प्रयोगवाद और नयी कविता

यह इकाई प्रयोगवाद और नयी कविता पर आधारित है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आपः

  • प्रयोगवाद और नयी कविता के साहित्यिक आंदोलनों को समझ सकेंगे;
  • प्रयोगवाद और नयी कविता के बीच के सूक्ष्म अंतर से भी परिचित हो सकेंगे;
  • प्रयोगवाद और नयी कविता विभिन्न विचार धाराओं से प्रभावित हुई है।
  • इस विचारधारा का निर्माण करने वाली परिस्थिति की भी चर्चा कर सकेंगे;
  • प्रयोगवाद और नयी कविता की प्रवृत्तिगत विशेषताओं का परिचय दे सकेंगे।

आधुनिक हिंदी साहित्य में स्वाधीनता प्राप्ति के आसपास की नई काव्य-चेतना को व्यापक अर्थों और संदर्भो में ‘प्रयोगवाद और नयी कविता’ के नाम से संबोधित किया गया है। यह काव्य आंदोलन अनेक तरह की विचारधाराओं, जीवन-मूल्यों, सामाजिक-राजनीतिक आघातों के सामाजिक यथार्थ से उत्पन्न हुआ। यह काव्य आंदोलन रचना-प्रक्रियाओं की विभिन्न शैलियों को अपने में अभिन्न रूप से आत्मसात करता हुआ रचनात्मक विकास की अनेक दिशाओं में विकसित होता रहा।

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद देश में नव-निर्माण और ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दासता की जंजीरों से मुक्त होने का उल्लास था। किंतु इस उल्लास के भीतर एक घनीभूत पीड़ा भी व्याप्त थी कि राजनीतिक स्वतंत्रता के आने पर भी देश सामाजिक-आर्थिक रूप से साम्राज्यवादी चंगुल से मुक्त होगा अथवा नहीं। भारत के सामने जो विश्व था वह द्वितीय विश्व युद्ध की मार से घायल, क्षत-विक्षत, भयावह आकृतियों वाला विश्व था जिस पर शीत युद्ध के बादल घिर रहे थे। इस विश्व से हम अलग न रह सकते थे। हम सभी का अनुभव था कि द्वितीय विश्व युद्ध की भंयकर विभीषिकाओं ने अपने प्रभाव-दबाव से विश्व भर में एक पुराने संसार को नष्ट कर दिया है। हालत यह हो गई कि पुराने मूल्यों और मान्यताओं पर या तो प्रश्न-चिहन लगा दिया गया या उन्हें इस रूप में बदलाव की तीव्र प्रक्रिया के भीतर से गुजरना पड़ा कि उन्हें मूल रूप में पहचानना कठिन हो गया था।

प्रयोगवाद और नयी कविता, सामान्य और विशिष्ट, दोनों अर्थों में अपने से पहले की कविता से विद्रोह करती कविता है। छायावाद और प्रगतिवाद की बहुत-सी मान्यताएँ और कसौटियाँ या तो अमान्य घोषित कर दी गईं या फिर उन्हें संशोधन और परिष्कार के साथ आत्मसात कर लिया गया। यह परिवर्तन इतनी प्रबल गति से घटित हुआ कि कविता की प्रेरणाभूमि, उपकरण, विचारधारा, कथ्य और अंतर्दृष्टि से लेकर अभिव्यंजना के माध्यमों (भाषा, बिंब, प्रतीक, मिथक, उपमान, भंगिमा, लय, छंद, शैली) में तो आया ही, . कविता के उद्देश्य और आधारों में भी एक बड़ी क्रांतिकारी हलचल उपस्थित हई।

कविता का उद्देश्य आनंद या मुग्ध कर लेना मात्र नहीं रहा – कविता का उद्देश्य हो गया आदमी का संपूर्णता में अपने समय और समाज के यथार्थ से साक्षात्कार। नई प्रश्नाकुलताओं और चुनौतियों के कारण परंपरा और आधुनिकता के प्रति रवैया, नया प्रस्तावित हुआ। नई बौद्धिकता का संदर्भ, विचारधारात्मक संघर्ष और । प्रतिबद्धता का प्रश्न, राजनीति और धर्म के बदलते रिश्ते, व्यक्ति-स्वातंत्र्य, व्यवस्था-विरोध और अस्वीकार के साहस के रूप में सामने आया।

सन् 1940 से लेकर 1970 तक के तीन दशक भारत के लिए ही नहीं विश्व साहित्य के लिए वैचारिक संघर्ष की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण रहे। संस्कृति, लोकतंत्र और स्वतंत्रता के नाम पर पूँजीवादसाम्राज्यवाद की विचारधारा ने एक जाल फेंका कि तीसरी दुनिया के देश उनके चंगुल से बाहर रहकर पनप न सकें। नई राजनीति से शीत युद्ध का खतरा पनपने लगा। नयी कविता पर इन खतरों की छाया देखकर नई कविता के सर्वाधिक समर्थ भाष्यकार, विचारक और कवि ग.मा. मुक्तिबोध सकते में आ गए। उन्होंने पूरी स्थिति को समझाते हुए लिखा है – “स्वाधीनता प्राप्ति के उपरान्त भारत में एक और अवसरवाद की बाढ़ आई। शिक्षित मध्य वर्ग में भी उसकी जोरदार लहरें पैदा हुईं। साहित्यिक लोग भी उसके प्रवाह में बहे और खूब ही बहे। इस भ्रष्टाचार, अवसरवाद, स्वार्थपरता की पार्श्वभूमि में, नयी कविता के क्षेत्र में पुराने प्रगतिवाद पर जोरदार हमले किए गए और कुछ सिद्धातों की एक रूपरेखा प्रस्तुत की गई।

ये सिद्धान्त और उसके हमले, वस्तुतः उस शीत युद्ध के अंग थे जिसकी प्रेरणा लन्दन और वाशिंगटन से ली गई थी। पश्चिम की परिपक्व मानवतावादी परंपरा से साहित्यिक प्रेरणा ग्रहण न करके उन पर नए व्याख्याताओं ने उसकी अत्यंत प्रतिक्रियावादी साहित्यिक विचारधारा को अपनाया और फैलाया। नयी कविता के आसपास लिपटे हुए बहुत से साहित्यिक सिद्धांतों में शीत युद्ध की छाप है।’ (नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध)।

‘प्रयोगवाद और नयी कविता में कलावाद या कला की ऑटोनॉमी को, कला के स्वायत्त संसार को इस ढंग से जमाने का प्रयास ही कवि मुक्तबोध की चिन्ता का विषय बना है। कलावादियों को डर लगता था कि वे परिवर्तनकारिणी प्रवृत्तियाँ कहीं नयी कविता में न उभरने लगें। इसलिए ऐसी प्रवृत्तियों की साहित्यिक अभिव्यक्तियों के और अधिक प्रभावशाली एवं सुन्दर ढंग से बनने की अगली संभावनाओं के विरोध में उन्होंने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसमें कला की स्वायत्त निर्विकल्पकता की स्थापना की गई और इस प्रकार नयी कविता को जीवन के मूल तथ्यों से अलग करने का प्रयत्न किया गया। आधुनिक भावबोध वाले सिद्धान्तों, जन-साधारण के उत्पीड़न के अनुभवों, उग्र विक्षोभों और मूल उद्वेगों का बॉयकाट किया गया। लघुमानव’ वाला सिद्धान्त लाकर जन-साधारण की मार्मिक आध्यात्मिक शक्तियों और भव्यताओं से आँखें फेर ली गईं।

मुक्तिबोध ने नयी कविता आंदोलन की राजनैतिक व्याख्या तो की ही नयी कविता के सांस्कृतिकसौंदर्यात्मक, मनोविश्लेषणात्मक और साहित्यिक पहलुओं का विस्तार से अध्ययन भी प्रस्तुत किया। किंतु मुक्तिबोध और उनकी विचारधारा से असहमत नयी कविता के बहुत से कवि आलोचकों ने मार्क्सवाद का खण्डन करते हुए उसे एक प्रकार का अधिनायकवाद कहा जिसमें ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ के लिए जगह ही कहाँ है। नयी कविता में नेहरू-युग से मोहभंग की पीड़ा व्यापक स्तर पर व्यक्त हुई। जयप्रकाश नारायण और लोहिया का समाजवादी दर्शन इस दौड़ में जनता की ‘आस्था’ का पर्याय बना और नई कविता का एक बड़ा कवि समूह लोहियावादी विचारधारा से प्रभावित हुआ । लक्ष्मीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण साही आदि की विचारधारा पर न अमरीकी पूँजीवादी-साम्राज्यवादी विचारधाराओं का असर है न मार्क्सवादी विचारधारा का।

गांधी के विचारों का नया संशोधित संस्करण बनकर राममनोहर लोहिया आए और नई कविता का सहज मानव (जिसे विजयदेवनारायण साही और लक्ष्मीकांत वर्मा ने ‘लघु मानव’ नाम दिया) इसी भाव-बोध की हिंदस्तानी उपज है। नयी कविता, इसी अर्थ में सहज मानव या सामान्य मानव के व्यापक परिवेश से जन्मी तनाव और संधर्ष की अभिव्यक्ति देने वाली कविता है – जो साधारण आदमी की असाधारणता में विश्वास करती है, महामानवों की। छद्म आदर्शवादिता में नहीं । मार्क्सवादी, अस्तित्ववादी, मनोविश्लेषणवादी, अतियथार्थवादी, यथार्थवादी, क्षणवादी जैसी तमाम विचारधाराओं का प्रयोगवाद और नयी कविता पर वस्तु और रूप के स्तर पर प्रभाव है, पर ‘प्रयोगवाद और नयी कविता’ किसी भी विचारधारा की गुलामी स्वीकार नहीं करती हैं।

प्रयोगवाद

आधुनिक हिंदी कविता में प्रयोगवाद’ का जन्म छायावाद की अतिशय अशरीरी कल्पना, सूक्ष्मतावादी सौंदर्य-बोध और एकांगिता के विरोध से हुआ। ऐतिहासिक दृष्टि से प्रयोगवाद’ का आरम्भ अज्ञेय के सम्पादकत्व में निकलने वाले काव्य संग्रह ‘तारसप्तक’ से हुआ। ‘तारसप्तक’ में विविध विचारधाराओं के कवि एक साथ एकत्रित हुए जिनमें अज्ञेय को छोड़कर ज्यादातर कवि प्रगतिशील विचाराधारा के समर्थक थे। किंतु प्रयोगवाद नाम इस काव्य-प्रवृत्ति के विरोधियों द्वारा दिया गया है।

‘प्रयोगवाद’ के कवियों ने ‘प्रगतिवाद’ पर दो आरोप साफ तौर पर लगाए –

  • प्रगतिवाद, साहित्य का संकीर्णतावादी आंदोलन है जिसमें रचनाकार की स्वतंत्रता का अपहरण किया जाता है; और
  • प्रगतिवाद, विषय-वस्तु पर अत्यधिक बल देकर विचारधारा की नारेबाजी का फार्मूला अपनाता है।

इसमें साहित्य की कलात्मकता औ रूप-विधान की भयंकर उपेक्षा होती है। अज्ञेय ने ‘प्रगतिवाद’ से असंतुष्ट होकर ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य सिद्धान्त की स्थापना का अभियान प्रयोगवाद’ में चलाया। प्रगतिशील साहित्य में साहित्येतर मूल्यों को स्थान मिल था- किंतु ‘प्रयोगवाद’ साहित्यिक मूल्यों को केन्द्र में रखकर आगे बढ़ा । फलतः ‘प्रयोगवाद’ के अतिवाद से बचने के चक्कर में ‘प्रयोगवाद’ स्वयं अपने ही अंतर्विरोधों-अतिवादों का शिकार होकर रूपवाद (फार्मलिज्म) के जाल में फंसता गया जिससे उसे मुक्ति नयी कविता आंदोलन में मिली।

इसी समय काव्य में ‘प्रयोग’ को आधार बनाकर एक आंदोलन नकेनवादियों या प्रपद्यवादियों ने खड़ा कर दिया। ‘प्रयोग’ शब्द अंग्रेजी के ‘एक्सपेरीमेण्ट’ का हिंदी पर्याय है और इसका संबंध विज्ञान के ‘प्रयोग’ से न होकर आधुनिक चित्रकला के ‘प्रयोग’ से है। आधुनिक चित्रकला के प्रवर्तक चित्रकार सेजा ने अपने चित्रों को ‘प्रयोग’ कहा – फिर क्या था कि चित्रकला से यह ‘प्रयोग’ शब्द साहित्य में आया और चल पड़ा। अन्यथा ‘प्रयोग’ या ‘प्रयोगवाद’ का ‘एक्सपेरीमेन्टलिज्म’ जैसा कोई समानांतर आधार पश्चिम में भी नहीं है। नकेनवादियों ने ‘प्रयोग’ को काव्य में साध्य और साधन, दोनों घोषित किया। लेकिन ‘प्रयोगवाद’ के काफी पीछे ‘नकेनवाद’ आंदोलन चला।

नकेनवादी काव्य “प्रपद्यद्वादश-सूत्री” तथा “फक्किका” के साथ छपकर आया और अंत में “पस्पशा” के अंतर्गत “प्रयोगवाद” का वास्तविक आरंभ नलिन जी की कविताओं से घोषित किया गया। इसमें “प्रयोग दश सूत्री” देकर अज्ञेय जी के विचारों की खुली आलोचना की गई तथा “दो सूत्र” कहते हैं कि

  • “प्रयोगवाद सर्वतंत्र स्वतंत्र है; 
  • उसके लिए शास्त्र या बल निर्धारण नियम अनुपयुक्त है।”

लेकिन बिहार की भूमि से उठा यह काव्य-आंदोलन शेष हिंदी क्षेत्रों में मान्यता प्राप्त नहीं कर सका । नकेनवाद का ‘भाव और व्यंजना स्थापत्य तथा “प्रपद्यवाद की दार्शनिक पृष्ठभूमि” को ये रचनाकार स्वयं स्पष्ट नहीं कर सके । नतीजा यह हुआ कि काव्य-आंदोलन एकदम किनारे पड़कर विलुप्त हो गया ।

“प्रयोगवाद” के वैचारिक बिन्दु

“प्रयोगवाद” के प्रवर्तन का सच्चा श्रेय अज्ञेय जी को ही मिला और इस कविता के स्वरूप को जानने के लिए “तारसप्तक” (1943) ‘दूसरा सप्तक” (1951) और “तीसरा सप्तक” (1959) को आधार बनाया। जाता है। अज्ञेय ने “चौथा सप्तक” भी निकाला पर इसे “उपेक्षित” कहकर नकार दिया गया। सम्पादक ने न केवल इक्कीस कवियों को एकत्र किया बल्कि हर कवि ने अपने काव्य पर “वक्तव्य” भी दिए। सच है कि “तारसप्तक” के सात कवि हैं – गजानन माधव मुक्तिबोध, नैमिचन्द्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथुर, राम विलास शर्मा और अज्ञेय । संकलनकर्ता और संपादक अज्ञेय को “तारसप्तक” से सम्मान और विवाद मिला। “तारसप्तक” की भूमिका की वे स्थापनाएँ जो विवाद के केन्द्र में रही हैं, इस प्रकार हैं :

  • “विविध नई प्रवृत्तियों को संकेतित किया कवि का युग संबंध सदा के लिए बदल गया था। सभी कवि अपने को अपने समय से एक नए ढंग से बाँध रहे थे।”
  • “कुछ के लिए आधुनिकधर्मा होने के आग्रह पहले थे और अपनी मानवधर्मिता को यह आधुनिकता से अलग नहीं देख सकते थे।”
  • “सृजनशील प्रतिभा का धर्म है कि वह व्यक्तित्व ओढ़ती है। सृष्टियाँ लितनी भिन्न होती हैं सृष्टा उससे कुछ कम विशिष्ट नहीं होते, बल्कि उनके व्यक्तित्व की विशिष्टताएँ ही उनकी रचना में प्रतिबिंबित होती हैं।”
  • “शिल्पाश्रयी काव्य पर रीति हावी हो सकती है, वैसे ही मताग्रही पर भी रीति हावी हो सकती है। “सप्तक” के कवियों के साथ ऐसा नहीं हुआ।
  • “अब भी उनके बारे में उतनी ही सच्चाई के साथ कहा जा सकता है कि उनमें मतैक्य नहीं है, सभी महत्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है – जीवन के विषय में, समाज धर्म और राजनीति के विषय में, काव्य-वस्तु और शैली के, छंद और तुक के, कवि के दायित्वों के – प्रत्येक विषय में उनका आपस में मतभेद है।”
  • “दूसरा मूल सिद्धान्त यह था कि संगृहीत सभी कवि ऐसे होंगे जो कविता को प्रयोग का विषय मानते हैं – जो यह दावा नहीं करते कि काव्य का सत्य उन्होंने पा लिया है – केवल अन्वेषी ही अपने को मानते हैं।”
  • “तारसप्तक” में सात कवि संगृहीत हैं। सातों एक-दूसरे से परिचित हैं – बिना इसके इस ढंग का सहयोग कैसे होता किंतु इससे यह परिणाम न निकाला जाए कि वे कविता के किसी एक “स्कूल” के कवि हैं। या कि साहित्य जगत के किसी गुट अथवा दल के सदस्य या समर्थक हैं।”
  • “ऐसा होते हुए भी वे एकत्र संगृहीत हैं, इसका कारण काव्य के प्रति एक अन्वेषी का दृष्टिकोण उन्हें समानता के सूत्र में बाँधता है।”
  • “इसका यह अभिप्राय नहीं है कि प्रस्तुत संग्रह की सब रचनाएँ रूढ़ि से अछूती हैं या कि केवल यही कवि प्रयोगशील हैं, बाकी सब घास छीलने वाले, वैसा दावा यहाँ कदापि नहीं, दावा केवल इतना है कि ये सातों अन्वेषी हैं।”
  • “तारसप्तक की कविता वैसी जड़ाऊ नहीं है वह वैसी हो भी नहीं सकती।”

इतिहास साक्षी है कि “तारसप्तक” की इन स्थापनाओं पर बड़ा विवाद हुआ। नतीजा यह हुआ कि अज्ञेय ने “दूसरा सप्तक” में (भूमिका) पुनः अपनी बात की सफाई देते हुए कहाः

  • “क्या ये रचनाएँ प्रयोगवादी हैं क्या ये कवि किसी एक दल के हैं, किसी मतवाद-राजनीतिक या साहित्यिक के पोषक हैं। “प्रयोगवाद” नाम के नए मतवाद के प्रवर्तन का दायित्व क्योंकि अनचाहे और अकारण ही हमारे मत्थे मढ़ दिया गया है।”
  • “प्रयोग का कोई वाद नहीं है। हम वादी नहीं रहे, नहीं हैं। न प्रयोग अपने आप में इष्ट या साध्य है। ठीक इसी तरह कविता का कोई वाद नहीं है, कविता भी अपने आप इष्ट या साध्य नहीं है। अतः हमें “प्रयोगवादी” कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है जितना हमें “कवितावादी” कहना।”
  • “जिस प्रकार कविता रूपी माध्यम को बरतते हुए आत्माभिव्यक्ति चाहने वाले कवि को यह अधिकार है कि उस माध्यम का अपनी आवश्यकता के अनुरूप श्रेष्ठ उपयोग करे, उसी प्रकार आत्म-सत्य के अन्वेषी कवि को अन्वेषण के प्रयोग-रूपी माध्यम का उपयोग करते समय उस माध्यम की विशेषताओं को भी परखने का अधिकार है।”
  • “जो लोग प्रयोग की निन्दा करने के लिए परम्परा की दुहाई देते हैं, वे भूल जाते हैं कि परम्परा कम से कम कवि के लिए ऐसी कोई पोटली बाँधकर अलग रखी हुई चीज नहीं है जिसे वह । उठाकर सिर पर लाद ले और चल निकले। (कुछ आलोचकों के लिए भले ही वैसा हो) परम्परा का कवि के लिए कोई अर्थ नहीं है जब तक वह उसे ठोक बजाकर, तोड़-मरोड़कर देखकर आत्मसात् नहीं कर लेता, जब तक वह एक इतना गहरा संस्कार नहीं बन जाती कि उसका चेष्टापूर्वक ध्यान कर उसका निर्वाह करना अनावश्यक न हो जाए। अगर वह कवि की आत्माभिव्यक्ति एक संस्कार विशेष के वेष्टन में ही सामने आती है, तभी वह संस्कार देने वाली परम्परा, कवि की परम्परा है, नहीं तो वह इतिहास है, शास्त्र है, ज्ञान भण्डार है जिससे अपरिचित भी रहा नहीं जा सकता है।”
  • “प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है वह साधन है। और दोहरा साधन है। क्योंकि एक तो वह उस सत्य को जानने का साधन है जिसे कवि प्रेषित करता है, दूसरे वह उस प्रेषण की क्रिया को और उसके साधनों को जानने का भी साधन है। वस्तु और शिल्प दोनों के क्षेत्र में प्रयोग फलप्रद होता है।”
  • “प्रयोग का हमारा कोई वाद नहीं है, इसको और भी स्पष्ट करने के लिए एक बात हम और कहें। प्रयोग निरंतर होते आए हैं और प्रयोगों के द्वारा ही कविता या कोई कला, कोई भी रचनात्मक कार्य आगे बढ़ सका है। जो यह कहता है कि मैंने जीवन भर कोई प्रयोग नहीं किया वह वास्तव में, यही कहना चाहता है कि मैंने जीवन-भर कोई रचनात्मक कार्य नहीं करना चाहा।”
  • “केवल प्रयोगशीलता ही किसी रचना को काव्य नहीं बना देती। हमारे प्रयोग का पाठक या सहृदय के लिए कोई महत्त्व नहीं है, महत्त्व उस सत्य का है जो प्रयोग द्वारा हमें प्राप्त हो।”
  • श्री नंददुलारे बाजपेयी का “प्रयोगवादी रचनाएँ” शीर्षक निबंध तर्क विकृति का आश्चर्यजनक उदाहरण है।
  • “तारसप्तक” के कवियों पर यह आक्षेप किया जाता है कि साधारणीकरण का सिद्धान्त नहीं मानते। यह दोहरा अन्याय है। क्योंकि वे न केवल इस सिद्धान्त को मानते हैं, बल्कि इसी से प्रयोगों की आवश्यकता भी सिद्ध करते हैं। यह मानना होगा कि सभ्यता के विकास के साथ-साथ हमारी अनुभूतियों का क्षेत्र भी विकसित होता गया है और अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए हमारे उपकरण भी विकसित होते गए हैं। यह कहा जा सकता है कि हमारे मूल राग-विराग नहीं बदले – प्रेम अब भी प्रेम है, घृणा.., अब भी घृणा पर यह ध्यान में रखना होगा कि राग वही रहने पर भी रागात्मक संबंधों की प्रणालियाँ बदल गई हैं और कवि का क्षेत्र रागात्मक संबंधों का क्षेत्र होने के कारण इस परिवर्तन का कवि कर्म पर बहुत गहरा असर पड़ा है।”
  • “जैसे-जैसे बाह्य वास्तविकता बदलती है वैसे-वैसे हमारे उससे रागात्मक संबंध जोड़ने की प्रणालियाँ भी बदलती हैं और अगर नहीं बदलती हैं तो उस बाहृय वास्तविकता से हमारा संबंध टूट जाता है।”

इस प्रकार, अज्ञेय के द्वारा ऊपर दिए गए सैद्धान्तिक वक्तव्य ही “प्रयोगवाद” के विचार केंद्र को आलोकित करते रहे। गिरिजाकुमार माथुर को छोड़कर “तारसप्तक” के सभी कवि साम्यवादी विचारधारा की ओर झुके रहे। मुक्तिबोध-“पूँजीवाद समाज के प्रति”, नेमिचन्द्र जैन-“कवि गाता है”, भारत भूषण अग्रवाल-“अपने कवि से” एवं “जागते रहो”, प्रभाकर माचवे-“निम्न मध्य वर्ग” और “बीसवीं सदी”, डा. रामविलास शर्मा-“विश्व शांति” शीर्षक कविताओं का स्वर स्पष्ट रूप से साम्यवादी विचारों से प्रेरित है। स्वयं अज्ञेय, जिन पर फायड का गहरा प्रभाव था – “जनगड़ान” कविता में “लाल आग मेरे भावी गौरव का पथ है” कहते मिलते हैं। इसलिए हिंदी आलोचकों का एक वर्ग-जगदीश गुप्त आदि – मानते हैं कि “प्रयोगवाद” का जन्म “प्रगतिवाद” की कोख से हुआ। लेकिन प्रगतिवादियों का मत है कि “प्रयोगवाद” का आंदोलन “प्रगतिवाद” की जन-चेतना के नाश के लिए सुनियोजित तरीके से चलाया गया। स्वयं डा. रामविलास शर्मा इसी मत की। पुष्टि करते हैं। “राही नहीं राहों के अन्वेषी” का नारा अज्ञेय ने सभी को सत्य से भटकाने के लिए दिया था – ताकि वे आभिजात्यवादी-पूँजीवादी मूल्यों की रक्षा कर सकें।

इतना ही नहीं, व्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर अज्ञेय ने व्यक्तिवाद का पोषण किया और “कला कला के लिए” सिद्धान्त के बीज बोए। प्रयोगवाद की मूल प्रवृत्तियाँ टटोलकर पाया कि- 

  • विचारधारा से मुक्ति 
  • सत्य के अन्वेषण की झोंक
  • व्यक्तिवाद
  • बौद्धिकता का झूठा मुखौटा
  • परम्परा की ऐतिहासिक चेतना
  • प्रयोग का आग्रह
  • चमत्कारी शिल्प में जड़ाऊ रूपवाद
  • काव्य-भाषा और सम्प्रेषण
  • नए बिम्ब और जटिल प्रतीक 
  • छंद और लय जीवन के भीतर से पकड़
  • लोक लयों का उपयोग

वे सभी विशेषताएँ कविता के साहित्यिक मूल्यों तक सीमित हैं। मूलतः प्रयोगवादी काव्य-शिल्प की चमक-दमक का आंदोलन है जिस पर मनोविश्लेषणवाद, बिंबवाद, डी.एच. लारेन्स, टी.एस. एलियट आदि का प्रभाव है।

प्रयोगवाद से नयी कविता के संबंध की पहचान

नयी कविता आंदोलन का “प्रयोगवाद” से निकट का रिश्ता है किंतु नयी कविता को प्रयोगवाद का पर्याय मानना गलत है। बहुत से लोग नयी कविता की शुरुआत 1943 ई. में अज्ञेय के सम्पादकत्व में निकलने वाले “तारसप्तक” से मानते हैं। ऐसे भी विद्वान हैं जो “नयी कविता” का आरंभ सुमित्रानन्दन पन्त और उनके “रूपाभ” (1938) से जोड़ते हैं और कुछेक सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला” के काव्य “कुकुरमुत्ता” (1942) के नवीन काव्य-बीजों में नई कविता के बीज खोजते हैं। यह भी कहा जाता है कि “सन् 1942-43 में पन्त, नरेन्द्र, केदार, शमशेर कविता की जिस धारा के कवि हैं, “तारसप्तक” उसमें प्रवाह की एक लहर है, नदी का स्थिर द्वीप नहीं।” (डॉ. रामविलास शर्मा, नई कविता और अस्तित्ववाद, पृ.17) शायद नयी कविता पचास वर्षों में सर्वाधिक विवादास्पद और विचारोत्तेजक साबित हुई है। कविता संबंधी चिंतन के अधिकांश विवाद के केन्द्र में किसी न किसी रूप में “तारसप्तक” ही है वर्षों तक “तारसप्तक” के “प्रयोग” और “अन्वेषण” पर करारी बहसें हुई, जिसका इस्तेमाल अज्ञेय ने भूमिका में किया था।

प्रयोग से “प्रयोगवाद” नाम चलाया गया और इस नाम पर तूफान खड़ा हो गया। अज्ञेय ने बार-बार कहा कि प्रयोग का कोई वाद नहीं है, हम वादी नहीं हैं, पर पुराने आचार्य भला कब मानने वाले थे। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने इन प्रयोगशील कवियों को “प्रयोगवादी” कहा और इनका घोर विरोध किया, पर विरोध से अज्ञेय कब डरने वाले थे – अज्ञेय ने “दूसरा सप्तक” की भूमिका में आचार्यश्री के आक्षेपों का उत्तर दिया और पूरी काव्य-स्थिति को नए वैचारिक कोणों से स्पष्ट किया। वस्तुतः आगे चलकर प्रयोगवाद और प्रगतिवाद जिस नए काव्य-आंदोलन में घुल-मिल गए – “वह नयी कविता” है। और महीन-भेद उभरने पर दो तरह की “नयी कविता” हो गई – आधुनिकतावादी नयी कविता – प्रवर्तक अज्ञेय, दूसरी साम्यवादी-जनवादी-प्रगतिशील नयी कविता – प्रवर्तक गजानन माधव मुक्तिबोध।

शक और हिकारत की नज़र से देखे जाने पर भी छायावादोत्तर हिंदी कविता में “बौद्धिकता” की महत्त्व-प्रतिष्ठा “तारसप्तक” ने की। इन कवियों ने छायावाद के कल्पनाप्रवण, अमूर्त भाव-पद्धति-प्रधान, सूक्ष्मतावादी मनोवृत्ति, वायवीपन, रूढ़ होती पदावली को छोड़ने का जोखिम उठाया। प्रगतिवाद की स्थूल सतही एकांगी कविता पर प्रहार किया। बौद्धिकता की उठान से युक्त नई राह को खोजने की कोशिश “प्रयोगवाद” में पूरे जोर से की गई। हालाँकि नई राहें खोजने की तैयारी करने पर भी ये कवि एक सीमा से आगे नई राहें खोज नहीं पाए – यह अलग बात है। शानदार असफलता भी सफलता से कम कीमती चीज नहीं है – यह बात “प्रयोगवाद” ने सिद्ध करके दिखा दी। “तारसप्तक” के कवियों का बौद्धिक आचरण और काव्य-स्वभाव पहले की कविता से निश्चय ही भिन्न साबित हुआ ।

इसी दृश्य को समझते हुए नई कविता के आलोचक डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी को कहना पड़ा कि हिंदी में आधुनिकता की शुरुआत होती है – “तारसप्तक” से और हिंदी के पहले आधुनिक कवि का नाम है – अज्ञेय । (हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ.226) “तारसप्तक” के प्रकाशन से हिंदी साहित्य में आधुनिक संवेदना का सूत्रपात माना जाता है। स्वाधीन पश्चिम और साम्यवादी रूस दोनों की विचारधाराएँ हिंदी साहित्य से सजग रूप में नियोजित आधुनिक काव्यांदोलन में परस्पर टकराती हैं – जिनके बीच ये सात कवि अपने निजी व्यक्तित्व की तलाश में गतिशील दिखते हैं। इस दृष्टि से “तारसप्तक” की भूमिका में उन्हें “राहों के अन्वेषी” ठीक ही कहा गया है।”

वैचारिक मतभेदों के होने पर भी “प्रयोग” का तत्व उन्हें एकसूत्रता में बाँध लेता है। इतना ही नहीं, विचारधारा के आग्रह से मुक्त इन कवियों की रचनात्मक संवेदनशीलता दूर तक इन्हें निर्मित करती है। प्रगतिवाद-प्रयोगवाद और नयी कविता के दौर घुल-मिलकर एक नया रचना-परिदृश्य उपस्थित कर देते हैं। इसलिए यह कहना ऐतिहासिक भूल है कि प्रयोगवाद का जन्म “प्रगतिवाद” की हत्या के लिए हुआ था।

वास्तविकता यह है कि “प्रयोगवाद” मानव जीवन के आंतरिक यथार्थ पर बल देने के कारण फ्रायड और जुंग की खोजों या स्थापनाओं की ओर प्रवृत्त हो गया। प्रगतिवादी काव्य ने यदि शोषित एवं बुभुक्षित के आक्रोश और असंतोष को अभिव्यक्ति दी तो “प्रयोगवाद” ने आधुनिक शिक्षा से सम्पन्न युवकों की अनास्था-यंत्रणा और संदेह की मनोदशाओं को व्यक्त किया। इसलिए प्रयोगवाद मानव-मन की निजी समस्याओं-चिंताओं का काव्य था। हिंदी कविता के विकास के सामने जो प्रश्न उपस्थित किए थे, प्रयोगवाद उन्हीं प्रश्नों के दायित्व को लेकर सामने आया था।” (डॉ. केदारनाथ सिंह, आधुनिक हिंदी कविता में बिंब-विधान, पृ० 297) सच बात तो यह है कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र का आधार “प्रयोग” पर टिका है, पर साहित्य के क्षेत्र में “प्रयोग” (एक्सपेरीमेण्ट) शब्द विज्ञान के क्षेत्र से न आकर “चित्रकला” के क्षेत्र से आया। यही स्थिति “अन्वेषण” शब्द की है। ये दोनों शब्द यूरोपीय चित्रकला में प्रसिद्ध होने के बाद साहित्य में आए।

आधुनिक कला के प्रवर्तक कलाकार सेजाँ ने “रिसर्च” शब्द का प्रयोग किया और वह चल निकला। सम्प्रेषणीयता की समस्या चित्रकला में भी थी और साहित्य में भी। इस दृष्टि से भी “अन्वेषण” प्रयोगवाद की मनोभूमिका में प्रवेश करता गया। आधुनिक अंग्रेजी कविता में टी.एस. इलियट और एजरा पाउण्ड “एण्टी-रोमांटिक” उठान लेकर आए। यहाँ तक कि पूरा “न्यू क्रिटिसिज्म” या नयी समीक्षा का आंदोलन रोमाण्टिक काव्य-मूल्यों के निषेध की पुकार लगाता आया । कुछ-कुछ ऐसी ही स्थिति हिंदी काव्य में भी दिखाई देती है – पूरा प्रयोगवाद और नयी कविता आंदोलन रोमाण्टिक मूल्यों के निषेध पर बल देता है। “तारसप्तक” के वक्तव्य अपनी गहराई में बिंबवादी ह्यूम, एजरा पाउण्ड और टी.एस. इलियट के काव्य-सिद्धान्तों की ध्वनियाँ लिये हुए दिखाई देते हैं।

प्रश्न उठता है कि प्रयोगवाद में “राहों के अन्वेषण” का क्या अर्थ है? इसका संभव उत्तर यही है कि कठिन होते कवि-कर्म की समस्या से जूझते हुए “संप्रेषणीयता” के मार्गों का अन्वेषण । अन्वेषण यह, कि राह शब्दों-बिंबों-प्रतीकों-लयों के बोध से निकाली जा सकती थी। इसीलिए ये सभी कवि शिल्प या रूप-विधान की ओर बढ़ते गए। इन कवियों की प्रयोगात्मक वृत्ति ने उन तमाम रूढ़ियों के विरूद्ध संघर्ष किया जो आधुनिक जीवन की गहन जटिल मनःस्थितियों-अनुभूतियों को मूर्त करने में बाधक हो रही थीं। शिल्प पर ज्यादा बल देने के कारण ही प्रयोगवाद को रूपवादी (फार्मलिस्ट) कहा जाता है। पर नयी कविता ने प्रयोगवाद के इस रूपवादी-चमत्कारवादी मोह से विद्रोह किया है। इसी दृष्टि से प्रयोगवाद तथा नयी कविता पर्याय नहीं हैं – दो भिन्न दृष्टि के काव्य-आंदोलन हैं।

नयी कविता के नामकरण के नए अर्थ वृत्त

ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर यह तथ्य साफ उभर कर सामने आ जाता है कि सन् 1950 तक प्रयोग की एकान्तिक वृत्ति के प्रति आकर्षण कम हो गया। कविता अब चमत्कारवादी-रूपवादी रूढ़ियों के बंधनों को तोड़कर पूरे जीवन को सामने लाने का संघर्ष करने लगी तो उसके लिए एक नए नाम की जरूरत महसूस की गई। सर्वप्रथम अज्ञेय जी ने इस काव्य-प्रवृति को “नयी कविता” नाम (आज का भारतीय साहित्य, पृ.403) देने का प्रस्ताव किया। संयोगवश यह नाम चल निकला और नई प्रवृत्तियों के लिए रूढ़ हो गया।

इलाहाबाद से 1954 में “नयी कविता” पत्रिका आरंभ हुई। “नयी कविता” के प्रकाशन से यह नाम चर्चित होकर पूरे प्रवाह में आ गया। इलाहाबाद के नए रचनाकार और आलोचक धर्मवीर भारती, रधुवंश तथा विजयदेव नारायण साही “आलोचना” त्रैमासिक के सम्पादकत्व मण्डल में थे- एक विचार-गोष्ठी में इन सभी ने नई सर्जनात्मक संवेदना पर पाठकों का ध्यान केंद्रित करने के लिए “नयी कविता” पत्रिका । निकालने का निर्णय लिया । सम्पादन का दायित्व जगदीश गुप्त (नयी कविता आंदोलन के कवि आलोचक) तथा डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी (नए साहित्य – नव लेखन के प्रख्यात आलोचक) को सौंपा गया। इलाहाबाद में “नयी कविता” पर गरमागरम बहसें हो रही थीं। अतः एक काव्य-आंदोलन के रूप में “नयी कविता” का प्रकाशन स्वाभाविक ही था। “नयी कविता” के सन् 1954 से 1967 तक आठ अंक प्रकाशित हुए जिनमें लक्ष्मीकांत वर्मा, सर्वेश्वर, कुँवर नारायण, विपिन कुमार अग्रवाल, श्रीराम वर्मा आदि की कविताएँ तथा अज्ञेय, रघुवंश, विजयदेवनारायण साही, जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी जैसे काव्य-मर्मज्ञों की टिप्पणियाँ और लेख प्रकाशित हुए।

भारती की “कनुप्रिया” तथा “अंधायुग” जैसी रचनाओं के अंश भी “नयी कविता” में प्रकाशित हुए तथा आधुनिक संवेदना की अभिव्यक्ति में प्राचीन पौराणिक मिथकों-आख्यानों के सफल-सार्थक प्रयोग की संभावनाओं पर भरोसा किया गया। पत्रिका के “संचयन स्तम्भ” में अनेक परिचित अपरिचित नए रचनाकर छापे गए – बहुत सी नई प्रतिभाएँ “नयी कविता” पत्रिका से प्रकाश में आईं। “नयी कविता” पत्रिका के कुछ लेख “लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस” (साही जी), “अर्थ की लय” तथा “रसानुभूति और सह-अनुभूति” बहुत प्रसिद्ध हुए। इनमें । “बिंब-विधान”, “आधुनिकता”, “विचारधारा” पर करारी बहसें हुई। प्रभाकर माचवे ने “भारतीय भाषाओं में नयी कविता : कुछ नोट्स” “नयी कविता” के अंकों में लिखे। इन सबसे “नयी कविता” पर विचार-चिंतन का वातावरण बना।

सन् 1953 में नए लेखकों की संस्था “परिमल” ने “नयी कविता” पर विचार-गोष्ठियों का आयोजन किया। भारतभूषण अग्रवाल, जगदीश गुप्त तथा रामस्वरूप चतुर्वेदी ने “नयी कविता” पर पर्चे पढ़े। शमशेर की लम्बी कविता “अमन का राग” पढ़ी गई तो पाठकों में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। “नए पत्ते”, “निकष”, “प्रतिमान” जैसी पत्रिकाएँ “परिमल” वृत्त के लेखकों ने निकाली। “परिमल” की गोष्ठियों के संयोजन का कार्य लक्ष्मीकांत वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, हरदेव बाहरी तथा हरिमोहन दास टंडन ने किया। “प्रतिमान” पत्रिका विज्ञापित हुई पर प्रकाशित नहीं हो पाई। फलतः डॉ. रघुवंश ने “क ख ग” त्रैमासिक का प्रकाशन किया, जिसके पन्द्रह अंक निकले और नए साहित्य को इस लघु पत्रिका ने अनेक नए पाठक दिए। “परिमल” नाम में निराला के प्रति नमन और आकर्षण दोनों थे।

डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है, “निराला इन नए लेखकों के मन में कैसे बसे थे – इसका रोचक साक्ष्य इस तथ्य से मिलता है कि उनकी गोष्ठी का नामकरण कवि के आरंभिक संकलन के आधार पर “परिमल” हुआ। “नयी कविता” नाम अज्ञेय का ही दिया हुआ है।” (हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 276) इस रचनात्मक माहौल से “नयी कविता” शब्द का अर्थ व्यापक से व्यापकतर होता गया और इस रचना-युग को “नयी कविता युग”, “नवलेखन युग’ नाम भी सुझाया गया। कविता केन्द्र में तो रही पर नयी समीक्षा तथा नए सृजन में (नाटक-उपन्यास-कहानी) सभी गद्य-रूप नए रूपों में अभिव्यक्त हुए।

“नयी कविता” आंदोलन को प्रतिष्ठित करने में अज्ञेय की भूमिका अविस्मरणीय है। सन् 1951 में सच्चिदानंद हीरानंद वात्यायन अज्ञेय ने “दूसरा सप्तक” निकाला। “दूसरा सप्तक” नयी कविता का बेजोड़ दस्तावेज है। इसमें भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्त माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय तथा धर्मवीर भारती मौजूद हैं। “तीसरा सप्तक” (1959) इसी नयी कविता चेतना का विस्तार कहा जा सकता है जिसमें प्रयाग नारायण त्रिपाठी, कीर्ति चौधरी, मदन वात्स्यायन, केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण, विजयदेवनारायण साही, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना को स्थान मिला है।

“तीसरा सप्तक” के अन्तिम चार कवियों ने नयी कविता को हर दृष्टि से सम्पन्न बनाया लेकिन आरंभ के तीन कवि अपने कृतित्व में निरंतर पिछड़ते गए और नाममात्र शेष रह गए। लेकिन नयी कविता आंदोलन सप्तकों तक सीमित नहीं रहा – इसमें अनेक उल्लेखनीय कवि स्वतंत्र रूप से आए। यहाँ इन सभी कवियों की सूची प्रस्तुत करना न तो संभव है और न उचित ही। कुछ उल्लेखनीय कवियों के नाम इस प्रकार हैं – लक्ष्मीकांत वर्मा, जगदीश गुप्त, वीरेन्द्र कुमार जैन, श्रीकांत वर्मा, विपिन कुमार अग्रवाल, अजित कुमार, रामदरश मिश्र, श्रीराम वर्मा, बालकृष्ण राव, दुष्यंत कुमार, कैलाश वाजपेयी, शिवचन्द्र शर्मा, अशोक वाजपेयी आदि। ऐसा भी नहीं है कि नयी कविता आंदोलन केवल छोटी और लम्बी कविताओं के भीतर ही पनपता रहा है – उसने प्रबंध काव्य के क्षेत्र में भी पहल की। नयी प्रबंध-चेतना की दृष्टि से “चिन्ता” (अज्ञेय), “अंधायुग”, “कनुप्रिया” (धर्मवीर भारती), “आत्मजयी” (कुँवर नारायण). “एक कंठ । विषपायी” (दुष्यंत कुमार), “चित्रकूट चरित” (लक्ष्मीकांत वर्मा) उल्लेखनीय हैं। नयी कविता युग में पनपने वाली मूल्यांधता, मोहभंग की स्थिति को इस प्रबंध चेतना ने विस्तार से प्रस्तुत किया और इस युग की पूरी मनोभूमिका (यंत्रणा-संत्रास-अनास्था) को नए बिंबों-प्रतीकों में अभिव्यक्ति दी।

नयी कविता आंदोलन की विशिष्टताओं, विविध रूपों, विचारों तथा प्रवृत्तियों का विस्तार से विवेचन-विश्लेषण करने वाली पत्रिकाओं पर भी हमारा ध्यान जाता है। उनमें “नयी धारा”, “भारती”, “लहर”, “प्रतीक”, “नया प्रतीक”, “ज्ञानोदय”, “नया खून”, “कल्पना”, “माध्यम”, “आधार”, “उत्कर्ष”, “कृति”, “क ख ग”, “निकष”, “कृति परिचय”, “युयुत्सा”, “अर्थ”, “संज्ञा”, “आलोचना”, “धर्मयुग” आदि का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। यहाँ तक कि लगभग प्रत्येक रेडियो केन्द्र से किसी न किसी रूप में नयी कविता पर वार्तामालाएँ अथवा परिसंवाद प्रसारित किए गए। शायद छायावादी कविता के आरंभिक युग के बाद से कविता को इतना महत्त्व कभी नहीं मिला।

यह संयोग नहीं है कि अज्ञेय-मुक्तिबोधगिरिजाकुमार माथुर, धर्मवीर भारती, साही, शमशेर और रघुवीर सहाय के विचार केन्द्र में “नयी कविता” ही रही है। इसका कारण है अपने युग की पूरी मनोभूमिका को नयी कविता ने नए काव्यात्मक मुहावरे में सर्वाधिक सशक्त अभिव्यक्ति दी। नयी कविता में जो तनाव-घिराव, हर्ष-विषाद, द्वन्द्व और विरोधाभास हैवह अपने “परिवेश” की सीधी आवाज की उपज है। फलतः नयी कविता के विचारों-मूल्यों-मानदण्डों, उसकी विषय-वस्तु और रूप से पाठक सहमत हो या असहमत पर उस पर सोचने के लिए विवश है। आधुनिक संवेदना के अपार विस्तार और केन्द्र में मौजूद मानव, समस्याओं-चिंताओं-प्रश्नाकुलताओं और यंत्रणाओं के बारे में नयी कविता नए तर्क पैदा करती है।

ऐसी स्थिति के कारण “नयी कविता” को न तो शास्त्रीय ढंग से परिभाषित किया जा सकता है न विश्लेषित। हालाँकि नयी कविता का शास्त्र लक्ष्मीकांत वर्मा ने “नयी कविता के प्रतिमान”, “नए प्रतिमान पुराने निकष”, डॉ. नामवर सिंह ने “कविता के नए प्रतिमान”, गिरिजा कुमार माथुर ने “नयी कविता : सीमाएँ और संभावनाएँ” लिखकर बनाने की कोशिश की। पर हुआ क्या? कोई भी कवि-आलोचक या आलोचक उसके विस्तार को न तो बाँध सका न उसकी गहराई ही बता सका। केवल व्यापक संकेतों से ही नयी कविता के विस्तार को समझा जा सकता है।

भाव-बोध

प्रयोगवाद और नयी कविता के लगभग सभी कवियों के प्रेरणा केन्द्र सूर्यकांत त्रिपाठी निराला रहे हैं। अज्ञेय “तारसप्तक” की प्रति निराला के पास भेजते हैं – निराला जी तत्काल “तारसप्तक” के सहयोगी कवि रामविलास शर्मा को पत्र लिखते हैं, – “कल ‘तारसप्तक’ संग्रह मिला। अच्छा निकला है।  इन रचनाओं का रूप मेरी दृष्टि से निखर रहा है।” निराला की प्रसन्नता के अनेक अर्थ किए जा सकते हैं। प्रगति-प्रयोग से फूटती “आधुनिक संवेदना” की धारा में कहीं न कहीं निराला अपनी विजय देखते हैं – अपनी प्रयोगशीलता की विजय । प्रयोगवाद और नयी कविता के भाव-बोध को हम इतिहास की इस प्रक्रिया में समझ सकते हैं कि आधुनिक चिंतन में निरंतर बदलता हुआ मनुष्य और समग्र मनुष्य की अवधारणा ही सारे उपक्रम का आधार है। द्वितीय विश्व युद्धोत्तर संसार की केन्द्रीय चिंता रही है – मानवीय मूल्यों का विघटन और अनास्था-यंत्रणा-पीड़ा की असहनीय स्थितियों से साक्षात्कार । यह तीखा अहसास कि मूल्यों की सर्जनात्मकता के आधार जैसे टूट-फूटकर “वेस्टलैण्ड में बिखर गए हैं – बाँझ ऊसर का निपट अकेलापन। इस स्थिति को लाने में साम्राज्यवादी और विज्ञान की प्रविधि ने भूमिका अदा की है – धर्म, परिवार, नैतिकता, परम्परागत मूल्य सभी को विज्ञान ने लील लिया है। फिर महाशक्तियों ने शीत-युद्ध छेड़ दिया है। मानव पर संकटकालीन बादल और तेजी से छा रहे हैं। विज्ञान-टेक्नोलॉजी से जीवन की ऊपरी गति बढ़ी है पर मानव के भीतर का धर्म और ईश्वर मर गया है। प्रकृति और इतिहास के अलगाव से आत्मनिर्वासन, अकेलापन, ऊब, अंधकार, निराशा पैदा हुई है।

विज्ञान की प्रविधियों से गति इतनी बढ़ गयी है कि सभी मानवीय संबंध डगमगा गए हैं और प्रेम, सेक्स, धर्म, आचरण – सभी मर्यादाएँ नष्ट हो गई हैं। धर्मवीर भारती ने “अंधायुग” में इसी टूटन की पीड़ा को बृहत्तर मानवीय संदर्भो में अभिव्यक्ति दी है – मूल्यांधता का युग -अंधायुग – “हम सबके मन में गहरा उतर गया है युग / अश्वत्थामा है संजय है – अंधियारा / है दास वृत्ति, उन दोनों वृद्ध प्रहरियों की / अंधा संशय है / लज्जाजनक पराजय है। जहाँ आदमी आदमी को चीर-फाड़कर खुश है – संस्कृति नदी उदास-विकृत “नदी वधू की नथ का मोती चील ले गई” (समय देवता – नरेश मेहता) माँस-लोभी चील-कौए-गिद्ध जीवन पर मंडराने लगे – मानव का उपजाया सूरज ही उसे निगल गया। समय का रथी चक्रव्यूह में फंसकर हाँफ रहा है, विवशता-असहायता परिवेश में तन गई है। यंत्र दानव के प्रचार-प्रसार ने सम्प्रेषण की सहज प्रकृत गतियों को घेरकर अर्थहीन कर दिया है। प्रकृति, मनुष्य, ।

इतिहास और यंत्र के बीच जो रिश्ता बना है, अवमानवीकरण अपराधीकरण, अप-संस्कृति उसी की देन है। नए संसार की इसी कुशल समस्या से प्रयोगवाद-नयी कविता के कवि जूझते रहे हैं। गजानन माधव मुक्तिबोध के शब्दों में ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की संश्लिष्टता से निर्मित नयी कविता मूलभूत संवेदनशक्ति में विलक्षण प्रवृत्ति अपनाती है। यह पूरी कविता कुछ अपवादों को छोड़कर परिवेश के साथ द्वन्द्व-स्थिति में है।

प्रश्न उठता है कि आधुनिक भाव-बोध क्या है? मुक्तिबोध के मत से “मैं अपनी खुद की जिन्दगी और दोस्तों की जिन्दगी से बता सकता हूँ कि अन्याय के विरुद्ध आवाज बुलंद करना आधुनिक भाव-बोध के अंतर्गत है। आधुनिक भाव-बोध के अंतर्गत यह भी आता है कि मानवता के भविष्य निर्माण के संघर्ष में हम और भी अधिक दत्तचित्त हों, तथा हम वर्तमान परिस्थिति को सुधारें, नैतिक हास को थामें – उत्पीड़ित मनुष्य के साथ एकात्म होकर उसकी मुक्ति की योजना करें।” अंततः अनुभूति की ईमानदारी और प्रामाणिकता ही उसके जीवन जगत के सौंदर्यानुभूति को शक्ति देती है। “कविता में कहाँ कितना फ्राड होता है, यह मैं जानता हूँ। फ्राड को आप कौशल भी कह सकते हैं। नयी कविता का कवि बहुत सचेत है, वह काफी फ्राड करता है।” सच बात यह है कि पुराने कवियों की तरह प्रयोगवादी तथा नयी कविता के कवियों के पास कोई सर्वांगीण दार्शनिक विचारधारा नहीं है, किंतु वह अपने जीवन की वास्तविकता के संपर्क में तो है।

नया कवि आज की विषम-सभ्यता के भयानक दृश्यों-कष्टों-वेदनाओं की अभिव्यक्ति करता है – अनुभव वृद्धि के साथ ही वह सौंदर्याभिरुचि का विस्तार और पुनः-पुनः संस्कार करता है। कारण, उसके लिए काव्य रचना केवल व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं है – वह एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है। इसलिए मूल्य चेतना व्यक्ति की देन न होकर पूरे समाज की देन है। फलतः नयी कविता का भाव-बोध एकान्त का एकालाप नहीं है, समाज से मानव से सीधा “वार्तालाप” है, एक ऐसा वार्तालाप जिसमें भावनात्मक और बौद्धिक परिष्करण की संस्कृति को व्यापक स्वीकृति प्राप्त है। जीवन की विविधता के कारण नयी कविता में कहीं गीत का स्वर है, कहीं आलोचना का स्वर, कहीं रमणीय प्रकृति की अनुभूति का स्वर है तो कहीं आत्मालोचन का रंग। “सच तो यह है कि नयी कविता के भीतर कई स्वर हैं, कई शैलियाँ हैं, कई शिल्प हैं और कई भाव-पद्धतियाँ। नयी कविता एक काव्य प्रकार का नाम है।

उस काव्य प्रकार के भीतर अनेकानेक व्यक्तिगत शैलियाँ, शिल्प, रचना-विधान और जीवन-दृष्टियाँ हैं।” (नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध पृष्ठ 3) किंतु छायावाद-प्रगतिवाद की तरह कोई आध्यात्मिक-भौतिक दार्शनिक विचारधारा उसके भाव-बोध में भिदी हुई नहीं है। अज्ञेय के शब्दों में, नयी कविता सबसे पहले एक “नयी मनःस्थिति का प्रतिबिंब है – एक नए मूड का – एक नए राग संबंध का रूप है।” (सर्जना और संदर्भ : नयी कविता, पृ. 172)

प्रमुख प्रवृत्तियाँ

प्रगतिवाद और नयी कविता एक ओर तो द्वितीय विश्व युद्ध की भयावह चेतना से दूसरी ओर स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद के परिवेश से प्रभावित और आंदोलित रही है। अस्तित्ववाद-आधुनिकतावाद मार्क्सवाद और गांधी-लोहियावाद के विचारों ने इन रचनाकारों में एक ऐसी अंतर्दृष्टि उत्पन्न की है जो जीवन-जगत के गतिशील और जटिल यथार्थ को नए कोणों से अभिव्यक्ति देती है। मनोविश्लेषणशास्त्र और अस्तित्ववाद के प्रभाव-दबाव ने मानव की निराशा-पराजय-मृत्युबोध को रचना में ढाला है। मध्य वर्ग की आशाओं-आकांक्षाओं ने काव्य-सृजन में शहरीकरण से उत्पन्न समस्याओं के साथ संस्कृति तथा परम्परा के भीतर से निकली आधुनिकता-बोध की प्रक्रिया और व्यक्ति के आत्म-निर्वासन की पीड़ा को तीव्र किया है। पुराने मूल्यों के मोह भंग ने इस कविता में राजनीति और व्यवस्था के मानवद्रोही चरित्र को व्यंग्य-वक्रोक्ति, विसंगति और विडम्बना की काव्य-भाषा में इस ढंग से उजागर किया है कि पूरे परिवेश की समझ पैदा होती है। इस काव्य-धारा की प्रमुख विशेषताओं या प्रवृत्तियों को इस प्रकार निरूपित किया जा सकता है :

काव्य संबंधी पुरानी अवधारणा में बदलाव

इन नए रचनाकारों ने काव्य से संबंधित पुरानी अवधारणा से असहमति व्यक्त करते हुए नए काव्य-चिंतन की प्रवृत्ति को खुलकर बढ़ावा दिया है। अज्ञेय ने कहा कि युग-परिवर्तन के साथ हमारे रागात्मक संबंध बदल गए हैं। जीवन-जगत को देखने की दृष्टि के बदलाव ने राग-बोध को परिवर्तित कर दिया है। आज की कविता “मूलतः अपने को अपनी अनुभूति से पृथक करने का प्रयत्न है, अपने ही भावों के निर्वैयक्तीकरण की चेष्टा”। कविता आत्माभिव्यक्ति नहीं है, आत्म से पलायन है। रोमान्टिक भाव-बोध के विरोध से उपजी गैर-रोमान्टिक दृष्टि का समर्थन अज्ञेय ने किया। जगदीश गुप्त ने कहा कि कविता सहज आंतरिक अनुशासन से मुक्त वह अनुभूतिजन्य सघन लयात्मक शब्दार्थ है, जिसमें सह-अनुभूति उत्पन्न करने की यथेष्ट क्षमता निहित रहती है। (नयी कविता : स्वरूप और समस्याएँ, पृ. 116)

इस बात पर आपत्ति उठाते हुए नामवर सिंह ने कहा कि नयी कविता के संदर्भ में जगदीश गुप्त का विचार अपर्याप्त है – वे इस बात को भूल गए जिसे नयी कविता ने हिंदी काव्य-परम्परा में जोड़ा है। इसलिए “अनुभूति” तो डॉ. गुप्त को याद रह गई – सृजनात्मकता भूल गई।” (कविता के नए प्रतिमान) “सह-अनुभूति” का प्रश्न रसानुभूति के विरोध में उठाया गया । पुरानी काव्यानुभूति से नए सृजन की अनुभूति कितनी भिन्न है – इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न नहीं किया। नकेनवादी मानते रहे कि कविता जटिल अनुभूतियों-संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। अनुभूति की जटिलता और भाव-सम्प्रेषण की समस्या को नयी कविता के सभी कवियों ने बार-बार उठाया।

केदारनाथ सिंह ने कविता को एक विचार- एक अनुभूति -एक दृश्य और इन सबका कलात्मक संगठन मानकर बिंब-सिद्धान्त का संकेत दिया। अंत में विजयदेवनारायण साही ने काव्य-संवेदना की बदली हुई प्रवृत्ति के कारण का संकेत देकर कहा कि नयी कविता की बहसों में यह मान्यता अंतर्भूत रही है कि न सिर्फ कविता का कलेवर बदला है बल्कि गहरे स्तर पर काव्यानुभूति की बनावट में ही अंतर आ गया है।”

लघु मानव दर्शन में नए व्यक्तित्व की खोज

यह बात कई कोणों से उठाकर कही गई कि नयी कविता लघु मानव के परिवेश की कविता है। इसीलिए यह प्रश्न भी उठा है कि लघु मानव कौन है? क्या है? किस विचारधारा की सोच से उपजा है? क्या यह व्यक्तिवादी मानव है? अहंग्रस्त-आत्मलीन, समाज-विमुख, कुंठाग्रस्त, वर्जना-पीड़ित मानव है? या इस व्यक्ति की कोई और ही किस्म है? महाकाव्यों का उदात्त नायक-आदर्श नायक कहाँ गायब हो गया है? लक्ष्मीकांत वर्मा ने “नए प्रतिमान : पुराने निकष” पुस्तक में प्रथम बार लघु-मानव को “सहज मानव” कहकर चर्चा के केन्द्र में रख दिया। फिर साही जी ने “लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस” शीर्षक निबंध में लघु-मानव को “सहज मानव” या “महत् के स्थान पर लघु की स्थापना” का नयी कविता में समर्थन किया। जगदीश गुप्त ने कहा कि “पहले अपने को लघु कहना, फिर लघुता की महानता प्रदर्शित करना, प्रकारांतर से अपने को महान कहना है।” कहना न होगा कि इस लघु मानव को अमरीकी पूँजीवादी भोगासक्त, व्यक्तिवादी मानव का पर्याय मानकर ग.मा. मुक्तिबोध को कहना पड़ा, “आधुनिक भाव-बोध वाले सिद्धान्त में, जन-साधारण के उत्पीड़न-अनुभवों, उग्र विक्षोभों और मूल उद्वेगों का बायकाट किया गया। “लघु मानव” वाला सिद्धान्त लाकर जन-साधारण की मार्मिक आध्यात्मिक ।

शक्तियों और भव्यताओं से आँखे फेर ली गईं।” मुक्तिबोध के इस कथन को व्यापक समर्थन मिला और लघु-मानव के दर्शन को अस्वीकार कर दिया गया। स्वयं अज्ञेय के सृजन में “अपराजित मानव” का रूप देखिए “पर हारता नहीं, न मरता है – पीड़ित अमरत मानव / अविजित दुर्जय मानव / कमकर श्रमकर शिल्पी, स्रष्टा / उसकी मैं कथा हूँ। (मैं वहाँ हूँ)

काव्य की अर्थ-भूमि का विस्तार और व्यक्ति स्वातंत्र्य पर बल

छायावाद ने अर्थ का संकोच कर दिया था और प्रगतिवाद काव्य विचार को फार्मूले की तरह आरोपित करने के कारण समग्र जीवन-जगत की चिंताओं से हटकर एकांगी हो गया था। पूरी स्थिति को समझने के बाद प्रयोगवाद और नयी कविता ने समग्र-मानव को सृजन के केन्द्र में स्थापित किया। उनके लिए न कोई विषय वर्जित है – न कोई विषय अछूत । गली के अँधेरे कोने में खड़े छोटे पौधे का सौंदर्य भी कवि को आकृष्ट कर सकता है। सुंदर और कुरूप, पूरा जीवन नयी कविता में काव्य-विषय, काव्य-वस्तु बना है। हर विषय को वस्तु बनाकर इन कवियों ने काव्य-सृजन किया। फलतः अर्थ-भूमि का विस्तार इनकी एक विशिष्ट प्रवृत्ति रही है। नयी कविता ने व्यक्ति-स्वातंत्र्य की चर्चा भी बार-बार की और कहा कि हम मानव की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं।

मध्य वर्ग की स्वतंत्रता के नाम पर व्यक्ति की आस्थाओं-अनास्थाओं की सजग अभिव्यक्ति की गई। अकेला पीड़ित मानव और समूह मानव दोनों पर विवाद भी कम नहीं हुआ । अज्ञेय-मण्डल के रचनाकारों ने व्यक्ति स्वातंत्र्य पर बल दिया। उनका तर्क था कि स्वाधीन मानव ही स्वाधीन चिंतन कर सकता है – किसी तरह की पराधीनता का शिकार मानव स्वाधीन व्यक्तित्व का निर्माण नहीं कर सकता। मुक्तिबोध ने व्यक्ति-स्वातंत्र्य के नारे को जनता के साथ दगा का नाम दिया”व्यक्ति-स्वतंत्रता की बात तो करते हैं, लेकिन वह स्वातंत्र्य, जिस मानवीय लक्ष्य-आदर्श के लिए होता है या होना चाहिए, वह अपनी शून्य रिक्तता के धुएँ में खो जाता है। आज के जीवन के जो बुनियादी तथ्य हैं उनके वास्तविक तर्कसंगत निष्कर्षों और परिणामों की ओर जाने में हमें डर मालूम होता है।” इसलिए व्यक्तित्व विकास की बात ही करते हैं – व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाते ।

अनुभूति की ईमानदारी और प्रामाणिकता

प्रयोगवाद और नयी कविता के सृजन दौर में अनुभूति की ईमानदारी और प्रामाणिकता पर सर्वाधिक ध्यान मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर ने दिया। “दूसरा सप्तक” की समीक्षा करते हुए प्रभाकर माचवे ने “कवि-कर्म की ईमानदारी” को काव्य-मूल्य के रूप में घोषित कर दिया। अनुभूति की ईमानदारी का दावा नयी कविता से पहले के कवि भी कम नहीं करते हैं, फिर नयी कविता में “ईमानदारी का क्या अर्थ? छायावाद और प्रगतिवाद के कवियों की ईमानदारी पर प्रयोगवाद और नयी कविता ने संदेह व्यक्त किया और कहा कि छायावादी कवि में “करुणा” और प्रगतिवादी कवियों का “जन-वेदना” का नारा झूठा था – कोरी “बौद्धिक सहानुभूति” मात्र छलना है। रघुवीर सहाय ने कहा कि काव्य-सृजन का “ईमानदारी एक मौलिक गुण है और उस बौद्धिक स्तर का पर्याय है जिस पर आकर हमारा तर्क, पूर्वाग्रह और व्यक्तिगत रुचि के ऊपर उठ जाता है और जिस पर आकर हम में वस्तुओं की वास्तविकता का सही अनुभव होता है। वह उस चेतना के पहले की चीजें हैं जो ज्ञान को क्षेत्रों में विभाजित करती हैं। जैसे ज्ञान एक है वैसे ही ईमानदारी भी समस्त एक है।”

अनुभूति यदि अखण्ड और सच्ची है तो वह वस्तुओं के भीतर से निकलती है मात्र छूकर नहीं छोड़ जाती। डॉ. नामवर सिंह ने कहा “इस प्रकार ईमानदारी एक बौद्धिक संगठन है। गरज कि ईमानदारी समझदारी का दूसरा नाम है।” (कविता के नए प्रतिमान) प्रयोगवाद के बाद नई कविता पर जब लक्ष्मीकांत वर्मा ने “नयी कविता के प्रतिमान’ पुस्तक लिखी तब उन्होंने “अनुभूति” के साथ “प्रामाणिकता” का प्रश्न उठाया। सैद्धान्तिक और व्यावहारिक स्तर पर ग.मा. मुक्तिबोध ने “एक साहित्यिक की डायरी” में “कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी” पर दो किस्तों में चर्चा की। उनके विचार से व्यक्तिगत ईमानदारी का एक अर्थ है जिस अनुपात में, जिस मात्रा में, जो भावना या विचार उठा है उसको उसी मात्रा में प्रस्तुत करना।

उनके अनुसार सच्ची ईमानदारी का अर्थ है – “वस्तु का वस्तुमूलक आकलन करते हुए लेखक उस आकलन के आधार पर वस्तु-तत्व के प्रति सही-सही मानसिक प्रतिक्रिया व्यक्त करे।” अर्थात रोमान्टिक आत्मनिष्ठता को त्यागकर विवेकयुक्त वस्तुनिष्ठता का पालन। नयी कविता के ज्यादातर कवि ईमानदार अनुभूति की राह पर चले। श्रीकांत वर्मा ने लिखा “मैं गौर से सुनता हूँ / औरों के रोने को / मगर दूसरों के दुःख को / अपना मानने की  बहुत / कोशिश की; नहीं हुआ।”

रस के प्रतिमान की अप्रासंगिकता

लगभग सभी नये कवियों ने तनाव-घिरांव, आक्रोश-यंत्रणा, की कविताएँ रची हैं। इन कविताओं का मूल्यांकन रस के प्रतिमान से नहीं किया जा सकता। क्या कोई “अंधायुग” या “चाँद का मुँह टेढ़ा है” का मूल्यांकन रस-प्रतिमान से कर सकता है? यदि करता है तो क्या यह अनौचित्य नहीं होगा? नयी कविता हृदय की मुक्तावस्था नहीं है, बुद्धि की मुक्तावस्था का पर्याय है। इसलिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ. नगेन्द्र का रस प्रतिमान नयी कविता के आस्वाद–मूल्यांकन में असमर्थ है। अज्ञेय ने रसाश्रयी दृष्टि के विरोध का कारण खोजते हुए लिखा

  • रस का आधार है समाहिति, अद्वन्द्व, किंतु नयी कविता द्वन्द्व और असामंजस्य की कविता है।
  • नयी कविता वर्तमान पर केंद्रित है जबकि रस की दृष्टि अतीतोन्मुख रहती है।

नयी कविता का विषय है क्षण की अनुभूति जबकि रस का आधार है (जन्मांतर्गत) वासना और स्थायी भाव।” जाहिर है कि नयी कविता रसाश्रयी कविता नहीं है। इसलिए नयी कविता पर “रस” को लेकर बात करना निरर्थक है। नयी कविता हमें तन्मय नहीं करती, हमारा चैन तोड़ देती है, विचार के तनाव से मथती है, छीलती है। “अंधेरे में” कविता को इसी कथन के आधार पर देखें तो पाएँगे कि वह हमें बेचैन कर देती है। जटिल अनुभूतियों में नयी कविता जीवन के नए संकट परोसती है, जो आनंद से कोसों दूर है।

‘स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद का मोह-भंग

स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद का उल्लास थोड़ा-सा समय बीतते ही निराशा की काली चादर में लिपटने लगा। नेहरू-युग ने जनता की आशाओं-आकांक्षाओं को जलाकर राख कर दिया। अमीर और गरीब के बीच खाई और चौड़ी हो गई तथा विदेशी पराधीनता का संकट गहराने लगा। पूरा देश एक ऐसी उथल-पुथल के दौर से गुजरा कि जागरूक और संवेदनशील रचनाकार “मोह-भंग” की पीड़ा से कराहने लगा। विश्व-स्तर पर साम्राज्यवादी-पूँजीवाद के शीतयुद्ध की छाया, असीम प्राविधिक विकास और स्थापित व्यवस्था के बढ़ते हुए विराट, संवेदनशील, अमानवीय तंत्रों की स्वार्थपरता के कारण सर्वग्रासी मानव-विनाश का खतरा, हर स्तर पर झूठ, फरेब, आडम्बर-पाखण्ड और भ्रष्टाचार से भारतीय लोकतंत्र चरमराने लगा। राजनीति इतनी ओछी और मानव-द्रोही हो गई कि व्यवस्था के बड़े-बड़े तंत्रों के बीच आम आदमी अकेला पड़ गया। नयी कविता में प्रबल व्यवस्था विरोध का जो स्वर उभरा है। उसके मूल कारक सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक हैं। पीड़ा-पराजय, निराशा, आंक्रोश, अकेलापन, अकुलाहट, अंधेरा-यंत्रणा, विसंगति-विडम्बना, हूक और हाय-हाय का यह जो ।

रचना-संसार नयी कविता में व्याप्त है वह मात्र पश्चिमी अस्तित्ववाद की देन नहीं है। यह एक तरह का भारतीय अस्तित्ववाद है, जिसमें “मोह-भंग” से उत्पन्न तनाव है। धर्मवीर भारती का “अंधायुग” हो, सर्वेश्वर की “गर्म हवाएँ”, रघुवीर सहाय का “आत्महत्या के विरुद्ध” हो या मुक्तिबोध का “चाँद का मुँह टेढ़ा है” की कविताएँ हों – चारों ओर जनता की चीख से भरा माहौल है। गांधी की चप्पल से जनता की चाँद को गंजे करने का काम इसी राजनीतिक माहौल में किया गया।

“अँधेरे में” कविता में मुक्तिबोध ने लिखा है “-

अँधेरे में डूबे हुए मकानों के छप्परों पार से

रोने की पतली सी आवाज

सूने में काँप रही, काँप रही दूर तक

कराहों की लहरों में पाशव-प्राकृत

वेदना भयानक थरथरा रही है।”

गांधी की हत्या के बाद नैतिक मूल्यों का विघटन इतनी तेजी से हुआ कि पूरा परिवेश । मूल्यांधकार से भर गया । नयी कविता के रचनाकारों ने अनगिनत मोह-भंग की कविताएँ लिखी हैं, इस काव्य की काव्य-संवेदना में “मोह-भंग” के कसकते-करकते अनुभवों का दारुण इतिहास निहित है।

प्रयोग-परम्परा और आधनिकता

राहों के अन्वेषी प्रयोगशील कवि, कविता को प्रयोग का साधन मानते हैं – साध्य नहीं। इन कवियों का साध्य है – नए सत्यों का उद्घाटन और मानव-मुक्ति के मार्गों की तलाश। इस क्षेत्र में इन सभी के प्रेरणा-स्रोत निराला जी रहे हैं। इन कवियों ने अपनी “परम्परा” के गतिशील तत्वों को पहचान कर रचना में ढाला तथा “रूढ़ि” के बासीपन का निषेध किया। इनके लिए “परम्परा” का अर्थ यदि ऐतिहासिक चेतना रहा है तो दूसरा अर्थ “निरंतरता” भी है अर्थात् रचना में “प्राचीन नमक” का नया स्वाद । “परम्परा” और “आधुनिकता” पर इन सभी कवियों ने करारी बहसें की। मूल विचार यह है कि परम्परा से ही आधुनिकता फूटती है, वह आकाश से नहीं टपकती।

आधुनिकता – नए संदर्भो में देखने की दृष्टि है, रूढ़ियों की अस्वीकृति है, मध्ययुगीन पिछड़ी जीवन-दृष्टियों का विरोध है – एक तरह की सामयिक नवीनता है। प्रयोगवादी और नयी कविता की सर्जनात्मकता ने आधुनिकता को इतना अधिक महत्व दिया कि वह इन सभी के काव्य में विधि न रहकर एक मूल्य बनकर आदर पाती रही। आधुनिकता इन सभी के लिए। “स्व-चेतना” है, “विवेक वयस्कता” है, परिवेश के प्रति सजगता है। फलतः आधुनिकता नए सृजन में बौद्धिकता, तार्किकता तथा मानव-विवेक बनकर उभरी है।

विसंगति और विडम्बना

अचानक गंभीर प्रसंगों के बीच हल्की बात कहकर गंभीरता को एक झटके से तोड़ने की प्रवृत्ति का “सप्तकों” के कवियों ने एक तकनीक के रूप में व्यापक स्तर पर उपयोग किया। छायावादी कवियों में निराला ने इसका प्रयोग गंभीर कही जाने वाली कविताओं में किया जैसे “सरोज स्मृति” में बीच में “पद फटे बिवाई” जैसे प्रयोग शोक की एकरसता को तोड़ते हैं। प्रयोगशील और नयी कविता के कवियों ने यह अहसास किया कि विडम्बना कविता में मात्र शब्दों का क्रीड़ा-कौतुक ही नहीं है उसमें ऐतिहासिक विसंगतियों का गहरा बोध है।

डॉ. रघुवंश ने विपिन कुमार अग्रवाल पर टिप्पणी की कि “विपिन सदा ही विसंगतियों का प्रयोग सहज बोध के वर्णनों के साथ या अंतर्गत करता है और इस प्रकार इनके माध्यम से वस्तुओं-स्थितियों तथा अनुभवों के नए आयाम उदघाटित होते हैं।” (साहित्य का नया परिप्रेक्ष्य, पृ. 305) इसी प्रकार, भवानी प्रसाद मिश्र की “गीत फरोश” कविता की प्रमुख विशेषता पर ध्यान दिलाते हुए अज्ञेय ने लिखा, “इसका कवित्व एक गंभीर बात को निहायत अगंभीर ढंग से कहने में है और यह अगंभीरता । कविता के स्वर में है।” अज्ञेय के इस वक्तव्य से सहमति व्यक्त करते हुए डॉ. नामवर सिंह ने इसे कला पारखी की सही दृष्टि माना है। (कविता के नए प्रतिमान, पृ.165) लक्ष्मीकांत वर्मा ने विसंगति-विडंबना के आधारभूत कारणों पर “नए प्रतिमान : पुराने निकष” में विस्तार से चर्चा करने के बाद कहा है कि आज हम विसंगतियों (ऐबसर्डिटी) के बीच जी रहे हैं – यह विसंगति आज जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त है।

चारों ओर सिनिसिज्म-अराजकता पनप रही है – इसी स्थिति का अहसास कराने के लिए नयी कविता के कविवर “शब्दों का शरारतपूर्ण सह-संयोजन” करते हैं। पश्चिम में औद्योगीकरणशहरीकरण-मशीनीकरण की स्थिति से उपजी विसंगति-विडम्बना की स्थिति को “न्यू क्रिटिसिज्म” ने उभारा है और इस पर अस्तित्ववादी विचार के खेमों में भी गहमागहमी रही है। कामू-सार्च के साहित्य में विसंगति-विडम्बना के कारण युगीन संदर्भ आए हैं। यही बात हिंदी की नयी कविता के लिए भी सच है कि विसंगति-विडम्बना की स्थितियों के कारण हमारे युग-संदों में हैं।

मुक्तिबोध ने “ब्रह्मराक्षस’ कविता में इस दौर की स्थिति पर कहा है –

“पिस गया वह दो पाटों के बीच

ऐसी ट्रेजेडी है नीच।’

अस्तित्ववादी और आधुनिकतावादी स्वर

प्रयोगवादी और नयी कविता के स्वर पर अस्तित्ववाद-आधुनिकतावाद का काव्य-मुहावरा हावी है। पश्चिमी संसार को दो विश्व युद्धों ने भीतर से इतना भयाक्रांत कर दिया कि पूरी मनोभूमिका पर “अस्तित्व का संकट मंडराने लगा। साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की शहरीकरण प्रक्रिया और टेक्नोलॉजी-विज्ञान की गति तथा होड़ ने एक भयानक समय’ ला दिया-मृत्यु, अवसाद, आत्मनिर्वासन, अकेलापन। इसी स्थिति से अस्तित्ववादी विचार दर्शन में पैठते गये हैं। किर्केगार्द- हेडेगर, कामू-नीत्सेसार्च- आस्था- अनास्थावादी दोनों तरह के अस्तित्ववादियों में परिवेश की विकृतियों से उपजी विचार-छायाएँ हैं। कार्ल यास्पर्स डर कर ही समकालीन तकनीकी सभ्यता को “सर्वग्रासी सामाजिक रोग” कह रहे थे। विश्व-स्तर पर फैली हताशा-निराशा का प्रभाव हम पर भी पड़ा।

भारत आजादी के बाद “मोह भंग की किस पीड़ा से नहीं गुजरा है। डॉ. रामविलास शर्मा ने नयी कविता के कवियों पर ही नहीं, आलोचकों तक पर अस्तित्ववाद का असर माना है। इसके पीछे हमारी स्थिति-परिस्थिति की पराजय-हताशा का तर्क है। शीत-युद्ध” की डरावनी स्थिति का आंतक है – इसीलिए नई कविता में व्यापक स्तर पर अस्तित्ववादी प्रवृत्तियाँ सक्रिय हैं। नयी कविता की काव्यानुभूतियों में “क्षणवाद’ इसी अस्तित्ववाद की कोख से जन्मा है। नयी कविता के व्यक्तित्ववाद, व्यक्ति-स्वातंत्र्यवाद पर आधुनिकतावाद की सीधी छाप है – पूँजीवादी जीवन-पद्धति का “रक्तपायी वर्ग के साथ नाभि-नाल : संबंध” की ग.मा. मुक्तिबोध यों ही चर्चा नहीं करते।

इसके पीछे उच्च मध्यवर्गीय भोगवादी मानसिकता का पूरा तंत्र है। “खाओ-पियो मौज करो’, ‘लूटो खाओ – हाथ न आओ’ का अवसरवादी-चिंतन इसी आधुनिकतावाद की देन है

“उदरम्भरि भर अनात्म बन गए

भूतों की बरात में कनात से तन गए 

किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर’ (‘अँधेरे में कविता)

का अर्थ-संदर्भ भोगवादी जीवन-पद्धति की विकृतियों से जुड़ा है। कहना न होगा कि आजादी के बाद यही पूँजीवादी-उपभोक्तावादी वर्ग फला-फूला है और उसने आम आदमी के श्रम पर ही ऐश की है। इन्हीं आधुनिकतावादियों ने “व्यक्ति को इतिहास, परम्परा, दर्शन और भविष्य से काटकर केवल वर्तमान पर, उसकी अर्थवत्ता पर बल दिया है।

मुक्तिबोध ने “पूँजीवादी समाज के प्रति कविता में इसी उच्च मध्य वर्ग की नीयत को धिक्कारा है-

इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद 

जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बन्ध

इतना गूढ इतना गाढ़, सुन्दर जाल 

केवल एक जलता सत्य देने टाल।

मार्क्सवादी कवियों – आलोचकों ने आधुनिकतावाद में अज्ञेय, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीकांत वर्मा, श्रीकांत वर्मा आदि की गणना की है तथा मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय को आधुनिकतावाद के व्यक्ति-केन्द्रित जन-विरोधी चरित्र से दूर रखा है।

प्रकृति सौंदर्य पर नई दृष्टि

नए कवियों ने प्रकृति-सौंदर्य के प्रति अपना विशेष अनुराग व्यक्त किया है। लेकिन इन सभी कवियों का प्रकृति-प्रेम छायावादी प्रकृति प्रेम से तत्वतः भिन्न है। छायावादी कवि प्रकृति में एक विराट सत्ता का संकेत पाता था और मानसिक स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति में भी प्रकृति का पूरा उपयोग करता था – प्रकृति उसके भावों का आलम्बन थी। हृदय की स्वच्छंदता समाज के सभी बंधनों को तोड़कर “तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल” के गीत गाती थी। प्रयोगवाद तथा नयी कविता के काल में कवि पर जीवन-जगत की स्थिति-परिस्थिति के तनाव-संघर्ष, औद्योगिक समाज के आरंभ की टूटन, नेहरू युग की निराशा से उत्पन्न मोह भंग उसकी चेतना को डसता था।

इसी तनाव को कम करने के लिए वह प्रकृति के पास जाता है। मानव के द्वारा प्रकृति के विनाश की चिंता, अज्ञेय ने नंदादेवी के वन-वैभव को लेकर बार-बार व्यक्त की है। भवानी प्रसाद मिश्र, सर्वेश्वर, नरेश मेहता, गिरिजा कुमार माथुर, धर्मवीर भारती, हरिनारायण व्यास, कुँवर नारायण आदि सभी कवि प्रकृति को सामाजिक “अंतर्दर्शन’ के रूप में लेते हैं। “सन्नाटा’, “सतपुड़ा के जंगल”, “पी के फूटे बैन’ आदि ने बिन्ध्य-प्रकृति की महिमा को अनेक नए प्रतीकों-बिबों में वाणी दी है। सर्वेश्वर ने ग्रामीण संवेदना के प्रकृति गीत रचे हैं तो गिरिजा कुमार ने नारी देह की लय को व्यक्त करने के लिए “शिशिर निशा-सी लम्बी पलकें झुकती देखी हैं”। नरेश मेहता में आदिम-प्रकृति की गंध का अद्भुत रंगीला संसार है “नभ की आम छाँव में बैठा बजा रहा वंशी रखवाला”। मूल बात यह कि इन कवियों ने जीवन के राग-विराग, आस्था-अनास्था को व्यक्त करने में प्रकृति-बोध का सहारा लिया है।

काव्यरूप

इन नए कवियों ने सभी प्रचलित काव्य-रूपों में या तो सुधार किया है या फिर सर्वथा नूतन काव्य-रूपों का खुलकर प्रयोग किया है। पुराने प्रबंध-काव्य के “अखण्ड कथात्मकता और अखण्ड रसात्मकता वाले रूढ़ ढाँचे को तोड़कर एक नवीन प्रबंध-चेतना को विकसित किया। धर्मवीर भारती के “अंधायुग” और । कुँवर नारायण की “आत्मजयी” को पुराने ढंग का प्रबंध-काव्य नहीं कहा जा सकता है। कथा का उपयोग विचार-विशेष के केन्द्र को आलोकित करने के लिए किया गया है और प्रभाव की दृष्टि से कृति “रस-चेतना” से कोसों दूर हैं। इसी तरह प्रयोग-सिद्धि का आलम यह है कि इस दौर में प्रबंध का स्थानापन्न “नयी लम्बी कविताओं” को बनाया गया। अज्ञेय की “असाध्य वीणा” प्रगतिपरक मूड अपनाकर भी स्थिति-विशेष में “कलाकार हूँ नहीं शिष्य साधक हूँ” की साधना है। मुक्तिबोध तो लम्बी नाटकीय कविताओं के सफल कवि के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं।

“ब्रह्म राक्षस” तथा “अँधेरे में” जैसी कविताएँ फैण्टेसी काव्य-रूप का ऐसा एकाग्र और सार्थक उपयोग करती हैं कि विचार-श्रृंखला के विस्तार में एक गहरी अंतर्योजना की प्रतीति होती है। इस दौर के सभी कवियों ने विचार-केंद्रित लम्बी कविताएँ लिखी हैं जिनमें सर्वेश्वर की “कुआनो नदी” विशेष उल्लेखनीय है। इस कविता में दृश्य फिल्म की रील की तरह घूमते हैं। दूसरी ओर नयी कविता में छोटी, कसी कविताओं का काव्य-रूप “हीरे के क्रिस्टल” की तरह दमकता है जिसमें कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ भरा गया है। शमशेर, अज्ञेय, भवानी भाई, रघुवीर सहाय आदि ने जापानी काव्य-रूप हाइकू, अंग्रेजी की “डेमेटिक पोयट्री” तथा गाँव में मौजूद कजली-लावनी-आल्हा के काव्य-रूपों को नए साँचे में ढाला है। काव्य-रूपों का नया प्रयोग इस सर्जनात्मकता की अपनी शक्ति बना है। फलतः गज़ल-नवगीत, काव्य-नाटक के नए रूप नयी कविता की सर्जनात्मकता को नया परिप्रेक्ष्य देते हैं।

काव्य भाषा

नए साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी ने खड़ी बोली की विकास परम्परा पर विचार करते हुए “हिन्दी नवलेखन” तथा “भाषा और संवेदना” जैसी पुस्तकों में नई संवेदना और काव्य-भाषा की सर्जनात्मकता के लगभग सभी पहलुओं पर विचार किया है। खड़ी बोली जन-विद्रोह की स्वाधीनता संग्राम में भाषा बनी और छायावाद के कवियों ने उसका भरपूर सर्जनात्मक उपयोग किया। प्रगतिवाद ने भाषा के आभिजात्य को तोड़कर उसे बोलचाल की निकटता प्रदान की। नए कवियों ने काव्य-भाषा पर विचार करते हुए भाषा और काव्य-भाषा के अंतर को समझा-समझाया तथा माना कि “भाषा जितनी ही सर्जनात्मक होगी कलाकृति उतनी ही विशुद्ध एवं प्रामाणिक होगी।” अज्ञेय ने नए सौंदर्य-बोध तथा नए सत्यों की अभिव्यक्ति के लिए “पुरानी भाषा को अपर्याप्त” मानकर नया भाषा-संघर्ष शुरू किया। साथ ही, सम्प्रेषण-व्यापार तथा साधारणीकरण का प्रश्न भाषा के संदर्भ में उठाते हुए कहा कि “विशेष ज्ञानों के इस युग में भाषा एक रहते हुए भी उसके मुहावरे अनेक हो गए हैं।” (दूसरा सप्तक, पृ. 10) भाषा का बदलता हुआ रूप नए कवि को यह सोचने के लिए विवश करता है कि “जरा भाषा के मूल प्रश्न पर शब्द और उसके अर्थ के संबंध पर ध्यान दीजिए शब्द में अर्थ कहाँ से आता है, कैसे बदलता है, अधिक या कम व्याप्ति पाता है?”

भाषा में लगातार प्रयुक्त होने वाले शब्दों को निरंतर बरतने से उनका अर्थ-चमत्कार मर जाता है और चमत्कारिक अर्थ अभिधेय बनता रहता है। यों कहे कि कविता की भाषा निरंतर गद्य की भाषा होती रहती है। इस प्रकार कवि के सामने हमेशा चमत्कार सृष्टि की समस्या बनी रहती है – वह शब्दों को निरंतर नया संस्कार देता चलता है। और वे संस्कार क्रमशः सार्वजनिक मानस में पैठ कर फिर. ऐसे हो जाते हैं कि उस रूप में कवि के काम के नहीं रहते हैं। “वासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।” कालिदास ने “वागर्थ प्रतिपत्तये” वाली बात से इसी बात को उठाया था और यह समस्या आज भी सर्जक के सामने उपस्थित है।

अपनी शब्द-प्रयोग-शक्ति से कवि उस अर्थ की प्रतिपत्ति करता है जो पुनः रागात्मक संबंध स्थापित कर सके। साधारणीकरण का अर्थ भी यही है। कवि भाषा-प्रयोग विधि की ताकत से नए सत्यों को सम्प्रेष्य बनाकर उनका साधारणीकरण करता है – साधारणीकरण का अर्थ है भाषा का भावमय प्रयोग। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की समूची प्रगति और प्रवृत्ति विशेषीकरण की है, इस बात को समझकर ही नया कवि भाषा को नए क्षेत्रों से ग्रहण कर अपने संदर्भ में रचता है। गद्य और पद्य के पुराने अंतर को मिटाकर भाषा को जीवन-संग्राम में उतारता है और हर कीमत चुकाकर भी उसे पराजित. नहीं होने देता।

ग.मा. मुक्तिबोध की ऊबड़-खाबड़ गद्यात्मक भाषा की लय में अर्थ की गहराई और सर्जनात्मकता, सामाजिक-राजनीतिक संदर्भो की समझ और सक्रियता से आती है। मुक्तिबोध की भाषा जटिल है, उसमें अर्थ के अनेक स्तर हैं। भवानी भाई “जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख / और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख” जब कहते हैं तो बोलचाल की भाषा में सहज सर्जनात्मक क्षमता का संकेत देते हैं क्योंकि सरल-सहज भाषा लिखना ही सबसे कठिन है – जोखिम भरा काम है।

रघुवीर सहाय के संकलन “सीढ़ियों पर धूप में” की भूमिका में अज्ञेय ने लिखा है, “काव्य के जो भी गुण बताए जाते या बताए जा सकते हैं, अंततोगत्वा भाषा के ही गुण हैं।” इसी बात को अज्ञेय ने फिर “तारसप्तक” द्वितीय संस्करण (1966) में कहा “काव्य सबसे पहले शब्द है। और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है। सारे कवि-धर्म इसी परिभाषा से निःसृत होते हैं।” “नयी समीक्षा” ने पश्चिम में काव्य-भाषा को प्रतिमान के रूप में स्वीकार किया है।

इसी तरह की कोशिश हिंदी में भी दिखाई देती है और काव्य-भाषा को मूल्यांकन का मूलाधार मानने की बात उठाई गई है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने “भाषा और संवेदना” में कहा है “आज की कविता को जाँचने के लिए जो अब सचमुच ‘प्रास के रजत पाश’ से मुक्त हो चुकी है, अलंकार की उपयोगिता अस्वीकार कर चुकी है और छंदों की पायलें उतार चुकी है, काव्य-भाषा का प्रतिमान शेष रह गया है, क्योंकि कविता के संघटन में भाषा प्रयोग की मूल और केंद्रीय स्थिति है।” किसी भी युग की सृजन-क्षमता को हम काव्य-भाषा से ही समझ सकते हैं क्योंकि वही एकमात्र विश्वसनीय माध्यम और आधार है।

सभी नए कवियों ने काव्य-भाषा की सर्जनात्मकता पर विशेष ध्यान केंद्रित किया। वादों-वायदों से भ्रष्ट भाषा की ओर रघुवीर सहाय ने संकेत देकर कहा कि नए शब्द को खोजने और रचने का अर्थ है कि पूरे अनुभव की वास्तविकता का बोध और सम्प्रेषण ।

“नया शब्द” शीर्षक उनकी कविता नयी कविता के सभी कवियों की मंशा का प्रतिनिधित्व करती है –

“शब्द अब भी चाहता हूँ

पर वह कि जो जाए वहाँ वहाँ होता हुआ

तुम तक पहुँचे

चीजों के आरपार दो अर्थ मिलाकर सिर्फ एक

स्वच्छंद अर्थ दे

मुझे दे

देता रहे

जैसे छंद केवल छंद घुमड़-घुमड़कर भाषा का भास देता हुआ मुझको उठाकर निःशब्द दे देता हुआ।” अतः नयी कविता में काव्य-भाषा की सर्जनात्मकता ‘जीवन की आग में रूपांतरित हो गई है।

बिम्ब और प्रतीकों का नयापन

नए कवियों की दृष्टि में “बिम्ब” का कितना महत्व है यह कवि केदारनाथ सिंह के “तीसरा सप्तक” के वक्तव्य से समझा जा सकता है – “कविता में मैं सबसे अधिक ध्यान देता हूँ बिंब-विधान पर। बिंब-विधान का संबंध जितना काव्य की विषय-वस्तु से होता है उतना ही उसके रूप से भी। विषय को वह मूर्त और ग्राह्य बनाता है, रूप को संक्षिप्त और दीप्त ।” जाहिर है कि नए कवि ने काव्य-बिंब को मूल्यांकन के प्रतिमान के रूप में महत्व-प्रतिष्ठा दी। “प्रयोगवादी कवियों ने हमारे आधुनिक मानव-मन की चिंताओं, दुविधाओं और संघर्षों की अनेक मनोदशाओं को बिंब से प्रत्यक्ष किया । आधुनिक संवेदना के अनेक स्तरों को प्रयोगवादी कविता के विशिष्ट बिंबों ने व्यक्त किया। यंत्र युग की मशीनी सभ्यता के बिंब “योजनांत टैंक”, “सायरन की आवाज”, “रेडियो की छाया” कविता में स्थान पाने लगे। फ्रायड के मनोविश्लेषण के प्रभाव वाले बिंब अज्ञेय के सृजन में “व्योम के विस्तृत उरोजों पर झुका-सा” जैसे कथनों से चमकने लगे। गिरिजा कुमार माथुर के बिंबात्मक प्रयोग रूप-विधान की नई दिशा के संकेत देते हैं। जैसे

“फिर मिलेगी कब दही-सी चाँदनी

दूध, घी, नैन, की-सी चाँदनी।”

नयी कविता में रंगों के बिंबों का प्रयोग माथुर ने बहुतायत से किया है। छायावादी कवियों के बिंबधर्मी विशेषणों का विकास भी इस कविता में खूब किया गया “रेशमी छाँहे”, “बोझिल उजियाला” आदि। फ्रायड के मत से अवचेतन मन स्मृतियों, अभावगत स्वप्नों, ज्ञात-अज्ञात काम कुंठाओं का भण्डार है – अतियथार्थवादियों ने इस फ्रायडीय विचार का सहारा लेकर बिंब-विधान की मुक्त अनुषंग-पद्धति को बढ़ावा दिया । प्रयोगवादी कवि पर यह प्रभाव व्यापक रूप में मिलता है।

खण्डित स्मृति बिंब सभी कवियों ने प्रयुक्त किया – अज्ञेय ने “हरी घास पर क्षण भर” कविता में

“हम याद करें

तिरती नाव नदी में

धूले भरे पथ आसाढ़ की भभक

झील में साथ तैरना।”

इस प्रकार बिंब की लड़ी को कवि दूर तक ले जाते हैं। नयी कविता के कवियों ने वस्तु के मानसिक प्रतिबिंबों को केन्द्र में ला दिया है। शमशेर, आत्मगत बिंब और आत्म का वस्तुगत बिंब, दोनों को रचने का प्रयास करते हैं –

“एक नीला आइना

बेठोस – सी यह चाँदनी

और अंदर चल रहा मैं

उसी के महातल के मौन में ।”

अपने अत्यंत निजी अनुभव के प्रति निर्वैयक्तिक दृष्टि नयी कविता के बिंब-विधान की एक ऐसी विशेषता है जो उसे प्रयोगवाद की आत्म-प्रधान पद्धति से अलग करती है। नयी कविता का विकास बौद्धिक विश्लेषण से अनुभवमूलक संश्लेषण की दिशा में हुआ। इसका गहरा प्रभाव निर्वैयक्तिक बिंब-विधान पर पड़ा। समकालीन यथार्थ को व्यक्त करने के लिए कवियों को विकृति-आकृति वाले बिंब रचने पड़े।

मुक्तिबोध ने कहा”मेरी कविताएँ भयानक हिडिम्बा हैं / वास्तव की विस्फारित प्रतिमाएँ / विकृताकृति- बिंबा हैं”  यथार्थ के भीतर यांत्रिक और वैज्ञानिक बिंबों की नयी कविता में भरमार है। मध्ययुगीन गाथाओं, मिथकों, तंत्र-मंत्र के संकेतों, दंतकथाओं को कवियों ने प्रतीकात्मक बिंबों में व्यक्त किया है जैसे “ब्रह्मराक्षस”  सर्वेश्वर ने “लोकतंत्र को लाठी में जूते-सा लटकाये” में प्रतीकात्मक बिंब दिए हैं। इस तरह के बिंबों से नयी कविता इस कदर भर गई है कि ध्यान कविता पर न जाकर बिंबों पर ही केंद्रित होने लगा। जाहिर है कि इस प्रवृत्ति ने नयी कविता का नुकसान भी बहुत अधिक किया है।

बिंब और प्रतीक प्रयोगवाद और नयी कविता की शैली का अंग है। बिंब वस्तु को “मूर्त” करता है, प्रतीक से “संकेत मिलता है। बिंब ज्ञानेन्द्रियों के सहारे चित्रांकन करता है, प्रतीक “संकेत” के सहारे उसकी । किसी विशेषता की अर्थ ध्वनि देता है। शैली के रूप में प्रतीक की गति अधिक है। हमारा ध्यान इस तथ्य पर भी जाता है कि नए कवि प्रतीकवादी पश्चिमी आंदोलन से भी प्रभावित थे। नए कवि नए प्रतीक गढ़ते हैं तथा पुराने प्रतीकों में नया अर्थ-संदर्भ पैदा कर देते हैं। अज्ञेय ने “काल का डमरू नाद” निबंध में कहा है – मानव ही प्रतीक सृष्टा प्राणी है, जीवन और सृजन में वह प्रतीकों से अनेक तरह के कार्य लेता है।

ध्यान में रखने की बात यह है कि नए कवियों के प्रतीक रहस्यवादी कवियों के अज्ञात-रहस्यमय प्रतीकों पर एकदम आधारित नहीं हैं। अज्ञेय ने नए प्रतीकों को “यौन परिकल्पनाओं”, “जटिल यथार्थ की स्थितियों”, “अनकहे को संकेतित करने की” आधुनिक शक्ति का नाम दिया है। “प्रतीक जटिल मनःस्थिति को बोधगम्य बनाते हैं।” “देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच” का नारा अज्ञेय ने दिया और कहा पुराने रूढ़ प्रतीकों से नए सौंदर्य बोध को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।

नए कवि पुराने प्रतीकों-मिथकों में नया अर्थ भरते हैं। “मिथ” यहाँ नए प्रतीकात्मक उद्देश्यों के साथ प्रयुक्त किए गए हैं। इतना ही नहीं, अज्ञेय ने “मछली”, “सागर”, “नदी”, “भोर बेला”, “हरी घास” जैसे न जाने कितने प्रतीक नए अर्थ-संदर्भ में गढ़े हैं। नयी कविता ने वैयक्तिक और सामाजिक प्रतीकों की सृष्टि में ग.मा. मुक्तिबोध को बहुत आदर दिया है – “लहराओ लहराओ नागात्मक कविताओं के साथ”, “अरुण कमल”, “बरगद”, “भैरव”, “अँधेरे में स्याह जल” न जाने कितने प्रतीक उनके हैं। बहुत से नए कवियों ने “कैक्टस”, “नागफनी”, “गुबरैले”, “तेंदुआ” के प्रतीक लिए हैं।

सर्वेश्वर ने “काला तेंदुआ” पर कई रचनाएँ की हैं-यह तेंदुआ हमारे इतिहास का नायक भी है और वर्तमान का भी।। वेदों-उपनिषदों-रामायण-महाभारत-पौराणिक प्रसंगों के प्रतीकों का नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, कुँवर नारायण, दुष्यंत कुमार, भवानी प्रसाद मिश्र ने “संशय की एक रात”, “अंधायुग”, “आत्मजयी”, “एक कंठ विषपापी”, “कालजयी” जैसी कृतियों में कई तरह से उपयोग किया है। प्रकृति और इतिहासपुराण, देवता और कर्मकाण्ड अर्थात पूरी परम्परा के प्रतीकों का उपयोग इस काव्य में किया गया है। इतना ही नहीं धर्मवीर भारती ने “प्रमथ्युगाथा” में यूनानी कथा का नया प्रतीकात्मक आधार व्यंजित किया है – प्रमथ्यु स्वर्ग से आग चुराकर धरती पर लाने वाला व्यक्ति है जिसे कविता में मानव व्यक्तित्व की अपार-शक्ति का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया गया है।

छंद और लय

नए कवियों का प्रयोजन छंदशास्त्र का निर्माण नहीं, बल्कि रचनागत कविताओं में छंद प्रयोगों का पक्ष सामने लाना है। इन सभी की दृष्टि मुक्तिकामी कविताओं में छंद के रूपगत प्रयोग की रही है छंद की रूढ़ प्रणालियों में इनका विश्वास नहीं है। निराला के मुक्त छंद का ये सभी समर्थन करते हैं और उसी राह को आगे बढ़ाते हैं। अज्ञेय के अनुसार विज्ञान और टेक्नालॉजी के विकास ने कविता को “वाचिक परम्परा” से मुक्ति दे दी। नतीजा यह हुआ कि कविता “सुनने” से ज्यादा “पढ़ने” की चीज हो गई। विचार के आग्रह ने “भाव” को दबाकर गद्यात्मकता पैदा की। अब कविता ने इन्द्रिय बदल डाली। पहले वह “कान” से भीतर जाती थी अब “आँख” से। ज्यादातर नए कवियों ने परम्परागत छंदों में नए प्रयोग से नया संस्कार किया। परम्परागत छंदों का ज्ञान ज्यादातर नए कवियों को है। कोई कवित्त- सवैयादोहा, रोला तोड़कर नए छंद बनाता है और कोई उर्दू-अंग्रेजी के प्रचलित छंद तोड़कर ।

ग.मा. मुक्तिबोध जैसा विद्रोही कवि भी परम्परित छंद की लय की सुरक्षा का ध्यान रखता है। लय को नयी कविता नहीं छोड़ती चाहे वह कितनी ही गद्यात्मक क्यों न हो। लय से “प्रोज पोयम” में भी मुक्त होने का अर्थ है कवि का कविता से हाथ धो बैठना। मुक्तिबोध ने कहा है “इसका अर्थ यह नहीं है कि इस काव्य-प्रवृत्ति में छंदों का निषेध है। इस धारा के अंतर्गत अनेक कविताएँ छंदोबद्ध हैं।” (मुक्तिबोध रचनावली, भाग-5, पृ.345) हाँ, नए कवियों ने “तुकान्त” तत्व का छंद में विरोध किया। यह सब होने पर भी भवानी भाई, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर आदि ने “तुकांत” के भी अच्छे प्रयोग किए हैं। साथ ही, “नयी कविता” की प्रत्येक कविता का अपना निजी और विशिष्ट छंद है जो उसमें व्यक्त अनुभूतियों की अनिवार्यता से उसी के साथ जन्मा है जैसे जीवधारी की देह जनमती है।

मुक्त छंद भी नए कवि का शौक नहीं है-अनिवार्यता है। “मैं खड़ा खोले कटिबंध पिंगल के / मुक्त मेरे छंद भाषा मुक्तक है / मुक्ततम मम भाव पिंगल के।” (जयतु हे कंटक चिरंतन, अज्ञेय) इस कथन से स्पष्ट है कि नए कवि के पास छंद का कोई बना-बनाया साँचा नहीं है – भाव या विचार अपने अनुकूल स्वंय छंद निर्मित करता है।

नया कवि छंद की मुक्ति चाहता है ताकि मुक्त छंद में कविता युग की संवेदना की समर्थ वाहक बन सके। छंद मुक्ति का अर्थ “अराजक गद्य” को कविता कह देना नहीं है- लय को विचारानुकूल मोड़ना-सँवारना है। मुक्त-छंद, लोकगीत का छंद, परम्परित छंद का महत्व तभी है जब वह भाव की नव शक्ति और मानव हृदय की सामाजिक मुक्ति का द्योतक बनकर आता है। नया कवि छंद-लय के इस सत्य को कभी नहीं भूलता और जो भूलता है उसकी वह निंदा करता है। (मुक्तिबोध रचनावली) जो कवि आंतरिक लय को छोड़कर मुक्त छंद । रचते हैं, उनसे डा. रामविलास शर्मा ने साफ कहा है कि “यदि कोई तुकों की कठिनाई से मुक्त छंद को अपनाए तो उसे बाज आना चाहिए। आजकल मुक्त छंद में जो रचनाएँ होती हैं उनमें प्रवाह की धीरता-गंभीरता के स्थान पर पंगुता-गतिहीनता अधिक रहती है।” समर्थ कवियों ने मुक्त छंद में न जाने कितने गुण, न जाने कितनी विचार-दीप्ति वृत्तियाँ व्यक्त की हैं। शमशेर, गिरिजा कुमार माथुर, भवानी भाई, रघुवीर सहाय के मुक्त छंद इस दृष्टि से बेजोड़ हैं। जगदीश गुप्त ने “अर्थलय” का और गिरिजा कुमार ने “नाद सौंदर्य” का जो सिद्धान्त नयी कविता में प्रतिपादित किया है वह मुक्त छंद की लय-ध्वनि का सौन्दर्य बोध ही है। शब्द-लय और अर्थ-लय की पाठ-विधि, आरोह-अवरोह की गति पर निर्भर है।

“संगीत” और “नाद” को ज्यादातर नए कवि कविता में रचाते-बसाते हैं-चाहे वह तीन चरण के “हाइकू” (जापानी), छंद में ही क्यों न हो। हाइकू अज्ञेय ने बहुत लिखे हैं, पर वे जानते हैं कि लय की उपेक्षा करके कविता के प्रभाव और तीव्रता को बनाए रखना कठिन है। अतः लय, शिल्प का महत्वपूर्ण पक्ष है। निष्कर्ष यह कि नए कवियों ने छंद-लय के अनेक नए प्रयोग किए हैं और मुक्त छंद तो नयी कविता का पर्याय ही हो गया है।

मूल्यांकन

प्रयोगवाद और नयी कविता के वस्तु और रूप का नया काव्य-मुहावरा सन् 1960 तक पहुँचते-पहुँचते अपना आकर्षण खोने लगा। अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद, क्षणवाद से भी पाठक ऊबने लगे। सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध ने नेहरूयुग का जाल-जंजाल समाप्त कर दिया। अकविता, भूखी पीढ़ी की कविता, पोस्टर कविता, युयुत्सावादी कविताओं के नारे उठे। युवा कवियों ने नई तरह की कविता, नए युग-यथार्थ को लेकर लिखीजिसे बाद में किसी अन्य सही नाम के अभाव में “समसामयिक कविता” कह दिया गया। नयी कविता ने व्यंग्य-वक्रोक्ति की प्रवृत्ति को निर्भयता से अपनाया और उसे व्यवस्था या सत्ता-विरोध की ताकत दी। नयी कविता की उपलब्धियाँ अर्थ-भूमि के विस्तार में देखी जा सकती हैं और सीमाएँ रूपवादी-कलावादी रुझानों में झाँकती मिलती हैं। कुछ भी कहिए. प्रयोगवाद और नयी कविता ने पुरानी सौन्दर्याभिरुचियों को बदलने-परिष्कृत करने के साथ हिंदी पाठक की चेतना को जीवन-जगत् के नए सत्यों से जोड़े रखा है।

सारांश

इस इकाई में आपने प्रयोगवाद और नयी कविता के विषय में अध्ययन किया। आपने देखा प्रयोगवादी कविता के कवियों ने अपने पूर्ववर्ती कवियों से एक अलग प्रकार की मनोभूमि को निर्मित किया। “तारसप्तक” प्रयोगवादी काव्य की मनोभूमि को प्रतिनिधित्व करने वाला काव्य संग्रह है। ‘अज्ञेय’ कविता को केवल प्रयोग के रूप में प्रस्तावित करना चाहते थे, लेकिन आलोचकों ने उसे प्रयोगवाद बना दिया। किसी भी साहित्यिक धारा की तरह प्रयोगवाद में अंतर्विरोध की स्थिति उत्पन्न हुई थी। नकेनवादी उसी अंतर्विरोध का जीवित प्रमाण था। सभी प्रयोगवादी कवि इस बिंदु पर सहमत थे कि ‘वे राही नहीं राहों के अन्वेषी हैं।”

प्रयोगवाद के चमत्कारी रूपवाद से कविता को मुक्त करने का प्रयास होने लगा। नयी कविता उसी चमत्कारी रूपवाद से मुक्ति का स्वप्न है। ‘नयी कविता’ का क्षेत्र प्रयोगवाद की अपेक्षा अधिक व्यापक और गहरा था। नयी कविता में कई तरह की विचारधाराओं का समन्वय हुआ। परस्पर विपरीत विचारधारा के कवि भी नयी कविता के अंतर्गत अपनी काव्य रचना करते रहे। नयी कविता के प्रतिनिधि कवि अज्ञेय और मुक्तिबोध थे। नयी कविता की स्थापनाओं को प्रतिपादित करने के लिए समय-समय पर साहित्यिक संस्था और साहित्यिक पत्रिका को प्रस्तावित किया गया था।

प्रयोगवाद और नयी कविता की काव्य प्रवृति भी अलग-अलग हैं। काव्य प्रवृति में कुछ कवियों ने गैर-रोमान्टिक प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया तो कुछ कवियों ने रोमानी प्रवृत्ति को नए अंदाज में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया । व्यक्तिवादी और समाजवादी दोनों प्रकार के चिंतन से कविता की काव्यानुभूति को निर्मित किया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की विडम्बना, घुटन और विसंगति को नयी कविता में देखा जा सकता है। अस्तित्ववाद की धीमी लहर को भी नयी कविता में रेखांकित किया जा सकता है। तमाम सीमाओं के बावजूद नयी कविता ने अनुभूति की ईमानदारी को प्रामाणिक रूप से रचने का संकल्प नहीं छोड़ा। शिल्प के धरातल पर जितने प्रकार के प्रयोग नयी कविता में हुए हैं शायद ही किसी साहित्यिक आंदोलन में हुए होंगे।

अभ्यास प्रश्न

  1. “प्रयोगवाद और नयी कविता पूर्ववर्ती कविता से भिन्न है।” इस कथन के आलोक में काव्य प्रवृत्ति का विश्लेषण करें।
  2. प्रयोगवाद पर एक टिप्पणी लिखिए।
  3. प्रयोगवाद एवं नयी कविता के वैचारिक परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट करते हुए उसकी शिल्पगत विशेषताएँ बताइए।

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