ठाकुर का कुआँ : मुंशी प्रेमचंद

प्रेमचंद ने इस कहानी के माध्यम से भारतीय जातिप्रथा की सबसे घृणित परंपरा अस्पृश्यता (छुआछूत) के कारण तिरस्कार, अपमान और मानवीय अधिकारों से वंचित जीवन जी रहे अछूतों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को अभिव्यक्त किया है। पानी के लिए तरसते अछुत जीवन की वास्तविकता की यह कहानी है।

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • भारतीय समाज में जातिप्रथा के कारण गैर-बराबरी, अभाव, विपन्नता, तिरस्कार, उत्पीड़न को सह रहे तमाम अछूत वर्ग की त्रासदी को जान सकेंगे। उस पर गहराई से सोच सकेंगे। 
  • इंसान ने ही जातिगत भेदभाव के आधार पर गैरबराबरी को बढ़ावा देकर उसे स्थायी रूप देने के लिए अनेकानेक धार्मिक, पारंपारिक, सनातनी ढकोसलों का सहारा लिया और किस प्रकार करोड़ों अछुतों को इन्सान होने के दर्जे से नीचे गिराकर गुलामों का जीवन जीने पर मजबूर किया, इस वास्तविकता को आप जान सकेंगे।
  • अछूत गंगी को पानी के लिए जातिप्रथा और छुआछूत परंपरा की बाधाओं को पार करके, जीवन को दांव पर लगाना पड़ता है, इस सच्चाई से आप परिचित हो सकेंगे।
  • गंगी की अछूत बस्ति में उनका अपना कुआं न होना अछूतों की गरीबी और आर्थिक विपन्नता की स्थिति को दर्शाती है। अछूत बस्ति आर्थिक रूप से इतनी विपन्न क्यों है? के सवाल को भी समझने में यह इकाई आपकी सहायता करेगी।
  • अस्पृश्यता का व्यवहार करने वाले हिंदुओं से संघर्ष करने के स्थान पर गंगी का पलायन करना, समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि जातिप्रथा और अस्पृश्यता निर्मूलन के लिए गंगी द्वारा कड़ा संघर्ष करने की आवश्यकता थी। इससे आप सहमत हो सकेंगे।

प्रेमचंद आधुनिक युग के पहले महत्वपूर्ण लेखक है जिन्होंने दलित समस्या पर सर्वाधिक गहराई से विचार किया है। प्रेमचंद के समकालीन अन्य रचनाकारों में राहुल सांकृत्यायन और निराला ने भी दलित जीवन की भयावह त्रासदी को वाणी दी है, लेकिन सबसे सशक्त रचनाएँ प्रेमचंद ही दे पाए हैं। उन्होंने आधुनिक भारतीय समाज में जातिव्यवस्था के कारण अछूत माने गए दलित समाज के त्रासद अनुभवों को अपने रचना कर्म का विषय बनाया है। ‘ठाकुर का कुआँ,’ ‘सद्गति .’ ‘दूध का दाम,’ । ‘कफन’ आदि कहानियाँ दलित जीवन में व्याप्त अभाव, पीड़ा, उत्पीड़न और दर्द को अभिव्यक्त करती हैं। उनकी कहानियों में छुआछूत का विरोध स्पष्टतः सामाजिक और आर्थिक संदों के रूप में किया गया है। प्रेमचंद मानव-मानव के बीच समानता का पुरस्कार करते हैं, और विशिष्ट जातियों के जन्मगत विशेषाधिकारों का विरोध करते है। मनुष्य का स्थान अच्छे गुण और कर्मों के आधार पर निश्चित होना चाहिए न की जन्म के आधार पर। लेकिन हिंदू धर्म के जिस तर्क के कारण जातियों का विभाजन, विभिन्न जातियों के बीच रोटी-बेटी के व्यवहार का निषेध किया गया, और अछूतों के मानवाधिकारों को छीनकर उनका शोषण किया उच्च कही गई जातियों को न केवल विशेषाधिकार दिए बल्कि उसकी सुरक्षा के लिए कानून बनाकर उन्हें कड़ाई से लागू किया जाता है। जातिव्यवस्था के तहत जन्मना जाति तय होने से व्यक्ति का न केवल सामाजिक दर्जा बल्कि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति भी निश्चित हो जाती है। जाति के आधार पर पेशों का बंटवारा तथा उत्पादन के साधनों पर अधिकार या उससे वंचित किया जाना भी जातिव्यवस्था द्वारा निर्धारित होता है। इस सबके पीछे धर्म का आधार दिया गया है। ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से जातियों की निर्मिति की मनगढंत झूठी कहानी जन्मना जाति निर्धारण के लिए उपयोग में लाई गई। अपने को श्रेष्ठ बनाएँ रखने के लिए इस झूठी कहानी को भाग्य, कर्मफल, पूनर्जन्म के झूठे तर्क का सहारा दिया गया।

अंधविश्वास और शिक्षा के अभाव में निम्न तबका इसे ही अपना प्रारब्ध समझता रहा। ज्ञान और शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने का धर्म के ठेकेदारों का यह छल तब से लेकर आज तक सफल होता आ रहा है। इस धार्मिक छल-कपट, श्रेष्ठता के ढोंग, आर्थिक उत्पादनों पर इनके एकाधिकार और निम्न जातियों को मानवीय अधिकारों संचित किए जाने की साजिशों का पर्दाफाश प्रेमचंद ने अपनी कहानियों के माध्यम से किया है। ‘ठाकुर का कुआं’ कहानी अछूतों के मानव अधिकारों की पूर्ति बिना दयनीय स्थिति में जीने की त्रासदी को चित्रित करती है। वर्ण – जाति व्यवस्था जैसी अतीशय अमानुषिक रचना से हम सभी परिचित हैं। यह कोई अनायास नहीं है कि दलितों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली भारतीय जनसंख्या का साठ प्रतिशत हिस्सा दलित समुदाय है। वर्ण व्यवस्था ने समाज मे असमानता और श्रेणीनुमा ढांचा पैदा करके दलितों को सभी सुख सुविधाओं से वंचित रखा।

शूद्रों और स्त्रियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा, इन्हें संपत्ति रखने के अधिकार से वंचित रखा, शूद्रों (अछूतों) को अन्न की जूठन और कपड़ों की उतरन पर निर्भर रहने को मजबूर किया। कथित ऊँची जाति के कुओं से ये पानी नहीं ले सकते। इनका अपना कुआँ हो नहीं सकता कथित ऊँची जाति की दया पर निर्भर रहकर पानी के लिए तरसना ही इनके जीवन की त्रासदी है। घंटो याचना करने पर किसी सवर्ण का मन पसीजा तो दो चार बाल्टियों से मटके भर देंगे, वह भी एहसान जताते हुए और हजार गलियाँ देकर। पानी जैसी मानव जीवन की मूलभूत जरूरत, जो एक प्राकृतिक संपदा है। लेकिन सवर्णों ने सत्ता और संपत्ति के जोर पर इसे अपने वर्चस्व में कर लिया है। इस वर्चस्व का विरोध करने अथवा इस व्यवस्था को तोड़ने पर अछूतों को गाँव पंचायतों द्वारा अपमानित, उत्पीड़ित किया जाता है या इन्हें मार दिया जाता है। ‘ठाकुर का कुआँ’ दलितों की इसी गंभीर समस्या को उजागर करती है।

सन 1932 में ‘ठाकुर का कुआँ’ में अभिव्यक्त तत्कालीन समय में रही छूआछूत की समस्या आज सन् 2001 में वैसी की वैसी मौजूद है। आज भी दलित ऊँची जाति के कुएँ से पानी नहीं ले सकते। जहाँ सरकारी हैंडपम्प लगे है वहाँ पर उनकी बारी सबसे अंत में सवर्णो द्वारा पानी लेने के बाद ही क्यों आती है? जब तक सवर्ण लोग पानी नहीं भर लेते, किसी दलित की हैंडपम्प को छुने की हिम्मत नहीं होती। यदि मानव अधिकार को हासिल करने के लिए संघर्ष किया जाता है तो, दलितों को सबक सिखाने के लिए और उन्हें उनकी हदें क्या हैं यह जताने के लिए कुम्हेर, बेलछी, लक्ष्मणपुरबाथे जैसे हत्यकांडों द्वारा बली चढ़ाया जाता है। दलितों की पानी की समस्या स्वतंत्रता के चौवन वर्षों के बाद भी दूर नहीं हो पाई। जिसके पीछे जातिगत भेदभाव, निम्न जातियों के प्रति हीन और द्वेष की भावना और अपने श्रेष्ठत्व की अहं भावना जैसी सवर्ण मानसिकता कारणीभूत है।

इस प्रकार की निरंकुश सवर्ण सत्ता अछूतों को बेगारी के बदले में घृणा व तिरस्कार देती है। इस तिरस्कार और घृणा की उत्पत्ति हिंदू धर्मप्रणित विचारधारा से हुई है, जो असमानता, ऊँचनीच के भेदभाव, छुआछूत, गुलामी को प्रश्रय देती है। जिसमें स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा और न्याय का पूर्ण नकार है। वर्ण श्रेष्ठता के क्रम में वर्गों के बीच अधिकार सम्पत्ति व सत्ता का बंटवारा है। वर्ण व्यवस्था में सबसे निम्न श्रेणी में शूद्र और अतिशूद्र हैं। उनका काम है तीनों वर्गों की सेवा करना, बदले में जो कुछ बचाखुचा अन्न मिले उस पर निर्वाह करना, उतरन के कपड़ों से तन को ढंकना और बहिष्कतों की तरह गाँव की परिसीमा से बाहर रहना। जहाँ इनकी बस्तियाँ हैं उनमें केवल सूरज की रोशनी, गर्मी-सर्दी और बारिश ही बेरोक-टोक आ सकती है। इन्हें समाज की मुख्यधारा में कभी शामिल नहीं होने दिया। ना इनके पास जमीन है न अन्य प्रकार की कोई स्थाई संपत्ति, बेगारी पर काम करते हुए पीढ़ियाँ बीत जाती हैं फिर भी जीने के लिए उत्पादन के किसी साधन पर इनका अधिकार नहीं हो पाता। जाति प्रथा के कारण परंपरागत धंधे जो मजबूरन ये करते हैं, उससे आमदनी इतनी नहीं होती कि आर्थिक स्थिति बेहतर हो सके। पेशों के जातिगत बंटवारे के कारण आज भी दलित समुदाय मैला सफाई जैसा अमानुष और अत्यंत गंदा काम करने के लिए बाध्य हैं। इस मैला सफाई के काम के बदले में एक सवर्ण परिवार से दस पंद्रह रुपये माहवार या हररोज एक रोटी मजदूरी के तौर पर दी जाती है। मैला ढोने जैसे घृणित कार्य से इन्हें मुक्ति तभी मिल सकती है जब ये गाँवों से पलायन करके शहरों में स्थलांतर करेंगे। प्रेमचंद ने इस कहानी में अछूतों के साथ हो रहे छुआछूत के व्यवहार के कारण अछुत पानी को छू नहीं सकते या कुएं से पानी नहीं ले सकते। जैसी सामाजिक समस्या की पीड़ात्मक अनुभूति को अभिव्यक्ति दी है।

कहानी: ठाकुर का कुआँ

1
जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आयी । गंगी से बोला- यह कैसा पानी है ? मारे बास के पिया नहीं जाता । गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाये देती है !
गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी । कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था । कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी । जरुर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से?
ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा ? दूर से लोग डाँट बतायेंगे । साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परंतु वहाँ भी कौन पानी भरने देगा ? कोई तीसरा कुआँ गाँव में है नहीं।
जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला- अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता । ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ ।
गंगी ने पानी न दिया । खराब पानी से बीमारी बढ़ जायगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती हैं । बोली- यह पानी कैसे पियोगे ? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाये देती हूँ।
जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- पानी कहाँ से लायेगी ?
ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे?
‘हाथ-पाँव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा । बैठ चुपके से । ब्रह्म-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक के पाँच लेंगे । गरीबों का दर्द कौन समझता है ! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे ?’
इन शब्दों में कड़वा सत्य था । गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया ।

2
रात के नौ बजे थे । थके-माँदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पाँच बेफिक्रे जमा थे। मैदानी बहादुरी का तो अब न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं । कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमे में रिश्वत दी और साफ निकल गये।कितनी अक्लमंदी से एक मार्के के मुकदमे की नकल ले आये । नाजिर और मोहतमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती । कोई पचास माँगता, कोई सौ। यहाँ बेपैसे- कौड़ी नकल उड़ा दी । काम करने ढंग चाहिए ।
इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुँची ।
कुप्पी की धुँधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी । गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतजार करने लगी। इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है । किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते ।
गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा- हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं ? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ? यहाँ तो जितने है, एक- से-एक छँटे हैं । चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें । अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की भेड़ चुरा ली थी और बाद मे मारकर खा गया । इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते है । काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है । किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे है, हम ऊँचे । कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!
कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई । गंगी की छाती धक-धक करने लगी । कहीं देख लें तो गजब हो जाय । एक लात भी तो नीचे न पड़े । उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साये मे जा खड़ी हुई । कब इन लोगों को दया आती है किसी पर ! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनो लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी । इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं ?
कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी । इनमें बात हो रही थी ।
‘खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।’
‘हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है ।’
‘हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं।’
‘लौडिंयाँ नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पातीं ? दस-पाँच रुपये भी छीन- झपटकर ले ही लेती हो। और लौडियाँ कैसी होती हैं!’
‘मत लजाओ, दीदी! छिन-भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता ! यहाँ काम करते- करते मर जाओ; पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता ।’
दोनों पानी भरकर चली गयीं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आयी। बेफिक्रे चले गऐ थे । ठाकुर भी दरवाजा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो । गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।
उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला । दायें-बायें चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सुराख कर रहा हो । अगर इस समय वह पकड़ ली गयी, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं । अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया ।
घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता । जरा भी आवाज न हुई । गंगी ने दो- चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे ।घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा । कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींच सकता था।
गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया । शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।
गंगी के हाथ से रस्सी छूट गयी । रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं ।
ठाकुर कौन है, कौन है ? पुकारते हुए कुएँ की तरफ आ रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी ।
घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाये वही मैला-गंदा पानी पी रहा है।

कहानी का आशय

जोखू बीमार है, और प्यास के कारण बेहाल है। गंगी कल रात जो पानी भर लायी थी, तब उसमें बांस नहीं थी। लेकिन जब दूसरे दिन जोख पानी पीने लगता है तो उसमें से सड़ी हुई बांस आती है। गंगी उसे पानी पीने से रोक देती है। उसे डर है कहीं. जोख और ज्यादा बीमार न हो जाए। वह ताज़ा पानी भर लाने की बात करती है। लेकिन जोखू उसे मना करता है कि ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा। नाहक हाथपांव तुडवा आयेगी इसलिए उसे वह चुपचाप बैठी रहने के लिए कहता है। वह जानता है कि यह असंभव है कि गंगी ठाकुर या साहू के कुएँ पर चढ़कर पानी ले आ सकती है। गंगी जिद करती है कि वह कम से कम मांगकर ही सही एक लोटा पानी ले आएगी। वह देर तक इंतजार करती है और जब सभी लोग सोने चले जाते है, ठाकुर दरवाजा बंद करके अंदर चला जाता है तो वह लपककर कुएँ पर चढ़ जाती है। एक . घड़ा पानी भी वह खींच लेती है। घड़ा जगत पर रखने ही वाली होती है कि ठाकुर का दरवाजा खुलता है। गंगी देखती है कि शेर से भी भयंकर मुंह वाला ठाकुर दरवाजे पर खड़ा है। दशहत के मारे गंगी के हाथ से रस्सी छूट जाती है और घड़ा पानी में गिरने की आवाजे सुनाई देती है। गंगी पूरी ताकत से कुंए की जगत से कुद कर भागती हुई घर पहुंचती है। वह देखती है कि जोखू लोटा मुंह को लगाए वही मैला गंदा पानी पी रहा है।

कहानी यहाँ समाप्त होती है। ‘एक बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न छोड़ देती है, पाठकों के लिए। यह प्रेमचंद की सबसे छोटी कहानी है, लेकिन एक ज्वलंत समस्या की ओर संकेत करती है। जाति प्रथा की जकड़न उसकी अमानुषीकता और अछूतों की . दीनहीन स्थिति को उजागर करती है।

जातिप्रथा और छुआछुत

‘ठाकुर का कुआं’ में चित्रित घटना, मात्र एक घटना या प्रसंग नहीं है, यह दलित जीवन की त्रासदी की अभिव्यक्ति है। त्रासदी यह है कि अछूतों को ठाकुर या साहू के कुएँ से पानी लेने का अधिकार नहीं। अछत जहाँ से पानी भरते हैं उस गड्ढे में किसी जानवर के गिरकर मरने से पानी दूषित होकर उसमें से सड़ांध आ रही है। जोखू बीमार है प्यास के मारे उससे रहा नहीं जा रहा है। जो पानी गंगी एक दिन पहले भर लाई थी, पीने के काबिल नहीं रहा, लेकिन गंगी या जोखू करें तो क्या करे? दूषित गंध-मारते पानी को पीने से जोखू की बीमारी और बढ़ सकती है। इसलिए गंगी उसे पानी पीने से रोक देती है। ठाकुर के कुएँ से पानी लेने की ठानकर वह घड़ा और रस्सी लेकर रात के अंधेरे में छुपकर ठाकुर के कुएँ से पानी खींच भी लेती है लेकिन तभी ठाकुर की कोठी का दरवाजा खुलता है ‘कौन है, कौन है’ कडकती आवाज में पुकारते ठाकुर को दरवाजे पर खड़े देखकर, डर के मारे घड़ा और रस्सी छोडकर गंगी जान बचाकर भाग निकलती है।

जाति प्रथा और छुआछूत के कारण अछूत किस दुर्दशा का शिकार है और वे पानी जैसी जीवन की बुनियादी जरूरत के लिए किस प्रकार सवर्णों की दया पर निर्भर है, इसे प्रेमचंद ने प्रस्तुत कहानी के द्वारा उजागर किया है। वैसे छुआछूत की प्रथा की निर्मिति के कारणों पर कोई प्रकाश प्रेमचंद ने इस कहानी के माध्यम से नहीं डाला। . लेकिन इस कहानी के अध्ययन के साथ-साथ जाति प्रथा की निर्मिति हिंदू धर्म की । जिस विचारधारा की उत्पत्ति है उसे समझना हमारे लिए नितांत जरूरी है। आइये देखें वह कैसी अमानवीय धार्मिक अवधारणा है, जो कि मानव-मानव के बीच में इस कदर असमानता व भेदभाव का विषैला बीज बोती है, जिसके कारण आज तक जाति व्यवस्था न केवल कायम है बल्कि छुआछूत के कारण देश की आबादी की एक चौथाई से ज्यादा जनसंख्यां अपनी ही भूमि पर बहिष्कृतों की तरह जीवन जीने के लिए बाध्य है। क्या कोई धर्म ऐसी भेदभावपूर्ण समाज रचना के लिए धर्मग्रंथों का निर्माण तक कर डालता है, और उसी के आधार पर पूनर्जन्म, भाग्य, कर्मफल की एक झूठी कहानी तैयार करके निम्न जाति में जन्म लेने की. नियती के साथ जोड़ देता है। धर्मग्रंथों का हवाला देकर हिंदू धर्म ने न केवल जाति का निर्माण किया बल्कि इन्सानों को उच्च और निम्न श्रेणियों में विभाजित करके प्राकृतिक संसाधनों पर उनके अधिकारों को भी तय किया हैं।

अछूतों को संपत्ति अर्जित करने और संपत्ति संग्रह का अधिकार नहीं है, यह स्पष्ट करने के लिए जंगल, जमीन पर किसी भी प्रकार के अधिकार में उसे वंचित किया। ये प्राकृतिक संसाधन केवल जीवन की आवश्यकता ही नहीं है बल्कि इसके एकाधिकार द्वारा संपत्ति व सत्ता भी हासिल होती है। धर्मग्रंथ यह भी कहते है कि पिछले जन्म में किए गए बुरे कर्मों के कारण इस जन्म में व्यक्ति अछूत के रूप में जन्म लेता है। इसलिए पूर्वजन्म के फलस्वरूप अब अछूत को इस जन्म में तीनों उच्च वर्गों की सेवा करना और बदले में उत्पीडन, शोषण, अभाव, अपमान और तिरस्कार झेलना पड़े तो इसे अपना भाग्य समझना चाहिए।

हिंदू धर्मशास्त्र के अनुसार व्यवहार करने पर अछूत अगले जन्म में उच्चजाति में जन्म ले सकता है। यह हिंदू धर्म की मान्यता है। जिस कर्मफल, पुनर्जन्म सिद्धान्त ने वर्तमान जीवन में दलितों को अभाव, अपमान और घृणा सहने के लिए मजबूर किया । वह मानवनिर्मित धर्म और शास्त्र की उपज है, जो मानव को न केवल गुलाम बनाए रखता है बल्कि सदियों तक उसके आर्थिक अधिकार का निर्धारण भी करता है। एक इंसान का दूसरे को गुलाम बनाए रखने का यह षडयन्त्र आज तक इसीलिए कामयाब रहा है। दलित महिला सवर्णो द्वारा बलात्कार की शिकार इसलिए होती है, क्योंकि मनुस्मृति ने लिखित आदेश के रूप में तथाकाथित उच्च जातियों को निम्न जातियों की स्त्रियों के यौन शोषण का अधिकार दिया है। मनुस्मृति हिंदू धर्म की आचार संहिता मानी गई है और उसमें बताए विधानों का हजारों वर्षों से कड़ाई से पालन . किया जा रहा हैं। इस अधिकार प्रभुता और अहं के कारण आज भी सवर्ण पुरूष दलित महिलाओं को भोग की वस्तु समझते हैं। यह दलित स्त्रियों की अस्मिता को नष्ट करके दलित समुदाय में हीन भावना पैदा करने की कोशिश हैं।

जिससे वे अधम स्थिति से ऊपर उठने का प्रयास ही न कर सके। सभी अस्पृश्यों का जीवन स्तर गरीबी की रेखा के नीचे क्यों हैं? वह इसलिए है कि अस्पृश्यता और गरीबी का संबंध एक सिक्के के दो पहलुओं जैसा है। अछूतों.की गरीबी की जड़े हिंदू धर्म से जुड़ी हैं, हिंदू  धर्म जन्मना जाति तय करता है और अछूतों का इनके जन्म के साथ ही पेशा तय हो जाना इसी. कट्टरता का ही परिणाम है। जो कि अछूतों को इतनी भी आमदनी देने वाले. नहीं है, जिससे उनकी आर्थिक निर्भरता दूर हो सके और वे बेहतर स्थिति में जी संकें।

जातिभेद उन्मूलन तथा दलित अस्मिता का आंदोलन

अछूतों के प्रति सवर्ण समुदाय किस कदर अमानुषिक और असंवेदनशीनल है इसकी हजारों हजार घटनाएँ हमारे इतिहास के पन्नों पर बिखरी पड़ी हैं। मूलभूत अधिकारों से वंचित अछूत समाज हजारों सालों से बहिष्कृतों का जीवन जी रहा है। पानी और अन्न के लिए वह हमेशा सवर्ण समाज पर निर्भर रहा क्योंकि उत्पादन के साधनों पर सवर्णों की सत्ता रही। जिस सवर्ण समुदाय की सत्ता में उत्पादन प्रणाली और प्राकृतिक संसाधन रहे है, उन्हीं के अधीन रहकर ही अछतों को जीना पड़ रहा है। दलित जीवन की वास्तविकता को कलमबद्ध करके इस गंभीर प्रश्न के प्रति सर्वप्रथम ध्यान आकर्षित करने का कार्य प्रेमचंद ने किया है। प्रेमचंद हिंदी के प्रगतिशील लेखक संघ के एक सन्माननीय सदस्य थे और प्रगतिशील विचारधारा से विकसित चेतना दृष्टि से उन्होंने दलितों के साथ हो रहे अन्याय को रचनात्मक अभिव्यक्ति दी है।

प्रेमचंद जब.ठाकुर का कुआं की रचना कर रहे थे तब डॉ. आंबेडकर ने दलित अस्मिता के लिए दलित मुक्ति संघर्ष छेड़ा था। जातिभेद के कारण दलितों के सदियों से हो रहे शोषण और अपमान के विरोध में उन्होंने सामाजिक आंदोलन का सूत्रपात किया। महाराष्ट्र के महाड गाँव में 1927 में चवदार तालाब पर मानव अधिकारों को प्राप्त करने के लिए अभिजात्य सनातनी वर्ग के विरोध में पहला ऐतिहासिक संघर्ष . . छेड़कर दलितों में चेतना जगाकर उनमें अपने अधिकारों के प्रति अहसास जगाया। हजारों की संख्या में अछूतों ने डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में नासिक के कालाराम मंदिर प्रवेश का सत्याग्रह किया। निश्चित तौर पर तो नहीं, लेकिन इस आंदोलन के प्रभाव से प्रेमचंद के दृष्टिकोण में जरूर परिवर्तन आया दिखाई देता है। जिसे हम उनकी दलित जीवन संबंधी कहानियों में आई नयी चेतना और तेजस्विता में देख सकते हैं। सन् 1937 में ‘सद्गति’, 1932 में ‘ठाकुर का कुआं’ और 1934 में ‘दूध का दाम’ जैसी कहानियाँ लिखकर प्रेमचंद ने इसका प्रमाण दिया। राष्ट्रीय आंदोलन उस समय अपने पूर्ण जोर पर था। उपनिवेशवाद के खिलाफ महात्मा गांधी और अन्य नेतागण अंग्रेजों से टक्कर दे रहे थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक तरफ महात्मा फुले, . आंबेडकर और पेरियार वर्णाश्रम धर्म, जातिप्रथा के निर्मूलन, ब्राह्मणवाद के अंत के लिए लड़ रहे थे, तो दूसरी ओर नेहरू, गांधी, पटेल, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, मदन मोहन मालवीय और लोकमान्य तिलक जैसे नेता ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ रहे थे।

वर्णाश्रम और जातिप्रथा को नष्ट किए बिना ही आदर्श राष्ट्र बनाने का स्वप्न देख रहे थे। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के एजेंडे पर अस्पृश्यता निर्मूलन, जातिभेद की समाप्ति जैसे प्रश्न उभरे ही नहीं थे। कांग्रेस के राजनीतिक सम्मेलनों के साथ होने वाली सामाजिक कान्फ्रेंस में जब सामाजिक, सांस्कृतिक सुधारों के तहत जातिप्रथा निर्मूलन या बालिकाओं के विवाह पर पाबंदी लगाने वाला बिल चर्चा में आया तो भारतीय असन्तोष के जनक के तौर पर पहचाने जाने वाले लोकमान्य तिलक ने, सनातनी मूल्यों को बचाने के लिए. इस प्रगतिशील बिल का तीव्र विरोध किया था। गरमदल के नेता इसके बाद कांग्रेस के राजनीतिक सम्मेलनों के साथ-साथ होने वाली सामाजिक कान्फ्रेंस करने पर रोक लगाने में सफल हो गए थे। उनका मानना था कि सामाजिक प्रश्नों को स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात भी सुलझाया जा सकता है।

जबकि डॉ. आंबेडकर, पेरियार, अछुतानंद राष्ट्रीय आंदोलन के इस ब्राह्मणवादी, सनातनी चरित्र को समझ चुके थे और इसलिए सामाजिक और आर्थिक समानता के लिए संघर्षरत थे। सामाजिक सुधार के प्रति सवर्ण नेताओं के मन में कोई आस्था नहीं थी। इसीलिए गरम दलीय राष्ट्रवादियों ने राजनीतिक ध्येय की आड़ में सामाजिक सुधारों का विरोध किया था। और उच्चवर्णियों के राजनीतिक हेतु के प्रति शूद्रों के मन में तमाम शंकाए थी। इस संबंध में शरद पाटिल जो एक मार्क्सवादी विचारक होकर भी फुले-आंबेडकर की विचारधारा के साथ समन्वय करने से ही सामाजिक तथा आर्थिक बदलाव की संभावनाएँ देखते हैं, ने कहा है “भारतीय पूंजीवादी और बुद्धिजीवी वर्ग । स्वतंत्रता आंदोलन में सबसे अधिक सक्रीय रहा है। भारतीय पूंजीपति बनिया और बुद्धिजीवी ब्राह्मण होने के कारण स्वतंत्रता आंदोलन पर अंत तक ब्राह्मणवादी प्रभाव रहा है।” (शरद पाटिल – मार्क्सवाद – फुले – आंबेडकरवाद पृ. 220) सामाजिक आंदोलन की शुरूआत महात्मा फुले ई.स. 1873 में सत्य शोधक समाज की स्थापना के साथ ही कर चुके थे। ब्राह्मणवादी वर्चस्व को नकारते हुए शूद्र (ब्राह्मणेतर) समाज में अस्मिता का सवाल जोर-शोर से सामने आया।

हजारों वर्षों से संचित असंतोष नये समाज की रचना का ध्येय सामने रखकर सामाजिक संघर्ष में परिणत हुआ। जन्म के. आधार पर और धर्मग्रंथों द्वारा प्रमाणित जाति व्यवस्था, ऊँच-नीच का भेदभाव, अस्पृश्यता जैसी हिंदू धर्माधिष्ठित ब्राह्मणवादी कल्पनाओं पर महात्मा फुले ने जोरदार हमला किया था और इस धार्मिक, सामाजिक संकीर्णता का खंडन करते हुए उन्हें बेबुनियाद सिद्ध किया। उनकी गुलामगिरी, आसूड जैसी सशक्त रचनाओं में उन्होंने ब्राह्मणवाद, ब्राह्मणधर्म की चालाकी, ब्राह्मणों का स्वार्थ आदि की कठोर आलोचना की। ब्राह्मण वर्ग द्वारा थोपी हुई गुलामी को जड़ से नष्ट करने के लिए शूद्र, अछूतों में शिक्षा का प्रसार करना वे महत्वपूर्ण मानते थे। शिक्षा हमें वह दृष्टि दे सकती है जिससे गुलामी, अस्पृश्यता, अन्याय, असमानता पर खड़ी सामाजिक व्यवस्था को खत्म किया जा सकता है। सदियों से ओढ़ी हुई मानसिक दासता को उतारकर फेंका जा सकता है। महात्मा फुले द्वारा प्रेषित इस मानवतावादी विचारधारा के प्रसार से शूद्रों में चेतना का विकास होने लगा था। लोकहितवादी, माधवराव रानडे, गोपालराव देशमुख, रामचंद्रराव धामणस्कर, डॉ. संतूजी लाड, नारायण मेघाजी लोखंडे द्वारा सत्यशोधक समाज के कार्यक्रमों को लागू करने से जनमानस में नई दृष्टि का निर्माण होने लगा था। शूद्रों के मन में आत्मोध्दार की प्रेरणा जागृत हुई। हिंदू धर्म के ब्राह्मणवादी आचार विचार, और सनातनी परंपराओं की कड़ी आलोचना होने लगी, जिससे हिंदू सनातनियों को भी हिंदू धर्म में सुधार करने की आवश्यकता महसूस हुई।

धर्मसुधार की महसूस की गई इस आवश्यकता से ही प्रार्थना समाज, ब्रह्म समाज, और आर्य समाज ‘जैसी कुछ परिवर्तनवादी संस्थाओं का निर्माण हुआ। महात्मा फुले तथा सत्यशोधक समाज की सबसे प्रशंसनीय और प्रगतिशील सोच की परिणति थी इ.स. 1848 और 1850 में पूना में क्रमशः लड़कियों के लिए और अस्पृश्यों के लिए पाठशालाओं का खोला जाना। सत्यशोधक समाज के समाजकार्यकर्ताओं की मान्यता थी कि अछतों व शद्रों को राजनीतिक स्वतंत्रता से पहले ब्राह्मणवादी वर्चस्व और गुलामी से मुक्त । किया जाना चाहिए अन्यथा स्वाधीनता के बाद इन सामाजिक प्रश्नों को सुलझाने में किसी को भी दिलचस्पी नहीं रहेगी। पाश्चात्य शिक्षा से मिली दृष्टि और विश्व से बढ़े संपर्क के कारण समाज के सबसे निचले तबके, अछूतों में अपनी स्थिति को लेकर हलचल पैदा हो गई थी।

अस्मिता और अस्तित्व की चेतना उभरने लगी थी। दलित समाज की इन आकांक्षाओं को एक व्यवस्थित आंदोलन को सकारात्मक रूप देने का कार्य डॉ. आंबेडकर ने किया। उनके प्रभावशाली नेतृत्व ने हजारों वर्षों से शोषित, उत्पीडित दलित समुदाय में संगठित होकर शिक्षित होने और संघर्ष करने की चेतना जगाई। मानवीय अधिकारों के लिए हजारों अछूतों के साथ ‘महाड के चवदार तालाब का आंदोलन’, ‘नासिक का कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह’ और महाड में ही . ‘मनुस्मृति दहन’ के द्वारा ऐतिहासिक क्रांतिकारी संघर्ष की शुरूआत की थी। दलित अस्मिता के लिए किए गए इस संघर्ष ने अछूतों में अपने अस्तित्व के प्रति अहसास जगाया था। हजारों की संख्या मे दलित डॉ. आंबेडकर के नैतत्व में दलित मक्ति आन्दोलन में शामिल थे। न केवल शहरों में, गाँवों तक में पहुँची चेतना की लहर ने अछूतों के अंदर सदियों से पहनी हुई गुलामी की बेडियों को तोड़ने का साहस पैदा किया।

डॉ.आंबेडकर और उनके अनुयायियों ने इस संघर्ष में सवर्ण हिंदुओं को भी शामिल होने का आह्वान किया था और सत्याग्रहियों से कहा था ‘मंदिर प्रवेश से हमारा प्रश्न सुलझने वाला नहीं है। यह हम जानते हैं, हमारी समस्या व्यापक स्वरूप की है। ये सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, धार्मिक और राजनीतिक है। कालाराम मंदिर सत्याग्रह द्वारा हम उच्चवर्णीय हिंदुओ के समक्ष एक आह्वान खड़ा कर रहे हैं। हिंदू इंसान को इंसान का दर्जा देंगे अथवा नहीं? हम उच्च्वर्णीय हिंदुओं की परीक्षा ले रहे है, हमें पता है कि मंदिर में पत्थर का भगवान है, उसके दर्शन या उसकी पूजा से हमारी समस्या हल नहीं होने वाली। हमारा आज का यह सत्याग्रह हिंदुओं में मानसिक बदलाव लाने का एक प्रयास है।’ (डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा, दादा साहेब गायकवाड को लिखे पत्र से उदधत/ बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर समग्र वाङमय)

हिंदू ब्राह्मणवादियों के समक्ष दलित मुक्ति संघर्ष ने आह्वान खड़ा कर दिया था। डॉ. आंबेडकर के सामने अछूतों की सामाजिक, आर्थिक मुक्ति का प्रश्न अस्पृश्यों के अस्तित्व, अस्मिता और आर्थिक स्वतंत्रता से जुड़ा था। जब कि गांधी, तिलक, सरदार पटेल, सावरकर और अन्य अनेक नेताओं के सामने अछूतों की सामाजिक मुक्ति से अधिक देश की आजादी का प्रश्न महत्वपूर्ण था। स्वतंत्रता के देशव्यापी आंदोलन में शामिल दिग्गज नेताओं में किसी ने भी अस्पृश्यों को सदियों की गुलामी से मुक्त कराना, अपना दायित्व नहीं समझा। जाति-प्रथा और छुआछूत के प्रश्न पर प्रत्येक ने मौन रहकर इसे स्वीकृति ही दी, दलितों को छुआछूत से मुक्ति दिलाने में किसी की भी आस्था नहीं थी। हिंदू नेता जिन हिंदू संस्कारों को ढो रहे थे उस हिंदू मानसिकता, ब्राह्मणवादी विचारधारा और अछूतों के प्रति तिरस्कार की निर्मिति के लिए जिम्मेदार ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों की खोजबीन करके डॉ. आंबेडकर ने विषमतावादी शास्त्र-शुद्ध रीति से समाज रचना की मीमांसा की। उनका जाति-भेद संबंधी लेखन उत्कृष्ट समाजशास्त्रीय दृष्टि से किया गया परिशीलन है।

इस वैज्ञानिक दृष्टि से किए विश्लेषण के आधार पर जो तथ्य सामने आए वह चौकानेवाले थे। उसके मल में वैदिक-बौद्ध संस्कृति द्वंद्व को पाया, जो आर्य-अनार्य द्वंद्व, सगुण-निर्गुण ब्रह्मरूपी द्वंद्व से लेकर आज भी सवर्ण-अछूत द्वंद्व के रूप में अस्तित्व में है। प्रेमचंद जब ‘ठाकुर का कुआं’ की रचना कर रहे थे, तब डॉ.आंबेडकर द्वारा छेड़े दलित अस्मिता आंदोलन ने समाजचिंतकों के सामने भारतीय समाज व्यवस्था व सांस्कृतिक रिश्तों के बारे में नये दृष्टिकोण से सोचने का आह्वान खड़ा कर दिया था। जिसका कुछ-कुछ प्रभाव प्रेमचंद के साहित्य सजन पर दिखाई देता हैं। छुआछुत की समस्या एक अछत परिवार के जीवन को किस प्रकार अभाव, अपमान और असुरक्षितता का पर्याय बना देती है। जीवन की सबसे मूलभूत आवश्यकता ‘पानी’ पर अधिकार न होने और इसे प्राप्त करने के लिए किस प्रकार अपमानजनक तथा भयग्रस्त स्थिति से गुजरना पडता है,

इसके यथार्थ चित्रण द्वारा ‘ठाकुर का कुआं’ कहानी में प्रेमचंद ने अछूत जीवन की त्रासदी को अभिव्यक्ति दी है। ‘ठाकुर का कुआं’ से पहले की रचनाओं में जैसे कि ‘रंगभूमि’ उपन्यास में सूरदास एक चमार नायक है लेकिन, संपूर्ण उपन्यास में कहीं भी अछूत समस्या को अभिव्यक्त नहीं किया गया है। बल्कि मंदिरों में अछूत भी सवर्णों के साथ भजन किर्तन करते हैं और सूरदास के मरने के बाद हुए सहभोज में, एक ही पंगत में ब्राह्मण ठाकुरों के साथ चमार, पासी, डोम सभी अछूत साथ बैठकर भोजन करते है जैसी असंभव घटनाओं का चित्रण है। लेकिन ऐसी आदर्शवादी स्थिति उस समय संपूर्ण भारत में कहीं भी नहीं थी।

इन रचनाओं के सृजन के समय तक और आगे भी प्रेमचंद गांधीवाद में अति विश्वास . के शिकार रहे हैं। यह प्रभाव सन 1932 के बाद लिखे गए उनके उपन्यास ‘कर्मभूमि’ में नहीं दिखाई देता क्योंकि 1931 और 1932 के दौरान इंग्लैंड में हुई राउण्ड टेबुल कान्फ्रेन्स में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने दलितों के अलग प्रतिनिधित्व और पृथक निर्वाचन का सवाल उठाया था। जिसके खिलाफ गांधी जी ने येरवडा जेल में आमरण अनशन करके इसका विरोध किया। गांधीजी का कहना था “…. और अल्पसंख्यक लोग यदि पृथक निर्वाचन की मांग करें तो मैं कुछ हद तक उनकी बात समझ भी सकता हूँ | पर अछतों की ओर से यह जो मांग की जा रही है उसका मुझे अत्यंत दुःख है। जिस प्रकार सिख-सिख के नाते, मुसलमान-मुसलमान के नाते अथवा यूरोपियन्स के नाते संसार के अंत तक रहना चाहते हैं, उसी प्रकार क्या अछूत भी अनंतकाल तक अछूत ही बने रहना चाहते हैं। मैं इस बात को यहाँ स्पष्ट रूप से कह देना चाहता हूँ किं यदि और लोग मेरी सहायता न करें तो भी मैं अकेला अछूतों के पृथक निर्वाचन क्षेत्र का जी-जान से विरोध करूँगा।” (बाबासाहेब डॉ. आंबेडकरसंपूर्ण वाङ्मय)

महात्मा गांधी द्वारा अछूतों के पृथक निर्वाचन क्षेत्र का विरोध, महज विरोध के लिए नहीं था। इससे पहले मुसलमान, सिख,पारसी समुदाय को सांप्रदायिक निर्णय और विभाजन के आधार पर पृथक निर्वाचन का अधिकार प्राप्त हो चुका था। अब अछुतों के निर्वाचन को लेकर आमरण अनशन करने का गांधी अधिकार खो चुके थे। अछूतों की समस्या अल्पसंख्यकों की समस्या से भिन्न थी। हिंदू होते हुए भी सनातनी हिंदू धर्म ने इन्हें जन्मना अस्पृश्य बनाकर जीवन की बुनियादी सुविधाओं और अधिकारों से से वंचित किया। उन्हें अछूत बनाकर समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग कर रखा। डॉ. आंबेडकर ने राउण्ड टेबुलं कान्फ्रेंस में अछूतों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकार और राजनीतिक भागीदारी को निश्चित करने के लिए नौकरियों में तथा शिक्षा में आरक्षण और पृथक निर्वाचन क्षेत्र की माँग प्रस्तुत की थी। जिससे स्वतंत्र भारत में अछूतों को बराबरी का अधिकार मिले और स्वतंत्र भारत के नागरिक के रूप में समाज की मुख्यधारा में शामिल होने का अवसर मिल सके।

इनकी समस्याओं को सुलझाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नीतियाँ बनाई जाए और अछूतों को अस्पृश्यता के दारूण अपमान से छुटकारा मिल सके। जातिवादी समाजव्यवस्था और अछूतों के प्रति भेदभाव की नीति को खत्म करने का यह एक कारगर और वैज्ञानिक उपाय वे मानते थे। लेकिन गांधी जी अछूतों को यह अधिकार मिले इस पक्ष में नहीं थे, क्योंकि वे अछतों को हिंद संप्रदाय का ही एक हिस्सा मानते थे। उन्हें डर था कि अल्पसंख्यक और अछूतों को राजनीति में बराबरी की भागीदारी मिलने से हिंदू बहुसंख्यक, अल्पसंख्यकों में तब्दील हो जाएंगे। इस भय के कारण गांधी जी ने आमरण अनशन का सहारा लेकर डॉ. आंबेडकर के विरुद्ध जनमत. तैयार करके उन पर सारे भारतभर में दबावपूर्ण वातावरण तैयार किया गया। डॉ. आंबेडकर पर बहुत दबाव पड़ रहा था। अंग्रेजों के समर्थन से वे अपनी बात पर अडिग रह सकते थे। वे जातिवाद पर आधारित अछूत समाज के प्रति घृणा को अन्य सब बातों से ऊपर रख सकते थे। अगर वे ऐसा करते तो कौन न्यायप्रिय व्यक्ति उन्हें दोष दे सकता था। ‘ (मधु लिमये : डॉ. आंबेडकर एक चिंतन, पृष्ठ-43)

गांधीजी को बचाने का नैतिक दायित्व डॉ. आंबेडकर पर डाल दिया गया। गांधी जी । और उनके सहयोगियों की यह एक बहुत बड़ी राजनीतिक चाल थी। अथक प्रयासों के बाद अछूतों को मिले इस राजनीतिक अधिकार को वे छोड़ना नहीं चाहते थे लेकिन बढ़ते हुए प्रचंड दबाव और विरोध को देखते हुए 1932 में ‘पूना पैक्ट’ के अधीन डॉ. आंबेडकर ने पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ दिया। डॉ. आंबेडकर को इस बात से बहुत आश्चर्य हुआ कि गांधीजी अछूतों को मिल रहे पृथक निर्वाचक मंडल और । आरक्षित स्थानों के अधिकार से अतिशय रूष्ट थे। गांधी ने न केवल पृथक निर्वाचक मंडल का विरोध किया था बल्कि दलित वर्गों के लिए किसी भी प्रकार के विशेष प्रतिनिधित्व को भी अस्वीकार किया था। डॉ. आंबेडकर का मत था कि ‘अगर कोई ऐसा वर्ग है जिसे अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए विशेष राजनैतिक अधिकार देने की जरूरत है तो वह दलित वर्ग है। यह वर्ग अस्तित्व के कटु संघर्ष में अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता है। जिस धर्म के साथ उन्हें बाँध दिया गया है वह उन्हें सम्मानजनक स्थान देने के बजाय ऐसा कोढ़ी बना देता है जो कि सामान्य बातचीत के भी योग्य नहीं हैं। आर्थिक दृष्टि से भी यह वर्ग सवर्ण हिंदुओं पर पूरी तरह निर्भर है। हिंदू समाज ने इसके लिए अत्याचार से बचने के सारे रास्ते बंद कर रखे हैं।’ (मधु लिमये : डॉ. आंबेडकर एक चिंतन, पृष्ठ-42)

डॉ. आंबेडकर भारतीय स्वतंत्रता के पक्षधर और समर्थक थे और गांधीजी से वर्ण और जाति के अनेक मुद्दों पर सहमत न होते हुए भी गांधीजी के नेतृत्व के महत्व को . . समझते थे। इसीलिए अछुतों को मिल रहे अधिकारों को छोड़ते हए गांधीजी के प्राण बचाने के लिए उन्होंने ‘पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए। गांधीजी द्वारा ‘पूना पैक्ट’ के समय किए गये वायदे निभाए नहीं गये। धर्म और कथित हिंदू असंवेदनशीलता तथा निष्ठुरता को देखकर डॉ.आंबेडकर बहुत दुखी हुए और हिंदू धर्म में रहते हुए अछुतों की स्थिति में कोई सुधार होने अथवा हिंदु सवर्ण मानसिकता बदलने का कोई चिह्न दिखाई न देने के कारण 1935 में येवला कान्फ्रेंस में डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़ने की घोषणा की थी।

दलित चेतना आंदोलन द्वारा अभिव्यक्त सामाजिक समानता, स्वतंत्रता और सम्मान को हासिल करने की अछूत समाज की तीव्र इच्छा को महसूस करके स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं को अस्पृश्यता निवारण का कार्यक्रम राष्ट्रीय आंदोलन के एजेंडे पर रखना पड़ा। वैसे भी गांधी जी की यह चाह रही कि वे अछूतों के इकलौते नेता  कहलाए। उनका यह कथन इस बात की पुष्टी करता है ‘मैं जन्म से अछूत न होते हुए भी कर्म से अछूत हूँ। मेरा दावा है कि मैं अछूत समझे जाने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व कर सकता हूँ। स्पृश्य तथा अस्पृश्यता का भेद निर्माण होते ही उन भाइयों के उन्नति की आशा ही नहीं की जा सकती और इसलिए उनके पृथक निर्वाचन क्षेत्र का मैं जी-जान से विरोध कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि हिंदू धर्म से अस्पृश्यता का कलंक साफ धुल जाय। इसी के लिए मैं जी रहा हूँ।’

अस्पृश्यता को कलंक मानते हुए गांधीजी ने इसके निर्मूलन हेतु ऐसे कार्यक्रम चलाए जो हिंदूओं के मन में अछूतों के प्रति मात्र करूणा, सहानुभूति जगाने वाले थे। अछूतों. में अपने अस्तित्व और अस्मिता के प्रति चेतना जागृत करने वाले नहीं थे, बल्कि अछूत जाति आधारित जिन पेशों को करने के लिए बाध्य थे, उसे भाग्य समझकर फल की इच्छा मन में धरें बिना कर रहे थे। गांधीजी इस बारे में यह कहते हैं ‘कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, काम की ओर देखने की दृष्टि बदलनी चाहिए।’ लेकिन वास्तविकता तो कुछ और ही है। वास्तविकतः अछुत जिन पेशों को करने के लिए मजबूर किए जाते रहे हैं, उन्हीं विशिष्ट पेशों को करने की वजह से उनसे घृणा और तिरस्कार किया जाता है, लेकिन गांधीजी की दृष्टि में सभी पेशे एक समान है। जातिभेद और पेशों के संबंधों को हिंदू धर्म ने जन्मना मानकर, उसे बदलने के अधिकार से निम्न जातियों को वंचित किया है। लेकिन गांधीजी इस के बारे में सोचने के लिए मानो तैयार ही नहीं थे। इसलिए जातिप्रथा का विरोध भी उन्होंने नहीं किया।

प्रेमचंद की कहानियाँ ‘सदगति’ ‘दूध का दाम’ और ‘ठाकुर का कुआं’ पर गांधी जी के विचारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। चेतना का उत्सं इन कहानियों में नहीं है। बल्कि इसके स्थान पर स्थिति से समझौतापरक व्यवहार करने की ही अपेक्षा की गई है। जाति संघर्ष के अभाव में प्रेमचंद की रचना में अभिव्यक्त चेतना, जातिभेद नष्ट करने में बहुत कारगर नहीं हो पाती।

अछूत समस्या के प्रति प्रेमचंद का जुड़ाव और प्रतिबद्धता

कहानी पानी की समस्या को लेकर गहन चिंता में डूबे अछूत पति-पत्नी, जोखू और गंगी को लेकर शुरू होती है। जोखू और गंगी के अछूत होने के कारण ही पानी की समस्या से वे जूझ रहे है। ‘जोखू ने लोटा मुंह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आयी।’ “जोखू बोला – यह कैसा पानी है मारे बास के पिया नहीं जाता।” लम्बे समय से बीमार जोखू प्यास के मारे तड़प रहा था। गंगी प्रतिदिन शाम को पानी भर लिया करती थी। कुआं दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लायी तो उसमें बू बिल्कुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी! लोटा नाक से लगाया तो सचमुच बदबू थी। ज़रूर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा।’ गंगी के सामने पानी की। समस्या जैसे मुंह फाड़े खड़ी हो गई। वह अन्य गरीब सवर्ण महिलाओं जैसी सवर्णों के कुएँ से पानी नहीं भर सकती। अछूतों को सवर्णों के कुएँ पर चढ़ने का अधिकार ही नहीं था। मगर सवाल यह है कि दूसरा पानी आवे कहां से? यह हमें न भूलना चाहिए।’ (कुंछ विचार, 72-73) प्रेमचन्द ने यथार्थ को पहचाना और मुख्यतः उसे ही अभिव्यक्ति देना अपनी कहानियों का लक्ष्य समझा।

प्रेमचंद अछुतों की दयनीय आर्थिक दशा, उनकी निम्न सामाजिक प्रतिष्ठा और हर रोज अस्पृश्यता के कारण अपमान जनक स्थितियों से गुजरने की पीड़ा को अभिव्यक्ति दे रहे हैं। पानी के स्रोत ऊँची जातियों के अधिकार में होने और अछूतों के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार बरता जाने के कारण अछूत, ठाकुर-राजपूत या साहू के कुओं से पानी नहीं ले सकते। जोखू के शब्दों में अछूतों की वास्तविक स्थिति को प्रेमचंद अभिव्यक्त करते है : ‘ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा? दूर से लोग डाँट बताएँगे। ‘साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परन्तु वहाँ भी कौन पानी भरने देगा? और कोई कुआं गाँव में है नहीं।’ जोखू के इस बयान से यह साफ पता चलता है कि अछूतों की आर्थिक दशा ऐसी नहीं कि वे अपने लिए कुआं खुदवा सके, मजबूरन सवर्णों के आगे पानी के लिए गिडगिड़ाने के सिवाए उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। पानी जो मानव जीवन की नितांत जरूरत है, जिसके लिए एक इन्सान को बेबस होना पड़े, और मनुस्मृति के विधानों का पालन करने में सवर्ण समाज आज भी लज्जा महसूस न करें, अमानवीय अत्याचार करके जातिअंह की तुष्टि करें, यह शायद संपूर्ण संसार में धार्मिक कट्टरता का एक अकेला उदाहरण है।

गंगी इतना तो जानती थी कि खराब पानी पीने से बीमारी बढ़ जायेगी लेकिन अशिक्षा के कारण यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती है। बोली ‘यह पानी कैसे पियोगे? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं साफ पानी लाये देती हूँ।’ जोखू बहुत आश्चर्य में पड़ गया, ‘लेकिन दूसरा पानी कहां से आएगा’ गंगी कहती है “दो दो कुएँ हैं, एक लोटा पानी न भरने देंगे। जोखू ने उस सामान्य यथार्थ की ओर संकेत किया जिस पर सबसे पहले प्रेमचंद की नजर पड़ी थी हाथ पांव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से।’ ऐसा क्यों होगा? क्योंकि ‘ब्राह्मण देवता आशिर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे और साहुजी एक के पांच करने में लगे रहेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है? दर्द छोड़ें यहाँ तो मर भी जाए तो दुआर पर कोई झांकने तक नहीं आता। कंधा देना तो बड़ी बात है। जोखू के इस कथन में सदियों की पीड़ा की अभिव्यक्ति है। वह यह तो नहीं समझ पा रहा कि ऊँची जातियाँ अछूतों के प्रति इस हद तक असंवेदनशील क्यों हैं, उनके दुख में शामिल होने, उनकी गरीबी को हटाने या उनकी मृत्यु पर भी कोई क्यों नहीं साथ आता? प्रेमचंद ने जोखू व गंगी के द्वारा इन प्रश्नों को पहली बार रचना के माध्यम से उठाकर अछत जीवन की वास्तविकता से परिचित कराया है।

अछूतों की एक गहन समस्या ‘पानी’ की है जिसकी ओर सबसे प्रथम ध्यान आकर्षित किया है। स्वाधीनता के राजनीतिक एजेंडे पर छुआछूत की समस्या को प्रथम बार शामिल किया गया था क्योंकि डॉ. अम्बेडकर का दलित मुक्ति आंदोलन तब तक जोर पकड़ चुका • था। स्वयं गांधीजी भी इस समस्या से अवगत हो चुके थे फिर भी डॉ. आंबेडकर पर मानसिक और राजनीतिक दबाव डालकर पूना पैक्ट द्वारा, अछूतों को मिले पृथक निर्वाचन अधिकार से वंचित कर दिया। अछूतों के प्रति गहरी सहानुभूति रखने वाले गांधी जी ने अछूतों को ऊपर उठाने के डॉ. आंबेडकर के प्रयासों को जबरदस्त बाधा पहुँचाई। बाद में अछूतों के साथ सहभोजन और आंतरजातीय विवाह को अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम का मुख्य मुद्दा बनाने वाले गांधीजी अछूतों के प्रति अपनी निर्ममता और असंवेदनशीलता और ब्राह्मणवादी मानसिकता का प्रदर्शन कर चुके थे, क्योंकि जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था के वे कट्टर समर्थक रहे हैं। गांधीवादी विचारों का प्रभाव तत्कालीन लेखकों की रचनाओं पर पड़ना स्वाभाविक था, क्योंकि राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए छेड़े गए देशव्यापी संघर्ष के गांधी जी नेता थे। इस प्रभाव को हम प्रेमचंद, निराला, जैसे लेखकों की रचनाओं पर स्पष्ट रूप से देख  सकते हैं।

जातिप्रथा और ऊँच-नीच भेदभाव पर कमजोर सी प्रतिक्रिया गंगी के मार्फत प्रेमचंद करते हैं, गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा – ‘हम क्यों नीच हैं? और ये लोग क्यों ऊँचे है?. गंगी का गुस्सा केवल शब्दों में अभिव्यक्त होता है, यथार्थ में गंगी इनका मुकाबला नहीं कर पाती और अंततः ठाकुर के कुएं से गंगी का संघर्ष किए बिना भागना. सीधे-सीधे सवर्ण आधिपत्य के सामने समर्पण दर्शाता है। क्योंकि ‘ठाकुर का कुआँ’ कहानी गंगी की ठाकुर के कुएँ से पानी लेने की कोशिश करने की घटना के इर्द गिर्द ही घुमती है। “गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा” प्रेमचंद का यह कथन जातिप्रथा से उदभूत छुआछूत की घिनौनी परंपरा के खिलाफ गंगी के मन में उठ रहे गुस्से को दर्शाती है, इसलिए अगला प्रश्न भी गंगी के द्वारा उठाया गया है ‘हम क्यों नीच हैं? और ये लोग क्यों ऊँचे हैं?’ जातिप्रथा के मूल कारणों पर कहीं न कहीं यहाँ चोट करने का प्रयास तो है लेकिन जिस धर्म के अधीन इस भेदभाव को मान्यता प्राप्त है उसके विरोध में लेखक ने चुप्पी साध ली है।

धार्मिक आडंबर पर गंगी ने चोट की है ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं। यहाँ तो जितने हैं, एक से एक छटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमें ये करें। यहाँ यदि प्रेमचंद ब्राह्मणवाद और हिंदू धर्म की भी आलोचना करते तो कहानी में संघर्ष का तत्व उभर कर आता। गंगी के इस कथन में यह सत्य छिपा है कि तथाकथित ऊँची जातिवालों को नीचता के किसी भी काम को करने मे शर्म नहीं महसूस होती। जिस वर्ग के पास सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सत्ता होगी, उन्हें ऐसे कार्यों से कोई भी परावृत्त नहीं कर सकता, ना ही रोक सकता है, क्योंकि इनके द्वारा किए गये अपराध को अपराध नहीं, बल्कि जन्मजात अधिकार माना जाता है।

न्याय, धर्म, नीतिमूल्यों की सुरक्षा करने वाली संस्थाओं पर भी इन्हीं का ही वर्चस्व है। केवल कथित ऊँची जाति होने भर से इन्हें दूसरों पर अन्याय, अत्याचार करने और उनका शोषण करने का अधिकार प्राप्त है जिसे आज भी हम देखते हैं कि कथित ऊँची जाति के बड़े से बड़े अपराधी को कोई भी न्याय संस्था और राज्य जिसमें पुलिस, सरकारी तंत्र, कानूनी व्यवस्था सजा देने में कामयाब नहीं हो पाती। कुम्हेर का हत्याकांड इसका जीवंत उदाहरण है। जिसमें सारी दलित बस्ति को उसमें रह रहे दलित स्त्री , पुरूष, बच्चों सहित आग लगाकर राख के ढेर में तब्दील कर दिया था। आंध्रप्रदेश के चुंदुर में हुई दलितों की सामुहिक हत्याओं के लिए जिम्मेदार सवर्ण वर्ग काननी शिकंजे से बाहर आज भी आज़ाद घूम रहा है, क्योंकि अछूतों की हत्याओं के समय चुंदुर की पुलिस सवर्णों के साथ ही हत्या के स्थान पर मौजूद थी। वहाँ की पुलिस, राजनीतिक सत्ता और न्याय संस्थाओं ने सवर्ण अत्याचारियों को बचाने में पूरा कमाल दिखा दिया।

न्याय उन्हें नहीं मिला जो असहाय और अछूत थे। ‘ठाकुर का कुआं’ में तत्कालीन युग के सवर्ण वर्ग और ब्रिटिश तंत्र के अंतरंग संबंधों के इस घृणित चरित्र को प्रेमचंद ने ईमानदारी से उघाडा है। “अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की एक भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहूजी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है किस बात में हैं हमसे ऊँचे?” गंगी द्वारा उठाए गये सवाल तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्थितियों की वास्तविकता पर एक करारी चोट है। क्या ब्रिटिशकालीन शासन व्यवस्था भी ब्राह्मणवाद के सामने इतनी पंगु थी कि न्याय के नाम पर वहाँ न्याय का मखौल उड़ाया जाता था? अथवा सामंतवादियों द्वारा ब्रिटिश शासन व्यवस्था के समर्थन के बदले उन्हें मिली हुई सुरक्षा थी। लेकिन गरीब, अछूत, मजदूर और किसान पर तो पुलिस और ब्रिटिश शासन का मानो सदैव कहर टूट पड़ता था।

लगान न भरने पर खेत, घर बार निलाम हो जाते और अछूतों को बेगार न करने पर जान तक गंवानी पडती जैसे “मंहगू को इतना मारा था कि महीनों खून थूकता रहा। और इसमें पुलिस बढ़चढकर पूंजीपति और साहुकारों, जमींदरों का साथ देती थी। तबाजुआघर चलाते पंडित, चोरी की गई भेड डकारने वाले ठांकर और घी में तेल की मिलावट करके बेचने वाले साहू को धोखाधड़ी अन्याय और अपराध करने पर भी, सजा न होने की छुट कसे मिलती रहीं है? इन सभी सवालों के जवाब हमें धर्म और जातियों के कथित वर्चस्व के कारण सत्ताधारियों तथा न्याय व्यवस्था द्वारा अपनाई दोगली नीतियों में मिलेंगे। भवरीबाई पर सवर्ण पुरूषों द्वारा किए गए बलात्कार की घटना का निषेध अंतर्राष्ट्रीय मंच से सारे विश्व की महिलाओं ने एक साथ मिलकर किया था। भवरीबाई की अस्मिता की सांझी लड़ाई देश के महिला आंदोलन ने लड़ी थी। लेकिन राजस्थान की न्याय पालिका के एक पुरूष जज ने धर्म-जाति-वर्णवादी और नारी विरोधी निर्णय देकर भंवरीबाई पर हुए अत्याचार के लिए न्याय के बदले फिर अन्याय किया। यह अन्यायपूर्ण और जातिवादी निर्णय देते हुए कहा कि ‘सवर्ण पुरुष किसी दलित स्त्री पर बलात्कार नहीं कर सकते, यह धर्मसंगत नहीं है।

इस जाति अंहकार और पुरूष अहंकार से भरे जज के निर्णय ने देश की दलित महिलाओं को फिर एक बार न्यायपालिका के भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण न्याय से वंचित कर दिया। यह इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर रहे भारत में दलित महिला पर हुए जघन्य अत्याचार के प्रति न्यायपालिका द्वारा दिया गया भेदभावपूर्ण निर्णय था। अछूतों के प्रति शासनतंत्र, न्यायपालिका और पुलिस कितनी असंवेदनशील और जातिवादी है प्रेमचंद की यह कहानी स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि में सामाजिक आर्थिक, धार्मिक स्थिति की सच्चाई को हमारे समक्ष खोल देती है। गंगी सोचती हुई कुएँ पर पहुँची, कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई। तो गंगी की छाती धक-धक करने लगी। कहीं कोई देख ले तो गज़ब हो जाये। ‘गंगी जानती है कि उसे किसी ने देख लिया तो उसका बचना मुश्किल है।

एक घड़े पानी की कीमत जान गंवाकर चुकानी पड़ सकती है। उस स्थिति की कोई सवर्ण स्त्री क्या कल्पना कर सकती है? कि पानी जो जीवन की जरूरत है, उसके लिए अछूतों को इस कदर बेबसी का सामना क्यों करना पड़े? गंगी अभी कुएँ के पास तक भी नहीं पहुंची थी, पेड़ों की आड़ में छुपकर वह ठाकुर का आंगन खाली हो जाने का इंतजार करने लगी। इसी समय दो स्त्रियां आकर पानी भरने लगी।’ जो आपस में अपना दुख भी बांट रही थी एक स्त्री ने दूसरी से कहा ‘खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं हैं। हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे-मरदों को जलन होती है। हां, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस हुकुम चला दिया कि पानी लाओ, जैसे हम लौंडियां ही तो हैं।’ दूसरी स्त्री ने पहली की व्यथा सुनकर, स्त्री की सामाजिक स्थिति को और अधिक स्पष्ट किया। ‘लौडिया नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी कपड़ा नहीं पाती? दस-पांच रूपये भी छीन झपटकर ले ही लेती हो और लौंडिया कैसी होती है?’ पुरूषसत्तात्मक समाज में स्त्री की दोय्यम स्थिति पर यहाँ प्रकाश डाला गया है।

तथाकथित ऊँची जातियों में स्त्री अस्तित्व को नकारकर उसे केवल एक दासी अर्थात् गुलाम ही माना जाता है। रोटी, कपडा और आश्रय देने भर से स्त्री को पुरूषों के अधीन मानने जैसी सामंतवादी मान्यता हमारे समाज में आज भी मौजूद है। जो स्त्री शोषण को मान्यता देकर उसके व्यक्तित्व को नकारती है। 

‘गंगी पेड़ की आड में छिपी हुई यह सब देख व सुन रही थी। दोनों पानी भरकर चली गयीं तो गंगी पेड़ की छाया से निकली और कुएँ के जगत के पास आयी, बेफिक्रे चले गये थे। ठाकुर भी दरवाज़ा बंद करके अंदर आंगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणीक सुख की सांस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ।’ गंगी को इतनी सावधानी की जरूरत इसलिए पड़ रही थी क्यों कि अछूत स्त्री ठाकुर या किसी सवर्ण के कुएँ पर चढ़कर पानी भरने का साहस कर रही थी। किसी अछूत द्वारा नियम को तोड़ने पर हिंदू धर्म में इस अपराध के लिए बड़ी सख्त सजा का प्रावधान है। मनु स्मृति द्वारा निर्धारित जाति के कानून बड़े कठिन थे। गंगी की स्थिति उस राजकमार से भी बदतर थी जो ‘अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बुझकर न गया होगा।’ ‘उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दाएं-बाएँ चौकन्नी दृष्टि से देखा, जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सूराख कर रहा हो। मगर इस समय पकड़ी गयी तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती भर उम्मीद नहीं। अंत में देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया।’

गंगी यह जानते हुए भी कि पकड़ी जाने पर उसे, उसकी इस धष्टता के लिए माफ नहीं किया जायेगा बल्कि जातिप्रथा की परंपरा को तोड़ने जैसा अपराध करने और परंपरागत हिंदू धर्म की रूढियाँ, सवर्णों की सत्ता, वर्चस्व और श्रेष्ठत्व, ब्राह्मणवाद जैसी शक्तियों के खिलाफ जाने के कारण कठोर से कठोर दंड दिया जा सकता था। गंगी की पहल चाहे मजबूरी में ही क्यों न की गई है, लेकिन जातिव्यवस्था के खिलाफ जाकर पानी लेने का साहस था। घड़े को पानी में डालकर उसने बहुत ही आहिस्ते से उसे ऊपर खींचा जिससे कोई आवाज न हो और ठाकुर या अन्य कोई घर का सदस्य जाग न जाए। गंगी के इस संकल्प और मनोभाव को प्रेमचंद इन शब्दों में अभिव्यक्त करते है, घड़े ने पानी में गोता लगाया। बहुत ही अहिस्ता। ज़रा भी आवाज न हुई। गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी जल्दी मारे। घड़ा कुएँ के मुंह तक पहुंचा। कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से उसे खींच न सकता था।’

एक घड़े पानी के लिए गंगी जिस मानसिक व जातिगत दबाव को झेल रही थी और साथ ही पकड़े जाने पर उसके सामने आने वाली स्थिति से भी अवगत थी। इसलिए वह रस्सी को तेजी से खीचती चली गई शायद कोई पहलवान ही घड़े को इतनी तेजी से खींच सकता था। लेकिन गंगी द्वारा ली गई सावधानी,दिखाई गई तेजी और दृढ़ संकल्प का नतीजा कुछ नहीं निकला। क्योंकि ज्योंही ‘गंगी झकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया। प्रेमचंद ने लिखा है ‘शेर का मुंह इससे अधिक भयानक न होगा।’ गंगी इस स्थिति से जूझने के लिए तैयार नहीं थी। वह तो चोरी छीपे एक घड़ा पानी लेकर चुपचाप चले जाना चाहती थी, इसीलिए उसने देर तक छीपकर सभी के चले जाने का इंतजार भी किया था। अब तक बंधा धैर्य टूट गया और ‘गंगी के हाथ से रस्सी छूट गयी। रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा। और कई क्षण तक पानी में हलकोरे की आवाजें सुनायी देती रही।

 गंगी में इतना साहस कहां से आता कि वह धर्म का रक्षक बनकर अपनी पूरी करता के साथ जातिप्रथा और अस्पृश्यता को बनाए रखने के लिए खड़े ठाकुर का डटकर मुकाबला करें। और प्रेमचंद स्वयं भी दलित अस्मिता आंदोलन से उत्पन्न दलित चेतना के प्रभाव को गंगी द्वारा दिखाना नहीं चाहते थे। दलित संघर्ष चेतना का प्रभाव उस समय गाँवों और कस्बों तक पहुंचा भी नहीं था। भले ही राष्ट्रीय एजेंडे पर जातिप्रथा व अस्पृश्यता निर्मूलन को महत्व दिया जाने लगा था। इसलिए जाति संघर्ष के प्रति गंगी की कोई प्रतिबद्धता नहीं है। वह मानवीय अधिकारों की लड़ाई लड़ने से पहले ही भाग खड़ी हुई। संगठित होकर संघर्ष की चेतना के अभाव में यथास्थिति में लौटने के अलावा गंगी के पास कोई दूसरा पर्याय नहीं था। ‘ठाकुर कौन है, कौन है’ पुकारते हुए कुएँ की तरफ जा रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी।’ ‘घर पहुंचकर गंगी ने देखा कि जोखू लोटा मुंह से लगाये वही मैला गंदा पानी पी रहा है।

पानी के अथाह भंडार जो कि कुदरती संपत्ति है, जिस पर कथित ऊँची जाति का स्वामित्व हो और अछूत पानी की एक बूंद लेने का हकदार नहीं हो। यह तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक स्थिति की वास्तविकता को उजागर करती है। एक वर्ग को सत्ता, संपति और श्रेष्ठत्व बहाल करके कथित निम्न वर्ग को अभाव,  अपमान, को झेलते और अवहेलना को सहते रहने का पर्याय बनाए रखना कहां का न्याय है? जाति और वर्ण व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाती यह कहानी जितनी तत्कालीन समय में प्रांसगिक थी आज के संदर्भ में भी उतनी ही प्रासंगिक है।

स्त्री के वर्गगत और जातिगत शोषण का चित्रण

‘ठाकुर का कुआं’ में वर्णीत घटनाक्रम में एक छोटा प्रसंग आता है, जिसमें गंगी पेड़ों के पीछे छिपकर ठाकुर के कुएँ से एक घड़ा पानी लेने के लिए योग्य समय के इंतजार में हैं। इतने में वह देखती है कि दो स्त्रियां ठाकर के कएँ पर चढकर पानी खींच रही थी। वे आपस में स्त्री जाति के प्रति पुरूषों के अन्याय पूर्ण रवैये पर गुस्सा व्यक्त कर रहीं थीं। वे दोनों स्त्रियाँ बिना किसी डर या हिचकिचाहट के कुएँ पर चढ़कर पानी खींचने लगती हैं। यह स्थिति दर्शाती है कि वे सवर्ण अर्थात् स्पृश्य (जिनका स्पर्श अपवित्र नहीं) है, और उन्हें पूरा अधिकार है कि वे बेझिझक, बेरोकटोक और अविरोध पानी लेने की हकदार है। उनकी शिकायत पुरुष प्रधान व्यवस्था से है। जिसमें उनकी स्थिति एक लौंडी अर्थात् दासी या गुलाम की श्रेणी से बढ़कर नहीं। एक स्त्री अपने गुस्से को अभिव्यक्त करती है, ‘जब ताजा पानी पीने का मन किया तो बस हुकुम चला दिया कि पानी लाओ, जैसे हम लौंडियां ही तो है।’ स्त्री इस प्रकार के रवैये से काफी हद तक दुखी है, अपमानित भी महसूस करती है। लेकिन विरोध में कुछ कहने की कोशिश नहीं करती है। ‘हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।’ स्त्री द्वारा कहा गया यह ईमानदार कथन संपूर्ण सवर्ण/स्पृश्य पुरूष वर्ग पर तीखी चोंट है।

जिस प्रकार मालिक अपने नौकर से, दिए जाने वाले पारिश्रमिक (मजदूरी) के बदले में ज्यादा से ज्यादा श्रम लेना चाहता है। उसी प्रकार विवाह संस्था ने बहाल किया गया मालिकाना हक पुरूष अपनी स्त्री पर दर्शाते हैं। सामंतवादी और पूंजीवादी मानसिकता यहाँ पूरी तरह से हावी है, जिससे दोहरे शोषण की शिकार स्त्री, प्रतिरोध में सिवाय बडबडा ने के कुछ नहीं कर सकती। गुलाम जैसी स्थिति में रहने के लिए मजबूर कथित स्पृश्य स्त्री जीवन की यह त्रासदी है। समाज, परिवार, परंपरा, धर्म व सत्ता के झूठे नीति मूल्यों ने उसके अस्तित्व, अस्मिता और अधिकार को छीना है। स्त्री होने के कारण शोषण और आर्थिक शोषण के दोहरे मार को वह बराबर झेलती है। यही इस सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई है। प्रेमचंद ने इस प्रसंग को नाटकीय ढंग से कथानक में जोड़ा है, जिसके पीछे शायद उद्देश्य यही है कि गंगी के शोषण की तीव्रता को पाठक वर्ग समझ सकें। गंगी। अस्पृश्य वर्ग की स्त्री है और उसका कएँ को छूना भयंकर अपराध में शामिल है। यहाँ स्पृश्य स्त्रियों की और गंगी की स्थिति में जाति आधारित अधिकारों का फर्क हैं। गंगी इसलिए अपमानबोध, असुरक्षितता, अनिश्चितता, जातिगत उत्पीड़न की शिकार है, उसके इंसान होने को नकारकर उसके मानवीय अधिकारों का हनन हो रहा है, क्योंकि वह अछुत है। जातिव्यवस्था चूँकि जन्मना ही जाति तय करती है इसलिए गंगी का अछूत होना भी तय हो गया है, अब गंगी को यह अधिकार नहीं कि वह स्पृश्य जातियों के साथ उठे बैठे, उनके घरों के अंदर प्रवेश करे, पानी के स्रोतों को छुए क्योंकि उसके छूने से प्रत्येक वस्तु अपवित्र हो जाएगी। ब्राह्मणवाद की नजर में तो अछुत जानवरों से भी निम्म है। जहाँ जानवर पानी पी सकते हैं उस स्रोत को अछूत, छू भी नहीं सकते। हिंदू धर्म ग्रंथों में, स्मृतियों-पुराणों में इसी आधार पर सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक अधिकारों का बटवारा स्पष्ट रूप से किया गया है।

मनुस्मृति जो कि हिंदू धर्म का विधान मानी जाती है, में शूद्र, अतिशूद्र और स्त्री के जन्म के साथ उसके अधिकार, व्यवहार और नीति मूल्य निर्धारित किए गए हैं। वर्ष 1921-22 में महात्मा गांधी भी जाति के जन्मना तय होने से सहमत थे। उनकी मान्यता थी कि ‘जाति-प्रथा एक प्राकृतिक विधान है। भारतवर्ष में उसे धार्मिक रूप दिया गया है। अन्य देशों में जहाँ जाति-व्यवस्था की उपयोगिता नहीं समझी गई, वहाँ की सामाजिक व्यवस्था बिखरी अवस्था में है और इसी कमी के फलस्वरूप वे जातिव्यवस्था से होने वाले लाभ प्राप्त नहीं कर सकते, जब कि भारत में वह मौजूद हैं। मेरे यही विचार हैं और मैं उनके विरूद्ध हूँ जो वर्णव्यवस्था को तोड़ना चाहते हैं।’ (बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वाङमय खंड-16 पृ.248) जातिप्रथा एक प्राकृतिक विधान है, गांधीजी के इस भ्रमित करने वाले तर्क का विरोध करते हुए डॉ. आंबेडकर ने ‘जाति प्रथा शासकों, शोषकों और सत्ताधारियों द्वारा निर्मित अर्थात मानव निर्मित कानूनी विधान है।

जैसा वैज्ञानिक तर्क देकर कहा है ‘जाति-व्यवस्था के पक्ष में श्री गांधी द्वारा दिया गया तर्क बहुत ही आश्चर्यजनक और ऐतिहासिक रूप में असत्य है। जिसने मनुस्मृति पढ़ी है, वह यह नहीं कह सकता है कि जाति-प्रथा प्राकृतिक है। मनुस्मृति क्या कहती है? परंतु जिसे मनुस्मृति के विषय मैं तनिक भी जानकारी है, जाति व्यवस्था को वह प्राकृतिक व्यवस्था नहीं मान सकता।

मनुस्मृति में प्रकट होता है कि जाति विधान हिंदुओं का कानूनी विधान है जिसे बलपूर्वक चलाया जाता रहा है। आज तक यह जिन कारणों से बचा हुआ है वे हैं,

  • जनसाधारण को शस्त्रं ग्रहण करने से वंचित रखना,
  • जनसाधारण को शिक्षा के . अधिकार से वंचित रखना,
  • जनसाधारण को संपत्ति के अधिकार से वंचित करना।

जाति-प्रथा प्राकृतिक नहीं है इसे शासकों ने शोषितों पर थोपा है।’ हजारों वर्षों से चली आ रही छआछत की परंपरा ने अछुत वर्ग को न केवल मूलभूत मानव अधिकारों से वंचित किया बल्कि इंसान के स्तर से भी नीचे गिरा दिया। इसी से ‘ठाकुर का कुआं केवल दलित जीवन की स्थिति को बयान करने वाली ‘एक घटना मात्र’ बन कर रह गई है। साहित्य सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम. है, जो सामाजिक समानता स्थापना के संघर्षशील आंदोलन का रूप ले सकता है। लेकिन जातिभेद निर्मूलन के क्रांतिकारी दर्शन के अभाव में एक संवेदनशील कहानी विचार के स्तर पर बदलाव लाने में सफल नहीं हो सकी। गंगी का कुएं की जगत से कूदकर भागना, संघर्ष करने की, अपेक्षा उसके यथास्थिति में विश्वास होने और  उसी की ओर लौटने का संकेत देती है। जोखू का वही गंदा, मैला पानी पीना भी इसी मूढ़ता, जड़ता और पलायनवादी दृष्टि को स्पष्ट करता है।

प्रेमचंद के ‘ठाकुर का कुआं’ पर डॉ. आंबेडकर के विचारों का प्रभाव दिखाई नहीं देंता। ‘चवदार तालाब’ के मानव अधिकारों के संघर्ष का ऐतिहासिक महत्व है। हजारों वर्षों की गलामी से मुक्ति के लिए उभरा यह वंचितों, शोषितों का अस्मिता का स्वर था। जिसकी गूंज प्रेमचंद जैसे प्रगतिशील, संवेदनशील और सजग रचनाकार तक पहुंची नहीं हो, ऐसा हो नहीं सकता। अछूतों के इस प्रथम संघर्ष को कोई रचनाकार अनदेखा नहीं कर सकता. था। लेकिन गांधीवाद के प्रभाव ने रचनाकारों को अस्पृश्यता की समस्या को गांधीवादी दृष्टि से ही देखने पर मजबूर किया है। इसीलिए ‘ठाकुर का कुआं’ में जोखू और गंगी अपनी अस्मिता और मानव अधिकारों की लड़ाई लड़ने । के लिए प्रतिबद्ध नहीं दिखतें। बल्कि जातिवादी प्रवृत्तियों के समक्ष, ब्राह्मणवाद के समक्ष समर्पण करते हुए दिखते हैं। क्योंकि गांधीवाद, आदर्शवाद और समर्पण सिखाता है। जन्मना प्राप्त स्थिति को बिना विरोध पूर्वजन्म के कर्मफल के रूप में स्वीकार करते हुए, भाग्य मानकर तीन कथित उच्च वर्गों की सेवा करने में जीवन की सफलता है. जैसी सीख देती है। जोखू और गंगी जातिवादी कट्टर प्रवृत्तियों के आगे झुकते हए अपनी यथास्थिति में ही लौटने पर मजबूर दिखाए गए हैं। गंगी कुछ समय के लिए जातिव्यवस्था और शोषण के विरोध में खड़े होने का धैर्य जुटा पाती हैं। लेकिन ठाकुर के रूप में दमनकारी जातिवादी सत्ता के रूप में खड़े देखकर पलायन करती है। यथास्थिति में लौटकर जोखू और गंगी अस्पृश्यता की मार को झेलने के लिए विवश हो जाते हैं।

प्रेमचंद यदि गांधीवाद के स्थान पर आंबेडकरवाद को ग्रहण करते तो कहानी का अंत ‘. वैसा नहीं होता, जैसा ‘ठाकुर का कुआं’ का हुआ है। गंगी को ठाकुर का डटकर विरोध करते हुए, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष, करते हुए चित्रित किया गया होता और जोखू को गंदा-मैलापानी पीते नहीं दिखाया होता। केवल समस्या का निर्देश करना मात्र ही अस्पृश्यता को समाप्त करने का कारगर उपाय नहीं हैं, इसे शायद प्रेमचंद ने गांधीवाद के प्रभाव में समझने में देर कर दी थी। इसलिए ‘ठाकर का कुआं’ कहानी केवलं दलित जीवन की स्थिति को बयान करने वाली एक घटना मात्र बनकर रह गई हैं। साहित्य सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम है, जिसकी समर्थ अभिव्यक्ति समानतामूलक समाज की स्थापना का एक संघर्षशील आंदोलन बन सकती है। लेकिन क्रांतिकारी दर्शन को आत्मसात करके उसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति के अभाव में एक संवेदनशील रचना विचार के स्तर पर बदलाव लाने के प्रयास में असफल हो गई है। .

सारांश

आपने ‘ठाकुर का कुआं’ कहानी के पाठ का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया है। इस पाठ को पढ़ने के बाद आपके सामने कहानी के माध्यम से उठाई गई सामाजिक समस्या का एक संपूर्ण चित्र उभर आया होगा। प्रेमचंद ने तत्कालीन समय में भारतीय समाज की ज्वलंत समस्या जातिप्रथा से उत्पन्न छुआछूत जैसी अपमानजनक, मानवता . विरोधी, जघन्य परंपरा की वास्तविकता को उघाड़ा है। जातिप्रथा को प्रश्रय देने वाली सामंति व्यवस्था की क्रूरता को चित्रित किया है। जोखू और गंगी अछुत है, इसलिए उन्हें सवर्णों के कुएँ से पानी लेने का अधिकार नहीं। अछूत जीवन की मूलभूत जरूरतों के लिए संवर्ण या तथाकथित उच्च मानी गई जातियों पर निर्भर है। सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक जगहों में उनकी उपस्थिति निषेधाई मानी गई तथा संपत्ति प्राप्त करने व रखने के भी ये अधिकारी नहीं। आर्थिक उत्पादन की संपूर्ण व्यवस्था में इनकी भागीदारी केवल बेगारी करने वाले मजदूर मात्र की है। उत्पादन के साधनों पर अधिकार के अभाव में अछूत गरीबी की दयनीय स्थिति में पानी, अन्न से वंचित जीवन जीने के लिए बाध्य है।

गंगी और जोखू के कथन में उनकी इस स्थिति की वास्तविकता चित्रित हई है। जाति के श्रेष्ठ और कनिष्ठ होने के आधार पर . सामाजिक सम्मान या अपमान, आर्थिक संपन्नता या अभाव, धार्मिक अधिकार या वंचना, राजनीतिक सत्ता अथवा गुलामी, मानवअधिकारों की प्राप्ति या वंचित होना निश्चित है। अछूत जोखू को पीने का पानी हासिल न होना तथा पानी की तलाश में गंगी का भयग्रस्त, शंकित, अपमानित स्थिति से गुजरना दलित जीवन की त्रासदी को अभिव्यक्ति देता है। ठाकुर के कुएँ से दो सवर्ण महिलाओं का बेहिचक, अधिकार पूर्ण विश्वास के साथ चढ़कर पानी भरना, और गंगी का पेड़ों की ओट में छिपकर ठाकुर के कुएँ पर चढ़कर पानी लेने के लिए घंटो इंतजार करना। अछूतों की सामाजिक स्थिति को स्पष्टतः बयान करता है। जातिप्रथा का उल्लंघन करने पर एक अछूत को मिलने वाले दंड की गंगी को जानकारी हैं। हाथ-पांव तोड़ने से लेकर मृत्युदंड तक की सजा मिल सकती है। उसका यह अपराध दंडनीय है, जबकि पंडित का अपने घर को जुआं घर बनाने, ठाकुर द्वारा गरीब की भेड़ चुराकर खा जाने और साह द्वारा घी में तेल की मिलावट करने जैसे अपराधों को अपराध नहीं माना जाता। बल्कि सवर्ण जातियों को जाति श्रेष्ठत्व के ऐवज में मिले अधिकारों के रूप में मान्यता ही मिली है। यह एक ऐसे समाज का यथार्थ चित्र है, जिसमें इंसान अंधेरे विवर में ढकेल दिया गया है, जहाँ से ऊपर उठने का कोई रास्ता नजर नहीं आता।

प्रेमचंदकालीन अस्पृश्यता की समस्या को चौपन्न वर्षों की आजादी नष्ट नहीं कर पाई है। आज भी अछूत अस्पृश्यता के कारण अपमानबोध से ग्रसित हैं। गरीबी की स्थिति में अभावपूर्ण जीवन जीने के लिए विवश है। पानी के स्रोत अभी भी इनके छूने से अपवित्र होते हैं, यह तथाकथित उच्च वर्ग की मानसिकता में जस का तस बैठा हुआ है। चार वर्ष की अछूत धनम की आंख आज भी, उसी के गुरु द्वारा फोड़ दी जाती है, जब अछूत बालिका प्यास बुझाने के लिए सवर्णों के लिए रखे गए मटके से पानी पीना चाहती है।

प्रश्न

  1. अछूत गंगी को ‘ठाकुर के कुएँ से पानी लेने का अधिकार क्यों नहीं है? गंगी का अछूत होना व उसके अधिकारों का निर्धारण किस दर्शन का परिणाम है?
  2. हिंदू धर्म द्वारा वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा की निर्मिति और उच्च निम्न के भेदभाव द्वारा अस्पृश्यता का समर्थन क्या अछतों की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति को निर्धारित करती है?
  3. भारतीय संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को बराबरी का सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, और शैक्षिणक अधिकार देता है। फिर भी दलित-अछूत मुलभूत मानवीय अधिकारों से क्यों वंचित है?
  4. गंगी का चरित्र चित्रण कीजिए।
  5. ‘प्रेमचंद ने अस्पृश्यता की समस्या को गहराई से अभिव्यक्त किया है, लेकिन इसे खत्म किए जाने के लिए संघर्ष का कोई संकेत नहीं दे पाए हैं इस कथन की विस्तार से चर्चा कीजिए।
  6. अस्पृश्यता के कारण अमानवीय शोषण को झेल रहे अछूतों को इस स्थिति से मुक्त करने के लिए किस प्रकार के सामुहिक प्रयासों की आवश्यकता है?
  7. एक अछूत बच्ची ‘धनम’ को पानी के घड़े को छूने के अपराध के कारण उसके शिक्षक की मार से एक आँख गंवानी पड़ी। इस अमानुषिक घटना पर 200-250 शब्दों में अपने विचार प्रकट कीजिए।

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