सुमित्रानंदन पंत का काव्य-शिल्प : भाषा और शैली

यह इकाई पंत के काव्य शिल्प एवं भाषा-शैली पर आधारित है। प्रस्तुत इकाई के अध्ययन के बाद आपः

  • भारतेंदु एवं द्विवेदी युगीन काव्य-भाषा से पंत की काव्य-भाषा के अंतर को समझ सकेंगे,
  • पंत की काव्य-भाषा की शब्दावली, शब्द-चयन और शब्द-योजना की विशेषताओं से परिचित हो सकेंगे,
  • पंत की शब्द-निर्माण-क्षमता,
  • शब्द-संयोजन से उत्पन्न गति, लय आदि से युक्त संगीतात्मकता से परिचित हो सकेंगे,
  • बंधे-बंधाए व्याकरण की अवहेलना द्वारा काव्य-भाषा में आए गुणों के महत्व की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे,
  • काव्य-शैली की दृष्टि से पंत की अप्रस्तुत योजना द्वारा सम्पन्न सम्मूर्तन विधान के कौशल को समझ सकेंगे,
  • पंत के अद्भुत बिम्ब-विधान एवं प्रतीक-विधान की कलात्मक विशेषताओं से परिचित हो सकेंगे, और
  • पंत द्वारा प्रयुक्त काव्य-रूप और उनके छंद विधान की विशेषताओं को समझ सकेंगे।

सुमित्रानंदन पंत मुख्यतः एक शब्द शिल्पी के रूप में छायावादी कवियों में विख्यात हैं। इनके काव्य में विषय-वस्तु की अपेक्षा कला को अधिक महत्व मिला है। इनका सर्वाधिक विद्रोह भी कला के क्षेत्र में ही प्रकट हुआ है। इसका मुख्य कारण तत्कालीन साहित्यिक परिवेश माना जा सकता है – जिसमें कविता की भाषा के लिए खड़ी बोली हिंदी और ब्रजभाषा का विवाद एक नया रूप धारण कर चुका था। इसे अच्छी तरह समझने के लिए आपको छायावाद के पूर्व भारतेंदु एवं द्विवेदी युगीन कविता में खड़ी बोली हिंदी की वास्तविक स्थिति को ध्यान में रखना होगा। इसकी विस्तृत चर्चा तो हम यथा-स्थान आगे करेंगे, लेकिन यहाँ पंत के एतद्विषयक प्रयास के महत्व को रेखांकित करना आवश्यक है।

बीसवीं शती के दूसरे दशक के अंत तक ब्रज़भाषा समर्थकों के मंच से हिंदी खड़ी बोली को कविता के लिए असमर्थ होने की घोषणा की जा रही थी। महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्रीधर पाठक से लेकर अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त जैसे खड़ी बोली के समर्थ कवियों के बावजूद यह स्थिति बनी हुई थी। अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-भाषा को नीरस, माधुर्यगुण से रहित और गद्यात्मक बताया जा रहा था। मतवाला में छपी निराला की ‘बादल राग’ कविता में ‘केंचुआ छंद’ कहकर उसके छायावादी भाव वैभव पर इस प्रकार आरोप लगाया जा रहा था :

कल्पना हरामजादी फटके न पास मेरे,

पिंगल (छंद) को पटकि पाताल को पठाऊँ मैं,

बंगला केला के जूठे टुकड़े कमाऊँ नाम,

कवि कालिकाल का ‘निराला’ कहलाऊँ मैं।’

पंत इन परिस्थितियों से पर्याप्त खिन्न थे। ‘वीणा’, ‘उच्छवास’ और ‘ग्रंथि’ जैसी कोमल कांत पदावली और माधुर्य गुण से परिपूर्ण रचनाएँ उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर ‘पल्लव’ (1925) की भूमिका में · विस्तार के साथ इन्होंने खड़ी बोली हिंदी की काव्य-सामर्थ्य का प्रतिपादन किया। ‘बादल’, ‘निर्झर’, ‘एकतारा’, ‘नौका-विहार’, ‘सांध्य वंदना’ जैसी श्रेष्ठ कविताएँ प्रस्तुत कर इन्होंने यह भी सिद्ध कर दिया कि कल्पना की नयी उड़ान, नये अप्रस्तुत विधान, बिम्ब एवं प्रतीक विधान आदि शिल्प के उपकरणों की दृष्टि से भी खड़ी बोली हिंदी ही आज की भावधारा को वहन कर सकती है। ब्रजभाषा पर रीतिकालीन श्रृंगारिकता, बँधे बधाएँ छंदों और अलंकार प्रियता का जो बोझ है, वह आधुनिक चेतना को व्यक्त करने में पूरी तरह असमर्थ है।

उपर्युक्त संक्रमण कालीन स्थिति को ध्यान में रखकर अत्यंत सचेत रूप से पंत ने अपनी काव्य-भाषा और काव्य-शिल्प का निर्धारण किया। इनके आरंभिक चरण, छायावादी चरण के काव्य को देखते हुए काव्य-भाषा के रूप में हिंदी खड़ी बोली पर असमर्थता या अकलात्मकता का आरोप नहीं लगाया जा सकता। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आप पंत के भाषा एवं शिल्प कौशल को अच्छी तरह समझ सकेंगे।

काव्य भाषा की दृष्टि से छायावादी कवियों, विशेषतः पंत को ब्रजभाषा से ही दो-चार नहीं होना पड़ा। व्याकरण के नियमों ‘गद्य के पद विन्यास से जकड़ी हुई द्विवेदी युगीन काव्य-भाषा भी छायावादी भावभिव्यक्ति की स्वच्छंदता में बाधक बनी हुई थी। व्याकरण की इस जकड़न और लोक प्रचलित शब्दावली की सपाट विवरणात्मकता से भी उसे मुक्त करना आवश्यक था। द्विवेदी युगीन बंधी-बंधाई विषय वस्तु से भिन्न नवीन भावधारा की अभिव्यक्ति के लिए नये शब्दों, नवीन अप्रस्तुत विधान, बिम्ब एवं प्रतीक विधान की अनिवार्यता को रेखांकित करते हुए पंत ने एक नयी काव्य-भाषा और काव्य-शैली की प्रतिष्ठा पर बल दिया। इन तथ्यों को हम पंत के काव्य-शिल्प का विवेचन-विश्लेषण कर आसानी से समझ सकते हैं।

पंत की काव्य-भाषा

हिंदी की परम्परागत काव्य-भाषा और पंत

पंत के आरंभिक रचना-काल में परम्परागत काव्य-भाषा के रूप में ब्रज भाषा का ही अधिक जोर था। राजा लक्ष्मण सिंह और राज शिव प्रसाद सितारे हिंद के माध्यम से क्रमशः संस्कृत निष्ठ हिंदी और अरबी-फारसी युक्त उर्दू को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ था, उसे भारतेंदु ने समाप्त कर हिंदी के बोलचाल (आमफहम) के प्रचलित रूप को हिंदी खड़ी बोली गद्य के विकास का आधार बनाया। उनके मण्डल के सभी लेखकों के सम्मिलित प्रयास द्वारा हिंदी गद्य के इस रूप को पुष्ट और विकसित किया। लेकिन उस समय तक ब्रजभाषा ही काव्य-भाषा के रूप में स्वीकृत रही। स्वयं भारतेंदु ने भी यह स्वीकार किया कि हिंदी गद्य हमारे विचारों की वाहिका अवश्य है लेकिन हृदय के भावों की वाहिका ब्रजभाषा ही हो सकती है। अपने जीवन के अंतिम समय में उन्होंने यह गहराई से महसूस किया था कि गद्य और पद्य की अलग-अलग दो भाषाएँ युक्ति संगत नहीं हैं।

द्विवेदी युग में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपनी ‘सरस्वती ‘ पत्रिका और अपने सहयोगियों के माध्यम से भारतेंदु द्वारा समर्थित गद्य को सुसंस्कृत-परिष्कृत और व्याकरण सम्मत बनाया। इसके साथ ही उसे गद्य और पद्य दोनों के लिए संगत सिद्ध किया। उनकी प्रभाव छाया में श्रीधर पाठक, हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त आदि ने खड़ी बोली की महत्वपूर्ण काव्य-रचनाएँ प्रस्तुत की। लेकिन द्विवेदी जी की यह मान्यता कि ‘गद्य और पद्य का पद विन्यास एक ही प्रकार का होना चाहिए – का कड़ाई से पालन करने के कारण उस युग के प्रमुख कवियों की भाषा गद्यवत विवरणात्मक और इतिवृत्तात्मक हो गयी। इसलिए छायावादी कवियों को जहाँ एक ओर रीतिकालीन अलंकार और छंद प्रियता तथा भाषा की कोशबद्धता के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा, वहीं दूसरी ओर द्विवेदी युगीन गद्यात्मक पद-विन्यास, व्याकरण सम्मत रूप और वर्णनात्मकता के विरूद्ध भी संघर्ष करना पड़ा। गद्य से पद्य भाषा के पद-विन्यास और शब्दावली को अलग करने में पंत का प्रयास सराहनीय है। गद्य से भिन्न एक विशिष्ट काव्य-भाषा के निर्माण में पंत की भूमिका उल्लेखनीय है। इस तथ्य को आप पंत की भाषा संबंधी विशेषताओं के माध्यम से आसानी से लक्ष्य कर सकेंगे।

 शब्दावली

अपनी काव्य-भाषा के निर्माण में पंत ने संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली का सर्वाधिक सहारा लिया है। द्विवेदी युगीन मान्यता, जो आज भी हिंदी के लिए स्वीकार्य है कि हिंदी में संस्कृत से लाए गए तत्सम शब्दों के साथ संस्कृत के नियामनुकूल संधियों का ही प्रयोग होना चाहिए; पंत जी ने इसे स्वीकार नहीं किया। जैसे मरूत+आकाश के लिए मरूदाकाश शब्द न बनाकर इन्होंने मरूताकाश शब्द को स्वीकार किया है। इनकी यह प्रकृति ‘वाणी’ से लेकर अंत तक यथावत बनी रही है। संस्कृत के अक्षय भंडार से कर्णमधुर, कोमलकांत शब्दों को ग्रहण कर इन्होंने हिंदी खड़ी बोली को भाव-प्रवण काव्यात्मक भाषा का रूप दिया है। ‘ग्राम्या’ जैसी ग्रामीण बोध को चित्रित करने वाली रचना में भी कवि ने अपनी संस्कृत निष्ठा का ही अधिक परिचय दिया है। ‘ग्राम देवता’ कविता में गाँव के पुरुष का चित्र कवि ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है :

तुम कोटि बाहु, वर हलधर, वृष वाहन बलिष्ट,

मित असन, निर्वसन, क्षीणोदर, चिर सौम्य शिष्ट,

शिर स्वर्ण शस्य मंजरी मुकुट, गणपति वरिष्ठ,

वाग्युद्ध वीर, क्षण क्रुद्ध धीर, नित् कर्मनिष्ट।

यह सही है कि इस तरह की भाषा से ग्राम जीवन के यथार्थ बोध की क्षति हुई है, बावजूद इसके यहाँ भाषागत अकलात्मकता का आरोप नहीं लगाया जा सकता।

वैसे तद्भव और देशज शब्दों के प्रयोग में भी पंत ने अपनी उदारता का परिचय दिया है। ‘चमारों के नृत्य’ का एक उदाहरण है :

‘मजलिस का मसखरा करिंगा

बना हुआ है रंग बिरंगा ।

भरे चिरकुटों से वह सारी

देह,  हंसाता खूब लफंगा….

लिए हाथ में ढाल, टेडुही

दुमुँहा सी बलखायी सुंदर।’

इस काव्यांश में करिंगा, चिरकुट, टेडुही, लफंगा आदि देशज शब्दों के साथ ही अधिकांशतः तद्भव शब्दावली का ही सहारा लिया गया है। इसी तरह ‘नहान’ शीर्षक कविता में तद्भव और देशज शब्दों का ठाठ सहज रूप से उजागर हुआ है। पंत की तत्सम बहुल काव्य-भाषा का वास्तविक सौंदर्य उनकी ‘पल्लव’ की कविताओं में प्रस्तुत हुआ है, जिसे आप ‘एक तारा’ और ‘नौका विहार’ शीर्षक कविताओं में देख सकते हैं। ‘स्वर्ण किरण’, स्वर्ण धूलि’, ‘अतिमा’ आदि ‘स्वर्ण काव्य’ में संकलित रचनाओं में पंत ने लगभगग 90 प्रतिशत संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों का प्रयोग कर हिंदी के शब्द भंडार को अवश्य बढ़ाया है, लेकिन बहुत से स्थलों पर उनकी भाषा अत्यंत बोझिल हो गयी है। ‘कला और बूढ़ा चाँद’ तथा ‘लोकायतन’ में कवि ने तत्सम और तद्भव शब्दों के सामंजस्य का प्रयास किया है। इस प्रकार एक विशेष परिस्थिति में पंत ने तत्सम शब्दावली के माध्यम से हिंदी खड़ी बोली की काव्य-भाषा को सम्मुन्नत करने का प्रयास किया है। आगे चलकर यह उनके लिए रूढ़ि बन गयी है।

शब्द-चयन

पंत की काव्य-भाषा का वास्तविक महत्व शब्द भंडार या शब्दावली की दृष्टि से अधिक न होकर इनके शब्द-चयन पर आधारित है। इस दृष्टि से वे अत्यंत सजग और सावधान दिखायी देते हैं। वैसे तो सभी छायावादी कवियों ने पर्यायवाची शब्दों की अर्थ छाया को ग्रहण करने में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। लेकिन पर्यायों के पारस्परिक अर्थगत सूक्ष्म अंतर पर सर्वप्रथम पंत ने ही चिंतन किया है। इन्होंने पल्लव की भूमिका में लिखा है, ‘भिन्न-भिन्न पर्यायवाची शब्द प्रायः संगीत भेद के कारण एक ही पदार्थ के भिन्न-भिन्न स्वरूपों को प्रकट करते हैं। ‘भू’ से क्रोध की वक्रता, ‘भृकुटि’ से कटाक्ष की चंचलता, ‘भौहों’ से स्वाभाविक प्रसन्नता और आह्लाद का हृदय में अनुभव होता है।  इससे स्पष्ट है कि पंत ने चाहे तद्भव-क्षेत्र से शब्दों का चयन किया हो या फिर तत्सम – उनके अनुकूल अर्थ पर ही इनकी दृष्टि रही हैं। इसके लिए एक उदाहरण ‘एक तारा’ या ‘संध्या तारा’ कविता से लिया जा सकता है :

मृदु मृदु स्वप्नों से भर अंचल, नव नील नील, कोमल कोमल,

छाया तरू वन में तम श्यामल ।

यहाँ अंत में कवि ने ‘श्यामल’ शब्द का प्रयोग तक के लिए ‘नील’, ‘कोमल’ शब्दों के बाहरी दबाव के कारण न कर एक विशिष्ट और सूक्ष्म अर्थ की व्यंजना के लिए किया है। ‘मृदु-मृदु’ और ‘कोमलकोमल’ के अर्थ बोध के आग्रह की पूर्ति के लिए ‘श्यामल’ शब्द सर्वाधिक अनुकूल है। इससे स्पर्श बोध को एक स्पष्ट आकार मिलता है। अतः यहाँ ‘श्यामल’ शब्द कवि की रंग-चेतना के साथ उसके स्पर्श बोध को भी रेखांकित करता है। संध्या के साथ ही उषा, झीना, चाँदनी, सागर आदि के चित्रण में भी पंत ने अपने शब्द चयन के अपूर्व कौशल का परिचय दिया है। अकेली ‘एकतारा’ कविता का शब्द चयन की दृष्टि से विश्लेषण कर आप स्वयं पंत के एतद् विषयक कौशल को समझ सकते हैं।

शब्द योजना

अर्थगत विशेषता को उत्पन्न करने के लिए शब्दों का संयोजन अर्थात् एक शब्द के साथ दूसरे शब्द की योजना भी पंत विशेष कौशल के साथ करते हैं। इसके लिए ‘शिल्पी’ से एक उदाहरण लिया जा सकता है:

‘शशि असि ही प्रेयसी स्मृति,

जगी ह्दय ह्लादिनी।’

यहाँ ‘शशि’ के साथ ‘असि’ (तलवार) और ‘ह्दय’ के साथ ‘ह्लादिनी’ की योजना प्रेयसी की स्मृति के प्रभाव को अत्यंत सूक्ष्मता से व्यंजित करती है। इसी तरह परिवर्तन शीर्षक कविता में पंत की शब्द योजना के कौशल को अच्छी तरह समझा जा सकता है:

– ‘शत् शत् फेनोच्छवसित, स्फीत, फूत्कार भयंकर’

यहाँ पंत ने विशिष्ट शब्द संयोजन के द्वारा परिवर्तन के भयंकर रूप को मूर्तिमान किया है। इसके साथ ही इन्होंने परिवर्तन के परस्पर विरोधी स्वरूप को व्यक्त करने के लिए विरोध-सूचक शब्दों का भी एक साथ संयोजन कर अपनी भाव प्रवणता का परिचय दिया है:

‘अहे अनिर्वचनीय! रूपधर भव्य-भयंकर,

इन्द्रजाल-सा तुम अनंत में रचते सुंदर

गरज गरज, हँस हँस, चढ़ गिर छा-ढा,

भूअंबर करते जगती को अजस्र जीवन से उर्वर।’

यहाँ कवि ने परस्पर विरोधी अर्थसूचक शब्दों की योजना द्वारा परिवर्तन के व्यापक स्वरूप को प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। वस्तुतः इस तरह की शब्द योजना ही काव्य भाषा का वास्तविक पदविन्यास है, जो उसे गद्य की भाषा से अलग करती है।

नवीन शब्द निर्माण

पंत ने अपनी काव्य भाषा को सम्पन्न बनाने के लिए कई पद्धतियों का सहारा लिया है। कहीं-कहीं इन्होंने प्रचलित शब्दों के स्वरूप और वर्तनी में परिर्वन कर नये शब्दों का निर्माण किया है, जैसेनिर्माऊँ प्रकटाऊँ, कटिनी, विहगिनी, प्रभापूर्य, निर्जीवित, आदि। कहीं-कहीं तद्भव और तत्सम शब्दों में अपनी रूचि के अनुकूल प्रत्यय लगाकर भी पंत ने नये शब्दों का निर्माण किया है, जैसे-रंगिणि, विहंगिनि, दीपित, ज्योतित, रोमिल, धवलिम, पीतिमा, तनिमा, प्रसादिनी, स्वराकार, उदासिनी, हासिनी, विकासिनी आदि। अपनी ‘ग्राम्या’ के साथ ही ‘स्वर्ण काव्य’ में भी पंत ने इस प्रकार के नवीन शब्दों के निर्माण-कौशल का विशेष परिचय दिया है।

अपनी काव्य-भाषा को और अधिक सम्पन्न बनाने के लिए पंत ने तत्सम शब्दों को स्वर संधि के आधार पर नया रूप प्रदान किया है। जैसे-पीताभा, पीतोज्वल, पीतिमा, स्वर्णाभ, हरिताभ, अरूणोज्वल, स्वर्णोज्वल, विरहोज्वल आदि इसी प्रकार ‘निर्भर’ (आधारित) शब्द का प्रयोग अपने काव्य में पंत ने अधिकांशतः समस्त के अर्थ में किया है।

शब्दों के रूप परिवर्तन द्वारा नवीन शब्द-निर्माण के साथ ही पंत ने अंग्रेज़ी भाषा के बहुत से शब्दों का विशिष्ट अनुवाद कर अपनी काव्य-भाषा को सम्पन्न किया है। जैसे-डिवाइन लाइफ का भागवत जीवन अनुवाद करने के साथ ही इन्होंने ‘भागवत काव्य, भागवत भाव, भागवत दृष्टि, भागवत ध्येय’ आदि अनेक शब्दों की रचना की है, इसी प्रकार स्वप्निल स्मित (ड्रीमी स्माईल) अजान (इन्नोसेण्ट), स्वर्णिम युग (गोल्डेन एज), स्वर्गीय ज्योति (हैवनली लाइट) आदि शब्दों के विशिष्ट अनुवाद पंत की भाषा को समृद्ध करते हैं।

शब्द-संगीत : लय एवं गति की योजना

इस संबंध में पंत जी की अपनी मान्यता है कि ‘कविता के लिए चित्र-भाषा की आवश्यकता पड़ती है। उसके शब्द सस्वर होने चाहिए, जो बोलते हों, जो अपने भव को अपनी ही ध्वनि में आँखों के सामने चित्रित कर सकें, जो झंकार में चित्र, चित्र में झंकार हों।’ (पल्लव की भूमिका, पृ0 30) इस मान्यता से प्रेरित होकर पंत ने ‘ठड़. ठड्. ठन’ छनाछन, झम-झम, ठनाठन, टर-टर्, मर्मर्, झर् झर् आदि शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया है, इसे हम इनकी काव्य शैली के अंतर्गत कुछ विस्तार से विवेचितविश्लेषित करेंगे।

व्याकरण और पंत की काव्य भाषा

गद्य भाषा के व्याकरण का शतप्रतिशत पालन पद्य-भाषा में संभव नहीं है, क्योंकि दोनों के पद विन्यास और वाक्य विन्यास में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। आप ‘शब्द निर्माण’ के संदर्भ में देख चुके हैं कि पंत ने प्रत्यय प्रयोग एवं संधि सम्बन्धी व्याकरण के कुछ नियमों की उपेक्षा करते हुए स्वरूप और अर्थ की दृष्टि से कतिपय नये शब्दों का निर्माण किया है। अपनी भावात्मक या कथ्यगत अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए इन्होंने अनेक पुल्लिंग वाची शब्दों को स्त्री लिंग में परिवर्तित कर दिया है। इस दृष्टि से ‘वासना की डर’, ‘सौधों की स्वर्ण शिखर’ ‘वन की मर्मर’, ‘छोटी छाता’ आदि प्रयोग उल्लेखनीय हैं। इसी क्रम में पंत ने ‘खुले पलक’, ‘हृदय के सुरभित सांस’ ‘पल्लवों की यह सजल प्रभात’ जैसे प्रयोग किए हैं। इस तरह की व्याकरणिक अराजकता खटकती है। अवगुंठित के लिए ‘अगुंठित’, मकरंद के लिए ‘मरंद ‘. वास्तविकता के लिए ‘वास्तवता’, और के लिए ‘औ’ , अनिवाचनीय के लिए ‘अवचनीय’ आदि प्रयोग काव्य-भाषा को भावानुकूल बनाने के लिए उचित माने जा सकते हैं। लकिन यहाँ इतना ध्यान अवश्य रखना पड़ेगा कि ‘गद्य कवियों की कसौटी है।’

अतः गद्य के व्याकरण की बहुत अधिक अवहेलना से कविता में दुर्बोधता की संभावना बढ़ जाती है। पंत की कविता में सामासिक चिह्नों के लोप कारकों की अनुपस्थिति, संधि के नियमों की अवहेलना आदि से सम्प्रेषण में अनेक स्थलों पर कठिनाई आयी है और कुछ प्रयोग अधिक खटकने के कारण समुचित प्रभावोत्पादन में बाधक भी सिद्ध हुए हैं। लेकिन सब मिलाकर पंत ने व्याकरण की किंचित अवहेलना द्वारा भाषा को अधिक प्रभावोत्पादनक्षम बनाने का ही प्रयास किया है।

पंत की काव्य-शैली

अप्रस्तुत विधान : सम्मूर्तन विधान (अमूर्त एवं मूर्त के संदर्भ में)

पीछे आप देख चुके हैं कि पंत भाषा के अत्यन्त निपुण शिल्पी हैं। शब्दावली, शब्द चयन, शब्दायोजन और नवीन शब्दों के निर्माण द्वारा इन्होंने अपनी काव्य भाषा को अत्यधिक संप्रेषणशील बनाने का सफल प्रयास किया है। बावजूद इसके कोई भी भाव-प्रवण कवि केवल भाषा की अन्तर्बाह्य क्षमताओं के आधार पर अपने कथ्य को पूर्णत: संप्रेषणीय नहीं बना सकता। फलस्वरूप उसे किसी न किसी रूप में प्रस्तुत (कथ्य) को पाठक के मनसपटल पर साकार करने के लिए अपरतुलों की योजना करनी हो पड़ती है। इस काव्य-व्यापार को प्राचीन काव्य शात्रियों ने अलंकार योजना का नाम दिया है। परम्परागत अंलकार शास्त्र की दृष्टि से पंत या किसी भी छायावादी कवि की अप्रस्तुत योजना संबंधी कौशल को उद्घाटित कर पाना कठिन है। परम्परागत दृष्टि से देखा जाए तो पंत की अप्रस्तुत योजना के मुख्यतः तीन वर्ग किए जा सकते हैं :

  • साम्यमूलक अप्रस्तुतयोजना
  • वैषम्यमूलक अप्रस्तुत योजना।
  • वैचित्र्य मूलक अप्रस्तुत योजना।

साम्यमूलक अप्रस्तुत योजना के अन्तर्गत ऐसे अप्रस्तुतों का विधान किया जाता है, जिनके माध्यम से प्रस्तुत (कथ्य) के स्वरूप, धर्म (गुण) और प्रभाव-साम्य को अत्यधिक हृदय ग्राही बनाया जाता है। पंत ने उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा जैसे परंपरागत अलंकारों के माध्यम से अपनी साम्यमूलक अप्रस्तुत-योजना के कौशल का पूरा परिचय दिया है। इनके माध्यम से इन्होंने रूप साम्य, गुण साम्य और प्रभाव साम्य को संमूर्तित करने का सफल प्रयास किया है। लेकिन मूर्त के अमूर्तन द्वारा और अमूर्त के सम्मूर्तन द्वारा इस क्षेत्र में जिस पद्धति का सहारा कवि ने लिया है, उसे उपमा, उत्प्रेक्षा आदि के बंधन में बाँध कर विवेचित विश्लेषित कर पाना कठिन है।

प्रायः यही स्थिति पंत के वैषम्य मूलक अप्रस्तुत विधान में भी दिखायी देती है। मौन-मुखर, मौन गुंजरण, मौन-पुकार, नीरव भाषण , जलता शीतल, खोकर पाना आदि प्रयोग इसके सशक्त उदाहरण माने जा सकते हैं। इसी प्रकार चमत्कार मूलक अप्रस्तुत-योजना के लिए कवि ने उक्ति की वक्रता, श्लेष, यमक, अनुप्रास आदि का सहारा लिया है। इसके लिए कवि ने अन्यान्य विधियों के साथ ही विशेषणविपर्यय, मानवीकरण, ध्वन्यार्थ व्यंजना जैसे पाश्चात्य अलंकारों का भी सहारा लिया है, जिस पर आगे यथा स्थान विचार किया जाएगा। इस दृष्टि से जो सर्वाधिक विचारशील तथ्य है, वह यह कि अप्रस्तुत योजना की परम्परागत परिपाटी की दृष्टि से विचार कर हम पंत के इस कौशल का समुचित मूल्यांकन नहीं कर सकेंगे। पंत द्वारा अन्वेषित नयी युक्तियों को ध्यान में रखकर एक नयी प्रणाली को स्वीकार करना पड़ेगा। इसे सम्मूर्तन विधान की संज्ञा देना हमारे लिए अधिक उपयुक्त हो सकता है।

सम्मूर्तन विधान : महादेवी वर्मा की काव्य शैली के विवेचन विश्लेषण में आप देख चुके हैं कि उन्होंने कथ्य को सम्मूर्तित या प्रतिबिम्बित करने के लिए एक विशेष प्रकार की अप्रस्तुत योजना की है। पंत ने भी प्रस्तुत को अत्यधिक संप्रेषणीय बनाने के लिए सम्मूर्तन की पद्धति का सहारा लिया है, जिसे अध्ययन की सुविधा के लिए हम निम्नलिखित वर्गों में विभक्त कर सकते है:

  • मूर्त के लिए मूर्त अप्रस्तुतों की योजना,
  • मूर्त के लिए अमूर्त प्रस्तुतों की योजना,
  • अमूर्त के लिए मूर्त अप्रस्तुतों की योजना और
  • अमूर्त के लिए अमूर्त अप्रस्तुतों की योजना।

मूर्त के लिए मूर्त अप्रस्तुत : मूर्त के लिए मूर्त का अप्रस्तुत विधान प्रायः साम्यमूलक उपमानों पर ही आधारित होता है। यह अधिकांशतः परम्परागत पद्धति ही है, जिसका अत्यंत कौशल के साथ पंत ने अपने काव्य में समावेश किया है। कुछ उदाहरणों द्वारा आप यह आसानी से समझ सकते है:

निर्जन गोपथ अब धूलिहीन,

घूसरभुजंग सा जिह्व-क्षीण।

यहाँ संध्या के चित्रण में धूलिहीन निर्जन पगडण्डी (गोपथ) के मूर्त रूप को पतले मटमैले रंग के साँप (भुजंग) के मूर्त अप्रस्तुत द्वारा प्रतिबिम्बित कराया गया है। इसके लिए दूसरा उदाहरण है :

तिररही खोल पालों के पर।

यहाँ खेल पालों से युक्त छोटी-सी नौका (तरणि के) के धीरे-धीरे तैरने के मूर्त प्रस्तुत को : अपने श्वेत पंख फैलाए हंसिनी के धीरे-धीरे तैरने के अप्रस्तुत द्वारा दृष्टि गोचर बनाया गया : है।

मूर्त के लिए अमूर्त अप्रस्तुत : अन्य छायावादी कवियों की भांति पंत ने भी अपने भाववादी दृष्टि कोण के कारण प्रस्तुत मूर्त वस्तुओं को अमूर्त अप्रस्तुत द्वारा अत्यंत कौशल और चमत्कारपूर्ण ढंग से मानस-प्रत्यक्ष कराया है। इस दृष्टि से पंत की बादल शीर्षक कविता विशेष उल्लेखनीय है। इसके लिए एक उदाहरण है :

धीरे-धीरे संशय से उठ, बढ़ अपयश से शीघ्र अछारे।

नभ के उर में उमड़ मोह से, फैल लालसा से निशि भोर।’

यहाँ मूर्त बादल की विभिन्न स्थितियों को अनेक अमूर्त अप्रस्तुओं द्वारा अत्यन्त प्रभावी ढंग से व्यंजित किया गया है। मूर्त बादल का अमूर्त संशय की तरह धीरे-धीरे उठना, अपयश की तरह तेज़ी से बढ़कर चारों ओर व्याप्त हो जाना, सारे आकाश में मोह की तरह उमड़-घुमड़ कर लालसा (आकांक्षा) की तरह सारे नभ को अच्छादि कर लेना- उर का अत्यंत काव्यात्मक प्रभावांकन है। संध्या, प्रातः, चाँदनी, चाँद आदि के सम्मूर्तन में पंत ने प्रायः इसी पद्धति का सहारा लिया है।

अमूर्त के लिए मूर्त अप्रस्तुत : अन्य छायावादी कवियों की भाँति ही पंत ने भी अमूर्त भावों की अभिव्यक्ति के लिए मूर्त अप्रस्तुतों (उपमानों) का कुशलतापूर्वक उपयोग किया है। परिवर्तन’ शीर्षक कविता इस प्रकार के विधान की सर्वोत्तम उपलब्धि मानी जा सकती है। इसमें अमूर्त परिवर्तन की निष्ठुरता को कवि ने सहस्र फन वाले वासुकि नाग, नृशंस (क्रूर) राजा के विध्वंसक क्रिया व्यापारों द्वारा अत्यंत प्रभावशाली ढंग से मानस प्रत्यक्ष कराया है। कामना, आशा, विश्वास, चेतना आदि को साकार करने के लिए पंत ने प्रायः इसी पद्धति का सहारा लिया है। कामना की सात्विक निर्मलता और स्मृति के तीव्र वेग के प्रत्यक्षीकरण से सम्बद्ध एक उदाहरण दर्शनीय है :

परित्यक्ता वैदेही सी ही, अब हृदय कामना उठी निखर।

नीरव नभ में विद्युत धनसी, एकाकी स्मृति जगती क्षण में

यहाँ कवि ने कामना के निखार और स्मृति के प्रखर वेग को क्रमशः परित्यक्ता वैदही (सीता) और ‘ नीरव नभ में विद्युत घन’ से सम्मूर्तित किया है।

अमूर्त के लिए अमूर्त अप्रस्तुत : पंत ने अपने ‘स्वर्ण काव्य’ में अमूर्त प्रस्तुत (कथ्य) के लिए प्रायः अमूर्त अप्रस्तुतों (उपकरणों) का सहारा लिया है। इसके लिए एक उदाहरण है :

सुख सपने सौरभ से उड़ते

चेतना समीरण सी बहती।

यहाँ सुख-सपनों’ का सौरभ (सुंगधि) की तरह उड़ना और ‘चेतना’ का समीरण (वायु) की तरह प्रवाहित होना, उनके सूक्ष्म स्वरूप और प्रकृति का अत्यंत मार्मिक उद्घाटन है। इसके लिए एक दूसरा उदाहरण है :

‘एक सौम्य चाँदनी भावना की चुपके से

स्वप्निल उर से लिपट गई – चंदन सौरभ सी।’

‘एक सौम्य चाँदनी भावना का स्वप्निल उर (हृदय) से लिपटना अपने-आप में अत्यंत काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। लेकिन ‘भावना’ को ‘चंदन-सौरभ ‘ की भाँति स्वप्निल उर से लिपटना भावना के अत्यंत उदात्त और कोमल रूप की मार्मिक अभिव्यक्ति है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पंत ने सम्मूर्तन कौशल को अपनी शैली का प्रमुख आधार बनाया है।

कतिपय पाश्चात्य अलंकारों की योजना

छायावादी कवियों ने प्राचीन भारतीय अलंकारों की जकड़बंदी से अपने को मुक्त करने के क्रम में कई पाश्चात्य अलंकारों को अपनी भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। इनमें मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय और ध्वन्यार्थ व्यंजना जैसे अलंकार विशेष उल्लेखनीय हैं। पंत जी ने भी अपनी भावाभिव्यक्ति में इन अलंकारों का अत्यंत कौशल के साथ उपयोग किया है। इनके अलग-अलग विवेचन-विश्लेषण से हम पंत की एतद्विषयक विशेषता को आसानी से समझ सकेंगे।

मानवीकरण : मानवीकरण शब्द अंग्रेज़ी के ‘परसानिफिकेशन’ का हिंदी अनुवाद है। इसे पाश्चात्य स्वच्छंदतावादी कवियों ने लाक्षणिक प्रयोग से भिन्न एक स्वतंत्र अलंकार के रूप में प्रतिष्ठा दी है। पंत ने अपने काव्य में इसका अत्यंत भाव-विह्वल होकर प्रयोग किया है। इन्होंने प्रकृति के मानवीकरण की ओर सर्वाधिक ध्यान दिया है। इस दृष्टि से इनकी ‘संध्या ‘ शीर्षक कविता उल्लेखनीय है :

कहो, तुम रूपसि कौन?

व्योम से उतर रही चुपचाप

छिपा निज छाया में छवि आप,

सुनहला, फैला केश कलाप

मधुर मंथर मृदु, मौन!

यहाँ कवि ने संध्या को आकाश से धीरे-धीरे उतरने वाली एक अपूर्व सुंदरी युवती के रूप में प्रस्तुत किया है। इसके आगे उसकी रूप सज्जा का चित्रण करते हुए कवि ने लिखा है :

अनिल पुलकित स्वर्णांचल लोल,

मधुर नूपुर ध्वनि खग कुल रोल,

सीप-से जलदों के पर खोल, उ

ड़ रही नभ में मौन!

संध्या का यह मौन-मुखर और जीवंत चित्र पंत के मानवीकरण के कौशल का परिचायक है। पत की मानवीकरण संबंधी विशेषता को ‘ज्योत्सना स्तुति’, ‘लीली के प्रति’, ‘ओस गीत’, ‘छायागीत’, ‘पवन गीत, ‘किरणों का गीत’, ‘कनक किरण’ आदि अनेक कविताओं के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है।

विशेषण विपयर्य (ट्रांस्फर्ड एफिथेट) : इसके अंतर्गत विशेषण को उसके उचित स्थान से हटाकर जन्यत्र रख दिया जाता है। जैसे, ‘सिकता (बाल) को सस्मित सीपी पर, ‘मोती की ज्योत्सना रही बिखर’ में ‘सस्मित’ (मुस्कान) मनुष्य से संबंध रखती है, लेकिन उसे सीपी के साथ सम्बद्ध कर दिया गया है। प्रकृति एवं अमूर्त भावों के चित्रण में पंत ने इस अलंकार का सर्वाधिक प्रयोग किया है। ‘मूर्छित धरती’, ‘रोमाचिंत तलहटियाँ’, ‘पागल बयार’, ‘उन्मत्त पवन’ आदि जैसे प्रयोगों में कवि ने मूर्छा, रोमांच, पागलपन, उन्माद जैसी मानवीय विशेषताओं को धरती, तलहटियों, बयार, पवन आदि के साथ सम्बद्ध कर दिया है। पंत ने अपने ‘स्वर्ण काव्य’ में अमूर्त भावों की अभिव्यक्ति के लिए भी इस पद्धति का सहारा लिया है। जैसे, नग्न व्यथा, किशोर कारे स्वप्न’, ‘लूले लंगड़े जीवन मूल्य’ आदि प्रयोगों में मनुष्य के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले विशेषणों को व्यथा, स्वप्न, जीवन मूल्य आदि अमूर्त भावों के साथ जोड़ दिया गया है। वैसे छायावादी काव्य-शैली के लिए इसे लाक्षणिक प्रयोग की संज्ञा भी दी जा सकती है।

ध्वन्यार्थ व्यंजना (ऑनोमोटोपोयिया) : नाद व्यंजना या अनुरणात्मकता से भिन्न ध्वनार्थ व्यंजना पाश्चात्य काव्य में एक विशिष्ट अलंकार के रूप में स्वीकृत है। इसके अंतर्गत प्रयुक्त ध्वन्यार्थक शब्द अपना अलग कोई अर्थ न रखकर अपनी उच्चरित ध्वनि द्वारा ही अपने अर्थ की व्यंजना करते हैं। पंत ने अपने काव्य में इस नये अलंकार का अत्यंत कौशल के साथ उपयोग किया है। ‘झंझा में नीम’ शीर्षक कविता से एक उदहारण है :

‘सर् सर् मर् मर्/….. झूम-झूम झुक झुक कर/

सिहर् सिहर् थर् थर् थर्/ करता सर् मर्/ चर् मर्!/’

इसमें प्रयुक्त अधिकांश शब्द अपना निश्चित अर्थ न रखकर अपनी उच्चरित ध्वनियों से ही अपने अर्थ की व्यंजना करते हैं। इसी तरह पंत ने संध्या के समय चिड़ियों के कलरव का चित्रण करते हुए लिखा

बांसों का झुरमुट -/ संध्या का झुटपुट/

हैं चहक रहीं चिड़ियाँ/ टो वी टी – टुट् टुट्।

यहाँ ‘टी वी टी – टुट् टुट’ में ध्वन्यार्थ ‘व्यंजना का सुंदर समावेश हुआ है। इसी प्रकार निर्झरों की ‘झरझर’, घनों की ‘घहर’, दादुरों (मेंढकों) की ‘टर् टर्’, हथौड़े की ठड्. ठड्. ठन् ‘ ‘छमाछम’, ‘झमाझम’ आदि ध्वन्यार्थ मूलक शब्दों के माध्यम से पंत ने ध्वन्यार्थ व्यंजना का सुंदर प्रयोग किया है।

गति, नाद एवं लय की व्यंजना

पंत ने अपने काव्य में विशिष्ट पद-योजना के द्वारा गति, नाद एवं लय की भी सुंदर व्यंजना की है। गति के प्रभावांकन के लिए इनकी ‘नौका विहार’ शीर्षक कविता से एक उदाहरण लिया जा सकता

‘मृदु मंद मंद मंथर मंथर, लघु तरणि, हंसिनी सी सुंदर

तिर रही खोल पालों के पर।’

यहाँ उच्चरित ध्वनियों की लय के माध्यम से धीरे-धीरे हिचकोले खाती हुई मंद गति से तिरती हुई नौका का एक गतिशील चित्र मानस पटल पर अंकित हो जाता है। ‘ग्राम्या’ की ‘चमारों का नाच’ शीर्षक कविता का एक उदाहरण है :

ठनक कसावर रहा ठनाठन, थिरक चमारिन रही छनाछन।

शोर, हँसी, हुल्लड़, हुड़दंग, धमक रहा घाग्ड़ांग मृदंग।

मारपीट बकवास झड़प में रंग दिखाती महुआ भंग।’

यहाँ विशिष्ट क्रिया-कलापों और वाद्य-यंत्रों से होने वाली नाद-व्यंजना चमारों के नृत्य का एक जीवंत दृश्य उपस्थित करती है। पर्वतीय वर्षा का चित्रण करते हुए कवि ने वर्षाकालीन वातावरण को नाद व्यंजना के माध्यम से इस प्रकार ध्वनित कराया है :

‘पपीहों की वह पीन पुकार, निर्झरों की भारी झर-झर

झींगुरों की झीनी झनकार घनों की गुरूगंभीर घहर

बिंदुओं (बूंदों) की छनती छनकार, दादुरों के वे दुहरे स्वर।’

यहाँ ‘र’ कार बहुल शब्दावली और अनुप्रास बहुल शब्दावली के माध्यम से कवि ने वर्षाकालीन वातावरण को श्रुतिगम्य बनाने का सफल प्रयास किया है।

बिम्ब-विधान (ऐन्द्रिक बिम्बों के संदर्भ में)

काव्य-व्यापार में अर्थग्रहण की अपेक्षा बिंबग्रहण को अधिक महत्व दिया गया है। प्रस्तुत या कथ्य का सीधे वर्णन करने की अपेक्षा उससे मिलते-जुलते अप्रस्तुतों के माध्यम से इंद्रिय ग्राह्य बनाना एक महत्वपूर्ण कवि कर्म है। इसकी सिद्धि बिम्बविधान के माध्यम से होती है, जिसे छायावादी काव्य की एक प्रमुख विशेषता के रूप में स्वीकार किया जाता है। इस दृष्टि से पंत की काव्य-शैली उल्लेखनीय है। इन्होंने सभी इन्द्रिय बोधों से संबद्ध बिम्बों का विधान अपने काव्य में किया है, जिन्हें निम्नलिखित श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है :

  • चाक्षुष बिम्ब,
  • श्रव्य बिम्ब,
  • स्पर्श बिम्ब, 
  • घ्राण या गंध बिम्ब और
  • आस्वाद्य बिम्ब।

चाक्षुष बिम्ब : रूप-विधान काव्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है, अतः काव्य में चक्षु या नेत्र-ग्राह्य बिम्बों की प्रधानता होती है। कविवर पंत के एतद्विषक बिम्ब अत्यंत मनोरम हैं। प्रकृति से मूल प्रेरणा ग्रहण करने के कारण उसके सूक्ष्म निरीक्षण की सर्वाधिक क्षमता पंत में विद्यमान है, अतः प्रकृति निरीक्षण विषयक चाक्षुष बिम्बों के निर्माण में पंत ने अपनी प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया है। अपनी ‘नौका विहार’ शीर्षक कविता में कवि ने चाँदनी रात में, ग्रीष्म कालीन गंगा का एक भाव प्रवण चाक्षुष बिम्ब इस प्रकार प्रस्तुत किया है :

शांत, स्निग्ध, ज्योत्सना उज्ज्वल,

अपलक अनंत, नीरव भूतल!

सैकत शय्या पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल,

लेटी है श्रांत, क्लान्त, निश्चल!

तापस बाला गंगा निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु करतल,

लहरें उर पर कोमल कुंतल!

गोरे अंगों पर सिहर सिहर, लहराता तार तरल सुंदर,

चंचल अंचल सा नीलांबर!

साड़ी की सिकुड़न सी जिस पर शशि की रेशमी विभा से भर,

सिमटी है वर्तुल, मृदुल लहर!

यहाँ चाँदनी रात के शांत वातावरण में सम्पूर्ण परिवेश के साथ ग्रीष्मकालीन निर्मल गंगा का तापस बाला के रूप में एक भव्य बिम्ब प्रस्तुत किया गया है। इसके लिए कवि ने पहले शांत. कोमल चाँदनी में शून्य आकाश और नीरव पृथ्वी का प्रभावशाली वातावरण उपस्थित किया है! इसके बाद रेती की सेज पर दुग्ध धवल पतले अंगों वाली थकीमांदी गंगा को आराम से लेटे हुए दिखाया गया है। गंगा के ऊपर चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को लेकर कवि ने कल्पना की है कि जैसे गंगा अपने चन्द्र मुख को हथेली पर टिकाए हुए है और लहरों के रूप में उसके वक्षस्थल पर रेशमी बाल लहरा रहे हैं। नीलांबर ही उसकी साड़ी है, जिसके आंचल पर तारों के रूप में सलमें सितारे खिंचे हुए हैं। गंगा में उठने वाली हल्की लहरें ही उसकी रेशमी श्वेत साड़ी की सिकुड़न हैं। गंगा का ऐसा सांगोपांग दृष्टिगोचर मनोरम बिम्ब समूचे छायावादी काव्य की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस प्रकार के संश्लिष्ट बिम्बों की दृष्टि से ‘एक तारा’, ‘बादल’, ‘ग्राम श्री’, ‘परिवर्तन ‘ आदि कविताएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें से कई कविताएँ आप के पाठ्यक्रम में निर्धारित हैं, जिन्हें अवश्य देख लें ।

चाक्षुष बिम्बों के निर्माण में पंत की अत्यंत सूक्ष्म वर्ण या रंग चेतना (सेंस ऑफ कलर) ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। यह चेतना भी पंत को प्रकृति निरीक्षण से ही प्राप्त हुई है। लालिमा, अरूणाभा, रक्ताभा, नीलिमा, नीलाभा, पीतिमा, पीताभा, हरीतिमा, हरिताभा, स्वर्णिम, स्वर्णाभा, धवलिमा, धवलाभा आदि शब्दों के प्रयोग के माध्यम से पंत ने अपने रंग परिज्ञान का अद्भुत परिचय दिया है, जिससे आप पंत-काव्य के निर्धारित पाठ्यक्रम के माध्यम से अच्छी तरह परिचित हो सकते हैं। यहाँ वर्ण परिवर्तन (चेंज ऑफ कलर) का एक गतिशील चित्र उदाहरणार्थ प्रस्तुत है :

गंगा के चल जल में निर्मल, कुम्हला किरणों का रक्तोत्पल,

है मूंद चुका अपने मृदु दल

लहरों पर स्वर्ण रेख सुंदर पड़ गयी नील, ज्यों अधरों पर,

अरूणाई प्रखर शिशिर से डर

संध्या काल में गंगा के चंचल जल में सूर्य के लाल प्रतिबिम्ब के डूबने को रक्तोत्पल (लाल कमल) द्वारा अपनी पंखुड़ियों को बंद करने के दृश्य द्वारा रूपायित किया गया है। संध्या काल में सूर्यास्त के पूर्व गंगा की लहरों की स्वर्णरेखा के नीलिमा में परिवर्तित होने के दृश्य को कवि ने प्रखर शीत के कारण बच्चों के कोमल लाल अधरों के नीले पड़ जाने के अप्रस्तुत द्वारा प्रतिबिम्बित कराया है। इस प्रकार की रंग-योजना के अत्यंत गतिशील बिम्ब पंत के काव्य में प्रचुरता से मिलते हैं।

श्रव्य बिम्ब : श्रव्य के श्रवण संबंधी ध्वनि बिम्ब के निर्माण में भी पंत छायावाद के अन्य कवियों की भाँति अत्यंत निपुण हैं। ध्वन्यार्थ व्यंजना के संदर्भ में आप इस तथ्य से परिचित हो चुके हैं। ध्वन्यार्थक और अनुरणनात्मक शब्दों की मुखर व्यंजना के साथ ही पंत ने मौन की मुखरता को भी प्रतिध्वनित कराया है। ‘एक तारा’ कविता से इसका एक उदाहरण है :

‘पत्तों के आनत अधरै, पर सो गया निखिल वन का मर्मर

 ज्यों वीणा के तारों में स्वर

झींगुर के स्वर का प्रखर तीर केवल प्रशांति को रहा चीर

संध्या प्रशांति को कर गंभीर।’

यहाँ संध्या की नीरव शांति को झींगुरों के स्वर के प्रखर तीर द्वारा और अधिक गंभीर बताना एक प्रकार से मौन को मुखर बनाना है। पंत जी ने जिस प्रकार कोमल और मधुर भावों की अभिव्यक्ति के लिए कर्ण सुखद पदावली का प्रयोग किया है, उसी कौशल से पुरुष या कठोर भावों की अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल समुचित पदावली का भी उपयोग किया है। निष्ठुर परिवर्तन के विध्वंसक ताण्डव नृत्य का श्रव्य बिम्ब प्रस्तुत करते हुए पंत ने लिखा है :

‘अहे वासु कि सहस्रफन

लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरंतर,

छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षःस्थल पर।

शत् शत् फेनोच्छवसित स्फीत फूत्कार भयंकर,

घुमा रहे हैं घनाकार जगत का अंबर,

मृत्यु तुम्हारा गरल दंत कंचुक कल्पांतर

अखिल विश्व ही विवर

वक्र कुण्डल दिड्. मण्डल।”

इस पूरे काव्यांश की उच्चारण ध्वनि पाठक की श्रवणेन्द्री के माध्यम से परिवर्तन के विध्वंसक चित्र को मानस पट पर अंकित कर देती है। ‘निर्झरी’ कविता में पंत ने छोटी निर्झरिणी के व्योम निनाद को अत्यंत श्रवण सुखद बनाकर प्रस्तुत किया है :

यह कैसा जीवन का गान, अलि! कोमल कल मल् टल मल?

अरी शैल बाले नादान! यह निश्छल कल् कल् छल छल्?

झर् मर् कर पत्तों के पास, रण मण रोड़ो पर सायास,

हँस हँस सिकता से परिहास, करती तुम अविरल झलमल!

यहाँ कल मल, टल मल, कल कल, छल छल, झर् मर, झल् मल आदि व्यंजनांत ध्वनियों से कवि ने निर्झरिणी की कोमल मधुर ध्वनि को श्रवण गम्य बनाया है।

स्पर्श बिम्ब : पंत मुख्यतः मृदुल-कोमल भाव के कवि हैं। मृदुता और कोमलता का सीधा संबंध स्पर्शेन्द्री से है। अतः अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति में भी पंत ने पाठक की स्पर्श-चेतना को उबुद्ध करने का सफल प्रयास किया है। कवि ने विभिन्न कोमल रंगों रेशम, मखमल, मंद मसृण (कोमल) समीरण आदि के माध्यम से पाठक की स्पर्श चेतना को उबुद्ध किया है। अनेक पदार्थ दृश्य होते हैं पर हम उन्हें छू नहीं सकते। उदाहरण के लिए धूप, अंधकार के विविध रूपों के साथ ही हम रंगों को छू नहीं सकते। लेकिन कल्पना के द्वारा हृदय पर पड़ने वाले इनके प्रभाव के माध्यम से इनके स्पर्श की विशेषता का अनुभव आसानी से किया जा सकता है। इस दृष्टि से यहाँ पंत का एक उदाहरण विचारणीय है :

‘मृदु मृदु स्वप्नों से भर अंचल,

नव-नील नील, कोमल,

कोमल, छाया तरूबन में तम श्यामल।’

यहाँ कोमल के साथ ‘श्यामल’ पद की योजना कर कवि ने पाठक की स्पर्श चेतना को उबुद्ध किया है। इसके लिए कुछ अन्य उदाहरण भी लिए जा सकते हैं :

गंध तुहिन से ग्रथित रेशमी पट सा मसृण समीरण |

रंग रंग के वनफूलों से गुंफित मखमल के शाद्वल।

यहाँ रेशमी वस्त्र सा मसृण (कोमल) सीरण और मखमल के शाद्वल आदि स्पर्श बोध से युक्त पदावली द्वारा कवि ने समीरण (वायु) और शाद्वल से पाठक की स्पर्श चेतना को उबुद्ध किया है। इसी प्रकार ‘ग्राम श्री’ कविता का एक चाक्षुष, किंतु स्पर्श मूलक चित्र है :

फैली खेतों में दूर तलक

मखमल की कोमल हरियाली

लिपटी जिससे रवि की किरणें

चाँदी की सी उजली जाली।

यहाँ मखमल की कोमल हरियाली और शीतकालीन रवि की किरणों की जाली स्पर्श बोध को जाग्रत करती है। लेकिन नेत्रों के माध्यम से ही यहाँ स्पर्श बोध को अस्तित्व प्राप्त हुआ है।

घ्राण या गंध बिम्ब : प्रस्तुत को संवेदनीय बनाने के लिए ही पंत ने गंध का प्रायः अप्रस्तुत के रूप में उपयोग किया है। स्वतंत्र रूप से गंध बिम्बों का प्रयोग इनके काव्य में कम ही मिलता है। उदाहरण के लिए स्वर्ण किरण’ की एक पंक्ति दर्शनीय है : .

‘तप्त. कनक द्विति देह, सहज चंदन सी वासित।’

यहाँ ‘चंदन सी वासित’ गंध चेतना द्वारा ‘कनक द्विति (स्वर्णाभा) वाली देह की रमणीयता में वृद्धि की गयी है। वैसे ‘ग्राम श्री’ कविता में फसलों के वातावरण को जीवंत बनाने के लिए गंध का उपयोग स्वतंत्र रूप से इस प्रकार किया है :

‘उड़ती भीनी तैलाक्त गंध

फूली सरसों पोली पीली,

लो, हरित धरा से झाँक रही

नीलम की कलि तीसी नीली।’

सरसों और तीसी की तैलाक्त गंध यहाँ फसलो के रमणीय वातावरण को हृदय संवेद्य बनाती है। अन्यत्र पंत प्रायः अप्रस्तुत के रूप में ही गंध का प्रस्तुत के स्वरूप को हृदय संवेद्य बनाने के लए उपयोग करते हैं। यथा :

‘सुख-सपने सौरभ से उड़ते’

‘एक सौम्य चांदनी भावना की चुपके

से स्वाप्निल उर से लिपट गयी चंदन सौरभ सी।’

यहाँ सुख-सपने का सौरभ की तरह उड़ना और एक दिव्य भावना का ‘चंदन सौरभ ‘ की तरह स्वप्निल हृदय से लिपटना प्रस्तुत या कथ्य का बिम्ब ग्रहण कराना है।

आस्वाद्य बिम्ब : अपनी भावना प्रधानता के कारण छायावादी कवियों ने आस्वाद्य बिम्बों या रसना के स्वाद संबंधी बिम्बों का प्रयोग प्रायः नहीं किया है। पंत के यहाँ भी आस्वाद्य बिम्बों का नितांत अभाव है। मधुर, कटु-तिक्त आदि स्वाद संबधी प्रयोग प्रायः भावना एवं चिंतन के संदर्भ में ही आए

इस प्रकार पंत की बिम्ब योजना कथ्य के अर्थ ग्रहण से परे उसका बिम्ब ग्रहण कराने के कलात्मक उद्देश्य से प्रेरित है। इनमें इस कलात्मकता का आग्रह प्रायः छायावादी चरण तक ही रहा है। अतः इसके बाद वे अपने स्वर्ण काव्य’ या अन्तश्चेतनावादी परवर्ती काव्य में बिम्बों की अपेक्षा प्रतीकों का अधिक सहारा लेने लगे हैं। यही स्थिति उनके सम्मुर्तन विधान में भी दिखायी देती है। छायावादी चरण तक ही इसके प्रति उनका आग्रह रहा है, लेकिन आगे चलकर वे इस कार्य के लिए भी प्रायः प्रतीकों का सहारा लेने लगे हैं। वैसे प्रतीकात्मकता के प्रति उनका लगाव आरंभ से ही रहा है, लेकिन परवर्ती रचनाओं में यह आग्रह लगभग मोह का रूप ग्रहण करने लगता है। अतः प्रतीक योजना की दृष्टि से पंत की काव्य शैली पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।

प्रतीक विधान

प्रतीक, बिम्ब साम्य-वैषम्य मूलक अप्रस्तुत योजना से भिन्न केवल संकेत द्वारा ही कथ्य की विशिष्टता अथवा उसके प्रभाव की ओर इंगित करते हैं। ये भी एक तरह से लाक्षणिक प्रयोग ही हैं, जो छायावादी काव्य शैली की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता रही है। बावजूद इसके, प्रतीक लक्षणा की सीमा का अतिक्रमण कर प्रायः व्यंजना के क्षेत्र में प्रवेश करते दिखायी देते हैं। जिस प्रकार अप्रस्तुत विधान, सम्मूर्तन विधान अथवा बिम्ब विधान सामान्य भाषा की अक्षमता के कारण अस्तित्व ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार प्रतीक भी। इसे भी काव्य शैली के अंतर्गत ही स्वीकार किया जाता है। अपने परवर्ती काव्य में पंत निरंतर प्रतीकात्मकता की ओर अग्रसर हुए हैं। ‘कला और बूढ़ा चाँद तक पहुँच कर इनके तथाकथित सत्यान्वेषण की प्रकृति ने प्रतीकात्मकता को और अधिक गहन कर दिया है। सत्य को शब्दों से परे, अनिर्वचनीय मानते हुए पंत ने ‘कला और बूढ़ा चाँद’ की ‘अखंड’ शीर्षक कविता में भाषा और शब्दों की अपर्याप्तता को रेखांकित करते हुए लिखा है :

‘मैं शब्दों की

इकाइयों को रौंद कर

संकेतों में

प्रतीकों में बोलँगा’

अतः पंत के काव्य शिल्प के समुचित उद्घाटन के लिए इनकी प्रतीक योजना पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है। प्रतीक योजना की दृष्टि से पंत के काव्य में प्रतीकों के स्वरूप या उनकी रूप-रचना को देखते हुए इन्हें दो युगों में विभक्त करना अध्ययन की सुविधा के लिए अधिक उपयुक्त होगा। ये युग

  • छायावादी युग और
  • अंतश्चेतना पर आधारित अध्यात्मवादी-समन्वयवादी युग

छायावादी युग का प्रतीक विधान : अन्य छायावादी कवियों की भांति ही पंत के छायावादी युग के प्रतीक प्रायः प्रकृति, मानव-जीवन, नारी-सौंदर्य, प्रणय-भावना आदि से जुड़े हुए हैं। इसके अंतर्गत संध्या, प्रातः, चाँदनी, सूर्य, चाँद, तारा, दर्पण, प्राची, पावस, वसंत, बादल, मधुप, ज्योति, मधुवन, वंशी, वीणा, पवन, सुरभि, सुमन आदि को विशेष रूप से प्रतीक का विषय बनाया गया है। ‘एक तारा’ कविता में पंत ने संध्याकालीन परिवर्तनशील वातावरण का तल्लीनता से चित्रण करते हुए अंत में पश्चिमी आकाश में एक तारे का उदय दिखाया है। एक तारे को ‘शुद्ध, प्रबुद्ध, शुक्र और सम’ बताते हुए उसे इन्होंने, ब्रह्म का प्रतीक मान लिया है। जिस प्रकार ब्रह्म द्वारा अपने अकेलेपन से मुक्ति के लिए अनेक में परिवर्तित करने की इच्छा से सृष्टि की रचना होती है, उसी तरह एक तारे के बाद अनेक तारों का उदय भी ‘ए कोड हं बहुस्यामि’ की मान्यता को प्रतीकित करता है:

जगमग जगमग नभ का आंगन लद गया कुंद कलियों से घन,

वह आत्म और यह जग दर्शन!

‘एक तारा’ की भाँति ही ‘नौका विहार’ कविता में पंत जी ने ग्रीष्म कालीन गंगा की क्षीण धारा का एक नवयुवती के रूप में मानवीकरण करते हुए चांदनी रात के चित्रण में अपने सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण को बिना कोई क्षति पहुँचाए अंत में कहा है :

इस धारा सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम

शाश्वत जीवन नौका विहार

यहाँ कवि ने नौका-विहार को जीवन की शाश्वतता का प्रतीक मान लिया है। इसी प्रकारः ‘चाँदनी : एक ‘ शीर्षक कविता में पंत ने चाँदनी का कल्पनामय भव्य चित्रण करते हुए अंत में उसे ब्रह्म का प्रतीक मान लिया है : .

वह है, वह नहीं, अनिर्वच, उसमें जग, वह जग में लय,

साकार चेतना सी वह, जिसमें अचेत जीवाश

‘अप्सरा ‘ शीर्षक कविता की भी लगभग यही स्थिति है। इसमें पंत ने अप्सरा का मोहक एवं कल्पना-प्रवणं चित्रण करते हुए उसे सांसारिक प्रपंच और सुख-दुख से परे अनिवर्चनीय शाश्वत सौंदर्य का प्रतीक बना दिया है। ‘गा कोकिल’ में कोकिल को क्रांति का अग्रदूत तो ‘द्रुत झरो’ में पतझर को नवयुग का प्रतीक बनाकर उपस्थित करना पंत की विशेषता मानी जा सकती है। ‘खद्योत’ (जुगनू) इनके यहाँ जीवन के घने अंधकार में ‘मानतः आत्मा का प्रकाश कण बन कर आता है। उपर्युक्त कविताओं के साथ ही ‘मौन निमंत्रण’, ‘ओरा गीत’, ‘तारा गीत ‘, ‘विहग गीत’ आदि कविताओं में भी पंत ने अपनी रहस्य-भावना और जिज्ञासा भावना के माध्यम से प्रतीकात्मकता का समावेश किया है। अपनी ‘परिवर्तन ‘ शीर्षक कविता में पंत ने सामाजिक बदलाव को परिवर्तन के एक विराट प्रतीक द्वारा संकेतित किया है। लेकिन यहाँ सामाजिक बदलाव की मूल कारक शक्तियाँ प्रायः ओझल हो जाती हैं। समूचे परिवर्तन को इन्होंने प्रकृति के हवाले कर उसे प्रायः वायवी (हवाई) और काल्पनिक बना दिया है। इन्हें परिवर्तन के विध्वंसकारी रूप के कारण सांसारिक-सुख अरण्य रोदन (जंगल में रोना) प्रतीत होता है : .

वृथा रे, ये अरण्य चीत्कार, शांति, सुख है उस पार!

मूंदती नयन मृत्यु की रात, खोलती नव जीवन का प्रात।’

जीवन और मृत्यु के बीच मानव-जीवन के सार्थक क्रिया-कलाप पंत जी को दिखायी ही नहीं देते।

उपर्युक्त विवेचन-विश्लेषण से ऐसा लगता है कि पंत के छायावाद युगीन प्रतीक अधिकांशतः आरोपित हैं। प्रतीकों की जड़ें जब तक समाज के जातीय-जीवन के यथार्थ की जड़ों से गहराई से नहीं जुड़ती तब तक उनमें पूर्ण प्रभाव-क्षमता नहीं आ पाती। यह कमी पंत के छायावाद युगीन प्रतीक-विधान में दिखायी देती है। व्यक्तिगत भावना और कल्पना पर अधिक आश्रित होने के कारण इनके प्रतीकों की सार्थकता प्रायः लुप्त हो जाती है।

अंतश्चेतना पर आधारित आध्यात्मवादी – समन्वयवादी युग : ‘स्वर्ण किरण’ से लेकर ‘लोकायतन’

तक का पंत का काव्य अधिकांशतः चिंतन एवं दर्शन प्रधान हो गया है। अतः इस युग में इनके प्रतीक वैचारिक-चिंतन पर आधारित हो गए हैं। ‘स्वर्ण धूलि’ से लेकर पंत की अधिकांश काव्यकृतियाँ ‘स्वर्ण काव्य’ के अंतर्गत आती हैं। यहाँ ‘स्वर्ण’ शब्द स्वयं अंतश्चेतना का प्रतीक है। इसका एक उदाहरण यहाँ दर्शनीय है :

‘स्वर्ण बालुका किसने वरसा दी रे जगती के मरुस्थल में,

सिकता पर स्वर्णांकित कर स्वर्गिक आभा जीवन मृग जल में।

स्वर्ण रेणु मिल गयीं न जाने कब धरती की मर्त्य धूलि से,

चित्रित कर, भर दी रज में नव जीवन ज्वाला अमर तूलिका से।’

यहाँ ‘स्वर्ण बालुका’ दिव्य चेतना की प्रतीक है, ‘मरुस्थल’ सांसारिक दुखों से दग्ध भौतिक मन का प्रतीक है तथा ‘ज्वाला’ उस महाचेतन का गुण है, जो भौतिक मन से वासना को जलाकर राख कर देता है। स्वर्ण किरण की ‘अशोक वन’ कविता में राम कथा और उसके पौराणिक पात्रों का प्रतीकवत प्रयोग इस प्रकार हुआ है :

रावण था युग वैभव प्रतिभा, अमित प्रताप बुद्धि बल गरिमा,

धरती की आकांक्षा सीता, त्रिभुवन के पति से परिणीता।’

यहाँ ‘रावण’ पृथ्वी के अज्ञान अर्थात् वैभव, प्रतिभा, प्रताप, बुद्धि की गरिमा से युक्त भौतिक सभ्यता का प्रतीक है और ‘सीता’ पृथ्वी की चेतना अर्थात् ब्रह्म की चेतना-शक्ति है जो राम (ब्रह्म) से विवाहित है। राम स्वयं दिव्य-चेतना के रूप में हैं। ‘उत्तरा’ की ‘संवेदन’ शीर्षक कविता में भी ‘छाया सीता ‘ नवीन चेतना का ही प्रतीक बनकर उपस्थित हुई हैं। ‘कला और बूढ़ा चाँद’ की भाषा शब्दार्थाश्रित भाषा न होकर प्रायः प्रतीकात्मक भाषा है। इसकी ‘मधु क्षत्र’, ‘खोज’, ‘शरद् शील’, ‘रिक्त मौन’, ‘सहज गति’, ‘शील’, ‘अखंड’ आदि अधिकांश कविताएँ प्रतीकात्मक भाषा में लिखी गयी है।

‘लोकायतन’ में पंत जी ने तमाम सारे पौराणिक प्रतीकों के साथ ही वर्तमान जीवन पर आधारित नये प्रतीकों का भी सहारा लिया है। सीता, लक्ष्मण, बाल्मीकि, रावण आदि पात्र इस महाकाव्य में प्रतीकवत् उपस्थित हुए हैं। बाल्मीकि का नव अवतार वंशी यहाँ स्वयं कविवर पंत का भी प्रतिनिधि बन जाता है और लक्ष्मण की भूमिका आगे चलकर हरि द्वारा सम्पन्न होती है। लक्ष्मण के रूप में हरि की चिंता राम राज्य के मूल्यों को लेकर ही नहीं, वरन् वर्तमान युग के सामाजिक मूल्यों से भी संबद्ध है। यहाँ उमा (गौरी या पावर्ती) जहाँ परा चेतना की प्रतीक बन कर उपस्थित हुई हैं, वहीं सीता विश्व चेतना की प्रतीक बन गयी हैं। लोकायतन में परात्पर सत्य (पार्वती) को विश्व चेतना (सीता) से संयुक्तकर पंत ने उन्हें धरती पर उतारा है। ‘लोकायतन’ की ‘पूर्व स्मृति’ में दिव्यता को जगत से परे न मानकर जागतिक-व्यापारों से जोड़कर देखा गया है। आगे चलकर इस व्यापार को वंशी और हरि के माध्यम से सम्पन्न कराया गया है। इन तथ्यों को ‘पूर्व स्मृति’ में रेखांकित कर पंत ने ‘लोकायतन’ के ‘मुक्ति यज्ञ’ का आरंभ गांधी की दाण्डी यात्रा से लेकर स्वराज्य प्राप्ति तक का चित्रण किया है। यद्यपि इस महाकाव्य का संघर्ष (प्रतीकों के माध्यम से) बनाने का प्रयास किया है लेकिन इनके द्वारा निर्मित पौराणिक प्रतीक वास्तविक जीवन के यथार्थ से पूरी तरह जुड़ नहीं पाते। बावजूद इसके ‘लोकायतन’ अपनी प्रतीकात्मकता में प्रसाद की ‘कामायनी’ की तरह का एक भव्य स्वप्न है, जो मात्र स्वप्न तक ही सीमित रह सकेगा उसे व्यावहारिक रूप मिलना संभव नहीं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि पंत के प्रतीक उत्तरोत्तर दुरूह होते गए हैं, जिसका कारण इनकी दार्शनिक दुरूहता ही प्रतीत होती है। वस्तुतः तब तक प्रतीक सामाजिक यथार्थ की ठोस भूमि से जुड़कर लोक मानस को उद्वेलित नहीं करते तब तक उनकी सार्थकता संदिग्ध ही बनी रहती है। इन कतिपय त्रुटियों के साथ पंत द्वारा प्रयुक्त प्रतीकों की पर्याप्त सकारात्मक भूमिका है। 

काव्य-रूप एवं छंद विधान

प्रगीत काव्य

अन्य छायावादी कवियों की भाँति पंत जी का अधिकांश काव्य प्रगीतात्मक है। इन्होंने ‘छाया’, ‘प्रथम रश्मि’, ‘वीचि-विलास’, ‘मधुकरी’, ‘अनंग’, ‘नारी रूप’,’नक्षत्र’, ‘सांध्य वंदना’, ‘तारागीत’, ‘किरणों का गीत आदि अनेक संबोधन गीत भी लिखे हैं। शैली एवं विषय दोनों ही दृष्टियों से इनके प्रगीतों में विविधता दिखायी देती है। ‘पल्लविनी’ में पंत जी के 1940 तक के अधिकांश महत्वपूर्ण प्रगीत संकलित हैं। बाद के ‘उत्तरा’, ‘अतिमा’, ‘वाणी’ और ‘किरण वीणा’ में लघु प्रगीत संकलित हैं। प्रगीत काव्य में कवि जीवन के तीव्र क्षणों की अभिव्यक्ति के साथ ही अनुभव की तीव्रता, भावों की एकान्विति, संक्षिप्तता एवं संगीतात्मकता प्रमुख होती है। अतः प्रगीत काव्य की विशिष्टताओं को निम्नलिखित तत्वों के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है, 

  • संगीतात्मकता, 
  • आत्माभिव्यक्ति,
  • भाव-प्रवणता,
  • भावान्विति, 
  • संक्षिप्तता।

उपर्युक्त पाँचों तत्व पंत के प्रगीतों में विद्यमान हैं। अपने आरंभिक रचना काल से ही पंत संगीतात्मकता के प्रति अत्यंत जागरूक दिखायी देते हैं। वीणा से गुंजन तक कवि ने स्वरैक्य या स्वर मैत्री को गेयता का मुख्य आधार बनाया है, जिसमें तुकांतता का भी विशिष्ट योगदान है। ‘अभिलाषा’, ‘आकांक्षा’, ‘निर्झरी’, ‘अनंग’, ‘मौन निमंत्रण’, प्रथम रश्मि ‘ आदि आरंभिक कविताओं में पंत ने गेयता का विशेष ध्यान रखा है। ‘प्रथम रश्मि’ की प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं :

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि, तूने कैसे पहचाना?

कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि! पाया तूने यह गाना?

इसकी गेयता का मूलाधार ‘इकार’, ‘आकार’ की स्वर मैत्री है। इसमें बाल सुलभ जिज्ञासा का भाव ही प्रमुख है। ‘पल्लव’ के रचनाकाल तक कवि का यौवन सुलभ चिंतन मुखर हो उठा है। वस्तुतः इसमें कवि का यौवन गीत है, जो अनुभूति और उन्माद के संयम का अतिक्रमण कर सहज गति से प्रवाहित हुआ है। ‘मौन निमंत्रण’, ‘अनंग’, ‘छाया’, ‘बादल’, ‘स्वप्न’ आदि जैसी कविताएँ इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं। ‘गुंजन पंत के प्रायः लघु गीतों का संग्रह है, जिसमें ‘पल्लव’ का अल्हड़ कवि पर्याप्त संयमित हो गया है। इस संग्रह की ‘एक तारा’, ‘नौका विहार’ आदि कविताएँ गेयता को एक नया रूप प्रदान करती हैं।

पंत ने अपने ‘स्वर्ण काव्य’ में भी लघु प्रगीतों को विशेष स्थान दिया है। ये प्रगीत आंतरिक संगीत से अनुप्राणित हैं। शब्द-संयोजन, अक्षर मैत्री, शब्द मैत्री, शब्द संगीत आदि के माध्यम से कवि ने इन कविताओं में गेयता का समावेश किया है। उदाहरणार्थ :

झम झम झम मेघ बरसते रे सावन के,

छम छम छम गिरती बूंदें तरूओं से छनके।’

यहाँ ध्वन्यात्मक शब्दों की आवृत्ति द्वारा एक विशेष प्रकार की संगीतात्मकता का समावेश किया गया है। सब मिलाकर पंत के प्रगीत काव्य की गेयता प्रसाद, निराला और महादेवी से भिन्न है। चाहे आत्माभिव्यक्ति हो या भावावेग, चाहे एकान्वित हो या संक्षिप्तता सभी दृष्टियों से पंत का प्रगीत काव्य उतना आकर्षक और मोहक नहीं बन पाया है, जितना कि अन्य छायावादी कवियों का। निराला ने अपनी ‘जुही की कली’ शीर्षक मुक्त छंद में रचित कविता में गति और लय के माध्यम से जिस ओजपूर्ण संगीतात्मकता का सहारा लिया है, वह पंत में दुर्लभ है। इसी प्रकार ‘मैं अकेला’, ‘स्नेह निर्झर बह गया है’ आदि प्रगीतात्मक कविताओं में निराला के व्यक्तित्व का जो साक्षात्कार होता है, वह भी पंत के प्रगीतों में नहीं मिलता। पंत की ‘संध्या’ और निराला की ‘संध्या सुंदरी’ कविता को मिलाकर भी दोनों की गेयता, भाव प्रवणता और एकांन्विति के अंतर को आसानी से समझा जा सकता है।

प्रबंधात्मक कथा एवं काव्य-रूपक

पंत अपने मुक्तक प्रगीतों के लिए ही अधिक प्रसिद्ध हैं। लेकिन उनकी दूसरी काव्य रचना ‘ग्रंथि ‘ अपने-आप में एक प्रेम कथा के क्षीण सूत्र को सपाए हुए है। इसे आलोकों ने कवि की प्रणय-कथा के रूप में ‘रेखांकित’ करने का प्रयास किया है। लेकिन प्रबंधात्मक दृष्टि से पंत के काव्य रूपक विशेष महत्व रखते हैं। इलाहाबाद में रेडियो के कार्यक्रम से संबद्ध होने के बाद पंत ने लगभग एक दर्जन काव्य रूपकों की रचना 1950 से 1954 तक की। इससे पूर्व वे ‘ज्योत्सना’ शीर्षक से 1934 में अपनी काव्य-नाटिका प्रस्तुत कर चुके थे। यह एक रूपक काव्य का आभास देती है, जिसमें कथावस्तु अत्यंत क्षीण है। संध्या, छाया, इंदु (चन्द्रमा) ज्योत्सना पवन, सुरभि आदि इसके प्रमुख पात्र भावनाओं के पुलिंदे जैसे दिखायी देते हैं।

रेडियो से सम्बद्ध होने के बाद पंत ने ‘विद्युत वसना’, ‘शुभ्र पुरुष’, ‘उत्तरशती’, ‘फूलों का देश’, ‘रजत शिखर’, ‘शरदचेतना’, ‘शिल्पी’, ‘ध्वंस शेष’, ‘अप्सरा’, ‘स्वप्न और सत्य’, तथा’सौवर्ण’ जैसे काव्य रूपक लिखे, जो अधिकांशतः विचार-प्रधान हैं। ये रूपक कवि के आत्म-संघर्ष से लेकर व्यक्ति और विश्व की सभी संभव समस्याओं पर विचार करते हुए अंत में जीवन-निर्माण के एक नवीन स्वप्नलोक से जुड़ जाते हैं। इनमें भी पंत के अरविन्दवादी अंतश्चेतना की समन्वयवादी भूमिका ही अधिक उजागर हुई है। नाट्य तत्वों की क्षीणता और काव्यत्व की प्रधानता के कारण स्वयं पंत भी इन्हें नाटक की अपेक्षा कथोपकथन प्रधान श्रव्य-काव्य ही कहना अधिक पसंद करते हैं। ‘स्वर्ण धूलि’ में संगृहीत ‘मानसी’ शीर्षक रचना गीतिनाट्य का उदाहरण मानी जा सकती है। सात दृश्यों में विभक्त इस गीति नाट्य की रचना एकांकी की पद्धति पर की गयी है। इसमें गीत, वाद्य, वेशभूषा आदि का भी समुचित विधान किया गया है।

प्रबंधात्मकता की दृष्टि से 1965 में प्रकाशित पंत का ‘लोकायतन ‘ शीर्षक महाकाव्य विशेष उल्लेखनीय है। इसे कवि ने दो खंडों में प्रस्तुत किया है। इसका प्रथम खंड ‘बाह्य परिवेश’ शीर्षक से रेखांकित है, जिसे चार उपशीर्षकों – पूर्व स्मृतिः आस्था, जीवन द्वार, संस्कृति द्वार और मध्य बिंदुः ज्ञान के अंतर्गत विभक्त किया गया है। इन उपशीर्षकों के अंतर्गत भी अनेक गौण शीर्षक आयोजित किए गए हैं।

इस महाकाव्य का द्वितीय खंड ‘अंतश्चैतन्य’ शीर्षक से रेखांकित है, जिसे तीन प्रमुख उपशीर्षकों कला द्वार, ज्योति द्वार और उत्तर स्वप्नः प्रीति – में विभक्त किया गया है। इस महाकाव्य में पंत जी ने भारतीय संस्कृति के प्रमुख प्रतीकों, विशेष रूप से रामकथा के पात्रों के माध्यम से प्राचीन के साथ नवीन को सम्बद्ध करने का कलात्मक प्रयास किया है। ‘लोकायतन’ का कथा-फलक सम्पूर्ण विश्व है। इसमें आने वाले थोड़े से पात्र, महात्मा गांधी को छोड़कर, कवि कल्पित और प्रतीकात्मक हैं, जो विश्वचित्रपट के छायाभास मात्र हैं। इसमें कथा के सूत्र बिखरे हुए, परस्पर असंबद्ध और विच्छिन्न हैं। आरंभ और अंत भी आभास मात्र ही हैं। अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवादी समाजवादी देशों के अंतर्विरोध, उनकी भौतिक उन्नति आदि को रेखांकित करते हुए कवि भारतीय आध्यात्म के आधार पर भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय द्वारा एक नयी ग्राम सभ्यता के उदय की परिकल्पना करता है। इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, रोम, यूनान, रूस, स्वीडन आदि विकसित देशों की समृद्धि, उनकी वैज्ञानिक उन्नति के प्रति नतमस्तक होते हुए भी कवि को उनका विकास बहिर्मुखी और एकांगी लगता है :

‘स्थूल भौतिकता का आधिक्य, विपद् भय का सूचक अविवाद,

प्रथम बदले भीतरी मनुष्य, बाहरी बदले तब संसार।’

लेकिन इस आंतरिक परिवर्तन के लिए कवि ने अरविंद दर्शन पर आधारित जिस अंतश्चैतन्य का सहारा लिया है, वह सामाजिक विकास और लोक कल्याण का कोई वैज्ञानिक और तर्क संगत मार्ग नहीं है। ‘लोकायतन’ के अंत में ‘उत्तर स्वप्न’ के अंतर्गत कवि संस्कृति के रथ को राजनीति के आगे चलता हुआ दिखाकर परस्पर विरोधी शिविरों को मिलाकर मंगलमय जन भू की रचना में लीन दिखाता है। यह कार्य भागवत चेतना अर्थात् विश्व चेतना द्वारा सम्पन्न होता है। इस प्रकार ‘लोकायतन’ में कवि की शुभेच्छा पर आधारित एक भव्य स्वप्न प्रस्तुत हुआ है, जो व्यावहारिक न होने पर भी आकर्षक है।

छंद विधान

भाषा, अप्रस्तुत विधान, बिम्ब-विधान, प्रतीक योजना आदि की भाँति ही छंद भी कविता के अनिवार्य बाह्य उपकरण हैं। युगानुकूल नये भाव, नयी संवेदना या नवीन विषय वस्तु के दबाव से इनके रूपस्वरूप में भी निरंतर परिवर्तन होता गया है। छायावाद तक आते-आते छंद विधान में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की गई। प्रगीत काव्य की अपेक्षाओं और कविता की गेयता को सुरक्षित रखते हुए प्रसाद, निराला और पंत ने नवीन छंदों के निर्माण के साथ ही परम्परागत मात्रिक छंदों में यथेष्ट परिवर्तन किए हैं। इस दृष्टि से निराला ने छंदों से मुक्ति की घोषणा कर मुक्त छंद के रूप में स्वच्छंद छंद की अपनी क्रांतिकारी मान्यता का प्रतिपादन ‘परिमल’ की भूमिका में करते हुए लिखा है, ‘मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना।’ इस दृष्टि से निराला का प्रयास सर्वाधिक सराहनीय है।

निराला ने अपनी प्रबंधात्मक लम्बी कविताओं में प्रायः परम्परागत शास्त्रीय छंदों का प्रयोग किया है। बावजूद इसके उन्होंने भावों के उन्मुक्त प्रवाह को कहीं अवरूद्ध नहीं होने दिया है। इसके लिए आप ‘राम की शक्तिपूजा’ के प्रथम पृष्ठ के पहले पैरे को एक बार अवश्य देख लें। इसमें निराला ने विभिन्न विराम चिह्नों के माध्यम से धारा प्रवाह युद्ध वर्णन करते हुए लम्बे अंतराल के बाद पूर्ण विराम की व्यवस्था की है। परम्परागत छंदों के प्रयोग में उन्होंने इसी विधि का सर्वत्र सहारा लिया है। इस दृष्टि से निराला के बाद पंत छायावादी कवियों में विशेष रूप से उल्लेनीय हैं।

पंत ने अपनी आरंभिक रचनाओं में तुक के प्रति अधिक आग्रह प्रकट किया है। लेकिन हिंदी के मात्रिक छंदों में यति, गति और यथेष्ट मात्रा परिवर्तन के द्वारा इसे भावानुकूल बनाने का भी प्रयास किया है। ‘पल्लव’ की ‘परिवर्तन’ शीर्षक लम्बी कविता में इनका छंद विधान अत्यंत सराहनीय माना जा सकता है। ‘गुंजन तक पहुँचकर इनकी छंद प्रयोग संबंधी प्रौढ़ता एक नया रूप ग्रहण करती है। इस संग्रह की ‘नौका विहार’, ‘एक तारा’ आदि कविताओं का छंद विधान अपनी गति, यति, तुक और आंतरिक लय के कारण अत्यंत प्रभावोत्पादक बन गया है। नौका विहार का एक उदाहरण है :

सैकत सै पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल,

लेटी है भ्रांत क्लांत, निश्चल! ..

मृदु मंद मंद मंथर मंथर लघु तरणि हंसिनो सी सुंदर

.. तिर रही खोल पालों के पर! ….

यहाँ छंद की गति, यति, तरन्नुम और तुक के साथ एकाकार हो गयी है। गंगा की शांत और उज्ज्वल धारा में मंदगति से तिरती हुई छोटी नौका के दृश्य को विशिष्ट पद योजना में आबद्ध कर कवि ने छंद के माध्यम से उन्मुक्त कर दिया है।

अपने स्वर्ण किरण’, ‘स्वर्ण धूलि’, ‘अतिमा’ आदि ‘स्वर्ण काव्य’ के अंतर्गत पंत ने रीतिकालीन एवं द्विवेदी युगीन छंद रूढ़ियों से मुक्ति प्राप्त कर अनेक परम्परागत छंदों के परस्पर मिश्रण द्वारा लयों के आधार पर नवीन छंदों का निर्माण किया है। इनमें रोला, अरिल्ल, हरिगीतिका, त्राटक, पद्धरि, चौपाई, सखी आदि छंद विशेष उल्लेखनीय हैं। तुकांत छंदों के साथ ही पंत ने अपने स्वर्ण काव्य, विशेषतः काव्य रूपकों में अतुकांत छंदों का भी प्रयोग किया है। इनके अतुकांत छंदों में यति के नियमों की उपेक्षा अवश्य है, लेकिन विराम चिह्नों के माध्यम से गति और लय का पूरा ध्यान रखा गया है। अतुकांत के साथ ही अपने स्वर्ण काव्य में पंत ने मुक्त छंद अर्थात स्वच्छंद छंद का भी प्रयोग किया है। इनमें कहीं-कहीं कृत्रिमता भी आ गयी है। जैसे :

‘यह जो भी हों,

टहनी के प्रत्येक मोड़ पर

जीवन की पग/डंडी के प्रत्येक/मोड़ पर

आज चटक उठ/ती चिनगारी,

प्रकृति मूक वि/द्रोह से भरी।’

यहाँ ‘पग’ के बाद ‘डंडी’, ‘उठ’ के बाद ‘ती’ और ‘वि’ के बाद ‘द्रोह’ से नयी पंक्ति का आरंभ छंदमुक्तता का भले ही परिचायक हो लेकिन इससे भावना का स्वच्छंद प्रवाह बाधित होता है। ‘कला और बूढ़ा चाँद’ की कविताओं में पंत ने मुक्त छंद का अपेक्षाकृत अधिक सफल प्रयोग किया है। मुक्त छंद के साथ ही नयी कविता की गद्यात्मकता का भी इन कविताओं में स्पष्ट प्रभाव लक्षित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ :

‘ओ गीत खगी

ये बोलते पंख मुझे भी दो,

जो गाते रहते हैं, – 

और, वह मधु की गहरी परख, –

मैं भी

मधुपायी उड़ान भरूँगा।’

इस प्रकार छंद के क्षेत्र में भी पंत ने पर्याप्त प्रयोग किए हैं। बावजूद इसके, छंद के क्षेत्र में निराला की प्रयोगधर्मिता पंत में नहीं मिलती। निराला ने गति-यति, गण, मात्रा, तुक, गुरू लघु के सभी बंधनों का परित्याग कर छंद की एक नयी भूमि की प्रतिष्ठा की थी, जिसे पंत ही नहीं, नयी कविता के कवि भी उपलब्ध नहीं कर सके हैं। फिर भी पंत की भावभूमि और समग्र शिल्प विधान को देखते हुए इनका छंद विधान भी अत्यंत सफल कहा जा सकता है।

सारांश

इस इकाई को पढ़ने के बाद आपने पंत की भाषा-शैली संबंधी विशेषताओं की विस्तृत जानकारी अवश्य प्राप्त कर ली होगी। हिंदी खड़ी-बोली को भारतेंदु युगीन लोक प्रचलित काव्य-भाषा और द्विवेदी युगीन व्याकरण सम्मत गद्यात्मक काव्य-भाषा के क्षेत्र से निकाल कर संस्कृतनिष्ठ काव्यात्मक-भाषा का रूप देने में पंत ने विशेष योगदान किया है। शब्दावली, शब्द चयन, शब्द-योजना, नवीन शब्द निर्माण की कवि सुलभ क्षमता के साथ ही पंत ने पदों में लय एवं गति की योजना द्वारा अपनी काव्यात्मक भाषा को जो संगीतात्मकता प्रदान की है, वह उसे प्रचलित लोक भाषा से भिन्न एक विशिष्ट भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करती है। अपनी भावाभिव्यक्ति में आड़े आने पर इन्होंने हिंदी गद्य के व्याकरणिक नियमों के साथ ही संस्कृत के संधि, प्रत्यय आदि से संबद्ध नियमों का भी उल्लंघन करने में किसी तरह हिचक नहीं की है। संज्ञा शब्दों की अंतरात्मा की रक्षा के लिए इन्होंने हिदीं के लिंग एवं क्रिया संबंधी नियमों की पर्याप्त उपेक्षा की है।

‘पल्लव’ के रचनाकाल तक पंत की काव्य-भाषा का जो स्वरूप निर्धारित हो चुका था, आगे उसका निरंतर विकास हुआ है। ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ की कुछ कविताओं को अपवाद के रूप में छोड़ दिया जाए तो ‘लोकायतन’ तक इनकी काव्य-भाषा के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं दिखायी देता। ‘कला और बूढ़ा चाँद’ में गति, यति, लय और तुक का आग्रह छोड़ने के बावजूद शब्दावली, शब्द-चयन और शब्द-योजना में पंत की कविता में किसी प्रकार का अंतर नहीं दिखाई देता। भाषा का यह स्वनिर्मित, सुनिर्धारित ढाँचा जहाँ एक ओर पंत की निरंतर काव्य-रचना में सहायक बना है, वहीं दूसरी ओर ‘लोकायतन’ जैसी लोकोन्मुख रचना में विषयानुकूल भावाभिव्यक्ति में बाधक भी सिद्ध हुआ है।

निराला की विषयानुकूल काव्य- भाषा की विविधता पंत में नहीं मिलती। ‘जूही की कली ‘ ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘सरोज स्मृति’ जैसी अनेक कविताओं में परिमार्जित संस्कृतनिष्ठ काव्य-भाषा के प्रयोक्ता निराला ने ‘बेला’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘नये पत्ते ‘ आदि की कविताओं में जिस लोक प्रचलित शब्दावली, मुहावरों, आंचलिक रंगत से युक्त हिंदी खड़ी बोली के जातीय स्वरूप को प्रस्तुत किया है, वह पंत के काव्य में दुर्लभ है। बाद में आने वाली कवियों की नयी पीढ़ी ने पंत की जगह निराला की काव्य-भाषा को अपना आदर्श बनाया। अतः कहा जा सकता है कि पंत की काव्य-भाषा की एक रूपता, एकरसता और एकतानता उसके आकर्षण को कम करती है।

काव्य-भाषा की भाँति ही पंत ने काव्य शैली की दृष्टि से भी अपनी एक अलग पहचान बनाई है। इस दृष्टि से इनका अप्रस्तुत विधान विशेष उल्लेखनीय है। इस इकाई में पंत के अप्रस्तुत विधान को सम्मूर्तन विधान शीर्षक से विवेचित विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। इन्होंने मूर्त के लिए अमूर्त और अमूर्त के लिए मूर्त अप्रस्तुतों की योजना द्वारा कथ्य को जिस प्रकार सम्मूर्तित या व्यक्त किया है, वह छायावादी काव्य-धारा के लिए अप्रतिम है।

आप के अध्ययन की सुविधा के लिए पंत की अप्रस्तुत योजना को इस इकाई में चार वर्गों में विभक्त कर विवेचित विश्लेषित किया गया है,

  • मूर्त के लिए मूर्त अप्रस्तुतों की योजना, 
  • मूर्त के लिए अमूर्त अप्रस्तुतों की योजना, 
  • अमूर्त के लिए मूर्त अप्रस्तुतों की योजना और
  • अमूर्त के लिए अमूर्त अप्रस्तुतों की योजना।

इनके समुचित अध्ययन द्वारा आप पंत के सम्मूर्तन विधान या अलंकार-विधान की सभी विशेषताओं से परिचित हो सकेंगे। इस सम्मूर्तन विधान के साथ ही पंत ने मानवीकरण, विशेषण विपर्यय, ध्वन्यार्थ व्यंजना जैसे पाश्चात्य काव्य में प्रयुक्त अलंकारों का भी कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है, जो छायावादी काव्य के अत्यंत प्रिय अलंकार है। पंत ने अपने काव्य में विशिष्ट पद योजना के द्वारा गति, नाद एवं लय की भी अत्यंत प्रभावशाली व्यंजना की है, इस तथ्य को भी शैली के अंतर्गत इस इकाई में विस्तार से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

शैली की दृष्टि से पंत का बिम्ब और प्रतीक विधान भी उल्लेखनीय है। आपके अध्ययन की सुविधा के लिए पंत के बिम्ब विधान को चाक्षुष, श्रव्य, स्पर्श, घ्राण या गंध, और आस्वाद्य बिम्बों की पाँच श्रेणियों में विभक्त कर विवेचित विश्लेषित किया गया है। इनके अलग-अलग अध्ययन से आप पंत बिम्ब निर्माण के कौशल से अच्छी तरह परिचित हो सकेंगे।

‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ की रचना के बाद पंत की काव्य-शैली लगातार अधिकाधिक प्रतीकात्मक होती गयी है। इसे स्पष्ट करने के लिए इनकी प्रतीक योजना संबधी विशेषताओं का आलोचनात्मक विवेचनविश्लेषण इस इकाई में किया गया है। इनकी योजना से जहाँ एक ओर पंत के काव्य में प्रभावोत्पादकता बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर दुरूहता का दोष भी समाविष्ट हुआ है। प्रतीकों के संबंध में इस तथ्य की जानकारी आपके लिए उपयोगी हो सकती है।

प्रस्तुत इकाई के अंत में पंत द्वारा प्रयुक्त काव्य-रूप और इनकी छंद विधान संबंधी विशेषताओं पर भी विचार किया गया है। इस प्रक्रिया में कवि के प्रगीत काव्य संबंधी विशेषताओं के साथ ही प्रबंधात्मक रचनाओं, विशेषतः काव्य-रूपकों की विशेषताओं को भी उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। प्रबंधात्मकता की दृष्टि से पंत का ‘लोकायतन’ विशेष उल्लेखनीय है। ‘कामायनी’ के बाद ‘लोकायतन छायावादी काव्य धारा का दूसरा महाकाव्य है। अतः इसकी रचना शिल्प संबंधी विशेषताओं को विशेष रूप से उद्घाटित किया गया है।

शैली की दृष्टि से छंद-विधान का भी अपना विशेष महत्व है। निराला और प्रसाद की भाँति पंत ने भी इस दृष्टि से कुछ नये प्रयोग किए हैं। पंत ने परंपरागत मात्रिक छंदों में अपेक्षित परिवर्तन, कहीं दो बंदों के मिश्रण और कहीं नवीन छंद योजना द्वारा अपने कौशल का परिचय दिया है। आवश्यकता के अनुकूल इन्होंने तुकांत और अतुकांत दोनों प्रकार के छंदों का प्रयोग कुशलतापूर्वक किया है।

निराला के प्रभाव या उनकी प्रतिद्वंद्विता के वशीभूत पंत ने ‘स्वर्ण किरण’, ‘स्वर्ण धूलि’, ‘अतिभा’ आदि संग्रहों की कुछ कविताओं में मुक्त छंद का भी प्रयोग किया है। ‘कला और बूढ़ा चाँद’ की अधिकांश कविताएँ मुक्त छंद में लिखी गयी हैं। छंद प्रयोग, विशेषतः मुक्त छंद-योजना की दृष्टि से पंत पर समुचित विचार के लिए निराला से इनकी तुलना भी की गयी है। फलस्वरूप पंत की छंद प्रयोग संबंधी उपलब्धियों के साथ इनकी त्रुटियों को उजागर करने का प्रयास भी इस इकाई में किया गया है। इससे आपको निराला की मुक्त छंद संबंधी अवधारणा और उसके महत्व को समझने में सहायता मिलेगी और पंत के छंद-प्रयोग का आलोचनात्मक निरीक्षण-परीक्षण भी आप आसानी से कर सकेंगे।

प्रश्न

  • पंत की काव्य-भाषा से संबंधित विशेषताओं पर प्रकाश डालें।
  • सम्मूर्तन विधान की दृष्टि से पंत की अप्रस्तुत योजना के महत्व को उद्घाटित करें।
  • बिम्ब-योजना की दृष्टि से पंत के काव्य की विशेषताओं को स्पष्ट करें।
  • पंत के काव्य में छंद विधान के महत्व पर प्रकाश डालें।
  • शब्द शिल्पी के रूप में पंत के महत्व को रेखांकित करें।

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