ऊपर आकाश में देख रही थी, किन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?

तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खड़कन के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज़ में उसने कहा, ‘‘ग्यारह बज गये…’’

(डलहौजी, मई 1934)

स्त्री जीवन को यांत्रिकता में बदलते पारंपारिक तथ्य

कहानी के इस भाग में ही मालती के यन्त्रवत् जीवन की झलक मिल जाती है, जब वह अतिथि का स्वागत केवल औपचारिक ढंग से करती है। अतिथि उसके रिश्ते का भाई है, जिसके साथ वह बचपन में खूब खेलती थी। पर वर्षों बाद आए भाई का स्वागत उत्साहपूर्वक नहीं कर पाती, बल्कि जीवन की अन्य औपचारिकताओं की तरह एक और औपचारिकता निभा देती है। उसके व्यवहार में यंत्रवत कर्त्तव्यपालन का भाव झलकता है। कर्तव्यपालन में वह कोई कमी छोड़ती प्रतीत नहीं होती। वह अतिथि के लिए हाथ का पंखा भी झलती है, पर उसकी कुशल क्षेम पूछने का उत्साह तक नहीं दिखाती। उसके जीवन में उत्साह नहीं है, तो व्यवहार में भी उत्साहहीनता और मात्र औपचारिकता है। बचपन की बातूनी लड़की शादी के दो वर्षों बाद ही बुझ कर मौन हो गई। इस मौन को अतिथि भी परिलक्षित करता है। इसीलिए उसे कहानी के शुरू में ही लगता है कि उस घर में कोई काली छाया मँडरा रही है। यह काली छाया कहानी में कई स्थानों पर मँडराती देखी जा सकती है।

हम देखते हैं कि मालती अतिथि से कुछ नहीं पूछती, बल्कि उसके प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर ही देती है। उसमें अतिथि की कुशलता या उसके वहाँ आने का उद्देश्य या अन्य समाचारों के बारे में जानने की कोई उत्सुकता नहीं दीखती। यदि पहले कोई उत्सुकता, उत्साह, जिज्ञासा या किसी बात के लिए उत्कंठा थी भी तो वह दो वर्षों के वैवाहिक जीवन के बाद शेष नहीं रही। विगत दो वर्षों में उसका व्यक्तित्व बुझ सा गया है, जिसे उसका रिश्ते का भाई भाँप लेता है। अतः मालती का मौन उसके दम्भ का या अवहेलना का सूचक नहीं, उसके वैवाहिक जीवन की उत्साहहीनता, नीरसता और यान्त्रिकता का ही सूचक है।

इस स्थल के संवादों को देखें तो मालती ने अतिथि द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर ‘हाँ’ या ‘ना’ में या एक दो शब्दों में दिए हैं, जिन से यही लगता है कि उसके पास कहने को कुछ नहीं है और उसका जीवन खाली है।

मालती और अतिथि के बीच के मौन को मालती का बच्चा अचानक उस समय तोड़ देता है, जब वह सोते-सोते रो पड़ता है। मालती अपने दूसरे कर्तव्यपालन के लिए बच्चे को सँभालने दूसरे कमरे में चली जाती है, मानो वह कर्तव्य-पालन के लिए ही बनी है। बच्चे के बहाने दोनों का मौन टूटता है और जो अत्यन्त संक्षिप्त बातचीत होती है, वह केवल औपचारिक है और बच्चे को लेकर है। इस बातचीत में अतिथि उपस्थित होकर भी अनुपस्थित है, क्योंकि उसके बारे में मालती कुछ नहीं पूछती। उसे लक्षित करके जब अतिथि पूछता है “जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं

मालती इसका उत्तर एक हूँ’ से देती है, जो प्रश्नवाचक भी है और विस्मयबोधक भी है। वह वास्तविकता की स्वीकृति भी समझी जा सकती है, पर उसे अशिष्टता भी समझा जा सकता है, पर उसकी प्रश्नवाचक ‘हूँ’ के पीछे सुन कर भी न सुनने का भाष निहित था। सुनकर भी न सुनना एक प्रकार की जड़ता ही है। मालती के जीवन की इस जड़ता इस व्यवहार से ध्वनित होती है।

बाह्य स्थिति और मनःस्थिति के एक साथ अंकन में लेखक को सफलता मिली है।

कहानी के दूसरे भाग में मालती की मनःस्थितियों का कुशल अंकन हुआ है। अतिथि के सामने बैठी हुई मालती दूर कहीं अतीत में देख रही थी। वह वर्तमान में साँस ले . रही थी, पर अतीत में जी रही थी, क्योंकि वह उसके लिए अधिक जीवन्त और सरस . था। वह अपने सुखद बचपन के सलोने क्षणों में खो गई थी। वह अतिथि को जड़वत देखती हुई अपने सुखद अतीत को लौटाने की मानो असफल कोशिश कर रही थी। . इस मानसिक जड़ता को कहानीकार ने इन शब्दों में व्यक्त किया है “मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगा कर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार  तन्तु को पुनरूज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो।”

यह मानसिक जड़ता ही उसके शरीर की जड़ता तथा उसकी अनन्त थकान में रूपान्तरित हो गई। पति द्वारा दरवाज़ा खटखटाने पर वह हिली नहीं। दुबारा किवाड़ खटखटाए जाने पर उसकी संज्ञा लौटी और वह दरवाज़ा खोलने गई।

“मैंने मालती की ओर देखा, पर वह हिली नहीं, जब किंवाड दूसरी बार खटखटाये गये, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड खोलने गयी।”

कहानी के इस मोड़ पर कुछ महत्वपूर्ण घटित नहीं होता, पर मालती की मानसिक ऊहापोह, उसके अन्तर्द्वन्द्ध की संक्षिप्त झलक अवश्य मिलती है, जिसके संदर्भ में अतिथि के साथ उसके औपचारिक व्यवहार की समीक्षा की जा सकती है। पति द्वारा द्वार खटखटाए जाने पर मालती का न हिलना आवाज़ के न सुन पाने के कारण भी हो सकता है, पर यह शारीरिक जड़ता उसकी थकान का परिणाम है और “शारीरिक जड़ता मन की जड़ता का दूसरा रूप है।” मामूली निरर्थक सी घटना किसी गहरे अर्थ का बाँध भी करा सकती है, यह कहानी के इस मोड़ पर स्पष्ट हो जाता है। इससे यह भी प्रकट होता है कि लेखक बाह्य स्थिति और मानसिक दशा दोनों का संश्लिष्ट .. वर्णन करने की कला में पारंगत है।

अतिथि का मालती के पति महेश्वर से परिचय होता है। दोनों की बातचीत का क्रम . चलता है, जो यहाँ विस्तृत संवाद के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया, क्योंकि उससे कहानी के कलेवर का विस्तार होता और कथा संगठन में एक कसावट न रहती। पर कहानीकार ने महेश्वर के नित्य कर्म का जो संक्षिप्त चित्र प्रस्तुत किया है, उससे पता चलता है कि वह रोज़ सवेरे डिस्पेन्सरी चला जाता है, दोपहर को भोजन करने और कुछ आराम करने के लिए आता है, शाम को फिर डिस्पेन्सरी जाकर रोगियों को देखता है। उसका जीवन भी रोज़ एक ही ढर्रे पर चलता है। एक यांत्रिक जीवन की। यन्त्रणा पहाड़ के एक छोटे स्थान पर मालती का पति भी भोग रहा है। यांत्रिक जीवन के संत्रास के शिकार बड़े शहरों के ही लोग नहीं हैं, पहाड़ के एकान्त में उसके शिकार मालती और महेश्वर भी हैं।

मालती के नीरस और एक ढर्रे पर चलते जीवन के चित्र कहानी के.इस भाग में भी हैं। अतिथिं ने मालती से खाने के बारे में पूछा “तुम नहीं खाओगी? या खा चुकीं?” तो उत्तर उसके पति ने यों दिया “वह पीछे खाया करती है।” कहानीकार ने इस पर टिप्पणी जड़ी “पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी । बैठी रहेगी।” यह एक दिन की बात नहीं है। रोज़ ऐसा ही होता है। मालती और उसके . पति महेश्वर के जीवन में रोज़ सब कुछ एक जैसा ही होता है। बच्चे के रोने के बारे में पूछने पर मालती ने स्पष्टीकरण दिया “हो ही गया है चिड़चिड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है,” अर्थात बच्चे का रोना भी रोज़ एक जैसा ही है। बच्चे को चुप कराने पर भी जब वह रोता ही रहा, तो “मालती ने उसे भूमि पर बिठा दिया और बोली “अच्छा ले, रो ले।” बच्चा चिड़चिड़ा हो गया है. इसलिए रोज़ रोता है, पर यह चिड़चिड़ापन मालती के स्वभाव का भी अंग बन गया है, जो उसके व्यवहार और शब्दों में भी झाँक-झाँक। जाता है। यह चिड़चिड़ापन मालती के उदास, यान्त्रिक, ऊब भरे जीवन का परिणाम है, जिसे कहानीकार ने बड़ी कुशलता से अंकित कर दिया है।

तीन बजने पर मालती ने थकी हुई साँस ले कर कहा “तीन बज गए।” चार बजने, . पाँच बजने और क्रमशः रात के ग्यारह बजने पर भी वह इसी प्रकार गहरी थकी साँस लेकर इतने उतने बजने की बात अपने आप से कहती है। लगता है कि वह प्रत्येक घंटा गिनती रहती है। समय उसके लिए पहाड़ जैसा है। एक घंटा बीतने पर उसे । लगता है कि चलो एक मनहस घंटा तो बीता। घर में नौकर नहीं है तो बर्तन माँजने का काम रोज़ मालती को ही करना पड़ता है। पर बर्तन माँजने के लिए पानी चाहिए जो रोज़ ही वक्त पर नहीं आता है। मालती के इस कथन में कितनी विवशता है “रोज़ ही होता है, कभी वक्त पर तो आता नहीं। आज शाम को सात बजे आएगा, तब बर्तन मॅजेंगे.” पानी की अनियमित आपूर्ति का क्रम भी रोज़ जैसा ही है।

उस घर में बच्चे का रोना, मालती द्वारा बर्तन माँजना, उसके द्वारा प्रत्येक घंटे की गिनती करना, महेश्वर का सुबह शाम दो वक़्त डिस्पेन्सरी जाना, पानी का रोज़ अनियमित रूप से आना सब कुछ एक जैसा है।

अतिथि तो मालती के घर में कई वर्षों बाद कुछ समय के लिए आया है पर अतिथि को लगता है कि उस घर पर कोई काली छाया मँडरा रही है। उसे अनुभव होता है कि “इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रह कर मानो मुझे भी वश में कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस, निर्जीव सा हो रहा हूँ, जैसे, हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती।” लगता है कि अतिथि भी उस.काली छाया का शिकार हो गया है, जो उस घर पर मँडरा रही है।

कहानी के इस स्थल पर मालती के अंतर्द्वन्द्व के साथ अतिथि का अंतर्द्वन्द्व भी चित्रित हुआ है। उस घर की जड़ता, नीरसता, उबाहट ने जैसे अनाम अतिथि को भी आच्छादित कर लिया है।

कहानी के उक्त भाग में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटती, पर महेश्वर का दोपहर  को घर लौटना, द्वार खटखटाना, मालती का अपनी जगह से न हिलना, अतिथि से । महेश्वर का परिचय, औपचारिक संक्षिप्त बातचीत आदि छोटे छोटे प्रसंग अवश्य चित्रित हुए हैं। इन प्रसंगों के चित्रण द्वारा पात्रों की बदलती मनःस्थितियों को पकड़ने की कहानीकार ने अधिक कोशिश की है। कहा जा सकता है कि लेखक का ध्यान बाह्य दृश्य की तुलना.में अंतर्दृश्य पर अधिक है। 

स्त्री की सामाजिक स्थिति

कहानी के तीसरे भाग में महेश्वर के डिस्पेन्सरी से घर लौटने के बाद की स्थितियों . का अंकन है। महेश्वर सूचना देता है कि हस्पताल में भी रोज़ एक सा ढर्रा है। हर दूसरे चौथे दिन वहाँ गैंग्रीन का रोगी आ जाता है, जिस की टांग काटने की नौबत भी आ जाती है। मालती पति पर व्यंग्य करती है

“सरकारी हस्पताल है न, क्या परवाह है। मैं तो रोज़ ही ऐसी बाते सुनती हूँ। अब कोई मर मर जाए तो ख्याल ही नहीं होता।

मालती अपने जीवन की नीरसता को प्रायः चुपचाप सहती रहती है और पति से उसकी बातचीत भी कम होती है, पर सरकारी हस्पताल की दुर्दशा और रोगियों के मरने के प्रसंग को लेकर पति पर किए गए उसके व्यंग्य से उसकी संवेदनशीलता एवं जिजीविषा का पता चलता है। 

काँटा लगने पर गैंग्रीन होना, और उसके होने पर टाँग का आपरेशन, यहाँ तक कि टाँग का कटना, हस्पताल में रोगियों का मरना सब कुछ नित्य कर्म की तरह चलता रहता है, जिसे झेलना महेश्वर की नियति है। पर इस कहानी में महेश्वर की जड़ता, उबाहट, एकरसता का अंकन गौण रूप में ही है। मुख्य रूप से मालती के नीरस, यांत्रिक जीवन की त्रासदी को ही कहानीकार ने उभारा है।

कहानीकार की दृष्टि का केंद्र मालती और उसके जीवन की जड़ता ही है, यद्यपि महेश्वर के नित्य कर्म और यांत्रिक जीवन की झलक भी इसमें मिल जाती है। महेश्वर और अतिथि बाहर पलंग पर बैठ कर गपशप करते रहे और मालती घर के अंदर बर्तन माँजती रही, क्योंकि नल में पानी आ गया था। उसकी नियति घर के भीतर खटना ही थी, बाहर की खुली हवा का आनन्द लेना नहीं। आगे कहानीकार ने एक बड़े . मामूली पर रोचक प्रसंग की उद्भावना की है। बर्तन धोने के बाद मालती को पति का आदेश मिला “थोड़े से आम लाया हूँ, वे भी धो लेना।” आम अखबार के काराज़ में लिपटे थे। मालती आमों को अलग कर के अखबार के टुकड़े को खड़े-खड़े पढ़ने लगी।

अखबार के टुकड़े को पढ़ने में उसकी तल्लीनता इस तथ्य की सूचक है कि वह बाहर की दुनिया के समाचार जानना चाहती है, पर वह अपनी सीमित दुनिया में बंद है।

उसके जीवन का एक और अभाव उजागर होता है और वह है अखबार का अभाव। अखबार उसे बाहर की दुनिया से जोड़ने का काम कर सकता था, पर वह उससे भी वंचित थी। लेखक याद कर रहा था मालती बचपन में पढ़ने से बहुत कटती. थी। पिता ने उसकी इस आदत को बदलने के लिए एक दिन पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करो, हफ्ते-भर बाद मैं देखू कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूँगा। मालती ने चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाड़ कर फेंक देती, अपने खेल में किसी भांति फर्क न पड़ने देती।

जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, “किताब समाप्त कर ली?” तो उत्तर दिया, “हाँ, कर ली.” पिता ने कहा, “लाओ मैं प्रश्न पूछंगा,” तो चुप खड़ी रही। पिता ने फिर कहा, “लाओ, मैं प्रश्न पूछंगा,” तो चुप खड़ी रही। पिता ने फिर कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, “किताब मैंने फाड़ कर फेंक दी है, मैं नहीं पढूंगी।” तभी तो लेखक ने यहाँ सार्थक टिप्पणी की है “वही उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गई है, कितनी शांत और एक अखबार के टुकड़े को तरसती है।” तभी तो अखबार का टुकड़ा सामने आने पर वह उसे पढ़ने लगती है। वह उसे पढ़ने का मोह संवरण न कर सकी। यह प्रसंग बड़ा मामूली है, पर बड़ा अर्थगर्भित है।

इससे पता चलता है कि जीवन की जड़ता के बीच भी मालती में कुछ जागरूकता, कुछ जिज्ञासा, कुछ जीवनेच्छा बची है। इस मामूली प्रसंग से कहानीकार की उर्वरां कल्पनाशक्ति का भी प्रमाण मिलता है। फिर अखबार के टुकड़े को ललक के साथ पढ़ने से उसकी मनःस्थिति का भी अनुमान किया जा सकता है। मालती के जीवन की जड़ता के बीच चेतना और जीवनेच्छा के लक्षण कहानी के बीच यदाकदा प्रकट होते हैं, जिनसे लगता है कि वह इस घुटन भरी जिंदगी से निकलना चाहती है। पर कहानी का मुख्य स्वर चुनौती के बजाए मालती द्वारा जीवन से किए गए समझौते का है। वह सब कुछ सह लेती है। पति के प्रति कर्तव्यनिष्ठा और बच्चे के प्रति वात्सल्य उसे समझौते के लिए बाध्य करता है। उसके जीवन की गाड़ी रेलगाड़ी की तरह लोहे की पटरियों पर कभी तेज़ और कभी मन्द गति से चलती जाती है।

उक्त प्रसंग से यही लगता है कि “रोज़’ नारी की चुनौती के बजाए उसके समझौते और सहनशीलता की कहानी है। वह सब कुछ सह कर गृहस्थी की गाड़ी धकेलती रहती है।

“जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्तव्य भावना बहुत विस्तीर्ण हो गयी, वह मालती की ओर हाथ बढ़ाकर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठ कर एक हाथ से उसे थपकाने और दूसरे से कई छोटे-छोटे डिब्बे उठा कर अपने सामने रखने लगी. “

महेश्वर और अतिथि द्वारा बाहर पलंग पर बैठे चाँदनी का आनन्द लेना और रसोई के भीतर मालती द्वारा बर्तन मलना, सोते हुए बच्चे का पलंग से नीचे गिर जाना ऐसे प्रसंग हैं, जो नारी के जीवन की विषम स्थिति के सूचक हैं। उसे बर्तन साफ करने के साथ बच्चे को भी संभालना है। बच्चे को सुलाने के बाद वह बर्तन मलने बैठी तो बच्चा पलंग से नीचे गिर पड़ा। इस पर मालती की प्रतिक्रिया है “इस के चोटें लगती ही रहती हैं। रोज़ ही गिर पड़ता है।” मानो पलंग से बच्चे का गिरना कोई खास बात नहीं है, क्योंकि ऐसा रोज़ होता है। उसकी चोटें भी चिन्ता का विषय नहीं है, क्योंकि चोटें रोज़ लगती हैं। उसके मन की चोटें भी उसके लिए चिन्ता का विषय नहीं रहीं, क्योंकि वे भी रोज़ लगती हैं। ‘रोज़’ की ध्वनि लगातार गूंजती रहती है। इसलिए कहानी का शीर्षक ‘रोज़’ बड़ा सार्थक है। इस स्थल पर कहानीकार की टिप्पणी भी प्रासंगिक है “ग्यारह बजने वाले हैं।” धीरे से सिर हिला कर जता रही थी कि मालती का जीवन अपना रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के सौन्दर्य के लिए रुकने को तैयार नहीं था।

मालती के जीवन पर लेखक की यह टिप्पणी बड़ी सार्थक है। यह महेश्वर के जीवन पर भी, उस पहाड़ी गाँव के निवासियों के जीवन पर भी चरितार्थ होती है। पर कहानी की मुख्य संवेदना मालती के एकरस जीवन, उसकी सहनशीलता और समय के साथ समझौते से सम्बन्धित है। यह नारी जीवन की एक त्रासदी भी है।

कहानी का अंत ग्यारह बजने की घंटा ध्वनि के साथ होता है, जबकि मालती मर्मभेदी आवाज़ में कहती है “ग्यारह बज गए।” यहाँ मालती के सामान्य शब्दों में एक व्यंग्यात्मक करुणा है, जो इन्हें जीवन्त बना देती है।

कहानी का शिल्प

अज्ञेय ने हिंदी कहानी को आधुनिकता बोध से संपन्न करने की दिशा में महत्वपूर्ण सृजन किया है। वे मनोवैज्ञानिक कथाओं के सफल लेखक हैं। वे घटनाओं के कोरे वर्णन के बजाए मानव के अंतर्मन की परतों को उघाड़ने में अधिक रूचि लेते हैं। इसलिए उनकी कहानियों में भावात्मक गहराई और विशेष प्रकार की वैचारिकता मिलती है। मनोविज्ञान के सिद्धांतों की छाया उनकी कहानियों के ताने बाने में प्रायः दिखाई देती है। इस तरह से फ्रायड के मनोविश्लेषण से प्रभावित दीखते हैं।

उनकी कहानियाँ प्रायः चरित्र प्रधान हैं। ‘रोज़’ भी एक चरित्र प्रधान कहानी है, जिसमें एक विवाहिता युवती मालती के यांत्रिक जीवन को आधार बनाया गया है। चरित्र चित्रण के लिए कहानीकार कई विधियाँ अपनाता है, जिनमें अंतर्द्वद्व की प्रस्तुति, सार्थक संक्षिप्त संवाद, जीवन्त भाषा आदि हैं। घटनाओं के विस्तृत विवरण के बजाए अज्ञेय उनसे उत्पन्न मानसिक घात प्रतिघात, प्रतिक्रियाओं, चित्त के परिवर्तनों के अंकन में अधिक रूचि लेते हैं अर्थात् बाह्य दृश्य के बजाए अंतर्दृश्यों पर उनकी दृष्टि अधिक केंद्रित रहती है।

अज्ञेय भाषा के कुशल प्रयोक्ता हैं। वे तत्सम शब्दों के कुशल प्रयोग में बड़े सफल हैं, यद्यपि तद्भव शब्दों और बोलचाल की शब्दावली से भी उन्हें कोई परहेज़ नहीं है। उनके गल्पसाहित्य की भाषा कविता की तुलना में कम संस्कृतनिष्ठ है। पर भाषा के प्रति अभिजात रूचि सर्वत्र उनकी रचनाओं में देखी जा सकती है। हिंदी कहानी को नए क्षितिज़ों से परिचित कराने और उसके कथ्य में गहराई लाने की दिशा में अज्ञेय का योगदान विशिष्ट है।

आगे कहानीकार ने एक साधारण पर रोचक प्रसंग की उद्भावना की है। महेश्वर ने मालती से आम धोकर लाने को कहा। आम अखबार के एक टुकड़े में लिपटे थे। अखबार का टुकड़ा सामने आते ही मालती उसे पढ़ने में ऐसे तल्लीन हो गई, मानो उसे अखबार पहली बार मिला हो। इससे पता चलता है कि वह अपनी सीमित दुनिया से बाहर निकल कर दुनिया के समाचार जानने को उत्सुक है। वह अखबार के लिए भी तरस गई थी। उसके जीवन के अनेक अभावों में अखबार का अभाव भी उसे एक तीखी चुभन दे गया। यह प्रसंग बड़ा साधारण है पर बड़ा अर्थपूर्ण है, क्योंकि यह जीवन की जड़ता के बीच उसकी जिज्ञासा और जीवनेच्छा का प्रतीक बन जाता है। इससे लेखक की कल्पनाशीलता का भी पता चलता है।

सारांश

कहानी के पहले भाग में मालती द्वारा अपने भाई के औपचारिक स्वागत का उल्लेख है, जिसमें कोई उत्साह नहीं है, बल्कि कर्तव्यपालन की औपचारिकता अधिक है। वह अतिथि की कुशलक्षेम तक नहीं पूछती, पर उसे पंखा अवश्य झलती है। उसके प्रश्नों का संक्षिप्त उत्तर देती है। बचपन की बातूनी चंचल लड़की शादी के दो वर्षों बाद इतनी बदल जाती है कि वह चुप रहने लगती है। उसका व्यक्तित्व बुझ सा गया है। अतिथि को उस घर के ऊपर कोई काली छाया मँडराती हुई लगती है।

मालती और अतिथि के बीच के मौन को मालती का बच्चा सोते-सोते रोने से तोड़ता है। वह बच्चे को सँभालने के कर्तव्य का पालन करने के लिए दूसरे कमरे में चली। जाती है। अतिथि एक तीखा प्रश्न पूछता है तो उसका उत्तर वह एक प्रश्नवाचक हूँ’ से देती है। मानो उसके पास कहने के लिए कुछ नहीं है। यह आचरण उसकी उदासी, उबाहट और यांत्रिक जीवन की यंत्रणा को प्रकट करता है। दो वर्षों के वैवाहिक जीवन के बाद नारी कितनी बदल जाती है, यह कहानी के इस भाग में प्रकट हो जाता है। कहानी के इस भाग में मालती कर्तव्य पालन की औपचारिकता पूरी करती प्रतीत होती है, पर उस कर्त्तव्यपालन में कोई उत्साह नहीं है, जिससे उसके नीरस, उदास, यांत्रिक जीवन की ओर संकेत होता है। अतिथि से हुए उसके संवादों में भी एक उत्साहहीनता और ठंडापन है। उसका व्यवहार उसकी द्वन्द्वग्रस्त मनोदशा का सूचक है। इस प्रकार कहानीकार बाह्य स्थिति और मनःस्थिति के संश्लिष्ट अंकन में सफल हुआ है।

‘रोज़’ कहानी के दूसरे भाग में मालती की अंतर्द्वन्द्वग्रस्त मानसिक स्थिति, बीते बचपन की स्मृतियों में खोने से एक असंज्ञा की स्थिति शारीरिक जड़ता और थकान का कुशल अंकन हुआ है। साथ ही उसके पति के यांत्रिक जीवन, पानी, सब्जी, नौकर आदि के अभावों का भी उल्लेख हुआ है। मालती पति के खाने के बाद दोपहर को तीन बजे और रात को दस बजे ही भोजन करेगी और यह रोज़ का क्रम है, इसकी जानकारी भी पाठकों को यहाँ मिलती है।

बच्चे का रोना, मालती का देर से भोजन करना, पानी का नियमित रूप से वक्त पर न आना, पति का सवेरे डिस्पेन्सरी जाकर दोपहर को लौटना और शाम को फिर डिस्पेन्सरी में रोगियों को देखना, यह सब कुछ मालती के जीवन में रोज़ एक जैसा ही है। घंटा खड़कने पर समय की गिनती करना मालती के नीरस जीवन की सूचना देता है अथवा यह बताता है कि समय काटना उसके लिए कठिन हो रहा है।

इस भाग में मालती, महेश्वर, अतिथि के बहुत कम क्रियाकलापों और अत्यंत संक्षिप्त संवादों के अंकन से पात्रों की बदलती मानसिक स्थितियों को प्रस्तुत किया गया है, जिससे यही लगता है कि लेखक का अधिक ध्यान बाह्य दृश्य के बजाए अंतर्दृश्य पर कहानी के तीसरे भाग में महेश्वर की यांत्रिक दिनचर्या, हस्पताल के एक जैसे ढर्रे, रोगियों की टांग कटने या उसके मरने के नित्य चिकित्सा कर्म का पता चलता है, पर अज्ञेय का ध्यान मालती के जीवन संघर्ष को चित्रित करने पर केंद्रित है। इसलिए उसकी गतिविधियों तथा उसकी मनःस्थितियों के अंकन पर लेखक ने अधिक ध्यान दिया है।

महेश्वर और अतिथि बाहर पलंग पर बैठ कर गपशप करते रहे और चाँदनी रात का आनन्द लेते रहे, पर मालती घर के अंदर बर्तन मांजती रही, क्यों यही उसकी नियति थी।

बच्चे का बार-बार पलंग से नीचे गिर पड़ना और उस पर मालती की चिड़ चिड़ी प्रतिक्रिया मानो पूछती है कि वह बच्चे को सँभाले या बर्तन मले? ये काम नारी को ही क्यों करना पड़ता है? क्या यही उसकी नियति है?

इस अचानक प्रकट होने वाली जीवनेच्छा के बावजूद कहानी का मुख्य स्वर चुनौती के बजाए समझौते का और मालती की सहनशीलता का है। इसमें नारी जीवन की विषम स्थितियों का कुशल अंकन हुआ है। बच्चे का सोते सोते पलंग से गिरना, उसके लिए सामान्य बात है, क्योंकि रोज़ ऐसा होता है। बच्चे की चोटें भी मामूली बात है, क्योंकि उसे चोटें रोज़ लगती रहती हैं। मालती के मन पर लगने वाली चोटें भी चिन्ता का विषय नहीं है, क्यों कि वह रोज़ इन चोटों को सहती रहती है। ‘रोज़’ की ध्वनि कहानी में निरन्तर गूंजती रहती है।

कहानी का अंत ‘ग्यारह’ बजने की घंटा-ध्वनि से होता है और तब मालती करुण स्वर में कहती है “ग्यारह बज गए।” उसका घंटे गिनना उसके जीवन की निराशा और करुण स्थिति को प्रकट करता है। ‘रोज़’ अज्ञेय की चर्चित कहानी है, जो ‘विपथगा’ शीर्षक कहानी संकलन के पहले संस्करण में छपी थी, बाद में ‘गैग्रीन’ शीर्षक से भी ‘विपथगा’ के पाँचवें संस्करण में प्रकाशित हुई। इस कहानी का उद्देश्य एक विवाहित युवती के जीवन चित्रण के माध्यम से नारी के सीमित संसार में घुटन और उसकी उदासी का चित्रण है। कहानी का शीर्षक भी मालती की रोज एक ढर्रे पर चलती दिनचर्चा और ऊबी हुई जिन्दगी की ओर संकेत करता है।

वह अतिथि के प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर मात्र देती है, स्वयं उससे कोई प्रश्न नहीं करती। उसके पास मानो कहने के लिए कुछ नहीं है। उसके मौन को उसका बच्चा सोते-सोते रोकर तोड़ता है। वह उसे सँभालने के कर्तव्यपालन में लग जाती है, मानो वह कर्तव्यपालन के लिए ही बनी है। पर उस कर्त्तव्यपालन में कोई उत्साह नहीं है। इससे अतिथि को लगता है कि उसके आने से मालती को कोई खुशी नहीं हुई। इस आशय के प्रश्न का उत्तर वह एक प्रश्नवाचक ‘हूँ’ में देती है। उसका आचरण उसकी द्वंद्वग्रस्त मनोदशा की गवाही देता है।

कहानी के दूसरे भाग में मालती की मनःस्थितियों का कुशल अंकन है। वह अतिथि के सामने बैठी दूर अतीत की स्मृतियों में मग्न है। इस तल्लीनता के कारण वह पति द्वारा दरवाजा खटखटाने पर हिल नहीं पाती। उसका अन्तर्द्वद्व और मानसिक उथलपुथल उसके व्यवहार से व्यक्त हो जाती है। कहानीकार घटनाओं के विस्तृत वर्णन पर कम ध्यान देता है, घटनाओं की अभिप्रेरणाओं और पात्रों की मानसिकता को उघाड़ने के कौशल का परिचय अधिक देता है।

आगे महेश्वर की यांत्रिक दिनचर्या का संक्षिप्त चित्र प्रस्तुत करके उसके जीवन को भी एक ढर्रे पर चलता दिखाया गया है। पहाड़ी स्थानों के अभावों और सीमित वातावरण की यन्त्रणाओं को महेश्वर के माध्यम से प्रस्तुत किया है। पर महेश्वर की जीवन स्थितियों का अंकन करना लेखक का उद्देश्य प्रतीत नहीं होता। उनकी चर्चा प्रासंगिक रूप से आई है। कहानीकार का मुख्य उद्देश्य मालती की उदास जिंदगी को जीवन्त रूप में प्रस्तुत करना है, जिसमें उसे सफलता मिली है।

महेश्वर और अतिथि के संक्षिप्त संवाद से सूचना मिलती है कि मालती पति के भोजन करने के बाद दोपहर तीन बजे और रात को दस बजे भोजन करती है। यह क्रम भी । रोज़ का है। बच्चे का बार-बार रोना, मालती का उसे डाँटना भी रोज़ का क्रम है। घंटे की गिनती करना भी उसकी भारी ऊब और जड़ता का सूचक है। समय उसके लिए पहाड़ जैसा भारी हो गया है।

घर में नौकर न होने के कारण मालती को ही बर्तन माँजने का उबाऊ काम करना पड़ता है पर पानी की अनियमित आपूर्ति के कारण उसमें भी बाधा आती है और वह पानी की बाट देखती रहती है। उसकी करुण स्थिति से अतिथि भी प्रभावित होता है और उसे लगता है कि वह भी उस घर के ऊपर मँडराती काली छाया का शिकार हो गया है।

कहानी के अंतिम भाग में महेश्वर के डिस्पेंसरी से घर लौटने के बाद की स्थितियों की चर्चा है। महेश्वर हस्पताल में आने वाले गैंग्रीन के रोगियों का उल्लेख करता है, जिनकी टांग काटनी पड़ती है। मालती डाक्टर महेश्वर की लापरवाही और हस्पताल की दुर्दशा पर व्यंग्य करती है, जो उसकी संवेदनशीलता का परिचायक है। कहानी एक रोचक मोड़ पर वहाँ पहुँचती है, जहाँ महेश्वर अपनी पत्नी को आम धोकर लाने का आदेश देता है। आम एक अखबार के टुकड़े में लिपटे हैं। जब वह अखबार का टुकड़ा देखती है, तो उसे पढ़ने में तल्लीन हो जाती है। उसके घर में अखबार का भी अभाव है। वह अखबार के लिए तरसती है। इसलिए अखबार का टुकड़ा हाथ में । आने पर वह उसे पढ़ने में तल्लीन हो जाती है। यह इस बात का सूचक है कि अपनी सीमित दुनिया से बाहर निकल कर वह उसके आस-पास की व्यापक दुनिया से जुड़ना चहती है। जीवन की जड़ता के बीच भी उसमें कुछ जिज्ञासा बची है, जो उसकी जिजीविषा की सूचक है।

मालती की जिजीविषा के लक्षण कहानी में यदा कदा प्रकट होते हैं, पर कहानी का मुख्य स्वर चुनौती का नहीं है, बल्कि समझौते और परिस्थितियों के प्रति सहनशीलता का है। इसके मूल में उसकी पति के प्रति निष्ठा और कर्त्तव्य परायणता को अभिव्यक्त करती है। वह भी परंपरागत सोच की शिकार है, जो इसमें विश्वास करती है कि यही उसके जीवन का सच है इससे इतर वह सोच भी नहीं सकती। जिस प्रकार से समाज के सरोकारों से वह कटी हुई है, उसे रोज का अखबार तक हासिल नहीं है जिससे अपने उबाऊ जीवन से दो क्षण निकालकर बाहर की दुनिया में क्या कुछ घटित हो रहा है, उससे जुड़ने का, जानने का मौका मिल सके।

ऐसी स्थिति में एक आम महिला से अपने अस्तित्व के प्रति चिंतित होकर सोचने, उसके लिए संघर्ष करने अथवा उबाउ जीवन से उबरने हेतु जीवन में कुछ परिवर्तन लाने की उम्मीद ही नहीं बचती।

कहानी के अंतिम भाग में बच्चे का पलंग से गिरने का उल्लेख है, जिसके प्रति मालती अधिक चिंतित नहीं है, क्योंकि वह रोज़ गिर पड़ता है। उसकी चोटें चिंता का विषय नहीं है, क्योंकि वे रोज़ लगती हैं। इस प्रकार ‘रोज़’ की ध्वनि कहानी में निरन्तर गूंजती रहती है। इसलिए कहानी का शीर्षक ‘रोज़’ पूर्णतः सार्थक है।

प्रश्न

  1. अज्ञेय की कहानी ‘रोज़’ का मुख्य उद्देश्य क्या है ? अपने उद्देश्य में लेखक को कहाँ तक सफलता मिली है ?
  2. ‘रोज़’ कहानी में मालती के वैवाहिक जीवन का चित्रण क्या मध्यवर्गीय स्त्री के जीवन का यथार्थ है अथवा कहानीकार की कल्पना?

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